Book Title: Bolti Tasvire
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 HEAFITSSESPALIKEATERTATERP2:25 मास्ची EASES MECIPEPRSORTERE SPRXSB दवन्द्रमुनिशास्त्री Jan Luceuremaliomaro Private Personaluse ORV WWWanelbarvor Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तारक गुरु जन पन्थमाला पुष्पः १२१ बोलती तसवीरें लेखक अध्यात्म-योगी उपाध्याय राजस्थानकेसरी श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के सुशिष्य देवेन्द्र अति शास्त्री प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.) Jain Education Internationa Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय राजस्थान केसरी अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के दीक्षा-स्वर्ण जयन्ती समारोह पर प्रकाशित * पुस्तक बोलती तसवीरें * लेखक देवेन्द्र मुनि शास्त्री ४५ . रा प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राज.) पिन-३१३००१ * प्रथम संस्करण सन् १९७६ सितम्बर वि० सं० २०३६ भाद्रपद मुद्रक : उपाध्याय प्रेस, आगरा-२ * सूल्य : तीन रुपये मात्र Jain Education Internationa Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण * जिनका पवित्र जीवन ज्ञान-दर्शन और चारित्र का जीता जागता भाष्य है। * जिनके पवित्र विचार, साहित्य, संस्कृति, धर्म और दर्शन की उच्चतम चोटियों को संस्पर्श करने में समर्थ है। * जिनका निर्मल आचार जन-जन का मार्गदर्शक है। * उन्हीं प्रज्ञामूत्ति परमश्रद्धेय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के पवित्र कर कमलों में सादर सविनय -देवेन्द्र मुनि Jain Education Internationa Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अपने साहित्यप्रेमी सज्जनों के पाणि-पद्मों में बोलती तसवीरें पुस्तक समर्पित करते हुए हृदय आनन्द से झूम रहा है । विद्वान लेखक ने विश्व के चिन्तकों के वे जीवन प्रसङ्ग प्रदान किये हैं, जो अत्यन्त प्रेरणादायी हैं । जीवन को बदलने में पूर्ण रूप से समर्थ है । इस पुस्तक के लेखक हमारे जाने माने और पहचाने हुए प्रसिद्ध साहित्य मनीषी श्री देवेन्द्र मुनिजी हैं जो राजस्थान केसरी अध्यात्मयोगी उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी के प्रधान अन्तेवासी हैं । जो श्रद्ध ेय सद्गुरुवर्य की पावन सेवा में रहकर निरन्तर साहित्य - साधना करते रहते हैं । जिन्होंने आज तक विपुल साहित्य का सृजन कर सरस्वती के भण्डार को भरा है । प्रस्तुत ग्रन्थ आकार की दृष्टि से लघु होने पर भी हीरे की तरह बहुमूल्य है । जीवन का निर्माण करने के लिए बहुत ही उपयोगी है । हमारे अन्य ग्रन्थों की तरह यह ग्रन्थ भी जन-जन के लिए प्रेरणा- पद सिद्ध होगा । परम श्रद्धय सद्गुरुवर्य के दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के सुनहरे अवसर पर इस शानदार उपहार को देते हुए हमें अपार आह्लाद हो रहा है । मन्त्री - श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय Jain Education Internationa Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कलम से साहित्य जीवन का अभिनव आलोक है। वह भूले-भटके जीवन साथियों के लिए सच्चा पथ-प्रदर्शक है। मुझे दार्शनिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक साहित्य के प्रति जितनी रुचि रही है, उसी प्रकार कथा व रूपक साहित्य के प्रति भी रुचि रही है। जब कभी भी अनुसन्धानपरक शोधप्रधान साहित्य लिखते समय मुझे थकान का अनुभव होता है तो उस समय मैं कथासाहित्य लिखता हूँ या पढ़ता हूँ जिससे थकान मिटकर नई ताजगी का अनुभव होता है। दक्षिण भारत की विहार यात्रा करते समय पैर ही नहीं, मस्तिष्क भी थकान का अनुभव करता रहा । प्रतिदिन की विहार यात्रा में मैंने कथासाहित्य लिखने का निश्चय किया। मेरा यह प्रयोग बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ। जैन-कथाएँ के सम्पादन के अतिरिक्त अन्य अनेक कथाओं की पुस्तकें भी लिख गया जो पाठकों के समक्ष हैं। __ कथा-साहित्य के अनुशीलन-परिशीलन से मेरे अन्तमानस में ये विचार सुदृढ़ हो चुके हैं कि मानव के व्यक्तित्व और कृतित्व के विकास के लिए, उसके पवित्र-चरित्र के निर्माण के लिए कथा-साहित्य अत्यन्त उपयोगी है। कथासाहित्य की सुमधुर शैली मानव के अन्तर्मानस को सहज रूप से प्रभावित करती है, प्रभावित ही नहीं करती, पर बाद Jain Education Internationa Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) में उसके मानस पर ऐसी अमिट छाप छोड़ देती है जो वर्षों तक अपना असर दिखाती है । यह एक ज्वलंत सत्य है कि यदि उत्तम व श्रेष्ठ कथा साहित्य पढ़ने को दिया जाय तो उसके मन में उत्तम संस्कार अंकित होते हैं । यदि बाजार घासलेटी - साहित्य पढ़ा गया तो उससे बुरे संस्कार अपना असर दिखाते हैं। मुझे लिखते हुए हार्दिक खेद होता है कि आधुनिक उपन्यास व कहानी जिसमें रहस्य - रोमांस, मारधाड़ और अपराधी मनोवृत्तियों का नग्न चित्रण हो रहा है, वह भारत की भावी पीढ़ी को किस गहन अन्धकार के महागर्त में धकेलेगा यह कहा नहीं जा सकता । आज किशोर युवक और युवतियों में उस घासलेटी सस्ते साहित्य को पढ़ने के कारण उनके अन्तर्मानस को वासना के काले नाग फन फैलाकर डस रहे हैं, जिनका जहर उन्हें बुरी तरह से परेशान कर रहा है। उनका मेरी दृष्टि से उस जहर की उपशान्ति का एक उपाय है और वह है उन युवक और युवतियाँ को घासलेटी साहित्य के स्थान पर स्वस्थ मनोरंजक श्रेष्ठ साहित्य दिया जाय । प्राचीन ऋषिमहर्षि मुनि व साहित्य मनीषी उत्तम साहित्य के निर्माण हेतु अपना जीवन खपा कर श्रेष्ठतम साहित्य देते रहे हैं । मेरा भी वह लक्ष्य है । मैं भी कथा - रूपक व उत्तम उपन्यास के माध्यम से जन-जन के मन में संयम और सदाचार की Jain Education Internationa Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) प्रतिष्ठा करना चाहता हूँ । न्याय-नीति, सभ्यता, संस्कृति का विकास करना चाहता हूँ। मेरा यह स्पष्ट मत है कि साहित्य साहित्य के लिए नहीं अपितु जीवन के लिए है । जो साहित्य जीवनोत्थान की पवित्र प्रेरणा नहीं देता वह साहित्य नहीं है, वह तो एक प्रकार का कूड़ा-कचरा है । मैंने पूर्व भी इस दृष्टि से कथा-साहित्य की विधा में अनेक पुस्तकें लिखी थीं और ये पुस्तकें भी इसी दृष्टि से लिखी गई हैं । 1 अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के प्रेरणा स्रोत, मेरे गुरुदेव अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के असीम उपकार को मैं ससीम शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता । श्री रमेश मुनि जी, श्री राजेन्द्र मुनि जी और दिनेश मुनि जी प्रभृति मुनिवृन्द की सेवा सुश्रूषा को भी भुलाया नहीं जा सकता जिनके हार्दिक सहयोग से ही साहित्यिक कार्य करने में सुविधा रही है, मैं उन्हें साधुवाद प्रदान करता हूँ कि भविष्य में भी उनका भी इसी प्रकार मधुर सहयोग सदा मिलता रहेगा । श्री 'सरस' जी ने प्रेस की दृष्टि से पुस्तकों को अधिक से अधिक सुन्दर बनाने का प्रयास किया है वह सदा स्मृति पटल पर चमकता रहेगा । २६-४-७६ जैन स्थानक हैदराबाद (आंध्र ) - देवेन्द्र मुनि --- Jain Education Internationa Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका . १. अन्तिम वेतन २. वेदना का अनुभव ३. सहनशीलता ४. वाणी की मधुरता ५. सद्व्यवहार ६. कोध चाण्डाल है ७. जीवित रहने का मन्त्र ८. चूंकने की सजा ६. अन्याय न करो १०. अपराध की क्षमा ११. स्वार्थ के लिए १२. जब तक जीवन, तब तक अध्ययन १३. कर्तव्य १४. छात्रवृत्ति १५. उखाड़ना और लगाना १६. उधार १७. विचित्र आशीर्वाद REC SMG ३३ Jain Education Internationa Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) mr mar mr wॐॐॐॐॐ mm * W १८. विजय का रहस्य १६. दान-फल २०. बुद्धि चातुर्य २१. सच्ची उपाधि २२. दीर्घायु का रहस्य २३. अतिथि देव २४. आत्म-विश्वास २५. मनोरंजन २६. आत्म-निर्भरता २७. कर्तव्यनिष्ठा २८. प्रेरणास्रोत २६. उदार संगीत ३०. सजा ३१. वासना-विजय ३२. व्यंग्य ३३. विनोद ३४. अध्यापक का आदर्श ३५. सच्चे नेता ३६. मुक्ति का मार्ग ३७. प्रायश्चित ३८. स्वावलम्बी v m x x 29 x x U x - m. x ४ ) Jain Education Internationa Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. दान कैसा हो ४०. अधिकारी का कर्त्तव्य ( ११ ) ४१. निष्काम भवित ४२. संयम की आवश्यकता ४३. मधुर बनो ४४. करोड़ों की माँ ४५. भाई की चोट ४६. भेद भाव ४७. खाली हाथ न लोटो ४८. संगति का असर ४६. मेरा देश महान् है ५०. साहस ५१. स्वस्थ रहने का नुस्खा ५२. महान् निबन्ध लेखक ५३. सद्गुण अंगूर की बेल ५४. अन्तिम चोट ५५. सम्मान करो ५६. जन नेता ५७. सर्वधर्म समभाव ५८. श्रद्धा तिराती है ५६. गुणों का सम्मान ६६ ७१ ७२ ७३ ७४ ७६ ७८ ७६ ८१ ८२ ८४ ८५ ८६ ८७ ८६ ६० ६२ ६३ ६५ ६७ &ĉ Jain Education Internationa Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) १०० ૧૦ર १०४ ० १०८ ११२ ६०. व्यर्थ का अभिमान ६१. पगड़ी की शान ६२. गजनवी की न्यायप्रियता ६३. प्रजा-वत्सलता ६४. शान्ति का मूल मन्त्र ६५. मातृ भूमि ६६. बूद का मूल्य ६७. वफादारी और ईमानदारी ६८. सहृदयी निराला ६६. दो पैसा का विद्यालय ७०. अहंकार का नाश ७१. पुण्य फल ७२. बुद्धि-बल ७३. दृढ़ संकल्प ७४. आत्म-विश्वास ७५. चमत्कारों का प्रदर्शन न करो ७६. दगुण निकालता हूँ ११५ ११७ ११६ १२१ १२३ १२५ १२६ १२८ १२६ १३१ Jain Education Internationa Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १: अग्रिम वेतन बगदाद का खलीफा बहत ही न्यायप्रिय था। उसने अपना पारिश्रमिक निश्चित कर रखा था। वह संध्या के समय राजकार्य देखता और प्रजा की सेवा के बदले में प्रतिदिन तीन दिरम लेता था। जब कि अन्य कर्मचारियों का वेतन इससे कई गुना अधिक था। एक दिन खलीफा की बेगम ने उससे निवेदन किया कि आपश्री यदि मुझे तीन दिन का वेतन अग्रिम दे देखें तो ईद के लिए बच्चों के नये कपड़े बना लू । खलीफा ने कहा-तुम्हारा कहना ठीक है किन्तु मैं तीन दिन तक जीवित नहीं रहा तो राज्य का कर्ज बताओ कौन चुकायेगा। इसलिए सर्वप्रथम तुम खुदा से मेरी जिन्दगी का तीन दिन का पट्टा ले आओ, उसके पश्चात् ही मैं तीन दिन का अग्रिम वेतन खजाने से उठाऊँगा। बेगम के पास इसका कोई उत्तर नहीं था । वह अपने कर्तव्यनिष्ठ पति की सावधानी देखकर चकित थी। Jain Education Internationa www.jainelibrary.bry Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदना का अनुभव AR राजकुमार शिक्षा पूर्ण कर चुका था। राजा मंत्रियों के साथ राजकुमार को लिवाने के लिए आश्रम में पहुँचा। समावत न संस्कार सम्पन्न होने के पश्चात् राजकुमार ने आचार्य के श्रीचरणों में नमस्कार किया। आचार्य ने कहा-जरा ठहरो, मेरी छड़ी लेकर आओ। राजकुमार ने छड़ी लाकर आचार्य के हाथ में थमा दी। आचार्य ने राजकुमार की पीठ पर दो छड़ी कसकर जमा दीं। छड़ी के निशान राजकुमार की पीठ पर चमक उठे। आचार्य ने राजकुमार के सिर पर हाथ रखकर कहा-वत्स ! तुम्हारा मंगल हो। अब आनन्द से जा सकते हो। विनम्र राजकुमार नीची दृष्टि किये हुए था। वह कुछ भी नहीं बोला। किन्तु राजा आचार्य के इस बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार को देखकर चकित था। उसने आचार्य से सनम्र निवेदन किया-गुरुदेव ! निरपराध राजकुमार को मारने का क्या कारण है ? आचार्य ने मुस्कराते हुए कहा-राजन् ! यह राजकुमार इतना शालीन है और इतना सावधान है कि कभी भी इसे ताड़ना देने का अवसर नहीं मिला। किन्तु इसे राजा बनना है, दूसरों पर शासन करना है। उस समय शासक बनकर यह दूसरों की दण्ड देगा। अतः इसे यह अनुभव होना चाहिए कि दण्ड की वेदना कितनी गहरी होती है। अब यह दण्ड देते समय कभी भी क्रूर नहीं होगा और प्रजा का पुत्रवत् पालन करेगा। राजा आचार्य की दीर्घदर्शिता को देखकर मुग्ध था। वेदना का अनुभव Jain Education Internationa Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहनशीलता सत्रहवीं शताब्दी की घटना है। जापान के राजमन्त्री ओ-ची-सान का बहुत बड़ा परिवार था, किन्तु उनके परिवार की सहृदयता विश्व भर में विश्रुत थी। एक हजार सदस्य उनके परिवार में थे किन्तु किसी से कुछ भी मन-मुटाव नहीं था, कलह नहीं था। उनके संगठन की कहानी जापान के सम्राट 'यामातो' ने सुनी। वे उसकी सत्यता जानने के लिए उनके घर पर पहुँचे। ओ-ची-सान ने सम्राट का हृदय से स्वागत किया। वार्तालाप के प्रसंग में सम्राट ने मन्त्री से पूछाआपके परिवार की प्रशंसा अत्यधिक सुन रहा है। सारे देश में आपके परिवार की सज्जनता से जनता प्रभावित है। कृपया यह बताने का कष्ट करें कि इसका क्या रहस्य है ? बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ-ची-सान बहुत ही वृद्ध हो चुके थे। वार्तालाप करने में उन्हें बहुत ही कष्ट होता था। उन्होंने काँपते हुए हाथों से कागज पर एक शब्द लिखा और वह कागज सम्राट् की ओर बढ़ा दिया । सम्राट ने अत्यधिक उत्सुकता से उसे पढ़ा। उसमें लिखा था 'सहनशीलता'। सहनशीलता वह विशिष्ट मन्त्र है जिससे कभी भी विग्रह नहीं हो सकता। सहनशीलता Jain Education Internationa Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४: वाणी की मधुरता A LMAALANELUTA एक शहद बेचने वाला था, उसकी वाणी में इतना मिठास था कि लोग उसकी वाणी सुनने के लिए सड़क पर खड़े हो जाते थे। महिलाएँ घर में से निकलकर बाहर आ जाती थीं, बच्चे उसे घेर लेते थे । और देखते ही देखते उसका सारा शहद कुछ ही समय में बिक जाता था। एक चिड़चिड़े स्वभाव वाले ने देखा कि शहद का धन्धा बहुत ही अच्छा है, कितनी भीड़ रहती है, क्यों न मैं भी यही धन्धा कर लू। दूसरे ही दिन प्रातः होते ही वह बढ़िया शहद की मटकी लेकर बेचने के लिए चल पड़ा। स्वभाव के अनुसार उसके माथे पर त्यौरियाँ चढ़ी हुई थीं। उसकी आवाज इतनी कर्कश थी कि उसे कोई भी व्यक्ति सुनना बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसन्द नहीं करता था। उसकी भद्दी सूरत व कड़वी वाणी को सुनकर लोग मुंह फेर लेते थे। दिन भर एक गली से दूसरी गली में, एक बाजार से दूसरे बाजार में आवाज लगाता रहा–'शहद ले लो, शहद'। उसके कर्कश शब्द सुनने वाले के कानों में हथौड़े की तरह पड़ते थे। अतः किसी ने भी उसका शहद नहीं खरीदा। शाम को थककर बहुत ही परेशान होकर घर पहुँचा। उसकी पत्नी ने उसका चेहरा देखा । वह समझ गई। उसने उपहास करते हुए कहा बदसूरत व्यक्तियों का शहद भो कडुआ होता है। उसे कोई भी लेना पसन्द नहीं करता। प्रियतम ! तुम दूसरों को अन्य कुछ भी नहीं दे सकते हो तो मत दो, पर अपनो वाणी में तो मधुरता ला ही सकते हो। जिसको वाणी मधुर है वह जहाँ भी जाता है, वहीं आदर का पात्र बनता है। वाणी की मधुरता Jain Education Internationa Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्व्यवहार रास्ता अत्यधिक संकीर्ण था। उस रास्ते पर एक साथ एक ही रथ चल सकता था। दो विपरीत दिशाओं से वहाँ पर दो रथ आ गये। बिना एक रथ को हटाये दूसरा रथ आगे नहीं बढ़ सकता था। एक रथ में काशीराज थे तो दूसरे रथ में थे कौशल के महाराजा। ___ कौशलराज के सारथी ने काशीनरेश के सारथी से कहा- कृपया अपना रथ घुमाकर रास्ता छोड़ दें। काशीनरेश के सारथी ने कहा--महरबानी कर आप ही अपना रथ घुमा लीजिये, क्योंकि इस रथ में काशी के महाराजा आसीन हैं। कौशलराज के सारथी ने उत्तर दिया कि मेरे रथ में भी तो कौशलपति विराजमान हैं। अतः आप अपना रथ लौटाइये और हमारे रथ को जाने दीजिये। काशी-नरेश के सारथी ने चिन्तन के पश्चात् कहा-सारथी ! इसका यही उपाय है कि जो राजा बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उम्र की दृष्टि से छोटा होगा वह अपना रथ पीछे मोड़ लेगा और बड़े का रथ आसानी से निकल जायेगा। अतः बताओ तुम्हारे राजा की उम्र कितनी है ? किन्तु आश्चर्य इस बात का था कि दोनों ही राजाओं की उम्र, राज्य विस्तार, सेना, बल, धन, यश, वंशमर्यादा सभी समान थे। अतः कौन रथ को पीछे मोड़े, यह समस्या पैदा हो गई। अन्त में यह निर्णय लिया गया कि जिसका चरित्र अधिक पवित्र होगा उसे मार्ग दे दिया जाये। कौशलराज के सारथी ने कहा-मेरे राजा में यह महान् गुण है कि वे शठ के प्रति शठ हैं और सज्जन के प्रति पूर्ण सज्जन हैं, अतः तुम मार्ग दो।। काशी-नरेश के सारथी ने उत्तर दिया कि हमारे महाराजा की विशेषता निराली है चाहे कोई कितना भी दुर्जन क्यों न हो और महाराजा के साथ दुर्जनतापूर्ण दुर्व्यवहार करता हो उसके प्रति भी महाराजा सज्जनतापूर्ण सद्व्यवहार करते हैं। अपने सौजन्यपूर्ण सद्व्यवहार से उसके हृदय को जीत लेते हैं। यह सुनते ही रथ में से कौशलराज बाहर निकल आये । वे रथ से नीचे उतर पड़े और सारथी से कहारथ को घुमा लो और परमादरणीय काशी-नरेश को मार्ग दो। वे गुणों में मेरे से बड़े हैं । D सद्व्यवहार Jain Education Internationa Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध : चाण्डाल है __ आचार्य रामानुज एक मन्दिर में परिक्रमा कर रहे थे । एक हरिजन महिला उनके सम्मुख आकर खड़ी हो गई। परिक्रमा करते हुए आचार्य रामानुज के पाँव एकदम रुक गये। जो पाठ वे कर रहे थे वह भी रुक गया। क्रोध से उनकी आँखें लाल हो गईं। उन्होंने उसे फटकारते हुए कहा-अय चाण्डालिन ! दूर हट, मेरे मार्ग को अपवित्र न कर। __ वह हरिजन महिला मार्ग से हटी नहीं किन्तु दो कदम और आगे बढ़ गई। मधुर मुस्कान बिखेरते हुए उसने रामानुज से पूछा-भगवन् ! मैं अपनी अपवित्रता किधर ले जाऊँ ? ___ यह सुनते ही रामानुज का क्रोध कपूर की तरह उड़ गया। उन्होंने उससे क्षमा माँगते हुए कहा- तुम परमपावन हो, मुझे क्षमा करो। वस्तुतः चाण्डाल तो मेरे अन्दर था। क्रोध ही तो वास्तव में चाण्डाल है। माँ, तूने मेरे चिन्तन को नया मोड़ दिया है। अतः मैं तेरे उपकार को कभी भी विस्मृत नहीं होऊँगा। 0 SANEducation InternationaFor Private & Personal use only बोलती तसवीरें Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७: जीवित रहने का मन्त्र एक बार यूनान के सम्राट ने अपने वजीर को फाँसी को सजा सुना दी। मध्याह्न में वजीर के घर के चारों ओर पुलिस खड़ी हो गई और वजीर को सूचना दो कि सम्राट के आदेशानुसार आपको छः बजे सायंकाल फाँसी की सजा दी जायेगी। उस दिन वजोर की वर्ष-गाँठ थी, सैकड़ों मित्र उसके घर आये हए थे। संगीत की स्वर लहरियाँ झनझना रही थीं। बृहभोज का कार्यक्रम था। सम्राट की आज्ञा सुनते ही सभी को बिजली-सा झटका लगा। संगीत बन्द हो गये। मित्रों के गुलाब के फूल की तरह खिले हुए चेहरे यकायक मुरझा गये । सभी राग-रंग फीके पड़ गये। परिवार वाले करुणक्रन्दन करने लगे। जीवित रहने का मन्त्र Jain Education Internationa ११ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वजीर ने मुस्कराते हुए कहा-राजा ने महान् कृपा की है, जो छः बजे फाँसी का समय दिया है। तब तक हमारे सारे कार्यक्रम व्यवस्थित रूप से सम्पन्न हो जायेंगे। किन्तु आप लोगों ने यह आमोद-प्रमोद का सारा कार्यक्रम स्थगित क्यों कर दिया है ? मित्रों ने कहा-जब परिस्थिति ही प्रतिकूल है तब आप ही बताइये यह आमोद-प्रमोद कैसा? वजीर ने मधुर हास्य बिखरते हुए कहा-इससे अधिक सुन्दर और क्या परिस्थिति होगी। अभी तो छ: बजने में काफी समय बाकी है। तब तक मैं अपने हाथों से अपने प्रेमी मित्रों को खिलाऊँ, संगीत का आनन्द लू और जीवन के अन्तिम क्षणों की स्मृति सदा अमिट रहे ऐसा प्रयास करूं। वजीर के आदेश से पुनः सारे कार्यक्रम प्रारम्भ हो गये किन्तु सभी के चेहरे पर उदासी थी, पहले की तरह प्रसन्नता नहीं थी। पर वजीर के चेहरे पर पूर्ववत् ही प्रसन्नता झलक रही थी। वह पूर्ववत् ही आनन्द में था। राजा को जब ये समाचार मिले तो उसे विश्वास नहीं हुआ । वह स्वयं उसके घर पहुँचा। उसने अपनी आँखों से देखा कि वजीर सभी का प्रेम से १२ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वागत कर रहा है। राजा वजीर के कन्धे को झकझोरते हुए बोला - पागल ! क्या तुझे मेरी यह सूचना नहीं मिली कि छः बजे तुझे फाँसी के तख्ते पर चढ़ाया जायेगा ? वजीर ने उसी तरह मुस्कराते हुए कहा — सूचना मिल गई है राजन् ! पर अभी तो चार ही बजे हैं । समय रहते हुए जीवन का आनन्द तो लूट लू ँ । पहले से ही रोने से क्या लाभ ? सम्राट के पास इसका कोई उत्तर नहीं था । उसने कहा- मैं वजीर की सजा वापिस लेता हूँ । इतने सुन्दर स्वभाव वाले वजीर को मैं मार नहीं सकता। जो अच्छी तरह जीना जानता है उसे मारने की शक्ति किसमें है ? जिसे जीवित रहने का मन्त्र याद है उसे कोई भी शक्ति कष्ट नहीं दे सकती । जीवित रहने का मन्त्र १३ Jain Education Internationa Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 5: थूकने की सजा अमेरिका की एक सभा में रैले साहब का भाषण था । भाषण पूर्ण हुआ । सभासद् सभी अपने स्थान की ओर लौटने लगे । एक व्यक्ति ने रैले साहब के हाथ पर थूक दिया। आरक्षी दल उनके साथ में था । उन्होंने अपराधी को उसी समय पकड़ लिया । पुलिस कप्तान ने अपनी पिस्तौल अपराधी की छाती की ओर तान दी और बोला- मालूम है तुझे रैले साहब साहब पर थूकने की सजा यह प्राण- दण्ड है । रैले साहब ने कप्तान का हाथ पकड़ लिया । उन्होंने मुस्कराते हुए कहा - इसकी कोई आवश्यकता नहीं है । थूक का उपचार यह पिस्तौल नहीं, यह रूमाल है । और उन्होंने रूमाल से थूक पौंछ लिया तथा गाड़ी में बैठकर चल दिये । १४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: अन्याय न करो महात्मा सुकरात नीति पर भाषण कर रहे थे । तभी राजदूतों ने आकर उन्हें बन्दी बना दिया और कारागृह में बन्द कर दिया । उस समय के शासक ने यह आदेश दिया कि यह पागल है । यह हमारी जनता को उल्टी-सीधी बातें सिखाकर गुमराह करता है । अतः इसे जहर का प्याला पिलाकर सदा के लिए समाप्त कर दो । रात्रि का समय था । चारों ओर गहरी शान्ति थी । सुकरात का एक परम भक्त क्रीटो बन्दीगृह में पहुँचा और उसने तीक्ष्ण शस्त्र से हथकड़ियाँ व बेड़ियाँ काट दीं, उन्हें मुक्त कर बोला - महात्मन् ! यह सबसे बढ़िया समय है आप यहाँ से भाग जाइये | अन्याय न करो Jain Education Internationa १५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकरात ने कहा- क्रीटो सरकार के नियम को तोड़ना बिल्कुल ही अनुचित है । मैं यहाँ से नहीं भागू गा । क्रीटो ने निवेदन किया तो फिर आप मुझे कुछ उपदेश दीजिये | सुकरात ने कहा- 'स्मरण रखना ! न्यायी कभी भी दुःखी नहीं होता और अन्यायी कभी भी सुखी नहीं होता । अन्याय करने की अपेक्षा अन्याय सहन करने में अधिक लाभ है ।' १६ 0 बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १०: अपराध की क्षमा सामन्त लोगों ने महात्मा कबीर की कीर्ति सुनी। वे सभी मिलकर उनके दर्शन के लिए प्रस्थित हुए। सामने से उन्हें एक नंगे सिर वाला व्यक्ति आता हुआ दिखाई दिया जो तालाब पर नहाने जा रहा था। सभी सामन्तों ने सोचा-इस नंगे सिर वाले ने हमारा शकुन ही बिगाड़ दिया है। पता नहीं कबीरजी के दर्शन होंगे या नहीं। सभी व्यक्तियों ने पत्थरों की बौछार प्रारम्भ कर दी। उस व्यक्ति को लहू-लुहान करके आगे बढ़े। सभी सामन्त कबीर के घर पहुँचे। कबीर की पत्नी ने सभी का स्वागत किया। आसन बिछाकर सभी को बिठाया और बताया कि वे नहाने गये हैं, अभी आते ही होंगे। अपराध की क्षमा Jain Education Internationa Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ समय पश्चात् कबीर स्नान करके आये । ज्यों ही कबीर को आया हुआ देखा त्यों ही उन सामन्तों के पैर के नीचे की जमीन ही खिसक गई । अरे, हमने महान् अपराध कर दिया। कबीरजी पर ही हमने पत्थर बरसाये । हमें क्या पता था कि नंगे सिर वाला वह व्यक्ति ही कबीरदास हैं । मारे लज्जा के सभी की आँखें जमीन की ओर गढ गई। किसी का भी साहस नहीं हुआ कि वह कबीर से कुछ कह सके । कबीर ने ही मुस्कराते हुए बात शुरू कीवस्तुतः मैंने आपका अपशकुन कर दिया था जिसके फलस्वरूप आपको कितनी प्रतीक्षा करनी पडी । यदि मैं अपशकुन नहीं करता तो इतनी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती । सभी सामन्त कबीर के चरणों में गिर पड़े। अपने अपराध की क्षमा याचना करने लगे-- भगवन् ! जैसा हमने आपके सम्बन्ध में सुना था उससे भी अधिक आपको पाया । १८ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११: स्वार्थ के लिए एक सघन जंगल था। एक हरे-भरे विराटकाय वृक्ष पर मोर, कबूतर, मैना, कौआ आदि अनेक पक्षीगण वैठा करते थे। एक बन्दर भी उस वृक्ष पर बैठता था। रात्रि के गहन अन्धकार में उन पक्षियों में परस्पर यह वार्ता प्रारम्भ हुई कि इस संसार में सबसे श्रेष्ठ प्राणो कौन है। बन्दर ने कहा - इस संसार में मानव से श्रेष्ठ अन्य कोई भी प्राणी नहीं है। कबूतर ने भी उसके कथन का समर्थन किया कि तुम्हारा कथन सत्य है क्योंकि मनुष्य ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। मैना ने कहा-मानव में बुद्धि है। उसने बुद्धिकौशल से अदभुत चमत्कार कर दिये हैं। अतः मानव ही सर्वश्रेष्ठ है। सभी ने मानव की श्रेष्ठता के गुणगान किये किन्तु कौए ने कहा-मैं आप सभी के कथन स्वार्थ के लिए Jain Education Internationa Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सहमत नहीं हैं। यद्यपि मानव संसार में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है तो सबसे अधमाधम प्राणी भी वही है। कौए की बात से सभी प्राणी बौखलाये कि तुम्हारा कथन सर्वथा मिथ्या है। इसलिये तुम हमारी सभा में बैठने के योग्य नहीं हो। तुम इस वृक्ष पर नहीं, किसी अन्य वृक्ष पर बैठा करो।। कौआ दूसरे वृक्ष पर जाकर बैठ गया । संध्या का सुहावना समय था। बन्दर अपनी डाली पर बैठा था। एक मानव दौड़ता हुआ उधर आ रहा था और उसके पीछे उसे पकड़ने के लिए व्याघ्र दौड़ रहा था। मानव की दयनीय स्थिति देखकर बन्दर का दयालु हृदय द्रवित हो उठा। उसने मानव को कहायदि तुम्हें अपने प्राण बचाने हैं तो डाल को पकड़ कर ऊपर चले आओ। शाखा-प्रशाखा को पकड़कर मानव ऊपर चढ़ गया। व्याघ्र ने देखा, मेरा शिकार मेरे हाथ से निकल गया। क्योंकि वह वृक्ष पर चढ़ नहीं सकता था अतः उसने माया का आश्रय लिया। उसने मधुर शब्दों में बन्दर को पुकारा कि तुम और हम दोनों ही जंगल में रहते हैं अतः परस्पर भाई हैं किन्तु मानव तो नगर में रहता है, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है और समय-समय पर वह हमें कष्ट देता बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, हम लोगों का शिकार कर मनोरंजन करता अतः मेरा तुम्हारे से प्रेमभरा यह निवेदन है कि तुम अपने पास बैठे हुए मानव को नीचे धकेल दो । बन्दर ने व्याघ्र को समझाते हुए कहा – तुम कैसी बात करते हो ? यह मानव मेरी शरण में आया है । क्या शरणार्थी के साथ धोखा करके अपने आपको अधम सिद्ध करू ? व्याघ्र - बन्दर ! तू भोला है जिसे तू शरणार्थी मान रहा है वह एक नम्बर का वंचक है । स्मरण रखना वह समय पर तेरे साथ भी धोखा करेगा । बन्दर -- जो पशु अधम कहलाता है वह भी किसी के साथ धोखा नहीं करता फिर मानव जो संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है वह कैसे धोखा कर सकता है। वह महापुरुषों के मुँह से शास्त्र श्रवण करता है, वह पुण्य-पाप और धर्म को समझता है अतः वह ऐसा निकृष्ट कार्य कभी नहीं कर सकता । एतदर्थ मैं इसे नीचे गिराने का पाप कभी नहीं करूँगा । व्याघ्र -- बन्दर ! तुझे मालूम नहीं है धर्मशास्त्र तो केवल श्रवण करने के लिए ही हैं। मानव कहाँ उसका आचरण करता है ? यदि वह आचरण करता होता तो यह संसार कभी का स्वर्ग बन जाता । स्वार्थ के लिए २१ Jain Education Internationa Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दर-व्याघ्र भैया ! चाहे जो कुछ भी हो पर मैं ऐसा निकृष्ट कार्य करने के लिए कभी भी तैयार नहीं हूँ। व्याघ्र निराश होकर वृक्ष के नीचे ही बैठ गया । बन्दर को नींद आ गई और वह खर्राटे भरने लगा। मनुष्य बन्दर के पास ही बैठा था। व्याघ्र ने देखा कि बन्दर को गहरी नींद आ गई है अतः उसने दूसरी चाल चली—मानव भैया ! मुझे बहुत ही तेज भूख लग रही है । यदि तू बन्दर को नीचे धकेल दे तो मैं तेरा महान् उपकार मान गा। मानव-छी-छी ! कैसी निकृष्ट बात करते हो तुम, जिस बन्दर ने मेरे प्राणों की रक्षा की उसे धकेलकर तुम मुझे कृतघ्न बनाना चाहते हो। मैं ऐसा पाप कभी नहीं कर सकता। व्याघ्र ने सोचा-अभी तक इसके सिर पर पाप और पूण्य का नशा सवार है इसलिये इसे ऐसी दवा देनी चाहिए जिससे इसका नशा उतर जाये । व्याघ्र ने धीरे से कहा—मानव ! मैं तेरे हित के लिए कह रहा हूँ कि तू मर जायेगा तो तेरे बाल-बच्चे बिलखबिलखकर रोते रहेंगे, वे जीवन भर तेरी स्मृति में आठ-आठ आँसू बहायेंगे किन्तु बन्दर तो जंगल का २२ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणी है वह मर भी गया तो पीछे उसका कोई परिवार नहीं है जो रोने वाला हो । मैं इसी वृक्ष के नीचे बँठा रहूँगा और आज नहीं तो कल तुझे खा हो जाऊँगा । तू कब तक यहाँ पर बैठा रहेगा ? देख तेरे पीछे दुकान की क्या हालत होगी, परिवार की क्या हालत होगी ? उसका भी स्मरण कर । स्वार्थ भरो बातों ने मानव के मन को पलट दिया । उसे व्याघ्र की बातों में तथ्य मालूम हुआ । उसने उसी क्षण अपने पास सोये हुए बन्दर को नीचे धकेल दिया । व्याघ्र पहले से ही तैयार बैठा था । बन्दर ज्यों ही नीचे गिरा त्यों ही उसकी नींद खुल गई । गिरते-गिरते भी उसने वृक्ष की दूसरी डाली पकड़ी और ऊपर चढ़ गया । व्याघ्र हताश और निराश हो गया । उसने देखा, अव मानव की ताकत नहीं जो बन्दर को नीचे धकेल सके, अब यदि बन्दर चाहे तो मनुष्य को अवश्य ही नीचे धकेल सकता है । अतः उसने बन्दर से कहादेख बन्दर ! मानव ने तेरे साथ कैसा दुर्व्यवहार किया ! अतः तू अपना प्रतिशोध लेने के लिए मानव को वृक्ष के नीचे धकेल दे । स्वार्थ के लिए २३ Jain Education Internationa Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दर ने शान्ति के साथ कहा-व्याघ्र भैया ! मैंने देख लिया है आज मानव के व्यवहार को। इतना अधम कार्य मानव कर सकता है पर एक पशु नहीं कर सकता। मैं कल ही पशु-पक्षियों की गोष्ठी बुलाऊँगा और कौए को शतशत धन्यवाद दूंगा। स्वार्थ के कारण मानव अधम से अधम कार्य भी करने में पीछे नहीं रहता। वह स्वार्थ में परमार्थ को भूल जाता है। -महाकवि कम्बनकृत तमिल रामायण २४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२: जब तक जीवन, तब तक अध्ययन स्वामी रामतीर्थ भारत से जापान जा रहे थे। जहाज में जापान के एक वृद्ध व्यक्ति बैठे हुए थे जिनकी अवस्था नब्बे वर्ष को थी। उनका शरीर वृद्धावस्था से काँपता था, नेत्रों की ज्यीति भी अत्यन्त मन्द हो चुकी थी तथापि वे एकान्त में बैठकर चीनी भाषा का अभ्यास कर रहे थे। स्वामी रामतीर्थ ने उन्हें अध्ययन करते हुए देखा। उन्हें महान् आश्चर्य हुआ कि चोनी भाषा बहुत कठिन है, इन वृद्ध महोदय को इसके अध्ययन करने में कितना समय लगेगा। उन्होंने मुस्कराते हुए वृद्ध महोदय से पूछा-आप बहुत ही वृद्ध हो चुके हैं। इस भाषा को सीखने में काफी समय लगेगा। फिर आप इस भाषा का कब उपयोग करेंगे ? वृद्ध ने कहा--जब तक जीवित है तब तक अध्ययन करना मेरा कार्य है। यदि रात-दिन मौत का ही जब तक जीवन, तब तक अध्ययन Jain Education Internationa Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तन करता रहा तो जीवन में कुछ भी प्रगति नहीं हो सकती । मृत्यु एक दिन अवश्य आयेगी। उस मृत्यु की चिन्ता करना व्यर्थ है। ___स्वामी रामतीर्थ वृद्ध की बात सुनकर बहुत ही आह्लादित हुए। वस्तुतः वृद्ध का चिन्तन उन्हें बहुत ही प्रेरणादायी लगा। २६ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १३: कर्तव्य Ra m .P. No - - - - Ame सन् १६१८ की घटना है। सौराष्ट्र के चलाला नामक रेल्वे-स्टेशन पर भावनगर निवासी जीवन राम ईश्वरलाल भट स्टेशन मास्टर थे । वे रात्रि को प्लेटफार्म पर घूम रहे थे। उन्होंने देखा-प्लेटफार्म पर अनाज की बोरियाँ रखी हुई हैं। एक पाइंट्समैन बोरियों के पीछे छिपकर अनाज निकाल रहा है। वे छिपकर देखते रहे । जब वह अनाज निकाल चुका और बोरियों को पुनः सीने लगा तब उन्होंने बहुत ही धीमे स्वर से कहा-बोरियाँ अच्छो तरह से सीना। यह सुनते ही पाइंटसमैन थर-थर काँपने लगा। वह उनके चरणों पर गिर पड़ा। अपने अपराध की क्षमायाचना करते हुए बोला-बड़ा परिवार होने से वेतन के पैसों से गुजारा नहीं होता, आज प्रातःकाल से ही सारा परिवार भूखा-प्यासा पड़ा है। अतः पेट के लिए मुझे कर्तव्य २७ Jain Education Internationa Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह दुष्कृत्य करना पड़ा। आप मुझे क्षमा कीजिये । भविष्य में मैं ऐसा कार्य कभी नहीं करूँगा । भट जी ने आदेश देते हुए कहा - इस अनाज को पुनः बोरियों में भर दो और मेरे साथ घर चलो । उन्होंने घर जाकर पूरे परिवार को खाने के लिए आटा-दाल, धी- तेल दे दिया । उन्होंने अनाज के एक बड़े व्यापारी को पत्र लिखा कि इस व्यक्ति को एक मन अनाज दे दो और उसके पैसे मेरे नाम में लिख दो । कुछ दिनों के पश्चात् भटजी उस व्यापारी को पैसा देने के लिए पहुँचे । व्यापारी ने कहा- बाबूजी ! आप मेरे माल की अत्यधिक रक्षा करते हैं । आपके आने के पूर्व मेरे माल में से प्रति महीने आठ-दस बोरियाँ का माल चला जाता था । पर आपके आने के पश्चात् थोड़ा भी अनाज कम नहीं हुआ है । इसलिये मैं इस अनाज का पैसा नहीं लूँगा । प्रति महीने एक मन अनाज आपको पहुँचा दूँगा । भटजी ने साग्रह कहा- आपको अनाज के पैसे लेने हैं। इस प्रकार यदि मैं लूँगा तो यह प्रकार से रिश्वत ही है । मैं रिश्वत नहीं ले सकता । प्लेटफार्म पर रखे हुए माल की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है । मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है, किसी पर उपकार नहीं । O २८ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४ : छात्रवृत्ति __श्री हरिप्रसाद देसाई अपनी दुकान से उठे और भोजन के लिए घर की ओर प्रस्थान कर ही रहे थे कि एक युवक ने नमस्कार कर कहा-मैं आपसे किसी विशेष कार्य हेतु बात करना चाहता हूँ। देसाई चलते हुए रुक गये और पूछा क्या बात है ? युवक ने कहा-इस वर्ष मैं बी० ए० की परीक्षा में सर्वप्रथम आया हूँ और आज दिन तक भी मैं प्रथम श्रेणी में ही समुत्तीर्ण होता रहा हूँ। मेरी इच्छा बैरिस्टर बनने की है और उसके लिए मैं लन्दन जाना चाहता हूँ। यदि आप बीस हजार रुपये उधार दें तो मेरी कल्पना मूर्त रूप ले सकती है। मैं पुनः अपने देश में आकर आपका पैसा ब्याज सहित दे दूंगा। देसाई ने पूछा-इतनी बड़ी रकम तुम किस प्रकार चुका सकोगे? छात्रवृत्ति Jain Education Internationa २६ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने आत्मविश्वास के साथ कहा कि मैं बैरिस्टरी में सर्वप्रथम आऊँगा। कुछ ही समय में मैं पैसा कमा लूगा और आपको लौटा दूंगा। देसाई कुछ क्षणों तक चिन्तन करते रहे। फिर उन्होंने मुनीम से कहा-इस युवक को बीस हजार रुपये दे दो। रुपये प्राप्त होने पर युवक ने कहा--- लिखा-पढ़ी कर लीजिये। देसाई ने पूछा--तुम्हारा नाम क्या है ? उसने कहा----मेरा नाम फिरोज शाह मेहता है। अच्छा तो मेहता जी ! मैं आपको यह ऋण नहीं, किन्तु छात्रवृत्ति दे रहा हूँ। आप जैसे चोय छात्र हूँढने पर भी नहीं मिल सकते। आज मेरे सद्भान्य है कि आप घर बैठे ही पधार गये। मैं इस सुनहरे अवसर की किस प्रकार उपेक्षा कर सकता हूँ। छात्रवृत्ति के लिए लिखा-पढ़ी का प्रश्न उपस्थित नहीं होता। सर्वप्रथम आप मेरे साथ घर चलिये। आज हम दोनों साथ बैठ कर भोजन करेंगे। भोजन के पश्चात् देसाई ने पाँच हजार रुपये और देते हुए कहा—इनसे अपने वस्त्रादि बना लेना। फिरोज शाह मेहता विदेश गये। बैरिस्टरी परीक्षा में समुत्तीर्ण होकर अपनी प्रामाणिकता और सत्यनिष्ठा से देश के गौरव में चार चाँद लगाये। ३० बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५: उखाड़ना और लगाना पंजाब में बुल्लेशाह नाम के एक बहुत बड़े अनुभवी सन्त थे। उनके गुरु एक माली थे। एक दिन वे घूमते हुए गुरु के सेट में पहुँच गये। उन्होंने गुरु से पूछा कि ऐसा कोई सरल उपाय बताइये जिससे खुदा प्राप्त हो सके। उस समय उनके गुरु खेत में प्याज की गाँठे एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगा रहे थे। उन्होंने कहा-वत्स ! खुदा का क्या पाना ? इधर से उखाड़ना और उधर लगाना। तू समझता है कि खुदा आसमान में है। आसमान से खुदा को उखाड़ कर हृदय में लगा लो और फिर स्नेह के जल से सिंचन करो। खुदी को मिटाना ही खुदा को पाना है। हम हैं खुद खुदा, न वह हमसे है जुदा । जो जाने है जुदा, वह न पावे खुदा ।। उखाड़ना और लगाना Jain Education Internationa Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६: उधार एक फेरीवाला मुहल्ले में घूमता हुआ गन्ना बेच रहा था। उसने एक सज्जन से कहा-गन्ना लीजिये, ये गन्ने बहुत ही मधुर हैं। उस सज्जन ने कहा-भाई ! इस समय मेरे पास पैसे नहीं हैं ? फेरीवाले ने कहा-आप पैसे की क्यों चिन्ता करते हैं, आप इस समय प्रेम से गन्ना खाइये और जव भी पैसा हो जाये तब मुझे दे दीजियेगा, मैं इस समय आपसे पैसा नहीं माँग रहा हूँ। हाँ, तुम्हारा कहना सही है; पर मुझे उधार लेना पसन्द नहीं है क्योंकि जब तक मैं तुम्हें पैसा नहीं दे द्गा तब तक तुम्हें शान्ति नहीं होगी और मेरे मन में भी सदा यही विचार रहेंगे कि पैसा देना है। यदि देने में विलम्ब हुआ तो तुम्हारा तकाजा सदा बना रहेगा और गन्ने की मिठास तकाजे की कड़वाहट में परिवर्तित हो जायेगी। ३२ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७: विचित्र आशीर्वाद गुरु नानक जन-जीवन में अभिनव चेतना का संचार करते हुए एक गाँव में पहुँचे। वहाँ के निवासियों ने उनका हार्दिक स्वागत किया और उनके पावनप्रवचनों को अत्यन्त श्रद्धा के साथ सुना। नानक को उस गाँव के लोग अत्यन्त श्रद्धालु और सज्जन प्रतीत हुए। प्रस्थान करते समय नानक ने उन्हें आशीर्वाद प्रदान किया-तुम सभी उजड़ जाओ। गुरु नानक के साथ मर्दाना नाम का एक व्यक्ति था, जो रबाव बजाया करता था। उसने यह विचित्र आशीर्वाद सुना तो उसे बहुत ही आश्चर्य हुआ। गुरु नानक अगले गाँव में पहुँचे। वहाँ के लोग बहुत ही कर स्वभाव के थे। उन्होंने नानक के साथ दुर्व्यवहार किया और उनके उपदेशों का उपहास किया। विचित्र आशीर्वाद Jain Education Internationa Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थान करते समय नानक ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम सभी यहाँ पर आबाद रहो। ___ मर्दाना ने जब यह आशीर्वाद सुना तो वह हैरान हो गया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ये उलटे आशीर्वाद किस कारण से दिये गये हैं। उसने गुरु नानक से पूछ ही लिया-भगवन् ! आपने सज्जनों को उजड़ जाने का आशीर्वाद दिया और जो बुरे व्यक्ति थे उन्हें आबाद रहने का आशीर्वाद दिया। इसका क्या रहस्य है ? गुरु नानक ने कहा- मैंने जो आशीर्वाद दिया वह उचित दिया है। सज्जन उजड़कर जहाँ भी जायेंगे वहीं पर सज्जनता की सुगन्ध फैलायेंगे और उनके प्रभाव से दूसरे हजारों व्यक्ति सज्जन बनेंगे और बुरे व्यक्ति एक ही स्थान पर जमकर रहें ताकि उनके दुगुणों को दूसरे ग्रहण न कर सकें। ३४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १८: विजय का रहस्य यूनान के सुप्रसिद्ध विचारक और महान् दार्शनिक डायोजिनीस से उसके एक मित्र ने पूछा-ऐसा कोई बढ़िया उपाय बताइये, जिससे मैं अपने दुश्मनों से बदला ले सकू। डायोजिनीस ने मुस्कराते हुए कहा-मित्रवर ! बहुत ही सरल उपाय है कि तुम शत्रुओं के प्रति अधिक से अधिक सज्जन बनने का प्रयास करो। विजय का रहस्य Jain Education Internationa Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१६: दान-फल बादशाह अकबर के दरबार में नवरत्न थे। उनमें एक अबुलफजल भी थे। वे बिना किसी भी भेद-भाव के सभी को उदारता से दान देते थे। एक बार उनसे किसी ने कहा कि आप मुसलमानों के अतिरिक्त हिन्दुओं को क्यों दान देते हैं क्योंकि गैर-मुस्लिमों को दान देने से पुण्य नहीं होता। ___ उन्होंने मुस्कराकर उत्तर देते हुए कहा-मैंने ऐसा सुना है कि मुसलमानों को दान देने से फरिश्ते जन्नत में महल तैयार कर देते हैं और गैर-मुस्लिमों को दान देने से दोजख में कोठरी प्राप्त होती है। मुझे यह ज्ञात नहीं है कि मुझे जन्नत मिलेगी या दोजख । अतः मैं दोनों ही स्थानों पर व्यवस्था कर रहा हूँ ताकि कहीं पर भी चला गया तो जगह मिल जाये। बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २० : बुद्धि-चातुर्य बादशाह अकबर ने एक व्यक्ति पर क्रुद्ध होकर उसे देश- निर्वासन की आज्ञा प्रदान की। बादशाह के आदेश से वह व्यक्ति बहुत ही उदास हो गया । वह मुँह लटकाये हुए अपने घर की ओर जा रहा था कि रास्ते में बीरबल उसे मिल गया । बीरबल ने उससे उदासी का कारण पूछा तो उसने अपनी करुण कहानी सुना दी । बीरबल ने उसे उपाय सुझाते हुए कहा—तुम शहर के बाहर उस वृक्ष पर जाकर बैठो जहाँ पर बादशाह घूमने के लिए निकलते हैं । यदि बादशाह तुमसे पूछें कि यहाँ पर क्यों बैठे हो तो तुम बहुत ही विनय के साथ निवेदन करना कि जहाँपनाह! मैं तो आपके ही आदेश का पालन कर रहा हूँ । मुझे इस धरती पर ऐसा कोई स्थान दिखाई नहीं दिया जहाँ पर आपका बुद्धि-चातुर्य Jain Education Internationa ३७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन न चलता हो, अतः मैं वृक्ष पर चढ़कर आकाश में उड़ने का प्रयास कर रहा हूँ जहाँ कि आपका शासन न हो। वह व्यक्ति बीरबल के परामर्श के अनुसार वहाँ पर बैठ गया। बादशाह जब उधर से घूमने के लिए निकला तब उसे देखकर उसकी भ्रकुटि तन गई। वह आदेश की अवहेलना करने के कारण क्रोध में आगवबूला हो गया। उसने कहा-तुमने मेरे आदेश को अवहेलना कैसे की ? क्या तुम भूल गये कि मैंने क्या आदेश दिया था ? उसने नम्रता से बीरबल की बात दोहरा दी जिसे सुनकर बादशाह खुश हो गया और अपने आदेश को वापिस ले लिया। __ वस्तुतः बुद्धि गहरी से गहरी समस्या सुलझा देती है। ३८ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२१: सच्ची उपाधि एक राजा अपनी प्रजा को विविध उपाधियाँ प्रदान करता था। अनेक महत्वाकांक्षी व्यक्ति आते और उपाधियाँ प्राप्त कर प्रसन्नता से नाच उठते ।। राजा की सभा में एक युवक आया। उसने राजा को नमस्कार कर कहा-राजन् ! मैंने सुना है आप उपाधियाँ प्रदान करते हैं। कृपया मुझे भी उपाधि प्रदान करें। राजा ने देखा-युवक के चेहरे पर अपूर्व चमक है, मन में अदम्य उत्साह है। राजा ने कहा-मैं तुम्हें एक नहीं, अनेक उपाधियाँ दे सकता हूँ। युवक ने कहा--राजन् ! मुझे अन्य उपाधियाँ नहीं चाहिए, मुझे चाहिए कि आज मुझे सच्चे मानव की उपाधि से अलंकृत करें और मुझे सच्चा और अच्छा मानव बना दें। राजा ने कहा-मैं तुम्हें अन्य उपाधियाँ दे सकता है, पद भी दे सकता हूँ। किन्तु सच्चा मानव बनाने की शक्ति मेरे में नहीं है। सच्ची उपाधि Jain Education Internationa Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२: दीर्घायु का रहस्य भारत के सम्राट का मन्त्री उपहार लेकर चीन पहुँचा । वहाँ के सम्राट से पारस्परिक सम्बन्धों तथा नीतियों पर खुलकर वार्तालाप हुआ। वार्तालाप के प्रसंग में उसने बताया कि भारत के सम्राटों की उम्र बहुत अधिक होती है । सभी दीर्घायु होते हैं किन्तु चीन के मन्त्री ने कहा कि हमारे यहाँ के सम्राटों की उम्र पचास-साठ से कभी भी अधिक नहीं होती। भारतीय मंत्री ने चिन्तन के पश्चात् कहा-मैं इस प्रश्न का उत्तर आपको तब दंगा, जब सामने यह हराभरा विराट् वृक्ष जो दिखलाई दे रहा है वह सूखकर ठ बन जायेगा। चीन का मंत्री उत्तर जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक था, अतः वह प्रतिदिन उस वृक्ष के पास जाकर ४० बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह चिन्तन करता कि यह कब और जितना शीघ्र सख जाय तो श्रेयस्कर रहे । भावनाओं के कारण कुछ ही दिनों में वह वृक्ष सूख गया। चीन का मंत्री इसका रहस्य नहीं समझ सका। भारत के मंत्री ने उस रहस्य का समुद्घाटन करते हुए कहा कि यहाँ की प्रजा की भावना राजा के प्रति शुभ न होने से वे दीर्घायु नहीं होते हैं, जब कि भारत की प्रजा के अन्तर्मानस में राजा के प्रति अत्यन्त सद्भावना होने से वे दीर्घायु होते हैं । ) दीर्घायु का रहस्य Jain Education Internationa Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३ : अतिथि देव महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य के जानेमाने विद्वान थे । एक साधारण लेखक उनसे मिलने लिए पहुँचा । भोजन का समय हो गया था । अतः द्विवेदीजी ने भोजन के लिए उससे अत्यधिक आग्रह किया । द्विवेदीजी के प्रेमभरे आग्रह के कारण वह साधारण लेखक भोजन के लिये बैठ गया, स्वयं द्विवेदी जी पंखा झलने लगे । नवीन लेखक द्विवेदीजी को पंखा झलते हुए देखकर शर्मा गया । उसने नम्र निवेदन करते हुए कहाआप जैसे साहित्य - मनीषी पंखा झलेंगे तो मैं भोजन नहीं कर सकूँगा क्योंकि मैं बहुत हो लघु व्यक्ति हूँ । द्विवेदीजी ने मुस्कराते हुए कहा- मित्रवर ! तुम इस समय मेरे से बड़े हो, क्योंकि तुम मेरे अतिथि हो । अतिथि देवस्वरूप होता है । इसलिए उसका सत्कार करना आवश्यक है । बोलती तसवीरें ४२ Jain Education Internationa Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २४ : आत्मविश्वास कलकत्ता के प्रेसिडेण्ट कालेज में उन्हीं विद्यार्थियों को स्थान प्राप्त होता था जो पूर्व परीक्षाओं में अच्छे नम्बरों से समुत्तीर्ण होते थे। सन् १६०६ में प्रस्तुत कालेज के प्रधानाध्यापक थे एक अंग्रेज सज्जन जो स्वभाव से बहुत ही तेज-तर्रार थे। उन्होंने परीक्षा का परिणाम सुनाया । एक विद्यार्थी एकान्त शान्त स्थान में बैठा हुआ ध्यान से परीक्षा परिणाम सुन रहा था। परीक्षा परिणाम सुनने के पश्चात् उस छात्र ने प्रधानाध्यापक से पूछा-आपने मेरा नाम क्यों नहीं लिया? प्रधानाध्यापक ने उसे घूरते हुए कहा-तुम्हारा नाम लिस्ट में नहीं है । तुम अनुत्तीर्ण हो चुके हो। विद्यार्थी ने स्वाभिमान के साथ कहा-यह कभी सम्भव नहीं है। मैं निश्चय ही प्रथम श्रेणी में समुत्तीर्ण हुआ हूँ। सम्भव है भूल से आपने मेरा नाम नहीं लिया है। आत्मविश्वास ४३ Jain Education Internationa Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधानाध्यापक विद्यार्थी की सत्य बात को सुन नहीं सके । उन्होंने कहा- तुमने मेरा अपमान किया है, अतः पाँच रुपये तुम्हारे पर जुरमाना करता हूँ । किन्तु विद्यार्थी अपनी बात पर अड़ा हुआ था । प्रधानाध्यापक महोदय जुरमाना बढ़ाते गये । यहाँ तक कि पचास रुपया का जुरमाना उन्होंने कर दिया तथापि विद्यार्थी विचलित नहीं हुआ I उसी समय कालेज के प्रधान क्लर्क ने आकर सूचित किया कि यह विद्यार्थी कालेज में सर्वप्रथम आया है । असावधानी से इसका नाम सूची में लिखने से रह गया। प्रधानाध्यापक ने सुना तो उनका सिर लज्जा से झुक गया और छात्र का सिर स्वाभिमान से ऊपर उठ गया । उस विद्यार्थी का नाम था राजेन्द्रप्रसाद जो भारत के स्वतन्त्र होने पर सर्वप्रथम राष्ट्रपति बने थे । ४४ O बोलती तसवीरं Jain Education Internationa Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २५ मनोरंजन एक बार पंचतन्त्र के रचयिता विष्णु शर्मा अपने छात्रों के साथ खेल रहे थे। एक विशिष्ट विद्वान् उनसे मिलने के लिए पहुँचा। उसने उन्हें छात्रों के साथ खेलते हुए देखकर आश्चर्य प्रकट किया-पंडितजी ! आप इतने महान् विद्वान् होकर बच्चों के साथ खेलते हैं। आपका अमूल्य समय नष्ट हो रहा है। आपको बालकों के साथ नहीं खेलना चाहिए। विष्णु शर्मा ने बालक से कहकर कमरे में से एक धनुष मँगवाया और कहा—मित्रप्रवर ! हमारा मन धनुष की तरह है। अगर धनुष पर डोरी हमेशा चढ़ी रहेगी तो वह कुछ ही समय में कमजोर हो जायगा। इसलिये काम पड़ने पर डोरी चढ़ानी चाहिए तो वह धनुष लम्बे समय तक मजबूत बना रहेगा। इसी प्रकार गहरे मनोरंजन ४५ Jain Education Internationa Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिश्रम के पश्चात बालकों के साथ कुछ समय तक मनोरंजन कर लिया जाय तो प्रतिभा में भी तेजस्विता बनी रहती है। बालक का जीवन पवित्र जोवन है । इसलिए उनके साथ मनोरंजन करने से कुछ भी हानि नहीं अपितु लाभ ही है। इसीलिये थकान मिटाने के लिए मैं बालकों के साथ कुछ समय मनोरंजन करता हूँ। मित्र को मनोरंजन का रहस्य ज्ञात हो गया। बालती तसवीरें Jain Education Internationa Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २६ : आत्मनिर्भरता अमेरिका के राष्ट्रपति श्री अब्राहम लिंकन अपने छोटे-छोटे कार्य भी अपने ही हाथों से करते थे । मेसेच्युसेट्स के सीनेटर चार्ल्स समर एक दिन प्रातःकाल ही उनसे मिलने के लिए पहुँचे । उस समय लिंकन महोदय जमोन पर बैठे हुए अपने जूतों पर पालिश कर रहे थे । चार्ल्स समर ने जब यह देखा तो वह आश्चर्यचकित हो गया । उसने राष्ट्रपति से नम्र स्वर में पूछा- क्या आप अपने जूतों पालिश करते हैं ? लिंकन महोदय अच्छी तरह से पालिश रगड़ते हुए बोले – मिस्टर समर ! मैं अपने जूते पर नहीं तो क्या अन्य के जूतों पर पालिश करू ? अपना कार्य करते समय हमें किसी प्रकार की लज्जा का अनुभव नहीं करना चाहिए। काम करने में नहीं, पाप करने में संकोच होना चाहिए । आत्मनिर्भरता Jain Education Internationa ४७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २७: कर्तव्यनिष्ठा पूना में प्लेग चल रहा था। दनादन मानव मर रहे थे। नगर की स्थिति विषम हो रही थी। उस समय लोकमान्य तिलक का ज्येष्ठ पत्र भी प्लेग के चक्कर में आ गया। पुत्र की स्थिति चिन्ताजनक थी। तिलक केसरी का अंक पूर्ण करने के लिए कार्यालय जाने की तैयारी करने लगे। उन्हें तैयार होते देख कर उनके मित्र ने टोका कि पुत्र मौत के मुंह में जा रहा है और आप कार्यालय जाने की चिन्ता कर रहे हैं। क्या यह उचित है ? तिलक ने कहा-इसका उपचार चल रहा है । आप सभी लोग यहाँ पर हैं। इसीलिये केसरी के अंक को रोकना पाठकों के साथ अन्याय करना होगा। अतः मैं अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के लिए जा रहा हैं। और वे चल दिये। वह थी उनमें कर्तव्य के प्रति जागरूकता। 0 ४८ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २८: प्रेरणा-स्त्रोत आइजनहॉवर अमेरिका के राष्ट्रपति थे। उनके कार्यालय में शो-केश था। उसमें एक बहुत ही सुन्दर झाडू रखा हुआ था। जो भी व्यक्ति आते, वे उस झाडू को देखते, उनके मन में विविध विचार उद्बुद्ध होते, किन्तु किसी का भी साहस नहीं होता कि वह उनसे झाडू के सम्बन्ध में पूछे । एक दिन राष्ट्रपति ने देखा कि जो भी व्यक्ति आते हैं वे आश्चर्य की दृष्टि से झाडू को निहारते हैं। उन्होंने आगन्तुक व्यक्तियों की जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा-मैंने यह झाडू विशेष प्रयोजन से रखा है। जब मैं राष्ट्रपति बना उस समय मुझे हजारों बहुमूल्य उपहार प्राप्त हुए। उन्हीं उपहारों में यह झाडू भी है। मैंने उन सभी उपहारों में इसे सर्वश्रेष्ठ उपहार माना। प्रेरणा-स्रोत ४६ Jain Education Internationa Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसने यह उपहार प्रेषित किया उसने झाडू के साथ ही यह लिखा—कि आपश्री ने अपने चुनाव-भाषणों में कहा था कि मैं प्रशासन तथा राष्ट्र की गन्दगी को मिटा दूंगा। एतदर्थ ही मैं आपको उपहार के रूप में झाडू प्रेषित कर रहा है जो आपको प्रतिपल-प्रतिक्षण अपने भाषणों की स्मृति दिलाता रहेगा । उपहारप्रदाता के इन शब्दों ने मेरे चिन्तन को झकझोर दिया और मैंने इसे सर्वश्रेष्ठ उपहार के रूप में स्वीकार किया। इसी कारण इसे सदा अपनी आँखों के सामने रखता हूँ जिससे मुझे अपने कर्तव्य का सदा भान होता रहे। ५० बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २६ उदार संगीतज्ञ अमेरिका के राष्ट्रपति हर्बट हूवर एक गरीब घर में जन्मे थे। आर्थिक स्थिति विषम होने के कारण उनके सामने अनेक समस्याएँ उपस्थित होती थीं। जब वे कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में अध्ययन करते थे उस समय हालैण्ड के विश्वविश्रुत महान् संगीतकार पेडेरेवस्की कैलिफोर्निया में आमन्त्रित किये गये। हवर ने विचार किया यदि मैं उनके संगीत कार्यक्रम का ठेका ले लूं तो मुझे अच्छा पैसा प्राप्त होगा। उन्होंने दो हजार डालर में संगीत कार्यक्रम का ठेका ले लिया । पर अत्यधिक प्रयत्न करने पर भी टिकट नहीं बिके । हूवर के सामने एक गम्भीर समस्या उपस्थित हुई कि दो हजार डालर उन्हें किस प्रकार दिये जा सकेंगे? गम्भीर चिन्तन के पश्चात् भी जब समस्या का समाधान नहीं हुआ तो उन्होंने पेडेरेवस्की के सामने सारी उदार संगीतज्ञ Jain Education Internationa Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति रखी। उदारहृदयी पेडेरेवस्की ने कहा-हवर ! तुम घबराओ मत । टिकटों की बिक्री से जो आमदनी हुई हो उससे हाल का किराया, बिजली आदि का बिल चुकाने के पश्चात् जो कुछ भी अवशेष रहे वह मुझे दे देना। मुझे उतने में ही सन्तोष है। हूवर ने वैसा ही किया। कार्यक्रम सम्पन्न होने पर पेडेरेवस्की ने हवर को अपने पास बुलाकर उसके हाथ में कुछ डालर थमाते हुए कहा-तुमने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए महान् श्रम किया है। तुम चाहते थे मुझे लाभ होगा। अतः इस पुरस्कार को ग्रहण करो। मेरे पास जो भी आता है मैं उसे निराश नहीं करता। हूवर उसकी उदारता देखकर गद्गद हो गया। ५२ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३० : सजा गांधीजी ने आश्रम में यह व्यवस्था की थी कि भोजन का समय होते ही दो बार घण्टी बजायी जाय । दो बार घण्टी बजाने पर भी जो व्यक्ति भोजनालय में नहीं पहुँच पाता, उसे दूसरी पंक्ति में भोजन करना होता । तब तक उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। दूसरी घण्टी बजते ही भोजनालय का द्वार बन्द कर दिया जाता था जिससे बाद में आने वाले व्यक्ति अन्दर न आने पावें। कार्याधिक्य के कारण एक दिन स्वयं गांधीजी को विलम्ब हो गया। वे जब तक पहुँचे तब तक दूसरी घण्टी बज चुकी थी और भोजनालय का द्वार बन्द हो चुका था। गांधीजी बरामदे में खड़े थे। गांधीजी के बाद हरिभाऊ उपाध्याय पहुँचे। उन्होंने बरामदे में सजा ५३ Jain Education Internationa Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बापू को खड़े हुए देखा तो विनोद करते हुए कहाआज तो आप भी अपराधियों के कटघरे में आ गये हैं। बापू ने मुस्कराते हुए कहा—नियम के सामने सभी समान हैं। उपाध्याय ने कहा-मैं अभी कुर्सी ले आता है ताकि आप आराम से बैठे। बापू ने प्रतिवाद करते हुए कहा-कुर्सी की आवश्यकता नहीं है । सजा उसी तरह से भुगतनी चाहिए, जिस तरह दूसरे भुगतते हैं, उसी में मजा है। ५४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३१ : वासना-विजय एक वेश्या के भव्य भवन के सन्निकट होकर बौद्धभिक्षु जा रहा था । वेश्या ने बौद्धभिक्षु के सुगठित सुन्दर शरीर को देखा। वह उस पर मुग्ध हो गई । उसने भिक्षु का अभिवादन किया और प्रार्थना की कि इस वर्ष इसी भव्य भवन में वर्षावास करें । भिक्षु ने कहा- बहन ! मैं आऊँगा, किन्तु तथागत बुद्ध की आज्ञा लेनी होगी । उनकी जैसी भी आज्ञा होगी वह तुझे कल सूचित करूँगा । वेश्या ने कहायदि आज्ञा प्राप्त न होगी तो क्या करोगे ? भिक्षु ने दृढ़ विश्वास के साथ कहा- मुझे पूर्ण विश्वास है, बुद्ध अवश्य ही आज्ञा प्रदान करेंगे । दूसरे दिन भरी सभा चल रही थी । हजारों की को जन-मेदिनी बैठी हुई थी । भिक्षु ने तथागत से वेश्या का आमन्त्रण निवेदन किया और वहाँ वर्षावास करने के लिए अनुमति माँगी । वासना-विजय Jain Education Internationa ५५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथागत ने उसे सहर्ष अनुमति देते हुए कहा- तुम आनन्द के साथ वहाँ वर्षावास कर सकते हो। भिक्ष हो, फिर वेश्या से डरने की क्या आवश्यकता है ? भिक्षु वर्षावास हेतु वेश्या के भव्य आवास में पहेचा। वेश्या भिक्षु को देखकर आह्लादित थी। वह प्रतिदिन सरस भोजन भिक्षु को देती। भिक्षु उसे ग्रहण कर लेता। वह भिक्षु के सामने नृत्य करती, गायन गाती, अर्धनग्न बनकर हावभाव और कटाक्ष कर भिक्षु के दिल को लुभाने का प्रयत्न करती। किन्तु भिक्षु न उसके प्रति रस लेता और न नीरसता ही प्रकट करता। वह तो सदा समभाव में स्थिर रहता। वर्षावास के दो महीने व्यतीत हो गये। वेश्या भिक्षु के चरणों में गिर पड़ी--तुम हाँ, ना, भला या बुरा, कुछ भी तो कहो न ! किन्तु तुम्हारी मौन साधना और तटस्थवृत्ति से मैं कुछ भी निर्णय नहीं ले पाती। वेश्या के निवेदन का भी उस पर कोई असर न हुआ। वेश्या भिक्षु के अपूर्व त्याग और संयम को देखकर गदगद हो गयी। उसकी वासना कपूर की तरह उड़ गयी और उसने बौद्धधर्म में दीक्षा ग्रहण कर एक आदर्श उपस्थित किया। बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३२: व्यंग्य एक प्राध्यापक आचार्य विनोबा के पास पहुँचे। उन्होंने वार्तालाप में अपनी प्रशंसा करते हुए कहाआज दिन तक एक हजार से भी अधिक विद्यार्थी मेरे हाथ के नीचे से निकल चुके हैं। विनोबाजी ने चुटकी लेते हुए कहा---एक हजार से भी ज्यादा विद्यार्थी निकल गये । किन्तु तुम्हारे हाथ एक भी आया या नहीं ? प्राध्यापक महोदय का गर्व चूर-चूर हो गया। व्यंग्य ५७ Jain Education Internationa Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३३ : विनोद पं० गोविन्दवल्लभ पन्त ने विशिष्ट व्यक्तियों को भोजन के लिए निमंत्रित किया । रफी अहमद किदवई को कुछ विलम्ब हो गया । वे उस कमरे के दरवाजे के पास जाकर रुके जहाँ पर भोजन की व्यवस्था की गयी थी । उन्होंने पन्तजी से पूछा -जूता उतारू क्या ? पन्तजी ने विनोद करते हुए कहा-जूते उतारेंगे नहीं तो खायेंगे क्या ? चारों ओर हँसी के फव्वारे छूट पड़े । ५८ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३४ : अध्यापक का आदर्श - स्कूल में परीक्षा चल रही थी। स्कूल में एक नवीन अध्यापक की नियुक्ति हुई थी। वह परीक्षाभवन में चंक्रमण कर रहा था। उसने देखा एक विद्यार्थी नकल कर रहा है। उसने नकल करने के अपराध में विद्यार्थी को परीक्षा-भवन से निकाल दिया। वह विद्यार्थी उस विद्यालय के प्रधानाध्यापक का पुत्र था। जब परीक्षा परिणाम जाहिर हुआ उस समय वह विद्यार्थी अनुत्तीर्ण घोषित किया गया। सभी अध्यापकों के अन्तर्मानस में ये विचार-लहरियाँ तरंगित होने लगी कि इस अध्यापक ने प्रधानाध्यापक के पुत्र को परीक्षा-भवन से निकालकर महान् अपराध किया है जिससे प्रधानाध्यापक इस पर अप्रसन्न होंगे और इसे नौकरी से मुक्ति मिल जायगी। अध्यापक का आदर्श ५६ Jain Education Internationa Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस दिन परीक्षाफल प्रकाशित हुआ उसी दिन उस अध्यापक को चपरासी ने आकर सूचना दी कि प्रधानाध्यापक आपको बुला रहे हैं। वह प्रधानाध्यापक के कक्ष में पहुँचा। अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। प्रधानाध्यापक ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा-मुझे हादिक गौरव की अनुभूति हुई कि आपने एक आदर्श अध्यापक कार्य किया। मेरे पुत्र को दंडित करने में भी संकोच नहीं किया और साथ ही नकल करने के पश्चात् भी आपने उसे उत्तीर्ण नहीं किया। यदि उत्तीर्ण करते तो मैं आपको सेवा से निवृत्त कर देता। नवनियुक्त अध्यापक ने नम्रता के साथ निवेदन किया----यदि आपश्री मुझे अपने पुत्र को उत्तीर्ण करने के लिए बाध्य करते तो मैं इसी समय त्याग-पत्र दे देता। यह देखिये—मैं त्यागपत्र लिखकर ही लाया हूँ। अध्यापक की आदर्श बात से प्रधानाध्यापक का हृदय आनन्द से झम उठा। उसे अपनी छाती से लगाते हुए कहा-अध्यापक को ऐसा ही आदर्श उपस्थित करना चाहिए, तभी छात्रों के जीवन का निर्माण हो सकता है। बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३५: सच्चे नेता - २५ अप्रैल १६४५ का प्रसंग है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस रानी झांसी रेजिमेण्ट की बालिकाओं और अपनी सेना के साथियों को लेकर बैंकाक के लिए ट्रकों के द्वारा प्रस्थित हुए। कुछ ही मार्ग पार किया तो ट्रक कीचड़ में फंस गयीं । अवशेष रास्ता उन्हें पैदल चलकर ही पार करना था क्योंकि ब्रिटिश सेना उनके पीछे लगी हुई थी । अतः दिन भर भयंकर जंगलों में या किसी गाँव में छिपकर रहना पड़ता था और रात में यात्रा करनी पड़ती थी। भयंकर अँधेरी रात्रि, आकाश में उमड़-घुमड़ कर घटायें कभी-कभी हजारहजार धाराओं के रूप में बरसती तो कभी-कभी छहर छहर कर बरसतीं। कीचड़ से क्लान्त पथ को पार करना अत्यधिक कठिन था। पैरों में यत्र-तत्र फफोले पड़ चुके थे और शरीर में भी रात्रि में इधर-उधर सच्चे नेता ६१ Jain Education Internationa Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टकराने से जख्म हो चुके थे जिनमें से खून और मवाद बहता था। नेताजी वैसी ही विषम स्थिति में लड़खड़ाते हुए कदमों से सबका नेतृत्व कर रहे थे। एक जापानी सेना के अधिनायक ने नेताजी से अत्यन्त विनम्र शब्दों में निवेदन किया कि आप कितना भयंकर कष्ट उठा रहे हैं । कृपा कर आप हमारे साथ गाड़ी में बैठ जायें। नेताजो ने कहा-मैं स्वयं गाड़ी में चल और मेरे स्नेही-साथो पैदल चलें, यह बिल्कुल अनुचित है। मैं अपने पुत्र-पुत्रियों को छोड़कर जोप में नहीं बैठ सकता। जापानी अफसर का सिर नेताजी के अपूर्व त्याग को देखकर उनके चरणों में झुक गया। वस्तुतः ऐसे नेता हो देश का कल्याण कर सकते हैं। बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति का मार्ग मिश्र के महान् सन्त मैकेरियस सन्ध्या के सुहावने मौसम में घूम रहे थे। एक शिष्य उनके पास आया। उसने उनसे जिज्ञासा प्रस्तुत की कि भगवन् ! मुक्ति का मार्ग बताइये। मैकेरियस ने कहा-वत्स ! कब्रिस्तान में जाओ। वहाँ पर जो व्यक्ति कत्रों में सोये हुए हैं उन्हें दिल खोलकर गालियाँ दो, उन पर ढेले और पत्थरों को वर्षा करो। शिष्य ने सुना । वह हैरान हो गया। किन्तु गुरु की आज्ञा का पालन करने हेतु वह कब्रिस्तान में गया और दिल खोलकर गालियाँ दी, पत्थर फेंके। जब वह थक गया तो लौटकर सन्त मैकेरियस के पास पहुँचा। मैकेरियस ने पूनः आदेश दिया--अब जाओ और सुगंधित फूल व मधुर व फल उन कब्रों पर चढ़ाओ मुक्ति का मार्ग Jain Education Internationa Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा कब्र में रहे हुए व्यक्तियों को अत्यधिक प्रशंसा करो । शिष्य ने आदेश का पालन किया और पुनः लौटकर सन्त के पास पहुँचा । सन्त ने कहा – तुमने कब्रों की अर्चना भी की, सत्कार भी किया और अपशब्द भी कहे, पत्थर भी बरसाये । उन्होंने उत्तर में तुम्हारे को क्या कहा ? शिष्य ने कहा- जब मैंने गालियाँ दीं, पत्थर बरसाये तब भी वे शान्त थे और जब फूल चढ़ाये तब भी शांत ही रहे । सन्त ने पूछा- तुम इसका क्या अर्थ समझे ? शिष्य ने कहा- गुरुदेव ! कुछ भी नहीं । सन्त मैकेरियस ने कहा- उन कब्रों की तरह तुम्हें भी अपना जीवन जीना है । यदि तुम्हें मुक्ति चाहिए तो चाहे और लोग तुम्हारो निन्दा करें या प्रशंसा करें। तुम्हें निन्दा सुनकर नाराज नहीं होना है और प्रशंसा सुनकर खुश नहीं होना है । किन्तु समभाव में रहना है । समभाव हो मुक्ति का मार्ग है । ६४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३७ : प्रायश्चित्त प्रेममूर्ति ईसा एक स्थान पर खड़े थे। कुछ व्यक्ति ईसा की परीक्षा लेने के लिए एक महिला को लेकर वहाँ पर आये और कहा—यह महिला व्यभिचारिणी है । मूसा के धर्मोपदेश की दृष्टि से इसके पापकृत्य से मुक्त कराने हेतु इसे पत्थरों से मारना चाहिए। ईसा ने एक क्षण चिन्तन के पश्चात् कहा-मैं भी कहता है कि इसे पत्थरों से मारा जाय । पर वह व्यक्ति इसे मार सकता है जिसने जीवन में कभी भी पाप का सेवन न किया हो, जिसका जीवन पाप की कालिमा से मुक्त हो और धर्म की ज्योति से जगमगा रहा हो। ईसा की बात सुनकर सभी चिन्तन करने लगे कि हमारा जीवन भी तो पापी है। हमने अपने जीवन में प्रायश्चित्त . Jain Education Internationa Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकों पाप किये हैं। हमारे को पत्थर मारने का कोई अधिकार नहीं है। एक-एक कर सारी भीड़ छंट गयी। केवल ईसा और वह गुनाहगार महिला ही बची रही। ईसा ने पूछा-बहन ! सभी तुम्हारे पर इलजाम लगाने वाले कहाँ नौ दो ग्यारह हो गये? उन्होंने तुम्हें क्यों नहीं सजा दी ? भगवन् ! मुझे किसी ने भी सजा नहीं दी है। ईसा ने स्नेह से कहा- तुम अपने पापों का प्रायश्चित्त करो और भविष्य में कभी पाप न करने की प्रतिज्ञा करो। वह ईसा के चरणों में गिर पड़ी। ईसा ने एक हिंसक परम्परा को सदा के लिए बन्द कर दिया। बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३८ : स्वावलम्बी बंगाल के एक छोटे से स्टेशन पर ट्रेन रुकी । सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित एक युवक ट्रेन से नीचे उतरा। उसके पास एक छोटी-सी पेटी थी। उसने उच्चस्वर से 'कुली-कुली' पुकारना प्रारम्भ किया। उस नन्हे से स्टेशन पर कुली कहाँ पर मिलता ? एक अधेड उम्र का व्यक्ति साधारण ग्रामीण वेशभूषा में स्टेशन के प्लेटफार्म पर चंक्रमण कर रहा था। युवक ने कुली समझकर उसे अपने पास बुलाया और एकाध अपशब्द बोलकर कहातुम बड़े सुस्त हो, मैं कब से पुकार रहा हूँ, सुनते ही नहीं हो, उठाओ यह सामान और मेरे साथ चलो। उस व्यक्ति ने उस युवक की पेटी उठाई और उसके पीछे-पीछे चल दिया। घर पहुँचने पर उसने पेटी यथास्थान रखवाई और पारिश्रमिक के पैसे देने लगा किन्तु स्वावलम्बी ६७ Jain Education Internationa Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस व्यक्ति ने मुस्कराते हुए कहा-धन्यवाद ! मुझे पैसे की आवश्यकता नहीं है। ज्यों ही वह व्यक्ति जाने के लिए तैयार हुआ त्यों ही युवक के बड़े भाई अन्दर से निकल कर आये, और आते ही उस व्यक्ति के चरण-स्पर्श किये। युवक को पता चला कि जिस व्यक्ति से वह पेटी उठवाकर लाया है और जिसे कुली समझकर अपशब्द कहे थे वे बंगाल की प्रतिभामूर्ति ईश्वरचन्द्र विद्यासागर हैं। उस युवक के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई। उसने उनके चरणों में गिरकर अपने अपराध को क्षमा-याचना की। विद्यासागर ने युवक की पीठ थपथपाते हुए कहापश्चात्ताप न करो। व्यर्थ का मिथ्या अहंकार छोड दो। अपना कार्य अपने हाथों करने में लज्जा का अनुभव न करो। मेरे देश के युवक स्वावलम्बी बनें यही मेरी मजदूरी है। बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३६ : दान कैसा हो? एक धनी सेठ ने अन्नक्षेत्र खोला । सेठ में दान की की भावना तो बहुत ही कम थी पर प्रशंसा की भूख अत्यधिक थी। वह चाहता था कि समाज उसे सच्चा दानवीर समझे। सेठजी गल्ले के बहुत बड़े व्यापारी थे। अन्न के सैकड़ों कोठार भरे हुए थे। उसमें से सड़ा-गला और घुन लगा हुआ अनाज जो बाजार में बिक नहीं सकता था उसे सेठजी अन्नक्षेत्र में भिजवा देते थे। उस सडे-गले अनाज की रोटियाँ अन्नक्षेत्र में भूखों को मिलती थीं। सेठ के बड़े पुत्र का विवाह हुआ। बहूरानी घर में आई। वह बहुत ही सुशोल, विचारक व धार्मिक संस्कार वाली थी। उसने एक दिन अन्नक्षेत्र में जाकर देखा तो उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा। श्वसुर के इस व्यवहार से उसे अत्यधिक दुःख हुआ। दूसरे दिन से उसने घर में भोजन बनाने का कार्य अपने हाथ में लिया । अन्नक्षेत्र से सड़ा हुआ आटा मंगवाकर उसने दान कैसा हो ? ६६ Jain Education Internationa Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक रोटी बनाई । जब सेठ साहब भोजन के लिए बैठे तब अन्य स्वादिष्ट भोजन के साथ उस सड़े हुए अन्न की रोटी भी थाली में परोस दी । ँ काली और विचित्र आकार वाली रोटी देखकर सेठजी ने सोचा, यह नई चीज है । अतः पहला ग्रास उन्होंने उसी रोटी का लिया, पर मुँह में जाते ही सारे मुँह का जायका ही बिगड़ गया । सेठजी ने स्नेह से पुत्रवधू को कहा-बेटी ! घर में आटा बहुत है फिर यह सड़ा हुआ आटा कहाँ से लाई ? एक ग्रांस से ही मेरा जी मचल उठा । पुत्रवधू ने बहुत ही नम्रता से कहा - पिताजी ! अन्नक्षेत्र में इसी आटे की रोटियाँ बनती हैं और ये हो रोटियाँ भूख से छटपटाते हुओं को दी जाती हैं। मैंने ग्रन्थों में पढ़ा है कि जो यहाँ पर दिया जाता है वही परलोक में मिलता है । आपको भी परलोक में इसी आटे की रोटियाँ मिलेंगीं । मैंने सोचा अभी से आपको इसे खाने का अभ्यास हो जायेगा तो बाद में आपको कष्ट नहीं होगा । बहूरानी के कहने के तरीके ने सेठ के हृदय पर गहरा असर किया। उसी दिन से सड़ा-गला आटा बाहर फिंकवा दिया और अन्नक्षेत्र में बढ़िया आटे की रोटियाँ बनने लगीं । ७० बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४० : अधिकारो का कर्तव्य नौशेरवां ईरान का एक न्यायप्रिय बादशाह था । वह एक बार शिकार के लिए जंगल में गया । भोजन की सारी अन्य सामग्री साथ में थी पर नमक नहीं था । एक सेवक को आदेश दिया कि पास के गाँव में से थोड़ा-सा नमक ले आओ । सेवक शीघ्र हो नमक लेकर उपस्थित हुआ । बादशाह ने पूछा- क्या तुमने इसका मूल्य दिया ? सेवक ने कहा- इतने से नमक का मूल्य देने की क्या आवश्यकता ? बादशाह ने धीरे से उसे समझाते हुए कहा- ऐसी भूल भविष्य में कभी भी मत करना । जाओ, पहले नमक का मूल्य देकर आओ । तुम्हें मालूम होना चाहिए कि बादशाह यदि प्रजा की किसी वस्तु का मूल्य दिये बिना फल ले लेगा तो उसके कर्मचारी उस बाग को ही उजाड़ देंगे । बाग ही नहीं उजाड़ देंगे अपितु पेड़ को कटवाकर उसकी लकड़ियाँ भी जला देंगे । क्या देश के उच्चपदाधिकारी इस घटना से कुछ सबक लेंगे ? 0 अधिकारी का कर्तव्य Jain Education Internationa ७१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४१ : निष्काम भक्ति बात बगदाद की है । फकीर जुनैदा एक बार कहीं जा रहे थे । उन्हें मार्ग में एक नाई मिला जो लोगों की हजामत कर रहा था। काफी लोग बैठे हुए थे और वह क्रमशः हजामत कर रहा था । जुनैदा ने कहाखुद की खातिर तुम मेरी हजामत बना दो तो बहुत अच्छा होगा । नाई ने अन्य ग्राहकों को छोड़कर सबसे पहले फकीर जुनैदा की हजामत बनाई । कुछ दिनों के पश्चात् जुनैदा उसका पारिश्रमिक लेकर उसके पास गये और नाई के हाथ में पैसे थमा दिये। फकीर ने उसे उस दिन की बात स्मरण दिलवाई | नाई ने पैसे वापिस लौटाते हुए कहा- आपको शर्म नहीं आती । उस दिन आपने मुझे खुदा की खातिर हजामत करने के लिए कहा था और आज पैसे दे रहे हैं। मैंने खुदा की खातिर हजामत बनाई थी, पैसे की खातिर नहीं । नाई की इस बात से जुनैदा अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्होंने इस छोटी-सी घटना से सीख ली कि निष्काम भक्ति इस प्रकार करनी चाहिए । O बोलती तसवीरें ७२ Jain Education Internationa Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४२: संयम की आवश्यकता एक पौराणिक आख्यान है कि असुरों ने अपने प्रबल पराक्रम से देवताओं को इक्कीस बार हराया और इन्द्र के सिंहासन पर आसीन हुए तथापि असुरों को स्वर्ग छोड़ना पड़ा। इस रहस्य को जानने के लिए देवर्षि नारद ब्रह्मा के पास पहुँचे और सनम्र प्रार्थना की कि भगवन् ! असुर एक बार नहीं इक्कीस बार विजयी हुए तथापि इन्द्रासन पर अपना अधिकार क्यों नहीं रख सके ? ब्रह्मा ने रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहानारद ! शक्ति से ऐश्वर्य पाया जा सकता है पर उसका उपभोग संयमी व्यक्ति ही कर सकता है। असंयमी व्यक्ति अधिकार और ऐश्वर्य को पाकर मदान्ध हो जाता है। इसलिये उपभोग करने के लिए भी संयम की आवश्यकता है। संयम की आवश्यकता Jain Education Internationa Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४३ : मधुर बनो राजकुमार के अनुचित व उद्दण्डतापूर्ण व्यवहार से राजा अत्यधिक परेशान था। उसने तथागत बुद्ध से निवेदन किया- भगवन् ! राजकुमार को यदि आपश्री समझा सके तो मैं आपश्री का उपकार जोवन भर न भूलेगा। __ तथागत बुद्ध एक दिन घूमते हुए राजकुमार के पास पहँच गये। उससे वार्तालाप करते रहे, पास में हो एक पौधा था उसकी ओर संकेत करते हुए कहाराजकुमार ! जरा इस पौधे को चखो, इसका स्वाद कैसा है ? राजकुमार ने उसका पत्ता तोड़कर चखा। उसका मुह कड़वाहट से भर गया। उसने उसे थूक दिया और आवेश में आकर उस नीम के पौधे को जड़ से उखाड़ दिया। ७४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथागत बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा—राजकुमार ! तुमने यह क्या किया ? राजकुमार-भगवन् ! यह पौधा अभी से इतना कड़वा है कि मेरा सारा मुह कड़वा जहर हो गया है। यदि यह पौधा बढ़ जायेगा तो विष-वृक्ष ही बन जायेगा। इसीलिए मैंने इसे जड़ से ही उखाड़ फेंका। तथागत बुद्ध ने कहा—तुम्हारे कटु व्यवहार से जनता भी इसी तरह पीड़ित है, वह भी तुम्हें नष्ट करना चाहती है इसलिये यदि तुम फलना-फूलना चाहते हो तो अपने व्यवहार को मृदु बनाओ, नहीं तो इस पौधे की तरह तुम्हारी भी दशा हो जायेगी। तथागत बुद्ध के उपदेश का ऐसा असर हुआ कि राजकुमार के जीवन का नक्शा ही बदल गया। उसके जीवन में सादगी, संयम, सदाचार अंगड़ाइयाँ लेने लगे। ___ सभी के प्रति उसका व्यवहार बहुत ही मधुर हो गया। h0 मधुर बनो Jain Education Internationa Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४४: करोड़ों की माँ - महात्मा गान्धी का नमक सत्याग्रह बहुत ही जोरों से चल रहा था। स्थान-स्थान से लोग जेलों में जा रहे थे। वेदान्तियों का एक शिष्टमण्डल रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने के लिए पहँचा। वार्तालाप के प्रसंग में एक सज्जन ने कहा--गुरुदेव ! देखिये कितनी अन्धश्रद्धा चल रही है ? देशभक्ति का विचार कितना तुच्छ है ? यहाँ पर कौन अपना है और कौन पराया है ? यह तो सभी माया है। यह भूमि तो जड़ है फिर इस जड़ से इतना मोह क्यों ? रवि बाबू ने बहुत ही गम्भीर स्वर में उन सज्जन से पूछा-क्या आपकी माता जीवित है ? हाँ गुरुदेव ! जोवित है। क्या आप माँ का सिर काटकर ला सकते हैं ? ७६ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस सज्जन के चेहरे पर क्रोध की रेखायें चमक उठीं, उसकी आँखें लाल हो गई, बोला-क्या आप मुझे इतना नीच समझते हैं जो मैं अपनी महान् उपकार करने वाली माँ का सिर काटकर लाऊँ ? रवि बाबू ने धीरे से कहा-आप स्वयं नहीं काट सकते तो दूसरे को काटकर लाने की आज्ञा तो दे ही सकते हैं ? आज्ञा की तो बात दूर रही यदि मुझे यह मालूम हो जाये तो उस दुष्ट का ही सिर काट लूगा। रवीन्द्रनाथ ने कहा-अच्छा तो देखिए गांधीजी और उनके साथी भी अपनी माँ पर इसी प्रकार की निष्ठा रखते हैं। अन्तर केवल यही है कि आपकी माँ केवल आपकी ही माँ है जब कि उनकी माँ भारत के करोड़ों निवासियों की माँ है जिसका अधिक महत्व उस सज्जन के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। शर्म से नीचा सिर किये धीरे से वहाँ से चल दिये। करोड़ों की मां Jain Education Internationa Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४५: भाई की चोट एक सुनार की दुकान के पास ही एक लुहार की भी दुकान थी। सुनार जब कार्य करता तो उसकी बहुत ही धीमी आवाज होती थी किन्तु जब लुहार कार्य प्रारम्भ करता तो उसकी भयंकर आवाज से दूकाने ही काँप उठती। । एक दिन एक स्वर्ण-कण लुहार की दुकान में जाकर गिर पड़ा। उसने लोहे के कण से कहा-भाई ! हम दोनों एक ही तरह के दुःखी हैं। मुझे भी आग में तपना पड़ता है और तुम्हें भी। मुझे भी हथौड़े की चोट सहन करनी पड़ती है और तुम्हें भी। किन्तु मैं चोट को कितनी शान्ति से सहन करता है और तुम कितना हो-हल्ला करते हो। लोहे के कण ने कहा- तुम्हारा कहना सत्य है किन्तु तुम्हारे पर जो हथौड़ा चोट करता है वह तुम्हारा सगा भाई नहीं है पर वह मेरा सगा भाई है। सगे भाई के द्वारा की गई चोट की पीड़ा बहुत ही असह्य होती है, जिसका तुम्हें अनुभव नहीं है। JaFEducation InternationaFor Private & Personal use Only बोलती तसवीरें Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद-भाव पानीपत के मैदान में दोनों ओर की सेनाएँ पड़ी हुई थीं। एक ओर मराठों की सेना थी और दूसरी तरफ अहमदशाह अब्दाली की सेना थी। किन्तु सर्वप्रथम पहल कौन करे ? युद्ध का बिगुल पहले कौन बजाये? इसी उलझन में दोनों उलझे हुए थे। रात्रि का गहन अंधकार था। अहमदशाह अब्दालो अपने मुख्य सरदारों के साथ घूम रहा था। उसने देखा, दूर जहाँ पर मराठों की सेना का पड़ाव पड़ा हुआ है वहाँ पर जगह-जगह आग जल रही है। अब्दाली के कदम रुक गये। उसने अपने सरदारों से पूछा-यह सामने स्थान-स्थान पर आग क्यों जल रही है ? एक सरदार ने निवेदन किया-हजुर ! मराठा लोग अपना भोजन पका रहे हैं। भेद-भाव Jain Education Internationa Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्दाली ने पुनः प्रश्न किया-ये पृथक्-पृथक् क्यों पका रहे हैं ? सभी का भोजन तो एक साथ ही बन सकता है ? दूसरे सरदार ने कहा- हुजूर ! इनका भोजन एक साथ नहीं बन सकता क्योंकि ये एक दूसरे का छुआ हुआ नहीं खाते हैं। अब्दाली ने सक्रोध कहा-अरे ! तुम लोगों ने यह बात मुझे पहले क्यों नहीं बताई ? जिस जाति के लोग एक-दूसरे का स्पर्श किया हुआ भोजन नहीं कर सकते वे भला कन्धे से कन्धा मिलाकर किस प्रकार लड़ सकते हैं ? प्रातः होते ही युद्ध का बिगुल बजा दो, अब हमारा जीत निश्चित है। प्रातः होते ही युद्ध के नगाड़े बज गये। मराठे बहुत ही बहादुरी के साथ रणक्षेत्र में जूझते रहे किन्तु पारस्परिक फूट और भेदभाव के कारण उन्हें पराजित होना पड़ा ओर एकता के कारण अहमदशाह अब्दालो को विजय मिली। ८० बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४७ : खाली हाथ न लौटो एक महात्मा पर्वत की गुफा में ध्यानमुद्रा में बैठे थे । पूर्णिमा की रात थी । दुग्ध धवल चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी । एक चोर ने गुफा में प्रवेश किया। महात्मा ध्यान में लीन थे। चोर ने गुफा को अच्छी तरह से ढूँढ़ा पर उसे कुछ भी नहीं मिला । निराश होकर निःश्वास छोड़ते हुए उसके मुँह से ये शब्द निकल गये - अरे ! यहाँ तो कुछ भी नहीं मिला । सारा परिश्रम ही व्यर्थ गया । वह गुफा से बाहर निकलना चाहता ही था कि महात्मा ने उसका हाथ पकड़ लिया । अरे ! तुम बहुत हो दूर से आये हो । लगता है तुम बहुत थक भी गये हो । मेरे यहाँ आकर खाली हाथ निराश लौटो यह ठीक नहीं है । ले जाओ यह मेरे ओढ़ने का कम्बल | उन्होंने अपना कम्बल उसके हाथ में थमा दिया, और अर्धनग्न दशा में गुफा के बाहर आकर बैठ गये । चन्द्रमा की ओर टकटकी लगाकर देखने लगे । उनके हृदय तन्त्री के तार झनझना उठे -क्या ही अच्छा होता, मैं उस गरीब आदमी को यह सुन्दर चाँद दे पाता । 0 खाली हाथ न लोटो Jain Education Internationa ८१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४८: संगति का असर प्रातःकाल का सुहावना समय था। एक राजा घोड़े पर बैठकर प्राकृतिक सौन्दर्य-सुषमा को देखने के लिए जंगल में अकेला जा रहा था। भीलों की झोंपड़ियों के पास से ज्यों ही वह निकला त्यों ही वृक्ष की टहनी पर बैठा हुआ एक तोता पुकार उठा-दोड़ो ! शीघ्रता करो, इसे पकड़ लो, मार डालो, इसका घोड़ा छोन लो, इसके आभूषण उतार लो। __राजा ने ये शब्द सुने, वह समझ गया कि यह डाकुओं की बस्ती है। राजा ने घोड़े को पूरे वेग से दौड़ा दिया। डाकू राजा के पीछे दौड़े किन्तु राजा को पकड़ नही सके। वे निराश होकर लौट गये। __ राजा काफी दूर पहुँच गया था। एक ऋषियों का आश्रम आया। एक तोता वृक्ष पर बैठा हुआ आवाज बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगा रहा था-पधारिये राजन् ! आपका स्वागत है, सुस्वागत है, ऋषिप्रवर ! जल्दी पधारिये । हमारे अतिथि आये हैं । इनका स्वागत कीजिये। ऋषि कुटिया से बाहर आये। उन्होंने राजा का स्वागत किया। राजा ने विश्राम लेने पश्चात् ऋषि से पूछा-भगवन् ! एक ही जाति के पक्षियों के स्वभाव में इतना अन्तर क्यों है ? ___ ऋषि उत्तर दें उसके पूर्व ही तोते ने कहाराजन् ! हमारे दोनों के माता-पिता एक ही हैं। उसे डाकुओं को संगति मिली और मुझे साधुओं की संगति मिली। उसी संगति के कारण हम दोनों भाइयों के स्वभाव में यह अन्तर है। संगति का असर ८३ Jain Education Internationa Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४६: मेरा देश महान है स्वामी विवेकानन्द अमेरिका की यात्रा कर वपिस भारत लौटे । एक अंग्रेज पत्रकार ने भारत की मजाक उड़ाने की दृष्टि से उनसे पूछा-वैभव-विलास और ऐश्वर्य की उस स्वर्णभूमि अमेरिका को देखने के पश्चात् आपको अपनी मातृभूमि कैसी लग रही है ? अंग्रेज पत्रकार मन हो मन प्रसन्न हो रहा था कि यह भारत का महान विचारक अमेरिका के विराट वैभव, वहाँ की चमक-दमक को देखकर अवश्य ही प्रभावित हुआ होगा। किन्तु स्वामीजी ने कहा-मैं अमेरिका जाने के पूर्व अपने देश से प्यार करता था पर वहाँ से लौटने के पश्चात् मैं उसकी श्रद्धा से पूजा करने लगा है कि मेरा देश कितना महान् है। ८४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५० साहस __ अमेरिका के महान विचारक और अनुसंधाता एडिसन नींद ले रहे थे। पत्नी ने उनको जगाया और कहा-आप सोये हुए हैं और आपका कारखाना पूर्ण रूप से जलकर भस्म हो गया है। ___एडिसन ने पत्नी की बात अच्छी तरह से सुनी, स्थिति समझी और पत्नी को धैर्य बँधाते हुए कहाघबराओ नहीं हम सलामत हैं फिर कारखाने की क्या चिन्ता ? एक नहीं हजारों कारखाने तैयार हो जायेंगे। जीवन भर की कमाई नष्ट हो जाने पर भी उनका धैर्य अविचल रहा और उसी धैर्य के कारण उन्होंने कारखाना जलने के ठीक सत्रहवें दिन ग्रामोफोन का आविष्कार किया। एतदथे ही नीतिकारों ने कहा है-- "साहसे श्री प्रतिवसति" एडिसन के अद्भुत साहस ने इस उक्ति को पूर्ण रूप से चरितार्थ कर दिया। साहस Jain Education Internationa Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५१: स्वस्थ रहने का नुस्खा एक रुग्ण व्यक्ति ने एक बहुत बड़े अनुभवी वैद्य से पूछा-कृपया स्वस्थ रहने का सुन्दर नुस्खा बताइये। वैद्य ने कुछ क्षणों तक चिन्तन के पश्चात् कहासर्वोत्तम स्वास्थ्य के लिए 'हरी, वरी और करी' से सदा दूर रहना चाहिए। ___ हरी का अर्थ है जल्दबाजी, वरी का अर्थ है चिन्ता और करी का अर्थ है मिर्च मसाला। जो इनसे सदा दूर रहता है वह कभी भी बीमार नहीं हो सकता। ८६ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५२ : महान् निबन्ध लेखक चार्ल्स डिकन्स एक बहुत ही गरीब परिवार में जन्मा था। जहाँ पर न खाने को पूरा अन्न मिलता था और न पहनने को पूरे वस्त्र ही मिल पाते थे। तथापि पिता ने उसे अध्ययन के लिये स्कूल में भेजा। वह चार वर्ष तक हो स्कूल में पढ़ सका। पिता पर इतना कर्ज हो गया था कि कठिन परिश्रम करके भी वह उसे चुका नहीं पा रहा था। कर्ज न चुकाने के कारण उसके पिता को जेल हो गई। घर में एक बहुत कठिन समस्या उपस्थित हो गई । सारा परिवार भूखों मरने लगा। चार्ल्स को पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़ी। उसका कार्य था एक गोदाम में लेबल चिपकाने का। वह गोदाम लन्दन की एक अंधेरी कोठरी में था जिसमें अत्यधिक चूहे थे। महान् निबन्ध लेखक ८७ Jain Education Internationa Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार्ल्स डिकन्स को प्रारम्भ से हो निबन्ध लिखने की अभिरुचि थी। वह जो भी लिखता उसे कहीं कोई न देख ले इसलिए लिखकर फाड़ देता था या उसे कहीं पर छुपाकर रख देता था जिससे कि उसे पढ़कर कोई उसकी मजाक न उड़ाये।। जिस कोठरी में चार्ल्स रहता था, उसी कोठरी में उसके साथ दो अन्य लड़के भी रहते थे। उन दोनों लड़कों के सो जाने के पश्चात् चार्ल्स उठता और निबन्ध लिखता और उसे तहखाने में छिपा देता था। किसी को भी पता नहीं था कि वह निबन्ध लिखता है। कोठरी में रहने वाले एक लड़के ने उसका एक निबन्ध एक पत्रिका में भेज दिया और वह उस मासिक पत्रिका में प्रकाशित हो गया। उसमें सम्पादकीय टिप्पणी भी लिखी थी कि चार्ल्स का मस्तिष्क निबन्ध लिखने में बहुत ही उर्वर है। चार्ल्स ने पहली बार जब अपना निबन्ध प्रकाशित हुआ देखा तो उसे अत्यधिक प्रसन्नता हुई। सम्पादक के प्रोत्साहन से उसके जीवन में अपूर्व उत्साह का संचार हो गया। उसका बुझा हुआ दीपक प्रोत्साहन से जल उठा और वह अपने युग का एक महान निबन्ध लेखक हो गया। बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५३: सद्गुण अंगूर की बेल एक बालक ने माँ से जिज्ञासा व्यक्त की-माँ ! बबूल के पौधे की देख-रेख करने की आवश्यकता नहीं होती और वह अपने आप ही इतना बढ़ जाता है कि मत पूछो पर आम, मोसम्बी, नारंगी के पौधों और अंगूर आदि की बेलों की कितनी रक्षा करनी पड़ती है तब जाकर वे धीरे-धीरे बढ़ते हैं। इसका क्या रहस्य है ? माँ ने कहा-वत्स ! श्रेष्ठ वस्तुओं के लिये सदा परिश्रम करना पड़ता है। सद्गुण भी अंगूर को बेल की तरह हैं । जरा-सी भी उपेक्षा की जायेगो तो वे नष्ट हो जायेंगे और दुगुण बबूल की तरह हैं जो अपने आप बढ़ते रहते हैं। वह जब तक जिन्दा रहता है तब तक दूसरों को कष्ट देता रहता है, अतः वत्स ! तुझे बबूल नहीं, आम और अंगूर बनना है। जन-जन का प्यारा बनना है। सद्गुण अंगूर की बेल ८६ Jain Education Internationa Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५४ : अन्तिम चोट - अमेरिका के एक महान् विचारक का नन्हा-सा लड़का शराब पीने के लिये हठ करने लगा। माता उसे जरा-सी शराब पिलाने के लिये तैयार हो गई। पिता ने स्पष्ट शब्दों में कहा-इसे शराब नहीं दी जाये। पिता की यह बात सुनते हो लड़का जोर-जोर से रोने लगा। माँ का कोमल हृदय पसीज गया। उसने कहाआज इसे जरा-सी शराब पी लेने दीजिये, कल से इसको फिर कभी भी शराब नहीं देंगी। वह विचारक उठा और एक पत्थर तथा हथौड़ा लेकर आया और पत्थर पर हथौड़े मारने लगा। पच्चोस बार चोट करने पर उस पत्थर के टुकड़े-टुकड़े हो गये। विचारक ने अपनी पत्नी से पूछा-क्या तुम बता सकती हो कि किस चोट से यह पत्थर टूटा है ? बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नी ने कहा- यों तो यह पत्थर पच्चीसवीं बार की चोट से टूटा है । किन्तु इसके टूटने में सभी चोटें सम्मिलित हैं। विचारक ने मुस्कराते हुए कहा-समझी न ! इसी तरह बालकों की आदत बिगड़ती है। उसके पवित्रचरित्ररूपी पत्थर पर यदि बुरे संस्कारों के, आदतों के हथौड़े पड़ने लगेंगे, यह ठीक है कि प्रारम्भिक चोटों पर लोगों का ध्यान नहीं जायेगा; परन्तु वे ही चोटें इतना कमजोर बना देती हैं कि अन्तिम चोट में वह भी इस पत्थर की तरह टटकर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा। अन्तिम चोट ६१ Jain Education Internationa Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मान करो __महान् सम्राट् नेपोलियन एक दिम घूमने के लिये जा रहे थे। रास्ता बहुत ही संकीर्ण था, उस पर दो व्यक्ति एक साथ नहीं चल सकते थे । महिला आगे थी और नेपोलियन पीछे थे। सामने से एक मजदूर घास का भारी-भरकम गट्टर लिये हुए आ रहा था। उस महिला को अपने उच्चकुल का, पद का और सत्ता का गर्व था। वह उस समय सम्राट के साथ थी अतः मार्ग कैसे छोड़ती। वह मार्ग के बीच में इस तरह से अकड़ती हुई चल रही थी मानो उसने सामने आने वाले मजदूर को देखा ही न हो। नेपोलियन रास्ते में से एक ओर हट गये और महिला को अपनी ओर खींचते हुए कहा'मैडम ! भार को सदा सम्मान देना चाहिये। जिसके सिर पर भार है चाहे वह कम हो या अधिक, सदा उसका सम्मान करना चाहिए। वह सदा सन्मान देने के योग्य है। १२ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५६ : जन-नेता रूस परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। सन् १६१६ में लेनिन के नेतृत्व में क्रान्ति का स्वर बुलन्द हो रहा था। विरोधियों ने लेनिन पर आक्रमण किया जिससे वे घायल होकर रुग्ण हो गये। वे पूर्ण स्वस्थ नहीं हो पाये थे कि उन्हें समाचार प्राप्त हुआ कि भारी वर्षा के कारण रेल्वे पुल टूट गया है। उस पुल की शीघ्र ही मरम्मत होनी चाहिए। देशभक्त लोगों ने अनुभव किया कि वैज्ञानिक और मजदूरों के भरोसे ही रहा जायेगा तो कई दिनों तक पुल तैयार नहीं हो सकेगा। देशभक्त लोगों का झुण्ड पुल की मरम्मत करने के लिए पहुँच गया और सभी के हार्दिक सहयोग से पुल शीघ्र ही तैयार हो गया । बहुत ही शीघ्र पुल तैयार होने से सभी के मन में अपार प्रसन्नता हुई । उसके उपलक्ष्य में एक उत्सव का जन-नेता ६३ Jain Education Internationa Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयोजन किया गया। लोगों ने देखा, लेनिन सामान्य मजदूरों की पंक्ति में बैठे हैं। उन्होंने लठे ढोने का कार्य कई दिनों तक किया था। लोगों ने कहा-आप जन-नेता हैं । आपको इस प्रकार का जिसमें कठोर श्रम होता है वह कार्य नहीं करना चाहिए। आपको तो सर्वप्रथम अपने स्वास्थ्य की रक्षा करनी चाहिए। लेनिन ने मुस्कराते हुए कहा-यदि मैं इतना कठोर श्रम नहीं करूंगा तो मुझे कौन जन-नेता कहेगा। यदि मैं अपना कार्य दूसरों के ही भरोसे छोड़ दूंगा तो फिर आप ही बताइये कि कार्य कैसे सम्पन्न होगा? अपने देश की उन्नति और विकास के लिए यह आवश्यक है कि सभी मिलकर परिश्रम करें। ६४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५७ : सर्वधर्म-समभाव PR सन् १७२८ में गोदावरी के तट पर बाजीराव प्रथम और निजाम-उल-मुल्क के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। मराठे वीर जीत गये। मुस्लिम सेना के पास अनाज समाप्त हो गया और इसी बीच एक मुस्लिम त्यौहार भी आ गया। निजाम ने बाजीराव के पास दूत भेजा, और उनसे प्रार्थना की कि सेना में भोजन की अत्यधिक कमी हो गई है एतदर्थ आप अन्न और किराने की मदद प्रेषित करें। बाजीराव ने अपने सभी प्रमुख सरदारों से इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। सभी ने एक स्वर से कहा कि इस समय कुछ भी नहीं भेजा जाय । भूख से छटपटाते हुए वे हमारी अधीनता सहर्ष स्वीकार कर लेंगे। सर्वधर्म-समभाव Jain Education Internationa Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाजीराव पेशवा को सरदारों का यह निर्णय पसन्द नहीं आया। उन्होंने कहा-यह एक प्रकार से अन्याय है। शत्रु भूखा हो, प्यासा हो, या बीमारी से कराह रहा हो उस समय उसे नष्ट करना अनुचित है। निजाम ने जितनी माँग की है उससे भी अधिक भेज कर उसका सम्मान करना चाहिए ऐसी मेरी राय है। वाजीराव पेशवा के आदेश से पाँच हजार बैलों पर सम्पूर्ण सामग्री रखवाकर निजाम के पास भिजवा दी गई। निजाम सामग्री को देखकर अत्यधिक प्रभावित हुआ । जीवन भर उनके उपकार को नहीं भूला । यह थी भारतीय वीरों की उदारता और सर्वधर्मसमभाव की वृत्ति । बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Private & Personal Use Only www.jain Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५८ : श्रद्धा तिराती है एक शिष्य को गुरु पर अपार श्रद्धा थी। वह अपने घर से गुरु के दर्शन के लिए चला । रास्ते में एक नदी में उफान-तूफान आ रहा था। शिष्य को तैरना बिल्कुल भी नहीं आता था। किन्तु वह किञ्चित् मात्र भी घबराया नहीं। उसने श्रद्धा के साथ गुरु का नाम लिया और पानी पर तैरता हआ नदी पार गया। गुरु का आश्रम नदो के दूसरे तट पर था। शिष्य को इस प्रकार नदी पार कर आते हुए देखकर गुरुजी को अत्यधिक आश्चर्य हुआ। ___ गुरु ने इसका रहस्य जानने के लिए पूछा तो शिष्य ने कहा-गुरुदेव ! मेरे में कुछ भी सामर्थ्य नहीं है, यह सभी शक्ति आपश्री के नाम में ही है। श्रद्धा तिराती है Jain Education Internationa Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुजी ने सुना तो उन्हें अहंकार आ गया। अरे, मेरे नाम में इतनी शक्ति और सामर्थ्य है जिसका मुझे ध्यान ही नहीं था। दूसरे दिन गुरुजी को नदी पार किसी कार्य के लिए जाना था। अहंकार का काला नाग तो मन में फन फैलाकर बैठा ही था । वे मैं-मैं कहकर नदी में कूद पड़े। नदी का प्रवाह इतना तेज था कि संभल नहीं सके और पानी में डूब गये। श्रद्धा तिरातो है और अहंकार व्यक्ति को डुबा देता १८ बोलती तसबीरें Jain Education Internationa Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५६: गुणों का सन्मान काजल ने दीपक को उपालम्भ देते हुए कहाबताओ, मैंने क्या अपराध किया है जो तुम्हारे जैसे ज्योतिपुञ्ज का पुत्र होकर भी मुझे काला-कलूटा रूप मिला है ? दीपक ने कहा-वत्स ! क्या तुझे अपने रूप पर घृणा है । तू तो मेरे से भी अधिक गुणी है । मैं तो केवल नेत्रज्योति वालों को आलोक प्रदान करता हूँ किन्तु तु तो क्षोण-ज्योति वालों को भी फिर से ज्योति देता है। तेरे को आँजने से आँखों में अपूर्व सौन्दर्य और कान्ति आ जाती है। तू जरा अपने गुणों को पहचान । तेरा सर्वत्र सम्मान होगा। गुणों का सम्मान 88 Jain Education Internationa Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६० : व्यर्थ का अभिमान हारु -अल रशीद अपने युग का एक महान् बादशाह था । उसकी उदारता, सहृदयता से जहाँ प्रजा प्रभावित थी वहाँ उसके तेजस्वी व्यक्तित्व से अपराधी काँपते भी थे । एक बार एक संन्यासी उसके राज्य में आया । उसके पावन उपदेशों से जन-जन के मन में धर्म का संचार होने लगा । जब संन्यासी की कीर्ति बादशाह ने सुनी तो स्नेह से उसे अपने महल में बुलाया और उससे उपदेश सुनने लगा । संन्यासी का उपदेश प्रवाह चल रहा था बादशाह को जोर से प्यास लगी । उसने अपने अनुचर को पानी लाने का संकेत किया । ज्यों ही वह पानी लेकर आया संन्यासी ने हारु रशीद से प्रश्न किया - कल्पना कीजिये, १०० बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप भीष्म-ग्रीष्म की चिलचिलाती धूप में जा रहे हों, आपको बहुत तेज प्यास लगी हो, प्राण निकलने की स्थिति हो। उस समय एक गिलास पानी की कीमत कितनी होगी ? क्या आप बता सकते हैं ? बादशाह-उस समय पानी पिलाने वाले को मैं आधा राज्य पुरस्कार में दे सकता हूँ। जब बादशाह पानी पी चुका तो संन्यासी ने पुनः प्रश्न किया—कि जो एक गिलास पानी आपने पिया है, वह पानी पेशाब बनकर यदि आपके शरीर में से पुनः बाहर न निकले तो उस समय आपके शरीर को क्या स्थिति होगो ? उसकी कल्पना करते ही आप काँप उठेंगे। यदि उस समय आपको पेशाब कराने के लिए कोई वैद्य आधा राज्य माँगे तो क्या आप उसे दे देंगे ? "हाँ, उसे मैं आधा राज्य दे = गा।" संन्यासी ने उपदेश देते हए कहा—जिस राज्य पर तुम्हें इतना गर्व है, जिसको कल्पना से हो तुम फूले नहीं समाते हो, उसकी कीमत केवल एक गिलास पानी है। फिर व्यर्थ का अभिमान क्यों कर रहे हो ? यह कहकर संन्यासी वहाँ से चल दिया। व्यर्थ का अभिमान १०१ Jain Education Internationa Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६१ : पगड़ी की शान मेवाड़ की आन-शान एवं मर्यादा की रक्षा स्वतन्त्रता के महान सेनानी महाराणा प्रताप गिरिकन्दराओं में और वनों में भटक रहे थे । महाराणा प्रताप का एक भाट जिसकी अत्यन्त दयनीय अवस्था थी, वह कुछ अर्थ - प्राप्ति की कामना से बादशाह अकबर के दरबार में पहुँचा । उसने सर्वप्रथम अपने सिर की पगड़ी उतारकर सम्राट् को अभिवादन किया । भाट की यह विचित्र हरकत देखकर बादशाह अकबर को गुस्सा आ गया । उन्होंने उसे फटकारते हुए कहा - इस प्रकार मूर्खतापूर्ण व्यवहार करना एक प्रकार का बहुत बड़ा अपराध है । तुमने हमारा अपमान किया है । इसका तुम्हें दण्ड दिया जायगा । बोलती तसवीरें १०२ Jain Education Internationa Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाट ने नम्रता से निवेदन किया मैं एक बहुत ही गरीब भाट हूँ। किसी तरह इधर-उधर से माँगकर अपना जीवन यापन करता हूँ । पेट बड़ा पापी है । इसके लिए मुझे आपकी सेवा में आना पड़ा है । मैंने पगड़ी उतारकर आपको नमस्कार किया, इसका बहुत बड़ा रहस्य है । यह पगड़ी मुझे महाराणा प्रताप ने दी है । वे अपार कष्टों को झेल रहे हैं किन्तु आपके सम्मुख उन्होंने सिर नहीं झुकाया तो उनकी दी हुई पगड़ी को मैं कैसे झुका सकता हूँ । इसीलिए मैंने पगड़ी उतारकर नमस्कार किया । भाट की बात सुनकर अकबर के आश्चर्य का पार न रहा । वह सोचने लगा कि जिसके भाट भी अपने स्वामी के स्वाभिमान और मर्यादा को आँच आने नहीं देते । वस्तुतः वह प्रताप कितना महान् होगा । पगड़ी की शान १०३ Jain Education Internationa Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६२: गजनवी को न्यायप्रियता - - महमूद गजनवी को इतिहास के पृष्ठों पर एक लुटेरा, कर और धर्मान्ध बादशाह के रूप में चित्रित किया गया है । वह एक योग्य शासक भी था। सियासतनामा ग्रन्थ में उसके जीवन की घटना उपलब्ध होती है। एक बार एक गरीब किसान ने महमूद से निवेदन किया कि बादशाह प्रवर ! आपको सेना का कोई उच्च अधिकारी प्रतिदिन मेरो झोंपड़ी पर आता है और रात भर मेरी पत्नी के साथ दुराचार करता है। जब मैं विरोध करता हूँ तब वह मुझे मारने की धमकी देता है। महमूद ने सुना । उसके आश्चर्य का पार न रहा। सेना का अधिकारी और फिर ऐसा निकृष्ट कार्य । उसने किसान से पूछा -- क्या तुम्हारी पत्नी बहुत ही सुन्दर किसान ने कहा-मेरे आस-पास के पड़ोसी कहते हैं कि ऐसी सुन्दरो कहीं नहीं है । १०४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महमूद ने उसे अपने पास बिठा लिया। रात्रि के अन्धकार में वेष परिवर्तन कर किसान को लेकर वह उसके घर पहुँचा। किसान के घर में दीपक का मन्दमन्द प्रकाश टिमटिमा रहा था। उसने देखा कि सेना का अधिकारी किसान की पत्नी के साथ सोया हुआ है। उसने किसान को दीपक बुझाने का संकेत किया। महमूद ने अंधेरे में ही उस व्यक्ति की गरदन तलवार से उड़ा दी। और पुनः किसान को प्रकाश करने के लिये कहा। किसान यह देखकर हैरान हो गया। महमूद ने कहा-मेरी कठोरता विश्वविश्रुत है। सामान्य व्यक्ति कोई भी इतना साहस नहीं कर सकता । अतः मैं सोच रहा था कि यह व्यक्ति मेरे पुत्रों में से या परिवार में से कोई होगा। प्रकाश में मारते हए मेरा हाथ कहीं काँप न जाय, और मैं न्याय से विचलित न हो जाऊँ, इसलिए मैंने अन्धकार करवाया। पर मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि यह व्यक्ति मेरे पुत्र या मेरे परिवार का नहीं है। यदि होता तो इस प्रकार के दुष्कृत्य से मेरा सिर लज्जा से झक जाता कि मेरे कुल में ऐसा दुराचारी पैदा हुआ है जो अपनी प्रजा के साथ इस प्रकार का पापपूर्ण व्यवहार करता है। गजनवी की न्यायप्रियता १०५ Jain Education Internationa Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजावत्सलता - anorarevaluat.TALAntaLL3. __ बादशाह फिरोजशाह की मृत्यु के पश्चात् उसका भाई अहमदशाह दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। अहमदशाह पर आर्य संस्कृति की गहरी छाप थी। वह जाति से मुसलमान था, किन्तु उसके मन में आर्य संस्कृति के प्रति गहरा आकर्षण था। एक समय उसके राज्यकाल में भयंकर दुष्काल पड़ा । दुष्काल से नदी-नाले, कुए तालाब सभी का पानी सूख गया। बादशाह ने सभी मुसलमानों को बुलाकर आदेश दिया कि वे नमाज पढ़े और खुदा से प्रार्थना करें कि वर्षा हो और हिन्दुओं को आदेश दिया कि वे अपने धार्मिक अनुष्ठान करें जिससे वर्षा हो सके । वर्षा न होने से वह बहुत ही परेशान था। उसने राजा जनक और सीता की कथा सुनी थी कि वे बोलती तसवीर Jain Education Internationa Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजा के लिए स्वयं हल चलाते थे और स्वयं प्रार्थना भी करते थे। बादशाह अहमदशाह स्वयं एकाकी जंगल की ओर निकल गया। एक ऊँचे स्थान पर बैठकर वह प्रार्थना करने लगा। प्रार्थना करने में इतना तल्लीन हो गया कि उसे कुछ भी भान न रहा। वह तब तक उस स्थान से नहीं उठा जब तक भरपूर वर्षा से पृथ्वी हरी-भरी न हो गई। यह था उसके अन्तर्मानस में प्रजा के प्रति अपार स्नेह । प्रजावत्सलता १०७ Jain Education Internationa Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६४ : शान्ति का मूल मंत्र एक युवक एक महान् योगी की सेवा में पहँचा। नमस्कार कर उसने योगी से निवेदन किया-भगवन् ! मैं वर्षों से शान्ति की अन्वेषणा कर रहा हूँ। शान्ति के लिये नदी-नाले, पहाड़-गुफाएँ सभी छान लीं। फुटबाल की तरह इधर से उधर भटकता रहा । पर शान्ति नहीं मिली। आज भी मन में अशान्ति का ज्वालामुखी दहक रहा है। आप अनुभवो हैं । कृपा कर शान्ति का उपाय बताइये। योगी ने स्नेहभरी दृष्टि से युवक को देखा और कहा-तुम्हें शान्ति चाहिये न ? शान्ति के लिए राजगृह के नगरश्रेष्ठी के पास पहुँच जाओ। तुम्हें अवश्य ही शान्ति प्राप्त होगी। १०८ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - युवक सीधा ही नगरसेठ के पास पहुँचा कहा—उस महान् योगी ने आपके पास प्रेषित कि. है, शान्ति का मार्ग जानने के लिए। नगर-सेठ ने कहा-पूज्य प्रवर योगीराज ने भेजा है तो तुम यहाँ रहो और देखते रहो। यदि तुम्हारा चिन्तन जागृत है तो तुम्हें अवश्य ही मार्ग मिल जायगा। युवक सेठ के पास रहने लगा और सेठ की दिनचर्या को देखता । वह दिन भर कार्य में व्यस्त रहता। सैकड़ों अनुचरों से घिरा हुआ रहता । युवक ने सोचा यह तो माया का दास है। इसे स्वयं को शान्ति नहीं तो मुझे यह शान्ति का मार्ग कैसे बतायेगा? व्यर्थ ही योगी ने मुझे यहाँ भेजा। यदि योगी के पास रहता तो कुछ न कुछ मार्गदर्शन अवश्य मिलता। पर यहाँ तो मैं समय बरबाद ही कर रहा हूँ। ___ युवक एक दिन सेठ के पास बैठा हुआ था। उस समय सेठ का प्रधान मुनीम घबराता हुआ आयासेठजी, गजब ही नहीं महान् गजब हो गया। हमारा जहाज जिसमें लाखों का माल भरा हुआ था, उसे कल ही बन्दरगाह में पहुँच जाना चाहिए था, पर अभी तक शान्ति का मूल मन्त्र १०६ Jain Education Internationa Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह बन्दरगाह पर नहीं पहुँचा है और ऐसे समाचार प्राप्त हुए हैं कि वह समुद्री तूफान से घिरकर कहीं नष्ट हो गया है। सेठ ने मुनीम को धैर्य बँधाते हुए कहा—मुनोमजो! घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है । जहाज डूब गया तो कोई आश्चर्य नहीं । समुद्र की यात्रा ही ऐसी है। उसमें प्रतिपल प्रतिक्षण यह खतरा बना रहता है। यद्यपि बचाने का बहुत प्रयास किया गया होगा, पर नहीं बचा तो भी हमें शान्त रहना चाहिए। प्रस्तुत घटना के कुछ दिनों के पश्चात् मुनीमजी दौड़ते हुए सेठ के पास पहुँचे । आज उनके तन-मन में अपार प्रसन्नता थी। वे प्रसन्नता से नाच रहे थे। आते ही उन्होंने सेठ से कहा- सेठजी ! बड़ी प्रसन्नता के समाचार हैं कि जहाज बन्दरगाह पर सुरक्षित आ गया है। माल उतारने के पूर्व हो उस माल का दुगुना भाव हो गया। मैंने वह सारा माल बेच दिया जिससे इस माल के दस लाख के स्थान पर बीस लाख रुपये प्राप्त हुए हैं। प्रसन्नता की बात सुनकर भी सेठ पूर्ववत् हो शान्त थे । उन्होंने मुनीम से कहा-व्यापार में हानि और ११० बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभ होता ही रहता है । हमें हानि होने पर घबराना नहीं चाहिए और लाभ होने पर खुशी से नाचना नहीं चाहिए। हमें तो चाहे लाभ हो चाहे हानि समभाव में रहना चाहिए । युवक देख रहा था । आज उसे अनुभव हुआ कि योगी ने किस लिए इनके पास भेजा था । दस लाख का लाभ होने पर भी सेठ के मन में प्रसन्नता नहीं और दस लाख का नुकसान होने पर भी मन में संक्लेश नहीं । यह अनुकूल व प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों में समभाव में रहता है । समभाव या समत्व ही तो योग है । आज शान्ति का गुर उसे मिल गया। यही तो शान्ति का सही मार्ग है । शान्ति के लिए भटकने को आवश्यकता नहीं, वह न तो परिजन में है न स्वजन में है और न असन वसन व भवन में ही है । जितना मन समभाव में रहेगा उतनी ही शान्ति प्राप्त होगी । शान्ति का मूल मन्त्र १११ Jain Education Internationa Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६५ : मातृभूमि जोधपुर के महाराज यशवन्तसिंह युद्ध करने के लिए काबुल की ओर जा रहे थे। रास्ते में एक टीले पर फोग के पौधे को देखकर वे झम उठे। वे घोड़े से नीचे उतर पड़े और सगे भ्राता की तरह प्यार से उसे आलिगन करने लगे। उनकी हत्तंत्री के तार झनझना उठे। सुण ऐ देशी रुखन, म्हे परदेशी लोग । म्हाने अकबर तेडिया, तू कित आयो फोग ॥ हे मेरे देश के वृक्ष फोग सून ! हम दोनों ही इस देश के लिए परदेशी हैं। हम तो दिल्ली के अधिपति अकबर को आज्ञा से इधर आये हैं, पर तू यहाँ कैसे आ गया? यह है भारत की भूमि की विशेषता ! यहाँ का मानव माता और मातृभूमि को स्वर्ग से भी अधिक प्यार करता है। यहाँ को मिट्टी को चन्दन मानकर वह स्नेह से तिलक करता है और पानी को गंगाजल मानकर अर्चना करता है। बोलती तसवीरें ११२ Jain Education Internationa Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६६ : बूँद का मूल्य विश्व के सुप्रसिद्ध धनी राकफेलर ने एक बार स्टैंडर्ड आयल कम्पनी प्रारम्भ की । कम्पनी के प्रारम्भ होने पर राकफेलर तेल साफ करने के कारखानों को देख रहे थे । देखते-देखते उस मशीन के पास रुक गये जो तेल से भरे हुए पीपों के सुराखों को रांगे के टांके से बन्द कर रही थी । उन्होंने देखा पीपे के सुराख पर ढक्कन को फिट करने हेतु उनचालीस बूँदें रांगे का उपयोग किया जा रहा है । राकफेलर ने फोरमैन से पूछा- किसी व्यक्ति ने इस बात को अन्वेषणा की है कि सुराख को बन्द करने के लिए वस्तुतः कितनी बूँदें रांगे की आवश्यकता होती है । फोरमैन ने कहा- हमें इस बात का परिज्ञान नहीं । राकफेलर ने शीघ्र ही इस सम्बन्ध में अन्वेषणा बूद का मुल्य Jain Education Internationa ११३ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की । अड़तीस बूँदें राँगा ढक्कन को उतनी ही मजबूतो से बन्द करती हैं जितनी मजबूती से उनचालीस बूँदें । राकफेलर ने अपने अनुचरों को आदेश देते हुए कहा— प्रत्येक पीपे का ढक्कन बन्द करने के लिए केवल अड़तीस बूँदें ही पर्याप्त हैं । गणित लगाने पर ज्ञात हुआ कि प्रति पीपा एक बूँद राँगे की बचत से स्टैंडर्ड आइल को ७-५० लाख डालर की प्रतिवर्ष बचत हुई । ११४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६७: वफादारी और ईमानदारी - बड़ोदा के महाराजा सयाजीराव एक बार श्री एस० आर० शिधे के साथ फ्रान्स की यात्रा हेतू गये। पैरिस में उन्होंने एक जौहरी से कीमती जवाहरात खरीदे । खरीदने के पश्चात् जौहरी का एक प्रतिनिधि श्री शिंधे से मिला और कहा-आपका कमीशन नगद द का चेक से द। एस० आर० शिंधे ने कहा-मैं समझ नहीं पाया, कैसा कमीशन ? उसने कहा--- जो व्यक्ति हमारी दुकान पर कीमती माल खरीदने के लिए ग्राहक लाता है उसे हम कमीशन देते हैं। आप महाराजा को लेकर हमारे यहाँ आये हैं, इसलिए हमारे नियम की दृष्टि से आप कमीशन के अधिकारी हैं। शिधे ने कहा-मैं महाराजा का अनुचर है, इसलिए मैं कमीशन का अधिकारी नहीं हूँ। साथ ही यह आवश्यक है कि जितनी अर्थराशि आप मुझे कमीशन में देंगे उतनी अर्थराशि आप मूल्य में बढ़ा देंगे। वफादारी और ईमानदारी ११५ Jain Education Internationa Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौहरी के प्रतिनिधि ने कहा-कमीशन का मूल्य पर असर नहीं होता। क्योंकि यह राशि हम अपने प्रचार फण्ड से देते हैं। यह छिपाने की कोई बात नहीं है । तुम चाहो तो हम इस बात को महाराजा के सामने भी स्पष्ट कर सकते हैं। शिंधे ने कहा-मुझे कमोशन स्वीकार है। जितना मुझे कमोशन आप देना चाहे उतना महाराजा के बिल में कम कर दीजिये। आपकी वफादारी और ईमानदारो प्रशंसनीय है। मैं आपको यह बात महाराजा के कर्णकुहरों में भी डाल दगा । शिधे ने कहा-सा न करना। क्योंकि ईमानदारो और वफादारी मानव के कर्तव्य हैं। वह प्रचार की चीज नहीं है, किन्तु जोवन में संचार को चीज है। दूसरी बात यह है कि यदि महाराजा कमोशन की बात सुनेंगे तो साथ में आये हुए अन्य लोगों पर भी वे शंका कर सकते हैं। मेरी ईमानदारी किसी के लिए अभिशाप बने, मैं यह नहीं चाहता। जौहरी का प्रतिनिधि शिंधे को प्रामाणिकता और निर्मल भावना पर गद्गद हो गया। ११६ ... बोलता तसवीरें Jain Education Internationa Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६८ : सहृदयी निराला दमोह के एक वयोवृद्ध साहित्यकार मुन्नालाल 'चित्र' प्रयाग पहँचे। उनके अन्तर्मानस में निराला से मिलने की इच्छा थी। वे अपने एक मित्र के साथ निराला के घर पहँचे । निराला जी को उसके मित्र ने परिचय देते हुए कहा-आप साहित्यकार हैं । निरालाजी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहाक्या आप कविता भी लिखते हैं ? क्या आपकी कोई पुस्तक भी प्रकाशित हुई है ? उस वयोवृद्ध साहित्यकार ने निराशा के स्वर में कहा-हम छोटे व्यक्तियों की पुस्तके कौन प्रकाशित करता है ? यदि हम स्वयं अपनी पुस्तक प्रकाशित करना चाहें तो एक पुस्तक के प्रकाशन में डेढ़ सौ रुपये चाहिये । हमारी इतनी शक्ति कहाँ है जो हम उसे प्रका सहृदयी निराला ११७ Jain Education Internationa Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शित कर सके । लगता है इस जीवन में तो नहीं, कभी अन्य जीवन में प्रकाशित हो सकेगी। निरालाजी ने उनके मित्र को संकेत किया कि सामने खूटी पर जो उनका कुर्ता टँगा हुआ था, वे उसे इधर ले आवें । उन्होंने कुर्ते में से सारे रुपये निकालकर चित्रजी के हाथ थमाते हुए कहा-निराश न बनिये । और अपने इस जीवन में ही पुस्तक छपवाकर आह्लाद का अनुभव कोजिए। चित्रजी ने कहा- मुझे आपसे रुपया नहीं लेना किन्तु निराला ने कहा- भाई, क्यों घबराते हो? मैंने अपनी इच्छा से दिये हैं। चित्रजी ने उन रुपयों से अपना काव्य प्रकाशित करवाया। उसके पश्चात् उनकी अनेक पुस्तके प्रकाशित हुई और निरालाजी की प्रेरणा से शासन की ओर से उन्हें प्रति माह सौ रुपया आर्थिक सहायता भी दी जाने लगी। जब भी चित्रजी को निरालाजी का स्मरण होता उनकी आँखों से सहृदयता के आँसू टपक पड़ते। और उनकी हत्तन्त्री झनझना उठतो कि वस्तुतः निरालाजी निराला ही थे। ११८ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो पैसा का विद्यालय suna v arra zearPARTeri.s..... - बाबा कैलाशनाथ 'त्यागी' के नाम से विश्रुत थे। उन्होंने पंसठ वर्ष की उम्र में संन्यास ग्रहण किया था। एक वर्ष तक काशी में रहकर वे पुनः अपनो जन्मस्थली लौट आये। उनके अन्तर्मानस में एक विचार उद्बुद्ध हुआ कि मैं बड़ागाँव में एक भव्य देवालय बनाऊँ। देवालय के लिए उन्होंने एक-एक पैसा प्रतीक व्यक्ति से लेने का संकल्प किया। उन्होंने परिभ्रमण कर छ: हजार रुपये एकत्रित किये और एक देवालय का निर्माण करवाया । १६५७ में उनका वह संकल्प पूर्ण हुआ और वह देवालय एक पैसा वाला देवालय के नाम से विश्रुत हुआ। किसी व्यक्ति ने बाबा की आलोचना करते हुए कहा कि बाबा ने इतनी मुश्किल से पैसा इकट्ठा किया और दो पैसे का विद्यालय ११६ Jain Education Internationa Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवालय बनाकर सारा पैसा बरबाद कर दिया। यदि इस पैसे से कोई स्कूल बनता तो कितना अच्छा होता? जब बाबा ने यह बात सुनी। उन्होंने पुनः संकल्प किया कि वे यहाँ पर एक औद्योगिक पाठशाला स्थापित करेंगे। उसके लिए उन्होंने दो पैसे प्रति व्यक्ति से चन्दे के रूप में लेना प्रारम्भ किया। लोग बाबा की प्रामाणिकता से परिचित हो चुके थे । अतः कुछ हो महीनों में उन्होंने एक लाख का चन्दा एकत्रित कर दिया और उस अर्थराशि से उन्होंने औद्योगिक विद्यालय स्थापित किया। आज उसमें ३०० से भी अधिक छात्र अध्ययन करते हैं। बाबा त्यागी ने यह सिद्ध कर दिया कि बूंद-बद से भी घड़ा भरा जा सकता है। वह विद्यालय दो पैसे के सार्वजनिक विद्यालय के नाम से विश्रुत है। १२० बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७० : अहंकार का नाश उज्जयिनी के राजा भोज महान पराक्रमी थे । विद्या के प्रति उनका स्वाभाविक अनुराग था। सैकड़ों विद्वान् उनकी राज सभा में आकर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करते थे । सैकड़ों कविगण नित नई कविताएँ बनाकर उनकी राजसभा में उपस्थित होते और यथेष्ठ पुरस्कार प्राप्त कर प्रसन्नता से विदा होते थे । एक बार मन्त्री ने राजा भोज को एक सूची बतायी जिसमें राजा भोज ने अपने जीवन में जितना दान दिया था, उसका विवरण था । सूची को पढ़कर राजा भोज के अन्तर्मानस में यह विचार लहराने लगा कि आज तक अन्य राजागण इतना दान न दे सके, उतना दान मैंने अकेले दिया है । | वस्तुतः अब मैं अपने आपको धन्य अनुभव करने लगा हूँ । राजा भोज के चेहरे को देखकर वृद्ध मन्त्री ने समझ लिया कि राजा भोज को अहंकार के काले नाग ने उस अहंकार का नाश Jain Education Internationa १२१ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया है । इसका जहर बड़ा हो भयंकर है। इससे स्वयं का और दूसरों का नाश होता है । अतः राजा को उद्बोधन देने हेतु उसने पुराने कोश में से राजा विक्रमादित्य के जीवन वृत्त की पुस्तक निकाली। उसने राजा से निवेदन किया- राजन् ! पुराने बहीखाते देखते हुए मुझे राजा विक्रमादित्य का जीवन चरित्र प्राप्त हुआ है। कृपया आप उसका एक पृष्ठ सुनिए--- __ राजा भोज ने कहा- अच्छा अवश्य सुनाइये । मन्त्री ने पढ़ा-राजा विक्रमादित्य ने एक बार एक श्लोक को सुनकर आठ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ, तिरानवे तोला मोती, पचास हाथी जिनके गंडस्थल से मद चू रहा था और जो पर्वत के समान विशालकाय थे, दस हजार तेज-तर्रार घोड़े और सौ नर्तकियाँ इतनी सामग्री दक्षिण के पाण्ड्य राजा ने विक्रमादित्य को दण्डस्वरूप भेंट की थीं, राजा विक्रम ने उस समस्त सामग्री को उस कवि को समर्पित कर दिया। राजा भोज ने जब यह सुना तो वह आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने स्वयं इस विवरण को अनेक बार पढ़ा। उनका अहंकार नष्ट हो गया। उन्हें राजा विक्रमादित्य के दान के सामने अपना दान तृणवत् अनुभव होने लगा। १२२ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७१ : पुण्य-बल पुण्य का बल सबसे बढ़कर बल है । दिल्ली के अधिपति जहाँगीर की महान् सुन्दरी बेगम नरजहाँ सिन्ध के जंगलों में उत्पन्न हई थीं। जेठ को चिलचिलाती धूप गिर रही थी। ऊपर से आसमान आग उगल रहा था तो नीचे रेगिस्तान की बालू तप्त तवे की तरह तप रहो थी। उसके माता-पिता ईरान छोड़कर भाग रहे थे । न प्रसूता को खाने के लिये अन्न था, न पोने के लिए पानी था। प्रस्तुत नवजात कन्या को लेकर यात्रा करना अत्यन्त कठिन था। पति ने कहा-इस कन्या को साथ लेकर चलना मुश्किल है। अतः पति के कहने से पत्नी ने नवजात शिशु को एक स्थान पर लिटा दिया। कुछ दूर ही चले थे कि माँ के मन में अपनी पूत्री के प्रति स्नेह जागृत हुआ। उसने पति से कहा-पतिराज ! मैं तब तक पुण्य-बल ... १२३ Jain Education Internationa Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे नहीं बढ़ सकती, जब तक मेरी पुत्रो नहीं मिल जाती। पति ने बहुत समझाया कि उसके कारण हमारे को ही रास्ते में रहना पड़ेगा। पर तिरिया हठ के सामने उसे झुकना पड़ा। वह पुनः उसे लेने के लिए चला। वहाँ जाकर उसने देखा-एक काला सर्प उस शिशु पर फन फैलाये बैठा है। पिता की हिम्मत नहीं हुई कि उस शिशु को उठा सके। पर देखते-देखते सर्प वहाँ से लुप्त हो गया। पिता ने उसे उठाकर पत्नी को सौंप दिया। जेठ की उस दुपहरो में वह शिशु नहीं बच सकता था, किन्तु पुण्य-बल के कारण ही उसको रक्षा हुई और वहीं कन्या नरजहाँ के नाम से भारत की साम्राज्ञी बनी। १२४ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७२ : बुद्धि-बल - -- - - बुद्धि का बल सबसे बड़ा बल है। बुद्धिमान् असंभव कार्य को भी सम्भव कर देता है। एक लोककथा है—एक बन्दर नदी में तैर रहा था। किसी घड़ियाल ने उसका पाँव पकड़ लिया। बन्दर ने पाँव छुड़ाने के लिए अत्यधिक प्रयास किया, पर उसे सफलता नहीं मिली । घडियाल उसके पाँव को खींचे जा रहा था। उसका दूसरा साथी बन्दर किनारे पर खड़ा था। वह यह दृश्य देख रहा था कि मेरा साथी बहत ही परेशान हो रहा है। उसने कहा-मित्र ! तुम बहुत परेशान क्यों हो रहे हो? बुद्धिमान बन्दर ने कहा-घड़ियाल एक सूखी लकड़ी को अपने मुह में दबाये हुए हैं और वह यह समझ रहा है कि मैंने बन्दर के पाँव को पकड़ लिया है। इसी से मैं उसकी बुद्धि पर परेशान हूँ। यह सुनते हो घड़ियाल ने बन्दर का पैर छोड़ दिया। बन्दर संकट के समय भो घबराया नहीं और बुद्धि बल से काल के मुह में गया हआ भी बच गया। बुद्धि-बल १२५ Jain Education Internationa Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७३ : दृढ़ संकल्प महात्मा गांधी जेल में थे। चारों ओर आजादी की लहर चल रहो थो । हजारों व्यक्ति गांधीजी के एक संकेत पर प्राण न्यौछावर करने को प्रस्तुत थे। उसी समय गांधीजी को कस्तूरबा की रुग्णता के समाचार मिले कि वह अत्यधिक रुग्ण है। रुग्णता के समाचार सुनकर भी गांधीजी के चेहरे पर तनिक मात्र भी शिकन नहीं आई। जेलर ने गांधीजी से निवेदन करते हुए कहाआप सरकार से क्षमा याचना कर लें और अपनी पत्नी को देखने चले जाएँ। गांधोजी ने दृढ़ता के साथ कहा-मैं देशप्रेम को सर्वप्रथम स्थान देता हूँ। देश की आजादी में जूझते हुए यदि पत्नी का देहावसान भी हो गया तो मुझे कोई १२६ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्ता नहीं। मैंने जिस कार्य को हाथ में लिया है उसे अपूर्ण छोड़ नहीं सकता। यह आत्मवंचना है। मैं इस प्रकार आत्मवंचना नहीं कर सकता। वस्तुतः दृढ़ संकल्पी व्यक्ति ही किसी कार्य में सफल होते हैं। गांधीजी की संकल्प-शक्ति के कारण ही एक दिन भारत परतन्त्रता से मुक्त हुआ। दृढ संकल्प Jain Education Internationa Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७४ : आत्मविश्वास पैगंबर मुहम्मद अपने स्नेही साथियों के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान को जा रहे थे। उनके सैकड़ों दुश्मन उनका पोछा कर रहे थे। उनके स्नेही दुश्मनों को देखकर भयभीत हो गये। इतने अधिक दुश्मन और हम केवल तीन ही व्यक्ति हैं। तीन व्यक्ति इतने दुश्मनों का सामना कैसे कर सकेंगे ? हम बुरी मौत मारे जायेंगे। पैगंबर मुहम्मद ने कहा-साथियो ! घबराओ मत । हम तोन नहीं किन्तू चार हैं। यह चौथा व्यक्ति हमारे साथ चल रहा है । उसका इतना सामर्थ्य है कि सैकड़ों व्यक्ति क्या, विश्व की कोई भी शक्ति उसके सामने टिक नहीं सकती और न कोई भी शक्ति हमारा बाल ही बांका कर सकती है। हमारा वह चौथा साथी है 'आत्मविश्वास' । जब तक वह हमारे साथ है, वहाँ तक हमारे लिए कोई खतरा नहीं । १२८ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७५ : चमत्कारों का प्रदर्शन न करो प्रभु-भजन में तल्लोन बने हुए राबिया बसरो कुछ बाहर से आये हुए सन्तों के साथ अध्यात्म-चर्चा कर रहे थे। उस समय वहाँ पर हसन बसरी आ गये। उन्होंने राबिया बसरी से कहा- आप लोग यहाँ क्यों बैठे हैं ? चलें,सरोवर के जल पर बैठकर आध्यात्मिक चचा करें। हसन बसरी पानो पर नाव की तरह चल सकते थे। वे वहाँ पर बैठे हुए सभी व्यक्तियों को इस चमत्कार से चमत्कृत करना चाहते थे। सन्त राबिया इस रहस्य को जानते थे। हसन के अहंकार को नष्ट करने के लिए सन्त राबिया ने कहा-पानी पर क्या चलना, चलो अनन्त आकाश में घूमते हुए हम चर्चा करेंगे । क्योंकि सन्त राबिया अनन्त आकाश में गरुड़ पक्षी को तरह उड़ सकते थे। अतः उन्होंने अपने साथी सन्त से चमत्कारों का प्रदर्शन न करो १२६ Jain Education Internationa Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा-भाई ! जो कार्य तू कर सकता है वह कार्य एक छोटी मछली भी कर सकती है और जो कार्य मैं कर सकता है वह एक मक्खी भी कर सकती है। हमारी साधना इन चमत्कारों के प्रदर्शन के लिए नहीं है। हम सत्य की खोज करें, गर्व का परित्याग करे। यदि तुम सत्य के संदर्शन करना चाहते हो तो तुम्हें अहंकार का परित्याग करना होगा। फकोर हसन बसरी का गर्व नष्ट हो गया। उन्होंने उसके बाद कभी भी अपनी लब्धि का प्रदर्शन न किया। १३० बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७६ : दुर्गुण निकालता हूँ एक सन्त था, जो 'बहरा हातिम' के नाम से प्रसिद्ध था । एक दिन उसके आस-पास बहुत से सज्जन बैठे हुए थे । सन्त ने देखा एक मक्खो मकड़ी के जाले में फँस गई है जिससे मुक्त होने के लिए वह भिनभिना रही है । हातिम के हृत्तंत्री के तार झनझना उठे । उन्होंने कहा अय मक्खो ! अब तू क्यों भिनभिना रही है ? देख, प्रत्येक स्थान पर शक्कर, शहद और कन्द नहीं होते । लोभ से ही तेरी यह स्थिति हुई है । बैठे हुए सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये । एक ने पूछा- क्या आपने मक्खी की भिनभिनाहट सुनी है ? आप तो बहरे हैं फिर मक्खी को भिनभिनाहट कैसे सुनी ? दुर्गुण निकालता हूँ Jain Education Internationa १३१ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे ने कहा-आज दिन तक तो हम आपको बहरा ही समझते रहे हैं, क्या वस्तुतः आप बहरे नहीं हैं? हातिम ने कहा-निरर्थक बातें सुनने से तो बहरा होना अधिक अच्छा है। यदि मैं प्रत्येक बात पर जवाब देता तो मेरे स्नेही-साथी मेरी बुराइयों और कमजोरियों को दबाकर मेरे सदगुणों की प्रशंसा करते, उनकी प्रशंसा सूनकर अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मानने की भयंकर भूल करता । इसी कारण मैं अपने आपको बहरा प्रकट करता हूँ। जिससे मेरे साथो मेरी बुराइयाँ स्पष्ट रूप से कह देते हैं। वे मुझे मूर्ख और बहरा समझकर मेरी बुराइयों को प्रकट करने में संकोच नहीं करते। और मैं अपनी बुराइयों को सुनकर उन्हें निकालने का प्रयास करता १३२ बोलती तसवीरें Jain Education Internationa Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा साहित्य की अनमोल पुस्तकें. ** जैन कथाएँ [भाग 1 से 53] तैयार 3)=156) [भाग 54 से 100 तक संपादन-प्रकाशनाधीन * बिन्दु में सिन्धु 2) अतीत के उज्ज्वल चरित्र 2 * प्रतिध्वनि 3)50 *बोलते चित्र 1)50 * फूल और पराग१)५०* महकते फूल 2) * अमिट रेखाएँ 2) * मेघकुमार 2)50 * मुक्ति का अमर राही: जम्बूकुमार 5) सोना और सुगन्ध 2) * सत्य-शील की अमर साधिकाएँ 12) * शूली और सिंहासन 2) * खिलती कलियां : मुस्कराते फूल 3)50 * भगवान महावीर की प्रतिनिधि कथाएँ 12) शीघ्र ही प्रकाशमान * पंचामृत 3) * जीवन की चमकती प्रभा 3) *धरती के फूल 3) चमकते सितारे 3) * गागर में सागर 3) * अतीत के चलचित्र 3) बोलती तस्वीरें 3) कछ मोती: कछ हीरे 3) ये लघु कथाएँ प्रेरक, बोधप्रद और अत्यन्त रोचक हैं। सम्पर्क करें: श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय शास्त्री सर्कल उदयपुर (राज.) आवरण पृष्ठ के गुमक शैल प्रिन्टर्स' माईथाना, आगरा-३