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किन्नरीरूपी स्तनाग्र दिखला रही है। विभ्रमों से संशयित कर रही है। सर्पमणि को किरणों से उद्योत कर रही है। कमलनयन से कृष्ण को मानो निहार रही है। वह कमलपत्र के थाल में जल-कण के अक्षत उछाल रही है। कलकल शब्द करती मंगल गा रही है। मानों कृष्ण के पक्ष की पुष्टि कर रही है। यमुना सचमुच सवर्ण पर प्रसन्न होती है, जैसों तैसों पर नहीं । फलरूप उसका जल दो विभागों में बंट गया, मानों धरारूपी नारी ने काजर लगाया । क्या हम समझें कि अपने प्रियतम पर अनुरक्त होकर उसने अपना निम्नप्रदेश प्रकट किया ! मधुमथन को देखकर नदी यमुना भी मदनव्याकुल हो उठी ।
अरिष्टासुर का संहार : दुछ अरिट्ठ-देउ विस-वेसें आइउ महुरावइ-आएसे 'सिंग-जुयल-संचालिय-गिरि-सिलु खर-खुरग्ग-उक्खय-धरणीयलु सरसि-वेल्लि-जाल-विलुलिय-गलु कम-णिवाय-कंपाविय-जल-थलु गजिय-रव-पूरिय-भुवण-तरु हर-वरवसह-णिवह-कय-भय-जरु ससहर-किरण-णियर-पंडुरयरु गुरु-केलास-सिहर-सोहाहरु किर झड णिविड देइ आवेप्पिणु ता कण्हे भुय-दंडे लेप्पिणु मोडिउ कंछ कड त्ति विसिंदहु को पडिमल्लु ति-जगि गोविंदहु
घत्ता
ओहामिय-धवलु हरि गोउलि धवलेहिं गिज्जइ । धवलाग वि धवलु कुल-धवलु केण ण थुणिज्जइ ।।
(महापुराण, ८५-१२-८ से १६)
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