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तथा कब्र में रहे हुए व्यक्तियों को अत्यधिक प्रशंसा करो ।
शिष्य ने आदेश का पालन किया और पुनः लौटकर सन्त के पास पहुँचा । सन्त ने कहा – तुमने कब्रों की अर्चना भी की, सत्कार भी किया और अपशब्द भी कहे, पत्थर भी बरसाये । उन्होंने उत्तर में तुम्हारे को क्या कहा ?
शिष्य ने कहा- जब मैंने गालियाँ दीं, पत्थर बरसाये तब भी वे शान्त थे और जब फूल चढ़ाये तब भी शांत ही रहे ।
सन्त ने पूछा- तुम इसका क्या अर्थ समझे ? शिष्य ने कहा- गुरुदेव ! कुछ भी नहीं ।
सन्त मैकेरियस ने कहा- उन कब्रों की तरह तुम्हें भी अपना जीवन जीना है । यदि तुम्हें मुक्ति चाहिए तो चाहे और लोग तुम्हारो निन्दा करें या प्रशंसा करें। तुम्हें निन्दा सुनकर नाराज नहीं होना है और प्रशंसा सुनकर खुश नहीं होना है । किन्तु समभाव में रहना है । समभाव हो मुक्ति का मार्ग है ।
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बोलती तसवीरें
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