Book Title: Kavyaprakashkhandan
Author(s): Siddhichandragani
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सि घी जैन ग्रन्थ मा ला *******************[ अन्यांक ४.]******* महोपाध्याय - खुशफहम् -सिद्धिचन्द्रगणि विरचित का व्य प्रकाशखण्ड न Aamm a ...... ...... ........ Trur RATALA SRI DALCHANDISINGHI FUTTTTTTT TE FFina 4 श्री दानधरजा सिंघी wwwwwwwwwwwwwine. SINGHIJAIN SERIES ********************[ NUMBER 40] ******************* KAVYAPRAKASA - KHANDANA (A Critique of some of tho Topics of Mammata's Kavyaprakas'al By MAHOPADHYAYA-KHUSHFAHAM SIDDHI CHANDRA GANI Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविक PREFACE विषयानुक्रम ABBREVIATIONS INTRODUCTION काव्यप्रकाशखण्डन- मूल प्रन्थ विशेषनामसूचि सूत्र - श्लोक - पद्यसूचि - 2-4 5 } 5 6-20 १-१०१ १०२ १०३-१०८ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविक महोपाध्याय सिद्धि चन्द्र ग णि विरचित, काव्य प्रकाश ख ण्ड न नामक प्रस्तुत ग्रन्थ सिंघी जैन ग्रन्थमाला के १० वें पुष्पके रूपमें प्रकाशित हो रहा है। संस्कृत साहित्यके अभ्यासियों में कामी र देश निवासी महाकवि मम्म ट का बनाया हुआ का व्य प्रकाश नामक, काव्यशास्त्रकी मीमांसाका प्रौढ ग्रन्थ, सुप्रसिद्ध है । संस्कृत साहित्यके प्रत्येक प्रौढ विद्यार्थीका यह एक प्रधान पाठ्य ग्रन्य है । विक्रमकी १२ वीं शताब्दीमें, सरखतीके धाम स्वरूप काश्मीर देशमें, इसकी रचना हुई और थोडे ही वर्षों में यह ग्रन्थ, भारतके सभी प्रसिद्ध विधाकेन्द्रोंमें, बड़ा आदरपात्र हो गया और सर्वत्र इसका पठन-पाठन शुरू हो गया। इस प्रन्यकी ऐसी हृदयंगमताका अनुभव कर, इस पर भिन्न भिन्न देशोंके भिन्न भिन्न विद्वानोंने, टीका-टिप्पणादिके रूपमें छोटी-बडी व्याख्याएं बनानी शुरू कर दी, जिनका प्रवाह बराबर आज तक चल रहा है । न जानें, आज तक कितने विद्वानोंने इस पर कितनी व्याख्याएं लिखी होंगी, और न जाने इनमेंसे कितनी ही लुप्त भी हो गई होंगी। महाराष्ट्रीय विद्वान् म. म. यामन झळकीकरने, ऐसी अनेक प्राचीन व्याख्याओंका समालोडन कर, जो एक विशद नूतन व्याख्या बनाई है उसकी प्रस्तावनामें इस ग्रन्थ पर लिखी गई बहुतसी प्रसिद्ध प्रसिद्ध व्याख्याओंकी सूचि दी है। उसके देखनेसे इस अन्धकी व्याख्यात्मिक रचनाओंकी संख्या आदिके विषयमें कुछ कल्पना हो सकती है । महाकवि मम्मट काश्मीरदेशीय शैव संप्रदायका अनुयायी था । पर उसकी यह कृति भारतके सभी संप्रदायोंमें समान रूपसे समाहत हुई है और इससे इस रचनाकी विशिष्टता एवं विवाप्रियताका भी महत्व समझा जा सकता है । नितान्त निवृत्तिमार्गीय जैन यतिजन, जो इस प्रकारके लौकिक वाङ्मयका प्रायः कम अध्ययन - मनन करते हैं और जो घोडे बहुत सार्वजनीन साहिलोपासकके नाते कुछ अध्ययनादि करते भी हैं तो वे विशेषतया अपने ही पूर्वीचार्यों की रची हुई कृतियोंका करते हैं। जैनेतर विद्वानोंकी कृतियोंका वैसा विशेष परिचय प्राप्त करनेमें उनका आकर्षण कम रहता है। पर मालूम देता है की मम्मटाचार्यका का व्य प्रकाश जैन यतिजनोंमें भी बहुत समादरका पात्र बना है और इसमें भी विशेष उल्लेख योग्य घटना यह है कि इस प्रन्य पर उक्तरूपसे जिन अनेकानेक विद्वानोंने, आज तक जो अनेकानेक व्याख्याएं बनाई हैं, उन सबमें पहली एवं प्रथम पंक्तिकी पाण्डित्यपूर्ण व्याख्या बनानेका सम्मान एक जैन यतिजन को प्राप्त हो रहा है; जिनने वि. सं. १२४६ में काव्य प्रकाश संकेत नामसे इसकी व्याख्या की है । काव्यप्रकाशकी सबसे प्राचीन हस्तलिखित पोथी भी जो अभीतक ज्ञात हुई है वह राजस्थान के जेसलमेर स्थित जैन ज्ञानभण्ड रमें सुरक्षित है ! यह पुस्तिका ताडपत्र पर, वि. सं. १२१५, में गुजरातकी पुरातन राजधानी अणहिलपुरमें, चौक्य चक्रवर्ती राजा कुमारपालके राज्यकाल में लिखी गई थी। [देखो सिंधी जैन प्रन्थ मालामें प्रकाशित और हमारा संपादित 'जन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह'; पृ० १.०] काव्य प्रकाशकी इससे प्राचीन कोई अन्य पाथी कहीं शात नहीं है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविक इनका नाम मणिक्यचन्द्र सूरि था और गुजरातकी राजधानी अणहिलपुरमें रहते हुए इनने यह व्याख्या बनाई थी। माईसोर संस्कृत ग्रन्थावलि, एवं आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावलि आदि प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थाओं द्वारा इसका प्रकाशन भी हो चुका है। विक्रमकी १८ वीं शताब्दीके प्रथम पादमें विद्यमान महान जैन तार्किक विद्वान् महोपाध्याय यशोविजय गणी द्वारा मी इस अन्य पर एक बहुत ही प्रौढ एवं पाण्डित्यपूर्ण विशद व्याख्या बनाई जानेका उल्लेख मिलता है । 'काव्यप्रकाशखण्डन'के नामसे प्रस्तुत रचनारूप आलोचनात्मक विवृति भी, एक ऐसे ही सुप्रसिद्ध जैन यतिके, इस ग्रन्थ पर किये गये गंभीर अध्ययन मननके परिणामका फलस्वरूप है। इस आलोचनात्मक विवृतिके कर्ता महोपाध्याय सिद्विचने, जैसा कि इस कृतिमें (पृ. ३ पर) वय सूचित किया है, प्रस्तुत रचनाके पूर्व ही इस ग्रन्थ पर, एक बृहत्टीका भी बनाई है जो अद्यापि उपलब्ध नहीं हुई है। इन सब बातोंसे ज्ञात होता है कि काव्यप्रकाश ग्रन्थ जैन विद्वानोंमें भी खूब पठनीय और मननीय बना है। महोपाध्याय सिद्धिचन्द्र गणीने प्रस्तुत रचना, एक आलोचनात्मक दृष्टिसे की है। काव्यप्रकाशमें प्रतिपादित जिन विचारोंके विषयमें, ग्रन्थकारका कुछ मतभेद रहा है, उस मतभेदको प्रकट करनेके लिये, इसकी रचना की गई है; न कि उस सर्वमान्य ग्रन्थगत समी पदार्योका खण्डन इसमें अभिप्रेत है। महाकषि मम्मटने काव्यरचना विषयक जो विस्तूल विवेचन अपने विशद प्रन्थमें किया है उसमेंसे किसी लक्षण, किसी उदाहरण, किसी प्रतिपादन । एवं किसी निरसन संबन्धी उल्लेखको, सिद्धिचन्द्रने ठीक नहीं माना है और इसलिये उनने अपने मन्तव्यको व्यक्त करनेके लिये प्रस्तुत रचनाका निर्माण किया है। इसी तरह, काव्यप्रकाशके कई जूने-नये व्याख्याकारोंके मी जिन किन्ही विचारोंके साथ इनका मतमेद हुआ है, उन विचारों का भी इनने इसमें निरसन किया है। ऐसा करने में ग्रन्धकारका हेतु केवल पदार्थतत्त्वमीमांसा प्रदर्शित करनेका रहा है न कि किसी प्रकारका स्वमताग्रह या परदोषान्वेषणका भाव रहा है । केवल 'कौतुकाद्' अर्थात् कौतुकमात्रकी दृष्टिसे यह प्रयास किया गया है ऐसा उनका कथन है । अतः एव यह रचना इस दृष्टिसे विद्वज्जनोंके लिये अवश्य अवलोकनीय प्रतीत होगी। ग्रन्थगत वस्तुका सारभूत परिचय प्रो. परिखने अपनी प्रस्तावनामें अच्छी तरह आलेखित किया है। ग्रन्थकर्ताके जीवन के विषयमें, तो उन्हींका बनया हुआ भानुचन्द्र च रिस नामक. विशिष्ट ग्रन्थ, जो इस सिंघी जैन ग्रन्थमालाके १८ वे पुष्पके रूपमें छपा है उसमें यथेष्ट लिखा गया है। अतः जिज्ञासु जनोंको उसका अवलोकन करना योग्य होगा। ___ प्रस्तुत ग्रन्थका संपादन मेरे जिन विद्वान् मित्रने किया है वे प्रो. श्रीयुत रसिकलाल छो. परिख संस्कृत काव्यशास्त्रके एक बहुत ही प्रौढ विद्वान् , मर्मज्ञ विवेचक, और आदर्श अध्यापक हैं। गुजरातके इनेगिने उच्च कोटिके विद्वानोंमें इनका एक अग्रिम स्थान है। गुजरात विधासमा Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 काव्यप्रकाश खण्डन द्वारा संचालित 'उच्च अध्ययन एवं संशोधनात्मक प्रतिष्ठान' (इन्स्टीट्यूट ऑफ हायर स्टडीज एण्ड रीसर्च) के ये अध्यक्ष और निर्माता हैं। अनेक वर्षों पूर्व ही इनने, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रा-चार्य बनाये हुए, काव्य प्रकाश सदृश ही काव्यशास्त्र विषयक सुप्रमाणभूत, काव्यानुशासन नामक विशाल ग्रन्थका सुतंपादन किया है जो विद्वानोंमें एक आदरपात्र अध्ययनकी वस्तु बना हुआ | ये काव्यशास्त्र के विशिष्ट अभ्यासी हैं एवं गुजरातीके एक अच्छे कवि और लेखक हैं ।। । मेरे तो ये एक अतीव आत्मीयभूत बन्धुजन हैं; अतः इनके विषयमें विशेष कुछ कहने में मुझे संकोच होना स्वाभाविक है। सिंघी जैन ग्रन्यमाला के कार्यके साथ इनका प्रारंभसे ही घनिष्ठ संबन्ध रहा है । मेरे साहित्य विषयक अत्यधिक कार्यभारको कुछ हलका करने की दृष्टिसे, ये सदैव प्रकट - अप्रकट रूपमें, मुझे अपना स्नेहपूर्ण सहयोग देते रहते हैं। साथमें अपने प्रतिष्ठान के अन्यान्य समकक्ष विद्वान सहयोगियों द्वारा भी, मेरे कार्य में, यथाप्रसंग, सहायभूत हो कर पशु बनाते रहते हैं । मेरे साहित्यिक जीवनकी वाल्याव स्वासे ही ये बालमित्र - से बने हुए हैं, और अब जीवनकी इस शान्त सन्ध्या के समय भी, अपना वैसा ही अकृत्रिम स्नेहभाव बताते हुए, एक सुविनीत शिष्यकी तरह, मेरा हाथ पकड़ कर, मुझे अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंचने में सहायक हो रहे हैं। मैं इनके प्रति अपना क्या कृतज्ञ भाव प्रकट करू ? 'सहवीर्य करवा बहें - इस महावाक्यवाली प्रार्थना का स्मरण करते हुए मैं: विराम लेना चाहता हूं | शरत्पूर्णिमा, वि. सं. २०१० २२ अक्टूबर, १९५३ } मुनि जिनविजय Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला] [काव्यप्रकाशखण्डन - निकचत्पश्यामश्नुपरम्प नशति कवेगिरीयद्यद वादिषपुरातनै गरिकाप्रवादता दनुवातिततस्परवं.. मयानुक्ष्मनातस्यस्मन् वर्षाप्रतापनजब रिवाहिता नामानहरु ईशावतारधा सतावताकिलवावालानु वैशव्यपनवप्प २ जानुप्रताप नवप्रामादनादमिनी नाप्रताप तनोषितघनप्पधीशसम्पादमून्यामधिको मिनून ३ कचधनोपाऊमाषप्रतापयशप्रजानिर्वतलानुनी वनावशानुबारानामपियवान्दरित्रमइनामदासस्वरमा 'पारधामविकायलिधिविधानता विक्षिपदप्रतिष्टा तगड़ नानाविधायकवाकयेवंत्रपदयरला५ प्रम्हा यि ताविषपातशामिनासामपित्रीवादनावतविनव संवतामक यतायुगांतनमायातिमारतेनशैलान शामविवक्षितानवनाकिशैला ६६शिष्यत्ततामा नि तिपादशादाअकबरस्यसम्रनामाधम एकत्रीराजयताकिरामावना छानकालतविकायक मादापाध्यमान्याजवंशविशिष्माशेशतावधा नसाधनप्रतिपादकादायकबरदसत्रफदमाय रानिधान माहापामयामिश्विशाणिविरविशन काव्य प्रकाशवंडानवामउवास्तभाधा र संव१७५२ वर्षअश्वनदिपुरोलिदित . बी श्रम ॥ 11८२१९, ... - --- - --- -- काव्यप्रकाशखण्डनकी प्राचीन पोधीका अन्तिम पष्ठ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE While searching for the Mss, of Siddhicaudra's commentary on the Vasuvadatta of Subandhu in the Jána Bhandara of Pannyāsa Saubhagya Vimalji at Ahmedabad, I saw, by chance, a Ms, bearing the title Kavyaprakasakhaṇḍana. Looking through it cursorily, I found that it contained a sort of commentary written with the object of criticizing Kavyaprakasa rather than explaining it. Dr. De, in his Sanskrit Poetics' Vol. I. p. 189 says, "A work called Kavyamṛtaturangini or Kavyaprakasaklanḍana-apparently an adverse critique on Mammața is entered in Mitra 2674." I thought that this was the Ms. of that work though it is nowhere called Kavyamṛtatarangini. When I informed Muni Sri Jinavijayaji, the general editor of the Singh Jaina Granthmala, of this work, he expressed a desire to publish the same in his Sories, if I prepared a critical edition of the work. I searched for more Mas. of the work and got two more from the same Bhaṇḍāra. I have prepared the present edition of K. P. K, with the help of these Mss. and the printed editions of K. P.-particularly that of Jhulkikar (B. O. R. I. 1921). I express my thanks to the trustees of the Saubhagya Vimal Bhandara for lending me the Mas, and to Acarya Jinavijayaji for accepting it for publication in the S. J. S. and also for various kinds of help in editing this work. R. C. PARIKH का. प्र. खं. ना. द. भा. चं. र. गं. सा. द. B. C. J. O. R. 5 † ABBREVIATIONS (The reference is to pages. Reference to Kārikās und Slokas are preceded by, and .) . Gaekwar Oriental Series, Baroda, भानुचंद्र चरित, Singhi Jain Granthamala. i. Nirmaya Sagar Press, Bombay. Third revised edition, 1916. ada, edited by u.M. Kane, 1923 and 1951. Bhanucandracarita (S. J. S.) Journal of Oriental Research, Madras. " Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Description of the Mss. INTRODUCTION A. Paper Ms:-folios 61, length of each folio about 10", breadth about 4" with margins of about 1" on the left and the right and shout " on the upper and the lower sides. Lines per page about 13, but the number of letters per line varies from 42 to 49 on account of the space in the middle, practice, it may be noted in passing, in imitation of palmleaf Mss. The middle space is about 1" x 1". Writing is clear. The Ms. contains marginal notes. This Ms. bears a seal in the Nasta' liq variety of Arabic script. Its colour is black. It reads: Bhan-chand murid-e-Khush Falm 1008. It means: Klush Fahn (a man of pleasant intellect) the disciple of Bhanchand. (Tijri Sun) 1008 -(- (=A. D. 1599) The Ms. begins:- ॥ ५० ॥ ऐ नमः ॥ महोपाध्यायभानुचंद्रगणिभ्यो नमः । श्रेयः श्रियं तनुमतां तनुतां स शंभुः श्री अश्वसेनधरणीरमणांगजन्मा | etc. A Ma. ends:- नवीनास्तु एतान् दोषान् उक्तदोषेष्वंतर्भावयतीति युक्तमुत्पश्याम इत्युपरम्यत इति । कवेगिरां ययदवादि दूषणं ote........... चलिता न तु नाकिशैलाः || ६ || इयं शिष्यकृता प्रशस्तिः । इति पादशाह श्री - अकब्बरसूर्यसहस्रनामाध्यापक श्री शत्रुंजयतीर्थंकर मोचनाद्यने कसुकृत विधायक महोपाध्याय श्री भानुचन्द्रगणि शिष्याटोत्तरशतावधान साधन प्रमुदितपादशाह श्री अकब्वर प्रदत्त पुष्पमापराभिधान महोपाध्याय श्री सिद्धिचन्द्रगणि विरचिते काव्यप्रकाशखण्डने दशम उल्लासः समाप्तः ॥ छ ॥ संवत् १७०३ वर्षे अश्वनशुदि गुरौ लिखितं ॥ छ ॥ श्रीः ॥ Folio and line numbers given in the text are those of the B. Paper Ms.:— folios 62, length 10", breadth 44" with margins of about 1" on the left and the right sides, and " on the upper and lower sides. Lincs per page about 13; the number of letters per line varies from 47 to 50 on account of the space in the middle which is about 1"x1". Writing is beautiful. The last two folios are in a bigger hand. 1 It may be remarked here that a similar seal is found in the middle space of the last page of a Ms. of Taglu Siddhauts-Kamudi-another work of Siddhicandra. This Ms. Also belongs to the Bhandara of Pannyasa Saubhagya Vimalji at Ahmedabad. I am indebted to Prof. Saiyad Abu Zafar Nadvi and Dr. C. R. Nayak of of the B, J. Institute of Learning and Research for reading and interpreting both the seals for me. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODOTION Begins: as in A. Ends : 99 in A, excopting thut the folio 02u repants #: Taifa upto sift: and that at the end T 947? ai fare il #t: 11 This ms, also contains murginal notes. Paper: Ms.: folios 61, longth 10", breadth 43" with margins of ubout" on the left and the right sides and I" on the appor and the lower gides. Linex per puge about 13, tlie muuber of lettors per line varies from 17 to 53 on account of the sp.lco in the middle which is about 11" x 1". Writ. ing is beautiful. Begins: as in A. Ends; us in A. excepting #aa. 9487 97 fara i The Present Edition. If we compare the dates given in the colophons of these three Mss. we find thut A was finished on Thursday the fifth of bright half Assina Samvat 1703 which comes to Sep. 23,1647 A, D, while B. and O. were finished nineteen years later (S. 1722 ) that is in 1666 A. D. A careful comparison of the Mss. shows that B. and C. are alnost --Kuct copies of the A which her the seal. Thus eren though I had three Men, for preparing the prosent edition they all belong to one urchetype. This has been a handicap. It inay, linwefer, Lc pointed out that on the whole these Msg, give correct and reliable readings. As said in the preface, printed clitions of K. P., particulely that of Jhalkikar, wero consulted ou doubtful points. The pariations of our toxt from the Jh's edition have been pointed out in the foot notes. The tippaņas or marginal notes of the M8. A and B also have been incorporated in the foot-notes. Two Sūcis or indexes have been given at the end of the textono of proper nnines and the other of sūtras, slokns, etc. referred to in the text. . Kavyaprakāśa khandana. In the colophone at the end of all the Ullīsas the work is relorred to us Kavyaprakāsukhandana. In the introductory verse no. 3 howovor, the work is called Kāryaprakīšuvivrti, but in no. i the author says '0957616 #. Thus the author's intention is to write a critical exposition and he, therefore, calls his Vinti (expositivu: ) K. P. Khandana, to distinguish it from nore expositions. In fact Siddhicandra wrote a big commontary in the name of his Guru 1 eagetaisasta: 1({. e); Tret-1 HOO F: (.7x). Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAVYAPRAKASAKHANDANA This Brhattikā is not yet discovered and so we cannot say anything about the relation of K. P. K. tv it-w etler K. P. K. is a work culled from it or a separate work. It will be seen from the numbers yivon to the Mülıkārikās that S. 19.3 left out nesernl of them and that readings of soino diffor considerably from those of tho published texts of K. P. Tlcsc Feriations have been 10ted in the footnotes (eg pr. 7, 8 etc ). The verse giving the definitivu of Dosi (1),33) seems to be from a different work, He laus, ut some places, changed the order of Kārikās also, e.g. p.11. The Vitti vu the Kāríkās is deult with only in parts. At a fow places the text seems to be in a disordered condition, vido, for example, pp. 78–79. As ul the Mas, however, present the the text in thia forin I have not thought it proper to eniend it. Criticism of K, P. S. describes his method of refutation in the very beginning of his work in the words amaz F1345#175AHRC (.9. I. 1). He firat explains and then rosutcs. For example, he deals with the first Karika Plegantifeai etc. thus: pari a face ETTLACH: अत एवोक्तम् Cudar a atufa: 1 यथाऽस्मै रोयते विश्व तथैव परिवर्तते ॥ इति ( का. प्र. खं. ३) This is unurūda ar exposition. Then follows virticism thus: H eta साधुः । काव्येऽपि नियमस्य सत्त्वात् । शद्वे छन्दःप्रभृतिषु तथा च तत्तद्रसविशेषे तत्तद्रीतिविशेषे तत्तत्प्रवन्धे Anato a P ta (#1. . .S). This method, however, of first exposition and then criticism is not strictly adhered to. foc cxample-grantie ! Eu Peroni patat Haqua 475 gaz *** ÅTT (FT. 1. 2). S. ussures us that he is not criticizing without proper tersons. He even defends Mammut against improper interpretation or unfair criticism. For example whilo explaining the verse 2: RE: uma at: he says Be T9 7171994AHA SA LITEIT TE for at:' na ger aTT 1; and thieu lays down the dictum ferunt घनस्य च प्रामाणिकानामसम्मतत्वात । (२ का. प्र. खं.. Counting mujor points and minor details I find that there are more than sixty iteins that S. has tried to rolute. I will touch here only a few major probleus. Criticizing the first Kārikā, 8. rojects the views that the creation of tho puct is not regulated by laws, that it is all joy, that it is iuilependent of any other thing, and that Rasus are nine. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION With the following two Karikas also, he finds fault in some points. Definition of Poetry. Let us now consider his criticism of the definition of Kavya. It is as follows: 9 अत्र केचित् अदोषत्वं यत् किञ्चिददोपाभावो वा यात्रदोषाभावो वा । नायः, अव्यावर्तकत्वात् । नात्यः, तथासति काव्यलक्षणं निर्विषयं विरलविषयं वा स्यात् । यावदोषाणां दुर्निवारत्वात् । तस्माद् 'वाक्यं रसात्मकं कायम्' इति लक्षणम् । तथा च दुष्टेऽपि रसान्वये काव्यत्वमस्यैव परन्त्वपकर्षमात्रम् । तदुकम् - कीटा दिविद्धरत्नादिसाधारण्येन काय्यता । दुष्टेष्वपि मत्ता यत्र रसायनुगमः स्फुटः ॥ इति । एवं चालङ्कारादिसत्त्वे उत्कर्षमात्र लम्' इति वदन्ति । परे तु 'यदेशे दोषस्तदेशेऽकाव्यत्वम्, यदेशे दोषाभावस्तदंशे काव्यत्वम् । यथा एकमेव ज्ञानं प्रमा प्रमा चेति । दोषसामान्याभाव एव विवक्षणीय इत्याहुः । तन । एकमेव पद्यं अंशे काव्यं अंशेऽकाव्यमिति व्यवहाराभावात् । अन्ये तु 'दोषसामान्याभाव एव लक्षणे प्रवेश्यः । विरल विषयत्वं काव्यलक्षण स्पेष्टमेव । 'दुष्टं काव्यं' इति प्रयोगस्य 'दुष्टो हेतु:' इतिवत् समर्थनीयत्वाद्' इति प्राहुः । परे तु 'काव्यमाखा जीवातुः पदसंदर्भ:' इति वदन्ति । तन । आखाजीवातुतावच्छदेकरूपापरिचये तस्य ज्ञातुमशक्यत्वात् तत्परिचये तस्यैव लक्षणत्वसंभवात् । नवीनास्तु 'काव्यत्वमखण्डोपाधिः, चमत्कारजनकतावच्छेदकस्य काव्यपदप्रवृत्तिनिमित्तस्य चान्यस्य वक्तुमशक्यत्वात् तदेव लक्षणमस्तु । किमनेनाननुगतेन लक्षणेन' इति वदन्ति । 'सगुणी' इति गुणयको इत्यर्थः । गुणानां ररौकधर्मत्वात् शद्वार्थयोः सगुणत्वाभावात् । 'अनलङ्कृती' इति 'सालङ्कारौ' इत्यर्थः । यदपि 'काव्यत्वं शद्वार्थोभयवृत्ति' तदपि न । का करोति, काव्यं पठति शृणोति चेति व्यवहाराच्छद्र एवं काव्यत्वं कल्पनीयम् । नतु 'आस्वादव्यञ्जकत्वमेव काव्यत्वप्रयोजकम्, तब शद्धेऽर्थेचाविशिष्टम् । तथा च कथं काव्यं करोतीति व्यवहारस्य शमात्र परत्यम्' इति वेत्, न । आखादव्यञ्जकानामन्येषां सत्त्वात् तेष्वपि काव्यत्वं स्वीकुरु । उभयवृत्तिकल्पने गौरवात काव्यं करोतीति काव्यपदस्य मात्रपर बीजत्वात् । ( ३. का. प्र. खं. ) In the above passage we can see that S. adopts Visvanatha's criticism of Manumata's definition. He himself, however seems to be one of the Navinas, whose leader Tust have been Pandits Jagannatha. काव्यस्वमखण्डपाधिः nay be compared with उपाधिरूर्धं वाऽखण्डम् (र. गं. पृ. ८, } and his criticism of शदार्थों with शद्वार्थयुगलं न काव्यशद्ववाच्यम्। etc. र. गं. ५ ) Similarly शद्वार्थयोः सगुणत्वाभावात् may be compared with शद्वार्थयोः सगुणत्व विशेषणमनुपपन्नम् etc. of Viśvanātha'. काव्यमाखाद- जीवातुः पदसंदर्भः is according to Mm. Kane, the view of Candidúsa expressed in his commentary Kavyaprakāśadipikā”. 1. See पृ. २.३, सा.. Kane's Edition 1923. 2. P. 339. Introduction to the third edition, 8, D, 1951. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ' KAVYAPRAKASAKHANDANA Varieties of Poetry S's criticism of ' citrakāvya' may be compared with Viśvanātha's] केचिच्चित्राख्यं तृतीयं काव्यभेदमिच्छन्ति तन । ( ५६. सा. द. Kane's edition 1923) Ifia reference to Mahimnabhatta in अनुप्रासानामसमीचीनत्वेन तथाविधगङ्गाविषयक्रभावोत्कर्षवर्णनाविरहाच्चानुत्तमत्वात् । अत एव महिमभट्टानामस्मिन् पक्ष एव पक्षपातः । ( ६. का. प्र. सं. ) is not quite clear. Probably he refers to the passage अनुमेयार्थ संस्पर्शमानं चान्वयव्यतिरेकाभ्यां काव्यस्य चारुरव हेतुर्निश्वितम् । अतस्तदेव वक्तव्यं भवति न त्वस्य प्राधान्या प्राधान्यकृतो विशेषः । न हि तयोः सामान्य विशेषयोस्त्रिष्वपि वस्तुमात्रादिष्वनुमेयेषु चेतनचमत्कारकारी कश्विद्विशेषोऽवगम्यते । ( ३२. व्य. वि. 1909) He means to say that poems cannot bo classified on the basis of predominance and subordination of very principle of poetry. Rasa ..... L We may now take up the topic of Rast as another illustration of S.'s criticism of K. F. After capshining to Karikaणाम्यथ कार्याणि etc. (१५-१६ का प्र. खे ) he explains the experience of Paramānanda or super-joy of Rasa in the light of what he calls 'Vedantinaya'. Here he seems to follow Jagamūtha. Compare Rasagangadhara, p. 22. But the view of the Navinas ho states as follows "तदपेक्षया कामिनीकुचकलशस्पर्शचन्दनानुलेपनादिनेव नाट्यदर्शनकाव्यश्रवणाभ्यां सुखविशेषो जायते । रा एवं तु रस इति नवीनाः । ( १६. का. प्र. ) This view puts the aesthetic pleasure on a par with ordinary sensual pleasures. In the discussion of Rasananda or aesthetic pleasure this is really a moot point-viz., whether the aesthetic pleasure is like any other pleasure of life or its character is different! If the experience of the artistic representation of pleasure and pain is the same as the experience of these in life, what is painful in life would not give pleasure in poetry and therefore. such sentiments as thoss of sorrow, anger, aversion ete. cannot become Rasus in poetry. Consistently with this view the Navinas, therefore, hold that, there aro only four Rasas, viz., Sṛngara, Vira, Hasya and Adbhuta. S. suys नवीनास्तु शतरवीरद्दास्याद्भुतसंज्ञाश्चत्वार एवं रसाः । (१३. का. प्र. खं.) He further on relates the claim of Karuna, Randra etc. to Rasas in the words अथ करुणादीनां कथं न रसश्वमिति चेत्, उच्यते दृष्टनाशादिभिचेतोवैव्यं शोके उच्यते । तथा रौद्रशक्त्या तु जनितं वैन्यं मनसो भयम् । दोषेक्षणादिभिर्गही जुगुप्तेति निगद्यते ॥ तथा - तत्वज्ञानाद् यदीयनेनिर्वेदः स्वावमाननम् । इत्यादिनियुक्तशोका दिप्रवृत्तिकानां करुणादीनां रसत्वनिषेधात् । न च तेषां तथाभूतत्वेऽपि अभिव्यकानन्दचिदात्मना सद्दाभिव्यक्तना॑ र॒सत्वमिति वाच्यम् । एवमपि स्थास्यंशे रसत्वविरोधात् । अथालौकिकविभावाद्यभिव्यक्तानां तेषां रसत्वमुचितं सुरते दन्ताद्याघातस्यास्वाद्यवदिति चेत्, न एवं क्षुधा पिपासादिनानाविधदुःखहेतुजनितचेतोवैक्लव्यस्यापि रखान्तरत्वापतेः । सुरते दन्ताघातस्य बलवत्कामसंभव दुःखनाशकत्वेन भारापगमानन्तरं सुखिनः Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 11 संयत्तास्स्म इतिवद् उपादेयत्वम् । यत नु शोकादयोऽपि रत्यादिवत् खप्रकाशज्ञानमुखात्मका इति तदुन्मानप्रलपितम् । किञ्च सामाजिकेषु मृतकलत्रमुत्रादीना विभावादीनां शोकादिस्थायिभावस्य चर्षणीयेन अजमहीपालादि. ना सह साधारण्यम् , अनुपातादिदर्शनात् । वर्णनीयतन्मयीभवन चापेक्षितमिति चेत् , कथं ब्रह्मानन्दसहोदररसोद्रोधः, कय वा नामाङ्गल्यम् । अत एव क्रेचिदविलापादिकं न पठन्ति । बीभत्से तु मांसपूयाधुपस्थित्या वान्तनिछीवनादिकं यक्ष भवेत् तदेवाश्चर्यम् । कुतस्तादृशपरमानन्दरूपरसोद्बोध इति । एवं भये ऽपि । तथा शान्तस्य त्यत्तसर्ववासनेषु भवतु नाम कश्चिद रसत्वं, विषयिषु पुनः सर्वविषयोपरमस्थित्या कधं रसरवम् । तदुक्तम् न यत्र दुःख न सुखं न चिन्ता न द्वेषरागौ न च काचिदिच्छा । रसः प्रशान्तः कथितो मुनीन्द्रः सर्वेषु भावेषु शमप्रधानः ॥ एवं वीररौद्रयोर्ने भेदः । विभवादिसाम्पात् । न च स्थायिभेद एच भेदकः । तस्यापि नियामकमुखप्रेक्षित्वात । यत् तु रक्तास्यनेत्रता रौंदे युद्धवीरात् तु भेदिनी । इत्याहुः । तन्न । क्रोश्रसञ्चारिणि बीरे तस्याः सुलभत्वेन भेदकत्वानुपपत्तेः । न च रौद्रे अविवेक-वस्य वीराद् भेदकस्य संभवातू भेद इति वाच्यम् । क्रोधसञ्चारिणि वीरेऽन्यविवेकत्वस्य संभवात् । दानवीरादीनां प्रभावातिशयवर्णन एव कवीना तात्पर्यमिति न तेषां रसत्वम् । एवं वात्सल्पनामाऽपि न रसः 1 भावनेत्र गतार्थत्वात् । ननु कथमविलागदिक कविभिर्बलत इति चेन उच्यते-तेपामजमहीपतिप्रभूत्तीनां स्वम्वनियानुरागप्रकर्षप्रतिपत्त्यर्थम् । अत एव चाजमहीपतेः स्वप्रियामिन्दुमती प्रति देहत्यागः कालिदासेन वर्णितः । एवं शान्तस्यापि वर्णनं मुमुक्षणां वैराग्यातिशयप्रतिपत्तये। एवं भयातिशयवर्णनं तत्सत्यतीना मार्दवप्रतिपादनाय । वस्तुतस्तु कविभिः खशक्तिप्रदर्शनार्थमेव पद्मबन्धावन्धादिनिर्माणका तत्र तत्र प्रवर्त्यत इति । (२१-२२ का. प्र. सं.) In the above quotations there are two controversial poiuts-the first about the pleasant nature of ill the Risas and second abisut tho number of Rasas, The first controversy is very old. Bhurata says यथा हि नानाव्य जनसंस्कृतमभं गुजाना रसानाखादयन्ति सुमनसः पुरुपा हषादींश्चाधिगच्छन्ति तथा नानाभावाभिनयन्यजितान् वागसत्त्वोपेतान् स्थायिभावानास्वादयन्ति सुमनसः प्रेक्षकाश्च 'हर्षादीश्वाधिगच्छन्ति तस्मानाम्यरसा इत्यभित्र्याख्याताः । (९३ ना. शा. नि. सा. वि. सं.). Thus in this view it is held that the Rosas, presunably all, are pleasint. Thosc, lowever, who think that I the Rasas are not pleasant interpret the passage differently. As Abhinavsugruptte says अन्ये त्वादिशब्देन शोकादीनामत्र संग्रहः । (२९. ना. शा, Vol. I.C.O.S.). Abhinusagupta's own view is, however, that all Rusas aro plensunt. He rejects the other opinion by saying # चम युक्तः । सामाजिकानां हर्षेकफल नाट्यम्, न शोकादिफलम् । (ibid : He emphatically says अस्मन्मते तु संवेदनमेवानन्दधनमास्वाद्यते । तत्र का दुःस्साशङ्का । केवल तस्यैव चित्रताकरणे रतिशोकादिवासनाव्यापारस्तदुबोधने चाभिनयादिव्यापारः । (२९३ ilid ). It would be interesting to know who were the critics that held the view that all the Ruses are not pleasant. Dr. Raghavan notes the Suklia-Duhkirātunakatā view of Ragd of ove Rudrabhataa given in 1. There are Boene Iu39. of N. 8. which do not give this reading. The Ohuukhamba edition hug not acocpted it, the G, 0, S. edition, however, bus it, 2. Ditferent from Rudruta. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 KAVYAPRAKASAKHANDANA hin Rasakaliki. He also rofery to Haripāla's view regarding the painful nature of Vipralambha. It is, however, Ramincandra and Gungcandra, authors of N. 1), who havo elaborately discussed the point in support of the view-सुखदुःखात्मको रसः । (सा. ५०५. ना. ६. G.O.S.). Their arguments being yorth quoting as those of other Jain writers on the subject are given, the foot-notes. It may be noted here incidentally that grout Jaimut Acāsya Lleinacandra, their guru, follows Abhinavagupta and accepts the general view. The question is however, who were tho Navīnns that lield this view, and roluced, on that view,the number of Rasas to four. A controversy had beon raging Lund the question whether Santa should be regarded as a Rasa or not and whether, therefore, the nuinber of Rasas is eight or nine, Bharata seems to have taken cognizance of only eight Rosas for dramatic purposes. He, however, at one place says thut the original Risas are four -- viz. Srigam, Raudra, Vira and Bibliates and that Hasya, Karuna, Adbhuta and Bhayanaku are respectively derived from these (४०. ना. शा. नि. सा.). But the theory of S. is different. He docs not reduce the number Rugus on the basis of the original and the derived; he does it on the very principle of Rural. On this principle his Rasiy ure, as we have seen, Srngarl, Vira, Hasya and Adbhuta. - . -- ---- 1, J.O. R. Madras, Vol. x. pp. 113-14, 107. 2. स्वीकृतसाक्षात्कारिल्यानुभूयमानारस्थो बधासम्भवं सुखदुःखस्वभावो रखते आस्वाचत इति रसः। तवेष्टविभाषा दिप्रचितस्वरूपसम्पत्तयः शुशाररास्यवीरास शान्ता पञ्च सुखालानोऽपरे पुनरनिष्टविभावागुपनीतात्मन: करारौद्रबीभत्सभयानकाश्चत्वारो दुखास्मानः । यत्पुनः सर्वरसानी मुखारमकत्वमुच्यते, तत् प्रतीतिनाधितम्। आस्तां नाम नुस्यविमायोपचित्तः काल्याभियोपनीतविभावोपचितोऽपि भयानको बीभत्सः करुणो रोद्रो वा रसास्वादवताननाख्येयां कानपिलेशदशामुपनयति । अत एव भवानकादिभिरुजने समानः । न नाम मुग्वाखा दादुगो घदने । यत पुनरेभिरपि चमत्कारो दृश्यते स रसास्वाद विरामे सति यथावस्थितवस्तुप्रदर्शकेन कविनटशक्तिकोशेलेन । विसायन्ते हि शिरश्छेदकारिणाऽपि प्रहारकुशलेन वैरिणा झौण्डीरमानिनः । अनेनैव च सर्वाफाल्हादकेन कविनयशक्तिजन्मना चमत्कारेग विप्रलम्भाः परमानन्दरूपता दुत्वात्मकेम्वपि करुणादिषु समेधसः प्रतिजानते । तदास्वादलौल्येन प्रेक्षका आप एतेष प्रवर्तन्ते । कवपस्तु मुखदुःखात्मकसंसारानुरूपयेण रामादिचरितं निवनन्तः सुखदुःखात्मकरसानुविद्यमेव अक्षन्ति पानकमाधुर्थमिव व तीक्ष्णास्वादेन दुरवास्वादेन सुतरी सुखानि स्वदग्वे इति । अपि च सौताया हरण, दीपचाः कचाम्बराकर्षण, हरिश्चन्द्रस्य चाण्डालदास्य, रोहिताश्वसभरणं, लक्ष्मणस्व शक्किमेदन, मालत्या व्यापादनारम्माणमित्याधभिनीयमानं पश्यतां सहृदयाना को नान सुखास्वादः। तथानुकार्यगताश्च करुणादवः परिदेवितानुकार्यत्वात् ताबद दुःखात्मका एव । यदिवानुकरणे सखात्मानः स्युन सम्यगनुकरणं स्वात, विपरीतत्वेन भासनादिति । योऽपोष्टादिविनाशदाखवतां करुणे वण्येमानेऽमिनीयमाने वा सुखास्वादः सोऽपि परमार्थतोदु:खास्वाद एव । दखी हि दुखितवार्नया स्वमभिमन्यते । प्रमोदयातया तु ताम्यतीति करुणादयो दःखात्मान एवेति । विप्रलम्भशलारस्तु दादादि कार्यत्वाद् दुःखरूपोऽपि सम्भोगसंभावनागर्भत्वात् सुखात्मकः । रसव मुख्यलोकगतः प्रेक्षकगतः कान्यस्य प्रोत्रनुसन्धायकदयगतो ति । (१५९. ना.द. .0.8.) 3. Bee for an elaborute and excellent treatment of this topic Dr. Raghavan's articles on "The Nomber of Rajas" in J. O, R, Madras. Volg. X. XI. - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUOT10N 13 Thus it would seem that S. accepts the view that Sukha is the principle of Rasa un that on that principle there could be unly four Ranas. He makes use of the arguments of those who regard Rasi as SukliaDuhkbatuska in showing that Kuruņa ctoare Duhkhatuaka and then following the principlo that Rasi by definition is Suktatnaka rejects Karung ctc. us Rasås. Wliv were the other Navīnas who held this viev I huve not been able to find. Jagannātha, & contemporary of S. at the court of Juliāngir does not hold this view. lle is a Kevaláblädsvidin केवलालाववादिना तु प्रवृत्तिरप्रत्यू हैव । (२६. र. ग.) who accepts all the nine .RA.Sas on the authority of Bhukata: स च नवधा । मुनित्रचनं चात्र मानम् । (२९. र. गं.), Minor Topics. Tho two topics discussed above urt mujor problems of Sanskrit poetics, S., however, in each Ullåna lins criticized many minor points iulso. For cxample after explaining Samlalişyetkrama Vyangya lic says ironically अत्रेदमवधातव्यम्-वस्त्वलंकृतिध्वन्योः श्रमः संलक्ष्यते, रसभावादिषु कमो न लक्ष्यते इत्यलंकारशास्त्र योगिन एवं प्रष्टव्या इति । (२५ का. प्र. खं.). ___ 'This may be compared with Jagrummatha's vicw संलक्ष्यक्रमोऽप्येष[ रसः ] भवति । (र. गं. १०७). So also after explaining tho Ka. मुख्याहतिर्दोषो etc. he says नवीनास्तुएतन्मतनिष्कर्षस्तु रसापकर्षकज्ञानजनकज्ञानविषयल्य दोषत्वम् , अपकर्षस्तु रसनिष्टोऽखण्डोपाधिरिति । तथा च रत्वाद्यवच्छिल लन्यस्य आनन्दाशे लेशेन स्थिति ख्यार्थहतिः । सा च दोपज्ञानाद् भवति । तन्न युक्तम् । उतिबिसेसो कन्दो भासा जा होइ सा होउ । इति काव्यरसज्ञानां वाचोयुक्तिन्त्रवणात । च्युतसंस्कृत्यावीनां मुख्यार्थहतित्वाभावात , इत्याहुः । (३३-३४ का. प्र. ). In this Ullăsa of Doşus, S. criticizes many points pertaining to interpretation und propriety. On the topic of Arthadoştıs, he anys इत्येते प्राचीनरर्थदोषाः कथितास्ते उक्केषु शब्ददोषेष्वन्तर्भवन्तीति न पृथक् प्रतिपादिताः । ( ४५ का, प्र, खं) and then shows how these various Arthu-Dosas cau be included in different Sabda-Doyas. While discussing Rasik Dosns, S. takes objection to regurding Sabda.vacyall us a Dose with reference Vyabhixūrins. Mammyata. lhiinself in the Ka. न दोषः व पदेनोकावपि संचारिणः क्वचित् । (का, ६३ जु, ७), concedes the point that sometimes it may not be a defect. S., lowever, says that to name the Saracetirins is a positive Guna, तत्र नवीनाः प्रत्यवतिछन्ते । व्यभिचार्यावीनां स्वशब्दवाच्यता न दोषाय किन्तु गुणायैव, तत्तदर्थानां शीघ्रोपस्थितिकत्वात् । अत एवं महाकवीनां तथैवोपनिबन्धात् । (५३ का. प्र. सं.) In the discussion on the definition of Gunu, S. gives the riow of the Navimas thus नवीनास्तु' रसोत्कर्षहेतुत्वे सति रसश्रमले इत्याहुः । (६३ का. प्र. वं.). While criticizing the verste निजनयन etc., he says इत्याम्वादहेनूनां गुणानामपलाप: कर्तुमयोग्यः प्रकाशकृतामिति नवीनाः । (५८ का. प्र. खं). Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KĀVYAPRAKĀŠAKHANDANA In the Ulläsa of Arthalorikarus, S. concerns himself mainly with showing how several Alamkiras can be included in others. For example as would telle Vigue and Vaghata in Virodha (-20 का. प्र, खं.), After explaining the definition of Vibhavana, he says, वस्तुतस्तु कारणप्रतिषेत्रेपि कार्यवचनं विभावनेत्यन्ये । ( ८५ का. प्र. खं ). 14 The few points discussd above will suffice to give an idea of the character of Kavyaprakāśakhaṇḍuna. Siddhicandra. Siddhicandru, the author of this work, is one of those notable Jain writers who have enriched not only the literature of their own faith but have also contributed to Sanskrit literature in general. He belongs to, what we might call, the last glorious period of Sanskrit literature or the period of Sanskrit renaissance in the times of the Mogul emperors Akbar, Jahangir and Shahjahan. In fact he is a luminary of the age of Panditarija Jagannatha, who was his contemporary at the Mogul court. As to the life and works of Siddhicandra, there is ample material which has been woll exploited by the late Jain scholar Sri Mohanlal D. Desai in the introduction to his edition of BHANUCANDRA CARITA by our author, published in the S. J. S. In fact B. C. which is a sort of a biographical poem of his Guru Bhanucandra becomes in the fourth Prakasa after the verse sixty seven, what Acarya Jinavijaya Muni calls, the autobiography' of our author. Sri Desai, in the fourth section, viz., 'Summary of the Present Work', has given the substance of this portion at length and Acarya Jinavijaya has noted salient points of I shall, the same in his preface as the General Editor of the Scries. here, therefore, touch only a few noteworthy incidents. S. in the narration of probably the most important event of his life gives us a clue to the year of his birth. This event we shall discuss later on. Jahangir is represented us asking S. his age in the following verse 'परमतानां व्यतीतानि क्रियन्ति वः । प्रारभ्य जन्मतोऽब्दानि ' प्रोचुस्ते ' पञ्चविंशतिः' | ( २३६ प्र. ४, भा. च, च. ) The events of banishment and recall that happened as a result of the discussion that followed are placed by Sri M. D. Desai before the autumn of 1.613 A. D. This would give us the year of S.'s birth as 1588 or 1587 A. D., if the banishment lasted for a year. 1. See hia Introduction to B. C. p. 59 and footnote 90. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION S. wrote his Jinaśataka-fika, as he himself says, in V. S. 1714 (1658 A. D.) and a Ms. of the prosent work, K. P. K., was copied So he must have in the V. S. 1722 (1666 A. D.) in his own life-time. lived for at least 77 years. The exact year of his death is however unknown. 15 From his autobiographic account we learn that Siddhicandru was initiated in the Jain order when he was quite young, sisu, as he calls bimself and his elder brother. He describes his first introduction to Akbar in no modest terms. He does not blush to compare himself with Kămadeva in beauty. ( अनन्यलम्यसौन्दर्यभ्यत्कृत श्रीतनूद्भवः श्लोक ७१. ibid ), In fact he refers to his physical strength and beauty at several places in the B. C.' He is very conscious of his unusual intellectual powers particularly his capacity of Avadhanas which earned for him the title of Khusfaham' from Akbar. S. tells us that Akbar asked him to come daily and live with him in the company of his sons: त्वया मत्सूनुभिः सार्धं स्थेयमत्रैव नित्यशः । The importance however of this part of the narration lies in the information it gives about B. ducaliou at the court of Akbar. He describes it in the following verses: 1 कदाचित् शाहिनाहूतः कदाचन पुनः स्वतः । असावन्तः समं गच्छनयनच तिष्ठति ॥ ८७ महाभाष्यादिकान्येव नानाव्याकरणानि च । नैषधादीनि काव्यानि तश्चिन्तामणीमुखान् ॥ ८८ काव्यप्रकाशा प्रमुखानलक्काराननकेशः । छन्दः शास्त्रण्यनेकानि नाटकान्यपि लीलया ॥ ८९ अष्ट सर्वशास्त्राणि तो कैरेव दिनैस्ततः । शाहिना प्रेरितोऽत्यन्तं सत्वरं पारसीमपि ॥ ९० (प्र. ४. भा. च. ) The interesting thing to note from this is that Akbar asked him to study Parasi' or Persian. Thero is a further reference to his study of Persian literature in the description of A.'s tour to Kashmir in which he and his Guru accompanied the Emperor. Ho says that he 1 See p. 65, Introduction to B. C. 22 cf also पुरः सारमिवाद्राक्षीद् भवभीया धृतवृतम् | (लो. ७५ ) The puran may be noted. ३ अन्तः सभामधाय समक्षं सर्वभूभुजाम् । अवधानविधानादिपरीक्षां कृतवान् प्रभुः ॥ ८४ अतुल तरकला नैनां दर्श दशैं नमस्कृतः । त्रिख्यातं 'सुस्पाक्षमे 'ति तस्य नाम पत्तवान् ॥ ८५.४ 4 The following verses are quoted as they briefly describe Akbar's tour to Kashmir. According to S., Akbar andertook this tour with a desire to see Baffron flowers. See 30. on Lhe word भव. इतः कश्मीर किअल्कपुष्पभदिदृक्षया । प्रतस्थे पृथिविनाथः पुनः श्रीनरं प्रति ॥ १०२ अमन्दानन्दसंपूर्णः शाहिः सत्कृत्य वाचकान् 1 साभाकारयामास सिद्धिचन्द्रसमन्वितान् ॥ १०३ पठतः पारसीग्रन्थस्तत्तनू बाजैः समग् । भातः पूर्वदिनाभ्यस्तं पुरः श्रावयतः प्रभोः ॥ १०४ कुर्वतश्व वरीवस्थां शादेः खेहार्द्रचेतसः । प्रसिद्धिः सिद्धिचन्द्रस्य सर्वत्र ववृधेतराम् ॥ १०५ पर्वतान् खपंजाल-पीर पंजाल कादिकान् । हिमैरनं लिहिं स्तुङ्गशृङ्गानुलस्थ्य दुर्गमान् ॥ १०६ माथ कश्मीरं वृष्ठा काश्मीरभूरूद्रान् । प्रकुल कुसुम (नोइलोलरोलम्ब चुम्बितान् ॥ १०७ स्थित्वा च कतिचिन्मासांस्तत्राश्चर्यदिदृक्षया । प्रत्यानृत्य पुनर्लाभपुर शाहिर भूषयत् ॥ १०८ (त्रिभिर्विशेषकम् । प्र. ४, भा.च.) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 KĀTIAPRARISAKHANDANA used to study Persian books in the company of tlie Euperor's grandsons and rocite them every morning in the presence of thio. Šāhi . We know that adugatunit]ta. also had studied Persian.' Thore is one very important event in S.'s life referred to in the beginning, to which attention should now be drawn. After Akbar S. became a favourite of Jabāngir also. That jovial and ploueure-loving Emperor did not like the idea that this young man with good physique should pass u uscotic life of austerity, and so asked him to be in the coinpany of tine young women and enjoy life. This episode las been narrated with great embellishment by S. Jabugir is r'oported to have asked hiin "सौख्यं विषयिकं त्यक्त्वा किमात्मा तपसेऽर्पितः । (ो. २३९) to which S. replies नने वयसि या दीक्षा नैव हास्यान सा सताम् । नदि पीयूषपानेऽपि प्रस्तावः प्रेक्ष्यते बुधैः ॥ (श्ले, २४०) and so forth. Jahāngir is not so easily convinced and further urgues with him. S. at this paint destribes hin kis druik: कृतकादम्बरीपानविघूर्णितविलोचनः (श्लो. २४८)- realistic touch. S. puts more cogent arguments for his conviction and the emperor listens to him with interest. Witli the emperor there is Nurjehān' who is very sceptical about the I See 13. Jagaunit.ha Pandits by v. A. Ramaswami Sastri. Anusmalinagar. 1543. 2 8. describes the beauty of Nurjahhp whotn hereferatoas Navamahalla - wbicb may be quoted here as a rar description of that grest Westy ty a Sanksrit writer. मारी रूपवृक्षस्य पुष्पेषोरिद कामिनी । प्रभा सौभाग्यरत्तस्य लक्ष्मीलावण्यवारिधेः ।। २५२ तदनगरिधर नूरमहाद्वारलेऽतिवल्लभा । जितं मासेव करेन्दो सीद्यस्या स्मितं यहिः ॥ २६० अनुलिपल्लवोलासि नखांशुकुसुमानितम् । असेवि भूपतग्म यस्या बाहुलनायुगम् ।। २६१ युग्मम् । काशीपट्टो नितम्बेऽस्ति मदनःशेऽपि नो नपि । इतीव दुःखतस्तस्या मध्यदेशः कृशोऽभवत् ।। २६२ अमितः शोमते यखा: श्यामला कुन्तलावलिः । विधुभमेण वक्त्रस्य रजनीवानुवारिणी ॥ २६३ वीज्यमानस्य विश्वेग लोचनाञ्चलबामरः । यत्कण्यो मुखराजस्य वेवासनमिवेक्ष्यते ॥ २६४ प्राजेऽनुमीयमाना या विपंची मधुरस्वरैः । मुक्तावलीव भारत्या यन्मुखे दशनावली ॥ २६५ अब्ज पन क्रमौ यस्या न हंसो यदसेवा । गतिनिर्जयल जैव जानीमस्तत्र कारणम् ।। २६६ इत्यस्याः सवले नात्रे महान् दोषोऽयमेव हि । अपि वर्षशस्तृप्तिः पश्यतः कस्यचिहि ॥ २५७ सत्यप्यन्तःपुरेसा रेमे गापतिमानसम् । लक्ष्ये नक्षत्रलऽपि चावन्द्रतनी व्रजेत् ।। २६८ S, refers to Nurjahon 49 Nurmahalla. Does this mesn that before this was written ghe W9 Thol nimed Norjaban A man bo familiar with Jobangir sad his court can be expecled to know the latest news. If this is so we eati say that the B.C. or at lenst this particular part must have been composed before 1616 A.D. as Nurmahal wag named Nurjahan in that year. Sep Pp. 217-18 Tuzük-I-Jahangire, translated into English by Rogers and Beveridge B.A.S. London, 1300. fam indebted to my friend Sri, Ratasmauirao B. Jhote and Dr. C. R. Narak for findiny cat lhje reference for me from TIJ, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION professions of this young man. तदा विश्वभराभर्तुः साऽप्रवीत् प्राणवलभा । area * #a: :14 : (** *68) S. retorts by quoting the example of tho king of Balakshas? बलक्षाधिपतिः किं न तारुण्येऽभूजितेन्द्रियः। (लो. २५०) and defends his thesis before the Queen in the Tärkika style. Nurjahūn haughtily ( AGI) answers the arguments. After the Queen finishes J. again joins issue and tries to show the absurdity of S.'s position and says "God created all thus for our enjoyment, and by obeying his command we shall be happy hereafter while you are uuhuppy here and will be so beroafter". It is to be noted that S. bus to concede- 'आदिष्टं सत्यमेवैतत प्रियं च प्रभुभिः ।' but retorts by saying Thai Elfar fatetai 7 Dec 11 ( 2.738). As the last argument J. uses the theory of Syūdvâda ugainst this Syudrādin and tells hin thut to be insistent on any one thing is Mitliyātra', the sin of heresy to be avoided by a Jain. $. replies that Syādada ix not to be used for defending sioful acts; in fact there should be bo Ekanta eren in Syidvūda. The king gets angry and finally uses the argumentum ad baculum and terrifies the monk with mad elephant but ultima toly banishes hitn from his court und orders him und his likes tu live only in jungles-i fit place for them. This episode in the poem describes a real event in Si's life as it is corroboratod by other sources aldo, Some of the arguments adyan. ced by Nurjahān and Jabāngir have a touch of reality, in as much as, they have a non-Hindu ring about them, If the incident deceribed here took place somewhere about 1613 A. D), we can say that B. C. was written when the wbole thing a bave been fresh in S's mind, 1 Tbía referenoe to the king Balakahit might be the result of his study of Persian literature. The legend however geems to have been lodispised. Because 8, says 41 416 सोलर सहरस महेलिओ तुरी बठारह लक्ख । सांइकेरद करणई छोड्या सहर विलक्ख । Here the mention of sixteen thousand women probably reflects the Kroga folklore. Here the reference roay be to the famona Saint lygme Ebrahim Ibu Adham, 4 native of Balkh, B. 0. 1. n. 87. p. 54]. 2 जगस्की कसं सर्वमस्माकं भुक्तिहेरावे । तन्निदेशं प्रकुर्वाणा अग्रेऽपि मुखिनो क्यम् ।। २९६ इहापि दुखिनो सूर्य परचारि दु:खिनः । भवितास्थेश्वरप्रोतमागातिक्रमतत्पराः ।। २९७ 3 Vijuys Tilaka Sarj-Rāsa, Adhikāre ee Sri Desai's Introduction p. 37 f. n, 88, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 KĀ VYAINAKASAKHANDANA This incident may bu cumpared with the Yuvuni affair in Jugaunăthu's life, Later on, S, ayuin becaine a favourite of Jahangir and got such titles from him as 'Nadira-Jawān' (the unique of the age) and Jahāo. gir-pasand (Fuvourite of Jabāngir ). Works of Siddhicandra. Sri Desai mentions the following nineteen works of S. (1) Kūdambari-Uttarārdhatikā. (2) Sobhuna-Stuti-tikā. (3) Vyddha-prastāvokti-ratuakala. (4) Bhūnucăndra.caritum (5) Bhuktámurastotrafrtti. (6) Tarkabhāşā-tikä. (7) Sapta-padirthi-tīkā (8) Jinašataka-tīk. 19) Vākuvadattāvětli or vyklyātikā (10) Kāvyaprakasakhun lana. (11) Anekārtliopasarga-yrtti (12) Dhātumunija (13) Akliyūtet-vāda-tīkā (14) Prikrta-subhāşitu sangraha (15) Sūkti-ratnākara (16) Mangula-vādu (17) Sapta-smaruuvitti (18) Lekha-likhana-paddhati. (19) Samskşiptu-Kādambari-Kathānaka To this list of Sri Desai two more works toted previously sbould be added, viz., (1) A Bịhattīkā of Kavyaprakāśu which S. composed in the name of his Guru. This work in uttributed to Bhānucandra by Sri Desai probably because he had not seen K. P. K. (2) Laghusiddhanta-kuunuudī. A paper ms of this work lies in the Bhangāru of Dayāvimalil, Ahuedabad, Sri Desai has givon the boginnings and ends of othor works. I give in the foot-noto a description of this Ms.' 1 ? 3 Some scholars do not regard this affair as historical, See pp. 19-21, JagsoDātha Punilita. In the liylit of this incident in a life, bacıwever, the whole question requires to be examined properly. See Introduction to B. C. p. 65. Introduction to B. C. pp. 71-76. The Ms, consists of 12 foliog. It begiug: ॐनमः श्रीगणेशाय || महोपाध्याय श्रीभानुचंद्रगणिभ्यो नमः । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 INTRODUCTION Sanskrit Renaissance in the Moghal Period. I referred earlier to the Sanskrit Renaissance in the Moghal Period-particularly in the reigus of Akbar, Jahangir and Shahjahan. We know that Jagannatha who was given the title of Papditaraja by Prof. V. A. Shahjahan at the instance of Asafkhan lived in this age.1 Ramaswami Sastri in his work Jagannatha Pandita' refers to about sixteen comtemporaries of whom Kavindracarya Sarasvati was a protege of Shahjahan. Sri Desai in his introduction to B. C. gives an account of thirteen Jaina priscis at the art of Akbar and thirteen The Jain at the court of Jahangir-some of whom are common, writers of the age were, however, many more than these. A review of the works of Brahmanical and Jain writers of the sixteenth and the soventeenth centuries would show that it was an age of vigorous literary and philosophical activity in India. as a whole and as the instances of Padmasundara-author of Akabaraśāhi – Śṛṁgāradarpana, Hiravijayasūri, Jagannatha, Bhanucandrs, Siddhicandra and Kavindracārya Sarasvati would prove, Sanskrit learning received encouragement and patronage in the courts of Akbar, Jahangir and Shābjahan. A note on Siddhicandra and Jagannatha The parallel references given above from Rasagangadhara and a more detailed comparison of K. P. K. and R. G. would go to show that there are many ideas which S. and Jagannatha hold in common and that in several cases even phrasing is identical; though they differ वाग्देवीमभिवं वंद्यचणं वृन्दारकाणां गणैः सर्वेषां तुधियामनुग्रह धियां गंभीर भावाद्भुतम् ध्याकरणं विद्रवाति वाकपतिः श्रीसिद्धिरेद्राभिषः शाधिश्रीमदकन्दर क्षितिपतेः प्रातिष्ठद्रयः ॥ १ पाठयो) It ends: शास्त्रान्तरेऽप्रविष्टानां बालानां चोपकारिका । निर्मिता सिद्धिचंद्रेश लघुसिद्धान्तकौमुदी ॥ १ इति पादसाह श्री अकबर eto. श्रीसिद्धिचंद्रगणिविरचिता लघुसिद्धांतकौमुदी समाप्ता ॥ छ ॥ शुभं भवतु । बाइ पुस्तके दृष्टं ato. संवत् १७०३ वर्षे फाल्गुन शुद्धि २ तियो भृगुदिने लिखितं ॥ छ ॥ श्रीः । The last page 42-k contains a seal. 1 p. 13. Jagannatha Pandita. 2 7 Ibid. (1) Khandadevamisra, (2) Jagadisatarkulaṁkāra (3) Gadadharabbaṭṭā. carya, (4) Bhattoji Diksita, (5) Naraynabhaṭṭa (of Malabar) (6) Nilakapṭha Diksita, (7) Rajacāļamaņi Dikşita, (8) Venkaṭādhvarin. (9) Cokhanathamakbin, (10) Dharmarajadhvarindra, (11) Rämalliadrambā, (13) Madhuravant (13) Kavindracaryasarasvati (14) M.M. Viśvauatha l'ancanana (15: Ramathadra Dikṣita, (16) Madhusudana Sarasvati. 3 pp. 1-22, Introduction to B. C. 4 See Sri M. D. Desai's Gujarati work-"Jaina Sahitys on Itihasa" pp. 535-651. 5 Publisher in the Ganga Oriental Series. Bikaner 1943, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 KÁVYAPRAKASAKHANDANA in their theories of Rasa. This naturally raises the questiou wicther S. was familiar with R. G. or not. That both, he and Jagannitha were contemporaries at the court of Jahāngir, if not those of Akbar and Shahjahan-becomes probablo from a comparison of their dates. S. lived from circa 1587 to circa 1666 A. 1), and must huyc frequented the courts of Akbar and Jahangir between 159 and 1627 (Juhangir died 7, Nov. 1627), Jagannātha la placed between circa 1590 to 1665 A. D. und enjoyed the patronage of Jaliāngir, SLūbjuliān and Dārii Slukoh between 1620 and 1050 A. D.'. It is likely that they might have been in some contuct. But it is not possible to say whether S. was familiar with R, G. The earliest Ms. of K. P, K. that is known was finished in 1647 A, D. while about R. G. we can only say that it might have been written bofore 1652 A, D,' From the frequent references to Navīvas in both the works it seems that a new school of poetic criticism hud come to be recognized as in Nyāya and so both S, and J. must have drawn upon the cominon ideas of Nuvinas, 1 Jagoonātha Panlita. p. 25. 3 Ibid., pp. 25-26. on matka Faolita. p. 25. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय-श्रीसिद्धिचन्द्रगणिविरचितं काव्यप्रकाशखण्डनम् । ॥ ऐं नमः । महोपाध्याय-श्रीमानुचन्द्रगधिगुरुभ्यो नमः ॥ श्रेयःश्रियं तनुमतां तनुतां स शम्भुः श्रीअश्वसेनधरणीरमणाजन्मा । उत्कण्ठिता त्रिपथगानिमतस्त्रिमूर्त्तिालोकते त्रिजगतीमिव यस्य कीर्तिः॥१ जीयाच्छीमदुदारवाचकसभालङ्कारहारोपमो लोके संप्रति हेममरिसदृशः श्रीभानुचन्द्रश्चिरम् । श्रीशत्रुञ्जयतीर्थशुल्कनिवह्मत्याजनोद्यधशाः शाहिश्रीमदकबरापित 'म हो पा ध्या य' दृप्यत्पदः ॥२ शाहेरफम्बरधराधिपमौलिमौलेश्चैतःसरोरुह विलासषडंदितुल्यः । विद्वच्चमत्कृतिकृते बुधसिद्धिचन्द्रः काव्यप्रकाशविकृतिं कुरुतेऽस्य शिष्यः ॥ ३ . मापाः कापि गिरो गुरोरिह पर दूष्यं परेषां वचो. वृन्दं मन्दधियां वृथा विलपितं नामाभिरुधितम् । अत्र खीयविभावनैकविदितं यत् कल्पितं कौतुकाद् वादिब्यूहनिमोहन कृतधियां तत्पीतये कल्पताम् ॥ ४ पररचितकान्यकण्टकशतखण्ड खण्ड]नताण्डवं कुर्मः । कवयोऽच दुईदाः खैरं खेलन्तु काव्यगहनेषु ॥ ५ तत्रादावनुवादपूर्वकं का व्य प्र का श ख ण्ड न मारभ्यते । नियतिकृतनियमरहितां लादेकमयीमनन्यपरतनाम् । नवरसरुचिरा निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति ॥ (म० का. १) नियतिरदृष्टं तस्कृतो नियमस्तदहितामियर्थः । अत एवोकम् - पारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः।। यथाऽस्मै शेषते विश्व तथैव परिवर्तते ॥ इति । अयमर्थो न साधुः । काव्येऽपि नियमस्य सत्यात् । शब्दे छन्दःप्रभृतिषु तथा च वसविशेषे तत्तद्रीतिविशेषे वचत्मबन्धे भाषाविशेषे च नियमस्य सस्यात् । अर्थेऽपि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- काव्यप्रकाशखण्डन मुखादिकं चन्द्रत्यादिनैव वर्ण्यते नान्येनेति नियम[स्य] सत्त्वात् । 'अथ शब्दार्थों कान्य'मिस्युच्यते । अथें तु नित्यानित्यसाधारणे नादृष्टजन्यत्वमस्तीति चेन्न । अथें काव्यत्वस्य निराकरिष्यमाणत्वात् । 'हादैकमयी'मिति । इदमपि विरुद्धम् । अन्येषां भावानामिव काव्यस्यापि सुख-दुःख-मोहात्मकत्वस्य संभवात् । 'अनन्यपरतन्त्रा मिति । इदमपि न चारु । तथा हि मनान्यपदस्य भारत्यन्यत्वस्य वक्तव्यत्वे भारत्यन्यकवितत्प्रतिभादेः काव्ये कारणत्वसंभवात् । 'नवरसरुचिरा'[५० १.२ मिति । नवरसा चासौ रुचिरा चेति कर्मधारयः । वृत्तौ 'पोरसा हृद्या न तैरिति व्यक्तिद्वयदर्शनात् । अथवाऽस्तु तृतीयातत्पुरुषः । न च नवरसीति प्रयोगापत्तिः । त्रिभुवनमित्यादिप्रयोगवदस्यापि सिद्धेः । इदमप्यसाघीयः । बीभत्सादीनां रसत्वस्य निराकरिष्यमाणत्वात् । रसे नवत्वासंभवात् । अथ काव्यस्य फलम् - काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवतरक्षतये । सद्यापरिनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥ (मू० का० २) इदमप्युपलक्षणम् । काव्यस्य परमेश्वरस्तवादिरूपतया चतुर्वर्गस्यैव साधनत्वादिति । अथास्य कारणम् - .. ,शक्तिनिपुणता लोककाव्यशास्त्राद्यवेक्षणात् । काव्यज्ञशिक्षयाऽभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ॥ (मृ• का० ३) अन्न तस्य काव्यस्य उद्वे निर्माणे समुल्लासे त्रयः शक्ति-निपुणताऽभ्यासा हेतुरित्युक्तम् । तदपि तुच्छम् । डिम्भादावपि काव्योद्भवदर्शनात् , शक्तेरेक हेतुत्वात् । अथास्य लक्षणम् तददोषौ शब्दार्थों सगुणायनलती पुनः कापि । ( मू० का० ४, पू.) तथा च अदोषत्वे सति सगुणत्वे च सति स्फुटालङ्काररसान्यतरवत्त्वं काव्यत्वमिति फलितार्थः । 'कचित् तु स्फुटालङ्कारविरहेजपि न काव्यत्वहानिः ।' नोऽल्पार्थत्वात् । अस्पत्वस्य चात्रास्फुट एव विश्रान्तेः । स्फुटालकारविरहोदाहरणं यथा यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चैत्रक्षपा स्ते चोन्मीलितमालतीसुरभयः प्रौढाः कदम्बानिलाः । सा चैवासि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधी - रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते । अनेन वाक्येन तत्रोपकान्तसमागमोऽपि ध्वन्यत इति केचित् । तन्न । स एव हि वर' इत्यनेन पुरुषान्तरनिषेधात् । निष्कारणकदोषोद्भावनस्य च प्रामाणिकानामसम्मतत्वात् । वयं पर' इति मुद्रितपाठः। २ छोके शास्त्रकाव्याअवेक्षणा' इति मु. पा.. . . . . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उल्लास तु शोभाविशेष एवोत्कण्ठाकारणमिति बूमः । यद्यपि कतिपयाक्षराणामत्र द्विरावृतिरस्ती. त्यनुप्रासः संभाव्यते । तथापि -- 'खच्छन्दोच्छलदच्छकच्छकुह[ ५० २.१ रच्छातेतराम्बुच्छटा भूछन्मोहमहर्षिहर्षे त्यादिवचतुष्पश्चाद्यावृत्त्या [अ]मावान्नात्र स्फुटताऽनुप्रासखेति गम्यम् । विशेषविचारस्त्वस्मत्कृतबृहट्टीकातोऽवसेयः । अत्र केचित् - 'अदोषत्वं यत्किश्चिदोषामावो वा यावदोषाभायो वा ? । नाद्यः, अव्यावर्तकत्वात् । नान्त्यः, तथासति काव्यलक्षणं निर्विषयं विरलविषयं वा स्यात् । यावदोषाणां दुनिवारत्वात् । तस्माद् 'वाक्यं रसात्मकं काव्यमिति लक्षणम् । तथा च दुष्टेऽपि रसान्वये काव्यत्वमस्त्येव परन्त्वपकर्षमात्रम् । तदुक्तम् कीटादिविन्द्ररनादिसाधारण्येन काव्यतर। दुष्टेष्वपि मता यत्र रसाधनुगमः स्फुटः ॥ इति । एवं चालकारादिसत्त्वे उत्कर्षमात्रत्वम्' इति वदन्ति । परे तु 'यदंशे दोषस्तदंशेऽकाव्यत्वम् , यदंबो टोषाभावस्तदशे का यत्नम, ग्रथा एकमेव ज्ञानं प्रमाऽप्रमा चेति. दोषसामान्याभाव एवं विवक्षणीय' इत्याहुः | तन्न । एकमेव पचं अंशे काव्यं अंशेऽकाव्यमिति व्यवहाराभावात् । अन्ये तु दोषसामान्याभाव एवं लक्षणे प्रवेश्यः, विरल विषयत्वं काव्यलक्षणसेष्टमेव. दुष्टं काव्यमिति प्रयोगस्य दुष्टो हेतुरितिवत् समर्थनीयत्वाद्' इति पाहुः । परे तु 'काव्यमाखादुजीवातुः पदसंदर्भ' इति वदन्ति । तन्न । आस्वादुजीवातुतावच्छेदकरूपाऽपरिचये तस्य ज्ञातुमशक्यत्वात् । तत्परिचये तस्यैव लक्षणत्वसंभवात् । नवीनास्तु 'काव्यत्वमखण्डोपाधिः, चमत्कारजनकतावच्छेदकस्य काव्यपदप्रवृत्तिनिमित्तस्य चान्यस्य वमशक्यत्वात् , तदेव लक्षणमस्तु, किमनेनाननुगतेन लक्षणेन' इति वदन्ति । 'सगुणाविति गुणन्यनकावित्यर्थः । गुणानां रसैकधर्मस्वात् शब्दार्थयोः सगुणत्वाभावात् । 'अनलकृती' इति सालङ्कारावित्यर्थः । यदपि 'काव्यत्वं शब्दार्थोमयवृत्ति तदपि न । काव्यं करोति, काव्यं पठति, शृणोति वेति व्यवहाराच्छब्द एव काव्यत्वं कल्पनीयम् । ननु आस्वादन्यञ्जकत्वमेव काव्यत्वप्रयोजकम् , तच शब्देऽर्थे चावि[प० २.२ ] शिष्टम् , तथा च कथं काव्यं करोतीति व्यवहारस्य शब्दमात्रपरत्वम् ? इति चेत् न । आस्वादन्यञ्जकानामन्येषामपि सत्त्वात् तेष्वपि काव्यत्वं स्वीकुरु । उभयवृत्तित्वकल्पने गौरवात् काव्यं करोतीति काव्यपदस्य शब्दमानपरत्वे बीजत्वात् । - अथ' काव्यभेदानाह -- इदमुत्तममतिशयिनि व्यङ्ये वाच्यात् ध्वनिर्बुधैः कथितः॥ (मू० का० ४, उ.) व्यङ्गये वाच्यात् भतिशयिनि अधिकचमत्कारकारिणि सति उत्तम काव्यम् । बुधैवैया: १ 'निजातीयमुखाभिव्यक्तिजनकत्ताव छेदकस्पेयर्थः । इति मूलादर्स टिप्पणी । . Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन करणैर्यमा स्फोटव्यशब्दस्य ध्वनिरिति व्यवहारः कृतः, तथाऽन्यैरपि आलङ्कारिभिर्वाच्यव्यञ्जनक्षमस्य शब्दार्थयुगलस्य | अत्रेदं बोध्यम् । स्फुटयत्यर्थमिति स्फोटः । ननु शब्दात् कथं पदार्थवाक्यार्थधीः १. आशुविनाशिनां क्रमिकाणां मेलकाभावाद, आनुपूर्व्याः ज्ञातुमशक्यत्वाच्च । तेन च पूर्वपूर्ववर्णानुभवजनितसंस्कार सहकृतेन व्यन्तिमवर्णानुभवेन स्फोटो व्यज्यते । स च ध्वन्यात्मकः । शब्दो नित्यो ब्रह्मखरूपः सकलप्रत्यायन क्षमोऽश्रीक्रियते । तयकच वर्णात्मकः शब्दः । वृतिस्तु व्यञ्जनैव । तद्व्यञ्जकः शब्दो ध्वनित्वेन ब्यवद्दियत इति वैयाकरणमतम् । तदसत् । एवमन्तिमवर्णानुभवस्यैव पदार्थप्रतीतिक्षमत्वे आनुपूर्वज्ञानस्योपायसंभवेन किमन्तर्गडना स्फोटेन । नायकानयनाय प्रेषितां तं संभुज्य समागतां दूतीं प्रति काचित् स्वानकार्य प्रदर्शनमुखेन संभोगं प्रकाशयति - निःशेषच्युतचन्दनं स्वनतटं निर्मृष्टरागोऽघरो नेत्रे दूरमनने पुलकिता तन्वी तवेयं तनुः । मिथ्यावादिनि दति । बान्धवजनस्याज्ञातपीडागमा (मे १) वा स्नातुमितो गताऽसि न पुनस्तस्याथमस्यान्तिकम् ॥ इदमुत्तमं काव्यम् । अस्यार्थः - दूतस्य मिध्याभाषणं स्वभावः इति दूति (ती). न तु सखी. सत्त्वे मत्प्रतारणं मत्प्रियसंभोगश्च न स्यात् । उद्देश्यकार्या निर्वाहकतया बान्धवजनस्य पीडा भवति तत्र जोनास । तस्य नीचाभिलाषित्वेन प्रसिद्धस्य अतः अधमस्य । नीच [१० ३.१] कार्यकर्तुः प्राधान्येन । अधमशब्दस्य पदान्तरापेक्षया झटिति प्रकृतार्थव्यञ्जकत्वेन प्राधान्यम् । अत्र स्तनतटं निःशेष ( च्यु) तचन्दनं न स्तनसन्ध्यादि तत्र तथाविधनायककरस्पर्शायोगात् । एवमधरः परौष्ठः, तत्र रागो निर्मृष्टः, न तु पूर्वोष्ठे, तत्र चुम्बन निषेधात् । एवं नेत्रमध्ये चुम्मननिषेधात् दूरतएव निरञ्जने । एतत् सर्वं रत एव संभवति न तु खाने । स्वानं वेत् सविच्छेदेनैव चन्दनच्यवनादि स्यात् । तथा च तथाविधचन्दनच्यवनादीनां रतैकसाध्यानां जानकार्यत्वबोधेन खातुं गताऽसीत्यत्र निषेधो न गताऽसीत्यत्र विधिश्व लक्ष्यते । न च निषेघे कथं लक्षणेति वाच्यम् । अन्यथाऽसंगत्या पत्तेः । रन्तुमिति प्रयोजनं चेत्याहुः । तन्न । तथाविधानामपि चन्दनच्यवनादीनां खानकार्यत्वं संभवत्येव । तथा हि- वापीं स्नातुं गताऽसि न तु गृहम् । एतच विशिष्य चापपदोपादानात् लक्ष्यते । तथा स्तनतट एव निश्शेषच्युतिर्म स्तनसन्ध्यादिषु। वापीतीरस्य जनसङ्कीर्णतया तथाविधमार्जनाभावाद्, गृह एव तत्संभवात् । तथा, पूर्वोष्ठस्य न्युब्जतया बहलजलसम्बन्धाभावात्, न तत्र निश्शेषरामच्युतिः । किन्तु अधर एष, उत्तानत्वेन बहलजलसम्बन्धात् । तथा, स्नानकाले मुद्रणात् नेत्रमध्ये नाव नराहित्यम्, किन्तु दूरत एव । इत्यादिरूपेण स्नानकार्यत्वस्य संभवात् बाधकाभावात् कथं लक्षणा ! नवीना (नस्तु वक्तृबोद्धव्यवैशिष्ट्यात् व्यज्ञनैव तदाह । तदन्तिकमेव रन्तुं गताऽसीति व्यज्यत इति । मिश्रास्तु 'न गताऽसीति नञि काकुः, न गताऽसि ? अपि तु गताऽस्येवेत्यर्थः । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उल्लास 'तदन्तिकमेव' इत्येवकारो गताऽसीत्यनन्तरं योज्य' इत्याहुः । अत्र त्वय्यकृतज्ञायां मान्धवबुद्ध्या यद् विश्वसिमि, यत्र तत्र दुर्विदग्धे दृढमनुरक्तासि, तत् युक्तमेव । मय्येवंविधवञ्चनपात्रत्वमितीहेितुकविप्रलम्भभेदसंचारिनिवेदध्वनिः, तदनुगुणश्च दूतीसंभोगः, चन्दनच्यवनादीनां च वाच्यानां [५० ३.२ ] परिरम्भचुम्बनादीनां संभोगोत्कर्षद्वारेणेाया उत्तेजकानां निवेदोस्कर्षकत्वमवसेयम् । अताशि गुणीभूतव्यङ्ग्यं व्याये तु मध्यमम् । (भू. का० ५, पू०) व्यङ्ग्ये वाच्यात् अनतिशायिनि अधिकचमत्काराकारिणि गुणीभूतव्यजयं तन्मध्यम काव्यम् । चित्रान्यत्वेऽपीति विशेषणम् । तेन चित्रे नाव्याप्तिः । उदाहरणम् - ग्रामतरुणं तरुण्या नववञ्जुलमञ्जरीसनाथकरम् । पश्यन्त्या भवति मुहुर्नितरां मलिना मुखच्छाया ॥ अत्र व ललितागृहे दचसङ्केता नागतेति व्यङ्ग्यं गुणीभूतम् , तदपेक्षया वाच्यस्यैव चमत्कारित्वात् । अत्र व्यायेन सङ्केतभनेन विप्रलम्मामासस्य वाच्यवदनकान्तिमा लिन्यमुखेनैव परिपोषणमिति तन्मुखप्रेक्षित्वात् तस्य गुणीभूतत्वमिति । आन्तरालिकन्यक्क्यापेक्षया गुणीमूतव्यङ्ग्यत्वम् , रसापेक्षया रसध्वनित्वमित्यवधेयम् । शब्दचित्रं वाच्यचित्रमव्ययं त्वयरं स्मृतम् ॥ (मू० का० ५, उ०) । अव्ययं चित्रमिति सामान्यलक्षणम् | शब्दचित्रं वाच्यचित्रमिति विभागः । चित्रमिति गुणालङ्कारयुक्तम् । यत्र तयोरेव प्राधान्येन चमत्कारकारित्वमित्यर्थः । अन्य स्फुटप्रतीयमानव्यानरहितम् । अवर अधमम् । तत्र शब्दचित्रमाह - खच्छन्दोच्छलदच्छकच्छकुहरच्छातेतराम्बुच्छटा मूर्छन्मोहमहर्षिहर्षविहितस्नानाहिकाऽहाय वः । भिन्यादुद्यदुदारदर्दुरदरी दीर्घाऽदरिद्रद्रुम द्रोहोद्रेकमहोर्मिमेदुरमदा मन्दाकिनी मन्दताम् ॥ मन्दाकिनी वः युष्माकं अह्राय झटिति मन्दतां भिन्यादित्यन्ययः । खच्छन्दं स्वाधीनं न तु वातादिपरतत्रम् । उच्छलदित्यम्घुविशेषणम् । कच्छे जलसमीपे तरकैः खननात् यत्तुहरं बिलं छातमल्पं तदितरत् छटा परम्परा तया मूर्छन् प्रादुर्भवन् मोहो वैचित्यं विस्मयो वा येषाम् । दर्दुरः पर्वतविशेषः तस्य दर्या गुहायां दैर्ध्य यस्यास्तां मित्वा झटिति जलनिर्गमनेन दैर्य न तु तत्र तया जलस्थगनं तेन वेगातिशयः । केचित् तु 'मन्दाकिनी [प० ४.१ ] गा, दर्दुरो भेको न तु पर्वतविशेषः, तस्य दक्षिणदिगिरित्वेन गङ्गासम्बन्धाभावात्' इत्याहुः । अदरिद्राः परिणाहोच्छायादिवन्तः, द्रोहः पातनं उद्रेक आधिक्यं तन्मयास्तद्युक्ता ये तरङ्गाः त एव निबिडः स्निग्धो वा भदोऽहमारो यस्याः । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकशिखण्डन अर्थचित्रमाह- विनिर्गतं मानदमात्ममन्दिराद् भवत्युपश्रुत्य यदृच्छयाऽपि यम् । ससंभ्रमेन्द्रद्वतपातितार्गला निमीलिताक्षीव मियाऽमरावती ॥ मानदमिति शत्रूणां मानस्य खण्डकं मानस्य दातारं हयग्रीवदैत्यं खगेहात् प्रस्थित श्रुत्वाऽपि भिया अमरावती निमीलितनेत्रेच भवति । कीदृशी ! ससंभ्रमेण सभयेनेन्द्रेण हृतं शीघ्रं पातिता दत्ता अर्गला द्वारदण्डो यस्याः सा तादृक् । "संभ्रमः साध्वसेऽपि स्यात् संवेगादरयोरपि' - इति विश्वः । अत्र तूत्प्रेक्षालङ्कारः । परन्तु रसादी कथं तात्पर्यविरोऽस्फुटतरत्वं वा तन्न ज्ञायते । हयग्रीवस्य वर्णनीयत प्रभावस्य स्फुटप्रतीतेः । अत्र केचित् - 'चित्रं न काव्यभेदः । व्यङ्ग्यस्य प्राधान्येन प्रतीतो ध्वनित्वं तदन्यथागुणीभूतत्वमिति प्रकारान्तराभावादिति । तन्न । वाच्य वाचकवैचित्र्यप्रतीतिव्यवहितप्रती[ति]करसवत्त्वस्यास्फुटव्यङ्ग्यत्वस्य तृतीयप्रकारस्य संभवात् । ननु रसध्वनित्वादिना अयं तृतीयविभागः कृतः । स च नोपपद्यते । तथा हि- एतेषु त्रिषु सर्वत्र रसादिकं प्रतीयते ने वा । नान्त्यः, तदा यत्र रसादिकं न प्रतीयते तत्र काव्यत्वविरहापत्तेः । नाद्यः, तदा कथं ध्वनित्वादिविभागः ? । न च मध्यमे व्ययस्याप्राधान्याद् विभाग इति वाच्यम् । अन्तरालिकव्ययस्याप्राधान्येऽपि तस्याकिश्चित्करत्वेन चमत्कारापेक्षया सर्वेषां ध्वनिलसंभवात् । अथ चित्रे गुणालङ्कारा हितचमत्कारेण रसस्तिरोधीयत इति चित्रत्वम्, इति चेत्, नं, अनवकोघात् । तिरोधीयत इत्यस्य कोर्थः । रसादेः प्रतीतिप्रतिबन्धो विलम्बेन प्रतीतिवी । नाथः, तथा सति काव्यत्य विरहापत्तेः । नान्त्यः, गुणालङ्कारा हि रसोद्बोधकाः । [ १० ४.२ ] तथा च तज्ज्ञानतदाहितचमत्कारान्तरं रसोद्वोघो युज्यत एवेति कथं न ध्वनित्वम् ? अत एव रसध्वनावपि गुणालङ्काररचना साधीयसी महाकवीनां दृश्यते । यथा --- गच्छति पुरः शरीरं धावति पश्चादसंस्थितं चेतः । चीनांशुक्रमिष केोः प्रतिवार्त नीयमानस्य ॥ इत्यत्र । ननु तर्हि 'स्वच्छन्दे' त्यादावपि पूर्वोक्तपद्यवद् ध्वनित्वे उत्तमत्वं स्यात् इति चेन्न । अनुप्रासानामसमीचीनत्वेन तथाविधगङ्गाविषयक भावोत्कर्षवर्णनाविरहाच्चानुत्तमत्वात् । अत एव महिमभङ्गानामस्मिन् पक्ष एव पक्षपातः । ॥ इति पादसाह श्री अकव्यरसूर्यसहस्रनामाध्यापक श्रीशत्रु अयतीर्थंकर मोचनाचने कसुकृत विद्यापकमहोपाध्याय - श्री भानुचन्द्रमणिशिष्याष्टोत्तरशताव घानसाधन प्रमुदित पादसाह श्री अकब्रजलालदीनप्रदत्त-षु (खु) स्फट्ट मापरामि धाग महोपाध्याय - श्री सिद्धिचन्द्रमणिविरचिते काव्यप्रकाश (ल) ण्डने प्रथम उल्लासः ॥ - ॐ ' Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 द्वितीय उल्लास द्वितीय उल्लासः । इदानीं शब्दार्थयोः खरूपमभिधातुं तयोर्विभागमाह स्यादू वाचको लोक्षणिकः शब्दोऽय व्यञ्जकस्त्रिधा । मू० का ० ६, पू० ) ara काव्ये, एषामर्था वाच्य लक्ष्य व्यस्यास्त्रयः । अथैषां स्वरूपम् - शमिवाचकrवं शक्ति मदर ईश्वरेच्छा विशेषोऽथ पदार्थान्तरमेव सा ॥ ! - चैत्र यस्य शक्तिस्तत्र तस्य वाचकत्वम् । यद्यप्यर्थक्रियाकारितया व्यक्तावेव शक्तिर्युक्ता । अर्थः प्रयोजनं किया निर्वाहः तथापि जातावेव शक्तिः तत्तदूविशिष्टायां व्यक्तौ गौरवादानन्त्याद् व्यभिचाराच । यत्र त्वानन्त्य व्यभिचारौ न स्तः तत्राकाशादिपदे व्यक्तावेव शक्तिः । जाति विशिष्टबोधस्तु जातिशक्तं पदं जातिविशिष्टं बोधयतीति कार्यकारणभावकल्पनया लक्षणया वा आक्षेपेण व्यञ्जनया वेति ध्येयम् । ईश्वरेच्छाविशेष इति । अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य इत्याकारिका ईश्वरेच्छा | ननु अस्य शक्तित्व एतादृश्या लक्षणास्थलेऽपि सत्त्वात् [ प ५. १] लक्षणोच्छेदः स्यात् ? इति चेत्, न । गङ्गापदात् प्रवाहरूपोऽर्थो बोद्धव्य इति विशेषरूपाया ईश्वरेच्छायाः शक्तित्वाभ्युपगमात् तत्रैवानुशासनादिप्रमाणसत्त्वाच्च । मीमांसकमेतद्वाह ( १ ) पदार्थान्तरमिति । लाक्षणिकं स्वरूपमाह - मुख्यार्थान्वया स्यात् अन्यार्थप्रतिपत्तिकृत् । लक्षणा शक्यसम्बन्धो रूढितोऽथ प्रयोजनात् ॥ ७ अत्र तात्पर्यविषयान्वये मुख्यार्थतावच्छेदकरूपेण मुख्यार्थप्रतियोगिता विरह इति चिवक्षणीयम् । अन्यथा "काकेभ्यो दधि रक्ष्यता' मित्यजहत्स्वार्थायामव्याप्तिः दध्युपपातकत्वेन काकस्याप्यन्वयात् । विवक्षिते तु काकत्वेन अन्वयबाधान्नाव्याप्तिः । विभजते- रूढिरित्यादि । रूढितः प्रसिद्धेः प्रयोग प्रवाहादिति यावत् । अत्र 'कर्मणि कुशल' इत्यादी दर्भग्रहणरूपमुख्यार्थबाधात् 'गङ्गायां घोष' इत्यादौ च घोषाद्यधिकरणताऽसंभवात् प्रसिद्धे[:] | व(बृक्षतव्यदिप्रतीतिस्तु शक्यसम्बन्धग्रहपूर्विकेति शक्यसम्बन्धो लक्षणेत्युच्यते । प्रयोजनवती विभजते यंत स्वार्थेन पराक्षेपः स्वार्थ हित्वाऽन्यकल्पनम् । 'उपादानं लक्षणं चेत्युक्ता शुद्धैव सा द्विधा ॥' ( मू० का ० १०, उ० ) २ यत्र यस्य शक्तिः स १ 'शक्तिलक्षणाव्यञ्जनात्मकवृतीनां त्रिष्माच्छन्दे त्रिस्वमुपचर्यत इत्यर्थः । तस्य वाचक इति निष्कर्षः । ३ आकाशादिपदेषु जात्यभावादेकव्यक्तिकेषु व्यक्तावेव शक्तिरिति निष्कर्षः । ४ जातावेव शक्तिव्यतावाक्षेप इति भाट्टाः । तद्धी नान्तरीकतया व्यक्तेर्भानमिति प्राभाकराः । जात्याकृतिव्यक्तिषु शक्तिरिति गौतम-वैशेषिकौ । जाति व्यक्त्योः शक्तिरिति पाणिनीयाः ।' इति मूलादर्शे टिप्पण्यः । मुद्रितस्तकेषु तु श्लोकोऽयं प्रायोऽन्यथारूपेण दरीश्यते । यथा "मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथ प्रयोजनात् । अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सां लक्षणारोपिता क्रिया ॥" लोका९ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन एतावेवा(एते चैवा)जहत्वार्थ-जहत्वाथै प्रकीर्तिते ॥ तथा च 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यता मित्यत्र 'गायों घोष' इत्यत्र च उभयरूपा चेयं शुद्धा, न गौणी । उपचारेणामिश्रितत्वात् । उपचारश्च सादृश्येन सम्बन्धेन प्रवृत्तिः (ति ः) भिन्नत्वेन प्रतीयमानयोरेक्यारोपणमिति वा । भेदान्तरमाह - सारोपाऽन्या तु यत्रोक्तो अनु(न)पछुत भेदकौ ।' स्यातां तुल्याधिकरणावारोप्यारोपगोचरौ ।। ' पूर्व शुद्धत्युक्तम् । इह त्वन्याऽशुद्धा गौणीत्यर्थः । यत्र विषयी विषयश्च अनु(न)पहुतवैषम्यौ सामानाधिकरण्येन निर्देश्येते सा सारोपा । भेदान्तरमाह - विषय्यन्त कृतेऽन्यस्मिन् सा स्यात् साध्यवसानिका ॥ (मू. का- ११, २०) ' . विषयिणा आरोप्यमाणेन अन्यमिन् आरोपविषये अन्तःकृते विषयनिष्ठासाधारणप० ५.२] 'धर्मग्रहं विना तादात्म्येन प्रत्यायिते सा लक्षणा साध्यवसानिका । यत्र विषयोऽसाधारण वर्मेण नोच्यते । विषय्येवोच्यते । परस्परं च तादात्म्याध्यासः । '. . भेदाविमौ च साहयात् सम्बन्धान्तरतस्तथा । __ गौणौ शुद्धी व विज्ञेयो लक्षणा तेन षड्विधा ॥ (मू० का० १२) गौर्वाहीको गौरेवायम् । आयुर्घत' आयुरेवेदम् । सादृश्यं सजातीयगुणवत्त्वम् , स एव सम्बन्धः । तत्त्वं च विसमवेतसमवायित्वम् । यथा गौर्चाहीक: गौरेवायमिति । अत्र गौणभेदयोस्ताद्रूप्यप्रतीतिः । सर्वथैवाभेदावगमश्च प्रयोजनम् । अत्र गोसादृश्यं लक्ष्यतावच्छेदकं तेनैव प्रकारेण गोशब्देन वाहीको बोध्यत' इति केचित् । अपरे तु 'गोत्वेनैव गोशब्देन वाहीको बोध्यते । यथा मुखं चन्द्र इत्यादावपि चन्द्रत्वादिनैव मुखप्रतीतिः' इत्याहुः । न चायोग्यताज्ञानात् कथं एतादृशी घीरिति वाच्यम् । 'अत्यन्तासत्यपि-पर्थे ज्ञानं शब्दः करोति हि' इति न्यायात् । आहार्यारोपाद् वा तत्संभवात् । साश्यासादृश्यादन्यत् कार्य-कारणभावादिसम्बन्धान्तरम् । यथा आयुर्घतम्, आयुरेवेदम् । अत्रान्यवैलक्षण्येन चाव्यभिचारेण च तत्कार्यकारित्वं फलम् । एवमन्यत्रापि बोयम् । तया लक्षणया प्रवर्चत इति लाक्षणिकः शब्दः । __ अथ व्यञ्जको निरूप्यते- 'शब्दोषव्यञ्जक' इति । इदमनुपपन्नम् । व्यञ्जनायां प्रमाणामावात् । तथा हि - यत्र लक्षणा मूलध्वनिरभ्युपगम्यते तत्र तात्पर्यानुपपत्त्या शैत्यपावनत्यादिविमुनियपुस्तकेषु तु पुनरेषः रेकाई ईक्पालामको लभ्यते "सारोपाऽन्या तु यत्रोक्तो विषयी विषयस्तथा।" लोकार.. 'तत्र प्रयोजनवती पद्विधा । एका उपादानरूपा । भन्या लक्षणरूपा शुद्धा । एते मजहस्ताी बहरमार्था च । तथा सारोपण । साध्यवसामा शुद्धा गौणी च । २ गोडशो वाहीक इत्यर्थः । सराश्यसम्बन्धेन लक्षणा गौणी । हर्ष अमेदेन लक्षणा मुख्या । ४ यत्र लक्ष्याथैखाभिष्याकया सा वक्षणाभूलम्वनिः । इति मूलादर्श एताः टिप्पम्यः । आदशैं 'स्वसमवेतसमवेतसमवामिसमादित्वं' एतादृषी पंसिर्लभ्यते। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास शिष्टतीरे लक्षणया विशिष्टार्थपतीतिर्भविष्यति । तदर्थ किं व्यञ्जनाकल्पनेन ! । न च शक्यस्य विशिष्टेन सह एकसम्बन्धाभावात् कथं विशिष्ट लक्षणेति वाच्यम् । यस्किश्चिदेकसम्बन्धस्य ज्ञानविषयत्वादेवतुं शक्यत्वात् । अस्मिन् पसे रूढिरिव प्रयोजनं विना लक्षणेत्यवघेयम् । मभिषामूलध्वनौ तु नानार्थि स्थले - भद्रात्मनो दुरधिरोहतनोविशालवंशोचते कृतशिलीमुखसंग्रहस्य । यस्खा.प. ६.१]नुपाठवगतेः परवारणस्य दानाम्बुसेकसुभगः सततं करोऽभूत् ।। यस्य करः शयः शुण्डा वा, सततं दानं वितरणं मदो वा, तस्याम्बुनः सेकेन सुन्दरोऽभूत् । कीदृशस्य भद्रः श्रेष्ठः आत्मा यस्य, भद्रजातीयस्पेत्ति वा । . "मदो कदे नपे रामवरे मेरुकदम्बके । हसिजात्यन्तरे भद्रो वाच्यवच्छेष्ठसाधुनः ॥" - इति विश्वः । दुरधिरोहतनोः दुर्लभदर्शनस्य दुरारोहस्य वा, विशाले वंशे अन्ववाये पृष्ठोपरिमागे वा, उमतिर्यस्य स तस्य । "वंशो वेणौ कुले वर्ग पृष्ठस्यावयवेऽपि च ।" - इति विश्वः । तमा, कृतः शिलीमुखानां बाणानां मृशाणां वा सटहो येन स तस्य । ___"शिलीमुखोऽलि-बाणयोः ।" - इति विश्वः । अनुपप्लवगतेः निरुपद्ववचेष्टितस्य स्थिरगमनस्य वा । ___ "उपप्लवः सैहिकेये विश्लवोत्पातयोरपि ।" - इति विश्वः । परवारणस्य परेषा नियन्तुः, उत्कृष्टहस्तिनो वा इत्यक्षरार्थः । इत्यादौ स्थले राज-गजोमयार्थ एवं फलबलात् तात्पर्यग्रहादुमयप्रतीतिर्भविष्यति किं व्यञ्जनया । नानादिन्यत्र तु मुख्यार्थबाधे तत्तदर्थेषु रसादिषु तात्पर्यानुपपत्त्या पूर्ववत् लक्षणैव । यत् तु तसद् वर्णानां तत्सद् रसन्यञ्जकतया व्यञ्जनाऽवश्यमाश्रयणीयेति तदतीवतुच्छम् , अनभ्युपगमपराहतत्वात् । वस्तुतस्तु नाट्यादिदर्शनजन्यसुखविशेषस्यैव रसत्वस्य वक्ष्यमाणत्वेन तस्य व्यवस्वाभावात् , अपि तु साक्षात्कारविषयत्वात् ।। अथ 'रुचिं कुर्वि'त्यादावसभ्यार्थोपस्थापकत्वेन व्यञ्जना स्वीकर्तव्या इति चेन्न । अंपशान्तरवत् तस्यापि तदर्थोपस्थापकत्वात् । अथ द्वयं गतं संप्रति शोचनीयतां समागमग्रार्थनया कपालिनः । इत्यत्र पिनाक्यादिपदवलक्षण्येन कपाल्यादिपदानां व्यञ्जनां विना शिवनिन्दाबोधकत्वाभावात् कथं काव्यानुगुणत्वम् । इति चेत्, मैवम् ; तत्र योगबलात् कपालिपदस्य कपालित्वरूपशिव. प्रत्यायकत्वेन काव्यानुगुणस्वात् । वस्तुतस्तु अनुमानेन व्यञ्जनाऽन्यथासिद्धा । तथा हि - । यया नगरीपदस्य पसे शमिनासि तथापि शक्तिभ्रमेण वरपदात् तदुपस्थिति यते । तथैवात्रापि शक्किममात् दुपस्थितिर्भविष्यतीत्याशयः । का०प्र०२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० काव्यप्रकाशखण्डेन भम धम्म वीसत्थो सो सुनओ अज मारिओ देन । गोडा १ ६.२ ] इकच्छ कुडंगवासिणा दरिअसिंहेन ॥ 2 इत्यत्र गृहे भयहेतुश्च निवृत्तिजन्यभ्रमण विधानेन गोदावरीतीरस्य सिंहवत्वेन मीश्रमणायोग्यत्वं व्ययम् । तत् तु गोदावरीतीरं मीरुभ्रमणायोग्यं सिंहवत्वात् । यतैवं तन्नैवम्, यथा गृहम् इत्यनुमानेन सेत्स्यांते, किं व्यञ्जनया । न च भीरुरपि गुरो: प्रभोः निर्देशेन प्रियानुरागेण वा भ्रमतीति व्यभिचार इति वाच्यम् । प्रभुनिर्देशाद्यनुपाधिकत्वेन भ्रमणस्य विशेषणीयत्वेन व्यभिचाराभावात् । नै च प्रतारिकावाक्यत्वेन वाक्यात् सिंहवस्वं न निश्चितमिति वाच्यम् । प्रतारिकाचाक्यादपि तत्त्वज्ञानदेशायां तन्निश्चयोत्पत्तेः । अथ व्यज्यत इति प्रतीत्या व्यञ्जनासिद्धि:, इति चेत्, न तस्याः प्रतीतेरनुमीयत इति प्रतीत्या सार्थत्वात् । अन्ये तु सोऽयमिषोरिव दीर्घदीर्घतरो व्यापार इति यत्परः शब्दः से शब्दार्थ इति न्यायाद् 'भम धम्मिअ' इत्यादौ भ्रमणायोग्यत्वं वाच्यमेव, न व्यङ्ग्यम् । न च यत्परः शब्द इत्यादेर्यवंशो विधेयः तत्रैव तात्पर्यमित्यर्थः । यथा दध्ना जुहोतीत्यत्र हवनस्यान्यतः सिद्धेर्दध्यादेः करणत्वे, न तु शब्दश्रवणानन्तरं प्रतीयमान एव तात्पर्यमित्यर्थः । तथा सति पूर्वी धावतीत्यत्र अपराद्यर्थेऽपि शब्दस्य प्रामाण्यं स्यादिति वाच्यम् । एवं विवक्षितेऽपि विधेयतया भ्रमणा योग्यत्वेऽपि तात्पर्यस्य वक्तुं शक्यत्वात् । चैवं लक्षणोच्छेद इति वाच्यम्; लक्ष्येऽर्थे परमतात्पर्याभावात् । अन्यत्रान्यशब्दप्रयोगस्तु तद्धर्मप्रात्यर्थ इति न्यायात् प्रतीयमाण(न) एव अर्थे परमतात्पर्यादित्याहु: । यदपि च नयनभयादेर्व्यञ्जकतेति तदपि न । तत्र चेष्टा विशेषस्यैव अनुमान विधया तत्तदर्थप्रत्यायकत्वात् । ननु न गया षट्पदार्थी मिना व्यञ्जना नाम काचिद् वृत्तिरङ्गीक्रियते येन धर्म्यन्तरकल्पनागौरवं स्यात् । किन्तु येन सम्बन्धेन पावनत्यादिकं उपस्थाप्यते तस्य व्यञ्जनये (१ ने ) ति नामोच्यते बाधित प० ७.१ ]बोधकत्वेन अभिघातस्तस्या वैलक्षण्यात् । न चाभिधादेरेव बाधितबोधकत्वमिति वाच्यम् ; तस्याः काप्येवमकल्पनात् तन्नः अभिधादेरेव बाधितबोधकवं कल्प्यम् । धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसीति न्यायात् । नामान्तरकरणस्य वस्वन्तरासाधकत्वात् । ननु अनेनेदं नोक्तम्, किन्तु व्यञ्जितमिति प्रतीत्योर्वैलक्षण्यात्, अभिषातो व्यञ्जना पृथक, यथा अनुमिनोमि न साक्षात् करोमि इत्यनुभवबलात् प्रत्यक्षादनुमानं पृथक् इति चेन्न । तत्र १] हेतुरेव निश्चितो नास्तीति कथमनुमानं करिष्यतीत्याशङ्कते । २ अनया सत्यमेवोपपते इति ज्ञानदशायाम् । ३ यावानर्थो यस्मादात् प्राप्यते तावानर्थस्तेन वाच्यः । ४ मनन्यलम्यः 1 ५ प्रकरणादेः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उल्लास प्रतीतेरन्यथोपपादयितुमशक्यत्वात् । अत्र तु अनुमानेन लक्षणया वा उपपादयितुं शकयत्वात् न व्यञ्जना पृथक् । ननु एवं अनुमानेन व्यञ्जनान्यथासिद्धी शब्दप्रामाण्यमपि भज्येत । घटमानयेत्यत्र कर्मस्वं घटवत् । घटनिरूपिताकांक्षायोग्यता दिमत्पदस्मारितत्वात् । इत्यनुमानेन शाब्दबोधसमशील ज्ञानजनन संभवात् इति चेत् न । योग्यतायाः लिङ्गविशेषणत्वासंभवात् तस्याः संशयसाधारणज्ञानस्य कारणत्वात् हेतुनिश्चयकारणत्वस्य सर्वसम्मतत्वात्, शब्दस्थले व्याल्यादिप्रतिसन्धानं विनाऽपि अत्यन्तासत्यप्यर्थे बाघावतारेऽपि अन्वयबोधदर्शनात् । नानुमानेन शब्दमामाण्यस्यान्यथासिद्धिः । यथा - सर्वेषां प्रायशोऽर्थानां व्यञ्जकत्वमपीष्यते । (मू० छा० ७, पू० ) इति प्राचां मतानुसारेण वाच्य लक्ष्य व्ययानां व्यञ्जकतामाह । तत्र वाच्यस्य " लक्ष्यस्य यथा 1 J माए घरोवअरणं अज हु णत्थि त्ति साहिअं तुमए । ता भण किं करणिजं एमेअ ण वासरो ठाइ ॥ [ मतगृहोपकरणं अथ खलु नास्तीति साधितं खया तद्भण किं करणीयं एवमेव न वासर [ : ] स्थास्यति ॥ ] " मातरित्याज्ञाकरणोपयोगित्वम्, गृहोपकरणमित्यनेनावश्यकर्तव्यत्वम्, अद्येत्यादिना अतिप्रसङ्गनिवारणम् त्वया कथितं न तु मयेत्यनेन अन्यथाशङ्कानिवृत्तिः, तत् शब्देन हेत्वर्थेन अवश्यवक्तव्यम् । एवमेत्र व्यास विना, वासरो न तिष्ठति । अतीते [प० ७.२] वासरे तवाज्ञयाऽपि न किश्चित् करिष्यामीति व्यज्यत इति व्यञ्जकता पदार्थानाम् । वाक्यार्थव्यञ्जकतामाह । अत्र वस्तूवैशिष्टयात् खैरविहारिणीति व्यज्यते । ११ साहती सहि सुहअंखणे खणे मिआसि मज्झ कए । सम्भावणेहकर जिस रिसअं दाव विरइअं तुमए [सायीसखि ! सुभगं क्षणे क्षणे दूनासि मस्कृते । सद्भावकरणीय तावद् विरचितं त्वया ॥ ] त्वयेति ज्ञातापकारिणीं प्रति एवंविधोक्तिरसम्भावितेति । बाधानन्तरं सद्भावेत्यादिना तदभावव्याप्यत्वेन विरोधी लक्ष्यते । तदाह - मत्प्रियं रमयन्त्या स्वया शत्रुत्वमाचरितमिति लक्ष्यम् । तेन कामुकविषयसापराधत्वप्रकाशनं व्यङ्ग्यम् । केचित् तु सद्भाव खेहाभ्यां तदभावो लक्ष्यते । तेन च तदतिशयः शत्रुत्वं व्यज्यते । लक्ष्यमित्यस्य लक्षणामूलव्यङ्ग्यत्वमर्थः । पार्यन्तिकव्ययं तु कामुकविषयकसापराधत्वप्रकाशनमित्यर्थः । अत्र वाक्यार्थव्यञ्जकस्वेऽपि लक्ष्यस्य व्यञ्जकत्वम् । भट्टमते तस्यापि लक्ष्यत्वात् । यद्वा अन्वयस्य व्यञ्जकत्वेऽपि अन्वयिनो व्यञ्जकत्वम् । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन ध्यापस्य वथा उय णिचलणिप्पन्दा विशिणीपत्तम्मि रेहई बलाआ। निम्मलमरगजमाअणपरिहिआ शंखसुचि ॥ [पश्य विश्वलनिष्पम्पा बिशिनीपत्रे राजते वकाला। निर्मकमस्कतमाजमपरिश्थिता शक्तिरिय ॥] निश्चलः पर्वतः तद्वदनिष्पन्देत्यर्थः । अथवा हे निश्चल! निरुधम ! इति सम्बोधनम् । पत्र निष्पन्दत्वेनाश्वस्तत्वम् । तेन जनरहितत्वम् । अतः सकेतस्थानमेतदिति कयाचित् कचि(शित प्रत्युच्यते । सम्भोगाद् विप्रलम्भस्याधिकमधुरत्वेन । पक्षान्तरमाह - अथवा मिथ्या वदसि, न त्वं तत्र गतो भूरिति व्यज्यते । ॥ इवि पादसाह-श्रीअकबरसूर्यसहसनामाध्यापक-श्रीशत्रुञ्जयतीर्थकरमोचनाउनेकसुविधायकमहोपाध्याय-श्रीभानुचन्द्रगणिशिष्याष्टोत्तरशतावधानसाधनप्रमुदिताप० ८.१ पादसाहश्रीअकबरप्रदत्त-पु(खुस्फिहमापराभिधानमहोपाध्याय-श्रीसिद्धिचन्द्रगणिविरचिते काव्यप्रकाशप(ख)ण्डन द्वितीय उल्लासः ।। तृतीय उल्लासः। अथ-अर्थोऽपि व्यञ्जकस्तत्र सहकारितया मतः । (मू० का० २०, उ.) अर्थव्यञ्जनोपायमाह - वक्तबोद्धव्यकाकूनां वाच्यवाक्यान्यसंनिधेः । (मू० का० २१, २०) प्रस्तावदेशकालादेशिष्ट्यात् प्रतिभाजुषाम् । योऽर्थस्थान्यार्थधीहेतुर्व्यापारो व्यक्तिरेव सा ॥ (मू० का. २२) बोद्धव्यः प्रतिपाद्यः । काकुव॑नेर्विकारविशेषः । वाक्यवाच्यसहितोऽन्यसनिधिरित्यर्थः । अन्यो वक्तबोद्धव्यभिचो जना, प्रस्तावः प्रकरणम् , देशो विजनादिः, कारो वसन्तादिः, वैशिष्ट्याद वैलक्षण्यात् । पञ्चम्या हेतुत्वमुक्तम् । तदभावे न्यञ्जनानुदयात् । प्रतिमा वासनाविशेषः । तेन श्रोत्रियादिषु न प्रसङ्गः । व्यक्तिरेव सा । एवकारेण व्यापारान्तर-प्रमाणान्तरसुवासः । सहेताद्यभावेन नाभिषादिः । आदिग्रहणात् चेष्टादेः परिग्रहः । अर्थस वाच्यलक्ष्यमामात्मनः, एषां च सकरे यस्योद्भटता उन्मूलो व्यवहारः । अइपिङलं जलकुंभ घेत्तूण समागदम्मि सहि तुरि । समसेअसलिलणीसासणीसहा वीसमामि खणं ।। [मतिपयुल जलकुम्भ गृहीत्वा सभागताऽसि सखि! परितम् । श्रमस्त्रेदसलि [क] निःश्वासनिःसहा विनमामि क्षणम् ॥] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुतीय उल्लास अकस्मादस्याः कुत एवं श्रमः इति तर्कयन्ती सखी प्रतीयमुक्तिः । अत्र पृथुलजरूकुम्भवहनपूर्वकत्वरितगमनजन्योऽयं श्रमः, नान्यथा शतिष्ठाः- इति रतगोपनं वयाः , पुंश्चलीत्वं वैशिष्टयम् । कुलवधूक्ताचेक्मप्रतीतेः। बोद्धन्यवैशिष्ट्यात् यथा. उपकृतं बहु तत्र क्रिमुच्यतां सुजनता भवता प्रतिपादिता । विद्धदीदृशमेव सदा सखे ! सुखितमास्थ ततः शरदां शतम् ॥ एतदपकारिणं प्रति विरोधलक्षणया कश्चन वक्ति । अत्रापकारातिशयो व्ययः । गालोथा तथाभूतां दृष्ट्वा नृपसदसि पाञ्चालतनयां, __चने व्याधैः सार्द्ध सुचिरमुषितं वल्कलधरैः । विराटस्यावासे स्थितमा प० ८,२ नुचितारम्भनिभृतं गुरुः खिने खेदं मयि भजति नाद्यापि कुरुषु ॥ कुपितस्य मीमयोक्तिरियम् । दृष्ट्वेति प्रति कर्मणि सम्बध्यते । तथाभूतां स्त्रीधम्मिणी दुःशासनाकृष्टकेशां च । वल्कलधेररित्यत्रास्माभिरिति विशेष्यपदं अध्याहार्यम् । आरम्भो वेषः कर्म वा । खियतेऽनेनेति खेदो मात्सर्यम् , खिन्ने ग्लाने इस्थमित्यध्याहार्यम् । प्रकारान्तरेण खिन्ने खेदभजनौचित्यानुपपत्तेः खिन्ने खेदं भजतीत्यत्यन्तानौचित्यम् । तदाह मयि न योग्यः खेदः, कुरुषु योग्य इति काका प्रकाश्यते । नन्वेवं काकाक्षिप्तत्वेन गुणीभूतव्यङ्गयमेतत् स्यात् , न तु प्रधानभूतध्वन्युदाहरणमिति वाच्यम् । सहदेव ! त्वां पृच्छामि यदेवं गुरुः [ खेदं ] करोति तत् कथमित्येवंरूपेण प्रश्नमात्रेणैव काकोर्विश्रान्तेः । अन्यथा ताशप्रभं विना खिन्ने खेदभजनस्य वाक्यार्थस्य अनुपपद्यमानस्य कुतो व्यञ्जकत्वमिति, मयि न योग्यः खेद इत्यंशे ध्वनित्वमेव । वाक्यसन्निधेर्यथा लावण्यं तदसौ कान्तिस्तद्रूपं स बचाक्रमः । तदा सुधास्पदमभूद् अधुना तु ज्वरो महान् ।। अत्र तदेत्यधुनेति बाक्यविशेषवैशिष्टयेन प्रमोदातिशय-वैराग्यातिशयौ व्यज्यते । वाच्यवैशिष्टयं तु 'अइपिहुले' त्यनेनोदाहृतम् । अन्यसनिधिवैशिष्टयस्य यथा-- सङ्केतकालमनसं विटं ज्ञात्वा विदग्धया । ईषनेत्रार्पिताऽऽकूतं लीलापनं निमीलितम् ।। चेष्टाविशेषस्थापीदमुदाहरणम् । अत्र जिज्ञासितः सङ्केतकालः कयाचित् निशासमयशंसिना कमलनिमीलनेन प्रकाशितः प्रस्तावाद् । यथा - गतोऽस्तमर्क इत्यनेन तत्तत्प्रकरण Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन वशात् सपनं प्रत्यवस्कन्दनावसरः इत्याद्यर्थाः प्रकाश्यन्ते । कालो वर्षादिः । देशो दूरादिः । यथा-- उपरि घनाघनपटली दूरे दयिता किमेतदापतितम् । हिमवति दिव्योषधयः कोपाविष्टः फणी शिरसि ।। अत्र काल-देशवैशिष्टयेन अनातिशयोऽभिव्यज्यते । । इति पाद सपा नी : ०२ : जा. १३न सूपसहरु लामा-आपक-[ ५० ९.१ श्रीशत्रुञ्जयतीर्थकरमौचनाद्यनकसुकुतविधापकमहोपाध्याय-श्रीभानुचन्द्रगणिशिष्याटेत्तरशतावधानसाधनप्रमुदितपादसाहश्रीअकब्बरजल्लालदीनप्रदत्त-पुस्फहमापराभिमानमहोपाध्याय श्रीसिद्धि चन्द्रगणिविरचिते काव्यप्रकाराखण्डने तृतीय उल्लासः ।। चतुर्थ उल्लासः । अथ ध्वनिमैदानाह । तत्राऽदौ लक्षणामूलमाह - __ अविवक्षितबाच्यो यस्तत्र वाच्यं भवेद् ध्वनौ । अर्थान्तरे सङ्कमितमत्यन्तं वा तिरस्कृतम् ॥ (मु० का० २४) लक्षणामूलगूढन्यन्यप्राधान्ये सति अविवक्षितं वाच्यं यत्र स ध्वनावित्यनुवादाद् ध्वनिरिति ज्ञेयः । अत्राविवक्षितं वाच्यतावच्छेदकपकारेणेति बोध्यम् । अन्यथा 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' इत्यत्र वाच्यस्यापि विवक्षणात् तदसंग्रहः स्यात् । अर्थान्तर इति । खार्थमपरित्यज्य अर्थान्तरपरशब्दकमित्यर्थः । अत्यन्तमिति । शक्यस्य सर्वथानन्वयित्वात्, अन्वयाप्रतियोगित्वं तिरस्कार इति । तदन लक्षणामूले अर्थान्तरसमितवाच्यात्यन्ततिरस्कृतवाचौ द्वौ भेदौ ज्ञेयौ । तत्राद्यो यथा स्वामसि वच्मि विदुषां समवायोऽत्र तिष्ठति । आत्मीयां मतिमादाय स्थितिमा विधेहि तत् ॥ अत्र याच्यस्त्रानुपयुज्यमानत्वात् लक्षणैवाश्रयणीया। तथा हि-त्वां उपदेश्यम् , अहमुपदेष्टा, वच्मि उपदिशामीत्यर्या लाक्षणिकाः । तथा चावश्यबाच्यहिताहितत्वालङ्घनीयाज्ञत्वादरमाहात्वानि व्यज्यन्ते । एवं विदुषां अनन्यसाधारणज्ञानवतां समवायः परस्परसापेक्षता आशुविपक्षदूषकत्वं सर्वग्राह्मैकपक्षवं व्यक्लाम् । आत्मीयां पराप्रतार्याम् , अदुष्टपक्षोद्भावनं फलम् , स्थिति सावधानाम् , विपक्षच्छिद्रप्रेक्षकत्वं फलमित्यर्थान्तरसङ्क्रमितवाच्यत्वं स्वार्थ अपरित्यज्य परार्थावबोधकत्वं प्रथमो भेदः । द्वितीयो यथा- 'उपकृतं बहु तत्रे त्यादिना । एतदपकारिणं प्रति विपरीतलक्षणया कश्चन वक्ति । अत्र अपकारातिशयो व्यङ्ग्यः । अत्र वाच्यस्य सर्वथान्वये[प० ९.२ ]ऽप्रवेशावत्यन्ततिरस्कृतवाच्यता । अन्वयाप्रवेश एव तिरस्कारः। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उल्लास अभिघामूलमाह - विवक्षितं चान्यपरं वाच्यं यत्रापरस्तु सः। (मू. का .., . अन्यपरं व्ययनिष्ठम् । तदाक्षेपकत्वेन तत्र विश्रान्तमिति यावत् । एतस्य विवक्षितान्यपरवाच्यस्य द्वौ भेदौ- एकोऽसंलक्ष्यक्रमव्यङ्गयो द्वितीयः संलक्ष्यकमन्यन्यः । अत्र संलक्ष्येति न खलु विभावानुभावसंचारिण एवं रसः, अपि तु रसस्तैः प्रत्याय्यत इति विमावादेर्व्यञ्जकस्य रसस्य व्यङ्ग्यस्यास्ति पौर्वापर्यक्रमः स न लक्ष्यत इत्यर्थः । आखादेन शटिति चित्ताकर्षणात् कालसौक्ष्म्याच । तत्र च रसभाव-तदाभासभावशान्त्यादिरक्रमः। भिन्नो रसाचलङ्कारादलङ्कार्यतया स्थितः ॥ (मू० का० २६) अक्रमः असंलक्ष्यक्रमव्ययः, आदिमदणाद् भावोदयभावसन्धिभावशवलत्वानि गृह्यन्ते । गुणीभूतव्यथेति व्याप्तिवारणाय मिन्नेति हेतुमाह - अलकार्यतया स्थित इति प्रधानतया यत्र स्थितो रसादिस्तत्रालङ्कार्यः । अन्यत्र तु प्रधाने वाक्यार्थे यत्राङ्गभूतो रसादिस्वन्न गुणीभूतव्यद्य रसवत् प्रेयऊर्जखित्समाहितादयोऽलङ्काराः । स्थिरः स्थिरतामापन्नः तेन अशा बाध्यता वा प्राधे रसाद न तथात्वमिति । रसवदितीवार्थे वतिः । अङ्गभूतस्य रसख परि. पुष्ट्यभावाद् रसतुल्यत्वात् । प्रेय इति भावस्याङ्गत्वे समाहितमिति मन्तव्यम् । तत्र रसखरूपमाह - कारणान्यथ कार्याणि सहचारीणि यानि तु । रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाव्य-काव्ययोः ।। (मू. का. २७) विभावानुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः। व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः ॥ (मू० का० २८) 'कारणानि' राम-सीतादीनि, परस्परानुरागे परस्परकारणानि, तस्योद्दीपनकारणानि उद्यानादीनि. अथश्चार्थे. कटाक्षादीनि कार्याणि, लज्जा-हास्यादीनि सहचारीणि रत्यादेरुपबायकानि. सामग्रीसंपातेन रत्यादिभिः सहचरणात् । 'सहकारीणी'ति तु [५० १०.1] पाठे रत्यादेरेकरूपस्य तत्चद्विचित्रसितरुदितादिकार्यजननयोगे सामग्रीवैचित्र्यापादकानि । विभावा' इति । से तु द्विधा-आलम्बनविभावा नायिकादयः, उद्दीपनविभावा उद्यानादयः इति । ननु कारणादिशब्दसत्त्वे कथं विभावादिसंज्ञेति चेत्, उच्यते-सामाजिकनिष्ठरत्यादीनां आराध्यत्वेन ज्ञाता[:] सीतादयो, न ते कारणादयो येन तथा स्युः । तेषां च विभावानुमावसञ्चाराणां त्रयव्यापारवत्त्वाच्च, तथाविधसंज्ञाः, तेषां च व्यापाराणा रत्यादेरीषप्रकाशः स्फुटतरप्रकाशः स्फुटतमप्रकाशः फलम् । विगलितवेद्यान्तरत्वेन स्थितिः, पुरस्फुर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ काव्यप्रकाश खण्डन णादिचमत्कारित्वं च । भाव इति भावयति वासयतीति भावो वासना तेन निर्वासनेषु श्रोत्रियादिषु न प्रसङ्गः । ननु कथं रत्यादेः अनुगगादिरूपस्य अन्तःकरणवृत्तिविशेषस्य अभिव्यक्तावेव परमानन्दरूपरसोद्बोध इति चेत्, उच्यते । अतः - - यत्यात् काव्यदर्शनश्रवणमहिम्ना उक्तया अभिव्यक्त्या चिदात्मनः अज्ञानांशे आवरणभङ्गः क्रियते | आवरणं त्वज्ञानमेव । तथा च न रत्याद्यवच्छिन्नं चैतन्यं आनन्दांशे भग्नायरणम् | आनन्दरूपतया प्रकाशमानं रस इति निर्गलितार्थः । ज्ञानान्तरे त्वज्ञानभङ्गाभावान रसोोधः । तस्यां चाभिव्यक्तौ लिङ्गोपहितलैङ्गिकमानबद् विभावादिसं मेदोऽप्यावश्यकः । अत एवोक्तम् -- पानकरसन्यायेनेति । ननु रसस्तावत् सामाजिकनिष्ठरत्युद्बोधः । स कथं रामादिसम्बन्धित्वेन अवगतेभ्यः सीतादिभ्यो भवति ? असंभवाद् इति चेत्, न । विभावादीनां साधारण्यमात्रेण ज्ञानमपेक्षितम्, साधारण्यं च यत् किञ्चित् सम्बन्धि विशेष सम्बन्धित्वेन अज्ञायमानत्वे सति ज्ञायमानत्वम् । न च सीतात्वादिज्ञाने कथमेतादृशं साधारण्यम्, तदा विभावादिव्यापार महिम्ना सीतात्यादि [ १० १०.२ ] परिहारेण स्त्रीत्वादिनैव ज्ञानात् । अत एवोक्तम्-ता एवापहृतविशेषा रसहेतव इति । एवं रत्यादेः साधारण्यमपि रसोद्वोघे हेतुः । अन्यथा सीताद्यालम्बन करत्यादेः स्वनिष्टत्वज्ञाने व्रीडातङ्कादिः स्यात् । परनिद्यत्वज्ञाने सभ्यानां रससाक्षात्कारो न स्यात् । वस्तुतः सर्वस्मिन् ज्ञाने आत्मभाननैयत्यम् । काव्यश्रवणानन्तरं विभावादिभिः तस्य आनन्दांशे आवरणभङ्गः । तथा सीतात्यादि ( दी ! ) न सीतात्यादिपरिहारेण साधारण्यम्, रत्यादिभावस्य च साधारण्यम् - इत्यादि स्वीकर्तव्यम् । इति प्राचां निष्कर्षः । तदपेक्षया कामिनी कुचकलशस्पर्श चन्दनानुलेपनादिनेव नाव्यदर्शनकाव्यश्रवणाभ्यां सुखविशेषो जायते । स एव तु रस इति नवीनाः । अथ प्राचां रसविशेषानाह - शृङ्गार- हास्य-करुणा रौद्र-वीर-भयानकाः । बीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः ॥ (० का० २९ ) श्रव्यकव्ये शान्तोऽपि रसः । अथैषां स्थायिभावाः - इतिहास शोक क्रोधोत्साहो भयं तथा । जुगुप्सा विस्मयश्वेति स्थायिभाषाः प्रकीर्त्तिताः ॥ (० का० ३० ) शान्तस्य तु निर्वेदः स्थायी । नवीनास्तु शृङ्गार-वीर-द्वास्याद्भुतसंज्ञाश्चत्वार एवं रसाः । करुणादीनां यथा न रसत्वं तथा वक्ष्यते । 1 तत्र शृङ्गारस्य द्वौ भेदौ - संभोगो विप्रलम्भश्च । उभयस्यैव रतिप्रकृतिकत्वात् । तत्राद्यः परस्परालोकनालिङ्गन-चुम्बनाद्यनन्त मेदादपरिच्छेद्य इति संभोगत्वमुपाधिमादायैक्यम् । उदा० Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उल्लास शून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किञ्चिच्छनै निद्रान्याजमुपागतस्य सुचिरं निर्वये पत्युमुखम् । विश्रब्धं परिचुम्ब्य जालपुलकामालोक्य गण्डस्थली लजानम्रमुखी नियेण हसता वाला चिरं चुम्बिता ॥ शून्यमित्यादिना उद्दीपनातिशयः, दुम्बनप्रवृत्तियोग्यता च ध्वन्यते । एवं वासगृहमित्युपकरणसंपत्तिः । विलोक्य निपुणं निभाल्य, सहचरनिभृतत्वशङ्कया, किञ्चित् न तु सर्वतः, निद्राभाभिया, [५० ११.१] शयनादुस्थायेत्युत्कण्ठातिशयो ध्वन्यते । शनैर्वलयादिकाणो यथा न स्यात् । निद्राव्याजमुपागतस्येत्यनेन तदीयधाष्टाभिधानम् , पत्युमुखमित्यनेन युझानुरागित्वम् , विश्रब्धमित्यनेन अनुरागातिशयादविमृश्यकारित्वम् । नम्रमुखी न तु नामितमुखी, लज्जातिशयात्' तथा व्याकुलाऽभूत् येन मुखावनामनेऽपि न स्वातन्त्र्यम् । चिरमित्यनेन लज्जापगमः संभोगवीकारश्च व्यज्यते । हसता तव निखिलमेव रहस्यमवगतमिति हासः । रजत इति लज्जा पृथक् पदम् , ततो मुखनमनलज्जनक्रियापेक्षया समानकर्तृकत्वेन, आलोअयेत्यत्र कत्वोत्पत्तिः। .. अपरस्त्वमिलापविरहेाप्रवासशापहेतुकः पञ्चविधः । स च सङ्गमप्रत्याशाकालीनस्तदनुत्पादः । अभिलाषः इच्छा, देशैक्येऽपि गुर्वादिपारतन्ध्यं विरहः । देशैक्येति विशेषणादस्य प्रवासतो भेदः । अन्यसङ्गिनि प्रिये कोपः ईर्ष्या, प्रवासो वैदेश्यम् , मुन्यादिनियङ्गणं शापः । अत्र हेतुः पूर्ववर्ती, अमिलापस्यानुत्पादकत्वेऽपि पूर्ववर्तित्वं नियतमेव सिद्धम् , इच्छाविरहात् । क्रमेण उदाहरणानि -- प्रेमाः प्रणयस्पृशः परिचयादुद्गाढरागोदयाः तास्ता मुग्धदृशो निसर्गचतुरा चेष्टा भवेयुर्मयि । यास्त्वन्तःकरणस्य बाह्यकरणव्यापाररोधी क्षणा दाशंसापरिकल्पितास्वपि भवत्यानन्दसान्द्रो लयः ॥ प्रणयः प्रेमैव कष्टापन्नम् । परिचयोऽत्यन्तसंपर्कः । केचित् तु प्रेम खेहः स एव प्रकृष्टः सन् प्रणयः उच्यते । स एव परिचयातिशयेन रञ्जनसमो राग इत्याहुः । भवेयुरिति प्रार्थनायो लिङ् । यास्त्राशंसापरिकल्पिताखपि अन्तःकरणस्य आनन्दसान्द्रो लयो भवतीत्यन्वयः । रोधीत्यत्रावश्यके णिनिः । निसर्गः स्वभावः, आशंसा इच्छा, लयस्तन्मयत्वम् , व्यापारः पटुवेन खसविषयमाहित्वम् । . विरहहेतुकमुदाहरति-- .. अन्यत्र जतीति का खलु कथा नाप्यस्य ताहा सुहृद् .. यो मां [५० ११.२] नेच्छति नागतश्च सहसा कोऽयं विधेः प्रक्रमः। का० प्र०३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशलण्डन इत्यल्पेतरकल्पनाकवलितस्वान्ता निशान्तान्तरे बाला वृत्वविवर्तनव्यतिकरा नाप्नोति निद्रां निशि ॥ एषा विरहोत्कण्ठिता । अन्यत्र प्रवासे नायिकान्तरगृहे वा तत् तावदलीकमेव तत्कथाऽपि नास्ति । नापि कश्चिदीग् एतस्य सुहृन्मित्रं यो मां नेच्छति न सहते यनिषिद्धो मागच्छेदिति भाषः । शीनं च नागतः कोऽयं विधेः प्रक्रमः ! विधेर्दवस्य प्रक्रम भारम्भः । कोऽयमित्यननुभूतपूर्वः । इत्थं बहुवितकर्मस्तं मनो यस्याः, वृत्तविवर्त्तनं उद्धृत्तपरिवर्तनं शय्यायां परिवृत्तिः, तस्य व्यतिकरः सम्बन्धो यस्याः सा । निशान्तान्तरे गृहाभ्यन्तरे वाला तन्वी निद्रा सुप्ति निशि रात्रौ नाप्नोति नाधिगच्छतीत्यन्वयः । इDहेतुकमुदाहरति सा पत्युः प्रथमापराधसमये सख्योपदेशं विना नो जानाति सविभ्रमानवलनावक्रोक्तिसंसूचनम् । स्वच्छैरच्छकपोलमूलगलितैः पर्यस्तनेत्रोत्पला बाला केवलमेव रोदिति लुठल्लोलोदकरश्रुभिः ॥ छठन्तो लोला अलका येषु तैः अश्रुभिः, पर्यस्ते व्याकुलीकृते नेत्रोत्पले यस्याः सा बाला केवलमेव रोदितीत्यन्वयः । सख्या भावः सख्यं तेनोपदेशः । नारायणमट्टास्तु 'सल्या इति पछी एकादेशः प्रामादिकः' इति पेटुस्तश्चिन्त्यम् । अन्न पत्युरन्यासनाद् बालाया ईयो । प्रवासहेतुकमुवाहरति प्रस्थानं वलयैः कृतं प्रियसखैरौरजस्रं गतं धृत्या न क्षणमासितं व्यवसितं चित्तेन गन्तुं पुरः । यातुं निश्चितषेतसि प्रियतमे सधै समं प्रस्थिताः गन्तव्ये सति जीवित ! प्रिय ! सुहृत्सार्थः किमुत्सृज्यते ॥ वलयैरिति तेन कार्थम् । अत्राणामपि हृदयस्थितत्वेन प्रियसखत्वम् | निश्चितचेतसि नो गन्तुमुद्यते । जीवितेति प्रियेति सम्बुद्धिः, [प. १२.३] कान्तस्येव तब त्यक्तुमुचितत्वात् । शापहेतुफमुदाहरति स्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैः शिलाया___मात्मानं ते चरणपतितं यात्रदिच्छामि कत्तम् । अनस्तावन्मुहुरुपचितैदृष्टिरालुप्यते मे क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते सममं नौ कृतान्तः ॥ कुपिताया लौहित्यौचित्लात् धातुरागैरिस्युक्तम् । अत्रेच्छासमयस्सरणोद्रितविरजनिताशुभिदृष्टिलोपस्तेन लिखन-पादपतनयोरप्यनिर्वाहः । अर्थान्तरं न्यस्पति-क्रूर इति कृतान्तो दैवं तदेव कृतान्तो यमः । 'कृतान्तो यमसिद्धान्तदैवाकुशलकर्मसु' इत्यनुशासनात् । अत्र Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उल्लास आयपादत्रयमेव विप्रलम्भोदाहरणम् । क्रूरेत्यादि वाक्यान्तरं भावाभिव्यञ्जकम् । अतः शठेन, विधिनेत्यस्य मानेन तुल्यता, सत्र समाप्तिपर्यन्तं यावत्-तावत्पदाभ्यामेकवाक्यत्वेनैवान्वयात् । यूनोरेकसरस्मिन् गतवति लोकान्तरं पुनर्लभ्ये । विममायते यकस्तदा भयेत् करण-विप्रलम्भः ॥ इति । मूछितनायकादिविषयः करुण-विप्रलम्भोऽन्योऽप्यस्तीति प्राश्चः। अथ हास्यादीनां उदाहरणम् - आकुश्चय पाणिमशुचिं मम मूर्ध्नि वेश्या मनाम्भसा प्रतिपदं पृषतैः पवित्रे । तारखरं प्रहितथूकमदात् प्रहारं हाहा हतोऽहमिति रोदिति विष्णुशर्मा ।। हाहा हतोऽहमित्यन्तेन तादृशमुच्चार्येत्यर्थः । शर्मान्तनामश्रवणे हि हसितं स्यात् । अत्र विष्णुशर्मा आलम्बनम् , तस्य रोदनमुद्दीपनम् , द्रष्टुरुद्वेगजाड्यादयो व्यभिचारिणः, स्मितहसितातिहसितानि उत्तम-मध्यमेष्वनुभावाः । यस्य हासस्तदनिबन्धेऽपि सामर्थ्यात् तदवसायः । तदुक्तम् यस्स हासः स चेत् कापि साक्षाव निबध्यते । तथाऽप्येष विमायादिसामदिवसीयते ॥ विकृतवाग्वेषादिदर्शनेनावश्यं हास्योदयाद् अत्र हास्यो रसः । करुणमाह - हा मातस्त्वरिताऽसि कुत्र [प.१२.२] किमिदं हा देवताः काशिषो धिक् प्राणान् पतितोऽशनिहुँतवहस्तेऽङ्गेषु दग्धे दृशौ । इत्थं घघरमध्यरुद्धकरुणाः पौराङ्गनानां गिर चित्रस्थानपि रोदयन्ति शतधा कुर्वन्ति भित्तीरपि ॥ सादृक्पूनादिभिरप्यरक्षणात् देवताक्षेपः । विविधदानादितपितानां द्विजानामाशीभिरपि न किञ्चित् कृतमित्याह - केति । मध्यरुद्ध इति बाप्पबाहुल्येनान्तरावस्थानम् । इत्यमिति गिर इत्यनेनान्वितम् । अत्र नृपयोपिदालम्चनम् , तत्शरीरवहिसंयोगादि उद्दीपनम् , नोदनमनुभावः, दैन्यग्लानिमूर्छादयः सञ्चारिणः । रौद्रमाह कृतमनुमतं दृष्टं वा यरिदं गुरुपातकं मनुजपशुभिर्निर्मर्यादैर्भवद्भिदायुधैः । नरकरिपुंणा सार्द्ध तेषां सभीमकिरीटिना मयमहममृम्मेदोमांसः करोमि दिशां वलिम् ॥ 'काव्यस्य इति दिपणी। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन द्रोणे हतेऽश्वत्थाम्रो वचनं घेणीसंहारेऽर्जुनं प्रति-गुरोः पातकमेव गुरुपातकं तस्स कर्तर्यनुमन्तरि अनिराकर्तरि दण्डः समुचित इति क्रमेणाऽऽह'- कृतमित्यादि । अयमहमनन्यसहायः, नरकरिपुणा कृष्णेन, क्रोधात् क्रमं विस्मृत्य प्रागनुमन्तुरुपादानम् । अत्रापकारिणोऽर्जुनादय आलम्बनम् , अस्नोबमनमुद्दीपनम् , रोदनमनुभावः, अन्यनरपेक्ष्य. गम्यगर्वः सञ्चारी। धीरमाह - क्षुद्राः सन्त्रासमेते विजहत हरयो क्षुण्णशक्रेमकुम्भा _युष्मदेहेपु लजां दधति परममी सायका निष्पतन्तः। सौमित्रे! तिष्ठ पात्रं त्वमसि नहि रुपां नन्वहं मेघनादः किञ्चिभ्रूभङ्गलीलानिमितजलधि राममन्वेषयामि ॥ दूताङ्गदे पद्यम् । एत इत्येवं सम्बोधनासंभवात् , एते यूयं विजहतेत्यन्वयः । विजहितेत्यत्रेहल्यधोरितीत्वापवादो जहातेश्चेति पझे इकारः । युष्मदेहेषु पतन्तः सायका लल्लां दधतीति न तत्र पतिष्यन्तीति भावः । सौ मिन्नेति मातृसम्बन्धोल्लेखेन निर्यित्वं व्यज्यते । अत्र राम आलम्बनम् , जलनिधिनियमनमुद्दीपनम् , नीचे -[ प. १३.१ पेक्षणं रामं प्रति स्पर्धी चानुभावौ, ऐरावतकुम्भसंचूर्णनस्मृतिः, लज्जा दधतीति गम्यो गर्वश्च सञ्चारिणौ । भयानकमाह - ग्रीवाभङ्गामिरामं मुहुरनुपतति स्यन्दने बद्धदृष्टिः पश्चार्द्धन प्रविष्टः शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम् । दभैरख़्वलीः श्रमविवृतमुखभ्रंशिभिः कीर्णवर्मा पश्योदग्रप्लुतित्वाद् वियति बहुतरं स्तोकमुब्यो प्रयाति ॥ अभिज्ञानशाकुन्तले प्रथमाके पचम् । गम्यदेशवैषम्यावैषम्यनिरूपणाय कादाचित्कविवर्त्तनेन रथदर्शनबिच्छेदादाह – मुहुरिति । भूयसेति भूयसो लघुनिगोपनं न संभवतीत्यपि न गणयतीत्यर्थः । ततो भयपोषणं स्पन्दनात् भयमेव रसप्रकृतिः, तेन शरपतनादिति तद्भयस्य शब्दोपादानेऽपि न दोषः । श्रमविवृतेति दैवाद् अश्यति, नादानं न वा विसर्गः । अत्र स्यन्दनमालम्बनम् , अनुसरणमुद्दीपनम् , पलायनमनुभावः, श्रमः सञ्चारी । बीभत्समाह - उत्कृत्योत्कृत्य कृत्ति प्रथममथ पृथूत्सेधभूयांसि मांसा न्यसस्किपृष्ठपिण्डायत्रयचसुलभान्युग्रपूतीनि जग्ध्वा । आर्चः पर्यस्तनेत्रः प्रकटितदशनः प्रेतरङ्कः करङ्कादस्थादस्थिसंस्थं स्थपुटगतमपि क्रव्यमव्यग्रमत्ति ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उल्लास २१ वीप्सायांयावत्संभवस्ताबद् विधिः । प्रथम कृत्तिं उत्कृत्योत्कृत्य अथ मांसानि जग्भवा क्रव्यमतीत्यन्वयः । उत्सेत्र उच्छूनता, उद्बोध इत्यपि पाठान्तरम् , अर्थस्तु स एव । स्फिक् ऊरूमूलकटिसन्धिमागः, पिण्डी असोध्र्वभागः, पिण्ड' इति पाठे तदाकारकस्वात् । तथा स्थपुटं विषमगभीरभागः । करकस्याङ्कसंस्थत्वं बलवपिशाचाशङ्कयैव, अत एव दृक्प्रेरणं दशनप्रकटनं च । अत्र शव आलम्बनम् , उत्कर्तनाद्युद्दीपनम् , नासाकुश्चनादयोऽनुभावाः, उद्वेगादयः सञ्चारिणः । अद्भुतमाह - चित्रं महानेप नवाऽवतारः क्व कान्तिरेपाऽभिनव भङ्गिः। लोकोत्तरं धैर्यमहो प्रभावः काप्यारातिर्नूतन एव सर्गः॥ [१, १३.२ ] अन्न 'चित्रं महान् वत लोकोत्तरम् अहो कापि नूतन' इति शब्दाः स्वसमभित्र्याहतशब्दार्थस्यालौकिकत्वप्रकाशकाः । अवतार इति सदाचारादिप्रवर्तकत्वात् । अविकार इति पाठे विकाराभाव इत्यर्थः । अत्र मा(महापुरुष आलम्बनम् , तद्गुणातिशय उद्दीपनम् , स्ववादयोऽनुभावाः, मति-धृति-हर्षादयः सञ्चारिणः : एवं विमानादयो भावनपि भाव्याः । . अथ करुणादीनां कथं न रसत्वमिति चेत् , उच्यते इष्टनावादिभिश्चेतोषकुष्य शोक उच्यते । तथा रोदशक्त्या तु जनितं चैलव्यं मनसो भयम् । दोक्षणादिमिर्गही जुगुप्सेत्ति निगद्यते ।। तथा तत्वज्ञानाद् यदीयादेनिवेदः स्वावमाननम् ॥ इत्यादिनियुक्तशोकादिप्रवृत्तिकानां करुणादीनां रसत्वनिषेधात् । न च तेषां तथाभूतत्वेऽपि अभिव्यक्तानन्दचिदात्मना सहाभिव्यक्तानां रसत्वमिति वाच्यम् । एवमपि स्थायंशे रसत्वविरोधात् । अथालौकिकविभावाभिव्यक्तानां तेषां रसत्वमुचितम् , सुरते दन्ताधाघातस्याखायवदिति चेत् , न । एवं क्षुधापिपासादिनानाविधदुःखहेतुजनितचेतोवैतन्यस्यापि रसान्तरत्वापत्तेः । सुरते दन्ताघातस्य बलवत्कामसंभवदुःखनाशकवेन भारापगमानन्तरं सुखिनः संकृत्वा स इतिवदुपादेयत्वम् । यत् तु शोकादयोऽपि रत्यादिवत् स्वप्रकाशज्ञानमुखात्मका इति तदुन्मत्प्रलपितम् । किञ्च सामाजिकेषु मृतकलबपुत्रादीनां विभाषादीनां शोकादिस्थायिभावस्य चर्वणीयेन अज-महीपालादिना सह साधारण्यम् , अनुपातादिदर्शनात् । वर्णनीयतामयीभवनं चापेक्षितमिति चेत्, कथं ब्रह्मानन्दसहोदररसोद्बोधः कथं वा नाम(मा)कल्यम् ? अत एवं केचिदज विलापादिकं न पठन्ति । बीभत्से तु मांसपूयाद्युपस्थित्या घान्तनिष्ठीवनादिकं यत्न भवेत् तदेवाश्चर्यम् , कुतस्तादृशपरमानन्दरूपरसोद्बोध इति । एवं भयेऽपि । तथा शान्तस्य त्यक्त-[प. १४.१ ] सर्यवासनेषु भवतु नाम कथञ्चिद् रसत्त्वम् , विषयिषु पुनः सर्पविषयोपरमोपस्थित्या कथं रसत्वम् ? । तदुक्तम् - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन म पन्न दुःखं न सुखं न चिन्ता न द्वेषरागौ न च काचिदिच्छा। रसः प्रशान्तः कथितो मुनीन्द्रः सर्वेषु भावेषु शमप्रधानः ।। एवं वीर-रौद्योन भेदः, विभावादिसाम्यात् । न च स्थायिभेद एव भेदकः, तस्यापि नियामकमुखप्रेक्षितत्वात् । यत् तु रक्तास्यनेन्नता रौदे युद्धश्रीरात् तु भेदिनी ।' इत्याहुः, तन्न । क्रोधसञ्चारिणि चीरे तस्याः सुलभत्वेन भेदकत्वानुपपः । न च रौद्रे अविवेकत्वस्य वीराद् भेदकरय संभवाद् भेद इति वाच्यम् । क्रोधसञ्चारिणि वरिऽप्यविवेकत्वस्य संभवात् । वानवारादीनां प्रभावातिशयवर्णन एव कवीन तात्पर्यमिति न तेषां रसत्वम् । एवं वात्सल्यनामाऽपि न रसः । भावेनैव गतार्थखात् । ननु कथं अजविलापादिकं कविभिर्वर्ण्यत इति चेत्, उच्यते- तेषां अज-महीपतिप्रभृतीनां स्वस्वप्रियानुरागप्रकर्षप्रतिपत्त्यर्थम् । अत एव च अजमहीपतेः खभियां इन्दमतीं प्रति देहत्यागः कालिदासेन वर्णितः । एवं शान्तस्यापि वर्णनं मुमुक्षूणां वैराग्यातिशयप्रतिपत्तये । एवं भयातिशयवर्णनं तचयक्तीनां मार्दयप्रतिपादनाय । वस्तुतस्तु कविमिः खशक्तिप्रदर्शनार्धमेव पद्मबन्धाबन्धादिनिर्माणबत् तत्र तत्र प्रवर्त्यत इति । __ अथ भावस्वरूपम् - रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाञ्जितः। (मू. फा० ३५, उ०) भावः प्रोक्तः। आदिग्रहणात् मुनि-नृप-पुत्रादिविषया । अञ्जितो व्यञ्जित इत्यर्थः । व्यभिचारिणो ब्रूते - निर्वेद-ग्लानि-शङ्काऽऽख्यास्तथाऽसूया-मद-श्रमाः। आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्ता मोहो मदस्मृतिः ।। (मू• का. ३१) ब्रीडा चपलता हर्ष आवेगो जडता तथा । गर्यो विषाद औत्सुक्यं निद्रापस्मार एव च ॥ (मू० का ३२) सुप्तं विरोधोऽमर्षश्च अवहित्यमथोग्रता । मातियाधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च ॥ (मू० का ३३) त्रासश्चैव वितर्कश्च विज्ञेया व्यभिचारिणः।। त्रयस्त्रिंशदमी भावाः समाख्या[प. १४.२]तास्तु नामतः॥ (मू. का. ३४) बलस्यापचयो ग्लानिः । शताऽनिष्टसमन्वयः, अनिष्टसंभावनम् । परोत्कर्षाक्षमाऽसूया । अनर्थातिशयाच्चतस्याऽऽवेगः संभ्रमो मतः । कोप एव स्थिरतरोऽमर्ष इति कथ्यते । अव. हिस्थमाकारगोपनम् । अर्थनिर्धारणं मतिः । औपातिकर्मनाक्षेपः बासः कम्पादिकारकः । पूर्वापरविधारोत्थं मयं त्रासाद् पृथग् भवेत् ॥ 'स्मृतितिः' इति मुद्रितपायः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उल्लास इति दिशा बासस्य व्यभिचारित्वम् । भयस्य स्थायित्वमिति बोध्यम् । तत्राऽऽदौ भावोदाहरणम् - कण्ठकोणविनिविष्टमीश ! ते कालकूटमपि मे महामृतम् । अप्युपातममृतं भवद्धपुर्भेदवृत्ति यदि मे न रोचने ॥ ननु कथमस्य न रसत्वम् ! 'नवरसा अन्य मायाइति खाने छः मुनिमा विना करणात् । असुरादौ कवेः रत्यभावेऽपि तत्प्रतापादिवर्णनं तज्जेतुरुत्कर्षप्रतिपादनाय । व्यभिचारी यथा -- जाने कोपपरामुखी प्रियतमा स्वप्नेऽद्य दृष्टा मया ___ मा मा संस्पृश पाणिनेति रुदती गन्तुं प्रवृत्ता ततः । नो यावत्परिचुम्ब्य चाटुकशतैराश्वासयामि प्रियां भ्रातस्तावदहं शठेन विधिना निद्रादरिद्रीकृतः ॥ अन्न रसेऽनुभूयमानेऽपि विधि प्रत्यसूयैव काव्यसर्वखत्वेन अनुभूयत इत्यसौ मावध्यनिरिति व्यवतियते । 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्तीति' न्यायात् । इयं भावस्थितिरुक्ता । तदाभासा अनौचित्यप्रवर्तिताः । (मू० का० ३६, पू० ) तदाभासा रसाभासा भावाभासाश्च । यथा - स्तुमः कं वामाक्षि! क्षणमपि विना यं न रमसे, विलेभे का प्राणान् खलु रणमुखे यं मृगयसे । सुलग्ने को जातः शशिमुखि! यमालिङ्गसि बलात् _तप:श्रीः कस्यैषा मदननगरि ध्यायसि तु यम् ॥ अत्र यं यमित्यसकृत्कोंपादानं अनेककामुकविषयमभिलाषं तस्याः व्यनक्ति । यद्यकविषयत्वमभिप्रेतं स्यात् तदासकृदेव कर्मोपादानं कुर्यात् । यद्वा रमणान्वेषणादिव्यापारा बह्वस्ते च सर्वे एव वर्तमानकालीना नैकविषयत्वे संभवन्तीत्यनेककामुकविषयाभिलाषप्रत्ययाद रतेराभासत्वम् । [५. १५.७] वस्तुतस्तु परस्परजीवितसर्वस्खयोरनुरागस्यैव रसवात् शास्त्रातिक्रमाद्यनौचित्यं रसत्वविरोधीति ध्येयम् । भावाभासो यथाराकासुधाकरमुखी तरलायताक्षी सस्मेरयौवनतरङ्गितविभ्रमाङ्गी । तत् किं करोमि विदधे कथमत्र मैत्री तत्स्वीकृतिव्यतिकरे क इवाभ्युपायः ॥ अत्र चिन्ता अनौचित्यप्रवर्तिता । एवमन्येऽप्युदाहार्याः । भावस्य शान्तिरुद्धयः सन्धिः शबलता तथा ॥ (मू० का० ३६३ उ• ) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ क्रमेणोदाहरणानि - तस्यां रघोः सूनुरुपस्थितायां वृणीत मां नेति समाकुलोऽभूत् । आस्वा (श्वा) सितस्तत्क्षणमंसकूटे वामेतरेण स्फुरता भुजेन ॥ aarssarस्य । काव्यप्रकाश खण्डन विलोचनं दक्षिणमञ्जनेन संभाव्य तद्वचितवामनेत्रा | dea वातायन ययौ शलाकामपरा वहन्ती ॥ सुक्यस्य भावस्योदयः । तं वीक्ष्य वेपथुमती सरसाङ्गयष्टिनिक्षेप एव पदमुद्धृतमर्पयन्ती । मार्गाचलव्यतिकराकुलितेय सिन्धुः शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ ॥ अत्राssवेग- हर्पयोः सन्धिः । काकार्य शशलक्ष्मणः क च कुलं भूयोऽपि दृश्येत सा दोषाणां प्रशमाय मे श्रुतमहो कोपेऽपि कान्तं मुखम् । किं चक्ष्यन्त्यपकल्पाः कृतधियः स्त्रमेऽपि सा दुर्लभा चेतः स्वास्थ्यमुपैहि कः खलु युवा धन्योऽधरं धास्यति ॥ विक्रमोर्व्वशीनाटके पुरूरवसो वाक्यमिदम् । अत्र वितर्क - औत्सुक्य-मति-स्मरण-शङ्कादैन्य-धृति-चिन्तानां तिलतण्डुलवच्चर्वमाणता । अत्र काकार्यमित्यादौ वितर्कः, भूयोऽपीत्यीस्वप्नेऽत्सुक्यम्, दोषाणामिति मतिः, कोपेऽपीति स्मृतिः, किं वक्ष्यन्तीति शङ्का, पीति दैन्यम्, चेत इति धृति । कः खल्बिति चिन्ता, इति स्वयं बोध्यम् । वस्तुतस्तु एतेषां पूर्वपूर्वपमर्देन परपरोदयः शत्रलता । मुरु रसेऽपि त्वं प्राप्नुवन्ति कदाचन । ( सू० का० ३७, १० ) राजानुगत विवादमवृत्तनृत्यवत् । इदमयुक्तम् । तथा हि- रत्यादिसहचरणाद् व्यभिचारिणां भवतु कथञ्चन मुख्यत्वम्, सर्वथा उदासीनानां भाव - प्रशमादीनां [५.१५२] मुख्यत्वं न संभवति, मानाभावात् । अनुखानाभसंलक्ष्यक्रमव्ययस्थितिः परः ॥ (मू० का० ३७, उ० ) शब्दार्थी भयशक्त्युत्थस्त्रिधा स कथितो ध्वनिः । (मू० का० २८, पू० ) अनुखानः अनुरणनं तदाभस्तत्सदृशः संलक्ष्यः क्रमः पौर्वापर्यम्, अर्थाद् व्यञ्जकेन सह, यस्य एवंविधस्य व्ययस्य स्थितिर्यस्य स इत्यन्वयः । यथा ध्वनि-प्रतिध्वन्योः क्रमो लक्ष्यते तद्वद्वत्वलङ्कृति तद्व्यञ्जकयोरित्यर्थः । स च शब्दशतयुद्भवः, अर्थशक्त्युद्भवः, उभयशतयुद्भवश्चेति त्रिविधः । तत्र शब्दा यत्र परिवृर्ति न सहन्ते स शब्दशक्तयुद्भवः । उभयोरपि तदन्योऽर्थशतयुद्भवः । यत्र केचन शब्दाः परिवृत्तिसहिष्णवः केचिदन्यथा, १ स्थितिस्तु यः । मुद्रितपाठः । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उल्लास काव्यसर्वखत्वं च तत्र उभयशक्तिमूलः । अत्रेदमवधातव्यम् - वस्त्वलकृति-वन्योः क्रमः संलक्ष्यते, रसभावादिषु क्रमो न लक्ष्यते इत्यलकारशास्त्रयोगिन एव प्रष्टव्या इति । तत्र - अलङ्कारोऽथ वस्त्वेव शब्दाद् यत्रावभासते ॥ (मू० का० ३८, उ.) प्रधानत्वेन स ज्ञेयः शब्दशक्तयुद्भवो द्विधा । (भूत का० ३९, पृ.) वस्त्ववेत्यनलकारं वस्तुमात्रम् । तत्रायो यथा- भद्रात्मन इत्यादि । अत्र मिथोऽसम्ब. धार्थद्वयबोधकत्वेन मागेको ग भूदिति ब रुणारः कल्पनीय इति उपमाऽलकारो व्यङ्ग्य इति व्यवहर्तव्यम् । वस्तुमात्रं यथा शनिरशनिश्व तमुनिहन्ति कुप्यसि नरेन्द्र ! यसै त्वम् । यस्य प्रसीदसि पुनः स भात्युदारोऽनुदारश्च ॥ अत्र विरुद्धायपि त्वदनुवर्तनार्थमेकं कार्य कुरुत इति वस्तु ध्वन्यते । अर्थशतयुद्भवेऽप्यों व्यञ्जका सम्भवी स्वतः ॥ (मू० का० ३९, ३०) प्रौढोक्तिमात्र(ब्रात् १)सिद्धो वा कवेस्तद्वर्णितस्यं च । वस्तु वाऽलङ्कतिर्वेति पभेदोऽसौ व्यक्ति यत् ॥ (मूत्र का० ४.) वस्त्वलकारमथवा तेनासौ द्वादशात्मकः । (भू० का० ४१, पू०) इति । तत्र स्वतः संभवी न केवल भणितिमात्रनिष्पन्नो बहिरौचित्येनापि संभाव्यमानः, प्रौढोक्तिमात्राद् बहिरसन्नपि निम्मितः कविना कविनि[व]द्धवक्त्रेत्यन्यत् । अत्र अर्थशत्युद्भवस्य द्वादशमेदा इति यदुक्तं तदनुपपन्नम् । यतः- कविनिबद्धकवित्वात् । तेना• यमर्थः- स्वतः सम्भवी प्रौढोक्तिमात्रसिद्ध [प० १६. १] इति द्विविधोऽपि प्रत्येक वस्वलबाररूपत्वेन चतुर्विधो व्यञ्जकः । तस्य प्रत्येक वस्त्वलकारो व्यस्य इत्यष्टविधो ध्वनिः । अन्यत् तु सर्व खबुद्धिसौष्ठवप्रकटनम् । खतःसंभव्यर्थशक्तिमूलध्वनियथा - अलससिरमणी धुत्ताणमनिगमो पुत्ति धनसमिद्धिमओ। क्ष्य भणिएण नअंगी पफुल्लविलोअणा जाआ ॥ [अलसशिरोमणिः धूतानामनिमः पुनि धनसमृद्धिमयः । इति भणितेन नताशी प्रोत्फुल्लविलोचना जाता ॥] अलसत्वेन अप्रवासित्वम् , धूर्तत्वेन विदग्धत्वम् , प्रोत्फुल्लविलोचनत्वेन हयों व्यज्यते । अत्र ममैवायं उपभोगयोग्य इति वस्तु खतः संभविनार्थेन व्यज्यते । प्रौढोक्तिमात्रनिष्पन्नाथशक्तिमूलध्वनिमाह महिलासहस्सभरिए तुह हिअए मुहम सा अमाअंती । अनुदिणमणण्णकम्मा अंग तणुअं यि तणुएइ ।। [महिलासहनभृते तव हृदये सुभग सा अमान्ती । प्रतिदिनमनन्यकम्मा मङ्गं तनुकमपि सनफरोति ।।] __ोनोम्भितस्य वा मु. पा० । २ 'तेनाय' मु. पा.। का०प्र०४ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशबहने अत्रामान्तीत्यत्र महिलासहस्रभृतत्वं हेतुः, तनु(नू )करणे अमितत्वादिहेतुरिति हेललहा। मन्त्र हेत्वलकारेण मौढोक्तिमात्रनिष्पन्नेन तनोस्तनु(नू)करणेऽमि तव हृदये सा न वर्तत इति विशेषोक्तियन्यते । उभयशक्तिमूलध्वनिर्यथा अतन्द्रचन्द्राभरणा समुद्दीपितमन्मथा | तारका तरला श्यामा सानन्दं न करोति कम् ॥ अक्षरार्थस्तु-श्यामा नायिका रात्रिश्च, चन्द्रः शशी कपूर च, सुवर्ण वा । 'चन्द्रः सुधांशुकर्पूरकम्पिल्लवर्णवारिषु' इति विश्वः । तारका नक्षत्र अक्षिकनीनिका च । यद्यपि शब्दशक्तिमूलेऽर्थस्स, अर्थशक्तिमूले शब्दस्य व्यञ्जकत्वं संभवतीति उभयशक्तिमूलत्वं सर्वत्रास्ति, तथापि तत्र गुणप्रधानभावेन । अत्र तु द्वयोरेव प्राधान्ये व्याकरव. मिति उभयशक्तिमूलत्वम् । अयं निष्कर्षः- यत्र पदं परिवृत्त्य सहिष्णु तत्र पदप्राधान्यम् , अन्यत्रार्थप्राधान्यम् । [प, १६.२ ] प्रकृते चन्द्रसमुद्दीपिततारकाशब्दाः परिवृत्यसहिष्णवः, पदान्तरोपादानेऽपरार्थप्रत्ययो न स्यात् । अत एव एषां शब्दमाधान्यम् । अन्ये न तथेति तेषां अर्थप्राधान्यम् । उभयोरेकत्र प्राधान्यादुभयशक्तिमूलत्वम् । अत्रेदमवधातव्यम् – यस्य यत्र काव्यसर्वखत्वमनुभूयते तत्र तस्य प्राधान्यम् । तथा चात्र रात्रिनायकयोरुपमानोपमानभावो व्ययः । अप्रेदमयधातव्यम् – अविवक्षितबाच्यप्रभृतयो यावन्तो ध्वनिभेदाः कथिताः ते सर्वे घाक्ये भवन्ति । उमयशक्तिमूलं विना पदे स्युरिति प्राश्वः । 'सोऽपि पदे भवतीति नवीनाः । यत्र सर्वाणि पदानि समकक्षकतया व्यञ्जकानि प्रकृतार्थोपकारे पर्यवस्यन्ति तत्र वाक्यगतत्वेन व्यवहारः, यत्र त्येकमेव प्राधान्येन व्यञ्जकं तत्र पदगत. स्वेनेति वाक्य-पदगतत्वेन ध्वनीनां विवेकः । तत्र वाक्ये पूर्वमुदाहताः । पदे किञ्चित् उदाहियते यथा -- बहवस्ते गुणा राजन्नेकस्तु सुमहान् गुणः । मित्राणि तव मित्राणि नान्यथा स्युः कदाचन ।। एवं अन्यदपि स्वयं बोध्यम् ।। प्रवन्धेऽप्यर्थशक्तिभूः । (मू० का० ४२, १० पा०) अलं स्थित्वा श्मशानेऽस्मिन् गृध्र-गोमायुसङ्कले । कङ्कालबहले घोरे सर्वप्राणिभयङ्करे ॥ न चेह जीवितः कश्चित् प्राणिधर्ममुपागतः । प्रियो वा यदि वा द्वेष्यः प्राणिनां गतिरीदृशी ॥ इति । ५ 'उभयशकिमूलध्वनिरपि । इति टिप्पणी। २ "कालधर्म' मु. पा० । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उल्लास Torever दिवा प्रभवतो गृहस्य पुरुषविवर्जनपरं वाक्यम् - 1 आदित्योऽयं दिवा मूढाः स्नेहं कुरुत सांप्रतम् । बहुविमो मुहूर्त्ताऽयं जीवेदपि कदाचन || अमुं कनकवर्णाभं बालमप्राप्तयौवनम् । गृध्रवाक्यात् कथं बालास्त्यजध्वमविशङ्किताः । इति । - निशि चिजृम्भमाणस्य गोमायोजनव्या चर्तननिष्ठं चेति प्रबन्ध एव व्यञ्जकतथा प्रथते । अन्येऽपि स्वयमूणाः । अपिशब्दात् पद-वाक्ययोः पदैकदेशरचना वर्णेष्वपि रसादयः । पदं द्विविधं सुबन्तं तिङन्तं च । एकदेशो धातुनामरूपः प्रकृतिविभागः, ति[ प १७.१]सुपरूपः प्रत्ययविभागः । यथा VEP रहकेलि हिअनिवसनकर कि सलअरुद्ध अणजुअलस्स | रुहस्स तीअनअणं पव्वइपरिचुम्बिअं जअ || इति केलिस निवसमकर किशलयरुजून यनजु (यु) गछस्व १ रुद्रस्य तृतीयनयनं पार्वत्याः परिचुम्बितं जयति ॥ उत्कर्षाश्रयो भवति, स च लोकोत्तररूपेण पिधानवत्तया । लोकोत्तरताच चमत्कारानुगुणतया रागातिशयहर्ष-लज्जा संपतिद्वारक रसातिशयपोषणात् । तच्च जयतिना साध्यत इति प्रकृतेर्व्यञ्जकत्वम् । नाम्नो व्यञ्जकता यथा २७ प्रेयान् सोऽयमपाकृतः सशपथं पादानतः कान्तया द्वित्राण्येव पदानि वासभवनाद् यावन्न यात्युन्मनाः । तावत् प्रत्युत पाणिसंपुटगलनीवीनिबन्धं धृतो धावित्वैव कृतप्रणामकमहो प्रेम्णो विचित्रा गतिः ॥ अ पदानीति न सु द्वाराणि । तथा च द्वारादिव्यवच्छेदो व्ययः । स च संभोगसंचालुक्योपोद्बलनद्वारा रसपरिपोषकृत् । तिङ्सुपो यथा 1 लिखन्नास्ते भूमिं बहिरवनतः प्राणदयितो निराहाराः सख्यः सततरुदितोच्छूननयनाः । परित्यक्तं सर्वं हसितपठितं पञ्जरशुकै स्तवावस्था चेयं विसृज कठिने मानमधुना ॥ अत्र लिखन्निति न लिखतीति अपि तु प्रसादपर्यन्तं आस्ते । तथा च लिखनस्य न साध्यत्वम् । अप्राधान्यं अबुद्धिपूर्वकत्वं व्यज्यते किन्तु प्रसादपर्यन्तायाः स्थितेरेव साध्यत्वम् | तथा आस्त इति न वासित इति । तेन स्थित्यतीतता विच्छेदो व्ययः । २ आदर्श "रुद्रोणणभण" इति पाठः । १ स्थितो' सु० पा० । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन एवं भूमिमिति न तु भूमाविति । न हि बुद्धिपूर्व किञ्चिल्लि[स]ति । अधिकरणताऽभिधाने आकाइस कर्मण उद्देश्यत्वं प्रतीयेत, न च तथेति । रमणीयः क्षत्रियकुमार आसीत् ।' इत्यतीतकालोपदेशात् स्थितेर्वर्तमानव-भविष्यत्वन्यवच्छेदो गम्यते । एषा हि दाशरथि प्रति कुपितस्य भार्गवस्योक्तिः । यथा वा रामोऽसौ भुवनेषु विक्रमगुणैः [प. १५. २] प्राप्तः प्रसिद्धि परा मस्मद्भाग्यविपर्ययाद् यदि परं देवो न जानाति तम् । बन्दीवैष यशांसि गायति मरुद् यस्यैकयाणाहति श्रेणीभूतविशालशालविवरोद्गीर्णैः स्खरैः सप्तभिः ॥ अत्रासावित्यनेन निरन्तरभावनावशेन प्रत्यक्षायमाणत्वम् , भुवनेषु इति बहुवचनेन न यत्र कचिदिति, गुणैरित्यनेन दोषव्यवच्छेदो व्यज्यते । तथा न त्वदिति न मदिति अपि तु अस्मदिति सर्वाक्षेपकत्वम् । एवं अभाग्यादिति वक्तव्ये भाग्यविपर्ययादित्युक्तम् । तेन अभाग्याभावेऽपि भाम्यान्येव तत्त्वेन परिणतानीति प्रतीयते । तैस्तु निवेदशकादैन्यविषावातिशयः पोष्यते । एवं रचना-वर्णयोय॑ञ्जकत्वं वक्ष्यते । एते शुद्धभेदाः । एवं एतेषां ध्वनीनां संयास्पनरोग, अनुमानानुगाहटगा, एकव्यञ्जकानुपवेशेन चेति त्रिरूपेण संकरेण, परस्परनिरपेक्षया चैकमकारया संसृष्ट्या एकत्र काव्ये संसर्गरूपया अन्योऽन्ययोजनम् । यथा-- खणपाहुणिआ देअर जाआए [ सुहअ] कि पि दे भणिआ। रुबइ पलोहरवलहीघरम्मि अणुणिजइ बराई ।। [क्षणप्राघुणिका देवर जायमा [सुभग ] किमपि से भणिता । रोदिति पश्चादागवलमीगृहे अनुनीयता पराकी ॥] क्षणप्राघुणिका उत्सवातिथिः । पलोहरशब्दो देशभाषया गृहपश्चाद्वाची । अत्रानुनयः कि उपभोगलक्षणे अर्थान्तरे समितः, किं अनुरणनन्यायेन उपभोग एवं व्याये व्यक्षक इति संदेहः। स्निग्धश्यामलकान्तिलिप्तवियतो वेल्लद्धलाका घना ___ वाताः शीकरिणः पयोदसुहृदामानन्दकेकाः कलाः । कामं सन्तु तथा ( दृढं ?) कठोरहदयो रामोऽसि सर्व सहे वैदेही तु कथं भविष्यति हहा हा देवि धीरा भव ॥ वेल्लनं विलासखेलनम् , पयोदसुहृदां मयूराणाम् , काम प्रभूतम् , दृढं बलवत् , सहे इत्युत्तमपुरुषैकवचनम् । भविष्यति जीविष्यतीत्यर्थः । खेदातिशये ह ह हे। प. १८.१ ति त्रयो निपावाः । स्मृतिसंकल्पोपनीता सीतां संबोध्याह - देवीति । अत्र वियतो निःस्पर्शस Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम उल्लास २९ लेपनासंभवात् लिखेति पदे व्यापने लक्षणा, सुहृदामित्यत्राचेतनस्प मित्रत्वाभावात् सुहृदामित्यनेन परितोषकारित्वं लक्ष्यते । तदतिशयौ च व्यक्यौ लेपन-मुहत्वयोः सर्यथान्वयामवेशात् वाध्ययोरत्यन्ततिरस्कारः । एवं चात्र अत्यन्ततिरस्कृतवाच्ययो`पनातिशयपरितोषकारित्वातिशयध्वन्योः संसृष्टिः । आभ्यां सह रामोऽस्मीति अर्थान्तरे कष्टजीवित्वको समितवायरस, एशि वैषम्य हेतुसंपातेऽपि जीवित्वरूपदुःखसहनातिशय वन्योः, अनुमाद्यानुग्राहकभावेन रामपदलक्षणैकव्यञ्ज कानुप्रवेशेन वा अर्थान्तरसमितवाच्यस्य दुःखसहनातिशयध्वनेः रसध्वनेश्व सक्करः । एवमन्यदप्युदाहार्यम् ॥ ॥ इति पादशाहटीअकबरसूर्यससनामाध्यापक-धीशत्रुञ्जयतीर्धकरमोचनाद्यनैकसुकृतविधायकमहोपाध्याय-श्रीभानुचन्द्रगणिशिच्याटोत्तरशतावधानसाधनप्रमुदितपादशाहश्रीअकबरप्रदत्त-पु(खुस्फिहमापराभिधानमहोपाध्याय-श्रीसिद्धिचन्द्रगणिविरचित कामप्रकाशष(ख)ण्डने चतुर्थ उल्हासः ।। पञ्चम उल्लासः। अथ पाचोक्तगुणीभूतव्यत्यमेदानाह -- अगूदमपरस्थाङ्गं वाच्यसिद्ध्यङ्गमस्फुटम् । सन्दिग्धतुल्यप्राधान्ये काकाऽऽक्षिप्तमसुन्दरम् ॥ ( म० का० ४५) व्यङ्गयमेवं गुणीभूतव्यङ्गयस्याष्टौ भिवाः स्मृताः। (मू० का० ४६, पृ.) एषां स्वरूपं लक्ष्येषु वक्ष्यामः । कामिनीकुचकलशतया गूढं चमत्करोति, अगूढं तु स्फुरतया प्रतीयमानमिति गुणीभूतमेव । यथा राजविंशमनोर्म मर्कटद्वारसेवनात् । जीवन्तमपि मां ब्रह्मन् ! मृतमित्यवधारय । अत्र मरणमेव श्रेय इत्यनुतापातिशयो व्यन्यः सर्वजनवेद्यस्वाद गूढ एव । अपरस्य रसादेः, रसादिः अझं उत्कर्षक तथा वाच्यस्य [प० १८.२ ] अनुरणनरूपमझम् । केचित् तु वाच्यस्य रसादिरसमित्याहुः । लक्ष्यदर्शने विशिष्टं विवेचयिष्यामः । यथा अयं स रशनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दनः । नाभ्यूजघनस्पी नीवीविस्रंसनः करः ॥ अत्र शृङ्गारः करुणस्योत्कर्षकः । तथा हिं- एतत् समरपतितं भूरिश्रवसो हस्तमालोक्य तद्वधूरमिदधौ । तथा च शृङ्गारोचितरसनाकर्षणादिविलासस्मरणविगलहृदयत्वात् शोकबेगमधिकमपजनयति । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० काव्यप्रकाशखण्डन कैलासालयभीललोचनरुचा निर्वर्तितालतक व्यक्तिः पादनखद्युतिर्गिरिभुवः सा का सदा त्रायताम् । स्पद्धविन्धसमीहयेव सुदृढं रूढा यया नेत्रयोः कान्तिः कोकनदानुकारसरसा सधः समुत्सार्यते ॥ कैलासालयः शिवः, अत्र गिरिभुवः कोपबशात् नेत्रयोः शोष्णा कान्तिरासीत् सा पादपणते शिवेऽपगतेति ध्वनितम् । तत्रेदमुत्प्रेक्षते - स्पर्द्धाबन्धेति । रूढा उपचिता । अत्र भावस्य त्रायतामित्यवगतस्य कविनिष्ठस्य रसो महादेवनिष्ठा रतिः प्रणतिरवसैया । महादेवोऽपि यत्मसादनाय प्रणमति तत्र भक्तिरुचितेति रसस्य भावाता । एवं सर्वत्राशानिभावो बोध्यः । अनुरणनरूपस्य रसस्य वाच्याङ्गत्वं यथा जनस्थाने भ्रान्तं कनकमृगतृष्णान्धितधिया वचो वैदेहीति प्रतिपदमुदश्च प्रलपितम् । कृतालंकाभर्तुत्रंदनपरिपाटीषु घटना मयाप्तं रामत्वं कुशलवसुता न त्वधिगता ॥ मया रामत्वं रामसादृश्यं आप्तं प्राप्तमित्यन्वयः । खपक्षे जनस्थान नगर-मामादि, रामपक्षे जनस्थानं खर-दूषणादिनिवासः दण्डकारण्यं था । खपक्षे कनकविषया मृगतृष्णा निःफलाऽऽशा, रामपक्षे कनकमृगे सुवर्णमृगे तृष्णा च । बै निश्चितं देहि प्रयच्छ, रामपक्षे विदेहापत्यं स्त्री वैदेही सीता च । भर्तुः भरणकर्तुः । परिपाटीषु मुखविवलनाममोट्टनाऽनवधानादिषु का घटना न कृता तां वद । यद्वा [प. १९.१] काभर्तुः कुत्सितमतः । वदनपरिपाटीषु वचन भङ्गीषु, घटना योजना अलमत्यर्थेन न कृता । अलं व्यर्थ था कस्म मुखस्याभर्तुरपोषकस्य नीचजनस्वेत्यर्थः । लामतुः रावणस्य वदनानां परिपाट्यां पक्तयां इषुघटना शरसंयोजन च । स्वपक्षे कुशलं प्रचुरं वसु धनं यस्थ, एवंभूतता । कुश-लवौ सुतो यस्याः सा सीता । अत्र प्रकृताप्रकृतयोः कवि-रामयोः साम्यं ध्यानया बोध्यते । मत्र शब्दशक्तिमूलानुरणनरूपी रामेण सह उपमानोपमेयभावो मयेत्यादिना बाच्याङ्गता नीतः । शब्दानां परिवृत्त्यसहिष्णुत्वेन शब्दशक्तिमूलता । चाच्यस मयाप्तं रामत्वस्म । अन्यत्रान्यतादात्म्यारोपरूपस्यातिशयोक्तिरूपस्य अङ्गतां उत्कर्षतां नीतः । मयाप्तं रामत्व इत्यभिधाय कविनेति शेषः । तदनुक्तावुपमाध्वनित्वानपायः स्यात् । अयमर्थः - सदृशे तत्त्वारोपस्य चमत्कारित्वात् , वाच्यस्य तत्त्वारोपस्य प्रतीयमानं खसाम्यमुत्कर्षकमित्यपराजता । ननु कुतो रामत्व प्राप्तमित्याकालाया निवर्तकस्य साम्यस्य वाच्यसिद्ध्यकत्वमेव नापराङ्गत्वम् । इति चेत्, न । जनस्थानभ्रमणादिरूपसाम्यस्य शब्दशक्तिमूलव्यन्यतः प्रागेवावगतौ रामत्यारोपरूपबाच्यस्य सिद्धत्यात् । अङ्गरूपोपमायां तु जनस्थान इत्यादिशब्द एव सादृश्यम् । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाच्यसिद्धय यथा — गच्छाम्यच्युत । दर्शनेन भवतः किं प्रीतिरुत्पद्यते किं त्वेवं विजनस्थयोर्हतजनः संभावयत्यन्यथा । इत्यामन्त्रणभङ्गिसूचितवृथावस्थान खेदालसा अस्फुटं यथा - पश्चस उल्लास माश्लिष्यन् पुलकोत्कराश्चिततनुर्गोपी हरिः पातु वः ॥ अच्युतन्नामर्क अगरियरूपै न । किं दर्शनेन अपि तु संभोगेन संभावयेति । अन्यथासंभावनमावश्यकं तत् किमित्यात्मानं वञ्चयाव इत्यर्थ व्ययाः । ते चामन्त्रणाद्यर्थस्योपपादकाः । अन्यथा आम प० १९.२ चणमङ्गिखरूपाज्ञानेन इत्यर्थानन्वयः स्यात्, इत्याह-अच्युतादि व्ययं आमन्त्रणेत्यादि वाच्यस्यामिति । ૩૨ काकाक्षिप्तं यथा 1 अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा दृष्टे बिच्छेदभीरुता । नादृष्टेन न दृष्टेन भवता लभ्यते सुखम् ॥ अत्रादृष्टो यथा न भवसि बियोगभयं च नोपपद्यते तथा कुर्याः - इति व्ययं झटिति सहृदयैरपि न प्रतीयते । नवीनास्तु अयं भेदः खबुद्धिमात्र कल्पित एव । इदं व्यमयं व्ययान्तरवत् सहृदयैर्विलम्बेन प्रतीयते इत्यस्य शपथैरेव प्रत्याययितुं शक्यत्वात् । सन्दिग्धप्राधान्यं यथा - 212 03 हरस्तु कश्चित् परिवृतधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः । उमामुखे विम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि || अत्र परिचुम्बितुमैच्छदिति व्ययम्, किं वा त्रिलोचनव्यापारणं वाच्यं प्रधानमिति सन्देहः । तुल्यप्राधान्यं यथा ब्राह्मणातिक्रमत्यागो भवतामेव भूतये । जामदम्पस्तथा मित्रमन्यथा दुर्मनायते ॥ अत्र जामदम्यः सर्वेषः क्षत्रियाणामिव रक्षसां क्षयं करिष्यतीति व्यङ्ग्यस्य दण्डस्य, वाच्यस्य च सामरूपस्य समं प्राधान्यम् । तथा हि- मूत्युपदेशमित्रत्वाभिधानं सामवाच्यम्, उक्तरूपश्च व्यञ्जयो दण्डः । उभयोरप्यनर्थ निवारकत्वे तुल्यता । मामि कौरवशतं समरे न कोपाद् दुःशासनस्य रुधिरं न पिवाम्युरस्तः । संचूर्णयामि गदया न सुयोधनोरुं सन्धि करोतु भवतां नृपतिः पणेन ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन सन्धिश्रवणकुपित्तस्य भीमसेनस्योक्तिरियम् । भवतामिति न ममापि । तेन तस्कृतसन्धाने नामाकं सन्धिरिति प्रतिज्ञा विरुद्धनिषेधाभिधायिषु नत्रिषु काकुनिषेधान्तराक्षेपिका । अभावाभावश्वावधारणमेवेत्याह - मलाम्येवेति व्यायं गुणीभूतं तदयुक्तम् । तथा हि - मथ्नाभ्येवेति व्ययस्य भीमसेनगतकोधोत्कर्षकरवेन रौद्ररसोपोद्वलनद्वारा वाच्यात् सातिशय. चमत्कारित्वेन ध्वनित्वे [ १० २०.१] संभवति कुतो गुणीभूतव्यन्यत्वम् । असुन्दरं तद् यत्र व्यङ्ग्य चमत्कारित्वे वाच्यमुखनिरीक्षकम् । यथा - ग्रामतरुण तरुण्या नववञ्जुलमञ्जरी सनाथकरम् । पश्यन्त्या भवांत नितरा मलिना मुखच्छाया । अत्र दत्तसकेता नागतेति व्यङ्ग्यापेक्षया वाच्यस्यैव चमत्कारित्वात् ॥ ॥ इति पाइसाह-श्रीअकम्बरसूर्यसहस्रमामाध्यापक-श्रीशत्रुजयतीर्थकरमौचनाउने कसुकृतविधापक महोपाध्याय श्रीमानुचन्द्रगिशिष्याष्टोत्तरशतावधानसाधनप्रमुदितपादसाहश्रीअकबरप्रदत्त-खुस्फहमापरभिधानमहापाध्याय-श्रीसिद्विचन्द्र___ गणिविरचिते काव्यप्रकाशखण्डने पत्रम उल्लासः ।। षष्ठ उल्लासः। चित्रभेदास्त्वलकार निरूपण एव निरूपयिध्यन्ते । इदमवधेयम् - शब्दार्थचित्रं यत् पूर्व काव्यद्वयमुदाहृतम् । गुणप्रधानतस्तत्र स्थितिः शब्दार्थचित्रयोः ।। (मू० का० ४८) न तु शब्दचित्रे नार्थस्य चित्रताऽर्थचित्रे शब्दस्य । तथा कैश्चित् शब्दचित्रमेवेष्यते । कैश्चिवर्थचित्रमेवेष्यते । अस्माभिस्तु द्वयमेवेति । उदाहरणं तु प्राक्तनं बोध्यम् । ॥ इति पादसाह-श्रीअकबरसूर्यसहस्रनामाध्यापक श्री शत्रुञ्जयतीर्थकरभोचनाद्यनकसुकृतविधापकमहोपाध्यामश्रीभानुचन्द्रगणिशिघ्याष्टोत्तरशतावधानसाधनप्रमुदितपादसाहश्रीअकबरप्रदत्तसुरुफहमापरामिधानमहोपाध्यायधीसिद्धिचन्द्र गणिविरचित काव्यप्रकाशखण्डने षष्ट उल्लासः ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दोषखरूपमाह - सप्तम उल्लास सप्तम उल्लासः । ३३ येषां ज्ञानाचमत्कारो न सम्यगुपजायते । सालङ्कारगुणेऽप्यत्र ते दोषाः परिकीर्त्तिताः ॥ अत्रेति काव्ये । दृष्टं हि लोके सगुणोऽपि सालङ्कारोऽपि दुष्टत्वेन ज्ञातो न तथा I चमस्करोति तथा काव्यमपि । प्रकाशकृतस्तु मुख्यार्थतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद् वाच्यः । उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः ॥ ( मू० का ० ४९ ) का० प्र० ५ ar मिश्राः मुख्यायेदं मुख्यार्थ इति चतुर्थी १० २०.२ ]समासः । तच शब्दार्थयुगलम् । यस्य येन रूपेण रसव्यञ्जकत्वं तस्य तद्रूपमन्यवः । फलं तु रसस्य सम्यगनवभासः । लोकेऽपि दृष्टो दीपा दिव्यञ्जक वैगुण्येन घटादेरपि सम्यगनवभासः । अर्थ-शब्दयोमुख्यार्थत्वं दर्शितम्, ' तदाश्रये' त्यादिना । इदं त्वमे व्याख्यास्यते । न चात्र शब्दार्थयोः रसव्यञ्जकतावच्छेदकरूपविरहो दोष इति पर्यवसन्नम् । तच्च न चारु । रूपान्तर विरहेण दोषाभावगुणालङ्काराणामेव रसव्यञ्जकतावच्छेदकतया दोषानुप्रवेशे आत्माश्रयापतेरिति वाच्यम् । यतो दोषाभावस्य रसव्यञ्जकतावच्छेदकरूपस्य रूपान्तरेण रसव्यञ्जकतावच्छेदकरूपेण प्रवेशोऽत्र कृतः, न तु दोषाभावत्वेन । कान्योऽन्याश्रयप्रसङ्गः । यद्वा श्रुतिकटुवादिनैव विशेषरूपेण प्रवेशः कर्त्तव्य इत्याहुः । अन्ये तु मुख्य इतरेच्छाधीनेच्छाविषयः, तब सुखम्, परमपुरुषार्थत्वात् । एवं च मुख्यत्वं तु सुखान्तरेऽप्यतिप्रसक्तमिति तद्वारणायार्थपदम् | अर्थत्वं अर्यमाणत्वं शब्दजन्य साक्षात्कारविषयत्वमिति यावत् । काव्यादन्यतः शब्दात् न सुखस्य प्रत्यक्षता किन्तु शाब्दत्वमेव । शब्दे तज्जन्यप्रत्यक्ष विषयतया तिध्याशिवारकं मुख्यपदम् | उक्त मुख्यत्वस्य सुखादन्यत्रा संभवात् । एतेनात्र पदार्थतावच्छेदकयोः परस्परव्यभिचाराभावात् न कर्मधारयोऽर्थपदवैयर्थ्यं चेति दूषणद्वयं निरस्तम् । इतिरपकर्षो न तु प्रतिषन्धो दुष्टेष्वपि रसानुभावात् । अपकर्षस्तु रसनिष्ठो धर्मविशेषः । दोषज्ञानं तु तद्व्यञ्जकम् । न त्वेवं अभिधेयेऽर्थे मुख्यशब्दप्रयोगः, अर्थशब्ददोष विभागश्च न स्यात् । उक्तमुख्यार्थत्वस्य अपकर्षस्य च रसमात्रवृत्तेरित्यतः 'तदाश्रयादि'त्याधुक्तम् । आश्रयणमाश्रयः उपायत्वेनापेक्षणम् । वाच्यो मुख्य इत्यन्वयः । एवं च वाच्ये विभा वादौ भाको मुख्यपदप्रयोगः । आखादोपाय [] प ० ११.१ ]वं च दर्शितम् । उभयम् - रसो बाच्यश्च । शब्दाद्यास्तदुपयोगिनः विभावादिकं प्रत्याय, रसप्रत्यायनात् । तेन रसोपायश्वेन तेषु अर्थशब्दादिषु सः दोषः । न केवलं रसेऽपीत्यपेरर्थः । गुणवदोषोऽपि साक्षात् सम्बन्धेन रसे, व्यञ्जकत्वेन तु अर्थे शब्दादिष्विति व्याचक्षते । नवीनास्तुएतन्मतनिष्कर्षस्तु रसापकर्षज्ञानजनकज्ञानविषयत्वं दोषत्वम् व्यपकर्षस्तु रसनिष्ठोऽखण्डो J Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन पाधिरिति । तथा च रत्याद्यवच्छिन्नचैतन्यस्य आनन्दांशे लेशेन स्थितिर्मुख्यार्थहतिः । सा च दोषज्ञानाद् भवति । तन्न युक्तम् । उत्रिविसेसो कन्चो भासा जा होइ सा होउ । इति काव्यरसज्ञानां वाचोयुक्तिश्रवणात् । च्युतसंस्कृत्यादीनां मुख्यार्थहतित्वाभावात्इत्याहुः। यद्यपि सर्वे दोषाः वाच्यवचन-अवाच्यवचनयोईयोरेवान्तर्भवितुमर्हन्ति, तथापि तयोरेव विषयविशेषप्रदर्शनार्थविभागार्थ दोषानाह - दुष्टं पदं श्रुतिकटु च्युतसंस्कृत्यप्रयुक्तमसमर्थम् । निहतार्थमनुचितार्थ निरर्थकमवाचकं त्रिधाऽश्लीलम ॥ (म० का ५० ) सन्दिग्धमप्रतीतं ग्राम्यं नेयाथैमथ भवेत् क्लिष्टम् । अविमुष्टविधेयांशं विरुद्धमतिकृत् समासगतमेव ॥ (म्• का" ५५) · श्रुतिकटुपदं दुष्टमेवं सर्वत्रान्वयः । श्रुतिकटुत्वं च मुस्यार्थापकर्षकरवे सत्योजोन्यत्रकवर्णवत्त्वं वीरादिष्वदुष्टतयातिप्रसङ्गवारणाय सत्यन्तम् । तथा चात्र प्रकृतरसव्याकामावाद रसोद्बोधरूपं कार्य न जायते । प्रतिकूलवणे तु प्रकृतरसप्रतिबन्धकवर्णैः प्रतिवध्यत इत्यनयोर्भेदः । वर्णानां रसन्यञ्जकरवं तत्प्रतिकूलत्वं च वक्ष्यते । यथा अनङ्गमङ्गलगृहापाङ्गभङ्गितरङ्गितः । आलिङ्गितः स तन्वया कातायं लभते कदा ॥ -- अत्र कार्यमिति श्रुतिकटु । नवीनास्तु - तन्न चारु, वर्णानां मुख्यार्थापकर्षकत्वाभावात् । अत एव अलसवलितैः प्रेमाादैर्मुहुर्मुकुलीकृतैः क्षणमभिमुखैर्ल झालोलेनिमेष प० २१. २ ]पराशुखैः । हृदयनिहितं भावाकूतं वमद्भिरिवेक्षणः कथय सुकृती कोऽयं मुग्धे! त्वयाऽध विलोक्यते ॥ इत्यत्र महाकविभिः शृङ्गारे परुषवर्णोपादानं कृतमिति वदन्ति | च्युतसंस्कृति व्याकरणलक्षणहीनं असाध्विति यावत् । यथा - प्रजा इबाङ्गादरविन्दनामः शम्भोर्जटाजूटतटादिवापः । मुखादिवाथ श्रुतयो विधातुः पुरान्निरीयुमधुजिद्ध्वजिन्यः ॥ अत्र अरविन्दनाभेरिति ग्रामगाम (१) इति वा । तदापि न । तत्रान्वयबोधस्मानुभवसिद्धत्वात् , साधुशब्दस्सरणादिना या द्वित्रिक्षण बिलम्बस्याकिश्चित्करत्वात् , मुख्याहतेरभावात् , तथाविधरचनायाः कवेरेवापर्षो न रसोद्बोधस्य । १ 'भरविन्दं माभौ समासौ भरबिन्दनाभः, इस्य विधानान्' । इति टि.। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्षम उल्लास एवं हितार्थमपि न दूषणम्, द्वित्रिक्षणविलम्बस्या किश्चित्करत्वात् । एवमप्रयुक्तं तथाऽऽज्ञातमपि कविभिर्नादृतमित्येवं रूपम् । उदा० यथायं दारुणाचारः सर्वदैव विभाव्यते । तथा मन्ये देवतोsस्य पिशाचो राक्षसोऽथवा ॥ अत्र दैवतशब्दः पुंना न दित् प्रयुज्युमपि न दूषणम् । सत्यनुशासने कवेरनादरणं कवेरनादराथैव पर्यवस्यति । - असमर्थ उपसंदानं विनाऽनुशिष्टार्थी ( १ ) बोधकम् । उपसंदानं उपसर्गः । यथातीर्थान्तरेषु स्नानेन समुपार्जितसत्क्रियः । सुरस्रोतस्वतीमेप हन्ति संप्रति सादरम् ॥ अत्र हन्तीति गमनार्थः, बोधं प्रति स्वरूपायोग्यत्वं दूषकता बीजम् । इदमपि न सूषणं सम्यगिव प्रतिभाति । तथा हि उद्धति पद्धतीत्यादी उपसंदानेन अनुशिष्टार्थबोधने सामर्थ्य अङ्गीकृतमेव । अनुपसंदाने सामर्थ्यं नास्तीति केन वार्यते । किश्व इदं तावत् काव्या काव्यसाधारणं दूषणम् काव्ये विशिष्य किमित्युच्यत इति न जानीमः । 3 एवं च्युतसंस्कृति निरर्थ कानुचितार्था लीला विमृष्टा विधेयांश सन्दिग्वाप्रतीत क्लिष्टविरुद्धमतिकृतां काव्या काव्यसाधारणानां दोषाणां काव्ये विशिष्य दोषतया उपादानं न [ ० २२ २] 'चारुतामावद्दति । एतेषां क्रमेणोदाहरणानि च्युतसंस्कृति प्रागुदाहृतम् । अन्यदुदाद्दियते । निरर्थकम् - अर्थः प्रकृतार्थाखादपरिपोषणम्, तद्रहितं पदम् । यथा - उत्फुल्लकमलकेसर पर राग गौरबुते मम हि गौरि । अभिवाञ्छितं सिद्ध्यतु भगवति ! युष्मत्प्रसादेन || अत्र हि पदं अनुचितार्थम् । अवाच्यवचनम् - - तपस्विभिर्या सुचिरेण लभ्यते प्रयत्नतः सत्रिभिरिष्यते च या । प्रयान्ति तामाशुगर्ति मनखिनो रणाध्वरे ये पशुतामुपागताः ॥ ३५ ara पशुपदं कातरतां अभिव्यनक्तीति प्रकृतार्थोत्कर्ष प्रतिबन्धकत्वं दूषकताचीजम् । अश्लील त्रिधा -- व्रीडा-जुगुप्साङमाङ्गल्य व्यञ्जकत्वात् । सभ्यवशीकरण संपत्तिः श्रीः तां लातीति, रैश्रुतेर्लश्रुतिरिति लीलम्, न श्रीलं अश्लीलम् । क्रमेणोदा० 'साधनं सुमहद् यस्य यन्नान्यस्य विलोक्यते । तस्य धीशालिनः कोऽन्यः सहेतारालित (तो) भुवम् ॥ अत्र साधनशब्दः पुंल्लिङ्गवाचकः, तत्स्मृत्या व्रीडा | सैन्यार्थस्तु विवक्षितः । श्रीडापक्षे I सुमहद् द्वादशाङ्गुलं यस्याश्वपुरुषस्य वर्त्तते । यत् साधनम् अन्यस्य शशकस्य वृषभस्य वा 2 उपसर्ग विना । २ अनुशिष्टाः शक्यार्थः । ३'लश्रुते श्रुति" यादव । 2 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन ३६ न दृश्यते । अथ च धीशालिनः परस्त्रीवश्याधुपायाभिज्ञस्य । तस्याशलितां वक्रां सकामकटाक्षां ध्रुवं कः प्रातिवेश्मिकादिः सहेत निःशको वर्तेत इत्यर्थो निर्वाचः । एवमन्यदप्युदाहार्यम् । अविसृष्टविधेयांशमिति – अविसृष्टः प्राधान्येनादृष्टो विधेयांशो यत्र, तदविसृष्ट विधेयाशम् । प्राधान्यं तु विधेयताप्रतीतियोग्यत्वम् । तदुक्तम् - यच्छन्दयोगः प्राथम्यं सिद्धत्वं वाऽप्यनूद्यता । तच्छन्दयोग आन्त साध्यत्वं च विधेयता | तथा उद्देश्यं विधेयं च यदि पृथकू पदाभ्यामुपतिष्ठते तत्र प्राप्तमुद्दिश्य अमाप्तं विधीयते । यथा पर्वतो वह्निमानिति । न तु समासे अन्यथा वह्निमत्पर्वत इत्याद्यभिषीयेत । उदाहरणम् - न्यकारो यमेव मे यदयस्तत्राप्यसी तापसः सोऽप्यत्रैव निहन्ति राक्षसकुलं जीवत्यहो [१०२२. २] रावणः । घिविक शत्रु ( १ ) जितं प्रबोधितत्रता किं कुम्भकर्णेन वा स्वर्गग्रामटिकाविलुण्ठन वृथोच्छूनैः किमेभिर्भुजैः ॥ न्यक्कारः क इत्यत आह - यदस्य इति । मम तु त्रैलोक्यं सेवकमेवेति न्याय्यम् । न तु प्रत्यर्थितया कस्यापि स्थितिरित्यर्थः । अल्पो ग्रामो आमटिका | अन्नायमेव न्यक्कार इत्येव वाच्यम् । तदैव विधेयस्य प्राधान्येन निर्देशो भवति । अयं तु वादकथादौ दोषः । यन्मते खले कपोतन्यायेन शाब्दबोधः तन्मते दोषलेशोऽपि न । सन्दिग्धम् – तात्पर्यसन्देहास्पदीभूतार्थद्वयोपस्थापकम् । आलिङ्गितस्तत्र भवान् सम्पराये जयश्रिया । आशीःपरम्परां वन्द्यां कर्णे कृत्वा कृपां कुरु || अत्र च वन्द्यामिति बो (ब)द्धायां किं नमस्यायामिति सन्दिग्धम् । वन्द्यामित्यत्र प्रथमे इठहृतमहिलायां कृपां कुर्विति । द्वितीये नमस्यां आशीः परम्परा मित्यर्थोपपत्तौ साधक-बाधकमानाभावात् संशय इति भावः । अत्रार्थानिश्चय एव दूषकताबीजम् । अप्रतीतमिति प्रतिशास्त्रे इतं ज्ञातं प्रतीतम्, न प्रतीतं यत्किञ्चित् शास्त्र परिभाषितमित्यर्थः । यथा - सम्यग्ज्ञानमहाज्योतिर्दलिताशयता जुषः । विधीयमानमध्येतन्न भवेत् कर्मसा ( नं १ ) धनम् ॥ अत्राशयशब्दो वासनापर्यांयो योगशास्त्र एवं प्रसिद्ध इति विरलप्रयोगेन न झटिति प्रत्यायकत्वं दूषकताबीजम् । माग्यो विदग्धस्तत्प्रयुक्तं ग्राम्यम् । यथा 1 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उल्लास राकाविभावरीकान्तसङ्क्रान्तद्युति ते मुखम् । तपनीयशिलाशोभि कटिव हरते मनः ॥ अत्र कटिरिति प्राम्यम्, श्रोणीनितम्बादिकम' पनागरिकम् । इत्यत्र विनिगमकस्य वक्तुमशक्यत्वात् । अत्र वक्तुरवैदग्ध्यं रसापकर्षश्च दूषकताबीजम् । नेयार्थम् - यद् रूढि प्रयोजनाभ्यां लक्षणयाऽप्रयुक्तम् । यथा - चरणैः प्रातर्युक्तं नभस्तलम् ! कश्मीररागारुणितं विष्णोर्वक्ष इवाबभौ । वस्त्रवैदूर्य चरणैरम्बररत्न पादैरित्यर्थो नेवार्थम् । दूषकताबीजं तु कवेरन्युत्पत्तिसन्धानेन वैरस्यापादकत्वम् । एवम[] ५० २३. १ वाचकं सङ्केतविरहादबोधकम् । असमर्थेनासङ्केतः लाक्षणिकेनाबोधकस्वमिति तयोर्न प्रसङ्गः । यथा - अवन्ध्यकोपत्य विहन्तुरा जति गाः लयमेव देहिनः । अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्हेन न विद्विषादरः ॥ अन्न जन्तुपदमदातरि प्रयुक्तम्, तत्र नाभिधायकमिति । तदपि न चार, तात्पर्यानुपपत्त्या कक्षणया सामान्यशब्दस्यादातृत्व विशेषपरत्व संभवात् । विरुद्धमतिकृद् - यत् तात्पर्यविषयीभूतार्थधी प्रतिबन्धकी भूता सभ्यार्थी पस्थापकम् । अनुचितार्था लीलयोर्न परस्परं प्रति प्रतिबन्धकता । निहतार्थे विलम्बेन प्रतीतिरिति तयोर्भेदः । यथा - सुधाकरकराकार विशारदविचेष्टितः । अकार्यमित्रमेकोऽसौ तस्य किं वर्णयामहे || wer कार्य बिना मित्रमिति विवक्षितम्, अकार्येषु मिश्रमिति प्रतीतिः । श्रुतिकटु समासगतं यथा - सा च दूरे सुधासान्द्रतरङ्गितविलोचना । बर्दिनिदनार्होऽयं कालश्च समुपागतः ॥ एवमन्यदपि बोध्यम् । ३७: अपास्य च्युतसंस्कारमसमर्थं निरथकम् । arrasपि दोषाः सन्त्येते पदस्यांशेऽपि केचन || ( ० का ० ५१ ) न पुनः सर्वे एते पददोषाः, साकाङ्क्षनाना पदवृतयो यदा भवन्ति तदा वाक्यदोषाः इत्युच्यन्ते । यथा 1 अनङ्गमङ्गलगृहापाङ्गभङ्गितरङ्गितैः । आलिङ्गितः स दीर्घाक्ष्याः कार्त्तायं लभते कदा १ ॥ easyदाहाः । १ अमाम्यम् । २ अवाचकं तत् यत् शक्तिविरहाद बोधकमित्यर्थः । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन ___ अथ पदैकदेशे यथासंभवमुदाहरणम् - अलमतिचपलत्वात् खममायोपमत्वात् परिणतिविरसत्वात् सङ्गमेनागनायाः । इति यदि शतकृत्वस्तत्वमालोचयाम स्तदपि न हरिणाक्षी विस्मरत्यन्तरात्मा । अत्र त्वात् इति कष्टम् । एवमन्यदपि ज्ञेयम् । अथ वाक्यमात्रगामिदोषानाह --- प्रतिकूलवर्णमुपहतलुप्सविसर्ग विसन्धि हतवृत्तम् । न्यूनाधिककथितपदं पतत्प्रकर्ष समाप्तपुनरात्तम् ॥ (. का. ५३) अपदस्थपदसमासं विमतपरार्थ प्रसिद्धिपरिहीनम् । (मू. का. ५४, ३०) भग्नप्रक्रममक्र. १३.२ पबमला याकमेव था । (मू का० ५५, ५०) रसानुगुणस्वं वर्णानां प्राचीनसंमतं वक्ष्यते, तद्विपरीतत्वं प्रतिकूलत्वम् । क्या शुभारे अकुण्ठोत्कण्ठया पूर्णमाकण्ठं कलकण्ठि माम् । कम्बुकण्ठ्याः क्षणं कण्ठे कुरु कण्ठार्तिमुद्धर ।। अत्र मधुरवर्णत्वमुचितम् । एवं रौद्रादौ मसूणवर्णाः प्रतिकूला इति मन्तव्यम् । इदं च न चारु । तत्तद्रसेषु तत्तद्वर्णानामानुकूल्यस्य प्रातिकूल्यस्य या सर्वैरनभ्युपगमलात् । उपहतम् - ओ( उ?)त्वं प्राप्तो लुप्तो वा विसर्गो यत्र तत् । यथा -- धीरो विनीतो निपुणो निर्विकारो नृपोत्र सः। यस भृत्या यलोसिक्ता भक्ता बुद्धिप्रभाविताः ।। अत्र नैरन्तथैणानेकस्थानोपहतविसर्गत्वेनैव दूषकता । एवं उपहतेत्यादिचतुःषु पतत्सक च बन्धशैथिल्यापादकत्वमेव दृषकतावीजम् । सन्धेरूप्यं त्रिश्लेषः । राजन् ! विभान्ति भवतश्चरितानि तानि इन्दोद्युतिं दधति यानि रसातलेऽन्तः । धीदोर्वले अतितते उचितानुवृत्ती आतन्वती विजयसंपदमेत्य भातः ॥ , संकीर्ण गर्भितं प्रसिद्धिहत' इति मु. पु.। ३ क्रमममतपरार्थ च' इति मु. पु. पार। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-. सप्तम उल्लास नाहा सहित म करोगीनि माया सम्वणि दोषः, प्रगृह्यादिहेतुके स्वसकृत् । हतवृत्तम्-जातयतिभादिरसाननुगुणं च वृत्तम् । यथा अमृतममृतं का सन्देहो मधून्यपि नान्यथा मधुरमधिकं चूतस्यापि प्रसारसं फलम् । सकृदपि पुनर्मध्यस्था सन् रसान्तरविअनो बदतु यदिहान्यत् स्वादु स्यात् प्रियादशनच्छदात् ॥ - अब हरिणीच्छन्दसि पष्ठे दशमे सप्तदशे यतिरुचिता । चतुर्थे तु पादे 'यदिहान्यत्साई सादः इति यतिमझादश्रव्यम् । नन्वत्रेहान्यशब्दयोः सन्यौ 'अन्तादिवच' इत्यन्तमद् मावाद वा शब्दे यत्तिर्युक्तैव । तदुक्तम् - पूर्वान्तवत्स्वरः सन्धौ क्वचिदेवं परादिवत् । एरव्यो यतिचिन्तायां यणादेशः परादिवत् ॥ इति ।। प्रयोगोऽपि स्वादस्थानोपगतयमुनासङ्गमेनाभिरामा । इति । तस्माचिन्त्यमेतत् । यथा चा हा नृप! हा बुध ! हा कविबन्धो ! विप्रसहस्रसमाश्रय ! देव! 1 मुग्धविदग्धसभान्तररल ! कासि गतः क वयं च तवैते ॥ हास्थाप० २४.१व्यञ्जकमद्वत्तम् । न्यूनपदं यथा स्वयि निबद्धरतेः प्रियवादिनः प्रणयमनपराअखचेतसः । कमपराधलवं मम पश्यसि त्यजसि मानिनि ! दासजनं यतः ॥ अत्रापराधलबमपीति वाच्यम् । अधिकपदं यथा इदमनुचितमक्रमश्च पुंसां यदिह जरास्वपि मान्मथा निकाराः । यदपि च न कृतं नितम्बिनीनां स्तनपतनावधि जीनितं रतं वा ।। अत्र कृतमिति । कृतं प्रत्युत प्रक्रमभङ्गमावइति । अत्राकाहाविरहः स्फुट एवं दृषकतावीजम् । कथितपदं यथा अधिकरतलतल्यं कल्पितस्त्रापलीला परिमिलननिमीलत्पाण्डिमा गण्डपाली । सुतनु ! कथय कस्य व्यञ्जयत्यञ्जसैव स्मरनरपतिलीलायौवराज्याभिषेकम् ।। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशसंण्डन हे सुतनु ! वरतनो ! ते तब गल्ल (ण्ड ) पाली कस्य स्मर एव नरपतिस्तस्य लीलाराज्यपरिभोगस्तत्र यौवराज्यं कुमारपदवी तस्मिन् अभिषेकं व्यञ्जयति बोधयति । कथं अनसैव श्रीमं यस्तव भोक्ता तस्मै कामेन खराज्य विभागो दत्तः । स एव कामस्य मान्यो यस्मै त्वत्सदृशे रतं भोगाय दत्तमित्यर्थः । कीदृशी गण्डपाली : करतलमेव तल्पं शय्या तत्र कटिपता रचिता निद्रालीका यस्याः सा शोकेन कपोलतले निहितेत्यर्थः । पुनः कीदृशी ? परिमिलन परितो हस्ततलस्पर्शेन निमीलत्पाण्डिमा अस्तं गच्छन् गौरभावो यस्याः सा । करसंपर्केण लौहित्योदयादिति भावः । करसङ्गेन पत्युः करस्पर्श व्यनक्ति । तल्पखामेन पत्युः तपखापम् । पाण्डिमात्यागेन पतिभोगप्रयुक्तवर्णान्तरप्राप्तिं च व्यनक्तीति गम्यम् । अत्र लीलेति पिष्टपेषणवद चमत्कारित्वमेव दूषकता बीजम् । पतत्प्रकर्ष यथा - कः कः कुत्र न घुर्षुरायितघुरी घोरो पुरेच्छ्रकरः कः कः कं कमलाकरं विकमलं कर्तु करी नोद्यतः । के के कानि वनान्यरण्यमहिषा नोन्मूलयेयुर्यतः सिंदी स्नेहबिलासबद्धवसतिः पञ्चाननो वर्त्तते ॥ I कः कः शुकरो वराहः कुत्र न घुरेत् न सश्चरेत् अपि तु सर्वत्र । कीदृशः १ [५० १४.२ ] बुर्बुरायिता शब्दविशेषवती या घुरी पोत्रं शूकरमुखस्या प्रभागः तेन घोरो भयङ्करः । चुरी वाद्यभाण्डमिति केचित् । कः कः करी हस्ती, कं कमलाकरं सरोवरं विकमलं कमलाभावविशिष्टं कर्तु नोद्यतो नोक्तः ? अपि तु उयुक्त एव । के के अरण्यमहिषा वनमहिषा कानि च वनान्यरण्यानि नोन्मूलयेयुः ? अपि तु उन्मूलयेयुरेव । यतो हेतोः पञ्चाननो सिंहः सिंह्यां स्वभार्यायां यः स्नेहः प्रेम तस्य यो विलासस्तेन बद्धा स्वीकृता वसतिः स्थैर्य येन तादृशो वर्त्तते तिष्ठति । अत्र शुकराद्यभिधाने विकटानुप्रासः कृतः । स च सिंहाभिधाने पतितः । अशक्तिसूचकत्वमेव चात्रापि दूषकतावीजम् । रसानुगुणत्वेन कचित् तत्पातो न दोष इत्यनित्यदोषोऽयम् । : समाप्तपुनरात्तम् - यत्र विशेषणं समाप्तं जनितान्वयबोधं पुनराचं आवृतं तत् । वस्तुतस्तु विशेष्यं समासं जनितान्वयबोधं अनु कर्मकोपादानं विना पुनराचं आवृत यत्रेति बोध्यम् । यथा ङ्कारः स्मरकार्मुकस्य सुरतक्रीडापिकीनां खो झङ्कारो रतिमञ्जरीमधुलिहां लीलाचकोरीध्वनिः । तन्व्याः कलिकापसारणभुजाक्षेपस्खलत्कङ्कणकाणः प्रेम तनोतु वो नववयोलास्याय वेणुस्वनः || तन्व्याः कृशाशयाः कश्चलिकापसारणार्थे यो भुजा क्षेत्रः कान्तस्य दोरान्दोलनं तेन स्खलन् पतन् यत् कङ्कणं तस्य काणः शब्दो वः युष्माकं प्रेम प्रीतिं तनोतु विस्तारयतु । vull Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागा कीदृशः ? सरकार्मुकस्य कन्दर्पधनुषः, केकारः शब्दविशेष इति रूपकम् । एवमग्रेऽपि । सुरतक्रीडा निधुवनलीला सैव पिकी कोकिला तासां रवः कूजितम् , रतिरनुरक्तिः सैव मञ्जरी तस्या मधुलिहः षट्पदास्तेषां झङ्कारः कोलाहलविशेषः, लीला की सेंच या चक्रोरी तन्य ध्वनिः कण्ठनादः, नवं नूतनं यद वयो यौवनं तस्य लास्यं नृत्यं तदर्थ बेणुखनो वंशध्वनिरित्यर्थः । अत्र तनोतु व इति समाप्तमेव वाक्यं न च वय इत्या प० २५. १ दिविशेषणेन पुनरुपासम् । नन्वत्र क्रियाकारकभावेनान्वयबोधे जाते पुनर्विशेषणान्वये निराकासात्वमेव दूषकताबीजं वाच्यम् । तत् तु न घटते । पुनर्विशेषणांशे तात्पर्यसत्वेन तात्पर्य विषयीभूतान्वयबोधाजननेन तदघटिताकाण्याः सत्त्वात् , इति चेत् , साध्ववोचः । किन्त्वत्र तात्पर्य ग्राहक उत्कटं नास्ति, तदग्रहविलम्बेनान्वयबोधविलम्ब एव दूषकतावी जम् । यत्र तु तद् ग्राहकमस्ति तत्र नेदं दूषणम् । यथा नवयोलास्याय गीत तथा तथेत्यस्य उत्कटताग्राहकसत्त्वात् । एवमन्यत्रापि बोध्यम् । अस्थानस्थपदम् – अपदस्थपदं अयोग्यस्थानस्थमित्यर्थः । तत्वं च यथास्थितस्वार्थानुभावकत्वे सति खसाकाङ्क्षव्यवहितस्थानप्रयुक्तत्वम् । यथास्थितिः तयैवानुपूा। तेन सङ्कीर्णगभितादिषु न प्रसङ्गः । तेषु तयानुपूर्ध्या विवक्षितार्थानुभावकत्वाभावात् । अत्र तु न तथेति । यथा द्वयं गतं संग्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया कपालिनः । कला च सा कान्तिमती कलावतः त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी ।। इत्यत्र वंशब्दादनन्तरं चकारो युक्तः । तदैव तस्याः समुच्चेयता स्यात् । इदमत्रावधेयम् - अन्तरैकवाचकं यत्र द्वितीयाधंगतैक्रवाचकशेष प्रथमार्द्धम् , तत् । तधा सङ्कीर्णं यत्र वाक्यान्तरे वाक्यान्तरमनुप्रविशति तत् । तथा गभितं वाक्यस्य मध्ये वाक्यमनुपविशति तत् । तथाऽक्रमं यत्र यदुत्तरं यत्पदोपादानं युक्तं तदन्यत्र तदुपादानं तत् । एतानि चत्वारि जीर्णैरभ्युपगतानि दूषणानि अस्मिन् अस्थानस्थ-पद एव अन्तर्भूतानि । संकीर्णस्य क्लिष्ट एवान्तर्भाव इति नवीनाः । अस्थानस्थसमासं यथा अद्यापि स्तनशैलदुर्गविपमे सीमन्तिनीनां हृदि । ___ स्थातुं वाञ्छति मान एष धिगिति क्रोधादिवालोहितः । प्रोद्यगुरतरप्रसारितकरः कर्पत्यसो तत्क्षणात् फुल्लत्कैरवकोश [ प० २५. २.] निस्सरदलिश्रेणीकृपाणं शशी ।। असौ शशी चन्द्रः, तत्क्षणे तत्काले, उत्फुल्लद्विकसमानं यत् कैरवं कुमुदं तस्य कोशो मध्यभागस्तस्मानिःसरन्ती बहिर्यान्ती अलिश्रेणी अमरपक्तिरेव कृपाणी खड्गस्तां कर्षति आकर्षति । कीडशः शशीत्याह - सीमन्तिनीनां कामिनीनां हृदि वक्षसि अद्यापि स्थातुं एष . का. प्र.६ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ काव्यप्रकाशखण्डन मानः वाञ्छति । धिग् इति क्रोधादिय आलोहितः आरक्तः । पुनः कीदृशः!-प्रोद्यदीप्यमानः दूरतरं प्रसारितो विस्तीर्णः करो इस्तो चेन इत्यर्थः । अत्र क्रुद्धस्योक्तौ समासो न कृतः, कवेरुतौ तु कृतः । अर्धा-तरैकवाचकं द्वितीयार्द्धगतैकशेष प्रथमार्द्धम् । यथा मसृणचरणपातं गम्यतां भूः सदर्भा विरचय सिचयान्तं मूर्ध्नि धर्मः कठोरः । शदिति जनकली लोचनैरवपणः ___पथि पथिकवधूभिः शिक्षिता वीक्षिता च ॥ भुः सदर्भा, तत् तस्मात् , लघु चरणप्रक्षेपं यथा स्यात् तथा गम्यताम् । धर्मः आतपः कठोरः, तस्मान्मूर्ध्नि मस्त के सिचयान्तं उत्तरीयान्तं बितरत(विरचय ?) देहि । इत्यनेन प्रकारेण पथि मार्गे पथिकवधूभिः पथिकस्त्रीभिः जनकपुत्री सीता शिक्षिता उपदेशं प्रपिता अश्रुपूर्णर्लोचनैर्वीक्षिता अवलोकिता चेत्यर्थः । अत्र भूः सदर्भा तन्मसूणचरणपातं गम्यतामिति अन्वये अनासत्तिरेव दूषकताबीजम् । अभवन्मत इष्टो योगो सम्बन्धो यत्र, तत् तथा । विवक्षितसम्बन्धबोधं प्रति खरूपायोग्य. मिति याक्त् । तेन विधेयाविमर्षे(शें )नातिव्याप्तिः । तत्र रचनान्यथात्वेऽपि विवक्षित. सम्बन्धोपपत्तेः । तत्र वैभक्तिकोऽन्वयो भवत्येव । अत्र तु सोऽपि नेति विशेषाञ्च । यथा जज्बाकाण्डोरुनालो नखकिरणलसत्केसरालीकराला प्रत्यग्रालक्तकाभाप्रसरकिसलयोम मञ्जीरभृङ्गः । भत्तुनृत्तानुकारे जयति निजतनुस्वच्छलावण्यवापी सम्भृताम्भोजशोभा विदधदभिनवो दण्डपादो भवान्याः ।।[५. २६.११ भवान्याः पार्वत्याः दण्डपादः, 'प्रसझोीकृतः पादो दण्डपादोऽभिधीयत' इत्युक्तलक्षणो जयति । कीदृशः ? जवाकाण्ड एव उरुः अतिशयितो नालो यत्र, नखकिरणरूपा लसन्ती केसराणां आली परम्परा तया करालो दन्तुरः, प्रत्ययं नूतनं यदलक्तकं तस्य आमा कान्तिस्तस्य प्रसरो विस्तारः स एव किसलयो यत्र, मञ्ज मनोहरं यन्मश्रीरं तदेव भृङ्गो यत्र, भर्तुमहेश्वरस्य यत् नृतं तस्यानुकरणे । पुनः कीदृशः निजा स्वकीया या तनुः पार्वतीशरीरं तदेव या खच्छा निर्मला लावण्यवापी सौन्दर्यदीर्घिका ततः संभूतं यहम्भोज कमलं तस्य शोभा सौन्दर्य दधत् । अभिनयो नूतनः इत्यर्थः । अत्र दण्डपादगता निजतनुः प्रतीयते भवानीसम्बन्धिनी तु विवक्षिता निजस्वात्मादिशब्दानां प्रधानक्रियान्वितान्वयित्वव्युत्पत्तेः । इदं न ज्यायः । काव्बाकाव्यसाधारणस्यास्य काव्ये विशिष्योत्कीर्चनस्यान्याय्यत्वात् । अनभिहितवाच्यं तत् , अवश्यवाच्यमनुक्तं यत्र । त्ययि निबद्धरतेः प्रियवादिनः प्रणयभङ्गपराभुखचेतसः । कमपराधलवं मम पश्यसि त्यजसि मानिनि ! दासजनं यतः ।। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ सप्तम उल्लास इतमपि न साधु । न्यूनपद एवास्थान्तर्भावात् । न च न्यूनपदं पदघटितम् , अनभिहितवाच्यं तु घोतकशब्दघटितमिति अनयो दो वक्तव्य इति वाच्यम् । यत एतादृशि यत्किञ्चिद्: भेदकल्पने दोषाणामानन्त्यं स्यात् ।। गर्भितं यत्र वाक्यान्तरमध्ये वाक्यान्तरमनुप्रविशति - परापवादनिरतैजनैः सह सङ्गतिः । वदामि भवतस्तत्त्वं न विधेया कदाचन ॥ अन तृतीयपादो वाक्यान्तरमध्ये प्रविष्टः । अयं न पृथक, अम्यानस्थ एवान्तीवात् । प्रसिद्धिपरिहीनं प्रसिद्धादन्यन्न प्रयुक्तम् । प्रसिद्धिपरिहीनं यथा महाप्रलयमारुतक्षुभितपुष्करावर्तक प्रचण्डघनगार्जतप्रतिरवा(रुता )नुकारी मुहुः। रवा श्रवणभैरवः स्थगितरोदसीकन्दरः [प० २६. २ ] कुतोऽद्य समरोदधेश्यमभूतपूर्वः पुरः ॥ अघ समरोदधेः सङ्घामसमुद्रात् पुरः अग्रप्रदेशे रवः शब्दः मुहुर्वारं वारं कुतो हेतोर्वर्तत इति शेषः । कीदृशः ? महाप्रलयाय यो मारुतः पवनः स महाप्रलयमारुतः, तेन क्षुभितः इतस्ततः प्रेरितः, पुष्करावर्तकः पुष्करावर्तसज्ञकः प्रचण्डः प्रौढो यो घनो मेघस्तस्य यद गर्जितं शब्दविशेषस्तस्य यत् प्रतिरुतं प्रतिध्वनिस्तदनुकारी तत्सदृशः । श्रवणयोः श्रोत्रयोभैरवः कटुः । स्थगितः पूर्णः रोदसी द्यावाभूम्योरन्तरं मध्यं तदेव कन्दरा येन सः । अभूतपूर्वः पूर्व अजात इत्यर्थः । अत्र रवो मण्कादिध्वनिषु प्रसिद्धः । न तुक्तरूपे सिंहनादे । - ममः प्रक्रमः प्रस्तावो यत्र । यथा -- नाये निशाया नियतेर्नियोगादस्तं गते हन्त निशापि याता । कुलाङ्गनानां हि दशानुरूपं नातःपरं भद्रतरं समस्ति ।। अत्र गतेति प्रक्रान्ते यातेति कृते प्रक्रमो भग्नः । गता निशापीति तु युक्तम् | ननु कथितपदस्य दुष्टत्वाभिधानात् कथमेकस्य पदस्य द्विःप्रयोग इति चेद् , उच्यते - उद्देश्यप्रतिनिर्देश्यन्यतिरिक्त एवं विषये एकप्रयोगस्य निषेधात् । प्रत्युत तादृशि विषये तस्यैव पदस्य सर्वनानो वा प्रयोग विना दोषः । तथा हि - उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च । संपत्तौ च विपत्ती च महतामेकरूपता ॥ अत्र रक्त एवेति यदि कियते तदा पदान्तरप्रतिपादितः स एवार्थः अर्थान्तरतयेत्र भासमानो नैकरूप्यमावति । ननु पर्यायशव्दानां शक्यतावच्छेदकैक्यनियमात् कथमन्यत्वेन प्रतीतिरिति चेत् , उच्यते - यन्मते शाब्दबोधे शब्दो भासते तन्मते रकादिशब्दान्तरस्य भानात् ऐकरूप्यासंभवात्, इदमपि न । शाब्दबोधे शब्दभाननैयत्याभावादिति Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ काव्यप्रकाशखण्डन चेन्न । अस्माच्छब्दादयमर्थो बोद्धव्य इति शब्दस्य शक्तिग्रहविषयत्वेन विशेषणपदार्थवत् पदस्याप्युप १०२७.१ ]स्थितिः । पदान्तरोपादाने च तदुपस्थित्या स्फुटमेव । तदुक्तम् --- प्रतीत्यन्यथात्वं "न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यत्र शब्दो न भासते ।" इति । प्रक्रमोऽपि न पृथक्, एतस्यानुचितार्थ एवान्तर्भावात् । अक्रमः - न विद्यमानः क्रमो यत्र । यदुत्तरं यत्पदोपादानं युक्तं तदुत्तरं न तत्पदोपादानमित्यर्थः । द्वयं गतं संप्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया कपालिनः । कला च सा कान्तिमती कलावतः त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी ॥ इत्यत्र वंशब्दादनन्तरं चकारो युक्तस्तदैव तस्याः समुच्चेयता प्रतीतिः । अयमपि न पृथक्, अपदस्थपदमध्येऽन्तर्भावात् । अमतः - प्रकृतविरुद्धः परार्थो यत्र, प्रकृतरस विरुद्धरसव्यञ्जकत्वमित्यर्थः । रसविरोधस्तु - उदा० ant शृङ्गारवीभत्स तथा वीर-भयानको । रौद्राद्भुतौ तथा हास्य-करुणौ वैरिणौ मिथः ॥ इति । राममन्मथशरेण ताडिता दुःसहेन हृदये निशाचरी । गन्धवद् रुधिरचन्दनोक्षिता जीवितेशवसतिं जगाम सा ॥ सा निशाचरी ताडका जीवितेशस्य यमस्य पक्षे प्रियतमस्य वसतिं गृहं जगाम गतवती । कीदृशी : रामो दाशरथिः स एव यो मन्मथो मनोमथनः, पक्षे कन्दर्पः, तस्य शरेण बाणेन, हृदये वक्षसि ताडिता कृतप्रहारा । दुःसहेन तीत्रेग, गन्धवद् गन्धयुक्तं यद् रुधिरचन्दनम्, रुधिरं रक्तमेव चन्दनम्, पक्षे रक्तचन्दनम् तेनोक्षिता सिता । रामशरसम्बन्धेन पापक्षयाच रुधिरस्य गन्धवत्त्वमिति भावः । अत्र प्रकृतो बीभत्सो रसः । तद्विरुद्धस्य शृङ्गारस्य व्यञ्जकोsपरोऽर्थः । दूषकताबीजं तु शृङ्गाररसव्यञ्जकैर्यदि बीभत्सः प्रत्यायनीयः स्यात्, तदा कथं तस्य परिपुष्टिरिति ध्येयम् । एतस्यानुचितार्थता व्यक्तैवेति अनुचितार्थ एवान्तर्भावः । 9 अथार्थदोषानाह - अपुष्टः कष्टो व्याहतपुनरुक्तदुष्क्रमग्राम्याः || ( सू० का० ५५, ३० ) सन्दिग्धों निर्हेतुः प्रसिद्धिविद्याविरु १० १७. २ ] द्वश्च । अनवीकृतः सनिय मानियमविशेषोऽविशेषपरिवृत्तः ॥ (मू० का ० ५६ ) साकाङ्क्षोऽपदमुक्तः सहचरभिन्नः प्रकाशितविरुद्धः । विध्यनुवादायुक्तस्त्यक्तपुनः स्वीकृतोऽलीलः ॥ ( मू० का० ५७ ) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लतम उल्लास ४५ इत्येते प्राचीनैरर्थदोषाः कथितास्ते उत्तेषु शब्ददोषेष्वन्तर्भवन्तीति न पृथक् प्रतिपादिताहः । तथा हि-पुष्टं पोषण मुस्कर्षः, पश्चान्नत्रा समासः । तथा च प्रकृतवाक्य द्देश्योत्कर्षा - हेतुरूपस्यापुष्टार्थस्य । एवं पुनरुक्तस्य च अधिकपदे निरर्थके वान्तभीवः । तथा कष्टस्य क्लिष्टेऽन्तर्भावः । एवं स्तुत्वा निन्दित्वा वा पुनरन्यथाकृतरूपस्य व्याहृतस्य, तथा दुष्क्रमग्राम्याप्रसिद्धिविध विरुद्धापदमुक्त | लीलानाम् । एवं एकसमभिव्याहारनिर्दिष्टोत्तममध्यमाधमरूपस्य सहचरभिन्नस्य, तथा विधेयविरोध्यनुवादरूपस्यानुवादायुक्तस्य, तथा प्रकाशितविरुद्धस्यानुचितार्थ एवान्तर्भावः । तथा सन्दिग्धस्य सन्दिग्ध एवान्तर्भावः । एवमेकमनि निर्दिष्टाने कार्यरूपमनत्रीकृतत्वमपि न दोषः किन्तु गुणाभावः । उक्तिवैचित्र्यास्मकमाधुरीकृतत्वात्। नवीकृते गुणाभावादेव रसापकर्षकत्यम् । एवं निर्हेतुनियमपरिवृत्त विशेष परिवृत्त साकाङ्क्षाणां न्यूनपद एवान्तर्भावः । तथाऽनियमपरिवृत्तस्याधिकपदे तथा विध्ययुक्तस्य विधेयाविमर्षे (रों), तथा त्यक्तपुनः स्वीकृतस्य समाप्तपुनरावृत्तेऽन्तर्भावः । नन्वेवमपि अधिकपदादीनां निरर्थकेऽन्तर्भावः स्यात इति चेद्र, भवतु नाम का नो हानिः । उक्तमेव प्राग् - यद् वाच्यावचनं अवाच्यवचनमेव दोषद्वयम्, अन्यत् सर्व तयोः प्रपञ्च इति । 1 > अथ प्राचीनोकाष्टादीनां उदाहरणानि लिख्यन्ते । अत्रापुष्टः पुष्टिभिन्नः । पुष्टत्वं च विवक्षितार्थमाहेत्वनुपादानकत्वम् । तद्विरहश्चामयोजकत्वात् प्रयोजकेऽर्थलभ्यत्वात् । वृत्ति. कुताऽपि [१० २८. १ ] अतिचितत्वादयोऽनुपादानेऽपि प्रतीयमानमर्थं न बाधन्त इत्युक्तम्, योजक एवेति । अतिविततगगनसरणिप्रसरण परिमुक्त विश्रमानन्दः । मरुदुल्लासित सौरभ कमलाकरहासकृद् रविर्जयति || रविर्भगवान् भास्करो जयति । कीदृश: ? अति विततं अतिविस्तीर्णं यद् गगनमाकाशं तत्र या सरणिर्वर्त्म तत्र यत्प्रसरणं सञ्चरणं तेन परिमुक्तः परित्यक्तो विश्रमानन्दो विश्रामसुखं येनेत्यर्थः । मरुता वायुना उल्लासितममिव्यक्तं सौरमं यस्य तादृशं यद् कमलं तस्यावलिः समूहः तस्या हास्यकृत् विकासकर्तेत्यर्थः । अत्रातिबिततत्वादयोऽर्थी अपुष्टाः । नन्विदमधिकपदत्वं पुनरुक्तत्वं वा स्यात् इति चेत्, उच्यते - नायमधिकः । तत्रं च अन्ययाप्रतियोगित्वात् भवति । प्रकृते तदभावात् । शब्दोपस्थिते पुनः शब्दानुपादानान्न पुनरुक्तः । अर्धपुनरुक्तिश्चापुष्टार्थ एवेतिभावः । केचित् तु - पोषणं पुष्टमुपकारः पश्चान्नजा बहुव्रीहिः । प्रकृतवाक्यार्थोदकर्षाहंतुरपुष्टः । अतिविततोते - अत्र हि रविजयती ने स्वेरुत्कर्षः प्रधानवाक्यार्थः । I १ प्रकृतवाक्ये उद्देश्यो यः उत्कर्षस्तस्य यः अहेतुः अर्थः स अपुष्ट पुनरन्यथाकरणं व्यासस्त्रम् । ३ अयुक्तः क्रमो दुःक्रम इस्यर्थः । म् ।' मूलादर्श एताः सर्वाः टिप्पण्यः । २ निन्दिचा वा ४ ' प्रसिद्धिविरुद्ध विद्याविरुद्ध ति Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशवण्डन न खलु विस्तीर्णपथसञ्चरणं श्रमहेतुः । येन तत्सत्वेऽपि श्रमत्यागे उत्कर्षहेतुः स्यात् । विततपदेन दीर्घलाभिधानेऽपि रथाख्ययानेन सञ्चरणान्न श्रमप्रतीतिः । एतेन अतिविततत्वादय इत्यत्र अतद्गुणसंविज्ञानबहुरोहिणा तत् परिहत्य मरुदुल्लासितेत्यादिग्रह्णमिति केनचिद् यदुक्तं तन्निरस्तम् : सन्तावास्या शेतात् । न मदुसालितेत्यादिविरुद्धं हासपूर्व सौरमयोगादिति, तन्न । समकालत्वस्य विवक्षितत्वात् । अत्रान्वयबोधानन्तरं पदजीवास्वनु. सन्धानदशायां एषामनुपकारित्वग्रहः इति प्रतीत्याऽनुपपत्त्यार्थदोषता प्रतीत्यनुपपत्तावेव शब्ददोषतेति विभागः। कष्ट इत्यस्य दुरूह [ प० २८.२] इत्यर्थः । आसत्यादिसत्त्वेऽपि विलम्बितप्रतीतिफत्वं तत्त्वम् । सदा मध्ये यासामियममृतनिस्सन्दसरसा सरस्वत्युद्दामा बहति बहुमार्गा परिमलम् । प्रसादं ता एता धनपरिचिताः केन महता ___ महाकाव्यव्योग्नि स्फुरतु(रित) मधुरा यान्तु रुचयः॥ अस्यार्थः - अमृतं सुधाजलं च, रसो माधुर्य शृङ्गारादिश्च, सरस्वती बाणी नदी च, मागों रीतिः पन्था च, परिमलं चमत्कारं सुखं च, प्रसाद सुव्यक्तत्वं वच्छकान्तिश्च, घनो निबिडो मेघश्च, परिचिताः अत्यन्ताभ्यस्ताः सम्बद्धाश्च, रुचयः अभिसन्धयः कान्तयब, महता कवीनां आदित्याना च, तेषां च द्वादशस्यात् । अत्रार्थप्रतीतिर्विलम्बेनेति युक्त कष्टेऽन्तर्भावः । निन्दित्या पुरस्कृत्य वा तदन्यथाकरण विशिष्टाहतियाहत्तत्वं न चास्यानुचितार्थता । सब पशुकविन्द्रादिपदैः खार्थोपस्थितिदशायामेवोपश्लोक्यमानस्य तिरस्कारावगमः । अन तु चन्द्रिकापदस्य तदर्थस्य तु अनुसन्धानादेव न तिरस्कारोऽवगम्यते, किन्तु वाक्यार्थबोधानन्तरं गवेन्दुकलादयोऽयं प्रतीत्यर्थपर्या लोचनेनेति भेदात् । यथा-- जगति जयिनस्ते ते भावा नवेन्दुकलादयः प्रकृतिमधुराः सन्त्येवान्ये मनो मदयन्ति ये । मम तु यदियं जा(या)ता लोके विलोचनचन्द्रिका नयनविषयं जन्मन्येका स एव महोत्सवः ॥ जगति संसारे ते ते प्रसिद्धा भावाः पदार्थाः नवेन्दुकलादयोऽन्ये सन्त्येव वर्तन्त एव । ते के ! इत्याह - ये मनोऽन्तःकरणं मदयन्ति आनन्दयन्ति । कीदृशाः । प्रकृतिमधुराः स्वभावसुन्दराः । मग तु यद् इयं मालती नयनविषयं नेत्रगोचरतां याता प्राप्ता, जन्मन्यलिन् , मम स एको महोत्सवो नान्यः । कोही? विलोचनयोनेत्रयोश्चन्द्रिका चन्द्रज्योलत्यर्थः । इत्यत्र नवेन्दु कलादयो यं प्रांत पश्पशप्राथाः स एव चन्द्रिकात्यमुत्कर्षार्थमारोपयति इति व्याहतत्वामेतीदगप्यनुचितार्थः । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उल्लास J पुनरुक्तः शब्देनैवा ०२९, १ ]नुगतः, पुनः शब्देनोच्यते अर्थपुनरुक्तस्यापुष्टार्थत्वात् । अत्र प्रयोजनं विनेत्यपि विशेषणं देयम् । अत एव कर्णावतंसादिषु प्रयोजनं विनेत्यarara पौनरुत्यम् । स चायं द्विविधः पदार्थवाक्यार्थभेदात् । तत्राद्यमुदाहरति ' कृतमनुमत' मित्यादि । अर्जुनार्जुनेति भवद्भिरिति चोके, सभीमकिरीटिनामित्युक्ते किरीटिपदार्थः पुनरुक्तः । अर्जुनार्जुनसात्यके सात्यकेत्युपक्रमण पितृवधामर्षितस्याश्वत्थाम्नः उक्तिरियम् । कर्तुरनुमन्तृद्रष्टृणां उत्तरोत्तरापराधस्य लाघवेन क्रमादुपन्यासः । तत्र कर्त्ताऽर्जुनः, अनुमन्ता सात्यकिः अन्ये द्रष्टारः । तत्राद्ययोर्वलवद्वेषेण तत्र शाब्दबुद्धिः अन्येषां बुद्धिस्थतैव । अत एव एतेषां शास्तिप्रदर्शनाय बुद्धिस्यपरामर्ष (र्श) कयत्पदवत्कृत्पदानुकर्षः । एतेन संबोध्ययोरबहुत्वे यरित्यादिषु बहुवचनमनुपपन्नमिति निरस्तम् । सम्बोध्यानां बहुत्वस्य दर्शितत्वात् । अत्र गवद्भिरित्यत्र सम्भोध्योपस्थिति विना भवत्पदप्रयोगानुपपत्तेः । तस्य सर्वोोध्यात्मवा चित्वात् । किरीटिपदार्थोऽर्जुन एव । अथ चूर्णकपदाभ्यां सहैवान्वयबोधकत्वे शाब्दबोधसमय एवं पौनरुक्तयभावान्नार्थदोषते ते चेत्, न । पर्यायशब्दोपनीतेष्वर्थेषु आपाततोऽन्यत्वेन भानान्न पुनरुक्ततावभासः । समानसत्त्व एव एकत्वभानादित्युक्तत्वात् । वस्तुतो नैष साधीयान् दोषः । तथा हि- क्रुद्धस्य उक्तावनुक्तविस्मरणद्वारा को प्रज्वलनया पौनरुक्तत्यस्य गुणत्वात् । न च सम्बोध्य विस्मृतौ भवच्छब्दप्रयोगानुपपत्तिरिति वाच्यम् । भवतेः शतृडा भवलदेन 'उदायुधैः सद्भिः' इत्यर्थस्य विवक्षणात् । यद्वा, सभीमेत्यादावेव विस्मरणात् । द्वितीयमाह - ४७ अस्नज्वालावलीढप्रतिबलजलधेरन्तरौर्वार्यमाणे सेनानाथे स्थितेऽस्मिन् मम पितरि गुरौ सर्वधन्वीश्वराणाम् । कर्णालं संभ्रमेण व्रज कृप समरं मुञ्च हार्दिक्य ! शङ्कां [ १०२९.२ ] ताते चापद्वितीये वहति रणधुरं को भयस्यावकाशः ॥ मम पितरि भज्जनके, सर्वधन्वीश्वराणां सर्ववीराणाम्, अध्यापकेऽस्मिन् प्रसिद्धे सेनानाये स्थिते सति, हे कर्ण ! सम्भ्रमेण त्रासेन अलं व्यर्धम् । हे कृप । सगरं सङ्ग्रामं व्रज गच्छ । हार्दिक्य कृतवन् शङ्कां त्यज । मम पितारे, कीदृशे ? अस्वज्याया अवलीढं आस्वादितं यद् प्रतिबलं प्रतिपक्षसैन्यं स तदेव जलधिः समुद्रः तस्यान्तर्मध्ये औश्रयमाणे वडवानलायमाने, चाप एव द्वितीयः सहायो यस्यैतादृशे ताते पितरि, रणधुरं सङ्ग्रामभारं वहति धारयति संति, भयस्य त्रासस्य कः अवकाशोऽवसरः ? इत्यर्थः । अत्र कर्णालं संभ्रमेणेत्युक्तौ को भयस्यावकाश इति चतुर्थः पादः पुनरुक्तः । अत्रापि पूर्ववद् दोषोद्धारः । अत्र न केवलं पदार्थे वाक्यार्थे वा पौनरुक्त्यम्, पदैकदेशार्थेऽपि तत्संभवात् । यथा, 'तदीयमात घटा' इत्यादौ युक्तान्तर्गतयर्थेन तद्धितार्थस्य सम्बन्धस्य पौनरुक्त्यात् । दुष्क्रमेति - दुष्टः अनुचितो लोक विरुद्धः शास्त्र विरुद्धो वा क्रमो यन्त्रेत्यर्थः । तमुदाहरति - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन भूपालरत्न निर्दैन्यप्रदानप्रथितोत्सव!। विश्राणय तुरङ्ग मे मातङ्गं वा मदालसम् ॥ हे भूपाल पृथिवीपाल । करणे सङ्गगमे (१), निर्गत दूरीभूतं दैन्यं यस्य स तथा । प्रदानेन प्रकृष्टवितरणेन प्रथितो विस्तीर्णः उत्सवः आनन्दो यस्य स तथा । तस्य सम्बोधनं हे ! मे मह्यं तुरङ्गं अचं मदेनालसं मन्थरं मातङ्ग हस्तिनं वा विश्राणय देहीत्यर्थः । अत्र मातरस्य बहुमौल्यत्वेन प्रानिर्देशः उचितः- इतीदमप्यनुचितार्थ म्] । यत्र हस्तीनामेव सुलभत्वं तत्र नेदमुदाहरणमिति मन्तव्यम् । प्राग्यो ग्रामसंभवोऽविदग्धोक्तिप्रतिपन्नः खरिरसादिः । तदुक्तम् - स ग्राम्यः स्वरिरंसादिः पामरैर्यत्र कथ्यते । चैदग्ध्यवक्रिमबलं हित्वैव बनितादिषु ॥ यथा स्वपिति यावदयं निकटे जना, स्वपिमि तावदहं किमपैति ते । तदयि! साम्प्रतमाहर कूपरं, त्वरितमूरु [प० ३०. १] मुदश्चय कुश्चितम् ।। अयं जनो निकटे संनिधाने यावत् स्वपिति निद्राति तावदहमपि खपिमि निद्रामि । ते तब किं अपैति गच्छति । तत् तस्मात् , अयीति स्त्रीसम्बोधनम् , कूर्परं कफोणिं आहर सक्कोचय । साम्प्रतं इदानीं कुश्चितं वक्र ऊरु उदञ्चय ऋजुतां नय । स्वरितं शीघ्रमित्यर्थः । कूर्परः कफोणिः । अत्र रस विच्छेदः सहृदयहृदयत्रैरस्यं वा दूषकताबीजम् । अत्रार्थस्यैव ग्राम्यता न शब्दस्य प्रकरणाद्यभावात् । इदमप्यनुचितार्थम् । सन्दिह्यमानोऽर्थः सन्दिग्धः । 'मात्सर्यमुत्सार्य'त्यादि । अत्र प्रकरणायभावे संदेहः, वक्तः प्रशान्तत्वे शृङ्गारित्वे वा निश्चिते निश्चय एव । अनुपाचहेतुकोऽयों निहेतुः । गृहीतं येनासी परिभवभयानोचितमपि प्रभावाद् यस्याभून्न खलु तव कश्चिन्न विषयः । परित्यक्तं तेन त्वमसि सुतशोकान्न तु भयात् विमोक्ष्ये शस्त्र ! त्वामहमपि यतः स्वस्ति भवते ॥ येन द्रोणेन गृहीतं खीकृतं आसीः, परिभवभयानोज्झितमसि न त्यक्तमसि । यस्य द्रोणस्य प्रभावात् प्रतापात् , तब कश्चिन्न विषयोऽभूदिति न, अपि तु सर्वोऽपि स्वद्विषो जात इत्यर्थः । द्रोणेन त्वं सुतशोकान्मरणजनिलचिलवात् परित्यक्तमसि, न तु भयात् त्रासात् । १ 'कचियो इतममी' त्यपि पाठो दृश्यते । २ अनुचितमपि ब्राह्मणानां वस्त्रग्रहणानधिकाराद इत्यथैः । इति टिप्पणी । - -. - -. - - - -.. - - --. - -- Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतम उल्लास हे शस्त्र! त्वां भवन्तं अहमपि विमोक्ष्ये त्यजामि । यतोऽतो भवते खस्ति कल्याणमस्त्वित्यर्थः । अत्र द्वितीयशस्लमोचने हेतुोंपासः । ननु हेत्वाकाक्षायां वाक्यपर्यवसाने कथमयमर्थदोषः! इति चेत्, न । पितृकर्तृकशस्त्रत्यागस्य हेतुत्वेनैवान्वयात् पितृकृतकर्मणः पुत्रेणाचरणीयत्वात् ब्राह्मणानुचितशस्त्रग्रहणस्येव । इत्थमपर्यवसिते वाक्यार्थेऽनन्तरं मम पित्रा मम शोकेन परित्यक्ते मयाऽपि पितृशोकेन त्यक्तव्यमिति पितृशोकस्य हेतुत्वमाकांक्षितं तदनुपादाने निहेतुत्वम् । एतस्य न्यूनपद एवान्तर्भावः । .. प्रसिद्धिविरुद्धं तत् यथापसिद्धं तद्वि[ प. ३०,२ ]रुद्धमित्यर्थः । उदाहरणं तु पूर्वमेव प्रसिद्धिपरिहीने दत्तं "महाप्रलय" इत्यादि तदेव मन्तव्यम् । अत्र रखः सिंहनादादेरनुचितः । इदमप्यनुचितार्थम् । विद्या शास्त्रम् , तद्विरुद्धं यथा सदा स्वात्वा निशीथिन्यां सकलं वासरं बुधः । नानाविधानि शाखाण व्याचष्ट च शृणोति च ॥ अत्र महोपरागादिकं विना रात्रौ स्नानं धर्मशास्त्रे निषिद्धमितीदमप्यनुचितार्थम् । भगवन्तरेण यन्नवत्वं न प्रापितं एकभङ्गीनिर्दिष्टानेकार्थत्वमिति यावत् , तदनवीकृतत्वम् । अनवीकृतत्वमुदाहरति प्राप्ताः श्रियः कामदुधास्ततः किं दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम् । सन्तर्पिताः प्रणयिनो विभत्रैस्ततः किं कल्पं स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम् ।। श्रियो धनरूपाः प्राप्तास्ततस्तावता किम् ? न किमपीत्यर्थः । श्रियः कीदृश्यः सकलकामदुघाः समस्तेच्छाविषयदाज्यः । विद्विषां शत्रूणां शिरसि मस्तके पदं चरणरूपं दत्तं स्थापित ततः किम् ? तावता न किमपीत्यर्थः । एवमग्रेऽपि योज्यम् | अन्न ततः किमिति न नवीकृतम् । ततः किमित्यतो भन्श्यम्तराभावात् । अयमपि गुणाभाव एव, न दोषः । न चात्र कथितपदत्वमेवेति वाच्यम् । पर्यायान्तरप्रयोगेऽपि भगथैकरूपतायामसार्यात् । न च तथाप्यनेन कथितपदत्वान्यथासिद्धिरिति वाच्यम् । सत्यप्यर्थभेदतात्पर्ये पदैकस्वदोषादक्यप्रतिपादकस्य कथितपदस दोषकताबीजस्य भेदात् । पिष्टपेषणन्यायेनाशक्तिसूचनेन सदयोगो दूषकताबीजम् । नियमादिभिश्चतुर्भिः परिवृउपदान्वयात् नियमपरिवृत्तादिचतुष्टयं लभ्यते । तैश्चतुर्मिः सहितः अनवीकृतः इति सनियमानियम विशेषाविशेषपरिवृत्तः । यद्वा नियमसहितो नियमादिस्तत्परिवृत्त इत्यर्थः । यदा नियमानियमाभ्यां सहितौ विशेषाविशेषौ तत्परिवृत्त इति । केचित् तु सनियमपरिवृत्त एव दोषः । तत्र सनियमपरिवृत्तः सनियम [ प. ३१.१]खेन वाच्यः अनिमयत्वेनोच्यते इत्यर्थमाहुः । नियमपरिवृत्तो दुष्ट इति मते तु नियमस्य शब्दादप्रतिपत्तिः -नियमपरिवृत्तः । यथा पतिपत्तिः अज्ञानम् ।' रि | Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० काव्यप्रकाशखण्डन लिखितार्थमेव लिखितं निर्माणमेतद् विधेरुत्कर्ष प्रतियोगि कल्पनमपि न्यक्कारकोटिः परा । याताः प्राणभृतां मनोरथगतीरुलक्ष्य यत्सम्पदस्तस्याभासमणीकृताश्मसु मोरश्मत्वमेवोचितम् ॥ यत्र यस्मिन् मणौ विधातुरेतन्निर्माणमुत्पादनं अनिर्वचनीय प्रयोजनमेव लिखितम् । एतस्मादयमहिति । सः प्राणिनां मनोरथगोचरापि न छायामाश्रमणीकृताश्मल्ल आमासमात्रेण । श्रमणय एव मणीकृता ये अश्मानो दृषदस्तेषु तस्य मणेरस्मत्वमेवोचितं इति नियमत्वं वाच्यम् । तथाकृते गुणान्तरव्यवच्छेदेन निन्दातिशयप्रतीतेः । प्राकृतमणिगणनायां चिन्तामणिगणनमनुचितमित्यर्थः । एतस्स न्यूनपद् एवान्तर्भावः । अविवक्षित नियमस्य शब्देन प्रतिपादन मनियमपरिवृत्तः । यथा - dearम्भोजे सरस्वत्यधिवसति सदा शोण एवाधरस्ते बाहुः काकुत्स्थवीर्यस्मृतिकरणपटुर्दक्षिणस्ते समुद्रः । वाहिन्यः पार्श्वमेताः क्षणमपि भवतो नैव मुञ्चत्यभीक्ष्णं स्वच्छेऽन्तर्मानसेऽस्मिन् कथमवनिपते ! तेऽम्बुपानाभिलाषः ॥ अस्यार्थः - सरस्वती भारती, नदीभेदश्च । शोणो रक्तो नदश्च । सादृश्यात् सेतुबन्धे दर्शनाच्च काकुत्स्थवीर्थस्मरणम् । दक्षिणः सव्येतरः, दिग्विशेषध । समुद्रो मुद्रां अङ्गुलीयकं 'तत्सहितः, जलनिधिश्व | वाहिन्यः सेनाः नद्यश्च । मानसे मनसि सरसि च ラ चत्र शोण " एवेति नियमो न वाच्यः । पिपासोर्नद्यन्तरव्यवच्छेदस्याविवक्षितत्वात् । ननु अस्याधिकपद एवान्तर्भाव इति चेत् न । यत्र सोऽर्थः तद्व्यतिरेकेणापि प्राप्यते तत्राधिकपदत्वम् । यत्र तेन न प्राप्यते किन्त्वन्येन अविवक्षितश्च भवति तत्रायम् । वस्तुतस्तु अतिरिक्के प्रमाणाभावादधिकपदस्यैव भेदः । प्रासस्य [प. ३१.२] विशेषस्य पुनरापादनं विशेषपरिवृत्तः । यथा श्यामां श्यामलिमानमानयत भोः सान्द्रेर्मपीकूर्चकैः तत्रं मत्रमथ प्रयुज्य हरत वेतोत्पलानां श्रियम् । चन्द्रं चूर्णयत क्षणाच्च कणशः कृत्वा शिलापट्टके येन द्रष्टुमहं क्षमे दश दिशस्तद्वक्त्रमुद्राङ्किताः ॥ श्यामां अन्धकारिणीं रात्रिं श्यामलिमानं श्यामतां आनयत संपादयत । मोरिति सम्बो धने । कैरित्याह - सान्द्रैर्निविडैर्मषी कूर्चकैः मषीक्षोदेः । मषीयुक्तं कूर्चकं चित्रकरले खिनी । मन्त्रमागमादिशास्त्रोक्तम् । तत्र शास्त्रं वैद्यकादि । तदुक्तप्रयोगस्तदुक्तमेषजादिकरणम् । तत् कृत्वा श्वेतोत्पलानां श्वेतकमलानां श्रियं कान्ति हरत । शिलापट्टके पाषाणपट्टको परि - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उल्लास ५९ कृत्वा चन्द्र चन्द्रमर्स कणाः चूर्णयत सेना हस दिए दिग्दशकं मवलोकयितुं क्षमे शोमि । कीइयो दश दिशः । तद्वक्त्रमेव मुद्राचिह्नं तयाऽङ्किता विहिता इत्यर्थः । श्यामापदोपादाने कृते योग- रूढिभ्यां श्यामत्वं प्राप्तमेव । तत्र श्यामलिमाऽऽपादनं व्यर्थम् । अत्र ज्योत्स्यामिति श्यामाविशेषो वाच्यः । एतस्य न्यूनपद एवान्तर्भावः । यत्र यो विशेष न युक्तः तत्र तस्योक्तिर्वक्तव्यस्यानुक्तिः । अविशेषपैरिवृत्तः, यथा - कल्लोलवेल्लितष्टपत्परुषप्रहारै रतान्यमूनि मकरालय मावमंस्थाः । किं कौस्तुमेन विहितो भवतो न नाम याच्याप्रसारितकरः पुरुषोत्तमोऽपि ॥ अत्र 'एकेन किं न विहितो भवतो न ( भवतः स ) नाम' इति वाच्यम् । यतो येषामेकेनोपकृतं तदितरेष्वनादरोऽयुक्तः । विशेषस्योपकारित्वे सामान्येषु कथमादरः ? इति प्रतीतिमान्धर्यम् । अस्यापि न्यूनपद एवान्तर्भावः । अनुपाताकाङ्क्षाविषयत्वं साकाश्वम् । यथा - अर्थित्वे प्रकटीकृतेऽपि न फलप्राप्तिः प्रभोः प्रत्युत यन् दाशरथिर्विरुद्धचरितो युक्तस्तया कन्यया । उत्कर्षं च परस्य मानयशसोर्वि (सं) सनं चात्मनः स्त्रीरनं च जगत्पतिर्दशमुखी देवः [५. ३२. १. ] कथं मृष्यति ॥ रावणदूतस्य एतद्वचनम् - प्रमोः रावणस्य अर्थित्वे याचकत्वे प्रकटीकृतेऽपि व्यक्तीकृते ऽपि न फलप्राप्तिः न सीतालाभः । न केवलफलामाप्तिः अपि तु शत्रोस्तत्मा सिरित्याह – प्रत्युत दाशरथिः रामः सन् रावणद्रोहं कुर्वन् तया सीतया युक्तो मिलितः । विरुद्धचरितो रावणेन समं विरुद्धं चरितं चरित्रं यस्य सः । परस्य रामस्य, उत्कर्षः आधिक्यं, आत्मनः स्वस्य, मान- यश सोरभिमान कीत्योर्विश्र (सं) सनं निराकरणम्, स्त्रीरले च सीतारूपम् दशमुखो रावणः, जगत्पतिः पृथिवीपतिः, कथं मृष्यति न मृष्यतीत्यर्थः । अत्र स्त्रीरत्वमित्युपेक्षितुमाकाङ्क्षति अन्यस्त्रीरत्नमिति कथं मृष्यतीत्यनन्वितं स्यात् । तथा हि कथं न मृष्यतीत्यस्य कथं न द्वेष्टीत्यर्थः स्यात् । मृषधातोरद्वेषार्थलात् । तथा च स्त्रीरत्नस्य द्वेषायोग्यले कथं कथमित्यादिना अन्वयः । ततश्च न्यूनपद एवं साकाङ्क्षत्वस्यान्तर्भावः समुचितः । अपदमुक्तत्वं अस्थानसमाप्यत्वम्, यथा आशा शशिखामणिप्रेणयिनी शास्त्राणि चतुर्नव भक्तिर्भूपती पिनाकिनि पदं लङ्केति दिव्या पुरी । उत्पत्तिर्दुहिणान्वये च तदहो नेहरा वरो लभ्यते स्याच्चदेष न रावणः क्व तु पुनः सर्वत्र सर्वे गुणाः ॥ १ " श्यामामित्यक ज्योतीमिति विशेष विहाय श्यामामिति सामान्यनक्तमिति विशेषपरिवृत इत्यर्थः । २ यत्र सामान्यं विद्वाय विशेषशक्तिः । ३ मा दश कुरुथाः । ४ देतोः । शिखामणामेव सदा तिष्ठतीति भावः । इति डि० । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशलण्डन यस्य वरस्थाज्ञा नियोगरूपा शक्रस्पेन्द्रस्य शिखायां मस्तके यो मणी रखें तत्र प्रणयिनी प्रीतियुक्ता । इन्द्रेणापि यदाज्ञा मस्तकेन प्रियत इत्यर्थः । शास्त्राण्येव यस्य नवं नुतनं चक्षुः नेत्रम् । भूतानो प्राणिनां पतौ पिनाकिनि पिनाकधनुर्द्धरे परमकारुणिके भगवति भवानीपरिबुद्धे भक्तिः । लङ्का इति दिव्या देवयोग्या पुरी नगरी सैव यस्य पदं स्थानम् । द्रुहिणव शे यस्योत्पत्तिर्जन्म । एष चेद रावणो न स्यात् तवा इहग वरो न लभ्यते । स्पष्टं शेषम् । अत्र स्याचेदेष इत्येतावतैव समाप्यम् । तथा हि- अत्र [प. ३२.२ ] राषणं प्रत्युपेक्षाचाक्यार्थः स्याश्चेदेष न रावणः इत्यन्तेनैव प्राप्तः । क नु पुनः इत्यादिना समर्थनं नाकाङ्कतीति इदमप्यनुचितार्थम् । केचित् तु प्रकृतार्थ विरुद्धार्थकपदशालिवं अपदयुकत्वं तेन अपदयुक्तत्वमेव पाठ इत्याहुः ।। समभिन्याहतविजातीयार्थत्वं सहचर भिन्नत्वम् , यथा श्रुतेन बुद्धिर्व्यसनेन मूर्खता मदेन नारी सलिलेन निम्नगा। निशा शशाङ्कन धृतिः समाधिना नयेन चालंक्रियते नरेन्द्रता ॥ अत्र श्रुतबुद्धयादिभिरुत्कृष्टैः. सहचरैः व्यसनमूर्खतयोभिन्नत्वम् । इदमप्यनुचितार्थम् । प्रतिपादितविवक्षितार्थबिरोधिव्यञ्जकार्थत्वं प्रकाशितविरुद्धत्वम् । विरुद्ध प्रकाश्यत इति गर्भितप्रस्तावे व्याख्यातम् । यथा लग्नं रागाधृताङ्ग्या सुदृढमिह यौवासियष्ट्याऽरिकष्ठे मातङ्गानामपीहोपरि परपुरुषैर्या च दृष्टा पतन्ती । तत्सक्तोऽयं न किञ्चिद् गणयति विदितं तेऽस्तु तेनासि दत्ता भृत्येभ्यः श्रीनियोगाद् गदितुमिव गतेत्यम्बुधिं यस कीर्तिः ॥ रुधिराक्तशरीरया यया खायष्ट्या बैरिकण्ठे लमं सक्तं या च हस्तिषु पतन्ती वैरिपुरुषैदृष्टा तद्धस्तोऽयं किश्चित् परसैन्यादिकं न मन्यते । चैरिकण्ठलमा मातशेषु चाण्डालेषु च पतिता स्त्री अनेन भुज्यत इति व्यन्यम् । श्रीः समुद्रं खपितरं वदति- इदं तव विदित. मस्तु त्वं जानीहीत्यर्थः । अहं साध्वी तेन भृत्येभ्यो दत्ताऽस्मि इति लक्ष्मीनिर्देशात् एतत्समुद्रं वक्तुमिव यस्य कीर्तिस्तं प्रति गतेत्यर्थः । अत्र विदितं तेऽस्तु इत्यनेन वैदयितव्यानुचितार्थाभिधानेन क्रोधाभिध्यक्तेः श्रीस्तस्मादपसरतीति विरुद्ध प्रकाश्यते इदमप्यनुचितार्थम् । विध्यनुवादपदाभ्यां [अ]युक्तं पदं प्रत्येकमन्वेति तेन विध्यनुयुक्तः (विध्ययुक्तः) अनुवादायुक्तश्चेति दोषद्वयम् । अयुक्तत्वं न तु विधेयत्वानवगम इति विधेयाविमर्शतो भेदः । यथा प्रयत्नपरियोधिः तस्तुतिभिरय शेषे निशा मकेशवमपाण्डवं भुवनमद्य निासोमकम् । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सतम उल्लास इयं परिसमाप्यते रणकथाऽद्य दो शा[ ५० ३३. १ लिना मौतु रिपुकाननातिगुरुरध भारो भुवः ।। ___अत्र शयितः प्रयत्नेन मोध्यसे इति विधेयम् । प्रबोध एव वियत्वविधान्तिरिति विधेयाविमर्शेऽन्तर्भावः । अनुवादायुक्तम्, यथा - - अरे रामाहस्ताभरण! भसलश्रेणिशरण ! - स्मरक्रीडाब्रीडास(श)मन ! विरहिनाणदमन! । सरोइंसोत्तंस! प्रचलदल नीलोत्पल सखे ! सखेदोऽहं मोहं श्लथय कथय केन्दुवदना ॥ विक्रमोर्वशीनाटकगतं यद्यमिदम् । नीलोत्पलं प्रति नाना सम्बोध्य उर्वशी केति प्रश्नः । अत्र विरहिणः पुरूरवसो मोह श्लथने विधेये विरहिप्राणदमनस्वेन अनुवादो मोचित इतीदमप्यनुचितार्थम् । . तथा, त्यक्तपुनस्वीकृतः- त्यक्त उपसंहतैकदेशः पुनः स्वीकृतः पुनः प्रकाशितैकदेशः । यथा- 'लमं रागायताक्ये त्यत्र विदितं तेऽस्त्वित्यनेन यावतोऽर्थाननिवेद्याननिवेधेद मध्ये उपसंहाराभिधानात् । तथा चात्र समाप्तपुनराचे चावृत्तिकपनमुत्थाप्याकास्वमेव दूषकताबीजमित्येतयोरमेदो न्याय्यः । अश्लीलं यथा हन्तुमेव प्रवृत्तस्य स्तब्धस्य चिरवैरिणः (विवरैषिणः)। . यथाऽऽशु जायते पातो न तथा पुनरुवतिः ॥ अन पुंव्यञ्जनस्यापि प्रतीतिरिदमप्यनुचितार्थम् । अवेदानीं एते दोषाः कचिददोषा इत्याह - कर्णावतंसादिपवे कर्णाविध्वनिनिर्मितिः । ( ० ० ५८) सन्निधानादियोधार्थम्, यथा तस्याः कर्णावतंसेन जितं सर्वविभूषणम् । तथैव शोभतेऽत्यन्तमस्याः श्रवणकुण्डलम् ॥ अवतंसः कर्णाभरणमुच्यते । तत्र कर्णादिशब्दाः कर्णादिस्थितिप्रतिपतये तेन वर्णनीयोत्कर्षः प्रतीयते । स्वतो न भूषणान्तरजेतृत्वम् , अपि तु तत्कर्णसम्बन्धादिनेति पर्यवसानात् । अत्रावस्थितिप्रयोजनहेतुत्वान्न पुनरुक्तत्वम् । एवमन्यत्रापि स्थितेष्वेतत् समर्थनम् ॥ (मू० का० ५८, ३. च.) न खलु कर्णावतंसादिपदवत् जघनकात्रीत्यादि क्रियते । ख्यातेऽर्थे निर्हेतोरदुष्टता, (मू० का० ५९, प्र० ब०) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कास्यप्रकाराखण्डन यथा चन्द्रं गता पप० ३३. २ ]गुणान् न भुङ्क्ते पाश्रिता चान्द्रमसीमभिरुयाम् । - उमामुखं तु प्रतिपद्य लोला द्विसंश्रयां प्रीतिमवाव लक्ष्मीः॥ लक्ष्मीः शोभा चन्द्रं चन्द्रमण्डलं गता प्राप्ता सती पभगुणान् कमलगुणान् सौरभादीन न मुझे न पामोति । रात्रौ कमलप्रकाशाभावात् पद्माश्रिता कमलाश्रिता चान्द्रमसी चन्द्रसम्बधिनी अभिल्या शोभां न मुक्के । उमामुख प्रतिपद्य प्राप्य द्विसंश्रयां पद्मचन्द्रोमयाश्रयो प्रीति अवाप प्राप्तवतीत्यर्थः । अत्र रात्रौ पद्मस्य सक्कोचो दिवा चन्द्रस निष्प्रभत्वं लोकप्रसिद्धमिति न मुझे इति हेतुं नापेक्षते । अनुकरणे तु सर्वेषाम् । (मू का० ५९, द्वि..) . श्रुतिकटुप्रभृतीनों दोषाणामदोषता । यथा मृगचक्षुषमद्राक्षमित्यादि कथयत्ययम् । पश्येष च गवित्याह सुत्रामाणं यजेति च ॥ अयं जनः मृगचक्षुषं हरिणनयनं अद्राशर-दृष्टवानस्मि इत्यादि कथयति वदति इति श्रुतिकटु । एष जन गविति गो इति शब्दः आह चदतीति पश्यावलोकय इति च्युतसंस्कृत्युदाहरणम् । सुत्रामाणं इन्द्रं जयेति (यजेति) च आहेत्यनुषज्यते । अप्रयुक्तमिदम् । वक्त्रायौचित्यवशाद दोषोऽपि गुणः कचित् कचिन्नोभो ।। (मू०का ५९,३०) वैयाकरणप्रतिपाद्ये वतरि वा वीरादौ रसे च कष्टत्वं गुणः । क्रमेणोदा० - दीधीवेवीसमः कश्चिद् गुण-वृद्ध्योरभाजनम् । विपप्रत्ययनिभः कश्चित् यत्र संनिहिते न ते ॥ अत्र वैयाकरणो वक्ता, अतो अतिशयेन यैयाकरणप्रतीतेर्गुणत्वम् । यदा त्वामहमद्राक्षं पदविद्याविशारदम् । उपाध्यायं तदाऽस्मार्ष समस्प्राक्षं च पाप( संमदम् ।। अत्र वैयाकरणे प्रतिपाये कष्टत्वं गुणः । तेन तस्य प्रतीत्य तिशयात् । रौद्ररसे यथा- प्रागुदाहते 'मू मुद्वृत्तकृते' त्यादौ, 'उत्कृत्योत्कृत्ये त्यादौ चोत्कर्षवर्णा ओजो व्यञ्जयन्तः प्रकृतवीर-बीभत्सयोरानुगुण्यमदधत । . . वाच्यवशाद् यथा गर्जयनघटाटोपे हरौ हुङ्कारकारिणि । किमन्यैरपि दुर्दान्ताः सीदन्ति सुरदन्तिनः ॥ अत्र सिंहे वाच्ये प० ३४.१] परुषाः शब्दाः गुणाः । प्रकरणवशाद् यथा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उल्लास रक्ताशोक ! कुशोदरी कनु गता त्यक्त्वाऽनुरक्तं जनं नो दृष्रैव गुधैव चालयसि किं वाताभिभूतं शिरः। उत्कण्ठाघटमानषट्पदघटासंघट्टदष्टच्छदः तत्पादाहतिमन्तरेण भवतः पुष्पोद्गमोऽयं कुतः ॥ अत्र शिरोविधूननेन कुपितस्य वचसि विप्रलम्भेऽपि कष्टस्वं गुणः । कचिन्नीरसे कष्टत्वं न गुणो न दोषः । शृङ्गारवीरादिरसानामेकस्याप्यभावान्नापकर्षक उत्कर्षकं च । यथा तद् गच्छ सिद्ध्यै कुरु देवकार्य अर्थोऽयमर्थान्तर लभ्य एव । अपेक्षते प्रत्ययमङ्गलङध्य बीजाङ्कुरः प्रागुदयादिवाम्भः ॥ अप्रयुक्तनिहतार्थौ श्लेषादौ न दुष्टौ श्लेषरूपालङ्कारकृतचारुत्वनिर्वाहकत्वात् प्रतीतिमान्थर्यस्मादोषत्वात् । यथा - येन ध्वस्तमनोभवेन बलिजित्कायः पुरा स्वीकृतो यचोद्वृत्तभुजङ्गहारवलयो गङ्गां च योऽधारयत् । यस्याहुः शशिमच्छिरोहर इति स्तुत्यं च नामामराः पायात् स खयमन्धकक्षयकरस्त्वां सर्वदोमाधवः ॥ अत्र माधवपक्षे - शशिमदन्धकक्षयकरशब्दावप्रयुक्तनिहतार्थौ । ध्वस्तकामेन अभ च अभवेन संसारातीतेन येन अनः शकटं 'अनो मातरि शकटे च' । ध्वस्त भनम् , बलिजिद् विष्णुस्तस्य कायः शरीरं पुरा त्रिपुरदाहे अस्त्रीकृतः अस्वभावं पापितः । अथ च बलिजेता देहः पुराऽमृतपानावसरे स्त्रीत्वं प्रापितः । यश्चोद्धतानां सर्पाणां हारो वलयानि च यस्य तादृशः । अथ चोद्भुतभुजङ्गः कालीयस्तस्य हन्ता ताडयिता । रवे वाचि वेदास्ये लयो गुप्तिर्यस्य स तथा । यश्च गङ्गां देवनदी धारितवान् । अथ च यः अगं पर्वतं गोवर्द्धनं गां सुरभि मुवं वा धार । यस्यामराः चन्द्रयुक्तमस्तके हर इति स्तुत्यं नामाहुः | अथ च शशिनं मनाति शशिमत् राहु, तस्य शिर छेत्तेति नामाहुः । कीडम् ? अन्धकदैत्यनाशकृत् । अथ च अन्धं अगाधं कं उदकं यस्य ताइक् समुद्रः; अन्धका यादवा बा, तत्र क्षयं वार्स करोति । सर्वदा उमा पार्वती तस्या [ प. ३४.२] भवः पतिः। मथ च सर्व ददाति ताशे माया लक्ष्म्या धव इति । हर-माधवपक्षयोर्यथाक्रम योजना । मत्र शशिमपदं राहावप्रयुक्तं क्षयपदं च गृहे निहतार्थमिति कश्चित् । . अश्लील कचिद्गुणोऽयम् । यथा - सुरतारम्भगोष्ठ्या 'द्वयर्थैः पदैः पिशुनयेच रहस्यवस्तु' इति कामशास्त्रस्थिती करिहस्तेन संघाचे प्रविश्यान्तर्विलोडिते । उपसर्पन ध्वजः पुंसः साधनान्तविराजते ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 오물 काव्यप्रकाशमण्डन पुंसः पुरुषस्य ध्वजः केतुः साधनान्तः सैन्यमध्ये उपसर्पन् गच्छन् विराजते शोभते । सम्बाधे जनसङ्कुले देशे करिहस्तेन गुण्डादण्डेन अन्तः सैन्यमध्ये विलोलिते विरलीकृते सतीत्येकत्रार्थः । अपरत्र च - सर्जन्यनामिके ष्टेि मध्यमापृष्ठतस्तयोः । करिहस्त इति प्रोक्तः कामशास्त्रविशारदैः ॥ इत्युक्तलक्षणेन करिहस्तेन अन्तर्मोनिमध्ये प्रविश्य सम्बाधे योनिसङ्कोचे सति, विलोकिते विकाश ( स )तां नीते सति, पुंसः पुरुषस्य ध्वजो लिङ्गं साधनान्तः योनिमध्ये विराजते शोभते इत्यर्थः । शमकथासु यथा - उत्तानोच्छून मण्डूकपाटितोदरसन्निभे । दिनि स्त्रीत्रणे सक्तिरक्रमेः कस्य जायते ॥ अत्र वैराग्यहेतुभृणोत्पादनया जुगुप्सागुणः । निर्वाणवैरदहनाः प्रशमादरीणां निन्दन्तु पाण्डुतनयाः सह माघवेन । रक्ताः प्रसारितवः क्षतविग्रहाश्च स्वस्था भवन्तु कुरुराजसुताः सभृत्याः ॥ पाण्डुतनयाः पाण्डवाः पञ्च, माधवेन कृष्णेन सह, नन्दन्तु आनन्दं प्राप्नुवन्तु । कीदृशाः ! अरीणां शत्रूणां दुर्योधनादीनां प्रशमात् कलहत्यागात्, पक्षे नाशात्, निर्वाणो नष्टो बैररूपो दहनोऽमिर्येषां ते तथा । कुरुराजो धृतराष्ट्रः तस्य पुत्राः सभृत्याः स्वस्याः सुखिनः, पक्षे खर्गस्था भवन्तु । कीदृशाः ! रक्ताऽनुरक्ता प्रसाचिताऽलंकृता भूर्यैः । दुर्योधनामङ्गलस्य नायकमङ्गलत्वेन गुणत्वम् । सन्दिग्धमपि राज्ञो महिमा वर्णनीय इति नियमार्थप्रतिपत्तिकृतत्वेन व्याजस्तुतिपर्यनखानाद् गुणः । यथा 'कुभोजनं महाराज ! तवापि च ममापि च ।' इत्यादौ । अधम प्रकृतेर्विदूषका [प. ३५.१ दिरुक्तिषु हास्यकारिषु ग्राम्यो गुणः । न्यूनपदं कचिद् गुणः, यथा - गाढालिङ्गनवामनीकृत कुचमोनिरोमोमा सान्द्रस्नेहरसातिरेकविगलच्छ्री मनितम्बाम्बरा | मा मा मानद माsति मामलमिति क्षामाक्षरोल्लापिनी सुप्ता किं तु सृता नु किं मनसि मे लीना विलीना नु किम् ॥ अत्र पीडयेति पदमनुपात्तं वक्त्र्याः हर्षसंमोहातिशयं प्रतिपादयन् गुणतामापद्यत । अध्याहारेण वाक्यार्थबोध बिलम्बेऽपि प्रकृतरसपोषकत्वाद् । उक्तरूपा सा नायिका मम मनसि सुप्ता वा, निश्चलत्वेन वर्त्तमानत्वात् । सुप्तस्य श्वासादिकमनुभूयत इत्यत आह-मृता नु किन् ! | मृताऽपि Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उल्लास महिरनुभूयत इस्मत आह - लेनेति, जनुकाष्ठादिवदिति शेषः । तथास्तस्मावि विघटन कर्तुं शक्यत' इत्यतः विलीना नु किमिति ? नीरक्षीरवदिति शेषः । कीदृशी गामालानेन इढपरी( रि अम्मेण वामनीकृतौ भुनौ कृतौ कुचौ यस्याः सा चासौ, प्रोद्विन्नः प्रयकरोभोद्गमः पुलको यस्याः सा । तथा सान्द्रो निबिडो यः स्नेहः प्रीतिः रसः शृङ्गारस्तयोरतिरेकेनाधिक्येन विगल दूरीभवत् श्रीमतः शोभावतो नितम्बस्याम्बरं वस्त्रं यस्याः सा । हे मानद । मानखण्डक ! मानप्रद ! वा मां अलं अतिशयेन मा मा माऽतिपीडयेति शेषः। इत्यनेन प्रकारेण क्षामाक्षरस्य न्यूनशब्दस्य उल्लापिनी कथयित्रीत्यर्थः । क्वचिन्न गुणो न दोषः, यथा ___तिष्ठेव कोपवशात् प्रभावपिहिता दीर्घ न सा कुप्यति ।' इत्यादौ हितेत्यनन्तरं नहा का हरगतै गौः विशेषबुद्धेरकरणान्न गुणः । उत्तरा प्रतिपत्तिः पूर्वो बाधत इति न दोषः । अधिकपदं कचिद् गुणः, यथा__ वद वद जितः स शत्रुनै हतो जल्पश्च तव तवास्मीति । चित्रं चित्रमरोदीद्धा हेति परं मृते पुत्रे ॥ इत्येवमादौ हर्षभयादियुक्ते वक्तरि हर्षादिपोषकत्वात् । कचित् कथितपदं गुणः, लाटानुप्रासे अर्थान्तरसङ्गमितवाच्ये विहितस्यानुवाद्ये च । क्रमेणोदाहरणानि [प. ३५.२ ] यस्य न सविधे दयिता दबदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य । यस्य च सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य । 'यस्य मित्राणि मित्राणि' इत्यादौ । जितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं गुणप्रकर्षों विनयादवाप्यते । गुणप्रकर्षण जनोऽनुरज्यते जनानुरागप्रमवा हि संपदः ॥ जितेन्द्रियत्वं इन्द्रियजयः विनीतताया: कारणं निदानम् । विनयाद् गुणानां प्रकर्षः उत्कर्षोऽवाप्यते प्राध्यते । गुणाधिके गुणैरधिके उत्कृष्ट पुंसि पुरुषे जनो लोकोऽनुरज्यते अनुरत्तो भवति । जनानुराग एव प्रभवः उत्पत्तिर्यासां तास्तथा संपदो विमूतयः इति त्रिषु, लाटानुप्रासादिचयसंपादकत्वात् । पतत्मकर्ष कचिद्गुणो यथा - प्रागप्राप्तनिशुम्भशाम्भवधनुढेधाविधाविर्भवत् क्रोधप्रेरितमीमभार्गव जस्तम्भापविद्धः क्षणात् । उज्ज्वालः परशुर्भवत्वशिथिलस्त्वत्कण्ठपीठातिथि पेनानेन जगत्सु खण्डपरशुर्देवो हर ख्याप्यते ॥ का.प्र. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन ___ अत्र चतुर्थपादे गुरुस्मरणेन क्रोधाभावात् मसृणवर्णत्वमेवोचितमिति तस्यादोषत्वमिति । विनयप्रकाशकत्वाच गुणत्वम् । समाप्तपुनरावं कचिन गुणो न दोषः । यत्र न विशेषापादनार्थ पुनर्ग्रहणं अपितु वाक्यान्तरमेव क्रियते । यथाऽत्रैव 'प्रागप्राप्त०' इत्यादौ । अपदस्थसमासं कचिद्गुणः । उदाहृते 'रक्ताशोक' इत्यादौ, 'नो दृष्टा इति क्रोधोक्ती दीर्घसमासकरणात् स्थानौचित्यविवेचनाभावेन क्रोधोन्मादपरिपुष्टिः । अथ प्राचीनोक्तरसदोषानाह - व्यभिचारिरसस्थायिभावानां शब्दवाच्यता। कष्टकल्पनया व्यक्तिरनुभाव-विभावयोः ।। (मू का..) प्रतिकूलथिभावादिग्रहो दीप्तिः पुनः पुनः। अकाण्डे प्रथनच्छेदी अङ्गस्याप्यतिविस्तृतिः ॥ (मू० का०६१) अङ्गिनोऽननुसन्धान प्रकृतीनां विपर्ययः॥ अननस्याभिधानं तु रसे दोषाः स्युरीशाः ॥ (मू० • ६१) व्यभिचार्यादीनां खशब्दोपादाने यथाक्रम भावध्वनित्वं चमत्कारित्वं रसत्वं च न स्यात् । व्यजितानामेव [प० ३६. १] व्यभिचार्यादीनां तत्तद्रूपत्वात् । अत एवोकम् 'व्यभिचारी तथालितो भावः प्रोक्त' इति । तथा 'अभिव्यक्तश्चमत्कारकारी शृङ्गारादिको रस इति, एवं 'व्यक्तः स तेरित्यादि च । एवं सति एतेषां प्रधानकाव्यत्वं मवति । तत् सर्व व्यञ्जनामाहात्म्यम् । तत्र प्रमाणं तु सहृदयहृदयमेव । व्यभिचारिणः खशब्देनोपादानं यथा सबीडा दयितानने सकरुणा मातङ्गचर्माम्बरे सत्रासा भुजगे सविस्मयरसा चन्द्रेऽमृतसन्दिनि । सेा जल्लुसुतावलोकनविधौ दीना कपालोदरे ___ पार्वत्या नवसङ्गमप्रणयिनी दृष्टिः शिवायास्तु वः ॥ पार्वत्या भवान्या दृष्टिनेंत्र वो युष्माकं शिवाय कल्याणाय अस्तु भवतु । कीडशी ! दयितस्य शिवस्यानने मुखे सत्रीडा सलज्जा; मातङ्गस्य हस्तिनो यश्चर्म अजिनं तदेव यदम्बरं वस्त्रं तत्र सकरुणा सदया; भुजगे पत्युभूषणस सत्रासा सभया; अमृतस्यन्दिनि अमृतवर्षिणि चन्द्रे पत्युर्ललाटस्थितार्द्धचन्द्रे सविस्मयरसा अद्भुतरससहिता; जदुसुताया गलाया अवलोकनविधौ दर्शनक्रियायां सेा ईर्ष्या विशिष्टा; कपालानां भा धृताना उदरे मध्ये दीना दुःखिता; नवसङ्घमे नूतनसमागमे प्रणयिनी प्रीतिमतीत्यर्थः । अत्र श्रीडादीनां शब्दवाच्यता। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उल्लास ध्यानमा दयितानने मुकुलिता मातङ्गचर्माम्बरे __ सोत्कम्पा भुजगे निमेषरहिता चन्द्रेऽमृतस्यन्दिनि । मील सरमिन्धदर्शनविधौ म्लाना कपालोदरे, इत्यादि युक्तम् । एवं कृते ब्रीडादिव्यमयतासिद्धेः । एवं रसस्य रसशब्देन शृङ्गारादिशब्देन वाच्यत्वम् । क्रमेणोदा० - सामनङ्गजयमङ्गलश्रिय किञ्चिदुच्चभुजमूललोकिताम् । नेत्रयोः कृतक्तोऽस गोचरे कोऽप्य जायत रसो निरन्तरः ।। तां नायिका नेत्रयोर्लोचनयोर्गोचरे विषये कृतवतः अस्य पुरुषस्य कोऽप्यनिर्वचनीयो रसः निरन्तरः अनुस्यूतः अजायत उत्पत्तिमगात् । तां किशीम् ? अनङ्गस्य कामस्य [प. ३६.२ ] जयार्थ मन्मङ्गलं तस्य श्रीः शोमा किञ्चिदीपदुच्चं यद्भुजयो होर्मूलं तत्र लोकितां दृष्टामित्यर्थः । 'आलोक्य' इति । एष नायकः शृङ्गारसीमनि शृङ्गारप्रथमप्रान्तमागे तरङ्गितं चावश्य सलीलगृहारं वा आतनोति विस्तारयति । कीदृशः ? बाल्यं शैशवं अतिवृत्य अतिक्राम्य विशेषेण वर्तमानः । किं कृत्या ! अभिरामरूपां सुन्दररूपा आलोक्य दृष्ट्वा । कीदृशीम् । कोमल्योः कपोलतलयोः अभिष(वि)कः संबद्धो व्यक्तः प्रकटो योऽनुरागः प्रणयस्वेन सुभगां शोभनामित्यर्थ । 'संप्रहार' इति । तस्स राज्ञः प्रहरणैरस्त्रैः संप्रहारे सङ्ग्रामे कोऽप्यनिर्वचनीयः उत्साहः जमज्जातः । कैः श्रुतिगतैः कर्णप्राप्तैः परस्परमन्योऽन्यं महाराणां शस्त्रक्षेपरूपाणां झणत्कारैः शब्दविशेषैरित्यर्थः। आलोक्य कोमलकपोलतलाभिषिक्त व्यक्तानुरागसुभगामभिरामरूपाम् । पश्यैष बाल्यमतिवृत्त्य विवर्चमानः गृङ्गारसीमनि तरङ्गितमातनोति ॥ एवं स्थायिनो यथा संग्रहारे प्रहरणैः प्रहाराणां परस्परम् । झणत्कारैः श्रुतिगतः उत्साहः तस्य कोऽप्यभृत् ॥ अत्रोत्साहस्य । तत्र नवीनाः प्रत्यवतिष्ठन्ते । व्यभिचार्यादीनां स्वशब्दवाच्यता न दोषाय किन्तु गुणायैव, तत्तदर्थानां शीघ्रोपस्थितिकस्वात् । अत एव महाकवीनां तथैवोपनिबन्धात् । यथा दादुत्सुकमागते विचलितं संभाषिणि स्फारित संश्लिष्यत्यरुणं गृहीतवसने किञ्चाश्चितभूलतम् । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशमान मानिन्याश्रणानतिव्यतिकरे बापाम्बुपूर्णक्षणं चक्षुर्जातमहो प्रपश्चचतुरं जातागसि प्रेयसि ।। उत्सुकमित्योत्सुक्यस्य' शब्दवाच्यता मावा -- औत्सुक्येन कृतत्वरा सहभुत्रा व्यावर्चमाना हिया तैस्तैवेन्धुवधूजनस्य वचनैनीताऽऽभिमुख्यं पुनः । दृष्ट्वाग्रे वरमात्तसाध्वसरसा गौरी नवे सङ्गमे संरोहत्पुलका हरेण हसता श्लिष्टा शिवायास्तु का | [प० ३७.१] उत्सुकतया कृता खरा यस्याः सा । ततो देहेन सहोत्पन्नया लज्जया हेतमतया अपसर्पन्ती वैस्तैः सखीनां वचनैः सन्निधिं नीता । अग्रे पतिं दृष्ट्वा गृहीतभयरसा प्रथमसङ्गमे उद्भूतरोमाचा सहसा इसता वा हरेणालिङ्गिता गौरी पार्वती वः शिवाय भवत्वित्यर्थः । अत्रौत्सुक्यस्य । यथा वा स्वमग्रतः सश्चल चञ्चलाक्षि त्वमेव जीवेश्वर निस्सराये । इति ब्रुवद् वेश्मनि वह्निदीप्ते मिथोऽनुरागाद् मिथुनं विपन्नम् ॥ अत्रानुरागस्य । यथा वा-- तृषितां हरिणी हरिणः तृपितं हरिणं विजानती हरिणी । मितमम्बु पल्यलगतं कपटं पिबत्तः परस्परालोकम् ॥ अथ श्रीडायनुभावैर्विचलितत्वाद्ये डादिवदौत्सुक्यानुभावैरौत्सुक्यादिकं झटिक्ति प्रत्यायितुं न शक्यते इति, औस्सुक्यादीनां झटिति प्रत्ययार्थ स्वशब्दवाच्यतेति चेत्, न । एतस्वार्थस्य शपथेन प्रत्याययितुं शक्यत्वात् । अपि च सिद्धा व्यभिचार्यादीनां झटिति प्रत्ययाहेतुत्वाद स्वशब्दवाच्यता न दोषाय, किन्तु गुणायैवेति । 'कष्टकल्पनए(ये १)वे'ति क्लिष्ट एवान्तर्भावः । 'प्रतिकूलविभावादिग्रह' इति । यथा शृङ्गारादिकं प्रति प्रतिकूलस्य शान्तस्य विमावादेरुपादानं समूलमुन्मूलयतीति तदेव दूषकतावीजम् । . 'दीप्तिः पुनः पुनः' -विच्छिद्य विच्छिद्य ग्रहणं वेद्यान्तरसम्बन्धेन रसादिविच्छेदो भक्तीति तदेव दूषकताबीजम् । यथा कुमारसंभवे रति विलापे । 'अकाण्डे प्रथनम्' यथा--वेणीसंहारे द्वितीयेऽके बहूना संक्षये प्रवृत्ते भानुमत्या सह दुर्योधनस्य शृङ्गारवर्णने । 'अकाण्डे विच्छेदो' यथा-वीरचरिते राम-जामदम्ययोर्धारावाहिनि जीससे कारणमोचनाय गच्छामीति रामस्योक्तौ । 'अङ्गस्याप्रधानस्य अतिविस्तारेण वागनं यथा-हयग्रीववधे हयग्रीवस्य । 'अजिनो अननुसन्धानम् यथा -रत्नावल्या बाभ्रव्यागमने सामरिकाया विस्मृतिः । ६५. ३५.२.] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उल्लास 'प्रकृतयच - दिव्या अदिव्या दिव्यादिव्याश्च । धीरोदात-धीरोद्धत-धीरललित-धीरशान्ता उत्तमाधममध्यमाश्च । तेषां लोकशास्त्रातिक्रमेण अन्यथा वर्णनम् । 'अनङ्गस्य रसानुपकारकस्य अभिधानं कथनम् , यथा- कर्पूरमञ्जयों आत्मना नायिकया च कृतं वसन्तवर्णनमनाहत्य बन्दिवर्णितस्य राज्ञः प्रशंसनम् । 'ईटया' इति, नायिकापादमहारादिना नायककोपवर्णनमिति । उक्तञ्च - 'अनौचित्याद् ऋते नान्यद रसभङ्गस्य कारणम् । प्रसिौविस्वबन्धस्तु रसस्थोपनिषत् परा ॥ इति । इहेदानी कचिददोषा एते इत्याह - न दोषः स्वपदेनोक्तावपि सञ्चारिणः क्वचित् । (मू० का० ६३, पृ.) यथा प्रातः पुनः स्यादुदियाच भानोः पश्याम कोदण्डमनाततज्यम् । इत्युत्सुकस्तत्र स रामभद्रो निद्रादरिद्रो रजनीमनैपीत् ॥ अत्रोत्सुकशब्द इव तदनुभावो न तथाप्रतीतिकृदिति खशब्देनोपादानम् । यथा वा, 'दरादुत्सुकमागते त्यादौ, 'औत्सुक्येन कृतवरा' इत्यादौ च । तदनुमावस्य सहसा प्रसारणादिरूपस्य खशब्दस्येव तस्य झटिति प्रत्यायकत्वात् ।। सञ्चार्यादेविरुद्धस्य बाध्यस्योक्तिर्गुणावहा ॥ (मू• का० ६३, उ०) बाध्यत्वेनोक्तिर्न परं दोषो यावत् प्रकृतरसपरिपोषकृत् । यथा 'काकार्य शशलक्ष्मण इत्यादौ । वितर्कमतिशाधृतीनां शान्तसञ्चारिणां शृङ्गारपरिपन्थिनामपि बाध्यत्वेनोक्तेः शश्रुविजयपूर्वकराज्यलाभवत् प्रकर्षविशेषाधायकत्वेन तत्परिपोपकतानामुपमर्थ चिन्तायामेव विश्रान्तेः । तेनात्र प्रतिकूलविभावादिग्रहो न दोषः, सञ्चार्यादेरित्यादिग्रहणात् । विरुद्धस्य विभावादेर्बाध्यत्वेनोको गुणावहत्वं यथा - सत्यं मनोरमा रामाः सत्यं रम्या विभूतयः । किन्तु मत्ताङ्गनापाङ्गभङ्गलोलं हि जीवितम् ॥ रामाः लियः मनोरमाः सौन्दर्यवत्यः इति सत्यं यथार्थम् , विभूतयः संपत्तयः रथाः शोभनाः इति [प. ३८. 1] सत्यम् । किन्तु परन्तु जीवितं जीवनं मचा मदनेन मत्ता या अना स्त्री तस्याः अपाङ्गो नेत्रपान्तस्तस्स भङ्गस्त्रियत्वेन वीक्षणं तद्वत् लोलं चञ्चलमित्यर्थः । अब शृङ्गारविभावस्य शान्तबिमावस्य जीवितास्थैर्यत्वस्य परस्परं विरुद्धत्वेऽपि शृङ्गारविभा. वस्य बाध्यत्वेनाभिधानात् न दोषत्वम् , अपि तु गुणत्वं शान्तपरियोषकत्वात् । सर्वा रामादयः सत्येव जीविते तदर्थमुपादेयाः, जीवितं बात्तिभरमिति कृतमुपादेयत्वमेतेषाम् । अतो रम्यत्वेऽपि निष्फला एचेति पर्यवसानात् । आश्रयैक्ये विरुद्धो यः स कार्यों भिन्नसंश्रयः। रसान्तरेणान्तरितो नैरन्तर्येण यो रसः ॥ (मू० मा० ६४) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन वीर-भयानकयोनैरन्तर्येण विरोध इति रसान्तरमन्तरे कार्यम् । यथा नागानन्दे शान्तस्व जीमूतवाहनस्य 'अहो गीतमहो वादित्रम् ' - इत्यद्भुतमन्तर्निवेश्य मलयवतीं प्रति शृङ्गारो बद्धः । स्मर्यमाणो विरुद्धोऽपि साम्येनाथ विवक्षितः । अन्त्यमा यी तो न कुछ परस्परम् ॥ ( जू० का० ६५ ) यथा - 'अयं स रस (श) नोत्कर्षी' इत्यादौ पूर्वावस्थास्मरणं शृङ्गाराङ्गमपि करुणं पोषयति । 'साम्येने 'ति यथा - सरागया श्रुतधनधर्मतोयया कराहतिध्वनितपृधूरुपीठया । मुहुर्मुहुर्दशन विलसितोष्ठया रुषा नृपाः प्रियतमए ( ये ) व मेजिरे । इत्यत्र शृङ्गार - रौद्रयोः साम्यविवक्षणाददोषत्वम् । 'अङ्गिन्यङ्गत्व' मिति यथा - क्षिप्तो हस्तावलयः प्रसभमभिहतोऽप्याददानोंऽशुकान्तं गृछन् केशेष्वपास्तश्चरणनिपतितो नेक्षितः संभ्रमेण । आलिङ्गन् योऽवधूत त्रिपुर युवतिभिः साश्रुनेत्रोत्पलाभिः कामीवार्द्रापराधः स दहतु दुरितं शाम्भवो वः शराभिः ॥ सः प्रसिद्ध प्रभावः शाम्भवः शम्भुसम्बन्धी शराग्निर्वाणाग्निः वो युष्माकं दुरितं पापं दहतु भस्मीकरोतु । क इव ? कामीव कामुक इव । कीदृश: ? आर्द्रापराधः - आर्द्रा नूतनोऽपराधेो यस्य सः । शराः कामुकस्य च । [५०३८.२ ] विशेषणान्याह - हस्ते पाणाववरुमः सम्बद्धः सन्, त्रिपुरयुवतिभिः त्रिपुरनामक दैत्यस्त्रीभिः क्षिप्तो दूरीकृतः । शरान्नेर्हस्तसंपर्के कामुकस्याप्यपराधक्षमापनाद्यर्थं करग्रहणे स्त्रीणां प्रक्षेपस्त्रोचितत्वात् । प्रसभं हठात् अंशुकान्तं } प्रान्तं आददानः सन् अभितो दूरीकृत स्तिरस्कृतश्च । वस्त्रान्तेऽमेः संपर्केऽभिहतस्व सहसा कृतापराधेन नायकेन वस्त्रप्रान्तधारणे सति रुष्टया तद् भिहननस्य न्याय्यत्वात् । केशेषु चिकुरेषु गृहन् स्पृशन् अपास्तः दूरीकृतोऽवज्ञातश्च । अः केशसंपर्के कृतापराधेन चुम्बनार्थं नायिका केशग्रहणे तया तदपासनस्य न्याय्यत्वात् । चरणयोः पादयोः पतितः सन्, संभ्रमेण नेक्षितो नावलोकितः । व्यासङ्गेन चरणतलपति तस्याः, प्रसादनाय च तत्रैव पतितस्य नाथकस्य क्रोधेनानवलोकनस्थोचितत्वात् । यः शराभिः कामुकश्च आलिङ्गन् दवत् (१) सन् अवधूतस्त्यक्तः । उभयोरप्या लिङ्गय मानयोस्त्यागस्योचितत्वात् । त्रिपुरयुवतिभिः कीदृशीभिः ? साखं सजल नेत्रोत्पलं नेत्रात्मकनीलकमलं यासां ताभिरित्यर्थः । इत्यत्र त्रिपुररिपुप्रभावातिशयस्य करुणोऽक्कम्, सस्य तु शृङ्गारः, तस्यापि च करुणे विश्रान्तिरिति शृङ्गारपरिपोषितेन करुणेन मुख्य एवार्थे उपोद्बल्यते ॥ ॥ इति पादशाह श्री अकबर सूर्यसहस्रनामाध्यापक- श्रीशत्रुज यतीर्थंकर भोचनाद्यने कसुकृतविधापक महोपाध्याय - श्री भानु चन्द्रगणिगशिष्याष्टोत्तरशतान धानसाधनप्रमुदितपादशाहश्री अक्रम्बर प्रदत्त-सुरुफहगावरानिधान महोपाध्याय - श्रीसिद्धि चन्द्रगणिविरचिते काव्यप्रकाशखण्डने सप्तम उल्लासः ॥ ર * Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अएम उल्लास अष्टम उल्लासः। दोषानुक्त्वा गुणालङ्कारयोविवेकमाह - ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः। उत्कर्षहेतघस्ते [प० ३९.१] स्युरचलस्थितयो गुणाः ॥ (मू• का० ६६) अस्मार्थः- काव्यं प्राधान्यन स्थितस्य रसस्स ये धर्माः साक्षात् तदाश्रिता इत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तः -आत्मनः एव शौर्यादयो गुणाः न शरीरस्य, तथा रसस्यैव माधुर्यादयो गुणा न वर्णानाम् । ननु कथं तर्हि वामनादीनां वर्णगतत्वेन व्यवहार इति चेत्, उच्यते - समुचितैर्वणैव्य॑ज्यन्ते गुणा इति व्यङ्ग्यव्यञ्जकभावरूपपरम्परासम्बन्धेन वर्णगतस्वेन व्यवड़ियन्ते, न साक्षात् । यथाऽवच्छेदकतासम्बन्धेन शौर्यादयः शरीरे । अचलस्थितयो नियतावस्थितयः । नैयत्यं च रसेन तदुपकारेण च । तथा च ते रसं विना नावतिष्ठन्ते । अवस्थिताश्चावश्यमुपकुर्वन्ति । अत एव एतयोर्द्धर्मयोर्व्यतिरेकमलकारे वक्ष्यति । रसस्यावश्यं उपकारित्वे सति रस विनावस्थितिशून्यत्वम् । गुणत्वमिति तु गुणलक्षणमित्यन्ये । नवीनास्तु रसोत्कर्षहेतुत्वे सति रसधर्मत्वं इत्याहुः । परे तु रसधर्मा गुणास्ते चोत्कर्षरूपाः । वन्यजकस्य काव्यस्य उत्कर्षकाश्च । तदाह उत्कर्षहेतव इति । तेन दोषव्यवच्छेदः । उत्कर्षहेतुपु अलकारादिषु अतिव्याप्तिवारणाय अचलस्थितय इति । अचला नियता स्थितियेषां ते । तथा रसविशेषनियतविशेषा रसधर्मा इत्यर्थः । शृङ्गारादौ माधुर्यस्य वीरादौ ओजसश्च नियतत्वात् | अलहाराणां च सर्वेषां सर्वरसोत्कर्षकत्वात् । ननु 'अयं स रशनो' इत्यादौ अङ्गतां प्रापरति शृक्षारे माधुर्यध्यक्षकवर्णविरहेण अव्याप्तिरित्यत अङ्गिन इति । अजिन्येव स्थितिनियमो नाग इति वदन्ति । ___ अलकारेषु उक्तगुणधर्मराहित्य दर्शयितुं अलकारखरूपमाह - उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् । हारादिषदलकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ॥ (मू० का०६७) ये वाच्य-याचकलक्षणातिशयमुखेन मुख्यं रसे संभविनमुपकुर्वन्ति तेऽलङ्काराः । तत्र दृष्टान्तः- कण्ठाचगानां उत्कर्षाधानद्वारेण [प० ३९. २ ] शरीरिणोऽप्युपकारकाः, हारा इवेत्यर्थः । तेन अलकारा रसं विना अवतिष्ठन्ते, अवश्यं च नोपकुर्वन्ति, न वा रसे साक्षादिति । किन्त्वनद्वारेति गुणेभ्यो विलक्षणा एत इति ध्येयम् । यत्र तु नास्ति रसस्तत्र उक्तिमात्रवैचित्र्यपर्यवसायिनः । कचित् सन्तमपि नोपकुर्वन्ति । अपसारय घनसारं कुरु हारं दूर एव किं कमलैः । अलमलमालि मृणालैरिति वदति दिवानिशं वाला ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ काव्यप्रकाशखण्डन इत्यादी अनुप्रासेन कोमलया वृस्या शब्दानां अलकरणद्वारा विप्रलम्मो रस उपक्रियते । तथा, मनोरागस्तीव्र विषमिव विसर्पत्यविरतं प्रमाथी निधूमं ज्वलति विधुतः पावक इव । हिनस्ति प्रत्यक्षं ज्वर इव गरीयानित इतो न मांत्रातुं तातः प्रभवति न चाम्बा न भवती ।। अत्र पाध्यसुखेन मालारूपकेण तीविषादित्वं मनोरागे प्रत्याय्य विलम्म उत्कृप्यते । उक्तिवैचित्र्यमानपर्भवसिता इति । उक्तिवैचित्र्यं शब्दानां सुश्रवत्वं बन्धकौशलवं च । अर्थानामीषन्मनोहारित्वं 'शीर्णघाणात्रिपाणि.' इत्यादौ सुप्रसिद्धमुदाहार्यम् । सतोऽप्यनुपकारित्वमुदाहरति, यथा चित्ते चहुदि न खुट्टति सा गुणेसु सेजाइ लुट्टदि विसङ्गति दिम्सुहेसु । योजनादि नदि पवार कण्णेन तुद्ददि चिरं तरुणी सरड्डी ॥ तरट्टी प्रशस्ता । अथ वा थालाना सुम्बनालिसा कबरीमोक्षबन्धने । कर्णकपडूयनं त्रीणां तरष्टीलक्षणं स्मृतम् ।। इति लक्षणेनात्यारूढमनोभवा नायिका तरट्टी द्रष्टव्या । अत्र सन्तमपि रसे नोपकरोति ओजोव्यञ्जकस्य परुषानुप्रासस्य विप्रलम्भाननुकूलत्वात् । प्राकृतस्य ओजोगुणव्यञ्जकप्रधानत्वात् तदनुकूलत्वेनादोषत्वाश्च । तथा मित्रे कापि गते सरोरुहयने बद्धानने ताम्यति क्रन्दत्सु अमरेषु वीक्ष्य दयितासनं पुरः सारसम् । चक्राण वियोगिना विश(स)लता नावादिता नोज्झिता, वक्त्रे [प० ४०.१] केवलमर्गलेच निहिता जीवस्य निर्गच्छतः ॥ मित्रे सूर्ये सुहृदि व कापि कुत्रापि गते प्राप्ते सति कमलवने मुद्रिते अवचने च ताम्यति । निःश्रीके तप्यमाने च सति भृङ्गेषु तारखरेण शब्दायमानेषु रोदनवत्सु च पुरः अमे दयितासन्नां कान्तसमीपवर्तिनी सारसी दृष्ट्वा वियुक्तेन चक्रवाकेन मृणाललता न मक्षिता, न त्यक्ता नोज्झिता । केवलं निर्गच्छतो निःसरतो जीवस्य अर्गलेव परिघ इव वक्त्रे न्यस्तेत्यर्थः । अत्र विप्रलम्मे जीवापगमसैय वर्णनीयत्वे तत्प्रतिबन्धकवर्णने सन्तमपि विमलग्मं उपमा नोपकरोति एष एव गुणालकार विवेकः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटम उल्लास इदानीं गुणानां मैदानाह - माधुयोजाप्रसादाख्यास्त्रयस्ते न पुनर्देश । आझादकत्वं माधुर्य शृङ्गारे द्रुतिकारणम् ॥ (मू० का० ६८) अर्थात् संमोगे । द्रुतिर्गलितत्वम् । इह हि सामाजिकानां 'चिनेषु नवरसजन्याः तिस्रोऽवस्खाः । द्वतिः विस्तारो विकासश्च । तत्र भृक्षारकरुणशान्तेभ्यो द्रुतिः, वीरबीभत्सरौद्रेभ्यो विस्तारः, हास्याद्भुतभयानकेभ्यो विकासः । येन हास्ये बदनविकासः, अद्भुते नयनविकासः, भयानके द्वतापसरणमिति । करुणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितम् । (मू का० ६९, पृ०) अत्यन्तनुतिहेतुत्वात् । दीत्यात्मवितेतुरोको वीररसस्थिति ॥ का ६९, उ• ) चितस्य विस्ताररूपदीप्तत्वहेतुरोजः । वीभत्सरौद्ररसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च । (मू० मा० ४०, ५०) वीराद बीमत्से ततोऽपि रौद्रे सातिशयमोजः । एवं हास्ये शृङ्गारामता(तया) माधुर्य प्रकृष्टविकासधर्मतया ओजोऽपि प्रकृष्टम् । एवमद्भुतेऽप्योजः । माधुर्यमप्याहादकरूपतया भयानकेऽप्येवमेव । माधुर्यममचित्तवृत्तिखभावत्वेऽपि विभावस्य दीप्तरसतया ओजः प्रकृष्टं च । शुष्कन्धनादि(ग्निवत् खच्छजलवत् सहसैव यः॥ (मू. का. ४०, उ.) ग्रामोत्यन्यत् प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थितिः। (मू० का ७, पृ.) अन्यदिति । व्याप्यमिह चित्तम् । यदा वीररसादिषु चित्तं व्यामोति तदा [प० ४०, २] शुष्कन्धनादि(मि)वत् । यदा शृङ्गारकरुणादिषु तदा खच्छजलवदिति । सर्वत्रेति सर्वेषु रसेषु सर्वासु रचनास । झटिति प्रत्या(ती)यमानत्वं रसेषु, झरिति प्रत्यायकत्वं रचनादिषु । ननु यदि तेन शब्दार्थयोस्तक्षा कथं लक्षणे सगुणावित्युक्तमिति चेत् , इत्यत आह - गुणवृत्त्या पुनस्तेषां वृत्तिः शब्दार्थयोर्मता ॥ (मु० का० ७१, उ.) गुणवृत्त्या उपचारेण व्यञ्जकत्वेन तद्वत्त्वमुपचर्यत इत्यर्थः । दशेति परोक्ताः । तदुक्तम् - श्लेषः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता । अर्थव्यक्तिरुदारत्वं ओजाकान्तिसमाधयः । इति वैदर्भमार्गस्य प्राणा दशगुणा स्मृताः ।। मामोस्सन्यत्' इति मु. पर। का०प्र०९ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ तत्र शेषादीन् क्रमेणाह - बहून पदानां एकवद्भासनं लेषः । सन्धिसौष्ट ( 8 ) बादेकस्था नीयवर्णविन्यासात् । यथा -इत्यादौ । काव्यप्रकाशखण्डन अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः । श्रुतिमात्रेण शब्दानां येनार्थप्रत्ययो भवेत । साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणो मतः ॥ समग्राणां घटनादीनां यथा - इषु(क्षु) च्छायानिपादिन्यस्तस्य गोमुर्गुणोदयम् । आकुमारकथोद्भूतं शालिगोप्यो जगुर्यशः ॥ समता मार्गाभेदः । यया रीत्या उपक्रमस्तया समापनं [ मार्गा-] भेदः । वथा - अनङ्गरप्रतिमं तदङ्कं मङ्गीभिरङ्गीकृतमानतायाः कुर्वन्ति यूनां सहसा यथेमाः स्वान्तानि शान्तापरचिन्तनानि ॥ आनतात्या नम्रशरीरायाः अक्रं शरीरं तथा मङ्गीभिरङ्गीकृतं स्वीकृतं यथा एता भयः यूनां खान्तानि मनांसि शान्तापरः शृङ्गारः तचिन्तनानि तत्प्रवणानि कुर्व्वन्ति इत्यर्थः । पृथक्पदत्वं माधुर्य सुश्रयत्वं वा । 'वैवखतो मनुर्नामे' त्यादि । सुकुमारता परुषेतरवर्णशालित्वम् । यथा - 'अपसारय घनसार मित्यादौ । अर्थव्यक्तिः झटित्यर्थसमर्पणम् । यथा - 'इक्षुच्छाया' इत्यादी । उदारता विकटत्वरूपा । विकटत्वं च पदानां विच्छेदात् नृत्यत्प्रायत्वम् । यथा - सुचरणविनिस टैर्नृपुरैर्नर्सकीनां मणितरणितमासीत् तत्र चित्रं कलं च । ओजो [१० ४१. १ ] गाढबन्धत्वम् । उदाहरणम् - 'मूर्ध्नाद्वृत्तकृत्ते त्यादौ । कान्तिरौज्जवल्यम् । हलिका दिसाधारण पदविन्यासपरित्यागेन लौकिकशोभाशालित्वम् । यथा - कलकणितगर्भेण कण्ठेनाघूर्णितेक्षणः । पारावतः परिभ्रम्य रिरंसुम्बति प्रियाम् || आरोहावरोहरूपः समाधिः । आरोहो गाढता, अवरोह: शैथिल्यं तयोः क्रमः । क्रमेण निबन्धः । यथा चञ्चद्भुज अमितचण्ड गदाभिघातसंचूर्णितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य । स्त्यानावनधनशोणितशोणशोचिरुतंसयिष्यति कचांस्तव देवि ! भीमः || अत्र संचूर्णितान्ते आरोहः, सुयोधनान्ते अवरोहः । पुनस्तदन्ते पूर्वः, नीम इत्यन्ते परः । न पुनर्दशेति । एते षादयो न गुणाः । गुणा हि रसधर्मा इत्यत्र प्रमाणाभावात् । पते शब्दगुणाः स्वीकार्याः रसोत्कर्षकस्यात् । ननु तथासति गुणालङ्कारयोर्विभागोऽनुपपन्नः Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम उल्लास ६७ इति चेत्, न । काव्यशोभायाः कर्त्तारो धर्म गुणाः, तदतिशयहेतवस्त्वरूद्वारा इति विभागोपपत्तिः । एवं चेदर्थगुणा अपि स्वीकार्याः । तथा हि क्रम कौटिल्यानुल्बणतोपपत्ति योगरूपघटनात्मा श्लेषः । अस्यार्थः क्रमः क्रियापरम्परा, विदग्धचेष्टितं कौटिल्यम्, अप्रसिद्धवर्णनविरहः अनुस्वणत्वम्, उपपादकयुक्तिविन्यास उपपत्तिः, एषां योगः । सः स (ख) रूपं यस्य (स्या) घंटनायाः सश्लेषः । उदाह० कासनसंस्थिते प्रियतमे पञ्चादुपेत्यादरा देकस्या नयने विधाय विहितक्रीडानुबन्धच्छलः । earnरः सपुलकप्रेमोल्लसन्मानसामन्तहसिलसत्कपोल फलकां धूर्तोऽपरां चुम्बति ॥ एवं प्रसादोऽर्थवैमल्यं यावदर्धपदता । यथा काञ्चीपदं न तु काचीगुणस्थानमिति । अन गुणपदस्याधिक्यात् । · अवैषम्यरूपा समता क्रमामेदः । यथा - 'उदेति सविता ताम्र' इत्यादी । माधुर्यमुक्तिवैचित्र्यम् । [१०४१ २] एकस्यैवार्थस्य भक्त्यन्तरेण कथनं तदेव नवीकृतत्वम् । यथा - यदि दहत्यनिost किमद्भुतं यदि च गौरवमद्रिषु किं ततः । लवणम सदैव महोदधेः प्रकृतिरेव सतामविषादिता || इत्यादौ स्वाभाविकत्यादिनाऽद्भुतम् । एवं 'किं तत एतयोरपि । अत्र स्वाभाविकत्वस्य भयन्तरेण कथनान्नवीकृतत्वम् । सुकुमारता अपारुष्यम् | अकाण्डे शोकादिदायिताभावः । यथा 'मृते यशः शेष' इति । यथा वा - सारसवचा विहता नवका विलसन्ति चरति नो कङ्कः । सरसीव कीर्त्तिशेषं मतदति भुवि विक्रमादित्ये ॥ तथा वस्तुखभावस्फुटत्वमर्थव्यक्तिः । वस्तुनः स्वभावस्य स्फुटत्वं वर्णनीयव्यक्तीकरणं यत्र रसाभिव्यक्तिकृतचारुत्वाय परं भवतीति शेषः । यथोदाहृते 'पारावतः परिभ्रम्ये त्यादौ । स्वभावोक्तिस्तु अलङ्कारकृतचारुत्वाय परं भवतीति ततोऽस्य भेदः । उदारत्वं वाच्यतावैदग्धी । यथा - 'कामकन्दर्पचाण्डालो मयि वामाक्षि ! निर्द्दय' इत्यादौ । पदार्थे वाक्यरचने वाक्यार्थे च पदाभिधा । प्रौढिस-समासौ च [ साभिप्रायस्वमस्य च ॥ ] ओजः । क्रमेणोदा ० 'चन्द्र' इत्येकपदार्थे 'अत्रिनयनसमुत्थं ज्योति' रिति । द्वितीयं व्यथा - 'कान्तार्थिनी तु या याति सङ्केतं साभिसारिका' इति बहुपदार्थेषु अभिसारिकापदा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाश खण्डन भिधाने । तथा एकवाक्यार्थस्यानेकवाक्येन प्रतिपादनं व्यासः, तथाऽनेकवाक्यार्थस्य एकेन प्रतिपादनं समासः । क्रमेणोदा • प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं दसं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम् । संतर्पिताः प्रणायनो विभवंस्ततः किं कल्पं स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम् ॥ अत्र तत्वज्ञानं विना सर्वम किञ्चित्करमित्येकवाक्यार्थोऽनेकवाक्येन प्रपञ्चितः । ते हिमालय मामन्त्र्य पुनः प्रेक्ष्य च शूलिनम् । सिद्धं चामै निवेद्यार्थे तद्विसृष्टाः खमुद्ययुः ॥ अत्र एकवाक्ये बहुवाक्यार्थनिबन्धात्मा समासः । अथ कान्तिः [१० ४२. १ ] दीप्तरसत्वरूपा । यत्र रसोद्दीपनैकहेतुत्वं चारुत्वेनालङ्कारादिसंमिनम् । यथा 'यः कौमारहर' इत्यादौ । तथा अर्थदृष्टिरूपः समाधिः । अर्धश्व द्विविधः । अयोनिः, अन्यच्छाया योनिश्च । क्रमेगोदा० - 'सद्यो मुण्डितम चहूणचिबुकस्पर्द्विष्णुनारङ्गक' मित्यत्र । एवं नारङ्गकवर्णनमन्येन [न] कृतमित्ययोनिः । द्वितीयो यथा - 1 निजनयन प्रतिबिम्बैरम्बुनि बहुशः प्रतारिका कापि । नीलोत्पलेsपि मृष्यति करमर्पयितुं कुसुमलावी ॥ अत्र वदनोत्पलयोः सादृश्यमन्येनापि वर्णितमित्यन्यच्छायायोनिः । इत्याखाददेतूनां गुणानामपलापः कर्तुमयोभ्यः प्रकाशकृतामिति नवीनाः । अथ रसधर्माणां माधुर्योजः प्रसादानां गुणानां व्यञ्जकान् वर्णान् आहमूर्ध्नि वर्गान्यगा व अटवर्गा रणौ लघू । - अवृत्तिर्मध्यवृत्तिर्वा माधुयें घटना तथा ॥ ( ० का ० ७४) टठडढवजः कादयो मान्ताः शिरसि निजनिजवर्गान्स्यवर्णयुक्ताः । यथा 'कुन्द' इत्यादि । तथा रणौ खान्तरितौ । इति वर्णाः । अवृत्तिः समासाभावो मध्यमः समासो देति । तथा माधुर्यवती पक्षान्तरयोगे (गेन ? ) रचना माधुर्यस्य व्यञ्जिका इति शेषः । पदान्तरयोग इति यथा 'अलङ्कुरु' इत्यत्र पदयोः सन्धौ मधुरवर्णोत्पत्तिः । यथा- 'अनङ्गरङ्गप्रतिमं तदमित्यादि । १ 'स्पोः' इति पाठः झु. पु. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम उल्लास योग आद्यतृतीयाभ्यामन्तरेण तृतीययोः । दादिशे(शोषौ वृत्तिदैर्घ्य गुम्फ उद्धत ओजसिौ ॥ (का० ७५) चवर्गप्रथम-द्वितीयाभ्यां द्वितीय-चतुर्थयोर्योगः । रेफेणाध उपरि उभयत्र वा यस्य कस्यवित्तुल्ययोस्तेन तस्यैव सम्बन्धः । टवर्गो णकारवजः, शकार-पकारी, दीर्घसमासः, विकटा घटना ओजसो व्यक्षिका इत्यर्थः । यथा 'मूर्धामुद्वृत्तकृचेत्यादि । प्रसादव्यञ्जकानाह - श्रुतिमात्रेण शब्दानी येनार्थप्रत्ययो भवेत् । साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणा स्मृतः॥ (म० का० ७६) समग्राणां रसानां समासानां घटनानां च । यथा परि [प० ४२. २ ] म्लानं पीनस्तनजघनसङ्गादुभयतः तनोर्मध्यस्थान्तःपरिमलनमप्राप्य हरितम् । इदं व्यस्तन्यस्तं श्लथ जलताक्षेपचलनः कृशायाः संतापं वदति नलिनीपत्रशयनम् ।। कृशाम्याः कृशशरीरायाः संतापं विरहवेदनां बिसिनीपत्रस्य कमलिनीदलस्य इदं शयनं शग्या वदति कथयति । कीदृशम् ? पीनयोसिलयोः स्तनयोः जघनस्य नितम्बस्य सनात् संसर्गात् उभयतो भागद्वये ऊ धोरूपे परिम्लानं उच्छुष्कम् । पुनः कीदृशम् ! तनोर्मध्यस्य उदरभागस्य परिमिलनं संसर्गमप्राप्य अन्तर्मध्ये हरितं हरिद्वर्णम् । श्लथा या भुजलता तस्याः क्षेपो बुद्धिपूर्वकचालनम् , चलनं चाबुद्धिपूर्विका क्रिया, तैव्यस्तन्यासं विघटितसंनिवेशमित्यर्थः । यद्यपि गुणपरतत्रा घटनादयस्तथापि वक्तवाच्यप्रवन्धानामौचित्येन कचित् कचित् । रचनावृत्तिवर्णानामन्यथात्वमपीष्यते ॥ (मू. का. ४) कचित् वाच्यमबन्धानपेक्षया वक्त्रौचित्यादेव रचनादयः । कचित् वक्तप्रबन्धानपेक्षया बाच्यौचित्याद रचनादयः । उदाहरणं खयमूहनीयम् । एवं कचित् वक्तवाच्यानपेक्षया प्रबन्धोचिता एव ते । तथा हि -- आख्यायिकायां शृङ्गारेऽपि न मसणवर्णादयः । कथायां रौद्रेऽपि नास्यन्तमुद्धताः । नाटकादौ रौद्रेऽपि न दीर्घसमासादयः । एवमन्यदौचित्यमनुसर्वव्यम् ।। ॥ इति पादशाहश्रीअकबरसूर्यसहस्रनामाध्यापक-श्रीशत्रुञ्जयतीर्थकरमोचनाद्यनेकसुकृतविधापकमहोपाध्याय-श्रीमानुचन्द्रगणिशिष्याटेत्तरशतावधामसाधनप्रमुदित पादशाहथीअकबर प्रदत्त-षु (ख)स्फहमापराभिधानमहोपाध्याय-श्रीसिद्धिचन्द्रगणिविरचिते काव्यप्रकाशम(ख)ण्डने गुणनिर्णयो नाम अष्टम उलासः ।। मु. पु. एषः श्लोक ईएक्पाठारमको लभ्यते - योग आद्यतृतीयाभ्यामन्त्ययो रेण तुल्ययोः । टादिः शषौ वृत्तिदैश्य गुम्फ उद्धत मोजसि ॥ ३ 'शम्दातु' इति म. मु. पाठा । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७d काव्यप्रकाशखण्डन नवम उल्लासः। मलद्वारे विवेचनीये लक्षणशब्दस्स प्रागुपादानात् तथैवाकासासत्त्वात् शब्दालकारानादावाह - यदुतमन्यथा [५० ४३. १] वाक्यमन्यथाऽन्येन योज्यते । शेषेण काका वा ज्ञेया सा वक्रोक्तिस्तथा द्विधा । (मू. का ७४) वक्त-श्रोतृनिर्वासोऽयमलकारः । अन्यथा अन्यप्रकारेण बक्तुरन्याभिप्रायकं वाक्यं श्रोत्राऽन्यथा समर्थितमित्यर्थः । अन्येनेति तेन खोक्तौ अन्यथाकरणे अपहृतौ नातिव्याधिः । रेग वक्तुरविवक्षितेन शब्दस्य शक्यान्तरेण । तथा काका । तथा च श्लेषवक्रोक्तिः, काकुवक्रोक्तिश्रेति निर्गलितार्थः । क्रमेणोदाहरणम् - अहो केनेशी बुद्धिारुणा तव निर्मिता । त्रिगुणा श्रूयते बुद्धिने तु दारुमयी कचित् ॥ अस्वार्थः -दारुणा हिंसा काष्ठेन च । त्रिगुणा सत्त्वरजस्तमोमयी । अत्र दारुणत्वपदस्य दारुमयत्वेनान्यथा योजनम् । गुरुजनपरतत्रतया दूरतरं देशमुद्यतो गन्तुम् । __ अलिकुलकोकिलललिते नैष्यति सखि ! सुरभिसमयेऽसौ ॥ गुरुपरततया गुर्वाधीनतया बत्त कष्टे दूरतरं बहुदिवसगम्यं देशं जनपदं गन्तुं यातुं उद्यतः कृतोद्योगः वसन्तसमये असौ नायको नैष्यति नायास्यति । कीदृशे ? अलिकुलं अमरसमूहः कोकिलः पिकः तेन ललिते सुन्दरे । सखीति सम्बोधनपदम् । नायिकया नैष्यतीति निषिद्धे, तत्सखी काका अन्यथयति-नैष्यति ? अपि तु एथ्यत्येवेत्यर्थः। वर्णसाम्यमनुप्रासः, (का० ७९, प्र० पा०) यमकेऽतिव्याप्तिवारणार्थमाह - खस्वैसादृश्येऽपि व्यञ्जनसाम्यमनुमासः । अत्र सरसाद न प्रयोजक कुलालकलत्रमित्यादिष्वपि दर्शनात् । यमके तु समानानुपूर्वी कत्वं प्रयोजकम् । छेकवृत्तिगतो द्विधा । (., द्वि० मा० ) छेका विदग्धाः । वृत्तिर्मधुररसादिव्यञ्जिका तत्वदानुपूर्वीरूपा । गतो ज्ञातः । आभ्यामुपाघिभ्यामित्यर्थः । छेकानुप्रासो वृत्त्यनुप्रासश्चेति द्विधा ज्ञेयः । किं तयोः खरूपमित्याह - सोऽनेकस्य सकृत्पूर्वः, (,, तृ० पा) अनेकस्य अर्थाद् व्यञ्जनस्य सकृदेकवार साम्यं छेकानुपासः । यथा - ततोऽरुणपरिस्पन्दमन्दीकृतवपुः (प० ४३, २) शशी । दः कामपरिक्षामकामिनीगण्डपाण्डताम् ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उल्हास ७१ ततस्तदनन्तरं शशी चन्द्रः कामेन कन्दर्पेण परिक्षामा कुशा या कामिनी तस्या यो गण्डो गात् परप्रदेशस्तद्वत् पाण्डुतां पाण्डरवर्णतां दधे धृतवान् । कीदृशः ! अरुणस्य सूर्यस्य परिस्पन्दनोदयेन मन्दीकृतं ग्लानतां नीतं वपुः शरीरं यस्य सः । मन्द-स्पन्दीत्यत्र काम-कामिनीत्यत्र नकार- दकारयोः ककार -मकारयोरप्यनेकस्य सकृत् साम्यम् । एकस्याप्यसकृत्परः || (का० ७९, ब० पा० ) अपिशब्दादनेकस्य व्यञ्जनस्य वा द्विर्बहुकृत्वो या सादश्यं वृत्त्यनुप्रासः । पृतिर्वि भजते । तत्र - सर्वत्र प्रागुदाहृतम् - 'अनङ्गरङ्गप्रतिम' मित्यादिना, 'सूर्मामुद्धृतकृत्ये 'त्यादिना, 'अपसारय बनसार' मित्यादिना च । शाब्दस्तु लाटानुप्रासो भेदे तात्पर्यमात्रतः । ( मू० का० ८१, उ० ) पूर्वं तुवर्णानुप्रासो दर्शितः, अयं तु शब्दानुप्रासः । शाब्दः शब्दगतोऽनुरासः । शुध्यते प्रकाश्यते अनेन । शाब्दश्य पदं प्रातिपदिकं च । लाटानुप्रासः पुनः शाब्दः शब्दगतो न वर्णगत इत्यर्थः । अतः छेकवृत्तिभ्यामस्य भेदः । +माधुर्यव्यञ्जकैर्वणैवैदर्भी रीतिरिष्यते । ओजःप्रकाशगडी पाञ्चाली तैस्तथा परैः ॥ (० का० ८० ) पदानां सः लाटानुप्रासः । प्रागुदाहृतम् 'यस्य न सविधे दयिते' त्यादि । पदस्यापि (का० ८२, प्र० पा० ) उदा० - वदनं वरवर्णिन्यास्तस्याः सत्यं सुधाकरः । सुधाकरः क नु पुनः कलङ्कविकलो भवेत् ॥ तस्या वरवर्णिन्या उत्तमाङ्गनायाः चंदनं मुखं सुधाकरश्चन्द्रः इति सत्यं यथार्थम् । पुनः सुधाकरः चन्द्रः कलङ्कविकलो लान्छन महिनः तस्या यदनं क भवेन भवेदित्यर्थः । वृत्तावन्यत्र तत्र वा । (, द्वि० पा० ) मान्नः स वृस्यवृत्त्योश्च, ( १० पा० ) एकस्मिन् समासे भिन्ने वा समासे समासासमासयोर्वा नाम्नः प्रातिपदिकस्य न तु पदस्य सारूप्यम् । प्रत्ययरहितस्यैव प्रातिपदिकत्वात् । यथा www + मुकेषु तु " माधुर्वव्य अकैचेणै रूपनागरि कोच्यते । - ओजःप्रकाशकैस्तैस्तु परुश कोमला परेः ।" पठः पठ्यते । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन सितकरकरुचिरविमा विभाकराकार धरणिधव कीर्तिः। पौरुपकमला कमला साऽपि तवैवास्ति नान्यस्य ।। हे विभाकराकार सूर्य -- (५० ४४,१) सदृश ! धरणेः पृथिव्या धव खामिन् ! तव कीति: अस्ति वर्तते । कीदृशी? सितफरश्चन्द्रस्तस्य करः किरणस्तद्वत् रुचिरा मनोहरा विभा कान्तिर्यस्याः । पौरुषकमला पौरुषलक्ष्मीः, कमला लक्ष्मीः साऽपि प्रसिद्धा तवैवास्ति नान्यस्य पुंस इत्यर्थः। तदेवं पञ्चधा मतः ॥ (का० ८२, १० मा०) साटानुप्रासः। अर्थ सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः। (का० ८३, ५.) यमकम्, अर्थभिन्नानामित्येकार्थभिन्नानामित्यर्थः । तेन लाटानुप्रासे न प्रसङ्गः । उभयोरेकस्य वा निरर्थकरवे संग्रहः । अत्र श्रुतिसाम्यं प्रयोजकम् । तेन वर्णभेदे श्रुत्येकत्वेऽपि यमकम् । यथा- 'समरसमरसोऽय'मित्यादेः, सेति सरोरस इत्यादिलक्षण्येन तेनैव क्रमेण स्थिततया । पादतद्भागवृत्ति तद्यात्यनेकताम् ॥ (फा० ८३, उ.) पादः चतुर्थाशः, तद्भागस्तदर्द्ध-तदादिरूपः । क्रमेणोदा० - यथा -- अचल एष बिभर्ति निरन्तरं मृदुलतामहतीरसभावनम् । वहति चात्र बने युवतीगणो मृदुलतामहतीरसभावनम् ॥ यथा यदानतोऽयदानतो नयात्ययं न यात्ययम् । शिवेहितां शिये हितां स्मरामितां स्मरामि ताम् ॥ तारतारतरैरेतरुत्तरोत्तरतो रुतैः। __रतार्चा तित्तिरी रौति तीरे तीरे तरौ तरौ ।। एवं अर्द्धावृत्ति-लोकावृत्तिमेदा द्रष्टव्याः । वाच्यभेदेन भिन्ना यद् युगपद्धाषणस्पृशः। श्लिष्यन्ति शब्दाः लषोऽसौ [अक्षरादिभिरष्टधा ॥1 (का. ८४) अर्थमेदेन शब्दभेद इति दर्शने काव्ये खरो न गण्यते,- इति च नये वाच्यमैदेन भिन्ना अपि यद् युगपदुञ्चारणेन श्लिष्यन्ति मिन्नं स्वरूपमपलुवते स श्लेषः । ननु अगृहीतभिन्नखरूपत्वं श्लेषणं दोषाद् भेदाग्रहे अयमलङ्कारस्तत्र को दोष इत्यत आह - युगपदिति । युगपद्भावणमेकोच्चारणमेव तस्य स्पर्शस्त द्विषयत्वम् , तथा च स एव दोष इत्यर्थः । तथा च शब्दानां मिथो भेदस्तत्रोच्चारणेन दोषेण न गृह्यत इति स श्लेषः । अर्धप्रतीत्य Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवम उल्लामा र नन्तरं गृथमाणस्तु मेवौ म किश्चित् कुरुत इति वाच्यमेद [प० ४४, २] इति । वैयाकरणस्विविधाः शब्दा भिद्यन्ते- रूपतः, खरतः, अर्थतश्चेत्युच्यते । वाच्यः शब्दोचारणानन्तरं मत्येयो न स्वभिधेयः । तेन श्वेतो धावतीत्यत्र नाव्याप्तिः । अन्यथा श्वेतगुणवत् कुकुरसमीपहे. शस्खयोरेकस्यापि वाच्यताविरहेण श्लेषो न स्यात् । गुणवति श्वेतशब्दस्य लाक्षणिकत्वात् अत्रामिधा, अनियन्त्रणेन व्यञ्जनावसरः । तस्मान्नानार्थेषु यत्र युगपत् प्रकरणादिकमवतरति तत्र श्लेषः, यत्र क्रमेण तत्रावृत्तिः, यत्रैऋत्रैव तत्र व्यञ्जनेति व्यवस्थितिः । यथा महत्या गदया युक्ता सत्यभामासमन्वितः । भवान् वा भगवान् वाऽपि गतो भेदः परस्परम् ॥ ___ अयं समाश्लेषः । अमन श्लेषो यथा योऽसकृत् परगोत्राणां पक्षच्छेदक्षणक्षमः । शतकोटिदतां बिभ्रद् विषुधेन्द्रः स राजते ॥ स विबुधेन्द्रः पण्डितश्रेष्ठः राजते शोभते । स कः! यः असकृद् वारंवार परगोत्राणां शत्रुसन्तानानां पक्षस्य बलस्य च्छेदे नाशे क्षणेनैव क्षमः समर्थः । छेदरूपे क्षणे उत्समे क्षमो योग्य इति कश्चित् । शतकोटीददातीति शतकोटिदस्तस्य भावस्तत्ता तो बिनद् धारयन् । पक्षे-स विबुधेन्द्रो देवश्रेष्ठः इन्द्रो राजते शोभते । यः परगोत्राणां परे शत्रयो ये गां पृथिवीं जायन्त इति गोत्राः पर्वतास्तेषां पक्षस्य च्छेदः कर्तनं तेन यः क्षण उत्सवः तत्र क्षमो योग्यः । शतकोटिना वजेण धति खण्डयतीति शतकोटिदस्तस्य भावः शतकोटिदता तां विनत् दधान इत्यर्थः । अत्र अभिधानियन्त्रणाभावात् द्वावप्यौँ वाच्यौ । अयं शब्दोषः । अन शब्दाः परिवृत्तिं न सहन्ते । यत्र तु शब्दाः परिवृत्तिं सहन्ते सोऽर्थ श्लेषः । यथा - तोकेनोप्रतिमायाति स्तोकेनायात्यधोगतिम् । __ अहो सुसदृशी वृत्तिः तुलाकोटेः खलख च ॥ . उन्नति प्रगति पक्षे आनन्दम् , अघोगति नम्रतां दुःखं च, अहो इत्याश्चर्ये । अत्र अल्पेनोबेकमायातीति पाठे भवति [५० ४५, १] श्लेषः । इत्यर्थ श्लेषोऽयम् । एवम् - 'सकलकलं पुरमेतआतं संप्रति सुधांशुविम्षमिव ।। • एतत्पुरं नगरं सकलकलं कलकलेन कोलाहलेन सहितं जातम् । किमिव ! सुधांशुविम्बमिव । तदपि कीदृशम् ! सकलाः समस्ताः कलाः चन्द्रकला यन तादृशं संपूर्णमित्यर्थः । इत्यादी श्लेषप्रतिभाहेतुरुपमा, न तु उपमाप्रतिभोत्पत्तिहेतुः श्लेषः । यतः श्लेषस्यैव साम्यनिर्वाहकता, न तु साम्यस्य श्लेषनिर्वाहकता । श्लेषबन्धतः प्राक् साम्यस्य अनुपस्थितेः । अत्र सकलकल एव साधारणो धर्मः । अथवा सकलकलल्वयोरे कशब्दवाच्यत्वेन साजात्यमित्यर्थः । एवम् - 'अबिन्दुसुन्दरी निलं गलल्लावण्यबिन्दुका ।' का०प्र० १० Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .७४ काव्यप्रकाशखण्डन . इत्यादौ श्लेषपतिभोत्पत्तिहेतुर्विरोधः, न तु विरोधप्रतिभोत्पत्तिहेतुः श्लेषः । श्लेषे हि अर्थद्वयस्य अन्वयवोपविषयत्वम् । इह त्वेकस्यैव, अन्यस्य तूपस्थितिमात्रम् । तथा 'सद्धशमुक्तामणिः' - सदशः समीचीनं कुलं स एव वंशो वेणुस्तत्र मुक्तामणिरित्यर्थः । 'नालापविश्वि सिरप श्लोको देव ! महान् भवान् ।' अनुरागवती सन्ध्या दिवसस्तत्पुरसरः। अहो दैवगतिश्चित्रा तथापि न समागमः ।। सन्ध्या प्रातःसन्ध्या अनुरागबती लौहित्यवती प्रेमवती च । दिवसो दिनं तस्याः सन्ध्यायाः पुरःसरोऽग्रेसरः संमुखब्ध । अहो आश्चर्ये । दैवगतिः विधातृरीतिः, चित्रविचित्रा, तथापि समागमः संयोगो नेत्यर्थः । इत्यादौ परम्परितरूपकस्य व्यतिरेकसमासोतिषु श्लेषस्य निर्वाहकता, न तु श्लेषे विश्रान्तिरिति । अत्र चित्रमेदानाह - तचित्रं यत्र वर्णानां पद्मा(खङ्गाद्याकारहेतुता ॥ (का० ४५, ३०) .. ननु वर्णानां कथं खन्नाद्याकारतेति चेत्, म । संनिवेशविशेषेण यत्र न्यस्ता वर्णाः पद्मखहाचाकारतामुल्लासयन्ति, लिखिताक्षराणां तथात्वात् , तेन सहाभेदोपचारेण | खङ्गादिगन्धानां वर्णाश्रयता यत्रालङ्कारे तत् । कष्टं काव्यमेतत् । यथा भासते प्रतिभा [१. ४५, २] सार रसाभाताहताविभा । भावितात्मा शुभा वादे देवाभा वत ते सभा ॥ . पद्मनन्धः । अस्यार्थः-हे प्रतिभासार! तव सभा भासते रसेनाभाता रसिकेत्यर्थः । हताऽविमा अदीतिर्यस्याः । भावितो वशीकृतः आत्मा यया सा । वादे शुभा । देवामा देवतुल्या । बत हर्षे । रसासार रसा सारसायताक्ष क्षतायसा । सातावात[त]वातासा रक्षतस्त्वस्त्वतक्षर ॥ सर्वतो भद्रः । अस्यार्थः- रसासारेति सम्बोधनम् । हे पृथ्वि[सार] 1 रक्षतखव रसाऽस्तु । सारसः पक्षिमेदः जलजमिति वा तद्वदीर्घनेत्र ! क्षतः अयः शुभावहो विधिर्यस तं स्वतीति रसाविशेषणम् । सातावात सातं नष्टं, अवात अज्ञानं यस्य | वा गतीत्यादिधात्वनुसारात् , ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः । तनूकरणं तक्षा तं राति प्रामोति तदितर ! तु पुनरथें । एवमन्येऽपि खजयन्धादयोऽनुसत्तव्याः। शब्दार्थोभयवृत्तित्वेन उभयोरलकारयोर्मध्ये पुनरुक्तवदाभासं लायति । पुनरुक्तवदाभासो विभिन्नाकारशब्दगा। एकार्थतेव, शब्दस्य. (का० ८६) मु. पृ. 'पनाचाकृति हेतुता' इति पाठः । . Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयम उल्लास .. विभिन्नरूपसार्थकानर्थकशब्दनिष्ठं पुनरुक्तस्येव पुनरुतवत् आमासो ज्ञानं एकार्थत्वेनापाततो मा[स] नं पुनरुक्तवदामासः । अर्थान्तरसमितेऽतिव्याप्तिवारणाय विभिनाकारेति. विजातीयानुपूर्वीक इत्यर्थः । तत्र च नानुपूर्वीभेदः । विभजते-स च 'शब्दस्य-' केवलं शब्दनिष्ठः । यथा चासत्यङ्गना रामा: कौतुकानन्दहेतवः। तस्य राज्ञः सुमनसो विबुधाः पार्श्ववर्तिनः॥ आग्नासु रमत इत्याना रामाः रिरहशून्याः । कौतुकेन विवाहसूत्रेण यः मानन्दः । विबुधाः पण्डिताः सुमनसः । अत्रानादिपदान्यखण्डान्येव । तथा शब्दार्थयोरयम् ॥ (का० ८६, ७० पा) यथा-तनुवपुरजयन्योऽसौ करिकुञ्जररुधिररक्तखरनवरः । तेजोधाम महापृथुमहसामिन्द्रो हरिर्जिष्णुः ॥ अस्मार्थः-तनुः शरीरं कृशश्च । अजघन्यः अप्रमेयबलः । करिणो गजाः प्रशस्तशुण्डाय । [१० ४६, १] रक्तं रुधिरं रक्को वर्णविशेषनिष्ठश्च । तेजो बलविशेषः परोस्कर्षाक्षमता च । धाम तेजः स्थानं च । महस्ते जो बलविशेषश्च । हरिरिन्द्रः सिंहश्च । जिष्णुः कपीन्द्रो जयनशीलश्च । तनुयपुः कृशशरीरः । करिणां प्रशस्तशुण्डानां कुञ्जरांणां रुधिरैः शोणितैः रक्ताः शोणाः खरास्तीक्ष्णा नखा यस्य । तेजसः परोत्कर्षांक्षमतायाः धाम स्थानम्, महो बलविशेषस्तेन पृथु प्रशस्तं मनो येषां तेषामिन्द्रः श्रेष्ठः । अत्रैकस्मिन् पदे तनुविरक्तेत्यादिरूपे परिवर्तिते नालङ्कार इति शब्दालङ्कारः । अपरस्मिन् वपुःकुञ्जरादिरुधिररूपे परिवर्तितेऽपि स न हीयत इत्यर्थनिष्ठः । इत्युभयालङ्कारोऽयं शब्दार्थयोर्मध्ये कथितः ॥ ॥ इति पादशाह-श्रीअकन्चरसूर्यसहसमामाध्यापक श्रीशत्रुञ्जयतीर्थकरमोचनाउनेकसुकृतविधापकमहोपाध्यायश्रीमानुचन्द्रमाणिशिष्याटोदरशतावधानसाधनमहोपाध्याय श्रीसिदिचन्द्र गणिविरचित काव्यप्रकाशखण्डने नम्रम उल्लासः ॥ दशम उल्लासः। अथार्यालङ्कारानाह - चारुत्वोत्कर्षात् प्रथमं उपमां लक्षयति । .... साधर्म्यमुपमा भेदे, (का० ८५, प्र. पा०) समानौ धौं ययोः अर्थादुपमानोपमेययोः, तौ सधर्माणी, तयोर्भावः साधर्म्यम् । समानधर्मनिरूपितः सम्बन्धः । स एव उपमा समासोत्तरभाववाचिपत्ययस्य संबन्धाभिधायकत्वात् । यद्वा समानर्बहुभिर्धर्मः संबन्धः साधर्म्यम् । वस्तुतस्तु तद्भिन्नले सति तद्गतभ्योधर्मवत्वमुपमेति निर्गलितार्थः । भेदग्रहणमनन्वयव्यवच्छेदाय । पूर्णा लुप्ता च, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन . उपमानोपमेयसाधारणधर्मोपमामतिपादकानामुपादाने पूर्णा । एफस्स द्वयोसवाणा वा अनुपादाने लुप्ता। सानिमा। श्रोत्यार्थी व भवेद वाक्ये समासे तद्धिते तथा ॥ (का००७) यथेविवादिशब्दा यस्परास्तस्यैव श्रुत्यैव उपमानतामतीतिरिति । यथे[व]वादिशब्दसत्वे श्रौती तथैव तत्र तस्येवे'त्यनेन इवाथै [ प० ४६, २] विहितस्य बतेरुपादाने । सहशमुख्यादिशब्दप्रयोगे 'सरसिजमिदमाननं च तस्याः सममित्यादौ प्रकृताप्रकृतपर्यालोचनयैव उपमानो. पमेयपतीतिरित्यार्थी, 'तद्वत्तेन च तुल्य'मित्यादिना विहितस्य यतेः स्थिती । 'इवेन निस्पसमासो विभत्त्यलोप' इति नित्यसमासे इवशब्दप्रयोगे समासगा । समासानुशासनप्रयोजनममिरिव राजा इत्यादौ । अत्रेदमवघातव्यम् - चन्द्र इव मुखमिल्पत्र अजातीयधर्माश्रयश्चन्द्रः तजातीयधर्माश्रयो मुखमित्युपमेयविशेष्यकैव प्रतीतिः, न तु चन्द्रनिष्ठसजातीयधर्माश्रयो मुखमिति प्रकृति विशेष्यफ एव प्रत्ययः । तथा सति हंसीव धवलश्चन्द्र इत्यादौ प्रतीतिमान्थर्यविरहेण दोषो न स्यात् । हंसीनिष्ठधवलत्वसजातीयधवलवत्तया चन्द्रप्रतीतावनुभव. सिद्ध मान्थय न स्यात् । उभयविशेष्यकस्वे तु पुंस्त्वान्वितधवलपदस्य हंस्यामनन्वयेन चन्द्रमात्रान्वये विवक्षितप्रतीत्यनुपपत्तिर्दोषसंभव एवेति । चन्द्र व मुखं आझादकं इत्पत्र आहादकस्वस उभयगामित्वेऽपि नपुंसकस्य मुखपदस्स लिजमग नपुंसकानपुंसकयोरित्यनुशासनात् इति । क्रमेणोदाहरणानि - .. उत्थाय हदि लीयन्ते दरिद्राणां मनोरथाः । बालवैधव्यदग्धानां कुलस्त्रीणां यथा कुचाः॥ चकितहरिणलोललोचनायाः कुधि नितरामरुणाभिरामशोभा । सरसिजमिदमाननं च तस्याः सममिति चेतसि संमदं विधते ॥ तस्मा नायिकाया इदमाननं मुखं सरसिजं कमलं च समं तुल्यमिति कृत्वा चेतसि मनसि संमदमानन्दं विधत्ते करोति । तस्याः कीदृश्याः चकितश्चञ्चलो यो हरिणो मृगस्तद्वलोले बञ्चले लोचने यस्याः । आननं कीदृशम् ! क्रुषि क्रोधकाले तरुणः कठोरो योऽरुणः सूर्यस्तद्वत्तारा उद्भटा हारिणी मनोहारिणी कान्तिदीप्तिर्यस्य [प० ४७. १] तत् । इयं च समशब्दयोगादार्थी घागर्थाविव संपत्तौ वागर्थप्रतियत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्वती-परमेश्वरौ । · माधन्त-मध्यरहित दशाहीनं पुरातनम् | अद्वितीयमहं वन्दे मखसशं हरिम् ।। गाम्भीर्यगरिमा तस्य सत्यं गङ्गाभुजङ्गवत् । [ दुरालोकः स समरे निदाघाम्बरलवत् ।।] मु.पु. 'धि तरुणारुणतारहारकारित' इति पाठो लभ्यते । अत्र च व्याख्याऽपि तथैव पाठग्नु सारिणी एवाश्यते। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उल्लास तद्धिते पूर्णा श्रौतीमुदाहरति । तस्य राज्ञो गाम्भीर्यस्य गरिमा गुरुत्वं गड़ाया मुजङ्गः कामुकः समुद्रस्तद्वत् तस्येव । अत्र 'तत्र तस्यैवे'त्यनेनेवार्थे यतेविधानाच्छौतीत्वमालोकनीयम् । एवं क्यचि क्यङि णमुलि च भवत्युपमा ! क्रमेणादाहरणानि पौर सुतीयति जन समरान्तरेऽसावन्तः पुरीयति विचित्रचरित्रचक्षुः । नारीयते समरसीम्नि कृपाणपाणावालोक्य तस्य ललितानि सपलसेना ।। असौ राजा पोरं लोकं सुतीयति सुतमिवाचरति । उपमानाशवाचार इति कर्मणि क्यच् । संग्राममध्ये अन्तःपुर इवाचरति । अधिकरणाचेति क्यच् । तस्य चरितानि निरीक्ष्य शत्रुसेना संग्रामसीमनि नारीयते नारीवाचरति । कर्तुः क्यइ सलोपश्चेति क्या । गमुलि मेदद्वयं दर्शयति-मधेति मृधे निदाघधर्माशुदर्श पश्यन्ति तं परे । स पुनः पार्थसञ्चारं सश्चरत्यवनीपतिः ॥ मृधे संग्रामे परे शत्रवस्त्र राजानं निदाघधमाशुदर्श निदाघकालीनसूर्यमिव पश्यन्ति । स पुमरक्नीपतिः राजा दीर्घसञ्चारं पार्थ इव सञ्चरति । अत्र 'कषादिषु यथाविध्यनुप्रयोगः । अथ लुप्ता, तत्रेवादेलोपे यथा ततः कुमुदनाथेन कामिनीगण्डपाण्डुना। नेत्रानन्देन चन्द्रेण माहेन्द्री दिगलतता ॥ . द्विपदसमासे तावदुदाहरति । ततस्तदनन्तरं चन्द्रेण माहेन्द्री पूर्वी [५० ४५.२] दिक अलता शोभिता । कीरशेन ? कुमुदानां नाथेन प्रकाशकेन कामिनीगण्डवत् पाण्डुना पाण्डवणेन नेत्रानन्देन नयनसुखजनकेनेत्यर्थः । अत्र गण्डपाण्डुनेति द्वयोरेव पदयोः समासः । तथा धर्मवाद्योयोलोंपे यथा सविता विधयति विधुरपि सवित्तरति [तथा] दिनन्ति यामिन्यः । यामिनयन्ति दिनानि च सुखदुःखवशीकृते मनसि ॥ सुखमनुकूलवेदनीयम्, दुःखं प्रतिकूलवेदनीयम् । ताभ्यां व्याप्ते चिते सति, सविता सूर्यो विश्वति विधुरिवाचरति । विधुश्चन्द्रः सवितरति सवितेबाचरति । यामिन्यो रात्रयो दिनन्ति दिनानीवाचरन्ति । दिनान्यपि दिवसान्यपि यामिनयन्ति यामिन्य इषाचरन्तीत्यर्थः । विधुरिवाचरतीत्याचारेऽर्थे किए तल्लोपश्च । आचारार्थककिपो लोपात् धर्मानुपादानम् । एतयोलोंपे - समासेऽपि, यथा-राजते राजकुञ्जरः- राजा कुञ्जर इव । त्रयाणां वादिधर्मोपमानानो लोपे भवत्युपमा । यथा- मृगनयना मानसं हरतीत्यादौ । 'सप्तन्युपमानेत्यादिना यदा समासलोपौ। अनयेनेव राजश्रीदैन्येनेव मनस्विता । मम्लो साञ्च(थ)विषादेन पमिनीव हिमाम्भसा ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन एकस्यैव बहूपमानोपादाने मालोपमा । तथा यथोचरमपमानस्लोपमेयस्वे रस(श)नोपमा बोध्या । शृङ्खलान्यायेन पश्चाद् वलनया । यथा - मतिरिव मूत्तिर्मधुरा मूर्तिरिव सभा प्रभावचिता । तस्य समेव जयश्रीः शक्या जेतुं नृपस्य न परेपाम् ।। एवमन्यदपि बोध्यम् । उपमानोपमेयत्वे एकस्यैवैकवाक्यगे । अनन्वयः. उपमानत्वं उपमेयत्वं चेत्यर्थः । उपमेयोपमावारणाय एकवाक्यग इति । उपमानान्तरसम्बन्धः अन्वयस्तदभावोऽनन्वयः । अतोऽत्र उपमानान्तरव्यवच्छेदेन चमत्कार इति उपमातोऽस्य भैदः । यथा रामरावणयोयुद्ध रामरावणयोरिख । विपर्यास उपमेयोपमा ५० ४८.१]तयोः ॥ ( का० ९१, उ० ) तयोः उपमानोपमेययोः । विपर्यासः परिवृत्तिः अर्थात् वाक्यद्वये । उपमेयेन उपमा उपमेयोपमा । यथा कमलेव मतिर्मतिरिव कमला, तनुरिव विभा विमेव तनुः। धरणीव धृति तिरिव धरणी सततं विभाति बत यस्य ॥ यस्य मतिर्बुद्धिः कमलेव लक्ष्मीरिव । कमला लक्ष्मीर्मतिरिव बुद्धिरिव । विभा कान्तिः तनुरिव शरीरमिर । तनुः शरीरं विभेव कान्तिरिव । धृतिधय धरणीव पृथ्वीव । घरणी पृथ्वी धृतिरिव धैर्यमिव सततं निरन्तरं विभाति शोभत इत्यर्थः । तद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः। (का० ९३, ५.) अथवा उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमिष्यते । यथा - अथ लक्ष्मणानुगतकान्तवपुर्जलधिं व्यतीत्य स दाशरथिः। परिवारितः परित ऋक्षमणस्तिमिरौघराक्षसबलं बिभेदे ।। माला तु पूर्ववत् । (का० १४, च० पा.) . मालोपमायामिव एकस्मिन् बहब आरोपिताः, तदा मालारूपकम् । यथा रूपामृतस्य वापिकाऽपि जयश्रीरनङ्गस । विभ्रमरसैकसंपद् जयति जनानन्दकन्दली बाला ।। संभावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् । (का. ९२, पृ.) समेन उपमानेन । समेनेत्यनन्तरम् , ऐक्यरूपेणेति शेषः । तथा च समेन उपमानेनैक्यरूपेण संभावनमुक्षेत्यर्थः । संभावनं उत्कटकोटिकः संदेहः । अयं चन्द्र एव भविष्यतीत्याकारः। यथा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उल्लास . अजसमास्फालितवल्लकीगुणक्षतोवलाङ्गुष्ठनखांशुभिन्नया । पुरः प्रबालैरिव पूरितार्द्धया विभान्तमच्छस्फटिकाक्षमालया ॥ ससंदेहस्तु भेदोक्तौ तदनुक्तौ तु संशयः ॥ (का० ९२, उ०) ...मकृतस्य समेनेत्यनुवर्चते । तु भिन्नक्रमे । तदिति लिङ्गव्यत्ययात् संशय इत्यनेनान्वाते । तथा च-समेन प्रकृतस्य संशयस्तु यः ससंदेहनामालङ्कारः । अत्रोपमानोपमेययोरतिशयार्थ विप्रतिपत्तयः प्रादुर्भवन्ति ससंदेह अलङ्कारः, न तु स्थाणुपुरुषयोः भेदोक्तौ । यथा गतं तिरचीनमनूरुसारथेः [५० ४८, २] प्रसिद्धमूलज्वलनं हविर्भुजः । पतत्यधो धाम विसारि सर्वतः किमेतदित्याकुलमीक्षितं जनः ।। तदनुक्तौ यथा अस्याः सर्गविधौ प्रजापतिरभृश्चन्द्रो नु कान्तिप्रदः ___ शृङ्गारैकरसः स्वयं नु मदनो मासो नु पुष्पाकरः । वेदाभ्यासजडः कथं नु विषयव्यावृत्तकौतूहलो निर्मातुं प्रभवेन्मनोहरमिदं रूपं पुराणो मुनिः ॥ मत्र वेदाभ्यसनेन सर्गानभिज्ञत्वमुक्तम् । विषयव्यावृत्तेत्यनेन शृङ्गाररसाकौशलत्वमुक्तम् । मनोहरमित्यनेन कान्तिदानाशक्तिरुक्ता । पुराणमित्यनेन निर्माणेऽनिच्छोक्का । यतो 'वृद्धस्स तरुणी विषमित्युक्तम् । नियतारोपणोपायः स्यादारोपः परस्य यः।। तत्परंपरितं श्लिष्टे वाचके भेदभाजि वा ॥ (का० ९५) यथा विद्वन्मानसहंस वैरिकमलासंकोचदीप्तयुते दुर्गामार्गणनीललोहित समित्वीकारवैश्वानर । सत्यप्रीतिविधानदक्ष विजयप्राग्भावभीम प्रभो. साम्राज्यं वरवीर वास(वत्सरशतं वैरिञ्चमुच्चैः क्रियाः ।। विदुषां पण्डितानां मानसमन्तःकरणमेव मानसं सरो विशेषस्तत्र हंस ! वैरिणां शत्रुणां कमलाया लक्ष्म्याः संकोच एव कमलानां पद्मानामसंकोचो विकासस्तत्र दीप्तधुते सूर्य !, दुर्गाणां कोट्टलक्षणानां अमार्गणं अनन्वेषणमेव दुर्गाया भवान्या मानवत्या पार्गणं अन्वेषणं वत्र नीललोहित शिवखरूप !, समिता संग्रामाणां स्वीकारोऽङ्गीकार एव समिधां हवनीयाना खीकारतत्र वैश्वानर अमे! सत्ये यथार्थे प्रीतिः प्रेमैव सत्यां सतीनामिकायां कन्यायां या अप्रीतिद्वेषस्तस्या विधानं आचरणं तत्र दक्ष दक्षनामकप्रजापते !, विजयः परपराभव एवं विजयोऽर्जुनः तस्मात्प्राम्भावः प्रागुत्पत्तिस्तत्र भीम भीमसेन ! प्रभो समर्थ ! वरवीर उत्कृष्टवीर ! , 'भाषकाध्ये पमिदम्' इति टि०। २ 'केवलवेदी भयेद् घृष इत्युक्तरिति भाषः । इति टि। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन बैरिश्चं ब्रमसम्बन्धि वत्सरशतं व्याप्य साम्राज्यं उच्चैरत्यर्थ क्रियाः विदध्यादित्यर्थः । मानसमेव मानस सरः, कमलायाः लक्ष्म्याः संकोच एव कमलानामसंकोचः, दुर्गाणाममार्गणं [प. ४९.] एव दुर्गाणां मार्गणम् , समिता स्वीकार एवं समिधां खीकारः, सत्ये प्रीतिरेव सत्यामप्रीतिः, विजय एव पराभव एव विजयोऽर्जुन: - एवमारोपणनिमित्तो हंसादरारोपः । अपि शब्दालकार र समापि प्रशिहिलाबोहा। मेदभाजि यथा___ आलान जयकरिणा प्रतापतपनस्य पूर्वादिः । । सेतुर्विपत्तिजलधेर्धरणिभुजस्ते भुजो जयति ॥ हे राजन् ! ते तव भुजो बाहुः जयति । कीदृशः ? जयः परपराभव एव करी इस्ती, तस्सालानं बन्धनस्तम्भः । विपद्वारिधेः विपत्तिसमुद्रस्य दृषदा पाषाणानां सेतुः । प्रतापसूर्यस्य पूर्वाद्रिरुदयगिरिः । कीदृशस्य ते ? धरणी भुनक्तीति धरणीमुक् तस्य । अत्र जयादेमिन्नशब्दवाच्यस्य करित्वाद्यारोपे भुजस्यालानताबारोपो युज्यते । मालाऽपि पूर्ववद् बोध्या। प्रकृतं यनिषिध्यान्यत् साध्यते सात्वपहुतिः। (वा. ९६, पू.) निषिध्य उपमेयमसत्यं कृत्वा । यथा -- स्फुटनीलोत्पलपटलं सुधामयूखे सुधासरसि । मन्यामहे नितम्बिनि ! नैप कलङ्कः परिस्फुरति ।। एवं भगवन्तरैरप्यूह्या । घोतयित्वा कमप्यर्थ गोपनीयं कथञ्चन । ___ यदि श्लेषेणान्यथा वान्यथयेत् सा त्वपङ्गुतिः ॥ यथा कालेऽस्मिन् जलदानामिति प्रागुक्तम् । श्लेषः स वाक्ये एकस्मिन् यत्रानेकार्थता भवेत्॥ (का. ९६, उ०) यत्र शक्यभेदेन शब्दभेदः, तत्र शब्दश्लेषः । यथादर्शिते नानार्थे शिष्टे च । यत्रैकार्थः [ शक्यो ] अपरोऽथों निरूढलक्षणथा प्राप्यते तत्रार्थ श्लेषः । यथा - उदयमयते दिङ्मालिन्य निराकुरुतेतरां नयति नलिनी(निधन) निद्रामुद्रां प्रवर्तयति क्रिया (यां)। रचयतितरां खेराचारप्रवर्सनकर्तनं बत वत लसत्तेजःपुञ्जो विभाति विभाकरः ॥ विभाकरः सूर्यः राज्याभिषेककाले पुरोहितादिभिः तत्तुल्यत्वेन प्रतापरुद्रादिवत् संकेलितो नृपविशेषश्च । उदयं पूर्वाचलं संपदं च । दिशो मालिन्यं अन्धकारः दिश्याना जनानां कुवेकर वा । निद्रा मनःसंमीलनं निरुत्साहता [५० ४९. २ ] च । क्रियां गमनादिका सदाचार च । खैराचारोऽभिसारादि वेदानुलक्ष्य खेच्छाचरणं च । तेजसा रश्मीनां पुनः, मनागपि खावमाननाक्षमता च । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाम उल्लास परोक्तिर्भेदकैः समासोक्तिः, (०७, पू० ) मेदकैः विशेषणैः द्वैिः प्रकृताप्रकृतसाधारणैः । प्रकृतार्थप्रतिपादकेन वाक्येन लिटानां प्रकृतसाधारणानां भेदकानां विशेषणानां माहात्म्यात्, न तु विशेषसामर्थ्यादपि यदप्रकृतस्वाभिधानं व्यञ्जनं सा समासेन संक्षेपेण अर्धद्वयस्य कथनात् समासोक्तिः । यथा - लहिऊण [तु] ह(झ) बाहुकंसं जीये स कोचि उल्लासो । जयलच्छी तुह विरहे न उज्जला दुब्बला ननु सा || अत्र तयद्विशेषणसामर्थ्यात् जयलक्ष्मी व्यवहारे कान्ताव्ययहारस्य आरोप्यमाणस्प चमत्कारितेति । इयमेवान्यैरेकदेशवर्तिरूपकमिति भण्यते । निदर्शना । अभववस्तुसम्बन्धः उपमापरिकल्पकः ॥ (का० ९७, उ०) उपमानोपमेयभावे पर्यवसित इत्यर्थः । तस्य वाक्य पदार्थभेदात् द्वैविध्यम् । तत्राद्यमुदाइरति - 'क्व सूर्यप्रभव' इत्यादिना । अत्रास्पविषयया मन्मत्या सूर्यवंशवर्णनं न स्यादित्येको वाक्यार्थः। अपरस्तु उडुपेन सागरतरणम् । न चोपमानोपमेयभावं विना अनयोः सम्बन्धः संभवतीति उपमायां पर्यवसानम् । द्वितीयो यथा - अस्या मुखस्य लीलां वहति शरद शर्वरीनाथः । छात्र- कथमन्यस्य लीलां अन्यो वहतीत्युपमाय पर्यवसानम् । पूर्ववन्मालाऽपि बोध्या । अप्रस्तुतप्रशंसा या [ सा ] सैव प्रस्तुताश्रया ॥ (का० ९८, ३० ) अप्रस्तुतस्य अप्रकृतस्य प्रशंसा वर्णना । अप्राकरणिकार्थाभिधानेन प्राकरणिकार्थस्यापो ऽप्रस्तुतप्रशंसा । अस्या बहुविषयत्वेऽपि तुझ्ये प्रस्तुते तुल्यान्तरस्याभिधाने अतीव चमत्कार इति तदेवाहियते यथा - — अवितततमोऽन्धकूपगर्भादिदमुदधारि करेण येन विश्वम् । चरमगिरिगभीरगह्वरान्तः पतति स एष न [ १०५०१] कचिदीक्षतेऽपि ॥ अत्र अप्रस्तुतस्य तथाविधस्य रवेरमिधानेन प्रकृताने कोपकारस्य कस्यचिन्महापुरुषस्य दुर्दशायां केनापि किश्चिनोपकृतमित्याक्षिप्यते । एवमन्यत्रापि बोध्यम् । निगीर्याध्यवसानं तु प्रकृतस्य परेण यत् । प्रस्तुतस्य यदन्यत्वं यद्यर्थोक्तौ च कल्पनम् ॥ (का० १०० ) कार्यकारणयोर्यश्च पौर्वापर्यविपर्ययः । विज्ञेयातिशयोक्तिः सा. (का० १०१ ) 'अस्याः सामान्यलक्षणम् - अतिशय प्रतिपत्तये अन्यस्य अन्यतादात्म्यको फिरूपं निगरणं प्रकृतनिष्ठासाधारणधर्मस्य अविनयीका (क) रणम् । तच्च चन्द्र इत्यत्र चन्द्र एवायं इत्यत्र च का० प्र० ११ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन संभवति । प्रकृतं निगीर्य असाधारणधर्मेण अनुक्त्वा तेन रूपकाद् व्यवच्छेदः । अध्यवसा[नं] खसादास्म्येनाध्यवसायः । यथा-- लतामूले लीनो हरिणपरिहीनो हिमकर: स्वयं हाराकारा गलति जलधारा कुवलयात् । धुनीते बन्धूर्फ तिलकुसुमजन्माऽपि पवनो गृहद्वारे पुण्यं परिणमति कस्यापि कृतिनः ।। यश्च तदेवान्यस्वेनाध्यवसीयते सा अपरा । अन्यदेव हि लावण्यमन्यवास्थाः स्तनधुतिः । सन्मन्ये रचना नेपा सामान्यस्य प्रजापतेः॥ यद्यर्थस यदि शब्देन चेच्छब्दे वा यत् कल्पनं अर्थादसंभाविनोऽर्थप सा तृतीया । यथा उभौ यदि योनि पृथक् प्रवाहावाकाशगङ्गापयसः पतेताम् । तेनोपमीयेत तमालनीलमामुक्तमुक्तालतमस्य वक्षः ॥ कारणस्य शीघ्रकारिता वक्तुं कार्यस्य पूर्वोक्तौ समानकालोक्तौ च चतुर्थी | यथा हृदयमधिष्ठितमादी मालव्याः कुसुमचापबाणेन । चरमं रमणीवल्लभलोचनविषयं स्वया नीता ॥ मालच्या मालवीनाग्न्याः नायिकायाः हृदयं कुसुमबाणेन कामेनादौ प्रथमतः अपिष्ठितमाश्रितम् । हे रमणीवल्लम | त्वया चरमं पश्चादधिष्ठितम् । त्वया कीडशेन : लोचनविषय नेत्रपात्रता भजता गच्छतेत्यर्थः । अत्र राजदर्शनेन हृदये मदनवेदनेति [ ५० ५०,२] तयोःपरीस्थवर्णनमिति । समानकालोक्तौ यथा - 'सममेव समाकान्तं द्वयं द्विरदगामिना' - इत्यादी। प्रतिवस्तूपमा तु सा । (का. १०१, व.पा.) सामान्यस्य द्विरेकस्य यन्त्र वाक्यद्वये स्थितिः॥ (का० १०२, पू.) सामान्यस्य साधारणधर्मस्य वाक्यद्वये उपमानवाक्ये उपमेयवाक्ये च । यथा देवीभावं गमिता परिवारपदं कथं भजत्येषा। न खलु परिभोगयोग्यं दैवतरूपावित रसम् ॥ एषा देवीभावं कृताभिषेकस्खीत्वं प्रापिता परिजनपदवाच्यतां कथं भजति ! नेत्यर्थः । खल्ल निश्चितं दैवतरूपेण देवतामूर्त्या अङ्कितं चिहितं रनं न परिभोगयोम्यं हस्ताबलारणयोम्यमित्यर्थः । अत्र कथमित्यनेन न खलु इत्यनेन च अनौचित्यं प्रत्याय्यते इत्येकौव अनौचित्यरूपसामान्यस्य द्विरुपादानम् । 'यदि दहत्यनिल' इत्यत्र मालारूपा चैषा योध्या । म.ए. सर्वत्र 'माळत्या' - 'मालती' शम्दो लभ्यते। । 'भजतेस्यपि पाठः' इति दि.। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाम बल्लास दृष्टान्तः पुनरेतेषां [सर्वेषां ]प्रतिविम्बनम् ॥ ( का० १.१, २०) एतेषां साधारणधर्मादीनां प्रतिबिम्बनं विशिष्टोपमा । यथा 'दन्धिगन्धगजकुम्म' इति । दृष्टो निन्धयो यत्र स हटान्तः । गृहीतप्रामाण्यकः । यत्र दृष्टान्तवाक्येन दान्तिकबाल्यार्थनिश्चयस्य प्रामाण्यग्रहो भवतीत्यर्थः । यथा - त्वयि दृष्ट एव तस्या निवृत्ति(निर्वाति) मनो मनोभवज्वलितम् । आलोके हि हिमांशोर्षिकसति कुमुदं कुमुद्वत्याः ॥ सकृदूधृत्तिस्तु धर्मस्य प्रकृतामकृतात्मनाम । सैव क्रियासु यहीषु कारकस्येति दीपकम् ॥ (का. १०३) धर्मस्य सकृवृत्तिरुपादानं सैव सकृदृत्तिहीषु क्रियासु सतीवित्यर्थः । क्रियाखित्यादिशब्दात् गुणपरिग्रहः । धर्मस्य क्रियादिरूपस्य एकस्य सद्दीपनाद् दीपकम् । यथा - किविणाण धणं नाआण फणमणी केसरा, सीहाणं । कुलबालिआण थणआ कुत्तो छिप्पंति अमुआणं ॥ अत्र स्पृशन्ति इति क्रिया सकृदुपाचा । एवं बहीषु क्रियासु एकस कारकस्योपादानं बोध्यम् । मालादीपकमा, चेद् यथोत्तरगुणावहम् । (का० १४, पृ०) पूर्वेण पूर्वेण वस्तुना उत्त [प० ५१,१] रोत्तरमुपक्रियते तन्मालादीपकम् । यथा - संग्रामाङ्गणसंगतेने भवता चापे समारोपिते संप्राप्से परिपन्थियोधनिवहे सांमुख्यमासादितम् । कोदण्डेन शराः शरैररिशिरस्तेनापि भूमण्डलं तेन त्वं भवंता च कीर्तिरतुला की च लोकत्रयम् ॥ अन निःसपनमूलोकत्रयव्यापिकीर्तिलाभानृपोत्कर्षः प्रतीयते । तत्र पूर्वे यथायोग उत्तरोत्तरोपकारकाः नियतानां प्राकरणिकानामेव अप्राकरणिकानामेव वा वृत्तिरित्यनुवर्तते । मर्थवशाद् विभक्तिविपरिणामः वर्चते, उपादीयते सकृद् धर्म इत्यर्थः । यथा पाण्डु क्षामं वदनं हृदयं सरसं तवालसं च वपुः। आवेदयति नितान्त क्षेत्रियरोग सखि ! हृदन्तः ।। अत्र विरहानुभावत्वेन प्रकृतानां पाण्डतादीनां सकृदुपात्तानां वेदनक्रियायामन्वयः । क्षेनियरोगो यावद् देहभावी देहान्तरचिकित्सः । एवमप्रकृतानामपि । उपमानाचवन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः। (काल १०५, १०) अन्यस्य उपमेयस्य व्यतिरेका आधिक्यम् । यथामु.पु. "मागतेन' इति पाठः। मु. पु. अयं पाप इहपाठारमको लभ्यते 'देवाकर्णय ग्रेन येन सहसा यद्यत् समासादितम् ।' Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन . इयं सुनयना दासी कृततामरसश्रिया । ... आननेनाकलनेन जयन्तीन्दुं कलङ्किनम् ।। इयं नायिका सुनयना शोभन नेत्रा अकलकेन निर्दूषणेन आननेन मुखेन कसरिने कलायुक्तं इन्दं चन्द्रं जयति । आननेन कीदृशेन ! दासीकृता तामरसस पास श्री. शोभा येनेत्यर्थः । आक्षेप उपमानस्य प्रतीपमुपमान( मेय)ता । तस्यैष यदि वा कल्पा(ल्प्या) तिरस्कारनिवन्धनम् ॥ (का. १३३) इत्युभयरूपस्य प्रतीपस्यात्र व्यतिरेक एवान्तर्भावः । यथा -- लावण्यौकसि राजनि राजत्यसिन् किमिन्दुविम्बेन । द्वितीयं यथा - शृणु सखि ! तब वचनीयं तव वदनेनोपमीयते चन्द्रः। . अनोपमेयस्य न्यूनतायामपि व्यतिरेकमिच्छन्ति । यथा - ... इनूमताधैर्यशसा मया पुनर्दिषां हसैः दूत्यपथा सितीकृतः। तथा मयाप्तं रामत्वं कुशलवसुता न त्वधिगता । इत्यादिषु । निषेधो वतुमिष्टस्य यो [प० ५१,२] विशेषाभिधित्सया । (का. १०६, उ.) वक्ष्यमाणोक्तविषयः स आक्षेपो विधा मतः । (का० १.५, ५०) वमिष्टस्य निषेध इति सामान्यलक्षणम् । वक्ष्यमाणेत्यादिविशेषद्वयं वक्तुमिष्ठस विवक्षितस्य अवश्यवक्तव्यत्वं अतिप्रसिद्धत्वं वा । वक्तुं निषेधो निषेध इव यः स यथाक्रम वक्ष्यमाणविषयः उक्तविषयकेति द्विविध माझेपा । यथा - अएँ एहि[कि पि] तीया(कीए)वि कये णिकिन भणामि अलमह वा । अविआरिअकारंभआरिणी मरउ ण भणिसं ॥ [भये एहि किमपि कस्था अपि कृते निकृप भणामि [भलमय वा]। अविचारितकार्यारम्मकारिणी म्रियता न पुनर्भणियामि ॥] न भणिष्यामीति पौनरुत्त्यं खेदातिशयपोषकम् । अत्रोद्देश्यनायिकादुरवस्थानिवेदनस्य वक्ष्यमाणाया वा मरणावस्थाया अभिधानस अलमित्यादिनिषेषो अशक्यवक्तव्यस्वमस्सा ध्यञ्जयति । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उल्लास ज्योस्लाचन्दनमाला हालाहलतां परिप्राप्ताः। संप्रति सुदृशो हन्ताऽनेन किमुक्तेन न ब्रूमः ॥ न म इति निषेधो निरहे शीतलानामपि दुरुत्सहत्त्वस्य अतिप्रसिद्धस्वं व्यनक्ति । क्रियाया प्रतिषेधेऽपि फलष्यक्तिर्विभावना ॥ (का. १०७, ७०) किया कारकन्यापारः प्रसिद्धसामग्रीनिषेधेऽपि तत्कार्यरूपफलस्साभिव्यक्तिर्विभावना । अप्रसिद्ध कारणमाक्षिपतीति न विरोधः । वैयाकरणाः क्रियाया एव हेतुतां मन्यन्ते । तथा च हेतुरूपक्रियाप्रतिषेथेऽपि तत्फलप्रकाशन विभावना । वस्तुतस्तु कारणप्रतिषेधेऽपि कार्यवधनं विमावनेत्यन्ये । यथा - कुसुमितलसानिरहतामय रामलिलदशापि । परिवर्तते स्म नलिनी लहरीभिरनालोडिताऽप्यघूर्णत सा ॥ सा नलिनी कुसुमितलताभिरहताऽपि रुजं म्लानिं अधत्त । अलिकुलैरदष्टापि परिवर्चते स संकुचिता । लहरीभिरनालोडिताऽपि अधूर्णत बनामेत्यर्थः । अत्र लताहननादिकं हेतुस्तएमावेऽपि पीडादिधारणं कार्यमुक्तमिति प्रकृतोदाहरणता । • विशेषोक्तिरखण्डेषु [५० ५२,१] कारणेषु फलावचः। (का• १०८, पू०) फलावचः कार्यानभिधानम् । अत्राप्यप्रसिद्ध कारणं सिद्ध्यतीति न विरोधः । यथा___निशात्ययव्यञ्ज(जि?)नि पङ्कजानामामोदमेदखिनि गन्धवाहे । न मुञ्चते कैतवबद्धनिद्रावन्योऽन्यकण्ठग्रहणं युवानी ।। यथासङ्घ क्रमेणैव ऋमिकाणां समन्वयः ॥ (का० १०८, उ०) यथासयमिति यथासरूयनामालङ्कार इत्यर्थः । क्रमेण पूर्वस्य पूर्वेण मध्यमस्य मध्यमेन अन्त्यस्य अन्त्येनेत्यर्थः । यथा एकत्रिधा वससि चेतसि चित्रमेतत् देव द्विषां च विदुषां च मृगीदृशां च । तापं च संमदरसं च रतिं च पुष्यन् शौर्योष्मणा च विनयेन च लीलया च ।। देव द्विषां चेतसि शौर्योमणा तापं पुष्णन् , विदुषां चेतसि विनयेन संमदरसं पुष्णन् , मृगीदृशां चेतसि लीलया रति पुष्णन् एको विष्णुस्त्रिधा चेतसि वससीत्यर्थः । सामान्य या विशेषो वा योन्येन समर्थ्यते । शेयः सोऽर्थान्तरन्यासः साधय॑णेतरेण वा ॥ (का० १.९) अनुपपद्यमानतया संभाव्यमानस्वार्थस्य उपपादनाथ यदर्थान्तरस्य न्यसनं उपपादकत्वेन न्यासः स अर्थान्तरन्यासः । तत्र सामान्यस्य विशेषो विशेषस्य सामान्यं समर्थकमिति द्वौ; तत्रापि साधर्म्य-वैधाभ्यां भेदद्वयमिति चत्वारो भेदाः । साधम्र्येण तत्रापि सामान्यविशेषेण । यथा-- .....पु. सदस्येम' इति पाठः । २ मु.पु. 'यसु' इति । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ එදී काव्यप्रकाशखण्डन निजदोषावृतमनसामतिसुन्दरमेव भाति विपरीतम् । पश्यति पितोपहतः शशिशुभ्रं शङ्खमपि पीतम् ॥ तेषां विशेषात् सामान्येन यथा- 'सुसितवसना [ लंकारा ] या 'मित्यादि । वैधर्म्येणाद्यो यथा - गुणानामेव दौरात्म्याद धुरि धुर्यो नियोज्यते । असंजातकिणस्कन्धः सुखं स्वपिति गौर्गलिः ॥ गलिः पतनशीलः । एवमन्येऽप्युदाहार्याः । विरोधः सोऽविरोधेऽपि विरुद्धत्वेन यद्वचः । (का० ११०, ५० ) वस्तुवृत्तेन अविरोधेऽपि विरुद्वयोरिव यदभिधानं स विशेषः । यथा अभिनव नलिनी किशलयमृणालवलयादि दवदहनराशिः । सुभग कुरङ्गडशोऽस्या विधिवशतस्त्वद्वियोग १० ५२.२ ] पविपाते ।। हे सुभग ! विधिवशतो देवात् त्वद्वियोग एव भवद्विरद्द एव यः पविर्वज्रं तख पाते पलने सति अस्याः कुरनदृशो मृगनेत्रायाः अभिनवा या नलिनी पद्मिनी किसख्यं नवदलं मृणालस्य बिसस्य वलयं बाहरुकरणं एतदादि सर्व दवदहनराशिः दावानलखरूपं भवति । अत्रापाततो नलिनीदलस्वजातिदवदनत्वे जात्योर्विरोधप्रतिभासेऽपि संतापकारित्वलक्षणसाधर्म्य पुरस्कारेण रूपकालङ्कारप्रती तावाभासत्वम् । अस्य बहवो विषयाः स्वयं लक्ष्यतोऽनुसBI | कार्यकारणभूतयोर्धर्मयोर्भिन्नदेशतया आभासनरूपः असंगतिरूपोऽलङ्कारो विरोष एवान्तर्भूतः । यथा - जस्से वणो तस्सेअ वेअणा भगइ तत्रणो अलिअं । दंतक्खअं कवोले बहुए वेअणा सवत्तीयं ॥ [यस्यैव स्तस्यैव वेदना भणति तज्जनोऽलीकम् । दक्ष कपोले वध्वा वेदना सपक्षीनाम् ॥ ] तथा सत्यपि कार्यस्य कारणरूपानुकारे यत् तयोर्गुणक्रिये च मिथो विरुद्धतां व्रजतः स विषमालङ्कारोऽप्यत्रैव विरोधेऽन्तर्भूतः । सद्यः करस्पर्शमवाप्य चित्रं रणे रणे यस्य कृपाणलेखा । तमालनीला शरदिन्दुपाण्डुयशस्त्रिलोकाभरणं प्रसूते ॥ तमालनीलाऽपि क्रूपाणलेखा रणे रणे यस्थ करस्पर्शमवाप्य सद्यः शरदिन्दुशुखं यशः प्रसूते एतच्चित्रम् | नीलया शुभ्रजननात् । कीदृशम् ? त्रयाणां लोकानां समाहारस्त्रिलोकी तस्याभूषणं सर्वलोकानामेकमा भरणमिति द्वितीयं चित्रम् । हस्तस्पर्शमात्रेण सद्यः प्रसब इति तृतीयम् । स्त्री हि पुंपाणिग्रहणानन्तरं कालान्तरे प्रसूते, रणे हिंसैव योग्या न तु प्रसव इति चतुर्थम् | स्त्री तु कचिदेव रतिरणे प्रसूते, इयं सर्वेष्वेव रणेष्विति पश्चमम् | कृपाणले ! Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशम उल्लास खायाः प्रसब इति षष्ठम् । कृपागधारा छिनप्ति न तु प्रसूते, तथा स्थूलोदरा हि प्रसूते न तु लेखाकारा । किं बहुना ? प्रतिपदमत्र पचे [१०५३,१ ]चित्रमुपसंहर्तुं शक्यम् । अत्र पाण्डुनीलयोः कार्यकारणगुणयोर्वेषग्यम् । तथायद्यथा साधितं केनाप्यपरेण दिन्या ) तथैव यदु विधीयेत स व्याघात [इति स्मृतः।] इति लक्षितस्य व्याघातस्य विरोध एवान्तर्भावः । उदा० दृशा दग्धं मनसिजं जीवयन्ति दशैव याः। विरूपाक्षस जयिनीताः स्तुवे वामलोचनाः ॥ खभावोक्तिर्डि(क्सिस्तु डिभादेः स्वक्रियारूपवर्णनम् ॥ (का० १११, उ.) रूपशब्देन वर्णः अवययसनिवेशश्च उभयं ग्राह्यम् । तथा च यादृशः खाभाविकधर्माभिधाने चमत्कारः ताइश एवालङ्कारः । यथा - अम्बाकरावलम्बादविलम्बाहुःखितस्खलचरणम् । कणितमणिमञ्जलरसं (रसनं १) मुकुलितदशनं हरि चन्दे ॥ व्याजस्तुतिर्मुखे निन्दास्तुतिर्वा रूढिरन्यथा । (का० ११२, ५०) मुखे प्रथमतः रूढिः, पर्यवसाने व्याजेन स्तुति-जरूपा स्तुतिर्वा । यथा - दातारं कृपणं मन्ये मृतोऽप्यर्थ न मुञ्चति । अदाता पुरुषस्त्यागी सर्व संत्यज्य गच्छति ॥ सा सहोक्तिः सहार्थस्य बलादेकं द्विवाचकम् ॥ (का० ११२, २०) सहाथैत्यनेन समं सार्द्धमित्पादेः परिग्रहः । एकमपि एकमतियोगिकान्वयबोधकमपीत्यर्थः । द्विवाचकं द्विपतियोगिकान्वयबोधकम् । अयं भावः-विशेषणपदानां विशेष्यान्वितखार्थबोधकस्यौत्सर्गिकत्वं प्रकृते च सहाथव्ययपदसमभित्र्याहारविशेषसमभिव्याहारेण अपरार्थप्रतीतिप्रतियोगिकान्वयप्रतिपादनमित्युभयप्रतियोगिकस्वार्थान्वयबोधकमिति । यत्रैकत्र प्राधान्येनान्यस्य गुणत्वेन एकधर्मान्वयित्वं तत्र यमकालकार इति पर्यवसितोऽर्थः । तेन चैत्र-मैत्री सह पचत इत्यादौ नातिप्रसङ्गः । समुच्चये द्वयोः प्राधान्येनान्वयः । अत्र खेकस । यथा सार्क दिवसनिशाभिः श्वासा दीर्घा भवन्त्यद्य । अयि तनुलतया सुतनोर्जीवाशा दुर्लभा जाता ।। विनोक्तिः सा विनान्येन यत्रान्यः सन्न चे(ने)तरः। (का. ११३, पू.) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाश खण्डेन अन्येन विना अन्यः सन्न भवति असन् वा न भवतीत्यर्थः । [ १० ५३,२ ] कचिदशोभनः कचित् शोभनः । यथा - विना रजन्या कश्चन्द्रो विना चन्द्रेण का निशा । द्वितीयों यथा - 'अनयं विनेव राज्यश्रीः साध्वी योषिच चापलम् ॥ परिवृत्तिर्विनिमयो योऽर्थानां स्यात् परस्परम् ॥ (का० १११, उ० ) परिवृत्तिरलङ्कारः थथा लास्यं कमलवनानां दन्या दत्ते च सौरमं पवनः । तान्यपि मुदं जनेभ्यो ददति ततो लब्धदर्शनान्युचैः ॥ प्रत्यक्षा इव यद्भावाः क्रियन्ते भूतभाविनः । (का० ११४, १० ) तद्भाविकम्. उदाहरणम् - आसीदञ्जनमत्रेति पश्यामि तव लोचने । भाविभूषणसंभारां साक्षात् कुर्वे तवाकृतिम् ॥ काव्यलिङ्गं हेतोर्वाक्यपदार्थता ॥ (० ११४, ७० अनिर्भिन्नगमीरत्वादन्तर्गृढधनव्यथः । पुटपाकप्रतीकाशी रामस्य करुणो रसः ॥ अत्र पुत्रर्द्धवाक्यार्थः पुटपाकप्रतीकाशे हेतुः । पदार्थता यथातं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसयक्तिहेतवः । अत्र सदसद्यक्तिहेतुत्वं श्रवणाईत्वे हेतुः । पर्यायोक्तं विना वाच्यं वाचकत्वेन यद्वचः । (का० ११५, ५० ), वाच्यतावच्छेदकं विना प्रकारान्तरेण वाच्यस्य अर्थस्य व्यञ्जनया यदभिधानं प्रतिपादनं तत्पर्यायेण भङ्गयन्तरेण कथनात् पर्यायोक्तम् । यथा - यं प्रेक्ष्य चिररुद्धाऽपि निवासग्रीतिरुज्झिता । मदेनैरावणमुखे मानेन हृदये हरेः ॥ यं कृष्णं प्रेक्ष्य ऐरावणमुखे मदेन निवासमीतिरुज्झिता । इरेरिन्द्रस्य हृदये मानेनाइडारेण निवासप्रीतिस्त्यता । चिरकालं व्याप्य रूढोऽपि उपचिताऽपि । अत्रैरावणशकों मद-मानविमुक्तौ जातौ इति व्यङ्ग्यमपि शब्देन प्रकारान्तरेणोच्यते, तेन यदेवोच्यते तदेव व्ययमिति । यथा तु व्ययं तथा नोच्यते । १ मु.पु. 'परस्पर' स्थाने 'समासमः' इति पाठो खभ्यते । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उल्लास उदात्तं वस्तुनः संपत्. (का० ११५, तृ० पा० ) संपत् समृद्धियोगः । यथा मुक्ताः केलिविसूत्रहारगलिताः संमार्जनीभिर्हताः, प्रातः प्राङ्गणसीनि मन्थरचलबालानिलाक्षारुणाः। दुराद दाडिमवीजशङ्कितधियः कर्षन्ति केलीशुकाः, यद् विद्वद्भवनेषु भोजनृपतेस्तत् त्यागलीलायितम् ।। कालेभिर्विसूत्रा ये हारा [ प०५४,1 स्तभ्यो गालेता या मुक्ता मुक्ताफलानि ताः प्रातःकाले मार्जनीभिर्दृतास्तथाऽजन(ण)देशे मन्थरं मन्दं चलन्तो ये बालानां कामिनीनां अंड्यस्तेषां लाक्षया अरुणाः ताः क(कि)माभूताः दूरात् दृष्ट्वा दाडिमवीजमिति शङ्कितबुद्धयः क्रीडाकीराः विद्वद्भयनेषु यत् कर्षन्ति तद् भोजनृपतेस्त्यागलीलायाश्चेष्टितम् । मत्र विद्वद्भवनस्य मुक्तादिधनसमृद्धियोगः । महतां चोपलक्षणम् ॥ (का० ११५, च० पा.) उपलक्षणमङ्गभावः, अर्थादुपलक्षणीयेऽर्थे । तदिदमरण्यं यस्मिन् दशरथवचनानुपालनव्यसनी । निवसन् बाहुसहायश्चकार रक्षाक्षयं रामः॥ न चात्र बीरो रसस्तस्येहानत्वात् । तत्सिद्धिहेताकस्मिन् यत्रान्यत् तत्करं भवेत् । समुघयोऽसौ. (का० ११६,) यथा एवमेव विषमो नवमेघः सोऽपि वर्षतितरामभिरामम् । तत्र चेदविरलं प्लवशब्दाः पूर्णमेव सुतनोः शतमन्दाः ॥ अत्र शतपूर्णतायां नवमेघः करणं तदुपरि वर्षणायुक्तं काव्यलिङ्गे हेतु-हेतुमद्भावमात्र विवक्षितं न पुनः हेतूनां गुणप्रधानचिन्ता । अत्र तु एकस्यैव तत्कार्यकारित्वं अन्ये तत्साहायकं कुर्वन्ति इति ततोऽस्याः भेदः । स त्वन्यो युगपद् या गुणक्रियाः॥ (का० ११६, २०) गुणौ [च ] क्रिये च इति गुणक्रियाः । नयनं तव रक्तं च मलिनाश्च रणेऽरयः । धुनोति चासिं सहसा तनुपे च महद्यशः ॥ एवं गुणक्रिययोरपि बोध्यम् । . एक क्रमेणानेकस्मिन् पर्याया. (का० ११७, पू० ) एक वस्तु क्रगेणानेकसिन् यदभिधीयते स पर्यायः । उदा० - का ५० १२ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन नन्याश्रयस्थितिरियं तव कालकूट केनोत्तरोत्तरविशिष्टपदोपदिष्टा । प्रागणवस्य हृदये वृपलक्ष्मणोऽथ कण्ठेऽधुना वससि वाचि पुन: खलानाम् ॥ हे कालकूट ! इयमाश्रयस्थितिस्तव केनोपदिष्टा कथिता । कीदृशी ? उत्तरोत्तर विशिष्टमुत्कृष्ट पदं स्थानं यस्यां सा । तथा पाक प्रथमतोऽर्णवस्य समुद्रस्य हृदये, अथानन्तरं वृषलक्ष्मणो महादेवस्य कण्ठे, अधुनेदानी स्खलानां दुष्टानां वाचि मुखे वससीत्यर्थः । [प० ५४,२] अन्यस्ततोन्यथा । (का० ११७, पू० ) अनेकमेकस्मिनुच्यते सोऽन्यः । मधुरिमरुचिरं वचः खलानां अमृतमहो प्रथम पृथु व्यनक्ति । अथ कथयति मोहहेतुरन्तर्गतमिव हालहलं विषं तदेव ॥ अनुमानं तदुक्तं यत् साध्य-साधनयोर्वचः ॥ (का. ११७, उ० ) बोध्य-बोधकयोरित्यर्थः । यथा यत्रता लहरीचलाचलदृशो व्यापारयन्ति ध्रुवं __यत् तत्रैव पतन्ति संततममी मर्मस्पृशो मार्गणाः । तचक्रीकृतचापमञ्चितशरप्रेसत्करः क्रोधनो धावत्यग्रत एव शासनधरः सत्यं सदाऽऽसां स्मरः ।। यद यस्मात् यन्वैता लहरीचपलदृष्टयो वामलोचना भुवं ब्यापारयन्ति तत्रैवामी मर्मभिदः कामयाणाः सततं धारया पतन्ति । तत् तस्मात् मण्डलीकृतधनुर्यथा भवति तथा पूरितवाणः प्रसार्यमाणबाहुः क्रोधयुक्तः शासनधारकः सन् , आसां सदा स्मरः कामः अमत एवं धावतीत्यन्वयः । अत्र पूर्वार्द्ध साधनस्य, उत्तरार्द्ध साध्यस्य वचनम् । अत्र वस्तुगत्या व्याप्त्यसत्वेऽपि कविप्रौढोक्तौ च तथाभिधानमित्यलङ्कारत्वम् । अन्यथा वहिमान् धूमादित्यत्रापि तथा स्यात् । विशेषणैर्यत् साकूतैरुक्तिः परिकरस्तु सः। (का. ११८, पृ.) अर्थाद् विशेष्यस्य । यथा - महौजसो मानधना धनार्शिता धनुर्भूतः संयति लब्धकीर्तयः। न संहतास्तस्य न भेदवृत्तयः प्रियाणि वाञ्छत्यमुभिः समीहितम् ॥ भारवेः पद्यम् । अत्र महौजस्त्वादिविशेषणानि परानभिभवनीयत्वाधभिप्रायकाणि । व्याजोक्ति छद्मनोद्भिन्नवस्तुरूपनिगृहनम् ॥ ( का० ११८, २०) निगूढमपि वस्तुनो रूपं स्वरूपप्रतिपन्नं केनापि व्यपदेशेन पदपट्टयते सा व्याजोक्तिः । न चैषाऽपहतिः, प्रकृताप्रकृतयोः साम्यस्थेागावात् । यथा - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशभ उल्लास शैलेन्द्रप्रतिपाद्यमानगिरिजाहस्तोपगूढोल्लसद्रोमाञ्चादिविसंस्थूलाखिलविधिव्यासङ्गभङ्गाकुलः 1 हा शैत्यं तुहिनाचलस्य करयोरित्युचिवान् सस्मितं शैलान्तःपुर [५०५५१] मातृमण्डलगणैर्टष्टोऽवता वः शिवः ॥ वो युष्मान् शिवः भव्याद् रक्षतु । कीदृश: ? शैलेन्द्रेण हिमाचलेन प्रतिपाद्यमाना दीयमाना या गिरिजा पार्वती तस्या हस्तोपगूहेन हस्तस्पर्शेन उल्लसद् व्यक्ती भवद् यद् रोमाचा दि रोमाञ्चकं यः खरभङ्गादिः तेन बिसंस्थुलो विसदृशः योऽखिलः समस्तो विधिविधानं तेन यो व्यासङ्गस्तस्य भङ्गे भङ्गार्थमाकुलो व्याकुलः, सस्मितं यथा स्यादेवं तुहिनाचलस्य हिमगिरेः, हा शैत्यमित्युचिवान् कथितवान् । अन्तःपुरे हिमाचलस्यान्तःपुरे यो मातृमण्डलानां गणः समूहस्तेईष्टोऽयलोकित इत्यर्थः । अत्र पार्वतीस्नेहस्य प्रच्छन्नतथाऽनुवर्तमानस्य करस्पर्शजन्यरोमावादिनोद्भिद्यमानस्य हिमालयकरस्पर्शजन्यत्वं प्रतिपादयता पुनर्निगूहनाद व्याजोक्तिरित्यर्थः । शिष्टा कल्पिते । ताहगन्यव्यपोहाय परिसंख्या तु सा स्मृता ॥ (का० ११९ ) प्रमाणान्तरावगतमपि वस्तुशब्देन प्रतिपादितं प्रयोजनान्तराभावात् सदृश वस्त्वन्तरव्यवच्छेदाय भवति पर्यवस्यति सा परिसंख्या । अत्र कथनं प्रश्नपूर्वकं तदन्यथा च । यथा - किं ध्येयं विष्णुपदं किं वक्तव्यं हरेर्नाम । किं कार्यमार्यचरितैरभिलपितं पूजनं विष्णोः ॥ अमनपूर्वकं यथा कौटिल्यं कचनिचये करचरणाधरदलेषु रागस्ते । काठिन्यं कुचयुगले तरलत्वं नयनयोर्वसति ॥ यथोत्तरं चेत् पूर्वस्य पूर्वस्यार्थस्य हेतुना । तदा कारणमाला स्यात्. (का० १२० ) उत्तरं उत्तरं प्रति यथोत्तरम् । यथा - जितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते । गुणप्रकर्षेण जनोऽनुरज्यते जनानुरागप्रभवा हि संपदः ॥ अथ हेतोरभेदतः उक्तिर्हेतुमती हेतुः । यथा - ९१ अविरलकमल विकासः सकलालिमद ( द ) कोकिलानन्दः । रम्योऽयमेति सुन्दरि ! लोकोत्कण्ठाकरः कालः ॥ १ मु. पु. 'संमति' इति पश्यते । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन __ संप्रति इदानीं कालः समयो रम्यः शोभनः अभ्यु । १०५५,२ पैति आगच्छति । कीदृशः ! अविरलं निरन्तरं कमलानां विकासः प्रफुल्लता यत्र सः । सकलानां समस्तानामलीनां भ्रमराणां मदो यत्र सः । कोकिलानामानन्दो यन्त्र सः । लोकानां जनानामुत्कण्ठा औरसुक्यं तस्करस्तस्कर्ता इत्यर्थः । उत्तरः श्रुतिमात्रतः। का. १२१, द्वित पा० ) यथा गम्यतामन्यतः पान्थ ! तवेह वसतिः कुतः । दोपाय स्वादलं पान्थ ! वसतिर्योषिदालये ॥ भो गृहिणि ! वासं देहीति वसतियाचकस्य कस्यचिद् वचनममुना वाक्येनोन्नीयते । असंभाव्यं लोकातिकान्तिगोचरं प्रतिवचनम् , यथा - का विप(स)मा दिवगई किं दुल्लभ जणो गुणग्गाही । किं सोक्त्रं सुकलत्तं किं दुक्खं जं खलो लोओ ॥ प्रश्नपरिसंख्यायामन्यन्यपोह एव तात्पर्यम् । इह तु वाच्य एव विश्रान्तिरित्यनयो दः । कुतोऽप्यलक्षितः सूक्ष्मोऽप्यर्थोऽन्यस्मै प्रकाश(श्यते ॥ (फा० १२२, २०) धर्मेण केनचिद् यत्र तत्सूक्ष्मं प्रविचक्षते।। (का. १२३, पू.) कुतोऽपि आकारादिनिताद्धा ! सूक्ष्मः तीक्ष्णमतिवेद्यः । यथा -- वक्रस्पन्दिखेदविन्दुप्रवन्धदृष्ट्वा भिभं कुङ्कुमं कामि(पि) कण्ठे । पुंस्त्वं तन्व्या व्यञ्जयन्ती वयस्था मित्या पाणौ खड्लेखां लिलेख ॥ ___ कापि वयस्या सखी तन्व्याः नायिकायाः पुंस्त्वं पौरुषं व्यञ्जयन्ती तस्याः पाणौ हस्ते खड्गलेखां खाकृति लिलेख । किं कृत्वा ? कण्टे कण्ठखले भिलं च्युतं कुङ्कुमं दृष्ट्वा । कैः । यत्राद् मुखात् स्पन्दिभिः खेदबिन्दूनां प्रबन्धैः समूहै रित्यर्थः । अत्राकतिमालोक्य कयापि वितर्किते पुरुषायिते असिलेखालेखनेन वैदग्ध्यादभिव्यक्तिमुपनीते पुंसामेव कृपाणपाणितायोम्यत्वात् । उत्तरोत्तरमुत्कर्षों भवेत् सारः परावधिः॥ (का० १२३ उ०) परः पर्यन्तभागः अबधिरुत्कर्षसीमा यत्र धाराविरोहिततया तत्रैव विश्रान्तेः । यथा - भोजनभूषणमबलाकरकमलावर्तितं दुग्धम् । तदलङ्कारः कदलं तदलङ्कारः शर्करासारः ॥ समाधिः सुकर कर्म कारणान्तरयोगतः । ( का० १२५, पू० ) सुकर सुकरत्वेन विवक्षितमित्यर्थः । [प०५६,१] यथा - मु. पु. 'कुतोऽपि कक्षितः' इति पाठो लभ्यते । ५ 'परिचक्षसे' इति मु.पु.। ३ मु. पु. 'कार्य' इति पारः । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उल्लास मानमस्या निराकर्तुं पादयोमें पतिष्यतः । उपकाराय दिष्ट्येदमुदीणे धनगर्जितम् ।। समं समतया योगो यदि संभावितः क्वचित् ॥ (का. १२५, उ०) , भयमनयोयोगः उचितः इत्यध्यवसानं चेत् तदा समनामालकारः । इदं सद्योगे असद्योगे [च] । क्रमेणोदाहरणानि त्वमेव सौन्दर्येत्यादि । द्वितीयं यथा सुमहद्विचित्रमेतत् समुचितरचने विधिश्चतुरः। आस्वाद्यं निम्बफलं तस्य यदावादकः काकः ॥ ["चित्रं चित्रं बत बत महच्चित्रमेतद्विचित्रम्' इत्यादि ।] पुनः पुनरुक्तिः संभ्रमातिशयाची पातन्महशिन सर्वोकृषं पारमेश्वर चित्रकर्म संसाराख्यं विचित्रं वर्तते । यथायोग्यमत्र सम्बधो दुर्लभः । प्रायेण सामग्र्यविधौ गुणानां पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्तिः । 'सर्व रत्नमुपद्रवेण सहितम् ।' 'देहिनां सदृशा योगा दुर्लभा जगतीतले ।' इत्याधुक्तत्वादित्यर्थः । एवं सति विधाता क्वचिद् दैवादुचितरचना संविधाता जाता। इदं चित्रम्, चित्रमत्यद्भुतमित्यर्थः । बत बत महान् संतोषः । वतामन्त्रणसंतोषखेदानुकोशविस्मये । यत् निम्बाना पिचुमन्दानां आखादनीया परिणतफलामा स्फीतिः । यचैतस्याः कवलनं मासः तस्य कला शिक्षा तत्र कोविदः कुशलः काकलोको विधात्रा सृष्टः इत्यर्थः । कचिद् यदतिवैधान्न योगो घटनामियात् । कर्तुः क्रियाफलं नैवानर्थश्च विषयो द्विधा ॥ (का० १२६) द्वयोरत्यन्तविलक्षणतया यदनुपपद्यमानतयैव योगः प्रतीयते । यच्च किञ्चिदारभमाणः का क्रियायाः प्रणाशात् न केवलमभीष्टं तत्फलं लभते यावदप्रार्थितमनर्थमासादयति । स द्विरूपो विषमः । करेणोदा... शिरीपादपि मृदङ्गी केयमायतलोचना । अये(य) क्व च कुकूलाग्निकर्कशो मदनानि(न)लः ॥ सिंहिकासुतसंत्रस्तः शशः शीतांशुमाश्रितः । जनसे साश्रयं तत्र तमन्यः सिंहिकासुतः ॥ इयं शिरीषपुष्पादपि कोमलाही दीर्घनेत्रा क कुत्र ! अयं च मदनानल; कामामिः [१०५६,२] क ? कीदृशः ? कुकूलामिः करीषामिः तद्वत्कशस्तीक्ष्ण इत्यर्थः । द्वितीयमुदा+ मु. पु. एकरपञ्चमीरपाठाम लभ्यते धचिन् यदतिधैधान श्लेषो घटनामियात् । कर्तुः क्रियाफलावासि वानर्थश्च यद् भवेत् ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन हरति - सिंहिकासुतः सिंहः तस्मात् संत्रस्तो भीतः शशः शीतांशुं चन्द्रं आश्रितः, तं शशं अन्यः सिंहिकासुतो राहुः साश्रयं सचन्द्रं जनसे भक्षितवानित्यर्थः । अत्र त्राणरूपफलाभावे अन्येन प्रासरूपोऽनर्थः। महतोर्यन्महीयांसावाश्रिताश्रययोः क्रमात् । आश्रयायिणी स्यातां तनुत्वेऽप्यधिकं तु तत् ॥ (फा० १२८) आश्रिताश्रययोर्महतोरपि विषये तदपेक्षया तनू अपि आश्रयायिणौ प्रस्तुतवस्तुप्रकर्षविवक्षया । यथाक्रमं यावधिकतां बजतः । तदेतद् द्विविधमधिकम् । क्रमेणोदा० - अहो विशालं भूपाल ! भुवनत्रितयोदरम् । माति मातुमशक्योऽपि यशोराशिर्यदत्र ते ॥ युगान्तकालप्रतिसंहतात्मने जगन्ति यस्यां सविकासमासत । तनौ ममुस्तत्र न कैटभद्विपस्तपोधनाभ्यागमसंभवा मुदः॥ तत्र प्रथमं उदाहरति - हे भूपाल ! भुवनत्रितयस्य उदरं मध्ये अहो आश्चर्ये विशालं विस्तीर्ण यद् यस्मात् अत्र मातुं अशक्योऽपि ते तव यशोराशिर्माति परिमातीत्यर्थः । अत्र यशोराशेर्षस्तुमः काचित्कत्वेन भुवनयापेक्षया तनुत्वेऽपि तदुत्कर्षविवक्षया तन्मानमेव भुवनत्रयविशालत्वे हेतुः । द्वितीयमुदाहरति - कैटभद्विषो विष्णोर्यस्यां तनौ शरीरे जगन्ति चतुर्दशभुवनानि सवि. कार्स सावकाशं आसत स्थितानि तत्र तनौ नारदस्तस्याभ्यागमेनागमनेन संभवा उत्पन्ना मुदः पीतयः न ममुः अधिका बभूधुरित्यर्थः । यत्र तपोधनागमनप्रभवमुदोऽन्यशरीरवृत्तिस्वेनाधिक्यात् कैटभारिशरीरस्य तनुत्वेऽपि मुदः प्रकर्षविवक्षया तच्छरीरमानमेव हेतुतयोपात्तम् । अत्रान्यो विशेषो गुरुनाना मत्कृतवृहट्टीकातो द्रष्टव्यः । प्रतिपक्षमशक्तेन प्रतिकतुं सिरस्क्रिया। __ या तदीयस्य तत् स्तुत्यै प्रत्यनीकं तदुच्यते ॥ (का. ११५) प्रतिपक्षं [प० ५७.१ ] तिरस्कर्तुमित्यन्वयः । ततस्तुत्यै प्रतिपक्षस्तुत्यै । यथा - त्वं विनिर्जितमनोभवरूपः सा च सुन्दरि ! भवत्यनुरक्ता । पञ्चभिर्युगपदेव शरैस्तां ताडयत्यनुशयादिव कामः ॥ अनुशयादिव क्रोधादित्यर्थः । विधीयते यद् बलवत्सजातीयोपलम्भनैः । तिरस्करणमन्यस्य सन्मीलितमिति स्मृतम्। ॥ (? का० १३० ) मुद्रितपुस्तकेषु तु एषः श्लोको निन्नरूपेण लभ्यते - समेन लक्ष्मणा वस्तु पस्तुना यनिगृह्यते । निजेनागन्तुना धापि तन्मीलितमिति स्मृतम् ॥ (का० १३.) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमं उल्लास तथा च बलवत्सजातीयग्रहणकृता ग्रहणात्मा अभिभव एव मीलितमिति मन्तव्यम् । मलिकामालधारिण्यः सर्वाङ्गीणाचन्दनाः। क्षौमवत्यो न लक्ष्यन्ते ज्योत्स्नायामभिसारिकाः ॥ स्थाप्यतेऽपोह्यते वाऽपि यथापूर्व परस्परमे। विशेषणतया यत्र वस्तु सकावली द्विधा ॥ (का० १३१) निषिध्यते । क्रमेणोदाहरणम् पुराणि यस्यां सवराङ्गनानि घराङ्गनारूपपरिष्कृताङ्ग्यः । रूपं समुन्मीलितसद्विलासमस्खं विलासाः कुसुमायुधस्य ॥ न तआलं यन्त्र सुचारु पङ्कजं न पङ्कजं तद्यदलीनषट्पदम् । न षट्पदोऽसौ न जुगुंज यः कलं न गुञ्जितं तन्न जहार यन्मनः ॥ यसो नयां पुराभि शाल पुराणि स्वरानि सोत्तमस्त्रीकाणि 1 रूपेण परिष्कृतं सुन्दरं अझं यासा ताः । समुन्मीलितो व्यक्तः समीचीनो बिलासो यत्र तादृशं कुसुमायुधस्य कामस्य विलासा एवास्नं इत्यर्थः। निषेधेऽप्युवाहरति - तज्जलं न यत् सु सुष्टु चारु मनोहरं पङ्कजं कमलं यत्र न, न लीनः पदपदो भ्रमरो यत्र, तत् कलं अव्यक्तमधुरम् । स्पष्टमन्यत् । पूर्वत्र पुराणां चरामनाः, तासामङ्गविशेषणतामुखेन रूपम् , तस्य विलासाः, तेषामस्त्रम् , अमुना क्रमेण विशेषणं विधीयते । उत्तरत्र निषेधेऽप्येवमेव योज्यम् । ___ यथानुभवमर्थस्य दृष्टे तत्सहशि स्मृतिः । ( का० १३२, पू.) तत्सदृशे अर्थ सदृशे दृष्टे सति अर्थस्य पदार्थस्य यथानुभवं अनुभवप्रकारेण स्मृतिः सारणमित्यर्थः । यथा निम्ननाभिकुहरेषु यदम्भः प्लावितं चलशा लहरीभिः।। तद्भवैः कुहरुतैः सुरनार्यः स्मारिताः [५० ५७.२] सुरतकण्ठर(रु)तानाम् ॥ चलदृशां निम्ननामिवियरेषु लहरीभिर्यदम्भः प्लावितं तद्भवैः लहरीमादुर्भूतैः कुहरुतैः शब्दविशेषैः मुरनार्यों देवाङ्गनाः सुरतकण्ठरुताना सुरतकालीनकण्ठनादं मारिता इत्यर्थः। __ भ्रान्तिमान स यदन्यस्य संवित्तत्तुल्यदर्शने ॥ (का० १३२, उ०) तदित्यन्यदित्यमाकरणिक निर्दिश्यते । अन्यदित्यन्यस्य अन्यतया संभेदनं श्रान्तिमानित्यर्थः । व्यधिकरणप्रकारकं ज्ञान तथा चानुभूयमानारोपस्स सामान्यालङ्कारस्यात्रैवान्तर्भावः । म. पु. परं परम्' इति पाठ: 1 मुमितपुस्तकेषु तु एषा पंक्तिः ईरपाठस्वरूपा लम्यते - सरणम् , प्रान्तिमान् अस्यसंचित्तत्तुल्यदर्शने । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काध्यप्रकाशखण्डन यथा वेत्रत्वचातुल्यरुचां वधूनां कर्णाग्रतो गण्डतलागतानि । भृङ्गाः सहेलं यदि नापतिष्यन् को वेदयिष्यन्नवचम्पकानि ॥ वधूनां कर्णाग्रतः गण्डतले आगतानि नवचम्पकानि को वेदयिष्यन् न कोऽपि, यदि सहेलं सलीलं भृङ्गा भ्रमरा नापतिष्यन् । वधूनां कीदृशीनाम् ! वेत्रत्वचातुल्या रुचिर्यासां तास्तथा तासां इत्यर्थः । निमित्तान्तरजनितापि नानात्यप्रतीतिः प्रथम प्रतीतं अभेदेन व्युदसितुं उत्सहते । साक्षात्कारिभ्रमे साक्षात्कारिविशेषदर्शनं विरोधीति न्यायात् । न चैतद्रूपकं प्रथमातिशयोक्तिी तयोराहार्यारोपरूपत्वात् । अन्वयस्य स्वनाहार्यत्वात् । यथा धामधर्षि नवमैन्दवं महः प्रेक्ष्य संभ्रमवशादसाध्वसः। वीतिहोत्र इति गहिनीस्तनावाचकर्ष कलशौ धियाध्वगः ॥ विना प्रसिद्धमाधारमाधेयस्य व्यवस्थितिः। एकात्मा युगपद्धत्तिरेकस्यानेकगोचरा ॥ (फा० १३५) अन्यस्तत् कुर्वतः कार्य अशक्यस्यान्यवस्तुनः। तथैव करणं चेति विशेषत्रिविधः स्मृतः ॥ (का. १३६.) एकात्मा एकस्वभावः । तथा च एकमेव वस्तु एकेन समावेन युगपद् अनेकेषु वर्तते तथैव तेनैव प्रकारेणेत्यर्थः । क्रमेणोदा० दिवमप्युपजा(या)तानामाकल्पमनल्पगणगुणा येषाम् | रमयन्ति जगन्ति गिरः कथमिव कवयो न ते वन्द्याः ।। ते कवयः कथमिव न वन्द्याः येषां गिरो वाण्यः जगन्ति [प० ५८,१] रमयन्ति । कीदृशानाम् ? खगं गतानाम् । आकल्पं फल्यं व्याप्य अनल्पा बहुतरा गुणगणा येषां कवीनामित्यर्थः। सा वसइ तुझा हिअए स चित्र अच्छीसु सा अ वअणेसु । अम्हारिसाण सुंदर ओआसो णत्थि पावाणं ॥ स्फुरदद्धतरूपमुत्प्रतापज्वलनं त्वां सृजतानवद्याविद्यम् । विधिना ससृजे नवो मनोभूर्भुवि सत्यं सविता बृहस्पतिश्च ।। स्वां सजता विधिना नूतनो मनोभूः कामः ससृजे । सविता सूर्यः, बृहस्पतिर्गुरुः । त्वां कीदृशम् ? स्फुरकिसदद्भुतं रूपं यस्य तम् । उक्तः प्रताप एव ज्वलनोऽमिर्यस्मात् तम् । अनवद्या निर्दोषा विद्या यस्य तं इत्यर्थः । अन्नान्यस्य करणं शाब्दम् । खमुत्सृज्य गुणं योगादत्युज्वलगुणस्य यत् । वस्तु तद्गुणतामेति भण्यते स तु तद्गुणः ॥ (फा० १३७) अत्र स्वगुणतिरस्कार एव स्वगुणत्यागः । 'भन्यस्मकुर्वतः' इति मु. पू. पाठः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उल्लास विभिन्नवर्णा गरुडाग्रजेन सूर्यस्य रथ्याः परितः स्फुरन्त्या । रतः पुनयंत्र रुचा रुचं स्वामानिन्यिरे वंशकरीग्नीलैः ।। सूर्यस्स रथ्या अश्वाः गरुडायजेन अरुणेन विभिन्नो भेदं पापितो वर्णों वर्ष मेषान् । परितः स्फुरन्त्या रुचा रतैः खां रुचं रथ्या आनिन्यिरे नीताः । कीदृशैः रसैः ? बेशकरीरनीः वंशकलिकावन्नीलवर्णरित्यर्थः । अतद्गुणालद्वारमाह - तद्रूपाननुहारश्चेदस्य तत् स्यान्तद्गुणः। (का० १३८, ५०) तस्याप्रकृतस्याननुहारोऽग्रहणम् । उदा० - गाङ्गमम्बु सितमम्बुजा(या)मुनं कजलाभमुभयत्र मन्जतः। राजहंस तव सैव शुभ्रता चीयते न च न चापचीयते ।। गाझं गङ्गासम्बन्धि जलम् , यामुळे यमुनासम्बन्धि जलम् , सैव प्राचीना, न चीयते वर्द्धते, न चापचीयते नश्यतीत्यर्थः । सैषा संसृष्टिरेतेषां भेदेन यदिह स्थितिः ।। (का० १३९, उ०) एतेषामलकाराणां भेदेन अन्योऽन्यनिरपेक्षतया शब्दभाग एव अर्थविषय एव उभयं तत्र वा यद् व्यवस्थानं सा संसृष्टिः । तत्र शब्दालङ्कारसंसृष्टियथा - 'तारतारतरै रित्यादि । अर्थालहारसंसृष्टिर्यथा लिम्पतीव [५० ५८.२ ] तमोऽङ्गानि वर्पतीवाञ्जनं नमः। असत्पुरुषसेवेव दृष्टिनिष्फलतां गता ॥ पूर्वत्र परस्परनिरपेक्षौ यमकानुप्रासौ संसृष्टिं प्रयोजयतः । अत्र तु तथाविधे उपमोक्षे । शब्दालङ्कारयोः संसृष्टिर्यथा- 'हिन्दोलिकेयमिन्दोः कलिके त्यादौ । अनुप्रासो रूपकंच संग्रष्टिं प्रयोजयतः । ननु शब्दालक्कारस्य शब्दमात्रवृत्तित्वात् अर्थालङ्कारस्य अर्थवृत्तित्वमिति कथमुभयोरेकत्र . संवष्टिरिति चेत्, न । एकार्थसमवायरूपसम्बन्धेनार्थवृत्तित्वात् । अविश्रान्तिजुषामात्मन्यङ्गाङ्गित्वं तु सङ्करः। (का. १४., पू.) आत्मनि आत्ममात्रेऽविश्रान्तिजुषा अन्मानित्त्वं अनुग्राह्यानुप्राहकत्वं तपः सहर इत्यर्थः । इतरविजातीयसहकारेण चमत्कारकारित्वम् । एतेन संसृष्टेभेदो दर्शितः । यथा - आने सीमन्तरत्ने' मरकतिनि हते हेमताटङ्कपत्रे लुप्तायां मेखलायां झटिति मणितुलाकोटियुग्मे गृहीते । शोणं बिम्बोष्ठकान्त्या त्वदरिमृगशामित्वरीणामरण्ये राजन् ! गुञ्जाफलानां सज इति शबरा नैव हारं हरन्ति ॥ 5 'सेट' इति मु. पु.। २ भाव” 'सीमम्तवि' इति पाउः । का०प्र०१३ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन आत्ते गृहीते सीमन्तरत्ने शिरोऽलङ्काररत्ने भरकतिनि मरकतयुक्ते हेग्नः सुवर्णस्य ताटपने नोटीति प्रसिद्ध हृते सति, मेखलायां क्षुद्रघण्टिकायां लुप्तायां गृहीतायां झटिति शी मणेः रनम तुलाकोटिर्नुपुर ताम्मे गृहीते सति, हे राजन् ! स्वच्छत्रुस्त्रीणां अरण्ये बने इत्वरीणां गमनशीलानां हाई पालरा मिला न हरन्ति गृहन्ति । कीदृशम् ! बिम्बप्रायस्पौष्ठस्य फान्त्या रुचा शोणं रक्तं गुञ्जाफलानां सज इति बुद्धयेत्यर्थः । अत्र तद्गुणमपेक्ष्य प्रान्तिमता प्रादुर्भूतं तदाश्रयणेन तद्गुणः प्रभूतचमत्कारनिमित्तमित्येतयोरगातिभावः । एवं रूपः सङ्करः शब्दालङ्कारयोरपि दृश्यते । उदाहरणं खयमवगन्तव्यम् । एफस्य च आहे न्यायदोषाभावादनिश्चयः ॥ (का० १४०, २०) एकस्य एकतरस्येत्यर्थः । न्याय-दोषौ साधक-बाधकप्रमाणौ । तथा च एकत्र [प. ५९, १] काव्ये द्वयोर्बहना बाऽलकाराणां प्रसङ्गे संभवत्येकतरस परिग्रहे साधकमाधकप्रमाणाभावात् संशयः ससंदेहसङ्कर इत्यर्थः । यथा - नयनानन्ददायीन्दोबिम्बमेतत् प्रसीदति । अधुनाऽपि निरुद्धाशमविशीर्णमिदं तमः ॥ - इदं इन्दोम्बिं चन्द्रमण्डलं प्रसीदति प्रसाद प्रामोति । इदं तमः विशीर्णम् । कीरशम् ! विनिरुद्धा आच्छन्ना दिग् येनेत्यर्थः । प्रसीदतीत्यस्योभयत्रान्वयादित्यर्थः । अत्र किं कामसोद्दीपनकालो वर्चते ? - इति भङ्गयन्तरेण कथनात् किं पर्यायोक्तम् ? उत तदाननसेन्दुबिम्बस्य तथाध्यवसायादतिशयोक्तिः । किमेतदिति वक्त्रं निर्दिश्य तद्रपारोपणाद् रूपकमिदमित्यादिवडूनां संदेहादयमेव सङ्करः । यत्र पुन: - 'सौभाग्यं वितनोति वक्त्रशशिनो ज्योत्स्नेव हासधुतिः।' .. इत्यादी हासधुतिर्यकत्र एव संभवतीत्युपमायाः साधिका, रूपकस्य तु बाधिका । तथा. . पादाम्युजं जयत्यस्सा मञ्जमजीरसिञ्जिताम् ।' __इत्यत्र मञ्जीरसिञ्जितमम्बुजेनास्तीति रूपकस्य साधकमुपमायाश्च बाधकमिति तत्र न सन्देहसहरः । एवमन्यत्रापि भाव्यम् । स्फुटमेकत्र विषये शब्दार्थालङ्कतिद्वयम् । • व्यवस्थितं थ. (का० १४१, ३०) एकस्मिन्नेव स्पष्टतया यदुमावपि शब्दार्थालङ्कारी व्यवस्था संपादयतः सोऽप्यपरः । यथा - स्पष्टोल्लसरिकरणकेसरसूर्यबिम्ब विस्तीर्णकर्णिकमथो दिवसारविन्दम् । श्लिष्टाष्टदिग्दलकलापमुखावतारे बद्धान्धकारमधुपावलि संकोच ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उल्लास एकत्रैकपदानुपविष्टौ रूपकानुपासौ । तेनासौ त्रिरूपः । तेनायमनुप्राचानुपाहकतया सन्देहेनैकपदमतिपाद्यतया च व्यवस्थितत्वात् त्रिरूपतया सकरः कथितः । अत्रेदमवघातव्यम्-यत्र शब्दाः परिवृत्ति न सहन्ते स शब्दालकारः; यत्र न तथा सोऽर्थालङ्कारः । मत्र तु केचन सहन्ते केचन न सहन्ते स उभयालङ्करः । यथा पुनरुक्तवदामासः परम्परितरूपक च । [५०५९,२] अर्थस्य तु तत्र वैचित्र्यमुस्करतया प्रतीयत इति तयोरालद्वारमध्ये गणनं कृतमित्यन्यत्रापि बोध्यम् । अथैषामलङ्काराणां दोषाः। अनुमासस्य प्रसिद्ध्यभावः, वैफल्यम् , वृत्चिविरोधः-त्रयो दोषाः । क्रमेण उदा० अर्चनेन तव दिव्यवर्चसा स्यन्दनेन पदमैन्द्रमृच्छति । चन्दनेन तव शैलनन्दने नन्दने च जन एप नन्दति ॥ अत्रार्चनादिना ऐन्द्रपदलाभादिफलं अनुपासानुरोधेनैव प्रतिपादितं न पुनः पुराणादिषु तथामसिद्धिरिति प्रसिद्धिबिरोधः । ___ तथा 'उर्व्यसावत्र ताली'त्यादि । अत्र चानुपासेन चास्य विविच्यमानं न किदि. दपि चारुत्वं प्रतीयते । तथा साधारणधर्माश्रिते न्यूनत्वाधिकत्वं च दोषः । क्रमेणोदा० चण्डालैरिव युष्माभिः साहसं परमं कृतम् । चह्विस्फुलिङ्ग इव भानुरयं चकास्ति ।। तथा अयं पन्नासनासीनश्चयाको विराजते । युगादो भगवान ब्रह्मा विनिर्मित्सुरिव प्रजाः॥ अत्यन्तोत्कृष्टस्योपमानत्वं अपकृष्टस्य उपमेयस्य उपहास एवं पर्यवस्पति । दोषानभिधानमधिकत्वस्येति भावनीयम् । यथा पातालमिव नाभिस्ते स्तनौ क्षितिधरोपमौ । वेणीदण्डः पुनरयं कालिन्दीपात्रसंनिभः ॥ अत्र पातालादिभिरुपमानैः प्रस्तुतोऽर्थोऽत्यन्तकदर्थितः इति कष्टत्वम् । स मुनिलाञ्छितो मौञ्जया कृष्णाजिनपर्ट वहन् । विरेजे नीलजीमूतभागाश्लिष्ट इयांशुमान् ॥ स मुनिारदो व्यराजत अशोभत । मौङ्ग्या लाञ्छितश्चिद्वितः कृष्णाजिनरूपं पटं वर्स वहन धारयन् । नीलवर्णस्य जीमूतस्य मेघस्य भागे एकदेशे श्लिष्टः संबद्धः अंशुमान् सूर्य इवेत्यर्थः । अत्रोपमानस्य मौजीस्थानीयस्खडिल्लक्षणो धर्मः केनापि पदेन न प्रतिपादित इति न्यूनत्वम् । स पीतवासाः प्रगृहीतशाओं मनोज्ञभीमं वपुराप कृष्णः । - शतहदेन्द्रायुधवग्निशायां संसृज्यमानः शशिनेत्र मेवः ।। धा' इति मु. पु.1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० काव्यप्रकाशखण्डन । स कृष्णः मनोज्ञं भीमं च वपुः शरीरमाप प्राप्त [१०६०, १] वान् । पीतं वासो वस्त्रं यस्प सः। प्रगृहीतं शार्क धनुर्येन सः । क इव १ शशिना चन्द्रेण संसृज्यमानः मेघ इव । कीदृशो मेघः ? शतह्रदा विद्यत् तदेव यदिन्द्रायुधं तद्वान् तद्युक्तः इत्यर्थः । अत्रोपमेयस्य शङ्खादेरनिर्देशात् शशिनो ग्रहणमतिरिच्यत इति । तथोपमानोपमेययोर्लिङ्गवचनभेदो दोषः । साषारणधर्मस्यैकमात्रगतत्वेन प्रतीतेः । तथा चिन्तारत्वमिव च्युतोऽसि करतो धिङ् मन्दभाग्यस्य मे । अत्र च्युत इत्युपमेयमात्रेणान्वीयते पुंल्लिङ्गत्वात् । यथा बा - Raat भक्षिता देव शुद्धाः कुलवधूरिव । अत्र शुद्धा इत्युपमेयमात्रेणान्वीयते । लिङ्गभेदो विद्यमानोऽत्राप्रधानम् । यत्र नानात्वेऽपि लिङ्गवचनयोः साधारणधर्मो नेकमात्रगामी भवति तत्र नायं दोषः । यथा - गुणैरनध्यैः प्रथितो वैरिव महार्णवः । भत्र लिङ्गभेदेऽपि विशेषणान्वयस्या विशेषाद् दोषाभावः ॥ तद्वेषो सदृशोऽन्याभिः स्त्रीभिर्मधुरताभृतः । दधते स्म परां शोभां तदीया विभ्रमा इव ॥ तदूद्वेषः परां शोभां दधते । तदीया विश्रमा विलासा इव । वेषः कीदृशः ? अन्याभिः स्त्रीभिः असदृशः । पुनः कीदृशः ! मधुरतया भृतः पूर्णः । विभ्रमा अपि मधुरतां बिमर्तीति मधुरताभृत् ते मधुरताभृत इत्यर्थः । वचनभेदोदाहरणमिदम् । तथोपमायां कालपुरुष विध्यादिभेदोऽपि दोषः उद्देश्यप्रतीतेरस्खलितरूपतया विश्रान्तेरभावात् । यथा - अतिथिं नाम काकुत्स्थात् पुत्रमाप कुमुद्वती । पश्चिमाद्यामिनीयामात् प्रसादमित्र चेतना ॥ कुमुद्वती स्त्री काकुत्स्थात् अतिथिं पुत्रं आप । केव ? चेतना प्रसादमिवेत्यर्थः । अत्र चेतना प्राप्नोति न पुनरापेति कालभेदः । तथा [प्रत्यग्रमञ्जन विशेषविविक्तमूर्तिः कौसुम्भरागरुचिरस्फुर दंशुकान्ता ।] विभ्राजसे मकरकेतनमर्चयन्ती, बालग्रवालविटपप्रभवा लतेव । मकरकेतनं कामं अर्चयन्ती पूजयन्ती एवं राजसे । कीदृशी ! प्रत्यनं सद्यस्कं यन्म स्नानं तस्य विशेषेण विविक्ता [ १०६०, २ ] व्यक्ता मूर्त्तिर्यस्याः सा । कौलुम्भरागेण रुचिरः स्फुरन्नंशुकस्य वस्त्रस्यान्तो यस्याः । केव ! बालो नूतनः प्रवालः पत्रं यत्र एतादृशो यो विटपः शाखी तत्र प्रभव उत्पत्तिर्यस्यास्तादृशी लतेवेत्यर्थः । अत्र लता विभाजते न सु बिभ्राजस इति पुरुषमेदः । तथा- 'गङ्गेव प्रवहतु ते सदैव कीर्त्तिः ।' इत्यादौ गा प्रवहति, न तु प्रवहत्विति प्रवृत्तात्मनो विधेर्भेदः । एवमुपमायामसादृश्यमसंभवश्च दोषः । स्फुटमुदाहरणद्वयम् । उत्प्रेक्षायामपि संभावनधुवादयशब्दा एव वक्तुं प्रभवन्ति न तु यथाशब्दोऽपि । तत्र तदुपादानं दोषः । यथा - Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उल्लास उद्ययौ दीपिकागभन्मुकुलं मेचकोत्पलम् । नारीलोचनचातुर्य्यशङ्कासंकुचितं यथा ॥ दीपिकागर्मात् सरोवरमध्यान्मु कुलं उद्ययो मेचकोत्पलं कर्युरकमलम् , नार्याः स्त्रियो कोचनानां चातुर्य तस्मात् या शक्का भयं तेन सङ्कुचितमिवेत्यर्थः । एवं साधारणविशेषणबलादेव समासोक्तिरनुक्तमप्युपमान विशेष प्रतिपादयतीति तस्यात्र पुनरुपादाने दोषः । स्पृशति तिग्मरुचौ ककुमः करैर्दयितयेव विजृम्मिततापया । अतनुमानपरिग्रहया स्थितं रुचिरया चिरया दिवसश्रिया ॥ तिम्मरुचौ सूर्ये ककुभो दिशः करैः स्पृशति सति दिवसशोमया मनोहरया चिस्या दीया, अतनु दीर्थो यो मानस्तस्य परिग्रहो प्रणं यस्यास्तया, स्थित विम्भितो पति: माणे यहास्तमा । करेल ? दापित प्रतिनायिकयेवेत्यर्थः । अत्र तिग्मरुचौ ककुभाव पयासहशविशेषणवलेन व्यक्तिविशेषपरिग्रहेण च नायकतया व्यक्तिः प्रोष्मदिवसश्रियोऽपि प्रतिमायिकात्वं प्रतिपादयतीति किं दयितयेति खशब्दोपादानेन ? । एवमप्रस्तुतप्रशंसायामपि उपमेयमनयैव रीत्या प्रतीतम् । न पुनः प्रयोगेण कवर्धनीयम् । नवीनास्तु एतान् दोषान् उक्तदोषेष्वन्तर्भावयन्तीति [५०६१,१] युक्तमुत्पश्याम इत्युपरम्यत इति ॥ " 21 2-3 कवेगिरी यह यदवादि षण पुरातनैगरिकाप्रवाहसः । इदं सुवर्ण कृतमस्य खण्डनं मया बुधानां हृदयस्य भूषणम् ॥१॥ मतापभानुरिवाहितानामानन्दरुञ्चन्द्र इतरेषाम् । युक्तं सचेतत् किल वाचकेन्द्रश्रीभानुचन्द्रान्ययसंभवस्य ॥ २॥ भानुः प्रतापं न च प्रमोद दरमोदमिन्दुने पुनः प्रतापम् ।। तनोपि चैतद् द्वयमध्यधीश ! तस्मादभूभ्यामधिकोऽसि नूनम् ॥ ३ ॥ कथं प्रभोऽपाकुरुषे प्रताप-यशःप्रभाभिर्बत भानुचन्द्रौ । त्वं भानुचन्द्रानुचरोत्तमोऽपि यद्वा चरित्रं महतामचर्यम् ॥ ४ ॥ खस्यापरेषामपि कार्यसिद्धि-विधानतः सिद्धिपदप्रतिष्ठा । अगजनानन्दविधायकत्वात् त्वदाहये चन्द्रपदव्यवस्था ॥ ५॥ प्रस्थापिताः खविषयात् शमिनः समेऽपि श्रीशाहिना बत विनैव भवन्तमेकम् । सद्वा युगान्तसमयोत्थितमारुतेन शैलाः समेऽपि चलिता न तु नाकिशैलः ॥६॥ ।इयं शिष्यकृता प्रशस्तिः॥ ॥ इति पादशाहश्रीअकबरसूईसहस्रनामाध्यापक-श्रीशत्रुअयतीर्थकर मोचनाद्यनेकसुकृतविधापकमहोपाध्याय-श्रीमानुचन्द्रगगिशिष्यष्टोत्तरशतावधानसाचनप्रमुक्ति पादशाहश्रीअकब्बिरः प्रदत्त-पु(सु)स्फहमापराभिधानमहोपाध्याय-श्रीसिद्धि चन्द्रगणिविरचिते काल्पप्रकाशप(ख)ण्डने गुणनिर्णया नाम दशम उल्लासः समाप्तः ।। ॥ संवत् १७०३ वर्षे अश्व(श्चि)न शुद्धि ५ गुरौ लिखितम् ॥ श्रीः॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतस्मिन् ग्रन्थ उल्लिखितानां विशेषनान्नां सूचिः । अकबर (नृपति) अपभ्रंश (भाषा) अभिज्ञानशाकुन्तल (नाटक) कर्पूरमञ्जरी (क) कालिदास भानुचन्द्र ९. महिमभट्ट काव्यप्रकाशखण्डन काव्यप्रकाशविवृति कुमारसंभव दूताङ्गद (नाटक) नागानन्द (नाटक) १९ | मिश्र ६१ | रमावली (नाटिका) २२. वामन (ग्रन्थकार ) १. विक्रमोर्वशी (नाटक) १ | विश्व (कोश) ६० वीरचरित (नाटक) १९ वेणीसंहार (नाटक) ६२ | शत्रुञ्जय ( तीर्थ ) १८ सिद्धिचन्द्र नारायणभट्ट प्रकाशकृत् (काव्यप्रकाश प्रणेता ) ३३,६८ हयग्रीववध (नाटक) बृहट्टीका ( काव्यप्रकाशलत्का ) २,९४ मसूरि १,१०१ ४,३३ ६० ૬૩ २४,५३ ९,२६ ६० २०,६० १,१०१ ६० १ 1 । ช Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्मिन् ग्रन्थे विनिर्दिष्टानां सूत्र-श्लोक-पद्यांशादीनां वर्णानुक्रमेण सूचिः। भइपिहुलं जलकुंभ भएँ एहि कि पि कीए वि अकुण्ठोत्कण्ठया पूर्ण मगूलमपरस्या अधिनोऽननुसन्धान अचल एष बिभर्ति अजनमास्फालिसबकी अतन्द्रचन्द्रामरणा भताशि गुणीभूत अतिथि नाम काकुत्स्थात् अतिविततगगन अथ लक्ष्मणानुगत. भरटे दर्शनोत्कण्ठा अद्यापि स्तनशैल अधिकरतलतसं भनझमालगृहा भगारमप्रतिमं तदर्श अगयेनेव रानश्री समय बिने राज्यश्री अनिर्मिनगभीररवाद अनुरागवती सन्ध्या अनुस्खागाभसंलक्ष्म अनौचित्याद् माते नान्यत अन्यदेव हि लावण्यं अन्यत्र बजतीति का अन्यसतर्वतः कार्य अपदस्थपदसमास अपसारय घनसारे अपार काव्यसंसारे अपास्य च्युतसंस्कार अविन्दुसुन्दरी नियं अभिनवनलिनी किशलय भK कनकवर्णाभ १२ | अमृतममृतं कः सम्वेहो ८४ अम्बाकरावलम्बा ३० अयं पद्मासनाचीन २९ अयं स रशनोत्कर्षी ५८ अरे रामाहस्ताभरण ७२ अर्चनेन सब दिव्य ७९ अर्थशक्त्युद्भवेऽप्यों २६ अर्थित्वे प्रकटीतेऽपि ५ अर्थे सवभिन्नानां १०. अर्थोऽपि व्याकस्तत्र ४५ अर्थाऽपुष्टः कष्टो ७८ | अलङ्कारोऽय वस्त्वेव ३१ अलमति चपलत्वात् ४१ | अलं स्थित्वा श्मशानेऽस्मिन् ३९ / अलसवलितः प्रेमादा ३४,३७ अलससिरमणी धुत्ताण अवन्ध्यकोपस्य विहन्तु अवितततमोऽम्धकूप ८८ अविरल कमलविकास: ८८ | अविवक्षितबाच्यो ७४ | अविश्रान्तिजुषामात्म. २४ अस्त्युत्तरस्या दिशि देवतात्मा. | शस्त्रज्वालावलीढ अस्या नुखस्य लीला अस्याः सर्गविधौ प्रजापति ९६ अहो केनेदशी शुद्धिः ३८ अहो विशालं भूपाल ६३ आकुश्मय पाणिमशचिं १ आक्षेप उपमानस्य ३७ आज्ञा शक्रशिखामणि ७३ आते सीमन्तरले ८६ आदित्योऽयं दिवा सूतः २५'आलानं जयकरिणः ७७IA Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आलिमितस्तत्र भवान् भालोक्य कोमलकपोल आश्रयैक्ये विरुद्धो यः आसीदञ्जनमत्रेति इक्षुच्छायानिषादिन्यः इदमनुचितमक्रमश्च इयं सुनयना दासी वनाशादिभिश्वेतो उत्कृत्योत्कृत्य कृत्तिं उत्तानोच्छूनमण्डूक उतिविसेस कन्दो उत्थाय हृदि लीयन्ते उत्फुल्ल कमलकेसर उदयमयते दिमालिन्यं उदेवि सचिता ताम्र ० aunt दीर्घिकागर्भात् उपादानं लक्षणं चेत्युक्ता उपकुर्वन्ति तं सन्तं उपकृतं बहु तत्र उपप्लवः सैंहिकेये उपमानाद्यदन्यस्य उपमानोपमेयत्वे उपरि घनाघनपटली उभौ यदि व्योनि पृथक् उब णिश्चणि पदा एकं क्रमेणानेकस्मिन् एकत्रिया वससि चेतति एतावेवाऽजहत्स्वार्थएवमेव विषमो नवमेघः त्यतिकै मनःक्षेपः औत्सुक्येन कृतवरा कण्ठकोण विनिविष्ट० कमले मतिमं तिरित्र करिहस्तेन संबाधे करुणे विप्रलम्भे कर्णावतंसादिपदे कति गर्भेण कोलवेहितपत् कः कः कुत्र न रा ० कामकन्दर्पचण्डको सूत्र- लोक-पथांशादीनां सूचिः । ३६ | कारणान्यथ कार्याणि ५९ कार्यकारणयोर्यच ६१ का बिसमा विगई ८८ | काव्यं यशसेऽकृते ६६ किविणाण धणं णाआण ३९ किञ्चित् पृष्टमनुं वा ८४ क्रिं ध्येयं विष्णुपदं २१ | कीटादिविद्धरनादि २० कुभोजनं महाराज ५६ कुसुमितलताभिरता ३४ | कृतमनुकृतं दृष्टं वा ७६ | कैलासालयभाललोचन ३५ कौटिल्यं कचनिचये ८० ४३ काकार्य शशलक्षमणः १०१ केङ्कारः स्मरकार्मुकस्य ७ क्षिप्तो हस्तावलमः ६३ | क्षुदः सन्त्रासमेते १३. ९. पाहुणा देअर | स्याऽनिर्हेतो - ८३ | गच्छति पुरः शरीरं ७८ ! गच्छाम्यच्युतदर्शनेन १४ | गतं तीर चीनमनूरुसारथे ८२ गम्यतामन्यतः पान्य १२. गर्ज दुधन घटाटोपे ८९ गाङ्गमम्बु सितमम्बु ८५ गानामनीकृत ८ | गाम्भीर्य गरिमा तस्य ८९ गुणानामेव दौरात्म्यात २२ गुणैरनयैः प्रथितो ६० गुरुजन परततया २३ गृहीतं येनासीः परिभव ७८ | ग्रामतरुण तरुण्या ५५ ग्रीवाभङ्गाभिरामं ६५ चकितहरिणोल ५३ चकास्त्यञ्जना रामाः ६६ चव भुजभ्रमितचण्ड ५१: चण्डालैरिव सुष्माभिः ४० | चन्द्रं गता पद्मगुणान् ६७ | चित्ते चहुट्टदि न खुट्टति १५ ८१ १२ २ દરે $1 ९१ ' ५६ ८५ १९ २० 13 ૨૪ ४० ६२ १० २८ ५२ ६ ३१ १२ ५४ ९७ ५६ ७६ ८६ १०० .. ४८ ५,३२ १० ७६ ७५ ** ९९ * ४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन ३८ wrs चित्रं महानेष नवावतार। चिन्तारममिव च्युतोऽसि जगति अयिनस्ते ते जंघाकाण्डोरुनालो जनस्थाने भ्रान्तं कनका जस्सेय वणो तस्सेय वेयणा जाने कोषपरामुखी जितेन्द्रियत्वं विनयस्य ज्योत्स्ना चन्दनमाला तचित्रं यत्र वर्णानां तसः कुमुदनाधेन ततोऽरणपरिस्पन्द तत्वज्ञानाद् यवीर्यादे० तस्सिद्विद्दतावेकस्मिन् तथाभूतां दृष्ट्वा भूपसदसि तथैव यद् विधीयते तदोषी शब्दायों समुणा सदाभासा नौपच तदिदमरण्यमस्मिन् तद् गच्छ सिम्यै कुछ तद्रूपकमभेदो य 'तद्रूगननुहारवेद तद्वेषो सदृशोऽन्याभिः तनुवपुरजघन्योऽसौ सपस्तिभिर्या सुचिरेण तर्जन्यनामिके शिष्टे तस्याः कर्णावतंसेन तस्यां रघोः सूनुरुप. तामन जयमङ्गलचिय तारतारतररेतैः तिष्ठेत, कोपरशात प्रभाव तीर्थान्तरेषु बानेन तृषितां हरिणी हरिणः ते हिमालयमामय तं वीक्ष्य वेपथुमती सं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति खमग्रतः सम्बल त्वयि दृष्ट एव तस्या खयि निबद्धरतेः प्रिय का.प्र. १४ २१ लामस्मि वच्मि विदुषां सामालिख्य प्रणयकुपिता वं विनिर्जितमनोभव जासत्रैव वितर्कश्च दातारं कृपणं मन्ये दिषमप्युपयाताना दिधीत्येवीङ्समः कश्चित् दुष्टं पदं श्रुतिकटु दूरादुत्सुकमागते दृशा दग्भं पनसिज दृष्ट्रकासनसस्थिते ७. | देवीभावं गमिता २१ देहिनां सदृशा योगा ८९, द्योतयिला कमप्यर्थ १३ द्वयं गतं संप्रति शोचनीयता 4. धर्मेण केनचिद् यत्र २ धामधर्षिनव मन्दवं २२ बोरों वेमांत निपुणो न चेह जीवितः कश्चित् ५५] न तज्वल यन्न सुचारु नम्बाश्रयस्थितिरिय ९. न यत्र दुःखं न सुखं १.. | नयनं तय रक्तं च | नयनानन्ददायीन्दो ३५न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके ५६ | नाथे निशाया नियते ५३' नालपः कविरिव स्वरूप २४ । निगीयाध्यवसानं तु ५९ ! निजदोषावृतमनसा ७२ निजनयनप्रतिबिम्ब ५७ निम्ननाभिकुहरेषु ३५ नियतारोपणोपायः ६. नियतिकतनियम ६८ | निर्वाणवरदहनाः निवेदग्लानिशङ्का निशात्ययव्यजिनि निःशेषच्युतचन्दन ८३ | न्यकारो ह्ययमेव में ३९,४२| पदार्थ वाक्यरचनं . .' ४४ ८७ y ० ० " 5 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . N १०६ परापबाद निस्तपरिम्लानं पीनस्तन परोक्तिभेदकैः सिष्टेः पर्यायोक्तं विना वाच्यं पाण्डु क्षामं वदनं पातालमिव नामित पादाम्बुज जयखस्या पुनरुक्तवदाभासो पुराणि यस्यां रावराशनानि पूर्वान्तवत्स्वरः सन्धों पौर सुतीयति जन प्रकृतं यनिषिध्यान्य प्रजा इवाडादरविन्द प्रत्यक्षा इव यद्भाव प्रलप्रमजनविशेष प्रतिकूलवर्णमुपहत प्रतिकूल विभात्रादि प्रतिपक्षमशतेन प्रयसपरिबोधित: प्रस्थानं घलयैः कृतं अमाप्राप्तनिशुम्भ प्रातः पुनः स्यादुदियाछ प्राप्ताः श्रियः कामदुधा प्रात्रोत्यन्यत्प्रसादोऽमा प्रेमाद्राः प्रमयस्पृशः वेयान सोऽयमपाकृत बहवस्ते गुणा राजन् बालानो चुम्चनालिको बीभत्सद्वरसयोः ब्राह्मणातिकमयागो भमप्रक्रममकम महात्मनो दुरविरोइतनो भद्रो रुद्रे षे राम भम धम्मिा बीसत्थी भावस्य शान्तिपदयः भासते प्रतिभामार भूपालरननिदैन्य भेदानिमौ च सादृश्यात भोजनभूषणमक्ला सूत्र-श्लोक-पद्यांशादीनां सचिः। ४३ मतिरिव मूर्तिमधुरा ६९ मनामि कौरवशत | मधुरिमरुचिरं वचः ८८ मनोरागस्ती विष मयानं रामलं कुशलव मलिकामालधारिण्यः मसणवरणपातं महत्या गदया युक्तः | महतोर्यन महीयांसा" महाप्रलयमारुत 5 महिलासहस्सभरिए | महौजसो मानधनाः 'माए घरोवरण माधुर्यव्यजकैर्वणः माधुर्योजःप्रसादाख्या मानमस्या निराकर्ते मालादीपकमायं चेद | मिने कापि गते सरो ७२ मुक्ताः केलिविसूत्रहार' १८ मुख्यार्थान्वयबाधे स्यात् मुख्यार्थहतिदोषो मुख्ये रसेनपि तेऽजिवं ४९,६८ | मूर्तिद वर्गान्त्यमा वर्णा मृगचक्षुषमादाक्ष १७ मधे निदाघधर्माशु यच्छन्दयोगः प्राथम्य यत्रानुलिखितार्थमेव | यत्रता लहरीचलाचल यथानुभवमर्थस्य यथार्य दारुणाचारः • संयोत्तरं चेत् पूर्वस्य यदा खामहमद्राक्षं यदानतोऽयदानतो | यदि दहत्यनिलोऽत्र २३ । यदुक्तमन्यथावाक्य ७४ यस्य न सबिधे दयिता ४८ | अस्य हासः स चेत् कापि 4 | प्रेक्ष्य चिररूढापि ९२ 'यः कौमारहरः स एव हि MRE ११ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यप्रकाशखण्डन d युगान्तकाप्रति युनोरेकलरस्मिन् गतवति येन ध्वस्तमनोभवेन ये रसस्यानिनो भावा येर्षा ज्ञानाचमत्कारो योग आद्यतृतीयाभ्यां योऽसकृत् परगोत्राणां रइकेलिहिअनिवसन रक्ताशोक कृशोदरी रक्ताम्यनेत्रता रोद्रे रतिर्देवादिविषया रतिहासश्च शोकश्व रसभाव-तदाभास रसासार रसा सार राकाविभावरीमान्त राकासुधाकरमुखी राजन् विभान्ति भवत राजर्षिवंशसूनोमें राममन्मथशरेण ताडिता रामरावणयोयुद्ध रामोऽसौ भुवनेषु विक्रम रूपामृतस्य वापिकापि रौद्रशक्त्या तु जनितं लमं रागावृत्ताश्या लतामूले लीनो हरिण लहिऊण तुजम बाहु लावण्यं तदसौ कान्ति लावण्याकसि राजनि लास्य कमलवनाना लिखनास्ते भूमि बहिरव० लिम्पतीव तमोऽशानि वक्तृबोल्यकाकूनों वक्तृवाच्यप्रबन्धानी वस्त्रस्यन्दिखेदविन्दु वक्त्राम्भोजे सरस्वत्यधिक वश्यमाणोक्तविषयः बदन बरवर्णिन्या यद वद जितः स शत्रु वर्ग साम्यमनुप्रासः ५.४ | वस्तु वाइलङ्कतिति १९ | वनवैडूर्यचरणः ५५ | वंशो वेणौ कुले छर्गे ६३ | वागर्थाविव संपृक्ती ३३ | वाच्यमेदेन भिन्न! यद् ६९ | विद्वन् मानसहंस रि० | विधीयते यद् बलवत् विना प्रसिद्धमाधार | विना रजन्या कश्चन्द्रो विनिर्गतं मानदमात्मा विनोक्तिः सा विनाऽन्येन १६ विभावानुभावास्तत् १५ विभिनव गडा ७. विशेषः सोऽविरोधेऽपि ३७ ' विमोचनं दक्षिणमलनेन २३ विवक्षितं चान्यपर ३८ | विशेषणैर्यत्साकूः २९. विशेषोक्तिरखण्डेषु ४४ विषय्यन्तः कृतेऽन्यस्मिन् ७८ वेप्रवना तुस्यरुचा २८ व्यत्यमेव गुणीभूत ७८ व्यभिचारिरसस्वामि २१ व्याजस्तुतिर्मुखे निन्दा ५२ व्यानमा दयितानने बीडा चपलता हर्ष | शक्तिमत्त्व वाचकवं | शक्तिनिपुणतालोक ८४ | शनिरशनिस तमुच्चे ८८ शब्दार्थचित्रं यत्पूर्व साच्दस्तु लाटानुप्रासो शिरीषादपि मृदगी १२ शिलीमुखोऽलि-बाणयोः ६९ | झून्यं वासगृहं विलोक्ष ९२ | शुमारहास्यकरुणा शृणु सखि तष वचनीयं ८४ | शैलेन्द्रप्रतिपाद्यमान ७१ श्रुतिमात्रेण शब्दानां ५७ | श्रुतेन बुद्धिर्व्यसनेन ७० । ३यामा श्यामलिमान ३ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेषः प्रसादः समता सकलकलं पुरमेतत् सक वृत्तिस्तु धर्मस्य सक्सवो मक्षिता देव समाम्यः स्वरिरसादि सत्य मनोरमा रामाः सदा मध्ये यासाविया सदा नाला निशीथिन्या सद्यः करस्पर्शमवाय सद्योमुण्डितमत्तहग स पीतवासाः प्रगृहीत सममेव समाकान्तं समाधिः मुकरं कर्म स मुनि ब्छितो मौथ्या सम्यग्ज्ञानमहाज्योति सरागया श्रुतघन सर्वेषां प्रायशोऽर्थानां सविता विधपति विधु सनीडा दयितानने साकं दिक्सनिसाभिः साकांक्षपदमुक्तः सा च दूरे सुधासान्द्र साधनं सुमहद् यस्य साधर्म्यभुपमामेदे सा पत्युः प्रथमापराध सामान्य वा विशेषो छ सामान्यस्य द्विरेनास्य सारसवत्ता विद्दता सोपाऽन्या तु यत्रोकती सा वसइ तुज्म हियए साहेति सहि सुद्दों सितकरकररूचिरवि मुचरणविनिसष्टपुरः सुधाकरकराकार सूत्र-श्लोक-पद्यांशादीनां सूचिः। 65 मुप्तं चिबोधोऽमर्षश्च 53 सुमहविचित्रमेतत् 83 सतकालमनसे 1.. | सामानणसातेन | सन्दिग्धमप्रतीत सन्दिग्धो निर्हेतुः | अप्रहारे प्रहरणैः / 49 संभ्रमः साध्वसेऽपि स्यात् 86 संभावनमथोत्प्रेक्षा सिंहिकासुतसंत्रस्त सैषा संसपिरेती 42 सौभाग्यं वित्तनोति स्तुमः कं वामाक्षि तोकेनोप्रतिमायाति लिम्घश्यामलकान्ति | स्थाप्यतेऽपोह्यते बापि स्पोछसकिरणकेसर स्पृशति तिग्मरुपी स्फुटनीलोत्पलपटलं 44 स्फुटमेकत्र विषये 37 स्फुरदद्भुतरूपमुत्" 35 'स्मयमाणविरुद्धोऽपि 55 स्यादस्थानोपगतयमुना 2207 18 खाद् वाचको लाशणिकः 85 खच्छन्दोचलदच्छकच्छ 82 खमुत्सृज्य गुणं योगाद. 67 हरस्तु किश्चित् परिमृत्त 2. 8 हनूमताथैर्यशसा 96 हन्तुमेव प्रसस्य 11 हा नृप हा बुध हा कवि 72 हा मातस्त्वरिताऽसि कुत्र 66 हृदयमधिष्ठितमादौ 35 ज्ञेयो मारवीभत्सों 40 .