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________________ लोक-विजय ८१ अनासक्ति ४७. यह (लोक-विजय का) मार्ग तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित है। ४८. जिससे कुशल पुरुष इन [विषयों में लिप्त न हो। -ऐसा मैं कहता हूं। तृतीय उद्देशक समत्व ४९. यह पुरुष अनेक बार उच्च गोत्र और अनेक बार नीच गोत्र का अनुभव कर चका है । अतः न कोई हीन है और न कोई अतिरिक्त; [इसलिए वह उच्च गोत्र की] स्पृहा न करे। ५०. [यह पुरुष अनेक बार उच्च गोत्र और नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है -] यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा ? कौन मानवादी होगा? और कौन किसी एक स्थान में आसक्त होगा? ५१. इसलिए पंडित पुरुष [उच्च गोत्र प्राप्त होने पर] हर्षित न हो और [नीच गोत्र प्राप्त होने पर] कुपित न हो। ५२. तू जीवों [के कर्म-बंध और कर्म-विपाक] को जान और उनके सुख [-दुःख] को देख। ५३. सम्यग्दर्शी पुरुष इस (इष्ट-अनिष्ट कर्म-विपाक) को देखता है । ५४. जैसे-कोई अंधा है और कोई बहरा, कोई गूंगा और कोई काना, कोई लला है, कोई कुबड़ा और कोई बौना, कोई कोढ़ी है और कोई चितकबरा। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002574
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages388
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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