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________________ [33] ऐसे ही पृथ्वी छन्द का विशिष्ट प्रयोग ६-१८ में किया गया है । किसी एक निरूप्य विषय सम्बन्धित दीर्घ वर्णनखण्डों की रमणीय रचना के अतिरिक्त स्वयम्भू को और एक विशेषता भी इष्टव्य है । कडवक में निबद्ध किए गए भाव की पराकाष्ठा जहां पर अन्त्यस्थानीय घत्ता में सधती हैं वहां पराकाष्ठा कोई तीक्ष्ण उपमा, उत्प्रेक्षा या रूपक जैसे अलंकार से अभिव्यंजित की गई है। कडवक का समापन एक रमणीय बिम्ब से होता है जो चित्त को एक स्मरणीय मुद्रा से अङ्कित कर देता है। ऐसे पराकाष्ठाद्योतक बिम्बों में स्वयम्भू की मौलिक कल्पनाशक्ति के अभिनव उड्डयन एवं धृष्ट विलास के दर्शन हम पाते हैं और उनको सूक्ष्म दृष्टि से हम कई बार प्रभावित हो जाते हैं। कुछ उदाहरण देखिए । यह है पूतना के विषलिप्त स्तन को दो हाथों से पकड कर अपने मुंह से लगाते हुए बालकृष्ण : सो थणु दुद्ध-धार-धवलु हरि-उहय-करंतरे माइयउ । पहिलारउ असुराहयणे णं पंचजण्णु मुहे लाइयउ ।। (रिट्ठ०, ५-४, घत्ता) 'पूतना का दुग्धधारा से धवल स्तन हरि के दोनों करों में ऐसा भाता था जैसा असुरसंहार के लिए पहले-पहले मुंह से लगाया हुआ पाञ्चजन्य ।' __छठवें संधि के सातवें कडवक की घत्ता में धोबी से लूट लिए गए वस्त्रों में से बलदेव श्याम वस्त्र एवं कृष्ण कनकवर्ण वस्त्र जो खींच लेते हैं वह घटना कंस के काला और पीला पित्त खींच लेने की बात से उत्प्रेक्षित की गई है। वैसे ही दासी से विलेपनदुव्य छीन लेने की और उसको ग्वालों में बांट देने की उत्प्रेक्षा से वणित की गई है। अखाडे में इधर उधर घूमते हुए कृष्ण बलदेव का प्रेक्षकों पर जो प्रभाव छा गया उसका वर्णन हृय है : जहाँ-जहाँ बलिष्ठ कृष्ण एवं बलदेव घूमते थे वह प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001426
Book TitleRitthnemichariyam Part 1
Original Sutra AuthorSwayambhudev
AuthorRamnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages144
LanguagePrakrit, Apabhransh
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size7 MB
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