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[24] (कुछ अंश हेमचन्द्र वाले पाठ से लिया गया है। टिप्पणी में पाठान्तर दिए गए हैं):
एक्कमेक्कउ' जइ वि जोएदिर हरि सुट्ठ वि आअरेण तो वि देहि जहिं कहिं वि राही। को सक्कइ संवरेवि दड्ढ णयण हे ७ पलुट्टा ॥
(स्व०च्छ'०, ४-१०-२) 'एक-एक गोपा की ओर हरि यद्यपि पूरे आदर से देख रहे हैं तथापि उनकी दृष्टि वहीं जाती है जहाँ कहीं राधा होती है । स्नेह से झुके हुए नयनों का संवरण कौन कर सकता है भला' । इसी भाव से संलग्न 'सिद्धहेम' में उद्धृत दोहा इस प्रकार है :
हरि नच्चाविउ अंगणइ तिन्हइ पाडिउ लोउ ।
एवहिं राह-पओहरहं जं भावइ तं होउ ।। 'हरि को अपने घर के प्राङ्गण में नचा कर राधा ने लोगों को विस्मय में डाल दिया । अब तो राधा के पयोधरों का जो होना हो सो हो ।
हेमचन्द्र के 'त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित्र' में किया गया वर्णन इससे तुलनीय है गोपियों के गीत के साथ बालकृष्ण नृत्य करते थे और बलराम ताल बजाते थे।
'स्वयम्भूच्छन्द' में उद्धृत बहुरूपा मात्रा के उदाहरण में कृष्णविरह में तडपती हुई गोपी का वर्णन है । पद्य इस प्रकार है : .
देइ पाली थणहं पन्भारे तोडेप्पिणु लिणि-दलु हरि-विओअ-संतावें तत्ती । कलु अण्णुहिं पावियउ करउ दुइअ ज किंपि रुच्चइ ।।
__ (स्वच्छ०, ४-११-१) 'कृष्णवियोग के संताप से सप्त गोपी उन्नत स्तनप्रदेश पर नलिनीदल तोडकर रखती है । उस मुग्धा ने अपनी करनी का फल पाया । अब देव चाहे सो करे।
पाठान्तर--१. सव्व गोविउ । २. जोएइ । ३. सुट्ठ सव्वाअरेण । ४. देइ दिठि।
५ डड्ढ । ६. नयणा । ७. नेहि । ८. पलोट ।
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