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चलत्थो संधि गोटुंगणे अणुदिणु णाई छणु महुरहिं संतत्तर सयलु जणु गोगणे मंडव-संकुलई महुरहिं दीसंति अमरालइ गोठेंगणे खीरई वढियई महुरहिं मन्जइ-मि ण संधियई गोट्ठगणे गोविउ सूहवउ महुरहिं वेसाउ-वि दुहवउ गोगणे गोवाल-वि कुसल महुरहिं वणिउत्त णाई वियल गोट्ठगणे जोक्खी का-वि किय महरहिं गय उड्डेवि णाई. सिय ८ खोल्ल्डइ-मि गोठे मणोहरई महुरहिं रोवंति णाई घरई
घत्ता महुराउरि सुवण्णी जाय अउण्णी जंण पयट्रइका-वि किय । धण-कणय-सउण्णउं गोड्छु रवण्णउं जहिं णारायणु तहिं जि सिय ॥९:
[१४] दणु-महणु णंदणु कण्हु जहिं वणिज्जइ गोउलु काई तहिं हरि वद्धइ केण-वि कारणेण वामयरंगुट्ठ-रसायणेण वालत्तणे वाल-कील करइ जो ढुक्कइ सो गहु ओसरइ गब्मये घाइय अह गह जाएणः दिण-ग्गह दस दुसह ४ मास-गह बारह ते-वि जिय वरिस-गह तेरह खयहो णिय णारायणु चत्तु णिसायरेहिं दुत्थेहिं गुरु-चंद-दिवायरेहिं घडु वायइ घंटारउ करह कक्कंधु-णिव-साहउ धुणइ दिणे सोबइ जग्गइ जामिणिहि म होसइ भउ गोसामिणिहि
पत्ता णिसि-समए जणदणु असुर-विमहणु रण-वस-रहसूसुएहि । परिवज्जिय-सीयहो रक्ख जसोयहो उठुइ देइ सयं भुएहिं ॥ ९
इय रिटुणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएव-कए । हरि-कुल-वंसुपत्ती णामेण चउत्थो सग्गो ॥४॥
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