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शीतोष्णीय
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६०. तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। धुताचार* वाला महर्षि
वर्तमान का अनुपश्यी हो (कर्म-शरीर) का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता
६१. साधक के लिए क्या अरति और क्या आनन्द ? वह अरति और आनन्द
के विकल्प को ग्रहण न करे। हास्य आदि सब प्रमादों को त्याग, इन्द्रिय-विजय और मन-वचन-काया का संवरण कर परिव्रजन करे।
६२. पुरुष ! तू ही मेरा मित्र है । फिर बाहर मित्र क्यों खोजता' है ?
६३. जिसे तुम परम तत्त्व के प्रति लगा हुआ जानते हो, उसे [कामनाओं से दूर
लगा हुआ जानो। जिसे तुम [कामनाओं से] दूर लगा हुआ जानते हो, उसे तुम परम तत्त्व के प्रति लगा हुआ जानो।
६४. पुरुष ! आत्मा का ही निग्रह कर । इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो जाएगा।"
६५. पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर।
६६. जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु [अथवा कामनाओं] को
तर जाता है।
६७. सत्य का साधक धर्म को स्वीकार कर श्रेय का साक्षात् कर लेता है।
६८. राग और द्वेष के अधीन होकर मनुष्य वर्तमान जीवन के लिए तथा वंदना,
सम्मान और पूजा के लिए [चेष्टा करता है । कुछ साधक भी उनके लिए प्रमाद करते हैं।
४ देखें, अध्ययन ६, सूत्र २४ ।। +कल्पिक अनुवाद-तू ही तेरा मित्र है, फिर बाहरी मित्र को क्यों चाहता है ? + वैकल्पिक अनुवाद-जिसे तुम परम तत्त्व के प्रति लगा हुआ जानते हो, उसे दूर [लक्ष्य में] संलग्न जानो। जिसे तुम दूर [लक्ष्य में] संलग्न जानते हो, उसे तुम परम तत्व के प्रति लगा हुआ जानो। वैकल्पिक अनुवाद--मनुष्य इहलौकिक और पारलौकिक जीवन की वंदना, सम्मान और पूजा के लिए [चेष्टा करता है] । कुछ साधक भी उसके लिए प्रमाद करते हैं।
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