________________
हरिवंसपुराण वइलोक-पियामह-आरिसेहि कि किज्जइ धुई अम्हारिसेहि तिहुयण मविज्जइ जइ विअसि र णिहइ तुह गुण-रयण-रासि भावण भव-णासण जगे पोसु भुइ तेण करतह कवणु दोसु
एम भणेवि दिवोकस-णाहे परम-भाव-सब्भाव-सणाहें । अचेवि पुज्जेवि तिवण-सार जणणिहे अग्गए थविउ भडारस ॥८
[१३] गठ सुरवइ मंदिरे थवेवि वालु परिषड्ढइ तिहुयण-सामिसालु चउगइ-संसार-समुह-सेउ अजरामर-पुर-पइसार-हेउ तइलोक-भुवण-भूसण-पईवु अभयामय-सिंचय-सयल-जीउ लायण्ण-वारि-पूरिय-दियंतु सोहग्ग-महोहि भव-कयंतु ४ को क्ण्णेवि सकइ रुवु तीसु सक्कु-वि संकिउ थुइ करेवि जासु दस-सय-मुहो वि धरणिंद-राउ थोचुग्गीरियागिरिवखुत्तु (१) जाउ गुण गणेवि ण सकिय सरसई-वि अ-समत्थु णिहालणे सुरवई-वि हरि-हलहर-कुल-रह-चक-मि किर नेण तेण किउ णामु णेमि ८
सो तइलोकहो मंगलगारउ इंदिय-चोर-गणहो आरूसेवि
सुर-गुरु पुण्ण-पवित्त भडारउ । थिउ हरि-वंसु सव्वु सई भूसेवि ॥ ९
या पिकाम यदि विश्वविद्यालयका
इय रिट्ठणेमि-चरिए धवलक्यासिय-सयंभुएव-कए । णामेण मि-जम्माहिसेय इय अदठमो सम्गो ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org