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आयारो
बाद रमण और रमण के बाद फिर स्पष्ट दर्शन--यह क्रम चलता रहता है । वासना
और कषाय (क्रोध, अभिमान, माया, लोभ) ये आत्मा से अन्य हैं। आत्मा को देखने वाला अन्य में रमण नहीं करता।
आत्मा को जानना ही सम्यग्ज्ञान है। आत्मा को देखना ही सम्यग्दर्शन है। आत्मा में रमण करना ही सम्यग्चारित्र है। यही मुक्ति का मार्ग है।
अप्रमाद का दूसरा सूत्र है वर्तमान में जीना-क्रियमाण क्रिया से अभिन्न होकर जीना । वर्तमान क्रिया में तन्मय होने वाला अन्य क्रिया को नहीं देखता । जो अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना में खोया रहता है, वह वर्तमान में नहीं रह सकता।
जो व्यक्ति एक क्रिया करता है और उसका मन दूसरी क्रिया में दौड़ता है, तब वह वर्तमान के प्रति जागरूक नहीं रह पाता। जागरूक भाव और तादात्म्य में यही घटित होता है।
सूत्र-१७६ ३५. बहुश्रुत धर्मकथी वैराग्यपूर्ण और दार्शनिक दोनों प्रकार की कथा कर सकता है । अल्पश्रुत धर्मकथी को वैराग्यपूर्ण कथा करनी चाहिए। उसे दार्शनिक कथा (इष्ट सिद्धान्त का समर्थन और अनिष्ट सिद्धान्त का निरसन) नहीं करनी चाहिए। वह दार्शनिक कथा का प्रारम्भ कर सकता है, पर उसका निर्वाह नहीं कर सकता। इसलिए उसकी दार्शनिक कथा श्रेयस्कर नहीं होती।
सूत्र-१८२ ३६. कुशल का अर्थ है ज्ञानी। धर्म-कथा में दक्ष, विभिन्न दर्शनों के पारगामी, अप्रतिबद्ध विहारी, कथनी और करनी में समान, निद्रा एवं इन्द्रियों पर विजय पाने वाला साधना में आने वाले कष्टों का पारगामी और देश-काल को समझने वाला मुनि 'कुशल' कहलाता है।
तीर्थंकर को भी कुशल कहा जाता है।
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