Book Title: Saptabhangiprabha
Author(s): Nemisuri, Shilchandrasuri
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभड़ीप्रभा (सप्तभङ्ग्युपनिषत् ) प्रणेता : आचार्यश्रीविजयनेमिसूरिः Jain Educatio interational For Private & Personal L ily Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनसम्राट्-शताब्दीग्रन्थमाला-पुष्प १ ॥ ॐ अहँ नमः ॥ सर्वतत्रस्वतत्र-शासनसम्राट्-जगद्गुरु-प्रभूततीर्थोद्धारक-अनेक भूपालप्रतिबोधकप्रौढप्रभाव-तपागच्छाधिपति-बालब्रह्मचारि-भट्टारकाचार्यश्रीविजयनेमिसूरीश्वरविरचिता न्यायवाचस्पति-शास्त्रविशारदाचार्यश्रीविजयदर्शनसूरीश्वरसंशोधिता च सप्तभङ्गीप्रभा अपरनाम सप्तभङ्गयुपनिषत् प्रकाशिका : श्रीजैनग्रन्थप्रकाशनसमितिः, खम्भात वि.सं. २०६३ ई.स. २००७ . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAPTABHANGĪPRABHA BY ACHARYA SRIVIJAYNEMISOORIJI (JAIN NYAYA ) सम्पादनम् : कीर्तित्रयी © सर्वेऽधिकाराः स्वायत्ता: प्रकाशनम् : श्रीजैनग्रन्थप्रकाशनसमितिः, खंभात ॥ प्रथमा आवृत्ति: सं. २००८ द्वितीया आवृत्ति: वि.सं. २०६३, ई.स. २००७ प्रतय: ५०० मूल्यम् : रू. ८०/ आवरणम् : नैनेश सरैया, सूरत । प्रासिस्थानम् : ( १ ) सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोळ, अमदावाद- ३८०००१ ( २ ) श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी स्वाध्याय मंदिर १२, भगतबाग, शेठ आणंदजी कल्याणजीनी पेढी समीप, पालडी, अमदावाद 380007 दूरभाष : 26622465 मुद्रणम् : 'क्रिष्ना ग्राफिक्स', ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - ३८००१३ दूरभाष : 079-27494393 (ii) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी समर्चना जैन शासनना महान् ज्योतिर्धर शासनसम्राट् आचार्य श्रीविजयनेमिसूरिजी महाराजनुं स्थान, अनेक दृष्टिए, अनन्य अने विशिष्ट छे. सामान्यतः आधुनिक समाजमां तेमनी ख्याति तीर्थोद्धारक तेमज आदर्श अनुशासक आचार्य तरीकेनी छे. परन्तु ते तो तेमना जीवननी अनेकानेक विशेषताओ पैकी बे विशेषताओ ज छे. आ बे उपरांत ते ओश्रीनी अनेक विशेषताओ हती: तेओ जीवदयाना ज्योतिर्धर हता; संघ अने समाजमां संप- सलाह- समाधान वृत्तिना प्रखर पुरस्कर्ता हता; वीसरायेली स्वाध्याय अने अध्ययननी उच्च प्रणालिकाना प्रणेता हता; सेंकडो संयमी अने विद्वान् शिष्योना गुरु हता; कठोर आचारपालनना आग्रही हता; तेमनी देशनापद्धति शासननी शुद्ध अने शास्त्रीय शैलीने वरेली हती; सुविहित गीतार्थ जैनाचार्योनी अखण्ड परंपराना तेओ जळहळता सितारा हता; शास्त्र, सिद्धान्त अने सामाचारीनी वफादारी तेओनो स्वभाव हतो; नैष्ठिक ब्रह्मचर्यनी साधना अने सिद्धिने वरेला तेओ सिद्धपुरुष हता; जैन संघना तेओ नेतृत्वसंपन्न युगपुरुष हता. ट्रंकमां, तेओनी विशेषताओ अमाप हती. मनी वे विशिष्ट विशेषताओ आ हती : ज्ञानोद्धार अने शास्त्रसर्जन. आ बे बावतोथी अत्यारना लोको भाग्ये ज परिचित छे. आचार्यश्रीए पोताना मुनिजीवनना प्रारंभिक दायका ओमां शास्त्रोनुं गंभीर अने ऊंडुं अध्ययन कर्तुं छे. व्याकरण, न्याय प्राचीन-नवीन वन्ने, काव्य, साहित्य, छन्द, अलंकार, षड्दर्शनो, जिनागमो तेमज विशेषतः श्रीहरिभद्रसूरि तथा उपाध्याय यशोविजयजीना ग्रंथो, आ वधांनुं तेमणे सांगोपांग अध्ययन करेलुं. एटलुं ज नहि, पछीथी आ ग्रंथोनुं अध्यापन पण वर्षो सुधी करेलुं. शिष्योने भणावती वखतनी तेमनी कठोरता जगजाणीती छे. आ पछी तेमनी प्रेरणात्मक भावनाथी स्थपायेल श्रीजैन तत्त्वविवेचक सभा तथा श्रीजैन ग्रन्थप्रकाशक सभा जेवी ख्यातनाम संस्थाओना आश्रये, तेमना द्वारा तथा तेमना विद्वान् शिष्यगण द्वारा श्रीहरिभद्रसूरि, श्रीयशोविजयजी तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरजी अने श्रीहेमचन्द्राचार्य जेवा महान् श्रुतधर भगवंतोए रचेला शास्त्रग्रंथोनुं संशोधन-संपादन तथा प्रकाशननुं महत् कार्य थयुं, जे वीसमी सदीमां थयेल सर्वप्रथम भगीरथ श्रुतकार्य हतुं. पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्रीजिनविजयजीए आचार्य श्रीना आ ज्ञानकार्यने अंजलि आपतां लख्युं छे के "तेओ श्री द्वारा जैन समुदायमां सर्वप्रथम जैन साहित्यना प्रकाशननो पुनित प्रारंभ पण विशेषरूपे थयो हतो. तेओश्रीना प्रेरणादायक साहित्यप्रकाशनना शुभ प्रयासथी ज बीजा बीजा अनेक शास्त्रप्रेमी अने साहित्यभक्त निव पण दिशामा उल्लेखनीय कार्य करता रह्या छे. ए रीते जैन धर्मनी तथा सम्यग् ज्ञाननी सुरक्षा तथा प्रसिद्धि करनार आ वीसमी सदीना तेओ श्री सर्वप्रधान मुनिगणनायक यथार्थ आचार्य बन्या हता. " आचार्यश्रीनुं बीजुं विशिष्ट कार्य हतुं तेओश्रीनुं शास्त्रसर्जन. पोतानी विलक्षण सर्जकप्रतिभाना वळे तेओए लगभग सोळेक ग्रंथोनी रचना करी हती. जेमां सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनने अनुसरता चारेक व्याकरणग्रंथो, तथा जैन तर्कग्रंथो तथा तेनां विवरणोना ग्रंथोनो मुख्यत्वे समावेश थाय छे. आ ग्रंथो जे ते समये प्रकाशित थयेला हता, पण ते आजे अलभ्य ज नहि, अज्ञातप्राय पण छे. अमुक पुस्तको तो मुद्रित होवा छतां प्राप्य थतां नथी ! आ अमारी कमनसीबीनी वात छे. - (iii) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि.सं. २०५५मां शासनसम्राट आचार्यश्रीनी स्वर्गारोहण-अर्धशताव्दीनी उजवणी थई त्यारे संकल्प करेलो के तेओश्रीना अमुक ग्रंथोनुं तथा तेओना शिष्यवृन्द-द्वारा सर्जायेला अमुक ग्रंथोनुं नवेसरथी मुद्रण करावq. ते संकल्प आजे, तेओश्रीनी सूरिपदशताब्दीना वर्षारंभे साकार थई रह्यो छे, तेनो हैये हर्ष छे. प्रस्तुत ग्रंथy नाम 'सप्तभङ्गीप्रभा' छे. तेनुं बीजुं नाम छे. 'सप्तभङ्गीउपनिषत्'. नाम परथी ज स्पष्ट छे के स्याद्वाददर्शनमां प्रतिपादित ‘सप्तभंगी' विषयक चर्चानो आ ग्रंथ छे. वि.सं. १९७९मां अमदावादमां रचायेलो आ ग्रंथ नव्यन्यायनी आरूढ परिभाषामां अने तर्कशैलीमां सप्तभंगी- विवरण करतो विलक्षण ग्रंथ छे. दिगम्वर आम्नायानुसारी ग्रंथ 'सप्तभङ्गीतरङ्गिणी' (कर्ता : विमलदास)मां प्ररूपित, अनेकान्तदर्शननी तर्कमर्यादाथी विपरीत एवा विविध मुद्दाओगें तर्कपूत खण्डन तेमज स्याद्वादशैलीए ते मुद्दाओ परत्वे प्रतिपादन ए आ ग्रंथनी विशिष्टता छे. बीजा पण दार्शनिक मुद्दाओ विषे खण्डनमण्डन अहीं छे. सप्तभङ्गी विशेना पोताना प्रतिपादन तेमज तर्कोना समर्थन माटे बीजा पण-खण्डनखण्डखाद्य, न्यायखण्डखाद्य, सम्मतितर्क, स्याद्वादरत्नाकर वगेरे दार्शनिकग्रन्थोनो तेमणे आधारलेखे उपयोग कर्यो छे, तेना संकेतो स्थान-स्थाने मळे छे. आ ग्रंथमा सर्वप्रथम सप्तभंगीना सात भांगा विशे चर्चा करी छे. त्यार पछी पृ. ३७ सुधी पूर्वपक्षनी स्थापना करी छे. अने त्यार बाद अनेक तर्को, युक्तिओ अने ग्रंथोना आधारे विस्तारथी पूर्वपक्षनुं खण्डन कर्यु छे. पूर्वपक्षनी दलीलोनुं निरसन करती वखते ते ते दलीलो नो स्वपक्षना मंडाणमा उल्लेख कर्यो छे. ते स्थानो पूर्वपक्षमा क्यां छे तेनी नोंध पादटीपरूपे, यथाशक्य शोधीने, करी छे. वळी विमलदासकृत सप्तभङ्गीतरङ्गिणी अंतर्गत केटलीक वातोनुं पण निरसन आमां करवामां आव्युं छे, ते ते स्थानो पण ते ग्रंथमांथी शोधीने पादटीपरूपे मूक्या छे । ते स्थानोना पृष्ठ तथा पंक्ति नंबर नोंधवामां, श्रीपरमश्रुतप्रभावकमण्डल, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास द्वारा श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमालाना अन्वये प्रकाशित सप्तभङ्गीतरङ्गिणी पुस्तकनो आधार लीधो छे. गहन विषय अने नव्यन्यायनी परिभाषा-शैली, आ वे कारणोथी घणा प्रयत्न छतां अमो आ ग्रंथनां रहस्योनो खरो ताग पामी शक्या नथी, ए अमारी मर्यादानो अमे आ स्थाने ज एकरार करी लईए छीए. कोई विशेषज्ञनो योग मळे तो आ ऊणपर्नु निवारण करवानी अमारी तमन्ना तीव्र छे. __ आम छतां, आ संपादननुं साहस कर्यु छ तेमां शासनसम्राट परमगुरुभगवंत प्रत्येनी भक्ति ज मुख्य निदान छे. पूज्यपाद गुरुभगवंत आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरि म.नी सतत मळती प्रेरणाए पण आ काम करवा माटे अमने प्रोत्साहित कर्या छे. अमारा मन्द क्षयोपशमने कारणे, शास्त्र-सिद्धान्तथी तेमज ग्रंथकार महापुरुषना आशयथी विपरीत कोई संपादन थई गयुं होय तो ते माटे अमो 'मिथ्यादुष्कृत' आपीए छीए. ग्रंथकार भगवंतश्रीनी एक विशिष्टता ए पण जाणवा मळी छे के तेओश्री स्वयं कशुं स्वहस्ते लखता न हता. तेओश्री बोले अने शास्त्रीजी के तेओना विद्वान् शिष्यो लखे, ते रीते तेमनु शास्त्रसर्जन थतुं हतुं. आ भावने अनुरूप, आ पुस्तक, मुखपृष्ठ बनाववामां आव्युं छे, ते सुज्ञजनोने विदित थाय. वि.सं. २०६३ आसो सुद-१, कीर्तित्रयी अमदावाद (मुनिरत्न-धर्म-कल्याणकीर्तिविजयाः) (iv) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (v) सप्तभङ्गीप्रभा "उत्पाद-व्यय- - ध्रौव्ययुक्तं सत्" Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : आर्थिक सौजन्य : श्रीमहुवा तपगच्छ जैन संघ, महुवाना ज्ञानखातामाथी (vi) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्हं नमः ॥ श्रीकदम्बगिरितीर्थाधिराजाय नमो नमः ॥ सकललब्धिसम्पन्नाय श्रीगौतमस्वामिने नमो नमः ॥ सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवर्ति - जगद्गुरु तपागच्छाधिपति - अनेकतीर्थोद्धारक - बालब्रह्मचारि - भट्टारकाचार्य श्रीविजयनेमिसूरीश्वरप्रणीता ॥ सप्तभङ्गीप्रभा (सप्तभङ्गयुपनिषत् ) ॥ योऽनेकान्तार्थजातं करतलफलवत्केवलेनाऽवलोक्य, तीर्थं प्रावर्तयत्स्वं विततमवितथं सर्वनीत्येकगम्यम् । देवेन्द्रादिप्रपूज्यः प्रवितकरुणः क्षिप्तनिःशेषकर्मा, आप्तो वीरः स नोऽव्यात् सततमनुगतान् विघ्नजालं विधूय आप्तव्रातैकगण्या निखिलगुणधरा गौतमाद्या महान्तः, पूर्वाधारा यतीन्द्रा मितिनयघटनालम्पटाः सूरिवर्याः । सर्वेऽप्येते हृदिस्था मम विमलमतिं तत्त्वमार्गेकनिष्ठां, कुर्वन्त्वेषां प्रसादाद् भवतु प्रकरणे मात्र विघ्नप्रचारः येनाऽकारि जनवजो जिनमतश्रद्धां दृढां सूक्तिभि मैत्रीं यत्र परस्परं गुणगणो निर्विघ्नमापद्यत । स श्रीमान् गुरुरत्र वृद्धिविजयो भक्त्याऽतिनम्रे मयि, शिष्ये नेम्यभिधे विवेकचतुरां कुर्यान्मतिं संस्मृतः बह्वर्था प्रतिभङ्गमन्यघटनादक्षा व्यपेक्षोक्तितः, क्वैषा माननयप्रचारचतुरा गीः सप्तभङ्गी प्रभोः । क्वैषा मे मतिरक्षरार्थभजनादक्षाऽतितन्वी यतो, योगः स्यादनयोस्तथाऽपि जयतात् स्याद्वाद एष प्रभोः 11911 ॥२॥ 113 11 11811 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा अस्तित्वादिगुणप्रधानभजनां स्वीकृत्य सर्वार्थगां,' यामाश्रित्य विजृम्भते मतिमतां स्याद्वादिनां भारती । जिज्ञासानिकरं निरस्य विशदामातन्वती सद्धियं विज्ञानां मितिनीतिभावसुभगां तां सप्तभङ्गी वुवे ।।५।। इह हि तत्त्वजिज्ञासूनां निराकाङ्क्षार्थप्रतिपत्तये शब्द एव प्रमाणेषु प्रागल्भ्यमावहति । स च स्यादस्त्येव घट: १, स्यान्नास्त्येव घटः २, स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव च घटः ३, स्यादवक्तव्य एव घटः ४, स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्य एव च घट: ५, स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्य एव च घटः ६, स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्य एव च घट ७, इति वाक्यसप्तकसमाहारस्वरूपसप्तभङ्गीभावमापन्न एव स्याद्वादिप्रयुक्तः प्रतिपाद्यस्य निराकाङ्क्षपरिपूर्णार्थबोधमाधातुं प्रभवति । यतः प्रतिपाद्यस्याऽज्ञानसंशयविपर्ययनिरासार्थमेव वाक्यं प्रयुज्यते, नाऽन्यथा । तत्र घटेऽस्तित्वस्वरूपमजानानं प्रति यदि घटोऽस्तीत्येतावन्मात्रं प्रयुज्यते तदाऽपेक्षोक्तेरभावात् ततः सर्वप्रकारेणाऽस्तित्वमेव घटस्य निश्चिनुयात् प्रतिपाद्यः । न च तथाऽस्तित्वं घटे वर्त्तते । तथा सति घटत्वादिस्वरूपेणेव पटत्वादिपररूपेणाऽपि घटस्याऽस्तित्वे घटस्य सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः । न हि पटादीनां पटादिस्वरूपता पटत्वादिनाऽस्तित्वमन्तरेणाऽन्या । आपादनं च घटो यदि पटत्वादिनाऽस्तित्ववान् स्यात्, पटाद्यात्मकः स्यात्, पटादिवत् । न च, घटोऽस्तीत्यनेन यथा घटत्वादिनाऽस्तित्वं न प्रतिपाद्यते तथा पटत्वादिनाऽस्तित्वमपीति सामान्यतोऽस्तित्वमेव घटस्य तेन निश्चिनुयात् प्रतिपाद्यः । तच्चाऽवाधितमेवेति वाच्यम् । यतो घटोऽस्तीत्यनेन घटे सामान्यतोऽस्तित्वस्य ज्ञाने तस्य कथञ्चिदस्तित्व-सर्वथास्तित्वयोः साधारणतया साधारणधर्मज्ञानस्य संशयकारणत्वेन घटः कथञ्चिदस्ति नवेति संशयः स्यात् । संशयस्य च जिज्ञासां प्रति कारणत्वेन जिज्ञासाऽप्यवाधितप्रसरैव । न च स्वस्य जिज्ञासां तदभिलापकप्रश्नवाक्यमन्तरेण प्रतिपाद्यः प्रतिपादकं ज्ञापयितुं शक्नोतीति प्रतिपाद्यस्य प्रश्नः प्रवर्तत एव । प्रश्नेन च तथाविधेन जिज्ञासाविशेषमवगम्य प्रतिपादकस्तादृशमेवोत्तरवाक्यं प्रयोक्तुमर्हति यादृशेन तेनोक्तजिज्ञासाकारणसंशयनिवृत्तिः स्यात् । एवं च घटः स्यादस्त्येवेति प्रथमभङ्गः प्रयोक्तव्यः । ___ येन रूपेणाऽस्तित्वं तेनैव रूपेण नास्तित्वं मा प्रसाक्षीदिति तन्निवृत्तये एवकारोऽवधारणार्थकः प्रयोक्तव्य एव । प्रथमभङ्गेन च कथञ्चिदस्तित्वेऽवधृते कथञ्चिदस्तित्व-सर्वथास्तित्वकोटिकस्य संशयस्योन्मूलनेऽपि कथञ्चिन्नास्तित्व-सर्वथानास्तित्वकोटिकस्य संशयस्याऽऽविर्भावः स्यादेव । अथ कथञ्चिदस्तित्वनिश्चयो यथा संशयनिश्चयसाधारणसर्वथास्तित्वविषयकज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिवन्धकस्तथा संशयनिश्चयसाधारणसर्वथा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा नास्तित्वविषयकज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रत्यपि । न हि सम्भवति कथञ्चिदस्ति घटः सर्वथा नास्तीति च, सर्वथेत्यनेन येन रूपेणाऽस्तित्वं तद्रूपस्याऽप्युपग्रहात् । कथञ्चिन्नास्तित्व-सर्वथास्तित्वकोटिकोऽपि संशयो न सम्भवति, सर्वथास्तित्वज्ञानं प्रति कथञ्चिदस्तित्वनिश्चयस्य प्रतिवन्धकत्वादेव । विधिनेषधयोरेकानवच्छेदकस्याऽपरावच्छेदकत्वनियमतो यदूपस्याऽस्तित्वावच्छेदकत्वं न भवति तद्रूपस्य नास्तित्वावच्छेदकत्वावगमसम्भवादेकरूपेणाऽस्तित्वस्याऽवगतौ तदनवच्छेदकरूपेण नास्तित्वस्याऽवगमसम्भवेन तदर्थं स्यान्नास्त्येवेति भङ्गप्रयोगस्याऽनतिप्रयोजकत्वात् । न च, स्यान्नास्त्येव घट इति द्वितीयभङ्गः प्रथमभड्नेन सह तदुत्थापिताकाङ्क्षानिवर्तकत्वादिरूपमेकवाक्यत्वं नाऽऽत्मसात्करोति, किन्तु स्वतन्त्र एवाऽयं भङ्गः । स्यादस्त्येवेति प्रथमभङ्गजन्यवोधस्य नियतपूर्वभावं नाऽपेक्षत इति कथञ्चिन्नास्तित्व-सर्वथानास्तित्वकोटिकेन संशयेन सम्भविना जिज्ञासाप्रश्नविशेषयोः सम्भवात् प्रश्नविशेषज्ञानाच्च नाऽस्याऽवतारासम्भव इति वाच्यम् । तथा सति, स्यादस्त्येवेति प्रथमभङ्गानन्तरं द्वितीयभङ्गो यथा स्यान्नास्त्येवेत्येवंरूपेण प्रवर्तते तथा स्यान्नित्यमेव स्यादिन्नमेवेत्यादिरूपेणाऽपि प्रवर्तेतेति नियामकाभावात् सहस्रभङ्गीत्वादिप्रसक्त्या सप्तभङ्गीत्वव्याकोपः । न चैवंविधसहस्रभङ्गीत्वाद्यालिङ्गितादपि वाक्यान्निराकाङ्क्षो बोधः, वस्तुनि धर्माणामनन्तत्वेन यद्यद्धर्माणां निर्णयो नाऽजनि तत्तद्धर्मप्रकारकसंशयतो जिज्ञासाविशेषोत्पत्तेरप्रतिहतत्वात् । एवं स्यान्नास्त्येवेति द्वितीय भङ्गप्रवृत्तेः कथञ्चिदुपपादनेऽपि स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव चेति तृतीयभङ्गप्रवृत्तिरुपपादयितुमशक्या, कथञ्चिदस्तित्वस्य प्रथमभड्रेन कथचिन्नास्तित्वस्य च द्वितीयभङ्गेनाऽवधारणे तदनतिरिक्तस्य क्रमार्पिततदुभयस्य संशयासम्भवेन जिज्ञासाप्रश्नयोरसम्भवात् । यदि च संशयानुरोधेन क्रमार्पिततदुभयमतिरिक्तमेवेत्यभ्युपगम्यते तदा क्रमार्पितत्वरूपं विशेषणमेव तत्र न घटते । न [भयत्वेन रूपेणैकस्वरूपस्य तस्य क्रमार्पणम्, एकस्य क्रमार्पणाभावात् । किञ्च, तृतीयभङ्गप्रतिपाद्यस्य क्रमार्पिततदुभयस्याऽतिरिक्तत्वे यथाऽस्तित्वस्याऽपेक्षानिमित्तमन्यद् नास्तित्वस्य चाऽपेक्षानिमित्तमन्यत् तथा तदुभयस्याऽप्यपेक्षानिमित्तमन्यत् स्यात्, न चैतदिष्टम् । न चाऽवच्छेदकसंवलितस्यैवाऽस्तित्वस्य नास्तित्वस्य चोभयस्वरूपे प्रविष्टत्वेन तत एव तदुक्तेः सापेक्षोक्तित्वसम्भवान्नाऽपेक्षानिमित्तान्तरस्याऽऽवश्यकतेति वाच्यम् । एवं सत्युभयस्य प्रत्येकानतिरिक्तत्वस्यैव स्वहस्तितत्वात् तथा च प्रत्येकनिश्चये कथं तदुभयसंशयः ?। न च, तृतीयभङ्गे क्रमार्पितत्वमधिकं भासते, न च तस्य पूर्वं निश्चय इति तद्विशिष्टस्योभयस्य संशयोपपत्तिरिति वाच्यम् । प्रत्येकं पृथग्वचनेन प्राधान्येन प्रतीयमानत्वत एव क्रमार्पितत्वस्य सम्भवेन तद्बोधकपदाभावेन तृतीयभड्नेन तस्य वोधाभावेन स्वरूपत एव तस्योपयुक्तत्वेन तत्संशयस्य तृतीयभङ्गाप्रयोजकत्वात् । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा न च प्रत्येकं कथञ्चिदस्तित्वनास्तित्वयोर्निश्चयेऽप्युभयत्वेनाऽनिश्चयात् तद्रूपेण संशयः स्यात्, एकरूपेण तन्निश्चयस्य रूपान्तरेण तत्संशयं प्रत्यप्रतिबन्धकत्वादिति वाच्यम् । ४ वोधकपदाभावेनोभयत्वेन रूपेणाऽस्तित्वनास्तित्ववोधस्य तृतीयभङ्गतोऽजायमानत्वेनोभयत्वेन रूपेण तत्संशयस्य तदननुगुणत्वात् समुच्चयार्थकेन चकारेण तृतीयभङ्गप्रविष्टेनोभयत्वस्याऽवबोधनसम्भवे वोभयत्वाश्रयैकधर्मनिश्चयस्योभयत्वाश्रयधर्मान्तरनिश्चयकालीनस्योभयत्वेन रूपेण तद्धर्मप्रकारकसंशयं प्रति प्रतिबन्धकत्वस्याऽनुभवातीतत्वेऽप्युभयत्वाश्रयधर्मान्तरनिश्चयकालीनस्य तस्य तथाविधसंशयं प्रति निश्चयविशिष्टनिश्चयत्वेन प्रतिबन्धकत्वस्याऽनुभूयमानस्याऽप [Sपलपितुमशक्यत्वात् 1 सहार्पितस्वरूपपररूपादिविवक्षातो योऽयं स्यादवक्तव्य एव घट इति चतुर्थो भङ्गः प्रवर्तते सोऽपि न युक्तियुक्तः, तद्विषयतयाऽभिमतस्य कथञ्चिदवक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरतयैव स्वीकारेण तत्संशये प्रथमभङ्गादिजन्यतत्तदर्थनिश्चयस्याऽप्रतिबन्धकत्वेऽपि तथाविधावक्तव्यत्वस्य विधिरूपत्वप्रतिषेधरूपत्वान्यतरानास्पदत्वेन तत्प्रतिपादकचतुर्थभङ्गघटितसमुदायात्मकसप्तभङ्गयाः प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वे सति एकवस्तुविशेष्यकाविरुद्धविधिप्रतिषेधात्मकधर्मप्रकारकबोधजनकसप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वरूपसप्तभङ्गीलक्षणवैधुर्यात् । न च, वक्तव्यत्वप्रतिषेधरूपत्वेनाऽवक्तव्यत्वस्य विधिप्रतिषेधान्यतरानात्मकत्वमेवाऽसिद्धमिति वाच्यम् । यद्धर्मस्य विधिप्रतिषेधकल्पनया या सप्तभङ्गी, तस्यां तद्धर्मविधिप्रतिषेधात्मकधर्मबोधकवाक्यघटितत्वस्यैवोक्तलक्षणाभिप्रेतत्वेनाऽस्तित्वस्य विधिनिषेधकल्पनया प्रवृत्तायाः सप्तभङ्गन्या घटकस्य वाक्यस्याऽस्तित्वस्य यो विधिः स्वरूपम्, अस्तित्वस्य यो निषेधो नास्तित्वं, तदन्यतरप्रकारकबोधजनकत्वमेवोचितम् । अवक्तव्यत्वं च नास्तित्वस्य विधिनाऽर्पितस्य प्रतिषेध इति तत्प्रतिपादकभङ्गघटितसप्तभङ्गया उक्तसप्तभङ्गीलक्षणवैधुर्यं स्यादेव । यदि च वक्तव्यत्वमस्तित्वेन नास्तित्वेन वाऽभिधेयत्वं तच्चाऽस्तित्वस्य स्वरूपे नास्तित्वस्य स्वरूपे वा पर्यवस्यतीति तन्निषेधरूपतयाऽवक्तव्यत्वस्य न प्रकृतधर्मविधिनिषेधान्यतरात्मकताऽसिद्धेति विभाव्यते, तदा प्रस्तुतधर्मविधिनिषेधयोर्निश्चयस्याऽनन्तरभङ्गेन सद्भावेऽवक्तव्यत्वस्य संशयाभावादेव न तुर्यभङ्गप्रवृत्तिरुपपद्यते, सेयमुभयतः पाशा रज्जुः । एवं पञ्चमषष्ठसप्तमभङ्गा अपि तत्प्रतिपाद्यधर्मविषयकसंशयासम्भवेन जिज्ञासाप्रश्नयोरभावादवतारयितुमशक्या इति चेद्, मैवम् । यतः प्रतिपाद्यस्य स्यादस्त्येवेति प्रथमभङ्गजन्यान्वयवोधानन्तरं नास्तित्वसंशयजिज्ञासातः प्रश्ने सति तज्ज्ञानात् स्याद्वादिना तत्संशयनिवृत्यर्थं स्यान्नास्त्येवेति द्वितीयभङ्गः प्रयोक्तव्यः । ततश्च Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा प्रतिपाद्यस्याऽन्वयवोधानन्तरं क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयसंशयजिज्ञासातः प्रश्ने सति तज्ज्ञानात् स्यादस्त्येव नास्त्येव चेति तृतीयभङ्गः प्रयोक्तव्यः । इत्येवं क्रमेण तुर्यपञ्चमषष्ठसप्तमभङ्गानां प्रवृत्तिमाश्रित्य यद्युक्तसप्तभङ्गसमाहारात्मिका सप्तभी स्यात् तदोक्तदिशाऽक्रमिकसंशयापाकरणतस्तस्या अपाकरणं स्यादपि । यदा तु कथञ्चिदस्तित्वादीनां धर्माणां सप्तविधत्वात् कथञ्चिदस्ति नवा कथञ्चिन्नास्ति नवेत्याद्याकारकः समूहालम्बनात्मक एव प्रत्येकं सप्तधर्माणां संशयः प्रतिपाद्यस्य सम्भवति, ततश्च सप्तधर्मजिज्ञासया तदवबोधकप्रश्नवाक्यतस्तज्ज्ञानात् स्याद्वादिना तत्संशयनिवृत्त्यर्थं प्रयुज्यते सप्तभङ्गी, तदा सा निराबाधैव । न च, “धर्माः सत्त्वादयः सप्त, संशयाः सप्त, तद्गताः जिज्ञासाः सप्त, सप्त स्युः, प्रश्नाः सप्तोत्तराण्यपि " || इति वचनात् संशयजिज्ञासाप्रश्नानानां सप्तत्वं प्रतीयते, तस्योक्तदिशा सप्तभङ्ग्युपपादने विरोधः स्यादिति वाच्यम् । संशयादीनां हि सप्तत्वं न संशयत्वाद्यवान्तरजातिवैलक्षण्यप्रयुक्तं, ज्ञानत्वावान्तरप्रत्यक्षत्वपरोक्षत्ववैलक्षण्यप्रयुक्तं, ज्ञानद्वैविध्यमिवाऽनभ्युपगमात् । नाऽपि व्यक्तिभेदप्रयुक्तं तथा सति धर्माणां सप्तविधत्वाभावेऽप्येकस्याऽपि धर्मस्य कालभेदेनैकस्यैव पुरुषस्यैकदाऽपि नानापुरुषाणां सप्तानां संशयादिव्यक्तीनां सम्भवेन सत्त्वादीनां धर्माणां सप्तविधत्वप्रयुक्तं संशयानां सप्तत्वमुक्तवचनप्रतिपाद्यमचतुरस्रं स्यात् । किन्तु स्वप्रकारीभूतधर्मसप्तत्वप्रयुक्तमेव वाच्यम् । तच्च समूहालम्बनसंशयस्य स्वरूपत एकत्वेऽपि निराबाधमेव । एवं जिज्ञासाप्रश्नयोरपि । अत एवोत्तरोत्तरभङ्गानां पूर्वपूर्वभङ्गानन्तर्यमप्युपपद्यते । भङ्गानामव्यवहितपूर्वापरीभावाभावे तु सप्तभङ्गया अविरुद्धविधिप्रतिषेधात्मकधर्मसप्तकप्रकारकसमुच्चयबोधस्योपपत्तयेऽभिमतस्य महावाक्यत्वस्य व्याकोपः स्यात् । न च स्यादस्त्येवेति वाक्यजन्यबोधानन्तरमेव नास्तित्वसंशयो यदि स्यात् तदा ततो जिज्ञासादिद्वारा स्यान्नास्त्येवेति द्वितीयभङ्गावतारे तयोर्नियतः पूर्वापरीभावो युज्यते । एवं द्वितीयतृतीयभङ्गाद्योरपि । यदा तु समूहालम्बनसंशयादित एव सप्तभङ्गाः प्रयुज्यन्ते, तदा भङ्गानां पूर्वापरीभावनियामकस्य कस्यचिदभावाद् यथा स्यादस्त्येवेति भङ्गप्रयोगान्तरं स्यान्नास्त्येवेति भङ्गः प्रयुज्यते तथा स्यान्नास्त्येवेति भङ्गप्रयोगानन्तरं स्यादस्त्येवेति भङ्गः प्रयुज्येत, एवं भङ्गान्तराणामपि पूर्वापरीभावे विनिमयोऽपि स्यात्, उत्तरवाक्यप्रयोगमूलस्य प्रश्नज्ञानस्य पूर्वमेव वृत्तत्त्वादिति वाच्यम् । निषेधज्ञानं प्रति प्रतियोगिज्ञानस्य कारणत्वेन प्रतियोगिज्ञानविधया स्यादस्त्येवेति भङ्गजन्यबोधस्य स्यान्नास्त्येवेति भङ्गजन्यबोधं प्रति कारणत्वेन तयोः फलयोर्नियमेन पौर्वापर्ये तत्कारणयोर्भङ्गयोरपि पौर्वापर्यस्य न्याय्यत्वात् । न हि भङ्गयोः पौर्वापर्यमन्तरेण तज्जन्यबोधयोः पौर्वापर्यं निर्वहतीति सहार्पितस्वरूपपररूपादि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा विवक्षायामस्तित्वनास्तित्वयोरुभयोरपि युगपत्प्रधानभावेन वक्तुमशक्यत्वतो योऽयं तुर्यभङ्गप्रतिपाद्योऽवक्तव्य त्वनामा धर्मस्तस्य विधिनिषेधोभयाश्रितत्वेन धर्मधर्मिणोरभेदमाश्रित्य विधिनिषेधरूपत्वं स्यादेव । अस्तित्वनास्तित्वयोरवक्तव्यत्वादेव तदाश्रयस्याऽप्यवक्तव्यत्वमिति विधिनिषेधकल्पनात्मिकायां सप्तभङ्गयां युज्यत एवाऽवक्तव्यत्वप्रतिपादकस्य तुर्यभङ्गस्य प्रवेशः । किश, वाक्यस्य परार्थाधिगमफलकत्वेन यथा परस्य संशयनिवृत्त्यर्थं प्रयोक्तव्यत्वं तथा परस्याऽज्ञाननिवृत्त्यर्थमपि प्रयोक्तव्यत्वम् । सत्त्वादिप्रत्येकधर्मविधिनिषेधमुखाश्च धर्मा यतः सप्त, ततोऽज्ञानमपि सप्तधैवाऽतस्तन्निवर्तकवाक्यमपि सप्तधैव । एवं धर्माणां सप्तविधत्वात् तत्र वादिनां विप्रतिपत्तयोऽपि सप्त, तन्निवर्तकवाक्यान्यपि सप्तेत्येवंरीत्याऽपि सप्तभङ्गी सूपपादा । न चाऽज्ञानविप्रतिपत्तिनिरासार्थमपि सप्तभङ्गीवाक्यस्याऽभ्युपगमे तत्र प्रदर्शितसप्तभङ्गीलक्षणघटकस्य प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वे सतीति विशेषणस्याऽभावादव्याप्तिरुक्तलक्षणे दोषः । न चोक्तदोषव्यपोहाय सत्यन्तं नोपादेयमिति वाच्यम् । __ “प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभनी" इति चिरन्तनोक्तावुक्तार्थकप्रश्नवशादित्युपादानवलात् तस्य तल्लक्षणघटकत्वावधारणादिति वाच्यम् । “यद्यपि सत्यन्तनिवेशस्याऽतिव्याप्त्यादिदोषवारकत्वं न सम्भवति तथाऽपि प्रतिपाद्यप्रश्नानां सप्तविधानामेव सद्भावात् सप्तैव भङ्गा इति नियमसूचनाय तन्निवेशनम् इति ग्रन्थेन'1 विमलदासेनाऽव्याप्त्यतिव्याप्त्यसम्भवाभिधलक्षणदोषावारकत्वेन तस्याऽवश्योपादेयत्वस्याऽर्थतः प्रतिक्षेपात् । प्रत्युत हेतोर्व्यभिचाराद्यवारकविशेषणघटितत्वे लक्षणस्येतरभेदानुमितिप्रयोजनकत्वपक्षे व्यर्थविशेषणघटितत्वेन व्याप्यत्वासिद्धिदोषमुरीकुर्वतो नैयायिकादीन् प्रति सत्यन्तघटितमुक्तलक्षणं प्रदर्शयितुमप्यशक्यम् । यदि च लक्ष्यभेदे लक्षणभेद आवश्यकः, लक्ष्या चाऽत्र सप्तभङ्गी, सा यद्यपि स्वरूपतोऽभिन्ना तथाऽपि प्रयोजनभेदादिन्ना एका संशयनिवर्तिका, द्वितीयाऽज्ञाननिवर्तिका, तृतीया विपर्ययनिवर्तिका । एकस्या अपि तत्तत्प्रयोजनोपधानतः कथञ्चिद् भेदो न विरुद्धः । एवं च सप्तभड़ीसामान्यलक्षणे सत्यन्तं नोपादेयं, प्रयोजनाभावात्, अज्ञानादिनिवृत्त्युद्देशप्रवृत्तायामव्याप्तेश्च । उपादेयं च तत्संशयनिवृत्तिफलकसप्तभङ्गीविशेषलक्षणे । अन्यथाऽज्ञानादिनिवृत्त्युद्देशप्रवृत्तायां तस्यामतिव्याप्तेः । एवं च सप्तभङ्गीविशेषलक्षणे सत्यन्तस्य व्यभिचारवारकत्वेन न वैयर्थ्यमिति विभाव्यते, तदाऽस्तु सप्तभङ्गीविशेषमुद्दिश्यैव प्रश्नवशादिति चिरन्तनानामुक्तिः । यत्र चैकस्य प्रतिपाद्यस्य संशयोऽन्यस्याऽज्ञानं तृतीयस्य च विपर्ययस्तत्र तानुद्दिश्य प्रवृत्ताया एकस्या एव सप्तभङ्गन्या उक्तप्रयोजनत्रयोपधायकत्वेन प्रत्येकं सप्तभङ्गीत्रयलक्षणयोगेऽपि न तत्तल्लक्षणस्याऽतिव्याप्तिः, तस्या लक्षणत्रयलक्ष्यताया उक्तदिशाऽभ्युपगमे 1. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी पृ. ४ पं. ७ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा क्षत्यभावात् । यदि च प्रयोजनभेदेऽपि स्वरूपस्याऽविशेषान्न सप्तभङ्गीत्रयकल्पना युक्तिमती, नवा स्वरूपव्यवस्थापकत्वस्य लक्षणलक्षणस्य प्रकृते सत्यन्तविनिर्मुक्तेऽपि लक्षणे निरावाधेन तदनुपयोगिविशेषणमुपनिवेश्य लक्षणभेदकल्पनाऽपि युक्ता, इति भवति परीक्षकाणां मतिः; तदा सत्यन्तानुपादानेऽपि न नः किञ्चिदपचीयते । यदि च सप्तभङ्गयाः प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वपक्षे तत्तद्ग्रन्थपर्यालोचनया संशयजिज्ञासाप्रश्नानां सप्तविधत्वं न प्रकारगतसप्तत्वमात्रप्रयुक्तं किन्तु स्वरूपभेदप्रयुक्तमपीति निश्चीयते, एवं च समूहालम्बनात्मकसंशयादिकमादायोपपादिता सप्तभङ्गी न ऋजुमतीनामानन्दविधायिनी, भङ्गानां संशयादिना परस्परं व्यवधानेऽपि पुनरव्यवधानेनोपस्थितिकल्पनया सप्तभङ्गीभावमापन्नानां समुच्चयात्मकबोधजनकत्वमेव च तेषामनुमतमिति विभाव्यते, तदा तत्तद्रङ्गजन्यान्वयबोधानन्तरं भङ्गान्तरप्रयोजकसंशयाधुत्पत्तिरपीत्थं विभाव्यताम् । तथा हि – स्यादस्त्येव घट इति प्रथमभड्रेनोत्पन्नो निर्णयः स्वरूपेण घटत्वादिनाऽस्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितघटत्वावच्छिन्नविशेष्यताको घटत्वादिना नास्तित्वनिष्ठाप्रकारतानिरूपितघटत्वावच्छिन्नविशेष्यताकबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिवन्धको, न तु पररूपेण पटत्वादिना नास्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितघटत्वावच्छिन्नविशेष्यताकबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति । एवं च तदनन्तरं पररूपेण घटो नाऽस्ति नवेति संशयः स्यादेव, तस्य पररूपावच्छिन्ननास्तित्वनिष्ठप्रकारताकस्य स्वरूपावच्छिन्ननास्तित्वनिष्ठप्रकारताकत्वाभावेनोक्तप्रतिबध्यतावच्छेदकधर्मानाक्रान्तत्वात् । यद्यपि पररूपेणाऽस्ति नवेति संशयोऽपि द्वितीयभङ्गप्रयोजकः, तथाऽपि तस्याऽपि पररूपेणाऽस्तित्वनिष्ठप्रकारताकत्वं पररूपेण नास्तित्वनिष्ठप्रकारताकत्वं च, न तु स्वरूपावच्छिन्ननास्तित्वनिष्ठप्रकारताकत्वम्, इत्युक्तप्रतिवध्यतावच्छेदकधर्मानाक्रान्तत्वेनोत्पत्तिर्निराबाधैव । न च, घटत्वे नास्तित्वप्रकारकनिश्चयो यथा घटत्वेन नास्तित्वप्रकारकबुद्धिं प्रति प्रतिवन्धकस्तथा पटत्वादिनाऽस्तित्वप्रकारकबुद्धिं प्रत्यपीति पटत्वादिनाऽस्तित्वप्रकारकवुद्धित्वमपि तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकम् । तस्य पटत्वेन घटोऽस्ति नवा, पटत्वेन घटो नास्ति नवेत्युभयत्र सत्त्वेन प्रतिबध्ययोस्तयोर्न प्रथमभङ्गजन्यबोधानन्तरमुत्पत्तिसम्भव इति वाच्यम् । यतो घटत्वेनाऽस्तित्वस्य पटत्वेनाऽस्तित्वं नाऽभावरूपं, येन तज्ज्ञानस्य तदभावज्ञानविधया घटत्वेनाऽस्तित्वनिश्चयस्य प्रतिबध्यत्वं स्यात् । यद्यपि घटत्वपटत्वयोः परस्पराभावव्याप्यत्वेन तदवच्छिन्नास्तित्वयोरपि परस्पराभावव्याप्यत्वमिति कृत्वा घटत्वेनाऽस्तित्वनिश्चयस्य तदभावव्याप्यवत्तानिश्चयमुद्रया पटत्वेनाऽस्तित्वबुद्धिं प्रति प्रतिवन्धकत्वं, तथाऽपि स्वरूपसतस्तदभावव्याप्यत्वस्य न प्रतिबन्धकतोपयोगित्वं, वस्तुतस्तदभावाव्याप्यस्याऽपि तदभावव्याप्यत्वेन ग्रहे तन्निश्चये प्रतिबन्धकत्वस्य तदभावव्याप्यस्याऽपि तत्त्वेनाऽग्रहणे तन्निश्चये प्रतिबन्धकत्वाभावस्यैव चाऽनुभूयमानत्वात् । किन्तु ज्ञातस्य तस्य तत्त्वं वाच्यम् । स्यादस्त्येव घट इति निश्चये च भासमानं घटत्वेनाऽस्तित्वं न पटत्वेनाऽस्तित्वाभावव्याप्यत्वेन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा भासते । तथा सति पटत्वेनाऽस्तित्वाभावव्याप्यघटत्वेनाऽस्तित्ववान् घट इति प्रथमभङ्गजन्यो बोधः स्याद्, न चैवमुपेयते, इति न तदभावव्याप्यवत्तानिश्चयमुद्रयाऽपि प्रतिबन्धकत्वमिति पूर्वप्रदर्शितसंशयः स्यादेव । ___ न च, स्यादस्त्येव घट इति प्रथमभड्नेनैवकारघटितेनाऽवधारणार्थः प्रतीयते, तथा च घटत्वेनाऽस्तित्वस्य विरोधि यथा घटत्वेन नास्तित्वं तथा सर्वथाऽस्तित्वमपीति तद्व्यवच्छेदप्रतीतौ तदन्तर्गततया पटत्वेनाऽस्तित्वव्यावृत्तिरपि प्रतीयते । अतः प्रथमभङ्गजन्यवोधस्य पटत्वेनाऽस्तित्वाभावप्रकारकनिश्चयत्वेन रूपेण पटत्वेनाऽस्तित्वप्रकारकवुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिवन्धकत्वेन तत्सदावे कथमुक्तसंशयोल्लास इति वाच्यम् । सर्वथाऽस्तित्वं हि न प्रत्येकं तत्तद्रूपावच्छिन्नास्तित्वान्यतमरूपं, येन तद्व्यवच्छेदप्रतीतौ पटत्वेनाऽस्तित्वव्यवच्छेदोऽपि प्रतीयेत, घटत्वेनाऽस्तित्वस्याऽपि तादृशान्यतमान्तर्गतत्वेन घटत्वेनाऽस्तित्वस्य बोधे तद्व्यवच्छेदभानस्याऽसम्भवात्, किन्तु स्वपररूपादिसर्वप्रकारावच्छिन्नमस्तित्वं प्रत्येकं तत्तद्रूपावच्छिन्नास्तित्वसमुदायो निरवच्छिन्नमस्तित्वं वा, न चैतत्त्रितयमपि पटत्वेनाऽस्तित्वस्य व्यापकं, पटत्वेनाऽस्तित्वाश्रये पटे तेषामभावात् । समुदाये यद्यपि प्रत्येकं समुदायिस्वरूपं प्रविष्टं, तथाऽपि समुदायत्वेनैव रूपेण तद्व्यवच्छेदः प्रतीयते, न तु प्रत्येकगततत्तदसाधारणरूपेण । एकस्य कस्यचित् समुदायिनः सत्त्वेऽपि समुदायाभावस्य सत्त्वे विरोधाभावेन समुदायत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वावच्छिन्नप्रकारताकनिश्चयस्य प्रत्येकं तत्तद्धर्मावच्छिन्नप्रकारताकबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रत्यप्रतिबन्धकत्वेन नोक्तरीत्याऽप्युक्तसंशयोत्पत्तिः प्रतिरोद्धं शक्या । तथा च परम्परया प्रयोजकस्य संशयस्य सम्भवाद् द्वितीयो भङ्गः स्यादेव । तृतीयभङ्गप्रतिपाद्यस्य क्रमार्पितकथञ्चिदस्तित्वकथञ्चिन्नास्तित्वोभयस्य कथञ्चिदस्तित्वकथञ्चिनास्तित्वाभ्यां कथञ्चिद् व्यतिरिक्तत्वेन तबुद्धित्वस्य तदभावबुद्धित्वस्य वाऽस्तित्वनिश्चयस्य नास्तित्वनिश्चयस्य वा प्रतिवद्ध्यतानवच्छेदकत्वेन प्रथमद्वितीयभङ्गाभ्यां प्रत्येकमस्तित्व-नास्तित्वनिश्चययोः क्रमेण वृत्तत्वेऽपि तदनन्तरं क्रमार्पितास्तित्व-नास्तित्वोभयप्रकारकसंशयस्योत्पत्तिनिराबाधैव । ___ न च, प्रथमद्वितीयभङ्गजन्यबोधयोनिश्चयविशिष्टनिश्चयत्वेन प्रतिबन्धकत्वं सम्भवति, तदभावावच्छेदकतया गृहीतधर्मनिश्चयस्यैव तदभावग्राहकत्वेन निश्चयविशिष्टनिश्चयत्वेन प्रतिबन्धकत्वस्योररीकृतत्वेन तस्य प्रथमभङ्गेनाऽस्तित्वस्य द्वितीयभड्नेन नास्तित्वस्य वा क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयाभावाच्छेदकतयाऽगृहीतत्वेन प्रकृतेऽसम्भवात् । मणिमन्त्रादिन्यायेन प्रतिवन्धकताऽत्र तदा स्याद् यदि प्रथमद्वितीयभङ्गजन्यवोधानन्तरं तादृशसंशयानुत्पत्तिरविगानेन प्रतीता स्यात्, यथा मण्यादिसमवधाने दाहानुत्पत्तिः, न चैवम् । किञ्च निश्चयविशिष्टनिश्चयत्वेन तत्रैव प्रतिवन्धकता यत्रैककालावच्छिन्नैकाधिकरणवृत्तित्वसम्बन्धेन निश्चयवैशिष्ट्यं द्वितीयनिश्चये वर्तते । प्रकृते च द्वितीयभङ्गजन्यवोधकाले प्रथमभङ्गजन्यवोधस्याऽभावेन तादृशवैशिष्ट्यमेव न सम्भवतीति । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा चतुर्थभङ्गप्रतिपाद्यस्य त्ववक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरतयैवोररीकारेण तत्संशयं प्रति तृतीयभङ्गजन्यबोधस्य कथमपि प्रतिबन्धकत्वासम्भवेन तदुत्पत्तिक्रमेण चतुर्थभङ्गावतारः सुघटः । एवं पञ्चमादिभङ्गोत्थापकाः संशयाः सूपपादा इति दिक् । वियं सप्तभङ्गी तदा स्याद् यद्यस्तित्वादिधर्माणां सप्तविधत्वमेवेति नियमः स्यात् । न चाऽयं नियमः सम्भवति, तत्तद्भङ्गप्रतिपाद्यतयाऽभिमतानामस्तित्वादिधर्माणामेव निर्वक्तुमशक्यत्वात्, न्यूनाधिकसङ्ख्याभावाभावाच्च । तथा हि यथैवैकान्ततत्त्ववादिभिर्ये ये धर्मा अभ्युपगम्यन्ते तथैव ते ते धर्मा यद्यनेकान्तवादिनाऽपि तेन तेन भङ्गेन सप्तभङ्गीघटकेन प्रतिपाद्यन्ते तदाऽनेकान्तवादित्वं तस्याऽचतुरस्रमेव स्यात् । अत एकान्तवाद्यनभ्युपगतप्रकारेणैव ते ते धर्मास्तत्तद्वङ्गप्रतिपाद्या इत्यास्थेयम् । ९ - इत्थं च प्रथमभङ्गार्थ एव तावद्विचारणीयः । तत्र स्यादस्त्येव घट इत्यस्य निपातानां द्योतकत्वं वाचकत्वं वेत्युभयथाऽप्यनेकान्तावबोधकेन स्यात्पदेनाऽपेक्षानिमित्तस्य घटत्वादेरुपस्थापनतो घटत्वावच्छिन्नास्तितावानेव घट इत्यर्थः प्रतीयते । तत्र किं तावदस्तित्वम् ? न तावद् वृत्तित्वं, तथा सत्येकान्तवादिभिरपि वृत्तित्वादीनां सावच्छिन्नत्वस्योरीकारेण ततोऽविशेषप्रसङ्गः । न हि घटे या भूतलादिनिरूपिता वृत्तिता सा न घटत्वावच्छिन्नेति नैयायिकादीनामप्युपगमः । वृत्तित्वस्य च सनिरूपकत्वेन निरूपकविशेषापुरस्कारेण तद्बोधस्याऽपरिपूर्णत्वे सप्तभङ्गीतोऽपि समूहालम्बनस्तद्विषयको वोधोऽपरिपूर्ण एव स्यादिति विधिनिषेधकल्पनयाऽस्तित्वादेः निराकाङ्क्षाववोधार्थं सप्तभयुपासनं प्रयासमात्रमापद्येत । किञ्च, वृत्तित्वरूपास्तित्वस्य संयोगेन घटाद्यधिकरणं यद्भूतलादि, तादात्म्येन घटाद्यधिकरणं वा यन्मृदादि तन्निरूपकमेव, न त्ववच्छेदकम् । एवं च स्वद्रव्येण घटोऽस्त्येव स्वक्षेत्रेण घटोऽस्त्येवेत्यत्र च स्वद्रव्यावच्छिन्नत्वस्य स्वक्षेत्रावच्छिन्नत्वस्य च वृत्तित्वे बाधाद् बोधानुपपत्तिः । न च तत्र स्वद्रव्यनिरूपितं स्वक्षेत्रनिरूपितं च वृत्तित्वं प्रतीयते इति वाच्यं । तथा सति तद्बोधिका सप्तम्येव स्यात्, न तृतीया । परमतादविशेषोऽत्राऽपि, घटनिष्ठवृत्तित्वस्य भूतलादिनिरूपितस्यैव परैरुपगमात् । एतेन स्वकालेन स्वकाले वाऽस्तीत्यपि प्रत्युक्तम् । देशनिरूपितवृत्तितायां कालस्य, कालनिरूपितवृत्तितायां देशस्य चाऽवच्छेदकत्वस्य परैरप्युपगमात् । किञ्च, क्षेत्रनिरूपितवृत्तित्व- द्रव्यनिरूपितवृत्तित्व-कालनिरूपितवृत्तित्वानां निरूपकभेदादवच्छेदकसम्बन्धभेदाच्च परस्परं भिन्नत्वेऽपि तेषां सर्वेषां घटत्वावच्छिन्नत्वेन घटत्वावच्छिन्नवृत्तितातो न भेदो, न वा घटत्वावच्छिन्ना वृत्तिता तेभ्योऽन्या काचित् समस्तीति घटत्वावच्छिन्नवृत्तित्वप्रतिपादकभङ्गघटितसप्तभङ्गया भूतलादिवृत्तित्वप्रतिपादकभङ्गघटितसप्तभङ्गीतो गतार्थता । न च यदेव घटे वृत्तित्वं घटत्वावच्छिन्नं तदेव भूतलादिनिरूपितमपि परन्त्वेकस्यां सप्तभङ्गयां घटत्वावच्छिन्नत्वेन प्रतीयतेऽन्यस्यां च भूतलादिनिरूपितत्वेन प्रतीयते तेन तेन रूपेण स्वरूपत एकस्यापि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सप्तभङ्गीप्रभा वृत्तित्वस्य भेद इष्यत एवेति वाच्यम् । स्यादेवं यदि सावच्छिन्नानां सनिरूपकाणां च प्रतीतिरवच्छेदकं निरूपकं चाऽविषयीकृत्याऽऽत्मानमासादयेत्, न चैवम्, अन्यथाऽवच्छेदकाद्यववोधकस्यात्पदाप्रयोगेऽपि वस्तुतो यद्धर्मावच्छिन्नत्वाद्यालिङ्गितं यद्वृत्तित्वं तत्तद्वस्तु प्रतिनियतं तस्यैवाऽस्तीत्यनेनाऽववोधनसम्भवादस्त्येव घट इत्यादिवाक्यस्य दुर्नयवाक्यत्वं न स्यात् । तादृशस्य वृत्तित्वस्य सर्वप्रकारावच्छिन्नत्वस्य वस्तुतोऽभावादेव न तथा प्रतीतावपि घटस्य सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः । यदि चाऽवच्छेदकाद्यप्रतीतौ स्वरूपतो वृत्तित्वविशेषस्य प्रतीतावपि न निराकाङ्क्षवोधः, अपरिपूर्णधर्मप्रतिपादकत्वादिति विभाव्यते तदाऽवच्छेदकसंवलितस्य निरूपकासंवलितस्य निरूपकसंवलितस्याऽवच्छेदकासंवलितस्य च प्रतीतावपि न निराकाङ्क्षबोध इति घटत्वाद्यवच्छिन्नतया प्रतीयमानं भूतलादिनिरूपितत्वेनाऽपि भूतलादिनिरूपिततया प्रतीयमानं घटत्वाद्यवच्छिन्नतयाऽपि च वृत्तित्वं प्रतीयत इत्यकामतोऽपि परिपूर्णबोधार्थं सप्तभङ्गीमभ्युपगच्छद्रिरभ्युपगन्तव्यम् । तथा च पूर्वोक्ता एकस्याः सप्तभङ्ग्या अन्यया सप्तभङ्ग्या गतार्थता स्यादेव । ___न च, सप्तभङ्ग्याः प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यतायाः स्वीकारेण संशयितपुरुषविशेषमुद्दिश्यैव प्रवृत्तिः, अतो यस्य प्रतिपाद्यस्य पुरुषस्य यादृशधर्मद्वयेनाऽस्तित्वे संशयः तादृशधर्मद्वयमध्यादेकस्य धर्मस्य निर्णये सति भवति कृतकृत्यता । एवं च घटः कथञ्चिदस्ति नवेति संशयो यदा यत्पुरुषस्य सर्वधर्मावच्छिन्नवृत्तित्वकिञ्चिद्धविच्छिन्नवृत्तित्वरूपकोटिद्वयमवलम्व्य जातस्तदा तं प्रति स्यादस्त्येव घट इत्ययं भङ्गो घटत्वावच्छिन्नत्वेन वृत्तित्वमववोधयति । तदानीं भूतलाद्यधिकरणनिरूपितत्वस्याऽजिज्ञासितत्वेन तद्रूपेणाऽवबोधनाभावेऽपि क्षतिविरह: । तदंशस्याऽनवबोधनेऽपि प्रतिपाद्यगतसंशयविशेषनिवर्तकनिर्णयजनकत्वादेव प्रतिनियतांशे परिपूर्णता भङ्गस्य । यदा चोक्तसंशयस्तत्पुरुषस्य सर्वक्षेत्रनिरूपितवृत्तित्वकिञ्चित्क्षेत्रनिरूपितवृत्तित्वरूपकोटिद्वयमवलम्व्य जातस्तदा तं प्रत्ययं भङ्गो भूतलादिप्रतिनियतक्षेत्रनिरूपितत्वेन वृत्तित्वमवबोधयति । एवं स्वद्रव्यनिरूपितत्व-स्वकालनिरूपितत्वादिना । एवं च प्रथमभङ्गे स्वद्रव्य-स्वक्षेत्र-स्वकाल-स्वभावावबोधकेन, द्वितीयभङ्गे परद्रव्य-परक्षेत्र-परकाल-परभावावबोधकेन, तृतीयभादौ क्रमार्पिततदुभयाद्यवबोधकेन स्यात्पदेन घटिता स्यादस्त्येव घट इत्यादि सप्तभङ्गसमाहाररूपा सप्तभङ्गयेव प्रतिपाद्यान् संशयितपुरुषविशेषानुद्दिश्य प्रवृत्ता घटत्वेनाऽस्त्येव घट इत्यादिसप्तभङ्गीरूपतां स्वद्रव्यादिनाऽस्त्येव घट इत्यादिसप्तभङ्गीरूपतां चाऽऽसादयतीति नैकस्याः सप्तभङ्ग्या अन्यया सप्तभझ्या गतार्थता । तासां स्यादस्त्येव घट इत्यादि सप्तभङ्गीविवरणमात्रपर्यवसायित्वेन स्वातन्त्र्येण सप्तभङ्गीत्वाभावश्च । अत एव सप्तभङ्गीमात्रस्य स्यात्पदलाञ्छितत्वमप्युपपद्यते । अन्यथा घटत्वेनाऽस्त्येव घट इत्यादौ स्यात्पदाभावेन तन्न स्यादिति वाच्यम् । स्यात्पदं हि प्रकृते कथञ्चिदित्यर्थकमेव, न तु कस्मिंश्चिदित्यर्थकं कदाचिदित्यर्थकं वा, स्यान्नित्य एव Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा घटः, स्यादेक एव घटः स्याद्विन्न एव घट इत्यादौ सर्वत्र तथैव दृष्टत्वात् । कथञ्चित्त्वं च किञ्चिन्निष्ठाव च्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतावत्त्वमेवाऽन्यत्र सर्वत्राऽनुभूयते, न तु किञ्चिन्निष्ठनिरूपकतानिरूपितनिरूप्यतावत्त्वम् । तथा च स्यादित्यस्य योऽर्थस्तदर्थविशेषप्रतिपादक एव यदि स्वद्रव्येणेति, तदा तेनाऽपि स्वद्रव्यनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतावत्त्वमेव प्रतीयेत, न तु स्वद्रव्यनिष्ठनिरूपकतानिरूपितनिरूप्यतावत्त्वम् । न चोक्तावच्छेद्यत्वं प्रतिपादयितुं शक्यं द्रव्यस्य वृत्तित्वरूपास्तित्वस्याऽधिकरणविधया निरूपकत्वस्यैव भावात् । कालनिरूपितवृत्तितायां देशादीनां, देशादिनिरूपितवृत्तितायां कालस्य चाऽवच्छेदकत्वमाश्रित्योक्तार्थोपपादनं च परमतादविशेषप्रसङ्गेणैव हेयम् । , किञ्च, प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वपक्षे घटत्वेनेत्यादिपदघटितैव सप्तभी मुख्यतः प्रयोक्तुमुचिता, निराकाङ्क्षपरिपूर्णबोधे साक्षादुपयोगित्वात्, स्यादित्यनेन कथञ्चिदित्यस्य लब्धत्वेऽपि तद्विशेषजिज्ञासायास्ततोऽनिवृत्तेः, विशेषोक्तौ च सामान्यजिज्ञासाया विशेषजिज्ञासायाश्च निवृत्तेः । तथाऽपि यदि सामान्योक्तिराद्रियते तदा यथा स्यादितिपदं सामान्यतोऽपेक्षानिमित्तस्योक्तिः, तथा भावभूतधर्मवदितित्यस्तित्वकत्वनित्यत्वादीनां विधिधर्माणां सामान्यत उक्तिः, वस्त्विति घटपटादिधर्मिमात्रस्य सामान्यत उक्तिः, निषेधात्मक धर्मवदिति च नास्तित्वानेकत्वानित्यत्वादीनां सामान्यत उक्तिः । एवं च स्याद्विध्यात्मक - धर्मवदेव वस्तु, स्यान्निषेधात्मकधर्मवदेव वस्तु, स्याद्विध्यात्मकधर्मवन्निषेधात्मकधर्मवच्च वस्तु, स्यादवक्तव्यमेव वस्तु, स्याद्विध्यात्मकधर्मवदवक्तव्यं च वस्तु, स्यान्निषेधात्मकधर्मवदवक्तव्यं च वस्तु, स्याद्विध्यात्मकधर्मवन्निषेधात्मकधर्मवदवक्तव्यं च वस्तु, इत्येकरूपा सप्तभङ्गयेव मुख्याऽस्तु सर्वावच्छेदकधर्मधर्म्यनुगतोक्तित्वात् । अन्या अवच्छेदकविशेष-धर्म-विशेष-धर्मिविशेषप्रतिपादनपराः सप्तभङ्गन्यस्तद्विवरणपर्यवसायिन्य इति । 99 अस्तित्वादिधर्मविशेषप्रतिपादके भङ्गे स्यात्पदोपादानमप्युक्तयुक्त्या न स्यादित्येतेन यत्रैक एव प्रतिपादकः प्रतिपाद्याश्च बहवः घटेऽस्तित्वं सर्वप्रकारावच्छिन्नं घटत्वाद्येकधर्मावच्छिन्नं वा, सर्वदेशनिरूपितं भूतलादिकिञ्चिद्देशनिरूपितं वेत्येवं पृथक् पृथक् संशयवन्तः, तत्र युगपदेवाऽनेकविधप्रश्नज्ञानेन प्रयोक्तव्ये उत्तरवाक्ये सप्तभङ्ग्यात्मके स्यात्पदातिभङ्घटितत्वमेव युज्यते । तथा सति एकस्मादेव वाक्यात् सर्वेषां संशयनिवृत्तिः । घटत्वेनाऽस्त्येव घट इत्याद्युक्तौ घटत्वावच्छिन्नास्तित्वज्ञानेनैकस्य संशयनिवृत्तावप्यपरस्य सर्वदेशनिरूपितत्वादिकोटिकसंशयानिवृत्तेस्तदर्थं सप्तभङ्गयन्तरस्याऽपि प्रयोक्तव्यत्वं स्यात्, न चैतन्याय्यम्, उक्तप्रकारेण सकृदुक्त्याऽपि सर्वेषां संशयनिवृत्तिसम्भवे प्रयासगौरवाश्रयणस्य निष्प्रयोजनत्वादिति निरस्तम् | यत्र कस्यचित् कथञ्चिदस्तित्व - नास्तित्वयोः संशयः, कस्यचिच्चैकत्वानेकत्वयोः संशयः, अन्यस्य भेदाभेदयोः संशय इत्येवं पृथक् पृथक् संशयवन्तो बहवः पुरुषाः प्रतिपाद्याः प्रतिपादकश्चैकस्तत्रोक्तयुक्त्या स्यादस्त्येवेत्याद्येकसप्तभङ्गयाः प्रयोगेन सर्वेषां संशयनिवृत्तिरिति स्यान्नित्य एवेत्यादिसप्तभङ्गयन्तरस्याऽपि प्रयोगे प्रयासगौरवमिति सर्वावच्छेदकधर्मधर्मिप्रतिपादनप्रवणायाः स्याद् भावभूतधर्मवदेव वस्तु, स्यान्निषेधात्मक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा धर्मवदेव वस्तित्यादिरूपाया एकस्या एव सप्तभङ्गया मुख्यत्वं स्यात् । यदि च विशेषरूपेण संशयजिज्ञासयोः विशेषरूपनिर्णायकविशेषोक्तित एव निवृत्तिरिति विभाव्यते तदा सामान्याववोधकस्यात्पदलाञ्छितत्वं सप्तभङ्ग्या नाऽभ्युपेयम् । १२ न चैवमेवाऽस्त्विति वाच्यम् । एवं च स्याद्वादितैव हीयेत । किञ्च, वृत्तित्वं यद्यस्तित्वं प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यं तदा वृत्तित्वाभावरूपमेव नास्तित्वं द्वितीयभङ्गेन प्रतिपाद्यमिति वाच्यम् । तत्र स्यात्पदबोध्यस्य कथञ्चिदित्यस्य किं प्रतियोगितावृत्तित्वेनाऽन्वय उत वृत्तित्वनिष्ठप्रतियोगितया, किंवा वृत्तित्वाभावेन ? नाऽऽद्यः, विरोधाघ्रातत्वात् । कथञ्चिदस्तित्वस्य यथा सर्वथास्तित्वनास्तित्वे विरुद्धे तथा कथञ्चिदस्तित्वस्याऽभावोऽपि विरुद्धः, विशेषविरोधित्वस्य विशेषाभावे सामान्याभावे चाऽविशेषात् । न च, द्वितीयभङ्गघटकेन स्यात्पदेन प्रथमभङ्गार्थापेक्षानिमित्तातिरिक्तापेक्षानिमित्तमेव बोध्यते, तथा च प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यस्य स्वद्रव्यादिना वृत्तित्वस्य द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्याभावप्रतियोगिनश्च परद्रव्यादिना वृत्तित्वस्य भिन्नत्वमेवेति तद्विशेषस्य तद्विशेषाभाव एव विरोधी, न तु विशेषान्तराभाव इति न विरोधाघ्रात ति वाच्यम् । एवं सति सप्तभङ्गयां मूल एव कुठारो व्यापारितः स्यात् । एकस्यैव धर्मस्य विधिनिषेधकल्पनया सप्तभङ्गी भवतामनुमता । न चैवं तथा, घटत्वावच्छिन्नवृत्तित्व-पटत्वावच्छिन्नवृत्तित्वाभावयोरेकधर्मापेक्षया विधिनिषेधरूपत्वाभावात् 1 न च, स्यात्पदार्थानन्तर्भावे प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यस्य वृत्तित्वसामान्यस्य द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यस्य च वृत्तित्वसामान्याभावस्य विधिनिषेधरूपत्वमस्त्येव तदाश्रित्यैवोक्तानुमतिः, स्यात्पदार्थान्तर्भावेण च प्रथमभङ्ग - प्रतिपाद्य-द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यनिषेधप्रतियोगिनोश्च भिन्नत्वव्यवस्थापनत उभयभङ्गार्थयोरविरोधः ख्यापितो भवति, तदर्थमेव च स्यात्पदस्य तत्र तत्र भङ्गे प्रवेश इति वाच्यम् । नूनं स्याद्वादानभिज्ञो भवान्, यतो विरुद्धयोरपि विभिन्नावच्छेदेनैकाधिकरणे सत्त्वस्य प्रदर्शनेनैकावच्छेदेनैकाधिकरणावृत्तित्वरूपविरोधस्य रक्षणमेव स्याद्वादकृत्यम्, न तूक्तदिशा विरोधिस्वरूपयोरुन्मूलनेन विरोधध्वंसनम् । तथैव किं न स्यादिति चेद् न, अव्यवस्थाप्रसङ्गात् । तथा भावाभावयोः परस्परनिषेधरूपत्वलक्षणो विरोधः सन्नपि न प्रतीतिविघातकृत्, भिन्नाधिकरणेऽ-विरलक्रमेण यौगपद्येन च तयोः प्रतीयमानत्वात् । किन्त्वेकमधिकरणमाश्रित्य स तथा, तत्राऽपि सहानवस्थानलक्षणविरोधमाहात्म्यादेव स तथा, एकाधिकरणे भावाभावयोः प्रतीतौ तस्यैव व्याहतेः, न तु परस्परनिषेधरूपत्वस्य, तस्याऽधिकरणाऽघटितत्वात् । यथा हि - विभिन्नाधिकरणयोः प्रतीयमानौ भावाभावौ परस्परनिषेधरूपतां न जहतस्तथैकाधिकरणेऽपि । सहानवस्थानं तु जहत एव । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा १३ एवं च निषेधस्य भिन्नप्रतियोगिकत्वाववोधनेन परस्परनिषेधरूपत्वलक्षणविरोधाभावतो यथैकस्मिन्नधिकरणे विधिनिषेधयोः प्रतीतिरुपपादिता भवति स्याद्वादेन, तथा विरुद्धयोरपि विभिन्नाधिकरणकत्वावबोधनेन प्रतीतिरुपपादिता स्यादेव । तथा च स्यात्पदादन्यतो वाऽधिकरणभेदोपदर्शनेन घटोऽस्ति, पटो नास्ति, घटोऽस्ति पटो नास्ति च, अवक्तव्यः, घटोऽस्ति अवक्तव्यश्च, पटो नास्ति अवक्तव्यश्च, घटोऽस्ति पटो नास्ति अवक्तव्यश्चेत्येषाऽपि सप्तभङ्ग्यस्खलितप्रचारा स्यात् । एवं मठादिरूपभिन्नाधिकरणोपनिबन्धनाऽपि सा स्यादित्यव्यवस्थाप्रसङ्ग एकान्ताविशेषश्चोभयत्राऽपि । ननु कथमेवं भविष्यति, निर्विशेषितस्य वृत्तित्वस्य केवलान्वयित्वेन तदभावाप्रसिद्ध्या तदवबोधकस्य द्वितीयभङ्गस्याऽसम्भवादिति ? न, भावानववोधात् । वाक्यमात्रेऽनिष्टार्थनिवृत्तयेऽवधारणार्थकैवकारस्याऽवश्यंभावेन घटो वृत्तितावानेत्यर्थकेन घटोऽस्त्येवेति प्रथमभङ्गेन सर्वाधिकरणनिरूपितसर्वधर्मसम्वन्धावच्छिन्नवृत्तितामात्रं मा प्रापद् घटे इत्येतदर्थं निरूपकाधिकरणावच्छेदकधर्मसंसर्गविशेषाणां वृत्तित्वविशेषणतया वाच्यतया तादृशविशेषणविशिष्टस्यैवाऽकेवलान्वयिनो वृत्तित्वस्याऽभावो भिन्नाधिकरणे द्वितीयभड्नेन वोध्यत इत्युक्तानिष्टसप्तभङ्गीप्रसञ्जनस्याऽभिप्रायः । वृत्तित्वाभावस्याऽप्रसिद्धौ च शशशृङ्गस्येव तस्य न केनाऽपि समं विरोध इति कस्योन्मूलनं निषेध्य भिन्नत्वाववोधकं स्यात्पदं भङ्गे निवेशयता भवता क्रियेतेत्यत्राऽपि दीयतां दृष्टिः । तस्माद् यत्किञ्चिदेतत् । नाऽपि वृत्तित्वनिष्ठप्रतियोगिता स्यात्पदवोध्यस्याऽन्वय इति द्वितीयपक्षोऽपि युक्तः, वृत्तिभास्यस्य वृत्तिभास्येनैवाऽन्वय इति नियमेन वृत्तित्वस्य नञर्थेऽभावे आकाङ्क्षया भासमाने प्रतियोगित्वसंसर्गे वाचकतापक्षे स्यात्पदोपस्थितस्य कथञ्चिदर्थस्याऽन्वयासम्भवात् । न च, वृत्तित्वस्य कथञ्चिदर्थान्वितप्रतियोगितासम्बन्धेनाऽभावान्वये नास्तीत्यस्य तात्पर्यमित्यव. वोधकतैव स्यात्पदस्य, न तु कस्यचिदर्थस्योपस्थापकत्वं, द्योतकतापक्षस्याऽप्युक्तार्थ एव तात्पर्यमिति वाच्यम् । तथाऽप्यसम्भवात् । प्रथमभङ्गे स्याच्छब्देन वृत्तित्वे स्वद्रव्यक्षेत्राद्यधिकरणानां निरूपितत्वमेव द्योतितमिति द्वितीयभङ्गेऽपि तेन परद्रव्यक्षेत्रादीनां निरूपितत्वमेव द्योतनीयम् । न च तस्य प्रतियोगितायां सम्भवः, तस्यामवच्छेदकतानिरूपितत्वाभावनिरूपितत्वयोरेवोपगमात् । यदाऽपि देशवृत्तितायां कालरूपस्याऽधिकरणस्य, कालवृत्तितायां च देशरूपस्याऽधिकरणस्याऽवच्छेदकत्वमिति नियममभ्युपेत्य स्वद्रव्यादिनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितत्वमेव प्रथमभङ्गे स्यात्पदेन वृत्तित्वे द्योत्यत इति विभाव्यते, तदाऽपि तादृशपरद्रव्यादिनिष्ठवछेदकतानिरूपितत्वस्य प्रतियोगितायां न सम्भवः, धर्मसंसर्गविधयैव तदवच्छेदकत्वस्याऽभ्युपगमात्, न तु देशकालादिविधया । न चाऽवच्छेदकत्वानां वैलक्षण्यमपलपितुं शक्यं, निमित्तभेदेन तद्वैलक्षण्यस्याऽनुभूयमानत्वात् । न च, प्रथमभङ्गेऽस्तु यथातथा स्वद्रव्यादीनामवच्छेदकत्वं स्याच्छब्दद्योत्यं, द्वितीयभङ्गे त्वविशेषात् Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सप्तभङ्गीप्रभा सर्वेषां परद्रव्यादीनां धर्मविधयैवाऽवच्छेदकत्वं सम्भवितं स्यात्पदद्योत्यमिति वाच्यम् । एवं सति परद्रव्यादीनां सर्वेषां परभावत्वेनैकविधत्वमेव स्यात् । न चैवमभ्युपगमेऽप्यभीष्टार्थो भवत उपपद्यते । न च, द्वितीयभड्रेन व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावप्रतिपादनमेव ममाऽभीष्टं, तच्च परद्रव्यादीनां वृत्तित्वात्मके प्रतियोगिन्यवर्तमानानामवच्छेदकत्वाभ्युपगमेन निर्वहत्येवेति वाच्यम् । एवं सति स्वद्रव्यादिना घटोऽस्त्येवेतिवत् स्वद्रव्यादिना घटो नास्त्येवेत्यपि भङ्गो यथार्थः स्यात्, परद्रव्यादीनामिव स्वद्रव्यादीनामपि घटनिष्ठवृत्तित्वेऽसत्त्वेन व्यधिकरणधर्मत्वाविशेषात् । प्रत्युत परभावान्तर्गतेन वृत्तितात्वेन द्वितीयभङ्गप्रवृत्तिर्न स्यात् । अथाऽऽधेयताया आधेयस्वरूपत्वेनाऽऽधेयस्य घटस्य ये सम्बन्धिनः स्वद्रव्यादयस्ते तदात्मकवृत्तित्वस्याऽपीति न तेषां व्यधिकरणत्वं किन्तु घटासंबन्धिनां परद्रव्यादीनामेवेति द्वितीयभङ्गविषयो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावो निराबाध एवेति चेत्, तत्कि वृत्तित्वं सर्वथा घटादभिन्नमेवाऽभिमतमायुष्मतः ? ओमिति चेत्, तथा सति यदर्थमयमारम्भः सोऽयमनेकान्तवादो विशीर्येत । एवं सति प्रथमभङ्गार्थोऽपि न घटनामियात्, अस्त्यर्थस्य हि घटार्थादविशेषे घटे यथा घटत्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितत्वादिकं वाधितं तथा तदात्मके वृत्तित्वेऽपि । __ न च, घटतदवृत्तित्वयोर्घटत्ववृत्तितात्वाभ्यां भेदः, स्वरूपतश्चाऽभेद इति भेदाभेद एव, तत्राऽभेदमाश्रित्य घटसम्वन्धिनां स्वद्रव्यादीनां घटवृत्तित्वस्य सम्बन्धित्वं घटासम्बन्धिनां च परद्रव्यादीनामसम्बन्धित्वमिति नोक्तदोष इति वाच्यम् । एवं सति भेदमवलम्ब्य स्वद्रव्यादीनां घटवृत्तित्वस्याऽसम्वन्धित्वमपीति कृत्वा व्यधिकरणत्वमपि तेषाम् । तथा च तानादायाऽपि द्वितीयभङ्गप्रवृत्तौ स्वद्रव्यादिना घटोऽस्त्येव, स्वद्रव्यादिना घटो नास्त्येवेत्येवंप्रकारेणाऽपि सप्तभङ्गी साधूपपादिता भवता । न च, कथमेवं स्यात् ? नोकदैवैकेन वक्ौकस्मिन्नेव सप्तभङ्ग्यात्मके महावाक्ये प्रयोक्तव्ये एकस्यैवैकस्मादेव प्राधान्येन गुणभावे च भेदोऽभेदो वाऽऽस्थातुं शक्य इति प्रथमभङ्गोपपत्त्यर्थं घटेन सह तदवृत्तित्वस्याऽभेदं य आश्रितवान् स कथं द्वितीयभङ्गोपपत्त्यर्थं तयोर्भेदमाश्रयेद्? इति वाच्यम् । प्रथमभोपपत्त्यर्थमपि तयोर्भेदस्यैवाऽऽश्रितत्त्वात् । तथा हि - घटस्य न स्वरूपतो भूतलादिदेशनिरूपितत्वं, न वा कालविशेषाद्यवच्छेदकतानिरूपितत्वं, नैव च घटत्वादिनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितत्वम् । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा तद्रतवृत्तित्वे च तत्सर्वस्य सत्त्वमिति वृत्तित्वे भूतलादिदेशनिरूपितत्वाद्यवबोधकस्य प्रथमभङ्गस्य सुस्पष्टैव तद्भेदालम्बनाप्रवृत्तिः । न च, प्रथमभङ्गे स्वद्रव्यादिपदोत्तरतृतीयया स्वद्रव्यादिसम्वन्धितया यादृगर्थः प्रतीयते स्यात्पदेन बोध्यते वा, तादृगर्थनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितत्वमेव द्वितीयभङ्गे तृतीयया स्यात्पदेन वा बोध्यते प्रतियोगितायां, तात्पर्यस्य तथैवोपपत्तेः । एवं च स्वद्रव्यादिनिरूपितत्वादीनां वृत्तित्वे सत्त्वेन समानाधिकरणधर्मत्वं परद्रव्यादिनिरूपितत्वादीनां तत्राऽसत्त्वेन व्यधिकरणधर्मत्वमिति परद्रव्यादिनिमित्ताश्रयणेनैव द्वितीयभङ्गस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावपरत्वं निर्वहतीति वाच्यम् । मतस्याऽऽग्रहग्रहोल्लसितत्वात् । तथा हि - को नाम प्रतियोग्यभावान्वयौ तुल्ययोगक्षेमाविति न्याये जाग्रति एकजातीयाया एव विभक्तेः समानस्य स्यात्पदस्य वा प्रतियोग्यन्वयवोधकवाक्येऽन्यार्थकत्वमभावान्वयबोधकवाक्ये चाऽन्यादृशार्थकत्वमभ्युपगच्छेच्छाव्दमर्यादाभिज्ञः ? कथं चैवमप्येकान्तवादिव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाभ्युपगन्तृवेदान्त्यादिमतादविशेषः परिहृतो भवति ? स्वद्रव्यादीनां वृत्तित्वनिष्ठप्रतियोगितायाः साक्षादवच्छेदकत्वं विवक्षित्वा परेणाऽऽपाद्यमानः स्वद्रव्यादिना नास्त्येव घट इति द्वितीयभङ्गः कथं च परिहरणीयः ? यावता लाघवाख्यस्तर्कस्तादृशार्थविवक्षामेव दृढमूलां विदधाति, तिरस्करोति च निरूपितत्वादिनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितत्वविवक्षां प्रतिकूलतामापन्नो गौरवाख्यस्तर्कः, तस्मान्नाऽयं पक्षः श्रेयान् । १५ नाऽपि स्यात्पदवोध्यस्य कथञ्चिदर्थस्य वृत्तित्वाभावेनाऽन्वय इति तृतीयपक्षो मूर्धाभिषिक्तो विचारचूलामवलम्बते । तथा हि - किं यादृशस्य कथञ्चिदर्थस्य प्रथमभङ्गे प्रवेशस्तादृशस्यैव तस्य द्वितीयभङ्गेऽपि प्रवेशः, अन्यादृशस्य वा ? नाऽऽद्यो, यतः प्रथमभङ्गे स्वद्रव्यादीनां निरूपितत्वं स्वभावस्य च स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितत्वं प्रविष्टं तादृशं च परद्रव्यादीनां निरूपितत्वं परभावस्य च स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितत्वं वृत्तित्वाभावे किञ्चिदनिरूपिते बाधितमेव । ननु प्रथमभङ्गे यथातथाऽस्तु, द्वितीयभङ्गे तु सर्वेषामेव परद्रव्यादीनामवच्छेद्यत्वमेव वृत्तित्वाभावे भासते, न च तदसम्भवि, स्याद्वादे सर्वेषामेव धर्माणामव्याप्यवृत्तित्वेन वृत्तित्वाभावस्याऽप्यव्याप्यवृत्तितया परद्रव्याद्यवच्छेद्यत्वस्य सम्भवादिति चेत्, एवं सत्यन्यादृशस्य वेति द्वितीयपक्ष आदृतः स्यात् । सोऽपि न विचारं सहते । तथा हि - तदधिकरणस्यैव देशकालादेर्देशकालादिविधया तद्वर्तिन एव धर्मस्य धर्मविधया च तन्निष्ठधर्मस्याऽवच्छेदकत्वमिति नियमो भवताऽप्यभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यस्य वृत्तित्वस्याऽवच्छेदकत्वं स्वद्रव्यादीनामिव परद्रव्यादीनामपि स्यात्, नियामकाभावात् । न च प्रतीतिरेवाऽत्र नियामिका । प्रतीयते तावत् प्रथमभङ्गेन स्वद्रव्यादीनामधिकरणानामेवाऽवच्छेदकत्वं वृत्तित्वस्य, न तु परद्रव्यादीनाम् । द्वितीयभङ्गेनाऽपि च परद्रव्यादीनामनधिकरणानामेव वृत्तित्वाभावावच्छेदकत्वं प्रतीयते, न त्वधिकरणानामपि स्वद्रव्यादीनाम् । किमत्र कुर्मः ? अनुभवस्य Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभडीप्रभा सर्वैरपि वादिभिः प्रमाणतयाऽम्युपगन्तव्यत्वात्, अनुभवापलापे विषयव्यस्थैवोच्छिद्यतेति वाच्यम् । ___ अभिधानाभिधेयप्रत्ययानां हि समानशब्दाभिलाप्यत्वेन येनैव शब्देनाऽभिधानमभिधीयते तेनैवाऽभिधेयः प्रत्ययश्च । एवं च स्यादस्त्येव घटः स्यान्नास्त्येव घट इत्यभिधानमेव स्याद्वादतदर्थतत्प्रत्ययानाम् । न च तत्राऽवच्छेदकत्वरूपस्याऽर्थस्याऽन्यस्य वा स्वशब्देनोल्लेखोऽस्ति, येन प्रतीतिरपि तत्तथोल्लिखेत् । न च तथाऽनुल्लिखन्त्यपि प्रतीतिरेकत्राऽनुल्लिख्यमाने विवादाध्यासिते प्रमाणं, नाऽन्यत्रेत्यत्र पक्षपातादतिरिक्तं प्रमाणम् । यद्यवच्छेदकत्वं परद्रव्यादीनां केनचित् प्रमाणान्तरेण सिद्ध्येत् तदेव द्वितीयभरुन तद्विषया प्रतीतिरुल्लसेत्, नाऽन्यथेत्यकामेनाऽप्यास्थेयम् । किश्श, सामान्यतो वृत्तित्वाभावोऽप्रसिद्धत्वादेव नाऽवच्छेदकयोजनामर्हति । नहि निर्विशेपितं वृत्तित्वसामान्यं न केवलान्वयि, न ह्यप्रसिद्धोऽप्यवच्छेद्यः । तथा सति शशशृङ्गादेरप्यवच्छेद्यत्वं स्यात् । यत्किञ्चिदवृत्तित्वाभावस्त्वच्छेदकयोजनामन्तरेणाऽप्युपपद्यमानो न स्याद्वादमपेक्षत इत्युभयतः पाशा रज्जुः । ___ न च, प्रथमभड्नेन यादृशं वृत्तित्वमवबोधितं तादृशस्यैव वृत्तित्वस्याऽभावो द्वितीयभड्रेन प्रतिपाद्यते, न तु वृत्तित्वसामान्यस्याऽभावः, नाऽप्यन्यस्यैव यस्य कस्यचिद् वृत्तित्वस्याऽभावः, तादृशवृत्तित्वाभावश्च तादृशवृत्तित्वात्मकप्रतियोग्यधिकरणेनाऽवच्छेदकयोजनामन्तरेणोपपद्यते इति नोक्तदोषद्वयावकाश इति वाच्यम् । एवं सति स्यात्पदद्वययोजनं कर्त्तव्यमापतितं द्वितीयभङ्गे, तथा सत्येवैकेन स्यात्पदेन वृत्तित्चे स्वद्रव्यादिनिरूपितत्वादिकं द्वितीयेन चाऽभावे परद्रव्याद्यवच्छेद्यत्वं प्रतिपादितं स्यात्, नाऽन्यथा । अन्यथाऽपि वा द्वितीयभङ्गे वृत्तित्वविशेषप्रतिपत्तौ प्रथमभङ्गेऽपि तथैव स्यादिति तत्र स्यात्पदयोजना न कार्येति । न च, स्यात्पदस्य द्योतकत्वमेवाऽभ्युपगम्यतेऽस्माभिरिति प्रथमभने स्यात्पदसमभि-व्याहारादस्तिपदस्य स्वद्रव्यादिनिरूपितत्वविशिष्टवृत्तित्वप्रतिपादकत्वं, द्वितीयभने च नाऽस्तीत्यत्र नञोऽस्तेश्च स्यात्पदसमभिव्याहारबलात् प्रतिनियतार्थप्रतिपादकत्वमित्यभ्युपगमे नोक्तदोष इति वाच्यम् । यतो ययोर्विरोधस्तयोरवच्छेदकभेदेनैकत्रोपपादानमिति यत्स्याद्वादस्य कृत्यं तदुक्ताभ्युपगमे भज्येत । द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यस्य ह्यभावस्य प्रतियोगि न वृत्तित्वसामान्यं किन्तु स्वद्रव्यादिनिरूपितत्वादिविशिष्टं वृत्तित्वम् । तादृशस्य चाऽभावस्य न वृत्तित्वसामान्यं विरोधि । न च सोऽपि वृत्तित्वसामान्यस्य विरोधी, सामान्यवत्ताबुद्धिं प्रति विशेषाभाववत्तानिश्चयस्य, विशेषाभाववत्तावुद्धिं प्रति सामान्यवत्तानिश्चयस्य चाऽप्रतिवन्धकत्वात् । एवं च प्रथमभङ्गे स्यात्पदाप्रयोगे वृत्तित्वसामान्यस्यैव प्रतीतिरिति तस्यैवाऽभावो द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यः, तयोरेव चैकत्र समावेशोपपत्त्यर्थं स्याद्वाद एपितव्यः । स च न सम्भवति, वृत्तित्वसामान्याभावस्याऽप्रसिद्धेः । न चाऽलीके तस्मिन्नवच्छेद्यत्वादियोजना घटते इति पूर्वपक्षाभिप्रायमवुद्ध्वैव यत्किञ्चिदुत्तरमभिदधानो भवान् कथं न प्रेक्षावतामुपहसनीयः ? एवमपि स्वाकूतमाश्रित्य किं नाऽऽकलयति भवान्, यदुत द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यस्य स्वद्रव्यादिनिरूपितत्वादिविशिष्टवृत्तित्वाभावस्य तादृशं वृत्तित्वं प्रतियोगीति तयोर्विरुद्ध Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा योरेकत्र समावेशार्थं यथा द्वितीयभड्ने तादृशवृत्तित्वाभावस्य परद्रव्यादिकमवच्छेदकं तथा प्रथमभङ्गेऽपि तादृशवृत्तित्वस्य किञ्चिदवच्छेदकान्तरमिति ? तस्मात् प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यमस्तित्वं न वृत्तित्वमिति स्थितम् । नाऽपि स्वरूपसत्त्वमस्तित्वम् । तथा हि - तत्किं घटादिकमेव, ततो व्यतिरिक्तं वा ? न तत्र द्वितीयः, तस्य वृत्तित्वसमशीलतायामेव कथञ्चिदर्थस्वद्रव्यादिनिरूपितत्वाद्यन्वययोग्यतयोक्तदोषानतिक्रमात् । तस्य वृत्तित्वासमशीलतायां न केवलं कथञ्चिदर्थान्वयायोग्यत्वं विविच्य दर्शयितुमशक्यत्वेनाऽनिर्वक्तव्यत्वमपि दोषः । उभयत्र च स्वरूपसत्त्वं चाऽतिरिक्तं चेति व्याघातो दुर्निवारः । नाऽपि प्रथमः, तथा सत्यनधिकार्थकस्याऽस्तिपदस्याऽप्रयोगः प्रसज्येत । अन्यथा विनिगमनाविरहात् सर्वेऽपि पर्यायाः प्रयोक्तव्याः प्रसज्येरन् । न चोक्तदोषभयान्न प्रयोक्तव्यमेवाऽस्तिपदमिति वाच्यम् । यथा हि घटपदसमभिव्याहारेऽस्तिपदस्याऽनधिकार्थत्वं तथाऽस्तिपदसमभिव्याहारं घटपदस्याऽप्यनधिकार्थत्वमिति विनिगमनाविरहाद् द्वयोरप्यप्रयोक्तव्यत्वप्रसक्तो केवलस्यैवकारस्याऽप्रयोक्तव्यत्वमेवेति नियमेनैवकारस्याऽप्यप्रयोक्तव्यत्वप्रसक्तौ द्योतकस्य पदान्तरसमभिव्याहार एवाऽर्थविशेषावबोधनाय प्रयोक्तव्यत्वमिति नियमेन स्यात्पदस्याऽप्यप्रयोक्तव्यत्वप्रसक्तौ प्रथमभङ्गस्य सर्वथापहारे तत्पूर्वकस्य द्वितीयभङ्गादेरप्यभावे साधूपपादिता सप्तभङ्गी भवता । न च, स्याद् घट एव, स्याद् घटो नैवेत्येवमेका सप्तभङ्गी अस्तिपदविनिर्मुक्ता, अन्या च स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेत्येवं द्वितीया, ताभ्यां च मिलित्वा विशिष्टवोधोऽस्त्विति वाच्यम् । यथा हि स्याद् घट एवेत्यादिसप्तभङ्ग्याः स्यात् कलश एवेत्यादिसप्तभझ्या सह न विशिष्टार्थवोधकत्वम्, अनधिकार्थत्वात्, तथा स्यादस्त्येवेत्यादिसप्तभङ्गया अपि समं समानमेव, युक्तेस्तौल्यात् । न च, घटपदसमभिव्याहार एवाऽस्तिपदस्य घटस्वरूपार्थकत्वं तदसमभिव्याहारे चाऽविशेषात् पटस्वरूपाद्यर्थकत्वमपीति स्यादस्त्येवेति सप्तभङ्गीमात्रेण न नियतार्थावगतिरिति सेयं सप्तभङ्गी नियतार्थावबोधनाय स्याद् घट एवेत्यादि सप्तभङ्गीमपेक्षत एवेति वाच्यम् । तर्हि विशिष्टार्थावबोधफलकामुकेन भवता त्यज्यतामियं तदप्रसवित्री । नहीयं स्वतन्त्रा हठाद्रवन्तमुपसर्पति । तदनपेक्षा स्वेष्टदोहदसमर्था स्याद् घट एवेत्यादिसप्तभङ्ग येवैका गृह्यताम् । एवमेवाऽस्तु, का नो हानिः? कस्याश्चिदपि सप्तभङ्गयाः सिद्धौ सिद्धं नः समीहितमिति चेत्, अस्तिपदार्थप्रदर्शनप्रवृत्तस्तत्प्रदर्शनसामर्थ्याभावेऽस्तिपदस्य सर्वथाऽपहारेण स्वेष्टसिद्धिं मन्यमानो भवान् नूनं जितमन्दाक्षः । न च मनोरथसिद्धिरप्येतावता । तथा हि - पराववोधनाय प्रवृत्तं वाक्यमुद्देश्यविधेयभावेनैवाऽर्थं बोधयति, नोद्देश्यमानं, नाऽपि विधेयमात्रम् । उद्देश्यमात्रस्य स्वरूपतोऽभिधाने संशयाद्यनुच्छेदात् । विधेयमात्रस्य तथाऽभिधाने च न तदवगतिसम्भवः परस्य । अपूर्वस्याऽर्थस्य सिद्धार्थक्रोडीकारेणैवाऽवगमात् । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा एवं च स्याद् घट एवेत्यत्र घट इति पदमुद्देश्यवचनं विधेयवचनमुभयवचनं वा ? प्रथमे, किं तत्र विधेयवचनमिति वाच्यं ? न तावत् स्यादिति, तस्य द्योतकत्वेन विधेयवचनत्वाभावात् । वाचकत्वेऽपि तदर्थसंसृष्टस्याऽन्यपदार्थस्यैव विधेयत्वात् । नाऽपि एवेति, तदर्थस्याऽवधारणस्य पदार्थान्तरान्वयमन्तरेण स्वरूपसत्तामेवाऽलभमानस्य विधेयत्वासम्भवात् । न च पदान्तरं श्रूयते यस्य विधेयवचनत्वं सम्भाव्येताऽपि । नाऽपि द्वितीयः, उद्देश्यवचनत्वस्य पदान्तरे वक्तव्यतापातात् । न चोक्तदिशा तस्य सम्भवः । नापि तृतीयः, यो ह्युद्देश्यविधेयभाव उद्देश्यवचनस्य विधेयवचनात् परत्वं विधेयवचनस्य चोद्देश्यवचनात् पूर्वत्वं न सहते स कथं तयोरैक्ये स्वस्वरूपमासादयेत् ? सिद्धत्वनियतं द्देश्यत्वं साध्यत्वनियतं च विधेयत्वं कथमेकस्मिन्नर्थे परस्परनिरूप्यनिरूपकभावापन्नं घटनामियात् ? १८ न च घटत्ववान् घटपदस्यार्थः । तत्र घटत्वं विधेयः, आश्रयश्चोद्देश्य इति कृत्वा विभिन्नाधिकरणत्वमुद्देश्यत्वविधेयत्वयोर्भविष्यतीति वाच्यम् । तावताऽप्युक्तदोषस्याऽपरिहारात् । दोषान्तरमप्याकलयतु भवान् । तथा हि- विधेयत्वं नियमेन किञ्चित्सम्वन्धावच्छिन्नं भवति । स च सम्बन्ध आकाङ्क्षाभास्यो, न तु वाच्यः । घटत्वतदाश्रययोश्च सम्वन्धो वाच्यः सन् कथमाकाङ्क्षाभास्यः । स्यात् ? एवं शाब्दबोधीया योद्देश्यता या च विधेयता तदुभे अप्याकाङ्क्षाप्रयोज्ये एव कथं वाच्यवाचकभावसम्बन्धप्रयोज्ये स्याताम् ? तस्मात् तृतीयः पक्षः सर्वतोविरोधाद्धेयः । न चाऽस्त्वत एव भङ्ग उद्देश्यसमर्पकस्याऽयमिति पदस्याऽधिकस्य प्रवेशः, तथा च नोक्तदोषाणामवकाश इति वाच्यम् । एवं सति स्यात्पदबोध्यस्य कथञ्चिदर्थस्य स्वद्रव्यादिनिरूपितत्वादेः किं घटत्वेऽन्वयस्तदाश्रये वा ? न चैतद् द्वयमपि सम्भवति, घटत्वतदाश्रययोरन्यानपेक्षस्थितिकयोः स्वद्रव्याद्यनिरूपितत्वात्, तदनवच्छेद्यत्वाच्च । नहि भवति घटत्वमस्य मृदाद्यपेक्षया न तन्त्वाद्यपेक्षया, न वा भवति घटोऽयं मृदाद्यपेक्षया न तन्त्वाद्यपेक्षयेत लौकिकपरीक्षकयोः कस्याऽप्यनुभवः । किञ्च, प्रथमभङ्गे घटत्वस्य विधाने द्वितीयभङ्गे तस्यैव निषेधः प्राप्नोति । एवं च निषेध्ये तस्मिन् परद्रव्यादिनिरूपितत्वादिकमयोग्यत्वान्नाऽन्वेतुमर्हति । तन्निष्ठप्रतियोगितायामवच्छेदकविधया परद्रव्यादीनामन्वये व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावो द्वितीयभङ्गविषय इत्याश्रितो भवति । एवं च परद्रव्यादीनामिव स्वद्रव्यादीनामपि घटत्वेऽसत्त्वेन तेषामपि द्वितीयभङ्गेऽवच्छेदकविधया प्रवेशप्रसङ्ग इत्यादिकं वृत्तित्वपक्षवदत्राऽपि न निरोद्धुं शक्यम् । यदा तु निपातातिरिक्तनामार्थ-योरभेदातिरिक्तसम्वन्धेनाऽन्वयोऽव्युत्पन्न इति प्रथमभङ्गे न घटत्वसामान्यस्य नामार्थस्येदम्पदार्थ आश्रयद्वारकपरम्परासम्बन्धेनाऽन्येन वा साक्षात्सम्वन्धेनाऽन्वयसम्भवः । एवमेकत्र विशेषणत्वेनोपस्थितस्य निराकाङ्क्षतया नाऽन्यत्र विशेषणतयाऽन्वय इति नियमात् पदार्थः Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा पदार्थेनाऽन्वेति न तु पदार्थकदेशेनेति नियमाच्च घटत्वस्य पदार्थैकदेशस्य नेदमाद्यर्थेऽन्वयसम्भव इति विभाव्यते, तदा प्रथमभङ्गेऽगत्या घटस्यैव विधेयत्वस्याऽङ्गीकरणीयतया द्वितीयभङ्गे तस्यैव निषेध्यत्वमङ्गीकरणीयम् । एवं प्रथमभने घटस्य तादात्म्यसम्बन्धेन विधाने द्वितीयभङ्गे तस्य तेनैव निषेध इत्यतः स्यादयं घट एवेति प्रथमभङ्गप्रयोगे स्यादयं घटो नैवेत्यस्यैव द्वितीयभङ्गतया तत्र प्रतियोग्यनुयोगिवाचकपदयोः समानविभक्तिवचनत्वतश्च द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यो घटान्योन्याभाव एव वाच्यः, न तु घटात्यन्ताभावः । नञसमभिव्याहृताद् यादृशाद् वाक्याद् यत्र येन रूपेण येन सम्बन्धेन यस्य प्रतीतिर्नसमभिव्याहृतात् तादृशाद् वाक्यान्नञा तत्र तत्सम्बन्धावच्छिन्नतद्धर्मावच्छिन्नतन्निष्ठप्रतियोगिताकाभावस्य प्रतीतिरित्येवं परात् प्रतियोग्यभावान्वयौ तुल्ययोगमाविति न्यायादनुयोगिवाचकपदसमभिव्याहारे नञा नामार्थस्याऽत्यन्ताभाववोधनेऽनुयोगिवाचकपदोत्तरसप्तमीविभक्तिरपेक्ष्यते, भेदवोधने च प्रतियोग्यनुयोगिवाचकपदयोः समानविभक्तिकत्वमिति नियमाच्च । एवं च घटत्वेन भूतले घटः, न तु पटत्वेनेति प्रतीतिबलाद् यथा व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावोऽभ्युपगमविषयः, तथा भूतलं घटत्वेन घटवन्नतु पटत्वेनेति प्रतीतिवलाद् व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नावच्छेदकताकप्रतियोगिताकभेदोऽपि । न तु भवत्ययं घटत्वेन घटो न तु पटत्वेनेति कस्याऽप्यनुभव इति प्रमाणाभावाद् व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदो नाऽभ्युपगन्तव्य इति परद्रव्यादीनां व्यधिकरणानां न प्रतियोगितावच्छेदकतया द्वितीयभङ्गार्थघटकता । न चाऽन्यथाऽन्वययोग्यताऽपीति प्रथमान्तेदम्पदप्रक्षेपे द्वितीयभोऽप्रसिद्धार्थक एव स्यात् । न च घटत्वेन भूतले घट इति भूतलं घटत्वेन घटवदिति चाऽनुभवो भवति । न त्वयं घटत्वेन घट इत्यनुभव इत्युक्तिमात्रं विनिगमनाभावादिति शङ्कयम् । वृत्तित्वनिरूपकत्वादीनां सखण्डोपाधीनां सावच्छिन्नतया भूतलपदोत्तरसप्तम्यर्थे वृत्तित्वे घटत्वपदोत्तरतृतीयार्थावच्छेदकताया निरूपितत्वसम्वन्धेनाऽन्वयस्य घटवदित्यर्थस्य घटनिष्ठनिरूपकतानिरूपिताधिकरणतावत एकदेशे निरूपकतायामन्वयस्य च सम्भवेन घटत्वेन भूतले घट इत्यस्य भूतलं घटत्वेन घटवदित्यस्य चोपपत्तावपि घटत्वेनाऽयं घट इत्यत्र घटपदार्थ घटत्वे आश्रये चेदम्पदार्थ इदन्त्वे आश्रये वा घटत्वपदोत्तरतृतीयार्थावच्छेदकताया अन्वयासम्भवेन न तथानुभव उपपद्यत इति विनिगमकस्य सद्भावात् । किचैवमभ्युपगमे स्यादयं घटादभिन्न एव, स्यादयं घटादिन्न एवेत्यादिसप्तभङ्गीतोऽस्याः संसर्गविधयाऽभेदभानादतिरिक्तं वैलक्षण्यं न स्यात् । एवं च तत्र यथा न स्वद्रव्यादीनामपेक्षानिमित्ततयोपयोगः किन्त्वन्यस्यैव, तथाऽस्यामपि न तेषां तथोपयोगः स्यादिति यत्किञ्चिदेतत् । न चाऽनन्तरोक्तदोषगणोपनिपातभयादिदं पदं न भङ्गघटकतयोपादीयते, किन्तु स्वरूपसत्त्वात्मकविधेयाववोधकमस्तिपदमेव यथाव्यवस्थितं स्वीक्रियते । स्वरूपसत्त्वस्य च धर्मिण एकान्तभेदे एकान्ताभेदे चाऽस्तु भवद्दर्शितदोषप्रहारोपनिपातः । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा न च, तथाविधस्य तस्याऽस्तिपदवाच्यतयाऽभ्युपगमः, किन्तु धर्मिणो भिन्नाभिन्नस्य । तत्रैकान्तभेदमवलम्व्य दत्तस्य दोषस्याऽभेदमाश्रित्यैकान्ताभेदमवलम्व्य दत्तस्य दोषस्य भेदमाश्रित्य च परिहारसम्भवादिति वाच्यम् । यत एकान्तवादिनं परं प्रति सप्तभङ्गयात्मकस्याद्वादेन सत्त्वासत्त्वाद्यनेकधर्मात्मकत्वं भवता बोधनीयम् । साऽपि सप्तभङ्गी यदि स्वघटकप्रत्येकविषयस्याऽनेकान्तत्वमुपादायैव प्रवर्तेत तदा तत्सिद्ध्यर्थमपि तदानीमेव सप्तभङ्गयन्तरोपादानस्याऽऽवश्यकतया तत्राऽप्युक्तयुक्त्याऽनेकान्तत्वसिद्ध्यपेक्षायां केवलमनवस्थापिशाच्येवाऽबाधितप्रसरा स्यात्, न तु परस्य तत्त्वानुभूतिः । किञ्चाऽस्मिन् पक्षे स्वरूपसत्त्वमित्यस्य संज्ञामात्रं, यतो धर्ममात्रस्यैव धर्मिणा सह भेदोऽभेदश्च । तथा चाऽऽपेक्षिकत्वं यदस्य तन्न धर्मिणोऽभेदमवलम्ब्य । तथा सति धर्मिणोऽनापेक्षिकत्वे तस्याऽप्यनापेक्षिकत्वं स्यादिति कुत्र स्यादर्थो घटनामियात् ? किन्तु भेदमवलम्व्यैव । __ एवं द्वितीयभङ्गेऽपि भेदमवलम्ब्यैव तस्य निषेध्यता, नाऽभेदमवलम्व्य । तत्त्वे तन्निषेधे धर्मिणोऽपि निषेधापत्तौ कुत्र निषेधो निरूप्येत ? तथा च वृत्तित्वपक्षोक्ता दोषा अत्राऽपि निपतन्तः कथमुत्वासनीयाः? । यदि चाऽयमस्तित्वधर्मः स्वभावतो न वृत्तित्वमनुकरोति, कथं तर्हि भेदाभेदनित्यत्वानित्यत्वादयो धर्माः प्रतिनियतनिमित्तापेक्षयैव प्रवर्तन्ते, न त्वस्तित्वम् ? तत्तु विवक्षावैचित्र्यात् कदाचित् स्वद्रव्यं कदाचित् स्वक्षेत्रमेवं स्वकालं स्वभावमित्येवमनियमेनाऽपेक्षानिमित्तमासाद्य प्रवर्तत इत्यत्र विनिगमकमनुपदर्थ्य परः प्रतिवोधनीयः । तस्मान्न स्वरूपसत्त्वमस्तिपदार्थः । अनभ्युपगमादेव चाऽर्थक्रियाकारित्वलक्षणं वौद्धाभ्युपगतं, त्रिगुणात्मकत्वलक्षणं साङ्ख्याभिमतं, परमार्थिकव्यावहारिकप्रातिभासिकसंज्ञाभेदकलितं त्रिकालबाध्यत्व-व्यवहारकालाबाध्यत्व-प्रतीतिकालाबाध्यत्वलक्षणलक्षितं वेदान्त्यभ्युपगतं, परसामान्यात्मकं च नैयायिकाद्यभ्युपगतं सत्त्वमस्तिपदार्थो न सम्भवति, न च तत्र दर्शितदिशा स्यादर्थान्वययोग्यताऽपि । नाऽप्युत्पादव्ययधौव्यलक्षणं सत्त्वमस्तिपदार्थः । तथा हि- किं त्रयाणामुत्पादादीनामवच्छेदकत्वान्निरूपकत्वाद्वा स्वद्रव्यादीनामन्वयः, तेषामन्यतमस्य वा ? नाऽऽद्यः, परस्परविलक्षणस्वभावानामुत्पादादीनामेकेन केनचित् स्वद्रव्यादिना निरूपितत्वस्याऽवच्छेद्यत्वस्य वाऽसम्भवात् । यदा चोक्तत्रितयवत्त्वलक्षणमस्तित्वं प्रथमभङ्गविषयस्तदा तदभाव एव द्वितीयभङ्गविषयो वाच्यः । समुदायाभावश्च समुदायिनां मध्यादेकस्याऽभावेऽपि सम्भवतीति स्वद्रव्यस्य धौव्यमात्रावच्छेदकत्वं, न तूत्पादव्यययोरित्येवं विवक्षया स्वद्रव्येणोत्पादाभावं व्ययाभावं वाऽवलम्व्य प्रवर्तमानो द्वितीयभङ्गः कथमुन्मूलनीयः? । किञ्च, भिन्नकालीनानामुत्पादादीनामवच्छेदकत्वं निरूपकत्वं वा स्वद्रव्यादिष्वभ्युपगम्यते समानकालीनानां वा ? आद्ये स्वद्रव्यक्षेत्रभावानां कालत्रयेऽनुगामिनां सम्भवति भवन्मते परमते च यथाकथञ्चिदवच्छेदकत्वं निरूपकत्वं वा । तत्र परमतादविशेष एव । स्वकालस्य तु स्वध्वंसकालेऽसतः कथमवच्छेदकत्वं निरूपकत्वं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा २१ वा? । द्वितीये, एकस्यैवैकदैवोत्पादव्ययधौव्ययुक्तत्वं नाऽपेक्षानिमित्तभेदमन्तरेणेति प्रतिनियतापेक्षानिमित्तोपरक्तेषु तेष्वेकापेक्षानिमित्तसम्पर्कासम्भवात् । नहि भवति विरुद्धस्वभावानां प्रतिनियतापेक्षानिमित्तावष्टम्भत एकत्राऽवस्थानमिवैकनिमित्तावष्टम्भेनाऽप्यवस्थानम् । एवमयमप्यर्थः परं प्रति स्याद्वादमवतायैवोपदर्शनीय इति कथं प्रथमत एव स्यादस्त्येव घट इत्यादिसप्तभङ्गी समवतरेत्? । नाऽपि द्वितीयः, यथा हि यत्किञ्चित्समुदाय्यवच्छेदकत्वान्निरूपकत्वाद्वा स्वद्रव्यादीनामपेक्षानिमित्ततया प्रथमभङ्गार्थे प्रवेशः, तथा यत्किञ्चित्समुदाय्यनवच्छेदकत्वादनिरूपकत्वाद्वा समुदायाभावावच्छेदकत्वमवलम्ब्य द्वितीयभङ्गेऽपि प्रवेशोऽवाधितप्रसर एवेति येनैव सत्त्वं तेनैवाऽसत्त्वमिति सूपपादिता सप्तभङ्गी । न च, यत्किञ्चित्समुदाय्यवच्छेदके कथं यत्किञ्चित्समुदाय्यनवच्छेदकत्वम् ? विरोधादिति वाच्यम् । एवं सति यत्किञ्चित्समुदाय्यनवच्छेदके यत्किञ्चित्समुदाय्यवच्छेदकत्वमपि कथम् ? विरोधादेवेति तुल्यम् । व्यक्तिविशेषमुपादायाऽविरोधोऽपि तुल्य एवेति । अन्योऽपि यः कश्चिदर्थो विकल्पितेभ्योऽत्राऽस्त्यर्थतयाऽभ्युपेयः स्यात् सोऽप्युक्तदोषान्यतमं नाऽतिक्रामतीति प्रथमभङ्गो नोपपद्यते । निषेध्यनिरूप्यत्वात् निषेधस्येति निषेध्यानिर्वचने तन्निर्वचनमप्यशक्यमिति तत्प्रतिपादको द्वितीयभङ्गोऽप्यनुपपन्नः । दर्शिता च तदनुपपत्तिरन्तराऽन्तरा प्रथमभङ्गार्थविचार एव । इतोऽपि द्वितीयभङ्गो नोपपद्यते । तथा हि – एकान्तवादिमताविशेषापादकेनाऽपि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताभावावलम्वनेन द्वितीयभङ्गार्थोपवर्णनं तदा चतुरस्रं स्यात्, यदि द्वितीयभङ्गेऽधिकरणविशेषप्रतिपादकं वचनं स्यात् । न च स्यान्नास्त्येव घट इत्यत्राऽधिकरणविशेषप्रतिपादकं पदं किञ्चिदस्ति, तथा च स्यान्नास्त्येव वाच्यत्वं प्रमेयत्वमित्यादौ वाच्यत्वप्रमेयत्वादीनां केवलान्वयित्वेन समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाप्रसिद्ध्या व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाश्रयणस्याऽऽवश्यकत्वेऽपि घटत्वावच्छिन्नघटनिष्ठ प्रतियोगिताकाभावस्य घटानधिकरणदेशे प्रसिद्धिसौलभ्येन तत्र व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाश्रयणस्याऽनौचित्यमेव । न हि प्रतीतेः क्लृप्तेनैव विषयेणोपपत्तावक्लृप्तविषयत्वमुरीकुर्वन्त्यभियुक्ताः । न च यद्विधीयते प्रतिषिध्यते च वस्तु तत् कुत्रचिदधिकरण इति नियमात् स्यादस्त्येव घट इत्यनेनाऽवश्यमेव कस्मिंश्चिदधिकरणे घटो विहितः, उपस्थितिलाघवाच्च तत्रैव घटो निषिध्यते द्वितीयभङ्गेन । एवं चाऽनुक्तमप्यधिकरणवचनं लभ्यत एव ।। न च, यत्र यस्य येन रूपेण सत्त्वं तत्र तस्य तेन रूपेणाऽभावो विरोधात् सम्भवतीति व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावाश्रयणं विना नाऽन्या गतिरस्तीति वाच्यम् । यतः शाब्दी ह्याकाङ्क्षा शब्देनैव प्रपूर्यते इति नियमेनाऽधिकरणविशेषवाचकपदस्योपादान एवाऽऽकाङ्क्षायां प्रवेशसम्भवः । अन्यथाऽऽकाक्षावहिर्भूतपदादिवाऽऽक्षिप्तादपि तस्माद् न तदर्थस्य शाब्दबोधविषयत्वसम्भवः । किञ्च, यद्याक्षिप्तेनाऽप्यधिकरणवचनेन तदर्थान्वयवोधसम्भवाद् नोक्तेन तेन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा किञ्चित् प्रयोजनं प्रयासगौरवातिरिक्तमिति विभाव्यते तदा स्यादित्यस्याऽस्तीत्यस्यैवकारस्य चोपादानं न कर्तव्यं स्यात् । परं प्रति घट इत्युक्तेरन्यथानुपपत्त्या घटस्य विधीयमानता लभ्यते । सा च क्रियामाक्षिपति । यत्राऽन्यत् क्रियापदं न श्रूयते इत्यादिवचनाच्चाऽस्तिक्रियैवोपस्थाप्यते, न च सर्वैरेव प्रकारैर्घटस्य विधीयमा सर्वात्मकत्व व्यापकत्व- नित्यत्वाद्यापत्तिभयात् सम्भवतीत्यतः स्यादित्यप्याक्षिप्यते । एवकारस्य त्वनिष्टार्थनिवर्तनायाऽऽक्षेपोऽविगानेन प्रतीत एवेति लाघवप्रकर्षं कथं नाऽऽद्रियते ? | २२ किञ्च, द्वितीयभङ्गे प्रथमभङ्गविषयाधिकरणवचनसङ्घटन एव तदर्थो निषेधः समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकतया नोपपद्यत इति व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकः कल्पितो भवति । कल्पितश्च स न स्वावस्थानसङ्गोचापादकमधिकरणविशेषोपादानं सहते । यतो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावः केवलान्वयी विनिगमनाविरहेणाऽधिकरणविशेषानुपादाने सर्वगततया प्रतिपाद्येन ज्ञातुं शक्यते । अधिकरणविशेषोपादाने च किमयमभाव सर्वत्रैव वर्तते उताऽस्मिन्नेवाधिकरणे ? यदि सर्वत्रैव, अलमधिकरणविशेषोपादानेनाऽधिकरणान्तरव्यावर्तनफलकेन । अथ, अस्मिन्नेवाऽधिकरणे, तदैतद्विन्नेऽधिकरणे सर्वत्रैव व्यधिकरणधर्मेण भावस्य सत्त्वं किमनुभवविरुद्धं स्याद्वादिनामनुमतमित्याद्याशङ्का प्रतिपाद्यानामनुच्छेद्या स्यादिति प्रतिपाद्यानां संशयनिवर्त्तनायाऽऽद्रियमाणा सप्तभङ्गी संशयजनन्येव संवृत्ता । एतेन स्यात्पदं न प्रयुज्यते द्वितीयभङ्गे येन स्वानधिकरणे देशे स्वस्वभावेन समानाधिकरणधर्मेणाऽपि स्वस्याऽभावमादाय द्वितीयभङ्गोपपत्तिः स्यात्, किन्तु परद्रव्यादिना नाऽस्त्येव घट इत्येवं स्वरूप एव द्वितीयभङ्गः । तस्य च व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाववोधकताधिकरणविशेषवचनोपबन्धनमन्तरेणैवेति निरस्तम् । अधिकरणविशेषस्याऽनुपदर्शने परद्रव्यादिनेत्येव निराकाङ्क्षमन्वयं नाऽऽसादयति । कोहि नाम सचेताः समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावप्रतियोगित्वं घटस्य सर्वैरपि वादिभिरविगान प्रतीतमवगच्छन्नधिकरणविशेषासम्पृक्तव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावप्रतियोगित्वे स्याद्वादिना द्वितीयभङ्गेन प्रतिपादिते कथमयं समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावप्रतियोगित्वमेव न प्रतिपादयति ? किमर्थं च व्यधिकरणधर्मावच्छन्नप्रतियोगिताकाभावप्रतिपादनेनाऽऽत्मानमायासयतीत्येवं न संशयीतेत्यवश्यमधिकरणविशेषोपादानं कार्यमित्युक्तदोषानुद्धारात् । किञ्च, प्रथमभङ्गे स्वद्रव्येण घटोऽस्ति, स्वक्षेत्रेण घटोऽस्तीत्यादौ यथा परस्परं विशेषः प्रतीयते व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावविषयकत्वे च द्वितीयभङ्गस्य न तथा विशेषः प्रतीयेत । यथा परद्रव्येण घटो नास्तीत्येवंरूपेण प्रतीयमानोऽभावो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकतया केवलान्वयी तथा परक्षेत्रादिनाऽपि घटाभाव इति किंकृतो विशेष: ? न च समनियतानां समानप्रतियोगिकानां चाऽभावानामस्ति प्रतियोग्यधिकरणविशेषकृतो विशेषः, न च तेषां प्रतियोगिताभेदकृतोऽस्ति विशेष इति शक्यम् । व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽपि चेदभावः प्रामाणिकस्तदा तादृशाभावप्रतियोगिताः Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भङ्गभ सर्वेरेव व्यधिकरणधर्मे सर्वेरेव सम्बन्धैरवच्छिद्यन्तामित्यादिनाऽन्यत्रैकस्या अपि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगितायाः सर्वव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नत्वस्याऽङ्गीकरणात् । २३ युक्तं चैतत् । न ह्यवच्छेदकभेदेऽपि प्रतियोगिभेदोऽधिकरणभेदो वोक्ताभावस्याऽनुभूयत इति । यदा तु समनियतानामभावानामैक्यमिति पक्ष आश्रीयते तदा व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताको घटाभावस्तथाविधश्च पटाभावोऽभिन्न एवेति द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यो धर्मो न घटमात्राश्रित इति तन्मात्राश्रितधर्मनिकुरम्वप्रतिपादके सप्तभङ्गीवाक्ये न तदर्थकभङ्गप्रवेशो युक्तः । एतेन परद्रव्यक्षेत्रकालानां यथासम्भवमभावस्याऽधिकरणविधयाऽवच्छेदकविधया चाऽपेक्षानिमित्तत्वमाश्रित्य द्वितीयभङ्गे प्रवेशः, परभावस्य तु प्रतियोगितावच्छेदकतया प्रवेश इत्येवमर्धजरतीयाभ्युपगमोऽप्यपास्तः, व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य व्याप्यवृत्तितया देशविधया कालविधया वा किञ्चिदवच्छिन्नत्वासम्भवात् तत्प्रतियोगिताया अप तथैव तदवच्छिन्नत्वासम्भवाच्च । न हि भवति घटः परद्रव्याद्यपेक्षयाऽभावप्रतियोगीति कस्याऽप्यनुभवः । यदि च परद्रव्यादीनामवच्छेदकादिविधया यदा प्रवेशस्तदा व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावो द्वितीयभङ्गविषयतया नाऽऽश्रीयते किन्तु समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एव । यदा च व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावो द्वितीयभङ्गविषयतयाऽऽद्रियते तदा न परद्रव्यादीनां तथा प्रवेश इत्यभ्युपगमे नोक्तदोष इति विभाव्यते तदा परद्रव्यादीनां सर्वेषां किमवच्छेदकविधयैव प्रवेश उत कस्यचिदधिकरणविधया कस्यचिच्चाऽवच्छेदकविधया ? समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावविषयकत्वपक्षे, व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावविषयकत्वपक्षेऽपि कस्यचिदधिकरणस्य प्रवेशोऽस्ति न वेति च वक्तव्यम् । तत्र परद्रव्यादीनां सर्वेषामच्छेदकविधया प्रवेशे स्वद्रव्यादिकं किञ्चिदधिकरणविधया निविशते न वा ? आद्ये, प्रथमभङ्गे तस्य तथाभूतस्य तृतीयान्तस्ववाचकशब्दमहिम्नैव विषयत्वमिति द्वितीयभङ्गेऽपि तथैव स्यात् । एवं च स्वद्रव्यादिना स्वस्वभावेन परद्रव्यादिना च घटो नास्त्येवेति द्वितीयभङ्गः प्राप्तः, न चैवमभ्युपगम्यते, नाऽप्यनुभूयते । यदि तु स्वद्रव्यादिकमधिकरणं स्वस्वभावरूपश्चाऽवच्छेदकः स्वस्वाभिधायकशब्दमन्तरेणाऽप्यर्थाद् गम्यत इति न तदभिधायकशब्दप्रवेशो द्वितीयभङ्गे, तर्हि प्रथमभङ्गेऽपि तत्प्रवेशस्तथैव न कर्तव्यः स्यात् । न चेयमनुभवपथातीता कल्पना युक्तिमार्गमुपयाति, तत्सम्बन्धिन एव तन्निष्ठधर्मावच्छेदकत्वेन परद्रव्यादीनां स्वद्रव्यादेरसम्वन्धित्वेन तन्निष्ठाभावावच्छेदकत्वासम्भवात् । स्वीक्रियेताऽपि च साक्षात् क्लृप्तसम्बन्धासम्बन्धिनोऽप्यक्लृप्तेन केनचित् सम्वन्धेन वैज्ञानिकसम्वन्धेन वा परम्परासम्बन्धेन वा सम्बन्धित्वमभ्युपेत्याऽवच्छेदकत्वं यदि तथाऽनुभवोऽविगानेन प्रतीतः स्यात्, न चैवम् । नाऽपि द्वितीयः, अनधिकरणकनिषेधप्रतीतेरसम्भवात् भावे वा सम्भवे वा तत्र देशादिविधयाऽवच्छेदकभानस्याऽनुभवातीतत्वात्, भावाभावयोरेकस्मिन्नधिकरणे प्रतीत्योः सामञ्जस्यार्थमेवाऽवच्छेदकभेद Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सप्तभङ्गीप्रभा भानोपगमात् । परद्रव्यादीनां मध्ये कस्यचिदधिकरणविधया कस्यचिच्चाऽवच्छेदकविधया प्रवेश इति पक्षोऽपि न समीचीनः, परद्रव्ये घटाभावस्य व्याप्यवृत्तितया परकालाद्यवच्छेद्यत्वासम्भवात्, एवं परकालादावपि । व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावविषयकत्वपक्षे कस्यचिदधिकरणस्य प्रवेशः क्रियते इति पक्षोऽपि न क्षोदक्षमः, तथाऽभ्युपगमे तथाभूतस्याऽभावस्य धर्म्यन्तरे सदसद्भावसंशयापत्तेः । नाऽपि कस्यचिदधिकरणस्य प्रवेशो न क्रियते इति पक्षोऽपि युक्तः, तथा सति व्यधिकरणधर्मस्याऽप्युपादानमचतुरस्त्रं स्यात् । न ह्यधिकरणविशेषानुपादाने समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावमादायाऽप्युपपद्यमानो द्वितीयभङ्गो व्यधिकरणधर्ममाकाङ्क्षति प्रतिपाद्यस्य संशयनिवृत्तये । एवमन्येऽपि द्वितीयभङ्गोपपादकाः प्रकारा निरसनीयाः । तृतीयभङ्गस्तु प्रत्येकं यो भवेद्दोषो द्वयोर्भावे कथं न स इति न्यायकवलित एव । तस्य क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयविषयकत्वं यदुच्यते तत्राऽधिकतया प्रविष्टं क्रमार्पितत्वं विचारमर्हति । ननु किमत्र विचारणीयं ? प्रथमे भने प्राधान्येन केवलमस्तित्वं प्रकारतया भासते, द्वितीये प्राधान्येन नास्तित्वमेव, अस्मिंश्च तदुभयं तथा । तदुपपत्तिश्चाऽपेक्षानिमित्तयोः क्रमेणाऽर्पणात् तदुभयस्य क्रमेणाऽर्पणे सत्येव । अपेक्षानिमित्तयोस्तयोश्च युगपदर्पणे तु तथा तदभिलापकस्य कस्यचिच्छब्दस्याऽभावात् स्यादवक्तव्य एवेति चतुर्थभङ्गस्यैवाऽवकाशः स्यात्, न त्वस्य । विवक्षावैचित्र्याच्च क्रमेणाऽर्पणं युगपदर्पणं चेति चेत्, न, एतावता हि किं क्रमेणाऽर्पणमभिमतमायुष्मतः ? ननूक्तमपि किं नाऽवबुध्यते ? युगपत्तदभिलापकस्यैकस्य पदस्याऽभावादवक्तव्यत्वे व्यवस्थिते क्रमिकपदद्वयाभिलाप्यत्वमेव क्रमार्पितत्वम् । अनयोरपेक्षानिमित्तयोरपि क्रमार्पितत्वमेतदेव । पदयोश्च पूर्वापरीभावेन व्यवस्थितिरेव क्रम इति स्फुटमप्यर्थं कथं नाऽवधारयति प्रेक्षावानपीति चित्रमिति चेत्, एवं सति क्रमार्पितत्वं न तृतीयभङ्गप्रतिपाद्यमिति कुटिलयोक्त्या प्रतिपादितं भवता । यथा हि घट इत्युक्त्यैकत्वविशिष्टो घटः प्रतिपादितो भवति न तु तन्निष्ठं प्रतिपाद्यत्वं घट इत्युक्तेर्विषयः, तथा स्यादस्ति नास्ति चेति क्रमिकास्तिनास्तिपदाभ्यामस्तित्वं नास्तित्वं च प्रतिपादितं भवति, न तु तन्निष्ठं प्रतिपाद्यत्वं तस्य विषयः । क्वचित् तथाऽपि किं न स्यादिति नाऽऽशक्यम्, शब्दात् प्रतिपत्तौ सत्यां प्रतिपत्तिविषयत्वरूपं प्रतिपाद्यत्वम्, तत्त्वे च सति तेन रूपेण प्रतिपत्तिरित्यन्योन्याश्रयापत्तेः । यत्तु ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वाज्ज्ञाने भासमाने तद्विषयत्वमपि भासत इति नाऽन्योन्याश्रय इति, तत्तुच्छम्, ईदृशविषयत्वभानस्य ज्ञानसामान्यसामग्रीप्रयोज्यत्वेन शब्दाप्रयोज्यतया तदादाय प्रतिपाद्यत्वे शब्दविषयत्वोपपादनस्याऽयुक्तत्वात् । ननु विशेष्यविशेषणभाव एवाऽस्तित्वनास्तित्वयोः क्रमार्पितत्वम् । न च प्रथमद्वितीयभङ्गयोस्तयोविशेष्यविशेषणभावो भासते इति चेत्, न, एवं सत्यस्तित्वस्य नास्तित्वविशेषणत्वे प्रकारतावच्छेदकतानात्मकप्रकारतारूपस्य प्रकारगतस्य Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा २५ प्राधान्यस्य, प्रकारतानात्मकविशेष्यतारूपस्य च विशेष्यगतस्य प्राधान्यस्याऽभाव एव स्यात् । एवं नास्तित्वस्याऽप्यस्तित्वविशेषणत्वे बोध्यम् । न च, प्रथमद्वितीयभाभ्यामीदृशप्राधान्यमाश्रित्य तृतीयभङ्गस्य विशेषो नाऽभ्युपगम्यते, किन्तु प्रथमभङ्गेऽपेक्षानिमित्तोपादानमाहात्म्याद नास्तित्वं द्वितीयभङ्गे च तत एवाऽस्तित्वमर्थतोऽवगम्यतेऽतो गौणता, अत्र तु शब्दत एव तयोः प्रतीतिरिति प्राधान्यमिति वाच्यम् । एवं सति भङ्गद्वयसमाहाररूपोऽयं तृतीयभङ्ग इत्युक्तं स्यात् । तथा च सति तृतीयभङ्गस्याऽप्यस्योक्तभङ्गाभ्यां सह समाहारमाश्रित्य तत्समाहाररूपो भोऽधिकः किं नाऽऽश्रीयते ? एवं भङ्गान्तराणामपि भङ्गान्तरैः सह समाहारमाश्रित्याऽपरे भङ्गाः किं नाऽभ्युपगम्यन्ते ? नन्वभ्युपगम्यन्ते एव स्यादस्ति स्यादवक्तव्यश्चेत्यादयो भङ्गास्तथाभूता इति चेत्, समाहारस्वरूपाणां तेषां भङ्गान्तरैः सह समाहारमाश्रित्य समाहारान्तरूपा अपि भङ्गा अङ्गीकरणीयाः प्रसज्येरन् । एवं कण्ठरवेणैव सप्तभङ्गसमाहाररूपा सप्तभङ्गी स्वीक्रियते, न च सा भङ्गत्वेन पुनराश्रीयत इत्यत्र रुचिरेव भवतः प्रमाणं स्यात् । तस्मादर्थभेदोपदर्शनमन्तरेण भङ्गद्वयसमाहारमात्रेण तृतीयभङ्गसमर्थनं न विचारचूलामवलम्वते । यत्तु विवक्षावैचित्र्यमूलकमेव भङ्गवैचित्र्यं, न त्वर्थभेदविजृम्भितं, एवं चाऽस्तित्वनास्तित्वयोरेकैकमेव विवक्षित्वा वक्त्रकैकमेव स्यादस्ति घट इति स्यान्नास्ति घट इति च प्रयुज्यते, तदुभयं क्रमार्पितं युगपदर्पितं चेत्यादि विवक्षित्वा च भङ्गान्तराणि प्रयुज्यन्ते, इति विवक्षावैचित्र्यविश्रान्तायां सप्तभङ्गयां प्रत्येकभङ्गार्थभेदान्वेषणक्लेशः क्लेशायैवेति भवति केषाञ्चिद् ऋजुमतीनामाकूतम् । तदतिमन्दम्, अर्थवैचित्र्यमन्तरेण विवक्षावैचित्र्यस्य प्रेक्षावतामनुल्लासात्, अन्यथा प्रेक्षावत्त्वक्षतेः । तथा च विवक्षावैचित्र्योपपादनार्थमर्थवैचित्र्यान्वेषणे यलः कर्तव्य एव । नन्वस्तित्वं द्रव्यार्थिकनयविषय इति द्रव्यार्थिकनयमारूढो वक्ता प्रथमभङ्गं प्रयुङ्क्ते, नास्तित्वं च पर्यवनयविषय इति पर्यवनयसमारूढो द्वितीयभङ्गं प्रयुङ्क्ते, नयद्वयसमारूढश्च क्रमिकधर्मद्वयविवक्षया तृतीयभङ्ग, युगपद्धर्मद्वयविवक्षया च तुरीयम्, एवमग्रेऽपीति चेत्, एवमपि तृतीयभार्थो न विभिन्नतया निरूपितः स्यात्, कारणमात्रं तु विलक्षणं प्रतिपादितं भवति । न च तत्र प्रश्नः, न च कारणभेद: शाब्दबोधविषयतामवलम्वते, येन तमादाय भेदसमर्थनं प्रकृतोपयोगि स्यात् । न चाऽस्तित्वविशिष्टनास्तित्वमस्तित्वनास्तित्वाभ्यां भिन्नमेव तृतीयभङ्गविषयः, विशिष्टघटकतया प्रविष्टस्याऽस्तित्वस्य विशेषणत्वं नास्तित्वस्य च विशेष्यत्वं भवतु नाम, न तावताऽपि काचित् क्षतिः, विशिष्टनिष्ठप्रकारताया विलक्षणाया एव तृतीयभङ्गजवोधनिरूपिताया अभ्युपगमात् । क्रमार्पितोभयविषयकत्वमित्यस्याऽपि विशिष्टधर्मान्तरविषयकत्व एव पर्यवसानमिति नोक्तदोषाणामवकाश इति वाच्यम् । एवं सत्यस्तित्वविशिष्टनास्तित्वं यथा विशिष्टात्मकतया धर्मान्तरं तथा नास्तित्वविशिष्टास्तित्वमपीति तत्प्रतिपादकमपि भङ्गान्तरं वक्तव्यम् । एवमस्तित्वविशिष्टावक्तव्यत्वादिवक्तव्यत्वविशिष्टास्ति Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सप्तभङ्गीप्रभा त्वादीनामपि धर्मान्तराणां सम्भवेन तत्प्रतिपादका अपि भङ्गा वक्तव्याः स्युरिति न सप्तभङ्गी व्यवस्थिता स्यात् । न चाऽस्तित्वविशिष्टनास्तित्वस्याऽवगमे नास्तित्वविशिष्टास्तित्वमप्यवगतमेव, तयोस्तुल्यवित्तिवेद्यत्वात् । न चाऽवगतस्यैवाऽवगमाय शब्दव्यापारो युक्त इति वाच्यम् । विशिष्टानामन्योन्यविलक्षणरूपाणां समानवित्तिवेद्यत्वे मानाभावात्, तेषां स्वरूपत एव वैलक्षण्यस्येदानीमाश्रितत्वात् । स्वस्वघटकपदार्थविशेषणविशेष्यभावभेदप्रयुक्तवैलक्षण्यमप्यत्र स्फुटमेव । यतः प्रथमे विशिष्टेऽस्तित्वं विशेषणं, नास्तित्वं विशेष्यं, द्वितीये च विशिष्टे नास्तित्वं विशेषणं, विशेष्यमस्तित्वमिति । किञ्च, विशिष्टस्य धर्मान्तरस्य तृतीयभङ्गविषयत्वे तदपेक्षानिमित्तमपि प्रथमद्वितीयभङ्गविषयधर्मापेक्षानिमित्ताभ्यामन्यदेव वाच्यम् । न चाऽस्तित्वनास्तित्वयोर्विधिनिषेधरूपत्वेनैकावच्छेदेनैकाधिकरणवृत्तित्वाभावरूपविरोधास्पदत्वेन नाऽपेक्षानिमित्तभेदमन्तरेणैकत्रोपदर्शनसम्भव इति प्रथमद्वितीयभङ्गयोरपेक्षानिमित्तभेदाश्रयणं युक्तं, प्रत्येकापेक्षानिमित्ताभ्यां च वैशिष्टयस्योपपत्तेर्न तदतिरिक्तस्याऽपेक्षानिमित्तस्य कृत्यं किञ्चिदस्ति तृतीयभने इति वाच्यम् । धर्मद्वयापेक्षानिमित्तयोस्तयोः सामानाधिकरण्यरूपवैशिष्ट्यसम्पादनद्वारा विशिष्टस्वरूपसम्पादन एवोपक्षीणत्वमिति विशिष्टं च धर्मान्तरं धर्मिणि सर्वथा मा प्रापदेकान्तत्वकवलितमित्यवश्यं निमित्तान्तरस्य वक्तव्यत्वात् । न चैतदनुरोधेन तृतीयेऽपि भङ्गे स्यात्पदं प्रयुज्यत एवेति वाच्यम् । को ह्येवमाह - न प्रयुज्यत इति ? किन्तु यत् प्रयुज्यते तद्विशेषणविशेष्ययोवैशिष्ट्यसम्पादनार्थमेव । अन्यथा तस्य विशिष्टरूपधर्मान्तरस्य यद्धर्मिण्यवस्थानं तन्निमित्तसमर्पकत्वेऽपेक्षानिमित्तविनिर्मुक्तयोरस्तित्वनास्तित्वयोर्विरुद्धत्वेन वैशिष्ट्यानुपपत्त्या विशिष्टस्य स्वरूपतोऽसिद्धौ विधानानुपपत्तिरेव स्यात् । यदि च विशेषणस्य यदपेक्षानिमित्तं विशेष्यस्य वा यदपेक्षानिमित्तं तदेव विशिष्टस्याऽप्यर्थान्तरस्याऽपेक्षानिमित्तमनन्यगत्या स्वीक्रियते, तर्हि तदवबोधनायाऽप्यपरं स्यात्पदं तत्र प्रयोक्तव्यं स्यात् । न च, प्रयुज्यत एव स्यादस्ति स्यान्नास्ति चेत्येवंरूपे तृतीयभङ्गे स्यात्पदद्वयम् । तत्रैकं स्यात्पदमस्तित्वनास्तित्वयोः सामानाधिकरण्योपपादकमपेक्षानिमित्तं द्योतयति, द्वितीयं तु विशिष्टस्य धर्मिवृत्तित्वनिमित्तमिति नोक्तदोषकदर्थनेति वाच्यम् । अस्तिपदसमभिव्याहृतं हि स्यात्पदं यदपेक्षयाऽस्तित्वं तमेव वोधयितुं पर्याप्तमेव, नास्तिपदसमभिव्याहृतं च नास्तित्वनिमित्तमेवेति ताभ्यां स्यात्पदाभ्यां सामानाधिकरण्योपपादकमेव निमित्तद्वयमावेदितं भवति । अस्तु वा यथाकथञ्चिदेकस्य सामानाधिकरण्यनिमित्तावेदकत्वमपरस्य च स्यात्पदस्य विशिष्टापेक्षा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभडीप्रभा २७ निमित्तावेदकत्वं, तथाऽपि विनिगमनाविरहाद् द्वयोरेव प्रत्येकधर्मापेक्षानिमित्तयोविशिष्टनिमित्तत्वं वाच्यम् । तत्र चाऽपेक्षानिमित्ततावच्छेदकं तदुभयत्वं, तच्च न सम्भवति, स्वद्रव्यादीनां परद्रव्यादीनां च विरुद्धानामेकविशिष्टापरत्वरूपोभयत्वाभावात् । न चोभयावच्छेदेन विशेषणं विशेष्यं वा वर्तते, ताभ्यां च निष्पद्यमानं रूपं विशिष्टं कथं तथा वर्तेत ? नाऽप्यन्यतरत्वान्यतमत्वादि निमित्ततावच्छेदकम् । भावाभावयोरेकत्रोपपत्त्यर्थमवच्छेदकभेदाश्रयणं, न त्वन्यथा । विशिष्टं च यदोक्तान्यतरत्वान्यतमत्वादिविशिष्टावच्छेदेन वर्त्तते तदा तदवच्छेदकमध्ये जगत एव प्रवेशात् तदन्यस्याऽपेक्षानिमित्तस्य कस्यचिदभावाद् विशिष्टस्वरूपधर्माभावस्तदधिकरणे न कथञ्चिद् वर्तेत । एवं च व्यथैव विशिष्टस्याऽवच्छेदककल्पना प्रसज्येत । न चैवमेव न्याय्यम् । तथा सति तस्य व्यापकत्वाद्यापत्त्या घटाद्यसाधारणरूपता न स्यात् । अस्तु वाऽपेक्षानिमित्तं तस्य यत्किञ्चित्, किन्त्वेकान्तवादापत्तिभिया तदभावोऽपि तत्राऽवश्यं स्वीकरणीयः । न च तस्य क्लृप्तेषु षट्सु धर्मेष्वन्तर्भावः, प्रथमद्वितीयभङ्गप्रतिपाद्ययोरस्तित्वनास्तित्वयोर्विशेषणविशेष्यभावमापन्नयोस्तदुपपादकतया तदभावरूपत्वासम्भवात् । नहि यो यस्य विरोधी स तस्योपपादकः क्वचिद् दृष्टः । चतुर्थभङ्गप्रतिपाद्यं त्ववक्तव्यत्वं यथा नाऽस्तित्वनास्तित्वयोरभावरूपम्, अस्तित्वनिषेधरूपत्वे नास्तित्वात्मकत्वे, नास्तित्वनिषेधरूपत्वेऽस्तित्वात्मकत्वे पर्यवसानप्रसङ्गात् । यथा न विशिष्टरूपधर्मान्तरनिषेधरूपं, तथा सति भावाभावयोः परस्परविरहरूपत्वेन विशिष्टस्याऽवक्त्रव्यत्वाभावरूपवक्तव्यत्वात्मकत्वं स्यात् । तथा च विशिष्टेनैव धर्मेण वस्तु वक्तव्यं स्यात्, नास्तित्वादिना प्रत्येकधर्मेण । न चैतदिष्टम् । तस्माद् वक्तव्यत्वस्य विशेष एव विशिष्टो धर्मः, न तु वक्तव्यत्वसामान्यम् । एवं च वक्तव्यत्वसामान्यस्याऽभावरूपमवक्तव्यत्वं कथं यत्किञ्चिविशेषमात्रप्रतियोगिकाभावरूपं वक्तुं शक्यम् ? __ एवमेव पञ्चमादिविकल्पविषया अपि धर्मा नोक्तविशिष्टस्याऽभावरूपा इत्यतिरिक्तस्य विशिष्टाभावस्य सिद्धौ तत्प्रतिपादकोऽपि भो वाच्यः । एवं तस्याऽपि प्रत्येकधर्मेण सह साहचर्यमवलम्ब्य निष्पद्यमानानेकधर्मप्रतिपादकानि भङ्गान्तराणि वाच्यानि । विशिष्टस्याऽपि च धर्मान्तरस्य धर्मान्तरेण सह साहचर्यमाश्रित्य धर्मान्तराणां प्रसक्तौ भङ्गान्तराणामप्यापत्तेः । एते च दोषाः पञ्चमषष्ठसप्तमभङ्गविषयानप्यास्कन्दन्तो न तेभ्योऽप्यपसारयितुं शक्याः, तस्मान्न तृतीयभङ्गोऽप्युपपत्तिपद्धतिमवलम्बते ।। मूलीभूताद्यद्वितीयभङ्गविषयधर्मोन्मूलनोन्मूलितविषयोऽपि तुरीयभङ्गः पञ्चमषष्ठसप्तमभङ्गसूत्रण-सूत्रधारोऽधिकार्थासंस्पर्शान्नोपपद्यते । तथा हि - अस्तित्वनास्तित्वापेक्षानिमित्तयोर्युगपदर्पणात् प्राधान्येन युगपदdमाणयोरस्तित्वनास्तित्वयोस्तथावबोधकशब्दाभावात् स्यादवक्तव्य एव इति चतुर्थभङ्ग उरीक्रियते | तस्य विषयो वक्तव्यः । ननु किमत्र वक्तव्यम् ? यथा घट इत्युक्ते घटशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तं घटत्वं विहितं भवति, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ तथाऽवक्तव्य इत्युक्ते तत्प्रवृत्तिनिमित्तमवक्तव्यत्वं विहितं भवति । तच्च वक्तव्यत्वाभावरूपमपेक्षानिमित्तोपवन्धविनिर्मुक्तमस्तित्वादिप्रत्येकरूपेण वक्तव्ये वस्तुनि नाऽऽत्मानमासादयतीति स्यात्पदाववोध्ययुगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वापेक्षानिमित्तद्वयसंवलितवक्तव्यत्वाभावस्वरूपतामासादयत् तुरीयभङ्गविषय इति किमपरं वक्तव्यमत्राऽ सप्तभङ्गप्रभा वशिष्टम् इति चेत्; न, अपेक्षानिमित्तं हि वक्तव्यत्वे वाऽन्वियात्, तन्निष्ठप्रतियोगित्वे वा तदभावे वा ? आद्ये अस्तित्वनास्तित्वाभ्यां तथावक्तव्यत्वस्य प्रसिद्धौ कथं तदभावः ? अप्रसिद्धौ प्रतियोग्यप्रसिद्ध्या सुतरां तदभावाप्रसिद्धिः । द्वितीये तादृशनिमित्तस्य समानाधिकरणधर्मविधया प्रतियोगितावच्छेदकत्वं व्यधिकरणधर्मविधया वा ? आद्यस्तावदसम्भवग्रस्तः । नहि स्वद्रव्यादि परद्रव्यादि च युगपदर्पितं तन्निमित्तकं वा युगपदर्पितसत्त्वासत्त्वद्वयं वक्तव्यत्यवृत्ति । धर्म्यभेदमाश्रित्य तथाऽभ्युपगमे वा तेन रूपेण वक्तव्यत्वस्य प्रतीतिः क्वचिदवश्यमभ्युपगन्तव्या स्यात् । यदूपेण हि यत् क्वचिदपि प्रतीयते तद्रूपस्यैव समानाधिकरणधर्मता ि वस्तुस्थितिः । एवं च कथं तथावक्तव्यत्वाभावः ? द्वितीये, किमस्तित्वनास्तित्वयोर्युगपदर्पितयोर्व्यधिकरणत्वं तन्निमित्तयोर्वा ? आद्ये केवलमप्यस्तित्वं नास्तित्वं वा वक्तव्यत्वात्मकप्रतियोग्यवृत्तित्वाद् व्यधिकरणमेव । यद्यपि वक्तव्यत्वेऽपि वक्तव्यत्वेन रूपेणाऽस्तित्वं तदन्यरूपेण च नास्तित्वं वर्तते, तथाऽपि प्रक्रान्तमस्तित्वं नास्तित्वं च घटादिगतं तत्र नाऽस्ति । एवं चाऽस्तित्वादिप्रत्येकधर्मेणाऽपि वक्तव्यत्वाभावमाश्रित्य तुरीयभङ्गस्योपपत्तौ युगपदर्पणकल्पना न चतुरस्रा स्यात् । एतेन द्वितीयोऽपि प्रत्युक्तः । तृतीयोऽप्यसम्भवादेव निरस्तः । यो हि स्वरूपतः प्रसिद्धो भवति तस्यैव क्वचिदधिकरणे सत्त्वोपपादनायाऽवच्छेदकभेदकल्पनोपयुज्यते । वक्तव्यत्वाभावश्च स्वरूपत एवाऽप्रसिद्धः कथमवच्छेदकसम्बन्धितामासादयेत् ? अस्तु वाऽवक्तव्यत्वं यत्किञ्चित्, तत्प्रतिपादको यथा तुरीयभङ्गः, तथा वक्तव्यत्वमप्यस्तित्वादिप्रत्येकनिमित्तापेक्षयाऽस्तीति तत्प्रतिपादकोऽप्यपरो भङ्गः स्वीकर्तव्यः स्यात् । न हि यदेवाऽस्तित्वं नास्तित्वं वा तदेव वक्तव्यत्वम् । वक्तव्यत्वं हि वचनप्रतिपाद्यत्वम् । तदवच्छेदकं च रूपं घटत्वास्तित्वादिकम् । न चाऽवच्छेद्यावच्छेदकयोः सर्वथाऽभेदो भवतामनुमतः । तथा सति यदेव घटत्वं तदेवाऽस्तित्वमिति तत्प्रतिपादकः प्रथमभङ्गोऽपि न स्यात् । एवं चाऽवच्छेदकेन सह कथञ्चिद्भेदमाश्रित्याऽस्तित्वादेः प्रतिपादका भङ्गा यथाऽभ्युपगम्यन्ते तथा वक्तव्यत्वप्रतिपादकोऽपि भङ्ग कथं नाऽऽद्रियते ? न च वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वधर्मकल्पनया स्याद्वक्तव्य एव घटः स्यादवक्तव्य एव घट इत्यादिसप्तभङ्ग्यां वक्तव्यत्वप्रतिपादकोऽपि भङ्गः स्वीक्रियते । अत्र त्वस्तित्वनास्तित्वादिधर्माणामेव प्रस्तावः । अतोऽप्रस्तावाद् वक्तव्यत्वप्रतिपादको भङ्गो नाऽऽद्रियत इति वाच्यम् । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा एवं सत्यवक्तव्यत्वप्रतिपादकोऽपि भझे नाऽऽदरणीय एव स्यात् । यदि च प्राधान्येन युगपदुभयविवक्षायां वक्तुमशक्यत्वात् तस्य प्रस्ताव एवेति विभाव्यते तदैकैकस्य प्राधान्यविवक्षायां वक्तुं शक्यत्वाद् वक्तव्यत्वस्याऽपि प्रस्ताव इत्यपि विभाव्यताम् । २९ किञ्चोक्तविवक्षायां सत्यामयं धर्म उपतिष्ठते, अस्तित्वादिवद् यावत्सत्त्वं धर्मिणि सन्नेव वा, कल्पनापाधिको वा ? नाऽऽद्यः, वक्तृविवक्षादिघटिता हि शव्दसामग्री शब्दं तद्गतं च तारत्वादि जनयितुं समर्था साक्षात्, परम्परया च शाव्दधियं, न त्वर्थगतं धर्मान्तरम् । शाब्दबुद्धिद्वारा चाऽर्थगतां विषयतां जनयेदपि । न च साऽवक्तव्यत्वं न वा वक्तृविवक्षयोत्थापितस्य स्वरूपस्य श्रोतृवुद्धौ प्रतिभानसम्भवः । नाऽपि द्वितीयः, अस्तित्वादिवत् तस्याऽपि प्रत्यक्षादिज्ञाने भानप्रसङ्गात् । न च प्रतिभासत एव केवलज्ञाने तदिति वाच्यम् । तस्य शपथैकनिर्णेयत्वात् । अयोग्यत्वात् प्रत्यक्षाविषयोऽप्यवक्तव्यत्वं शब्दविषय इति त्ववोध - विजृम्भितम् । यो हि वचनप्रतिपाद्यो न भवति सोऽवक्तव्य इत्युच्यते, तद्भावोऽवक्तव्यत्वं शब्दविषयो, न तु प्रत्यक्षविषय इति स्वशिष्य एव वोधयितुं शक्यः । नाऽपि तृतीयः, कल्पनाकोशस्याऽस्खलितप्रचारत्वेन यथाऽवक्तव्यत्वं भवता प्रकल्पितं तथा युगपत्प्राधान्यविवक्षायां तथा ज्ञातुमशक्यत्वेनाऽज्ञेयत्वं प्रकल्प्य स्यादज्ञेय एव घट इति भोऽपि किं नाऽङ्गीक्रियते ? नन्वेवं स्ववचनविरोध एव स्यात् । कथं ह्यज्ञेयश्च स्यात् तथा ज्ञेयश्चेति ? एवं प्रेक्षावता भवताऽवक्तव्यत्वेऽपि दीयतां दृष्टिः । यदि च तद्विरोधपरीहारायैव तत्र स्यात्पदं प्रयुज्यते, तर्हि प्रकृतेऽपि तुल्यम् । किञ्च विवक्षाऽपि सैव युज्यते यया वचनप्रतिघातो न भवति । सहार्पिता - स्तित्वनास्तित्वविवक्षा तु नैवम्भूतेति परित्यज्यतां सैव । नैतदनुरोधेन तुर्यादिभङ्गकल्पना युक्तिमती । ननु, न प्रतिपादयित्रा स्वयमेवाऽऽदृता सा, येन तां तथाभूतामनादृत्य चतुर्थभङ्गाद्यप्रयोगो युज्येत, अपि तु प्राश्निकप्रश्नवशात् । प्रश्नश्च सहार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयगोचरस्तत्संशयजिज्ञासासमुत्तम्भितोऽपर्यनुयोज्य इति तन्निवर्तनायोक्तविवक्षया तुर्यभङ्गप्रयोग आवश्यक इति चेत्; न, यतो यदि सहार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयं वक्तुमशक्यं तर्हि प्रश्नोऽपि वचनरूपस्तद्विषयकः कथं प्रवर्त्तेत ? न ह्यन्यः पृच्छाविषयोऽन्यश्चोत्तरविपय इति । ननु घटो वक्तव्यो न वेति ? किं घटो वक्तव्य एवेति ? किं घटोऽवक्तव्य एव ? इत्याकारः प्रश्नः सम्भवत्येवेति चेत्; Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा एवं सति स्यादस्त्येव घटः, स्यान्नास्त्येव घटः, स्यादस्ति नास्ति च घटः, इति भङ्गत्रयसमाहाररूपायां त्रियामस्तूत्तरस्य विश्रान्तिः । अयं तु घटो वक्तव्यो न वा ? इत्यादिः प्रश्नो भिन्नविषयक एव । ततश्च स्याद्वक्तव्य एव घटः, स्यादवक्तव्य एव घटः स्याद्वक्तव्योऽवक्तव्यश्च घट इति त्रिभङ्गयुत्तरवाक्यं भवतु नाम । न तु तन्मध्यादेकस्य भङ्गस्याऽस्तित्वादिप्रतिपादकभङ्गसमूहे योजनया तन्मूलकभङ्गान्तरयोजनया सप्तभङ्गयुपपादनं युक्तम् । ३० किञ्चाऽयं तुर्यभङ्गः कस्याऽवक्तव्यत्वमनुशास्ति ? किं घटस्योत युगपदर्पितयोरस्तित्वनास्तित्वयोरुत तन्निमित्तयोः स्वद्रव्यादिपरद्रव्याद्योः, स्वस्वापेक्षानिमित्तसंवलितयुगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वविशिष्टस्य घटस्य वा ? I आद्ये, अस्तित्वादिना वक्तव्ये घटे नाऽपेक्षानिमित्तमन्तरेणाऽवक्तव्यत्वमात्मानं लभत इति किञ्चिदपेक्षानिमित्तं वाच्यम् । तद् यदि युगपदर्पितं स्वद्रव्यादिपरद्रव्यादिकं तर्हि तत् तथाविधं स्यात्पदेन द्योत्यं वाच्यं वा कक्षीकरणीयम् । अन्यथाऽपेक्षानिमित्ताप्रतिभासे किमपेक्षयाऽवक्तव्यत्वं भासेत ? एवं च घटोऽपि स्वयं वाच्यः । अवक्तव्यत्वस्याऽपेक्षानिमित्ततया यदभिमतं तदपि वाच्यम् । एवं सत्य घटस्याऽवक्तव्यत्वमिति नाऽनुभवपथमधिरोहति । ननु कथं नाऽनुभवपथमधिरोहति ? यतः स्वद्रव्याद्यपेक्षयाऽस्ति घटः, परद्रव्याद्यपेक्षया नाऽस्ति घटः, क्रमार्पितस्वद्रव्यपरद्रव्याद्यपेक्षया प्राधान्येन क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्ववान् घटः, युगपदर्पितस्वद्रव्यपरद्रव्याद्यपेक्षया प्राधान्येन युगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वाभ्यां घटस्य वक्तुमशक्यत्वादवक्तव्यत्वमित्यनुभूयत एवेति चेत्; किमिदानीं स्वस्वापेक्षानिमित्तसंवलितं प्राधान्येन युगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वोभयमवक्तव्यत्वस्याऽपेक्षानिमित्तमुरीक्रियते भवता ? ओमिति चेत्, तर्हि तदेवाऽपेक्षानिमित्तमवश्यं स्यात्पदबोध्यमुरीकर्त्तव्यं घटोऽपि च वक्तव्य एवेति किमपरमवशिष्टं वक्तव्यतायां येन तदपेक्षयाऽवक्तव्यो घटः स्यात् ? न च स्यात्पदेन बोध्यतां नामाऽपेक्षानिमित्ततया तथाविधमस्तित्वनास्तित्वोभयं घटोऽपि च घटपदेन, तथाविधस्य तदुभयस्य प्रकारतया घटे भानप्रयोजकं न किमपि पदं विद्यत इत्यतोऽवक्तव्यत्वं घटस्येति वाच्यम् । यद्व्यपेक्षानिमित्तं न तदेव प्रकारः प्रथमभङ्गादावपि अस्तित्वादिकं तत्र प्रकारः स्वद्रव्यादिकं चापेक्षानिमित्तम् । तथा चाऽपेक्षानिमित्ततयाऽऽश्रितस्य तस्य प्रकारत्वाभावेऽपि नैतावताऽवक्तव्यत्वं, तथा सति प्रथमभङ्गादिस्थानेऽप्ययं भङ्गोऽभिषिच्यताम् । ननु, तादृशस्याऽस्तित्वनास्तित्वोभयस्याऽपेक्षानिमित्तत्वे किञ्चिदपरमापेक्षिकं वक्तव्यमेव, अन्यथा कस्य तदुभयमपेक्षानिमित्तं स्यात् ? न च तद्वक्तव्यत्वस्य निमित्तमिति प्रतियोग्यनवच्छेदकस्याऽभावाव Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा च्छेदकत्वमिति नियमेनाऽवक्तव्यत्वमेव तदपेक्षया वर्तत इति तुरीयभङ्गोऽशक्यापह्नव इति चेत्, आरोपे सति निमित्तानुसरणं न तु निमित्तमस्तीत्यारोप इति यद्यवक्तव्यत्वं प्रथमतः प्रतीतिपथमारोहेत् तदा वक्तव्ये घटे कथं तदिति जिज्ञासानिवर्तनाय किञ्चिदपेक्षानिमित्तमुपयुज्येत ? अवक्तव्यत्वस्वरूपाप्रतिपत्तौ तु तन्निमित्तस्य प्रथमत उपादानमेव चतुरस्रम् । न हि कपिसंयोग - तदभावावप्रतिसन्धायैव कश्चिन्मूलं शाखां चाऽपेक्षानिमित्तमुपादत्ते । ततश्च तदवच्छेद्यं विविच्य योजयत्ययमस्याऽवच्छेद्योऽयं चाऽस्येति । न च परिशेषोऽपि युक्तः, यतोऽपेक्षानिमित्ततया यदभिमतं तत् स्यात्पदेन बोध्यमेव । घटोऽपि स्वशब्देन बोध्य इति शब्दबोध्यतैव च वक्तव्यतेति कथं वक्तव्यत्वमेव ततो न स्यात् ? ननु, यदि तादृशाभ्यामस्तित्वनास्तित्वाभ्यामयं वचनार्हस्तर्हि कीदृगस्य वचनं तदेवोच्यतां तावतैव विवादपर्यवसानादिति चेत्; तत् किं ताभ्यां सर्वथैव वचनानर्ह एव घटः ? तथा सति वचनमये सप्तभङ्ग्यात्मक महावाक्ये ताभ्यां तस्य प्रवेश एव न स्यात् । नहि वचनानर्हस्य वचनपरिपाट्यां सन्निवेशो युज्यते । ननु, क एवमाह सर्ववचनानर्ह इति ? किन्तु ताभ्यामस्य निरूपणेऽवक्तव्यवचनातिरिक्तं वचनमस्य नास्तीति । नन्वेवमवक्तव्यात्मकवचनेन वक्तव्योऽसाविति भवतोऽप्यनुमतस्तथा च किं वचनविशेष - परीक्षया ? स्याद्वक्तव्य एव घट इत्येव तुर्यभङ्गस्थाने निवेश्यताम् । तत्र वच्धात्वर्थे वचनसामान्येऽवक्तव्याख्यवचनविशेषस्याऽप्युपनिवेशसम्भवेन तदादाय वक्तव्यत्वस्याऽनिर्बाध एव । ३१ - नन्वेवं सति वक्तव्यशब्दप्रतिपाद्यत्वे कथमवक्तव्यशब्दप्रतिपाद्यता ? तत्किमवक्तव्य - शब्दप्रतिपाद्योऽपि सन्न वक्तव्यः ? तथा च सति कथं न वक्तव्यशब्दप्रतिपाद्यः ? । तस्मान्न घटस्याऽवक्तव्यत्वं तुर्यभङ्गविषयः । नाऽपि युगपदर्पितयोरस्तित्वनास्तित्वयोरवक्तव्यत्वं तुर्यभङ्गविषयः । तथा सति स्यादवक्तव्ये अस्तित्वनास्तित्वे इति स्यात्, न तु स्यादवक्तव्यो घट इति, घटस्याऽतद्धर्मत्वात् । यदि च परम्परया तस्य तद्धर्मत्वमाश्रित्य स्यादवक्तव्यो घट इति भङ्ग उपपाद्यते तर्हि वक्तव्यं भवता यदस्तित्वनास्तित्वे उद्दिश्याऽवक्तव्यत्वस्य विधायकं वाक्यमस्ति न वेति ? अन्त्ये विधायकाभावादस्तित्वनास्तित्वयोरेवाऽऽत्मानमनासादयत् तत् कथं परम्परया घटे स्वस्थितिं स्थिरीकुर्यात् ? आद्ये कीदृग् विधायकं वाक्यं तद्वाच्यम् ? ननूक्तं भवतैव स्यादवक्तव्ये अस्तित्वनास्तित्वे इति । सत्यमुक्तं परन्त्वस्तित्वनास्तित्वाभ्यां वाच्ययोस्तयोरवक्तव्यत्वे किं निमित्तं यत्स्यात्पदेन बोध्यते ? युगपदर्पितत्वमिति चेत्, एवं सति युगपदर्पित्वस्याऽस्तित्वनास्तित्वयोश्च वाच्यत्वे किमपरमवशिष्टं येन वक्तव्यत्वं न स्यात् ? ननु, द्वन्द्वसमासेन सर्वप्रधानेनाऽस्तित्वनास्तित्वे इत्येवंरूपेण प्राधान्येनाऽस्तित्वनास्तित्वे यद्यपि बोध्येते, तथाऽपि न युगपत्, किन्तु क्रमेणैवेति युगदर्पितयोस्तयोरभिलापकपदाभावादवक्तव्यत्वमिति चेत्; न, बुद्धेर्विरम्य व्यापाराभावेन यदैवाऽस्तित्वनास्तित्वे इत्यनेनोत्पद्यते बुद्धिस्तत्क्षण एवाऽस्तित्वं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा नास्तित्वं च विषयीकरोतीति तादृशवुद्धिजननसमर्थत्वादस्तित्वनास्तित्वे इति समासवाक्यस्यैव युगपदर्पितयोस्तयोरभिलापकत्वात् । ३२ किञ्चाऽस्तित्वं द्रव्यार्थिकनयविषयो नास्तित्वं च पर्यायार्थिकनयविषय इति विषयभेदान्नययोरस्तित्वे नास्तित्वे च मिश्रणमेव नाऽस्तीति तत्प्रयुक्तं युगपदर्पितत्वं नाऽस्तित्वनास्तित्वयोरिति व्यधिकरणेन तेन तयोर्वक्तव्यत्वाभावप्रतिपादने कः पुरुषार्थः ? ईदृशानां व्यधिकरणानां बहूनां सद्भावेऽस्यैव निमित्ततयाऽऽश्रयणे बीजाभावात् । नाऽपि सत्त्वासत्त्वापेक्षानिमित्तानां स्वद्रव्यादिपरद्रव्यादीनां युगपदर्पितानामवक्तव्यत्वं तुर्यभङ्गविषय इति तृतीयोऽपि युक्तः, तत्राऽप्युक्तन्यायस्य सर्वस्य समानत्वात् । न च निमित्तानामवक्तव्यत्वे स्यादवक्तव्यो घट इति कथं स्यात् ? अन्यस्याऽवक्तव्यतायामन्यस्याऽवक्तव्यत्वप्रकारतयाऽवबोधने वाक्यस्याऽप्रमाणत्वापातादिति शङ्क्यम् । निमित्तानामवक्तव्यत्वे तद्विवेचनविविक्तस्वभावयोरस्तित्वनास्तित्वयोरप्यवक्तव्यतायां तद्रूपेण घटस्याऽप्यवक्तव्यत्वस्य न्याय्यत्वेन तदादाय स्यादवक्तव्यो घट इत्यस्योपपत्तेः । स्वस्वापेक्षानिमित्तसंवलितयुगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वविशिष्टस्य घटस्याऽवक्तव्यत्वं तुर्यभङ्गविषय इति तुर्यपक्षोऽपि नाऽऽनन्दोल्लासकः । तथा हि - तथाविशिष्टतामाभेजानस्य घटस्याऽवक्तव्यत्वप्रकारतया भानं तदा स्याद् यदि विशेष्यसमर्पकस्य घटपदस्य तथाभूतविशिष्टपरत्वं स्यात् । एवं च विशिष्टस्य विशेष्यविधया वोधानुरोधेन घटपदस्य तत्र गौणवृत्तेराश्रयणस्याऽऽवश्यकतया गौण्या वृत्त्योक्तविशिष्टस्य घटपदवक्तव्यत्वे जागरूकेऽवक्तव्यत्वं तत्र न निमित्तान्तरमन्तरेणेति निमित्तान्तरं वक्तव्यम् । तद् यदि स्यात्पदस्य वक्तव्यतां कथञ्चिद् बिभर्ति तदा किमपरमवशिष्टं वक्तव्यतायां, येन वक्तव्यमेव न स्यात् ? अथ न तन्निमित्तं स्यात्पदवोध्यं तर्हि निमित्ताप्रतिभासादेव न तन्निमित्तकस्याऽवक्तव्यत्वस्याऽवभाससम्भवः । ननु गौण्या वृत्त्या विशिष्टस्य भवतु वक्तव्यता नाम, मुख्यया तु वृत्त्या न कोऽपि शव्दस्तादृशं विशिष्टमर्थमभिदधातीतीत्थमवक्तव्यता सूपपादेति चेत्; एवं सत्यस्तित्वादिप्रत्येकधर्मविशिष्टस्याऽपि घटस्य मुख्यया वृत्त्या न घटपदं तदन्यपदं वाऽभिधायकमिति तथा विवक्षायामप्युक्तदिशाऽवक्तव्यत्वस्य सम्भवेन स्वस्वापेक्षानिमित्तेत्यादिविशिष्टतारूपाश्रयणस्याStतिप्रयोजनकत्वमेव । न च स्यादस्त्येव घट इत्यत्राऽस्तित्वविशिष्टघटस्याऽभिधानमस्त्येवेति वाच्यम् । न ह्यस्तिपदं घटपदं वाऽस्तित्वविशिष्टघटस्याऽभिधायकम् । अस्तित्वावच्छिन्नेऽस्तिपदस्य घटत्वावच्छिन्ने च घटपदस्य मुख्यवृत्तिः, न तु विशिष्टे । वाक्यं तु यद्यपि विशिष्टार्थस्याऽवबोधकं तथाऽपि न तस्याऽभिधाख्या मुख्या वृत्तिः । तात्पर्याख्या वृत्तिस्तु तस्य यथैकपदशक्यार्थान्वितेऽपरपदशक्यार्थे, तथा लक्ष्यार्थेऽपि । अन्यथा तस्य शाब्दबोधविषयतैव न स्यात् । तथा च वाक्यस्य तात्पर्याख्यवृत्तिमवलम्व्य Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा यद्यस्तित्वादिप्रत्येकधर्मविशिष्टस्य घटस्य वाक्यप्रतिपाद्यत्वेन वक्तव्यत्वं तथा स्वस्वापेक्षानिमित्तसंवलितयुगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वविशिष्टघटे कस्यचिद् वाक्यस्य तात्पर्याख्यवृत्तिसत्त्वे वक्तव्यत्वमेव । तात्पर्याभावे च न तस्य शाब्दबोधे कथमपि प्रवेश इति कस्याऽवक्तव्यत्वं तुरीयभङ्गविषयः स्यात् ? एतेन तृतीयचतुर्थभङ्गयोर्विषयभेदोपपादनाय तृतीयेऽस्तित्वनास्तित्वोभयस्य प्राधान्यम्, चतुर्थे त्ववक्तव्यत्वरूपधर्मान्तरस्येति निरस्तम् । न ह्युक्तदिशाऽवक्तव्यत्वस्यैवाऽभावे तस्य प्राधान्यं घटत इति । तुल्ययुक्त्याऽवक्तव्यत्ववद् वक्तव्यत्वस्याऽपि धर्मान्तरस्योपपादितत्वेन “सामान्येन वक्तव्यत्वस्याऽतिरिक्तस्याऽभावात्, सत्त्वादिरूपेण वक्तव्यत्वं तु प्रथमभादावेवाऽन्तर्भूतम् । अस्तु वा वक्तव्यत्वं नाम कश्चन धर्मोऽतिरिक्तः, तथाऽपि वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वाभ्यां विधिप्रतिषेधकल्पनाविषयाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यामिव सप्तभङ्गयन्तरमेव प्राप्नोतीति न सत्त्वासत्त्वप्रमुखसप्तविधधर्मव्याघातः” इति। विमलदासोक्तिरप्यपास्ता । यथाऽवक्तव्यत्वं धर्मान्तरं तथा वक्तव्यत्वमपीति कोऽत्र विशेषो, येनाऽवक्तव्यत्वप्रतिपादकस्य भङ्गस्य मध्ये सन्निवेश्य सप्तभङ्गी सम्भवति ? न तु वक्तव्यत्वप्रतिपादकं भङ्गमुपनिवेश्येति । किञ्च, अवक्तव्यत्वं यदि धर्मान्तरं तदाऽस्तित्वनास्तित्वादिधर्मप्रतिपादकसप्तभङ्गीप्रविष्टतुर्यभङ्गविषयस्य तस्य नित्यत्वानित्यत्वभेदाभेदादिप्रतिपादकसप्तभङ्गीप्रविष्टतुर्यभङ्गविषयात् । तस्मादविशेषप्रसङ्गः । न चाऽपेक्षानिमित्तभेदाद् विशेषो भविष्यति, एकस्याऽपेक्षानिमित्तं युगपदर्पिते अस्तित्वनास्तित्वे, अन्यस्य चाऽपेक्षानिमित्तं युगपदर्पिते नित्यत्वानित्यत्वे, तदन्यस्य च युगपदर्पितौ भेदाभेदावित्येवमादीति वाच्यम् । 1 नह्येकस्यैकमेवाऽपेक्षानिमित्तमित्यस्ति नियमः, येन निमित्तभेदाद् भेदः स्यात् । तथा सति सत्त्वादेरपि स्वद्रव्यादिमध्यादेकमेव किञ्चिन्नमित्तं स्यात् । किञ्चाऽपेक्षानिमित्तघटितरूपताविनिर्मोकेणाऽनुभूयमानयोरेकत्रोपपत्त्यर्थमवच्छेदकभेदकल्पना भवति, नाऽन्यथा । न चाऽवक्तव्यत्वात्मकधर्मा बहवः पृथगनुभूयन्ते येन तन्मध्यादेकस्याऽपेक्षानिमित्तविशेषनियतस्याऽस्तित्वादिधर्मसप्तके प्रवेशः, अन्यस्य च तस्य तथाभूतस्य नित्यत्वादिधर्मसप्तके, तदन्यस्य च भेदादिधर्मसप्तके इत्येवं विवेचनं स्यात् । न चाऽस्तु सर्वसप्तभङ्गीप्रविष्टतुर्यभङ्गप्रतिपाद्य एक एवाऽवक्तव्यत्वनामा धर्मः । तदादायैव सप्तभ सूपपादा भविष्यतीति वाच्यम् । ३३ एकस्यां सप्तभङ्गयां विधिनिषेधभावमापन्नानां धर्माणां प्रतिपादका एव भङ्गा घटका नाऽन्ये इति नियममवक्तव्यत्वरूपधर्मान्तरप्रतिपादकभङ्गोपवेशनेन परित्यजतो मते यथा तस्यैकस्याऽवक्तव्यत्वस्याऽस्तित्वादि सम्बन्धि तथा भेदादिधर्मकदम्बकमपि । तथा च स्यादस्ति स्यादवक्तव्य इतिवत् स्याद्भिन्नः स्यादवक्तव्य इत्यादयोऽपि भङ्गा एकस्मिन्नेव महावाक्ये प्रविशेरन् । ततश्च तद्वाक्यं सप्तभङ्गीत्वं कथमासादयेत् ? न 1. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी पृ. १० प. ४ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भङ्गप्रभा चाऽस्तित्वप्रतिपादनावसरे भेदादीनामप्रस्तावादेव न तत्प्रतिपादकभङ्गप्रवेश इति शक्यं वक्तुं दत्तोत्तरत्वात् । किञ्चाऽवक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरत्वपक्षे तस्य निमित्तभेदेन विभिन्नस्याऽऽश्रयणे यथा द्वाभ्यां युगपदर्पिताभ्यामस्तित्वनास्तित्वाभ्यामेकस्य वस्तुनो विवक्षायां तादृशस्य शब्दस्याऽसम्भवादवक्तव्यत्वं तथा त्रिभिर्युगपदर्पितैरस्तित्वनास्तित्वावक्तव्यत्वैरेकस्य वस्तुनो विवक्षायां तादृशस्य शब्दस्याऽभावादवक्तव्यत्वान्तरं स्यादेव, युक्तौल्यात् । तथा हि- सत्त्वासत्त्वयोः प्रधानतया युगपत्प्रतिपादने न कस्याऽपि शब्दस्य शक्तिः । अस्तीति पदं सत्त्वस्याऽभिधायकं नाऽसत्त्वस्य । एवं नास्तीति पदमसत्त्वाभिधायकं, न सत्त्वस्य । स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव घट इति वाक्यं च क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयप्रतिपादकं, न तु युगपदर्पितोभय-प्रतिपादकम् । शतृशानचोः सङ्केतितोऽपि सन्शब्दो युगपच्चन्द्रसूर्ययोः सङ्केतितोऽपि पुष्पवन्तशब्दः क्रमेणैवाऽर्थद्वयप्रतिपादकस्तथा यद्यन्यः कश्चित् सत्त्वासत्त्वयोः सङ्केतितः स्यात् सोऽपि शब्दमर्यादामनतिक्रम्यैव प्रतिपादकः स्यात् । सेनावनादिपदानामपि समूहविशेषात्मकैकार्थप्रतिपादकत्वमेव । वृक्षौ वृक्षा इत्यत्रैकशेषपक्षे द्वाभ्यामेव वृक्षपदाभ्यां बहुभिरेव च वृक्षपदैर्वृक्षयोर्वृक्षाणां चाऽभिधानं तदन्यपक्षे च स्वभावत एव द्विबहुवचनान्तवृक्षपदयोर्द्वित्वबहुत्वविशिष्टवृक्षप्रतिपादकत्वम् । सुप्तिङन्तं पदमिति पक्षे वृक्षो वृक्षा इत्यादीनामेकपदत्वेऽपि तत्र प्रकृतिप्रत्ययविभागस्याऽऽवश्यकतया प्रकृतेर्वृक्षस्य प्रथमं वृक्षत्वावच्छिन्नबोधकत्वं ततो विभक्तियुक्तस्य तस्य लिङ्गसङ्ख्याबोधकत्वमिति नैकस्य पदस्य युगपत्प्रधानतयाऽनेकधर्मावच्छिन्नबोधकत्वम् । प्रमाणवाक्यस्याऽपि चैकधर्ममुखेनैव द्रव्यपर्यायनयार्पितेन कालादिभिरष्टभिरभेदवृत्त्याऽभेदोपचारेण वा सकलधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकत्वम् । सत्त्वासत्त्वे इति द्वन्द्वस्याऽपि च क्रमेणैवाऽवाऽर्थद्वयप्रत्यायकत्वं न वा तस्याऽस्तित्वनास्तित्वोभयविशिष्टधर्मिप्रतिपादकत्वम् । सदसत्त्वविशिष्टं वस्त्विति द्वन्द्वगर्भितत्पुरुषोऽपि सत्त्वासत्त्ववैशिष्ट्यस्यैव प्रधानतया प्रतिपादको, न तु सत्त्वासत्त्वयोरिति यथा ताभ्यामवक्तव्यो घटस्तथैवोक्तयुक्त्या सत्त्वासत्त्वावक्तव्यत्वैरपीत्यतोऽप्यवक्तव्यत्वं धर्मान्तरमास्थेयमित्यनवस्था । ३४ न चाऽवक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरैः सह युगपदर्पणं नाऽभ्युपगम्यत एवेति न तदवलम्बनेनाऽवक्तव्यत्वान्तरोपनिपात इति वाच्यम् । एवं सति क्रमार्पणमपि धर्मान्तरेण सह तस्य माऽस्तु । तथा च स्यादस्ति स्यादवक्तव्य इत्यादयोऽपि भङ्गा विलीयेरन् । यथा हि स्यादस्ति स्यान्नास्तीति तृतीयभङ्गेऽस्तित्त्वनास्तित्वयोः क्रमार्पणं तथा पञ्चमभङ्गेऽप्यस्तित्वावक्तव्यत्वयोरपि क्रमार्पणमव्याहतमेव । न चाऽस्तित्वस्यैकस्य पृथगस्तित्वनास्तित्वयोश्च युगपदर्पणादेव पञ्चमभङ्गप्रवृत्तिर्न त्ववक्तव्यत्वस्य क्रमार्पणं तत्र विद्यत इति वाच्यम् । अहो वैदग्ध्यं भवतः, यदवक्तव्यत्वं न क्रमेणाऽर्पितं नाऽपि युगपदर्पितं तथाऽपि धर्मान्तरेण सह भासत इति । न हि क्रमार्पणं युगपदर्पणमन्तरेण धर्मान्तरेण सह धर्मान्तरस्य भाने तृतीया भिदाऽस्ति, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा ३५ तत्सद्भावे वा तत्प्रकारमुपादायाऽस्तित्वनास्तित्वे अपि तृतीयभङ्गे भासेतामिति न क्रमार्पणमपि तयोस्तु | तदभावे च तद्विरोधिसहार्पणमपि कथमनुभवपथमागच्छतु ? एवमेवाऽभ्युपगमे च सर्वथैवोच्छिन्नस्तुरीयभङ्गः । कस्याऽनुरोधेन प्रथममप्यवक्तव्यत्वं कल्पनीयम् ? किञ्चाऽवक्तव्यत्वस्य यदि धर्मान्तरेण सह युगपदर्पणं नैवाऽभिमतमायुष्मतः कथं तर्हि स्याद्वक्तव्यो घटः, स्यादवक्तव्यो घटः, स्याद्वक्तव्योऽवक्तव्यश्च घटः स्यादवक्तव्यो घटः स्याद्वक्तव्योऽवक्तव्यश्च घटः, स्यादवक्तव्योऽवक्तव्यश्च घटः, स्याद्वक्तव्योऽवक्तव्योऽवक्तव्यश्च घट इतीयं सप्तभङ्गी सूपपादा ? न च वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वधर्मप्ररूपणे सप्तभी न प्रवर्तत एवेति शक्यं वक्तुम् । तथा सप्तभङ्गयाः सर्वधर्मव्यापकत्वस्याऽभिमतस्य व्याकोपः । ततो न बिभेषि चेत् कथमन्यस्य युगपदर्पणं भवति नाऽवक्तव्यत्वस्येत्यत्र दीयतामुत्तरम् । न च वक्तव्यत्वेन सहाऽवक्तव्यत्वस्य युगपदर्पणं भवति, न तु धर्मान्तरेण सहेत्यत्र प्रमाणं किञ्चिदस्ति । तस्माद् न तुरीयभङ्गो विचारचूलामवलम्बते । तदभावे त्रयोऽपि तदधीनसिद्धिका अग्रिमभङ्गा दूरोत्सारिता एव । इतोऽपि न पञ्चमादिभङ्गाः सम्भवन्ति । तथा हिप्रथमभङ्गेनाऽस्तित्वस्य, द्वितीयभङ्गेन नास्तित्वस्य तृतीयभङ्गेन क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वयोः, तुरीयभङ्गेन युगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वयोश्च प्रतिपादने वृत्ते किमपरमवशिष्टं यदवबोधनाय पञ्चमादिभङ्गाः प्रवर्तेरन् ? ननु अस्तित्वविशिष्टावक्तव्यत्व-नास्तित्वविशिष्टावक्तव्यत्व-क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयविशिष्टावक्तव्यत्वान्यवशिष्टानि । नैतानि प्रथमभङ्गचतुष्टयैः प्रतिपादितानीति तत्प्रतिपादनाय कथं न पञ्चमादिभङ्गाः प्रवर्तेरन् ? इति चेत्; नैतानि विशेषणविशेष्याभ्यां भिन्नान्येव । तथा सति तैरपि सममस्तित्वादेः प्रत्येकं वैशिष्ट्यमाश्रित्य विशिष्टान्तराणि स्युः । एवं तैरपीत्यनवस्थितभङ्गपरम्पराप्राप्तौ कुतः सप्तभङ्गी ? नाऽप्यभिन्नानि तथा सति विशेषणविशेष्ययोः प्रतिपादने तत्प्रतिपादनस्याऽपि वृत्तत्वान्निष्प्रयोजनत्वादनारम्भ एव पञ्चमादिभङ्गानाम् । नूक्तदोषभयादेव न भिन्नानि नाऽप्यभिन्नानि किन्तु कथञ्चिद्विन्नानीति चेत्; भवन्मतेऽस्तित्वनास्तित्वयोरपि कथञ्चिदेद एव, तथा सत्यपि यथा तयोः क्रमार्पणं युगपदर्पणं चाऽऽदाय भङ्गान्तरप्रवृत्तिस्तथा विशिष्टान्तराणामपि स्यात्, अविशेषात् । 7 न च स्यादस्ति स्यादस्त्यवक्तव्यश्चेत्येवं भङ्गान्तरं प्रवर्तेत, तर्हि तत्राऽस्तीति पुनरुक्तं स्यात् । एवं स्यान्नास्ति स्यान्नास्त्यवक्तव्यश्चेत्यत्राऽपि नास्तीति पुनरुक्तमिति वाच्यम् । एकेन स्तिनाऽवक्तव्यत्वेन सहाऽस्तित्वस्य सामानाधिकरण्यं प्रतिपाद्यते । द्वितीयेन तु विशिष्टभावमापन्नेन धर्मान्तरेणाऽस्तित्वविशिष्टावक्तव्यत्वेनेत्येवं पौनरुक्त्याभावात् । यदि च विशिष्टपक्षो नाऽऽद्रियते, किन्तु स्यादस्ति स्यादवक्तव्यश्च घट इति भङ्गेन कथञ्चिदस्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिता सती कथञ्चिदवक्तव्यत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिता या घटनिष्ठविशेष्यता तन्निरूपको बोध एकत्र द्वयमिति न्यायेनेष्टः स्यान्नास्ति Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा स्यादवक्तव्यश्च घट इति पष्ठभड्नेन च कथञ्चिन्नास्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिता सती कथञ्चिदवक्तव्यत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिता या घटनिष्ठविशेष्यता तन्निरूपको बोध इष्टः, स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्यश्च घट इति सप्तमभड्रेन च कथञ्चिदस्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिता सती कथञ्चिन्नास्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिता सती कथञ्चिदवक्तव्यत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिता या घटनिष्ठविशेष्यता तन्निरूपको बोध इष्टः, न चैते वोधाश्चतुर्भिः प्रथमादिभङ्गैर्जन्यन्ते, यतः प्रथमभङ्गेन कथञ्चिदस्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितघटत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपको बोधो जन्यते, द्वितीयभड्नेन च कथञ्चिन्नास्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितघटत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपको बोधो जन्यते, तृतीयेन च भड्नेन कथचिदस्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिता सती कथञ्चिन्नास्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपिता या घटनिष्ठविशेष्यता तन्निरूपको बोधो जायते, चतुर्थेन च कथञ्चिदवक्तव्यत्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितघटत्वावच्छिन्नविशेष्यताकवोधो जन्यते इत्येवं स्वजन्यवोधवैलक्षण्यफलकोक्तिवैचित्र्यात् सप्तभङ्गानामपौनरुक्त्यमिति विभाव्यते, तदा “धर्माः सत्त्वादयः सप्त, संशयाः सप्त तद्गताः ।। जिज्ञासाः सप्त सप्त स्युः, प्रश्नाः सप्तोत्तराण्यपि ।१।'' इति वचनादधर्माणां सप्तत्वमूलकं भङ्गानां सप्तत्वं प्रतीयमानं विरुद्ध्येत । किञ्च, विलक्षणवोधजनकतया सप्तभङ्गाभ्युपगमेऽस्तित्वनास्तित्वादीनां मध्यादेकस्य विशेष्यतावच्छेदकत्वमन्यस्य च प्रकारत्वमाश्रित्याऽपि वोधवैलक्षण्यसम्भवेन तत्तदबोधजनका भङ्गाः कथं नोपदिश्यन्ते ? तथैकस्य विशेष्यतावच्छेदकत्वं तदपरस्य प्रकारतावच्छेदकत्वमन्यस्य च प्रकारत्वमाश्रित्याऽपि विलक्षणस्य वोधस्य सम्भवेन तञ्जनका अपि भङ्गाः प्रयोक्तव्याः । एवं विधेयांशेऽधिकावगाहिनः शाब्दवोधस्याऽभ्युपगन्तॄणां नव्यानां मतमाश्रित्योद्देश्यतावच्छेदकस्य विधेयकोटावन्तर्भाव्य तत्प्रकारताकवोधवैलक्षण्यस्य सम्भवेनाऽपि तत्प्रयोजका भङ्गाः प्रयोक्तव्याः । यदि च घटत्वादिमात्रस्य विशेष्यतावच्छेदकत्वमेव, अस्तित्वादीनां च प्रकारत्वमेवेति नियमावष्टम्भेन सप्तैव भङ्गा विलक्षणवोधजनका नेतर इति सप्तानामेव प्रयोग इति विभाव्यते; तदाऽखिलपूर्वभङ्गविषयविषयकस्य सप्तमभङ्गस्यैव प्रयोगः समुचितः । तेन हि एकत्र द्वयमिति रीत्या जायमाने वोधे कथञ्चिदस्तित्वनिष्ठप्रकारतानिरूपकत्वादिमत्त्वात् प्रथमभङ्गादिजन्यवोधकार्यकारित्वं सम्भवत्येव । प्रश्नानुरोधादपि भङ्गचतुष्टयस्यैव प्राप्तिः, स्यादस्त्येव घटः, स्यान्नास्त्येव घटः, स्यादवक्तव्य घट एवः, स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्य एव घट इति, तृतीयपञ्चमषष्ठभङ्गकृत्यस्य सप्तमेनैव सम्पादनात् । यत इदानीमस्तित्वनास्तित्वादीनां परस्परं विशेषणविशेष्यभावमवलम्व्य लब्धात्मनो विशिष्टधर्मानाश्रित्य स्वरूपतो विषयवैलक्षण्याद् भड़ानां वैलक्षण्यतो न सप्तभङ्गा उपपाद्यन्ते किन्तु तत्तत्संशयनिवर्तकविलक्षणबोधजनकत्वत एव । तृतीयभङ्गोत्थापकश्च संशयः स्यादस्ति नास्ति न वेत्याकारकः, पथमभङ्गोत्थापकश्च स्यादस्ति अवक्तव्यो Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा न वेत्याकारकः, षष्ठभङ्गोत्थापकश्च स्यान्नास्ति अवक्तव्यो न वेत्याकारकः, एते सर्वेऽपि संशयाः सप्तमभङ्गजन्यवोधेन निवर्तन्त एव । अस्तु वा सप्तमोऽपि भङ्गो न स्वतन्त्रः । प्रथमद्वितीयचतुर्थभङ्गसमाहाररूपा त्रिभङ्गन्येव तत्कार्यकारिणी । सप्तानां भङ्गानां प्रत्येकं तत्तत्प्रश्नवशादभ्युपगमेऽपि तत्समाहाररूपा सप्तभङ्गी समुच्चयबोधजनिका महावाक्यतया भवताऽप्यभ्युपगता, तत्स्थाने एकत्र द्वयमिति रीत्या बोधस्य नानाधर्मनिष्ठ प्रकारतानिरूपितैकनिष्ठविशेष्यतानिरूपकस्य जनिका त्रिभङ्गी स्वीक्रियताम् । किञ्चाऽस्तित्वनास्तित्वयोः क्रमार्पणं युगपदर्पणं चैकदैवाऽऽश्रित्य पञ्चमादिभङ्गप्रवृत्तिर्नाऽन्यथा । कथं चैतत् सङ्गतं, समानविषयकयोः क्रमार्पणयुगपदर्पणयोरेकपुरुषापेक्षया समानकालीनत्चे प्रमाणाभावात्? इति पूर्वपक्षसक्षेपः । अत्रोच्यते - यद्यपि सप्तभङ्गीप्रतिपाद्याः सत्त्वादयः सप्ताऽपि धर्मा यथायथं तीर्थान्तरीयैरप्यभ्युपगताः, तथा हि - “असदकरणादुपादान-ग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च सत्कार्यम् ।।१।। इतीश्वरकृष्णोक्तहेतुनिकुरम्वमवलम्व्य कारणव्यापारात् प्रागपि कार्यस्य सत्त्वमित्यभ्युपगच्छन्त उत्पत्तिस्थाने आविर्भावं ध्वंसस्थाने तिरोभावं चाऽऽश्रयन्तः कार्यकदम्वकस्याऽपि सर्वदा सत्त्वमभ्युपगच्छन्ति कपिलमतरहस्यविदस्तदनुसारिणः, पातञ्जलदर्शननिष्णाताश्च । - “वुद्ध्या विविच्यमानानां, स्वभावो नाऽवधार्यते । अतो निरभिलप्यास्ते, निःस्वभावाश्च देशिताः ।।१।।" इत्यादिकारिकोक्तयुक्तिप्रकरमवलम्बमाना घटपटादिव्यवहारस्य च सांवृतसत्त्वमभ्युपगम्योपपादयन्तोऽशेषस्य जगतोऽलीकत्वानुपाख्यत्वविचारासहत्वाद्यभिधेयं शून्यत्वाख्यमसत्त्वमुरीकुर्वन्ति सौगतप्रधानाः शून्यवादिनो माध्यमिकाः, वाह्यमात्रस्य चाऽसत्त्वमभ्युपगच्छन्ति विज्ञानवादिनो योगाचाराः, धर्ममात्रस्याऽतद्व्यावृत्तिरूपत्वेनाऽसत्त्वमेवेति स्वीकृतवन्तौ सौत्रान्तिक-वैभाषिको । अशेषस्य जगतः सत्त्वमेवाऽसत्त्वमेवेत्युभयत्र दोषजालमुपढौकयन्तः कारणव्यापारात् प्रागसत्त्वम्, तदनन्तरं च सत्त्वं ध्वंसानन्तरं च पुनरसत्त्वमित्येकाधिकरणगततया नित्यानां च परमाण्वादीनां सर्वदा सत्त्वमनित्यानां च घटपटादीनां तद्विपर्ययरूपमसत्त्वमिति भिन्नाधिकरणगततया वा सत्त्वे सत्यसत्त्वमभ्युगच्छन्ति कणभक्षपक्षपक्षपाताकृप्टमानसा वैशेषिकास्तत्समानतन्त्राश्चाऽक्षपादपादोपजीविनः । अन्येऽपि च जैमिनीयप्रभृतयः स्वस्वाभ्युपगमानुसारेण सत्त्वे सत्यसत्त्वमेवाऽभ्युपगच्छन्त्यशेषस्य जगतः । प्रपञ्चस्य पारमार्थिकसत्त्वे वेदान्तोत्थज्ञानबाध्यत्वं न स्यात् । शशशृङ्गादिवदसत्त्वे च तद्वदेव व्यवहारवीथीसञ्चरिष्णुत्वं न स्यात् । अतो न सत्त्वं नाऽप्यसत्त्वं, किन्तु सत्त्वासत्त्वाभ्यां वक्तुमशक्यत्वाद-निर्वचनीयतापरपर्यायमवक्तव्यत्वमेव शरणीकुर्वन्ति युक्तिमार्गविशारदा औपनिषदाः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सप्तभङ्गीप्रभा त एव च ब्रह्मज्ञानेतरज्ञानाबाध्यत्वलक्षणं व्यावहारिकसत्त्वमनभ्युपगम्य व्यवहारोपपादनमशक्यमतः स्वाधिष्ठानत्वेन सम्मतनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं स्वरूपेण न घटपटादौ सम्भवतीति स्वाधिष्ठाननिष्ठात्यन्ताभावीयपारमार्थिकत्वावच्छिन्नप्रतियोगित्वमेव मिथ्यात्वमित्यभ्युपगच्छन्तो लौकिकयौक्तिकपक्षद्वयकृतादराः सत्त्वे सत्यवक्तव्यत्वमेव स्वपक्षे निक्षिपन्ति । ये त्वौपनिषदाः स्वाधिष्ठानत्वेन सम्मतनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वमेव मिथ्यात्वं, सम्मतेति निवेशादेव स्वाधिकरणे कथं स्वरूपत एव स्वस्याऽभावो येन व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावानभ्युपगमेऽपि मिथ्यात्वोपपादनं घटते ? इति शङ्काया नाऽवकाशः। एवं च व्यवहारकालेऽपि स्वरूपत एव घटस्य न सत्त्वम् । न चैवमसत्त्वाविशेषाद् यथा शशशृङ्गादितो न किमपि कार्यं जायते तथा घटपटादितोऽपि न किमपि कार्यं स्यादिति वाच्यम् । सत्त्वाविशेषेऽपि घटत एव जलाहरणं, पटत एवाऽवरणमित्यर्थक्रियाप्रतिनियमोपपादनाय प्रतिनियतकार्यकारणभावाभ्युपगमस्याऽऽवश्यकतया तत एव शशशृङ्गादितः कार्यप्रसङ्गस्याऽनवकाशात् । कार्यकारणभावमात्रेण सत्त्वासञ्जनं तु “अन्तर्भावितसत्त्वं चेत्, कारणं तदसत् ततः । नाऽन्तर्भावितसत्त्वं चेत्, कारणं तदसत् ततः” ।।१।। इत्यादियुक्त्या खण्डनखण्डखाद्ये श्रीहर्षमित्रैरपाकृतमेवेत्युपगच्छन्ति ते ब्रह्मदृष्टियौक्तिकदृष्टिद्वयावलोकिनोऽसत्त्वे सत्यवक्तव्यत्वमेवाऽर्थतोऽभ्युपगच्छन्ति । ये तु, न लोकमर्यादातिक्रमो नाऽपि शास्त्रातिक्रमस्तत्त्वदृष्टीनां युज्यत इति व्यवहारानुरोधेन सत्त्वं, विचारतः सत्त्वस्याऽसत्त्वस्य चाऽनुपपत्त्याऽनिर्वचनीयत्वं, शास्त्रदृष्ट्या त्वसत्त्वमित्युपगच्छन्ति, तेषामौपनिषदानां मते सत्त्वे सत्यसत्त्वे सत्यवक्तव्यमेव ब्रह्मव्यतिरिक्तस्याऽशेषस्य जगत इति । अत एव "तुच्छाऽनिर्वचनीया च तात्त्विकीति त्रिधा मता माये''त्याधुक्तिरपि तेषां सङ्गच्छते । ___ न चैतेभ्यो व्यतिरिक्तस्य कस्यचिदपि धर्मस्य सत्त्वासत्त्वविधिनिषेधभावालीढस्याऽभ्युपगमोऽस्ति जैनराद्धान्ते तन्त्रान्तरे वा । यत्तु “अवक्तव्यत्वं सत्त्वासत्त्वविधिनिषेधभावालीढमेवाऽर्हन्मतानुयायिभिरभ्युपगम्यते, न चेत्थम्भूतं तद्वेदान्तिभिरभ्युपगतमिति न तादृशधर्मस्य तन्त्रान्तरे प्रसिद्धिः, एवं तद्घटितस्य धर्मान्तरस्याऽपी''ति । तन्मन्दं, यतः सत्त्वासत्त्वयोः परस्परप्रतिक्षेपरूपतया जगतः सत्त्वप्रतिक्षेपेऽसत्त्वस्याऽसत्त्वप्रतिक्षेपे सत्त्वस्यैवाऽऽपत्तिरिति कथमनिर्वचनीयत्वस्य तदुभयाभावरूपस्य प्रसिद्धिरित्याशङ्कय सत्त्वं त्रिकालाबाध्यत्वलक्षणं तदभावं च नाऽसत्त्वं किन्तु क्वचिदप्युपाधौ प्रतीयमानत्वविरहः, तदुभयाभावरूपमेवाऽनिर्वचनीयत्वं प्रपञ्चस्येति समादधतां वेदान्तिनामभिमतमेवाऽवक्तव्यत्वे सत्त्वासत्त्वविधिनिषेधभावालीढतेति। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा तथाऽपि ते धर्मा एकान्ततयैव तत्तत्तन्त्रप्रतिपाद्याः, न च तथाभूतास्ते प्रमाणवीथीमवलम्बन्ते, किन्त्वनेकान्तपद्धतिमानीता एवेति तथा तेषां प्रतिपादयित्री सप्तभङ्गी प्रमाणचूलामवलम्बमाना न नामोत्त्रासयितुं शक्या । तथा हि – एकान्तवादिभिस्ते ते धर्मा एकान्ततयाऽभ्युपगताः, अनेकान्तवादिभिः पुनरनेकान्ततयेत्यनेकान्तवादित्वमप्रतिहतमेव । तत्र स्यादस्त्येव घट इति प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यमस्तित्वमधिकृत्य यदुक्तं “न तावद् वृत्तित्वं, तथा सत्येकान्तवादिभिरपि वृत्तित्वादीनां सावच्छिन्नत्वस्योरीकारेण ततोऽविशेषप्रसङ्ग” इति, तत् स्याद्वादानवबोधविजृम्भितम् । यतोऽस्तित्वं स्वाभावसमानाधिकरणं स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिधर्मत्वात् कपिसंयोगवदित्यनुमानेनाऽस्तित्वेऽव्याप्यवृत्तित्वसिद्धौ तदन्यथानुपपत्त्याऽभ्युपगम्यमानस्याऽवच्छेदकत्वविशेषस्य घटत्वादौ स्वीकारः । तथा च घटत्वादौ धर्मेऽवच्छेदकता द्विविधा-एका वृत्तित्वादीनां सखण्डत्वेन सावच्छिन्नस्वरूपतया तन्निरूपिता तत्स्वरूपान्तर्निर्विष्टावच्छेदकता या नैयायिकादिभिरप्यभ्युपगम्यते । न च तामुपादाय स्याद्वादप्रवृत्तिः, येनैकान्तवादतोऽविशेषप्रसङ्गः स्यात् । द्वितीयाऽस्तित्वादीनामव्याप्यवृत्तित्वोपोद्वलिका, तामुपादायैव स्यात्पदप्रवृत्तिरुपेयते । न च सा परैरुपेयते, तथा सत्येकान्तवादितैव हीयेतेति । यदपि “वृत्तित्वस्य च सनिरूपकत्वेन निरूपकविशेषापुरस्कारेणाऽपरिपूर्णत्वे सप्तभङ्गीतोऽपि समूहालम्बनस्तद्विषयको बोधोऽपरिपूर्ण एव स्यादितीति”, तदप्युक्तिमात्रम् । परवादिसम्मतस्य निरूपकविशेषाद्यालिङ्गितस्यैव वृत्तित्वस्याऽवच्छेदकविशेषापेक्षया वोधस्य सप्तभङ्गीतोऽभ्युपगमेन तस्य तत एव परिपूर्णत्वात् । नहि यद्वस्तु यावद्धर्मसंवलितं तावद्धर्मोपादानपुरस्कारेण तावद्धर्मसंवलितवस्तुबोध एव परिपूर्णो बोधः, किन्तु निराकाङ्क्षबोध एव । यादृशेन बोधेन प्राश्निकस्याऽऽकाक्षोपशाम्यति तादृशबोधस्यैव परिपूर्णत्वात् । स च सप्तभङ्गीतो जायत एव । यच्च “वृत्तित्वरूपास्तित्वस्य संयोगेन घटाद्यधिकरणं यद् भूतलादि तादात्म्येन घटाद्यधिकरणं वा यन्मृदादि तन्निरूपकमेव न त्ववच्छेदकमित्यादि” तत्पूर्वोक्तयुक्त्यैवाऽपास्तम् । घटे भूतले भूतलत्वसामानाधिकरण्यं न तु पर्वते इत्यादिप्रतीत्यनुरोधेन निरूपकविधया वृत्तित्वस्वरूपनिविष्टस्याऽपि भूतलाद्यधिकरणस्याऽवच्छेदकविधया तत्सत्तानियमकत्वोपगमात् । अवच्छेदकत्वमेव च भूतलादीनां सप्तभङ्गीविषय इति न परमतादविशेषप्रसङ्गशङ्काऽपि । यदि च परोऽप्येवमभ्युपेयात् तदा सोऽपि स्याद्वाद्येव । देशनिरूपितवृत्तितायां कालस्य, कालनिरूपितवृत्तितायां देशस्य चाऽवच्छेदकत्वं यद्यपि परैरप्युपगम्यत इति तदंशे साम्यमेव, तथाऽपि देशनिरूपितवृत्तितायां देशस्य, कालनिरूपितवृत्तितायां कालस्य चाऽवच्छेदकत्वं न पराभ्युपगमविषय इति तदंशे स्याद्वाद: सावकाश एव । तथा च “देशनिरूपितवृत्तिताया''मित्यादि निरस्तमवगन्तव्यम् । यत्तु “किञ्च, क्षेत्रनिरूपितवृत्तित्व-द्रव्यनिरूपितवृत्तित्व-कालनिरूपितवृत्तित्वानां निरूपकभेदाद १. पृ. ९ पङ्कि: ११ । २. पृ. ९ पं. १३ । ३. पृ. ९ पं. १६ । ४. पृ. ९ पं. २१ । ५. पृ. ९ पं. २३ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० सप्तभङ्गीप्रभा वच्छेदकसम्बन्धभेदाच्च परस्परं भिन्नत्वेऽपी”त्यादि, तदप्यवोधविलसितम् । स्यादस्त्येवेत्यत्र स्यात्पदेन यद् घटत्वावच्छेद्यत्वं वोध्यते, तद्धर्मविधया यद् घटत्वावच्छेद्यत्वं ततोऽन्यदेवाऽव्याप्यवृत्तित्वसम्पादकमित्यस्योपपादितत्वेन तथाविधघटत्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यताववृत्तित्वापेक्षया स्वद्रव्यादिनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतावद्वृत्तित्वादेर्भिन्नत्वेन न कथमपि घटत्वावच्छिन्नवृत्तित्वप्रतिपादकभङ्गघटितसप्तभङ्ग्याः स्वद्रव्याद्यवच्छेद्यवृत्तित्वप्रतिपादकभङ्गघटितसप्तभङ्गीतो गतार्थता । एतेन “न च, यदेव घटे वृत्तित्वं घटत्वावच्छिन्नं तदेव भूतलादिनिरूपितमपि, परन्त्वेकस्यां सप्तभङ्ग्यां घटत्वावच्छिन्नत्वेन प्रतीयते" इत्यादिप्रश्नप्रतिविधानवचनसङ्ग्रथनमरण्यरुदितमेवाऽवसेयम्, स्वद्रव्यादीनामप्यवच्छेदकतामवलम्व्यैव सप्तभङ्गया उपपादनात् । वृत्तित्वं सावच्छिन्नं सनिरूपकं चेत्येकान्तवादिनामप्यनुमतमेव । तस्य तथाभूतस्य प्रतीत्युपपादनप्रकारः सर्वैरपि वादिभिः समानतयैवाऽऽश्रयितव्यः । न तत्राऽस्ति स्याद्वादस्य निर्भरः, केवलं तत् तथाभूतमपि न स्वाभावाधिकरणेऽवच्छेदकविशेषपुरस्कारमन्तरेणाऽवस्थातुमर्हतीति तादृशावच्छेदकाववोधनपरः स्याद्वादो न विकल्पसहस्रेणाऽप्यपहस्तयितुं शक्यः । यत्तु “तादृशस्य वृत्तित्वस्य सर्वप्रकारावच्छिन्नत्वस्य वस्तुतोऽभावादेव न तथा प्रतीतावपि घटस्य सर्वात्मकत्वप्रसङ्ग इति, तदापादनस्वरूपानवबोधविजृम्भितम् । तथा हि - स्यादित्यनुक्तौ घटोऽस्तीत्युक्तावपि विधेये वृत्तित्वे उद्देश्यतावच्छेदकघटत्वावच्छेद्यत्वस्य सामान्यतः सिद्धत्वेऽपि सावच्छिन्नस्य वृत्तित्वस्य घटत्वावच्छिन्नत्वं स्वरूपप्रविष्टमेव । तद्वहिर्भूततया घटत्वमेव यद्यनुयोगितावच्छेदकतया तस्य नाऽऽश्रीयते तदा प्रमेयत्वमप्यनुयोगितावच्छेदकीकृत्य घटत्वावच्छिन्नवृत्तिताया वृत्तिः स्यात् । तथा च यथा प्रमेयत्वमनुयोगितावच्छेदकीकृत्य वर्तमाना प्रमेयत्वावच्छिन्नवृत्तिता निखिलप्रमेयवर्तिनी तथा घटत्वावच्छिन्नवृत्तिताऽपि स्यात् । एतच्च तदोपपद्यते यदि घटात्मकमेव जगत् स्यात्, अन्यथा घटत्वावच्छिन्नवृत्तिताया घटमात्रवर्तिन्या निखिलप्रमेयवृत्तित्वानुपपत्तेः ।। न च, घटत्वमतिपत्याऽपि घटत्वावच्छिन्नवृत्तिता वर्ततां नाम, तावतैव नाऽशेषस्य जगतो घटात्मकत्वप्रसङ्ग इति वाच्यम् । घटत्वस्य न्यूववृत्तित्वेन प्रमेयत्वावच्छिन्नवृत्तिताया इव प्रकृतवृत्तिताया अप्यवच्छेदकत्वं तथा सति न स्यात् । अत उक्तप्रसङ्गपरिहारायोक्तविलक्षणावच्छेदकत्वप्रतिपत्तये स्यादिति प्रयोक्तव्यमेवेति । ननूक्तदोषपरीहाराय घटत्वस्याऽवच्छेदकत्वं विलक्षणं भवतु नाम, स्वद्रव्यादीनां तु वृत्तितानिरूपकत्वमात्रमेवाऽस्त्विति चेत्; न, घटे कपाले कपालत्वसामानाधिकरण्यं न तु तन्तौ, घटे भूतले भूतलत्वसामानाधिकरण्यं न १. पृ. ९ पं. २७ । २. पृ. १० पं. ५ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा तु पर्वते, घटे स्वकाले कालत्वसामानाधिकरण्यं न तु कालान्तरे इति विविक्तप्रतीत्यनुरोधेन विलक्षणावच्छेदकत्वस्य स्वद्रव्यक्षेत्रकालेष्वनुभवसिद्धस्याऽपलपितुमशक्यत्वात् । यथा च धर्मविधया घटत्वावच्छिन्नस्याऽपि वृत्तित्वस्य स्वाभावसामानाधिकरण्यनिर्वाहकविलक्षणघटत्वनिष्ठावच्छेदकत्वस्याऽनभ्युपगमे घटस्य सर्वात्मकत्वप्रसङ्गस्तथा स्वद्रव्यवृत्तितायां स्वद्रव्यस्याऽनवच्छेदकत्वे, स्वक्षेत्रवृत्तितायां स्वक्षेत्रस्याऽनवच्छेदकत्वे, स्वकालवृत्तितायां स्वकालस्याऽनवच्छेदकत्वे च सकलद्रव्यवृत्तित्व-सकलक्षेत्रवृत्तित्वसकलकालवृत्तित्वानां प्रसक्त्या सर्वात्मकत्वव्यापकत्वनित्यत्वानां प्रसक्तिः स्यात् । यतः स्वद्रव्यवृत्तित्वं यदि स्वद्रव्यावच्छेद्यत्वनियतं न स्यात् तदा प्रमेयसामान्याद्यवच्छेद्यत्वं तस्य को वारयेत् ? तत्त्वे च यथा वाच्यत्वादौ प्रमेयसामान्यावच्छेद्या प्रमेयनिरूपितवृत्तिता यावत्प्रमेयनिरूपिता भवति तथा स्वद्रव्यनिरूपितवृत्तिताऽपि स्यात् । स्वद्रव्यनिरूपितवृत्तितायां च यावत्प्रमेयनिरूपितत्वं तदैवोपपद्येत यदि यावत्प्रमेयस्यैव स्वद्रव्यत्वं स्यात्, तथा च घटपटादीनां स्वद्रव्याभेदादभेदप्रसङ्गरूपसर्वात्मकत्वप्रसङ्गोऽत्राऽप्यविशिष्टः । एतद्रीत्यैव स्वक्षेत्रवृत्तित्वस्वकालवृत्तित्वयोः स्वक्षेत्रावच्छेद्यत्व-स्वकालावच्छेद्यत्वानभ्युपगमे व्यापकत्वनित्यत्वयोः प्रसङ्गो वोध्यः । वृत्तित्वस्य निरूपकं स्वद्रव्यादि परस्याऽप्यनुमतमतो न निरूपकत्वेन स्वद्रव्यादि संशयादिविषयः, किन्त्ववच्छेदकत्वेनैव । तथा च स्वद्रव्यादीनां मध्याद् यदा यस्य संशयादिविषयता तदानीं तस्याऽवच्छेदकतया समर्पणप्रत्यलेन स्यात्पदेन घटिता सप्तभड़ी परिपूर्णधर्मप्रतिपादिकैव । एवं स्वद्रव्याद्यवच्छेदकभेदमवलम्व्य प्रवृत्तानां च तासां न पस्परसङ्कीर्णार्थतेत्यतो “यदि चाऽवच्छेदकाद्यप्रतीतौ स्वरूपतो वृत्तित्वविशेषस्य प्रतीतावपी” त्याद्यनभ्युपगमपराहतमवसेयम् । यदपि “न च सप्तभङ्गयाः प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यतायाः स्वीकारेणे”त्यादिना स्याद्वाद्याकूतमाशक्य ‘स्यात्पदं हि प्रकृते कथञ्चिदित्यर्थकमेवे'त्यादिना प्रतिविहितं, तदनुमोदामहे । यत्पुनस्तत्रोक्तं ३“न चोक्तावच्छेद्यत्वं प्रतिपादयितुं शक्यं, द्रव्यस्य वृत्तित्वरूपास्तित्वस्याऽधिकरणविधया निरूपकत्वस्यैव भावादि"ति, तदुक्तयुक्त्याऽधिकरणेऽवच्छेदकत्वव्यवस्थापनेन प्रतिक्षिप्तमेव । यच्च “किश्च प्राश्निकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वपक्षे घटत्वेनेत्यादिपदघटितैव सप्तभङ्गी मुख्यतः प्रयोक्तुमुचिता, निराकाङ्क्षपरिपूर्णवोधे साक्षादुपयोगित्वादि''ति, तत्र वूमः, यथा हि देवदत्त आगच्छति तं पश्येत्यादौ सामान्यतो बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वोपलक्षितधर्मावच्छिन्ने शक्तात् पदात् स्वरूपतो देवदत्तत्वाद्यवच्छिन्नस्याऽववोधो, न तु घटत्वाद्यवच्छिन्नस्य, तदानीं तस्य वक्तृवुद्धिस्थत्वाभावात्, तथा स्यात्पदादपि वुद्धिविशेषविषयनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यताववोधकात् कुशाग्रबुद्धिं जिज्ञासुं प्रति वुद्धिविशेषविषयघटत्वादिनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतावद्वृत्तित्वाववोधनसम्भवान्नाऽऽवश्यकता घटत्वेनेत्याधुक्तेः, लघूपायेन वुवोधयिषितार्थाववोधसम्भवे गुरूपाये प्रेक्षापूर्वकारिणोऽववोधकस्याऽप्रवृत्तेः । एवं यस्मिन् धर्मे यस्य १. पृ. १० पं. ७ । २. पृ. १० पं. १३ । ३. पृ. ११ पं. ५ । ४. पृ. ११ पं. ८ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सप्तभङ्गीप्रभा यस्याऽपेक्षानिमित्तत्वसम्भवस्तत्तनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतावत्त्वं तद्धर्मे स्यात्पदेन बोध्यते इत्येवं सुकरः सङ्केत्तग्रहः । स एव च स्यान्नित्य एव, स्यादिन्न एवेत्यादौ सर्वत्र शाब्दवोधोपयोगी । यतोऽनुगतरूपेणैकत्राऽसन्दिग्धप्रतिपत्तिको बालः सर्वत्र व्युत्पादयितुं शक्यः । घटत्वेनाऽस्त्येव घट इत्याद्यननुगतोक्तौ च तत्र विशेषतोऽपेक्षानिमित्तावगमेऽप्यन्यापेक्षानिमित्तानवगतेः कुतः परिपूर्णबोधोल्लासः ? मन्दधियं जिज्ञासुं प्रति च गुरूपायेन घटत्वेनाऽस्त्येव घट इत्यादिनाऽवबोधनमपि चतुरस्रमेव । सोऽपि च स्याद्वाद एव । किञ्चिन्निष्यवच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतावत्तया धर्मावबोधनमेव स्याद्वादकृत्यं, तच्च स्यात्पदेन भवतु, तदन्यपदेन वा, सर्वथा सिद्धं नः समीहितम्, अलं शब्दकलहेन, विशेषोक्त्या सामान्यजिज्ञासाया विशेषजिज्ञासायाश्च निवृत्तिरिति को नाम नाऽनुमनुते ? परन्तूक्तदिशैव सामान्योक्तेः साफल्यम्, अतिव्युत्पन्नमतिं प्रति स्याद्विध्यात्मकधर्मवदेव वस्त्वित्यादिसप्तभङ्गन्यपीष्टैव । किञ्च, नेयं सप्तभङ्गी यथाश्रुता दोहदपूरणप्रवणा, जगत एव परमतेऽपि वाच्यत्वत्वादिना वाच्यत्वादिधर्मवत्त्वमादाय प्रथमभङ्गस्याऽवृत्तिमतो गगनादेरभावस्य केवलान्वयित्वेन गगनत्वादिना गगनादेरभावमादाय द्वितीयभङ्गस्योपपत्तिसम्भवात् । __ न च, यावद्विध्यात्मकधर्मवत्त्वं यावन्निषेधात्मकधर्मवत्त्वं च विवक्षणीयमिति वाच्यम् । * तथा सत्यसम्भवो दुरुद्धरः, सर्वस्य सर्वात्मकत्वं मा प्रसाक्षीदित्येतदर्थमेव हि सप्तभङ्गयुपासनं, तच्च तदैवोपपद्येत यदि यावद्विध्यात्मकधर्मतत्त्वमेकत्र न भवेत् । तथा च यद् वस्तु यद्विध्यात्मकधर्मवदेव स्यात् तद् वस्तु तनिषेधात्मकधर्मवदेव स्यादित्यादिरीत्या सप्तभङ्गी वाच्या । सा च यत्त्वतत्त्वयोरननुगतत्वपक्षेऽननुगतैवेति “तथाऽपि यदि सामान्योक्तिराद्रियते तदा यथा स्यादितिपदं सामान्यतोऽपेक्षानिमित्तस्योक्तिः, तथा भावभूतधर्मवदि"त्यादिग्रन्थसन्दर्भोऽसङ्गतार्थ एव स्यात् । यत्त्वतत्त्वयोरनुगतत्वपक्षे चेयमपि सप्तभङ्गी भवत्वनुगतार्था, तस्या अपि क्वचिदुपन्यासो नाऽस्माकमनिष्टप्रदः । वस्तुनः सामान्यविशेषोभयात्मकत्वेन तत्प्रतिपादनप्रकारस्याऽप्युभयात्मकतया तत्रैकस्य मुख्यत्वमपरस्य गौणत्वमेकान्ततो वक्तु मशक्यमेव । अनेकान्ततस्तथात्वं तु स्याद्वादमेवाऽनुधावति । स्यात्पदस्य कथञ्चिदित्यर्थकतया घटत्वेनेत्यादेरपि विशेषतस्तथात्वेन तद्घटितसप्तभङ्ग्या अपि स्याद्वादत्वं नाऽपैतीति कुतस्तद्वादिनः स्याद्वादिताहानिरित्यादि सुधीभिः स्वयमूहनीयम् । वृत्तित्वरूपास्तित्वस्य प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यत्वे वृत्तित्वाभावरूपनास्तित्वस्य द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यत्वं स्वीक्रियत एव । तत्र यद्विकल्पितं "स्योत्पदबोध्यस्य कथञ्चिदित्यस्य किं प्रतियोगितावृत्तित्वेनाऽन्वयः, उत वृत्तित्वनिष्ठप्रतियोगितया किं वा वृत्तित्वाभावेने"ति ? तत्र तृतीयकल्पस्तावत् स्वीक्रियते, तेन प्रथमद्वितीयकल्पयोरपाकरणेऽपि न नः किञ्चिदपचीयते । तत्र यद्विकल्पितं "किं. यादृशस्य कथञ्चिदर्थस्य प्रथमभने १. पृ. ११ पं. १० । २. पृ. १२ पं. ६ । ३. पृ. १५ पं. १६ । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा प्रवेशस्तादृशस्यैव तस्य द्वितीयभङ्गे प्रवेशोऽन्यादृशस्य वे"ति ? तत्र प्रथमपक्ष एव स्वीक्रियते । प्रथमभड्ने स्वद्रव्यादीनामवच्छेदकविधयाऽपि प्रवेशो द्वितीयभङ्गेऽपि परद्रव्यादीनां तथा प्रवेश इति स्वद्रव्यादीनां निरूपकविधयैव प्रवेश इति प्रकल्प्य प्रदत्तस्य दोषस्य नाऽवकाशः । स्वद्रव्यादीनामवच्छेदकत्वस्य प्रसाधितत्वेन स्यादित्यनेन तस्याऽवभाससम्भवे न तत्परित्यागः समुचितः । मृद्रव्यादिनिरूपितवृत्तित्वमेव मृद्रव्याद्यवच्छेदेन घटादौ प्रथमभङ्गेन प्रतिपाद्यते, मृद्रव्यादिनिरूपितवृत्तित्वाभावश्च पटादौ प्रसिद्धोऽवच्छेदकयोजनामर्हत्येव । तेन “किञ्च सामान्यतो वृत्तित्वाभावोऽप्रसिद्धत्वादेव नाऽवच्छेदकयोजनामर्हती”त्यादि यदुक्तं तन्निरस्तमवगन्तव्यम् । किञ्च, सामान्यतो वृत्तित्वमपि न केवलान्वयि, वृत्तिमदत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वस्य केवलान्वयित्वलक्षणत्वेन तस्य स्वाधिकरणवृत्यभावप्रतियोगिनि वृत्तित्वेऽभावात् । यदि चोक्तलक्षणं केवलान्वयिनि कपिसंयोगाभावेऽभावान्न सम्भवति, किन्तु प्रतियोगिव्यधिकरणवृत्तिमदत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वमेव केवलान्वयित्वं, तच्च वृत्तित्वसामान्येऽस्तीति विभाव्यते, तदा तादृशं केवलान्वयित्वं वृत्तित्वाभावप्रसिद्धावपि सम्भवतीति वृत्तित्वसामान्याभावेऽप्यवच्छेदकसङ्घटना नाऽसम्भविनीति विभाव्यताम् । स्वद्रव्यादिनिरूपितवृत्तित्वतदभावयोः प्रथमद्वितीयभङ्गप्रतिपाद्ययोः स्वद्रव्यादिपरद्रव्यादि चाऽवच्छेदकं स्यात्पदेन बोध्यत इति । २एवमपि स्वाकूतमाश्रित्य किं नाऽऽकलयति भवानि"त्यादि परमतरहस्यानववोधविलसितमेव । तस्मादुपपद्यते वृत्तित्वरूपमस्तित्वं प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यमिति । स्वरूपसत्त्वरूपमस्तित्वमप्युपपत्तिपद्धतिमेति, तथा हि - स्वरूपसत्त्वपक्षे स्यादस्त्येव घट इत्यत्र स्यात्पदेन स्वद्रव्यापेक्षयेत्यर्थस्याऽववोधने उत्पत्तेः पूर्वं नाशानन्तरं मृद्रव्यस्याऽवस्थानेन तदात्मना घटोऽस्त्येवेत्यर्थस्याऽवगतेस्तदानीं घटस्य सर्वथाऽसत्त्वमित्यभ्युपगच्छतां नैयायिकादीनां मतस्य भवति तिरस्कारः । न चोत्पत्तेः पूर्वं नाशानन्तरं कार्यस्य कारणात्मनाऽवस्थानमित्यभ्युपगच्छतः सत्कार्यवादिनः साङ्ख्याचार्यस्य मतादविशेष इति वाच्यम् ।। तन्मते हि उत्पत्तेः पूर्वं सदेव कार्यं नाऽसदित्येकान्तमेव, अस्मन्मते च स्वद्रव्यात्मना सदपि परद्रव्यात्मना न सदित्यस्त्येव विशेषः । एवं यन्मृद्रव्यं घटरूपेण परिणतं तदेव कदाचिच्छरावादिरूपेणाऽपि परिणमत इति शरावादिपरिणामस्याऽपि मृदात्मना घटरूपत्वे तदवस्थायां स्वद्रव्येणाऽस्त्येव घट इति यथा स्याद्वादे निर्वहति न तथाऽन्यमते इत्यपि बोध्यम् । एवं स्वक्षेत्रेणाऽस्त्येव घट इत्यत्र भेदाभेदस्य सम्बन्धमात्रव्यापकत्वेन स्वक्षेत्रेण संयोगदशायां संयोगस्य सम्बन्धिद्वयपर्यायातिरिक्तस्याऽनभ्युपगमेन तदात्मना स्वक्षेत्रेण सह घटस्याऽभेदाद् यदाऽपि तत्क्षेत्रे घटो नास्ति तदाऽपि तत्क्षेत्रस्य विद्यमानतया तद्रूपेण घटस्य सत्त्वमिति तदानीं स्वक्षेत्रेणाऽस्त्येव घट इति यथा स्याद्वादे निर्वहति न तथाऽन्यमते ।। १. पृ. १६ पं. ८ । २. पृ. १६ पं. २७ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा एवं येन क्षेत्रेण सह घटस्य संयोगस्तेनैव सहान्यस्याऽपि संयोगस्तस्याऽपि च संयोगानुरोधात् तेन क्षेत्रेण सह भेदाभेद आवश्यकः । तथा च घटस्य स्वसंयोगविगमदशायामपि स्वाभिन्नक्षेत्राभिन्नपदार्थसंयोगमादाय स्वक्षेत्रेऽस्त्येव घट इत्युपपद्यते स्याद्वादे । एवं यस्य वस्तुनो यावत्क्षेत्रावगाहनं स्वभावस्तद्वस्तु तावन्तं क्षेत्रमवगाविाऽवतिष्ठते इत्यपि स्वक्षेत्रापेक्षया सत्त्वस्यैव महिमेति बोध्यम् ।। वर्त्तनालक्षणः कालः । वर्तना च वस्तूनां नवपुराणादिभाव इति घटस्य नवपुराणादिभावेनाऽवस्थानस्य नियतत्वाद् घटस्य सत्त्वं नवपुराणादिभावलक्षणस्वपर्यायावच्छेद्यमिति कृत्वा स्वकालेनाऽस्त्येव घट इति स्याद्वाद एवोपपद्यते, न परमते । सामान्यविशेषोभयस्वभावो घटादिरेव, न तु घटादितो व्यतिरिक्तं घटत्वादिसामान्यमित्यनुवृत्तस्वभावस्य घटस्याऽवस्थानलक्षणं स्वरूपसत्त्वं भवति घटत्वापेक्षमिति तदादाय स्वभावेन घटोऽस्त्येवेति स्याद्वाद एवोपपद्यते, न त्वतिरिक्तसामान्याभ्युपगमवादिनां नैयायिकादीनामिति वस्तुगतिः । तत्र यद्विकल्पितं “तत् किं घटादिकमेव ततो व्यतिरिक्तं वेति ? तत्र बूमः, न घटादिकमेव, नाऽपि व्यतिरिक्तमेव सर्वथा, किन्तु ततो भिन्नाभिन्नं, यतो नैकान्तेनाऽभेदः, अतः पृथक्प्रयोगः । यतश्च नैकान्तेन भेदः, अतो न स्वरूपताया व्याघातः । तथा चैकान्तभेदमेकान्ताभेदमवलम्ब्य प्रदर्शितं दोषजालमरण्यरुदितमेव । यत्त्वस्मिन् पक्षे उक्तं “एकान्तवादिनं परं प्रति सप्तभङ्गयात्मकस्याद्वादेन सत्त्वासत्त्वाद्यनेकधर्मात्मकत्वं भवता बोधनीय''मित्यादि, तत्रोच्यते - अस्ति घट इति प्रतीतिर्भवति सर्वेषां मते, न तत्र शुष्कविवादो न्याय्यः । सा च प्रतीतिः कथञ्चिदर्थं क्रोडीकृत्यैव प्रामाण्यमासादयति । अन्यथा घटस्य सर्वात्मकत्वादिप्रसङ्गोऽपरिहार्यः । एवं चाऽस्तित्वं भेदेऽभेदे चाऽनुपपद्यमानं यदि भेदाभेदमादायैवोपपद्यते तदा कोऽत्रोपायः? वस्तुपक्षपातो हि धियां स्वभावः । परं प्रति यावज्जिज्ञासमुपदर्शनीयमेव वस्तुतत्त्वम् । जिज्ञासोपरमादेव प्रतिपादनप्रकारोपदर्शनोपरमे क्वाऽनवस्थोल्लासः ? वस्तुन्यनवस्था तु प्रामाणिकी न दोषतामावहति । घटस्य घट इति प्रतीतिर्न भवति, घटस्य स्वरूपमिति प्रतीतिस्तु भवति । सा च भेदाभेदमवलम्व्यैवोपपद्यमाना न स्वरूपत्वविघातिका, तेन “किञ्चाऽस्मिन्पक्षे स्वरूपसत्त्वमित्यस्य संज्ञामात्र''मित्यनववोधविलसितमेव । यथा चाऽऽपेक्षिकत्वमस्य स्याद्वादे घटते तथोपपादितमनन्तरमेव । “तथा चाऽऽपेक्षिकत्वं यदस्य तन्न धर्मिणोऽभेदमवलम्व्ये”त्यादि तु सम्मुग्धजनप्रतारणमेव । यतो न भेदमात्रं नाऽप्यभेदमात्रमवलम्व्य स्वरूपसत्त्वस्य चाऽऽपेक्षिकत्वं, येनोक्तदोषघटना स्यात् । किन्तु तयोः सम्मिश्रणेन पानकरसवत् प्रकारान्तरतामापन्नस्य तस्य तथात्वं, निषेध्यत्वमपि तस्य तथाविधस्वरूपस्येति न धर्मिणो निषेधापत्तिः । स्वरूपसत्त्वरूपास्तित्वस्य वृत्तित्वातिरिक्तत्वेऽपि यथा स्वद्रव्यादीनामपेक्षणं तथोपपादितमेव । उत्पादव्ययधौव्यवत्त्वलक्षणस्य सत्त्वस्याऽस्तिपदार्थत्वेऽपि न कोऽपि दोषः । १. पृ. १७ पं. ३ । २. पृ. २० पं. ४ । ३. पृ. २० पं.७ । ४. पृ. २० पं. ८ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा न च, निरूपकत्वपक्षमाश्रित्य स्वद्रव्यादीनामिदानीमपेक्षानिमित्तत्वस्याऽनभ्युपगमेऽप्यवच्छेदकत्वविधया तत्त्वमभ्युपगतम् । तच्चोत्पादादित्रयाणां समुदायापेक्षया प्रत्येकापेक्षया वा न सम्भवतीत्युपदर्शितं प्रागिति वाच्यम् । यत उत्पादादीनां त्रयाणां परस्पराभावरूपत्वान्नाऽवच्छेदकभेदापेक्षा, न ह्युत्पादाभावो व्ययः, धौव्यं वा, ध्रौव्याभावो वोत्पादव्ययौ, व्ययाभावश्चोत्पादधौव्ये, किन्तु परस्परविरुद्धस्वभावत्वात् । तच्च विरुद्धस्वभावत्वं तेषामेकस्वरूपेणैककाले, न तु विभिन्नरूपेण विभिन्नकाले वा, अतस्तादृशस्वभावभञ्जनायाऽपेक्षितं निमित्तमुत्पादादीनां स्वरूपसन्निविष्टमेव । स्वरूपसन्निविष्टस्याऽप्यवच्छेदकत्वं न विरुद्धं यथा वृत्तित्वरूपनिविष्टस्याऽधिकरणात्मकनिरूपकस्य प्रतीत्यनुरोधेनाऽवच्छेदकत्वम् । अथ वृत्तित्वस्य सनिरूपकत्वाद् भवतु तत्स्वरूपेऽधिकरणस्य प्रवेशः, उत्पादादौ तु कथमवच्छेदकतया सम्मतस्य प्रवेश ? इति चेत्; उत्पादो हि स्वाधिकरणक्षणध्वंसानधिकरणक्षणसम्वन्धः । तत्र स्वस्य घटादेर्येन घटत्वादिनोत्पादस्तेनैव रूपेण प्रवेशः कार्यः, अन्यथा घटादिनिष्ठसत्त्वद्रव्यत्वावच्छिन्ननिरूपकतानिरूपिताधिकरणतावत्क्षणध्वंसाधिकरणत्वस्यैव कालमात्रे सत्त्वेन तादृशध्वंसानाधिकरणक्षणाप्रसिद्ध्योत्पादस्वरूपस्यैवाऽप्रसिद्धिः स्यात् । कस्याऽवच्छेदकत्वं घटत्वादौ स्यात् ? ४५ एवं व्ययो नाम विनाशः, तस्य स्वरूपे यद्यपि नाऽवच्छेदकस्य प्रवेशः, तथाऽपि तस्य प्रतियोगित्वमेव प्रतियोगिना सह सम्बन्धः, प्रतियोगिता च येन रूपेण विनाशोऽभिमतस्तद्रूपावच्छिन्नैवेति । एवं धौव्यं यदि नित्यत्वं तदा तस्य कालत्वव्यापकाधिकरणतानिरूपकत्वरूपत्वात् तस्य च सावच्छिन्नत्वेनाऽवच्छेदकस्य तत्र प्रवेश आवश्यकः । यदि च यस्य यावत्कालं स्थितिर्व्यवह्रियते तस्य तावत्कालस्थायित्वं धौव्यमभिप्रेतम्, अत एव घटस्य घटत्वेन रूपेण नित्यत्वाभावेऽपि स्थितिदशायां पूर्वापरावान्तरपर्यायरूपेणोत्पादविनाशयोगित्वं घटत्वेन रूपेण च धौव्यमिति, तदा स्वाधिकरणत्वेनाऽभिमतकालत्वव्यापकाधिकरणतानिरूपकत्वं स्वाधिकरणक्षणध्वंसाधिकरणक्षणसम्बन्धो वा धौव्यमिति । एवमप्यवच्छेदकस्य तत्र प्रवेशो नियत एवेति । उत्पादव्ययधौव्यलक्षणसत्त्वतदभावयोश्च परस्पराभावरूपयोर्नाऽवच्छेदकभेदमन्तरेणैकत्राऽवस्थानमिति घटादौ तदुभयप्रतीत्यनुरोधेन कल्प्यमानमवच्छेदकं स्वद्रव्यादिपरद्रव्यादि च तत्स्वरूपप्रवेशाप्रवेशौदासीन्येन कल्प्यते । न ह्येकमुत्पादादि सत्त्वं किन्तु समुदितमिति समुदायनिष्ठयवच्छेद्यतानिरूपितावच्छेदकतैव स्वद्रव्यादिषु । न च तत्र समुदाय्यवच्छेदकत्वात् समुदायावच्छेदकत्वं, स्वद्रव्यस्य धौव्यात्मकसमुदाय्यवच्छेदकत्वसम्भवेऽपि स्वक्षेत्रादौ तदभावात् । किन्तु यथा न्यायमते मूले वृक्षः कपिसंयोगीत्यत्र मूलरूपावयवस्य वृक्षरूपावयविवृत्तिकपिसंयोगानधिकरणत्वेऽपि वृक्षाधिकरणत्वात् तद्वृत्तिधर्मावच्छेदकत्वम् । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ न च, कपिसंयोगस्य मूले सत्त्वादेव तदवछेदकत्वं तस्येति वाच्यम् । एकस्य संयोगस्य व्यक्तिद्वयमात्रवृत्तित्वनियमेन मूलवृत्तिकपिसंयोगस्य वृक्षेऽभावात् । न च, वृक्षाधिकरणत्वमात्रेणाऽवच्छेदकत्वे शाखादीनामप्यवच्छेदकत्वापत्तिरिति वाच्यम् । तदानीं शाखायां कपिसंयोगाभावात् । तथा च यदवयवसंयोगप्रयुक्तावयविनि संयोगस्तदवयवस्याऽवच्छेदकत्वं, तथा स्वद्रव्यादीनां सत्त्वाश्रयघटादिसम्बन्धित्वादेव घटादिवृत्त्युक्तसमुदायात्मकसत्त्वावच्छेदकत्वम् । न च स्वद्रव्यस्य यादृशं घटादिसम्बन्धित्वं ततोऽन्यादृशमेव स्वक्षेत्रादीनां तत्सम्बन्धित्वमित्यननुगतस्यैव सम्वन्धित्वस्य नियामकत्वेन परद्रव्यादीनामपि यथाकथञ्चित्सम्बन्धित्वेन सत्त्वावच्छेदकत्वापत्तिरिति वाच्यम् । सप्तभङ्गप्रभा यतः स्वद्रव्याद्यभावे घटस्य सत्त्वमेव न निर्वहतीति स्वद्रव्यादिसत्ताया घटसत्ताप्रयोजकत्वेन तदवच्छेदकत्वमुपपत्तिपद्धतिमेति । परद्रव्यादिसत्ता च न घटसत्ताप्रयोजिकेति कथं तस्य तदवच्छेदकत्वम् ? परन्तु सत्त्वरूपप्रतियोग्यनवच्छेदकत्वाद् यथाकथञ्चित्सम्वन्धितामात्रेण सत्त्वाभावावच्छेदकत्वं स्यादेवेति । समुदायस्य च न सर्वथा समुदाय्यभिन्नत्वं किन्तु भिन्नत्वमपीति प्रत्येकमुत्पादाद्यनवच्छेदकस्याऽपि स्वक्षेत्रादेस्तत्समुदायावच्छेदकत्वं नाऽनुपपन्नमिति । एतेन “ परस्परविलक्षणस्वभावानामुत्पादादीनामेकेन केनचित् स्वद्रव्यादिना निरूपितत्वस्याऽवच्छेद्यत्वस्य वाऽसम्भवात्" इत्युक्तिरपास्ता । समुदायाभावस्यैव द्वितीयभङ्गविषयत्वं, न तु प्रत्येकाभावस्य तस्य प्रथमभङ्गविषयसमुदायविरोधित्वेऽपि तदभावानात्मकत्वात् । यत् प्रत्येकाभावावच्छेदकं तत् समुदायाभावावच्छेदकमिति न नियमः, किन्तु यत् समुदायस्याऽनवच्छेदकं तत् तदभावावच्छेदकमित्येव नियमः । तेन स्वद्रव्यादेर्व्ययाभावाद्यवच्छेदकत्वेऽपि न तत्समुदायाभावावच्छेदकत्वं तेन न स्वद्रव्याद्यवच्छेदेन निरुक्तसत्त्वाद्यभावः । तथा च २ “स्वद्रव्यस्य धौव्यमात्रावच्छेदकत्वं न तूत्पादव्यययोरित्येवं विवक्षया स्वद्रव्येणोत्पादाभावं व्ययाभावं वाऽवलम्ब्य प्रवर्तमानो द्वितीयभङ्गः कथमुन्मूलनीयः ?” इत्यस्य नाऽवकाशः । यत्तु ३ भिन्नकालीनानामुत्पादादीनामवच्छेदकत्वं निरूपकत्वं वा स्वद्रव्यादिष्वभ्युपगम्यते समानकालीनानां वा ?” इति विकल्पितं, तत्र द्वितीयकल्प एवाऽभ्युपगम्यते । प्रतिनियतापेक्षानिमित्तं क्रोडीकृत्य सिद्धस्वरूपाणां त्रयाणां समुदायस्य कथञ्चित्समुदायिभ्यो भिन्नस्याऽवछेदकत्वं स्वद्रव्यादिषूपपादितमेव । यश्च यदा विवादाध्यासितोऽज्ञातो वा सन्दिग्धो वा यं प्रति तं प्रति स तदा बोधनीयो भवतीत्येव नियमः । सत्त्वमसत्त्वं च यद् भवतु तद् भवतु, न तत्र वादिनां विवादो वर्तते । किन्तु तदुभयं विरुद्धस्वभावं कथमेकत्र वर्ततामित्येव तत्रैकान्तवादिनां पृच्छा । सा च सत्त्वासत्त्वयोरवच्छेदकभेदोपदर्शनेन भवत्युपशान्ता । यदा तु केषाञ्चित् सत्त्वादिस्वरूपावलम्बिन्यपि पृच्छा भवति, तदा सा तत्स्वरूपविशेषप्रसिद्धिप्रवणेन स्याद्वादेन १. पृ. २० पं. २१ । २. पृ. २० पं. २४ । ३. पृ. २० पं. २६ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा निवारयितुं शक्यैव । एवं संशयाज्ञानयोरपि तत्र यथा नाऽनवस्थादोषोज्जृम्भणं तथोपपादितं प्राक् । एतेन “ एवमयमप्यर्थः परं प्रति स्याद्वादमवतार्यैवोपदर्शनीय इति कथं प्रथमत एव स्यादस्त्येव घट इत्यादि सप्तभङ्गी समवतरेत् ?” इति वचनमुन्मूलितमवसेयम् । तस्माद् वृत्तित्वलक्षणं स्वरूपसत्त्वलक्षणमुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं चाऽस्तित्वं प्रथमभङ्गविषयः स्याद्वादिनां सिद्ध्यत्येव । निषेध्यस्याऽस्तित्वस्य प्रसिद्धौ च तन्निषेधरूपं नास्तित्वं द्वितीयभङ्गविषय इत्यकामतोऽपि परैः स्वीकरणीयः । न चैवं व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य द्वितीयभङ्गविषयत्वं न स्यात्, उक्तरीत्या व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगिताकाभावस्यैव द्वितीयभङ्गविषयत्वादिति वाच्यम् । नहि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एव द्वितीयभङ्गविषय इत्यस्ति राज्ञामाज्ञा । यतः प्रमेयत्वं घटपटादिसाधारणं, न घटस्याऽसाधारणो धर्मः । तद्रूपेण घटस्य सत्त्वाभ्युपगमे पटोऽपि घटः स्यादिति प्रमेयत्वस्य पररूपत्वं विवक्षित्वा घटत्वेनाऽस्त्येव घटः, प्रमेयत्वेन नाऽस्त्येव घट इत्येवं सप्तभङ्गप्रवृत्त व व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावावकाशः ? यद्वा प्रमाणानवतारे वस्तुसत्ता सत्यप्यसत्कल्पैवेति प्रमाविषयत्वमेव वस्तुनः प्रधानं रूपम् । प्रमात्वस्य च तद्वति तत्प्रकारकज्ञानत्वरूपत्वेन तत्तद्धर्मघटितत्वादसाधारण्यमपीति तस्य स्वस्वभावत्वम् । घटत्वादिकं त्वसाधारणमपि प्रमामन्तरेण न घटादिसत्तासिद्धिक्षममिति तस्य पररूपत्वं विवक्षित्वा प्रमेयत्वेन घटोऽस्त्येव, घटत्वेन घटो नाऽस्त्येवेति सप्तभङ्गीप्रवृत्तावपि न व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्याऽवकाशः । एवं नित्यत्वानित्यत्वभेदाभेदादिधर्मप्रतिपादकसप्तभङ्गीमात्रे द्रव्यत्वादेः पर्यायत्वादेश्च घटादिवर्तिन एव प्रथमद्वितीयभङ्गविषयापेक्षानिमित्तत्वमिति सर्वत्र व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगिताकाभावस्य वा द्वितीयभङ्गविषयत्वमिति नियमस्त्याज्य एव । न चाऽस्तित्वनास्तित्वप्रतिपादकसप्तभङ्गयां व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एव विषय इति वाच्यम् । तत्राऽपि व्यभिचारस्याऽनन्तरमेव प्रदर्शितत्वात् । ४७ न च, व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्याऽपि द्वितीयभङ्गविषयत्वं तत्तद्ग्रन्थपर्यालोचनया प्रतीयते । उक्तं च न्यायविशारदेनाऽपि महावीरस्तवे “अव्याप्यवृत्तिगुणभेदमुदीर्य नव्या भावं प्रकल्प्य च कथं न शिरोमणे ! त्वम् । स्याद्वादमाश्रयति सर्वनयोपपन्नं, बूमः प्रसार्य निजपाणिमिति त्वदीयाः ||9||" इति । अत्र नव्याभावपदेन व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्यैवोल्लेखादिति वाच्यम् । १. पृ. २१ पं. ३ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ सप्तभङ्गीप्रभा तत्राऽपि भवदभिमतानां दोषाणामभावात् । तथा हि - स्यादस्त्येव घट इत्यत्र वृत्तित्वरूपास्तित्वपक्षे भूतलाद्यधिकरणे घट एव साक्षात् प्रतिपादयितुमिष्टः, परं निपातातिरिक्तनामार्थयोरभेदातिरिक्तसम्बन्धेन साक्षादन्वयो न भवतीति नियमात् स न सम्भवतीति वृत्तित्वरूपार्थमस्तिप्रतिपाद्यमन्तराकृत्य भूतलाद्यधिकरणघटाद्याधेययोः सम्बन्धः प्रतिपादितो भवति । यद्यप्यस्तीत्यस्याऽनुपादानेऽपि स्याद् घट एवेत्यत्र भूतल इत्यादेरध्याहारतो भूतलादिवृत्तित्वप्रतीतिः सम्भवति, तथाऽपि स्याद् घट एवेत्येतावन्मात्रोक्तौ घटाभावस्येव घटातिरिक्तानां यावतामेव विध्यात्मकानां निषेधात्मकानां च व्यवच्छेदावगमः स्यात् । यथा वेदान्तिनां वहौवेत्यक्त्या व्रहाव्यतिरिक्तस्य निखिलप्रपञ्चस्य व्यवच्छेदः, यथा वा योगाचारमतानयायिनां विज्ञानमेवेत्युक्त्या ज्ञानातिरिक्तवस्तुमात्रस्य व्यवच्छेदः, न चैवमिष्टम्, अतोऽस्तीति प्रयुज्यते । तथा सति घटाभावस्यैव व्यवच्छेदावगतिः । स्यान्नास्त्येव घट इत्यत्र च भूतलाद्यधिकरणे साक्षात् प्रतिपादयितुमिष्टस्य घटात्यन्ताभावस्य वृत्तित्त्वाद्यर्थमनन्तर्भाव्याऽपि नास्त्यर्थस्य तथावबोधे शब्दमर्यादानतिक्रम एव । घटो नास्तीत्येतावन्मात्रोक्तो घटस्य नास्त्यर्थेऽभावे घटत्वावच्छिन्नप्रतियोगितैव संसर्गतया भासते, नञाद्यर्थेऽभावे प्रतियोगिनोऽन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगितैव संसर्ग इति व्युत्पत्तेः । अन्यथा यत्किञ्चिद्घटवत्यपि देशे स्यादर्थमनन्तर्भाव्याऽपि घटो नास्तीति प्रतीतिः स्यात्, घटनिष्ठतद्घटत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य सत्त्वात, कथञ्चिदर्थकपदासमभिव्याहारे इति विशेषणस्योक्तनियमे प्रवेशाच्च । स्यादित्युक्तौ घटस्य पटत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताभावे संसर्गतया भासते । प्रतियोगित्वस्य प्रथमार्थत्वपक्षे च स्यात्पदस्य वाचकत्वे तदर्थस्य पटत्वाद्यवच्छिन्नत्वस्य तत्राऽन्वयः । द्योतकत्वे तत्समभिव्याहारात् प्रथमाया एव पटत्वावच्छिन्नप्रतियोगित्वमर्थः । भूतलवृत्तित्वप्रकारकघटविशेष्यकबुद्धिं प्रति भूतलविशेष्यकघटाभावप्रकारकज्ञानस्याऽसमानप्रकारकस्याऽपि प्रतिवन्धकत्वमनुभववलादास्थीयते । घटनिष्ठवृत्तित्वस्य घटरूपत्वादेव घटतदभावरूपविधिनिषेधावलम्वित्वं तत्सप्तभङ्ग्या न दुर्घटम् । घटनिष्टप्रतियोगिताकाभावस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य केवलान्वयिनो न वृत्तित्वविरोधित्वमिति तत्समर्पकस्य स्यादित्यस्य भवति सामञ्जस्यम् । स्वद्रव्यादीनां च घटसम्वन्धित्वेन न व्यधिकरणत्वं, परद्रव्यादीनां च घटसम्वन्धित्वाभावेन भवति व्यधिकरणत्वमित्येवं दिशा व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य द्वितीयभङ्गविषयत्वमपि न विरुध्यते । तत्तदभावयोरेकत्र सत्त्वोपपत्तये एवाऽवच्छेदकभेदोपासना, नाऽन्यथा । तच्च द्वितीयभने स्यादित्यनेन व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वस्याऽववोधनेऽपि निर्वहति । न ह्येकान्तवादिकल्पितदिशैवाऽनेकान्तवादिभिः प्रवर्तितव्यमित्यस्ति राज्ञामाज्ञा । व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावमादाय द्वितीयभङ्गप्रवृत्तिपक्षे च नाऽव्याप्यवृत्तित्वाश्रयणस्य प्रयोजनमिति, अव्याप्यवृत्तित्वनिर्वाहकावच्छेदकतातिरिक्तावच्छेदकतया यत्र विधिकोटौ धर्मादेः प्रवेशस्तत्र निषेधकोटावभावीयप्रतियोगितायामेवाऽवच्छेदकतया धर्मादेरन्वय इत्युत्सर्ग एव । इत्थं च १“एवं सति स्वद्रव्यादिना घटोऽस्त्येवेतिवत् स्वद्रव्यादिना घटो नास्त्येवेत्यपि भङ्गो यथार्थः स्यात्, परद्रव्यादीनामिव १. पृ. १४ पं.६ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभडीप्रभा ४५ स्वद्रव्यादीनामपि घटनिष्ठवृत्तित्वेऽसत्त्वेन व्यधिकरणधर्मत्वाविशेषादि"त्यादि यदुक्तं तन्निरस्तम् । इदानीं द्वितीयभङ्गे वृत्तित्वस्य प्रतियोगितया प्रवेशानङ्गीकारात् । । किञ्च, घटनिष्ठवृत्तित्वस्य प्रतियोगित्वेऽपि स्वद्रव्यादीनां निरूपितत्वसम्वन्धेन सत्त्वात् समानाधिकरणधर्मत्वं परद्रव्यादीनां तेन सम्बन्धेनाऽसत्त्वाद् व्यधिकरणधर्मत्वमित्यतोऽपि स्वद्रव्यादिना घटो नास्त्येवेत्येवंरूपेण द्वितीयभङ्गप्रवृत्तिर्न सम्भवति । प्रतियोग्यभावान्वयौ तुल्ययोगक्षेमाविति न्यायस्याऽप्युक्तेर्न विरोधः, प्रतियोग्यन्वयवोधे घटत्वादौ प्रकारतावच्छेदकत्वस्याऽभावान्वयवोधे च प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य भवतामप्यनुमतत्वेनैकविधावच्छेदकत्वस्य कुत्राऽप्यभावेनाऽवच्छेदकतात्वेन साम्यमात्रस्योक्तन्यायेनाऽपेक्षिततया तस्य प्रकृतेऽप्यवाधात् । यत्तूक्तं “कथं चैवमप्येकान्तवादिव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाभ्युपगन्तृवेदान्त्यादिमतादविशेषः परिहृतो भवतीति”, तत्र वूमः, द्वितीयभो व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावमादायैवेति नाऽभ्युपगम्यतेऽस्माभिः । व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगिताकाभावाद्यवलम्वनेनाऽपि तस्योपपादितत्वात् । नाऽपि द्वितीयभङ्ग एव सप्तभङ्ग्याः पर्यवसानं, येन द्वितीयभङ्गस्याऽन्याभिमतार्थविषयत्वेन सप्तभङ्ग्या गतार्थत्वं स्यात् । किञ्च, वेदान्तवाद्यतिरिक्तैकान्तवादिनां व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाभ्युपगमेन नाऽस्ति कृत्यं, किन्तु वेदान्तिन एव स्वाधिष्ठाननिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वलक्षणमिथ्यात्वस्य जगत्युपपत्तयेऽधिष्ठानभूते ब्रह्मणि पारमार्थिकत्वेन रूपेण घटाद्यत्यन्ताभावस्याऽभ्युपगमः । स चाऽभावो द्वैतापत्तिभिया सर्वथा ब्रह्माव्यतिरिक्त एवेति नैवंभूतेनाऽभावेन द्वितीयभङ्गोपपत्तिः । यस्तु भूतले पटत्वेन घटो नास्तीति प्रतीतिसिद्धोऽभावस्तस्य तन्मते घटादिसमशीलस्य मिथ्यात्वेनैवाऽभ्युपगम इति कथं तस्य परमार्थतयाऽभ्युपगच्छतामस्माकं मते तन्मतादविशेषापादनम् ? प्रत्युताऽस्मन्मतसिद्धस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्याऽवलम्वनेन स्वमतसिद्धिं विदधतो वेदान्तिन एव स्याद्वादित्वमापतति । अत एव, अव्याप्यवृत्तिगुणभेदमुदीर्येत्यादिश्लोकेन शिरोमणिं प्रति श्रीमतां यशोविजयोपाध्यायानां स्याद्वादाश्रयणोपदेशः । न चेयं सप्तभङ्गी अर्वाचीनैरेव गुम्फिता, येन सम्भाव्येताऽपि वेदान्त्यभ्युपगतव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावश्रयणेन द्वितीयभङ्गोपपादनम्, किन्तु भगवत्यादावाकरेऽपि सा प्रसिद्धैवेति । ___ यथा च परद्रव्यादिना घटो नास्तीति प्रतीतिर्भवति तथा यदि स्वद्रव्यादिना घटो नास्तीति प्रतीतिः स्यात्, कल्प्येताऽपि तदनुरोधेन स्वद्रव्यादीनां व्यधिकरणधर्मविधयाऽवच्छेदकत्वम् । न त्वेवम् । अतो यदुक्तं २“स्वद्रव्यादीनां वृत्तित्वनिष्ठप्रतियोगितायाः साक्षादवच्छेदकत्वे”त्यादि, तदाग्रहविलसितमेव । घटत्वे नाऽस्त्येव घट इति प्रथमभङ्गेऽस्तित्वस्य वृत्तित्वरूपत्वपक्षे सर्वदेशवृत्तित्वं घटस्य घटत्वेन रूपेण मा १. पृ. १५ पं. १० । २. पृ. १५, पं. ११ । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभडीप्रभा प्रसाक्षीदिति निरूपकतयाऽधिकरणविशेषो भूतलादिर्यथा प्रथमभड्ने निविशति तथा स एवोपस्थितत्वाद् द्वितीयभङ्गेऽपि प्रविशति । तत्र च घटत्वावच्छिन्नघटनिष्ठप्रतियोगिताकाभावस्य नाऽस्त्यन्वयसम्भव इति व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य द्वितीयभङ्गार्थत्वमावश्यकमिति । तेन "इतोऽपि द्वितीयभङ्गो नोपपद्यत'' इत्यादिकमरण्यरुदितप्रायम् । शाब्दी ह्याकाङ्क्षा शब्देनैव प्रपूर्यते इत्यस्माभिरपि स्वीक्रियते । परं सा न स्वरूपसती हेतुः, सकाक्षेऽपि निराकाक्षत्वभ्रमाच्छाब्दबोधानुत्पादस्य निराकाक्षेऽपि च साकाक्षत्वभ्रमाच्छाब्दबोधोत्पादस्य च दर्शनात्, किन्तु ज्ञाता ज्ञानं च तस्य न श्रावणमेव विवक्षितुं शक्यम्, अव्यवहितोत्तरत्वादेराकाङ्क्षाशरीरघटकस्य श्रोत्रेन्द्रियायोग्यत्वात्, किन्तु ज्ञानसामान्यम् । तच्चाऽधिकरणविशेषवाचकपदस्याऽनुपन्यासेऽपि सम्भवति, आकाङ्क्षावहिर्भूतं च पदमुच्चार्यमाणमपि न साकाङ्क्षतया ज्ञातमिति न ततः शाब्दवोधप्रसङ्गः । यथा च घटो नास्तीत्युक्तावधिकरणविशेषस्याऽनुसन्धानं भवति तथा नाऽन्यस्येत्यत्राऽनुभववलमेवाऽवलम्बनीयम् । मन्दमतीन् व्युत्पादयितुमधिकरणविशेषोपादानमप्यस्तु, किं नश्छिन्नम् ? यद्यपि वाच्यत्वप्रमेयत्वादिकं केवलान्वयि, तथाऽपि यस्य पुरुषस्य यत्र तस्य जिज्ञासा तं प्रति तत्रैवोपादानं तस्य फलवद् भवति, नाऽन्यत्र । तथा व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य केवलान्वयित्वेऽपि प्रथमभङ्गेन घटस्य यदधिकरणेऽस्तित्वमवधारितं तदधिकरण एव तदभावस्योपपत्तये स्याद्वादस्याऽऽश्रितत्वेन तत्रैव स आकाङ्क्षितत्वादुपदर्शयितुं योग्य इति तस्याऽधिकरणसङ्कोचो गुणायैव । यत एव यत्राऽधिकरणे घटस्याऽस्तित्वं प्रथमभङ्गेनाऽवधारितं तत्राऽधिकरण एव घटस्य व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावो द्वितीयभङ्गेनाऽवबोध्यते, तत एव तस्य केवलान्वयित्वं वादिनं प्रति ख्यापितं भवति । यतो घटानधिकरणदेशे घटस्य समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽप्यभावः सर्वैरपि वादिभिः स्वीक्रियते, तत्र व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावोऽस्तीति कैमुतिकप्राप्तमेव, नोक्तिमपेक्षते । घटस्याऽधिकरणे त्वप्राप्तत्वात् स विधातुं योग्यः । एवं च सति घटाधिकरणतदनधिकरणसकलदेशवृत्तित्वात् केवलान्वयित्वमुपपादितं भवतीति नाऽधिकरणविशेषोपादानं व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्याऽवस्थानसोचापादकम् । समनियतानां चाऽभावानां न सर्वथा भेदो नाऽपि सर्वथाऽभेदः, किन्तु भेदाभेद एव स्वीक्रियते । कथमन्यथा पटत्वरूपप्रतियोगितावच्छेदकज्ञाने सति पटत्वेन घटो नाऽस्तीति धीर्भवति, न तु परद्रव्यादिना घटो नाऽस्तीति धीः ? ततश्च व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावविषयकत्वेऽपि द्वितीयभङ्गस्य परभावेन घटो नास्तीति परद्रव्येण घटो नास्तीत्यादीनां वैलक्षण्यमप्रतिहतमेव । समनियतानामभावानां सर्वथैक्यमभ्युपगच्छद्भिरपि भवद्भिस्तत्तन्निरूपितप्रतियोगिता अवच्छेदकभेदाद्भिन्ना एवाऽभ्युपगम्यन्ते । अत एव समनियतानामभावानामैक्येन सर्वेषामेव व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावानां केवलान्वयिनो गगनाभावस्य स्वरूपतया गगनाभावस्याऽभ्युपगमे व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताका १. पृ. २१, पं. १३ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा भावानामभ्युपगम आवश्यक इति न तत्र नैयायिकादीनां विवादः, किन्तु तन्निरूपितप्रतियोगितायामेव । एतदाश्रयेणैवोक्तमन्यत्र - “विवादोऽप्यतिरिक्तायां प्रतियोगितायामेव, अन्यथा सर्वेषामभावानां गगनाभावरूपत्वेन गगनप्रतियोगिकतया सर्वा अपि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिता गगनत्वावच्छिन्नप्रतियोगित्वाभिन्ना इति गगनत्वावच्छिन्नप्रतियोगित्वाभ्युपगमे तासामभ्युपगम आवश्यक इति न तास्वपि विवाद: स्यात्” । एतेन १“किञ्च, द्वितीयभङ्गे प्रथमभङ्गविषयाधिकरणवचनसङ्घटन एव तदर्थो निषेधः समानाधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगताकतया नोपपद्यत इति व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकः कल्पितो भवती"त्यादि निरस्तमवसेयम् । अभावानामैक्येऽपि प्रतियोगिताया भिन्नत्वस्योपपादितत्वेन पटत्वावच्छिन्नघटनिष्ठप्रतियोगिताया घटधर्मत्वमेव, न तु पटधर्मत्वमतो २“यदा तु समनियताभावानामैक्यमिति पक्ष आश्रीयते तदे"त्याद्यपि समाहितं भवति । अनया दिशाऽन्येऽपि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावमाश्रित्य प्रदर्शिताः कुविकल्पाः स्याद्वादिभिरुन्मूलनीयाः । यदा तु स्वरूपसत्त्वमस्तित्वं प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यं, तदा तदभावरूपं नास्तित्वं द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यम् । तत्राऽयमभिप्रायः - घटो हि भावाभावोभयात्मा । न हि भावाद् व्यतिरिक्तोऽभावो नाम जगति समस्ति, नाऽपि भावोऽभावात्मतामन्तरेणाऽन्यतो व्यावृत्तस्वरूपो भवितुमर्हति । अतिरिक्तव्यावृत्तिमादाय व्यावृत्तरूपताभ्युपगमे नाऽनवस्था निरोद्धं शक्या । एवं च घटत्वेन घटस्य स्वरूपसत्त्वमित्यनेनेदमुक्तं भवति यदेव घटत्वं सकलघटसाधारणसमानाकारपरिणामलक्षणं तदेव घटस्य स्वरूपसत्त्वं, तदन्तरेण घटस्य स्वरूपसत्त्वानुपलम्भात् । एवं स्वद्रव्येण घटस्य स्वरूपसत्त्वमित्यतोऽपि यदेव मृद्रव्यं तदेव घटस्य स्वरूपसत्त्वं द्रव्यनयप्राधान्यमाश्रित्य । न हि मृद्रव्यानुपलम्भे घटस्वरूपमुपलभ्यत इति । एवं तत्तत्क्षेत्रेण सह संयुक्तत्वादिना तादात्म्याभ्युपगमेन तथात्वं, तथा स्वकालेनाऽपि । पटत्वेन घटो नास्तीत्यस्याऽयमर्थः – पटत्वेन घटस्य न स्वरूपसत्त्वं, तस्याऽपि घट: पटात्मा न भवतीत्यत्रैव पर्यवसानम् । न चैवं पटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावात्मको घट इति द्वितीयभार्थे घटस्य स्वरूपसत्त्वनिषेधो न विषयः, किन्तु पटनिषेध एवेत्यन्यस्य विधिः प्रथमभङ्गविषयोऽन्यस्य च निषेधो द्वितीयभङ्गविषय इति सप्तभङ्गीलक्षणक्षतिरिति वाच्यम् । यतः स्वरूपसत्त्वं प्रथमभङ्गविषयः, तदभावश्च द्वितीयभङ्गविषयस्तयोः परस्परविरहरूपत्वं स्पष्टमेव । स्यादित्यनेनोभयत्राऽपेक्षाभेदनिमित्तसमर्पणतस्तयोरविरोधस्य परस्परविरहानात्मत्वमादायोपपत्तावपि प्रथमस्थितिमुपादाय सप्तभङ्गीलक्षणमक्षतमेव । एवं परद्रव्यक्षेत्रकालाश्रितद्वितीयभङ्गविषयोऽप्यूह्यः । उक्तदिशोत्पादव्ययधौव्यलक्षणसत्त्वपक्षेऽपि द्वितीयभङ्गविषय आकलनीयः । वृत्तित्वात्मकेऽस्तित्वे स्वाभावातिरिक्तानां स्वद्रव्यादीनां निरूपकतयैवाऽन्वयस्तथा तदभावे नास्तित्वे १. पृ. २२ पं. ६ । २. पृ. २३, पं. ३ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा परद्रव्यादीनां परभावातिरिक्तानामिति परकीयरीतिमाश्रित्याऽपि स्याद्वाद उज्जृम्भते । तथा हि – स्वद्रव्ये घटोऽस्ति, स्वक्षेत्रे घटोऽस्ति, स्वकाले घटोऽस्तीत्यादौ सर्वत्र घटो यथाऽनुगततया भासते तथैवाऽस्त्यर्थोऽपि | न ह्यधिकरणानां कपाल-भूतल-कालानां भेदेऽपि घटव्यक्तिः स्वरूपत एव भिन्नति भवद्भिरभ्युपगम्यते । न चाऽऽधेयस्याऽधिकरणभेदेन भेद इति नियमाभावेन घटव्यक्तेः स्वरूपतो भेदाभावेऽपि सनिरूपकाणां पदार्थानां निरूपकभेदेन भेद इति नियमसदावाद् वृत्तित्वस्य सनिरूपकस्य निरूपकभेदेनाऽवश्यं भेद इति वाच्यम् । ___ एकान्तभेदमाश्रित्योक्तनियमाभ्युपगमे हि वृत्तित्वमेव स्वरूपत उच्छिद्येत । एकमेव हि वृत्तित्वमवच्छेदकतानिरूपितमधिकरणनिरूपितं चाऽभ्युपगम्यते भवद्भिरपि । न चैकस्य सनिरूपकस्यैकजातीयं निरूपकमेकमेव भवतीति नियमस्याऽभ्युपगमेन भिन्नजातीयनिरूपकभेदाद् भेदाभावेऽपि समानजातीयनिरूपकभेदाद् भेद आवश्यक इति वाच्यम् । ___ एकस्मिन्नधिकरणे घटपटयोः सत्त्वे घटपटोभयनिष्ठ्वृत्तिताया घटत्वपटत्वोभयत्वैतत्त्रितयधर्मावच्छिन्नाया अवच्छेदकतारूपैकजातीयनिरूपकभेदेऽप्यभिन्नाया एवाऽभ्युपगमात् । एवं समूहालम्बनज्ञानस्य विषयरूपनिरूपकभेदेऽप्यभिन्नस्यैवाऽभ्युपगमात् । न हि किञ्चिदपि ज्ञानमेकमात्रविषयकमिति ज्ञानमात्रस्यैव वा विलोपप्रसङ्गात् । तस्मान्निरूपकभेदात् सनिरूपकस्य कथञ्चिद्वेद एवाऽऽश्रयितव्यो, न तु सर्वथाऽपि भेदः । तथा च कथञ्चिदेकमेव वृत्तित्वं स्वद्रव्यक्षेत्रकालनिरूपितं स्वभावावच्छिन्नं चेति कृत्वा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्त्येव घट इति स्याद्वादे यथोपपद्यते, न तथैकान्ततो द्रव्यनिरूपितवृत्तित्व-क्षेत्रनिरूपितवृत्तित्व-कालनिरूपितवृत्तित्वानां भेदवादे । यैव च घटत्वावच्छिन्ना वृत्तिता सैव प्रमेयत्वावच्छिन्नाऽपि कथञ्चिद् भवतीत्युपगमोऽपि स्याद्वाद एव युज्यते । एवं छायातपवद्वैलक्षण्ये जाग्रति तदनवबोधः परस्य दूषणमेव, न तु भूषणम् । यत्तु “स्वद्रव्यनिरूपितत्वं वृत्तित्वे परमते समवायादिसम्वन्धावच्छिन्नत्वावच्छेद्यं, भवन्मते भेदाभेदात्मकाविष्वग्भावरूपसम्बन्धावच्छिन्नत्वावच्छेद्यं, स्वक्षेत्रनिरूपितत्वं च तत्र संयोगादिसम्बन्धावच्छिन्नत्वावच्छेद्यमिति नैकं वृत्तित्वं स्वद्रव्यादिनिरूपितं सम्भवती"ति, तत्तुच्छं, निमित्तभेदेनैकस्मिन् वृत्तित्वेऽनेकधर्मसमावेशे विरोधाभावात् । न च, यदप्युक्तदिशा त्रितयनिरूपितं स्वीक्रियते तदपि प्रत्येकनिरूपितं भवत्येवेति तदादायकान्तवादाविशेषापादनमिति वाच्यम् । त्रितयनिरूपितत्वोपपादनेनैकान्तवाद्यभिमतैकैकमात्रनिरूपितवृत्तित्वस्य शशशृङ्गकल्पत्वस्याऽऽविष्कारात् । न चैकमात्रनिरूपितंवृत्तित्वस्याऽस्वीकारे स्वद्रव्येणाऽस्त्येव घट इत्यादिसप्तभड़ी समुच्छिन्ना स्यादिति वाच्यम् । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा यथा हि – अनन्तधर्मात्मको घटस्तथा तन्निष्ठ्वृत्तित्वरूपधर्मोऽप्यनन्तधर्मात्मकः । तत्र स्वक्षेत्रनिरूपितत्वादीनां सत्त्वेऽपि स्वद्रव्यनिरूपितत्ववुवोधयिषया स्वद्रव्येणाऽस्त्येव घट इत्यादिसप्तभङ्गी निरावाधैव । अन्यत्र तृतीयया निरूपितत्वरूपोऽर्थो न प्रतीयत इति माऽस्त्वन्यत्र तृतीयार्थी निरूपितत्वम् । अत्र तु स्वद्रव्यादीनां निरूपितत्वस्यैव वृत्तित्वेऽन्वययोग्यतया तत्प्रतिपादनाय स्वद्रव्येणेत्युक्तेरस्खलिततया वादिवृन्दैरादृततया तन्निराकरणमनुभववाधितमेव । यदि च निरूपितत्वं नाऽनुभूयते किन्त्ववच्छेदकत्वमेवेत्यस्ति भवतां मतिः, तदा तदनुरोधेनाऽवच्छेदकत्वरूपार्थस्याऽप्यन्वययोग्यत्वमिति तत्राऽपि न नः किञ्चिदपचीयते । परन्तु स्वद्रव्यादीनां निरूपितत्वमेवाऽनुभूयते इति पक्षाश्रयणेऽप्यस्ति स्याद्वादे विशेष इत्युपदर्शनमात्रार्थत्वादुक्तप्रक्रियायाः । वृत्तित्वतदभावौ प्रथमद्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यौ । तौ च सामान्यतो विधिनिषेधात्मकावेव । तत्र रवद्रव्यक्षेत्रकालभावैरित्यनेन स्यादित्यनेन वा प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यस्य वृत्तित्वस्य वृत्तित्वविशेषे पर्यवसानम् । द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यस्य वृत्तित्वसामान्याभावस्य वृत्तित्वविशेषाभावे पर्यवसानम् । अतो न विरोधगन्ध इति स्याद्वादार्थे न मतान्तरादविशेषः । परद्रव्यक्षेत्रकालभावचतुष्टयापेक्षस्यैकस्यैव वृत्तित्वविशेषस्य परस्मिन् प्रसिद्धस्यैकान्तवाद्यदृष्टस्याऽभावो द्वितीयभङ्गविषय इति व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावाश्रयणं विनाऽपि निर्वाह: । यदि च व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एव तत्राऽनुभूयते, तदाऽनुभवानुरोधस्य सर्वैरपि वादिभिः कर्तव्यतया सामान्यतो वृत्तित्वे परद्रव्यादीनां निरूपितत्वसम्बन्धेन सत्त्वेन न व्यधिकरणत्वं, न वा परद्रव्यादिनिरूपितत्वस्य । अतो वृत्तित्वविशेष एव प्रथमभङ्गार्थः, प्रतियोगितया द्वितीयभङ्गविषयः । प्रतियोग्यभावान्वयौ तुल्ययोगक्षेमाविति नियमस्याऽपि विरोधो नाऽत्राऽऽत्मानमासादयति । व्यधिकरणधर्मादीनामुपस्थापकाभावे नज्यदसमभिव्याहारं विना यादृशवाक्याद् यत्सम्बन्धावच्छिन्नयद्धर्मावच्छिन्नयन्निष्ठपकारतानिरूपितयद्धर्मावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपको वोधो जायते नऽपदसमभिव्याहारे सति तादृशवाक्यात् तत्सम्बन्धावच्छिन्नतद्धर्मावच्छिन्नतन्निष्ठप्रतियोगिताकाभावत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपिततद्धर्मावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपको वोधो भवत्येतादृशार्थे पर्यवसन्नस्योक्तनियमस्य प्रकृते व्यधिकरणधर्मोपस्थापकस्य स्यादित्यस्य सद्भावेनाऽप्रवृत्तेः । कियोक्तनियमोऽपि स्याद्वादाङ्कित एव युज्यते । कथमन्यथा चैत्रः पचतीत्यत्र पाकानुकूलकृतिप्रकारकचैत्रविशेष्यकवोधः ? चैत्रो न पचतीत्यत्र पाकानुकूलकृत्यभावप्रकारकचैत्रविशेष्यकबोध ? इति तत्रोक्तनियमस्य समन्वयेऽपि भूतले घटोऽस्तीत्यत्र भूतलवृत्तित्वप्रकारकघटविशेष्यकवोधः, भूतले घटो नास्तीत्यत्र च भूतलविशेष्यकघटाभावप्रकारकवोध इति तत्रोक्तनियमस्य न समन्वयः । एवं च स्यादस्त्येव घट इत्यत्र यदेव स्वद्रव्यादिनिरूपितवृत्तित्वं प्रकारः, स्यान्नास्त्येव घट इत्यत्र तस्यैव वृत्तित्वविशेषस्य परद्रव्यादिनिरूपितत्वेन व्यधिकरणधर्मेण प्रतियोगितया विषयत्वमित्येकं मतं, भूतले घटोऽस्तीत्यत्र भूतलवृत्तित्वं Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सप्तभङ्गीप्रभा प्रकारः, भूतले घटो नास्तीत्यत्र घटस्य प्रतियोगितया विषयत्वमित्यपरं मतं,तदनयोः कुत्र प्रतियोग्यभावान्वयौ तुल्ययोगक्षेमावित्यस्य सामञ्जस्यम् ? इति विदाकुर्वन्तु विद्वांसः । एतेन “को नाम प्रतियोग्यभावान्वयौ तुल्ययोगक्षेमाविति न्याये जाग्रति एकजातीयाया एव विभक्तेः समानस्य स्यात्पदस्य वा प्रतियोग्यन्वयबोधकवाक्येऽन्यार्थकत्वम्, अभावान्वयबोधकवाक्ये चाऽन्यादृशार्थकत्वमभ्युपगच्छेच्छाब्दमर्यादाभिज्ञ” इत्युक्तिरप्यपास्ता । भूतले घटोऽस्तीत्यत्र सप्तम्या निरूपितत्वार्थकत्वस्य प्रथमान्तार्थस्य घटस्य मुख्यविशेष्यत्वस्य प्रथमायाः सङ्ख्यातिरिक्तार्थत्वाभावस्याऽभ्युपगमः, भूतले घटो नास्तीत्यत्र सप्तम्या निरर्थकत्वस्य प्रथमान्तार्थे घटे मुख्यविशेष्यत्वाभावस्य प्रथमायाः प्रतियोगित्वार्थकत्वस्य सप्तम्यन्तभूतलपदार्थे मुख्यविशेष्यत्वस्य च भवतोऽप्यभ्युपगम इति तत्रैकजातीयाया एव विभक्तेः समानस्यैव पदस्य सार्थकत्वनिरर्थकत्व-मुख्यविशेष्यताप्रयोजकत्व-तदभावादीनां सद्भावेनैकान्तेन कस्याऽपि नियमस्योपपत्तेरसम्भवादिति दिक् । प्रथमभङ्गे द्वितीयभङ्गे च पराभिमतानां दोषाणां निर्मूलमुन्मूलितत्वात् "तृतीयभङ्गस्तु प्रत्येकं यो भवेद् दोषो द्वयोर्भावे कथं न स इति न्यायकवलित एवे”ति परस्य प्रलापमात्रमेवेति स्थितम् । किञ्चोक्तोऽपि न्यायो नैकान्तेन न्याय्यतामर्हति, यतो योग्येन वृक्षेण सह योग्यस्य कपेः संयोगेऽविशेषेण सर्वयोग्यदेशावच्छेदेन वृक्षे कपिसंयोगोपलम्भप्रसङ्गः । एवं योग्ये वृक्षे योग्यकपिसंयोगाभावस्य सद्भावेऽविशेषेण सर्वयोग्यदेशावच्छेदेन कपिसंयोगाभावोपलम्भप्रसङ्ग इति प्रत्येकपक्षे दोषो भवति । वृक्षे कपिसंयोगतदभावयोरुभयोः सद्भावे च तदन्यथानुपपत्त्याऽवच्छेदकभेदस्याऽपि तत्र सन्निविष्टतया नोक्तदोषसमुन्मेषः । न च, कपिसंयोगतदभावयोरव्याप्यवृत्तितयाऽव्याप्यवृत्तिकपिसंयोगसत्त्वपक्षोऽव्याप्यवृत्तिकपिसंयोगाभावसत्त्वपक्षश्च प्रत्येकपक्षस्तत्र च नोक्तदोषसद्भाव इति न तत्रोक्तन्यायानुपपत्तिरिति वाच्यम् । अव्याप्यवृत्तित्वं स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगित्वमित्यव्याप्यवृत्तिकपिसंयोगसद्भाव इति पक्ष एवाऽव्याप्यवृत्तिकपिसंयोगाभावसद्धावस्याऽपि प्रविष्टतया तस्योभयपक्षत्वेन प्रत्येकपक्षत्वासम्भवात् । न चाऽव्याप्यवृत्तिविधिनिषेधातिरिक्तविषयकतयैवोक्तन्याय आश्रीयत इति वाच्यम् । तथा सत्यस्मन्मते विधिनिषेधभावापन्नानां सर्वेषामेव सत्त्वासत्त्वादीनामव्याप्यवृत्तितयोक्तन्यायाविषयत्वे ३“तृतीयभङ्गस्त्वि” त्याधुक्तिरसङ्गतार्थोपहासायैवेति । क्रमाप्तिसत्त्वासत्त्वविवक्षयेत्यनेन तृतीयभङ्गे सत्त्वासत्त्वोभयस्य प्राधान्येन प्रकारत्वमेवाऽभिप्रेतं, क्रमाक्रमौ च शब्दधर्मावेव । क्रमिकं यच्छब्दयुगलं तत्प्रयोज्यैकज्ञानीयप्रकारतावत्त्वमेब विधिनिषेधयोः क्रमार्पितत्वं, तच्चोपलक्षणमेव, न शाब्दवोधविषयः । प्रथमद्वितीयभाभ्यां च ज्ञानद्वयमेव जन्यते, न त्वेकं ज्ञानम् । न चैवं प्रथमद्वितीयभङ्गसमाहाररूपतैवाऽस्य स्यात्, न तु तृतीयभङ्गत्वं, यथा सप्तभझ्याः प्रत्येकभड्नसमाहाररूपत्वं, न त्वष्टमभङ्गत्वमिति वाच्यम् । १. पृ. १५ पं. ८ । २. पृ. २४ पं. ८ । ३. पृ. २४ पं.८ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा सप्तानां धर्माणां विवक्षाभिः सप्तानां भङ्गानां समुल्लासे तेषामेव समुदायतामवलम्ब्य सप्तभङ्गत्वं, न तु सप्तभङ्गया अतिरिक्तधर्मविवक्षया प्रयोगो, नाऽपि सप्तधर्मव्यतिरिक्तधर्मप्रतिपादकत्वमिति कथमस्या अष्टमभङ्गत्वप्रसङ्गः ? अस्य तु तृतीयधर्मविवक्षया पृथगेव प्रयोगाद् युक्तं तृतीयत्वं, न तु भङ्गद्वयसमाहाररूपत्वम् । न चोभयस्य प्रत्येकानतिरिक्तत्वे तृतीयत्वमेव दुरुपपादं प्रत्येकातिरिक्तत्वे नास्तित्वाद्यपेक्षया विधिनिषेधात्मकत्वमिति नास्तित्वादिधर्मप्रतिपादकभङ्गसमाहारघटकत्वं तत्प्रतिपादकभङ्गस्येति सेयमुभयतः पाशा रज्जुरिति वाच्यम् । उभयस्य हि सर्वथा प्रत्येकानतिरिक्तत्वे घटमात्रस्य पटमात्रस्य वा सत्त्वेऽपि घटपटोभयसत्त्वप्रसङ्गः, प्रत्येकप्रतीतितो वैलक्षण्येनाऽनुभूयमानाया उभयप्रतीतेरपलापप्रसङ्गञ्च । सर्वथा प्रत्येकातिरिक्तत्वे घटपटयोरन्यतरस्याऽसत्त्वेऽपि घटपटोभयसत्त्वप्रसङ्गः, घटपटोभय-मठतटोभय-चैत्रमैत्रोभयादीनामन्योन्यवैलक्षण्ये निमित्तान्तरस्य वक्तव्यत्वप्रसङ्गश्च । अतः कथञ्चित् प्रत्येकतोऽनतिरिक्तमेवोभयं तत्र च नोक्तदोषसमुन्मेषः । एवं च क्रमार्पितत्वस्याऽधिकस्य तृतीयभङ्गजबोधविषयत्वाभावेऽपि च तृतीयभङ्गोपपत्तेः " तस्य क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयविषयकत्वं यदुच्यते तत्राऽधिकतया प्रविष्टं क्रमार्पितत्वं विचारमर्हती" त्यादि तृतीयभङ्गखण्डनमरण्यरुदितमेव, विचारार्हमुभयस्वरूपं परित्यज्याऽन्यत्र विचारस्योपसङ्क्रमात् । ५५ इदं त्वत्राऽवधेयम् - अस्तित्वनास्तित्वोभयं यथाकथञ्चित् प्रत्येकानतिरिक्तं सद् अस्तित्वाद्यपेक्षया विधिनिषेधभावापन्नं तत्प्रतिपादकसप्तभङ्गीप्रतिपाद्यधर्मकदम्बे निविशते, तथाऽस्तित्वविशिष्टं नास्तित्वं, नास्तित्वविशिष्टमस्तित्वं च कथञ्चिदस्तित्वादितो भिन्नाभिन्नं विधिनिषेधभावापन्नं चेति तयोरपि सप्तभङ्गीप्रतिपाद्यधर्मकदम्वे प्रवेशो युक्तः । तथा च नवभयाद्यापत्त्या न सप्तभङ्गीवादश्चतुरस्रः । न चोक्तयुक्त्योभयस्य कथञ्चित् प्रत्येकानतिरिक्तस्य सम्भवेऽपि विशिष्टस्य तथाविधस्य सत्त्वे मानाभाव इति वाच्यम् । विशिष्टं हि विशेषणस्वरूपं, विशेष्यस्वरूपं, तदुभयस्वरूपं वैकान्तेऽभ्युपगम्यते किं वा तेभ्यः सर्वथा व्यतिरिक्तमेव ? नाऽऽद्यः, दण्डमात्रसत्त्वेऽपि दण्डविशिष्टपुरुषसत्त्वप्रसङ्गात् । नाऽपि द्वितीयः, दण्डविनिर्मुक्तपुरुषवति देशे दण्डविशिष्टपुरुषप्रतीतेः प्रमात्वप्रसङ्गात् । नाऽपि तृतीयः यत्र विशेषण - विशेष्योभयस्य सत्त्वं तत्राऽवश्यं विशिष्टस्य सत्त्वं यत्र च विशिष्टस्य सत्त्वं तत्राऽवश्यमुभयस्य सत्त्वमित्येवं सामनैयत्येऽपि तयोः स्वरूपवैलक्षण्यस्याऽवश्यं स्वीकरणीयत्वात् । अन्यथा घटत्वपटत्वोभयस्वरूपनिष्पत्तौ घटत्वविशिष्टपटत्वस्वरूपस्याऽपि निष्पत्तिप्रसङ्गः । नाऽपि चतुर्थः, विशेषणाद्यभाववत्यपि विशिष्टप्रतीतेः प्रमात्वप्रसङ्गात् । अतो विशिष्टस्याऽपि विशेषणादितो भिन्नाभिन्नत्वमेव ज्यायः । अत्र वदन्ति, व्यधिकरणधर्मयोरुभयत्वस्यैकविशिष्टापरत्वरूपत्वासम्भवेऽपि समानाधिकरणधर्मयोरु १. पृ. २४, पं. ८ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सप्तभङ्गीप्रभा भयत्वस्यैकविशिष्टापरत्वरूपत्वमेव । __न च, कथञ्चिदस्तित्वनास्तित्वोभयं कथञ्चिदस्तित्वविशिष्टनास्तित्वरूपं, कथञ्चिन्नास्तित्वविशिष्टास्तित्वरूपं वेत्यत्र विनिगमनाविरहेण विशिष्टद्वयरूपत्वं स्वीकरणीयं तदपेक्षयाऽतिरिक्तत्वे लाघवमिति वाच्यम् । धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसीति न्यायेन क्लृप्ते विशिष्टद्वये उभयत्वकल्पनाया एव लघीयस्त्वात् । एवं च तृतीयभङ्गे कथञ्चिदस्तित्वनास्तित्वोभयस्य तादृशोभयत्वेन प्रकारत्वे कथञ्चिदस्तित्वविशिष्टनास्तित्वस्य कथञ्चिन्नास्तित्वविशिष्टास्तित्वस्य च तत्रैवाऽन्तर्भावसम्भवेन न तत्प्रतिपादकस्य भङ्गान्तरस्य सप्तभङ्गयां प्रवेश इति न नवभङ्गीत्वादिप्रसङ्गः । एतेन पञ्चमषष्ठसप्तमभङ्गा अपि व्याख्याताः । एकविशिष्टापरत्वस्य च न प्रकारतावच्छेदकत्वम्, येनैकस्य विशेषणतया भाने प्रकारतावच्छेदकतायास्तत्र सत्त्वेन प्रकारतावच्छेदकतानात्मकप्रकारताशालित्वरूपप्राधान्यस्य तत्राऽभावेन तृतीयभङ्गेऽस्तित्वनास्तित्वोभयं प्रधानमित्यभ्युपगमव्याकोप: स्यात्, किन्तूक्तोभयत्वमेव प्रकारतावच्छेदकमित्युभयस्य प्राधान्यमव्याहतमेव । यदि चोभयत्वमपि नाऽतिरिक्तं किन्त्वेकविशिष्टापरत्वमेव, प्रकारतावच्छेदकतावच्छेदकं चोभयत्वत्वमनुगतमखण्डधर्म इति न तृतीयभड्नेन विशिष्टद्वयासङ्ग्रह इति विभाव्यते, तदाऽप्युभयस्य प्राधान्यमनिर्बाधम् । यतः स्यादस्ति नास्ति चेति तृतीयभङ्गप्रयोज्या प्रकारता कथञ्चिदस्तित्वविशिष्टनास्तित्वनिष्ठा कथञ्चिन्नास्तित्वविशिष्टास्तित्वनिष्ठ चेति प्रथमां प्रकारतामादाय नास्तित्वस्य, द्वितीयामादायाऽस्तित्वस्य प्राधान्यमिति विशिष्टस्य प्रकारत्वेऽपि न तृतीयभङ्गस्य भङ्गद्वयसमाहाररूपत्वम् । एतेन १“एवं सत्यस्तित्वस्य नास्तित्वविशेषणत्वे प्रकारतावच्छेदकतानात्मकप्रकारतारूपस्य प्रकारगतस्य प्राधान्यस्येत्यादि तस्मादर्थभेदोपदर्शनमन्तरेण भङ्गद्वयसमाहारमात्रेण तृतीयभङ्गसमर्थनं न विचारचूलामवलम्बते” इत्यन्तं निरस्तमवगन्तव्यम् । एतेनैव च “एवं सत्यस्तित्वविशिष्टनास्तित्वं यथा विशिष्टात्मकतया धर्मान्तरमित्यादि द्वितीये च विशिष्टे नास्तित्वं विशेषणं विशेष्यमस्तित्व''मितीयन्तं खण्डनं खण्डितम् । ___ प्रथमभङ्गे प्राधान्येन कथञ्चिदस्तित्वं प्रकारः, द्वितीयभङ्गे प्राधान्येन कथञ्चिन्नास्तित्वं प्रकारः, तदेवोभयमुभयत्वधर्मासादनमात्रेण कथञ्चिदिन्नं प्राधान्येन तृतीयभने प्रकारः । तावतैव च प्रथमद्वितीयभनाभ्यामस्य वैलक्षण्योपपत्ते ऽत्राऽपेक्षानिमित्तान्तरस्योपयोगं पश्यामः । तृतीयभङ्गे स्यादितिपदमस्तित्वनास्तित्वापेक्षानिमित्तमेवाऽऽवेदयति न त्वपूर्वमपेक्षानिमित्तमवबोधयति । नैतावतैकान्तवादापत्तिः, कथञ्चिदस्तित्वनास्त्वित्वोभयस्वरूपस्यैवैकान्तवादेऽनिष्पत्तेः । । तथा च “किञ्च, विशिष्टस्य धर्मान्तरस्य तृतीयभङ्गविषयत्वे तदपेक्षानिमित्तमपि प्रथमद्वितीयभङ्गविषयधर्मापेक्षानिमित्ताभ्यामन्यदेव वाच्यमित्यादि, तथा सति तस्य व्यापकत्वाद्यापत्त्या घटाद्यसाधारणरूपता न स्यादि''त्यन्तं वचनं प्रलापप्रायमवगन्तव्यम् । विशेषणवति विशेष्यशून्ये विशिष्टाभावप्रतीतेर्विशेष्याभावविषयकत्वेन, विशेष्यवति विशेषणशून्ये १. पृ. २४, पं. २८ । २. पृ. २५, पं. २७ । ३. पृ. २६, पं. ८ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा च तस्या विशेषणाभावविषयकत्वेन, विशेषणशून्ये विशेष्यशून्ये च विशेपणाभावविशेष्याभावद्वयविषयकत्वेनोपपत्तेर्विशिष्टाभावो नाऽतिरिक्तोऽभ्युपेयः । तथैवोभयाभावोऽपि नाऽभ्युपेयः । प्रत्येकाभावात्मकाभावसामानाधिकरण्येनाऽनेकान्तत्वं च विशिष्टस्य निर्वहति तथैवोभयस्येत्युपगमतोऽपि “अस्तु वाऽपेक्षानिमित्तं तस्य यत्किञ्चित्, किन्त्वेकान्तवादापत्तिभिया तदभावोऽपि तत्राऽवश्यं स्वीकरणीयः” इत्यादिदूषणमुन्मूलयितुं शक्यं, विशिष्टाभावरूपातिरिक्तधर्मस्याऽभावेन तत्प्रतिपादकभङ्गापत्तेरप्यनवकाशात् । तथाऽपि यदि विशेषणविशेष्योभयशून्ये विशिष्टाभावप्रतीतेर्विनिगमनाविरहाविशेषणाभावविशेष्याभावद्वयविषयकत्वकल्पनापेक्षयाऽतिरिक्तविशिष्टाभावरूपैकविषयकत्वमेव कल्पनीयमित्यतिरिक्तविशिष्टाभावसिद्धिरिति विभाव्यते, तदाऽपि न भङ्गान्तरापत्त्यवकाशः । तथा हि - विशिष्टस्योभयस्य वा कथञ्चित् प्रत्येकानतिरिक्तत्वेन मूलीभूतधर्मद्वयापेक्षया विधिनिषेधभावापन्नत्वेन तत्प्रतिपादकभङ्गस्य सप्तभङ्ग्यां प्रवेशसम्भवेऽपि मूलीभूतधर्मद्वयापेक्षया विशिष्टाभावस्योभयाभावस्य वा विधिनिषेधभावापन्नत्वेन तत्प्रतिपादकभङ्गस्य प्रवेशो न युज्यते । न च, विशिष्टाभावस्याऽपि प्रत्येकाभावान्न सर्वथा भेदः, किन्तु कथञ्चिदेवेति विधिनिषेधभावापन्नत्वमविशिष्टमेवेति वाच्यम् । तथा सति प्रथमद्वितीयभाभ्यामेवाऽस्य प्रतिपादनसम्भवेन नाऽतिरिक्तस्य भङ्गस्याऽऽवश्यकत्वम् । न च, यथोभयस्य कथञ्चिदनितिरिक्तत्वेऽपि तत्प्रतिपादको भोऽतिरिक्तस्तथोभयाभावस्याऽपि स्यादिति वाच्यम् । तत्र हाभयस्य प्राधान्यविवक्षया तृतीयभङ्गनिर्देशः । प्रथमद्वितीयभङ्गयोस्तु प्रत्येकस्यैव प्राधान्यम् । प्रकृते तु प्रत्येकाभावरूपस्योभयाभावस्य यदि प्राधान्यं विवक्षितं तदाऽस्तित्वाभावरूपं नास्तित्वं, नास्तित्वाभावरूपमस्तित्वमिति कृत्वा प्रथमद्वितीयभाभ्यामेव चारितार्थ्यम् । यदि चाऽस्तित्वाभावनास्तित्वाभावद्वयस्य प्राधान्यं विवक्षितं तदा नास्तित्वाभावोऽस्तित्वमस्तित्वाभावो नास्तित्वमिति प्राधान्येनाऽस्तित्वनास्तित्वोभयप्रतिपादकतृतीयभड्रेनैव चारितार्थ्यम् । यदि च प्रत्येकाभावरूपतया प्रत्येकाभावद्वयरूपतया वा प्राधान्यं न विवक्षितं, किन्त्वस्तित्वनास्तित्वोभयत्वाद्यवच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वेनैवेति तदा विधिनिषेधभावानापन्नत्वेनैव तत्प्रतिपादकभङ्गस्य न सप्तभङ्ग्यां प्रवेश इति । न च, यत्रैव तृतीयभङ्गेऽस्तित्वनास्तित्वोभयस्य प्राधान्येन प्रतिपाद्यता तत्रैव तदभावस्य प्रत्येकाभावद्वयरूपस्य प्राधान्येन प्रतिपाद्यतेति कथं श्रद्धेयमिति वाच्यम् । स्याद्वादतो युक्तिसिद्धेऽर्थे श्रद्धायाः स्वयमेव प्रामाणिकान् प्रति समुल्लासात् । तस्मान्न विशिष्टाभावप्रतिपादकभङ्गस्याऽऽपादनं युज्यते, न वा तत्र धर्मान्तरस्य वैशिष्ट्यमुपादाय तत्प्रतिपादकभङ्गस्याऽप्य- १. पृ. २७, पं. ९ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ सप्तभङ्गीप्रभा वकाशः । एवमुक्तविशिष्टस्य धर्मान्तरेण सह वैशिष्ट्यमुपादाय धर्मान्तरस्याऽतिरिक्तस्य सम्भवेऽपि तस्य मूलीभूतधर्मापेक्षया विधिनिषेधभावानापन्नत्वेन न तत्प्रतिपादकभङ्गान्तरस्याऽप्यवकाश इति तृतीयभङ्गः सिद्धिसौधमध्यास्त इति दिक् । स्यादस्त्येव घट इत्यनेन सदेव विश्वं नाऽसदित्येकान्तवादिनः साङ्ख्याचार्यस्य, स्यान्नास्त्येव घट इत्यनेनाऽसदेव विश्वमित्येकान्तवादिनो बौद्धस्य, स्यादस्ति नास्ति च घट इत्यनेन कदाचित् सत् कदाचिदसदिति किञ्चित्सत् - किञ्चिच्चाऽसदिति वा कृत्वा सदासदात्मकमेव विश्वमित्येकान्तवादिनो नैयायिकस्य यथाऽपाकरणं तथा स्यादवक्तव्य एव घट इत्यनेन प्रपञ्चस्य न पारमार्थिकं सत्त्वं न वा शशशृङ्गादिवदसत्त्वं, किन्तु सत्त्वासत्त्वाभ्यां वक्तुमशक्यत्वात् सत्त्वाभाववत्त्वे सत्यसत्त्वाभाववत्त्वमवक्तव्यत्वमेवेत्येकान्तवादिनो वेदान्तिनोऽपाकरणं क्रियते । तदपाकरणं च न सर्वथा सत्त्वासत्त्वाभ्यामतिरिक्तस्याऽवक्तव्यत्वस्य तुरीयभङ्गविषयत्वे सम्भवति, तथाभूतस्य तस्य वेदान्तिनाऽप्युपगमात्, किन्तु सत्त्वासत्त्वाभ्यां कथञ्चिदनतिरिक्तस्याऽवक्तव्यत्वस्य तुरीयभङ्गविषयत्व एव । यथा च तृतीयभङ्गविषयस्य सत्त्वासत्त्वोभयस्य धर्मिणि सत्तायां नाऽवच्छेदकान्तरस्याऽपेक्षा प्रत्येकावच्छेदकसङ्घटनत एव च स्यादर्थसंवलितत्वं, तथा तुरीयभङ्गविषयस्याऽप्यवक्तव्यत्वस्य । अन्यथा यद्यदस्तित्वस्याऽनवच्छेदकं तत् सर्वं नास्तित्वस्याऽवच्छेदकमिति तद्रूपावच्छेदकमध्ये जगत एव प्रवेशेनाऽवच्छेदकान्तरस्य दौर्लभ्येऽवक्तव्यत्वादीनां सत्त्वमेवोच्छिद्येत । भङ्गप्रवृत्तिनिमित्तानि चैषां विविक्तानि । तथा हि – सदसदात्मके वस्तुनि सत्त्वस्यैव प्राधान्यविवक्षा प्रथमभङ्गप्रवृत्तिनिमित्तं, तत्राऽसत्त्वस्यैव प्राधान्यविववक्षा द्वितीयभङ्गप्रवृत्तिनिमित्तं, पदद्वयाभ्यामस्तित्वनास्तित्वोभयस्य प्राधान्यविवक्षा तृतीयभङ्गप्रवृत्तिनिमित्तम्, एकेनैव पदेनाऽस्तित्वनास्तित्वोभयस्य प्राधान्यविवक्षा तुरीयभङ्गप्रवृत्तिनिमित्तम् । एतदत्र तत्त्वं – यद्यद्धर्मात्मकं वस्तु स स धर्म एकेनाऽपि पदेन प्राधान्येन प्रतिपाद्यते, यथा घटत्वधर्मात्मके घटे घटत्वं घटपदेन, पटत्वधर्मात्मके पटे पटत्वं पटपदेन, अस्तित्वधर्मात्मके घटादावस्तित्वमस्तिपदेन, नास्तित्वधर्मात्मके च तत्र नास्तित्वं नास्तिपदेन प्रतिपाद्यते । एवमस्तित्वनास्तित्वोभयात्मके वस्तुन्यस्तित्वनास्तित्वोभयधर्म एकेन पदेन प्राधान्येन प्रतिपादनीयः, परन्तु न किमपि पदमेकं प्राधान्येन तदुभयप्रतिपादकं समस्तीति वचनाभावादवक्तव्यत्वात्मनैवाऽऽत्मानमासादयत् तदुभयं स्यादवक्तव्य एव घट इति भङ्गविषयः । अवक्तव्यत्वस्य कथञ्चिदुभयात्मकत्वादुभयस्य च कथञ्चित् प्रत्येकात्मकत्वादित्येवमवक्तव्यस्याऽस्तित्वाद्यपेक्षया विधिनिषेधभावापन्नतया तत्प्रतिपादकस्य भङ्गस्य सप्तभङ्ग्यां प्रवेशो युक्त एव । मूलीभूतयोरस्तित्वनास्तित्वयोरेकत्राऽवच्छेदकभेदेन सत्त्वे कथञ्चित् तदात्मकानां धर्मान्तराणामपि भङ्गान्तरप्रतिपाद्यानां सत्त्वस्योपपत्तेर्न तदर्थमवच्छेदकान्तरापेक्षा । स्यादवक्तव्य एवेत्यत्र स्यात्पदं तु नैतादृशमवच्छेदकमवबोधयति, किन्त्वस्तित्वनास्तित्वोभयं प्राधान्येनैकेनाऽस्त्यादिपदेन मुख्यया वृत्त्या प्रतिपाद्यत्वाभावेनाऽवक्तव्यत्वरूपतामासादयतु नाम, तथाऽपि न सर्वथा वचनागोचरत्वमेव तस्य । तथा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा सति अवक्तव्यशब्दप्रतिपाद्यमपि तन्न स्यात् । परन्तु कथञ्चिदवक्तव्यत्वमेवेत्यवबोधयतीति वस्तुस्थितिः । ये त्वेकान्तवादिन इमां वस्तुस्थितिमनाकलयन्तस्तुरीयभङ्गोन्मूलनाय प्रवृत्तास्तान् प्रति ब्रूमः, यत्तूक्तं “मूलीभूताद्यद्वितीयभङ्गविषयधर्मोन्मूलनोन्मूलितविषयोऽपि तुरीयभङ्ग” इति तत्तुरीयभङ्गविषयस्य प्रथमद्वितीयभङ्गविषयाभ्यां कथञ्चिदभिन्नत्व एव शोभते । तथा सति सर्वथा भेदमवलम्ब्याऽग्रे प्रदर्शितानि दूषणानि निरवकाशीकृतानि स्युः । प्रथमद्वितीयभङ्गविषयधर्मयोश्चोपपादितत्वेन तदुन्मूलनोन्मूलितविषयत्वं तु तुरीयभङ्गस्य दूरोत्सारितमेव । अस्तित्वनास्तित्वाभ्यां कथञ्चिद्व्यतिरिक्तस्याऽवक्तव्यत्वस्य तुरीयभङ्गविषयतयोपपादितत्वेन २“पञ्चमषष्ठसप्तमभङ्गसूत्रणसूत्रधारोऽधिकार्थासंस्पर्शान्नोपपद्यते” इत्युक्तिरप्ययुक्तैव । अवक्तव्यत्वस्याऽतिरिक्तवक्तव्यत्वस्याऽभावरूपतामारोप्य तदपाकरणं ३" अपेक्षानिमित्तं हि वक्तव्यत्वे वाऽन्वियात्, तन्निष्ठप्रतियोगित्वे तदभावे वा ?” इत्यादिना यत्कृतं तदनभ्युपगमपराहतमेव । यदप्युक्तं " तृतीयोऽप्यसम्भवादेव निरस्तः । यो हि स्वरूपतः प्रसिद्धो भवति तस्यैव क्वचिदधिकरणे सत्त्वोपपादनायाऽवच्छेदकभेदकल्पनोपयुज्यते । वक्तव्यत्वाभावश्च स्वरूपत एवाऽप्रसिद्धः कथमवच्छेदकसम्वन्धितामासादयेत् ?” इति तदतिमन्दम्, कथञ्चिदस्तित्वनास्तित्वोभयाव्यतिरिक्तस्याऽवक्तव्यत्वस्योक्तयुक्त्याऽवश्याभ्युपगन्तव्यत्वात् तस्य च धर्मिणि सत्ताऽस्तित्वनास्तित्वोभयावच्छेदकावच्छेद्यैवेत्यतिरिक्तावच्छेदककल्पनाया अभावाच्च । यदप्युक्तं ““अस्तु वाऽवक्तव्यत्वं यत्किञ्चित्, तत्प्रतिपादको यथा तुरीयभङ्गस्तथा वक्तव्यत्वमप्यस्तित्वादिप्रत्येकनिमित्तापेक्षयाऽस्तीति तत्प्रतिपादकोऽप्यपरो भङ्गः स्वीकर्तव्यः स्यादित्यादि, तदप्यबोधविलसितम् । नहि स्याद्वादिनामयमभ्युपगमो यावन्तो धर्मा घटे सम्भवन्ति तावद्धर्मप्रतिपादकभा एकस्यां सप्तभङ्ग्यां निवेशनीया इति । तथा सत्यनन्तभङ्ग्येव स्यात्, किन्तु अस्तित्वादिप्रत्येकधर्माणां विधिनिषेधकल्पनया सप्तधर्मप्रतिपादिका सप्तभङ्गीत्येवाऽभ्युपगमः । अस्तित्वादिप्रत्येकनिमित्तापेक्षयेत्युक्त्या चाऽस्तित्वाद्यापेक्षिकत्वमेव वक्तव्यत्वे प्रतिपादितमिति तस्याऽस्तित्वादिविधिनिषेधानात्मकतया तत्प्रतिपादकभङ्गस्य तत्राऽनवसरः स्वयमेव सूचितः । ५९ ६“न हि यदेवाऽस्तित्वं नास्तित्वं वा तदेव वक्तव्यत्वम्" इत्यादिग्रन्थेन च वक्तव्यत्वस्याऽस्तित्वादितो भेदः कण्ठरवेणैवोक्तः । तेन च सुतरामेव तत्प्रतिपादकभङ्गस्याऽस्तित्वादिप्रतिपादकसप्तभट्ट्यामप्रवेशो निर्द्धारितो भवति । अवक्तव्यत्वं चोक्तदिशा कथञ्चिदस्तित्वनास्तित्वोभयात्मकमिति तस्य प्रस्तावः वक्तव्यत्वस्य च भवद्दर्शितदिशैव न प्रस्तावः । अतः सुष्ठुक्तं “ अत्र त्वस्तित्वनास्तित्वधर्माणामेव प्रस्तावः । अतोऽप्रस्तावावक्तव्यत्वप्रतिपादको भझे नाऽऽद्रियत इती" ति । यथा ह्यवक्तव्यत्वस्य कथञ्चिदुभयानतिरिक्तत्वमालम्व्य तत्प्रतिपादकभङ्गस्य सप्तभङ्ग्यां प्रवेशस्तथा वक्तव्यत्वस्य प्राधान्येन विवक्षितास्तित्वादिप्रत्येकाभेदमवलम्ब्य ७ १. पृ. २७, पं. २४ । २. पृ. २७, पं. २४ । ३. पृ. २८, पं. ५ । ४. पृ. २८ पं. १८ । ५ पृ. २८, पं. २० । ६. पृ. २८, पं. २१ । ७. पृ. २८, पं. २७ । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० सप्तभङ्गीप्रभा तत्प्रतिपादकभङ्गस्य किं न स्यात् ? न स्यात् । तथा सति योग्यतायाः स्वावच्छेदकरूपत्वमित्यस्याऽऽश्रयणीयत्वेनाऽस्तित्वादिप्रत्येकधर्मप्रतिपादकभड्रेनैव चारितार्थ्यात् । ___ यत्तु विकल्पितं “किञ्चोक्तविवक्षायां सत्यामयं धर्म उपतिष्ठते, अस्तित्वादिवद् यावत्सत्त्वं सन्नेव वा, कल्पनौपाधिको वा ?” इति तत्र द्वितीयकल्प एवाऽभ्युपगम्यते । तत्र यदुक्तं . २“अस्तित्वादिवत् तस्याऽपि प्रत्यक्षादिज्ञाने भानप्रसङ्गादित्यादि, तदचतुरस्रम्, प्रत्यक्षादीत्यादिपदग्राह्ये शाब्दज्ञाने सप्तभङ्गीमुपगच्छदिरस्माभिरवक्तव्यत्वस्य भानाभ्युपगमात्, एवं वाक्यरचनां प्रति वाक्यार्थज्ञानस्य कारणत्वेन सप्तभङ्गीप्रयोक्तुर्ज्ञाने तदानस्याऽवश्यम्भावात्, प्रत्येकमस्तित्वनास्तित्वयोः प्रत्यक्षज्ञाने प्रतिभाने कथञ्चित् तदभिन्नस्याऽवक्तव्यत्वस्याऽपि तत्र प्रतिभासाच्च । अवक्तव्यत्वादिधर्मभाने स्याद्वादव्युत्पत्तेरपि प्रयोजकतया स्याद्वादाव्युत्पन्नस्य प्रत्यक्षादिज्ञाने तदप्रतिभासेऽपि तद्व्युत्पन्नस्य ज्ञाने तत्प्रतिभासस्य न्याय्यत्वात् । अत एव श्रीमद्भिर्यशोविजयोपाध्यायैर्महावीरस्तवे प्रत्यभिज्ञाविचारे “पर्यायतो युगपदप्युपलब्धभेदं, किं न क्रमेऽपि हि तथेति विचारशाली । स्याद्वादमेव भवतः श्रयते स भेदा-भेदक्रमेण किमु न स्फुटयुक्तियुक्तम् ।। प्र०का० ।।२७।।" इति पद्येन शाब्दबोधातिरिक्तस्याऽपि प्रत्यभिज्ञानस्य सप्तभङ्गीसमधिरूढयावद्धर्मावभासित्वमावेदितम्, व्युत्पादितं चैतदेव तट्टीकायां न्यायखण्डखाद्याभिधायां तैरेव “स्याद्वादव्युत्पत्तेः क्वेहोपयोगः ? शाब्दवोध एव तदुपयोगादिति चेत्, न, स्वप्रभवसंस्कारोत्पन्नमतिज्ञानद्वारा तत्र तदुपयोगात् । अत एव कारणसाम्राज्यमपि दर्शितम् । तथाऽनुभवस्मरणयोः स्वप्रयोज्यक्षयोपशमद्वारकयोस्तथाप्रत्यभिज्ञानकारणयोः सत्त्वात्, उद्देश्यविधेयभावविपर्यासस्याऽप्यैच्छिकत्वात्, वस्तुतः कररेखाविशेषवान् शतवर्षजीवीत्युपदेशश्रवणानन्तरमयं कररेखा विशेषवानिति ज्ञाने सति यथाऽयं शतवर्षजीवीति सङ्कलनात्मकं प्रत्यभिज्ञानं, तादृशविषये मानान्तरानवकाशात्, तथा सर्वं वस्तु सप्तभङ्गीसमधिरूढधर्मात्मकमित्युपदेशं श्रुतवत इदं वस्त्विति ज्ञानानन्तरमेवेदं सप्तभङ्गीसमधिरूढतत्ताश्रयाभिन्नमिति प्रत्यभिज्ञानं व्युत्पन्नानां न दुर्घटमिति दिग्” इति ग्रन्थेन । यदा च परोक्षज्ञाने प्रत्यभिज्ञाने क्षयोपशमविशेषात् स्याद्वादव्युत्पत्तिसहकृतात् सप्तभङ्गीसमधिरूढधर्मनिकरप्रतिभानं युक्तितो निष्टङ्कितं तदा प्रत्यक्षेऽपि तथैव सामग्रीसम्पत्त्या तथाभानस्य को वारयितेति विदाकुर्वन्तु सुधियः । केवलज्ञानं तु विस्तरतः सूरिभिस्तद्ग्रन्थेषु व्यवस्थापितमेवेति विस्तरभयान्न तत्र प्रयत्यत इति तत्राऽवक्तव्यत्वप्रतिभासो नाऽपहस्तयितुं शक्यः । अव्यक्तव्यत्वं हि कथञ्चिदेवाऽभिमतमिति तस्याऽवक्तव्यशब्दप्रतिपाद्यत्वं सम्भवत्येव । यत्तूक्तं ३“कल्पनाकोशस्याऽस्खलितप्रचारत्वेन यथाऽवक्तव्यत्वं भवता प्रकल्पितं तथा युगपत्प्राधान्यविवक्षायां तथा ज्ञातुमशक्यत्वेनाऽज्ञेयत्वं प्रकल्प्य स्यादज्ञेय एव घट इति भङ्गोऽपि किं नाऽङ्गीक्रियते ?” इति, तत् १. पृ. २९, पं. ४ । २. पृ. २९, पं. ९ । ३. पृ. २९, पं. १४ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भङ्ग काल्पनिकत्वस्याऽवक्तव्यत्वेऽनभ्युपगमादेव निरस्तम् । किञ्च यथा दधिमधुदुग्धद्राक्षागुडसितादीनां मधुररसे वैलक्षण्यं रसनेन्द्रियेण सर्वैरपि प्रतिपत्तृभिर्ज्ञायते न तु वक्तुं शक्यते, तादृशस्याऽन्योन्यवैलक्षण्यप्रतिपादकवचनस्याऽभावात्; नैतावता तस्याऽभाव एव, अनुभूयमानस्याऽन्योन्यवैलक्षण्यस्याऽपलपितुमशक्यत्वात् । एवं पानकरसेष्वनेकजातीयेषु रसवैलक्षण्यं प्रत्युपभोक्तृ प्रतीयते, न तु वक्तुं शक्यते, नाऽपि तादृशवैलक्षण्यप्रतिपादकस्य वचनस्य सर्वथाऽभाव एव । तथा सति सजातीयं पानकरसमनुभवतामन्योन्यसंवादस्याऽभाव एव स्यात् । तथा युगपद्धर्मद्वयप्राधान्यविवक्षायामेकेन पदेन वक्तुमशक्यत्वेऽपि ज्ञातुं शक्यत एवेति नाऽज्ञेयत्वप्रतिपादकभङ्गस्याऽवकाशः । ६१ यदपि “किञ्च विवक्षाऽपि सैव युज्यते यया वचनप्रतिघातो न भवति । सहार्पितास्तित्वनास्तित्वविवक्षा तु नैवंभूतेति परित्यज्यतां सैव । नैतदनुरोधेन तुर्यादिभङ्गकल्पना युक्तिमती”ति, तदपि न समीचीनं, युगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वोभयविवक्षया स्यादवक्तव्य एव घट इति वचनप्रवृत्तेः सम्भवेन तादृशविवक्षाया वचनप्रतिघातकत्वाभावात् । वस्तुतः स्यादवक्तव्य एव घट इति वचनप्रवृत्तिमूलस्य कथञ्चिदवक्तव्यत्वप्रकारकघटविशेष्यकज्ञानस्य वक्तुं सत्त्वेन प्रतिपाद्यस्य संशयजिज्ञासाभ्यां तादृशज्ञानमिष्टमित्यवगत्य तत्प्रवणं वचनं पराववोधनप्रवृत्तस्य ममेष्टसाधनमिति ज्ञानाद् विवक्षया स्यादवक्तव्य एव घट इति भोल्लासे न दूषणकणस्याऽवकाशः । प्रतिपाद्यस्य तु स्याद्वादापरिकर्मितबुद्धेः सप्तभङ्गीसमुत्थवोधात् प्रागवक्तव्यत्वज्ञानाभावे विशेषोपस्थित्यभावान्नाऽवक्तव्यत्वत्वेन रूपेणाऽवक्तव्यत्वे संशयः सम्भवति । तथाऽपि क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयस्य तृतीयभङ्गेन ज्ञाने वृत्तेः प्राधान्येन सहार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयस्योपस्थितिसम्भवेन तद्विषयकसंशयः सम्भवत्येव, स एव चाऽवक्तव्यत्वसंशयः । यद्वा वेदान्तनये यथा सत्त्वासत्त्वयोरनुपपत्त्याऽवक्तव्यत्वस्य घटादावुपगमस्तथा प्रत्येकं सत्त्वमसत्त्वं क्रमार्पितसत्त्वासत्त्वोभयं चोपपादयतां भवतां मते घटादाववक्तव्यत्वमस्ति न वेति संशयस्तज्जन्या जिज्ञासा च सम्भवत्येव । तेन २५ यतो यदि सहार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयं वक्तुमशक्यं तर्हि प्रश्नोऽपि वचनरूपस्तद्विषयकः कथं प्रवर्तेत ? न ह्यन्यः पृच्छाविषयोऽन्यश्चोत्तरविषयः” इत्याद्युक्तेर्नाऽवकाशः । अवक्तव्यत्वस्य कथञ्चिदस्तित्वनास्तित्वोभयाव्यतिरिक्तत्वस्योपपादितत्वेन " किञ्चाऽयं तुर्यभङ्गः कस्याऽवक्तव्यत्वमनुशास्ति ? किं घटस्योत युगपदर्पितयोरस्तित्वनास्तित्वयोरुत तन्निमित्तयोः स्वद्रव्यादिपरद्रव्याद्योः स्वस्वापेक्षानिमित्तसंवलितयुगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वविशिष्टस्य घटस्य वा ?” इति विकल्पानां तत्खण्डनानां च नोल्लासः । एतेनैव च “ किञ्च, अवक्तव्यत्वं यदि धर्मान्तरं तदाऽस्तित्वनास्तित्वादिधर्मप्रतिपादकसप्तभङ्गीप्रविष्टतुर्यभङ्गविषयस्य तस्य नित्यत्वानित्यत्वभेदाभेदादिप्रतिपादकसप्तभङ्गीप्रविष्टतुर्यभङ्गविषयात् तस्मादविशेषप्रसङ्गः" इत्यादिकमपि वचनं समाहितं भवति । अस्तित्वादिप्रतिपादकसप्तभङ्गयन्तर्गत १. पृ. २९, पं. १८ । २. पृ. २९, पं. २४ । ३. पृ. ३०, पं. ६ । ४. पृ. ३३, पं. १२ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ भङ्गप्रतिपाद्यस्याऽवक्तव्यत्वस्य कथञ्चिदस्तित्वनास्तित्वोभयात्मकत्वेन नित्यत्वादिप्रतिपादकसप्तभङ्गीप्रविष्टभङ्गप्रतिपाद्यस्य चाऽवक्तव्यत्वस्य कथञ्चिन्नित्यत्वानित्यत्वोभयात्मकत्वेनेत्येवमवक्तव्यत्वानामन्योन्यभेदस्य सुस्पष्टत्वात् । यदपि “किञ्चाऽवक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरत्वपक्षे तस्य निमित्तभेदेन विभिन्नस्याऽऽश्रयणे यथा द्वाभ्यां युगपदर्पिताभ्यामस्तित्वनास्तित्वाभ्यामेकस्य वस्तुनो विवक्षायां तादृशस्य शब्दस्याऽसम्भवादवक्तव्यत्वं, तथा त्रिभिर्युगपदर्पितैरस्तित्वनास्तित्वावक्तव्यत्वैरेकस्य वस्तुनो विवक्षायां तादशस्य शब्दस्याऽसम्भवादवक्तव्यत्वान्तरं स्यादेव, युक्तेस्तौल्यादि”त्यादि, तदपि प्रलापमात्रम् । युगपदर्पितमस्तित्वनास्तित्वोभयमेव हि वक्तव्यकक्षामनासादयदवक्तव्यत्वरूपतां विभ्रति । तस्य पुनः कीदृशं युगपदर्पणम् ? क्रमार्पणमपि तस्य नाऽस्त्येव । तथा सति तस्य स्वरूपमेवोच्छिद्येत । पञ्चमादिभङ्गप्रवृत्तिस्तु न तस्य क्रमार्पणमवलम्व्य, किन्त्वस्तित्वेन नास्तित्वेन चैकैकेन सह युगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वोभयविवक्षातः पञ्चमषष्ठयोः क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वाभ्यां सह युगपदर्पितास्तित्वनास्तित्वोभयविवक्षातः सप्तमस्य च प्रवृत्तिरिति । एवं चाऽवक्तव्यत्वस्य क्रमार्पणयुगपदर्पणयोरभावेऽपि पञ्चमादिभङ्गानां सम्भवेन एवं सति क्रमार्पणमपि धर्मान्तरेण सह तस्य माऽस्तु । च स्यादस्ति स्यादवक्तव्यश्चेत्यादयोऽपि भझ विलीयेरन्" इत्यादिकं प्रतिविहितमववोद्धव्यम् । सप्तभङ्गप्रभा यच्च ३" किञ्चाऽवक्तव्यत्वस्य यदि धर्मान्तरेण सह युगपदर्पणं नैवाऽभिमतमायुष्मतः, कथं तर्हि स्याद्वक्तव्यो घटः १, स्यादवक्तव्यो घटः २, स्याद्वक्तव्योऽवक्तव्यश्च घटः ३, स्यादवक्तव्यो घटः ४, स्याद्वक्तव्योऽवक्तव्यश्च घटः ५, स्यादवक्तव्योऽवक्तव्यश्च घटः ६, स्याद्वक्तव्योऽवक्तव्योऽवक्तव्यश्च घटः ७, इतीयं सप्तभङ्गी सूपपादा?” इत्युक्तम् तदज्ञानविलसितम् । अस्तित्वादिप्रतिपादक सप्तभङ्गीप्रविष्टभङ्गप्रतिपादकस्याऽवक्तव्यत्वस्यैव युगपदर्पणं क्रमार्पणं च नाऽभ्युपगच्छामः । तस्य विधिनिषेधभावापनतत्तद्धर्मद्वयस्य युगपदर्पणतो निष्पन्नस्वरूपस्य कथञ्चित् तत्तद्धर्मद्वयात्मकत्वमेव । यथा चाऽस्तित्वनास्ति. त्वादयो धर्मा घटे वर्तन्ते तथा वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वादयोऽपि धर्मा अस्तित्वादिभ्यो भिन्नास्तत्र वर्तन्ते । तादृशधर्मकदम्वप्रविष्टो यो वक्तव्यत्वप्रतिषेधरूपोऽवक्तव्यत्वधर्मस्तस्य च क्रमार्पणं युगपदर्पणं चाऽभ्युपगच्छाम इति वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वादिधर्मप्रतिपादिका सप्तभङ्गी युक्तैव । यथा दधिमधुदुग्धद्राक्षासितादीनां माधुर्येऽस्ति परस्परं वैलक्षण्यं, यदापामरमनुभववीथीमुपगच्छति, न तु वक्तव्यकोटिमुपयाति; तथा घटादावप्यवक्तव्यधर्मसम्बन्धादस्त्यवक्तव्यत्वं, तस्य चाऽवक्तव्यत्वस्याऽपेक्षानिमित्तान्तरमुरीक्रियत एव । भवन्ति हि घटादयो वक्तव्यघटत्वादिधर्मापेक्षया वक्तव्या, अवक्तव्यधर्मापेक्षया अवक्तव्या इति । एवं व्युत्पन्नवक्त्रपेक्षया घटादयो वक्तव्या भवन्ति, बालमूकाद्यपेक्षया पुनरवक्तव्या इति । तयोश्च वक्तव्यत्वावक्तव्यत्वयोर्युगपदर्पितत्वे यदवक्तव्यत्वं तुर्यभङ्गविषयतामासादयति तदुक्तयुक्त्या तदुभयरूपतामाभेजानं न निमित्तान्तरपेक्षत इति सर्वं सुस्थम् । १. पृ. ३४, पं. २ । २. पृ. ३४, पं. २२ । ३. पृ. ३५, पं. ४ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा तस्मात् तुरीयभङ्गप्रतिपाद्यस्याऽवक्तव्यत्वस्य सिद्धिनिप्प्रत्यूहैव, तेन "तदभावे त्रयोऽपि तदधीनसिद्धिका अग्रिमभङ्गा दूरोत्सारिता एवे"ति वचनस्य नाऽवकाशः । __ यद्यपि, यथा हि केचिदस्तित्वमेव, केचिन्नास्तित्वमेव, केचिदस्तित्वे सति नास्तित्वमेव, केचिदवक्तव्यत्वमेवैकान्तेन प्रतिपन्नास्तेषां विपर्ययोन्मूलनायाऽनेकान्तप्रतिपादकानां स्यादस्त्येवेत्यादिभङ्गानां चतुर्णां प्रवृत्तिः; तथा केचिदस्तित्वे सत्यवक्तव्यत्वमेव, केचिन्नास्तित्वे सत्यवक्तव्यत्वमेव, केचिदस्तित्वे सति नास्तित्वे सत्यवक्तव्यत्वमेवेत्युरीकुर्वन्ति, तदेकान्तकदर्थनाय शेपा अपि त्रयो भङ्गा वक्तव्या एव । न चैभ्यो व्यतिरिक्ता धर्मा अस्तित्वविधिनिषेधभावापन्नास्तीर्थान्तरीयैरेकान्तेनोपगता विलसन्तीति कस्याऽनेकान्तववोधनायाऽष्टमभङ्गाधुन्मेष ? इति तावद्वस्तुगतिः । तथाऽपि परस्य शङ्कशुकतानिवृत्तये प्रक्रिया प्रदर्श्यते । तथा हि - विशेषणविशेष्याभ्यां कथञ्चिदिन्नाभिन्नानां विशिष्टात्मकधर्माणामालम्वनेन पञ्चमभङ्गादिप्रवृत्तिरिति पक्षे यदुक्तं २“भवन्मतेऽस्तित्वनास्तित्वयोरपि कथञ्चिद्वेद एव, तथा सत्यपि यथा तयोः क्रमार्पणं युगपदर्पणं चाऽऽदाय भङ्गान्तरप्रवृत्तिस्तथा विशिष्टान्तराणामपि स्यादिति तत्रोच्यते - अस्तित्वनास्तित्वयोः प्रतियोग्यनुयोगिभावसम्बन्धस्याऽऽवश्यकतया तदनुरोधेन सम्वन्धमात्रव्यापकस्य भेदाभेदस्याऽऽवश्यकत्वेऽपि न तस्य सप्तभङ्गयनुगुणत्वं, किन्तु विधिनिषेधात्मकत्वस्यैव । विशिष्टस्याऽपि च विधिनिषेधात्मकत्वोपपत्त्यर्थमेव विशेषणविशेष्याभ्यां कथशिद्वेदस्याऽऽदरः, न तु तावन्मात्रेण क्रमार्पणं युगपदर्पणं वा । ते त्वनुभवानुसारेणैव कल्प्येते । तथा हि - राज्ञः पुरुष इत्यत्र स्वत्वसंसर्गेण राजप्रकारकपुरुषविशेष्यकशाव्दवोधाभ्युपगन्तृविभक्त्यर्थसंसर्गतावादिमतापेक्षया स्वरूपसंसर्गेण राजस्वत्वप्रकारकपुरुषविशेष्यकशाव्दवोधाभ्युपगन्तृविभक्त्यर्थप्रकारतावादिमते राजस्वत्वाभाववान् पुरुषः सुन्दर इति प्रत्यक्षे विभिन्नविषयके तादृशशाब्दबोधसामग्र्याः प्रतिवन्धकत्वाकल्पनेन लाघवमिति विभक्त्यर्थप्रकारतावादिमतं तत्राऽऽद्रियते गदाधरप्रभृतिभिः । न तु ततोऽपि लाघवाद् राजस्वत्वस्वरूपतत्सम्वन्धतत्सम्बन्धादिपरम्पराप्रकारकपुरुषविशेष्यकशाब्दबोधाभ्युपगमो राज्ञः पुरुष इति वाक्यात् कस्यचित् । तत्र च किं नियामकमिति विमर्शेऽनुभवादृते न कश्चिन्नियामक उपलभ्यते । तथैकैकमस्तित्वं नास्तित्वं संवलितं च तदुभयमनुभूयते । तदनुरोधेन च तत्प्रतिपादका भङ्गा अभ्युपगम्यन्ते । क्रमार्पणयुगपदर्पणे च तदुपपादनप्रकारौ । न चाऽस्तित्वेन नास्तित्वेन वा संवलितं तृतीयपञ्चमादिभङ्गप्रतिपाद्यं विशिष्टमनुभूयते, अननुभूयमानमपि युक्तिसमालिङ्गितं यदि' स्यात् तदाऽपि तत्प्रतिपादका भङ्गाः प्रवर्तेरन् । ___ न चैवमपि, नीलोऽयं, घटोऽयं, नीलो घटोऽयमिति च प्रतीयते, न तु नीलो नीलो घटोऽयमिति, न वा नीलो घटो घटोऽयमिति । तत्र प्रथमेन नैल्यं द्वितीयेन घटत्वं तृतीयेन नैल्यघटत्वयोरिदमंशे सामानाधिकरण्यावगाहनतो विशिष्टस्वरूपमिति प्रतीयते । चतुर्थेन नैल्यसामानाधिकरण्यं, पञ्चमेन १. पृ. ३५, पं. १० । २. पृ. ३५, पृ. २१ । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ घटत्वसामानाधिकरण्यं वा यदवभास्यं विशिष्टस्वरूपे तत् केवलविशिष्टस्वरूपावभासनेनैवाऽवभासितमिति चतुर्थपञ्चमयोर्नाऽनुभवारूढत्वम् । एवं प्रकारानाश्रयणे नीलो नीलो घटोऽयमिति, नीलो घटो घटोऽयमित्यनयोः प्रसङ्गोऽपरिहार्य एव स्यात् । एवमस्तित्वनास्तित्वयोः परस्परमवक्तव्यत्वेन वा सह सामानाधिकरण्यमाश्रित्य यानि विशिष्टस्वरूपाणि निष्पन्नानि तेषामस्तित्वनास्तित्वान्यतरेण सह कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नानां प्रतिपादका भङ्गा उक्तान्यतरेण सहाऽभेदं स्वप्रतिपाद्यस्य विशिष्टस्य प्राधान्येनाऽवलम्बमाना एव विधिनिषेधकल्पनोपारूढायां सप्तभङ्ग्यां निविशन्ते, नान्यथा । अस्तित्वस्य नास्तित्वेन नास्तित्वस्य चास्तित्वेन प्राधान्येनाऽभेदमवलम्ब्य नैवाऽस्तित्वादिप्रत्येक धर्मप्रतिपादकभङ्गस्य प्रवृत्तिः, किन्तु तयोः साक्षाद्विधिनिषेधरूपत्वादेव । भङ्ग एवं च विशिष्टस्याऽस्तित्वेन सह प्राधान्येनाऽभेद आश्रित आत्माश्रयभयेनाऽस्तित्ववैशिष्ट्यं तत्र नाSSत्मानं लभते । नास्तित्वेन सह प्राधान्येनाऽभेद आश्रिते तत्राऽस्तित्ववैशिष्ट्यं प्रथमवैशिष्ट्याश्रितस्वरूपलाभवेलायामेव प्राप्तमिति पुनरुक्तत्वादेव नाऽऽत्मानमासादयति । एवं विशिष्टस्याऽप्येकस्य सिद्धस्य प्रसिद्धेन विशिष्टान्तरेण सह वैशिष्ट्यमुपादाय यद्विशिष्टान्तरमभ्युपेयम्, तत्राऽपि विशेषणीभूतस्य विशिष्टस्य विशेष्यीभूतस्य च विशिष्टस्य प्राधान्येनाऽस्तित्वनास्तित्वान्यतरेण सहाऽभेदविवक्षैव प्रकृतोपयोगिनी । तथा सत्यात्माश्रय - पुनरुक्तत्वाभ्यां तत्प्रतिपादकभङ्गस्याऽपि नाऽवकाशः । यद्यप्यवक्तव्यत्वस्याऽप्यस्तित्वादिना सह प्राधान्येनाऽभेदमवलम्ब्यैव तत्प्रतिपादकभङ्गस्य सप्तभङ्ग्यां प्रवेशः, अन्यथा विधिनिषेधानात्मकधर्मप्रतिपादकतया सप्तभङ्गीप्रवेशानुपपत्तिः । तथा च तस्याऽप्यस्तित्वादिना वैशिष्ट्यमवलम्ब्य विशिष्टान्तराणामात्माश्रय- पुनरुक्तत्वाभ्यां न सम्भवः, तथाऽपि प्रत्येकमस्तित्वनास्तित्वयोर्वक्तव्यस्वभावतायां तदभिन्नस्याऽवक्तव्यस्य वक्तव्यस्वभावतापत्त्या स्वस्वरूपहानिर्मा प्रसाङ्क्षीदित्यतो युगपदेवोभाभ्यामस्तित्वनास्तित्वाभ्यां सह तस्याऽभेदमवलम्व्य तद्भङ्गप्रवृत्तिः । अतस्तस्याऽस्तित्वादिवैशिष्ट्यं नाऽऽत्माश्रयादिकवलितमिति तथाविधविशिष्टान्तराणां सम्भवेन तत्प्रतिपादकभङ्गानां नाऽनवकाश इति । सप्तानां धर्माणामुपपादितत्वेन तद्वैलक्षण्यादेव प्रत्येकं सप्तभङ्गजन्यवोधवैलक्षण्यस्य सम्भवेन “यदि च विशिष्टपक्षो नाऽऽद्रियते” इत्याद्यवशिष्टपूर्वपक्षभागोऽनभ्युपगमपराहत एव इति दिक् । सेयं सप्तभङ्गी प्रतिपर्यायं सप्तधर्मप्रकारकवोधजनकतापर्याप्तिमद्वाक्यत्वरूपप्रमाणवाक्यत्वालिङ्गिता नयवाक्यसमूहान्वयाऽऽस्थेया, प्रमाणस्य नयविषयताव्यापकविषयताकत्वेन तद्वाक्यस्याऽपि नयवाक्यघटितत्वस्याऽवश्यम्भावात् । अत्र युक्तिसूत्रणसूत्रधाराः श्रीमन्तः सिद्धसेनदिवाकरा इत्थं नयविभागमादर्शयन्तिसङ्ग्रह-व्यवहार-र्जुसूत्र-शब्द-समभिरूढैवंभूतभेदान्नयाः षट् । तत्र आद्यास्त्रयोऽर्थनयाः शब्दाद्यास्त्रयश्च शब्दनयाः । तत्राऽर्थनयानाश्रित्य विचारेऽस्तित्वस्य सामान्यस्य सङ्ग्रहविषयत्वेन तत्प्रतिपादको भङ्गः सङ्ग्रहनयात् प्रवर्तते । सामान्यरूपस्याऽस्तित्वस्य विशेषग्राहिणो व्यवहारस्याऽविषयत्वेन तत्प्रतिपक्षभूतं नास्तित्वं तद्विषय १. पृ. ३५, पं. २६ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा इत्यतो नास्तित्वप्रतिपादको द्वितीयभङ्गो व्यवहारनयात् प्रवर्तते । अवक्तव्यत्वप्रतिपादकस्तु तृतीयस्थानाभिषिक्तो भङ्ग ऋजुसूत्रनयात् प्रवर्तते । यतः सङ्ग्रहव्यवहारौ न युगपदस्तित्वनास्तित्वे आदिशतः, अस्तित्वस्य सङ्ग्रहविषयत्वेऽपि नास्तित्वस्य तदविषयत्वात् । एवं नास्तित्वस्य व्यवहारविषयत्वेऽप्यस्तित्वस्य तदविषयत्वात् । ऋजुसूत्रस्तु युगपदस्तित्वनास्तित्वे आदेष्टुमर्हति । यद्यपि परमार्थतोऽस्तित्वनास्तित्वे परमार्थतो वर्तमानक्षणमात्रावगाहिन ऋजुसूत्रस्य न विषयः, तथाऽपि सांवृतत्वेन रूपेण ते तद्विषयतां गच्छत एव । कल्पितेनाऽपि रूपेण युगपदादिष्टयोस्तयोरवक्तव्यत्वप्रतिपादको भङ्गः पारमार्थिक एव, विषयस्याऽबाधितत्वात् । यथा धूमत्वेनाऽऽरोपिताद् धूलीपटलाल्लिङ्गादपारमार्थिकादपि वस्तुगत्या वह्निमति देशे वन्यनुमितिरवाधितविषयकत्वात् पारमार्थिकी । अस्य चतुर्थस्थानाभिषेकेऽपि मूलं ऋजुसूत्र एव । मिलिताभ्यामेव सङ्ग्रहव्यवहाराभ्यामवक्तव्यत्वभङ्ग इत्यपि केचित् । क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वप्रतिपादकश्च भङ्गः सङ्ग्रहव्यवहाराभ्यां प्रवर्तते, पञ्चमो भङ्गः सङ्ग्रहर्जुसूत्राभ्यां षष्ठो व्यवहारर्जुसूत्राभ्यां सप्तमो भङ्गः सङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रेभ्य इति । शब्दनयानाश्रित्य विचारे तु घटकुटकलशादिपर्यायभेदेऽपि घटरूपस्याऽर्थस्य न भेद इत्यभ्युपगन्तृशब्दनये घटवाचकयावच्छब्दवाच्यत्वरूपतापन्नमस्तित्वमनुगतं घटे वर्तत इति शब्दनयात् प्रथमो भङ्गः । पर्यायभेदेनाऽर्थभेदाभ्युपगन्तृसमभिरूढनये क्रियाभेदेनाऽर्थभेदाभ्युपगन्त्रेवम्भूतनये चोक्तास्तित्वाभावात् ताभ्यां द्वितीयो भङ्गः । शब्दनयस्य शब्दोपरक्तार्थवोधकत्वस्यैव न्याय्यत्वेनाऽवक्तव्यत्वभङ्गोऽत्र न सम्भवति, तेन तन्मिश्रिताः पञ्चमादिभङ्गा अप्यत्र न सम्भवन्ति । क्रमार्पितास्तित्वनास्तित्वप्रतिपादकस्तु भङ्गस्त्रिभ्यो नयेभ्यः, तथा च तद्वचनं सम्मती “ एवं सत्तविअप्पो वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । - वंजणपाए पुण सविअप्पो णिव्विअप्पो अ ||" प्र० का० ||४१ ।। इति, अर्थनय इत्यर्थः, वंजणपज्जाए इति अत्थपज्जाए इति शब्दय इत्यर्थः । सविअप्पो - पर्यायशब्दवाच्यतालक्षणविकल्पसहितः, वचनमार्ग इत्यनुवर्त्तते । अस्तित्वप्रतिपादकः प्रथमभङ्ग इति यावत् । निव्विअप्पो उक्तलक्षणविकल्परहितः, नास्तित्वप्रतिपादको द्वितीयभङ्ग इति यावत् । ननु नयानां न प्रमाणत्वम्, अनन्तधर्मात्मकवस्तुस्वरूपानवभासकत्वात्, नाऽपि भ्रमत्वं, वस्त्वंशनिर्णयरूपत्वेन विपरीतार्थावभासकत्वाभावात्, किन्तु तृतीयप्रकारत्वमेव । तथा च तन्मूलानां भङ्गानामपि प्रमाणाप्रमाणबहिर्भावे तत्समाहाररूपसप्तभङ्गयपि प्रमाणाप्रमाणवहिर्भूतैव स्यात् । न हि सप्तसु धर्मेष्वेव वस्तुतत्त्वविश्रान्ति:, येन सप्तधर्मप्रतिपादने तदधिकरणं वस्तुतत्त्वं प्रतिपादितं स्यात्, अनन्तधर्मात्मकतयैव वस्तुनो व्यवस्थितेः । एवं च मिलिता अपि सप्तधर्मा वस्त्वंशभूता एव । तावन्मात्रप्रतिपादकत्वेन सप्तभङ्गयाः प्रमाणवाक्यत्वे कोऽपराधस्तत्तद्वस्त्वंशप्रतिपादकानां विशकलितानां भङ्गानाम् ? तदनुसारेण च तत्तद्धर्मप्रकारकबोधजनकवाक्यत्वं प्रमाणवाक्यत्वमिति प्रमाणवाक्यस्य लक्षणं कर्तुं शक्यते । सप्तधर्मप्रकारक - ६५ - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा वोधजनकतापर्याप्तिमद्वाक्यत्वमित्युक्त लक्षण एव वा पर्याप्ति!पादेया, तावताऽपि प्रत्येकं भङ्गानां प्रमाणवाक्यत्वं भविष्यति । न चोक्तदिशा प्रमाणस्याऽपि प्रमाणवहि वो नयानां वा प्रमाणत्वं प्रसज्येतेति वाच्यम् । यदि हि नयसमूहात्मकतयैव प्रमाणस्योपगमः स्यात्, तदा स्यादप्येष दोषो, न चैवम् । किन्त्वनन्तधर्मात्मकवस्तुस्वरूपव्यवसायितयैव प्रमाणस्योपगमः । न च नयानामनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकत्वमिति न प्रमाणत्वप्रसङ्गः । इत्थं च सप्तभङ्गयाः प्रमाणवहिर्भावे तया स्वशिष्यादिप्रतिवोधनं वादिनं प्रत्युत्तरदानं चाऽसमञ्जसं प्रसक्तमित्याकुलीभूत एवाऽशेषतो जैनानां स्याद्वादराद्धान्तः । यत्र सप्तभङ्गीमृते शिष्यादिप्रतिबोधने नाऽन्यः कुशलोपायो, न वा वादिनामेकान्ततत्त्वाभिनिवेशोन्मूलने इति चेत्; __अत्रोच्यते, वादिनां शिष्यादीनां च निराकाङ्क्षप्रतिपत्त्युपजननकृतार्थतायामुपयोगितया सप्तधर्मप्रकारकबोधजनकतापर्याप्तिमद्वाक्यत्वलक्षणं प्रमाणवाक्यत्वं सप्तभङ्ग्या अभ्युपगम्यते । प्रमाजनकत्वलक्षणं च प्रामाण्यं तस्याः सकलादेशस्वभावत्वादेव, तत एव च तस्य न प्रमाणवहिर्भावः ।। न च प्रत्येकं भङ्गानां विकलादेशत्वेन तत्समाहाररूपा सप्तभङ्गी विकलादेशस्वभावैव स्यात्, न सकलादेशस्वभावेति वाच्यम् । स्यादस्त्येव घटः, स्यान्नास्त्येव घटः, स्यादवक्तव्य एव घट इति भङ्गत्रयाणां सकलादेशत्वस्य, तदिन्नानां चतुर्णां भङ्गानां विकलादेशत्वस्य च तत्त्वार्थटीकाकृदाद्यनुमतत्वेन त्रीन् भानपेक्ष्य सकलादेशस्वभावत्वेन प्रमाणवाक्यत्वस्य चतुरो भानपेक्ष्य विकलादेशस्वभावत्वेन नयवाक्यत्वस्य च सप्तभङ्गन्याः स्वीकारात् । अत एवेयं प्रमाणसप्तभङ्गी नयसप्तभङ्गीति च गीयते । एतेन शिष्यादिप्रतिबोधनायैकान्तमतकदर्थनाय चोपास्यतां नामेयं सप्तभङ्गी । तस्याः सकलादेशस्वभावत्वस्य विकलादेशस्वभावत्वस्य चोपवर्णनं जलताडनादिवदनतिप्रयोजनमेवेति शङ्का निरस्ता, सकलादेशस्वभावत्वमन्तरेण प्रमाणवाक्यत्वस्याऽभावेनाऽप्रमाणवाक्येन शिष्यादिप्रतिवोधनस्य वादिविजयस्य चाऽपर्यवसानात्, विकलादेशस्वभावत्वमन्तरेण च नयवाक्यत्वस्याऽभावे नयसमुत्थभङ्गसमाहाररूपत्वस्याऽप्यभावप्रसङ्गात् । नन्वस्तित्वनास्तित्वावक्तव्यत्वप्रतिपादकभङ्गानां तत्तन्नयसमुत्थानां तत्तन्नयसमानविषयत्वमेव युक्तं, तथा च भङ्गान्तराणामिव विकलादेशत्वमेव स्यात्, न तु सकलादेशत्वमिति चेत्; मैवम्, अखण्डवस्तुविषयत्वेन त्रिषु भड्नेषु सकलादेशत्वस्यैकदेशविपयत्वेन चतुर्यु भङ्गेषु विकलादेशत्वस्य च तैरुपगमात्, तादृशस्य च सकलादेशत्वस्य नयसमुत्थत्वेऽप्यविरोधात् । न चैवमीदृशसकलादेशत्वस्याऽभ्युपगमेऽपि प्रमाणवाक्यत्वस्य ततोऽप्राप्तिरित्येकं सीव्यतोऽपरप्रच्युतिरिति वाच्यम् । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ सप्तभङ्गीप्रभा अखण्डवस्तुभाने सति कालादिभिरष्टभिरभेदवृत्त्याऽभेदोपचारेण वा तद्वस्तुगतानामशेपधर्माणां तद्वस्तुगतैकधर्मेण सहैकात्म्यमुपगतानां भानसम्भवादनन्तधर्मात्मकवस्तुविषयकत्वस्य स्वजन्यवोधे सम्भवेनाऽऽद्यभङ्गत्रयाणां प्रमाणवाक्यत्वस्योपपत्तेः । विशिष्टप्रतिपादकतया धर्मद्वयादिप्रतिपादकतया वोपगतेषु चतुर्पु भङ्गेषु नैवं प्रमाणवाक्यत्वस्योपपत्तिः । यतो विशेषणीभूतधर्मस्य विशेष्यीभूतधर्मेण सह भेदविवक्षामन्तरेण विशिष्टस्वरूपस्यैव न निष्पत्तिः, न वा धर्मद्वयाधुक्तिरपि घटत इति कस्य प्रतिपादकास्ते भङ्गा भवेयुः ? ततस्तन्मूलतया धर्माणां भेदवृत्तिः पर्यायार्थिकनयादेशाद्भेदोपचारो वा द्रव्यार्थिकनयादेशादवश्यं स्वीकर्तव्यः । तथा च कथं यदैव येषां धर्माणां पर्यायार्थिकनयादेशात् कालादिभिरष्टभिर्भेदवृत्तिर्द्रव्यार्थिकनयादेशाद्वा भेदोपचारस्तदैव तेषां धर्माणां कालादिभिरष्टभिर्द्रव्यार्थिकनयादेशादभेदवृत्तिः पर्यायार्थिकनयादेशादभेदोपचारो वा घटते ? अतश्चतुर्यु भङ्गेषु नाऽनन्तधर्मात्मकवस्त्ववबोधकत्वमिति नयवाक्यत्वमिति तत्त्वार्थटीकाकृत्प्रभृतीनामभिप्रायः । वादिदेवसूरिप्रभृतयस्तु सप्तभङ्गयाः प्रतिभङ्गं सकलादेशस्वभावत्वं विकलादेशस्वभावत्वं चाऽभ्युपगच्छन्ति । तन्मते एकधर्मबोधनद्वारा तदात्मकाशेषधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वम्, एकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वमिति । ननु एकधर्मप्रतिपादनद्वारा तदात्मकानन्तधर्मप्रतिपादनमेव दुर्घटम्, उपायाभावात् । अन्यथैकधर्मात्मकवस्तुविषयकवोधजननदशायामप्यनन्तधर्मात्मकवस्तुविषयकवोधजननापत्त्या सकलादेशत्वमेव स्यात्, न विकलादेशत्वमिति चेत् । मैवम्, एकधर्मप्रतिपादनद्वारा तदात्मकानन्तधर्मप्रतिपादने द्रव्यार्थिकनयेन कालादिभिरष्टभिः श्रुतधर्मेण सह धर्मान्तराणामभेदवृत्तेः पर्यायार्थिकनयेनाऽभेदोपचारस्य वोपायस्याऽभ्युपगमात् । एवमेकधर्मात्मकवस्तुविषयकवोधजनने पर्यायार्थिकनयेन कालादिभिरष्टभिः श्रुतधर्मेण सह धर्मान्तराणां भेदवृत्तेर्द्रव्यार्थिकनयेन भेदोपचारस्य वा नियामकत्वमवसेयम् । इदमत्र बोध्यम् - स्यादस्त्येव घट इति भङ्गजन्यवोधनिरूपिता विपयताद्वयी लौकिकी अलौकिकी च, तत्राऽस्तिपदप्रयोज्याऽस्तित्वनिष्ठा विषयता लौकिकी, अस्तित्वगतानन्तधर्मात्मकत्वविपयता स्यात्पदसमभिव्याहृताऽस्तिपदप्रयोज्याऽनन्तधर्मात्मकत्वविषयता वा स्यात्पदप्रयोज्याऽलौकिकी । अस्यां च द्रव्यार्थिकनयेनाऽभेदवृत्तेः पर्यायार्थिकनयेनाऽभेदोपचारस्य वा प्रतिसन्धानं प्रयाजकमिति न स्याद्वादापरिकर्मितबुद्धेर्न वा पर्याययार्थिकनयेन भेदवृत्तेर्द्रव्यार्थिकनयेन भेदोपचारस्य वा प्रतिसन्धानदशायामनन्तधर्मप्रतिभासः । यत्रैव लौकिकी विषयता तदाकारमुपादायैव ज्ञानस्योल्लिख्यमानत्वमिति पथमभङ्गादिजन्यबोधानां कथञ्चिदस्तित्वाद्याकारोल्लेखशेखरत्वम् । कालादयश्च - “कालात्मरूपसम्बन्धाः, संसर्गोपक्रिये तथा । गुणिदेशार्थशब्दाश्चे-त्यष्टौ कालादयः स्मृताः ।।१।।" Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सप्तभङ्गीप्रभा इति कारिकया सगृहीताः समवसेयाः । तत्र कालेनाऽभेदवृत्तिः – यस्मिन् काले घटेऽस्तित्वरूपा धर्मस्तस्मिन्नेव काले शेषा अनन्ता अपि धर्मा वर्तन्ते । न ह्यनधिकरणीभूतः कालोऽवच्छेदको भवितुमर्हतीति सर्वेषामेव धर्माणामवच्छेदकीभूतः कालोऽधिकरणतयाऽभ्युपेयः । अधिकरणत्वं च नाऽनतिप्रसक्तं सम्वन्धमृते । सम्बन्धश्च कालेन सह सर्वेषामेव धर्माणां स्वरूपमेव, अन्यस्य दुर्वचत्वात् । तदपि भेदाभेदात्मकाविष्वग्भाव एव पर्यवस्यति । एवं चैतदनुरोधेन येन कालेन सहैकस्य धर्मस्याऽभेदस्तेनैव कालेन सह धर्मान्तराणामपीति तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वमिति नियमेनाऽस्तित्वधर्माभिन्नेन कालेन सहाऽभिन्नानां नास्तित्वादीनामस्तित्वाभिन्नत्वमिति कालेनाभेदवृत्तिः । तदाश्रयणे च यदेवाऽस्तित्वं तदेव नास्तित्वादीत्यस्तित्वप्रतिपादनद्वाराऽशेषधर्मप्रतिपादनमिति सकलादेशत्वं निर्वहति । नन्वेवं यत्काले घटेऽस्तित्वादयो धर्मा वर्तन्ते तत्काले पटादावप्यस्तित्वादयो धर्मा वर्तन्त इत्युक्तयुक्त्या पटाद्यशेषधर्मिगताशेषधर्माणां घटगतास्तित्वेन सहाऽभेद: प्राप्नोतीति स्यादस्त्येव घट इति भङ्गजन्यज्ञानवतः सर्वज्ञत्वं स्यादिति चेत् - अत्र केचित् – एककालावच्छिन्नैकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वं कालेनाऽभेदवृत्तिरित्याहुः । तथा च धर्म्यन्तरगतधर्मान्तराणां घटगतास्तित्वेन सहैककालावच्छिन्नैकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वरूपकालाभेदवृत्त्यभावान्नैकभङ्गजन्यज्ञानवतः सार्वझ्यापत्तिरित्याशयः । अत्र चाऽधिकरणविधया द्रव्यरूपार्थस्य प्रवेशादर्थेनाऽभेदवृत्तिरप्यत्रैव गतार्था स्यादिति चिन्त्यम् । वस्तुतो भवतु धर्म्यन्तरगतधर्मान्तराणामपि घटगतास्तित्वेन सह कालेनाऽभेदवृत्तिः, तथाऽपि विशेष्यीभूते घटे तेषां सम्बन्धाभावेन योग्यताविरहादेव न तत्तदङ्गजन्यवोधे भानमिति न सर्वज्ञतापत्तिः । न च, साक्षात्सम्बन्धाभावेऽपि परम्परासम्वन्धसत्त्वात् तेन योग्यतया तेषामपि भानापत्तिरिति वाच्यम् । इष्टत्वात्, घटादीनामनन्तधर्मात्मकत्वात् । तन्मध्ये परम्परासम्वन्धिनामपि प्रवेशात् । ईदृशं च सर्वज्ञत्वमिष्टमेव । अत एव ‘एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन दृष्टाः' इत्यादिवचनमपि सङ्गच्छते । यद्वा नवपुराणादिभावेन परिणतो घटादिरेव वर्तनालक्षणः कालः । एकस्यैव वस्तुनो द्रव्यविधयाऽधिकरणत्वं कालविधयाऽवच्छेदकत्वं च न विरुध्यते, धर्म-धर्मिणोश्चाऽभेदाद् धर्मिकाल एव धर्मकालः । एवं च घटगतयावद्धर्मकालश्च घटस्यैव नवपुराणादिभावलक्षणो न पटस्य, पटगतधर्मकालश्च पटस्यैव नवपुराणादिलक्षणो न घटस्येति, पटगतधर्माणां घटगतास्तित्वेन सह कालेनाऽभेदवृत्त्यभाव एवेति न कश्चिद्दोषः । अथवा कालादिभिरष्टभिरेवाऽभेदवृत्तिः सकलादेशत्वोपपादिका, न तु कालाद्येकैकमात्रेणाऽभेदवृत्तिस्तथा । तथा चाऽन्यगतधर्माणां कालेनाऽभेदवृत्तिसत्त्वेऽप्यर्थादिनाऽभेदवृत्त्यभावान्न भानप्रसङ्ग Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्ग इति वोध्यम् । आत्मरूपेणाऽभेदवृत्तिरेवम् - अस्तित्वस्याऽऽत्मरूपं घटगुणत्वं यदेव तदेव नास्तित्वादीनामपीत्यस्तित्वाभिन्नघटगुणत्वाभिन्नानां नास्तित्वादीनामस्तित्वाभिन्नत्वमिति तेनाऽस्तित्वप्रतिपादनमुखेन नास्तित्वाद्यशेषधर्मप्रतिपादनम् । अत्राऽपि घटरूपस्याऽर्थस्य प्रवेशमन्तरेणाऽप्युपपत्तिः पूर्ववदवसेया । सम्बन्धेनाऽभेदवृत्तिर्यथा य एवाऽभेदप्रधानो गुणीभूतभेदः कथञ्चित्तादात्म्यलक्षणोऽविष्वग्भावः सम्वन्धी घटेऽस्तित्वस्य स एव नास्तित्वादीनामपि । सम्वन्धश्च सम्बन्धिनोः सम्वद्ध एवाऽतिप्रसङ्गभयाद् वाच्यः । सम्बन्धिभ्यां सह सम्वन्धश्च तस्य स्वरूपात्मक एवाऽनवस्थाभयादास्थेयः एवं चाऽस्तित्वाभिन्नाविष्वग्भावलक्षणसम्वन्धाभिन्नत्वान्नास्तित्वादीनामस्तित्वाभिन्नत्वमिति । कथञ्चित्तादात्म्यलक्षणोऽविष्वग्भाव एव भेदप्रधानो गुणीभूताभेदश्च संसर्ग इत्युच्यते । तेनाऽभेदवृत्तिः सम्वन्धाभेदवृत्तिवद् बोध्या । ६९ ननु प्रमाणविपयीभूत एवाऽविष्वग्भावः सम्वन्धतां संसर्गतां च वास्तवीमासादयितुमर्हति नाऽन्यथा । प्रमाणविपयता चाऽविष्वग्भावस्य धर्मधर्मिणोरेकान्तभेद एकान्ताभेदे च सम्बन्धायोगाद् वाच्या । तथा च तत्र भेदाभेदयोः समप्रधानभाव एव युक्तो, नैकस्य प्राधान्यमन्यस्य च गौणत्वम् । प्रमाणवलादेव समप्राधान्येन तयोरेकत्र सत्त्वं नाऽनुभवविरुद्धम् । एवं च गुणीभूतभेदस्य गुणीभूताभेदस्य चाऽविष्वग्भावस्य प्रमाणगोचरचरिष्णुत्वाभावात्सत्त्वमेव नास्ति, कस्य सम्वन्धत्वं संसर्गत्वं च स्यात् ? दूरत एव ताभ्यामभेदवृत्तिः । यदि च द्रव्यार्थिकनयेनाऽभेदस्य प्राधान्यं भेदस्य च गौणत्वमिति कृत्वाऽविष्वग्भावः सम्वन्धतास्पदं भवति, पर्यायार्थिकनयेन च भेदस्य प्राधान्यमभेदस्य गौणत्वमिति कृत्वा स एवाऽविष्वग्भावः संसर्गतामासादयति, ततश्च ताभ्यामभेदवृत्तिः सङ्गतैवेति विभाव्यते, तर्हि प्रमाणावलम्वनेन भेदाभेदौ समप्रधानभावेन क्रोडीकृत्याऽ विष्वभावस्य तृतीयाऽपि कोटिः स्यादिति तद्द्वाराऽप्यभेदवृत्तिः सम्भवतीति तदनभिधानान्न्यूनता स्यादिति चेत्; सत्यं, प्रमाणविषयीभूत एवाऽविष्वग्भावः सम्वन्धः संसर्गश्च भेदासहिष्णोरभेदस्याऽभेदासहिष्णोर्भेदस्य चाऽविष्वग्भावरूपत्वासम्भवात् । समानाधिकरणौ भेदाभेदौ तथेति वक्तव्यम् । एतच्च द्विधोपपद्यते - भेदाधिकरणवृत्तिरभेदोऽभेदाधिकरणवृत्तिश्च भेद इति । तथा च प्रथमे भेदस्य विशेषणत्वं गुणत्वभेदस्य च विशेष्यत्वं प्राधान्यं द्वितीये त्वभेदस्य विशेषणत्वं गुणत्वं भेदस्य च विशेष्यत्वं प्राधान्यमिति नाऽऽभ्यामन्योऽ विष्वग्भावस्य तृतीयः प्रकारः समस्ति । न च भेदाभेदोभय एवोभयत्वेन रूपेण तृतीयः प्रकारः सम्भवतीति वाच्यम् । समानाधिकरणोभयस्यैकविशिष्टापररूपतायामेव विश्रामात्, व्यधिकरणस्य च भेदाभेदोभयस्यैकसम्वन्ध्यसम्बद्धत्वेन सम्वन्धत्वसामान्यस्यैवाऽभावेन तद्व्याप्यस्याऽविष्वग्भावत्वस्य सुतरामभावादिति । ननूक्तदिशा भवत्वविष्वग्भावस्य सम्बन्धरूपता संसर्गरूपता च । तथाऽपि सम्वन्धेनाऽभेदवृत्तेः संसर्गेणाऽभेदवृत्तेश्चाऽविष्वग्भावेनाऽभेदवृत्तिरित्युक्त्यैव सङ्ग्रहसम्भवेन पृथक्तया तयोराश्रयणे किं वीजमिति चेत्; Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा शृणु, अभेदो वस्तुमात्रे एकत्वं भेदश्च वस्तुमात्रे नानात्वमित्यभेदरूपेणाऽवगतं वस्त्वेकस्वरूपतयाऽवगतं भवति, भेदरूपेणाऽवगतं च नानास्वरूपतया । तथाऽवगम एव च वस्तुनः परिपूर्णतयाऽवगतिर्युज्यते । एवं च नानैकस्वभावस्याऽस्तित्वस्य नानैकस्वभावैर्नास्तित्वादिभिः सहाऽभेदस्योपपत्तयेऽ विष्वग्भावाभेदद्वारस्याऽऽश्रयणेऽविष्वग्भावस्य प्रकारद्वयसम्भवेऽपि तत्सामान्याभेदेन नाऽवश्यं तत्प्रकारद्वयाभेदप्राप्तिः सम्भवति । नहि वह्निरयमित्युक्त्या पर्वतीयवह्न्यादियावद्विशेपव्यक्त्यभेदप्राप्तिरिदमंशे । तथा चाऽविष्वग्भावाभेदस्य स्वैकप्रकाराभेदमात्रेणोपपत्तौ तद्द्वाराऽस्तित्वनास्तित्वादीनामप्यभेदोऽभेदांशं भेदांशं वा स्वस्याऽऽश्रित्य स्यादिति न नानैकस्वभावतया नास्तित्वाद्यशेषधर्माणामस्तित्वावगममुखेनाऽवगम इति न परिपूर्णार्थावबोधः । सम्बन्धेनाऽभेदवृत्तेः संसर्गेणाऽभेदवृत्तेश्च पृथग्भावेनाऽऽश्रयणे च सम्बन्धाभेदद्वाराऽस्तित्वनास्तित्वादीनामभेदेऽस्तित्व-नास्तित्वाद्यशेषधर्मगतैकत्वांशस्य संसर्गाभेदद्वाराऽभेदे चाऽस्तित्वनास्तित्वाद्यशेषधर्मगतनानात्वांशस्य चाऽवबोध इति भवत्युक्तद्वारा परिपूर्णार्थाववोध इति । ७० एतेन यद्यविष्वग्भावस्य द्वौ प्रकारौ सम्भवत इत्येतावतैव सम्बन्धसंसर्गयोः पृथगुपादानं तर्त्यात्मरूपेणाऽभेदवृत्तिरित्यस्य यथा यदेवाऽस्तित्वस्य घटगुणत्वं स्वरूपं तदेव नास्तित्वादीनामपि स्वरूपमित्येकस्वरूपत्वमात्मरूपेणाऽभेदवृत्तिरित्येवं स्वरूपमुपवर्ण्यते तथा यदेवाऽस्तित्वस्य घटगततया प्रमेयत्वादिस्वरूपं यदेव च घटनिष्ठप्रतियोगिव्यधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वादिस्वरूपं तदेव नास्तित्वादीनामपि स्वरूपमित्येकस्वरूपत्वमात्मरूपेणाऽभेदवृत्तिरित्येवमप्युपवर्णयितुं शक्यत एव । तथा चोक्तदिशाऽऽत्मरूपस्य बहूनां प्रकाराणां सम्भवेन तेषामपि पृथक्तयोपादानं कर्तव्यकक्षामियात् । यदि च घटगुणत्वमेवाऽस्तित्वस्याऽऽत्मरूपं न तादशप्रमेयत्वादि, तर्हि तेन तेन रूपेणाऽप्यभेदवृत्तेः सकलादेशोपपादिकायाः सम्भवेन तदुपेक्षाया निर्वीजत्वं स्यादिति निरस्तम्, सम्वन्धसंसर्गाभेदवृत्त्योः फलवैचित्र्यस्योपदर्शितत्वादिति । उपक्रियोपकारस्तेनाऽभेदवृत्तिर्यथा य एवोपकारोऽस्तित्वस्य स्वानुरक्तत्वकरणं स एव नास्तित्वाद्यशेषधर्माणामपीत्यतोऽस्तित्वाभिन्नस्वानुरक्तत्वकरणरूपोपकाराभिन्नत्वान्नास्तित्वादीनामस्तित्वाभिन्नत्वम् । उपकारोपकारकयोश्च सम्बन्धान्यथानुपपत्त्याऽभेदश्चाऽवश्यमभ्युपेयः । स्वानुरक्तत्वकरणं च स्ववैशिष्ट्यसम्पादनमेव नीलाद्युपरक्तो घट इत्याद्यनुरोधात् प्रतीयते । तच्च स्वप्रकारकधर्मिविशेष्यकज्ञानजनकत्वरूपं प्रथमतोऽवभासते, तथाऽप्येवं नाऽभ्युपगन्तुं शक्यते । तथा • सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष एव विषयस्य कारणत्वं, न ज्ञानमात्रे । तथा सत्यतीतादिविषयकस्याऽस्मदाद्यनुमानादेरशेषविषयकस्य केवलज्ञानस्य चोत्पत्तिरेब न स्यात् । घटगताश्च यावन्तो धर्मा नाऽस्मदादीनां प्रत्यक्षगोचरचरिष्णव इति घटगता येऽतीन्द्रिया धर्मास्तेषां स्वविषयकज्ञानजनकत्वमेव नाऽस्ति, दूरे स्वप्रकारकधर्मिविशेष्यकज्ञानजनकत्वमिति । किञ्च, स्वप्रकारकधर्मिविशेष्यकज्ञानजननं यथोपकारस्तथा स्वविशेष्यकधर्मिप्रकारकज्ञानजननम Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा प्युपकारः । भवति हि स्यादस्त्येव घट इतिवत् स्याद् घटेऽस्तित्वमेवेति बुद्धिरिति तथाविधोपकारेणाSभेदवृत्तेरेवं सत्यनुपसङ्ग्रहान्यूनत्वम् । यथा च धर्माणां धर्मिण्युपकारजननमन्तरेणाऽतिप्रसङ्गभयात् तद्धर्मत्वं न घटते तथा धर्मिणोऽपि धर्मेषूपकारजननमन्तरेण तद्धर्मित्वं न घटत एव, युक्तेस्तौल्यात् । एवं चैकधर्मिजनितोपकारशालित्वमपि धर्माणां साधारणं रूपमिति तद्रूपेणाऽभेदवृत्तेरपि सम्भवेन तदुपेक्षाऽपि न घटत इति । किन्तु, धर्मिनिष्ठविषयतानिरूपितस्वनिष्ठविषयताकवोधस्वरूपयोग्यत्वमेव स्वानुरक्तत्वकरण - मित्यनेन विवक्षितम् । योग्यता च शक्तिविशेष एव । सेयं स्वरूपशक्तिरुच्यते । तस्याश्च सहकारिशक्तिवैधुर्येण कार्याजननेऽपि स्वरूपावस्थानं न विरुद्धम् । तदनुगमकं च सामान्यतो धर्मत्वमेव । तथा चाऽतीन्द्रियाणां धर्माणां फलोपधानाभावेऽपि न क्षतिः । स्वप्रकारकधर्मिविशेष्यकज्ञानस्वविशेष्यकधर्मिप्रकारकज्ञानयोश्च धर्मिनिष्ठविपयतानिरूपितस्वनिष्ठविषयताकवोधत्वेन सङ्ग्रहान्न न्यूनता । विशिष्टवोधे च यथा विशेषणस्य स्वरूपयोग्यता तथा विशेष्यस्याऽपीति धर्मिजनितोऽप्युपकारो धर्मिनिष्ठविषयतानिरूपितस्वनिष्ठविषयताकवोध एव । एकेनैवोपकारेण धर्मधर्मिभावयोरुपपत्तावपकारान्तरकल्पनायां मानाभावात् । तच्छालित्वं च विषयताविशेषेण वाऽस्तु तत्स्वरूपयोग्यतया वाऽस्त्वित्यन्यदेतत् । तथा च न धर्मिजनितोपकारशालित्वस्याऽप्युपेक्षेति वोध्यम् । यथा हि धर्माणां धर्मिणि वृत्ति कालावच्छेदेन प्रतीयते तथा देशावच्छेदेनाऽपीति कालवद् देशस्याऽप्यवच्छेदकत्वम् । तत्राऽपि तदधिकरणस्यैव तन्निष्ठधर्मावच्छेदकत्वमिति नियमेन गुण्यधिकरणदेश एव गुणिनिष्ठधर्माणामवच्छेदकः । तथा च य एव गुणिदेशोऽस्तित्वस्याऽवच्छेदकः स एव नास्तित्वादीनामपि । अवच्छेद्यावच्छेदक भावः सम्बन्धोऽपि चाऽतिप्रसङ्गभयादविष्वग्भावनियत एवाऽभ्युपगन्तव्य इत्यस्तित्वाभिन्नगुणिदेशरूपावच्छेदकाभिन्नत्वान्नास्तित्वादीनामस्तित्वाभिन्नत्वमिति गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तिः । — ७१ नन्वस्तित्वनास्तित्वयोर्विधिनिषेधरूपयोरेकावच्छेदेनैकस्मिन्नधिकरणे वृत्तिविरोध इत्यतस्तयोरेकत्र वृत्त्यर्थमवच्छेदभेद एव स्वीकृतः स्याद्वादिना गुणिदेशश्च स्वद्रव्यरूपः स्वक्षेत्ररूपो वा स्यादुभयथाऽप्यस्तित्वस्यैवाऽवच्छेदकत्वं, परद्रव्यपरक्षेत्रयोरेव नास्तित्वावच्छेदकत्वात् । यदि च तदधिकरणस्यैव तन्निष्ठधर्मावच्छेदकत्वमिति नियमेऽधिकरणपदं सम्वन्धिसामान्यपरमित्युक्तनियमोपपत्त्यर्थं परद्रव्यपरक्षेत्रयोरपि परम्परया गुणिसम्वन्धित्वेन गुणिदेशत्वमभ्युपगन्तव्यमिति गुणिदेशत्वेनोभयोरप्युपग्रह इति विभाव्यते, तदाऽपि स्वद्रव्यादिव्यक्तिः परद्रव्यादिव्यक्तिश्च स्वरूपतो भिन्नैवेति य एव गुणिदेशोऽस्तित्वस्याऽवच्छेदकः स एव नास्तित्वादीनामपीत्युक्तदिशा गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तेरुपवर्णनं न सङ्गच्छते । न च द्रव्यार्थिकनयेनाऽभेदवृत्तिराश्रिता । द्रव्यार्थिकनये च धर्मधर्मिणोरभेद इत्यस्तित्वनास्तित्वयोरेकद्रव्यात्मकत्वेनाऽभिन्नत्वमतो योऽस्तित्वस्याऽवच्छेदको देशः सोऽस्तित्वाभिन्नानां नास्तित्वादीनामपीति कृत्वा गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तिः सम्भवतीति वाच्यम् । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तेराश्रयणस्य प्रयोजनमस्तित्वनास्तित्वयोरभेदसम्पादनमस्तित्वनास्तित्वयोरभेदस्य च गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तेरुपपत्त्यर्थम् । ततः प्रागेव सिद्ध्यभ्युपगमे गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तेराश्रयणस्य निष्प्रयोजनत्वप्रसङ्गादिति चेत्; मैवम्, यतोऽस्तित्वनास्तित्वादयो धर्मा विभिन्नावच्छेदेनैकत्र द्रव्ये वर्तमानाः सन्त एव कथश्चिदस्तित्वकथञ्चिन्नास्तित्वादिस्वरूपतां भजन्ते । तथास्वरूपाणामववोधनत एव भङ्गानां सकलादेशत्वम् । तथास्वरूपाश्च गुणिनि वर्तमाना न मध्यपृष्ठाग्रादिप्रतिनियतदेशावच्छेदेन वर्त्तन्ते । न हि भवति घटो मध्ये पृष्ठेऽग्रे वाऽस्तितावान् तदन्यभागे च नास्तितावानितीदृशदेशेनाऽभेदवृत्तिरेवाऽत्राऽभिमतेति न कश्चिद्दोषः ।। न चेदृशाशेषभागवतो घटस्याऽस्तित्वनास्तित्वादिधर्मयोगित्वे तादृशभागानामवच्छेदकत्वमेव न स्यात्, यद्यदवच्छेदेन विरुद्धधर्माणामेकत्र वृतौ विरोधव्याहतिस्तेषामेवाऽवच्छेदकत्वादिति वाच्यम् । प्रतीत्यनुरोधेनाऽव्याप्यवृत्तित्वानुपपादकानामपि भागानामवच्छेदकत्वस्य सम्भवादिति ध्येयम् । य एव घटद्रव्यरूपोऽर्थोऽस्तित्वस्याऽऽधारः स एव नास्तित्वाद्यशेषधर्माणामपि । आधाराधेययोश्च कथञ्चिदभेदोऽतिप्रसङ्गभयादावश्यक इत्यस्तित्वाभिन्नघटद्रव्यरूपार्थाभिन्नत्वान्नास्तित्वादीनामस्तित्वाभिन्नत्वमित्यर्थेनाऽभेदवृत्तिः । अस्तित्वगता ये धर्मास्तेषां सर्वेषामात्मरूप एवाऽन्तर्भावो नाऽङ्गीक्रियते चेत् तदा तेषां बहूनां पृथक्तया भावादष्टौ कालादय इत्येव न स्याद् । अतस्तेषामात्मरूप एवाऽन्तर्भाव इत्येकाधारवृत्तित्वमपि तत्रैवाऽन्तर्भवन्नाऽर्थेनाऽभेदवृत्तिः, किन्त्वर्थपदेनैकाधारद्रव्यमानं विवक्षितम् । तेनाऽभेदवृत्तिश्चोक्तदिशाऽवसेया । न च, द्रव्यार्थिकनयप्राधान्यादिमा अभेदवृत्तयोऽभिमताः । तत्र द्रव्यार्थिकनयप्राधान्यमेतदेव, यदेकद्रव्यद्वाराऽभेद इति कथमुपपादकस्यैवोपपाद्याष्टकमध्ये प्रवेश ? इति वाच्यम् । तदभिन्नाऽभिन्नस्य तदभिन्नत्वमिति नियमस्य प्राधान्येनाऽभ्युपगमस्यैव द्रव्यार्थिकनयप्राधान्येनेत्यनेनाऽभिमतत्वात् । द्रव्यार्थिकनये एकस्याऽनेकानुगतस्य भावे तं क्रोडीकृत्य धर्माणामुक्तनियमगोचरता सम्भवति, अत एव कालात्मरूपादेरेकस्याऽनेकानुगतस्य तन्नये भावात् तद्द्वाराऽप्युक्तनियमगोचरता धर्माणामुपपद्यते । अन्यथाऽऽधारभूतद्रव्यद्वाराऽभेदस्यैव द्रव्यार्थिकनयविषयत्वे द्रव्यार्थिकनयप्राधान्यस्य कालात्मरूपादिनाऽभेदवृत्तौ प्रयोजकत्वमेव न स्यात् । अत एव पर्यायार्थिकनयेऽनुगतानां कालादीनामभावात् प्राधान्येनोक्तनियमगोचरताया धर्मेष्वभावादुपचाराश्रयणमिति बोध्यम् । य एवास्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एवाऽशेषानन्तधर्मात्मकस्याऽपि वस्तुनो वाचक इत्येकशब्दवाच्यत्वं शब्देनाऽभेदवृत्तिरिति यद्यपि यथाश्रुतं न सङ्गच्छते । तथा हि - यत्किञ्चिच्छब्दस्याऽस्तित्ववाचकस्य नास्तित्वादिवाचकत्वे तद्द्वाराऽस्तित्वनास्तित्वादीनामभेदवृत्तिरभिमता उत Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा ये ये शब्दा अस्तित्वस्य वाचकास्तेषां सर्वेषां नास्तित्वादिवाचकत्वे तादृशयावच्छब्दद्वारा धर्माणामभेदवृत्तिरभिमता ? आद्ये नानार्थस्य हर्यादिशब्दस्यैकस्य विष्णुसिंहादिवाचकत्वे विष्णुसिंहादीनामभेद उक्तयुक्त्या स्यात् । द्वितीयेऽस्तित्वमिति शब्दो मुख्यवृत्त्याऽस्तित्वस्य वाचको भवति । स न तथा नास्तित्वादीनां वाचक इति न तद्द्वाराऽभेदवृत्तेरुपपत्तिः । किञ्चाऽस्तीतिशब्द: प्राधान्येनाऽस्तित्वविशिष्टं वस्त्वेवाऽऽह नाऽस्तित्वमिति । तस्य वाच्यवाचक भावसम्बन्धानुरोधेनाऽभेदोऽस्तित्वविशिष्टेन धर्मिणैव सह साक्षात्, नत्वस्तित्वेन धर्मेण । शब्दस्य धर्मिणा सहाऽभेदो धर्मिणश्च धर्मेः सहाऽभेद इत्येवं शब्दाभेदवृत्तिस्तु सम्भवन्त्यपि न पृथक्तया सकलादेशे निभित्तभावमुपगच्छति, अर्थाभेदवृत्त्यैव गतार्थत्वात् । एकशब्दवाच्यत्वं त्वात्मरूप एवाऽन्तर्भवन्न शब्देनाऽभेदवृत्तिरूपातिरिक्तप्रकारतया वक्तुं शक्यम् । अन्यथा प्रमेयत्वादीनामप्यतिरिक्तप्रकारतया वक्तव्यता स्यादित्यावेदितमधस्तात् । तथाऽपि द्रव्यार्थिकनये धर्ममात्रस्याऽनुगामिर्मिरूपत्वमित्यस्तित्वशब्दोऽप्यनुगतधर्मिरूपमेवाऽस्तित्वं बूते । धर्मी च न केवलमस्तित्वरूपधर्मात्मकः, किन्तु नास्तित्वाद्यशेषधर्मात्मक इति भवति यः कश्चिदस्तित्वप्रतिपादकः शब्द: स सर्वोऽपि नास्तित्वाद्यशेषधर्मप्रतिपादकः । अस्तित्वादिसप्तधर्मप्रतिपादिकायां सप्तभङ्ग्यां चाऽस्तीति शब्द एवाऽस्तित्वप्रतिपादनानुगुण इति य एवाऽस्तीति शब्द इति विशेषत उक्तिरविरुद्धा । अथवा द्रव्यार्थिकनये सर्वेऽपि पदार्थाः सत्तासामान्यरूपाः । सत्तासामान्यस्य च वाचकमस्तिपदमिति तत्सर्वस्य वाचकम् । यद्वा, यथा वाच्या अर्थाः सर्वेऽपि सत्तासामान्यैकरूपतामश्नुवते तथा वाचका अपि सर्वे शब्दा अस्तीतिसामान्यशब्दैकरूपतामश्नुवत इत्यतोऽप्युक्तदिशा शब्देनाऽभेदवृत्तिरुपपद्यतेतरामिति । पयायार्थिकनये च धर्मभेदेन कालादीनामष्टानामपि भेदात् कालादिभिरष्टभिरभेदोपचार एवेति, प्रकृतमनुसरामः । तत् सिद्धमुक्तदिशा सप्तानामपि भङ्गानामेकधर्मवोधनद्वारा तदात्मकाशेषधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वम्, एकधर्मात्मकवस्त्वंशविषयकवोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वं चेति । नृसिंहाकारधर्मप्रतिपादकतया स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव च घट इत्यादिभङ्गानां चतुर्णां विकलादेशत्वमेव युक्तम्, न सकलादेशत्वमिति पूर्वपक्षोन्मूलने देवसूरिप्रभृतीनामिदमैदम्पर्य प्रतिभाति - अस्तित्व-नास्तित्वावक्तव्यत्वानां विशेषणविशेष्यभावमवलम्व्य चतुर्णां धर्माणां निष्पत्त्या तत्र विशेषणविशेष्ययोर्भेदस्याऽऽवश्यकत्वमिति को नाम नाऽनुमनुते ? भवन्तु ते धर्मा नरसिंहरूपाः, तेषामपि धर्मान्तरैः सह कालादिभिरष्टभिरभेदवृत्तिरभेदोपचारो वा सम्भवत्येव । यतो विशेषणविशेष्यभावो न केवलं भेदमवलम्व्य, किन्त्वभेदमपि । तथा च धर्मान्तररूपनिष्पत्त्यवलोकनवेलायामभेदवृत्तेरप्यस्त्यावश्यकता । विशेषणविशेष्यीभूतयोर्धर्मयोर्भेदाभेदमवलम्व्य लब्धात्मानश्च धर्मा अस्तित्वादिना सहाभेदमासादयन्त एव विधिनिषेधभावापन्नाः Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा सप्तभङ्गीघटकभङ्गप्रतिपाद्यतां भजन्ते, नाऽन्यथा । तथा चैकदाऽपि विशिष्टस्वरूपोपपादिका विशेषणविशेष्ययोर्भेदवृत्तिरभेदवृत्तिर्यदा न विरुद्धा, तदा कैव कथा सप्तभङ्गीघटकभङ्गप्रतिपाद्यतोपपत्तयेऽवश्याश्रयणीयाSभेदवृत्तिर्धर्मान्तरैः सह विशिष्टधर्माणामिति ? सप्तानामपि भङ्गानां सकलादेशत्वं भेदवृत्त्युपचारयोराश्रयणस्याऽपि सम्भवित्वेन विकलादेशत्वं च युक्तम् । न तु त्रयाणां सकलादेशत्वमेव, चतुर्णा विकलादेशत्वमेवेत्येकान्तो ऽनेकान्तवादिना गदितुं युक्तः । ७४ एतेन त्रयाणां सकलादेशत्वे चतुर्णां विकलादेशत्वे सप्तभङ्गी न सकलादेशस्वभावा नाऽपि विकलादेशस्वभावेति न प्रमाणवाक्यं नाऽपि नयवाक्यमिति ततः सप्तधर्मात्मकत्वसिद्धिर्न स्यादिति सोन्मत्तवचनवदुपेक्षणीया परीक्षकाणां प्रसज्येत । यदि च समुदायस्य समुदाय्यभिन्नत्वमिति भङ्गत्रयाभिन्नत्वात् । सकलादेशत्वं भङ्गचतुष्टयाभिन्नत्वाद् विकलादेशत्वं चेति विभाव्यते, तदा तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वमिति नियमेन भङ्गत्रयरूपसकलादेशाभिन्नसप्तभङ्ग्यभिन्नत्वाद् विकलादेशत्वेनाऽभिमतानां चतुर्णामपि भङ्गानां सकलादेशत्वम् । एवं विकलादेशरूपभङ्गचतुष्टयाभिन्नसप्तभङ्गयभिन्नत्वात् सकलादेशानामपि त्रयाणां विकलादेशत्वं च स्यात् । न चैवंरीत्या सकलादेशत्वस्य विकलादेशत्वस्य च मुख्यत्वं नाऽङ्गीक्रियत इति वाच्यम् । तथा सति सप्तभङ्ग्यप्युक्तदिशा मुख्यतः सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च न स्यादिति निरस्तम्, प्रतिभङ्गं सकलादेशविकलादेशस्वभावाभ्यां सप्तभङ्ग्याः स्वीकारादिति । अत्र तत्त्वार्थटीकाकृत्प्रभृतीनां यद्येवमभिप्राय उपवर्ण्यते - यद्यपि सर्वेऽपि भझ एकधर्मप्रतिपादनद्वाराऽशेषधर्मप्रतिपादकाः, तथाऽपि निरवयवधर्मप्रतिपादनद्वाराऽशेषधर्मप्रतिपादकत्वं सकलादेशत्वम् । निरवयवत्वं चाऽविशिष्टरूपत्वमिति स्यादस्त्येव घटः स्यान्नास्त्येव घटः स्यादवक्तव्य एव घट इति त्रयाणां सकलादेशत्वम् । सावयवधर्मप्रतिपादनद्वाराऽशेषधर्मप्रतिपादकत्वं विकलादेशत्वम् । सावयवत्वं च विशिष्टरूपत्वमिति विशिष्टधर्मप्रतिपादकानां चतुर्णां भङ्गानां विकलादेशत्वमिति । तदा प्रतिभङ्गं सप्तभङ्ग्याः प्रमाणवाक्यतैव स्यात्, न नयवाक्यता, विकलादेशत्वस्याऽप्युक्तस्य प्रमाणवाक्यताया एवोपष्टम्भकत्वात् । तथा च सप्तभङ्गी द्विधा - प्रमाणसप्तभङ्गी नयसप्तभङ्गी चेत्यस्मिन्नर्थे सकलादेशत्वविकलादेशत्वविचारस्य नोपयुक्तता, किन्तु शिष्यवृद्धिवैशद्यार्थतैवेति । यदि च सकलादेशत्वं विकलादेशत्वं च भङ्गानामुक्तदिशा, नयसप्तभङ्गीत्वं तु पर्यायार्थिकनयादेशात् कालादिभिरष्टभिर्भेदवृत्तिद्रव्यार्थिकनयादेशाद् भेदोपचाराद्वा प्रतिभङ्गमेकैकधर्मप्रतिपादकत्वेन, ईदृशं च विकलादेशत्वमपरमप्यास्थीयते, तदा सर्वेषामप्यैकमत्यं निर्वहतीति वोध्यम् । अनेकधर्मात्मकवस्तुविषयकवोधजनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वम्, एकधर्मात्मकवस्तुविषयकवोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वमिति ये मन्यन्ते तेपामपि स्याद्वादाभ्युपगन्तॄणां वस्तुन्यनेकधर्मात्मकत्वमनन्तधर्मात्मकत्वमेवाऽभिमतम् । अन्यथा धर्मद्वयादेरपि वस्त्वंशत्वेन तदात्मत्वेन वस्तुविषयकवोधजनकवाक्यस्य Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा सकलादेशत्वानुपपत्तिः । स्यात्पदस्य चाऽनन्तधर्मात्मकत्वद्योतकस्य भङ्गमात्रे सत्त्वेन तावता सकलादेशत्वे विकलादेशत्वं न स्यादेवेत्यत एकधर्मप्रतिपादनद्वारोक्तदिशाऽनन्तधर्मप्रतिपादनमवलम्ब्यैवोक्तं सकलादेशत्वमभिमतमित्यास्थेयम् । तथा यद्धि वस्त्वनन्तधर्मात्मकं तदनन्तधर्मान्तर्गतैकधर्मात्मकं भवत्येवेत्येकधर्मात्मकेत्युक्तेरनतिप्रयोजनत्वं मा प्रसाङ्क्षीदित्येकधर्ममात्रात्मकार्थत्वं वाच्यम् । तच्चाऽनन्तधर्मात्मके वस्तुनि बाधितम् । अतः कथञ्चिदेकधर्मप्रतिपादनद्वाराऽनन्तधर्मप्रतिपादनाभावमुक्तदिशाऽऽस्थायैकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वमित्यभिमतं वाच्यम् । तथा चाऽत्राऽपि प्रमाणवाक्यानां नयवाक्यानां च सप्तविधत्वमित्युपपद्यते । एतेन “तेषां प्रमाणवाक्यानां नयवाक्यानां च सप्तविधत्वव्याघातः, प्रथमद्वितीयचतुर्थभङ्गानां सत्त्वासत्त्वावक्तव्यत्वरूपैकैकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकानां सर्वथा विकलादेशत्वेन नयवाक्यत्वापत्तेः, तृतीयपञ्चमषष्ठसप्तमानामनेकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधजनकानां सदा सकलादेशत्वेन प्रमाणवाक्यत्वापत्तेः । न च त्रीण्येव नयवाक्यानि चत्वार्येव प्रमाणवाक्यानीति वक्तुं युक्तं, सिद्धान्तविरोधात्” इति विमलदासोक्तेर्वेमल्यमपाकृतं भवति, कालादिभिरष्टभिरभेदवृत्तेरनाश्रयणे सप्तसु भड्नेष्वेकधर्मबोधकत्वस्यैव भावात्, तदाश्रयणे चाऽनेकधर्मबोधकत्वस्यैव सद्भावात् । प्रथमभङ्गप्रतिपाद्यं यदस्तित्वं द्वितीयभङ्गप्रतिपाद्यं च यन्नास्तित्वं तदुभयमेव तृतीयभङ्गजन्यबोधे भासते । एवं पञ्चमादिभङ्गजन्यबोधे प्रथमादिभङ्गप्रतिपाद्यं यदस्तित्वादिकं तृतीयभङ्गप्रतिपाद्यं यदवक्तव्यत्वं तदुभयं तत्त्रयं च भासते, न त्वतिरिक्तं धर्मान्तरमिति मनसि निधायैवमुक्तिः स्यादपि यदि “धर्माः सत्त्वादयः सप्त" इत्यादिवचनं न व्याकुप्येत । इदं तु स्याद् यदि तेषामभिप्रायो यथाश्रुतमेव स्ववचनं संवदति तदा सप्तानामपि भङ्गानां प्रतिभङ्गमेकैकधर्मप्रतिपादकत्वेन विकलादेशत्वमेव स्यात्, न सकलादेशत्वम् । यदि वा तृतीयपञ्चमादिभड्रेष्वनेकधर्मप्रतिपादनमुरीक्रियते तदाऽपीदृशात् सकलादेशत्वान्न प्रमाणवाक्यत्वमुपपत्तिपद्धतिमेतीति विभावयन्तु विद्वांसः । यदपि धर्माविषयकधर्मिविषयकबोधजनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वं, धर्म्यविषयकधर्मविषयकबोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वमिति मतं, तत्राऽपि शिष्यबुद्धिवैशद्यव्यतिरिक्तं किमस्येदृशसकलादेशत्वविकलादेशत्वविभजनस्य प्रयोजनम् ? इति प्रयोजनगवेषणा न क्रियते चेत् तदा कथञ्चिदुपपन्न भवत्येव । धर्माविषयकेत्यत्र धर्मपदं चाऽसाधारणधर्मातिरिक्तधर्मपरम् । तदसाधारणधर्मत्वं च तनिष्टनिरवच्छिन्नविशेष्यताविशिष्टप्रकारताशालित्वम् । वैशिष्ट्यं च स्वनिरूपितत्वस्वावच्छेद्यविशेष्यतानिरूपितावच्छेदकतावच्छेद्यत्वोभयसम्बन्धेन । द्वितीयसम्बन्धश्चाऽनन्तराभासमानसमानाधिकरणैकज्ञानीयविषयत्वयोरवच्छेद्यावच्छेदकभाव इति मतेन, तयोरभेद एवेति मते तु स्वाभिन्नविशेष्यतानिरूपितावच्छेदकताभिन्नत्वं द्वितीयसम्बन्धतया बोध्यम् । धर्म्यविषयकेत्यत्र धर्मिपदमपि स्वासाधारणधर्मिव्यतिरिक्तधर्मिपरम् । धर्मिणि 1. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ. १६, पं. ६ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सानभट्टीप्रमा स्वासाधारणत्वं तु स्वनिष्ठप्रकारतानिरूपितनिरवच्छिन्नविशेष्यताशालित्वम् । एवं च स्याज्जीव एव, स्यादजीव एवेत्यादिसप्तभङ्गी स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेत्यादिसप्तभङ्गी च प्रतिभङ्गं सकलादेशस्वभावा प्रतिभङ्गं विकलादेशस्वभावा चेति, स्यादस्त्येव घटः स्यान्नास्त्येव घट इत्यादि स्यादस्त्येव पटः स्यान्नास्त्येव पट इत्यादिसप्तभङ्गीनां च विशेष्यभेदभिन्नानामनन्तानामपि सामान्यतः स्यादस्त्येवेत्यादिसप्तभङ्गीस्वरूपत्वसम्भवेन तद्गतयोः सकलादेशत्वविकलादेशत्वयोः सम्भवेन विशेषतः सकलादेशत्वविकलादेत्वयोरभावेऽपि क्षत्यभावः । यथा ह्यर्थस्य सामान्यविशेषोभयरूपता तथा तत्प्रतिपादकसप्तभङ्गीवाक्यस्याऽपीति । उक्तविवक्षायां च “सत्त्वाद्यन्यतमेनाऽपि धर्मेणाऽविशेषितस्य धर्मिणः शाव्दवोधविषयत्वासम्भवात्, धर्मिवृत्तित्वाविशेषितस्य धर्मस्याऽपि तथात्वादुक्त-लक्षणस्याऽसम्भवात् । न च, स्याज्जीव एवेत्यनेन धर्मिमात्रविषयकवोधस्य जननात् स्यादस्त्येवेत्यनेन केवलधर्मविषयकबोधस्य जननाच्च नाऽसम्भव इति वाच्यम् । यतो जीवशब्देन जीवत्वरूपधर्मावच्छिन्नस्यैव जीवस्याऽभिधानं न तु केवलधर्मिणः । अस्तिशब्देन च यत्किञ्चिद्धर्मिवृत्तित्वविशेषितस्यैवाऽस्तित्वस्याऽभिधानं, न तु केवलधर्मस्येति सर्वानुभवसाक्षिकम्' इति वचनसन्दर्भोऽपि 'विमलदासदृब्धो नाऽत्राऽवकाशं लभते । ___ यदि च शाब्दबोधसामान्य एवोद्देश्यत्वाख्या विषयता विधेयत्वाख्या च विषयताऽवश्यम्भाविनीति नियमः, एकं च पदं नोद्देश्यत्वविधेयत्वयोः प्रयोजकमिति नियमश्च शब्दमर्यादाभिज्ञानामनुमतः स्यात् तदा स्याज्जीव एवेत्यादिका स्यादस्त्येवेत्यादिका वा सप्तभड़ी प्रमाणवाक्यतामेव न विभ्रति । अलमस्यां सकलादेशत्वविकलादेशत्वसमन्वयचिन्तया । एवं चोक्तदिशा निरुच्यमानं सकलादेशत्वं विकलादेशत्वं च प्रमाणवाक्येऽसम्भवदोषाघातमतो धर्माविषयकेत्यस्य धर्मनिष्ठमुख्यविशेष्वत्वानिरूपकेत्यर्थः । तथा च स्यादस्त्येव घटः स्यान्नास्त्येव घट इत्यादिका सप्तभङ्गी प्रतिभङ्गं सकलादेशस्वभावा, घटे स्यादस्तित्वमेव घटे स्यान्नास्तित्वमेवेत्यादिका च सप्तभङ्गी प्रतिभङ्गं विकलादेशस्वभावेति सिद्धं भवति । एतेन “मुख्यतया द्रव्यप्रतिपादकशब्दो द्रव्यशब्दः, यथा जीवशब्द: ! जीवशब्देन हि जीवत्वरूपधर्मो गौणतया प्रतिपाद्यते, जीवद्रव्यं मुख्यतया । एवं मुख्यतया धर्मप्रतिपादकशब्दो भावशब्दः, यथाऽस्त्यादिशब्दः । तेन ह्यस्तित्वरूपधर्मस्य मुख्यतया प्रतिपादनं धर्मिणश्च गौणतयेति द्रव्यभावशब्दयोर्विभाग उपपद्यत"2 इत्यप्यसङ्गततयाऽऽवेदितं भवति । जीवशब्देन जीवत्वविशिष्टस्य ज्ञानं भवति । तत्र जीवत्वे विशेष्यतानात्मकप्रकारत्वलक्षणं मुख्यविषयत्वं वर्तते । धर्मिण्यपि प्रकारतानात्मकविशेष्यत्वलक्षणं मुख्यविषयत्वं वर्तते । तथा च जीवत्वजीवद्रव्ययोर्मुख्यतया प्रतिपादनमेव जीवशब्दात् प्राप्तं, न तु जीवत्वस्य गौणतया जीवद्रव्यस्य च मुख्यतया । एवमस्तित्वतदाश्रयधर्मिणोर्मुख्यतया प्रतिपादनमेवाऽस्तिशब्दात् प्राप्तं, न 1. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ. १७, पं. २ । २. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ. १८, पं. १ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा ७७ त्वस्तित्वस्य मुख्यतया धर्मिणश्च गौणतया । यदि च यत्रैव मुख्यविशेष्यत्वं वर्तते तस्यैव मुख्यतया प्रतिपादनमित्यभिमतं तदाऽस्तिशब्दोऽपि न भावशब्द: । नहि तज्जन्यज्ञानेऽस्तित्वं विशेष्यं, किन्तु प्रकारः । एवं च जीवत्वमस्तित्वमित्यादिशब्दा एव भावशब्दाः । तथा चोक्तदिशा स्यादस्त्येव घट इत्यस्य सकलादेशत्वं, घटे स्यादस्तित्वमेवेत्यस्य विकलादेशत्वमप्रतिहतमिति मन्तव्यम् । एतेन यदपि “यदपि-पाचकोऽयमिति द्रव्यशब्द:, पाचकत्वमस्येति भावशब्द इति द्रव्यभावशब्दयोविभागनिरूपणं, तदपि न सङ्गच्छते, पाचकशब्देनाऽपि पाचकत्वधर्मविशिष्टस्यैव पुरुषस्याऽभिधानात्, पाचकत्वमित्यनेनाऽपि पाचकवृत्तित्वविशेषितस्यैव धर्मस्य बोधनादिति” इत्युक्तं विमलदासेन तदपि निरस्तम् । यथा च पाचकशब्द: पाचकत्वधर्मविशिष्टमेव पुरुषमभिधत्ते तथा जीवशब्दोऽपि जीवत्वधर्मविशिष्टमेव जीवमाह । तथा सत्यपि जीवशब्दो द्रव्यशब्दो न पाचकशब्दस्तथेति स्वशिष्य एव प्रतिबोधनीयः । अस्य पाचकत्वमित्यत्र पाचकत्वस्य मुख्यविशेष्यतया भानेन भवति प्राधान्यमिति पाचकत्वमिति शब्दस्य भावशब्दत्वे निर्निमित्त एव द्वेषः, अस्तिशब्दस्य भावशब्दत्वे निर्निमित्त एव रागो विमलदासस्य । धर्मिणः प्रधानतया बोधकवाक्यस्य सकलादेशत्वं, प्राधान्येन धर्मबोधकवाक्यस्य विकलादेशत्वं यत् प्रतिपादितं, तेनाऽयमभिप्रायो लक्ष्यते - धर्मिणोऽनन्तधर्मात्मकस्यैव प्रमाणगोचरतया तस्य प्राधान्येन भाने साक्षादेव तदात्मना प्राधान्येनाऽनन्तधर्माणामपि भानमिति सकलादेशत्वयोगिनो वाक्यस्य प्रमाणवाक्यत्वम् । धर्मस्य प्राधान्येन भाने चैकस्य धर्मस्य तद्धर्मिगतैर्यावद्विर्धमैः सह न साक्षादेवाऽभेदो येनैकधर्मात्मना प्राधान्येनाऽशेषाणामपि धर्माणां भानं भवेत्, किन्तु धर्मिद्वारा । धर्मी च तत्र गुणतयैव भासत इति तेषामपि गुणतयैव भानमतो विकलादेशत्वयोगिनो वाक्यस्य नयवाक्यत्वमिति । ये तु सकलादेशत्वविकलादेशत्वयोर्लक्षणं मनसि यत्किञ्चिदभिसन्धाय स्यादस्तीत्यादि वाक्यं सप्तविधमपि प्रत्येकं विकलादेशः, समुदितं सकलादेश इति लक्ष्यमात्रमभिदधति, तेषामभिप्रायो यदीदृशः, तथा हि - निराकाडक्षबोधजनकत्वं सकलादेशत्वं साकाडक्षवोधजनकत्वं विकलादेशत्वम || चोत्थिताकाक्षाराहित्यं, साकाङ्क्षत्वं चोत्थिताकाङ्क्षत्वम् । एवं च धर्माणां सप्तविधत्वेन जिज्ञासासंशययोः सप्तविधत्वस्य व्यवस्थापितत्वेनैकेन भनेनैकस्य धर्मस्य वोधने एकैव जिज्ञासा निवर्तते न जिज्ञासान्तरमिति प्रत्येकभङ्गजन्यबोधस्य साकाङ्क्षत्वाद्भवति तञ्जनकानां भङ्गानां प्रत्येकं विकलादेशत्वं, समुदितानां च तेषामेकवाक्यतया वोधजननदशायां सप्तानामपि जिज्ञासानामुपशमात् तज्जन्यबोधस्य निराकाक्षत्वेन तज्जनकतया सकलादेशत्वमिति, एतदभिप्रायानववोधविजृम्भितमेव “अत्र चिन्त्यते - कुतः स्यादस्तीत्यादि वाक्यं प्रत्येकं विकलादेशः ? ननु, सकलार्थप्रतिपादकत्वाभावाद् विकलादेश इति चेत्; न, एतादृशवाक्यसप्तकस्याऽपि विकलादेशत्वापत्तेः, समुदितस्याऽपि सदादिवाक्यसप्तकस्य सकलार्थप्रतिपादकत्वाभावात्, 1. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ. १८, पं. ६ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा सकल श्रुतस्यैव सकलार्थप्रतिपादकत्वात् । एतेन सकलार्थप्रतिपादकत्वात् सप्तभङ्गीवाक्यं समुदितं सकलादेश इति निरस्तम्, समुदितस्याऽपि तस्य सकलार्थप्रतिपादकत्वासिद्धेः, सदादिसप्तवाक्येनैकानेकादिसप्तवाक्यप्रतिपाद्यधर्माणामप्रतिपादनात् " इति वचननिकुरम्बं विमलदासस्य । ७८ किञ्च, प्रश्नयितारं परं प्रति सप्तभङ्गीवाक्यं ह्युत्तरवाक्यतया प्रवृत्तं नोपदेशरूपेण । उत्तरवाक्यं चैकधर्ममधिकृत्य यावन्तः प्रश्नाः परस्योज्जृम्भन्ते तावतामुन्मूलनमात्रेण सकलादेशतासमधिगतं भवति । यस्य कस्यचित् प्रश्नस्य प्रतिविधानेऽपि तच्छृङ्खलाप्रतिबद्धस्य प्रश्नान्तरस्य सद्भावे विकलादेश एव भवति, तावता कथायाः पूर्वरूपस्योत्तररूपस्य वाऽपर्यवसानात् । वक्ति चैवम्भूतेऽर्थे प्रश्नयितोत्तरवादिनं प्रति सकलमादिष्टं भवताऽत्राऽर्थे यतः सर्वेऽपि प्रश्ना प्रतिविहिताः, एकमेकमेव धर्मं प्रतिपादयन् भवान् विकलमेवाऽऽदिशति, यतः प्रश्नान्तराणि मे नाऽधरीकृतानीति । यदि तु तेषामभिप्रायो विमलदासोक्त्यनुपात्येव तदा तदुक्तखण्डनजालं नाऽतिक्रामति । अपरं चेदृशसकलादेशत्वविकलादेशत्वयोः प्रतिपादनं न प्रमाणवाक्यनयवाक्यत्वोपपादनानुगुणमिति किमर्थमित्थं तथा प्ररूपयन्तीति त एव जानन्तीत्युपरम्यते । प्रकृतमनुसरामः, तत् सिद्धं सप्तभङ्गयाः सकलादेशस्वभावत्वेन प्रमाणवाक्यत्वं विकलादेशस्वभावत्वेन च नयवाक्यत्वमिति, तया शिष्यादिप्रतिबोधनं वादिनं प्रत्युत्तरदानं च स्याद्वादिनां सङ्गतमेवेति । ननु घटोऽस्त्येवेति वाक्यं दुर्णय:, घटोऽस्तीति वाक्यं नयः, घटः स्यादस्तीति वाक्यं प्रमाणमित्येवं त्रिधैव ज्ञापकस्य वाक्यस्य प्ररूपणं भवतामनुमतम् । यत उक्तं “सदेव सत् स्यात्सदिति विधार्थी, मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः” इति । युक्तं चैतत्, घटोऽस्त्येवेत्यत्रैवकारेण घटेऽस्तित्वायोगस्य नास्तित्वस्य व्यवच्छेदः क्रियते, विशेषणसङ्गतैवकारस्याऽयोगव्यवच्छेदार्थकत्वस्य शङ्खः पाण्डुर एवेत्यादी दर्शनात् । अत्राऽपि चाऽस्तित्वरूपविशेषणसङ्गत एवैवकारः, न तु पार्थ एव धनुर्धरः, जीव एव ज्ञानवानित्यादिवद् विशेष्यसङ्गतोऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थकः । तथा सति घटाद्वैतवादः स्यात् । न वा नीलं सरोजं भवत्येवेत्यत्रेव क्रियासङ्गतोऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदार्थकः । तथा सति कस्यचिद् घटस्याऽस्तित्वेऽपि कस्यचिद् घटस्य शशशृङ्गकल्पत्वं स्यात् । किञ्चाऽस्तीत्यस्य विशेषणवाचकत्वेन तदतिरिक्तक्रियावाचकपदस्याऽभावेनाऽत्यन्तायोग-व्यवच्छेदार्थकत्वसम्भावनमपि नाऽस्ति । एवं च घटे यथा किञ्चिद्रूपेणाऽस्तित्वं तथाऽस्तित्वाभावोऽपि केनचिद्रूपेणेति तद्व्यवच्छेदो बाधित इति बाधितार्थप्रतिपादकत्वाद् घटोऽस्त्येवेत्यस्य दुर्नयत्वम् । इतरांशाप्रतिक्षेपकत्वे सत्येकांशग्राहकत्वं हि नयत्वम् । तच्च घटोऽस्तीति वाक्ये निर्विवादमेव । अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकवाक्यत्वं च प्रमाणवाक्यत्वम् । तच्च घटः स्यादस्तीति वाक्ये सुदृढनिरूढं, स्यात्पदेनाऽनेकान्तावबोधकेनाऽनन्तधर्मात्मकत्वस्य घटे संशब्दनात् । अपेक्षावचनं नय इत्याश्रयणेन तु स्यादस्तीति नयः, स्यादित्यनेनाऽपेक्षावबोधनात् । अस्तीति प्रमाणमस्तित्वप्रतिपादनद्वाराऽभेदवृत्तिप्राधान्यो1. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ. १९, पं. १ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ सप्तभङ्गीप्रभा पचाराभ्यामनन्तधर्माणामपि प्रतिपादनादित्यन्यदेतत् । उक्तप्रकारत्रयविलक्षणं च घटः स्यादस्त्येवेति वाक्यमिति ज्ञापकवाक्यतैवाऽस्य नाऽस्ति, दूरे तत्समाहाररूपायाः सप्तभङ्ग्याः प्रमाणवाक्यत्वमिति । न च, स्यादस्त्येव घट इत्यनेन प्रतीतेरुपजायमानाया अपलपितुमशक्यत्वेनोक्तप्रकारत्रयमध्येऽस्याऽन्तर्भाव आवश्यक इति वाच्यम् । तथा सति दुर्नयवाक्य एवाऽस्याऽन्तर्भावोऽस्तु । अस्त्येव घट इत्यस्याऽपि हि दुर्नयत्वम्, अवधारणार्थकैवकारसम्मिश्रणादेव, तच्चाऽऽत्राऽप्यविशिष्टम् । एवं च दुर्नयवाक्यसमाहाररूपा सप्तभङ्गयपि प्रमाणं न स्यात् । एकस्याऽन्धस्य रूपसाक्षात्काराभावेऽन्धसहस्रस्याऽपि रूपसाक्षात्काराभावस्यैव भावादिति चेत्; अत्र वूमः, स्यादस्त्येव घट इति वाक्यं प्रमाण-नय-दुर्नयांशसंवलितं सुनय इत्याख्यायते । अत्र स्यादिति प्रमाणवाक्यांशः, अस्तीति नयांशः, एवकारश्च दुर्नयांशः स्पष्टं प्रतीयते । अथवाऽस्त्येवेति दुर्नयस्यैव स्यादिति प्रमाणांशसम्पर्कादस्तीति नयस्य वा दुर्नयांशैवकारमिश्रितस्याऽपि प्रमाणांशसम्पर्कात् पक्षान्तरे दुर्नयांशकदर्थितस्याऽपि प्रमाणस्य नयांशसम्मिश्रणात् सुनयत्वम् । अर्थानुसारेण हि तद्रोधकस्य वाक्यस्य व्यवस्था भवति । अर्थश्च नयविषयीभूतो वस्त्वंशोऽस्तित्वादिः, तस्य च सर्वथाऽस्तित्वादिरूपे कथञ्चिदस्तित्वादिरूपे वा पर्यवसानं, न तु सर्वथाऽस्तित्वादिकथञ्चिदस्तित्वादिभ्यामन्याऽस्तित्वादेः तृतीया कोटिः सम्भावनास्पदमपि । तथा च सर्वथाऽस्तित्वादेः प्रतिपादकं यथाऽस्त्येवेत्यादिवाक्यं, तस्य बाधितार्थत्वेन दुर्नयत्वं, तथा कथञ्चिदस्तित्वादे: प्रतिपादकं स्यादस्त्येवेत्यादिवाक्यं, तस्य त्ववाधितार्थत्वेन सुनयत्वम् । यस्य त्वर्थस्य सर्वथाऽस्तित्वादिबाधितः प्रकारः कथञ्चिदस्तित्वादिरवाधितः प्रकारः, तस्याऽस्तित्वस्य सामान्यतः प्रतिपादकतयाऽस्तीत्यस्य नयत्वाभिधानमाचार्याणामविरुद्धम् । न च, कथञ्चिदस्तित्वादेर्वस्त्वंशस्य स्यादस्तीत्यादेरेवाऽवगमसम्भवेनैवकारसङ्घटनं व्यर्थमेवेति वाच्यम् । स्यादिति निपातोऽनेकान्तावद्योतकोऽविशेषेणाऽनन्तधर्मात्मकत्वप्रतिपादकोऽप्येवकारसमभिव्याहारबलात् । कथञ्चिदस्तित्वरूपांशस्य प्राधान्येन प्रतिपादकोऽन्यांशस्य गौणतयेत्यर्थकतयैवकारस्य सार्थक्यात् । अन्यथा प्रमाणावाक्यत्वमेव स्यात्, न नयवाक्यत्वमिति । न च, वस्तुस्वरूपावबोधकतया प्रमाणस्य नयापेक्षया बलवत्त्वेन तेन स्वशिष्यादिप्रतिबोधस्य प्रतिवादिनः संशयापाकरणप्रतिबोधयोः सम्भवे एवकारसंयोजनेन तत्र नयवाक्यतामापाद्य तेन प्रतिवोधनमुत्तरदानं चाऽसमञ्जसमिति वाच्यम् । एकान्तकदाग्रहग्रहिलचित्तः परो हि प्रतिनियतैकैकधर्मात्मकतयैव वस्त्वगच्छति । तत्र तत्तन्नायार्पणतस्तदंशे कथञ्चिदर्थानुप्रवेशेन बोधयितुं शङ्कशुकतानास्पदं च कर्तुं यथा शक्यो, न तथा सहसैवाऽनन्तधर्मात्मकत्वावबोधनतः । तत्तन्नयेन च प्राधान्येन तत्तदंशेऽवगते तु प्रमाणतोऽनन्तधर्मात्मकत्वमप्यवगमयितुं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा स शक्यः । इत्थमेवाऽवगमनसौकर्याच्छिष्यादयोऽपि प्रतिवोधयितुं शक्याः । प्रथमत एवाऽनन्तधर्मात्मकत्वाभिधाने च कथमित्थमित्याकाक्षाया अनुपशान्तेरिति । पक्षान्तरे तु स्याद्वादापरिकर्मितवुद्धिः प्रति घटोऽस्तीति वाक्यं न प्रमाणकार्य सम्पादयितुमर्हति । अस्तिपदप्रतिपाद्यस्याऽस्तित्वस्य सर्वथाऽस्तित्वमादायाऽपि प्रतिपत्तिसम्भवात् । घट: स्यादस्तीति वाक्यं कथञ्चिदस्तित्वं प्रतिपादयदपि येन रूपेणाऽस्तित्वं तेनैव रूपेणाऽस्तित्वाभावरूपनास्तित्वात्मकतदयोगस्य व्यवच्छेदं न प्रतिपादयतीति तेनैव रूपेण प्रथमभड्न घटेऽस्तित्वं प्रतीतिपथमारोहेत् तेनैव रूपेण द्वितीयभड्रेन नास्तित्वं प्रतीतिपथमापतत् केन वार्येत ? तथा च बाधितार्थकत्वेन यथा घटोऽस्त्येवेति वाक्यस्य दुर्नयत्वं तथैवकारासंस्पर्शिनः स्यादस्तीति वाक्यस्याऽपि स्यात् । अतोऽनिष्टार्थनिवृत्त्यववोधकस्यैवकारस्य भङ्गे सन्निवेशो युक्त एव । घटोऽस्त्येवेत्यादिवाक्ये तु नैवकारोऽनिष्टार्थनिवर्तकः; किन्तु कथञ्चिदस्तित्वस्य कथञ्चिन्नास्तित्वस्य चेष्टस्यैवाऽर्थस्य प्रतिक्षेपक इति युक्तं तस्य दुर्णयत्वम् । एतेन “अस्त्येव घट इत्यस्याऽपि हि दुर्नयत्वमवधारणार्थकैवकारसम्मिश्रणादेव, तच्चाऽत्राऽप्यविशिष्टम्” इति निरस्तम् । ज्ञानमर्थं गृह्णात्येवेत्यादाविव क्रियार्थस्याऽत्राऽपि विशेषणत्वेन तत्सङ्गतैवकारस्याऽयोगव्यवच्छेदार्थकत्वं न विरुद्धम् । यत्र क्रियातिरिक्तं विशेषणं वर्तते तथाविधस्थल एव क्रियासङ्गतैवकारस्याऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकत्वमिति नियमः । तथा चाऽवधारिणी भाषां न भाषेतेति निषेधोऽपीष्टार्थप्रतिक्षेपकावधारणविषय एवेति मन्तव्यम् । अनिष्टार्थनिवर्त्तकावधारणस्याऽऽवश्यकत्वं तु प्राचामप्यनुमतम् । तदुक्तम् “वाक्येऽवधारणं ताव-दनिष्टार्थनिवृत्तये ।। कर्त्तव्यमन्यथाऽनुक्त-समत्वात् तस्य कुत्रचित् ।।१।।'' इति । ननु सत्त्वापरपर्यायस्याऽस्तित्वस्याऽसद्व्यावृत्तिरूपत्वेनाऽस्तीत्युक्त्यैव नास्तित्वव्यावृत्तेर्लाभसम्भवेन तथाऽप्यनर्थकमेवाऽवधारणमिति चेत्; न, विधिमुखेनोपजायमानप्रत्ययस्याऽतद्व्यावृत्तिविषयत्वेनोपपादनेऽनुभवविरोधस्य दुरुद्धरत्वात् । किञ्च, यदि बौद्धाभ्युपगमेन विधिस्वरूपस्याऽतद्व्यावृत्तिरूपतयैवाऽनुभव उरीक्रियते तदाऽतद्व्यावृत्तिशब्दोऽप्यतद्व्यावृत्तिमतद्व्यावृत्तीतरव्यावृत्तिरूपेणैवाऽभिदध्यात् । एवमतद्व्यावृत्तीतरव्यावृत्तिशब्दोऽपि स्वार्थं तदितरव्यावृत्तिरूपेणैवाऽभिदध्यादित्यनवस्थैव स्यात् । न तु कस्यचिदप्यवगतिः । किञ्चाऽसद्व्यावृत्तिरिति सदिन्नभिन्नत्वम् । तत्र सद्विनेत्यस्य सन्निष्ठप्रतियोगिताकभेदवानित्यर्थोऽभ्युपगतः सत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकभेदवानित्यर्थो वा यावत्सन्निष्ठप्रतियोगिताकभेदवानित्यर्थो वा स्यात् ? नाऽऽद्यः, सन्मात्रस्यैव यत्किञ्चित्सन्निष्ठप्रतियोगिताकभेदवत्त्वेन तदिन्नत्वस्याऽसम्भवात् । न द्वितीयः, विधिरूपस्य सत्त्वस्य प्रतियोगितावच्छेदकतया भानाभ्युपगमे साक्षादेव तस्य सत्प्रतीतिविषयत्वस्य स्वीकर्तु Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा ८१ मुचितत्वात्, अतद्व्यावृत्तिरूपस्य सत्त्वस्य प्रतियोगितावच्छेदकतयाऽऽश्रयणे त्वनवस्थापिशाचिप्रवेशापत्तेः । न तृतीयः, अनुगतधर्मरूपावच्छेदकनिर्वचनमन्तरेण सन्मात्रस्य निषेधानुपपत्त्या यावत्सन्निष्ठ प्रतियोगिताया एवाऽनुपपत्तेः, घटघटेतरोभयनिष्ठप्रतियोगिताया अपि यावत्सन्निष्ठत्वेन तन्निरूपकस्य घटघटेतरोभयभेदस्य केवलान्वयित्वेन तद्वद्भिन्नत्वस्याऽसम्भवाच्च । विस्तरतस्त्वतद्व्यावृत्तिवाचकत्वमन्यत्राऽपाकृतम् । तत्सिद्धमेवकारस्य सप्तभङ्गीघटकत्वमिति ।। एवकारार्थभानं तु स्वावच्छेदकावच्छेद्यस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिकथञ्चिदस्तितावान् घट इत्येवंरीत्या तत्तदङ्गजन्यशाब्दबोधस्याऽऽश्रयणे स्पष्टमेवानुभूयते । विमलदासस्तु स्याच्छब्दार्थस्याऽनेकान्तस्य घटेनाऽन्वयं, स्यात्पदसमभिव्याहारबलेनैवकारार्थस्य प्रतियोगिव्यधिकरणस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वस्याऽस्तित्वेन सहाऽन्वयं च स्वीकृत्य प्रतियोगिव्यधिकरणस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोग्यस्तितावाननेकधर्मात्मको घट इत्याकारकं बोधं स्यादस्त्येव घट इति भङ्गादभ्युपगच्छति । अत्र येनैव रूपेण घटेऽस्तित्वं तेनैव रूपेणाऽस्तित्वाभावरूपो योऽस्तित्वस्याऽयोगस्तद्व्यवच्छेदावबोधनमेवकारस्य प्रयोजनं न लभ्यते । यतो यदूपेणाऽस्तित्वं तद्रूपेणाऽस्तित्वाभावो घटे सन्नपि न प्रतियोगिव्यधिकरण इति प्रतियोगिव्यधिकरणः स्वसमानाधिकरणो योऽत्यन्ताभावः सोऽन्यस्यैवाऽभावस्तदप्रतियोगित्वमस्तित्वे विद्यते । अस्मत्पक्षे तु यद्रूपेणाऽस्तित्वं तद्रूपेणाऽस्तित्वाभावस्य घटे सत्त्वे तु स्वावच्छेदकावच्छेद्यस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगित्वमेवाऽस्तित्वे स्यादिति भवति तद्व्यवच्छेदावभासनमिति । किञ्च, दुर्नयत्वापनोदाय स्यात्पदं प्रयुज्यते सुनयत्वसम्पादनाय च । एतदपि प्रयोजनमेतदर्थकरणे नोपपद्यते । स्यात्पदेनाऽनेकधर्मात्मकत्वस्य घटेऽववोधनेऽप्यस्तित्वस्य कथञ्चिदस्तित्वे पर्यवसानं न लभ्यते । न ह्यनेकधर्मात्मकत्वं नास्तित्वमादायैवेत्यस्ति राज्ञामाज्ञा । तथा च व्याप्यवृत्तिधर्मान्तरमादायाऽनेकधर्मात्मकत्वमपि घटे सम्भवति । व्याप्यवृत्त्यस्तित्वमादाय प्रतियोगिव्यधिकरणस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोग्यस्तित्ववत्त्वमपि स्यात्, को दोषः ? नहि व्याप्यवृत्तिधर्मे स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वस्य भावे प्रतियोगिव्यधिकरणस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं न भवेदित्यस्ति । न चाऽस्तित्वस्य व्याप्यवृत्तित्वे स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वमात्रस्यैवकारार्थतया भानेऽपि शाब्दबोधस्य प्रामाण्यं स्यादिति स्यात्पदेनोक्तैवकारार्थे प्रतियोगिव्यधिकरणत्वप्रवेशो व्यर्थमापद्येत, अतः प्रतियोगिवैयधिकरण्यप्रवेशान्यथानुपपत्त्याऽव्याप्यवृत्तित्वमस्तित्त्वस्य ज्ञायत इति वाच्यम् । यथा ह्यस्तित्वस्य व्याप्यवृत्तित्वे प्रतियोगिवैयधिकरण्यनिवेशो व्यर्थः, तदत्यन्ताभावस्य स्वसामानाधिकरण्यविरहादेव स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावपदेन ग्रहणासम्भवात्, तथाऽस्तित्वस्याऽव्याप्यवृत्तित्वे स्वसामानाधिकरण्यनिवेशो व्यर्थः स्यात्, तदत्यन्ताभावस्य प्रतियोगिवैयधिकरण्यविरहादेव प्रतियोगिव्यधिकरणात्यन्ताभावपदेन ग्रहणासम्भवात् । अन्यत्र स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वस्यैवकारार्थत्वेऽपि स्यात्पदसमभिव्याहारस्थले प्रतियोगिव्यधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वमेवकारार्थ इत्यपि वक्तुं Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा शक्यत एव । तस्मादव्याप्यवृत्तित्वपक्षे उपरञ्जकमपि स्वसामानाधिकरण्यं यथा विशेषणं तथा व्याप्यवृत्तित्वपक्षे उपरञ्जकमपि प्रतियोगिवैयधिकरण्यं विशेषणं भविष्यति । ८२ किञ्चाऽव्याप्यवृत्तित्वस्याऽवगतये यदि प्रतियोगिवैयधिकरण्यं निवेश्यते तदा स्वसामानाधिकरण्यं न निवेश्यमेव । तथा सति व्यतिरेकिणः प्रतियोगिव्यधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपमव्याप्यवृत्तित्वं विना नोपपद्यत इति भवति तेन तत्कल्पनम् । प्रतियोगिव्यधिकरणस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं तु नाऽव्याप्यवृत्तित्वनियतं, तदभावेऽपि तत्सम्भवात् । किञ्च, परं प्रत्यस्तित्वादीनामव्याप्यवृत्तित्वं साक्षाज्ज्ञापयितुं स्यादस्त्येवेत्यादयो भङ्गाः प्रयुज्यन्ते । तैरपि यद्यनुमानमुपजीव्यैवाऽस्तित्वादयोऽव्याप्यवृत्तितया ज्ञाप्यन्ते, तदा वरं प्रथमत एवाऽनुमानोपन्यासः । किञ्च, स्यादर्थस्याऽनन्तधर्मात्मकत्वस्य परं प्रत्यसिद्धतया तस्योद्देश्यविशेषणत्वमयुक्तम्, अप्राप्तस्य साक्षात्परपरम्परया वा विधेयत्वस्यैवौचित्यात्, एवमनेकधर्मात्मकत्वस्योद्देश्यघटकतया भाने सकलादेशत्वविकलादेशत्वविभागोऽपि न स्यात्, भङ्गमात्रे स्यादर्थस्याऽनेकधर्मात्मकत्वस्य साक्षादेव भानेनैकधर्मद्वारेत्यादिलक्षणासंस्पर्शात् । एवं स्यादस्त्येव घट इत्यादेः स्वद्रव्यादिनाऽस्त्येव घट इत्यादिविशेषरूपे पर्यवसानमुक्तविशेषरूपेण तदर्थस्य विवरणं च दृश्यते । तदपि विमलदासव्याख्याने न सङ्गच्छते । न ह्यनेकधर्मात्मकत्वस्य प्रतियोगिवैयधिकरणस्य वा विशेषः स्वद्रव्यादिनेति कस्याऽपि सचेतसश्चेतसि निविशते । अस्मद्व्याख्याने चाऽनन्तधर्मात्मकत्वमस्तित्वविशेषणं कथञ्चिदर्थस्वारस्याद् विधेयतयैव भासते । तत्र चाऽलौकिक्येव विषयता । तस्यां च कालादिभिरष्टभिरभेदवृत्त्याद्युपयोगघटिता विशेषसामग्रीत्यतस्तज्जन्यत्वप्रतिसन्धानदशायामेव तदवगतिरिति सकलादेशत्वविकलादेशत्वविभागः सामान्यस्य विशेषरूपे पर्यवसानमुक्तविशेषरूपेण विवरणं चेत्येतत् सर्व । यच्च 1“स्याच्छव्दादप्यनेकान्त-सामान्यस्याऽवबोधने । शब्दान्तरप्रयोगोऽत्र, विशेषप्रतिपत्तये ॥ 9 ॥।” इति वचनं, तदप्यनेकान्तत्वस्य विधेयतयोक्तदिशा भानमवलम्ब्य स्याद्वादापरिकर्मितबुद्धिमुद्दिश्ये मन्तव्यम् । अत एव तेनाऽपि “ नन्वप्रयुक्तोऽपि स्याच्छब्दो वस्तुनोऽनेकान्तस्वरूपत्वसामर्थ्यात् प्रतीयते, सर्वत्रैवकारवदिति चेत्" इत्याशङ्कय “सत्यं, प्रतिपाद्यानां स्याद्वादन्यायकौशलाभावे वस्तुसामर्थ्यात् तदप्रतीत्या तेषां प्रतिपत्त्यर्थं तदावश्यकत्वात् । प्रतिपाद्यानां स्याद्वादकौशले च स्यात्काराप्रयोग इष्ट एव, प्रमाणादिना - कान्तात्मके समस्तवस्तुनि सिद्धे कुशलानामस्ति घट इति प्रयोगेऽपि स्यादस्त्येव घट इति प्रतिपत्तिसम्भवात् । तदुक्तम् 1. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ. ३०, पं. ६ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा ८३ “सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः सर्वत्राऽर्थात् प्रतीयते । यथैवकारोऽयोगादि-व्यवच्छेदप्रयोजनः ।।१।।" इती''त्यभिहितम् । यदा च स्याद्वादापरिकर्मितधियं प्रत्येव स्यात्कारप्रयोगस्याऽऽवश्यकत्वं तदा तं प्रति विधेयत्वमपि तदर्थस्य न्याय्यम् । न चाऽनेकधर्मात्मको घटस्तादृशास्तित्ववानिति वोधेऽनेकधर्मात्मकत्वस्य स्वातन्त्र्येणैवाऽस्तु विधेयतया भानमिति वाच्यम् । तथा सति वाक्यभेदापत्तेः । किञ्च, प्रत्येकपदस्याऽर्थं पृथक्तयोपदी स्यादस्त्येव घट इति भङ्गादनेकधर्मात्मको घटस्तादृशास्तित्ववानित्याकारको बोधः पूर्वमुपदर्शितः, पश्चाद् वाक्यार्थनिरूपणावसरे “स्यादस्त्येव घटः स्यान्नास्त्येव घट इत्यस्य स्वरूपाधवच्छिन्नास्तित्वाश्रयो घटः, पररूपाद्यच्छिन्ननास्तित्वाश्रयो घट इति च बोधः” इत्युपदर्यत इति कथं पूर्वापरग्रन्थविरोधोऽपि तेन नाऽऽकलितः ? यदि च स्वरूपाद्यवच्छिन्नत्वं पररूपाद्यवच्छिन्नत्वं च न कस्याऽपि पदस्याऽभिधेयार्थो द्योत्यार्थो वा स्यात्, कस्य बलाच्छाब्दबोधे भासेत ? कथं चैवकाराद्यर्थो वाऽवयार्थाववोधे न प्रवेशित ? इति दिक् । यथा च स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः वस्तुस्वरूपावगतिः, तथा नामस्थापनाद्रव्यभावपि । एवं च स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावानां स्वस्वरूपत्वं परद्रव्यक्षेत्रकालभावानां पररूपत्वमित्याभ्यामाद्यद्वितयभङ्गावुपपाद्य सप्तभङ्गी यथोपपादिता भवति, स्वनामादीनां स्वस्वरूपत्वं, परनामादीना पररूपत्वं, ताभ्यां मूलभङ्गावुपपाद्य सप्तभङ्गी तथोपपादयितुं शक्यते । एवं स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावानां मध्यादेकस्य स्वस्वरूपत्वमपरस्य पररूपत्वमाश्रित्याऽपि सप्तभङ्गी अबाधितप्रसरा । तथा नामस्थापनाद्रव्यभावानां मध्यादेकस्य स्वस्वरूपत्वमपरस्य पररूपत्वमवलम्व्याऽपि सप्तभङ्गी सूपपादा । अत्र बीजं तु यदि यदेव स्वद्रव्येण सत्त्वं तदेव च स्वक्षेत्रादिनाऽपि सत्त्वं स्यात्, यदेव च नाम्ना सत्त्वं तदेव च स्थापनादिनाऽपि सत्त्वं स्यात्, तदा तेषां स्वरूपभेद एव न स्यात्, एकावगमनदशायां सर्वेषामप्यवगमः स्यात् । एकरूपेण व्यवहृतावविशेषेण तदन्यरूपेणाऽपि व्यवहतिः स्यात्, एकस्वरूपापगमदशायामन्य-स्वरूपस्याऽप्यपगमप्रसङ्गः, एकस्वरूपस्य स्थैर्येऽपरस्याऽपि स्थैर्यप्रसङ्ग इत्यादि स्वयमूह्यम् । यदा च नामादीनां मध्यादेकस्य स्वस्वरूपत्वमपरस्य पररूपत्वं विवक्षावैचित्र्येणाऽनेकान्तवादे व्यवस्थितं तदा न व्यधिकरणधर्मस्यैव पररूपत्वमित्यस्याऽर्थतः प्राप्तत्वेन व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एव द्वितीयभङ्गविषय इत्यस्य प्रतिक्षिप्तत्वेन प्रमेयादावप्यस्तित्वनास्तित्वविधिनिषेधकल्पनया सप्तभङ्गी 1. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ. ३१, पं. १ । 2. सप्तभङ्गीतरङ्गिणी, पृ. ३८, पं. ३ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भङ्गप्रभा निरूपद्रवैव, प्रमेयस्य प्रमेयत्वं स्वस्वरूपं घटत्वादि पररूपमिति ताभ्यामस्तित्वनास्तित्वयोः सम्भवात् । न च, निर्विशेषस्य सामान्यस्याऽभावेन घटत्वादिना प्रमेयस्य नास्तित्वे घटपटादिविशेषविनिर्मुक्तस्य प्रमेयसामान्यस्याऽप्रतीत्या सर्वथोच्छेद एव तस्य स्यादिति वाच्यम् । यतो घटो घट इति प्रतीतिर्न भवति, प्रमेयो घट इति प्रतीतिस्तु भवति । यदि घटत्वेन घटसत्तैव प्रमेयस्याऽप्यस्तित्वं स्यात् तदा घटो घट इतिवत् प्रमेयो घट इत्यप्यविशेषान्न स्यात् । तस्मात् सामान्यस्य विशेषरूपव्यतिरिक्तरूपेण सत्त्वमभ्युपगन्तव्यम् । एवमेव सविशेषरूपं सामान्यं सिद्धं भवति । अन्यथा विशेषो यथा न सविशेषस्तथा सामान्यमपि न सविशेषं स्यात् । एतेन घटो घटत्वेनाऽस्ति प्रमेयत्वेन नास्तीत्यपि व्याख्यातम् । एवं घटः प्रमेयत्वेनाऽस्ति घटत्वेन नास्ति, तथा प्रमेयो घटत्वेनाऽस्ति प्रमेयत्वेन नास्तीत्यपि बोध्यम् । ८४ विवक्षावैचित्र्यबीजं त्वित्थमवसेयम् - घटपटादितोऽत्यन्तपृथग्भावेन प्रमेयसामान्यं यद्यपि नोपलभ्यते, तथाऽपि घटः प्रमेयः, पटः प्रमेयः, मठः प्रमेय इत्यादौ सर्वत्र प्रमेयः प्रमेय इत्यबाधितानुगतप्रतीत्या घटपटाद्यनुस्यूतं प्रमेयसामान्यं तावदस्तीत्यत्र न कस्याऽपि वादिनो विगानं सम्भवति । परन्तु घटपटादीनां यथा दण्डचक्रचीवरादितुरीवेमादिप्रतिनियतसामग्रीप्रयोज्यतया घटत्वपटत्वादिको धर्मो जन्मत आरभ्यैव स्वाभाविको, नैवं प्रमेयत्वसामान्यं तस्य प्रमात्मकज्ञानविषयत्वरूपस्य प्रमासामग्रीपरतन्त्रस्य प्रमाव्यक्तिभेदेन कथञ्चिद् भिन्नस्यौपाधिकस्य तत्तत्प्रमासामग्रीदशायामुत्पद्यमानस्वरूपतया, तद्विगमदशायां विलीयमानस्वरूपतया स्वीकरणीयत्वात् । एवं च प्रमेय इति प्रमात्मकज्ञानविषयः । तस्य यदि घटत्वपटत्वादिना सत्त्वं स्यात्, तदा जन्मत आरभ्यैव घटत्वपटत्वादितिर्यग्सामान्यव्यवस्थितिपर्यन्तं सत्त्वं स्यात् । तदपगमदशायां तदपगमः स्यात् । तथा च घटपटादिकं देवदत्तो यदा न प्रमिणोति, घटपटादिभावेन च घटपटादेरवस्थानमस्ति तदाऽपि देवदत्तस्येदानीं प्रमेयो घटादिरिति स्यादित्येवं पर्यालोचयन् वक्ता प्रमेधस्य प्रमेयत्वेनाऽस्तित्वं घटत्वादिना च नास्तित्वं विवक्षति, तया च विवक्षया प्रमेयः प्रमेयत्वेनाऽस्ति, घटत्वेन नास्तीत्येवं भङ्गानां प्रवृत्तिः । एवं घटादिरतीतोऽनागतो वा प्रमाया विषयभावमुपगच्छति, ज्ञानज्ञेययोर्विभिन्नकालीनयोरपि विषयविषयिभावसम्बन्धस्योपगमात् । तथा च घटादीनां यदि प्रमेयत्वेन सत्ता स्यात् तदाऽनागतोऽपि घटः प्रमेयतादशायां वर्त्तमानः स्यात्, एवमतीतोऽपि । वर्त्तमानोऽपि च प्रमानुत्पादविगमदशायामनुत्पन्नो विनष्टश्च स्यादित्येवं पर्यालोचयन् वक्ता घटस्य घटत्वेनाऽस्तित्वं प्रमेयत्वेन च नास्तित्वं विवक्षति, तया च विवक्षया घटो घटत्वेनाऽस्ति, प्रमेयत्वेन नास्तीत्येवं भङ्गानां प्रवृत्तिर्भवति । वस्तुव्यवस्था न वस्त्वधीना किन्तु प्रमाणपरतन्त्रैव, वस्तुनः सद्भावेऽपि तत्र प्रमाया अप्रवृत्तिदशायां तद्व्यवस्थाया अभावात् । अतथाभूताऽपि वस्तुव्यवस्था क्रियते भ्रान्तैः । तत्र यद्यपि नाऽस्ति तथावस्तुसत्ता, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा ८५ नाऽपि तथाप्रमाऽस्ति, तथाऽप्यप्रमैव प्रमात्मना गृहीता तथाव्यवस्थानियामिका । एवं च घटादेर्घटत्वादिना प्रमात एव सद्भावः । तथा प्रमाया अभावे घटत्वेन घटस्य स्वरूपतो विद्यमानाऽपि सत्ता शशशृङ्गकल्पैवेति त्वालोचयन् वक्ता घटस्य प्रमेयत्वेनाऽस्तित्वं, घटत्वेन नास्तित्वं विवक्षति, तया च विवक्षया घटः प्रमेयत्वेनाऽस्ति घटत्वेन नास्तीत्येवं भङ्गानां प्रवृत्तिः । - रजते रजतत्वज्ञानं प्रमा भवति, शुक्तौ तु रजतत्वज्ञानमप्रमेत्यत्र किं नियामकमित्यपेक्षायां स्वरूपतो विद्यमानैकत्र रजतत्वसत्ता यद्रलाद्रजते रजतत्वज्ञानं प्रमा, यदभावाच्छुक्तौ रजतत्वज्ञानमप्रमेत्यास्थेयम् । एवं च रजतादौ प्रमेये रजतत्वमेव सत्त्वव्यवस्थापकं न तु तन्मुखनिरीक्षकं प्रमेयत्वमित्यालोचयन् वक्ता प्रमेयस्य घटत्वादिनाऽस्तित्वं प्रमेयत्वेन च नास्तित्वं विवक्षति, तया च विवक्षया प्रमेयो घटत्वेनाऽस्ति, प्रमेयत्वेन नास्तीत्येवं भड़ानां प्रवृत्तिरिति । नन्वेवं घटः सत्तया द्रव्यत्वेन मृत्त्वेन वाऽस्ति घटत्वेन नास्तीत्येवमपि भङ्गानां प्रवृत्तिः स्यादिति चेत्; नैवं भवतीति कः प्राह ? परसङ्ग्रहनयाश्रयणे सत्तैव घटादीनां स्वरूपमपरसङ्ग्रहाश्रयणे द्रव्यत्वादीति तन्मूलया विवक्षया तथाऽपि भङ्गानां प्रवृत्तिरप्रत्यूहैव । एवं महासत्ताया अपि सकलद्रव्यक्षेत्रकालादिव्यापकत्वं स्वस्वरूपं, तत्तद्व्यमात्रनियतत्वं तु पररूपमिति कृत्वा सप्तभङ्गीगोचरत्वमप्रत्यूहम् । इयं च सप्तभङ्गी सर्ववस्तुनियता स्वीक्रियते । शशशृङ्ग-कूर्मरोम-वन्ध्यापुत्र-गगनकुसुमादयस्तु सर्वोपाख्याविकला निर्धर्माणो न वस्तुस्वभावा इति तेषु सप्तभङ्ग्या अप्रवृत्तिर्गुणायैव । न च, शशशृङ्गादीनां नास्तित्वधर्मयोगित्वेन निर्मित्वमेवाऽसिद्धमिति वाच्यम् । सर्वधर्माणामव्याप्यवृत्तित्वस्य व्यवस्थापितत्वेन शशशृङ्गादौ नास्तित्वस्य सद्भावेऽस्तित्वस्याऽप्यावश्यकत्वेन सप्तभङ्गीप्रवृत्तेरपि प्रसङ्गात् । न चैवमेवाऽस्त्विति वाच्यम् । तथा सति शशशृङ्गादीनामनुपाख्यकोटिबहिर्भावप्रसङ्गः । न चैवं सति शशशृङ्गादीनां नास्तित्वधर्मयोगित्वानङ्गीकारे शशशृङ्गं नास्तीति प्रतीतेरनु-भूयमानायाः का गतिरिति वाच्यम् ।। अस्तित्वविरोधिनो नास्तित्वस्याऽखण्डस्याऽभ्युपगमपक्षे व्यधिकरणस्याऽपि शशीयत्वस्याऽनुयोगितावच्छेदकत्वमाश्रित्य शशीयत्वावच्छिन्नशृङ्गनिष्ठविशेष्यतानिरूपितनास्तित्वनिष्ठप्रकारताकत्वस्य तस्यामभ्युपगमेन सामञ्जस्यात् । अस्तित्वाभावस्य नास्तित्वरूपतायामप्युक्तदिशा सामञ्जस्यं प्रतियोगिमत्यपि व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगिताकाभावस्य प्रतीत्यनुरोधेन स्वीकरणीयत्वात् । व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगिताकाभावबलादेव च शशशृङ्गे नरविषाणं नास्तीति प्रतीतेरुपपत्तिः, तस्याः शशीयत्वावच्छिन्नशृङ्गनिष्यनुयोगिताकनरीयत्वावच्छिन्नविषाणनिष्ठप्रतियोगिताकाभावविषयकत्वात् । अनुयोगिवाचकपदासमभिव्याहारेऽप्यभाव Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा वोधाभ्युपगमे तु शशीयत्वावच्छिन्नशृङ्गनिष्ठप्रतियोगिताकाभावविषयकप्रतीतिरपि शशशृङ्गं नास्तीति वाक्यादुपपद्यते । एवं तात्पर्यवलाद् व्युत्पत्तिवैचित्र्येण शशत्वावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितशृङ्गत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपकबोधस्य शशीयत्वनिष्ठप्रतियोगिताकाभावत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितशृङ्गत्वावच्छिन्नविशेषप्यतानिरूपकवोधस्य च तादृशवाक्यादुपपत्तिरूह्या । शृङ्गे च शशीयत्वेन नास्तित्वप्रकारकबोधपक्षे शृङ्गे गवीयत्वेनाऽस्तित्वप्रकारकबोधोऽपि वाक्यान्तरात् स्यादेव । तथा च वस्तुनि शृङ्गे सूपपादैव सप्तभङ्गी । इत्थं च प्रकारान्तरेण शशशृङ्गादौ सप्तभङ्गयुपपादनप्रयासो विमलदासादीनामस्थान एवेति मन्तव्यम् । ननु, सप्तभङ्गीव्यतिरिक्तवादस्यैकान्तत्वं सप्तभङ्ग्याश्चाऽनेकान्तत्वं भवतामनुमतम् । तत्रेदं वक्तव्यं सप्तभङ्गीव्यतिरिक्तवादस्यैकान्तत्वं सर्वथा वा स्यात् कथञ्चिद्वा ? आद्ये तत्रैवैकान्तत्वस्य विधिनिषेधकल्पनया सप्तभङ्ग्या न प्रवृत्तिरिति व्यापकत्वं तस्या भज्येत । द्वितीये द्वितीयभङ्गाववोध्यानेकान्तत्वसमन्वितत्वेनैकान्तवादोऽप्यनेकान्तवाद एवेति तदपाकरणं स्ववधाय कृत्योत्थापनं भवतः प्रसक्तं, सेयमुभयतः पाशा ८६ रज्जुः । एवं सप्तभङ्ग्यामप्यनेकान्तत्वं सर्वथा वा स्यात् कथञ्चिद् वेति विकल्पद्वयं नाऽतिक्रामति । आद्ये तत्रैव सप्तभङ्ग्या व्यापकत्वव्याकोपः । एवमस्मिन् पक्षे धर्ममात्रस्याऽव्याप्यवृत्तित्वनियमोऽपि भग्न इति यथा स्वात्यन्ताभावासमानाधिकरणमप्यनेकान्तत्वं श्रद्धास्पदं तथैव धर्मान्तरमपि वस्तुनि स्यादित्येकान्तवादापाकरणमसमञ्जसमापद्येत । द्वितीयेऽनेकान्तवादोऽपि द्वितीयभाववोध्यैकान्तत्वसमन्वित इत्येकान्तवादोन्मूलनपटिष्ठदूषणगणक टाक्षित एव स्यात् । एवं सप्तभङ्गीधर्मिकानेकान्तत्वविधिनिषेधकल्पनसमुत्था येयमपरासप्तभङ्गी साऽपि द्वितीयपक्षनिक्षिप्तानेकान्तत्वसमनुगता स्वधर्मिकानेकान्तत्वविधिनिषेधकल्पनासमुत्थाऽपरसप्तभङ्गीसमालिङ्गितैवाऽऽश्रयणीया, साऽपीत्थमित्यनवस्थातो न मुक्तिः । एवं प्रतिपाद्यगतमप्यनेकान्तत्वं सप्तभङ्गीगोचरतयैवाऽऽस्थेयं सप्तभङ्गयाः सर्वधर्मव्यापकत्ववादिना । तथा च सर्वधर्माणामेकान्तत्वं द्वितीयभङ्गगोचरतया प्राप्तमिति यथा यथाऽनेकान्तवादावलम्वनेनैकान्तत्वमपाक्रियते तथा तथैकान्तत्वमागच्छतीति चेत्; मैवं, सर्वथा ह्येकत्वस्य शशशृङ्गकल्पत्वेन सप्तभङ्गन्यास्तत्र प्रवृत्त्यभावेऽपि न वस्तुव्यापकत्वस्वभावस्य हानिः । कथञ्चिदेकान्तत्वं तु वस्तुभूतं, तदव्यापकत्वं सप्तभङ्गया अभ्युपगम्यत एव । तदपाकरणं तु नैव क्रियतेऽनेकान्तवादिना, किन्तु दुर्नयाभिमतस्य सर्वथैकान्तत्वस्याऽपाकरणेन कथञ्चिदेकान्तत्वं नयापेक्षया व्यवस्थाप्यते । न च, सर्वथैकान्तत्वस्य विधिनिषेधागोचरत्वे तदपाकरणमप्यशक्यमिति वाच्यम् । एकान्तत्वं हि प्रसिद्धं तत्र यदवच्छिन्नत्वं नास्ति तदवच्छिन्नत्वमप्यन्यत्र प्रसिद्धम् । तदवच्छिन्नत्वे - नैकान्तत्वज्ञानस्याऽप्रामाण्यज्ञापनमेव तदपाकरणं, तच्च शक्यमेव । एवं सप्तभङ्ग्यां सर्वथाऽनेकान्तत्वमपि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा शशशृङ्गकल्पमेवेति तदव्यापकत्वेऽपि सप्तभङ्गया न किञ्चिदपचीयते । यत् पुनः सप्तभङ्ग्यां कथञ्चिदनेकान्तत्वं वस्तुभूतं तद्व्यापकत्वं सप्तभङ्गयामभ्युपगम्यत एव प्रमाणापेक्षयाऽनेकान्तत्वस्य नयापेक्षयैकान्तत्वस्य च व्यवस्थितौ सत्यां स्यादनेकान्त एव सप्तभङ्गीवादः स्यादेकान्त एव सप्तभङ्गीवाद इत्येवं सप्तभङ्गीप्रवृत्तेः सम्भवात् । एकान्तवादखण्डनपटिष्ठदूषणगणस्तु सर्वथैकान्तत्वमेवाऽऽक्रामति, न तु कथञ्चिदेकान्तत्वम् । तद्ध्यनेकान्तत्वस्य साहाय्यमेवाऽऽचरति, न तु विरोधमिति । सप्तभङ्गीगतानेकान्तत्वाववोधनपरा सप्तभङ्गयपि कथञ्चिदनेकान्तत्वसमनुगतेति तत्राऽप्यपरा सप्तभङ्गी प्रवर्तत एव । उक्तमर्थमर्थतः संवदन्ति श्रीमन्तो यशोविजयोपाध्यायाः महावीरस्तवाख्यग्रन्थस्य -- “देशेन देशदलनं भजनापथे तु, त्वच्छासने निजकरेण मलापनोदः । व्याघातकृन्न भजनाभजना जनाना - मित्थं स्थितौ शवलवस्तुविवेकसिद्धेः ||४२ || " इति स्तुतेर्व्याख्याने न्यायखण्डखाद्ये, तथा च तद्ग्रन्थः “देशेन न्यायनयेन, देशदलनं वौद्धनयदलनं, त्वच्छासने भजनापथे तु स्याद्वादमार्गे तु, निजकरेण मलापनोदो व्रणादिमलापनयनं, स्यात्कारोपादानानुपादानाभ्यां स्याद्वादाज्ञया नययोर्दूषकदूष्यत्वस्थितिरित्यर्थः । तथाऽप्येकान्तयुक्तीनां तत्त्वतो मिथ्यात्वादाश्रयणानौचित्यमिति चेत्; न, “असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते" इति न्यायेन शिष्यमतिविस्फारणार्थं तदुपादानस्याऽपि न्याय्यत्वात् । परमार्थतस्तु नयभाषाप्रयोग एव नास्ति, कुतस्तद्युक्त्याश्रयणमिति वोध्यम् । तदुक्तं सम्मतौ “सीसमईविप्फारण- मेत्तत्थोऽयं कओ समुल्लावो । इहरा कहामुहं चे व णत्थि एवं ससमयम्मि || 9 || त्ति " ८७ अयं च निषेधः स्वतन्त्रनयविषयः । स्याद्वादैकवाक्यतापन्ननयवाक्यस्य तु तत्त्वादेव नाऽप्रतिपादनीयत्वमिति ध्येयम् । तदाह भजनाभजना स्याद्वादेऽपि स्याद्वादः न व्याघातकृत् न स्याद्वादलक्षणक्षतिकृत्, एकत्र धर्मिणि प्रतिधर्मं सप्तधर्मप्रकारकबोधजनकतापर्याप्तिमद्वाक्यत्वस्य स्याद्वादलक्षणस्य प्रतिभङ्गमेकधर्मावधारणत्वरूपनयत्वेऽप्यविरोधात् । तदाह समन्तभद्रः “अनेकान्तेऽप्यनेकान्त" इत्यादि, प्रमाणत्वमाश्रित्याऽनेकान्तो, नयत्वमाश्रित्य चैकान्त इत्येतदर्थः । यदि च स्यादस्त्येवेत्यादिसप्तभङ्गयात्मकमहावाक्ये स्यात्पदस्य वाचकत्वपक्षे बुद्धिविषयावच्छेदका - वच्छिन्नत्वमेव तदर्थस्तदा सामान्यतोऽवच्छेदकलाभे विशेषतस्तज्जिज्ञासायां तदनन्तरं स्वद्रव्यापेक्षयाऽस्त्येवेत्यादिरेकान्तेन नयवाक्यप्रयोग इति तस्याऽपि प्राक्तनानेकान्तसापेक्षत्वेनाऽनेकान्तानेकान्तत्वं परिभाषन्ते । अत एव नाऽनवस्था, तृतीयचतुर्थानेकान्तयोः प्रथमद्वितीययोरेव विश्रामात् । अन्योन्याश्रयस्तु प्रामाणिक इति बहवः । विशेषतोऽवच्छेदकजिज्ञासाया अपि सप्तविधाया औत्सर्गिकत्वात् भङ्गद्वयप्रयोगस्य च Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ सप्तभङ्गीप्रभा व्युत्पन्नापेक्षत्वात् सामान्यविशेषभावेन सप्तभङ्गीद्वयविश्रामे तदादिवत् । स्यात्पदेन लब्धस्याऽर्थस्य विवरणेन स्पष्टत्वार्थं वोत्तरप्रयोगान्न दोषस्पर्शोऽपीति तु वयम् । तदाह - इत्थं सामान्यविशेषभावेन विचार्य विवरणपरतया वाऽनेकान्तकान्तवाक्ययोर्व्यवस्थितौ जनानां शबलवस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकतत्त्वसिद्धेर्न भजनाभजना व्याघातकृदिति' इति । एतद्ग्रन्थाभिप्रायस्तु न्यायप्रभाख्यायामेतद्वृत्तौ प्रदर्शितोऽस्माभिरिति विशेषावगमार्थिना तत एवाऽवधारणीयः ।। सप्तभझ्या यद्धर्ममात्रव्यापकत्वमभ्युपगम्यते तत्तत्प्रवृत्तियोग्यतामाश्रित्य, न तु विशेषतस्तत्प्रयोगमाश्रित्य । तथा च या या सप्तभङ्गी प्रयोगपथं विचारपथं वा रूढा स्यात् तासां सर्वासामपि कथञ्चिदनेकान्तत्वं विषयतया सप्तभङ्गीप्रवृत्तियोग्यमिति वस्तुस्थितौ सप्तभङ्गीप्रयोगप्रवाहानवस्था नाऽस्त्येव । सर्वज्ञज्ञानगोचरतादृशसप्तभङ्गीप्रवाहानवस्था तु वस्तुनस्तथात्वेन प्रामाणिकत्वादेव न दोषतास्पदमित्यभ्युपगम्याऽप्यनवस्था स्याद्वादिनः सुखासिकामास्थातुमीशते । सप्तभङ्गीत्वावच्छेदेन कथञ्चिदनेकान्तत्वं कथञ्चिदेकान्तत्वं च विधिनिषेधभावेनाऽवलम्ब्य सप्तभङ्गी प्रवर्त्तमाना स्वात्मानमप्यालम्बत इत्यभ्युपगमेऽप्यनवस्था परिहृता भवति । आत्माश्रयस्तु प्रामाणिकतयैव न दोषावह इत्यपि वोध्यम् । प्रतिपाद्यगतं त्वनेकान्तत्वं कथञ्चित्प्रतिपाद्यतत्तद्धर्माभिन्नमिति तदनेकान्तत्वेनैवाऽनेकान्तमिति नाऽनवस्था । अनवस्थात्माश्रययोरन्यतरस्याऽऽवश्यकत्व आत्माश्रय एव कथञ्चित् स्वीकर्तुमुचितः । यदि चाऽऽश्रयेण सह कथश्चिद् भेदमाश्रित्याऽनेकान्तत्वेऽप्यनेकान्तत्वं कथञ्चिदतिरिक्तमभ्युपेत्याऽनवस्थाऽऽपाद्यते तदा तस्याः प्रामाणिकत्वादेव न दोषत्वम् । सर्वमनेकान्तात्मकमिति सर्वत्वावच्छेदेनाऽने-कान्तत्वाववोधनत एवाऽनेकान्तत्वेऽप्यनेकान्तत्वमवबोधितम् । तस्याऽपि सर्वान्तर्गतत्वादित्युपदर्शितपद्धतिवलम्व्याऽनेकान्तत्वेऽनेकान्तत्वं तत्राऽप्यनेकान्तत्वमित्यनवस्थितानेकान्तत्वपरम्पराप्रतिपादकानवस्थितसप्तभड़ीप्रवाहप्रसङ्गः परिहरणीय इत्यपि पन्थाः स्याद्वादिनां निष्कण्टक एवेति दिक् । अनेकान्तवादश्चाऽयं क्वचित् क्वचिद् विषये परैरपि स्वीक्रियते । यथैकमपि प्रधानं सत्त्वरजस्तमोरूपगुणत्रयात्मकं साङ्ख्यैरभ्युपगम्यते, एकाऽपि समूहालम्वनात्मिका वुद्धिर्नीलपीताद्यनेकाकाररूपा वौद्धैरुपेयते, चित्ररूपमेकनेकं च काणादाक्षपादाभ्यामुपेयते, नव्यन्यायनिष्णातेन च शिरोमणिना मूले वृक्षः कपिसंयोगी, न शाखायामित्यनुभवबलाद् वृक्षे कपिसंयोगतद्ववेदौ चाऽभ्युपगतौ, एवं तद्वत्यपि पदार्थे व्यधिकरणधर्मेण तदभाव उपगत इति तत्र सर्वत्राऽवच्छेदकभेदेन विरुद्धधर्मद्वयाभ्युपगमवलादाद्यद्वितीयभङ्गयोः सिद्धौ सप्तभङ्गी सिद्धैव । तदुक्तं महावीरस्तवे यशोविजयोपाध्यायैः, “साङ्ख्यः प्रधानमुपयंस्त्रिगुणं विचित्रां, बौद्धो धियं विशदयन्नथ गौतमीयः । वैशेषिकश्च भुवि चित्रमनेकमेकं, वाञ्छन् मतं न तव निन्दति चेत् सलज्ज ||४४।।" इति, व्याख्यातं च तत्पक्षं तैरेव – “साख्यः प्रधानं परस्परविरुद्धसत्त्वरजस्तमोरूपगुणत्रयगुम्फितमेकमुपैति । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा बौद्धश्च विचित्रामेकानेकग्राहकग्राह्याकारकरम्बितां धियं विशदयति-विवेचयति । गौतमीयो वैशेषिकश्चोक्तरीत्या चित्रं चित्ररूपमेकमनेकं च वाञ्छति, तदेते चत्वारोऽपि यदि सलज्जास्तदा तव मतं स्याद्वादपवित्रं न निन्दन्ति, तन्निन्दायाः स्वपदकुठारप्रहारतुल्यत्वात्, एकांशस्य प्राधान्येऽपरांशस्य च गौणत्वे युक्तेरनवस्थितत्वात्, नयानां परस्परोपमर्दमात्रप्रवृत्तत्वात्, तत्त्वनिर्णयस्तु स्याद्वादन्यायैकसाध्यत्वादिति भावः” इति । ___ “अव्याप्यवृत्तिगुणिभेदमुदीर्य नव्या-भावं प्रकल्प्य च कथं न शिरोमणे ! त्वम् । स्याद्वादमाश्रयसि सर्वविरोधिजैत्रं, बूमः प्रसार्य निजपाणिमिति त्वदीयाः ।।४५।।" इति च तत्रैव शिरोमणिं प्रति शिक्षावचनम् । तद्व्याख्यानमित्थं तेषामेव “अव्याप्यवृत्तिः गुणिनः संयोगिनो भेदमुदीर्य नव्यं च व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकमभावं परिकल्प्य विश्रान्तस्त्वं हे शिरोमणे ! किं न स्याद्वादमाश्रयसि ? तदाश्रयणं विना सम्पूर्णबोधानुपपत्तेः, सूक्ष्मधियस्तव सोऽवश्यमाश्रयणीय इति शिक्षावचनं वयं त्वदीया निजपाणिं प्रसार्य ब्रूमः । पाणिप्रसारणं शिक्षाभङ्गी ।" अयं भावः -- “मूले वृक्षः कपिसंयोगी न शाखायामित्यवाधितानुभवबलात् कपिसंयागितद्वेदयोरवच्छेदकभेदेन समावेशः परेण साधितः । तथैव स्वद्रव्याद्यपेक्षया घट: सन् परद्रव्याद्यपेक्षया त्वसन्नित्यबाधितानुभवेन सदसतोरपि तादात्म्यसमावेशः किं न कल्प्यते ? प्रतियोग्यनवच्छेदकस्याऽभावावच्छेदकत्वेऽतिप्रसङ्गस्याऽनुभवविनिगमनेनैव निवारणात् । प्रतियोग्यनवच्छेदकमपि किञ्चिदेव कस्यचिदभावस्य वृत्ताववच्छेदकमिति । अथवा परद्रव्याद्यपेक्षयेत्यस्य प्रतियोग्यनवच्छेदकावच्छेदेनेत्येतावानेवाऽर्थः । यदि वा स्वद्रव्यादीनामप्यस्तित्वशरीरघटकत्वमेवाऽपेक्ष्यत्वं, परद्रव्यादीनां च नास्तित्वशरीरघटकत्वमेव तथा, तथा च व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एव द्वितीयः । अभ्युपगम्यते चाऽयं “यदि च घटत्वेन पटो नास्तीति प्रत्ययः स्वरसवाही लोकानां तदा व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाववारणं गीर्वाणगुरोरप्यशक्यम्” इति वदता परेणाऽपि । एवं प्रतीतिवलसिद्धव्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाधिकरणताकाभावमादायाऽपि द्वितीयभङ्गः समर्थनीयः, नानागमभङ्गबहुलत्वाद् भगवत्प्रवचनस्य । गमाः – प्रतिपत्तिप्रकाराः, भङ्गाःप्रतिपादकप्रकारा इति विवेकः । न चैवं व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावादीनां सार्वत्रिकत्वेनाऽव्यावर्तकत्वाद द्वितीयभङ्गादिवैयर्थ्यमिति शङ्कनीयम् । एवकारोदितसर्वथा नास्तित्वशङ्कायाः स्यात्कारेण निर्दलनेन तत्सार्थक्यात् । यथा चित्रे घटे नील एवेति प्रयुक्ते सर्वथा नीलत्वप्रसक्तौ तद्वारणार्थं स्यात्कारप्रयोगः, प्रथमभङ्गोत्थापिताकाङ्क्षया च क्रमेणाऽन्ये भङ्गा लोकव्यवहारानुसारेण प्रयुज्यन्ते तथा सर्वत्र सप्तभङ्ग्यामिति दिग्” इति । सप्तभङ्गीवाक्यस्यैव पूर्णोत्तरत्वमिति न्यायखण्डखाद्ये श्रीमद्भिर्यशोविजयोपाध्यायैरुपपादितम् । तथा च तद्ग्रन्थः – “एतच्चाऽभिनिविष्टसौगतनयखण्डनोद्देशेन प्रवृत्तमपि पूर्वरूप एव पर्यवस्यति, एकान्तावगाहित्वेन जातिप्रायत्वादुत्सर्गत ईदृशाभिधानस्य सिद्धान्तनिषिद्धत्वात् । अवधारिणी भाषां न भाषेतेति Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा तदुक्तेः, औदासीन्येन स्वार्थावधारणमात्रपरत्वेऽप्यंशोत्तरम, सप्रतिपक्षधर्मद्वयस्थले सप्तधर्मजिज्ञासया सप्तभिः प्रश्नैर्मिथः साकाङ्क्षसप्तभङ्गात्मकमहावाक्यस्यैव पूर्णोत्तरत्वात् । शबलं हि वस्तु यावद्धम॑र्जिज्ञासितं तावद्धर्माभिधान एव वाक्यं निराकाक्षं भवति” इत्यादि । ___ कार्यकारणभावोऽपि सप्तभङ्गीमुपादायैव सम्भवतीत्ययमप्यर्थस्तत्रैव तैर्निणीतः “कस्या अपि कारणतायाः केनाऽपि रूपेण स्याद्वादं विना नियन्तुमशक्यत्वात् । अत एव सप्तभङ्गीविधिसमारूढत्वेनाऽर्थक्रियाकारित्वमिति प्राचीनोक्तिरपि सङ्गच्छते, तथाऽन्वयव्यतिरेकसधीचीनविचारस्य तथा कारणत्वग्रहहेतुत्वात्, यावति विचारे किंवृत्तचिद्विधिः पूर्यते तावत एव प्रमाणत्वात्" इत्यादिना । सप्तभङ्गीवादस्यैव सर्वमतोपजीव्यत्वं “स्याद्वाद एव तव सर्वमतोपजीव्यो, नाऽन्योऽन्यशत्रुपु नयेषु नयान्तरस्य । निष्ठावलं कृतधिया क्वचनाऽपि न स्व-व्याघातकं छलमुदीरयितुं च युक्तम् ।।३९।।" इत्यनेन निष्टङ्कितम् । स्यात्पदस्याऽनिर्धारणार्थत्वाद् विरुद्धोभयगोचरज्ञानस्य संशयत्वेनाऽप्रमाणत्वाच्च सप्तभङ्गीनयो न प्रमाणमिति वदतः शिरोमणेरज्ञानमुद्घाटितं महोपाध्यायेन न्यायखण्डखाये – “न ह्येकत्र नानाविरुद्धधर्मप्रतिपादकः स्याद्वाद:, किन्त्वपेक्षाभेदेन तदविरोधद्योतकस्यात्पदसमभिव्याहृतवाक्यविशेषः स, इति द्योतिते च तदविरोधे संशयावकाशस्यैवाऽभावात् कथं स्वहृदयगतमनवधारणमस्मास्वारोप्यते शिरोमणिना?" इत्यादिना । सप्तभङ्गीवाक्यस्य सप्तधर्मप्रकारकवोधजनकत्वे व्यवस्थिते तदुपजीविनोऽनुमानस्याऽपि तथात्वम् । अमुमर्थमुपपादितवन्तः श्रीमन्त उपाध्यायाः - “द्रव्याश्रया विधिनिषेधकृताश्च भङ्गाः, कृत्स्नैकदेशविधया प्रभवन्ति सप्त । आत्माऽपि सप्तविध इत्यनुमानमुद्रा, त्वच्छासनेऽस्ति विशदव्यवहारहेतोः ।।६९।।'' इति पद्येन । “यथा त्रिषु कार्येन त्रित्वमेकद्विव्यक्त्यव्यवच्छेदेन च तदभावः, तथा सर्वत्र वस्तुन्येकग्रहणगृहीते कात्स्येंनाऽनवच्छेदात्मना जात्यन्तरत्वपरिचायकेनोत्पादव्ययधौव्यलक्षणद्रव्यत्वम्, एकैकोत्पादाद्यवच्छेदेन तद्द्वयावच्छेदेन च तदभाव इति भवति सर्वत्र द्रव्यत्वतदभावकल्पनया सप्तभङ्गी । यद्वा समुदायप्रवृत्तानां शब्दानामवयवोपचारं कृत्वा धौव्यलक्षणं द्रव्यत्वम्, उत्पादव्ययलक्षणं पर्यायत्वं चाऽऽदाय सप्तभङ्गीप्रवृत्तिर्भावनीया । एवमात्माऽपि द्रव्याद्रव्यत्वादिना सप्तविधः । कस्मात् ? विशदव्यवहारहेतोः, स्याच्छब्दलाञ्छितसप्तप्रकारकव्यवहारान्यथानुपपत्तेः । घटादिवदिति दृष्टान्तोऽभ्यूह्यः । इतीयं त्वच्छासने आगमोपजीव्यनुमानमुद्राऽस्ति । एतच्च प्रकारद्वयमर्थपर्यायमाश्रित्य, व्यञ्जनपर्यायमाश्रित्य पुनः सविकल्पकनिर्विकल्पकत्वाभ्यां भेदद्वयमेव । अर्पितत्वं सविकल्पत्वमनर्पितत्वं निर्विकल्पत्वम् । अर्पणाकुक्षौ पर्यायप्रवेशादात्मनो द्रव्यपर्यायो Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा भयात्मकत्वमिति दिगि 'ति तद्व्याख्यानम् । अत्र ये विरोधवैयधिकरण्यानवस्थासङ्करव्यतिकरसंशयाप्रतिपत्तिवस्त्वभावाभिधानष्टौ दोषानापादयन्ति तेऽनेकान्तवादस्वरूपमेव न जानन्ति, नवा तेषां दोषाणां स्वरूपमिति जानीमहे । तथा हि - विरोधस्त्रिविधः - परस्पराभावरूपत्वं, परस्पराभावापादकत्वं, परस्परभेदवत्त्वमिति भेदात् । तत्राऽऽद्यो भावाभावयोः, नित्यत्वानित्यत्ववत् । द्वितीयः परस्पराभावव्याप्ययोः, शीतोष्णत्ववत् । तृतीयो विविक्तलक्षणयोर्धर्मयोः, दण्डिकुण्डलित्ववत् । आद्यस्तावद्विरोधोऽस्तित्वनास्तित्वयोः को नाम नाऽनुमनुते ? किन्तु नाऽयं विरोधो विरोधिनः स्वरूपस्यैवोपमर्दकः । तथा सति विनिगमनाविरहादस्तित्वविरोधान्नास्तित्वं नास्तित्वविरोधाच्चाऽस्तित्वं जगति न स्यादेव । एवं च धर्मिणोरभावाद् विरोधोऽप्ययं शशशृङ्गकल्पः स्यात् । एवं विरोधतदभावयोरप्युक्तलक्षणविरोधास्पदत्वादभाव एव स्यात् । एतेनैव द्वितीयतृतीयावपि विरोधौ न विरोधिनः स्वरूपस्यैवाऽपहारकावित्यपि व्याख्यातम् । इदं तु स्याद् यत्र परस्पराभावरूपत्वलक्षणः परस्पराभावापादकत्वलक्षणो वा विरोधः, तत्र सहानवस्थानमभ्युपगम्यत इति विरोधनियतत्वात् सहानवस्थानमपि विरोधः । एवं च द्वितीयविरोधसमाक्रान्तयोः शीतोष्णयोर्यथा नैकत्राऽवस्थानं तथाऽस्तित्वनास्तित्वयोरपि प्रथमविरोधसमाक्रान्तयोः स्यात् । तत्राऽपि सहानवस्थानं नैकाधिकरणावृत्तित्वम्, एकसम्बन्धेन प्रतियोगिमत्यपि सम्वन्धान्तरावच्छिन्न-प्रतियोगिताकतदभावस्य परैरपि स्वीकारात् । नाऽपि येन सम्वन्धेन यस्य यदधिकरणं तस्मिन्नधिकरणे तत्सम्बन्धावच्छिन्नतन्निष्ठप्रतियोगिताकाभावस्याऽवृत्तित्वं तत्, एकरूपेण तद्वत्यपि रूपान्तरेण तदभावस्य भावात् । नाऽपि रूपविशेषस्योक्तविरोधकोटौ निवेशेऽपि निस्तार:, तेन रूपेण तेन सम्बन्धेन तद्वत्यपि कालान्तरे तेनैव रूपेण तेनैव सम्बन्धेन तदभावस्य भावात् । नाऽपि कालविशेषस्य तत्र प्रवेशेऽपि निर्वाहः, तथा प्रतियोगिमत्यपि तथैव तदभावस्य देशभेदेन भावात् । ९१ तस्माद् यद्रूपेण यत्सम्वन्धेन यदा यद्देशावच्छेदेन यस्य यदधिकरणं तद्रूपावच्छिन्नतत्सम्वन्धावच्छिन्नतन्निष्ठप्रतियोगिताकाभावस्य तत्काले तद्देशावच्छेदेन तस्मिन्नधिकरणे न सत्त्वमित्येव भावाभावयोः सहानवस्थानं वाच्यम् । तादृशस्य विरोधस्यैकत्र भिन्नरूपाद्यवच्छेदेनाऽस्तित्वनास्तित्वयोः स्वीकृतौ न प्रतिपन्थित्वम् । भिन्नावच्छेदेनाऽस्तित्वनास्तित्वयोरविरोधद्योतनायैव हि सप्तभङ्गयां स्यात्पदं प्रयुज्यत इति । एवं च कथञ्चिदस्तित्वकथञ्चिन्नास्तित्वयोः सप्तभङ्गीगोचरयोर्नास्त्येव विरोध इति को नाम प्रमाणदर्शी नाऽभ्युपगच्छेत ? एतेन विभिन्नाधिकरणवृत्तित्वमपि प्रत्युक्तम् । अनवस्था तु यथा नाऽत्र दोषतामावहति, तथोपपादितमधस्तात् । न हीयं सप्तभङ्गी परीक्षकाणामनुभवमवधूयाऽभ्युपगम्यते । येन येन रूपेण सत्त्वं तेन रूपेणाऽसत्त्वस्याऽपि प्राप्तिर्येन रूपेणाऽसत्त्वं तेन रूपेण सत्त्वस्याऽपि प्राप्तिरिति संकरः स्यात् । प्रमाणरूपविनिगमनवलाच्च रूपभेदेनैव सत्त्वासत्त्वयोर्व्यवस्थितौ कुतः संकरस्याऽवकाश: ? एतेनैव येन रूपेण सत्त्वं तेन रूपेणाऽसत्त्वमेव स्यात्, न तु सत्त्वम्, येन Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गीप्रभा रूपेण चाऽसत्त्वं तेन सत्त्वमेव स्यात्, न त्वसत्त्वमिति परस्परविषयगमनलक्षणो व्यतिकरोऽपि निरस्तः । येन रूपेण सत्त्वं तेनाऽसत्त्वमेव स्यादित्यत्र परोऽपि न किञ्चित्प्रमाणमुपदर्शयितुं समर्थः । तथा सति तद्रूपस्य सत्त्वावच्छेदकत्वं न भवेत्, किन्त्वन्यदेवेति प्रमाणगोचरत्वादीदृशो व्यतिकरो दोषतास्पदमेव न स्यादिति । ___ एकत्र धर्मिणि विरुद्धनानाधर्मप्रकारकज्ञानं संशय इति लक्षणे एकत्र वृक्षे विभिन्नावच्छेदेन कपिसंयोगतदभावप्रकारकज्ञानस्य प्रमात्मकस्य संशयत्वं मा प्रसाक्षीदित्येतदर्थं विरुद्धत्वस्य नानाधर्मविशेषणत्वं परेणाऽपि स्वीक्रियत इति धर्मविशेषणतया संसर्गतया वा विरोधभानस्याऽऽवश्यकत्वम् । विरोधभाने चाऽव्याप्यवृत्तित्वज्ञानं प्रतिबन्धकमिति तदभावस्य प्रतिबन्धकाभावविधया कारणत्वम् । स्यात्पदेन च कथञ्चिदर्थकेनाऽव्याप्यवृत्तित्वमेव धर्मेऽवभासत इति कार्यसहभावेन कारणीभूतस्य प्रतिबन्धकाभावस्याऽभावादेव सप्तभङ्गीजन्यज्ञाने विरोधभानस्याऽभावे तन्नियतस्य संशयत्वस्याऽप्यनवकाशः । यन्मते समुच्चयात् संशयस्य वैलक्षण्योपपत्तये प्रकारताद्वयनिरूपितैकविशेष्यताया अभ्युपगमः, तन्मतेऽप्येकत्र द्वयमिति रीत्या जायमानज्ञानाद् वैलक्षण्योपपत्तये संशये विरोधभानमवश्यमङ्गीकार्यम् । यदि चैकत्रद्वयमिति रीत्या जायमानज्ञाने प्रकारताद्वयनिरूपितैकैव विशेष्यता, संशये तु विशेष्यताद्वयं, तयोरवच्छेद्यावच्छेदकभावस्याऽभेदस्य वा स्वीकारात् समुच्चयाद् वैलक्षण्यमिति विभाव्यते, तदा सप्तानां भङ्गानामेकवाक्यतोपपत्तये सप्तभङ्गीजन्यबोधस्यैकत्र द्वयमिति रीत्यैव स्वीकरणीयतया समुच्चयात्मतैव वा स्वातन्त्र्येण स्वीकरणीयतयोभयथाऽपि न संशयत्वप्राप्तिः । सप्तभङ्गीतः सप्तधर्मप्रकारकबोधस्योपपादितत्वेनाऽप्रतिपत्तिस्तु शङ्कितुमप्यशक्या । विरोधादीनां सप्तानामपि दोषाणामभावेऽनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रमाणसिद्धस्याऽप्यभाव इति को नाम सचेता ब्रूयाद् ? इति दोषकणसम्पर्काकलङ्किता सप्तभङ्गी प्रमाणसाम्राज्यमर्हतीति सिद्धम् । दोषाः सन्तु सहस्रशः सुमहताऽऽयासेन सङ्गुम्फिता, एकान्तागमतत्परैर्मतिवरैः स्याद्वादमार्ग परैः । सिद्ध्या ते तु तिरस्कृता विमलया स्याद्वादमानं विना, यन्मिथ्यात्वगुहां विशन्ति तदलं दुर्नीतिसचेष्टितम् ।।१।। स्याद्वादागममर्मविद्भिरमलन्यायव्रजोल्लासकैभङ्गः सप्तभिरिष्टपद्धतिगता ये सिद्धिमाभेजिरे । ते दुर्णीतिकदर्थनैकनिपुणा दोषास्तु कर्तुं कथं, स्याद्वादं निजसिद्धिदक्षममलं दक्षा निजस्याऽऽस्पदम् ।।२।। ये ये मानपथं प्रयान्ति विषयाः सन्नीतिसन्दर्शितास्ते सर्वेप्रतिधर्ममेव नियताः सप्तप्रकारैर्यतः । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गप्रभा तस्मात् सप्तभिरेव युक्तिनिपुणा भङ्गैरनेकान्तत - स्तानर्थान् प्रतिपादयन्ति कृतिनो मार्गस्ततोऽयं वरः ||३|| यतो भवति सर्वथा परिचय मितार्थव्रजे, परीक्षणविधेः कलाऽप्युदयमेति सन्नीतिगा । निसर्गगरिमोन्नताऽप्यतिसुसूक्ष्मसूत्राश्रिता, मुदे भवतु सा सतां जगति सप्तभङ्गीप्रभा ||४|| विधिप्रथनतत्पराऽप्यथ निषेधनिष्ठाङ्गता, प्रमाणतमताङ्गता सकलदेशनातः सतः । सुनीतिवचनत्वतः प्रतिवचोऽप्यमन्दप्रभा, स्थितिं हृदि सदा सतां भजतु सप्तभङ्गीप्रभा ॥ ५॥ परोपकृतिकर्मठा मितिनयप्रथाशिल्पिनो, बुधा इह महीतले यदि वसन्ति शुद्धाशयाः । तदा कथमियं प्रभा न भविताऽमला सर्वथा, विशोधनकलाबलान्मतिमतां सुदृष्टिङ्गता ॥ ६॥ त्यजन्तु मतिवैभवाः परिचितार्थसार्था धिया, इमामुपहन्तु वा निविडमत्सराधीश्वराः । परे गजनिमीलिकां विरचयन्तु वाऽस्यां बुधास्तथाऽपि सरलान् शिशून् प्रतिफलिष्यतीयं ध्रुवम् ||७|| श्रुतार्थमननाय वा मम भवेदियं सर्वथा, जिनप्रवरपूजनं भवतु वाड्मयं वा वरम् । अनल्पनयगुम्फितं वचनमत्र प्राचां श्रिता, सुसेवनपराऽथवा भवतु सप्तभङ्गीप्रभा ||८|| गुरोर्गुणगणास्पदात् प्रथितवृद्धिन्द्राभिधाद्, मुनेः किमपि यन्मया कलितमर्थतत्त्वं धिया । तदेव मननान्वयान्मितिनयादराभ्यासतः, पचेलिमदशाङ्गतं समभवत् प्रभेयं स्फुटम् ||९|| ९३ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ कृतं श्रुतनिशितं सविधियोगकर्मोच्चयं, विचारितमबाधितं सनयमानमत्यादरात् । सदाऽऽप्तचरितानुगो जगति येन पन्थाः कृतः, कृतिर्जयतु तस्य सा विजयनेमिसूरेरियम् ||१०|| वस्वश्वाडूनिशाधिनाथप्रमिते (१९७९) संवत्सरे वैक्रमे, निर्वाणाद्वसुवार्धिवार्धिनयने (२४४९ ) श्रीवर्द्धमानेशितुः । मासे पुण्यतमेऽग्रहायण इयं पक्षे वलक्षे तिथी, पञ्चम्यां पुरवर्यराजनगरे पूर्णाऽभवद् गुर्ज्जरे ॥११॥ इतिश्रीतपागच्छाचार्य श्रीविजयदेवसूरीश्वर श्रीविजयसिंहसूरीश्वर - पट्टपरम्पराप्रतिष्ठित - गीतार्थत्वादिगुणोपेत -श्रीवृद्धिचन्द्रापरनाम- श्रीवृद्धिविजयचरणकमलमिलिन्दायमानान्तेवासि-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-शासनसम्राट्सूरिचक्रचक्रवर्ति- जगदुरु-प्रभूततीर्थोद्धा - रक-अनेक भूपालप्रतिबोधक-प्रौढप्रभावसंविग्नशाखीय-भट्टारकाचार्य -महाराजाधिराज - बालब्रह्मचारितपागच्छाधिपति श्रीविजयनेमिसूरिविरचिता सप्तभङ्गीप्रभाऽपरनाम-सप्तभङ्गयुपनिषत् समाप्ता ॥ सप्तभङ्गप्रभा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ परिशिष्ट-१ ग्रन्थगता नियमाः नियमाः अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकवाक्यत्वं च प्रमाणवाक्यत्वम् । अपेक्षावचनं नयः । इतरांशाप्रतिक्षेपकत्वे सत्येकांशग्राहकत्वं हि नयत्वम् । एकं च पदं नोद्देश्यत्वविधेयत्वयोः प्रयोजकम् ।। एकत्र धर्मिणि विरुद्धनानाधर्मप्रकारकज्ञानं संशयः । एकत्र विशेषणत्वेनोपस्थितस्य निराकाङ्क्षतया नाऽन्यत्र विशेषणतयाऽन्वयः । एकधर्मवोधनद्वारा तदात्मकाशेषधर्मात्मकवस्तुविषयकवोधजनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वम् । एकधर्मात्मकवस्तुविषयकवोधजनकवाक्यत्वं विकलादेशत्वम् । एकस्य सनिरूपकस्यैकजातीयं निरूपकमेकमेव भवति । एकस्यां सप्तभइयां विधिनिषेधभावमापन्नानां धर्माणां प्रतिपादका एव भड़ा घटका नाऽन्ये घटत्वादिमात्रस्य विशेष्यतावच्छेदकत्वमेव, अस्तित्वादीनां च प्रकारत्वमेव । तत्तद्धर्मप्रकारकवोधजनकवाक्यत्वं प्रमाणवाक्यत्वम् । तदधिकरणस्यैव तन्निष्ठधर्मावच्छेदकत्वम् । तदधिकरणस्यैव देशकालादेर्देशकालादिविधया तद्वर्तिन एव धर्मस्य धर्मविधया च तन्निष्ठधर्मस्याऽवच्छेदकत्वम् ।। तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वम् ।। ६८, ७२, देशवृत्तितायां कालरूपस्याऽधिकरणस्य, कालवृत्तितायां च देशरूपस्याऽधिकरणस्याऽवच्छेदकत्वम् । द्योतकस्य पदान्तरसमभिव्याहार एवाऽर्थविशेषाववोधनाय प्रयोक्तव्यत्वम् । द्वयोरप्यप्रयोक्तव्यत्वप्रसक्तो केवलस्यैवकारस्याऽप्रयोक्तव्य-त्वमेव । धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसी । निपातातिरिक्तनामार्थयोरभेदातिरिक्तसम्वन्धेन साक्षादन्वयो न भवति । पदार्थः पदार्थेनाऽन्वेति न तु पदार्थैकदेशेन । प्रतिपाद्यप्रश्नानां सप्तविधानामेव सद्भावात् सप्तैव भङ्गा । प्रतियोग्यनवच्छेदकस्याऽभावावच्छेदकत्वम् । प्रतियोग्यनुयोगिवाचकपदयोः समानविभक्तिकत्वम् । प्रतियोग्यभावान्वयौ तुल्ययोगक्षेमौ । १५, १९, ४९, ५३, ५४ प्रत्येक यो भवेद्दोपो द्वयोर्भावे कथं न सः । VWr 0 ० 0 r mmWS 3 m mu १३ ब ० Ww ० ० ० २४, ५४ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ यत्र क्रियार्थातिरिक्तं विशेषणं वर्तते तथाविधस्थल एव क्रियासङ्गतैवकारस्याऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकत्वम् । यत्राऽन्यत् क्रियापदं न श्रूयते० । यत् समुदायस्याऽनवच्छेदकं तत् तदभावावच्छेदकम् । यद्विधीयते प्रतिषिध्यते च वस्तु तत् कुत्रचिदधिकरणे । यश्च यदा विवादाध्यासितोऽज्ञातो वा सन्दिग्धो वा यं प्रति तं प्रति स तदा वोधनीयो भवति । वर्त्तनालक्षणः कालः । वृत्तिभास्यस्य वृत्तिभास्येनैवाऽन्वयः । शाब्दबोधसामान्य एवोद्देश्यत्वाख्या विषयता विधेयत्वाख्या च विषयताऽवश्यम्भाविनी । शाब्दी ह्याकाङ्क्षा शब्देनैव प्रपूर्यते । सनिरूपकाणां पदार्थानां निरूपकभेदेन भेदः । सुप्तिङन्तं पदम् । सप्तभङ्गप्रभा ८० २२ ४६ २१ ४६ ४४ १३ ७६ २१, ५० ५२ ३४ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ ग्रन्थगतविशेषनामसूचिः विशेषनामानि अक्षपाद आकर (स्याद्वादरत्नाकर) ईश्वरकृष्ण औपनिषद खण्डनखण्डखाद्य जैमिनीय तत्त्वार्थटीकाकृत् न्यायखण्डखाद्य ६६, ६७, ७४ ६०, ८७, ८९, ९० ८८ ४७ ३७ ४७, ६०, ८७, ८८ न्यायप्रभा न्यायविशारदा श्रीयशोविजयोपाध्याय) पातञ्जल भगवती महावीरस्तव माध्यमिक यशोविजयोपाध्याय यौगाचार वादिदेवसूरि विमलदास वैभाषिक वैशेषिक शिरोमणि ४९, ६०, ८७, ८८, ८९, ९० ६७, ७३ ६, ३३, ७५, ७६, ७७, ७८, ८१, ८२, ८६ ३७ ३७ ४९, ८९, ९० १ ६५, ८७ समन्तभद्र सम्मतितर्क सिद्धसेन दिवाकर सौत्रान्तिक हर्षमिश्र w w w mm Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरीश्वराणां शास्त्रसृष्टिः व्याकरणविषयक ग्रन्थाः 1. बृहद्हेमप्रभा 2. लघुहेमप्रभा 3. परमलघुहेमप्रभा न्यायविषयकग्रन्थाः 1. न्यायसिन्धुः 2. न्यायालोक-तत्त्वप्रभा 3. न्यायखण्डनखण्डखाद्य-न्यायप्रभा 4. प्रतिमामार्तण्डः 5. अनेकान्ततत्त्वमीमांसा (मूलं तथा स्वोपज्ञवृत्तिः) 6. सप्तभङ्गीप्रभा 7. नयोपनिषत् 8. सम्मतितर्कटीका-विवरणम् 9. अनेकान्तव्यवस्था-टीका अन्येच 1. रघुवंशमहाकाव्यस्य द्वितीयसर्गे २९तमश्लोकपर्यन्तकाव्यविवरणम् / 2. परिहार्य-मीमांसा www.jainelibrary