________________
[44]
वह कभी यशोदा की गोद में चढ़ बैठता था । कभी दोनों हाथों से मथानी कसकर पकड रखता था। कभी मक्खन उठा कर खा जाता था और यशोदा के चिल्लाने पर भी रुका न रहता था। दहीं से भरी मटकी ढरकाता था। ऐसे वह तरह-तरह की क्रीडाएं करता था । गाल फुला कर बोलता हुआ वह बहुत प्रिय लगता था। जो कोई उसको देखता था वह कौतुकवश उसको बिना बुलाए रह नहीं सकता था । पल में वह हसतो था तो पल में रोता था। पल में गिर पडता था तो पल में दौडता था ! किसी समय शरीर में धूल पोतता था। सारे गोष्ठ का मण्डन और खिलौना, अतीव सुहावना नन्दनन्दन जैसे-जैसे वृद्धि पाता गया वैसे-वैसे शत्रुओं के असुख की और बान्धवों की प्रीति की वृद्धि होती गई।
८. उपसंहार
लमभग आठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दो तक के अपभ्रंश साहित्य के कृष्णकाब्य को इस झलक से प्रतीत होगा कि उस साहिप्य में कृष्णचरित्र के निरूपण की (और विशेष रूप से बालचरित्र के निरूपण की) एक पुष्ट परम्परा स्थापित हुई थी । भावलेखन एवं वर्णनशैली की दृष्टि से उसकी गुणवत्ता का स्तर ऊंचा था । कृप्णकाव्य के कवियों की सुदीर्घ
और विविधभाषी परम्परा में स्वयम्भू और पुष्पदन्त निःसन्देह गौरवयुक्त स्थान के अधिकारी है और इस विषय में बाद में सूरदास आदि जो सिद्धिशिखर पर पहुंचे उसकी समुचित पूर्वभूमिका तैयार करने का बहुत कुछ श्रेय अपभ्रंश कबियों को देना होगा । भारतीय साहित्य में कृष्णकाव्य की दीप्तिमान परम्परा में एक ओर है संस्कृत-प्राकृत का कृष्णकाव्य और दूसरी और भाषासाहित्य का कृष्णकाव्य । इन दोनों के बीच की शृंखलारूप अपभ्रंश का कृष्णकाव्य निजी वैशिष्ट्व एवं व्यक्तित्व से सम्पन्न है इतना तो इस संक्षिप्त एवं शीघ्र सर्वेक्षण से भी अवश्य ही प्रतीत होगो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org