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शीतोष्णीय
१२९ २८. इसलिए त्रिविद्य (तीन विद्याओं को जानने वाला) परम को जानकर
[समत्वदर्शी हो जाता है] । समत्वदर्शी पाप [हिंसा आदि का आचरण नहीं करता।
२९. मरणधर्मा मनुष्यों के साथ [होने वाले] पाश [प्रेमानुबंध] का विमोचन
कर।
३०. आरंभजीवी मनुष्य को भय का दर्शन (या अनुभव) होता रहता है।
+ चूर्णिकार ने प्रस्तुत पद की '(इ)तिविज्ज' और 'अतिविज्ज'-इन दो रूप में व्याख्या की है-'विज्जत्ति हे विद्वन् ! अहवा अतिविज्जू ।'
वृत्तिकार ने 'अतिविज्ज' पाठ की व्याख्या की है। 'तिविज्ज' पाठ के अर्थ की परम्परा का विस्मरण हो जाने के कारण यह संधिच्छेद कर 'अतिविज्ज' पाठ माना गया है। किन्तु यह 'तिविज्ज' पाठ होना चाहिए । बौद्ध साहित्य में यह पाठ और इसकी अर्थपरम्परा मूल रूप में सुरक्षित है। + परम का अर्थ सत्य या निर्वाण है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र-ये भी परम के
साधन होने के कारण परम कहलाते हैं। + समत्त (समत्व) का पाठान्तर सम्मत्त (सम्यक्त्व) है । 'आवश्यक नियुक्ति' में सम्यक्त्व को समत्व का पर्यायवाची ही बतलाया गया है। .
'समया संमत्त पसत्थ संति सिव हिअ सुहं अणिदं च । अदुगुंछिअमगरहिरं अणवज्जसिमेऽवि एगट्ठा ।।'
-आवश्यक नियुक्ति, गा० १०४६
(मलयगिरिवृत्ति सहित, पत्र ५७५) 'सम्मत्तदंसी' पाठ मानकर इस सूत्र का अनुवाद इस प्रकार होता है-'इसलिए त्रिविद्य परम को जानकर [सम्यक्त्वदर्शी हो जाता है] । सम्यक्त्वदर्शी पाप [हिंसा आदि का आचरण नहीं करता।
'सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता' यह बहुत ही रहस्यपूर्ण सूत्र है । जो पाप के पर्याय स्वरूप को देखता है, वह पाप नहीं कर सकता। पाप वही करता है जो उसके यथार्थ स्वरूप को नहीं जानता, नहीं देखता। 'जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः ।' मैं धर्म को जानता हूं, फिर भी उसका आचरण नहीं करता। मैं अधर्म को जानता हूं। फिर भी उसका वर्जन नहीं करता--यह स्थूलचित्त की अनुभूति है। सूक्ष्मचित्त में होने वाला सम्यक्त्वदर्शन असम्यक् आचरण में नहीं ले जाता। * छेदन, भेदन और मारण की प्रवृत्ति का नाम आरम्भ है। आरम्भ परिग्रह के लिए किया जाता है। महारम्भ और महापरिग्रह करने वाले चोर आदि के मन में कारावास,बंध, वध और मरण का भय चक्कर काटता रहता है।
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