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आयारं 'राजन् ! काम और भूख की सन्तुष्टि के लिए तुम पृथ्वी को जीतन चाहते हो। तुम काम और भूख को ही जीत लो। पृथ्वी अपने-आप विजित हो जाएगी।' । भगवान् ने कहा-'काम और भूख की सन्तुष्टि के लिए दूसरों पर अधिकार करने वाला वैर-विरोधी की श्रृंखला को बढ़ाता है। सबके साथ मैत्री चाहने वाल ऐसा नहीं करता।'
सूत्र-१३७ २५. राजगृह में मगधसेना नाम की गणिका थी। वहां धन नाम का सार्थवाह आया। वह बहुत बड़ा धनी था। उसके रूप, यौवन और धन से आकृष्ट होकर मगधसेना उसके पास गई। वह आय और व्यय का लेखा करने में तन्मय हो रहा था। उसने मगधसेना को देखा तक नहीं। उसके अहं को चोट लगी। वह बहुत उदास हो गई।
मगध-सम्राट् जरासन्ध ने पूछा-'तुम उदास क्यों हो ? किसके पास बैठने से तुम पर उदासी छा गई ?'
गणिका ने कहा-'अमर के पास बैठने से।' 'अमर कौन ?' सम्राट ने पूछा।
गणिका ने कहा-'धन सार्थवाह । जिसे धन की ही चिन्ता है। उसे मेरी उपस्थिति का भी बोध नहीं हुआ, तब मरने का बौध कैसे होता होगा?'
यह सही है कि अर्थलोलुप व्यक्ति मृत्यु को नहीं देखता और जो मृत्यु को देखता है, वह अर्थलोलुप नहीं हो सकता।
२६. संग्रह-वृत्ति वाला मनुष्य अर्थ प्राप्त न होने पर आकांक्षा से क्रन्दन करता है और उसके नष्ट होने पर शोक से क्रन्दन करता है।
सूत्र-१४५ २७. इस सूत्र के वैकल्पिक अनुवाद इस प्रकार किए जा सकते हैं
(क) यह (चिकित्सा-हेतु किया हुआ वध) उस अज्ञानी के संग (कर्म-बंध) के लिए पर्याप्त है। (ख) अज्ञानी के संग से क्या ?
सूत्र १४०-१४७ १८, मुनि-जीवन की दो भूमिकाएं थीं-संघवासी और संघमुक्त। संघवासी
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