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आदि पुत्र हुए और सुवीर के भोजकवृष्णि आदि । अन्धकवृष्णि के दस पुत्र हुए । उनमें सबसे बडा समुद्रविजय और सबसे छोटा वसुदेव था । ये सब दशाई नाम में ख्यात हुए । कुन्ती और मद्री ये दो अन्धकवृष्णि की पुत्रियां थों । भोजकवृष्णि के उग्रसेन आदि पुत्र थे। क्रम से शौर्य पुर के 'सिंहासन पर समुद्र विजय और मथुरा के सिंहासन पर उग्रसेन आरूढ हुए।
अतिशय सौन्दर्य युक्त वसुदेव से मन्त्रमुग्ध होकर नगर की खियां अपने 'घरबार को उपेक्षा करने लगी । नागरिको को शिकायत से समुद्रविजय ने युक्तिपूर्वक वसुदेव के घर से बाहर निकलने पर नियन्त्रण लगा दिया। वसुदेव को एक दिन अकस्मात् इसका पता लग गया। उसने प्रच्छन्न रूप से नगर छोड दिया । जाते-जाते उसने लोगों में ऐसी बात फैलाई कि वसुदेव ने तो अग्निप्रवेश करके आत्महत्या कर ली। बाद में वह कई देशों में भ्रमण करके और बहुत सो मानव कन्याएं एवं विद्याघरकन्याएं प्राप्त कर एक सौ वर्ष के बाद अरिष्टपुर की राजकुमारी रोहिणी के स्वयंवर में आ पहुंचा । रोहिणी ने उसका वरण किया। वहां आये समुदविजय आदि बन्धुओं के साथ उसका पुनमिलन हुआ । वसुदेव को रोहिणी से राम नामक पुत्र हुआ। कुछ समय के बाद वह शोयपुर में वापिस आ गया और वहाँ धनुर्वेद का आचार्य बनकर रहा । मगधराज जरासंध ने घोषणा कर दी कि जो सिंहपुर के राजा सिंहस्थ को जीते पकड के उसे सौंपेगा उसको अपनी कुमारी जीवद्यशा एवं मनपसन्द एक नगर दिया जाएगा। वसुदेव ने यह कार्य उठा लिया । संग्राम में सिंहरथ को वसुदेव के कंस नामक एक प्रिय शिष्य ने पकड़ लिया। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार जीवधशा देने के पहले 'जरासंध ने जब अज्ञातकुल कंस के कुल की जांच की तब ज्ञात हुआ कि वह उग्रसेन का ही पुत्र था। जब वह गर्भ में था तब उसकी जननी को प्रतिमांस खाने का दोहद हुआ था। पुत्र कहीं पितृघातक होगा इस भय से जननी ने जन्मते हो पुत्र को एक कांसे की पेटी में रखकर यमुना में बहा दिया था। एक कलालिन ने पेटी में से बालक को निकाल कर अपने 'पास रख लिया था । कंस नामक यह बालक जब बड़ा हुआ तब उसकी उम्र कलहप्रियता के कारण कलालिन ने उसको घर से निकाल दिया था। तब से वह धनुर्वेद को शिक्षा प्राप्त करता हुआ वसुदेव के पास ही रहता था और उसका बहुत पोतिपात्र बन गया था। इसी समय कंस ने भी पहली बार अपना सही वृत्तान्त जाना । तो उसने पिता से अपने बैर का
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