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सत्तमो संधि
[४]
जं कालदमणु घरु आइयउ वलु हरि-वल-पहरण-जज्जरिउ णं गिरि-समूहु कुलिसाहयउ उप्पण्णु कोहु तं पस्थिवहो पट्ठवियई सव्वई साहणई गुरु-गंधवहुद्धय-धयवडई आऊरिय-जलयर-संघडई णिक्खोह-भरिय-संकड-पहइं
विदाणउ कह-व ण धाइयउ णं कणिउलु गरुड-धाय-भरिउ णं हरिण-जूहु हरि-भय-गयउ भारह-वरिसद्ध-णशहिवहो णोणाविह-वाहिय वाहणई अप्कालिय-तूर-रउक्कडई विहडप्फड-उभड-भड-थडई उम्मग्ग-लम्ग-हय-गय-रहई
घत्ता
जरसंधहो सेण्णु लंधेवि पायारु
सरहसु कहि-मि ण माइयउं । दिस-अवदिसहिं पधाइयउ ॥
एककोयरु भायरु णियय-समु आसण्ण-मरण-भय-वज्जियउ अवराइउ धाइउ अतुल-वलु एत्तहे-वि जणदणु सण्णहिउ - सच्चइ-सीराउह-परियरिउ उत्थरियई पसरिय-कलयलई पहरण-जज्जरिय-णहंगणइ उद्धाइय-धूली-धूसरई
दुद्वर-रण-भर-धुर-धरण-खमु सो णावइ करेवि विसज्जियउ णं मेहु गयणे मेल्लंतु जलु दस-दसार-जरकुमार-सहिउ । अवरेहि-मि भडेहि अलंकरिउ णारायण-जरसंधहुँ क्लई कोवग्गि-झुलुक्किय-सर-गणई रुहिरोहारुणिय-वसुंधरई
घत्ता
रउ णहे महि-बट्टे अकुलीणु जे उद्ध
रुहिरु ण जाणहो कवणु गुणु । होइ कुलीणु ते खलु-वि पुणु ॥
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