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लोक-विजय
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शरीर का प्रतिकर्म-सार-सम्भाल करते थे । गच्छ-मुक्त मुनि शरीर का प्रतिकर्म नहीं करते थे। वे रोग उत्पन्न होने पर उसकी चिकित्सा भी नहीं करवाते थे। यह भूमिका-भेद भगवान् महावीर के उत्तरकाल में हुआ प्रतीत होता है। प्रारम्भ में भगवान् ने मुनि के लिए चिकित्सा का विधान नहीं किया था। उसके सम्भावित कारण दो हैं-अहिंसा और अपरिग्रह।
चिकित्सा में हिंसा के अनेक प्रसंग आते हैं। वैद्य चिकित्सा के लिए हिंसा करता है, उसका सूत्र १४२ में स्पष्ट निर्देश है। औषधि के प्रयोग से होने वाली कृमि आदि की हिंसा को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
शरीर का ममत्व भी परिग्रह है। अपरिग्रही को उसके प्रति भी निर्ममत्व होना चाहिए। जिसने शरीर और उसका ममत्व विसर्जित कर दिया, जो आत्मा में लीन हो गया, वह चिकित्सा की अपेक्षा नहीं रखता। वह शरीर में जो घटित होता है, उसे होने देता है । कर्म का प्रतिफल मान सह लेता है। जीवन और मृत्यु के प्रति समभाव रखने के कारण जीवन का प्रयत्न और मृत्यु से बचाव नहीं करता। इसलिए उसके मन में चिकित्सा का संकल्प नहीं होता।
भगवान् महावीर के उत्तरकाल में इस चिन्तन-धारा में परिवर्तन हुआ। उस समय साधना की दो भूमिकाएं निर्मित हुई और प्रथम भूमिका की साधना में उस चिकित्सा को मान्यता दी गई, जिसमें वैद्य-कृत हिंसा का प्रसंग न हो।
सूत्र-१५० २९. हिंसा, असत्य, अस्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह और रात्रि-भोजन-ये छह अव्रत हैं। क्या एक अव्रत का आचरण करने वाला दूसरे अव्रत के आचरण से बच सकता है ? क्या परिग्रह रखने वाला हिंसा से बच सकता है ? क्या हिंसा करने वाला परिग्रह से बच सकता है ? इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान महावीर ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया-मूल दोष दो हैं-राग और द्वेष । हिंसा, परिग्रह आदि दोष उनके पर्याय हैं। राग-द्वेष से प्रेरित होकर जो पुरुष परिग्रह का स्पर्श करता है, वह हिंसा आदि का भी स्पर्श करता है। छहों अव्रतों का पूर्ण त्याग संयुक्त होता है, वियुक्त नहीं होता । कोई मुनि अहिंसा का पालन करे और अपरिग्रह का पालन न करे या अपरिग्रह का पालन करे, अहिंसा का पालन न करे-ऐसा नही हो सकता। महाव्रत एक साथ ही प्राप्त होते हैं और एक साथ ही भंग होते हैं। प्रत्याख्यानावरण कषाय के प्रशान्त होने पर महाव्रत उपलब्ध होते हैं और उसके उदीर्ण होने पर उनका भंग हो जाता है । ये एक, दो या अपूर्ण संख्या में न उपलब्ध होते हैं, और न विनष्ट । इसलिए परिग्रह के प्रकरण में इस सिद्धान्त को इस भाषा में प्रस्तुत किया जा सकता है-परिग्रह का स्पर्श करने वाला हिंसा आदि सभी अवतों का स्पर्श करता है ।
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