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[32] देखिये
दप्पुधुर दुद्धर एत्तहे वि उठ्ठिय मुट्टिय-चाणूर वे-वि णं णिगय दिग्गय गिल्ल-गंड णं सासहु कंसहु बाहु-दंड अल्फोडिउ सरहसु सावलेउ रणु मग्गिउ वग्गिउ ण किउ खेउ जस-तण्हहो कण्हहो एक्कु मुक्कु उद्दामहो रामहो अवरु दुक्कु सुभयंकरढ-ढउकर-कत्तरीहि णीसरणेहिं करणेहिं भामरीहिं कर-छोहेहिं गाहेहिं पीडणेहिं अण्णणेहि अवरेहि कीडणेहि ......इत्यादि ।
'इतने में दर्पोद्भुर एवं दुर्धर चाणूर और मुष्टिक दोनों उठ कर खडे हुए । मदमस्त गजों की तरह वे सामने आ गये। मानों आशान्वित कंस के बाहुदण्ड । हर्ष आर दर्प से आस्फोटन करते हुए उन्होंने छलांग मार कर युद्ध की सत्वर मांग की । यश को तृष्णा वाले कृष्ण के प्रति एक को छोडा गया आर उद्दाम बलराम के पास दूसरा पहुंच गया। भयंकर 'ढोकर', 'कर्तरी', 'निःसरण' आदि करणों के प्रयोग करते हुए, भँवरी घूमते हुए, वे मुक्केबाजी, पकडना, पीसना आदि अनेक मल्लकीडाएँ करते थे ।
९-१४ में गणवृत्त पृथ्वी का विशिष्ट प्रयोग मिलता है। प्रत्येक पंक्ति आठ और नव अक्षरों के भागों में विभक्त की गई है और ये दो खण्ड यमक से बद्ध किए गए है। छन्दोलय की दृष्टि से परिणाम सुन्दर आया है । देखिए
कयं णवर संजुयं सिय-सरासणी-संजुयं खर-प्पहर-दारुणं णव-पवाल-कंदारुणं समुच्छलिय-सोहियं सुरविलासिणी-लोहिये पणच्चविय-रुंडयं भमिय-भूरि-भेरुंडयं इत्यादि
'उसके पश्चात् युद्ध प्रवृत्त हुआ जिसमें तीक्ष्ण धनुष्य प्रयुक्त होते थे, कठोर प्रहारों के कारण जो दारुण था, जिसमें नवविकसित कमल जैसा लाल लह उछलता था, जो अप्सराओं को आकर्षित करता था, जिसमें कबंध नाचते थे, और अनेक भेरुंड पंछी घूमते थे...'
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