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________________ [34] रंगस्थल उनकी देहप्रभा से कृष्णवर्ण एवं पांडुरवर्ण हो जाता था । अपराजित और जराकुमार के युद्ध के वर्णन में एक उद्भट उत्प्रेक्षा दो गई है विधतेहिं तेहिं बाण-णिरंतर गयणु किउ । स-भुवंगमु सव्वु उप्परे गं पायालु थिउ । (रिट०, ७-७, घत्ता) 'अन्योन्य को बींधते हुए उनके बाणों से गगन निरन्तर छा गया । तब लगता था कि सर्पसहित सारा पाताल ऊंचे उठकर स्थगित हो गया।' द्वारिका निर्माण के लिए भूमिप्रदान करता हुआ समुद्र पीछे हट जाता है यह बात भी एक सुन्दर उत्प्रेक्षा से प्रस्तुत की गई है लइय लच्छि कोत्थुहु उहालिउ एवहिं काई करेसइ आलिउ । एण भएण जलोह-रउद्दे दिण्ण थत्ति णं हरिहे समुह ॥ (रिट्ट०, ८-८, आदि घत्ता) __ 'पहले उन्होंने मुझसे कौस्तुभमणि झपट लिया था फिर वे लक्ष्मी ले गए । अब न मालूम और कौनसी शरारत करेंगे-मानों इस भय से समुद्र ने हरि को जगह दे दी।' क्वचित् कहावतों और सदुक्तियों का भी समुचित उपयोग मिलता है जैसे कि जं जेहउ दिण्णउ आसि तं तेहउ समावडइ । कि वइयए कोद्दव-धण्णे सालि-कणिसु फले णिव्वडइ ।। (रिट०, ६-१४, पत्ता) 'जैसा देते वैसा पाते । क्या कोदों बोने से कभी धान नीपजेगा?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001426
Book TitleRitthnemichariyam Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorRamnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages144
LanguagePrakrit, Apabhransh
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size7 MB
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