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जा ताव धीरेण सरलच्छि तण्हेण सुर-थुइण वित्थरिउ महिहरउ तम-जडिउं महि-विवरु फुकुवइ परिघुलइ तरुणाई तट्ठाई कायरइं पडियाई
थिर-भाव वीरेण जय-लच्छि कण्हेण भुय-जुइण उद्धरिउ दिहियरत पाडि फणि-णियरु विसु मुयइ चलवलइ हरिणाई पठाई वणयरई रडियाई चत्ताई चंडाल कंडाई परवसई जरियाई
चित्ताई
हिंसाल चंडाई तावसई दरियाई
घत्ता गोवद्धणयरेण गो-गोमिणि-भारु व जोइउ । गिरि गोवद्धणउ गोवद्धणेण उच्चाइउ ।
(महापुराण, ८६-१५-१० से १२, १६-१ से ३२) 'कुछ समय के पश्चात् आषाढ मास में बरसात आकर शोभा दे रहा । लोग हरित और पीत वर्ण का सुरधनु देखने लगे। मानों वह नभलक्ष्मी के पयोधर पर रहा हुआ उत्तरीय हो । पथिकों का हृदय-विदारक इस इन्द्रचाप को वे बार-बार देखने लगे। मानों वह घनहस्तो के प्रवेश के अवसर पर गगनगृह पर लगाया गया मंगल तोरण हो । जल झलझल नाद
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