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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ २१. सयंभूतिवा , जीव रों नाम, किण हि निपजायो नही ताम।
ते तो , द्रव्य जीव सभावे, ते तो कदे नहीं विललावे।।
२२. सरीरेतिवा नाम एह, सरीर रें अंतर तेह।
सरीर पाछे नाम धरायों, कालो गोरादिक नाम कहायों।।
२३. नायएतिवा ते कर्मी रो नायक, निज सुख दुख छे दायक।
तथा न्याय तणों करणहार, ते तों बोलें छे वचन विचार।।
२४. अन्तरअपा ते जीव रों नाम, सर्व सरीर व्यापे रह्यों तांम।
लोलीभूत छे पुदगल मांही, निज सरूप दबे रह्यों त्यांही।।
२५. द्रव्य तो जीव सासतो एक, तिणरा भाव कह्या छे अनेक।
भाव ते लखण गुण परज्याय, ते तो भावे जीव छे ताहि।।
२६. भाव तो पांच श्री जिण भाख्या, त्यांरा सभाव जू जूआ दाख्या।
उदें उपसम ने खायक पिछांणों, खयउपसम परिणांमीक जांणो।।
२७. उदें तों आठ कर्म अजीव, त्यांरा उदा सूं नीपना जीव।
ते उदें भाव जीव , तांम, त्यांरा अनेक छे जूआ जूआ नाम।।
२८. उपसम तो मोहणी कर्म एक, जब नीपजें गुण अनेक।
ते उपसम तो भाव जीव छै ताम, त्यांरा पिण छे जूआ जूआ नाम ।।
२९. खय तो हवे , आठ कर्म, जब खायक गुण नीपजें परम।
ते खायक गुण छे भाव जीव, ते उजला रहें सदा सदीव।।
३०. बे आवरणी ने मोहणी अंतराय, ए च्यारूं कर्म खयउपसम थाय।
जब नीपजें खयउपसमभाव चोखो, ते पिण छे भाव जीव निरदोषो।।