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आयारो
ज्ञानावरण और दर्शनावरण से मुक्त होकर ज्ञाता और द्रष्टा बन जाते हैं।
सूत्र-४१ ९. कुछ शक्ति के स्रोत होते हैं। उन्हें प्राप्त कर मनुष्य भोग, सुख, विजय, अर्थ, यश और धर्म-इन प्रयोजनों की पूर्ति करना चाहता है।
१. आत्म-बल (शरीर-बल)- शारीरिक शक्ति की वृद्धि के लिए वह मद्य और मांस का सेवन करता है।
२. ज्ञाति-बल-वह अजेय होने के लिए स्वजन-वर्ग की शक्ति को प्राप्त करता
३. मित्र-बल-अर्थ-प्राप्ति और मानसिक तुष्टि के लिए मित्र-शक्ति का आश्रय लेता है।
४-५. प्रेत्य-बल, देव-बल-परलोक में सुख प्राप्ति करने के लिए तथा दैवी शक्ति का उपयोग करने के लिए पशु-बलि आदि करता है।
६. राज-बल-आजीविका के लिए राजा की सेवा करता है।
७. चोर-बल-चोरी का भाग प्राप्त करने के लिए चोरों के साथ गठबन्धन करता है।
८-१०. अतिथि-बल, कृपण-बल, श्रमण-बल-अतिथि, कृपण (विकलांग याचक) और श्रमणों को धन, यश और धर्म का अर्थी होकर दान देता है।
सूत्र-६३ १०. 'सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय'-यहां यह चर्चा परिग्रह के प्रकरण में की गई है। परिग्रह का संचय करने वाला अपना दुःख दूर करने और सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । वह दूसरों के सुख की हानि न हो, इसका ध्यान नहीं रखता। वह इस सत्य को भुला देता है जैसे मुझे सुख प्रिय और दु:ख अप्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है । अर्थार्जन के क्षेत्र में सामाजिक स्तर पर शोषण और अनैतिकता चलती है, वह इसी सत्य की विस्मृति का परिणाम है। भगवान् ने बार-बार इस सत्य की याद दिलाकर व्यवहार को आत्म-तुला की भूमिका पर प्रतिष्ठित करने का दिशा-निर्देश दिया है।
सूत्र-६९ ११. आम का फल जैसे आम कहलाता है, वैसे ही आम का बीज भी आम कहलाता है। इसी प्रकार प्रतिकूल संवेदन जैसे दुःख कहलाता है, वैसे ही प्रतिकूल संवेदन का हेतुभूत कर्म भी दुःख कहलाता है। जो दार्शनिक कार्य और कारण को पृथक्पृथक देखते हैं, वे दुःख के मूल को समाप्त नहीं कर पाते । फलतः वह मूल बार-बार
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