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खाली हाथ न लौटो
एक महात्मा पर्वत की गुफा में ध्यानमुद्रा में बैठे थे । पूर्णिमा की रात थी । दुग्ध धवल चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी । एक चोर ने गुफा में प्रवेश किया। महात्मा ध्यान में लीन थे। चोर ने गुफा को अच्छी तरह से ढूँढ़ा पर उसे कुछ भी नहीं मिला । निराश होकर निःश्वास छोड़ते हुए उसके मुँह से ये शब्द निकल गये - अरे ! यहाँ तो कुछ भी नहीं मिला । सारा परिश्रम ही व्यर्थ गया । वह गुफा से बाहर निकलना चाहता ही था कि महात्मा ने उसका हाथ पकड़ लिया । अरे ! तुम बहुत हो दूर से आये हो । लगता है तुम बहुत थक भी गये हो । मेरे यहाँ आकर खाली हाथ निराश लौटो यह ठीक नहीं है । ले जाओ यह मेरे ओढ़ने का कम्बल | उन्होंने अपना कम्बल उसके हाथ में थमा दिया, और अर्धनग्न दशा में गुफा के बाहर आकर बैठ गये । चन्द्रमा की ओर टकटकी लगाकर देखने लगे । उनके हृदय तन्त्री के तार झनझना उठे -क्या ही अच्छा होता, मैं उस गरीब आदमी को यह सुन्दर चाँद दे
पाता ।
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खाली हाथ न लोटो
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