________________
यद्यपि यह कार्य आसान नहीं है और अधिसंख्य साधकों के प्रयास विफल हो चुके हैं, फिर भी जो स्वानुभूति से प्रबोध लेते चलते हैं तथा स्थायी सुख का मार्ग खोजते हैं एक दिन सफलता उनके चरण अवश्य चूमती है ।
स्वानुभूति की परिपुष्टता की दृष्टि से उपरोक्त प्रयोगों की श्रृंखला में जो समीक्षण ध्यान पद्धति का सृजन किया है, वह यदि निष्ठा के साथ साधकों द्वारा अपनाई जाय तो विश्वास है कि स्वानुभूति की सक्षमता अभिवृद्ध की जा सकती है । मेरा यह विश्वास इस समीक्षण ध्यान पद्धति के सफल प्रयोगों पर आधारित है। कई साधक इस पद्धति को अपना रहे हैं और उन्हें इसके सुपरिणाम भी प्राप्त हो रहे हैं।
समीक्षण ध्यान पद्धति है क्या ? अपने समस्त जीवाजीव पदार्थों को सम्यक् प्रकार से देखना। क्या यह देखना इन चर्म चक्षुओं से संभव होगा ? कतई नहीं। यह देखना संभव हो सकेगा मात्र ज्ञान चक्षुओं के माध्यम से और इस कारण पहले अपने ज्ञान चक्षुओं को उघाड़ना होगा। यह पहले अन्तर्चक्षुओं को खोलेगी। समीक्षण ध्यान साधना से पहले भूमिका की शुद्धि आवश्यकता बताई गई है। इस ध्यान की भूमिका है मानस पटल और ध्यान की सफलता के लिए पहले इसी पटल को विशुद्ध बनाना होगा ।
ध्यान साधना का अर्थ होगा कि मनुष्य बाह्य जगत् से अपने आपको संकुचित बनावे तथा अपने अन्तःकरण में प्रवेश करे। इसका उद्देश्य होगा विशृंखलित बनी चित्तवृत्तियों का विशोधनपूर्वक नियंत्रण करना। अनन्तकाल से बहिर्मुखी बनी हुई इन वृत्तियों को सुनियोजित करने के लिए विशेष प्रकार की भूमिका की आवश्यकता होगी। किसान बीज वपन के पहले जैसे अपने क्षेत्र की शुद्धि करता है, वैसी ही कोशिश एक साधक को भी विकेन्द्रित वृत्तियों के नियंत्रण से पहले स्थान, वातावरण की शुद्धि तथा संकल्पशक्ति की दृढता के रूप में करनी होती है ।
सर्वप्रथम मन की साधना के प्रति तीव्रतम संकल्प की आवश्यकता होगी। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अपने ही संकल्प, अपने ही विकास या पतन की दिशा का निर्धारण करते हैं। किसी भी दिशा में अग्रगामी बनने के लिए संकल्पों की तीव्रता अपेक्षित होती है। संकल्प जितना सुदृढ़ होता है, तदनुसार उसका आचरण भी अधिक सक्रिय होता है । इसलिए साधना के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले सत्संकल्प की सुदृढ़ता वांछनीय और अनिवार्य है। सत्संकल्प की परिपूर्णता के साथ साधना निश्चित रूप से अधिक गतिशील होगी।
दृढ़ संकल्प के बाद स्थान तथा वातावरण का भी एक ध्यान-साधक के चित्त पर प्रभाव पड़ता है। ध्यान साधना के लिये उपयोगी स्थान वही माना जायेगा, जो एकान्त, शान्त, नीरव तथा इन्द्रियाकर्षण के पदार्थों से रहित हो । स्थान यदि उपयोगी नहीं हो तो साधना में विघ्न पड़ते रहते हैं। जिनके कारण परिणाम प्राप्ति की अवधि लम्बी हो जाती है । इसलिये द्रव्य और भावरूप उभयमुखी शुद्धि वाले स्थान का चयन किया जाना चाहिये। इसी प्रकार आस-पास का वातावरण भी साधक के ध्यान-सम्बल को डिगाने वाला नहीं, बढ़ाने वाला होना चाहिये । अन्तर्प्रवेश के लिए सहजता अनिवार्य होती है और सहज सरल परिधान, स्थान तथा वातावरण की उपस्थिति में सहजता का सम्यक् विकास सरल बन जाता है ।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार समय के साथ में भी मन का तादात्म्य स्थापित हो जाता है, अतः समीक्षण ध्यान की साधना में समय की नियमितता भी आवश्यक होगी क्योंकि
५