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लोक-विजय
६४. सब प्राणियों को जीवन प्रिय है ।
६५. पुरुष जीवन जीने के हेतु द्विपद ( कर्मकर) और चतुष्पद (पशु) का परिग्रह कर उन्हें काम में लाता है । उनके द्वारा वह अर्थ का संवर्धन करता है । अपने, पराए या दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से उसके पास अल्प या बहुत अर्थ की मात्रा हो जाती है ।
६६. वह उस अर्थ-राशि में आसक्त रहता है और भोग के लिए [ उसका संरक्षण करता है ] ।
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६७. वह भोग के बाद बची हुई प्रचुर अर्थ - राशि से महान् उपकरण वाला हो जाता है ।
६८. एक समय ऐसा आता है कि उस (अर्जित और संरक्षित अर्थ - राशि या उपकरण - राशि) से दायाद हिस्सा बंटा लेते हैं या चोर उसका अपहरण कर लेते हैं, या राजा उसे छीन लेते हैं, या वह नष्ट - विनष्ट हो जाती है या गृहदाह के साथ जल जाती है ।
६९. इस प्रकार अज्ञानी पुरुष दूसरे [ दायाद आदि के ] लिए क्रूर कर्म करता हुआ [ दुःख का निर्माण करता है ] । वह उस दुःख से मूढ़ होकर विपर्यास को प्राप्त होता है - सुख का अर्थी होकर दुःख को प्राप्त होता है । "
७०. यह मुनि ( भगवान् महावीर ) ने कहा है । "
७१. ये ( विपर्यास को प्राप्त होने वाले ) अनोघंतर हैं-संसार - प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं हैं ।
ये अतीरंगम हैं-तीर तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं ।
ये अपारंगम हैं - पार तक पहुंचने में समर्थ नहीं हैं ।
७२. अनात्मज्ञ पुरुष सत्य को प्राप्त कर उस स्थान में स्थित नहीं होता । वह असत्य को प्राप्त कर उस स्थान में स्थित होता है ।
७३. द्रष्टा (सत्यदर्शी) के लिए कोई निर्देश नहीं है ।
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