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शीतोष्णीय
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तृतीय उद्देशक
अध्यात्म ५१. मुनि आत्मा के स्वरूप को जानकर [प्रमाद न करे] |"
५२. तू बाह्य-जगत् को अपनी आत्मा के समान देख ।
५३. [सब जीवों को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है; ] इसलिए मुनि जीवों का
स्वयं हनन न करे और दूसरों से न करवाए।
५४. जो परस्पर एक-दूसरे की आशंका से या दूसरे के देखते हुए पाप-कर्म नहीं
करता, क्या उस [पाप-कर्म नहीं करने का कारण ज्ञानी होना है ? १०
५५. पुरुष जीवन में समता का आचरण कर आत्मा को प्रसन्न करे ।
५६. ज्ञानी पुरुष सर्वोच्च परम सत्य (आत्मोपलब्धि) के प्रति क्षणभर भी प्रमाद
न करे। वह सदा इन्द्रियजयी और पराक्रमशील रहे । परिमित भोजन से जीवन-यात्रा चलाए।
५७. पुरुष क्षुद्र या महान् सभी प्रकार के रूपों (पदार्थों) के प्रति वैराग्य धारण
करे।
५८. आगति और गति (संसार-भ्रमण) को जानकर जो [राग और द्वेष-इन]
दोनों अंतों से दूर रहता है, वह लोक के किसी भी कोने में छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं जाता और मारा नहीं जाता।१९
५९. कुछ पुरुष भविष्य और अतीत की चिन्ता नहीं करते-इसका अतीत क्या
था ? इसका भविष्य क्या होगा ? कुछ मनुष्य कहते हैं-जो इसका अतीत था, वही इसका भविष्य होगा।"
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