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नियमबद्ध समय पर स्वतः ही साधना की स्मृति हो आयेगी तथा उसमें प्रवृत्त हो जाने की लगन लग जायेगी। समय की नियमितता सध जाने पर साधक के मन की क्रियाशीलता स्वचालित जैसी हो जायेगी। ध्यान के लिए सर्वोत्तम समय ब्रह्म मुहूर्त याने कि रात्रि का अन्तिम प्रहर और सूर्योदय के साथ प्रथम प्रहर का समय माना गया है।
तब यह समीक्षण ध्यान अपने विधि क्रम से साधा जाना चाहिये। ध्यानारंभ से 'आधा घंटा पूर्व साधक को निद्रा त्याग देनी चाहिये ताकि दैहिक चिन्ताओं से निवृत्त होकर वह यथासमय साधना में प्रवत्त हो सके। तब साधक सामान्य आसन पर माला. मखवाचिका आदि साधन साम लेकर बैठे और यथा सुविधा सामायिक या संवर का प्रत्याख्यान ले। वन्दन-नमन द्वारा साधक पहले अपने प्रमाद को भी मिटावे तो अपनी वृत्तियों में मान को हटाकर नम्रता का संचार भी कर दे। विधिपूर्वक वन्दन तीन बार आवर्तन सहित वन्दन करने से वक्षस्थल की मांस पेशियों में नये रक्त का संचार होगा इससे प्राण वायु की ग्रहण क्षमता बढ़ जायेगी। फिर पद्मासन से बैठकर साधक ध्यान में बैठ जावे किसी प्रकार का तनाव अपने भीतर न उठने दे। सहज भाव से मेरूदंड सीधा और सरल रहे। ध्यान की इस मुद्रा में निरहंकारी वृत्ति की स्पष्ट झलक होनी चाहिये।
इस विध ध्यान में स्थित हो जाने के बाद यों समझिये कि अपनी अन्तर्यात्रा का यह आरम्भ है। इस यात्रा का आरंभ ही आन्तरिक चिन्तनशीलता को उभारता है कि सारा जीवन और सारा समय हमने सांसारिक विषयों के पीछे लगा रखा है तो क्या मात्र इस मामूली से समय की ध्यानावस्थितता से काम चल जायेगा ? तब भीतर ही भीतर एक असन्तोष उमड़ने घुमड़ने लगता है
और ध्यान के लिए अधिक उत्साह व अधिक समय की अभिलाषा जागती है—अन्तर्दर्शन की पिपासा बलवती होती है। इस चिन्तन के साथ साधना के लिए समुचित एवं सहयोगी मनोभूमि का निर्माण होता है जिसके कारण चित्तवृत्तियों को सम्यक् दिशा में मोड़ना अधिक कठिन नहीं रहता।
संकल्प की दृढ़ता, परिवेश की शुद्धता, वातावरण व स्थान की पवित्रता तथा विनय-विवेकपूर्वक त्याग भावना की ओजस्विता के द्वारा साधना को श्रेष्ठ सम्पुष्टि प्राप्त हो जाती है। तब साधक को मन की गतिविधि पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिये तथा उसे समझकर आवश्यक निर्देश संकल्पित किये जाने चाहिये। यह प्रयास होना चाहिये कि मन कम से कम साधना की निर्धारित कालावधि में तो दिये गये निर्देशों का पालन करे ही। उसकी सारी बहिर्गमिता की दौड़ तब तक के समय के लिए तो शान्त कर दी जानी चाहिये। साधक के संकेतों के विपरीत उसका मन एक क्षण के लिये भी नहीं चले—इसका निरन्तर अभ्यास किया जाना चाहिये। जितने दृढ़ संकल्प के साथ साधक अपने मन को निर्देश देगा, वस्तुतः मन भी उतनी ही सक्रियतापूर्वक उन निर्देशों का अनुसरण करने लगेगा। निर्देशों का संकल्प के साथ संयुक्त होना आवश्यक है। साधक जब अपने ऊर्जायुक्त संकल्प का सहयोग लेगा तो मन की समस्त वृत्तियाँ अपने केन्द्र का अतिक्रमण करने में समर्थ नहीं रह सकेंगी। किसी प्रकार की आंधी उन वृत्तियों को अपने साथ बहा नहीं सकेगी। लेकिन यह सब संभव हो सकेगा तीव्रतम संकल्प के साथ निश्चित अवधि तक इन्द्रियों एवं मन पर सम्यक नियंत्रण रखने के कठिन प्रयास के माध्यम से ही। परमोच्च भावना और परमात्मा की साक्षी से लिया गया ऐसा संकल्प, उस अवधि में इन्द्रियों को उनके विषयों के आकर्षण विकर्षण में लिपटने नहीं देगा। वे पापजनक असत्य वृत्तियों में भी नहीं जा सकेगी तो वर्ण रस, गंध, स्पर्श