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________________ [43] [३] धुक्कडियई गेहंगणि भमेइ उज्जोउ णाई सम्बहं करेइ पुणु लग्गिवि उम्भउ ठाइ खणु आखुडइ पडइ गइ दितु पुणु धावइ जसोय बलि वलि भणंति सिरु चुंविवि णेहवसें हसंति जिम जिम वालउ विद्धिहिं जाइ अविलग्गिवि पर एक्केकु देइ उच्छंगि जसोयहि पुणु चडेइ मंथाणउ दिदु विहु करहिं लेइ कडूढेविणु लोणि खाइ पुणु जसोय रडइ णवि ठोइ खणु ढालइ मंथणि महियहि भरिय तहिं खेल्लइ दरिसइ बहु चरिय वोल्लंतउ फुल्लवयणु पियइ कोडे वुल्लावइ जो णियइ खणि रोवइ हसइ पडइ धाइ पुणु धूलिहि तणु मंडेवि ठाइ घत्ता गोठ-असेसह मंडणउं खिल्लावणउं सुछ सुहावट गंदहु णंदणु । मच्छरई वड्ढइ वरियहं रह बंधवह जिम जिम विद्धिहि जणदणु ॥ 'कई लक्षणों, गुर्गो और पुण्यों से युक्त यह शिशु जैसे-जैसे वृद्धि पाता गया बसे-वैसे वह अतीव सुन्दर होता गया । गोपियाँ उसके अंगों को अमृतदृष्टि से सिंचित करती थी। जिस किसी सुन्दर तरुणी के दृष्टि'पथ में कृष्ण आता था वह किसी मिष से उसका मुख निहार लेती थीं और गोद में लेकर उसका मुंह अपने स्तन से लगाती थीं। कानों में कुण्डल, हाथों में कडे, गले में कंठला, पाचों में ठनकते धुंघरू, कटि पर मेखलाइनसे सुहाता शिशु सभो के मन को मोहित करता था । उसको बैठना सीखते हुए देखकर मन्द यशोदा की तुष्टि की कोई सीमा न रही । अपने हाथों में से और गोद में से उसको रत्नसुवर्ण की निधि के नाई वे क्षण भर भी अलग नहीं करते थे। 'घटने के बल घूमता वह घर के अंगना को उजियारा करने लगा। सट कर कुछ देर वह खडा रहता और कदम उठाते ही लड़खड़ाता और फिर लुढक जाता । 'लौट के आ, लौट के आ' कहती और हंसती हुई यशोदो दौड़कर उसको उठा लेती थी और उसका मस्तक चूमती थी। कुछ बडा होने पर कृष्ण बिना किसी आधार एक-एक कर कदम उठाने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001426
Book TitleRitthnemichariyam Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorRamnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages144
LanguagePrakrit, Apabhransh
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size7 MB
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