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हरिवंशपुराणु
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तं णिसुणेवि मण्णु समावडियणं मत्थए वज्जासणि पडिय गय णिय-घरु उम्मण-दुम्मणिय गग्गर-सर मउलिय-लोयणिय णं कमलिणि हिम-पवणे हइय णं वणवइ वणमइ वणमइय तो कसें अमरिस-कुद्धएण सोहेण व आमिस-लुड एण कालेण व-कोवाउप्णएण विसहरेण पउर-विस-विण्णएण जलणेण व जाला-भीसणेण . मेहेण-व पसरिय-णीसणेण अक्केण व मीण-कण्णा-गएण . पुच्छिय पउमावइ अंगएण परमेसरि दुम्मण काई तुहुँ विद्वाणउं दीसइ जेण मुहु
पत्ता कहि कहि सीमंतिणि : कवणु णियविणि खेड जेण उप्याइयछ । सो सणि-अवलोइउ काले चोइड कहिं महु जाइ अ- [इयउ ।। ९.
कालिदिसेण जरसंध-सुय जो अज्जु णाह किउ सोहलउ णं मत्थए जलणु जलंतु थिउ वसुदेवहो दइयहे देवइहे तहो पासेउ तुम्हहुं विहि-मरणु तो महुर णराहिउ डोल्ल्यिउ थिउ णाई धराधरु दड्ढत्तणु अच्चंतु-महंतुप्पण्णु भउं
[८] पभणइ सुसियाणण सुढिय-भुय
ते महु उप्पाइउ कलमलउ अइमुत्तएण आएसु कित जो गंदणु होसइ खल-मइहे. ४. । महु वप्पहो को-वि जाहि सरणु गं हियवए सूले सल्लियउ अपमाणीहोइ ण रिसि-वयणु णिविसें वसुएवहो पासु गउ ८
घत्ता
जइ तुम्ह गुरुत्तणु महु सासत्तणु एहु परमत्थु समस्थियन । तो एत्तिउ किन्जउ वरि वरु दिज्जउ सत्त-वार अभित्थियउ ॥ ९:
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