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अन्य छोटी रचनाओं में तो रड्डा का प्रचलन पंद्रह-सोलह शताब्दी तक रहा । "
५. स्वयम्भू
स्वयम्भू ने 'रिट्ठमिचरिउ ' में कृष्णचरित्र के लिये कुछ अंशो में जिनसेन वाले कथानक का तथा अन्यत्र वैदिक परम्परा वाले कथानक का अनुसरण किया है । '
कृष्णजन्म का प्रसंग स्वयम्भू ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है । (सन्धि
४, कडक १२ ) :
भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन स्वजनों के अभिमान को प्रज्वलित करते हुए असुरविमर्दन जनार्दन का ( मानो कंस के मस्तकशूल का ) जन्म हुआ । जो सौ सिंहों के पराक्रम से युक्त और अतुलबल थे, जिनका वक्षःस्थल श्रीवत्स से लाञ्छित था, जो शुभ लक्षणों से अलंकृत एवं एक सौ साठ नामों से युक्त थे और जो अपनी देह प्रभा से आवास को उज्ज्वल करते थे उन मधुमथन को वासुदेव ने उठाया । बलदेव ने ऊपर छत्र रखते हुए उनकी बरसात से रक्षा की । नारायण के चरणाङ्गुष्ठ की टक्कर से प्रतोली
१. सिद्धम ८-४-३९१ इस प्रकार है :
इच ब्रोपि सउणि ठिठ पुणु दूसासणु ब्रोपि । तो हउं जाउं एहो हरि जइ मूहु अगर ब्रोपि ॥
' इतना कहकर शकुनि रह गया और बाद में दुःशासन ने यह कहा कि मेरे सामने आकर जब बोले तब मैं जानूं कि यही हरि है ।
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इसमें अर्थ कि कुछ अस्पष्टता होते हुए भी इतनी बात स्पष्ट है कि प्रसंग कृष्णविष्ट का हूँ। यह पद्य मी शायद गोविन्द की वैसी अन्य कोई महाभारतविषयक रचना में से लिया गया है ।
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१. मल्लवेश में मथुरा पहुंचने पर मार्ग में कृष्ण धोबी को लूट लेते हैं और संरन्ध्री से विलेपन बलजोरी से लेकर गोपसखाओं में बांट देते है ये दो प्रसंग हिन्दू परम्परा को ही कृष्णकथा में प्राप्त होते हैं और ये स्वयम्भू में भी हैं ।
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