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PRAKRIT TEXT SERIES No. 27
SVAYAMBHŪDEVA'S
RITTHANEMICARIYA
(HARIVAMSAPURANA)
PART I JAYAVA-KAMDA
EDITED by
RAM SINH TOMAR
PRAKRIT TEXT SOCIETY AHMEDABAD 1993
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रिट्ठमिचरिउ (हरिवंसपुराणु) जायव - कंड
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PRAKRIT TEXT SERIES No, 27
General Editors :
D. D. Malvania H. C. Bhayani
SVAYAMBHŪDEVA'S
RITTHANEMIGARIYA (HARIVAMSAPURĀNA)
PART I
JĀYAVA-KANDA
EDITED
by
RAM SINH TOMAR
PRAKRIT TEXT SOCIETY
AHMEDABAD
1993
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Published by:
Dalsukh Malvania
Secretary,
Prakrit Text Society Ahmedabad 380 009
Rāmsinh Tomar
First Edition : 1993.
Price 40-09
Printed by: Harjibhai N. Patel
Krishna Printery
966, Naranpura Old Village Ahmedabad 380 013
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प्राकृत ग्रन्थ परिषद् : ग्रन्थाङ्क : २७
कइराय-सयंभूदेव-किउ रिटणेमिचरिउ [हरिवंसपुराणु]
प्रथम खण्ड यादव काण्ड
संपादक रामसिंह तोमर
प्राकृत ग्रंथ परिषद्
अमदावाद १९९३
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जइ-वि ण वसुमइ-मग्गहि इह को-वि संघरइ अइ-किले से ससिणि सुअ-देवि-वि जइ फुरइ । तो-वि एहु मोरी वाणि विलट्ठ कलावबइ अहिणव-घण-पअ-पसरेहिं अवहंसेहिं रमइ ॥
Eventhough hardly anybody moves about on the paths of the earth (or dares to roam about in rich intellectual avenues), eventhough the moon can glitter if at all under extremely trying conditions (or the Goddess of Learning can appear only in fitful flashes), even then this melodious crying of peacocks with fea. thers spread (or my poetic compositions with charming kalā pakas ) sports delightfully in these times when) the new rainy cloulds are spreading out, driving away the flamingoes (or in Apabhramśas rich with fresh diction and poetic meanings ).
-Svayambhūdeva at Svayambhūcchandas, VII, 25.2
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GENERAL EDITORS' FOREWORD
The Prakrit Text Society has great pleasure in bringing out the Jayava-kamḍa (Yādava-kāṁḍa) as Part I of Svayambhudeva's Riṭṭhaṇemicariya (AriṣṭanemiCarita) or Harivaṁsapurāṇa (Harivaṁśapurāṇa) edited by Prof. Ramsinh Tomar. In the Foreword to Part II (1) published a few months back we had expressed our intention to publish the Hindi translation of the Kurukāṇḍa as the follow-up volume. But in view of long delay likely to be involved in the printing work, we have decided to publish in the first instance the entire text of the Ritthanemicariya, and then publish a volume containing the Introduction and the Hindi translation of the whole work by Prof. Tomar. The printing of the text of the Jujjha-kamḍa (Yuddhakāṇḍa) is under way and we hope to bring out a convenient section shortly. It is hoped the survey of the Kṛṣṇa-katha in Apabhramsa literature, prefacing the presented text, will be useful to the students of the subject.
Dalsukh Malvania H. C. Bhayani
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विषयानुक्रम
General Editors' Foreword
अपभ्रंश काहित्य में कृष्णकाव्य
पढमं जायव-कंडं पढमो संधि समुद्दविजयाहिसेओ विईओ संधि गंधव्वसेणा-लंभो तईओ संधि रोहिणी-सयंवरो चउत्थो संधि हरि-कुल-वंसुप्पत्ती पंचमो संधि गोविंद-बाल-कोला छट्ठो संधि मुट्ठिय चाणूर-कंस मद्दणं सत्तमो संधि जायव कुल-णिग्गमणं अट्ठमो संधि णेमि जम्माभिसेओ णवमो संधि रुप्पिणी अवहरणं दसमो संधि पज्जुण्ण-हरणं एगारहमो संधि पज्जुण्ण-लीला बारहमो संधि पज्जुण्ण मिलणं तेरहमो संधि पज्जुण्ण-विवाहो
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अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य
१. प्रास्ताविक
अपभ्रा साहित्य में कृष्ण विषयक काव्यों का स्वरूप, रचना, प्रकार और महत्व केसा था यह समझने के लिए सबसे पहले उस साहित्य से सम्बन्धित कुछ सर्वसाधारण और प्रास्ताविक तथ्यों पर लक्ष्य देना आवश्यक होगा।
समय की दृष्ट से अपभ्रंश साहित्य छठवों शताब्दी से लेकर बारहवी शताब्दी तक पनपा और बाद में उसका प्रवाह क्षीण होता हुआ भी चार सोपाँच सो वर्षों तक बहता रहा । इतने दीर्घ समय पट पर फैले हुए साहित्य के सम्बन्ध में हमारी जानकारी कई कारणों से अत्यन्त अधूरी है ।
पहला कारण तो यह कि नवीं शताब्दी के पूर्व की एक भी अपभ्रंश पूरी कृति अब तक हमें हस्तगत नहीं हुई है । तीन सौ साल का प्रारम्भिक कालखण्ड मारा का सारा अन्धकार से आवृत सा हे और बाद के समय में भी दसवीं शताब्दी तक की कृतियों में से बहुत स्वल्प संख्या उपलब्ध है। दूसरा यह कि जपभ्रंश की कई एक लाक्षणिक साहित्यिक विधाओं की एकाध ही कृति बची हैं और वह भी ठोक उत्तरकालीन है। ऐसी पूर्वकालीन कृतियों के नाममात्र से भी हम वंचित हैं। इससे अपभ्रंश के प्राचीन साहित्य का चित्र पूर्णतः धुंधला और कई स्थलों पर तो बिल्कुल कोरा हैं। तीसरा यह कि अपभ्रंश का अधिकांश उपलब्ध साहित्य धार्मिक साहित्य है और वह भी स्वल्प अपवादों के सिवा केवल जन साहित्य है। जैनेतर-हिन्दू एवं बौद्ध -साहित्य की और शुद्ध साहित्य को केवल दो-तीन ही रचनाएं मिली हैं । इस तरह प्राप्त अपभ्रंश साहित्य जैन-प्राय है और इस बात का श्रेय जैनियों की ग्रन्थ-सुरक्षा सम्बन्धी व्यवस्थित पद्धति को देना चाहिए । यदि एसी परिस्थिति न होती तो अपभ्रश साहित्य का चित्र और भी खण्डित एवं एकांगी रहता । इस सिलसिले में एक अन्य बात
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का भी निर्देश करना होगा । जो कुछ अपभ्रंश साहित्य बच गया है उसमें से भी बहुत थोडा अंश अब तक प्रकाशित हो सका है। बहुत सी कृतियाँ भण्डारों में हस्तलिखित प्रतियों के ही रूप में होने से असुलभ हैं ।
इन सबके कारण अपभ्रंश साहित्य के कोई एकाध अंग या पहलू का भी वृत्तान्त तैयार करने में अनेक कठिनाइयाँ सामने आती हैं और फलस्वरूप वह वृत्तान्त अपूर्ण रूप में ही प्रस्तुत किया जा सकता है । यह तो हुई सर्वसाधारण अपभ्रंश साहित्य की बात । फिर यहाँ पर हमारा सीधा सम्बन्ध कृष्णकाव्यों के साथ हैं । अतः हम उसकी बात लेकर चलें ।
भारतीय साहित्य के इतिहास की दृष्टि से जो अपभ्रंख का उत्कर्षकाल हैं वही है कृष्णकाव्य का मध्याह्नकाल | संस्कृत एवं प्राकृत में इसी कालखण्ड में पौराणिक और काव्यसाहित्य को अनेकानेक कृष्ण विषयक रचनाएं हुई । हरिवंश विष्णुपुराण भागवतपुराण आदि की कृष्णकथाओं ने तत्कालीन साहित्य रचनाओं के लिए एक अक्षय मूलस्रोत का काम किया है । विषय, शैली आदि की दृष्टि से अपभ्रंश साहित्य पर संस्कृत - प्राकृत साहित्य का प्रभाव गहरा एवं लगातार पडता रहा । अतः अपभ्रंश साहित्य में भी कृष्ण विषयक रचनाओं की दीर्घ और व्यापक परम्परा का स्थापित होना अत्यन्त सहज था । किन्तु उपरिवर्णित परिस्थिति के कारण न तो हमें अपभ्रंश का एक भो शुद्ध कृष्णकाव्य प्राप्त है और न एक भी जैनेतर कृष्णकाव्य । और जैन परम्परा की जो रचनाएं मिलती है वे भी अधिकांश अन्य बृहत् पौराणिक रचनाओं के अंश रूप मिलती है। उनमें से अधिकांश कृतियाँ अब तक अप्रकाशित है । नहीं होता कि अपभ्रंश का उक्त कृष्णसाहित्य काव्यगुणों से वंचित है पर इतना तो अवश्य हैं कि कृष्णकथा जैन साहित्य का अंश रहने से तज्जन्य मर्यादाओं से वह वार्धित है ।
२. जैन कृष्णकथा का स्वरूप
वैदिक परम्परा की तरह जैन परम्परा में भी कृष्णचरित्र पुराणकथाओं का ही एक अंश था । जैन कृष्णचरित्र वैदिक परम्परा के कृष्णचरित्र का ही सम्प्रदायानुकूल रूपान्तर था । यही परिस्थिति रामकथा आदि कई अन्य पुराणकथाओं के बारे में भी है । जैन परम्परा इतर परम्परा के मान्य कथास्वरूप में व्यावहारिक दृष्टि से एवं तर्कबुद्धि की दृष्टि से कुछ:
इतना ही नहीं, इसका अर्थ यह
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अमंगतियां बताकर उसे मिध्या कहती है और उससे भिन्न स्वरूप की कथा, जिसे वह सही समझती है प्रस्तुत करती है । तथापि जहां-जहां तक सभी मुख्य पात्रों का, मुख्य घटनाओं का और उनके क्रमादि का सम्बन्ध है वहाँ सर्वत्र जैन परम्परा ने हिन्दू परम्परा का ही अनुसरण किया है।
जैन कृष्णकथा में भी मुख्य-मुख्य प्रसंग, उनके क्रम, एवं पात्र के स्वरूप आदि दीर्घकालीन परम्परा से नियत हैं । अतः जहाँ तक कथानक का सम्बन्ध है जैन कृष्णकथा पर आधारित विभिन्न कृतियों में परिवर्तनों के लिए स्वल्प अवकाश था। फिर भी कुछ छोटे मोटे विवरणों कार्यों के प्रवृत्ति-निमित्तों एवं निरूपण की इयत्ता के विषय में एक कृति और दूसरी कृति के बीच पर्याप्त मात्रा में अन्तर है। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के कृष्णचरित्रों की भी अपनी-अपनी विशिष्टताएं हैं और उनमें भी कभी कभी एक धारा के अनुसरणकर्ताओं में भी आपस-आपस में कुछ भिन्नता देखी जाती है । मूल कथानक को कुछ विषयों में सम्प्रदोयानुकूल करने के लिए कोई सर्वमान्य प्रणालिका के अभाव में जैन रचनाकारों ने अपने-अपने मार्ग बना लिए हैं ।
जैन कृष्णचरित्र के अनुसार कृष्ण न तो कोई दिव्य पुरुष थे न तो ईश्वर के अवतार या 'भगवान् स्वयं । वे मानव ही थे, पर थे एक असामान्य शक्तिशाली वीरपुरुष एवं सम्राट । जेन पुराणकथा के अनुसार प्रस्तुत कालखण्ड में तरसठ महापुरुष या शलाका-पुरुष हो गए हैं। चौबोस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव (या नारायण), नव बलदेव आर नव प्रतिवासुदेव । वासुदेवों को समृद्धि, सामथ्य एवं पदवी चक्रवतियों से आधी होती थी । प्रत्येक वासुदेव तीन खण्ड पर शासन चलाता था । वह अपने प्रतिवासुदेव का युद्ध से संहार करके वासुदेवत्व प्राप्त करता था और इस कार्य में प्रत्येक बलदेव उसका सहाय्य करता था । राम, लक्ष्मण और रावण क्रमशः आठवे बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव थे । नवी त्रिपुटो थो कृष्ण, बलराम और जरासन्ध ।
तिरसठ महापुरुषों के चरित्रों को प्रथित करने वाली रचनाओं को 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचारत"या 'त्रिषष्टिमहापुरुषचरित ऐसा नाम दिया गमा है । जब नव प्रतिवासुदेवों की गिनती नहीं की जाती थी तब ऐसी रचना 'चतुष्पंचाशत्महापुरुषारत' कहलाती यी। दिगम्बर परम्परा में उसको
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[12] "महापुराण' भी कहा जाता था। महापुराण में दो विभाग होते थे-आदिपुराण
और उत्तरपुराण । आदिपुराण में प्रथम तीर्थकर और प्रथम चक्रवर्ती के यरित्र दिए जाते थे । उत्तरपुराण में शेष महापुरुपों के चरित्र ।
सभी महापुरुषों के चरित्रों का निरूपण करने वाली ऐसी रचनाओं के अलावा कोई एक तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के चरित्र को लेकर भी कृतियाँ रची जाती थीं । ऐसी रचनाएं 'पुराण' नाम से ख्यात थी। कृष्ण वासुदेव का चरित्र तीर्थकर अरिष्टनेमि के चरित्र के साथ संलग्न था। उनके चरित्रों को लेकर की गई रचनाएं 'हरिवंश या 'अरिष्टनेमिपुराण' के नाम से ज्ञात हैं।
जहाँ कृष्ण. वासुदेव और वलराम को कथा स्वतन्त्र रूप से प्राप्त है, वहां भी वह अन्य एकाधिक कथाओं के साथ संलग्न तो रहती ही है। जैन कृष्णकथा नियम से ही अल्पाधिक मात्रा में अन्य तीन चार विभिन्न कथासूत्रों के साथ गुम्फित रहती है । एक लथासूत्र होता है कृष्णपिता वसुदेव के परिभ्रमण की कथा का, दुसरा बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के चरित्र का, तो नोसरा कथासूत्र होता है पाण्डवों के चरित्र का। इनके अतिरिक्त मुख्य-मुख्य पात्रों के भवान्तरों की कथाएं भी दी जाती हैं । वसुदेव ने एक सौ बरस तक विविध देशों में परिभ्रमण करके अनेकानेक मानवों और विद्याधरों की कन्याएं प्राप्त की थीं-उसको रसिक कथा 'वसुदेवहिण्डि' के नाम से जैन परम्परा में प्रचलित थी । वास्तव में वह गुणाढ्य को लुप्त 'बहत्कथा' का हो जैन रूपान्तर था । कृष्णकथा के प्रारम्भ में वासुदेव का वंशवर्णन और चरित्र आता है। वहीं पर वसुदेव की परिभ्रमणकथा भी छोटे-मोटे रूप में दी जाती है ।
अरिष्टनेमि कृष्ण वासदेव के चचेरे भाई वे। बाईसवे तीर्थकर होने से उनका चरित्र जैनधर्मियों के लिए सर्वाधिक महत्त्व रखता है । अतः अनेक बार कृष्णचरित्र नेमिचरित्र के अंग रूप में मिलता है। इनके अतिरिक्त पाण्डवों के साथ एवं पाण्डव-कौरव युद्ध के साथ कृष्ण का घनिष्ठ सम्बन्ध होने से कृष्ण के उत्तर चरित्र के साथ महाभारत की कथा भी प्रथित होती थी। फलस्वरूप ऐबी रचनाओं का 'जैन महाभारत ऐसा भी एक नाम प्रचलित था। इस प्रकार सामान्यतः जिस अंश को प्राधान्य दिया गया हो उसके अनुसार कृष्णचरित्र विषयक रचनाओं को 'अरिष्टनेमिचरित्र'(या 'नेमिपुराण'), 'हरिवंश', 'पाण्डव
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पुराण', 'जैन महाभारत' आदि लाक्षणिक नाम दिए गए हैं । किन्तु इस विषय में सर्वत्र एकवाक्यता नहीं है। किसी विशिष्ट अंश को समानप्राधान्य देने वाली कृतियों के भिन्न-भिन्न नाम भी मिलते हैं।
जैसे कि आरम्भ में सूचित किया था, जैन पुराणकथाओं का स्वरूप पर्याप्त मात्रा में रूढिबद्ध एवं परम्परानियत था। दूसरी और अपभ्रंश कृतियों में भी विषय, वस्तु आदि में संस्कृतप्राकृत की पूर्व प्रचलित रचनाओं का अनुसरण होता था । इसलिए यहाँ पर अपभ्रंश कृष्णकाव्य का विवरण एवं आलोचनो प्रस्तुत करने के पहले जैन परम्परा को मान्य कृष्णकथा की एक सामान्य रूपरेखा प्रस्तुत करना आवश्यक होगा। इससे उत्तरवर्ती आलोचना आदि के लिए आवश्यक सन्दर्भ सुलभ हो जायगा। नीचे दी गई रूपरेखा सन् ७८४ में रचित दिगम्बराचाये जिनसेन के संस्कृत 'हरिवंशपुराण' के मुख्यतः ३३. ३४, ३५, ३६, ४० और ४१ इन सर्गों पर आधारित है। श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र के सन् ११६५ के करीब रचे हुए संस्कृत 'विशष्टिशलाकापुरुषचरित' के आठवे पर्व में भी सविस्तार कृष्ण चरित्र है। जिनसेन के वृत्तान्त से हेमचन्द्र का वृत्तान्त कुछ भेद रखता है। कुछ महत्व की विभिन्नताएं पादटिप्पणियों से सूचित की गई हैं।' कृष्णचरित्र अत्यन्त विस्तृत होने से यहां पर उसकी सर्वांगीण समालोचना करना सम्भव नहीं है । जैन कृष्णचरित के स्पष्ट रूप से दो विभाग किए जा सकते हैं। कृष्ण और यादवों के द्वारावती-प्रवेश तक एक विभाग और शेष चरित्र का दूसरा विभाग । पूर्वभाग में कृष्ण जितने केन्द्रवर्ती है उतने उत्तर भाग में नहीं है । इसलिए नीचे दी गई रूपरेखा पूर्व-कृष्णचरित्र तक सीमित को गई है। ३. जैन कृष्णकथा की रूपरेखा
हरिवंश में, जो कि हरिराजा से शुरू हुआ था, कालक्रम से मथुरा में यदु नामक राजा हुआ । उसके नाम से उसके वंशज यादव कहलाए । यद का पुत्र नरपति हुआ और नरपति के पुत्र शूर और सुबीर । सुवीर को मथुरा का राज्य देकर शूर ने कुशद्य देश में शौर्यपुर बसाय।। शूर के अन्धकवृष्णि १. 'हरिवंशपुराण' का संकेत-हपु. और विशष्टिशलाकापुरुषचरित' का संकेत
'विच.' रखा है।
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आदि पुत्र हुए और सुवीर के भोजकवृष्णि आदि । अन्धकवृष्णि के दस पुत्र हुए । उनमें सबसे बडा समुद्रविजय और सबसे छोटा वसुदेव था । ये सब दशाई नाम में ख्यात हुए । कुन्ती और मद्री ये दो अन्धकवृष्णि की पुत्रियां थों । भोजकवृष्णि के उग्रसेन आदि पुत्र थे। क्रम से शौर्य पुर के 'सिंहासन पर समुद्र विजय और मथुरा के सिंहासन पर उग्रसेन आरूढ हुए।
अतिशय सौन्दर्य युक्त वसुदेव से मन्त्रमुग्ध होकर नगर की खियां अपने 'घरबार को उपेक्षा करने लगी । नागरिको को शिकायत से समुद्रविजय ने युक्तिपूर्वक वसुदेव के घर से बाहर निकलने पर नियन्त्रण लगा दिया। वसुदेव को एक दिन अकस्मात् इसका पता लग गया। उसने प्रच्छन्न रूप से नगर छोड दिया । जाते-जाते उसने लोगों में ऐसी बात फैलाई कि वसुदेव ने तो अग्निप्रवेश करके आत्महत्या कर ली। बाद में वह कई देशों में भ्रमण करके और बहुत सो मानव कन्याएं एवं विद्याघरकन्याएं प्राप्त कर एक सौ वर्ष के बाद अरिष्टपुर की राजकुमारी रोहिणी के स्वयंवर में आ पहुंचा । रोहिणी ने उसका वरण किया। वहां आये समुदविजय आदि बन्धुओं के साथ उसका पुनमिलन हुआ । वसुदेव को रोहिणी से राम नामक पुत्र हुआ। कुछ समय के बाद वह शोयपुर में वापिस आ गया और वहाँ धनुर्वेद का आचार्य बनकर रहा । मगधराज जरासंध ने घोषणा कर दी कि जो सिंहपुर के राजा सिंहस्थ को जीते पकड के उसे सौंपेगा उसको अपनी कुमारी जीवद्यशा एवं मनपसन्द एक नगर दिया जाएगा। वसुदेव ने यह कार्य उठा लिया । संग्राम में सिंहरथ को वसुदेव के कंस नामक एक प्रिय शिष्य ने पकड़ लिया। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार जीवधशा देने के पहले 'जरासंध ने जब अज्ञातकुल कंस के कुल की जांच की तब ज्ञात हुआ कि वह उग्रसेन का ही पुत्र था। जब वह गर्भ में था तब उसकी जननी को प्रतिमांस खाने का दोहद हुआ था। पुत्र कहीं पितृघातक होगा इस भय से जननी ने जन्मते हो पुत्र को एक कांसे की पेटी में रखकर यमुना में बहा दिया था। एक कलालिन ने पेटी में से बालक को निकाल कर अपने 'पास रख लिया था । कंस नामक यह बालक जब बड़ा हुआ तब उसकी उम्र कलहप्रियता के कारण कलालिन ने उसको घर से निकाल दिया था। तब से वह धनुर्वेद को शिक्षा प्राप्त करता हुआ वसुदेव के पास ही रहता था और उसका बहुत पोतिपात्र बन गया था। इसी समय कंस ने भी पहली बार अपना सही वृत्तान्त जाना । तो उसने पिता से अपने बैर का
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[15] बदला लेने के लिए जरासन्ध से मथुरा नगर मांग लियो । वहीं जाकर उसने अपने पिता उग्रसेन को परास्त किया और उसको बंदी बनाकर दुर्ग के द्वार के समीप रखा दिया । कंस ने वासुदेव को मथुरा बुला लिया और गुरुदक्षिणा के रूप में अपनी बहन देवकी उसको दी ।
देवकी के विवाहोत्सव में जीवद्यशा ने अतिमुक्तक मुनि का अपराध किया । फलस्वरूप मुनि ने भविष्यकथन के रूप में कहा कि जिसके विवाह में मत्त होकर नाच रही हो उसके ही पुत्र से तेरे पति का एवं पिता का विनाश होगा। भयभीत जीवद्यशा से यह बात जानकर कंस ने वसुदेव को इस वचन से प्रतिबद्ध कर दिया कि प्रत्येक प्रसूति के पूर्व देवको को जाकर कंस के आवास में ठहरना होगा। बाद में कंस का मलिन ओशय ज्ञात होने पर वसुदेव ने जाकर अतिमुक्तक मुनि से जान लिया कि प्रथम छ पुत्र चरमशरीरो होंगे इसलिए उनकी अपमृत्यु नही होंगी
और सातवां पुत्र वासुदेव बनेगा और वह कंस का घातक होगा। इसके बाद देवको ने तीन बार युगल पुत्रों को जन्म दिया । प्रत्येक बार इन्द्राज्ञा से नैगम देव ने उनको उठाकर भद्रिलनगर के सुदृष्टि श्रेष्ठी की पत्नी अलका के पास रख दिया । और अलका के मृतपुत्रों को देवकी के पास रख दिया । इस बात से अज्ञात प्रत्येक बार कंस इन मृत पुत्रों को पछाड़ कर समझता था कि मैंने देवकी के पुत्रों को मार डाला।
देवकी के सातवें पुत्र कृष्ण का जन्म सात मास के गर्भवास के बाद भाद्रपद शुक्ल द्वादशा को रात्रि के समय हुआ ।४ बलराम नवजात शिशु को १. दीक्षा लेने के पूर्व अतिमुक्तक कंस का छोटा भाई था । हपु. के अनुतार
जीवद्यशा ने हंसते-हंसते, अतिमुक्तक मुनि के सामने देवकी का रजोमलिन वस्त्र प्रदर्शित करके उनकी आशातना की। त्रिच. के अनुसार मदिरा के प्रभाव. बश जीवद्यशा ने अतिमुक्तक मुनि के गले लग कर अपने साथ नृत्य करने
को निमंत्रित किया । २. त्रिच. के अनुसार जन्मते ही शिशु अपने को सोंप देने का वचन कंस ने
वसुदेव से ले लिया था । ३. त्रिच. गे सेठ सेठानी के नाम नाग और सुलसा है । ४. त्रिच. के अनुसार कृष्ण जन्म को तिथि और शमय श्रावण कृष्णाष्टमी और
मध्यरात्री है।
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उठा कर घर से बाहर निकल गया । घनघोर वर्षा से उसकी रक्षा करने के लिए वसुदेव उसपर छत्र धरकर चलता था ।' नगर के द्वार कृष्ण के चरणस्पर्श से खुल गए । उसी समय कृष्ण को छींक आई । यह सुनते वहीं बन्धन में रखे हुए उग्रसेन ने आशिष का उच्चारण किया । वसुदेव ने उसको यह रहस्य गुप्त रखने को कहा । कृष्ण को लेकर वसुदेव और बलराम नगर से बाहर निकल गए । देदीप्यमान शृंगधारी देवी वृषभ उनको मार्ग दिखाता उनके आगे-आगे दौड़ रहा था । यमुना नदी का महाप्रवाह कृष्ण के प्रभाव से विभक्त हो गया । नदी पार करके वसुदेव वृन्दावन पहुंचा और वहां पर गोष्ठ में बसे हुए अपने विश्वस्त सेवक नन्दगोप और उसकी पत्नी यशोदा को कृष्ण को सौंपा । उनकी नवजात कन्या अपने साथ लेकर वसुदेव और बलराम वापस आए । कंस प्रसूति की खबर पाते ही दोड़ता आया । कन्या जान कर उसकी हत्या तो नहीं की फिर भी उसके भावो पति की और से भय होने की आशंका से उसने उसकी नाक को दबा कर चिपटा कर दिया ।
गोपगोपोजनों के लाडले कृष्ण व्रज में वृद्धि पाने लगे । कंस के ज्योतिषी ने बताया कि तुम्हारा शत्रु कहीं पर बडा हो रहा है । कंस अपना सहायक देवियों को आदेश दिया कि वे शत्रु को ढूंढ निकालें और उसका नाश करें । इस आदेश से एक देवी ने भीषण पक्षी का रूप लेकर कृष्ण पर आक्रमण किया । कृष्ण ने उसकी चोंच दबाइ तो वह भाग गई । दूसरी देवी पूतना का रूप धारण कर अपने विषलिप्त स्तन से कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तब देवों ने कृष्ण के मुख में अतिशय
१.
२.
३.
वि. के अनुसार देवकी के परामर्श से वसुदेव कृष्ण को गोकुल ले चला । इसमें कृष्ण पर छत्र धरने का कार्य उनकी रक्षक देवताएं करती हैं ।
त्रिच. के अनुसार देवताएं आठ दीपिकाओं से मार्ग को प्रकाशित करती थी और उन्होंने श्वेत वृषभ का रूप धरकर नगर द्वार खोल दिए थे ।
त्रिच. के अनुसार ये प्रारम्भ के उपद्रव कंस की और से नहीं, अपितु वसु. देव के बैरी शुक विद्याधर की ओर से आये थे । विद्याधरपुत्री शकुनी शकट के उपर बैठ कर नीचे खेल रहे कृष्ण को दबाकर मारने का प्रयास करती है । और पूतना नामक दूसरी पुत्री कृष्ण को विषलिप्त स्तन पिलाती है । कृष्ण की रक्षक देवियां दोनों का नाश करतीं है ।
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प्रदान किया। इससे पूतना का स्तनाग्र इतना दब गया कि वह भी चिल्लाती भाग गई। तीसरी शकट रूपधारी पिशाची जब धावा मारती आई तब कृष्ण ने लात लगाकर शकट को तोड डांला । कृष्ण के बहुत ऊधमों से तंग आकर यशोदा ने एक बार उनको ऊसली के साथ बांध दिया । उस समय दो देवियां यमलार्जुन का रूप धरकर कृष्ण को मारने को आई । कृष्ण ने दोनों को गिरा दिया । छठवी वृषभ रूपधारी देवी की गरदन मोडकर उसको भगा दिया और सातवीं देवी जब कठोर पाषाण. वर्षा करने लगी तब कृष्ण ने गोवर्धन गिरि ऊंचा उठाकर सारे गोकुल की रक्षा की।
कृष्ण के पराक्रमों की बात सुनकर उनको देखने के लिए देवकी वलराम को साथ लेकर गोपूजन को निमित्त बनाकर गोकुल आई और गोपवेश कृष्ण को निहार कर वह आनन्दित हुई और मथुरा वापस गई। बलराम प्रतिदिन कृष्ण को धनुर्विद्या और अन्य कलाओं की शिक्षा वेने के लिए मथुरा से आते थे ।
बालकृष्ण गोपकम्याओं के साथ रास खेलते थे । गोपकन्याएं कृष्ण के स्पर्श सुख के लिए उत्सुक रहतीं थीं, किन्तु कृष्ण स्वयं निर्विकार थे। लोग कृष्ण को उपस्थिति में अत्यन्त सुख का और उनके वियोग में अत्यन्त दुःख का अनुभव करते थे ।
एक बार शंकित होकर कंस स्वयं कृष्ण को देखने के लिए गोकुल आया । यशोदा ने पहले से ही कृष्ण को दूर वन में कहीं भेज दिया । वहां पर भी कृष्ण ने ताडवी नामक पिशाची को मार भगाया एवं मण्डप बनाने के लिए शाल्मलि की लकडी के अत्यन्त भारी स्तम्भों को अकेले ही १. चि. के अनुसार बालकृष्ण कहीं चला न जाय इसलिए उनको ऊखली के
साथ बांधकर यशोदा कहीं बाहर गई । तब शूर्पक के पुत्र ने यमलार्जुन बनकर कृष्ण को दबाकर मारना चाहा । किन्तु देवताओं ने उसका नाश
किया । त्रिच. में गोवर्धन की बात नहीं है। .. त्रिच. के अनुसार कृष्ण के पराक्रमों की बात फैलने से वसुदेव ने कृष्ण की
सुरक्षा के लिए बलराम को भी नन्द-यशोदा को सौंप दिया । उनसे कृष्ण ने विद्याकलाएं सीखी ।
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[18] उठा लिया। इससे कृष्ण के सामर्थ्य के विषय में यशोदा निःशङ्क हो गई और कृष्ण को वापिस लौटा लिया।
मथरा वापिस आकर कंस ने शत्रु का पता लगाने के लिए ज्योतिषी के कहने पर ऐसी घोषणा कर दी कि जो मेरे पास रखी गई सिंहवाहिनी नागशय्या पर आरुढ हो सके, अजितञ्जय धनुष्य को चढा सके एवं पाञ्चजन्य शव को फंक सके उसको अपनी मनमानी चीज प्रदान की जाएगी। अनेक राजा ये कार्य सिद्ध करने में निष्फल हुए। एक बार जीवद्यशा का भाई भानु कृष्ण का बल देखकर उनको मथुरा ले गया और वहाँ कृष्ण ने तीनों पराक्रम सिद्ध किए ।' इससे कंस की शङ्का प्रबल हो गई । किन्तु बलराम ने शीघ्र ही कृष्ण को ब्रज भेज दिया।
कृष्ण का विनाश करने के लिए कंस ने गोप लोगों को आदेश दिया कि यमुना के हृद में से कमल लाकर भेंट करें। इस हद में भयंकर कालियनाग रहता था । कृष्ण ने हृद में प्रवेश करके कालिय का मर्दन किया और वह कमल लेकर बाहर आए ।२ जब कंस को कमल भेंट किए गए तब उसने नन्द के पुत्र के सहित सभी गोपकुमारों को मल्लयद्ध के लिए उपस्थित होने का आदेश दिया । अपने बहुत से मल्लों को उसने युद्ध के लिए तैयार कर रखा था ।
कंस का मलिन आशय जानकर वसुदेव ने भी मिलन के निमित्त से अपने नव भाइयों को मथुरा में बुला लिया । १. विच. के अनुसार जो शाझं यनुष्य चढा सके उसको अपनी बहिन सत्यभामा
देने की घोषणा कंस ने की । और इस कार्य के लिए कृष्ण को मथुरा ले
जाने वाला कृष्ण का ही सोतेलाभाई अनाधृष्टि था। २. विच. में कालियमर्दन का और कमल लाने का प्रसङ्ग कंस की मल्लयुद्ध
घोषणा के बाद आते हैं। त्रिच. के अनुसार कंस गोों को मल्लयुद्ध के लिए लाने का कोई आदेश नहीं भेजता है । उसने जो मल्लयुद्ध के उत्सव का प्रबंध किया था उसमें सम्मिलित होने के लिए कृष्ण और बलराम कौतुकवश स्वेच्छा से चलते है । जाने के पहले जब कृष्ण स्नान के लिए समना में प्रवेश करते है तब कंस का मित्र कालिय डसने को आता है। तब कृष्ण उसको नाथ कर उस पर आरूढ होकर उसे खूब घुमाते है और निर्जीव सा करके छोड़ देते हैं ।
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[19]
बलराम गोकुल गए और कृष्ण को अपने सही माता पिता. कुल आदि “घटनाओं से परिचित किया। इससे रुष्ट होकर कृष्ण, कंस का संहार करने को उत्सुक हो उठे। दोनों भाई मल्लवेश धारण करके मथुरा की और चले । मार्ग में कंस से अनुरक्त तोन असुरों ने क्रमशः नाग के, गधे के
और अश्व के रूप में उनको रोकने आ प्रयास किया । कृष्ण ने तीनों का नाश कर दिया ।' मथुरा के नगरद्वार पर कृष्ण और बलराम जब आ पहुंचे तब इनके उपर कंस के आदेश से चम्पक और पादाभर नामक दो मदमत्त हाथी छोड़े गए । बलराम ने चम्पक को आर कृष्ण ने पादाभर को उनके दन्त उखाड़ कर मार डाला ।
नगर प्रवेश करके वे अखाड़े में आये । बलराम ने इशारे से कृष्ण को वसुदेव अन्य दाशार्ह कंस आदि की पहचान कराई। कंस ने चाणर और मुष्टिक इम दो प्रचण्ड मल्लों को कृष्ण के सामने भेजा। किन्तु कृष्ण में एक सहस्र सिंह का और वलराम में एक सहस्त्र हाथी का वल था । तो कृष्ण ने चाणूर को मसल कर मार डाला और बलराम ने मुष्टिक के प्राण मुष्टि प्रहार से हर लिए । इतने में स्वयं कंस तीक्ष्ण खड्ग लेकर कृष्ण के सामने आया । कृष्ण ने खडूग छीन लिया। कंस को पृथ्वी पर पटक दिया। उसे पैरों से पकडकर पत्थर पर पछाडकर मार डाला ।'
१. विच. मे सर्पशय्या पर आरोहण और कालियमर्दन इन पराक्रमों को जय
कृष्ण ग्यारह साल के थे तब करने की बात है । विच, के अनुसार कृष्ण की कसोटी के लिए ज्योतिषी के कहने पर कंस अरिष्ठ नामक वृषम को. केशी नामक अश्व को, एक खर को और एक मेष को कृष्ण की और भेजता है। इन सबको कृष्ण मार डालते हैं । ज्योतिषी ने कंस से कहा था कि जो इनकी मारेगा वही कालिय का मर्दन करेगा, मल्लों का नाश करेगा
और कंस का मी धात करेगा। २. त्रिच. में 'पादाभर' के स्थान पर 'पद्मोत्तर' ऐसा नाम है। 3. त्रिच. के अनुसार प्रथम कंस कृष्ण और बलराम को मार डालने का अपने
सैनिकों को आदेश देता है । तब कृष्ण कूदकर मंच पर पहंचते है और केशों से खींच पर कंस को पटकते है । बाद मे चरणप्रहार से उसका सिर कुचल कर उसको मण्टप के बाहर फेक देते है।
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[20] और एक प्रचण्ड अट्टहास किया । आक्रमण करने को खडी हुई कंस की सेना को बलराम ने मंच का खंभा उखाड़ कर प्रहार करके भगा दिया । वहाँ पर कृष्ण पिता और स्वजनों से मिले । उग्रसेन को बन्धनमुक्त किया
और उसको मथुरा के सिंहासन पर फिर से बैठाया । जीवद्यशा जरासन्ध के पास जा पहुंची । कृष्ण ने विद्याधरकुमारी सत्यभामा' के साथ और बलराम ने रेवती के साथ विवाह किया ।
कंसवध पर बदला लेने के लिए जरासन्ध ने अपने पुत्र कालयवन को बडी सेना के साथ भेजा । सत्रह बार यादवों के साथ युद्ध करके अन्त में वह मारा गया। तत्पश्चात् जरासन्ध का भाई अपराजित तीन सो छियालिस बार युद्ध करके कृष्ण के बाणों से मारा गया । तब प्रचण्ड सेना लेकर स्वयं जरासन्ध ने मथुरा की ओर प्रयाण किया। इसके भय से अठारह कोटि यादव मथुरा छोडकर पश्चिम दिशा की और चल पडे । जरासन्ध ने उनका पीछा किया। विन्ध्याचल के पास जब जरासन्ध आया तब कृष्ण की सहायक देवियों ने अनेक चिताएं रची और वृद्धा के रूप धारणकर उन्होंने जरासन्ध को समझा दिया कि उससे भागते हुए यादव कहीं शरण न पाने से सभी जल कर मर गए। इस बात को सही मान कर जरासन्ध वापिस लौटा । जब यादव समुद्र के निकट पहुंचे तब कृष्ण और बलराम की तपश्चर्या से प्रभावित इन्द्र ने गौतम देव को मेजा । उसने समुद्र कों दूर हटाया । वहां पर समुद्रविजय के पुत्र एवं भावी तीर्थकर नेमिनाथ की भक्ति से प्रेरित कुबेर ने द्वारका नगरी का निर्माण किया । उसने बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौडी, वनमय कोट से युक्त इस नगरी में
१. विव. के कनुसार सत्यभामा कंस की हो बहन थी। २. त्रिच. के अनुसार पहले जरासन्ध समुद्रविजय के पास कृष्ण और बलराम को
उसको सौप देने का आदेश भेजता है। समुद्रबिजय इस आदेश का तिरस्कार करता है । बाद में ज्योतिषी की सलाह से यादव मथुरा छोडकर चल देते है। जरासन्ध का पुत्र काल यादवों को मारने की प्रतिज्ञा करके अपने भाई यवन और सहदेव को साथ लेकर यादवों का पीछा करता है । रक्षक देवताओं से दिए गए यादवों के अग्निप्रवेश के समाचार सही मान कर वह प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए स्वयं अग्निप्रवेश करता है ।
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[21] सभी के लिए योग्य आवास बनाये और कृष्ण को अनेक दिव्य शस्त्रास्त्र, रथ आदि भेंट किये। ___ यहां पर पूर्वकृष्णचरित्र समाप्त होता है। उत्तरकृष्णचरित्र के मुख्यतः निम्न विषय है :
रुक्मिणीहरण, शाम्बप्रद्युम्नउत्पत्ति, जाम्बवतीपरिणय, कुरुवंशोत्पत्ति, द्रौपदीलाभ, कोचकवध, प्रद्युम्नसमागम, शाम्बविवाह, जरासन्ध के साथ युद्ध एवं पाण्डव-कौरव-युद्ध, कृष्ण का विजयोत्सव, द्रौपदीहरण, दक्षिण मथुरा-स्थापन, नेमिनिष्क्रमण, केवलज्ञानप्राप्ति, धर्मोपदेश, विहार, द्वारावतीविनाश, कृष्ण की मृत्यु, बलराम की तपश्चर्या, पाण्डवों को प्रव्रज्या और नेमिनिर्वाण ।
भिन्न-भिन्न अपभ्रंश कृतियों में उपलब्ध उपर्युक्त रूपरेखा में कतिपय बातों में अन्तर पाया जाता है। आगे यथाप्रसंग उसका निर्देश किया जायेगा।
अब हम कृष्णविषयक विभिन्न अपभ्रंश रचनाओं का परिचय देगे।
अपभ्रंश साहित्य में अनेक कवियों की कृष्णविषयक रचनाएं हैं। जैन कवियों में नेमिनाथ का चरित्र अत्यन्त रूढ और प्रिय विषय था और कृष्णचरित्र उसीका एक अंश होने से अपभ्रंश में कृष्णकाव्यों की कोई कमी नहीं है। यहां पर एक सामान्य परिचय देने की दृष्टि से कुछ प्रमुख अपभ्रश कवियों की कृष्णविषयक रचनाओं का विवेचन और कुछ विशिष्ट अंश प्रस्तुत किया जाता है। इनमें स्वयम्भू, पुष्पदन्त, हरिभद्र
और धवल की रचनाएं समाविष्ट हैं। धवल की कृति अभी अप्रकाशित है। हस्तपति के आधार पर उनका परिचय यहाँ पर दिया जा रहा है । ४. स्वयम्भू के पूर्व
नवी शताब्दी के अपभ्रंश महाकवि स्वयम्भू के पूर्व की कृणविषयक अपभ्रंश रचनाओं के बारे में हमारे पास जो ज्ञातव्य है वह अत्यन्त स्वल्प और त्रुटिपूर्ण है । उसके लिए जो आधार मिलते है वे ये हैं-स्वयम्भू
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कृत छन्दोप्रन्थ 'स्वयम्भूच्छन्द' में दिये गये कुछ उद्धरण और नाम भोजकृत 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में प्राप्त एकाध उद्धरण. हेमचन्द्रकृत 'सिद्ध हेमशब्दानुशासन' के अपभ्रंशविभाग में दिये गये तीन उद्धरण और कुछ अपभ्रंश. कृतियों में किया हुआ कुछ कवियों का नामनिर्देश |
स्वयम्भू के पुरोगामियों में चतुर्मुख कवि स्वयम्भू की ही णी का एक समर्थ महाकवि था और सम्भवतः वह जैनेतर था । उसने एक रामायणविषयक ओर एक महाभारतविषयक ऐसे कम से कम दो अपभ्रंश महाकाव्यों की रचना की थी यह मानने के लिए हमारे पास पर्याप्त आधार हैं ।" उसके महाभारतविषयक काव्य में कृष्णचरित्र के भा कुछ अंश होना अनिवार्य था । कृष्ण के निर्देश वाले दो-तीन उद्धरण ऐसे है जिनको हम अनुमान से चतुर्मुख की कृतियों में से लिए हुए मान सकते हैं । किन्तु इससे हम चतुर्मुख शक्ति का थोड़ा सा भी संकेत पाने में नितान्त असमर्थ है ।
चतुर्मुख के सिवा स्वयम्भू का एक और ख्यातनाम पूर्ववर्ती था । उसका नाम था गोविन्द | 'स्वयम्भूच्छन्द' में दिये गये उसके उद्धरण हमारे लिए अमूल्य है । गोविन्द के जो छह छन्द दिए गए है, वे कृष्ण के बालचरितविषयक किसी काव्य में से लिए हुए जान पडते हैं । गोविन्द का नामनिर्देश अपभ्रंश की मूर्धन्य कवि त्रिपुटी चतुर्मुख, स्वयम्भू और पुष्पदन्त के निर्देश के साथ-साथ चौदहवीं शताब्दी तक होता रहा है । चौदहवीं शताब्दी के कवि धनपाल ने जो श्वेताम्बर कवीन्द्र गोविन्द को 'सनत्कुमारचरित' का कर्ता बताया है वह और स्वयम्भू से निर्दिष्ट कवि गोविन्द दोनों
१. देखिये । रामसिंह तोमर सम्पादित 'रिट्ठणेमिचरिउ (द्वितीय खण्ड) की सामान्य सम्पादक की भूमिका, पृ. १० और आगे के ।
२.
,
‘स्वयम्भूच्छन्द' ६–७५-१ मे कृष्ण के आगमन के समाचार मे आश्वस्त होकर मथुरा के पौरजनों ने धवल ध्वज फहराएं और इस तरह अपना कर्ण और हृदयभाव व्यक्त किया ऐसा अभिप्राक है । ६-१२२ - १ में कृप, कलिंगराज को एवं अन्य सुभर्टी को पराजित करके अर्जुन कृष्ण से जयद्रथ का पता पूछता है ऐसा अभिप्राय है । इनके अलावा ३-८-१ और ६-३५-१ में अर्जुन का निर्देश तो हैं किन्तु उसके साथ कर्ण का उल्लेख नहीं है: और न कृष्ण का ही । इसकी चचां के लिये देखिवे उपर्युक्त संदर्भ ।
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का अभिन्न होना भी सम्भव है । स्वयम्भू द्वारो उद्धत किए हुए गोविन्द के छन्द उसके हरिवंशविषयक या नेमिनाथविषयक काव्य में से लिए हुए जान पडते हैं । अनुमान है कि इस पूरे काव्य की रचना केवल रड्डा नामक द्विभङ्गी छन्द से हुई होगी । और सम्भवतः उसी काव्य से प्रेरणा और निर्देशन प्राप्त करके बाद में हरिभद्र ने रड्डा छन्द में ही अपने अपभ्रंश काव्य 'नेमिनाथचरित' को रचना की थी ।
'स्वयम्भूच्छन्द' में उद्धृत गोविन्द के सभी छन्द यद्यपि मात्रिक हैं तथापि ये मूल में रड्डाओं के पूर्वघटक के रूप में रहे होगे ऐसा जान पडता है । यह अनुमान हम हरिभद्र के 'नेमिनाथचरित' का आधार लेकर लगा सकते है एवं हेमचन्द्र के 'सिद्ध हेम' के कुछ अपभ्रंश उद्धरणों में से भी हम कुछ संकेत निकाल सकते है ।
6
'स्वयम्भूच्छन्द' में गोविन्द से लिये गये मत्तविलासिनी नामक मात्रा छन्द का उदाहरण जैन परम्परा के कृष्णबालचरित्र का एक सुप्रसिद्ध प्रसंग है । यह प्रसंग है कालियनाग के निवासस्थान बने हुए कालिन्दीहूद से कमल निकाल कर भेंट करने का आदेश जो नन्द को कंस द्वारा दिया गया था । पद्य इस प्रकार है :
एहु विसम सुदठु आएसु
पाणतिर माणुसहो दिट्ठीविसु सप्पु कालियड | कंसु वि मारेइ धुउ कहि गम्मउ काई किज्जउ ||
( स्व ० च्छ०,
४-१०-१)
m
यह आदेश अतीव विषम था एक और था मनुष्य के लिए प्राणघातक दृष्टिविष कालिय सर्प और दूसरी और था आदेश के अनादर से कंस से अवश्य प्राप्तव्य मृत्युदण्ड - तो अब कहां जायं और क्या करे ।
गोविन्द का दूसरा पद्य जो मत्तकारिणी मात्रा छन्द में रचा हुआ है राधा की ओर कृष्ण का प्रेमातिरेक प्रकट करता है । हेमचन्द्र के 'सिद्धहेम' में भी यह उद्घृत हुआ है (देखिये ८-४-४२२, ५) और यहीं कुछ अंश में प्राचीनतर पाठ सुरक्षित है। इसके अतिरिक्त 'सिद्ध हेम' (८-४-४२० -२० ) में जो दोहा उद्धृत है वह भी मेरी समझ में बहुत करके गोविन्द के हो उसी काव्य के ऐसे हो सन्दर्भ वाले किसी छन्द का उत्तरांश है । 'स्वयम्भूच्छन्द' में दिया गया गोविन्दकृत वह दूसरा छन्द इस प्रकार है ।
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[24] (कुछ अंश हेमचन्द्र वाले पाठ से लिया गया है। टिप्पणी में पाठान्तर दिए गए हैं):
एक्कमेक्कउ' जइ वि जोएदिर हरि सुट्ठ वि आअरेण तो वि देहि जहिं कहिं वि राही। को सक्कइ संवरेवि दड्ढ णयण हे ७ पलुट्टा ॥
(स्व०च्छ'०, ४-१०-२) 'एक-एक गोपा की ओर हरि यद्यपि पूरे आदर से देख रहे हैं तथापि उनकी दृष्टि वहीं जाती है जहाँ कहीं राधा होती है । स्नेह से झुके हुए नयनों का संवरण कौन कर सकता है भला' । इसी भाव से संलग्न 'सिद्धहेम' में उद्धृत दोहा इस प्रकार है :
हरि नच्चाविउ अंगणइ तिन्हइ पाडिउ लोउ ।
एवहिं राह-पओहरहं जं भावइ तं होउ ।। 'हरि को अपने घर के प्राङ्गण में नचा कर राधा ने लोगों को विस्मय में डाल दिया । अब तो राधा के पयोधरों का जो होना हो सो हो ।
हेमचन्द्र के 'त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित्र' में किया गया वर्णन इससे तुलनीय है गोपियों के गीत के साथ बालकृष्ण नृत्य करते थे और बलराम ताल बजाते थे।
'स्वयम्भूच्छन्द' में उद्धृत बहुरूपा मात्रा के उदाहरण में कृष्णविरह में तडपती हुई गोपी का वर्णन है । पद्य इस प्रकार है : .
देइ पाली थणहं पन्भारे तोडेप्पिणु लिणि-दलु हरि-विओअ-संतावें तत्ती । कलु अण्णुहिं पावियउ करउ दुइअ ज किंपि रुच्चइ ।।
__ (स्वच्छ०, ४-११-१) 'कृष्णवियोग के संताप से सप्त गोपी उन्नत स्तनप्रदेश पर नलिनीदल तोडकर रखती है । उस मुग्धा ने अपनी करनी का फल पाया । अब देव चाहे सो करे।
पाठान्तर--१. सव्व गोविउ । २. जोएइ । ३. सुट्ठ सव्वाअरेण । ४. देइ दिठि।
५ डड्ढ । ६. नयणा । ७. नेहि । ८. पलोट ।
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[25]
मानो इससे ही संलग्न हो ऐसा मत्ताबालिका मात्रा का उदाहरण है :
___ कमल-कुमुआण एक उप्पत्ति ससि तो वि कुमुआअरहं देइ सोक्खु कमलहं दिवाअरु । पाविज्जइ अवस फलु जेण जस्स पासे ठवेइउ ॥
___ (स्व०च्छ०,४-९-१) 'कमल और कुमुद दोनों को प्रभवस्थान एक ही होते हुए भी कुमुद्दों के लिए चन्द्र एवं कमलों के लिए सूर्य सुखदाता है। जिसने जिसके पास धरोहर रखी हो उसोसे अपने कर्मफल प्राप्त होते हैं।
__ मत्तमधुकरो प्रकार की मात्रा का उदाहरण सम्भवतः देवको कृष्ण को देखने को आई उसी समय के गोकुलवर्णन से सम्बन्धित है-मूल और अनुवाद इस प्रकार है:
ठामठामहिं घास-संतुदठ रतिहि परिसंठि आ रोमंथण-वस-चलिअ-गंडआ । दीसहि धवलुज्जला जोण्हा-णिहाणा इव गोहणा ॥
(स्व०च्छ०, ४-६-५) 'स्थान-स्थान पर रात्रि में विश्रान्ति के लिये ठहरे हुए और जुगाली में जबड़े हिलाते हुए गोधन दिखाई देते हैं। मानों ज्योत्स्ना के धवलोज्ज्वल पुंज ।'
इन पद्यों से गोविन्द कवि की अभिव्यक्ति की सहजता का तथा उसकी प्रकृतिचित्रण और भावचित्रण की शक्ति का हमें थोड़ा सा परिचय मिल जाता है। यह उल्लेखनीय है कि बाद के बालकृष्ण को क्रीडाओं के जैन कवियों के वर्णन में कहीं गोपियों के विरह की तथा राधा सम्बन्धित प्रणयचेष्टा की बात नहीं है। दूसरी बात यह है कि मात्रा या रड्डा जैसा जटिल छन्द भी दीर्घ कथात्मक वस्तु के निरूपण के लिये कितना लचीला एवं लयबद्ध हो सकता है यह बात गोविन्द ने अपने सफल प्रयोगों से सिद्ध की । आगे चलकर हरिभद्र से इसीका समर्थन किया जाएगा । १. रहीम के प्रसिद्ध दोहे का भाव यहां पर तुलनीय है :
जल में बसे कमोदनी चंदा बसे अकास । जो जाहिं को भावता सो ताहि के पास ॥
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[26]
अन्य छोटी रचनाओं में तो रड्डा का प्रचलन पंद्रह-सोलह शताब्दी तक रहा । "
५. स्वयम्भू
स्वयम्भू ने 'रिट्ठमिचरिउ ' में कृष्णचरित्र के लिये कुछ अंशो में जिनसेन वाले कथानक का तथा अन्यत्र वैदिक परम्परा वाले कथानक का अनुसरण किया है । '
कृष्णजन्म का प्रसंग स्वयम्भू ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है । (सन्धि
४, कडक १२ ) :
भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन स्वजनों के अभिमान को प्रज्वलित करते हुए असुरविमर्दन जनार्दन का ( मानो कंस के मस्तकशूल का ) जन्म हुआ । जो सौ सिंहों के पराक्रम से युक्त और अतुलबल थे, जिनका वक्षःस्थल श्रीवत्स से लाञ्छित था, जो शुभ लक्षणों से अलंकृत एवं एक सौ साठ नामों से युक्त थे और जो अपनी देह प्रभा से आवास को उज्ज्वल करते थे उन मधुमथन को वासुदेव ने उठाया । बलदेव ने ऊपर छत्र रखते हुए उनकी बरसात से रक्षा की । नारायण के चरणाङ्गुष्ठ की टक्कर से प्रतोली
१. सिद्धम ८-४-३९१ इस प्रकार है :
इच ब्रोपि सउणि ठिठ पुणु दूसासणु ब्रोपि । तो हउं जाउं एहो हरि जइ मूहु अगर ब्रोपि ॥
' इतना कहकर शकुनि रह गया और बाद में दुःशासन ने यह कहा कि मेरे सामने आकर जब बोले तब मैं जानूं कि यही हरि है ।
1
इसमें अर्थ कि कुछ अस्पष्टता होते हुए भी इतनी बात स्पष्ट है कि प्रसंग कृष्णविष्ट का हूँ। यह पद्य मी शायद गोविन्द की वैसी अन्य कोई महाभारतविषयक रचना में से लिया गया है ।
T
१. मल्लवेश में मथुरा पहुंचने पर मार्ग में कृष्ण धोबी को लूट लेते हैं और संरन्ध्री से विलेपन बलजोरी से लेकर गोपसखाओं में बांट देते है ये दो प्रसंग हिन्दू परम्परा को ही कृष्णकथा में प्राप्त होते हैं और ये स्वयम्भू में भी हैं ।
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[27] के द्वार खुल गए । दीपक को धारण किए हुए वृषभ उनके आगे-आगे चलता था। उनके आते ही यमुनाजल दो भागों में विभक्त हो गया। हरि यशोदा को सौपे गये । उसकी पुत्री को बदले में लेकर हलधर और वसुदेव कृतार्थ हुए । गोपबालिका को लाकर उन्होंने कंस को दे दिया । मगर विन्ध्याचल का अधिप यक्ष उसको विन्ध्य में ले गया ।
जैसे गगन में बालचन्द्र का वर्धन होता है, वैसे गोष्ठ के प्राङ्गण में गोविन्द का संवर्धन होता रहा। जैसे कमलसर में स्वपक्ष-मण्डन, निर्दषण कोई राजहंस को वृद्धि हो वैसे हो हरिवंशमण्डन, कंसखण्डन हरि नन्द के घर पर वृद्धि पाते रहे।
इसके बाद के कडवक में कृष्ण की उपस्थिति के कारण गोकुल की जो प्रत्येक विषय में श्रीवृद्धि हुई और मथुरा की श्रीहीनता हुई उसका निरूपण है। अनुप्रासयुक्त पंक्ति युगलों की आमने-सामने आती हुई पंक्तियों में गोकुल और मथुरा इन दोनों स्थानों की परस्परा विरुद्ध परिस्थितियाँ प्रथित करके यह निरूपण किया गया है।
___पांचवी सन्धि के प्रथम कडवक में बालकृष्ण को नींद नहीं आती है और वे अकारण रोते है, यह बात एक सुन्दर उत्प्रेक्षा द्वारा प्रस्तुत की गई है। कवि बताते है कि कृष्ण को इस चिता से नींद नहीं आती थी कि पूतना, शकटासुर, वमलाजुन, केशी, कालिय आदि को अपना पराक्रम दिखाने के लिए मुझे कब तक प्रतीक्षा करनी होगी।
इसके बाद के कडवक में सोते हुए कृष्ण को 'घुरघुराहट' के प्रचण्ड नाद का वर्णन है।
पांचवी सन्धि के शेष भाग में बालकृष्ण के पूतनावध से लेकर कमल लाने के लिए कालिन्दो के हूद में प्रवेश करने तक का विषय है।
छठी सन्धि के आरम्भ के चार कडवक कालियमर्दन में लगाए गए. है। शेष भाग में कसवध और सत्यभोमाविवाह है।
स्वयम्भू की प्रतिभा काव्यात्मक परिस्थितियों को पहिचानने के लए...। सतत जागरूक है। कालियमर्दन विषयक कडवकों से स्वयम्भू की
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[28] कल्पना को उडान की एवं उनके वर्णनसामर्थ्य की हम अच्छी झलक पाते है । उस अंश को भूल और अनुवाद के साथ में यहाँ पर प्रस्तुत कर रहा हूं।
मुसुमूरिय-मायासंदणेण लक्खिज्जइ जउण जणहणेण अलि-वलय-जलय-कुवलय-सवण्ण रवि-भइयए णं णिसि तलि णिसण्ण णं वसुह-वरंगण-रोमराइ णं दड्ढ-मयण-कढणिविहाइ गं इंदोल-मणि-भरिय-खाणि णं कालियाहि-अहिमाण-हाणि तहे काले णिहाला आय सव्व गामीण गोव जायव सगठव थिय भाषण देव धरित्ति-मग्गे जोइज्जइ साहसु सुरेहिं सग्गे आडोहिउ दणु-तणु-महणेण जउणा-दहु देवइ-णंदणेण संखोहिय जलयर जलु विसटु णोसरिउ सप्पु पसरिय-मरटटु
घत्ता केसर कालिउ कालिंदि-जलु तिण्णि-वि मिलियई कालाई ।
अंधारीहूयउ सव्वु काई णियंतु णिहालाई ॥ 'मायाशकट के संहारक जनार्दन को भ्रमरकुल, मेघ और कुवलय के वर्ण को धारण करने वाली यमुना दृष्टिगोचर हुई. मानों सूर्य भय से भूतल पर आकर निशा बैठ गई हो । मानों वसुधासुन्दरी की रोमालि । मानों इन्द्रनील मणि से पूर्ण खानि । मानों कालियनाग की मानहानि । उस समय सभी ग्रामीण गोपजन एवं गविष्ठ यादव कृष्ण के पराक्रम देखने को आए । देव भो अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग में ठहर कर कृष्ण का साहस देख रहे थे। दानवमर्दन कर देवकीनन्दन ने यमुना का हूद विक्षुब्ध कर डाला । • सभी जलचरों में खलबली मच गई। जलराशि छिन्न-विच्छिन्न हो गयी। माविष्ठ सर्प बाहर निकला । कृष्ण, कालिय एवं कालिन्दीजल तीनों श्याम 'पदार्थ एक दूसरे में सम्मिलित हो गए । सब कुछ अन्धकार-सा कालाकलूटा हो गया तो अब देखने वाले क्या देखे?
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६-२ उद्धाहउ विसहरु विसम-लीलु कलि-काल-कयंत-रउद्द-सीलु कालिंदि-पमाण-पसारियंगु विपरीय-चलिय-जलचर-तरंगु विष्फुरिय-फणामणि-किरण-जालु फुक्कार-भरिय-भुवणंतरालु मुह-कुहर-मरुद्धय-महिहरिंदु णह-मग्गि झुलुक्किय-अमर-बिंदु विस-दूसिउ जउणा-जल-पवाहु अवगणिय-पंकय-णाह-णाहु दप्पुद्धरु उद्ध-फगालि-चंडु णं सरिए पसारिउ बाहु-दंडु उप्पण्णउ पण्णउ अजउ को-वि पहारज्जहि णाह णिसंकु होवि तो विसम विसुग्गारुग्गमेण · हरि वेढिउ उरि उरजंगमेण
घत्ता
जउणा-दहे एक्कु मुहुन्तु केसउ सलील-कोल करइ ;
रयणायरे मंदरु णाई विसहर-वेदिउ संचाइ ।। 'विषम लीला करता हुआ विषधर कृष्ण के प्रति लपका । कलिकाल - और कृतान्त जैसे रौद्र कालिय ने कालिन्दि जितनी देह फैलायी । जलचर
और जलतरंग उलटे गमन करने लगे । उसको फणामणि से किरणजाल का विस्फुरण होने लगा। फुत्कार से वह भुवनों के अन्तराल को भर देता था । उसके मुखकुहर से निकलते हुए निःश्वासों की झपट से पहाड भी कांपते थे। उसकी दृष्टि को अग्निज्वाला से देवगण भी जलते थे । उसके विष से यमुना का जलप्रवाह दूषित हो गया । कृष्ण की अवगणना करके दर्पोद्धत कालिय ने अपनी प्रचण्ड फणाबलि उंची उठाई। मानों यमुना ने अपने भुजदण्ड पसारे । 'यह कोई अजेय पन्नग उत्पन्न हुआ है। उस पर हे नाथ, निःशंक होकर प्रहार करो' (सब कहने लगे)। उस समय उग्र विषवमन करते हुए उरग ने हरि के उरःप्रदेश को लपेट लिया। यमुनाहूद में एक मुहूर्त केशव जलक्रीड़ा करने लगे । विषधर से वेष्टित हुए वे सागर में . मन्दराचल की तरह घूमने लगे।'
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णिय-कतिए असुरपरायणेण कालिय ण दिदछु णारायणेण उप्पण्ण भंति णउ गाउ गाउ विष्फुरिउ तासु फणमणि-णिहाउ उज्जोएं जाणिउ परम चारु को गुणेहि ण पाविउ बंधणारु तो समर-सहासेहिं दुम्मुहेण भुय-दंड पसारिय महुमहेण पंचंगुलि पंचणहुज्जलंग णं फुरिय फणामणि वर-भुअंग तहो तेहिं धरिज्जइ फण-कडप्पु णउ णावइ को कर कवणु सप्पु लक्खिज्जइ णवर विणिग्गमेग्ग उज्जलउ लइउ सिरि-संगमेण विहडप्फडु फड फड-झडउ देइ गारुडियही विसहरु कि करेइ
घत्ता
णत्थेप्पिणु महुमहेण कालिउ णहयले भामियउ ।
भीसावणु कंसहो णाई काल-दंडु उग्गामियउ ॥ 'अपनी श्याम कान्ति से नारायण कालिय को देख न पाए । उनको भ्रान्ति हो गई इससे नाग चीन्हा न गया । इतने में कालिय के फन के 'मणिगण' झलमलाएं । इस उद्द्योत से उन्होंने नाग को अच्छी तरह पहचान लिया । गुणों से कौन भला बन्धन नहीं पाता । तब सहस्रों संग्रामों के वीर मधुमथन ने पांच नखों से उज्जवल बनी हुई पांच ऊंगली वाले अपने भुजदण्ड पसारे । मानों वे फलामणि से स्फुरित बडा भुजंग हो । इनसे उन्होंने कालिय के फणामण्डल को पकड़ लिया । अब कौन-सा हाथ है और कोन-सा सर्प इसका पता नहीं चलता था ।...कालिय व्याकुल होकर फणों से फटफट प्रहार करने लगा। मगर विषधर ‘गारुडी' को क्या कर सकता था। कृष्ण ने कालिग को नाथ कर आकाश मे घुमाया । मानों कस के प्रति भीषण कालदण्ड उठाया ।'
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१५-४ -मणि-किरण-करालिय-महिहरेहि विसहर-सिर-सिहर-सिलायलेहिं णियवत्थई कियई समुज्जलई पिंजरियई जउण-महाजलई तहिं हाउ णोउ गं गिल्ल-गंडु पुणु तोडिउ कंचण-कमल-संडु विणिवद्धउ भारुप्परि विहाइ वोयड गोवद्धणु धरिउ णाई णीसरिउ जणदणु दणु-विमद्धि णं महणे समत्तए मंदरदि तडि भारु पडिच्छिउ हलहरेण णं विज्जु-पुंजु सिय-जलहरेण गो-दुहहं समप्पेवि आयरेण सद्भावे भायरु भायरेण ।
घत्ता
वलएवं अहिमुहु एंतु हरि अवरुंडिउ तहिं समइ ।
सिय-पक्खें तामस पक्खु णाई पहंतरि पडि वइ ॥ ___ 'सर्प के शिरोमणियों को किरणों से पर्वत व्याप्त हो गए । उनसे कृष्ण के वस्त्र समुज्ज्वल हो गए और ययुना की जलराशि रक्तवर्ण । वहीं कृष्ण ने मद से आर्द्र गण्डवाले गजराज की नाई स्नान किया और कांचन कमल का जडा तोड लिया । शिर पर रखा हुआ पूला ऐसा भाता था मानों दूसरा गोवर्धन उठाया हो। शत्रु के मर्दन करने वाले जनार्दन बाहर निकले । मानों समुहमंथन की समाप्ति करके बाहर निकला हुआ मन्दराचल हो । किनारे पर हलधर ने कृष्ण से बोझ ले लिया। मानों श्वेत बादल ने विद्युत्पुंज अपना लिया। उसे ग्वालों को सौप उस समय बलदेव ने सम्मुख आते हुए अपने भाई कृष्ण का आलिंगन किया। मानों प्रतिपदा के दिन शुक्लपक्ष ने कृष्णपक्ष को मेटा हो ।' ____ संग्राम के वर्णनों में स्वयम्भू की कला पूर्ण रूप से प्रकटित होती है। 'हरिवंश' का युद्धकाण्ड तो साठ सन्धियों के विस्तार को भरकर फैला है। कृष्ण के बालचरित्र में भी युद्धवर्णन के कई अवसर स्वयम्भू को मिल जाते है।
६-१२ में मुष्टिक और चाणूर के साथ कृष्ण और बलभद्र के मल्ल. युद्ध के वर्णन के मध्य यपक के प्रयोग से चित्र में सादृश्यता सिद्ध हुई है।
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[32] देखिये
दप्पुधुर दुद्धर एत्तहे वि उठ्ठिय मुट्टिय-चाणूर वे-वि णं णिगय दिग्गय गिल्ल-गंड णं सासहु कंसहु बाहु-दंड अल्फोडिउ सरहसु सावलेउ रणु मग्गिउ वग्गिउ ण किउ खेउ जस-तण्हहो कण्हहो एक्कु मुक्कु उद्दामहो रामहो अवरु दुक्कु सुभयंकरढ-ढउकर-कत्तरीहि णीसरणेहिं करणेहिं भामरीहिं कर-छोहेहिं गाहेहिं पीडणेहिं अण्णणेहि अवरेहि कीडणेहि ......इत्यादि ।
'इतने में दर्पोद्भुर एवं दुर्धर चाणूर और मुष्टिक दोनों उठ कर खडे हुए । मदमस्त गजों की तरह वे सामने आ गये। मानों आशान्वित कंस के बाहुदण्ड । हर्ष आर दर्प से आस्फोटन करते हुए उन्होंने छलांग मार कर युद्ध की सत्वर मांग की । यश को तृष्णा वाले कृष्ण के प्रति एक को छोडा गया आर उद्दाम बलराम के पास दूसरा पहुंच गया। भयंकर 'ढोकर', 'कर्तरी', 'निःसरण' आदि करणों के प्रयोग करते हुए, भँवरी घूमते हुए, वे मुक्केबाजी, पकडना, पीसना आदि अनेक मल्लकीडाएँ करते थे ।
९-१४ में गणवृत्त पृथ्वी का विशिष्ट प्रयोग मिलता है। प्रत्येक पंक्ति आठ और नव अक्षरों के भागों में विभक्त की गई है और ये दो खण्ड यमक से बद्ध किए गए है। छन्दोलय की दृष्टि से परिणाम सुन्दर आया है । देखिए
कयं णवर संजुयं सिय-सरासणी-संजुयं खर-प्पहर-दारुणं णव-पवाल-कंदारुणं समुच्छलिय-सोहियं सुरविलासिणी-लोहिये पणच्चविय-रुंडयं भमिय-भूरि-भेरुंडयं इत्यादि
'उसके पश्चात् युद्ध प्रवृत्त हुआ जिसमें तीक्ष्ण धनुष्य प्रयुक्त होते थे, कठोर प्रहारों के कारण जो दारुण था, जिसमें नवविकसित कमल जैसा लाल लह उछलता था, जो अप्सराओं को आकर्षित करता था, जिसमें कबंध नाचते थे, और अनेक भेरुंड पंछी घूमते थे...'
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[33] ऐसे ही पृथ्वी छन्द का विशिष्ट प्रयोग ६-१८ में किया गया है ।
किसी एक निरूप्य विषय सम्बन्धित दीर्घ वर्णनखण्डों की रमणीय रचना के अतिरिक्त स्वयम्भू को और एक विशेषता भी इष्टव्य है । कडवक में निबद्ध किए गए भाव की पराकाष्ठा जहां पर अन्त्यस्थानीय घत्ता में सधती हैं वहां पराकाष्ठा कोई तीक्ष्ण उपमा, उत्प्रेक्षा या रूपक जैसे अलंकार से अभिव्यंजित की गई है। कडवक का समापन एक रमणीय बिम्ब से होता है जो चित्त को एक स्मरणीय मुद्रा से अङ्कित कर देता है। ऐसे पराकाष्ठाद्योतक बिम्बों में स्वयम्भू की मौलिक कल्पनाशक्ति के अभिनव उड्डयन एवं धृष्ट विलास के दर्शन हम पाते हैं और उनको सूक्ष्म दृष्टि से हम कई बार प्रभावित हो जाते हैं। कुछ उदाहरण देखिए ।
यह है पूतना के विषलिप्त स्तन को दो हाथों से पकड कर अपने मुंह से लगाते हुए बालकृष्ण :
सो थणु दुद्ध-धार-धवलु हरि-उहय-करंतरे माइयउ । पहिलारउ असुराहयणे णं पंचजण्णु मुहे लाइयउ ।।
(रिट्ठ०, ५-४, घत्ता) 'पूतना का दुग्धधारा से धवल स्तन हरि के दोनों करों में ऐसा भाता था जैसा असुरसंहार के लिए पहले-पहले मुंह से लगाया हुआ पाञ्चजन्य ।'
__छठवें संधि के सातवें कडवक की घत्ता में धोबी से लूट लिए गए वस्त्रों में से बलदेव श्याम वस्त्र एवं कृष्ण कनकवर्ण वस्त्र जो खींच लेते हैं वह घटना कंस के काला और पीला पित्त खींच लेने की बात से उत्प्रेक्षित की गई है। वैसे ही दासी से विलेपनदुव्य छीन लेने की और उसको ग्वालों में बांट देने की उत्प्रेक्षा से वणित की गई है। अखाडे में इधर उधर घूमते हुए कृष्ण बलदेव का प्रेक्षकों पर जो प्रभाव छा गया उसका वर्णन हृय है : जहाँ-जहाँ बलिष्ठ कृष्ण एवं बलदेव घूमते थे वह प्रत्येक
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[34] रंगस्थल उनकी देहप्रभा से कृष्णवर्ण एवं पांडुरवर्ण हो जाता था । अपराजित और जराकुमार के युद्ध के वर्णन में एक उद्भट उत्प्रेक्षा दो गई है
विधतेहिं तेहिं बाण-णिरंतर गयणु किउ । स-भुवंगमु सव्वु उप्परे गं पायालु थिउ ।
(रिट०, ७-७, घत्ता) 'अन्योन्य को बींधते हुए उनके बाणों से गगन निरन्तर छा गया । तब लगता था कि सर्पसहित सारा पाताल ऊंचे उठकर स्थगित हो गया।'
द्वारिका निर्माण के लिए भूमिप्रदान करता हुआ समुद्र पीछे हट जाता है यह बात भी एक सुन्दर उत्प्रेक्षा से प्रस्तुत की गई है
लइय लच्छि कोत्थुहु उहालिउ एवहिं काई करेसइ आलिउ । एण भएण जलोह-रउद्दे दिण्ण थत्ति णं हरिहे समुह ॥
(रिट्ट०, ८-८, आदि घत्ता) __ 'पहले उन्होंने मुझसे कौस्तुभमणि झपट लिया था फिर वे लक्ष्मी ले गए । अब न मालूम और कौनसी शरारत करेंगे-मानों इस भय से समुद्र ने हरि को जगह दे दी।'
क्वचित् कहावतों और सदुक्तियों का भी समुचित उपयोग मिलता है जैसे कि
जं जेहउ दिण्णउ आसि तं तेहउ समावडइ । कि वइयए कोद्दव-धण्णे सालि-कणिसु फले णिव्वडइ ।।
(रिट०, ६-१४, पत्ता) 'जैसा देते वैसा पाते । क्या कोदों बोने से कभी धान नीपजेगा?'
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[35]
इय-सोह वि सोहइ रुववइ ।
( रिट्ठ०, ७-१-४)
'रूपस्विनी शोभाहीन होने पर भी सुहाती है ।'
६. पुष्पदन्त
चतुर्मुख और स्वयम्भू के स्तर के अपभ्रंश महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित 'महापुराण' (रचनाकाल ई० ९५७ - ९६५ ) की सन्धियाँ ८१ से ९२ जैन हरिवंश को दी गई है । सं० ८४ में वासुदेवजन्म का, ७५ में नारायण की बालक्रीडा का और ८६ में कंस एवं चाणूर के संहार का विषय है । वर्णनशैली, भाषा एवं छन्दोरचना सम्बन्धित असाधारण सामर्थ्य से सम्पन्न पुष्पदन्त ने इन तीन सन्धियों में भी उत्कृष्ट काव्यखण्डों का निर्माण किया है । उसने कृष्ण की बालक्रीड़ा का निरूपण पुरोगामी कवियों से अधिक विस्तार और सतर्कता से किया है । पूतना, अश्व, गर्दभ एवम् यमलार्जुन के उपद्रवों के वर्णन में (८५, ९, १०, ११) अष्टमात्रिक तथा वर्षावन में (८५ -१६) पंचमात्रिक लघु छन्दों का उसका प्रयोग सफल रहा है और इससे लय का सहारा लेकर चारु वर्ण-चित्र निर्माण करने की अपनी शक्ति की वह प्रतीति कराता है । ८५-१२ में प्रस्तुत अरिष्टासुर का चित्र एवम् ८५ - १९ में प्रस्तुत गोपवेशवर्णन भी ध्यानाई हैं । पुष्पदन्त के युद्धवर्णनसामर्थ्य के अच्छे खण्ड (८६-८ कडवक में कंस कृष्ण युद्ध) और ८८-५ से लेकर १५ कडवक तक के खण्ड में (कृष्णजरासन्ध - युद्ध) हम पाते हैं । कुछ चुने हुए अंश नीचे दिए गए हैं ।
नवजात कृष्ण को ले जाते हुए वसुदेव का कालिन्दी दर्शन :
ता कालिंद तेहि अवलोइय णं सरि-रूवु धरिवि थिय महियलि गारायण-तणु-पह - पंती विव महि - मयणाहि - रइय-रेहा इव महिर - दंति - दाण- रेहा इत्र वसु - णिलीण - मेहमाला
इव
मंथर - वारि-गामिणी घण-तम- जोणि जामिणी अंजणगिरि-वरिद-कंती विव बहु-तरंग जर- हय-देहा इव कंसराय-जीविय- मेरा इव
माम स-मुत्ताहल बाला वइ
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[36] गं सेवाल-वाल दक्खालइ फेणुप्परियणु णं तहि घोलइ गेरुअ-रत्तउ तोउत्तंवरु णं परिहइ चुय-कुसुमहिं कप्वुरु किण्णरि-थण-सिहरइं गं दावइ विम्भमेहिं णं संसउ पावइ फणि-मणि-किरणहि णं उज्जोयइ कमलच्छिहिं गं कण्हु पलोयइ भिसिणि-पत्त-थालेहि सुणिम्मल उच्चाइय णं जल-कण-तंदुल खलखलंति णं मंगलु घोसइ णं माहबहु पक्खु सा पोसइ णउ कस्सु वि सामण्णहु अण्णहु अक्से तूसइ जवण स-वण्णहु बिहिं भाएहिं थक्कउ तीरिणि-जलु णं धर-णारि-विहत्तउं कज्जलु
घत्ता
दरिसिउं ताइ तलु पेक्खिवि महुमहणु
किं जाणहुँ णाहहुरत्ती मयणे गं सरि वि विगुत्ती
(महापुराण, ८५-२)
तब मंथरगति से बहती हुई कालिन्दी उनको दृग्गोचर हुई । मानों धरातल पर अवतीर्ण सरितारूपधारिणी तिमिरघन यामिनी । मानों कृष्ण को देहप्रभा की धारा । मानों अंजनगिरि की आभा । मानों धरातल पर खींची हुई कस्तूरी-रेखा। मानों गिरिरूपी गजेन्द्र की मदरेखा । मानों कंसराज की आयु-समाप्ति-रेखा । मानों धरातल पर अवस्थित मेघमाला । वृद्धा सो तरंगबहुल । बाला सी श्यामा और मुक्ताफलवती। वह शैवालबाल प्रदर्शित कर रही है। फेनका उत्तरीय फहरा रही है गेरुआ जलका, च्युत कुसुमों से कवुरित रक्तांपर पहने हुई है।
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किन्नरीरूपी स्तनाग्र दिखला रही है। विभ्रमों से संशयित कर रही है। सर्पमणि को किरणों से उद्योत कर रही है। कमलनयन से कृष्ण को मानो निहार रही है। वह कमलपत्र के थाल में जल-कण के अक्षत उछाल रही है। कलकल शब्द करती मंगल गा रही है। मानों कृष्ण के पक्ष की पुष्टि कर रही है। यमुना सचमुच सवर्ण पर प्रसन्न होती है, जैसों तैसों पर नहीं । फलरूप उसका जल दो विभागों में बंट गया, मानों धरारूपी नारी ने काजर लगाया । क्या हम समझें कि अपने प्रियतम पर अनुरक्त होकर उसने अपना निम्नप्रदेश प्रकट किया ! मधुमथन को देखकर नदी यमुना भी मदनव्याकुल हो उठी ।
अरिष्टासुर का संहार : दुछ अरिट्ठ-देउ विस-वेसें आइउ महुरावइ-आएसे 'सिंग-जुयल-संचालिय-गिरि-सिलु खर-खुरग्ग-उक्खय-धरणीयलु सरसि-वेल्लि-जाल-विलुलिय-गलु कम-णिवाय-कंपाविय-जल-थलु गजिय-रव-पूरिय-भुवण-तरु हर-वरवसह-णिवह-कय-भय-जरु ससहर-किरण-णियर-पंडुरयरु गुरु-केलास-सिहर-सोहाहरु किर झड णिविड देइ आवेप्पिणु ता कण्हे भुय-दंडे लेप्पिणु मोडिउ कंछ कड त्ति विसिंदहु को पडिमल्लु ति-जगि गोविंदहु
घत्ता
ओहामिय-धवलु हरि गोउलि धवलेहिं गिज्जइ । धवलाग वि धवलु कुल-धवलु केण ण थुणिज्जइ ।।
(महापुराण, ८५-१२-८ से १६)
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[38] मथुरापति कंस के आदेश से दुष्ट अरिष्टासुर वृषभ के वेश में आया । युगल शंगों से गिरिशिला उखाडता हुआ, खर खुराम से धरणीतल खोदता हुआ, गले से हिलते डुलते सरोवर-वल्ली के जालों से युक्त, पदाघात से जलस्थल को कंपायमान करता हुआ, गर्जनारब से भुवनांतराल को भर देता हुआ, महादेव के नंदिगण को भी भय से ज्वरित करता हुआ, चन्द्रकिरणों से भी अधिक शुभ्र, कैलास के उच्च शिखर की शोभा को धारण करता हुआ, वह वृषभराज आकर गहरी चोट दे न दे इतने में ही कृष्ण ने अपने भुजदंडों से उसका कण्ठ कडकडाहट के साथ मोड दिया। गोविन्द का प्रतिमल्ल तीन भुवनों में भी कौन हो सकता है भला ? धवल को पराजित करने वाला हरि गोकुल में धवलगीतों में गाया जाता है। धवलों में भी जो धवल है उस कुलधवल की स्तुति कौन नहीं करता?'
वर्षावर्णन-गोवर्धनोद्धरण : काले जंते छज्जइ पत्तउ आसाढागमि वासारत्तउ
घत्ता हरियां पीयल दीसइ जणेण तं सुरधणु । उवरि पओहरहं णं णहलच्छिहि उप्परियणु ॥
दुवई-दिउं इंदचाउ पुणु पुणु अइ पंथिय-हियय-भेयहो । घण-वारण-पवेसि णं मंगल-तोरणु णह-णिकेयहो ।
जलु गलइ झलझलइ दरि भर सरि सरइ तडयउइ तडि पडइ गिरि फुडइ सिहि णडइ मरु चलइ तरु घुलइ जल थलु वि गोउलु वि णिरु रसिउ भय-तसिउ थरहरइ किर मरइ
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[391
जा ताव धीरेण सरलच्छि तण्हेण सुर-थुइण वित्थरिउ महिहरउ तम-जडिउं महि-विवरु फुकुवइ परिघुलइ तरुणाई तट्ठाई कायरइं पडियाई
थिर-भाव वीरेण जय-लच्छि कण्हेण भुय-जुइण उद्धरिउ दिहियरत पाडि फणि-णियरु विसु मुयइ चलवलइ हरिणाई पठाई वणयरई रडियाई चत्ताई चंडाल कंडाई परवसई जरियाई
चित्ताई
हिंसाल चंडाई तावसई दरियाई
घत्ता गोवद्धणयरेण गो-गोमिणि-भारु व जोइउ । गिरि गोवद्धणउ गोवद्धणेण उच्चाइउ ।
(महापुराण, ८६-१५-१० से १२, १६-१ से ३२) 'कुछ समय के पश्चात् आषाढ मास में बरसात आकर शोभा दे रहा । लोग हरित और पीत वर्ण का सुरधनु देखने लगे। मानों वह नभलक्ष्मी के पयोधर पर रहा हुआ उत्तरीय हो । पथिकों का हृदय-विदारक इस इन्द्रचाप को वे बार-बार देखने लगे। मानों वह घनहस्तो के प्रवेश के अवसर पर गगनगृह पर लगाया गया मंगल तोरण हो । जल झलझल नाद
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[40] से गिर रहा है। सरिता बहता हुई खोह को भर देती है। तडतडा कर तडित् पडती है जिससे पहाड फूटता है। मयूर नाच रहा है। तरुओं को घुमाता पवन चल रहा हैं । गोकुल के सभी जलस्थल भयत्रस्त होकर थरथराते हुए चीखने लगे । उनको मरणभय से ग्रस्त देखकर सरलाक्षी जयलक्ष्मी के लिये सतृष्ण धीरवीर कृष्ण ने सुरप्रशस्त भुजयुगल से विशाल गोवर्धन पर्वत उठाया और लोगों को धृति बंधाई । गोवर्धन को उखाड देने से अन्धकार से भरा हुआ पाताल-विवर प्रगट हुआ जिसमें फणीन्द्रों का समूह फुफकारते थे, विष उगलते थे, सलसलते और घुमराते थे। त्रस्त होकर हिरण के शिशु भागने लगे । कातर वनचर गिरकर चिल्लाने लगे। हिंसक चाण्डालों ने चंड शर फेंक दिये । परवश तापसलोग भय. जर्जर हो उठे । गौओं का वर्धन करने वाले गोवर्धन ने राज्यलक्ष्मी का भार जैसा समझकर गिरि गोवर्धन उठाया।
७. हरिभद्र और धवल पुष्पदन्त के बाद अपभ्रंश कृष्णकाव्य की परम्परा में दो और कवि उल्लेखनीय हैं। वे हैं हरिभद्र और धवल । धवल की कृति अभी तो अप्रकाशित हैं। फिर भी एकाध हस्तलिखित प्रति के आधार पर यहाँ उसका कुछ परिचय दिया जाता है। हरिभद्र
११६० में रचित हरिभद्रसूरि का 'नेमिनाहचरिउ' प्रधानतः रड्डा छन्द में निवद्ध करीब तीन हजार छन्दों का महाकाव्य है । उसके २२८७ वे छन्द से लेकर आगे शताधिक छन्दों में कृष्णजन्म से कसवध तक की कथा संक्षेप में दो गई है। कतिपय स्थलों पर वर्णन में उत्कटता सधी है। हरिभद्र ने मल्लयुद्ध के प्रसङ्ग को महत्त्व देकर बतलाया है और वहाँ पर उसकी कवित्व. शक्ति का हम परिचय पाते है। कृष्ण की हत्या के लिए भेजे जाने वाले वृषभ, खर, तुरंग और मेष के चित्र भी दृढ रेखाओं से अंकित किए गए हैं। धवल
कवि धवल का 'हरिवंशपुराण' ग्यारहवीं शताब्दी के बाद की रचना है। समय ठीक निर्णीत नहीं हुआ है फिर भी 'हरिवंशपुराण' की भाषो १. धवल के 'हरिवंश' का परिचय यहा पर जयपुर के दिगम्बर अतिशय क्षेत्र
श्री महावीरजी शोध संस्थान के संग्रह की हस्तप्रत के आधार पर दिया है। प्रति के उपयोग करने की अनुमति के लिये मैं शोधसंस्थान का कृतज्ञ. हैं। प्रति का पाठ कई स्थलों पर अशुद्ध है।
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[41] में आधुनिकता के चिन्ह सुस्पष्ट हैं । उसके कई पदों एवं प्रयोगों में हम पुरानी हिन्दी के संकेत पाते है । काव्यत्व की दृष्टि से भी धवल अपभ्रंश कवियों की द्वितीय-तृतीय श्रेणी में कहीं है । हितोपदेश और धर्मबोध 'हरिवंश' की शैली में प्रकट हैं। फिर भी धवल के 'हरिवंश' के कुछ अंशों में, १२२ सन्धियो के विस्तार के फलस्वरूप और विषय एवं रचनाशैली की सुदीर्घ पूर्वपरम्परा के फलस्वरूप काव्यत्व का स्पर्श अवश्य है और कुछ अंशों की विशिष्टता का श्रेय उसकी भाषा में और वर्णनों में प्रविष्ट समयसामयिक तत्त्वों को देना होगा ।
. धवलकृत 'हरिवंश' की ५३, ५४ और ५५ इन तीन सन्धियों में कृष्णजन्म से लेकर कंववध तक की कथा है । कथा के निरूपण में और वर्णनों में बहुत कुछ रूढि को ही अनुसरण है। फिर भी कहीं-कहीं कवि ने अपनी मौलिकता दिखाई है।
नवजात कृष्ण को नन्दयशोदा के करों में वसुदेव से सौंपने के प्रसंग को इस प्रकार अंकित किया गया है:
नन्द के वचन सुनकर वसुदेव गद्गद् कण्ठ से कहने लगा-तुम मेरे अर्वोत्तम इष्टमित्र, स्वजन, सेवक एवं बान्धव हो । बात यह है कि जिन जिन दुर्जय, अतुलबल, तेजस्वी पुत्रों ने मेरे यहाँ जन्म पाया उन सबका कंस ने मेरे पास से कपटभाव से वचन लेकर विनाश कर दिया । तब इष्टवियोग के दुःख से व्यथित होकर इस बार मैं तुम्हारा आश्रय इंढता हुआ आया हूं।
बार-बार नन्द के कर पकडकर वसुदेव ने कहा- यह अपना पुत्र तुम्हे' अर्पण कर रहा हूँ। अपने पेट के पुत्र की नाई उसकी देखभाल करमा । कंस के भय से उसकी रक्षा करना । कंस ने हमारे सभी पत्रों की हत्या करके हमें बार बार रुलाया है । देवनियोग होगा तो यह बच्चा उबरेगा । यह हमारा इकलोता है यह जान कर इसको सम्हालना ।
(५३-१४) ५३-१७ में नैमित्तिक बालकृष्ण के असामान्य गुणलक्षणों का वर्णन करता है । लोग बधाई देने को आते है। यहां पर जन्मोत्सव में ग्वालिनों के नृत्य के वर्णन में धवल ने अपनी समसामयिक ग्रामीण वेशभूषा का
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[42] कुछ संकेत दिवा हैकासु वि खंधहरी उप्परि नेत्ती कासु वि लोई लक्खारत्ती कासु वि सीसे लिंज धराली कासु वि चुण्णी फुल्लडियाली कासु वि तुंगु मउडु सुविसुठउ ओढणु वोडु कह-मि मंजिउ सव्वहं सीसे रत्ते बद्धा
रीरी कडिय कडाकडि मुद्दा किसी के खंधे पर 'नेत्ती' (नेत्र वस्त्र की साडी) थी तो किसी की 'लोई' (कमली) लाख जैसी रक्तवर्ण थी। किसी के सिर पर धारदार 'लिंज' (नीज :) थी तो किसी की चुन्नी फूलवाली थी । किसी का मौर ऊँचा और दर्शनीय था तो किसी की ओढ़नी और 'बोड' मजीठी थे । सभी के सिर ‘पर लाल (वखण्ड ?) बंधा हुआ था और वे पीतल के कडे, कलियाँ और मुद्रिका पहनी हुई थी।'
नन्द-यशोदा और गोपियों का दुलारा बालकृष्ण भागवतकार से लेकर अनेकानेक कवियों का अक्षयरस काव्य विषय रहा है। इसका चरम शिखर हम सूर में पाते है। तो यहाँ धवल के भी कृष्णक्रीडा के वर्णन के दो कडवक हम ५४ वी सन्धि में से देखें
[२] बह-लक्खण-गुण-पुण्ण-विसालउ जिम जिम विद्धि जाइ सो वालउ धूइहिं होइ णिरारिउ चंगउ दिद्विहिं अमियहिं सिंचइ अंगउ वडूढिय जोव्वणस्थ जा वाली जा जा कण्हु णियइ गोवाली जेण मिसेण तेण मुहु जोवइ पुणु उच्छंगि करिवि थणु ढोवइ कणिहि कण्णाहरणई रुप्पिय करहिं कडय सुमणोहर हेमिय गलि कंठुल्लियाहिं सोहंतिहिं पाइहिं घुग्घुराहिं वज्जतिहिं कडियलि सोमालिय सो सोहइ वालउ सव्वहं मणु वि सु मोहइ जिम जिम कण्हु वइदछु सु थाइय लइ जसोयहु तोसु ण माइय
घत्ता
जा उच्छंगि लेइ करइ उण्णइय इ सरइ जाणइ णिमिसु ण मुच्चइ । रयण-सुवण्ण-णिहाणु जिम पुण्णेहिं तिम जणणहु अइयारे रुच्चइ ॥
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[43]
[३] धुक्कडियई गेहंगणि भमेइ उज्जोउ णाई सम्बहं करेइ पुणु लग्गिवि उम्भउ ठाइ खणु आखुडइ पडइ गइ दितु पुणु धावइ जसोय बलि वलि भणंति सिरु चुंविवि णेहवसें हसंति जिम जिम वालउ विद्धिहिं जाइ अविलग्गिवि पर एक्केकु देइ उच्छंगि जसोयहि पुणु चडेइ मंथाणउ दिदु विहु करहिं लेइ कडूढेविणु लोणि खाइ पुणु जसोय रडइ णवि ठोइ खणु ढालइ मंथणि महियहि भरिय तहिं खेल्लइ दरिसइ बहु चरिय वोल्लंतउ फुल्लवयणु पियइ कोडे वुल्लावइ जो णियइ खणि रोवइ हसइ पडइ धाइ पुणु धूलिहि तणु मंडेवि ठाइ
घत्ता गोठ-असेसह मंडणउं खिल्लावणउं सुछ सुहावट गंदहु णंदणु । मच्छरई वड्ढइ वरियहं रह बंधवह जिम जिम विद्धिहि जणदणु ॥
'कई लक्षणों, गुर्गो और पुण्यों से युक्त यह शिशु जैसे-जैसे वृद्धि पाता गया बसे-वैसे वह अतीव सुन्दर होता गया । गोपियाँ उसके अंगों को अमृतदृष्टि से सिंचित करती थी। जिस किसी सुन्दर तरुणी के दृष्टि'पथ में कृष्ण आता था वह किसी मिष से उसका मुख निहार लेती थीं
और गोद में लेकर उसका मुंह अपने स्तन से लगाती थीं। कानों में कुण्डल, हाथों में कडे, गले में कंठला, पाचों में ठनकते धुंघरू, कटि पर मेखलाइनसे सुहाता शिशु सभो के मन को मोहित करता था । उसको बैठना सीखते हुए देखकर मन्द यशोदा की तुष्टि की कोई सीमा न रही । अपने हाथों में से और गोद में से उसको रत्नसुवर्ण की निधि के नाई वे क्षण भर भी अलग नहीं करते थे।
'घटने के बल घूमता वह घर के अंगना को उजियारा करने लगा। सट कर कुछ देर वह खडा रहता और कदम उठाते ही लड़खड़ाता और फिर लुढक जाता । 'लौट के आ, लौट के आ' कहती और हंसती हुई यशोदो दौड़कर उसको उठा लेती थी और उसका मस्तक चूमती थी। कुछ बडा होने पर कृष्ण बिना किसी आधार एक-एक कर कदम उठाने लगा।
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[44]
वह कभी यशोदा की गोद में चढ़ बैठता था । कभी दोनों हाथों से मथानी कसकर पकड रखता था। कभी मक्खन उठा कर खा जाता था और यशोदा के चिल्लाने पर भी रुका न रहता था। दहीं से भरी मटकी ढरकाता था। ऐसे वह तरह-तरह की क्रीडाएं करता था । गाल फुला कर बोलता हुआ वह बहुत प्रिय लगता था। जो कोई उसको देखता था वह कौतुकवश उसको बिना बुलाए रह नहीं सकता था । पल में वह हसतो था तो पल में रोता था। पल में गिर पडता था तो पल में दौडता था ! किसी समय शरीर में धूल पोतता था। सारे गोष्ठ का मण्डन और खिलौना, अतीव सुहावना नन्दनन्दन जैसे-जैसे वृद्धि पाता गया वैसे-वैसे शत्रुओं के असुख की और बान्धवों की प्रीति की वृद्धि होती गई।
८. उपसंहार
लमभग आठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दो तक के अपभ्रंश साहित्य के कृष्णकाब्य को इस झलक से प्रतीत होगा कि उस साहिप्य में कृष्णचरित्र के निरूपण की (और विशेष रूप से बालचरित्र के निरूपण की) एक पुष्ट परम्परा स्थापित हुई थी । भावलेखन एवं वर्णनशैली की दृष्टि से उसकी गुणवत्ता का स्तर ऊंचा था । कृप्णकाव्य के कवियों की सुदीर्घ
और विविधभाषी परम्परा में स्वयम्भू और पुष्पदन्त निःसन्देह गौरवयुक्त स्थान के अधिकारी है और इस विषय में बाद में सूरदास आदि जो सिद्धिशिखर पर पहुंचे उसकी समुचित पूर्वभूमिका तैयार करने का बहुत कुछ श्रेय अपभ्रंश कबियों को देना होगा । भारतीय साहित्य में कृष्णकाव्य की दीप्तिमान परम्परा में एक ओर है संस्कृत-प्राकृत का कृष्णकाव्य और दूसरी और भाषासाहित्य का कृष्णकाव्य । इन दोनों के बीच की शृंखलारूप अपभ्रंश का कृष्णकाव्य निजी वैशिष्ट्व एवं व्यक्तित्व से सम्पन्न है इतना तो इस संक्षिप्त एवं शीघ्र सर्वेक्षण से भी अवश्य ही प्रतीत होगो ।
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पढमं जायव-कंडं
पढमो संधि सिरि-परमागम-णालु सयल-कला-कोमल-दलु । करहो विहूसणु कण्णे जायव-कुरुव-कहुप्पलु ॥१
,
पणमामि णेमि-तित्थंकरहो हरि-वल-कुल-णहयल-ससहरहो तइलोक-लच्छि-लंछिय-उरहो परिपालिय-अजरामर-पुरहो । कल्लाण-णाण-गुण-रोहणहो पंचिंदिय-गाम-णिरोहणहो सयलामल-केवल-लोयणो अणवज्जहो अणिमिस-लोयणहो ४ पच्चक्खीहूय-जगत्तयहो उदंड-धवल-छत्त-त्तयहो भामंडल-मंडिय-अवयवहो परिपक्क-मोक्ख-फल-पायवहो तइलोक-सिहर-सीहासणहो - णिरु-णिरुवम-चामर-वासणहो जसु तणए तित्थे उप्पण्ण कह जिह छण चंदुग्गमे विमल पह ८
घत्ता सासय-सुक्ख-णिहाणु · अमस्भाव-उप्पायणु । कणंजलिहिं पिएहो जिणवर-वयण-रसायणु ॥
. [२] चितवइ सयंभु काई करमि हरिवंस-महण्णउ के तरमि गुरु-वयण-तरंडउ लद्ध-ण वि जम्महो-वि-ण जोइउ को -वि कवि णउ णायउ वाहत्तरि कलउ एक्कु वि ण गंथु परिमोकलउः .
पजा-१
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तहिं अवसरे सरसइ धीरवइ इंद्रेण समपि वायरणु पिंगलेण छंद-पय- पत्थारु वाणेण समपिड घणघणउ सिरिहरिसें णिय- णिउणत्तणउं छड्डूणिय - दुवइ - धुवएहि जडिय जण - यणाणंद-जणेरियए पारंभिय पुणु हरिवंस - कह
पुच्छइ माग - णाहु थिउ जिण - सासणि केम
उ किट्टइ अब्ज - वि भंति मणे णारायणु णरहो सेव करइ धयरट्ठ- पंडु अवरे जणिय पंचाल पंडव पंच जहि दुच्चरि जे लोयहो मंडण सच्छंद-मरणु गंगेर जइ चावेण सरेण वि जइ अजर कण्णेण कण्णु जइ णीसरइ
कळसे ण होइ माधु जड़ - वि विरुद्धा सुछु
करि कष्वु दिण्ण मई विमल मइ ४ रसु भरहे वासें वित्धरणु भम्मह - दंडिरहिं अलंकारु तं अक्खर - डंवरु अप्पणउ अवरेडि-मि कहिं कत्तण चउमुद्देण समप्पिय पद्धडिय आसीसए सब केरियए
स-समय पर समय-वियार-सह
-
घन्ता
भव-जर - मरण- वियारा | कहि हरिवंसु भडारा ॥
हरिवंशपुराणु
घत्ता
कुरु गुरु-कलस- समुन्भकः । रुहिरु पिवंति ण बंधव ॥
[ ३ ]
विषरेरठ सुम्बइ सन्व-जणे रहु खेडइ घोडा संवरइ कौति भन्सार पंच भणिय बोलेवरं सब्वु समन्तु तहि उ चितवंति जस - खंडणउं तो तेण काई किय काल - गइ तो दोणु काई रणे खयहो गउ तो कोंति वियंति किं ण मरइ ८
१२
८
९
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“पढमो संधि
[४] तं णिसुणेवि वयणु मुणि-मणहरु सुणि सेणिय आहासइ गणहरु सूर-वीर हरिवंस-पहाणा सउरी-महुरा-पुर-वर-राणा अंधकविहि जणिज्जइ एक्के' णरवइविट्ठि पुत्तु अण्णेक्के सूर-सुयहो तहो रज्जु करंतहो सउरी-पुरवरु परिपालतहो ४ सत्तावीसंजोयण-मुहियहे वासहो ससहो परासर-दुहियहे पुत्त सुहहहे दस उप्पण्णा णं दस लोयवाल अवइण्णा तेत्थु समुद्दविजउ पहिलारउ पुणु अखोहु रण-भर-धुर-धारउ थिमिय-पयाई (१) सायरुप्पज्जइ हिमगिरि अचलु विजउ(१) जाणिज्जइ ८ धारणु पूरणु सहुँ अहिचंदे पुणु वसुएउ जाउ आणंदे
ताहं सहोयरियाउ कोंति-महि बे कण्णउ । णं दस-धम्म-जुवाउ खंति-दयउ उप्पण्णउ ।।
१०
'णरवइविट्टिहे रज्जु करते महुरा-पुरवरु परिपालते वासहो तणिय वहिणि पउमाबइ परिणिय चंदें रोहिणि जावई -तहे णदणु दिणमणि-व समुग्गउ उग्गसेणु उग्गाह-मि उग्गठ पुणु महसेणु महारणे उज्जउ देवसेणु देवाह-मि दुज्जउ पुणु गंधारि णारि वलवंतहो मगहामंडलु परिपालतहो दुद्धर-समर-भरोड्डिय-खंधहो मिरुवम-रिद्धि जाय जरसंघहों मंड तिखंड वसुंधरि सिद्धी रयण-णिहाणबद्ध-समिद्धी जायव-पंडव-कुरुव-पहाणी रावण रिद्धिहे अणुहरमाणी
घत्ता तोम तिलोय-पईड मिलिय-णरामर-विदहो । सउरीपुरि उप्पण्णु केवल-णाण मुणिंदहो ॥
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हरिवंशपुराणु,
[६]
तो परम-रिसिहे सुपइट्ठियहो । उज्जाणे गंधमायणे ठियहो सउरीपुरि-सीमावासियहो णर-णाय-सुरिंद णमंसियहो सयलामल-केवल-कुलहरहो छज्जीव-णिकाय-दयावरहो भावलयालिंगिय-बिग्गहहो दुरुझिय-सयल-परिगहहो दरिसाविय-परम-मोक्ख-पहहो सुर-वंदणहत्तिए आय तहो तहिं अंधकविठ्ठि णराहिवइ सहुं णरवइविठे एक-मइ णिसुणेप्पिणु णियय-भवंतरई णिय-थामुप्पत्ति-परंपरई पभणइ मई णरए पडंतु धरे तव-चरण-गहणे पसाउ करे
८
घत्ता
असरणे अथिरे असारे एत्थु खेत्ते णउ रम्मइ । जहिं अजरामर-लोउ तहो देसहो वरि गम्मइ ॥
[७] ते परम-भाव-सब्भाव-रय दिक्खंकिय सूर-वीर-तणया सउरियहिं समुद्दिविजउ थियउ महुराहिउ उग्गसेणु कियउ अच्छति जाम मुंजंति धर वसुएवं ताम अणंग-सर परिपेसिय णायरियायणहो क-वि अहरु समप्पइ अंजणहो ४. क-वि देइ अलत्तउ णिय-णयणे मुच्छिज्जइ झिज्जइ सणे जे सणे क-वि छोडइ णीवी-वंधणउ
ढिल्लारउ करइ पइंधणउं क-वि वालु लेइ विवरीय-तणु मुहु अण्णहि अण्णहि देइ थणु एक्केकावयवे विलीण क-वि. वसुएउ असेसु-वि दिठु ण-वि ८ ..
घत्ता जहिं जहे गय दिट्ठि ताहे तहिं जे विथक्कइ ।
दुव्वल ढोरि व पंके पडिय ण उठेवि सकइ ॥९ 6, 9a. भ. ण सुरम्मइ. ..
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पढमो संधि
[८] जुवे णिक्कलंते णिक्कलइ क-वि पइसंते पइसइ तित्ति ण-वि . काउ-वि मयणग्गि-झुलुकियउ कह कह-वि ण पाणेहिं मुक्कियउ घरे कम्मु ण लग्गइ तियमइहिं वसुएव-रूव-मोहिय-मइहिं ओवाइउ दिज्जइ घरे जे घरे मेलावउ जक्ख दवत्ति करे ४ काहे-वि सरीरु जर-खेइयउ काहे-वि णिल्लाडु पसेइयउ तं ण घर ण चच्चरु ण-वि य सह जहिं णउ वसुएवहो तणिय कह काहे-वि पइ पासे परिद्वियउणं डहइ हुवासणु उट्ठियउ वोल्लाविय का-वि वयंसियए सो सुहउ ण फिट्टइ महु हियए णाहरणु ण रुच्चइ भोयणउं पहाणु वउण(?) फुल्लु विलेवणउं ८
घत्ता देवर-ससुर-पईहिं महु सरीरु रक्खिज्जइ । णिभरु गेह-णिवंधु चित्तु केण धरिज्जइ ॥
[९]
एहिय अवस्थ ज जाय पुरे पुर-पउर-महायणु भंजिवणु(?) अहो अंधकविहि सुहद-सुय । परमेसर परम-पसाउ करे वसुएवें पट्टणु मोहियउ घरिणिहिं घर-कम्मइं छंडियई जोइज्जइ मयणुम्मत्तियहि लइ भुजि भडारा रज्जु तुहूं
जे जे पहाण ते करेवि धुरे कूवारे गउ गरवइ-भवणु सिवदेवी-वल्लह सग्ग-चुय णिग्गमणु कुमारहो तणउं धरे ४
णं वम्मह-दंडें रोहियउ णिय-णाह-मुहई उम्मंडियइं तुह भायरु पर-कुलउत्तियहि पय जाउ कहि-मि जहिं लहइ सुहु ८
पत्ता
जं उत्पज्जइ वालु सइहि-मि णिय-भत्तारे'। तं अणुहव(१ र)इ असेसु णिम्मिर णाई कुमारे ॥
९
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हरिवंशपुराण [१०] तं णिसुणेवि परवइ कुइउ मणे कोकिउ वसुएउ-कुमारु खणे तहो अलिय-सणेऐं लग्गु गले आलिंगेवि चुविउ सिर-कमले उच्चोलिहिं पुणु वइसारियउ पच्छण्ण-पउत्तिहिं वारियउ संपइ कुमार दीसहि विमणु परिहरु पुर-वाहिर-णिग्गमणु ४ वाओलि धूलि आयउ पबणु आयई विसहेप्पिणु फलु कवणु गयसालहिं मत्त गइंद धरे घरे पंगणे कंदुअ-कील करे पच्छिम-उज्जाणे मणोहरए कुरु केलि विउले केलीहरए अवरेहिं विणोएहिं अच्छु तिह विहाणलं अंगु ण होइ जिह ८
पत्ता वंधु-णिवंधणे वद्ध वाय-गुत्तिहिं छुद्धउ । थिउ वसुएव-गइंदु विणयंकुसेण णिवद्धउ ।।
[११] तहिं अवसरे णरवर-पुज्जियए सिवएविहे आणिउ खुज्जियए चामीयर-भायण-समलहणु परिमल-मेलाविय-भमर-यणु तं मंड कुमारे अवहरिउ तहो तण णिएप्पिणु दुच्चरिउ आरुद्छ सुछ सइलिंधि-मुहु आएहिं दुवालिहिं पत्त तुहुं ४ दिदु बंधणारु जिह मत्त-गउ कापुरिसहो धीरिम होइ कउ परियाणेवि भायर-चंचणउं किउ कज्जु कुमारें अप्पणउं णिकलिउ स-सहयरु एक्कु जणु गठ रयणिहिं भीसणु पेय-वणु जहिं जमु-वि छलिज्जइ डाइणिहि गह-भूय-पिसाएहि जोइणिहिं ८
पत्ता
तं पइसरइ मसाणु में सुरहु-मि भउ लावियउ ।
णावइ भुक्खियएण काले' मुहु णिवाइयउ ।। 10. 3a. उच्छोलिहि
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परमो संधि
[१२] णियच्छ्यिं मसाणयं
जणावसाण-थाणयं उलूव-जूह-णाइयं
पभूय भूय-छाइयं महीगवोवसेवियं
मरुद्धवद्धवेवियं णिसा-तमंधयारियं
जमाणणाणुकारियं चियग्गि-जाल-मालियं
खगावली-वमालियं सरुंड-सूलियाउलं
सिवा-सियाल-संकुलं णिसायरेक-कंदियं
पसिद्ध-सिद्ध-सहियं तहि महा-मसाणए
जमालयाणुमाणए
घत्ता जायव-णाहु पइट्छु सहयरु दूरि थवेपिणु । मणुसु दद्ध णवाल (?) कट्ठइं(? अहिइं)मेलावेप्पिणु ।।
तो सव्वाहरणई मेल्लियइं सत्तच्चिहिं उप्परि घल्लियई बोल्लाविउ सहयरु जाहि तुहुं सिवदेविहे एवहिं होउ सुहु पूरंतु मणोरह पट्टणहो सूराहिव-णंदण-णंदणहो कहिं चुक्कु सहोयरु पेसणहो हर उप्परि चडिउ हुवासणहो एत्तडउ चवेप्पिणु कहि-मि गउ सच्छंदु णिरंकुसु णाई गउ सहयरेण कहिउ सब्यहो पुरहो भायरहो णरिदंतेउरहो रोवंतई सव्वई उट्ठियई साहरणई पेक्खेवि अट्ठियई बंधवेहि विहाणइ दिण्णु जलु तहि कालि कुमार वि अतुल-वलु ८
घत्ता विजयखेडु पुरु पत्तु तहिं सुग्गीबें दिण्णउ । सरसइ-लच्छि-समाउ सई भूसेवि वे कण्णउ ॥
इय रिटणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएव-कए । पढमो समुहविजयाहिसेय-णामो इमो सग्गो ।।
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हरिवंशपुराणु
बिईओ संधि
सिरि-सुग्गीव-सुवाउ परिणेप्पिणु णयरहो णोसरइ । णाई णिरंकुसु गाउ वसुएउ महा-वणु पइसरइ ॥१॥
[१] हरिवंसुब्भवेण हरि-विक्कम-सार-वलेण रणयं । दीसइ देवदारु-तल-ताली-तरल-तमाल-छण्णयं । लवलि-लवंग-लउय-जंबुंवर-अंव-कवित्थ-रिट्टयं । सम्मलि-सरल-साल-सिणि-सल्लइ-सीसव-समि-समिद्धयं । ४ चंपय-चूय-चार-रवि-चंदण-वंदण-बंद-सुंदरं । पत्तल-वहल-सीयल-च्छाय-लयाहर-सय-मणोहरं । मंथर-मलय-मारुयंदोलिय-पायव-पडिय-पुप्फयं । पुप्फटफोय(१)-सफल-भसलावलि-णाविय-पहिय-गुप्फयं । ८ केसरि-णहर-पहर-खर-दारिय-करि-सिर-लि(खि)त्त-मोत्तियं । मोत्तिय-पंति-कंति-धवलीकय-सयल-दिसा-वहंतियं । रवोल्ल-जलोल्ल-तल्ल-लोलंत-लोल-कोलउल-भीसणं । वायस-कंक-सेण-सिव-जंवुव-घूय-विमुक्क-णीसणं । मयगल-मय-जलोह-कय-कद्दम-संखुन्भं(?प्पं)त-वणयरं । फुरिय-फणिंद-फार-फणि-मणिगण-किरण-करालियंवरं । गिरि-गण-तुंग-सिंग-आलिंगिय-चंदाइच्च-मंडलं । तत्थ भयावणे वणे दीसइ णिम्मल-सोयलं जलं ।
१२
घत्ता
णाम सलिलावत्त णाई सुमितं मित्तु
लक्खिज्जइ मणहरु कमल-सरु । . अवगाहिउ णयणाणंदयरु ॥
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बिईओ संधि
[२] जस्थ सच्छ-विच्छलाई मच्छ-कच्छ-विच्छलाई रायहंस-सोहियाई मत्त-हत्थि-डोहियाई भीत-रंगु-भंगुराई तार-हार-पंडुराई पउमिणी-कवियाई चंचरीय-चुंवियाई मारुय-प्पवेवियाई चक्कवाय-सेवियाई णक-गाह-माणियाई एरिसाई पाणियाई सेय-णील-लोहियाई सूर-रासि-वोहियाई मत्त-छप्पयाउलाई जत्थ एरिसुप्पलाई
घत्ता तेत्थु रउदु गइंदु धाइयउ सवडम्मुहु णरवरहो । अहिणव-वासारत्तु (१त्ते) गज्जंतु मेहु णं महिहरहो ॥
९
४
उद्धाइउ मत्त-महागइंदु कण्णाणिल-चालिय-महिहरिंदु चल-चरण-चार-चूरिय-भुवंगु कर-पुक्खर-परिचुंविय-पयंगु मय-जल-परिमल-मिलियालिविंदु दढ-दंतासारिय-सुर-गइंदु . णिय-काय-कंति-कसणीकयासु मय-सलिल-सित्त-गत्तावयासु उम्मूलिय-णलिणि-मुणाल-संडु दप्पुबुरु दुद्धरु गिल्ल-डु रब-वहिरिय-सयल-दियंतरालु सिर-वेझुप्पाडिय-गिरि-खयालु मुह-मारुय-वस-सोसिय-समुह पडिवारण-वारणु रणे रउद्द उद्धरिसण-भीमण-रूवधारि कलि-काल-कयंत जमाणुकारि
घत्ता सो आरण्ण-गइंदु हेलए जि कुमारे धरिउ किह ।
धाराहरु परिमंतु खोलेप्पिणु सुक्के मेहु जिह ॥ ९ 3. 4. b. गम्भाकयासु.
८
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हरिवंशपुराणु
[४]
तहिं काले पराइय विण्णि जोह में चंद-दिवायर दिण्ण-सोह तहिं एक्कु णवेप्पिणु चवइ एम परिपुण्ण-मणोरह अज्जु देव हउं अच्चिमालि इहु वाउवेउ णिय-रूवोहामिय-मयरकेउ वे अम्हइं तुम्हडं रक्खवाल सुणि कहामि कहतर सामिसाल ४ । वेयड्ढे कुंजरावत्तु णयरु तहिं असणिवेउ णामेण खयरू तहो तणिय तणय णामेण साम वीणा-पवीण-रामाहिराम कमलायरे कुंजरु जिणइ जो-ज्जि भत्तारु ताहे संभवइ सो-ब्जि सो तुहुं करि पाणिग्गहणु देव णिउ पुरु परिणाविउ भणेवि एम ८
घत्ता
सामाएवि लएवि , परिओसें थिउ वड्डारएण । गरुडे जेम भुयंगु णिउ णिसिहे हरेवि अंगाररण ॥
९
जं णिउ वसुएउ महावलेण कुढि-लग्ग साम सहूं णिय-वलेण मरु मरु कहि महु पिउ लेवि जाहि जइ धीरउ तो रणे थाहि थाहि विज्जाहरु वलिउ कयंतु जेम तुडं महिल वराई हणमि केम परमेसरि पभणइ अक्खु तो-वि किं रक्खसि खंति " हणइ को-वि ४ पडिखलिउ विमाणु खणंतरेण अंगारउ ताडिउ असिवरेण तेण-वि परिचिंतिउ करमि एम ण मज्झु ण सामहे होइ जेम पण्ण-लहुए विज्जाहरेण मुक्कु भू-गोयरु चंपा-णयरे ढुक्कु जहि वासुपुज्ज-जिणदेव-भवणु णिसि-णिग्गमे इंदिय-दप्प-दवणु ८
घत्ता
वंदिउ परम-जिणिंदु परमेसरु तिहुयण-सिहर-गउ । जइ तुहुं णाह ण होंतु तो भव-मंसारहो छेउ कउ ॥
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बिईमो संधि
[६ जिण-णाहु णवेप्पिणु ण किउ खेउ तहिं को-वि पुच्छिउ भूमि-देउ अहो दियवर जणवउ कवणु एहु किं-णामु णयरु पंडुरिय-गेहु आयासहो किं तुहं पडिउ वप्प जंण मुणहि लोए पसिद्ध चंप जहि णिवसइ णिरुवम रिद्धि-पत्त वणि-गंदणु णामें चारुदत्तु तहो तणिय तणय गंधव्वसेण परिणिज्जइ जिज्जई अज्जु जेण आलावणि-वज्जे मणहरेण तो सउरोपुर-परमेसरेण अप्पाणु पयासिउ तेण तेत्थु मिलियई भूगोयर-सयई जेत्थु
पत्ता णिउ वणि-तणयहे पासि वसुदेउ-वि णज्जइ मत्त-गउ । वन्लइ देहि दवत्ति भज्जइ मरद्ध जे अज्जु तउ ॥
४
९
[७]
तो वीण सहासई ढोइयई वसुएवें ताई ण जोइयई। विरसइ जन्जरइ कु-सज्जियई __सव्वई लक्खण-परिवज्जियह सत्तारह-तंति सुघोस वीण सुह-लक्खण अलक्खण-विहीण वल्लइ य कुमारहो करे विहाइ वल्लहिय सुकंतहो कंत णाई पारद्ध मणोहरु तंति-वज्जु गं कारणु तत्थुप्पण्णु अज्जु णं जिणवर-सासणु रिसह-सारु णं बहुल-पक्ख-णहु मंद-तार परिचितइ मणे गंधव्वसेण किं वम्महु थिउ माणुस-मिसेण किं सग्गहो सुरवरु को-वि आउ किं किण्णरु किं गंधव्व-राउ
४
घत्ता
अण्णहो एउ ण रूउ एहु जगु जिणेवि समत्थु
अण्णहो विण्णाणु ॥ एत्तडउ । महु तणउं चित्तु किर केत्तडउ ॥ ९
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१३
हरिवंशपुराणु
[८]
कुसुमाउह-सरेहिं सरीरु भिण्णु वसुए- मोहणु णाई दिण्णु । विवणम्मण एक्कु-वि पउण जाइ उरि वाहें विद्धी हरिणि णाई लोयणई णिवद्धई लोयणेहिं सव्वंगई अंग-णिवंधणेहि चित्तेण चित्तु णिच्चलु णिरुद्ध जीवग्गह-गुत्तिहिं णाई छुद्ध ४ वणि-तणयए मयण-परव्वसाए घत्तिय णयणुप्पल-माल ताए परिणिज्जइ हरि-कुल-गंदणेण तरुणीयण-घण-थण-महणेण रइ-रस-वस इय अच्छंति जाम फग्गुण-गंदीसरु ढुक्कु ताम सुर-गर-विज्जाहर मिलिय तेत्थु सिरि-बासुपुज्ज-जिण-जत्त जेत्थु ८
घत्ता ताइ-मि तित्थु गयाइं स-विलासई रहवरे चडियाई । ' छुडु छुडु विण्णि-वि णाई सइ-सुरवइ सग्गहो पडियाई ॥ ९ ।
[९1 जिण-भवणहो वाहिरे ताम कण्ण मायंगिणि ण(१ ज)च्च-सुवण्ण-वण्ण कम-कमल-कंति-जिय-कमल सोह लायण्ण-जलाऊरिय-दिसोह मुह-ससि-धवलिय-गयणावयास सिर-केस-कंति-कसणीकयास सहुँ कुंतवे(?) उच्चिल्लंति दिट्ठ णं काम-भल्लि हियवए पइट्ट ४ वसुएव-दिट्ठि अण्णहिं ण जाइ णिय-घरु मुएवि कुलवहुय णाई पिय मयण-परव्वस कुइय कंत चल पुरिस होति अविवेयवंत ण मुणंति महिल-महिलंतराय रहु सारहि सारहि धरिउ काई तो पेल्लिय सूएं वर तुरंग णं मारुएण जलणिहि-तरंग
घत्ता वणि-तणयए करे लेबि पइसारिउ जोइउ जिण-भवणु(१) । देव-वि हियए ण ठंति मायंगिणि झायइ णिय-मणहो ॥ ९
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विईओ संधि
[१०] कुमारेण सउरीपुरी-सामिएणं मउम्मत्त-मायंगिणी-भामिएण वला बंदिओ देव-देवो जिणिदो अणिंदो सुरिंदो य वंदाहिवंदो तिलोयग्ग-गामो तिलोयस्सवणाहो अराओ अकामो अडाहो अवाहो सुहं केवलं केवलं जस्स गाणं महादेव-देवत्तणं च पहाणं ४ असोय-हमो जस्स दिण्णोवसोहो पहा-मंडलं दुंदुही चामरोहो मइंदासणं आमरी पुप्फवासा ति-सेयायवत्ताई दिव्वा य भासा ण चिंधेहिं एएहिं तं देव-देवो णराणं वि दोसति कोवाबलेवो तुमम्मि पसण्णम्मि मा होंतु ताणं ण चिधाई एयाई सव्वामराणं ८ .
घत्ता वंदेवि परम-जिणिंदु स-फलत्तउ गउ वसुएउ घरु । णं स-करेणु करेणु पइसरइ मणोहरु कमल-सरु ॥
[११] तहिं काले कुमार-कएण वाल ण पवंधइ णिय-सिरे कुसुम-माल ण पसाहइ अंगु पसाहणेण णं दीविय विरह-हुवासणेण जरु डाहु अरोचकु खासु सोसु। पासेउ खेउ पसरइ अ-तोसु संतावइ चंदण-लेउ चंदु मलयोणिलु दाहिणु सुरहि मंदु ४ परिपेसिय दुई जाहि माए लग्गेज्जहि सुहयहो तणए पाए चुच्चइ अणंग-रूवाणुकारि परिणिज्जउ विज्जाहर-कुमारि णीलंजस-णामें पइ-मि दिट्ठ मायगिणि-वेसे पुरे पइट्ट ण समिच्छइ जइ तो तं करेहि णिय-विज्जा-पाणे हरेवि एहि ८
घत्ता जाएवि दूयडियाए सामिणि-केरउ आएसु किउं । सुहु सुत्तउ-जि कुमार वेयट्ठ-महीहरु णवर णिउ ॥९
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१४
परिणिय णीलंजस - णामधेय
पुणु भिल्लहो तय जराए भुत्रु
पातु लभ परिभमिउ ताम - गउ णरवरु णवर अरिट्ठणयरु तहिं णरवइ णामें लोहियक्खु तहो घरिणि सुमित्त महाणुभाष -त णंदणु णाम हिरण्णणाहु आढत सयंवरु मिलिय राय
इयरिभिचरिए गंध-भो णामेण
[ १२ ]
घत्ता
सव्वेहिं सव्व सामग्गि किया ।
'सव्वेक्केक- पहाण णिय-णिय-मंचारूढ अप्पाणु सई भूसंत थिय
6
धवलइयासिय सयंभुएव- कए दुइज्जओ सग्गो ॥
पुणु सोमलच्छि पुणु मयणवेय तहिं जरकुमारु उप्पण्णु पुत विहिं रहिय सत्त सयाइँ जाम तिलकेसहे कारणे णाई सयरु जसु केर णिम्मलु उहय - पक्खु भू-भंगोहामिय-मयण - चाव सुय रोहिणि से वट्टइ विवाहु कुरु- पंडव - जायव - पमुह आय
हरिवंशपुराणु
४
८
॥ ९
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नईओ संधि
तईओ संधि रोहिणि-कर-घरमाणा सयल-वि राणा मिलिया सहुं जरसंधे। णं दस-दिसिहि पसत्ता महुयर मत्ता कढिय केयइ-गंधे ॥१॥
[१]
णिग्गय रोहिणि जय-जय-सहे गहिय-पसारण जुठवण-गव्वे सव्वाहरण-विहूसिय-देही कंति-सम्मुज्जल विज्जुल जेही मोहण-वेल्लि व मोहण-लीला वम्मह-भल्लि व विंधण-सोला ताराएवि व थाणहो चुक्की तक्खय-दिहि व सव्वहो दुक्की ४ जं जं जोयइ तं तं मारइ सो ण अस्थि जो मणु साहारइ सो ण अस्थि जो मुच्छ ण पत्तउ सो ण अस्थि जो णउ संतत्तउ सो ण अस्थि जसु हियइ पइट्ठो सो ण अस्थि सा जेण ण दिट्ठी मोहिउ हरिण-भिवहु गं गोरिए सयलु लोउ मूसिउ मण-चोरिए ८
पत्ता णिय-सामिणि-अणुलग्गी करिणि-वल्लगी धाइ णराहिव दावइ । आयहं माझे असेसह उज्जल-क्सहं लइ जुवाणु जो भावइ ॥९
[२]
जोयइ वाल धाइ दरिसावह एक्क-वि णवइ मणहो ण भावइ वंचिय कंाचण-मंच मयंधहं किव-गंगेय-दोण-जरसंघहं वंचिय इंद-पडिंद-सुरीस क विष्णि-वि सोमयत्त-भूरीसव चंचिय विम-पंडु-धयरतु-वि केरल-कोसळ-जवणंधट्ट-वि वंचिय भोट्ट-जट्ट-जालंधर टक्काहीर-कीर-खस-बव्वर गुज्जर-लाड-गउड-गंधार-वि सिंधव-मह-सुरह-दसार-वि वंचिय उग्गसेण-महसण-वि देवसेण-सुरसेण-सुसेण-वि चंभण-इब्भ ते-वि ण-वि जोइय जहिं तुरई तहिं करिणिय चोइय ८
घत्ता तिहिं बज-अम्भिारे जो जो अंतरे सो सो को-विण भावइ । सबणिदियह सुहावउ गं परिणावउ पडह-सह परिभावइ ।। ९
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१६
हरिवंशपुराणु
[३] पंथिय-पडह-सदुदु सुउ कण्णए आउ आउ णं कोक्कइ सण्णए आउ आउ वरु एत्तहिं अच्छइ आउ आउ इह माल पडिच्छइ आउ आउ एहु सव्वहं चंगउ सब्बाहरण-विहूसिय-अंगउ आउ आउ एहु णिरुवम-देहउ आउ आउ एहु वम्महु जेहउ आउ आउ कि अच्छहि दूरे एव णाई हक्कारिय तूरे वंचेवि दियवर वणिवर खत्तिय पाडहियहो माला वरि घत्तिय जे जे मिलिय सयंवरे राणा ते ते सयल-वि थिय विदाणा जणु जंपइ तहो सिय आवग्गी रोहिणि जसु कर-पल्लवे लग्गी
४ ।
८
वुच्चइ तो मज्झत्थे सुरवर-सत्थे एह ण जुज्जइ सयलहो । .. चिर चंदायणे चिण्णहो णं परिखिण्णहो जिह रोहिणि तिह सयलहो ।
[४]
सण्णिय णिय-णरिंद जरसंधे रयणई संभवंति महिवालहो जइ ण देइ तो जम-पहे लावहो णं जम-किंकर माणुस-वेसे सुर णिरुद्ध णं केण-वि असुरें सिहरे महीहरेण णं पायउ थिउ दप्पुब्भड-भड-कडवंदणे वुच्चइ लोहियक्खु जमाएं
तो आढत्त महा-पडिबंधे पाडहियहो कुमारि उद्दालहो रुहिर-हिरण्णणाह वोल्लावहो धावइ गरबर पहु-आएसे तहिं अवसरे वसुएवहो ससुरें रहि अप्पणई चडाइउ जायउ तेण णिरूवेवि तणयहो संदणे तो पसरिय रण-रहसणुराएं
४
. घत्ता रहु स सरासणु दिज्जउ एत्तिउ किज्जउ पई ण माम लज्जावमि । - एंतु एंतु अरि उप्परि हउँ णर-केसरी हरिण जेम उड्डावमि ॥९
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१७
.
तईओ संधि
[५] परिणित को कलत्तु उहालइ को इंदहो इंदत्तणु टालइ को फणिवइहे फणा मणि तोडइ वइवस-महिस-सिंगु को मोडइ तुम्हई विण्णि-वि रोहिणि रक्खही हउं अभिडमि एक्कु पडिवक्खहो वइरिहिं थरहरंत सर लामि उद्ध-कवंध-णिवहु णच्चावमि ४ गज्जिउ जं वसुएव-कुमारे दिण्णु महारहु सहु जोत्तारें दुइ सहास संदणहं रउद्दहं छग्गंधुदुर-मत्त-गइंदहं हयह चउद्दह दप्पुत्तालहं धाइय तिाण लक्ख पायालहं भिडियई वलई वे-वि अवरोप्परु रउ उच्छालउ भरंतु दियंतरु
पत्ता मत्त-मयंग मयंगहुं तुरय तुरंगहुं रहवर रहवर-विदहुं । जोहहुं जोह महारणे रोहिणि-कारणे भिडिय गरिद गरिंदडं ॥ ९
उत्थरंति साहणाई
चाउरंग-वाहणाई सुठु-वद्ध-मच्छराई
तोसियामरच्छाई एक्कमेक्क-कोक्किराई कुत-कोडि-वोक्किराई वाण-जाल-छाइयाई
तूर-णाय-णाइयाइ धूलि-वाउ-धूसराई
आउहोह-जज्जराई दंति-दंत-पेल्लियाई
सोणियंव-रेल्लियाई घोर-घाय-भिभलाई
णित्त-अंत-चोभलाई तिक्ख-खग्ग-खंडियाई भल्लुया-रवाउलाई
घोर-गिद्ध-संकुलाइ सीह-विक्कमें विवक्खे हीयमाणए स-पक्खें
घत्ता तहिं अवसरे वाहिय-रहु मरण-मणोरहु सउरि स-सालउ थवाइ । दूसहु एक्कु हुवासणु अवरु पहंजणु वे वि धरेवि को सका ॥९
पजा-२
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૧૮
विहि-मि हिरण्णणाह-वसुएवेहिं बाहिय-रहेहिं अखंचिय-वग्गेहिं सुर-वेखंड- सुंड-भुय- दंडेहिं विसहर जोह - दोहणारा पहि छोइउ पर-वलु सरवर - जाले ' सोण जोहु णारोहु ण गयवरु सो ण वि आसवारु ण तुरंगमु तं ण-वि आयवन्तु ण-वि चिंधडं
-
तहि अवसरे समरंगणे सुंडे' उइड हिरण्णणाहु बहु वाणेहि रुहिरहो णंदणेण धणु - हत्थे चहिं चयारि तुरंगम घाइय अवरे आयवतु धर अवरें जाम पर्यडु अवरु सरु संघइ नाम विरुद्धएण वसुएवें
घन्ता
तहो पडिवकखे
वायड मुक्कु सलक्खे' सरेहिं दसहिं विक्खिण्णउं णं परिछिण्णउं
[८]
जरसंघहो किंकरेण पयंडे दूसह - दिणयर-किरण- समाणेहिं छिण्णु महारहु एक्के सत्थे वइवस - पुरवर-पंथें लाइय अवरें वाण-जालु धत्त अवरें नागवासु जगु जेण णिबंधइ पेसिउ अद्धचंदु विणु खेवें
तेण सरासy afte हियत (१) पहीणहो
[ ७ ]
रण- र सियहि वड्ढिय - अवलेवेहिं गंध बहुद्धअ-धवल-धयग्गेहिं इंदा उह-पथंड - कोदंडेहि मेहसमुद्द- २०६ - णिणाए हिं
णं गिरि-कुलु णव- पाउस - काले तं ण रहंगु रहिउ णउ रहवरु सो ण णशहिउ जय - सिरि-संगमु जं वसुएव - सरेहिं ण विद्धउं
हरिवंशपुराणु
घन्ता
.
तेण वि रणे माहिदे | भव-संसारु जिणिदे ॥ ९
४
८
पाउ कोडि-गुणालंकारिउ । लक्खण- हीणहो णं धणु दइवें हरिय ||९
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तईओ संधि
[९] जिणेवि पयंडु समरे असरालउ गउ वसुएउ लेवि णिय-सालउ भिडिउ णवर जरसंघहो साहणे रहवर-तुरय-महागय-वाहणे हम्मइ एक्कु अणतेहिं जोहेहिं तो-वि पवरिसिउ सर-धारोहेहि चउ-दिसु रहु वाहंतु ण थका संदण-लक्ख णाई परिसक्कइ एक्कु सरोसणु विणि जे हत्थउ विधइ णं धणु-कोडि-विहत्थर सरह पमाणु णाहिं णिवडतहं णं घण-घण-थंभहिं वरिसंतहं थिउ पारक्कउ लीहावद्धउ णं तवणेण तिमिरु ओबद्धउ णउ णासइ साहारु ण वंघइ स-सरासणि ण सरासणे संधइ
४
८
पत्ता तं जरसंधहो साहणु रह-गय-वाहणु एक्के रण-मुहे धरियउ । सोह-किसोरहो भिडियहो कम-वहे पडियहो गय-जूहहो अणुहरियउ ॥ ९
[१०] तर्हि अवसरे मज्झत्थी-भावे पेक्खय-लोएं ललिय-सहावे' रूव-रिद्धि-सोहग्ग-मयंधहो धिद्धिक्कारु दिण्णु जरसंधहो कि जोइएण णराहिव-सत्तें जेण जुवाणु लइउ अक्खत्ते तं णिसुणेवि पिहिवि-परिपाले गंणिय-दूउ विसज्जिउ काले ४ धाइउ सत्तुजउ वसुएवही अहिमुहु (१) वइवस-विकखेवहो विष्णि-विस-सर-सरासण-हत्था विण्णि-वि जयसिरि-गहण-समत्था विण्णि-वि वावरंति अपमाणेहि जलहर-जलधारोवम-राणेहि तो सउहदें लद्धावसरें दिण्ण-सुरंगण-लोयण-पसरे ८
घत्ता ...: रिउ णाराएं ताडिउ सारहि पाडिउ हय हय छिण्णु महारहु ।
समर-भरोइडिय-खंधहो गउ जरमंधहो णिप्फुल णाई मणोरहु ।। ९
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हरिवंशपुराणु, [११] पाडिउ जे जे सत्तुंजउ
धाइउ दंतक्तु रणे दुजइ सो-वि सिलीमुहेहिं विणिवारिउ मुच्छ पराणिउ कह-वि ण मारिउ धाइउ कालवत्तु तहो वीयर सो-वि दुक्खु मरि(१)-रक्खिय-जीयउ सल्लु स-सल्लु करेप्पिणु मुक्कउ कह-वि कह-वि जम-णयरु ण ढुक्कउ ४ सोमयत्तु वित्थारेवि घल्लिउ भूरीसउ णिय-रहे ओणलिउ तिह गंगेउ दोणु कियवम्मउ तिह किउ तिह कलिंगु स-सुसम्मउ जो जो जोहु रणंगणे मुप्पइ सो सो सउरिहे को-वि ण पहुप्पइ ताव समुद्दविजउ वले भग्गए सहुँ णिय-रहबरेण थिउ अग्गए ८
पत्ता णिएवि जणेरी-गंदणु वाहिय-संदणु अणुउ मणेण पहिउ । अन्जु दिवसु दिहि-गारउ भाइ महारउ वरिस-सएहिं जं दिट्टउ॥ ९
[१२] सारहि दिण्णु आसि जो मामें सो वोल्लाविउ दहिमुहु णामें मंथरु वाहि वाहि रहु तेत्तहे जेटु समुद्दविजउ महु जेतहे केम-वि विहि-वसेण विच्छोइउ वरिस-सयहो णिय-पुण्णेहि ढोइल हउँ हिरवेक्खु ण आएं सहियउ एउ परमत्थु मित्त मई कहियउ ४ जणण-समाणु केम घाइज्जइ आयहो छाया-भंगु ण किज्जइ जिह उवइठ्ठ तेम रहु चोइउ जायव-णाहु जेत्थु तहिं ढोइल तेण-वि दिछु कुमारू सहोयरु सारहि वुत्तु ताम धरि रहवरु पेक्खु जुर्वाणु सरासण-हत्थउ णं वसुएव-सामि सग्गत्थउ
घत्ता तो रण-रसि-हूएं वुच्चइ सूएं सामिसाल अनचिंतए ।
भिच्चु जेम पहरेव्वउ जिम मरिएल्वउ एत्थु काई सुह-चिंतए ॥९ 11.7 भा.ज. मुच्चइ.
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तईओ संधि
[१३] तं णिसुणेवि बयणु जोत्तारहो धाइउ जायव-णाहु कुमारहो विण्णि-वि भिडिय रणंगणे दुज्जय दुद्धर-पर-पर-पवर-पुरंजय विष्णि-वि जायव गरुड-महद्धय आसि सुहाएवि-थगंधय विणि -वि अंधयविहिहे गंदण णिय-णिय-सारहि-वाहिय-संदण ४ विण्णि-वि रण-मण-वइरि-वियारण जिण-णारायण-जम्मण-कारण विण्णि-वि संजुगीण-धणु-करयल भग्गालाण-खंभ णं मयगल विणि-वि जयसिरि-रामालिंगिय सासय-पुरवर-गमण-मणिगिय विणि-वि विकम-वद्धिय-जय-जस दाणे माणे समरंगणे स-रहस ८
सउरीपुरि-परमेसरु बाहिय-रहवरु पच्चारिउ वसुएवें । पहरु पहरु णव वारउ तुहं पहिलारउ अच्छहि किं स(१)वलेवें ॥ ९
[१४] ताव सुहहंगरुह-पहाणे मुक्कु वाणु वइसाह-ट्ठाणे 'किउ दु-खंडु दूरहो जे कुमारे णं फणि खगवइ-चंचु-पहारे जुज्झिय एम सरेहिं अणेयहिं पायव-वारुणत्थ-अग्गेयहिं तरुवर-गिरिवर-सिल-पाहाणेहिं ___सय-सहास-जुव-लक्ख-पमाणेहिं ४ पुणु वम्हत्थु विसज्जिउ राएं णासिउ तमि-तामस-णाराएं जं पट्टवइ तेण तं छिज्जइ तिह पहरइ जिह भाइ ण भिज्जइ मंडेवि वड्ड वार समरंगणु परिओसाविउ अमर-वरंगणु णिय-णामंकिउ मुक्कु महा-सरु पणवइ पइ वसुएउ सहोयरु
घत्ता
अंधकविट्ठिहे गंदणु णयणाणंदणु दहहं मन्झे लहुयारस । कह-वि कह-वि विच्छोइउ दइवें ढोइउ हउं सो भाइ तुहारउ ॥९
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२१
सयल स- सायर पिहिवि भवंते हियउ फुट्टू (?) रिंद खमिज्जहि जाम णराहिउ जोयइ अक्खरु धन्ति महियलि स सरु सरासणु दुष्पुत्त व आमेल्लिउ संदणु
रवइ हरिसें कहि-मिण माइउ रोहिणि-नाहु - विणिय रहु छंडेवि महिले सिरु लायंतु पदुक्कउ
एक्कहिं मिलिय सहोयर दिण्णु सहालिंगणु
[१५]
बरिस - सयहो मइ' दिडु जियंतें जं कि अविणउ तं मरुसिज्जहि ताम कुमार सहयरु भायरु णं कु-कलत्तु असारिय- पेसणु जायव - जण-मण-णयणाणंदणु कंची -दाम-खलंतु पधाइउ जस-गुण- विणएहि अप्पर मंडेवि देवेहिं कुसुम - वासु पम्मुक्कउ
८
घन्ता
हरिवंशपुराणु
*
जय-सिरि-गोयर पुण्णोवचएहि वड्डएहि । गाढालिंग विहि-मि सयं भुव - दंडएहिं ॥९
इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिया सयंभुएव - कए । रोहिणि-सयंवरो णामेणं इअओ सग्मो ||
४
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चउत्थो संधि
परिणेविणु रोहिणि अमर-विरोहिणि तहिं संवच्छरु एक्कु थिउ । उप्पण्णउ हलहरु पुत्तु मणोहरु दइवें णं जस-पुंजु किउ ॥१
संकरिसणु रामु णामु णिमिउ वलएउ हलाउहु अवरु किउ बहु-सत्त-सयई हकारियई सउरी-पुरुवरे पइसारियइ वसुएउ णराहिउ संचरइ
धणुवेय-गुरूवएसु करइ . . अच्छइ सय-सीसालंकरित सुपसिद्ध हूउ परमाइरिउ विज्जस्थिउ ताम कंसु अइउ घर-घल्लिउ ओहामण-लइउ दणु-दुहम-देह-वियारणई सिक्खविउ अणेयई पहरणई तहि काले कहिउ केण-वि गरेण पुरे घोसण किय चक्केसरेण जो को-वि णिवंधइ सीहरहु जीवंजस दिज्जइ तासु बहु
घत्ता सहुँ इच्छ्यि -देसें देइ विसेसे सा वसुएवं वत्त सुय । भुय-दंड-पयंडे गं वेयंडे जमलालाण-खम विहुय ॥ १०
[२] सहुँ सेण्णे अमरिस-कुइय-मण वसुएव-कंस गय वे-वि जण उप्परि पोयण-परमेसरहो
केसरि-संजोत्तिय-रहवरहो परिवेढिउ पुरवरु गयवरेहि रवि-मंडलु णं णव-जलहरेहिं असहंतु पधाइउ सीहरहु
सर-जाले पच्छायंतु णहु तहिं अवसरे कंसें वुत्तु गुरु हर आयहो रणमुहे देमि उरु तुडं पेक्खु अज्जु महु तणउं वलु। सीसत्तण-रुक्खहो परम-फलु वसुएवें हत्थुत्थलियउ
रहु दिण्णु कंसु संचल्लियउ ते भिडिय परोप्पर दुव्विसह णाणाविह-पहरण-भरिय-रह ८
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२४
हरिवंशपुराणु
पत्ता आयामेवि कसे लद्ध-पसंसे छिदेवि सर-पसरे लद्धावसरे
छत्तु स-चिंधु स-सीह रहु । धरिउ रणंगणे सीहरहु ॥ ९
रिउ लेवि वे-वि गय तं जि गिहु आखडल-मंडल-णयर-णिहु जरसंघे तो आलत्तु पिउ
वसुएवहो अब्मुत्थाणु किउ जीवंजस देसु समपियउ । ता रोहिणि-णाहु पयंपियउ मई जिउ ण भडारी सीहरहु जिउ कसें आयहो देहि बहु ४ परि पुच्छिउ तें तुहुं तणउं कहो कउसंविहिं हर वज्जरिउ तहो रंजोयरि णामे माय महु
सुर-कारिणि कोक्किय आय लहु कर-कमल-कयंजलि विण्णवइ अहो सुणु तिखंड-वसुहाहिवइ एहु सच्चउ सुउ ण महु त्तणउं गड जाणमि आउ कहि त्तणउ.
पत्ता कंमिय-मंजूसए मुद्द-विहूसए केण वि जले पइसारियउ । कालिंदि-पवाहे सुद्छु अ-गाहे आणे-वि महु संचारियउ ॥ ९
[४] कंसिय-मंजूसए जेण भवणु किउ कंसु तेण णाम-ग्गहणु फलियारउ मई ण णिरिक्खिउ गुरु सेवेवि सत्थई सिक्खियउ परिओसु पवड्ढिउ पत्थिवहो जीवंजस णिय-सुय दिण्ण तहो लइ मंडलु एक्कु जहिच्छियउं तं तेण वि वयणु पडिच्छियउं परमेसर दिज्जउ महुर महु जें जुज्झमि णिय जणणेण सहुं जउण-इहे घल्लिउ जेण चिरु तं वंधमि जइवि ण लेमि सिरु ता राएं हत्थुत्थल्लियउ पिउ बंधेवि णियलेहिं घल्लियउ
घत्ता
जा बण्णे भुत्ती सिय-कुलउत्ती सा किम पुत्तहो परिणवइ । , सिय चंचल-चित्ती होइ विचित्ती जुत्ताजुत्तु ण परिकलइ ॥ ८
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२५
चउत्थो संधि
[५]
महुराउरि परिपालंतु थिउ णिय-वस-विहेउ पडिवक्खु किउ जरसंघहो जो ग सेव करइ उक्खंधे जाएवि तं धरइ 'परिचितइ बारह मंडलई चउरासम चाउवण्ण-फलई चउ विज्जउ सत्तिउ तिण्णि तहिं अट्ठारह-तित्थई कवणु कहिं सत्तंगु रज्जु पालइ अचलु मेल्लावइ छव्विहु भिच्च-वलु छग्गुण सयलु-वि संभरइ सत्त-वि दुव्वसणइं परिहरइ जाणइ कंटय-सोहण-करणु णिय रक्खण णिय-कुमार-धरणु हिय-इच्छिउ एम रज्जु करइ निय-गुरु-उवयारु ण वीसरइ ८
घत्ता कुरु-वंसुप्पण्णी सस-पडिवण्णी देवइ णिय-समाण गणेवि । दिज्जइ वसुएवो जिण-पय-सेवही कसें गुरु-दक्खिज भणेवि ॥९
[६] तहिं तेहए काले ति-णाण-धरु विणिवारिय-वम्मह-सर-पसरु अजरामर-पुरवर-पह-दरिसि अइमुत्तउ णामें देव-रिसि रयणायरु गुरु-गंभीरिमए गिव्वाण-धराधरु धीरिमए तव-तेएं तवण-ताव-तवणु
णिय-मूल-गुणालंकरिय-तणु परमागम-दिट्ठिए संचर
महुराउरि चरियए पइसरइ आणंद-पद्ध-रममाणियउ
जीवंजस-देवइ-राणियउ णिय-णाण-बिणासिय-भव-णिसिहे। पहु रुंभेवि ठंति महा-रिसिहे ता तेण-वि मणे आरुट्टएण वोल्लिज्जइ कंसहो जेट्टएण ८
पत्ता जीवंजसे वच्चहि काई पणच्चहि जहिं भउ तहिं मग्गाह सरणु । मगहाहिव-वंसह पुर-सर-हंसह आयहो पासिउ धुउ मरणु ॥ ९
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२६
हरिवंशपुराणु
[७]
४
तं णिसुणेवि मण्णु समावडियणं मत्थए वज्जासणि पडिय गय णिय-घरु उम्मण-दुम्मणिय गग्गर-सर मउलिय-लोयणिय णं कमलिणि हिम-पवणे हइय णं वणवइ वणमइ वणमइय तो कसें अमरिस-कुद्धएण सोहेण व आमिस-लुड एण कालेण व-कोवाउप्णएण विसहरेण पउर-विस-विण्णएण जलणेण व जाला-भीसणेण . मेहेण-व पसरिय-णीसणेण अक्केण व मीण-कण्णा-गएण . पुच्छिय पउमावइ अंगएण परमेसरि दुम्मण काई तुहुँ विद्वाणउं दीसइ जेण मुहु
पत्ता कहि कहि सीमंतिणि : कवणु णियविणि खेड जेण उप्याइयछ । सो सणि-अवलोइउ काले चोइड कहिं महु जाइ अ- [इयउ ।। ९.
कालिदिसेण जरसंध-सुय जो अज्जु णाह किउ सोहलउ णं मत्थए जलणु जलंतु थिउ वसुदेवहो दइयहे देवइहे तहो पासेउ तुम्हहुं विहि-मरणु तो महुर णराहिउ डोल्ल्यिउ थिउ णाई धराधरु दड्ढत्तणु अच्चंतु-महंतुप्पण्णु भउं
[८] पभणइ सुसियाणण सुढिय-भुय
ते महु उप्पाइउ कलमलउ अइमुत्तएण आएसु कित जो गंदणु होसइ खल-मइहे. ४. । महु वप्पहो को-वि जाहि सरणु गं हियवए सूले सल्लियउ अपमाणीहोइ ण रिसि-वयणु णिविसें वसुएवहो पासु गउ ८
घत्ता
जइ तुम्ह गुरुत्तणु महु सासत्तणु एहु परमत्थु समस्थियन । तो एत्तिउ किन्जउ वरि वरु दिज्जउ सत्त-वार अभित्थियउ ॥ ९:
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थो संवि
जं कंसु परिद्विड पणय - सिरु
तं देवइ-दहवें दिष्णु वरु
सिल सिहरे
महुरा हिउ स - रहसु विष्णवइ सो सो - वि हणेव गउ एम भणेपिणु लद्ध-वरु णं विमणु महा-कणि फण- रहिउ देव हे तणुब्भव गीढ-भय
पडिआगय- चेयण जिह तिह कुलउत्तिए
[९]
रइयंजलि थग्गण्ण-गिरु पई मुवि अस्थि को महु अवरु जो जो देवइहे गब्भु हवइ तुम्हेहिं णिवसेवउ महु जे घरे वसुएड-वि गड णिय- वासहरु णिय-वइयरु णिरवसेसु कहिउ रोति रसायले मुच्छ गय
घन्ता
भइ स-वेयण णिच्चल हरणइ थुणियए काई जियंतिए पइ-हरे पुन्त - विहूणियए ।। ८.
सचमउ तुहारउ महि-हि-रयण
धणणंदण - जोठवणइन्तियह सो किं ण देइ सय-वार वरु एक्कु - वि लहु अणु-त्रि सुय-रहिय तो गयई वे - वि उज्जाण - वणु वंदेष्पिणु पुच्छिउ जइ-पवरु जो गब्युपज्जइ महु उवरे परमेसरु सब्झसु अवहरइ छचरम देह कहियागमणे
[१०]
जसु सत्त-सयइं कुल उत्तियहं हय- दइवहे महु उज्झउ उयरु वरि लइय दिक्ख जिणवर - कहिय अइमुत्त-महारिसि जहिं सवणु वसुएवें कंसहो दिण्णु वरु तं सो अप्फालइ सिल- सिहरे तुह पुत्तहो एक्कु - वि णउ मरइ पालेवा देवे
इगमणे'
वंदेपणु देव - रिसिहे चलण छ - वि पसविय कंसहो अल्लविय
घन्त्ता
रणे खयगार
पट्ट - णिबंध
महुराहिव - मगहा हिवहं । होसइ पत्थि पत्थिव ।। ९
[११]
गय देवइ णिय- घरु तुट्ठ मण मलयइरिहे णइगम-सुरेण णिय
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________________
RC
सत्तमर जु णंदणु ओयरिड तहिं काले जसोय-वि देवइ-वि अवरुप्पर वद्धिउ णेह - भरु -महु केरउ गब्भु माए मरउ परिपालमि तं जिह अप्पणउं
णिय- णिय - आवासी हूइयउ
भद्दवयहो चंदिणे
उप्पण्णु जणद्दणु
-सय-सीह-परक्कमु अतुल-वलु सुह- लक्खण- लकखालंकियउ रणिय - कंति-लयालिंगिय-भवणु वलवे आयत्तु धरिउ
नारायण - चलणंगुट्ट-हउं धम्मो
अग्गए बसहु थिउ हरि देपिणु लइय जसोय-सुय
- गोत्रंगय कंसहो अल्लविय - गोविंदु णंद-गोहंगणए
हरिवंसही मंडणु यि पक्ख विहूसणु
वारहमए दि
असुर - विमद्दणु
-
-गोटुंगणे पुण्णई आइयई गोगणें परिवड्ढइ हरिसु
घरे णाई मणोरहु पइसरिउ णं मिलिय जडण- गंगा - णइ-वि
तो दो दइयए दिष्णु वरु तुह केरउ गोउले संचर उ एन्ति पडिवण्णु महु त्तणउं वासरे एक्कहिं जे पसूइयउ
घत्ता
[१२]
हरिवंशपुराणु
सिरि-लंछण-लंछिय वच्छयलु
अट्टुत्तरस्य णामंकियउ वसुवे चालिङ महुमहणु ते वरिषु निरंतर अंतरि विहडेवि पओलि - कवाडु गउ ते जडणा-जलु वे-भाउ किउ हरहर - वसुएव कयत्थ किय विझाहिव - जक्खेहि विंझे णिय वड्ढइ णव-ससि व हंगणए
घत्ता
कंसह खंडणु पर - गइ - दूसणु
[१३]
सुहिहि दिंतु अहिमाण- सिंह | कंसहो मत्था - सुलु जिह ॥
४
महुरहिं दुणिमित्तई जाइयई महुरहिं रिसइ सोणिय - वरिसु
८
हरि पश्विड्ढइ णंद घरे । रायहं णं कमल - सरे ॥
४
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२९
चलत्थो संधि गोटुंगणे अणुदिणु णाई छणु महुरहिं संतत्तर सयलु जणु गोगणे मंडव-संकुलई महुरहिं दीसंति अमरालइ गोठेंगणे खीरई वढियई महुरहिं मन्जइ-मि ण संधियई गोट्ठगणे गोविउ सूहवउ महुरहिं वेसाउ-वि दुहवउ गोगणे गोवाल-वि कुसल महुरहिं वणिउत्त णाई वियल गोट्ठगणे जोक्खी का-वि किय महरहिं गय उड्डेवि णाई. सिय ८ खोल्ल्डइ-मि गोठे मणोहरई महुरहिं रोवंति णाई घरई
घत्ता महुराउरि सुवण्णी जाय अउण्णी जंण पयट्रइका-वि किय । धण-कणय-सउण्णउं गोड्छु रवण्णउं जहिं णारायणु तहिं जि सिय ॥९:
[१४] दणु-महणु णंदणु कण्हु जहिं वणिज्जइ गोउलु काई तहिं हरि वद्धइ केण-वि कारणेण वामयरंगुट्ठ-रसायणेण वालत्तणे वाल-कील करइ जो ढुक्कइ सो गहु ओसरइ गब्मये घाइय अह गह जाएणः दिण-ग्गह दस दुसह ४ मास-गह बारह ते-वि जिय वरिस-गह तेरह खयहो णिय णारायणु चत्तु णिसायरेहिं दुत्थेहिं गुरु-चंद-दिवायरेहिं घडु वायइ घंटारउ करह कक्कंधु-णिव-साहउ धुणइ दिणे सोबइ जग्गइ जामिणिहि म होसइ भउ गोसामिणिहि
पत्ता णिसि-समए जणदणु असुर-विमहणु रण-वस-रहसूसुएहि । परिवज्जिय-सीयहो रक्ख जसोयहो उठुइ देइ सयं भुएहिं ॥ ९
इय रिटुणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएव-कए । हरि-कुल-वंसुपत्ती णामेण चउत्थो सग्गो ॥४॥
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पंचमो संधि
[१] गंदइ गंदहो तणउं घरु जहिं हरि उपण्णउ वालु ।
पालइ पालणए ज्जि ठिउ गोठेंगणु गो-परिपालु ॥ कण्हहो णीसामग्गि-अवक्खए णि ण एइ रणंगण-कंखए अज्ज-वि पूयण काई चिरावइ अज्ज-वि माया-सयडु ण आवइ अज्ज-वि रिठ-कंठु ण बलिज्जइ अज्ज-वि गोवद्धणु ण धरिज्जइ अज्ज-वि अज्जुण-जुयलु ण भज्जइ अज्ज-वि केसि-तुरंगु ण गंज्जइ ४ अज्ज-वि जउण णाहि मंथिज्जइ अज्ज-वि कालिउ ण णस्थिज्जइ अज्ज-वि कमलय-पीढु ण हम्मद अज्ज-वि महुरा-णयरि ण गम्मइ अज्ज-वि सह सुणिज्जइ तूरहो अज्ज-वि तइय(१) चलण चाणूरहो 'अज्ज-वि केसहो रिद्धि मयंधहो अज्ज-वि गंदइ पुरि जरसंघहो -आयए कंखए वालु ण सोवइ जाणइ जणणि अ-कारणे रोवइ
घत्ता मेहरि अम्माहीरएण परियंदइ हल्लरु णाह । गोउले पई अवइण्णएण हां हूइय जे सणाह ॥
[२] को केहउ पर-चित्तई चोरइ हरि अलियउ जे णिरारिउ घोरइ णं खय-काले महण्णउ गज्जइ णं सुर-ताडिय दुंदुहि वज्जइ णं णव-पाउसेण-घणु गज्जइ णं केसरि-किसोरु ओरंजइ पोरण-सह मेइणि कंपइ णउ सामण्णु को-वि जणु जंपइ ४ भीय जसोय विउझणे कुप्पइ उट्टि वप्प किर केत्तिठ सुप्पइ कह-वि विउद्धृ णाहु हरिवंसहो ताम कहिज्जइ केण-वि कंसहो
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पंचमो संधि वद्धइ गंद-गोठे जो वालउ विकमु को-वि तासु असरालउ । घोरण-सहे अंबरु फुट्टइ पिहिवि अभुत्ती दुक्करु छुट्टइ॥
पत्ता दुक्कु पमाणहो रिसि-बयणु गोठेंगणे वड्ढइ विट्ठ । अज्जु सु महुर-णराहिषहो गं हियवए सल्लु पइदछु ।
८
९
जं उप्पण्णु गोठे दामोयरु संकिउ महुराउर-परमेसर आयउ देवयाउ एत्यंतरे सिद्धउ जाउ पुठव-जम्मंतरे जइयहु कंसु होंतु पव्वइयउ दुद्धरु घोरु वोरु तउ लइयउ चंदायणु चरंतु सुह-कारणु मासहो मासहो एक्कसि पारणु ४ जाणेवि उग्गसेणे महुराए भिक्ख णिवारिय पुरे अणुराएं महु जे णिहेलणे थाउ भडारउ सो-वि पइछु अणंग-वियोरउ मत्त-गइंदु अग्गि-कूवारउ ते अ-लाहु तहो जाउ ति-वारउ मासे चउत्थए जाव पईसइ मुच्छ तमंधयारु ते दीसइ ८
घत्ता केण-वि कोहुप्याइयउ पत्थिवेण महारिसि मारियउ । आएं को अवराहु किउ जे पुरे पइसारु णिवारियल ॥ ९
[४] सिद्धउ देवयाउ तहिं अवसरे देइ आएसु भणति खणंतरे वासुएव-वलएव मुएप्पिणु
दिज्जइ अवरु कवणु बंधेप्पिणु उग्गसेतु किं पलयहो णिज्जउ किं समसुत्ती पुरे पाडिज्जउ चुच्चइ जइवरेण एत्यंतरे
एउ करिज्जहु अण्ण-भवंतरे ४ अम्हई ताउ कंस सुपसण्ण मग्गि मग्गि किंचि-वि-तावण्णउं पभणइ माहुरि-पय-परिपालउ वद्धइ गंदहो घरे जो वालर तं विणिवायहु महु आएसें
पूयण धाइय धाई-वेसे सं-विसु पओहरु ढोइउ वालहो णं अप्पाणु छुद्ध मुहे कालहो ८
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हरिवंशपुराणु
घन
सो थणु दुद्ध-धार-धवलु हरि-उहय-करंतरे माइयउ पहिलारउ असुराहयणे णं पंचजण्णु मुहे लाइयउ ॥
[५] पूयण पण्हुवंति आयड्ढइ थण्णु थणंतु थणद्धउ कडूढइ पूयण पण्हुवंति भेसावइ
भद्दिउ भीम भिउडि दरिसावइ पूयण पण्हुवंति पवियंभइ महुमहु रहिर-पाणु पारंभइ पूयण पण्हुवंति किर मारइ णिठुर-मुट्ठि विठु बढार ४ पूयण पउर-करेहिं पडिपेलइ डसइ जणदणु गाहु ण मेल्लइ पूयण पिज्जमाण आकंदइ हरि धुत्तत्तणेण परियंदइ सोणिय-चीसढ-घाणिए मत्तउ तो-वि पओहरु ण-वि परिचत्तठ ८
पत्ता खोरु-वि रुहिरु-वि पूयणहे कड्ढिउ केसवेण रउद्दे। गंणइ-मुहेण व सिंधुहे आकरिसिउ सलिलु समुरें॥ ९
[६] णिसुणेवि सङ् रउद्दकुकंदिरु ण? जसोय स-सल्झस मंदिरु वालु ण रक्खसु चित्तु चमकइ पूयण विरसु रसंति ण थक्कइ वासुएव वसुएवहो गंदण
हरि उविंद गोविंद जणदण पउमणाह माहव महुसूयण कंसहो तणिय विज्ज हउं पूयण ४ गइय ण एमि जामि मं मारहि थण-वण-वेयण-पसरु णिवारहि दुक्खु दुक्खु आमेल्लिय वाले
तहे गोठेंगणे थोवए काले णव-णवणीय-हत्थु हरि-अंगणे अच्छइ जाव ताव गयणंगणे माश्य देवय कंसाएसे
सुंसुवंति वर-वायस-वेसेंट
घत्ता
जाणिउ एंतु जणदणेण खगु माया-रूव-पवंचु । करेवि अयंगमु घाल्लियउ णिप्पेहुण तोडिय-चंचु ॥
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पंचमो संधि
[७], कइहि-मि दिणेहिं णरिंदाएसें
आइय देवय संदण-वेसें घुरुहुरंत-खुप्पंतेहिं चककेहि
रुदिम-संदाणिय-चंदक्केहि रहु सयमेव अ-वाहणु धावइ । थाणहो चलिउ महीहरु णावइ । सु-वि गोविंदे विका-सारे भागु कडत्ति णिधि-पहारे ४ अण्णहिं वासरे अइ-वलवतउ माया-वसहु आउ गजंतउ चलणुच्चालिय-सयल-वसुंधरु ढेकारव-वहिरिय-भुवणोयरु गुरु-सिंगग्गालग्ग-णहंगणु
भेसाविय-असेस-गोदुगणु पेक्खेवि रिठु विठु आरुट्ठउ वलेवि कंठु किउ पाराउट्ठउ
घत्ता गीवा-भंगे पदरिसियए संदाणिउ जाउ विसेसें। वंकोवलियए णीसरेवि गउ जीविउ कह-व किलेसे ॥ ९
[८] अण्णहिं दिवसे तुरंगमु धाइउ भग्ग-गीउ कह-कह-वि ण घाइउ अण्णहि वासरे वालु थणद्धन(१) दाम-गुणेण उलूखलु वद्धउ गय जसोय सरि सलिलहो जावहि पच्छले लग्गु जणदणु तावहिं । एक्कै गइ-विलासु परिवड्ढइ अवर-कमेण उल्लूखलु कड्ढइ ४ ... कंसाएसें पर-वल-गंजण
उप्परि पडिय णवरि जमलज्जुण. . ता मधुसूयणेण मज्झत्थे
एक्केकर एक्केक्के हत्थे भग्ग कडत्ति वे-वि गय णासेवि रूवई मायावियई पयासेवि अण्णहिं काले धूलि-पहाणेहिं जलहर-धारहिं मुसल-पमाणेहिं ८ लइउ गोठु आरुठ्ठ जणहणु गिरि उद्धरिउ दुधरु गोवद्धणु
घत्ता वडूढिय-पुण्ण-फलोदएण दणु-देह-दलण-अवियण्हें ।
दियहई सत्त स-रत्तियइं परिरक्खिउ गोउलु कण्हे ॥ १० पजा-३
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३४
अहिं वासरे णयणाणंदहो गयइ वे-वि हरि-णंदण-लुद्धई जहि वोल्लिज्जइ गो-मलियामर जहिं गोविउ गोविंदत्ति- हरउ जहि वणिज्जइ जणेण जणद्दणु पूयण एंती पत्थु पsिच्छिय एत्थु रिट्ठु स तुरंगमु महिउ एत्थु भग्ग जमलज्जुण वाले
तं गोट्ठगणु देवse
अवसे होइ महग्घयरु
वासु
वसुवो घरिणिए
पीयल - वासु महाघण - सामउ का - वि गोवि तहो पच्छए लग्गी जइ ण महारउ ढुक्कइ पंगणु का - वि गोवि सयवारड घोसइ जइ एक्कु - वि पर देहि पर म्मुहु का - वि गोवि रस - संग - पलक्की एम नियंति कील तहो वालहो
पुत-समागमे देवइहे लहु अहिसित पओहरेहिं
[ ९ ]
देवइ हलहरु गोउलु णंदहो जहिं गोवई परिवड्ढिय - दुद्धइं लइ सिंदूरउ ढोयहि दामउ दाविय-कंचुयद्ध थण - सिहरउ एत्थु पलोडिड माया - संदणु वायस - विज्ज एत्थु णिपिच्छिय एत्थु उलूखलु कड्ढइ भहिउ गिरि उद्धरिउ एत्थु भुय - डालें
घन्ता
हरिवंसपुराणु
घन्ता
लाक्खिज्जइ सुट्ठ रवण्णएं । नारायणु सियहि णिसण्णउ ॥ ९
[१०]
कलहु करेणु दिट्टु णं करिणिए सिरि-कमल-ट्ठिय- कुवलय- दामल थक्कु कण्ह पईं मंथणि भग्गी एक्कसि जइ ण देहि आलिंगणु ४ दही तणिय आण तउ होसइ एक्क वार जोयहि सवडम्भुहु हरि-तणु-कंति हिक्केवि थक्की धण- रिद्धि णं मिलिय सु-कालहो ८
४
थण-पण्डुउ कहि-मिण माइ । fafe मेहेहि महिहरु णाई ||
८
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'पंचमो संधि
तो अवहित् करेवि संखेवे वासह - वसहउ भणेवि पगासिउ अंचेवि पुजेबि वंदेवि गोवइ - महराहिउ तहि काले थुडुक्किउ णट्ठ जसोय कहि-मि हरि लोप्पिणु हि-मि दुवालिए विणु ण पवत्तइ हेरेवि चरेहिं कहिज्जइ कंसहो -का-वि अपुव्व भंगि तहो केरी
महुरापुर - परमे सरहो हरि-बल-गुण- करवत्तपहिं
दुज्जस-मसि-मलिय णिय-वंसें विजारेण सुकित्तण- णामें मेरु-महीहर- णिच्चल-चित्तें रहणेउरणयरहो पट्ठवियई तहिं जो णाग-सेज्ज आयामह अद्ध-रज्जु तो देमि णिरुत्तउ तो सेज्जहिं विवष्णु गरुडासणु
वामए करे सारंगु किउ विसहर - सेज्ज समारुहे वि
[११]
खीर-हडेण सितु वलएवें जिह भर होइ ण कंसहो पासिउ गय णिय-भवणु पडीवी देवइ पेक्खह (१) वालु भणंतु पक्किउ ४ पाणिग्गहण - पघोसु करेपिणु सिल-संघाउ सिलोवरि घत्तइ सच्चउ होइ णाहु हरि - वंसहो दुक्करु छुट्टई वसुमइ तेरी
घन्त्ता
भउ वड्ढइ धीरु ण थाइ । कपिज्जइ हियवरं णाई ||
[ १२ ]
घोसण पुरे देवाविय कंसें णिज्जिय - णिरवसेस - संगामें
घता
३५
दाहिणेण संखु मुद्दे ढोइयउ । रिउ णाई कयंतें जोइयउ ॥
सच्चहाम-वरइत- णिमितें रयणइं तिण्णि एत्थु चिरु ठवियई ४ पूरइ पंचयण्णु धणु णामइ इय-गय- रयण - दुहिय-संजुत्तउ पूरिउ संखु चडिण्णु सरासणु
८
९
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३६
हरिवंसपुराणु [१३] कंसहो कन्जु परिटिउ भारिउ सझसु मणे उप्पण्णु णिरारिउ कहिय वेट्ठि गोठेंगण-णाहहो जउणा-वालाहियहो अगाहहो णंद-गोव लहु कमलई आणहि णं तो चिंति कज्जु जं जाणहि तहिं अवसरे परिवढिय-सोयहे णिवडिउ गं सिरे वाजु जसोयहे ४ एक्कु पुत्तु महु अब्भुधरणउ
तासु वि कंसु समिच्छइ मरणउं होंतु मणोरहु महुरा रायहो वरि अप्पाणु समप्पिउ णायहो मई जीवंतिए काई हयासए भूमिहे भारए सिल-संकासए अहवइ जइ गउ गंदु स-णंदणु तो महु धुउ अपुत्त-रंडत्तणु
घत्ता कालिउ कालउ काल-समु मई खाउ जामि तहो पासु । लग्गउ तडे बोहित्थडउ म सव्वहो होउ विणासु ॥
[१४] तो वल्लइ-जण-णयणाणंदे
णिय पिययम मंभीसिय गंदे धीरीहोहि कते किं रोवहि मा णिकारणे अप्पडं सोहि वरि परिरक्खणु करि गोविंदहो उहु गउ हउं तहो पासु फणिदहो ... जिम थेरासण-भारु पराणिउ जेम समउ तिम सो संमाणिउ ४ एम भणेवि पर देइ ण जामहिं महुमहणेण णिवारिउ तामहिं अच्छहि ताय ताय णिच्चितउ उहु भरु मह खंघोवरि धित्तर जे थिय वाल महा-गह खीलेवि पृयण धरिय जेहिं आवीलेवि ८ वायस-चंचु जेहिं रणे तोडिय णिहउ रिठ्ठ जमलज्जुण मोडिय
धत्ता ... गिरि गोवद्धणु उद्धरिउ सत्ताहउ जेहिं पयंडेहिं ।
पेक्खु भुयंगमु णत्थियउ धुवु तेहिं सयं भुव-दंडेहिं ॥ १०
इय रिट्रणेमिचरिए धवलइयासिया सयंभुएव-कए । गोविंद-बाल-कीला णायवो पंचमो सग्गो ॥ .
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सिरि- रामालिंगिय-वच्छयलु
३- णिमित्
कमलायरे कमल -
मुसुमूरिय-माया संदणेण
अलि-वलय- जलय - कुत्रलय -सवण्ण णं वसु-वरंगण - रोमराइ णं इंदणील-मणि- भरिय वाणि तहि काले णिहाला आय सव्व थिय भावणदेव धरिन्ति-मग्गे आदि दणु-तणु-मद्दणेण संखोहिय जलयर जलु विसट्ट
छट्टो संधि
उद्धार विसहरु विसम-लीलु कालिदि- पमाण- पसारियंगु विष्फुरिय-फणामणि- किरण-जालु मुह - कुहर - मरुय - महिहरिंदु विस - दूसिउ जडणा-जल-पबाहु दप्पु गुरु उद्ध-फणालि - चंडु उप्पण्णड पण्णड अजउ को वि तो विसम-विसुग्गा रुग्गमेण
केस कालि कालिंदि-जलु अंधारीहूयउ सव्वु
[१]
घत्ता
लक्खिज्जइ जडण- जणद्दणेण
रवि भइयए णं णिसि तले णिसण्ण णं दड्ढ - मयण- कढणिविद्दाइ (१) णं कालियाहि-अहिमाण- हाणि ४ गामीण गोव जायव स-गठव जोइज्जइ साहसु सुरेहिं सग्गे जउणा - दहु देव - णंदणेण णीसरिउ सप्पु पसरिय - मरदट्टु ८
पइज्ज करेपिणु णीसरइ । जहण - महादह पइसरइ ॥
तिणि-वि मिलियई कालाई । काई णियंतु णिहालाई ॥
[२]
कलिकाल - कर्यंत - रउद्द-लील
विवरीय - चलिय - जल-चल-तरंगु फुकार भरिय भुवणंतरालु णयणग्गि- झुलुक्किय- अमर-बिंदु ४ अवगणिय-पंकय - णाह - णाहु णं सरिए पसारिउ वाहु-दंडु पहरिज्जहि णाह णिसंकु होवि हरि वेढि उरे उरजंगमेण
-
९
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हरिवंसपुराणु
घत्ता जगणा-दहे एक्कु मुहुन्त केस सलिल-कील करइ । रयणायरे मंदरु णाई विसहर-वेढिउ संचरइ ॥
[३] णिय-कतिए असुर-परायणेण कालिउ ण दिठु णारायणेण उप्पण्ण मंति णउ णाउ गाउ विप्फुरिउ ताम फणि-मणि-णिहाउ उज्जोएं जाणिउ परम-चारु को गुणेहिं ण पाविउ बंधणारु तो समर-सहासहि दुम्महेण भुयदंड पसारिय महुमहेण पंचंगुलि पंच-णहुज्जलंग णं फुरिय-फणामणि वर-भुअंग तहो तेहिं धरिज्जइ फण-कडप्पु णउ णावइ को करु कवणु सप्षु लक्खिज्जइ णवर विणिग्गमेण उज्जलउ लइउ सिरि-संगमेण विहडप्फड फुड फड-झडउ देइ गारुडियहो विसहरु किं करेइ ८
घत्ता
९
जत्थेप्पिणु महुमहणेण कालिउ णहयले भामियउ । भीसावणु कंसहो णाई काल-दंडु उग्गामियउ ॥
[४] मणि-किरण-करालिय-महिहरेहि विसहर-सिर-सिहर-सिलायलेहिं णिय-वत्थई कियई समुज्जलाई पिंजरियई जउण-महाजलाई तहिं हाउ गाउ णं गिल्ल-गंडु पुणु तोडिउ कंचण-कमल-संडु विणिवद्धउ भारुप्परि विहाइ वोयउ गोवद्धणु धरिउ णाई णीसरिउ जणणु दणु-विमदि महणे समत्तए मंदरहि तडि-भारु पडिच्छिउ हलहरेण __णं विज्जु-पुंजु सिय-जलहरेण गो-दुहहुं समप्पेवि आयरेण सब्भावें भायरु भायरेण
घता वलएवे अहिमुहु एंतु हरि अवरुंडिउ तहिं समए । सिय-पक्खे तामस-पक्खु णाई पहंतरे पडिवए ॥
घर
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छट्ठो संधि
[५]
दामोयरु हलहरु जायवा-वि गय गंदहो गोउलु पेक्खया-वि गो-दुहेहि ताम णेवावियाई महुराहिव-घरे घल्लावियाई णरणाहे दिट्ठई पंकयाई णं पुंजीकयई महा-भयाई विक्खिण्णइं अण्णइं पविरलाई णं णह-सिरि-पयई सुकोमलाई ४ रिउ दुज्जउ एत्थु ण का-वि भंति । मई मारइ देव-वि णउ धरंति चितेवउ तासु उवाउ तोवि जइ ढुक्केवि सक्कइ कह-वि को-वि अच्छइ हियवए दुक्खंतु सल्लु तं फेडइ जइ पर एत्थु मल्लु जसु तइउ चलणु तियसहुं असज्झु जे दिठे णासइ सो अवज्झु ८
घत्ता हकारेवि तो चाणूरु अवरु धणुद्धरु मुट्ठियउ । लक्खिज्जइ राहु-णिसण्णु धूमकेउ णं आहे ठियउ ॥
[६] तो महुरापर-परमेसरेण वोल्लाविय वे-वि कियायरेण परिपालहो जइ जाणहो कयाइ जइ पहु-पसाय-रिणु हियए थाइ तो वयणु महारउ करहो अज्जु मा तुम्हेहिं हुंतेहिं हरउ रज्जु बलवंतउ दीसइ णंद-जाउ । अण्णु-वि सीराउहु तहो सहाउ ४ तो पई पहणेवट मुट्टिएण वलएउ वलुद्धरु मुट्टिएण धुर धरिय तेहिं रणे दुद्धराह हक्कारा गय हरि-हलहराई संचल्लिय बल्लव वल-महल्ल
दणु-दुप्परियल्लेक्केक्क-मल्ल वड-मालालंकिय-उत्तमंग भू-भूसिय-भूरि-भुआ-भुअंग ८
घत्ता णिसुणिज्जइ महुरहिं तूरु गोवेहि रहसुद्धाइएहिं । णं कंसहो धरे कूवारु हरि-वलएवेहिं आइएहि ॥ ९
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हरिवंसपुराणु
[७] ता रोहिणि-देवइ-तणुरुहेहिं अवरेहिं मिलिएहिं गो-दुहेहि लक्खिज्जइ धोवउ धोवमाणु किय-वत्थारूढ-रयावसाणु संकरिसणु कहइ जणदणासु दुहम-दणु-देह-विमहणासु एहु हणइ कडिल्लई सिलहिं जेम चिरु देवइ-जायई कंसु तेम ५ तं वयणु सुणेवि महुसूयणेण जम-पंगण-पाविय-पूयणेण स-सयड-जमलज्जुण-मोडणेण कालिय-सिर-सेहर-तोडणेण उत्थंधिय-गिरि-गोवद्धणेण वसुएव-वंस-संवद्धणेण परिहाण-सयाई लेवावियाई णं मंड मंड रिउ-जीषियाइं ८
घत्ता वलए- सामउं वासु . कण्हे कणय-समुज्जलउं । णं कड्ढिउ कंसहो पित्तु दीसइ कालउं पीयलउं ॥
[८] सिरि-कुलहर-हलहर चलिय वे-वि गामीण-गोव किय मल्ल जे-वि थिर-थोर-महाभुय वियड-वच्छ गाणाविह-सिचय-णिवद्ध-कच्छ लायण्ण-महाजल भरिय-भुअण मुह-ससहर-कर-पंडुरिय-गयण चल-चलणुच्चालिय-अचल-वीढ दामोयर-उर-सिर-पसर-लीढ ४ अरफोडण-रव-वहिरिय-दियंत कंसोवरि गय णं वहु कयंत सयलिंधि णिहालिय तेहिं तावं मंथर-संचार महाणुभाव सव्वालंकार विहूसियंगि लडहत्तणे का-वि अउठव भंगि णिय-णाहहो किर मंडणउं णेइ णारायणु भायणु मंड लेइ
घत्ता उद्दालेवि महुमहणेण गोवहं दिण्णु पसाहणउं । णं लइउ विहंजेवि तेहिं जीविउ चाणूरहो तणउं ॥
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हो संधि
[९] थोवंतरि दिछु महा-गइंदु अणवरय-गलिय-मय-सलिल-विंदु विसमासणि-सणि-सय-सम-रउद्द मय-सरि-परिपट्टाविय-समुद् गल-गल्लरि-मल्लरि-वहिरियासु परिमल-मेलाविय-अलि-सहासु कसणायस-वलय-णिवद्ध-दंतु थिउ मग्गु णिरुमेवि जिह कयंतु ४ दढ-मुट्ठिए हउ पारायणेण कवलिज्जइ जाम ण वारणेण परिमित चउहिसु पीय-वासु णं विज्जु पुंजु णव-जलहरासु खेल्लावेवि किउ णिप्पंदु हस्थि ___णउ णावइ जीविउ अस्थि णस्थि करि तोडिउ मोडिउ एक्कु दंतु गउ दप्प-पणासिउ रुलुघुलंतु ८
घत्ता तं आयस-वलय-णिवद्ध करि-विसाणु हरि-करे कियउ । सिसु कसणु भुवंगमु रुट्ठु केयइ-कुसुमे णाई थियउ ॥
[१०] हरि-हलहर सहुं गोवेहिं पइट्ट पडिमल्लेहिं णं जम-जोह दिट्ठ सयल-वि भड उन्भड-भिउडि-भीस सयल-वि वणमाल-णिवद्ध सीस सयल-वि आवीलिय-वद्ध-कच्छ सेयल-वि कोबारुण-दारुणच्छ सयल-वि विसहर-सम-विसम-सील सयल-वि कलिकाल-कयंत-लील ४ सयल-वि णारायण-सम-सरीर सयल-वि सुर-गिरिवर-गरुय धीर सयल-वि हरि-विक्कम-सार-भूय सयल-वि खल-वल-कुल-काल-भूय सयल-वि थिर-थोर-कढोर-हत्थ सयल-वि रण-भर-कडूढण-समत्थ सयल-वि सिरि-रामालिंगियंग सयल-वि पय-भर-भारिय-भुअंग ८
घत्ता अप्फोडिउ सव्वेहि तेहिं सव्वेहिं पुणु ओरालियउ । णिय-जीविउ कालहो हत्थे वइरिहिं णाई णिहालियउ ॥
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हरिपंसपुराणु
[११] ओसारिय सयल-वि सई णिविट्ठ अक्खाडए हरि-हलहर पइट्ठ ते विण्णि-वि धवल-अधवल-देह णं सोहिय सावण-सरय-मेह गं अंजण-पवय-हिमगिरिंदणं वइवस-महिस-महा-मइंद णं जउणा-गंगा-णइ-पवाह णं लक्खण-राम पलंव-वाह णं इंदणील-रविकंत-कूड णं विसहर तक्खय-संखचूड णं असियपक्ख-सियपक्ख आय तं पुणु पडिवारा ते-ज्जि भाय कंदोट्ट-कमल-कूडाणुमाण जण-लोयणालि-चुंविज्जमाण चल्लंते चल्लइ सयल भूमि थक्कते थक्कइ तेहिं विहि-मि ८
घत्ता जेत्तहे परिसक्कइ कण्हु जहिं वलएउ वलुद्धरउ । तेत्तहे तणु-तेएं होइ रंगु वि कालउ पंडुरउ ।
[१२] दप्पुद्धर दुद्धर एत्तहे-वि उट्ठिय मुट्ठिय-चाणूर वे-वि णं णिग्गिय दिग्गय गिल्ल-गंड णं सासहो कंसहो वाहु-दंड अप्फोडिउ सरहसु सावलेउ रणु मग्गिउ वम्गित ण किउ खेउ जस-तण्हहो कण्हहो एक्कु मुक्कु उद्दामहो रामहो अवरु दुककु ४ सु-भयंकर-ढउकर-कत्तरीहिं णीसरणेहिं करणेहिं भामरीहिं कर-छोहेहिं गाहेहिं पीडहिं अवरेहि अणेयहिं कोडणेहिं ता वड्ड वार संकरिसणेण वेहाविउ दणु-दुइरिसणेण खर-णहर-भयंकर-पहरणेण णं वारणु वारण-वारणेण
घत्ता हेलए जे समाहउ सोसे मुट्ठि-पहारें मुठियउ । किउ मासहो पोट्टल सव्वु जम-मुहे पडिउ ण उठियउ ॥ ९.
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छहो संधि
[१३] चाणूरे चितिउ तइउ पाउ वद्धेवउ अच्छउ सो-ज्जि गाउ वोल्लंति ताम आहे देवयाउ कहिं तणउं जुज्झु कहिं तणउ पाउ कहिं तणिय महुर कहिं तणउं रज्जु एत्तिएण वि काले ण किउ कग्नु । उहु गंद-गोठे अवइण्णु विट्ठ जे पूयण चूरिय णिहउ रिटु जिउ वुक्कणु संदणु वर-तुरंगु दरिसिउ जमलज्जुण-रुक्ख-भंगु । गिरि धरिउ णाय-सेज्जहिं णिवण्णु धणु णामिउ पूरिउ पंचयण्णु अहि णस्थित मस्थिउ भद-हत्थि एत्तियह-मि कंसहो बुद्धि णस्थि चाणूरु ताम णारायणेण आयामिउ असुर-परायणेण
पत्ता विउणारउ करेवि सरोरु रिउ जम-पट्टणे पट्टविउ । उच्चारवि कंसहो णाई णिय-पयाउ दरिसावियउ ।
[१४] तो तेण वि कड्दिउ मंडलग्गु आलाण-खंभु गं गएण भग्गु णं दरिसिउ काले काल-पासु गं जलहरेण विज्जुल-विलासु णारायणु अन्हउ असि-वरेण णं मंदरु वेढिउ विसहरेण तउ अमणु णाई थिउ वलेवि खग्गु दामोयर-रोमग्गु वि ण भग्गु जीवंजस-वल्लहु रायहंसु अच्छोडिउ चिहुरेहिं लेवि कंसु पेक्खंतह सयलहं णरवराह सामंतहं मंतिहि किकराह पउरहो पट्टणहो महायणासु सविमाणहो णहयले सुरयणासु चिरु देवइ-जायई जेत्ति-वार अप्फोडिउ गरवइ तेत्ति-वार
४
८
घत्ता
जे जेहउ दिण्णउं आसि किं वइयए कोहव-धण्णे
तं तेहउ जे समावडइ । सालि-कणिसु फले णिव्वडइ ॥ ९.
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-५४
हरिवंसपुराणु
[१५]
सो कण्हु कंस-कड्ढणि करेवि थिउ सरहसु गयवरु सरु धरेवि संकरिसणु सेलिम-खंभ हत्थु किउ वइरि-सेण्णु सयलु-वि णिरत्यु हक्कारिउ परवइ उग्गसेणु तहो महुर समप्पिय कामधेणु अप्पुणु पुणु गउ देवइहे पासु संभासिउ सयलु-वि साहवासु ४ कोकाविय णंद-जसोय आय अवरोप्पर कुसला-कुसलि जाय तहिं काले सुकेएं ण किउ खेउ' णिय सुय परिणाविउ वासुएउ विग्जाहरि णामें सच्चहाम एत्तहे रेवइ रामाहिराम हलहरहो दिण्ण णिय-माउलेण रोहिणि भायरेण अणाउलेण
पत्ता
" करे रेवइ धरिय वलेण थिय रज्जु सयं भुजंत
सच्चहाम णारायणेण । सउरीपुरे सहुँ परियणेण ॥
९
इय रिटणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंमुएव-कए । चाणूर-कंस-कलिय-महण-णामो छ?ओ सग्गो ॥
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सत्तमो संधि
विणिवाइए कंसे जरसंघहो गंपि
दूसह-दुक्ख-परव्वसए । धाहाविउ जीवंजसए ।
[१] जीवंजस कंस-विओय-हय जणणहो जरसंधहो पासु गय दुक्खाउर दुम्मण-दुम्मणिय वहलंसु-जलोल्लिय-लोयणिय विणिवद्ध-वेणि वद्धामरिस कर-पल्लव-छाइय-थण-कलस हय-सोह वि सोहइ रूववइ णिय-गइ-गोवाविय-हंसगइ णह-किरण-करालिय-सयल-दिस मुहयंद-पाय-पंडुरिय-णिस कररुह-दह-दपण-दिट्ठ-मुह मुह-कमलोहामिय-अंबुरुह अंबुरुह-समप्पह-णयण-जुय णव-कोमल-कोसुम-दाम-भुय णं णव-तरु-अहिणव-साहुलिय कर-पल्लव-णह-कुसुमावलिय
घत्ता
परितायहि ताय हउं एह अवत्थ
महुराहिवेण मरंतरण । पाविय पई जीवंतरण ।।
मगहाहिउ तो हेवाइयउ कहि केण कयंतु णिहालियउ उप्पाइउ जमहो केण मरणु के पक्ख समुक्खय खगवइहे णिय-वइवरु ताए तासु कहिउ तो दिण्ण समर-भर-कंधरेण
[२] कहि केण कंसु विणिवाइयउ के सुरवइ सग्गहो टालियउ किट केण महोरग-विस-जरणु अवहरिउ केण हरि भगवइहे पर-जणण-विणासु एक्कु रहिउ पालिय-ति-खंड-मंडिय धरेण
४
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हरिवंसपुराणु
'पहिलोरउ पुत्तु कालदमणु पट्ठविउ स-साहणु मण-गमणु अभिडिउ गपि सो जायवहुँ जिह वण-दउ अहिणव-पायवहुँ ८
घत्ता पहिलारए जुझे रण-रुउ कहि-मि ण माइयउं । णं बलई गिलेवि सुरहुं पडीवर धाइयई ॥
[३] . दोण्ह-वि व वलाई किय-कलयलाई वहु-मच्छराह
तुच्छराह मिलियामराई
सिय-चामराह धुय-धयवडाहं दप्पुब्भडाई वाहिय-रहाई
गुरु-विग्गहाहं सु-भयंकराई
पहरण-करा अभिट्टु जुज्झु कन्थ-वि णिरुज्झु कत्थ-वि गरेहि पहरिउ सरेहि कत्थ-वि गएहिं समुहागएहिं पेल्लिय परिंद
चूरिय फणिंद कत्थ-वि हएहिं
खग्गाहपहि णिउ सामिसाल थार्णतरालु कत्थ-वि सिवाए भडु लइउ पाए १२ सिरु णवेवि थाइ पिउ पियहे णाई भड भडेहिं परोप्परु ताम हय सत्तारह वासर जाम गय
घत्ता रणु करेवि रउद्द पर-वलु जिणेवि ण सक्कियउ । “गउ क्लेवि कुमारु हत्थि व सीहहो संकियच ॥ १६ ।
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सत्तमो संधि
[४]
जं कालदमणु घरु आइयउ वलु हरि-वल-पहरण-जज्जरिउ णं गिरि-समूहु कुलिसाहयउ उप्पण्णु कोहु तं पस्थिवहो पट्ठवियई सव्वई साहणई गुरु-गंधवहुद्धय-धयवडई आऊरिय-जलयर-संघडई णिक्खोह-भरिय-संकड-पहइं
विदाणउ कह-व ण धाइयउ णं कणिउलु गरुड-धाय-भरिउ णं हरिण-जूहु हरि-भय-गयउ भारह-वरिसद्ध-णशहिवहो णोणाविह-वाहिय वाहणई अप्कालिय-तूर-रउक्कडई विहडप्फड-उभड-भड-थडई उम्मग्ग-लम्ग-हय-गय-रहई
घत्ता
जरसंधहो सेण्णु लंधेवि पायारु
सरहसु कहि-मि ण माइयउं । दिस-अवदिसहिं पधाइयउ ॥
एककोयरु भायरु णियय-समु आसण्ण-मरण-भय-वज्जियउ अवराइउ धाइउ अतुल-वलु एत्तहे-वि जणदणु सण्णहिउ - सच्चइ-सीराउह-परियरिउ उत्थरियई पसरिय-कलयलई पहरण-जज्जरिय-णहंगणइ उद्धाइय-धूली-धूसरई
दुद्वर-रण-भर-धुर-धरण-खमु सो णावइ करेवि विसज्जियउ णं मेहु गयणे मेल्लंतु जलु दस-दसार-जरकुमार-सहिउ । अवरेहि-मि भडेहि अलंकरिउ णारायण-जरसंधहुँ क्लई कोवग्गि-झुलुक्किय-सर-गणई रुहिरोहारुणिय-वसुंधरई
घत्ता
रउ णहे महि-बट्टे अकुलीणु जे उद्ध
रुहिरु ण जाणहो कवणु गुणु । होइ कुलीणु ते खलु-वि पुणु ॥
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४८
हरिवंसपुराणु
[६] उठंत-सुराई वजंत-तुराई जुज्झंत सेण्णाइं रण-वह णिसण्णाई जयलच्छि-लुद्धाई उहय-कुल-लुखाई पहरण विहत्थाई जय-सिरि-समत्थाई कोवग्गि-दित्ताई रुहिरोह-सित्ताइ हम्मंत-दुरयाई णिवडंत-तुरयाई : मज्जंत-सयडाई जुझंत-सुहडाई णिग्गंत-अंताई भिज्जत-गत्ताई लोटुंत-चिंधाई तुटुंत-छत्ताई बेयाल-भूयाइ विसयाण भूयाई (१) अण्णोण्ण-दुव्वार मुक्केक्क-हुंकार पहरांति पाइक णिग्गंत-मस्थिक्क जज्जरिय-उर-वाह विविखण्ण-सण्णाह
घत्ता
कत्थइ गय-जुज्झे दसण-कसग्गि समुट्टियउ । दीसइ घण-मज्झे विज्जु-विलासु णाइ ठियउ ॥ १४
[७] दारुणहं रणहं एवंगयइ छच्चालइ जाव तिणि सयई तो ससर-सरासण-पसर-करु जरसंध-बंधु दुद्धरिस-धरु परिभमइ महाहवे एक-रहु थिउ रासिहे गावइ कूर-गहु उत्थरइ फुरइ पहरणई जहिं दुग्धोट्ट-थट्ट फुट्ट ति तहिं रह कडयडंति मोडंति धय छत्तई पडंति विहडंति हय णिय-वलु संभासेवि एक्कु जणु सामरिसु स-संदणु स-सर-धणु तहो एंतहो जर-कुमार भिडिउ णं गयहो गइंदु समावडिउ ते वे-वि वलुद्धर दुद्धरिस पारद्ध-जुज्झ वद्धामरिस
घत्ता विधतेहिं तेहिं वाण-णिरंतर गयणु किउ । स-भुवंगमु सव्वु उपएरे णं पायालु थिउ ॥
९
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सत्तमो संधि
तो रणउहि दिण्ण महाहवेण हय गयबर रहु सय - खंडु जिउ कह-कह-वि कुमारु ण घाइयउ ते भिडिय परोपरु दुब्बिसह सिणि- सुअहो सरासणु ताडियउ धणु लइ अवरु सरु विच्छियर तुम्हहि मि आसि संगामु किट वहि जे सों ज्जि हवं सो विज रहु
इकारिउ ताव हलद्वपण
रहु बाहि वाहि
डम्मुह
पच्चारइ जाव ताब- भिडिउ तो बावरंति
विणिचारणेहिं
हयलु जनजरि वसुंधर - वि विद्दि एक्कु बिथाणु ण वीसरइ विहिं एक्कु बि एकहो णउ खमइ सदिकाले अनंते अंतरि
पजा-४
घन्ता
पकचार जाम
ताम सिलीमुद्देहि लइउ । पाडिउ सण्णाहु को ण जठु लोहमइउ ॥
अब रेहि-मि सरेहिं णाई
कलहंसे
[<]
जर- संघहो बंधुर-बंधवेण धर पाfee साराह बिल्लु fee तहि अवसरे सच्चइ घाइय संचाइय-धाइय-पवर - १६ सुर-करि-विसाणु णं पाडिय वसुएवें ताम पडिडिय रोहिणि पाणिग्गद्दे को ण जिह तं धणुधरु सो विज वाण - णिवहु ८
४९
[ 8 ]
४
बलवे जय - सिरि-लुख एण पर जइ ण देहि पच्छाबह णं गिरि दवगि समावडि मोहण - थंभण आकरिसणेहि विहिं एक्कु-वि एकहो सज्झु ण-वि विहि एक्कु - वि एकहो णोसरङ्ग विहिं एक्कु बि एक्कु ण अक्रमइ अरि उरसि खुरुषे कप्परिट
घन्ता
कम-कर- सिरहं णियट्टियां । कोमल-कमलई खुट्टियां ॥
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हरिवंसपुराणु
- [१०]
४
जरसंध-बंधु परिसुठु रणे आसंक जाय जायवहुं मणे लहु णासहो मंति-लोउ चवइ आयण्णइ जाम् ण चक्कवइ जइ कह-वि पत्तु तें कोवि ण-वि ण दसारुह णउ हरि-हलहर-वि ण-वि गंदु ण गोठु ण गोवियणु पइसरहु गंपि परि-विउलु वणु तं सव्वहुं हियवए क्यणु थिउ अस्थक्कए पुर-णिग्गमणु किउ अट्ठारह-कुल-कोडिहिं सहिय सिरि-कुलहर-हलहर णिविहिय एत्तहे-वि सहोयर-सोय-हउं जर-संधु णराहिउ मुच्छ गउ काह कह-वि लद्ध-चेयणु चविउ जे भाइ महारउ णिहलिउ
__घत्ता तं विरसु रसंतु जइ ण णेमि जम-सासणहो । तो कल्लए देमि उप्परि झंपु हुवासणहो ।
पटु पइज करेप्पिणु णीसरिउ. णव कोडिउ पत्रर-तुरंगमहं दह-वारह वीस-लक्ख गयहं तेत्तियई जे लक्खइ संदणहं दह-दोत्तिय-सहस णराहिवहं अवरहं पमाणु के वुझियउ अग्गए पेसिउ अपाण-समु मगाणुलग्गु अरि-पुंगमहं
[११]
चउरंगाणीयालंकरित गह-रक्खस-कलिकालोवमहं . हय-जुत्तहं धुषमाण-धयहं पहरण-भरियहं रिउ-महणहं . ४ मंडल-परिपालहं पत्थिवहं गउ साहणु मरण-उरुज्झियउ ... लहुवारउ गंदणु कालदमु
खगवइ पवर-भुवेगमहं ८
धता
तहिं तेहए काले पडिउवयार-भाव-गयउ । सेण्णहे विच्चाले मिलियउ हरि-कुल-देवयउ ॥
९
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________________
सचम्रो संधि
4.
बहु-ईंधण - कूडागार किय चउदिसु चीयर पज्जालियड
अण्णण-रूव-संचारिणिउ शेवंति ता तर्हि देवयउ हो हरि - हलहर हो दसारुहड़ो हा जावलोयहुं जाउ खड तो कालदमेण पउच्छियउ जरसंधु को वितियसहुं वलिउ
तो तणेण भएण मुब जायव सव्व
तं णिसुणेवि वइरि - सेण्णु वलिउ तो गिरि उज्जेतु णिहालियउ अलिउल- झंकार-मणोहरउ जोठवण - विलासु णं रेवयहो गं पुण्णु-पुंजु णारायणहो पासेहि चउ महिहर चउ सरिउ अणु मज्झारि जगुत्तयउं
हरिसु पवित्त जहिं होइ गेमि
[१२]
संचारिम-महिहर णाइ थिय
धूमाउल - जाला - मालियड महिलड बुड्ढत्तण-धारिणिउ देवइ - जसोय हा कहि गय
हा णंद णंद हा गोदुहहो हा दइव मणोरह होंतु तर ताओ कति उम्मुच्छियउ उक्खथे उप्परि उच्चलिर
घत्ता
जाला माला-भीसणहो । उप्पर चडेबि हुवासणहो ||
-
घप्ता
तहो पासिउ गिरि सहस - गुणु । जहिं सिझेसइ सो-ज्जि पुणु ॥
.५१
[ १३ ]
गउ जायव- वलु अप्पडिखलिउ कल - कोइल - कलरव - मालियउ णं वसु-वरंगण - सेहरउ चूडामणि णं वण- देवयहो णं सो ज्जि मोक्खु सावय- जणहो चड णयरिङ सुठु मणोहरिउ णं मेरु चरिट्टिर पंचमउं
४
४
८
९
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________________
५२
जो गज्जैत- मत्तमायंग-तुंग-दंग्ग- णिहसणुच्छलिय-मणि-सिल-पडणवेणुठवी-महभरुक्त-कूर- कसणाहि मुक्क- फुकार- कोव - जालग्गि- जाल - माला -उलीकयामूल - विउल- सिहरो ।
जो करि-करड-तड- - विणिग्गंत - -मय- सरी-सोत्त-तिम्मंत-कुंज- संधाय - खोल-चिक्खिल-तल्ल-लोलंत - कोल - कोल उल - बंक - दाढा मियंक (?) ससि - समूह मणि- पझरंत - इ - णिवह - भरिय - कुहरो ||
[१४]
जो गंधवाह - विहु-कंकेलि मल्लिया - तिलय- वडल - चंपय-पियंगु - पुण्णायणाय- परिगलिय- कुसुम- परिमल- मिड़ंत - लोलालि- वलय-झंकार - मणहरुद्देसचलिय - गंधव - मिहुण-पारद्ध-गेय- रम्मी ।
जहिं जे चूय- चंदणा
असोय - णायचंपया
हल-1
जो अवहत्थिय - छुहा- मुह-महा-मुह-गाह-गहिय- -गय-गप्त-वित्त-मुत्ताउ- णित्त - णीसास-वस- समुच्छ लिय- धवल-मुत्ताइ लावली - चुण्ण-वण्ण - दंसणा - पहिल -अच्छंत -अच्छश-लिहिय-चित्तयम्मो ॥
४
जहिं चरंति संवरा गया समुद्ध-सोंडया जहि चकोर - चायया जहि च चंचरीयया
जहि च मत्त - कोइला जहिं च कम्म- दारणा
तं गिरि उज्जेंतु गउ पंकयणाहु
हरिसपुराणु
तमाल-ताल- वंदना पियंगु - पारिजायया
वराह-वग्घ वाणरा
स-दीवि सीह - गंडया
मराल - चकवायया
पफुल्ल - फुल्ल- लीणया पुलिंद - भिल्ल - णाहल हे चरंति चारणा
१२.
घन्त्ता
मुएवि स-सयणु स- साहणउ । णाइ समुद्दहो पाहुणउ ॥ १३
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________________
४
सत्तमो संधि
[१५) स्त्रो जे समुहु णिहालियर भीयर-करि-मयर-करालियउ भंगुर - तरंग - रंगत - जलु पुवावहि-भरिउव्वरिय-थलु फेणा-फल्लोल-वलय-मुहलु वर-वेलालिंगिय-गयणयलु गंभीर-घोस-घुम्मविय-जउ परिपालिय-ससि-पडिवण्ण-सउ अवगणिय-वडवाणल-वहरु गिव्वाण-पहाण-पीय-महरु णीसारिय-कालकूट-कलसु हरि-हरिय-सिरी मणि-णिप्फरसु परिरक्खिय-सयलासुर सरशु सरि-सोत्ताणिय-पाणिय-भरणु आमास-पमाणु दिसा-सरिसु जलहर-संघाय-हिय-वरिसु
पत्ता कल्लोलामएण हरि-आगमण-कियायरेण सई-भूरि-भुएण णाई पणचित सायरेण ॥
इय रिद्धणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएष-कए । जायव-कुल-णिग्गमणो णायव्यो सत्तमो सग्गो ॥
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अट्ठमो संधि
लइय लच्छि कोत्थुहु उद्दालिउ एवहिं काई करेसइ आलिउ ।। एण भएण जलोह-रउ दिण्ण यत्ति णं हरिहो समुहे ॥१.
[१] तहिं हरि-वल थिय दम्भासणेण सुरु गउतमु इंदहो पेसणेण ... संपाइउ सरहसु गहिय-मुद्द वोल्लाविउ तेण महासमुद्द अहो सायर सुंदर सुरवरेण हउं पेसिउ पासु पुरंदरेण महुमहहो करेवउ पई णिवासु पंचास रहिउ जोयण-सहासु ४ . गउ गउतमु एम भणेवि जं जे. मणि-रयणई अग्घु लएवि तं जे । गत जलणिहि पासु जणदणास चाणूर-मल्ल-बल-महणासु लइ दिण्ण थत्ति करि पट्टणाई हउं सरिउ दु-वारह जोयणाई गड गइवइ एम भणेवि जाम पट्टविउ सुरिंदे धणउ ताम
-
पत्ता जाहि कुवेर करहि महु पेसणु फेडहि हरि-हलहर-दब्भासणु । करि पट्टणु वारवइ सु-णांमें बारह जोयणाई आयामें ॥ ९
। [२] वित्थारे पुणु णव-जोयणाई करि एकहिं पंच-वि पट्टणाइँ वासवियहिं किउ संविंदसेणु दाहिणियहिं महुरहिं उग्गसेणु पच्छिमियहि सउरि दसार-जेठु उत्तरेणावासिउ णद-गोठु वारवइ-मन्झे तहिं पउमणाहु अच्छउ स-बंधु परियण-सणाहु ४ हरि-भवणु करिज्जहि भुवण-सारु अट्टारह-भूमु सहास-वारु माहुछ दिवस पुरे धरिय ताम धणु धण्णु सुवण्णु बहुतु जाम
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अहमो संधि रहु देज्जहि पहरण-भरिय-गतु गारुड-धउ चामरु सेय-छत्तु . सिक्खविउ सुरिवें जाइ जे व अवराई-मि ताइ-मि कियई तेवं ।
धत्ता सव्वहुं पासिउ सकाएसे सउरी-पुरवरु रइउ विसेसे। जहिं तइलोयहो मंगल-गारउ उपजजेसइ णेमि-भडारस
॥९
ताम
..
[३] पइसारिउ पुरे केसउ स-बंधु अहिसिंचिउ पुणु किउ पट्ट-बंधु गठ धणउ सुरिंदहो पासु जाम . सिवएवि-गम्भे सोहणहि ताम आयन सत्तारह देवयाउ दस-मय-परिवारिय-अवयवोउ दस-दिस-देवयउ स-वाहणाउ विविहद्धय-विविद-पसाहणार उक्खय-दप्पहरण-पहरणाउ सिय-चामर-आयव-धारणाउ विजुल-कुमारि वर बुद्धि कित्ति जयलच्छि लज्ज सिरि-परम तत्ति . सव्वउ सव्वालंकारियाउ मंजोर-राव-झकारियाउ भिवएविहे पासु पदुकियाउ णिय-णिय-विण्ण उ चुक्कियाउ ८
घत्ता चंदकंत-पह-धवलिय-यामेि जामिणि-जामहं पच्छिम-जामे । पन्कोवरि णिह-गयाए सोलह सिविणा विठ सिवाए ॥ ९ ।
[४] गउ गोवइ हरि सिरि-दाम-जुयलु मयलंछणु दिण-मणि मीण-जमलु स-कलसु कमलोयरु कमल-थाणु सोयरु सीहासणु सुर-विमाणु अहि-हेलणु मणि-गणु जलण-जालु दिवस-मुहे दसारुह-सामिसालु वोल्लाविउ सुविणउं कहिउ तासु पाडिक्क-सयल-मंगल-णिवासु सुणु णाह णिहालिउ पढमु हत्थि पडिवियु जासु जगे को-वि णत्थि सुह-लक्खणु भद्दु चउव्विसाणु मय-सित्त-गत्तु जुत्त-प्पमाणु
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पुणु रस-रंखोलिर- पुच्छ-दंडु पुणु दीह-हर- लंगूल सीहु
पुणु गुरु गंधुगुरु दाम - जुयल पुणु छण-ससि लछण-रहिय-कार पुणु दस-सय-किरण-करालियंगु पुणु मीण-जुयल कलसद्धयाई पुणु सरवरु कमला-कमल-रम्भु पुणु केसरि - बिहरु पुणु विमाणु पुणु रयण - रासि पुणु जला-जालु सुर होसइ हरि-कुल-गयण- चंदु
घन्ता
कमल-चरण कमलुब्जल - पयणी ।
कमलालय कमलामल - णयणी कमल-पाणि सुर- करि-अहिसारी दिठ्ठ लच्छी जग - मंगलगारी ॥ ९
सुरवर- पुंगउ गोवइ - दंसणे तिहुवण- सिरिवइ सिरिहे पहावे
कंतिल्लु णिअच्छिए छुद्रहीरे इस-जुयल - णिहालणे- सोक्ख-थाणु लक्खण-घरु दिट्ठे सरवरेण
लोक-सामि सीहासणेण भुबइंद-भवणे दिट्ठए ति - णाणि सिहि- दंसणे लोय - गिरंषणाई'
दुक्कंतु पर्यडु पर्यड - सं तरु-पल्लव- लाल-ललंत-जीहु
[ ५ ]
घत्ता
हरियंस पुराण
'परिमल - परिमिलिय-चलालि-मुहल ताहि भा-भूसिय- भुषण - भाउ तम - तिमिर - जियर - वारणु पयंगु णं सोक्ख- णिहाण - महद्धयाई ४ पुणु जलणिहि जलयर - जीव- जम्मु पुणु भूरि भवष्णु भुवईद - थाणु फल अक्खड़ जायघ- सामिसालु गय- दंसणे गुरु- चंदाहि चंदु
अतुल - परक्कम सीह- णिरिक्खणे । तित्थ पदसि दाम - दक्खावे ॥९
[ ६ ]
तेयाल दिए रवि - सरीरे घड-संघट- दंसणे जब णिहाणु केवल - बिहूइ रयणाधरेण अहमिंदु विमाणहो दंसणेण मणि- रयण-पुंजे गुण - रयण-खाणि frees are - कम्मिषणाई
८
४
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इह सोलह सिविणा जे पति अवयरित जयंतहो लेय-णाहु
हो मंगलु सिव-कल्लाण-संति थिउ सिव-सरीरे तणु-तणु-सणाहु ८
'पुण्ण-पवित्तु कति-संपुष्णउ इंदणील-मणि-मुंज-सवण्णउ । थिउ सिय-देविहे देहम्मतरे अलि जिह पउमिणि-पंकय-केसरे ॥९
वारह कोडिउ पंचास लक्ख वसु-हार पडिय धरे तीस-पक्ख संपुण्णे मासे जिणु जणिउ घण्णु सावण-सिय-ठिहे साम-वण्णु चित्ता-रिक्खें सुह-लग्ग-जोए णिम्मल-दिणे हिम्मल-गयण-भाए उप्पण्णु भडारउ सिबहे जाव संखुम्भइ देवागमणु ताव भावण-वितर-जोइसह जाय कंवुय-पडह-झुणि सीह-णाय जय-पंट-सद्दु सेसामराह णं गउ कोकाउ हारे-पुर-सराहं -सहसक्खहो आसण-कंपु जाउ सावेहिं सहुं खेस-सुरेहिं आउ अहरावउ कंचणगिरि-समाणु थिउ जंब्दोष-परिप्पमाणु वत्तीस-सुंड बत्तास-वयणु चउसदठि-कण्णु चउसठि-णयणु एकाए मुहे अट्ठ दंत कलोहय-वलय-उवसोह-दित ८
घत्ता दंते दंते सरु सरे सरे पतिाण स-वि वत्तोस-कमल-णिठवत्तिणि । कमले कमले वत्तीस जे फ्लाई पत्ते पत्ते णट्टाह मि तेत्तई ॥ ९
__ [८] तहिं नेह र मायाविए गई दे चल-कण्ण-ताल-तुलियालि-विदे मय-णइ-पक्वालिय-गंड-वासे सिकार-मारुआऊरियासे जारूदु पुरंदरु भाव-गहिउ सत्तावीसच्छर-कोडि-सहिउ संचल चउठिवह सुर-णिकाय णं सुण्णउं सग्गु करेवि आय ४
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.
हरिवंसपुराणु
. ।
णाणालंकार-विहूसि यंग णाणा-मउडंकिय-उत्तमंग . णाणा-धय-णाणा-जाण-रिद्धि णाणायवत्तणा-चामर- समिद्धि णाणा देवंगारिय-गत्त वारवइ खणखद्रेण पत्त जिणु लइउ दुकूल-पडंतरेण चूडामणि णाई पुरंदरेण
घत्ता मेरुहे मत्थए ठविउ भडारउ तेय-पिंडु तम-तिमिर-णिवारउ । स्त्रीर-समुह होइ णिज्झाइउ णं अहिसेय-पईवउ लाइउ ।। ९
[९] अप्फालिउ ण्हवणारंभ-तूरु पडिस तिहुवण-भवण-पुरु दुमु-दुमु-दुमंत-दुंदुहि-वमालु घुमु-घुमु-घुमंत-घुम्मुक्क-तालु झि-झिं-करंति-सिक्किरि-णिणाउ सिमि-सिमि-सिमंत-झलरि-णिहाउ सल-सल-सलंत-कंसाल-जुयलु गुं-गुंजमाणु गुंजतु मुहलु कण-कण-कणंतु कणकणइ कोसु डम-डम-डमंत-डमरुय-णिघोसु दा-दो-दो-दोत-मउंद-णद्दु त्रां-त्रां-परिछित्त-हुडुक्क-सद्दु टंटत-टिविलु डंडत-डक्कु भंभंत-भंभु ढंढंत-ढक्कु अवराइ-मि हयई विचित्तयाई अहिसेय-काले वाइत्तयाई ८
घत्ता कोडा-कोडि-तूर-रव-भरियउ जइ-वि वाय-बलएण ण धरियउ । तो सहसद्दु (त्ति) माए सच्चोयरु तिहुवणु जंतु आसि सय-सकरु ॥९
[१०] अहिसेय-कलस हरिसिय-मणेहिं उच्चाइय दस दसहि-मि जणेहिं सुरव-सिहि-वइबस-णिसियरेहिं वरुणाणिल-वइवस(१)-णीसरेहि धरणिंद-चंद-णामंकिएहिं मणि-कुंडल-मउडालंफिएहिं अवरेहि-मि अवर महा-विसाल अट्ठट्ठ-जोयणभंतराल
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अट्ठमो संधि जोयण-एक्केक-पमाण-गीव संचारिम खीर-महोवही व ... अट्ठोत्तर कलस-सहास एवं उच्चाएवि ण्हवणु करति देव :. ससि-कोडि-समप्पह खीर-धार आमेल्लिय' सव्वेहिं एक-वार' गिरि-मेउ-सिहरु रेल्लंत धाइ संचारिम सायर-वेल णाई
घत्ता हाइ णाहु ग्रहावेइ पुरंदरु . · उवहि अणिहिउ वियडउ मंदरु । सुरयणु खीरु वहंतु ण थक्कइ तं अहिसेउ कु वण्णेवि सकइ ॥९
४
अहिसिंचिउ एम तिलोय-णाहु संकंदणु होप्पिणु सहस-वाहु संतेउरु सामरु सट्टहासु उठवेल्लइ अग्गए जिणवरासु णच्चतहो गयणावलि विहाइ रइयवण-कुवलय-माल णाई णच्चंतहो णह-मणि विष्फुरंति पज्जालिय णाई पईव-पंति णच्चंतए सरहसे अमर-राए णिवडइ तारायणु भूमि-भाए आसीविस-विसहर विसु मुयंति पक्खुहिय-महोवहि-जल ण मंति टलटलइ चलइ महि णिरवसेस फुटुंति पडति य गिरि-पएस कह-कह-वि कडत्ति ण मेरु भग्गु टलटलिहूओ-वि असेसु सग्गु
.
।
अससु सग्गु
८
घत्ता
एम पणच्चेवि अग्गए णेमिहे थुइ आढत्त जगत्तय-सामिहे । । जिणवर णिरुवम गुण तुम्हारा को सकइ परिगणेवि भडारा ॥ ९
[१२] गुण गणेविण सक्कमि मंद-बुद्धि जइ बोल्लमि तो ण-वि सह-सुद्धि जइ उवम देमि तो जगे जे-जि णस्थि तिहुवणहो ण रूतू सहि भव-पमंथि: अलिएण-वि पहु रूसंति साव संतेहिं गुणेहि-मि थुणइ ताव ण विसेसणु जेण विसेसु कोइ असरिस-उवमहिं ण कव्वु होइ ४
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हरिवंसपुराण वइलोक-पियामह-आरिसेहि कि किज्जइ धुई अम्हारिसेहि तिहुयण मविज्जइ जइ विअसि र णिहइ तुह गुण-रयण-रासि भावण भव-णासण जगे पोसु भुइ तेण करतह कवणु दोसु
एम भणेवि दिवोकस-णाहे परम-भाव-सब्भाव-सणाहें । अचेवि पुज्जेवि तिवण-सार जणणिहे अग्गए थविउ भडारस ॥८
[१३] गठ सुरवइ मंदिरे थवेवि वालु परिषड्ढइ तिहुयण-सामिसालु चउगइ-संसार-समुह-सेउ अजरामर-पुर-पइसार-हेउ तइलोक-भुवण-भूसण-पईवु अभयामय-सिंचय-सयल-जीउ लायण्ण-वारि-पूरिय-दियंतु सोहग्ग-महोहि भव-कयंतु ४ को क्ण्णेवि सकइ रुवु तीसु सक्कु-वि संकिउ थुइ करेवि जासु दस-सय-मुहो वि धरणिंद-राउ थोचुग्गीरियागिरिवखुत्तु (१) जाउ गुण गणेवि ण सकिय सरसई-वि अ-समत्थु णिहालणे सुरवई-वि हरि-हलहर-कुल-रह-चक-मि किर नेण तेण किउ णामु णेमि ८
सो तइलोकहो मंगलगारउ इंदिय-चोर-गणहो आरूसेवि
सुर-गुरु पुण्ण-पवित्त भडारउ । थिउ हरि-वंसु सव्वु सई भूसेवि ॥ ९
या पिकाम यदि विश्वविद्यालयका
इय रिट्ठणेमि-चरिए धवलक्यासिय-सयंभुएव-कए । णामेण मि-जम्माहिसेय इय अदठमो सम्गो ॥
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णमो संधि
अहिसिंचिए णेमि-भडारए सिसुपालहो सहुं जीयासए
मेरु-सिहरे संकंदणेण । रूपिणि हरिय जणहणेण ॥१
ताम देव-दाणव-कलियारउ ता वारवइ पराइउ णारत कविल-जडा-चूडकिय-मत्थर, छत्तिय-भिसिय-कमंडलु-हत्थउ . जोग्गवट्टयालंकिय-विग्गहु धोय-धवल-करवीण-परिग्गडु जाणोवइय-सत्त-सर-मंडिउ हिंडणसीलु महारण-कोड्डिउ ४ चरिम-देहु गयणंगण-गामिउ वंभचरिय-उववास-किलामिउ पर-सम्माण-दुहिउ गउ तेत्तहे सच्चहाम सीहासणे जेत्तहे अच्छइ णियय-रूउ जोयंती मोहण-जालु णाई ढोयंती गं लायण्ण-तलाए तरंती गं जगु णयण-सरेहिं विधती ८.
घता तं पारि-रयणु वण्णुज्जल रूवोहामिय-पह-पसरु । णारायणु-कंचण-जडियउं. अवसे होइ महग्घयरु ॥
[२] णव-जोव्वण-सोहग्ग-मयंधए दप्पण-दित्ति-णिवंधण-बंधए घरु पइसंतु ण जोइन जइवरु झत्ति पलितु णाई वइसाणरु जाव ण दुट्ठहे भग्गु मडप्फरु ताव ण करमि कि पि कम्मतरु एम भणेवि स-रोसु गउ तेत्तहे थिउ अत्थाणे जणह्णु जेत्तहे अन्भुत्थाणु कारेवि अ-गव्वेहि रुइरासणे वइसारित सव्वेहिं वल-णारायणेहिं पुणु पुच्छित गुरु एत्तडउ कालु कहिं अच्छित
४
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हरिवंसपुराणु कहइ महा-रिसि हरिसु वहंतउ आयउ कुंडिण-णयरहो होंतर जं महि-मंडले सयले पसिद्धउ बहु-धण-धण्ण-सुवण्ण-समिद्धउ ८ तेत्थु भिप्फु-णामेण पहाणउ णर-वरिंदु अमरिंद-समाणउ
घत्ता धवलच्छि लच्छ सहो गेहिणि पुत्तु रुपि रुपिणि तणय । णिहि रूव-लडह-लायण्णहं गुण-सोहग्गहं पारु गय ॥ ९
[३] जाहे अंगे परिवार-सहाएं मुक्कु पयाणउं वम्मह-राएं लीला-कमल-जुयल-चल-णयणेहिं मणि-रयणेहिं अंगुलियहि सयलेहिं ' तोरण-थंभ ऊरु-उद्देसेहिं राउलु विहुल-णियंव-पएसेहि तिवलि-ति-परिहउ णाही-मंडले थण-अहिसेय-कलस वच्छत्थले ४ रत्तासोय-करिल्ल करग्गेहि णह-दप्पण मयणंकुस-मग्गेहि . कंवुउ कंठे वयणे कोइल-कुलु। णयणेहिं वाथ-जुयलु पिच्छाउलु भएहिं चाव-लठि संचारिय सिर-सिहंडे सीगिरि वइसारिय किरि परिणेवो कामहो वर्षे किउ आवासु तेण कंदप्पे
घत्ता उवइट्ठ आसि सिसुपालहो ताव रिसिहि आएसु किउ । जसु सोलह गोवि-सहासई होसइ सो रुप्पिणिहे पिउ ॥९
[४] सो महु कहिउ सव्वु णिय-वइयरु जिह अइमुत्तउ आइउ जइवरु तहे उवएसु तासु फुडु लद्धउ हरि वरइत्तु पुत्तु मयरद्धउ तेहउ अवसरु होसइ कइयहुं करि लग्गइ णारायणु जइयर्ल्ड जाणमि महरिसि-क्यणु ण चुकइ जइ परमेसरु पुदवरु ढुक्कइ जहिं हर्ष पवरुनाणे णवल्लए सई लेविणु आवेसमि कल्लए ।
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नवमो संधि तो णिकलमि समउ' जग-णाहे होउ होउ सिसुपाल-विवाहे . अच्छउ णिय-वलेण चउरंगे . पट्टणु वेढेवि रुप्पिणि-पंगे तिह करु गुरु जिह मिलइ जणहणु दुइम-दाणव-देह-विमणु
घत्ता पडे पडिम लिहेवि दरिसाविय . पंकय-णाहहो णारएण । णं हियवए विद्ध अणंगएण कुसुम-सरासण-धारएण ॥ ९
. [५) . जिह जिह चरण-जुयलु णिज्झायइ तिह तिह वाल चित उपायइ जिह जिह ऊरु-पएसु णियच्छइ तिह तिह मुह -दसणु णिरु इच्छइ जिह जिह पिहुल-णियंवु णिरिक्खइ तिह तिह णीससंतु णउ थक्कइ . जिह जिह तिबलि-तिवलउ विहावइ तिह तिह जरु सेव्वंगिउ आवइ ४ जिह जिह निटि थणोवरि थक्का तिह तिह वम्मह-जलणु झुलुक्कइ जिह जिह पडिम कंछ दरिसावइ तिह तिह मुहहो ण काई विभावइ जिह जिह मुह-मयलंछणु छज्जइ तिह तिह महुमहु कह-वि ण लज्जइ जिह जिह हणइ णयण-णाराएहिं तिह तिह भज्जइ मयणुम्माएहिं ८ जिह जिह चिहुर-णिवंधणु जोयइ तिह तिह हरि संदेहहो ढोयइ दसमउं थाणु णाहिं ते चुक्कउ गं तो मरणावस्थहो ढुक्क
घत्ता तं रुप्पिणि-रूवु णिरूवेवि वल-णारायण णीसरिय । धणु-लट्ठिहिं ढोइज्जंतिहि काम-सरहं विहिं अणुहरिय ॥ ९
[६] हरि-वलएव वे-वि गय तेत्तहे रुपिणि थिय णंदण-वणे जेत्तहे किर णाग-वलि धिवइ तरू-विदहो रहवरु दुक्कु ताव गोविंदहो मंदरु सुरेहि णाई संचालिउ घंटा-किकिणि-जाल-वमालिड गारुड-उंछण-लंछिय-धयवडु वर-णरवर-संगर-सिरि-लंपडु ४
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६४
हरिवंमपुराण
दास्य-कस-तोरविय-तुरंगमु चक-चार-चूरिय-उरजंगमु रहु सु मणोहरु दीसइ कण्णए णारउ दूरहो दावइ सण्णए पहु सो रुप्पिणि कंतु तुहारउ दुइम-दाणव-देह-क्यिारउ तो आरूढ वाल वर-संदणे सिय-सोहगा देति जउ-गंदणे ८
घत्ता तहिं अवसरे केण-वि अक्खियउ दुहम दणु-विणिवायणेण । कुढे लग्गहो जइ उवलग्गहो रुप्पिणि णिय णारायणेण ॥९
[७] तो कंदप्प-दप्प-उत्तालहो साहणु सण्णज्झइ सिसुपालहो भिच्चु भिच्चु जो अवसर-सारउ सूउ सूउ जो रह-धुर-धारउ रहु रहु जो रहसेण पयट्टइ करि करि जो अरि-रिहिं विघट्टइ तुरिउ तुरिउ जो तुरिउ पराणइ जाणु जाणु जं जाएवि जाणइ ४ जोह जोहु जो जोहेवि सकइ रहिउ रहिउ जो रहेवि ण थकाइ खग्गु खग्गु खरगुज्जल-धारउ चक्कु चक्कु पर-चक्क-णिवारउ कोतु कोतु कोतल-परिपालउ सेल्लु सेल्लु पर-सेल्ल-णिहालत सव्वल सव्वल सव्वल-भंजणि, लउडि लउडि लउडाउह-तन्जणि ८
घत्ता सण्णहेवि सेण्णु सिसुपालहो घाइउ रण-रहसुज्जमेण । महुमहेण पडिच्छिउ एंतउं. आवोसणु णावइ जमेण ॥
[८]
ताम पत्त मयमत्त-वारणा संपहार-वावार-वारणा भह-लक्खणा गणिय-संजुया दस-सहास-परिमाण-संजुया मंद तेत्तिया तेत्तिया मया तीस-सहस संकिण्ण-णामया सयल-कालु जे दाणवंतया सुर व रह (१) बहु-दाणवंतया
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नवमो संधि
तरुणि-सिहिण-अणुहारि-कुंभया जेण जंति विहुरे व कुंभया धवल-णिद्ध-णिहोस-दंतया जे कया-वि ण किणाविदंतिया महिहर-ठव बहुलद्ध-पक्खया कालिय-व्व बहुलद्ध-पक्खया . जलहर-व्व जल-पूरिया सया सायर-व्व परिपूरियासया ८
घत्ता तहिं लक्खहं पवर-तुरंगहं सहि-सहासई रहवरह ।। _ सिपालु-रुटिप रणेः विण्णि-वि भिडिय विहि-मि हरि-हलहरहं ।। ९
[९] तो रुपिणिहे वयणु थिउ कायरु दीसइ सेण्णु णाई रयणायरु अहो अहो देव-देव णारायण ह हयाम वहु-दुक्खहं भायण पई भत्तारु लहेवि जग-सारउ णवरि परिहिउ दइउ महारउ तुम्हई विण्णि अगंतउं पर-वलु। किं घुझे णिहइ सायर-जलु ४ भीय भीरु मंभीसिय कण्हे दिय सत्त ताल जस-तण्हें मुद्दा बज्ज सवल संचूरिय सीमंतिणिहे मणोरह पूरिय जाणेवि अतुल-पहाउ अणंतहो पाएहि पडिय कंत णिय- कंतहो । जइ-वि दुछु खलु अविणय-गारउ रणे रक्खिज्जहि भाइ महारउ ८
घत्ता तो वासुएव-वलएवेहिं अभउ दिण्णु असगाहिणिहे । तहिं अवसरे पुण्ण-पहावेण पत्त विण्णि णिय-वाहिणिहे ।। ९
जायव-सेण्णु असेसु पराइउ लइयई पहरणाई रह वाहिय दिण्णई तुरई कलयलु घोसिउ ताव दमिय दुहम-दणु-विदे
[१०]
सरहसु दिण्णु परोप्परु साइउ ण्हविय तुरंग गइंद पसाहिय णारउ सहुँ सुरेहिं परिओसिउ पूरिउ पंचयण्णु गोविंदे
४
पजा-५
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දිදී
णिय- जलयर सुघोसु क्लहरें हरिय भुयंग वसुंधरि हल्लिय झलझलाविय सयल - वि. सोयर णव गह डरिय दिसा मुह बंकिय
तिहुयण - भुअणोयर-वासिय रुप्पिणि- विओय- संतत्त
रुप्पिणि-कारणे अमरिस- कुद्धई मिडियई वलई पवल - बलवंत पडि- पहराहय-हिय - गइंदइ दसण- मुसल - छंदाविय - पाणइ संदाणिय- संदण - संदोहइ रंगाविय-रण-रंग-तुरंगइ
छिण्ण- कवय-खंडिय - करवाई उब्भड - भिउडि-भयंकर - भाळइ
रणवणे रिड-रुक्ख - भयंकरे खज्जेति वलइ सर-सप्पे हिं
रणु आलग्गु तावं सु-महल्वहं पिहू - रुप्पिहिं उम्मय - दुमरायहूं जेत्त जेत्तई हलहरु ढुक्क
गयवरु गयवरेण दलवट्टइ
घन्ता
afefts तिहुयणु ताहं णिजहें गिरि- संधाय जाय पासल्लिय कलह-करिंद-काय किय कायर पयारह विरुद्द आतंकिय
सयलु लोड आसंकियड । परि पडिवक्खु ण संकिय ॥
[ ११ ]
हरिवंशपुरा
अमर-वरंगण - रइ - रस- लुद्धइ दुद्दम- दंति - दंत-हिय गत्तइ किय- कुंभय लोलुक्खल - विंदइ पडिय-विमाण- जाण - जंपाणइं दुज्जय - जोह - परज्जिय-जोहइ" रुहिरारुणिय रहोह-रहंगइ सुरवहु - धित्त-संयंवर - मालई पेसिय- एक मेक्क-सर-जालई
घत्ता
-
धणुवासाहणि वासिएहिं । तोणा - कोडर - वासिएहि ॥
•
। १२ ]
सच्चइ - उत्तमोज्ज - सिणि-सल्लहं वेणुदारि - रोहिणि-तनुजायहं तेत ते तहे को वि ण चुक्कइ रहबरु रहुबरेण संघट्टइ
९
८
९
४
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नवमो संधि तुर तुरंगमेण संघरइ णरवरु णरवरेण मुसुमूरइ जाणे जाणु विमाणु विमाणे सेल्लई महदुमेण पाहाणे जं करे लग्गु तेण तं पहरइ सहसु लक्खु कोडि-वि संघारइ संकरिसण-रण-चरित णिएप्पिणु वेणुदारि गउ पाण लएप्पिणु
घचा पिहु-रुष्पि रणंगणे जेत्तहे तेतहे रोहिणेउ वलिउ । वल-कवले कालु ण धाईउ पुणु अण्णत्तहे णं चलिउ ॥
९
[१३]
रुप्पिणि भायरेण पिहु जिज्जई जीव-गाहु किर जावं लइज्जइ तहि अबसरे वलेण हक्कारिउ रहवरु रहवरेण मुसुभूरिउ राम-रुटिप रहसेण रणंगणे उत्थरंति धण णाई णहंगणे विसहर-विसम-समेहिं सर-जालेहिं खय-दिण-दिणमणि-किरण-करालेहिं ४ तो तालद्धएण धउ खंडिउ विरहु णिरत्थु करेवि रिउ छंडिउ उम्मुएण दुमराउ णिवारिउ दिण्ण पुट्टि गउ कह-वि ण मारि उत्तमोज्जु सिणि-सुयहो पभज्जिउ सच्चइ-वप् सल्लु परजिउ चेइ-णराहिउ तात्रं पधाइउ णारायणु णाराएहिं छाइउ
घत्ता सिसुपाल-लोय-परिपालहं कर-चरणंगोलग्गणा । जिह देतह तिह जुझंतहं जंति अलक्खण मग्गणा ॥ ९
[१४] कयं णवर संजुयं सिय-सरासणी-संजुयं खर-प्पहार-दारुणं णव-पवाल-कंदारुणं समुच्छलिय-लोहियं सुर-विलासिणी-लोहियं पणच्चषिय-रुंडयं भमिय-भूरि-भेरुंडयं ४
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हरिवंसपुराणु सयंवरिय-लच्छियं जल-थल-सरुलच्छियं(१) समुद्धरिय-हियं धिषिय-दूर-सण्णाहयं कडंतरिय-देहयं जणिय-पाण-संदेहयं धरारिय-छत्तयं लुय-धयावली-छत्तयं गया अहिमुहागया पहर-संगया णिग्गया महाहिर-रंगिया वर-तुरंगमा रंगिया कया-वि रह रहा वहु-मणोरहाणोरहा हरि-प्पमुह विद्धया जउ-णराहिवा विद्धया १२
घत्ता रिजु-धम्म-लग्ग-गुण-कढिया मोक्ख-फलावसाण-पसरा । असुरुज्झिय-देह-पयत्तयणे तवसि व कण्हहो लग्ग सरा ॥ १३. .
[१५] तहिं अवसरे सारंग-विहत्थे दुद्दम-दाणव-दलण-समत्थे मुक्कु वियम्भाहिव-सुय-कंते सरवर-णियरु अणंतु अणंतें पच्छए जइ-वि ठविज्जइ अण्णेहिं को गुणवंतु ण लग्गइ कण्णेहि जइ-वि मणोहरु पाणहरुच्चई मुट्ठिहे जो ण माइ सो मुच्चइ ४ छडिय-सवण-धम्मु गुण-लंघणु णिवसइ वासु वासि किर मम्गणु धणु कड्ढियउ सव्वु आकंदइ गुण-णमणेण कवणु णउ गंदइ वंकत्तणु गुणेण पर छज्जइ वे-कोडीसरु को णउ गज्जइ पीडिज्जंतु मुट्ठि कु ण मुवइ कढिज्जते जीवे कु ण रुवइ ८
घत्ता
सर-धोरणि वइरि-विसज्जिय णं पासेहिं भमेवि सु-पुरिसहो
केसव-सर-पसराहिहय । असइ विलक्खीहोवि गय ॥ ९.
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नवमो संधि
[१६] तो विणिवारिएण सर-जाले णिसि-पहरणु पेसिउ सिसुपाले छायउ अवर-विवरु दियंतरु एउ ण जाणहुँ कहिं गउ दिणयरु फुरियई तारा-गह-णक्खत्तई णह-सिरे थियई णाई सयवत्तई णिश्वसेसु जगु मायए छइयां जायव-साहणु णिहए लइयउं ४ उर-कोत्थुह-मणि-स्यणुज्जोएं लोयण-चंदाइच्चालोएं मेल्लिउ दिणयरत्थु गोविंदे पण्णय-पहरणु चेइ-गरिंदें फुरिय-फणामणि सोहिय-सेहर रणु पूरंत पधाइय विसहर णिव णिवडिय गयवर सिहरेहि णं तरुवर-कर-पल्लव णियरेहिं ८
घत्ता रहवर-वम्मीय-सहासेहिं तुरय-कण्ण-मुह-कोडरेहिं । णिवसिय णाराय-भुवंगम जम-जिह वहु-रूवंतरेहिं ॥ ९
[१७] तहिं अवसरे सर-कर-परिहच्छे पेसिउ गारुडत्थु सिरि-वच्छे एक्कु अणेयागारेहिं धाइउ दस-दिसि-चक्कवाले णउ माइड पक्ख-पसारणे किय धण-डंवरु दूरवणु पवण-विहुअवरु चलणुच्चालण-चालय-महिहरु कय-सय-विवर-दुवार-वसुंधरु ४ सहुं-पायालहो जंति विहंगम कहिं णासंति वराय भुवंगम गारुडत्थु जे एम वियंमिउ तो चेइवेण थाणु पारंमिउ पेसिउ अग्गि-अत्थु वलवंतउ णहु महि एकीकरणु करंतउ हरि-वल-वलु सम-जालीहूयउ खंध-चडाविय-वइवस-दूयर्ड
घत्ता तो वारुणु मुक्कु अणतेण हुयवहु तेण गिरस्थियउ । नहिं अप्पउ कहि-मिण दीसइ तेउ अ-तेउ होवि थियउ ॥ ९
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हस्विंसपुराणु [१८] वसीकय-णिवारणा अवर-वारिणा बारिणा अहोमुह-विहारिणा हुयवहारिणा हारिणा गवंवुरुह-वासिणा वरहि-वासिणा वासिणा कयं कु-वलयं वसं कुवलयं व सज्झावसं ४ स चेइवइ-वाउणाकिर सरेण दिव्वाउणा समाहणइ दारुणं महुमहेण वादारुणं भिसं वयण-पंकय पलय-भाणु-दप्पंकयं गुणा णिय-खुरुप्पयं वहइ जं फलं रुप्पयं ८ सया-जणिय-पुंखय कणय-कत्तरी-पुंखयं तिणा पलय दित्तिणा रिवु-विराविणा राविणा ण तं हणइ को सिर सहस-वार-उक्को सिर गयं वसुह-वासय वसुहवासयं वासयं १२
घचा सिरु-पडिउ कबंधु पणच्चइ वत्त णियंतु सयं भुवणे। वहु-कालहो अ-विणयवंतेण सीसें गमिठ सयंभु वणे ॥ ९
इय रिट्टणेमि-चरिए धवलइयासिय-सयंभुएव-कए । सिस्-िरुष्पिणि-अवहरणो समथिओ णवमओ सग्गो॥
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दसमो संधि
उब्जित - महागिरिवर - सिहरे सई रूपिणि-पाणि-गहगु किउ
परिणेपिणु रुपिणि महुमहणु पइसरइ स-वंधउ बारवइ पायाले सुशलए धरणि-वहे गोविंदे णयणानंदयरु धणु धण्णु सुवण्णु दिण्णु अतुल कुप्पर - कुंडाई स- कुप्पियई हय-गय-रह- चामरर- चिंघाई एयई अवराइ-मि जेन्तियइं
सच्छायई अंगई रूपिणिहे णिय-चरिएहि पावइ को-वि ण-वि
ते वासुदव- वलएव जहि हरि अच्छइ एक्कु कण्ण-रयणु वे डूढो दाहिण - सेढियहे जंबूपुर - णाहहो जंगबहो सुड जंवुमालि सुय जंबुबइ तो कण्हे दूर बिखज्जियर
जिय- सिसुपाल - महाहवेण । माहहो मासहो माहवेण ||
[ १ ]
पर-पवर - समर-भर- उठवहणु जहि मण - - संभव हो - वि मणु रमइ मिज्जइ जइ उवमाणु तहे रुपण समपि णियय - घरु जिय- लोय - सारु जीविउ विठलु सोवण्णई थालई रुप्पियई छत्तई वाइत्त-समिद्धाई को अक्खेवि सकइ तेन्तियइं
घप्ता
सच्चहे जायई सामलई । रिसि-अवमाण- दुमहो फलई ॥ ९
[ २ ]
पडिवारउ णारउ आउ तहिं रुंदारविंद- सुंदर - वयणु बिज्जाहरपुर- परिवेढियहे प्रिय जंवसेण णामेण तहो कल- कोइल - कंठि मराल-गइ आइउ तिय- रयण-विवज्जियड
१
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७२
णिय-मणे चिताविउ महुमहणु उववासें हरि-वलएव थिय
तो जक्खिलवे तुट्ठएण सीराउद - खरंगा उद्द
तो गरुड - महद्धय-ताल-धय अवहरिय कण्ण कुढे लग्गु वहु पाडिउ पसेणु जंबव - रुहेण महचंदु गएण रणुज्ज एण बिज्जाहरि परिणिय जंबुवइ अण्णाहि दिणे णयणानंदय रे पहु मेरुचंदु चंदमइ तिय आपणु दिष्ण गोरि हरिहे
लक्खण सुसीम गंधारि तिह परमाइ पारणिय महुमण
इय अट्ठ महाएविहिं सहिउ भुंजंतु रज्जु थिउ महुमहणु घरे हरे णं कामवेणु सवइ घरे घरे वसुहार णाई पड़इ अणहि दिणे उबवण पइसरेवि मंडेपिणु रुपिण अल्लविय मायाविणि अ - णिमिस दिट्टि किय उप्पाइय का वि अउव्व किय
घत्ता
दिण्णउ णहयल - गामिणिउ । हरि-वाहिणि-खग-वाहिणिउ ॥
हरिवंसपुराणु
किह ण कियउ कण्ण-पाणि-गहणु
वर - मंताराहण तुरिड किय
[ ३ ] desढो दाहिण - सेढि गय रणु जाउ परोप्पर दुव्विसहु जिउ जंवुमालि सी उद्देण जंवर गोविंदे दुज्ज एण पइसारिय पुरवरु वारवइ सुमनोहर - वीयसोय-णयरे किय कण्हे तेहिं विवाह किय सुहुं थियई दुवारावइ - पुरिहे
घन्ता
सस लहुयारी रेवइहे । पुण्ण मणोरह देवst ||
[ ४ ] अणुवि उर - सिरिए परिगहिउ धण- घण्ण-सुवण्ण-समिद्ध-जणु धरे धरे णं धणय - दव्वु दवइ घरे घरे चितियउ समावडइ केलीहरे सुरय- कील करेवि मणि - वाविहे पासे परिद्वविय वण- देवय णं पच्चक्ख थिय उ णावइ जिह सामण्ण तिय
८
४
८
८
९
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७३
दसमो संधि
घत्ता जं तहे उव्यरिउ पसाहणउं . तं सच्चहे उवढोइयउं । देवय पच्चक्खाहूय मह कि अच्छरिउ ण जोइयउ ॥ ९
[५] भहिएण भाम भामिय भवणे पइसारिय पवरुज्जाण-वणे अप्पणु पुणु सुठु मणोहरए । थिउ पत्तल-बहल-लयाहरए जहिं रुपिणि स्वहो पारु गय णं मयणुज्झिय सोहग्ग-धय लक्खिाजइ भामए भामियए धण-पीण-पओहर-णामियए ४ कर-चरणाणण-लोयण-कमले तरमाण णाई लायण्ण-जले भज्जइ व मज्झे तणुयत्तण ण णिहालइ महि णव-जोठवणेण पेक्खेप्पिणु सच्चहाम णमिय जय तुहुं क-वि देवय सच्चविय तो महु सोहग्गु देहि अचल कु-सवत्तिहे दूहव-दुमहो फलु ८
घत्ता परमेसरि अणुदिणु होउ महु आणवडिच्छिउ महुमहणु । सोसु व आयरिय-पाय-वडिउ पोट्ट-वडिउ जिह थेर-तणु ॥ ९
[६] ज सुंदरि एव चवंति थिय तो जायव-णाहे विहसिकिय मायाही फेडिय अप्पणिय एह रुप्पिणि देवय कर्हि तणिय . विज्जाहरे तुहुं णव-वहुडियहे किह णमिय सवत्तिहे लहुडियहे हरि-खेड्डु सुणेपिणु तणुयडिय सच्चहे सारेपणि पाएहिं पडिय ४ तहिं अवमरे रिउ-मइ-मोहणेण पट्टविउ लेहु दुज्जोहणेण मह एविहिं विहि-मि पलंव-भुउ जो उप्पज्जेसइ पढमु सुउ तहो तणय देमि हडं अप्पणिय संभावण एह महु- त्तणिय तो जाय बोल्ल सु-मणोहरिहि उण्णय-धण-पीण-उओहरिहिं ८
घता उत्पण्णहो सुयहो पहिल्लाहो कुरव-तणय परिणताहो । - णिप्पुत्ती सीसे मुंडिएण हेट्टि ठवेवी ण्हंताहो ॥ ९
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१४
हरिखसमुयश
बहु-दिवसेहिं भिप्फरा-राय-सुथए त्यसलए चउत्थ-तोय-धुअए जो पच्छिम पहरे णिरिक्खियर्ड सो सिविणउं दिण्ण-मुहे अक्खियां णारायण दिदछु विमाणु मइं हरि चवइ लहेवउ पुत्तु पई विज्जाहरु जायव-कुल-तिलउ सोहग्ग-रासि गुण-गण-णिलउ ४ भामए-वि एव सिविणउ कहिउ सुउ होसइ इक्कोयर-सहिउ बहु-दिणेहिं महंतहि सोहलेहि __णव मास पुण्ण बहु-डोहलेहि एक्कहिं दिणे वे-वि पसूइयउ पट्टवियउ णिय-णिय-दूवियउ पहिलारउ तुह-पहट्टियए कमलोयर-चलणंतट्टियए वद्धाविउ रुप्पिणि-दूइयए अवरए-वि सिरंतरे हूइयए जउ-गंदण-णंदणु-जाउ तउ विहसंतु अणंतु तुरंतु गउ
धचा
पहिलउ पेक्खंतहो पुत्त-मुहु जे सुहु तं दामोयरहो । चककक्क-कित्ति-वद्धावणए दुकरु तं भरहेसरहो ।
[८] पिक्खेपिणु रुप्पिणि सुय-वयणु गउ सच्चहाम-धरु महुमणु तहिं अवसरे धूमकेउ असुरु दढ-कढिण-भुयग्गलु वियड-उरु णहे जंतहो तहो विमाणु खलिउ उ चरिम-सरीरोवरि चलिउ जाणिउ विहग-णाणहो वलेणे हउ चिरु परिभमिउ एण खलेण ४ अवहरिय कलत्तु महु-तणउ तं वयसै हणेव्वउ अप्पण अइ णिद्द महाएविहे करेवि सो वालु विमाणहो अवहरेवि णं गरुडे णायकुमारु गियउ अइ-भूमि गंपि चितंतु थिउ उ आयहो जीविउ अवहरमि सयमेब मरइ जिह तिह करमि ८
घत्ता गउ उप्परि वालहो देवि सिल वईवस-णयरि-पोलि-णिह । तहिं काले कालसंव: गयणे सुक्के खोलिउ मेहु जिह ॥ ९.
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दसमो संधि
[९] तो मेहकूड-पुर-सामियहो सकलत्तहो णहयल-गामियहो ण कुमारोवरि विमाणु चलइ । जड-वयणु व वार वार खलइ जाणहुं ओसरिउ जवंकियहो । मुत्ताहल-मालालंकियहो दीसइ ससंत सिल तांव तहिं मयरद्धउ चरम-सरीरु जहिं सो उवलु धित्तु जे चप्षियउ सिसु कंचणमालहे अप्पिड ण समिच्छिउ ताई वियक्खणए णव-कोमल- कमल-दलक्खणए अहिजायहं णयणाणंदणह जहिं पंच सयई वर गंदणह तहिं आयहो कवणु पहुत्तणउं तो गउ वेयारमि अप्पणउं
घत्ता
तो कड्ढेवि कण्हहो कणय-दलु सिरि-जुवराय-पटु थविउ । इहु सामिउ पयहे महारहे एवं पियहे मणु संथविउ ॥ ९
[१०] तो मणे परितुट्ठ-पहिठाई विण्णि-वि णिय-णयरु पइठाई किरि गूढ-गब्भु उप्पण्णु सुउ पुरे मेहकूडे आणंदु हुउ पज्जुण्ण-कुमारु णामु कियउ रुप्पिणि-धउ णं मसाणु थियउ सा जाव विच्चइ ताव ण-वि जायव-कुल-रयणुज्जोय-रवि ४. धाहाविउ धावहो हरि-वलहो सारंग-सीर-वर-करयलहो सिणि-सच्चइ-पिहु-पसेण-णरहो सिव-तणय-समुह विजय-जरहो अक्खोह-थिमिय-सायर-वरहो हिमगिरि-विजयाचल-णरवरहो धारण-पूरण -अहिणंदणहो वसुए। माम महु-णंदणहो
घत्ता
कुढे लग्गहो केण-वि अवहरिउ वालु कमल-पुंजुज्जलउ । तुम्ह्हुँ सम्बहुं पेक्खंताई गउ महु आसा-पोट्टलउ ॥ ९.
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२७६
हा केण पुत्त महु अवहरिउ हा एक्कसि दावहि मुह-कमल -उठवलिउ मलिउ ण णिहालियर मए पोवर वुक्खहो भायणए दुद्दम-दाणत्र-वलमद्दणहो उच्चापवि लइउ ण हलहरेण ण दसामहेहिं परिचुंवियउ तहो जीविउ लितहो दुम्मइहे
तहि अवसरे धोरिय महुमहेण तहु पावो दुक्कियगारहो
ण मरइ तुह णंदणु जइ-वि णिउ - होसइ विअब्भवइ - सुयहो सुर दुग्गेज्झु अवज्झु थणद्वउ - वि जाएवि जाएसइ कंति कहि तहिं अवसरे णवर समावाडउ मंभीसिअ तेण तुरंत एण अइमुत्तु महारिस सिद्धि गउ उता गवेसमि सग्रल महि
[ ११ ]
णिरुवम-गुण- रयणालंकरिड पहविउ पुत पिउ थण - जुयल ण सहत्थे लालिउ पालियउं णिद्देवए हअए अ-लक्खणए उच्छंगे ण दिठु जणहणहो णालिंगिड अम्ह कुछहरेण
- वि महुपु विडंबियउ किह सीसु ण फुटु पयावइहे
गउ एम भणेपिणु देव - रिसि सीमंधर - सामि - समोसरणु
हरिवंसपुराणु
घत्ता
पुत्त तुहारउ जेण णिउ । सणि अवलोयणे अज्जु थिउ ||
[ १२ केवलिहि आसि आए किउ वम्महु सुर - करि-कर-पवर-भुउ ण मरइ सुरिंद- वज्जाहउ - वि हरं हलहरु वे-वि सहाय जहिं आगासहो णारउ णं पडिउ किं वहि मइ-मि जियंतएण जिणु अणुपओ-त्रि उ कहइ त सो जावं दिट्टु गुण-मणि-अवहि ८
घन्ता
*
इय रिट्टणेमिचरिए धवलइयासिय सयंभुएव कए । पन्जुण्ण -हरण - णामेण इमो दहमओ सग्गो ॥
F
पुत्र- विदेहु णहंगणेण । जहि सई भूसिउ सुरयणेण ॥
९
४
४
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________________
एगारहमो संधि ताम्ब कालसंवर-णिवहो उद्धद्ध रज्जु पर-चक्के । एक-रहेण जे वम्महेंण हउ तिमिरु णाई तरुणक्के ॥
१. ।
। [१]
तो ताम जुवाण-भावे चडिउ णं सुर-कुमारु सग्गही पडिउ सु-मणोहरे मेहसिंग-णयरे हरि-तणउ कालसंवरहो घरे वड्ढिउ सोलह वरिसई गयई जायई अंगई विक्कम-मयई सोहग्ग-महामणि-रयण-णिहि तहो को णिव्वण्णइ रूव-विहि जसु केरा परिवढिय-पसर तिहुअणु असेसु जगडंति सर सो मयरकेउ सई अवयरिउ कर-चरणाहरणालंकरिउ परिसकइ ढुक्कइ जहिं जे जहिं तरुणीयणु तप्पइ तहिं जे तहिं दीहर-लोयण-सर-पहर-हय णिय-जणि जे तहो अहिलासु गय ८
घत्ता कामें कामुक्कोयणेण कल-कोइल-कुल- वायालहे । . अंगहो लाइउ रणरणउ अत्थक्कए कंचणमालहे ॥
[२) परमेसरि पीण-पओहरीहिं वोल्लइ समाणु णिय-सहयरीहिं हले लवलि लवंगिए उप्पलिए . कैकेल्लि एलि जाइफलिए कप्पूरिए कुंकुमकद्दमिए
णव-कुसुमिए मउरिए पल्लविए किण्णरिए किसोरि मणोहरिए आलाविणि परहुए महुयरिए महु चित्तहो भुंभुल-भोलाहो , पडिहाइ ण झुणि हिंदोलाहो णउ भासहे विविह-पयारियहे णउ कउहहे णउ साहारियहे गउ टक्क-राय-टक्कोसियह सामीरय-मालवकोसियह लइ पंचमु पंचमु काम-सरु जो विरहिणि-मण-संतावयरु
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________________
७८
विंधण - सोलड भारणड कंचणमालहे वच्छयले
पक्खोडइ णीवी - बंधणडं
- दरिसावइ वम्मह - घर - सिहरु आमेल गिoes दप्पणउं
3
- गले रसणा-दामु परिट्ठविर - कमे कंठउ पुट्ठिद्दे कण्णरसु -परिचितइ दंसणु अहिलसइ जरु पेल्लइ मेल्लइ डाहु ण-वि 'णिरवज्ज-लज्ज परिहरइ मणे
तो विरह - वेय- विद्दाणियए जं सुंदरु एत्थु मज्झु घरहो पणवेपणु सहयरि विण्णवइ जो तर वल्लरिहे रक्ख करइ कोक्किउ कुमारु तं मणे धरेवि "जं पेसणु देव किंपि मई अणहि दिणे पsिहकारियड कच्छिउ ओरे सरु सुहय लहु
घन्ता
सहि-सत्थे पंचमु गाइयउ । वम्महेण णाई सरु लोइयउ ||
खणे उप्पज्जइ कलम लड वाहि उखी भंगिक-वि
हरिवंस पुराणु
[ ३ ]
ढिल्लारएं करs पइंधणउं रोमावलि -तिवलि - थणद्ध-यरु सय-वार णिहालइ अप्पणउं करे उरु कंकणु कण्णे किउ मुद्दे अंजणु लोयणे लक्ख -: - रसु दीहरउ पुणु - वि पुणु णीससइ आहार-भुति ण सुहाइ - वि उम्माहेहि भज्जइ खणे जे खणे
घन्ता
खणे मणु उल्लोलेहिं धावइ । एक्कु त्रि उसहु ण पहावइ ॥
[ ४ ]
सहि का वि पपुच्छिय राणियए तं किम्महु किय कासु-वि परहो कच्छउ कच्छिय हे जे संभवइ अवसाणे तहे जे फलु उवयरइ पण्णन्ति समृपिय पिउ करेवि तं पडिवजेवरं सयलु पई पल्लं कोवरि वइसारियउ एक्कसि आलिंग दे महु
९
४
८
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________________
एगारहमो संधि
घत्ता छत्तई वसुभइ वइसणउं लइ हय-य-रयणाई। तुहुं पइ हउं महएवि जइ तो सग्गे किज्जइ काई ।
[५] णिय-देह-रिद्धि जइ वल्लहिय तो राय-लच्छि लइ मई सहिय पहु होहि समाणु पुरंदरहो विसु संचारिज्जइ संवरहो तहे वयणु सुणेवि कुसुमाउहेण वोल्लिज्जइ रुपिणि-तणुरुहेण एउ काई अजुत्तु वुत्त वयणु तुहुँ जणणि कालसंवरु जणणु सिरु छिज्जइ जइ-वि अज्जु मरमि दुक्कम्मई विण्णि-वि णउ करमि कंचणमालए णिन्भछियउ तुहुं महु उयरे ज्जि ण अच्छियउ वणे लद्धउ केण-वि कहि-वि हुउ कहो तणिय माय कहो तणउ सुउ ते तेहउ ताहे वयणु सुणेवि पभणइ अणंगु अंगई धुणेवि
घत्ता तई हई लालिउ तालियउ परिपालिउ णव-तरु जेवं । । दिण्ण विजथणु पाइयउ भणु जणणि ण वुच्चहि केवं. ९
[६]
जउ-गंदण-गंदणु दणु-दलणु अइ-बाल-कमल-कोमल-चलणु गर वीरु मह-रहवरे चडेवि थिय कणयमाल मंचए पडेवि णह-णियर-वियारिय-थणय-जुय वाह-जलोहामिय णयण-दुअ पिहिवीसरु तावं परावरिउ सामंत-सहासेहिं परियरिउ पिय पुच्छिय दुम्मण काई थिय तउ तणएं एह अवत्थ किय जं एवं परिंदहो अक्खियउ तेण-वि करवालु कडक्खियउ तहिं अवसरे विग्जुदादु चवइ खत्तियहो अखत्तु ण संभवइ किं रह-गय-तुरय-जोहा-वलेण जइ हम्मइ तो केण-वि छलेण
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________________
८०
सिरि- मेसइरि-मल्लगिरिहिं तेहिं हिम्मइ वालु रणे
थिउ णरवइ णिहुउ णिवारियर डण - वि तो डाहुत्तरई णिउ मज्झे मेस-महीहरहं वे - विज्जउ तेहि समप्पियऊ साहि वराहु अवराह करु जिउ रक्खसु तेण-वि दिण्ण गय
असुरेण कवित्थ णिवासिएण विणिण णहंगण-गामिउ
थोवंतरे विष्फुरमाण- मणि तेण वि मरगय-कर-विच्छुरिया धणु स-सरु स-मंडलग्गुफरउ विणिवारिय-दिवसयरोयवेण दिज्जति सुरासुर - डमरकर खोरोवणि-मक्कडु तेण जिउ सूर पहू-हउ विमाणु पवलु गउवल-वावि तर्हि मयरु जिउ
वइरिहिं अमरिस- कुद्धएहिं तावहिं वुझिउ वम्मण
8.6. भा. मालोमाल किड.
घन्त्ता
सूयर- णिसियर - कइ - णाएहि । आएहिं अवरेहिं उवाएहिं ॥
[ ७ ७ ]
सिसु अग्गि-कुंडे पइसारियउ दिण्णई सोवण्णई अवरइ वज्जोवसमण्णिवाय करहं (1)
तिहुयण - जण - णयण-मण-प्पियउ ४
तें दिष्णु संखु तहो भीम-सरु स- महारह स- कवय जणिय-भय
हरिबंसपुराणु
घत्ता
मणि - किरण - सहासुभिण्णउ । पाडयड कुमारहो दिण्णउ ॥
[ ८ ]
देवाह - मि दुइमु दमिउ फणि ढोइज्जइ भूय-मुहिय च्छुरिय कामंगुत्थलउ स सेहर देवें कणयज्जुण-पायवेण धणु कउसुमु कउसुम पंच सर सव्वोसहि मायामउ लहिउ सिय-छत्तु सेय - चामर - जुयलु उवलक्खणु णवर धनग्गे किउ
घन्ता
सिल दिज्जइ वाविहि झंपणु । जह चितिउ महु अ-हयन्तणु ॥
७.
८
९.
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________________
मारहमो संधि
[९]
अविओले वाले तुलिय सिल पण्णन्ति - पहावें बरि जिय उद्धद्ध रूद्र ओबद्ध विह
लक्खणेण आसि णं कोडि - सिल असमत्थ णिरत्थोमत्थ किय
थिय पायवे वाउल - विहिय जिह
कह-कह - वि चुक्कु तहिं एक्कु जणु गल संवर-भवणु पवण - गमणु उठवंधेवि सयल परिद्वविय
णरवइ तुह णंदण णिट्ठविय
परिकुविउ कालसंवरु मणेण तुरमाण तुरंगारूढ भड सेणावद तहिं सुघोसु पवरु
पट्ठावड असेसु सेण्णु खणेण वाहि-रह चोइय-हत्थि - हड वाउगुरु वाउ-वेउ अवरु
रण - रसिएँ किय- कल्यलेण वेढि वम्महु साहणेण
उत्थरिव वालु रिड - साहणहो णं गिम्ह- दवग्ग वंस- वणहो णं करि संधायहो पंचमुहु गय दमइ ण दम्मइ गयवरेहिं रह दलइ दलिब्जइ ण-वि रहे हिं पण्णन्ति - पहावे सयलु वलु णं भग्गु गईदे कमल - बणु हय गय रद्द गर णरिद दलिय
उप्पर ढंकणु देषि सिल जमु करंतु कल्लेवडड
पजा - ६
धत्ता
वज्जिय-पडु-पडह-चमाले । विंझर जेम धण - जाले ॥
[१०]
रह- तुरय- महग्गय-वाहणहो णं गरुडु भुयंग - विसम - गणहो णं जगहो सणिच्छरु थिउ समुहु हय हणइ ण हम्मइ हयवरेहिं विविars सिरई दस- दिसि - बहे हिं मंदरेण महिउ णं उवहि-जलु साहारु ण वंधइ सरण - मणु सयले हि-मि वडल - वावि भरिय
घन्ता
अण्णु-बि पढिएंतु निहालइ । सालणडं णाई पडिपालइ ॥
८१
४
የ
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________________
स
हरिवंसपुषणु
[११]
अवरेक्के केण-वि कंपिरेण कंठ-खलियक्खर-जंपिरेण .. अक्खियउ कालुत्तर-संवरहो धय-धवल-छत्त-छइयंवरही परमेसर सेण्णु परज्जियउं ____ वइवस-पुर-वहेण विसज्जियर्ड तो राएं अमरिस-कुद्धएण सामंत विण्णि जस-लुद्धएण ते भूमिकंप-महिकंप भड स-सुहड स-तुरंग स-हत्थि-हड पट्टविय पधाइय भिडिय रणे णं पवण-हुयासण सुक्क-वणे जे वम्महु मारहुं भणेवि गय ते विज्जा-पाणए सयल हय
घत्ता
जिणेवि ति-वारउ वइरि-वलु अण्णहो-वि दिट्टि पुणु ढोइयउ । जमु तिहि कवलेहिं धाउण-वि णं कवलु चउत्थउ जोइयउ ॥
९
[१२] पडिवत्त कालसंवरहो गय सामिय असेस सामंत हय एवहिं विहिं कज्जहुँ एक्कु करे जिव कहि-मि णासु जिव भिडु समरे वल सयलु कुमार णिविठ पेयाहिव-पंथे पट्टविउ तं णिसुणेवि परवइ गीढ-भउ तहे कंचणमालहे पासु गउ ढोयहि पण्णत्ति दव-त्ति महु । वावरमि जेण अरिएण सहुं. पच्चुत्तर दिण्णु कयडु करेवि विज्जाहर-णाह विज्ज हरेवि णिय मंउ तेण तुह णंदणेण आसंकिउ परवइ णिय-मणेण पुण्णक्खए पुण्ण-विवज्जियउ विज्जउ वि ण होति सहेज्जियउ ८
घत्ता अहवइ वणे णिवसंताहो केसरिहे कवण सयणिज्जा । छुडु धीरत्तणु सु-पुरिसहो भुव-दंड जे होंति सहेज्जा ॥ ९
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________________
एगारहमो संधि
[१३] विज्जाहर-णाहु एवं भणेवि णिय जीविउ तिण-समाणु गणेवि अवसेसु सेण्णु सण्णहेवि गउ जहिं दुम्महु वम्महु लद्ध-जउ ते भिडिय परोप्पर दुव्विसह गं गयणहो णिवडिय कूर गह णं उद्ध-सुंड सुर-मत्त-गय णं हरि दूरुज्झिय-मरण-भय णं सलिल-पगज्जिय पलय-घण णं फणि विप्फारिय-फार-फण पहरंति अणेएहिं आउहेहिं पिसुणेहिं व पर-विंधण-मुहेहि विहि एक्कु-वि जिजजइ जिणइ ण-वि जम-धणय-पुरंदर-सोम-रवि वोल्लंति परोप्परु गयणे थिय सुय-जणणहुँ अविणय-थत्ति किय
घत्ता ताम पराइड देव-रिसि मं वे-वि अ-कारणे जुज्झहो । करेवि परोप्परु गोत्त-खउ सा कवण थत्ति जहिं सुल्झहो ॥
८
९
.
[१४] विणिवारिय विण्णि-वि णारएण णं धरिय मेह अंगारएण मघ-रोहिणि-उत्तर-पत्तएण तिह तावसेण ढुक्कंतरण ओसारिष संवर-कुसुमसर जुझंतहुं जगे जंपणउं पर सुय-जणणहुँ विग्गहु कवणु किर दुल्लंघण-लंघिय तवसि-गिर ४ थिय विण्णि-वि रणु उवसंघरेवि पुत्तत्तणु तायत्तणु करेवि पण्णन्ति-पहावें अतुल-वलु उट्ठविउ कालसंवरहो बलु ते भणइ महारिसि कित्तिएण हउं एत्थु परायउ एत्तिएण एहु चरम-देहु सामण्णु ण-वि मयरद्धउ हरि-कुल-गयण-रवि
घत्ता असुरे णिउ पई वडूढावियउ सीमंधर-सामें सिठ्ठउ । एहु सो गंदणु रुपिणिहे मई, कह-व किलेसें दिट्ठल ॥ ५
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हरियाणा
[१५) पेसिउ गरवह णिय--पट्टणहो रिसि अक्खड रुप्पिणि-गंदणहो किं वह वाया-वित्थरेण जिह अक्खिउ सिरि-सीमंधरेण जिह परिभमिओसि भवंतरई पावंतउ दुक्ख-परंपरई जिह केसव-कंतहे संभविउ जिह धूमकेत-दाणवेण जिउ ४ जिह कहि-मि सिलायले-सण्णिमिउ जिह खयरे पियहे समल्लवित जिह सोलह वरिसई ववगयई जिह सिद्धर विज्जाहर-पयई जिह वहरि-सेण्णु सर-जज्जरिउ जिह कंचणमाला-दुच्चरित जिह पहु-कोवग्गि-समण-गयई जिह लद्धई कामएव-पयई.
पत्ता
तिह मई सयलु-वि वुझियउ लइ जाहु देहि अवरुंडणु । जाम भाम णउ रुप्पिणिहे सयंभुएहि करइ सिर-मुंडणु ॥ ९
इय रिठ्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएव-कए । पज्जुण्ण-लील-वण्णणो णाम एगारहमो सग्गो ॥
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बारहमो संधि
पवर-विमाणाख्दु संच्चल्लु कुमारु सुहावइ । सच्चहे छाया-भंगु रुप्पिणिहे मणोरहु णावह ॥१
[१]
उत्तिय-भिसिय-कमंडलु-धारउ पुच्छिउ वम्महेण रिसि गारस कहि कहि ताय ताय तणु-तावणु किह महु मायहे सिर-भद्दावणु भणई महा-रिसि किं वित्थारे सुशु अक्खमि तं जेण पयारें सच्चहाम महएषि पहिल्ली रुप्पिणि रुपिणि पुणु पच्छिल्ली ४ ताहं विहि-मि चंदकिय-णामहिं हूय होड तुह मायरि-भामहिं जाहे जे जेठु पुत्तु परिणेसइ सो मुंडिए सिरे पाउ ठवेसई कुविउ कामु गुण-गण-गरुयारी का परिहवइ जणेरि महारी तहो तोडमि सिरु विरसु रसंतहो सरणु पवज्जइ जइ-वि कयंतहो ८
पत्ता एवं भणेवि कुमार संचल्लिउ विज्जा-पाणे । दीसइ णहयले जंतु णं रावणु पुप्फ-विमाणे ॥
चलिउ महा-रिसि समउ कुमारे विण्णि-वि तेयवंत उपसोहिय पट्टणु तावं दिठु कुरु-णाहहो णिवडिउ सग्ग-खंबु ण तुडेवि णाई अणंग-णयह आवासिड जहिं पायार णहंगण-लंघा
[२] गं मयलंछणु सहुँ सवि-तारें जं जह-भवणे पईवा बोहिय कलि-कालहो कुल-कलुस-सपाहहो णं थिउ घणय-धामु विच्छुदृषि सुंदर सुरवर-पुरहो-वि पासिष्ठ गुरु-उवएस जेन दुल्लंघा
विर-पुरा
४
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हरिवंसपुराणु जहिं सुंदर मंदिरई अणेयई चंदाइच्च-समपह-तेयई केत्तिउ वार-वार वोल्लिज्जइ हथिणायउरु कहो उवमिज्जइ
पत्ता तहिं पर एत्तिउ दोसु हरिवंस-महदह-डोहणु । दुम्मुहु दुण्णयवंतु जं वसइ दुदठु दुज्जोहणु ॥
[३] णयरु णिएवि गिय-रहसु ण रक्खइ पुच्छइ वालु मह-रिसि अक्खइ किह धरणिहे अंगई कंटइयइ णं णं धणई कणिसब्भहियई किह महि-चिहुर-भारु थिउ उच्चउ गं गं तरु-आराम-समुच्चउ किह उत्थल्लेवि उवहि अहिडिउ णं णं परिहा-वलठ परिठिउ किह हिमवंतु महंतु महीहरु णं णं पुर-पायारु मणोहरु किह हिमगिरि-सिहरई वहु-वहलई णं णं मंदिराई छुह-धवलई किह मेहउल महीयलु पत्तई णं णं गय-विंदई मय-मत्तई किह तरंग मयरहरहो केरा णं णं कुरु-तुरंग पर-पेरा
पत्ता किह थल-भिसिणी भावइ वियसियई सेय-सयवत्तई। गं गं ससि-धवलाई आयई दुज्जोहण-छत्तई ॥
[४] एत्थु अराइ-राय-रण-रोहणु णिवसइ कुरुव-राउ दुजोहणु सच्चहे पक्खिउ दुण्णयवंतउ तेण विवाहु जो हु आढत्तउ उवहि-माल वर-विक्कम-सोरहो देसइ णिय सुय भाणुकुमारहो । मंगल-तूरु एहु ओवज्जइ गंण पाउसे जलणिहि गज्जइ. ४ पुरवरे रच्छावण ओवट्टइ एत्तिउ कुरु-जण्णत्त पयट्टइ एत्थु विवाहे ताहे असुहावणु होसइ तुह जणणिहे महावणु तं णिसुणेवि कुमारु पलित्तउ गंदवग्गि दुव्वाएं छित्तउ । रिसि स-विमाणु मुएप्पिणु तेत्तहे पइसइ कुरुव-राय-पुरु जेत्तहे । ८
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________________
बारहमो संधि
घत्ता कामिणि-कामहं कामु धुत्तहं अभंतरे धुत्त । । जगडइ षट्टणु सव्वु बहु-रूवेहि रुप्पणि-पुत्तु ।।
[५] सो पण्णत्ति-पहावें वालउ पइसइ हत्थि होवि गय-सालउ मयगल मउ मुयंत फेडात्रिय भग्गालाण-खंभ ओसारिय पुरे पइसरइ वालु वड-वेसे जोइज्जइ डिंभेहिं विसेसे दीहिय-वावि-दुवारई रुंभइ जलु जुवइहिं गिण्हणइं ण लब्भइ सव्वई भोयणाई आगरिसइ भण-जणई वियण्णई दरिसइ दस-गुणु वणिहिं अग्घु वड्ढावइ णं तो वहुरूविहिं कडूढावइ सो गरु णाहिं जो ण खलियारित पट्टणे एम करंतु दुवालिउ
४
। घत्ता
गउ दुग्जोहणु जेत्थु करे माहुलिंगु ढोइज्जइ । तेण-वि पुणु सय-वार पिय-माणुसु जिह जोइज्जइ ॥
[६] जसु जसु ढोयइ कुरु-परमेंसरु सो सो भणइ देव एउ विसहरु भंडागारिएण ण समिच्छिउ देव माहुलिंगु एहु विच्छिउ पुच्छिज्जंतु वियारेहिं जंपइ क्डु पंडिउ पयंडु णउ कंपइ हउं पीयंवर-जणणे जायउ कण्णस्थिउ तुम्हहो धरू आयर परिरक्खंति अज्जु जइ देव-वि मई परिणेवी अवसे तेम-वि तहि अवसरे दुज्जोहण-राणी जलहिमाल णामेण पहाणी पेसिय ताए महत्तरि ढुक्की महेण मूयल्लेवि मुक्कों णउ णीसरइ वाय पर सण्णइ वालु णिरारिउ गुण णिव्वण्णइ
घत्ता खुजउ होवि पइठु चंडिलेण लेवि वहु पहाविय । . पुणु वरइत्त-छलेण अवहरेवि विमाणे चडाविय ॥
४
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हरिवंसपुराणु
[७] सहि अवसरे सण्णज्झइ साहणु रहवर-तुरय-महागय-काहणु दिण्ण-तूर-परिवढिय-कलयलु दणु-दुप्पहरणु पहरण-कलयलु रुप्पिणि-तणएं विसम-सहावे मोहिउ वलु पण्णत्ति-पहावे जो जो दुक्कइ तं तं चप्पेवि उवहिमाल कुरुवाहे समप्पेवि रिसि सुच्चइ(?) उहु रुप्पिणि-णंदणु काई अ-कारणे किउ कडमहणु एम भणेविं वे वि गय तेत्तहे पंडव-राय-पहाणउ जेत्तहे रहवर-तुरय-गइंद-विमाणेहिं धय-छत्तेहि अणेय-पमाणेहि दप्पण-दहि-दुव्वक्खय-सेसहिं अइहव-मंगल कलस-विसेसहि
पत्ता पुच्छित कुसुमसरेण कहि ताय ताय कि सेरउ । दीसइ खंधावारु उहु संचलंतु कहो केरउ ॥
[८]
तो णय-विणय-पक्ख-संजुत्तहो . कहइ महा-रिसि रुप्पिणि-पुत्तहो एहु सो चंद-केउ क्रमलाउहु पंकय-दर-करच्छि पंक्य-मुहु पंडव-जेठु सुठु विक्खायउ धम्म-पुत्तु धम्मुच्छवे जायउ दीसइ चिंधे जासु पंचाणणु एहु सो भीमु भीम-भड-भंजणु जसु सोवण्ण-महाधए वाणरु एहु सो अज्जुणु पवर-धणुद्धरु ओए जमल थिय अग्गिम-खंघे रिउ णासंति जाहं रणे गंधे णर-णंदण-णंदहे उप्पण्णी कंचणमाल कला-संप्पप्णी सच्चहाम-तणयहो वल-सारहो दिज्जइ लग्गी भाणुकुमारहो
धत्ता तं णिसुणेवि पज्जुण्णु तरु-वेलियाउलए मग्गए । स-सर-सरासण-हत्थु धाणुक्कु होवि थिन अग्गए ॥
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पापमो संधि
[९]
स-सर-सरासण-हत्यु पक्किउ ह णारायण-केरउ सुक्किउ सुक्कु देषि महु पहेण पयट्टहो णं तो मई समाणु अग्भिट्टहो तं णिसुणेवि णउल-सहएवेहिं परिवढिय-पयाव-अवलेवेहिं रणु आढत्तु धोरु जिय वाले णरु उत्थरिउ महासर-जाले' । जिउ वम्म हेण विओयरु धाइउ । सो-वि परज्जिउ कह-वि ण धाइउ धम्म-पुत्त आयामिउ जावेहि कोतिहे कहइ महा-रिसि तावेहि एहु रुप्पिणि-णदणु मयरद्धउ तुम्हेहिं कलहु काई पारद्धउ एम भणेवि वे-वि गयणढें गय वारवइ पत्त णिविसिद्धे
घत्ता पेक्खेवि मयण-विमाणु हरियंदण-चंदण-चच्चिउ । धय-चिधुद्ध-करेहिं गं महुमह-पुरेण पणच्चिउ ॥
[१०] ‘णारउ णहे स-विमाणु परिठिउ पीयउ दिणमणि णाई समुठिंउ दारावइ पइदछु मयरद्धउ माया-कवड-भाउ पारद्वउ एक्कु-वि णिम्मिउ दुब्बलु घोडउ तिसियहो जासु समुह-वि थोडउ सो मोक्कल्लिउ तुरउ तुरंतउ खडई खंतु सलिलई सोसंतउ उववणु भाणुकुमारहो केरळ जण-मण-णयणाणंद-जणेरडं -माया-मक्कडेण विद्धंसिउ मरु फुल्लु फलु पत्तु विणासिउ कहि-मि अणंगु होवि पुरु मोहइ णायरिया-जण-मणु संखोहइ कत्थ -बि वेग्जु कहि-मि मित्तिउ कत्थ-वि भूमि-देउ अइ-सोत्तिउ
८
घत्ता
बंभण-सयई जिणेवि सच्चहे जं घरे रद्ध
उबइठु गपि अग्गासणे । तं घिप्पइ णाई हुवासणे ॥
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हरिवंसपुराणु
[११] भोयणु मुंजेवि पाणिउ सोसेषि ताहे असंते मंतु आघोसेवि खुड्डा-वेसे पइसइ तेत्तहे रुप्पिणि-भवणु मणोहरु जेतहे ताम ताए सु-णिमित्तई दिट्टई मित्तिपहिं जाइं नवइट्टई कोइल-महुर-मणोहर-जप्पउ अंवउ मउरिउ फुल्लिउ पक्कउ सुक वावि जल-भरिय खणंतरे पुत्तागमणु-दिछ सिविणंतरे जायई खुज्ज-पंगु-वहिरंधई रूव-गमण-सवर्णाच्छ-समिद्धई ताम पराइर णयणाणंदणु , खुड्डा-वेसें केसव-णंदण कण्हासणे उबइठ्ठ तुरंतउ मिउ तेण घरम्गि वलंतउ
४
घत्ता
सोसिउ सालिलु असेसु तेहि-मि वालु ण धाइ
हरि मोय-सहासई दिण्णइ । सूयार-सयई णिविण्णइं ॥
[१२] तहिं अवसरे आयउ हकारउ तुम्हहं सिर-भदावण वारउ सो चंडिल्लु कुमारे तज्जिउ मुंडियडेण सिरेण विसज्जिर आयउ कुट्टणि-णिवहु स-तूरउ माया-गयवरेण किउ चूरउ अवर महत्तर-पट्ट (१) पराइय ते-वि ओवंधेवि भद्दण धाइय आयउ गयकुमारू विभारिउ माया-सीहे कह-वि ण दारिउ सावलेउ वसुएउ पराइउ माया-मेसे कह-वि ण घाइउ आयउ जरकुमारु रिउ-रुंभणु ताम वारे थिउ माया-वंभणु सो पइसोरु ण देइ कुमारहो मोक्खु जेम चउ-गइ-संसारहो
८
घत्ता
वंभण उठ्ठि भणंतु किर चरणे घरेप्पिणु कड्ढइ । णवर णिरारिउ पाउ रिण जिह स-कलंतरु वड्ढइ ।।
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बारहमो संधि
आयउ कामपाल हकार तहि अवसरे विजा-परिपालड गसविलक्खु णियत्तेवि हलहरु एत्थु जे जे तुहु-मि वे भायहिं एम जणहणु कोवे चढाविउ तूरइ देविणु लेहु अखतें
ता सण्णञ्झइ जायव - साहणु इय- पडु - पडह - पसारिय- कलयलु
रुप्पिणि लेपिणु वालु कहइ महा-रिसि ताहे
तो पण्हविय वे-वि थण मायहे हरिसंपहिं उरत्थलु निम्मिड लग्गु पओहरे णाई थणद्धउ पभणइ तवसि पेक्खु परमेसरि तहि अवसरे वलु दुक्कीहूयउ तो सहसन्ति कुमारें पेडिड केण वि कहिउ गंपि गोविंदहो देव देव सहिणु तुह केरउ
हरि रहे चडिउ तुरंतु महिहर - सिहरे स - चाउ
[१३]
कोक्कइ गिरि-गोवद्वण धारउ थिउ णारायण - वेसें वालउ
...
मइ वेयारहि थाएवि मायहि मंछुडु दुक्कु को -वि मायावि
वि वि धरहो पयतें उक्खय-पहरणु वाहिय-वाहणु ताव लच्छि - लंखिय-वच्छत्थलु
धत्ता
थिउ णहयले भड - कडमद्दणु । एहु माए तुहारउ णंदणु ॥
[ १४ ]
कंठु देइ णीसारु ण वायहे वाले यि वालत्तणु णिम्मिउ तक्खणे णव - जुवाणु मयरद्धउ जायव - गयहं भितर केसरि णाई कयंते पेसिङ दूयउ णिच्चलु मोहेवि थंभेवि मेल्लिउ दुद्दम - दाणव- देह - विमद्दहो रणउ केण - विकिउ विवरेरड
घत्ता
सारंग - वित्थउ धावइ । गज्जंतु महा- घणु णावइ ॥
९१
४
.
९.
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हरिहंसपुराणु
[१५] दुहम-दारुण-दणु-तणु-धायण विण्णि-वि भिडिय मयण-णारायण विग्णि-वि णं जमहाहिव-अंधय विग्णि-वि मयरकेउ-गरुडद्धय विण्णि-वि सुरवर-णयणाणंदण विण्णि-वि रुप्पिणि-देवइ-णंदण विण्णि-वि समर-सएहि समत्था कोसुम-धणु-सारंग-विहत्था विष्णि-वि णहयल-पहियल-गामिय मेहकूड-दारावइ-सामिव विहिं एक्कु-वि ण एक्कु ओवग्गइ विहिं एक्कहो-वि ण पहरणु लग्गइ अंतरे ताम परिठिउ णारउ एहु णारायण पुत्तु तुहारउ जो वालत्तणे असुरे हरियउ एउ भणेवि महियले ओयरियउ
पत्ता ... तक्खणे महुमहणेण परिहरेवि घोरु समरंगणु ।
णिन्भर-णेह-वसेण सई-भुवेहि दिण्णु आलिंगणु ॥
८
इय रिहणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएव-कए । पज्जुण्ण-मिलण-वण्णणो णाम वारहमो सग्गो ।
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तेरहमो संधि
पुरे पइसारियल परिणाविउ बालउ । कुरुवइ-णर-सुवउ उवही-रिण-मालउ ॥१॥
[१] णारायण-णयण-मणोहिराम पच्चारिय रुपए सच्चहाम कहिं गम्मइ वहिणि ण मुवमि अज्जु भदावमि सिरु किर कवणु चोज्जु रक्खउ तुह केरउ सामिसालु महुसूयणु अहवइ कामपाल अह संभरु भाणुकुमार पुत्त भदावणु दरिसावमि णिरुत्त तं वयणु सुणेपिणु भणइ भाम पय-भंगुप्पाइय-तिबिह-णाम णिय-गंदण-गव्विणि जइ-वि जाय कहे किह तुह मुहे णीसरिय वाय जो मुठ गउ कालंतरेण खनु आवाए जे कहिं पई पुत्तु लनु. वेयारिय आएं तावसेण महु मग्झे वेढिय तामसेण
घत्ता सच्चउ चिरु गयउ कहिं दीसइ गंदणु । भामए भामियउ भमि भमइ जणहणु ॥
. [२] परिचितेवि णरसुर-घायणेण सुर-रिसि णारउ पारायणेण स-विणय-गुण-बयणेहिं एम वुत्तु पई जाणिउ किह महु तणउ पुत्तु सउकेय(१) विसत्थ जणाहिराय पत्तियइ ण केम-वि सच्चहाम तं णिसुणेवि पभणइ अविदचारु(१) जहिं काले गवेसिट मई कुमार तहिं काले पुंडरिंगिणि पइडु सीमंधर-सामिउ गपि दिदछु तहिं पउमरहेण रहंगिएण विकम-सिरि-रामालिंगिएण
४
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९४
पण वेष्पिणु परम - जिणिदु वृत्त गणगण-गामि गुण-समिद्धु
दारावइ - पुरिहिं
दइव वसेण तो
णिसुतहो महु परमेसरेण घण- घण्ण-सुवण्ण-जण - पगामे दुब्वाएं अविरल - पाउसेण उप्पण्ण मरेपिणु तहिं जे गामे पहिला णामें अग्गिभूइ वहतंड करेवि सहुं मुनिवरे हिं सल्लेहणेण सुर- लोउ पत साकेय - पुरिहिं पुणु इन्भ जाय
पुणभद्द समरे माणिभद्दु अबरु
गय सग्गहो सल्लेहणु करेवि गरे उप्पण्ण णरिंद-पुत महुड में अतुल - गठब वडर - परमेसरु वीरसेणु चंदाभ-णाम तो तणिय भज्ज पइ तावसु तहे विरहेण जाउ महु - केद्रवहु कालंतरेण बाबी सोहि सम वसेवि तेत्थु
कि कीडउ णं णरु पहु णिरुचु पारायण - णारउ इहु पसिद्धु
घन्त्ता
चक्कवइ जणद्दण्णु । विच्छोइड णंदणु ॥
[३]
चक्कव इहे अक्खड जिणवरेण
हरिवंसपुराणु
वे जंवुव होता सालि-गामे संतेण विमुक्क महाउसेण सोमगिल-मणि- मिहुण-धामे अणु-संभउ वीयर वाउभूइ जिण-धम्मु लइज्जइ दियवरेहिं तहि षसेवि पंच- पल्लई नियन्त
सावय-वय-संजय वे - वि भाय
घन्त्ता
अणियच्छिय- पच्छलु ।
जिण - सासण- वच्छलु ॥
[४]
विहि उबहि- पमाणेहिं ओयरेवि रिसि-गण-गुण- गणणा गुणिय-सुन्त किय-वस-विहेय सामंत सब्व विच्छोइड करिणिहे जिह करेणु महुराएं हिय परिहरेवि लज्ज सो धूमकेउ ओयरिवि आउ गय सग्गु पसणे जिणवरेण इहु मयणु हू रुप्पिनिहे एत्यु
-
८
८
४
८
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तेरहमो संधि
घत्ता
पुव्व-विरुद्ध एण असुरेण विओइउ । को तहो खउ करइ जो दइवें जोइउ ।।
खयरेण तक्खसिल-सिहरे मुक्कु विज्जाहरु संवरु ताम दुक्कु णिय-कंतहे तेण कुमारु दिण्णु परिपालिउ जा जोव्वणु पवण्णु वणिज्जइ काई अणंगु तेत्थु णिक्खोहु भरिउ सोहग्गु जेत्थु णिय-मायरि णयण-सरेहिं विद्ध अवणिय पाविणि पाव-रिख णह-मुहेहिं वियारिय सिहिण वे-वि णं थिय घुसिणंकिय कलस वे-वि णरवइ विरुद्ध धल्लिउ कुमार पावंतु लंभ मयणावयारु गउ वउल-वावि तहिं भायरेहिं सिल-उप्परि दिज्जइ कायरेहिं किउ संवरेण सहुं संपहार कलि फेडिवि आणिउ मई कुमार ८
, घचा सग्गहो ओयरेवि अवरु-वि आबेसइ । संव-कुमारु सुर जंववइहे होसइ ।
[६] रिसि-वयणेहि णिच्छय(१)-पुत्त-काम विण्णवइ णवेप्पिणु सच्चहाम तं त्यसल-वासउ देहि देव उप्पन्जई सो महु पुत्तु जेवं पडिवण्णु असेसु जणदणेण परियाणिउ रुप्पिणि-णंदणेण जंववाहे दिज्जइ णियय मुह जिह सच्च ण ढुक्कइ कहि-मि खुद्द ४ ठिय ताहे जे केरठ वेसु लेवि पइसरिय महुमह-भवणु देवि सुविणाबलि-दसण-दोहलेहि उप्पण्णु महंतेहिं सोहलेहि जय-गंब-बद्ध-वद्धावणेहि णच्चंतेहिं खुज्जय-वामणेहिं
घत्ता
संवु समिद्धि-गउ मयरद्धय-छंदे । वड्ढइ उवहि जिह वड्ढ़ते चंदे ॥
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हरिवंसपुराणु
४ ।
तो मयर-महद्धय-मायरिए णारायण-गयण-मणोहरिए पट्टविउ दूउ ‘णिय-भायरासु कुंडिणपुरवर-परमेसरासु वश्यब्भी-माहवि-पढम-दुहिय छण-छुद्धहीर-छवि छाय-मुहिय दिज्जउ महु पुराहो वम्महासु तो तेण स-मच्छरु करेवि हासु दुम्मुहेण दु-वयणेहिं दूउ वुत्तु कहो तणिय भइणि कहो तणउ पुत्तु अवगण्णिय भायर-जणण जाए को संववहारु समाणु ताए परि दिण्ण कण्ण चंडाल-लोए ण-वि घत्तिय रुप्पिणि-डिणि-तोए जं जंपिउ जेम वलुद्धरेण तं अक्खिउ दूवेणिठुरेण परमेसरि थिय विच्छाय-वयण मायंग होवि गय संव-मयण
घत्ता वुच्चइ वम्महेण कुल-जाइ-विसुद्धी। णरवइ तुम्ह सुय चंडाले पइद्धी ॥
[८] चक्कवइहे घरे उच्छलिय वत्त जिह तुह सुय डोवहं पुव्व-दत्त जइ वरु चंडालु-वि दइवें दिदछु तो महु पासिउ जगे को विसिट्छु पडु पंडिउ गायणु पुरिस-रयणु सोहग्गे पुणु पच्चक्खु मयणु तं णिसुणेवि कुविउ वियम्भ-राउ वरु महु घरु सीलु वहंतु आउ हक्कारह तलवरु तूरु छिबहो जीवंतु-वि लहु सूलियहिं धिवहो णिहुवारउ मंति चवंति एवं सुहुं अप्पणु चरिएहि पत्तु देव को आयहं दोसु अणाउलाह वेयायउ होति ण राउलाई णारायण-गायण सावलेव मारणहूं ण जंति णिरिक जेवं आएं समाणु कि विग्गहेण जे थिय चक्कवइ-परिग्गहेण
४
घता
चाडु-सयई करेवि आवासु विसज्जिय । वाहिरे णीसरेवि णं णव-धण गज्जिय ॥
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४
तेरहमो संधि
. [९] तो जण-मण-णयवाणंदणेण वुच्चइ जंववइहे गंदणेण हउं आयउ तुम्हहं कुल-कयंतु को चुक्कइ एवहिं महु जियंतु मयरद्धउ पेसिउ जाहि देव तिह करे करे लग्गइ कण्ण जेवं गउ वम्महु संवुकुमार थक्कु उप्पाइउ माया-वलु सु-सक्कु चंडाल-लोउ पुरवरे ण माइ । जुय-खए उत्थल्लु समुदु णाई अहि-विच्छिय-मंडल-कइ-तुरंग अरिअल्ल-रिच्छ-केसरि-मयंग खग-खर-दर-मूसय अणंत धाइय स-उवव विहवंत
घत्ता पत्तिउ हरि-सुएण पन्मुक्कउ पट्टणे । कूर-महग्गहेण णावइ गह-घट्टणे ॥
[१०] रह जोत्तहो पल्लाणहों तुरंग पहरणई लेहो सज्जहो मयंग सारहि सारत्थई रएवि आय रह पुणु हय-पप्पड-पिट्ठ जाय महमत्त पत्त जंत एवं गय गयवर-साल मुएवि देव मंदुरिय विसूरिय मंदुरेहिं गल-खोडिउ खद्धउ उंदुरेहिं पल्लाण गसियइ तुट्ट बंध कहिं अहिणव तुरयाउत्तेण लद्ध अण्णेत्तहे भिच्च चवंति एवं अहि-विच्छिय णहहो पडंति देव अण्णेत्तहे होमारंभणेहिं आवंभणि घोसिय वंभणेहिं चंडालीहूवउ पुरु असेसु कहिं णिवसहुँ णिक्किउ को पएसु कंदिउ सेट्टिहिं विहडप्पडेहिं डिकरुयइ खद्धई मकडेहिं
घत्ता किउ हल्लोहलउं पुरे संवु-कुमारे। मारिय राय-सुय कह-कह-वि कु-मारे॥
हपु-७
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९८
हरिवंसपुराणु
[११] सवियारई कामुक्कोवणाई रूपेण णिरुद्धई लोयणाई गेएण वसीकय कण्ण दो-बि थिउ हियवउ हिय-सामण्णु होवि "स-वि पुच्छिय कलयलु काई माए विष्णविय णवेप्पिणु सुयणु गाए
एहु गायणु जो चंडालु आउ तहो उप्परि कुषिय वियम्भ-राउ विहसेटिपणु वुचइ वालियाए मई लइउ सयवर-मालियाए कहे तणउ वप्प कहे तणिय माय महु आयहो उप्परि इच्छ जारा जो हुउ सो हुउ कुलेण काई तहिं हियउं जाइ जहिं लोयणाई त्रिणिवारहो कि कोलाहलेण किउ पाणिग्गहणु सुमंगलेण
घत्ता जाएवि लग्ग करे गलगज्जिउ वाले। रक्खहो राय-सुय मई णिय चंडाले ॥
।१२] जइ सकहो तो रक्खहो वलेण णिय वहु मई डोंवें विट्ठलेण पण्णत्ति-पहावे भुय-पलंवु पज्जुण्ण-कुमारहो मिटिड संवु तहिं काले कलह-विणिवारएण जाणाविउ रुप्पिद णारएण एहु रुणिणि-गंदणु कामएउ तुम्हहं जि सहोयरु भाइणेउ थोवंतरि जायव तहिं जे आय अवरोप्परु खेमाखेमि जाय -मेल्लेप्पिणु सम्वेहि किउ विवाहु परिओसिउ हलहरु पउमणाहु
रुपिणि णारायण-चित्त-चोरि जंववइ-पउम-गंधारि-गोरि -वसुएउ समुद्दविजउ स-णेमि जो होसइ सव्वहो जगहो सामि ८
घत्ता जं जे दिण्णु फलु तं जइ-वि ण मग्गइ । दइवे पेरियउ सई भुपहिं जे लग्गइ ।
इय रिटणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएव-कए ।
जात्यवकंडं समत्तं ॥
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