Book Title: Aspect of Jainology Part 2 Pandita Bechardas Doshi
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jainology : Vol. II PT. BECHARDAS DOSHI COMMEMORATION VOLUME Editors PROF. M. A. DHAKY PROF. SAGARMAL JAIN IODDMOND KU m 40t-402.) VARANASI-5 P. V. RESEARCH INSTITUTE VARARASI-5 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by P. V. Research Institute I. T. I. Road, B.H.U. Varanasi-5 Phone : 66762 Ist Edition 1987 Price: Rs. 100.00 Printed by Ratna Printing Works, Kamachha Varanasi Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विद्या के आयाम : ग्रन्थाङ्क २ पं० बेचरदास दोशी स्मृति ग्रन्थ सम्पादक प्रो० मधुसूदन ढाकी प्रो० सागरमल जैन | 可 65 शो त वाराणसी-५ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी-५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान आई०टी० आई० रोड, बी. एच. यू. वाराणसी-५ फोन-६६७६२ संस्करण : प्रथम १९८७ मूल्य : १५०.०० मुद्रक : रत्ना प्रिंटिंग वर्क्स कमच्छा, वाराणसी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय बीसवीं सदी के जैनविद्या के मूर्धन्य मनीषियों में पण्डित बेचरदास जी दोशी का नाम अग्रगण्य है। वर्तमान युग के जैनविद्या एवं प्राकृत विद्वानों की शृंखला में पण्डित बेचरदास जी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनकी यह विशिष्टता मात्र श्वेताम्बर जैन-परम्परा के आगमों के तलस्पर्शी ज्ञान के कारण नहीं बल्कि सत्य को निर्भीकतापूर्वक व्यक्त करने के साहस के कारण थी। सामान्यतया विद्वद्वर्ग अपने साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों के कारण सत्य-प्रतिपादन से कतराता है। किन्तु पं० बेचरदास जी का स्वभाव था कि समाज के विरोध की चिन्ता किये बिना वे निर्भीक व बेलाग होकर सत्यकथन करते थे। उनके द्वारा लिखित ग्रन्थ 'जैनागमों मां विकार थवाथी थयेली हानिओ' उनकी निर्भीकता का पुष्ट प्रमाण है। विद्वान् होना एक अलग बात है किन्तु विद्वत्ता और निर्भीकता का ऐसा संयोग दुर्लभ होता है। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित जैन साहित्य के बृहद् इतिहास का प्रथम भाग भी उनकी साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से उन्मुक्त सत्यान्वेषणशीलता एवं निर्भीकता का स्पष्ट प्रमाण है। पण्डित बेचरदास जी प्रारम्भ से ही पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के मार्गदर्शक रहे हैं और इसके विकास के प्रत्येक चरण में उनका भी अमूल्य सहयोग रहा है। अतः उनके जीवन-काल में ही विद्याश्रम ने उनके अभिनन्दन का निश्चय कर उनके सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना बनायी थी इसकी सूचना विद्वानों को प्रेषित कर दी गई थी और विद्वानों के अनेक लेख भी हमें प्राप्त हो गये थे। दुर्भाग्य से उनके जीवन-काल में इसका मुद्रण नहीं हो सका और अभिनन्दन ग्रन्थ स्मृति ग्रन्थ में परिणत हो गया। संस्थान द्वारा विगत कई वर्षों से जैनविद्या से सम्बन्धित एक स्तरीय शोध-पत्रिका के नियमित प्रकाशन की योजनाविचाराधोन थी क्योंकि श्रमण के अधिकांश पाठकों का रुझान स्तरीय निबन्धों के प्रति न होने से उसके माध्यम से यह पूर्ति नहीं हो पाती थी। इस योजना को मूर्तरूप देने हेतु हमने Aspects of Jainology Series के अन्तर्गत स्तरीय निबन्धों को प्रकाशित करने का निश्चय किया। इस ग्रन्थमाला का प्रथम पुष्प हमने संस्थान के संस्थापक स्वर्गीय लाला हरजस राय जैन की पुण्य स्मृति में अर्पित किया। उसी शृखला में हम इसके द्वितीय पुष्प को श्रद्धेय स्वर्गीय पण्डित बेचरदास जी दोशी को समर्पित कर रहे हैं। इस स्मृति ग्रन्थ हेतु हमें पर्याप्त संख्या में विद्वानों ने स्तरीय निबन्ध भेजे । निबन्ध मुख्यतः गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में प्राप्त हुए। वाराणसी में गुजराती-भाषा के निबन्धों के मुद्रण की सुविधा न होने से उन्हें पण्डित दलसुख भाई मालवणिया के निर्देशन में अहमदाबाद में ही मुद्रित करवाने का निर्णय लेना पड़ा । फलतः अंग्रेजी, हिन्दी और गुजराती खण्डों को पृष्ठ संख्या भी पृथक्पृथक् ही रखनी पड़ी। प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन का दायित्व-निर्वाह भारतीय कला एवं जैन विद्या के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् प्रो० मधुसूदन ढाकी और संस्थान के निदेशक डा० सागरमल जैन ने किया। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो० ढाकी ने इसके गुजराती एवं अंग्रेजी विभाग का सम्पादन अत्यन्त सतर्कता एवं श्रम पूर्वक किया है अतः हम उनके एवं संस्थान के निदेशक डा० सागरमल जैन के आभारी हैं । ii इस ग्रन्थ के प्रकाशन में कुछ मित्रों से भी आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ जिसके लिए हम उनके भी आभारी हैं । इसके हिन्दी और अंग्रेजी खण्डों का मुद्रण रत्ना प्रिंटिंग प्रेस, वाराणसी द्वारा सम्पन्न हुआ अतः हम इस मुद्रणालय के व्यवस्थापकों के प्रति भी आभार प्रकट करते हैं । इसके प्रूफसंशोधन आदि कार्य डा० अरुणप्रताप सिंह, डा० रविशङ्कर मिश्र, डा० अशोक सिंह, श्री जीतेन्द्र शाह एवं श्री महेश कुमार जी ने सम्पन्न किये अतः वे भी धन्यवाद के पात्र हैं । इसी प्रकार गुजराती विभाग का मुद्रण रामानन्द प्रेस, गुर्जर ग्रन्थ रत्त कार्यालय ने किया तथा मुद्रण की व्यवस्था एवं प्रूफ-संशोधन का दायित्व निर्वाह प्रो० हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी एवं डॉ० रमणीक भाई म० ने किया अतः हम उनके प्रति आभारी हैं । भूपेन्द्रनाथ जैन सचिव पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी प्रो० सागरमल जैन निदेशक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFATORY About eight years ago, a single large volume jointly felicitating Pt. Bechardas Doshi and Pt. Dalsukh Malvapia was conceived by the Pārsvanātha Jaina Vidyāśrama. The wellknown scholars and experts on the disciplines in which the two famous savants had been for decades working were invited to contribute. In light of the repute and the esteem in which both were held, many articles, most of which are of fairly high quality and of good standard were received in Gujarāti English, and in Hindi. However, and much to our regret, as the planning and even the printing in part had progressed, Pt. Bechardas Doshi passed away. That unfortunate eventuality compelled us to replan the volume which was split into two, the first commemorating the late Pt. Bechardas Doshi, the second designed as congratulatory to Pt. Dalsukh Malvania. Since the articles received numbered over 110, a division into two separate volumes could be effected without prejudice to the needed bulk for each volume. The present volume is dedicated to the sacred memory of Pt. Doshi and contains articles in the aforenoted three languages, the Gujarāti section also containing articles paying homage to the memory of, and the critical appreciation of the writings of Pt. Doshi. Late Pt. Bechardas Doshi was among the foremost scholars of the Prākstas and Samsksta as well as their grammar and no less of the Ardhamāgadhi canon of the Northern Nirgrantha tradition. He also had studied Buddhist doctrines and literature. He very largely wrote in his native tongue, Gujarā ti, and hence his contributions are rather less known in territories outside Gujarat and Rajasthan. An almost complete anthology of Pt. Doshi's writings has been prepared by Salonj Jani and is included here in the Gujarāti section. His writings covered his first passion, Prāksta and Samsksta grammar, but also included learned editing of the important āgamas like the V yakhya-prajñpati. Pt. Doshi was born in A. D. 1889 in the Visā Śrimāli Jaina family in Vaļā (ancient Valabhi). He breathed his last on the 11th of October 1982 in Ahmedabad (medieval Āsāpalli and Karṇāvati). The life he lived for over nine decades was as much eventful as was full of privations and trying times. As a child he had seen nothing but poverty and misery, Father Jivaraj had become invalid through an accident and he soon died due to the shock of the death of his younger brother Harakhchand. Mother Otambai sold her meagre jewellary for performing her husband's post mortem social rites. The mother and the son next laboured hard as field workers for their maintenance. As a Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) grown up boy, Bechardas's educational career began at first at Sanosarā and continued next at the Jaina Pāțhaśālā at Māņdal. Bechardas had a desire to study Sanskrit at Kasi; but the mother could not bear this separation and had feared that he might possibly join the order of the monks there. Under very trying conditions he next started studying Jaina works at Pālitāṇā under the guidance of Muni Siddhicandra-vijaya and next the preliminary Sanskrit at Mehsāņā. Ultimately he managed to reach Vārānasi, the Seat of Samskrta learning. There he eventually studied works on grammer, logic, literature and the Sanmatiprakarana of Siddhasena Divākara, a notable work on Jaina epistemology. He also studied Prākşta and its different forms such as the Ardhamāgadhi, the Šauraseni, the Paiśāci and the Apabhramśa. On returing to Gujarat, by his learned essays read at the academic conferences and by his published notes, he impressed such stalwarts as Anandshankar Bapubhai Dhruv and Sir Manubhai Mehta, the Divān of Baroda State. He was offered a position which once C.D. Dalal occupied at the Oriental Institute; however, being a notionalist, he decided to join Gujarāt-Vidyāpith, the institution that was founded by Mahatama Gandhi. After this he revisited Benares. this time to study the Nyāya-darśana in depth and also the other ancient Indian philosophical systems such as the Sankhya, the Vaišeşika and the Vedānta. Alongside these studies, he collaborated with the great Prakritist Pt. Hargovindas Sheth in editing the Yasovijayaji Jaina Granthamālā. Alongwith Pt. Sheth and Dr. Satish Chandra Vidyabhusan Pt. Bechardas next went to Sri Lanka to study Pāli and the Buddhist Tripitaka. This further expanded his horizons of perception and of doctrinal and philosophical learning. Pt. Sheth and Pt. Doshi then returned to Benares and resumed editing the Yasovijayaji Granthamālā. After further mastering the Prākstas there, he next seriously took up the study of the Jaina agamas and began translating these into Gujarati in the Punjābhāi Granthamālā in Ahmedabad. This activity met with stiff oposition by the orthodox Jaina clergy and their stubborn sectarian layfollowers. His bold article in Gujarāti entitled "A Propos of the harm done due to the deformation of the Jaina Canon" generated an unprecedented unheaval in Śvetāmbara Jaina Church. Ignoring all resistence he recklessly wrote a next article titled "Angry eyes of the Ecclesiastical world". As a result, he was excommunicated from the Jaina Church ! He consequently lost his position at the Mahavir Jain Vidyalay, Bombay. His next article the "The swimming in Darkncss by the Jaina world" further jeopardized his career. His rebellion cost him enormously. At this juncture Mahatma Gandhi supported his side by saying that one must not forsake truth if he is so convinced about his stand. Then on, Pt. Doshi joined hands with Pt. Sukhlal Sanghvi in the memorable editing of the Sanmatiprakaraña of Siddhasena with the monumental commentary of Abhayadeva Sūri at the Gujarat Vidyapith. From 1922 onwards, this was to continue for several years. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) During the famous Dāņdi-kuch movement, Mahatma Gandhi was locked behind the bars. Despite Mahatma's forbidding, Pt. Doshi a ssumed the editorship of the Navajīvana, the periodical whose editor was Mahatma Gandhi. As an inevitable consequence, he was arrested by the British Government. After his release he was served with an order prohibiting him to enter the British territory. He, therefore, had to shift his headqnasters to Rajasthan; taught there Prāksta and the āgamas to some young Sthānakvāsi friars and other lay students, and during those years wrote his famous text book, the Prāksta mārgopadeśikā and a book on the grammar of the Apabhramsa language. In 1936 the bar on his entry was lifted and he returned to Ahmedabad. He now prepared a case enjoining the University of Bombay to introduce the courses in the Ardhamāgadhi and this too on parity with Samsksta and Pāli. This was eventually accepted. In the meantime he consented to be the editor of the Jainaśāsana, a half-monthly magazine in Gujarāti which openly discussed Jaina theological and dogmatic questions. Then on he spent several years in writing his innumerable useful articles on several topics, did editorial prefaces and so forth, and taught many young Jaina friars and nuns, some of whom like Mahattarā Mșgāvati Sri ji became the renowned holy person of the Church. Pt. Doshi's reputation as a first rate scholar and teacher of the Prākṣtas was later much too well known. However, he was also a great Sanskritist and as such he was honoured with the national award for Sanskrit by Government of India. By disposition he was sober and soft-spoken inspite of his being a fearless revolutionary. His enormous toleration to sufferings, the ablities to survive in adversities, and cool-headeness despite angry oppositions he met with, and the matching spirit of an undaunted fighter endowed him with a long span of life of over 92 years. We feel very subdued before the character, stature, and learning of this great man about whom his countrymen know very little because he wrote largely in his native tongue and at occasions in Hindi. We, with all humility, dedicate thit small volume to his sacred memory and while doing so take an opportunity profusely to thank the contributors who readily sent their articles by way of homage to Pt. Doshi. In the preparation of this volume, the coördination of the sections in three different languages proved a difficult task. Since a style-sheet was not earlier circulated (as it ought to have been), each author followed his own conventions which considerably added to the difficulties at editing. Had it not been for the generous assistance of Dr. Ramanik Shah for overseeing the printing of the Gujarāti section, it could not have been what it is. Dr. Arun Singh and Shri Mahesh Kumar helped us reading through the proofs of the Hindi and English sections. We feel beholden to them as also to the staff of the Pārsvanātha Jaina Vidyāśrama. Sri V. K. Venkata Varadhan of the American Institute of Indian Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Studies, Varanasi, in his free time typed out the edited versions in English; and, likewise, the Gujarāti papers, at least several of them, were rendered in neat calligraphy by Smt. Geetanjali Dhaky for the press. We wish to thank both of them for their careful work. The Ratna Press, Varanasi, printed the English and the Hindi sections and the Chandrika Press and the Bhagvat Press, the Gujarati section. We feel grateful to them for the care they took at all stages. The flaws, which almost always appear in most Indian publications and are in evidence in this volume also, must go to our account. Also the sequential arrangement of papers sometime was upset for accommodating papers which lately had arrived. The publication had been long overdue. However, occasionally for want of free time on our as will as the assisting staff's part, at times the printing presses had other important commitments in hand, -the work was delayed for months and months. Even while explaining this tradiness, we are aware that it has been inordinate and unforgivable, and we cannot escape the responsibility and consequent blame. Editors, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची BIOGRAPHY १. उपाध्याय अमरमुनि : पुण्यात्मानां स्वर्गीय-पण्डित बेचरदास महोदयानां पुण्य स्मरणम् २. आ० विजयेन्द्रदिन्न सूरि : ज्ञानज्योति पण्डितजी ३. मुनि शीलचन्द्रविजय : सात्त्विक सुजन पण्डित ४. महत्तरा श्रीमृगावती श्री जी : श्रुतदेवताना परमोपासक ५. मधुसूदन ढांकी : पण्डितप्रवर बेचरदासजी ६. कानजीभाई पटेल : पण्डितप्रवरने वन्दना ७. सलोनी जोषी : पं० बेचरदासजी विरचित, संपादित तथा अनुवादित ग्रन्थो अने लेखोनी सूचि GUJARATI SECTION ८. दलसुखभाई मालवणिया : 'भगवतोस्त्र' अने अन्य आगमोनुं सम्पादन ९. रमणीक शाह : भगवान महावीरनी धर्मकथाओ अने भगवान महावीरना दश उपासको १०. कानजीभाई पटेल : जिनागमकथासंग्रह ११. जयदेवभाई शुक्ल : सिद्धहेमशब्दानुशासन अने मलयगिरिशब्दानुशासन १२. के० आर० चन्द्र :प्राकृत व्याकरणो १३. हरिवल्लभ भायाणी : 'देशीनाममाला'नो अनुवाद तथा अध्ययन १४. जयन्त कोठारी : 'गुजराती भाषानी उत्क्रांति'नो दस्तावेजी आलेख १५. नगीन जो० शाह : 'जैनदर्शन' अनुवाद ग्रन्थनो परिचय १६. कुमारपाल देसाई : महावीर-वाणी १७. नगीन जी० शाह : भारतीय दर्शनोमां मोक्षविचार १८. डॉ० नारायण म० कंसारा : जीवस्वरूप-परामनोवैज्ञानिक दृष्टिबिन्दु १९. कानजीभाई पटेल : रस-मीमांसामां अनुयोगद्वारसूत्रकारनुं प्रदान २०. रमेश बेटाई : मेटेफर उपचार अने ध्वनि २१. दलसख मालवणिया : जैन अंग आगममां पूजा शब्दनो अर्थ २२. रमणीक म० शाह : आगमगच्छीय आं जिनप्रभसूरिकृत सर्व-चैत्य-परिपाटी स्वाध्याय २३. स्व० अगरचन्द नाहटा : ज्ञानचन्द्रकृत संस्कृतभाषा-निबद्ध "श्रीरैवततीर्थ स्तोत्र" अने मधुसूदन ढांकी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iv ११७ १२३ १७१ : श्री रैवतगिरितीर्थ स्तोत्रम् ( नागरी ) २४. पं० बाबुभाई सवचन्द शाह : श्री विजयचन्द्रसूरिविरचित "श्री रैवताचल चैत्यपरिपाटी स्तवन" श्री रैवताचलचैत्यपरिपाटीस्तवनम् ( नागरी) . १२० २५. स्व० अगरचन्द नाहटा :जयतिलकसरि विरचित "श्री गिरनार चैत्य प्रवाडी" मधुसूदन ढांकी २६. विधात्री वोरा : गिरनार चेत्तप्रवाडि १२८ २७. मधुसूदन ढांकी, : श्री गिरनार चेत्त परिवाडी विधात्री वोरा १३३ २८. विधात्री वोरा : गिरनार चैत्य प्रवाडि विनति १४१ २९. विधात्री वोरा : अज्ञातकर्तृक "नेमिनाथ भास" ३०. कनुभाई ७० शेठ : कवि केशवकृत नेमिनाथ फाग १५० ३१. विधात्री वोरा : अज्ञात कर्तृक "श्री गिरनार चैत्य परिपाटी रास" १६७ ३२. स्व० अगरचन्द नाहटा : रंगसारकृत "गिरनार चैत्यपरिपाटी" पं० बाबुभाई सवचन्द शाह ३३. मधुसूदन ढांकी : कर्णसिंहकृत गिरनारस्थ "खरतरवसही"-गीत १७५ ३४. लक्ष्मणभाई भोजक : जूनागढनी अम्बिकादेवीनी धातुप्रतिमानो लेख १७९ ३५. लक्ष्मणभाई भोजक : उज्ज्यन्तगिरिनो एक खण्डित अप्रकाशित प्रशस्तिलेख ३६. मधुसूदन ढांकी, : उज्ज्यन्तगिरिना केटलाक अप्रकट उत्कीर्ण लेखो लक्ष्मण भोजक ३७. मधुसूदन ढांकी, : उज्ज्यन्तगिरिना पूर्व प्रकाशित अभिलेखो विषे लक्ष्मण भोजक १९२ ३८. मधुसूदन ढांकी : उज्ज्यन्तगिरिनी खरतर-वसही २१२ ३९. मधुसूदन ढांको : गिरनारस्थ “कुमारविहार"नी समस्या २२३ ४०. मुनि शोलचन्द्र विजय : “पालिताणा-कल्पसूत्र"नी जैन चित्रकला पर विशेष प्रकाश२२७ HINDI SECTION १. के० आर० चन्द्र : आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा २. सागरमल जैन : रामपुत्त या रामगुत्त : सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में मधुसूदन ढांकी ३. कानजी भाई पटेल : जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न ४. भिखारी राम यादव जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में ५. भागचन्द जैन भास्कर : जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ६. मधुसूदन ढांकी : श्वेताम्बर जैन साहित्य की कुछ अनुपलब्ध रचनायें १८३ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. दलसुख मालवणिया ८. झिनकू यादव ९. लक्ष्मीचन्द्र जैन १०. लल्लनजी गोपाल ११. अरुण प्रताप सिंह १२. शिव प्रसाद १३. रविशंकर मिश्र यक्ष १४. मारुतिनन्दन तिवारी १५. सागरमल जैन 1. Gopani, A. S. 2. Sogani, K.C. 3. Khadabadi, B. K. : क्या बोटिक दिगम्बर हैं ? : पूर्व मध्यकालीन भारतीय न्याय एवं दण्ड व्यवस्था : आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोलविद्या एवं गणितसंबन्धी मान्यताएं : आधुनिक सन्दर्भ में : देवलधर्मसूत्र में ऐश्वर्यों का विवरण : जैन संघ में भिक्षुणियों को शील-सुरक्षा का प्रश्न :प्रबन्धचिन्तामणि का एक अचचित प्रबन्ध १११ : अञ्चलगच्छीय आचार्य मेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूत काव्य ११३ १२६ : जैनागम साहित्य में स्तूप १३२ ENGLISH SECTION : Jaina Religion-Its Plea, Practice and Prospects : Ethical Philosophy of Kundakunda : Some Problems of Translating Early Jaina Taxts : Gatha Muktāvali : A Newly Discovered Recension of Hāla's Sapta-Sataka : Buddhisagarasāri's Linganusasana with Auto-Commentary . : The Sáradipika and the Sārabodhini : Jayarāsi's Criticism of Verbal Testimony : Abhinavagupta's Ideas in Locana on the Nature of Beauty of Kävya : Pali, Dhanya and Carukesi : The Fresh Reading and Interpretation of Pañcāsara Pārsvanātha Temple Inscription : Jaina Sculptures in Bharata Kala Bhavan The Vimala Period Sculptures in VimalaVasahi 96 : Gambhirpur Rock Paintings 101 : Units of Length in Jaina Canons 104 4. Bhayani, H. C. 5. Kansara, N. M. 6. Nandi, T. S. 7. Shukla, J. M. 8. Kulkarni, V. M. 9. Bhayani, H. C. 10. Singh, A. K. 89 11. Giri, Kamal 12. Dhaky, M. A. 13. Hajarnis, R. G. 14. Jain, N. L. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aspects of Jainology Vol. || जैन विद्या मर्मज्ञ स्व. पं० श्री बेचरदास जी दोशी जन्म : १८८६ ई. स्वर्गवास : ११-१०-८२ ई० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fes Private Personal use only श्रा बचर दास जा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यात्मनां स्वर्गीय पण्डित-बेचरदास-महोदयानां पुण्य-स्मरणम् उपाध्याय अमरमुनि श्रीमद्-बेचरदासाख्यः, पण्डितो लोकविश्रुतः । वदान्यो विदुषां मान्यो, विबुद्धो द्युत-कल्मषः ॥ १ प्राकृतादिषु भाषासु, गतिस्तस्य निरर्गला । आगमेषु तु पाण्डित्यं, यशस्त्वं परितो गतम् ॥ २ प्राचीनागम-शास्त्राणां, कृतं सम्पादनं परम् । भगवत्यनुवादस्तु, विद्वच्चित्तानुरञ्जकः ॥ ३ क्रान्तिशील विचारे तु, तस्य ख्यातिरनुत्तमा । सत्य-प्रकटने लब्धा, नैकवा घोर-यातना ॥ ४ प्रतिभै तादृशी कुत्र, कदा संप्राप्यतेऽपरा । किं कृतं दुष्ट कालेन, सा हता क्षणमात्रतः ॥५ शोकाकुलं कुटुम्बं स्वं, प्रविहाय दिवौं गतः । केवल न कुटुम्बस्य, राष्ट्रस्याऽपि गुरु-क्षतिः ॥६ अद्भुतो ज्ञानदीपोऽयं, गतो निर्वाण भूमिकाम् । किन्त्वद्याऽपि प्रभासन्ते, प्रभास्तस्य तमोऽपहाः ॥ ७ पुत्र-पौत्रादयः सर्वे, शोकपर्याकुलेक्षणाः ।। स्मरन्ति तं विहायाऽस्मान्, कथं कुत्र गतः पितः ।। ८ । सुसुते सुप्रिया भार्याह्यजुवालीति विश्रुता । शोकार्ताः खलु सिञ्चन्ति, गलदःश्रुजलैर् भुवम् ॥ ९ पुण्यात्मन् त्वसदानन्द ! स्वर्गलोकेऽपि सौख्यभाक् । अतस्त्वदर्थ कः शोकः काऽपरा च व्यथा-कथा ॥ १० स्वर्गस्थाय निवेदनम् तत्र स्थितोऽपि नैजेषु, जनेषु करुणां कुरु । तथा स्वजीवन-यात्रायां, सन्तु सर्वे सुखान्विताः ॥ ११ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પુણ્યાત્મા સ્વગીય પંડિત બેચરદાસજીનું પુણ્યસ્મરણ ઉપાધ્યાય અમરમુનિ શ્રીયુત બેચરદાસજી એક મહાન, લોકવિશ્રુત, ઉદાર, વિદ્વતજગતમાં સન્માન્ય તેમજ નિર્મળ જીવનના પ્રબુદ્ધ પંડિત હતા. (૧) પ્રાકૃત સંસ્કૃત વગેરે ભાષાઓમાં તેમની અબાધિત ગતિ હતી. પ્રાચીન આગમ સાહિત્યમાંની તેમની વિદ્વત્તા સર્વ પ્રકારે યશસ્વી બનેલી છે. (૨) પ્રાચીન આગમશાસ્ત્રોનું તેમણે ઉત્કૃષ્ટ સંપાદન કર્યું છે. ભગવતીમત્રને તેમનો અનુવાદ તો વિદ્વાનોનાં હૃદયને મંત્રમુગ્ધ કરે તેવો છે. (૩) - કાન્તિકારી વિચારો ધરાવવા સંબંધે તે તેમની અદ્વિતીય ખ્યાતિ હતી. અને તેથી સત્યની ખુલ્લેખુલ્લી રજૂઆત માટે તે તેમને ઘેર યાતનાઓ પણ વેઠવી પડેલી. (૪) આવા પ્રકારની વિલક્ષણ બીજી પ્રતિભા અન્યત્ર કયારે અને ક્યાં પ્રાપ્ત થાય તેમ છે? પરંતુ જૂર કાળને આ શું સૂઝયું કે તે પ્રતિભા ક્ષણ માત્રમાં અમારી પાસેથી ઝૂંટવી લીધી ? (૫) પિતાના કુટુમ્બને શોકથી વ્યાકુળ બનાવીને, છેડીને તેઓ એકાએક સ્વર્ગવાસી થઈ ગયા. આ માત્ર તેમના પરિવારની જ નહિ પરંતુ સમગ્ર રાષ્ટ્રની પણ મહાન બેટ છે. (૬) તે અદ્દભુત જ્ઞાનદીપ ભલે નિર્વાણદશાને પ્રાપ્ત થયો અર્થાત્ ધરતી પર બુઝાઈ ગયો પરંતુ અંધકારને નાશ કરવાવાળાં તેનાં તેજકિરણે તો અત્યારે પણ અહીં પૃથ્વી પર-પ્રકાશમાન છે. (૭) શેકથી વ્યાકુળ ચક્ષુવાળા પુત્ર, પૌત્રાદિ સર્વે તેમનું સ્મરણ કરી રહ્યા છે કે “ હે પિતા, અમને બધાંને (અસહાય) છે ડીને, આપ કયાં અને કેવી રીતે ચાલ્યા ગયા ? ” (૮). બનને સુપુત્રીઓ (લલિતા અને લાવણ્યવતી) તથા પ્રિય પત્ની અજવાળીબહેન– વગેરે બધાં દુઃખથી વિવળ છે. અને (ચક્ષુમાંથી) વહેતી અશ્રુધારાથી ધરતીને ભીંજવી રહ્યાં છે. (૯) સદા આનંદમાં રહેવાવાળા હે પુણ્યાત્મા, આપ તે વર્ગલોકમાં પણ જ્યાં હશે ત્યાં આનંદમાં જ હશે. તેથી આપને માટે શોક કેવ કે અન્ય વેદનાની વાત પણ શી ? (૧૦) સ્વર્ગસ્થ પંડિતજીને વિનંતી સ્વર્ગમાં રહ્યા રહ્યા પણ હે પંડિતજી, આપના કુટુંબ-પરિવારનાં બધાં સભ્યો પર દયાભાવ રાખજે કે જેથી પિતાની જીવનયાત્રામાં એ બધાં સુખ-શાન્તિ પ્રાપ્ત કરતાં રહે. (૧૧) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ્ઞાનજ્યોતિ પંડિતજી આ. વિજયેન્દ્રદિન્તસૂરિ પંડિતજી પાતાના જીવનમાં અનેક ગ્રન્થાનુ પ્રકાશન પાતે જ અની સંકલના કરીને, કર્મગ્રન્થના ગહન વિષયા ઉપર પણ ઘણી જ લેÈાપકારી રચના કરીને, જ્ઞાનરૂપી દીપક પ્રગટાવીને સમાજના માટે પ્રકાશનરૂપી ઝગમગતા સાહિત્ય રૂપી દીપક પ્રગટાવી ગયા અને અક શિષ્યાને અધ્યયન કરાવી જ્ઞાનરૂપી અંધાના જીવનમાં ચૈાતિ જગાવી ઉપકાર કરી ગયા અને ઉપકારની દૃષ્ટિથી ભગીરથ કાર્ય કરી ગયા. અનેક સાધુ-સાધ્વીજીને પણ તેએ એ અધ્યયન કરાવ્યું અને પાંચમહાવ્રતામાં દૃઢ સયમી બનાવ્યાં. પેાતે પણ જિનશાસનમાં અગાધ શ્રદ્ધા રાખી, પોતાના પરિવારમાં સુંદર જાગૃતિ લાવીને બધા જ પરિવાર પર સારી એવી શ્રદ્ધાના જ્ઞાનરૂપી જ્યેાતિ જગાડી ગયા છે. કાળ આગળ તિર્થંકરા, ચક્રવર્તી, ખળદેવા, વાસુદેવ!, રાજ મહારાન્ત, રાષ્ટ્રપતિએ આદિનું પણ ચાલતું નથી. કાળમુખમાં બધા જ સમાઈ જવાના, પણ મહાન વ્યક્તિ મહાન કાર્યાં કરી ગચા તેમની યાદ સમાજમાં કાયમ માટે રહેવાની અને સારી કૃતિએ પણું યાવન્દ્રદિવાકરા સુધી કાયમ રહેવાની. પડિતજી પણ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકારાતું કાર્ય કરીને ગયા અને તેઓ પેાતાના દેહ છેાડચો ત્યાં સુધી કાર્યરત રહી કાર્ય કરી ગયા. આવું જ ઉપકારમય જીવન આપણું બને એ જ શુભેચ્છા છે. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સાત્વિક સુજન પંડિત મુનિ શીલચન્દ્રવિજય વિવોપાસનાના ક્ષેત્રે કેટલીક વ્યક્તિઓનું જીવન વિદ્યા સાથે એવું તે એકરસ બની ગયું હોય છે કે પછી એમનું નામ અને એમનું જીવન પણ વિદ્યાના એક પર્યાય સમું બની રહે છે. આવી વ્યક્તિઓ પાસે વિવિધ “ડોકટરેટ'ની ઉપાધિઓ પણ વામણી ભાસે છે; એટલું જ નહિ પણ એમના નામની આગળ પાછળ એ પાશ્ચાત્ય ઋધ્યાં કે લગાડીએ તો તેથી તેમનું વિદ્યામય વ્યક્તિત્વ જરાક ઝંખવાતું હોય એવું લાગે છે. આવા સારસ્વતોના ૦૧ક્તિત્વ સાથે પૂર્ણપણે બંધબેસતું એવું કઈ માનાઈ વિશેષાભિધાન હોય તો તે એક જ છે : “પંડિત”. “પંડિત' શબ્દ કેવળ એમના પાંડિત્યનું સૂચન નથી કરતોઃ એ તો એ પાંડિત્યમય વ્યક્તિત્વ પ્રત્યે સહદયનાં હૈયામાં આદર પણ જગાવી સુહંદી અને સહૃદયને આદરના અધિકારી પંડિતડુંગવ-નખશિખ વિદ્યાપુરષ સ્વ. શ્રી બેચરદાસ દેશી–ની પુણ્યસ્મૃતિને અર્પિત મરણાંજલિ ગ્રંથ એટલે સચિત છે એટલે જ વિદ્યા અને વિકજને પરત્વેની આપણું સંપ્રીતિને સૂચક પણ છે. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મૃતદેવતાના પરમોપાસક મહત્તરા શ્રીમૃગાવતીશ્રીજી મારા ઉપકારી વિદ્યાગુરુ આદરણીય (સ્વ.) પંડિત બેચરદાસ દેશીને સ્મરણુજલિ રૂપે સમર્પિત ગ્રંથ પ્રકાશિત થઈ રહ્યો છે જાણી અમને સૌને અપાર આનંદ થયે છે. આવા ઉચ્ચ કેટિના વિદ્વાનનું મરણોત્તર પણ આ રીતે બહુમાન થાય તે સર્વ રીતે ઉચિત છે. આ અવસરે (સ્વ.) પંડિતજી વિષે બેંક શબ્દ લખવાની મને પણ ભાવના થઈ આવી. એઓની પાસે ત્રણ ચાતુર્માસ દરમિયાન આગમ ગ્રંથનું મેં અધ્યયન કરેલું. સાધ્વી સુવ્રતાશ્રી પણ પંડિતજી પાસે પ્રાકૃત વ્યાકરણ તથા પાલિ વ્યાકરણ ભણેલાં. અમો બન્નેને જે લાગણી, સ્નેહ અને ઉમળકાથી ભણાવ્યા હતા તે બદલ (સ્વ.) પંડિતજીને ઉપકાર અને જીવનભર યાદ રહેશે. આગમ ગ્રંથમાં જ સમતાનું વર્ણન આવે છે તે ખરેખર પંડિતજીના જીવનને પસ્યું હતું. ઘણું પ્રસંગોમાં મેં પ્રત્યક્ષ નિહાળ્યું છે કે ગમે તેવા વિષમ સમયે પંડિતજી શાન્તભાવમાં, સમભાવમાં જ રહેતા; કદી સમતુલા ગુમાવી હોય તેવું મને યાદ નથી. આડંબરથી દૂર રહેવું, બધી વાતોમાં સ્વાભાવિક જ “સ્વભાવમાં રહેવું એ મેં એમનામાં જોયું છે. એમની સરળતા તો બાળક જેવી, એમની નિખાલસતા અને ઋજુતા પણ એટલાં જ અનુપમ. આગમ ગ્રંથોમાં ભગવાન મહાવીરને ધર્મ તથા ઉપદેશ લગભગ ત્રણ શબ્દમાં આવી જાય છે સરળતા, સ્વાભાવિકતા અને સમતા ! જિનેન્દ્રદેવનો આ ધર્મોપદેશ પંડિતજીને બરોબર સ્પર્યો હતા. એમણે તે આત્મસાત કર્યો હતો તેમ મને લાગે છે. લાંબા સમયથી પંડિતજીના એક કાન તથા એક આંખ નબળાં પડ્યાં હતાં; છતાં પણ વિદ્યાધ્યાસને પરિશ્રમ છોડેલે નહિ. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પંડિતપ્રવર બેચરદાસજી મધુસૂદન ઢાંકી પ્રાકૃતા અને પ્રમાણુશાસ્ત્રના પારગામિ, શ્રુત-પ્રāતા, પાંડિત્યમહાદધિ (સ્વ.) બેચરદાસ દેશી સાથે અમદાવાદમાં શ્રી લાલભાઈ દલપતભાઈ ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામન્દિરમાં મારે એ'એક વાર મળવાનું થયેલું; પણ જે વિષયેમાં તેઓ નિપુણ હતા તેમાં મારી ચાંચ ડૂબે તેમ નહેતું; એટલે વિશેષ વાતચીત થઈ શકે તેવી કેઈ બૌદ્ધિક ભૂમિકા નહેાતી. પશુ પછીથી આગમેાનાં અતિહાસિક પાસાંઓના અન્વેષણમાં રસ લાગ્યાથી તેમના લેખનેાનું અધ્યયન કરવાને અવસર સહેજે પ્રાપ્ત થયેા; ત્યારે પ્રસ્તુત વિષયામાં તેમનાં વ્યાપ અને પ્રજ્ઞાપન કેવાં વિસ્તૃત છે તે વિષે કલ્પના થઈ. તે વાત્સલ્યપૂર્ણ ગુરુજન, સફળ અધ્યાપક અને જન્મજાત સજજન હોવા અંગે તે જુદા જુદા મિત્રો, પરિચિતા પાસેથી ધણું ઘણું સાંભળેલું, અને એથી જ તા પંડિત સુખલાલજી અને પડિત બેચરદાસજી ગુજરાતના અને ભારતના સારસ્વતક્ષેત્રે એક ધ્યાન ખેંચે તેવી જોડી બની ગયેલા. આજે એમની બન્નેની અનુપસ્થિતિમાં પ્રાકૃતાની ગવેષણાના મહામેાજ હવે કાણુ ઉઠાવશે એ મેટા પ્રશ્ન છે. શરીરને સારસ્વત-કાર્યનું સુસાધન બનાવનાર સાધુમ્રુતિ સ્વ. પંડિત ખેચરદાસજી, વેદ્યુક્ત આયુસીમા સમીપ પહોંચ્યા પછી અને દશકા પર્યન્ત સતત વિદ્યાલાભ દીધા પછી અમરત્વને વર્યા છે. એઆ અક્ષર-સમૃદ્ધિને અખુટ ખાતે આપણા માટે મૂકી ગયા છે. તેમાંથી આવતારી ઘણી પેઢીઓને પેાતાનાં શાધકાની વસ્તુ અને ભૂમિકા સદૈવ મળતાં રહેશે. નવું જાણવું, વાંચવું, લખવું એમ તેની સતત સાધના ચાલતી જ રહેલી. અને શતક સમીપ પહેાંચેલી વૃદ્ધાવસ્થામાં પણ એમનામાં જિજ્ઞાસુ વિદ્યાથી ઓને પઠન કરાવવાની જે ધગશ હતી, અને જ્ઞાનસાધના, જ્ઞાનયેાગમાં પ્રતિક્ષણ સંલગ્ન રહીને પેાતાના વિશાળ અનુભવ તથા જ્ઞાનતા, વિદ્યાનેા, સમાજ અને શ્રીસ'ધને સતત લાભ જે રીતે તેઓ આપી રહેલા તે જોતાં આનંદ ઉપરાન્ત આશ્ચર્ય પણ થતું. પંડિતજી પેાતાના જ્ઞાનનેા, પીઢ અન્વેષણાનાં પરિણામેાને જે સ્વસ્થ, સમતાલ અને માતબર વારસા મૂકી ગચા છે તેના લાભ આપણને સૌને લાંબા કાળ સુધી મળતા રહેશે તેવી શુભ ભાવના આજે એમને જાણનાર સૌ કાઈના અંતરમાં હશે. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પંડિતપ્રવરને વન્દના કાનજીભાઈ પટેલ “ જેમ કેાઈ જંગલી છેાડ પેાતાની મેળે વાંકાચૂકા વધે અને જીવે તેમ મારું જીવન એમ તે એમ વાંકુંચૂંકું વધ્યું છે. જગલી છેડને ઉછેરનારા કાઈ આવી મળ્યા હાત તા કદાચ તે વધારે ઉત્તમ દેખાત; તેમ મને પણ બચપણથી જ કાઈ સંસ્કાર-સંપન્ન રક્ષક મળ્યા હેત તા કદાચ અત્યારે હું તેના કરતાં વિશેષતાવાળા ખતત એવા મને આભાસ છે. સભવ છે તે ખેાટા પણ હાય.'' ઉપર્યુક્ત શબ્દો છે સ્વ. પડિત બેચરદાસ દાશીના—જીવનની પળે પળને મૂલ્યવાન સમજીને તેને સદુપયાગ કરનાર, વિઘ્નાની પરંપરા વેડીનેય વિદ્યાની સંપ્રાપ્તિ કરનાર, જૈનધર્મના તત્ત્વને સમજીને (સમાજના વિરાધ સહીનેય) તેને સમાજમાં પ્રસારિત કરનાર, પ્રાકૃત ભાષાને યુનિવર્સિટીમાં પ્રતિષ્ઠા અપાવનાર, સમાજને સત્યને માર્ગ ચીંધનાર, રાષ્ટ્રીય પ્રવૃત્તિમાં ઝુકાવી દઈને પેાતાને માથે મુસીખતા નેતરનાર અને પોતાના પાંડિત્યથી ગુજરાતને ગૌરવ અપાવનાર વિરલ વિભૂતિના. તાજેતરમાં તા. ૧૧-૧૦-૮૨ને દિતે એ દીવા બુઝાઈ ગયા પણ એને! પ્રકાશ રહ્યો છે. એમનું જીવન આજેય અનેકને માટે પ્રેરણાદાયક બની શકે તેમ છે. ભારતના સાંસ્કૃતિક ઇતિહાસમાં વલ્લભીપુરનું નામ સુવર્ણાક્ષરે લખાયેલું છે. તે હાલના વળામાં પડિત એચરદાસ દોશીને જન્મ સ ૧૯૪૬માં પોષ વદી અમાસની રાતે થયેલેા. પિતાનું નામ જીવરાજ લાધાભાઈ દેાશી અને માતાનું નામ આતમખાઈ. જ્ઞાતિએ વીસા શ્રીમાળી દેરાવાસી જૈત, તેમનાં માતાજી કથા કરતાં કે “આ રાયાને માટે મે પત્થર એટલા દેવ કર્યા છે, ભાતભાતની ખાધા આખડી રાખેલી અને ધણા ભૂવા અને જતિઓની પણ આરાધના કરેલી,'' ખચપણથી જ ખેંચરદાસના નસીબમાં વિષમ સંજોગોના સામના કરવાનું જ જાણું લખાયેલું હતું. એકદા પણુના વરધાડા વખતે ઘેાડા વિક્ર્યાં, ઝાડ થયા અને પંડિતજીના પિતાને વગાડયુ, જયાં ખાવાના સાંસા હેાય ત્યાં દવા કાંથી થાય? પિતાને પગની કાયમની ખેાડ રહી ગઈ. શરીરે સાવ અસક્ત થઈ ગયા. તાય તે લાકડીને ટેકે દુકાને જતા, અને ધરતું પાષણ કરતાં. પણ એવામાં મેચરદાસના કાકા હરખા લાધાનુ કાલેરાથી મેાત થયું. ભાઈના મૃત્યુના આધાત જીવરાજ જીરવી ન શકા અને વળતે દિવસે તેય ભાઈ પાસે ચાલી નીકળ્યા અને બેચરદાસને માથે આભ તૂટી પડયું, પેાતાની પાસેનીવાલની વીંટી વેચીનેય માતાજીને કારજ કરવું પડયું. ધર કારમી ગરીબીની ભીંસમાં ભી’સાયું. માતાજીએ હિંમત રાખી, કાળી મજૂરી કરી છેાકરાંને મેટાં કરવા તરફ ધ્યાન આપ્યું. માને કાળી મજૂરી કરતી જોઈ બેચરદાસના જીવ કપાઈ જતા. પેાતાની માતાને મદ્દ કરવામાં તેમણે કદી પણ શરમ કે નાનમ અનુભવી ન હતી. અનાજમાં ભેળવવા રાખ ચાળવી, કાલાં ફાલવાં, કાલાંના ઠાળીઓમાંથી રૂ એકઠું કરવું, દાળમશાલી વેચવી વગેરે જે કામ મળે તે પતિજી કરતા રહેતા. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પંડિત પ્રવરને વન્દના પંડિતજીમાં નાનપણથી જ ભણવાની ભારે જિજ્ઞાસા હતી. તેઓ ચાર-પાંચ ગુજરાતી મોસાળ સણોસરામાં ભણ્યા. પહેલેથી જ એમનામાં વિદ્યાપ્રીતિ અને સંસ્કારો તે પહેલા જ હતા. તેઓ સણોસરા ભણતા હતા ત્યારે એમના ઉપર હેત રાખનાર એમના એક શિક્ષકે એમને ઈશારાથી કાપી કરી લેવાની સૂચના કરી હતી. પણ બેચરદાસે તે માની નહીં. તે અરસામાં જૈનાચાર્ય વિજયધર્મસૂરિ મહારાજે જેન વિદ્વાને તૈયાર કરવાના ઉદ્દેશથી માંડળમાં જૈન પાઠશાળાની સ્થાપના કરી હતી. વળામાં છ ગુજરાતી પૂરી કરીને તેઓ માંડળ ભણવા ગયા. એ વખતે એમના ઉચ્ચારો શુદ્ધ નહીં. ચિદમાં ને બદલે સંતના બેલે. પણ ત્યાં એમને શરૂઆતમાં જ ધમકી મળી ગઈ કે શુદ્ધ ઉચારણ ન થઈ શકે તો ઘરભેગા થઈ જાઓ અને એમણે દયાન રાખીને ઉચ્ચારણ-શુદ્ધિમાં સફળતા મેળવી. માંડળમાં છ-સાત મહિના રહીને કૌમુદીને અભ્યાસ કર્યો. ગુજરાતમાં જૈન વિદ્વાનો તૈયાર કરવા મુશ્કેલ છે એમ મુનિશ્રીને લાગતાં તેમણે વિદ્યાકેન્દ્ર કાશીમાં જવાનો વિચાર કર્યો. એમની સાથે બેચરદાસને બનારસ જવાની ઈચ્છા થઈ. પરંતુ મહારાજ “બેચરને સાધુ બનાવી દેશે”— એવા ભયને લીધે માતાએ સંમતિ આપી નહીં અને બનારસ જવાનું માંડી વાળવું પડયું. પગપાળા બનારસ જવા નીકળેલા બેચરદાસને ગોધરાથી વલ્લભીપુર પાછા આવવું પડયું. પછી પાલિતાણું ગયા અને શ્રી સિદ્ધિવિજયજી મહારાજ પાસે રહીને નવતત્વ વગેરેનો અભ્યાસ કર્યો. ત્યાં જમવા વગેરેની બહુ મુશ્કેલી વેઠવી પડી. પ્રભાવના વગેરેમાં જે કંઈ મળે તેનાથી ચલાવી લેવું પડતું. કઈ દિવસ તે એકાદશી પણ થઈ જતી. જામનગરના સદ્દગૃહસ્થ શ્રી સૌભાગ્યચંદ કપૂરચંદે માસિક રૂ. ૧૦/- આપવાનું નક્કી કર્યું એટલે તેમને માર્ગ કંઈક સરળ બન્યો. પાલિતાણામાં એક વર્ષ રહી વળી પાછા વળા આવી ગુજરાતી નિશાળે સાતમી ચોપડી ભણવા બેઠા. માને મદદરૂપ થવા વળાના જિનમાં રૂનાં ઊડી ગયેલાં પૂબડા વીણી લાવવાનું – વાણિયાના દીકરાને ન શોભે એવું – કામ કરવા માંડ્યા. બેચરદાસ પિતાને સોંપાયેલું કામ – કોઈ જોનાર હોય કે ન હોય – બરાબર કરતાં. એક પળ પણ વેડફાતાં તેમનો જીવ કચવાતો. આ ટાણેય મન તો બનારસને જાપ જપતું હતું. પુત્રની તીવ્ર ઈચ્છા જઈ માતાએ બનારસ જવાની સંમતિ આપી. ફીના પૈસાની જોગવાઈ થઈ અને બનારસ જવાની તૈયારી પૂરી થઈ ત્યાં વળી આફત આવી. સગાંવહાલાંએ બેચરદા સતી માતાને ભય બતાવ્યો કે કદાચ છોકરાને મહારાજ દીક્ષા આપી દે. એમ થાય તો કોઈ તેમની પડખે ઊભું નહીં રહે તેવી ધમકી આપી. માતાનું મન ડગી ગયું અને તેમણે પુત્રને બનારસ જતો અટકાવ્યો. તેઓ રોજ રોજ રડ્યા કરે અને ભણવા જવા વિશે ગોખ્યા કરે પણ માતાજી પાસેથી બનારસ જવાની સંમતિ મળે એમ ન હતી એથી બેચરદાસે મહેસાણું જવાની સંમતિ મેળવી. મહેસાણામાં એક જ માસમાં ભાંડારકરની સંસ્કૃત ચોપડી બરાબર પૂરી કરી ત્યાંથી એક દિવસ માતાને પૂછયા વગર જ (સં. ૧૯૬૨-૬૩ માં) તેઓ મિત્રો સાથે સીધા બનારસ પહેાંચી ગયા. બનારસમાં પંડિતો પાસે ભણવાનું શરૂ કર્યું. પણ પંડિતાની ભાષા સમજવામાં પડતી મુશ્કેલીને નિવારવા પાઠશાળાના સ્થાપક શ્રી ધર્મવિજયજી મહારાજે મુનિરાજ અમીરવિજયજી પાસે ભણવાની વ્યવસ્થા કરી આપી. પહેલી જ મુલાકાતમાં, પાઠમાં ભૂલ થવાથી નેતરની સોટી સજા મળી. બેચરદાસે મૂંગે મોઢે એ શિક્ષા સહી લીધી. એમની પાસેથી એ સિદ્ધહેમ લઘુત્તિ ભણ્યા. બનારસની એ પાઠશાળાનું વાતાવરણ વિચિત્ર હતું. પાઠશાળામાં માત્ર સાધુઓનું જ વર્ચસ્વ હતું; વિદ્યાર્થીઓનું જરાય નહીં. વિદ્યાર્થીઓએ પણ સાધુ જેવા નિયમો પાળવા પડતા. પાઠશાળા Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાનજીભાઈ પટેલ થતા પ્રવચનમાં દીક્ષા જ પરમ ધર્મ હોય એવો બોધ અપાતો. સ્ત્રીની નિંદા કરવામાં આવતી. આને પરિણામે બેચરદાસનું મન પાઠશાળા તરફથી ઊઠી ગયું. બનારસમાં એમણે વ્યાકરણ, ન્યાય અને સાહિત્યના પંડિતો પાસે શિક્ષણ લીધું. શિયાળામાં રોજ રાત્રે દેઢ કે બેથી સવારના છ વાગ્યા સુધી વાંચતાઅન્ય વિદ્યાથીઓ સાથે બનારસના મહાપંડિત નકછેદરામ પાસેથી તેમણે સમનિત નું અધ્યયન કર્યું. હેમચંદ્રને કેશ અને ધાતુપાઠ કંઠસ્થ કરી લીધા. હેમચંદ્રનું પ્રાકૃત વ્યાકરણ તો એ પોતાની મેળે જ શીખી ગયા. વ્યાકરણ શીખતાં એ ભાષા તો તરત જ આવડી ગઈ. ઉપરાંત, શૌરસેની, પૈશાચી, ચૂલિકા પૈશાચી અને અપભ્રંશ ભાષામાંયે નિપુણતા આવી ગઈ. સંસ્કૃત અને પ્રાકૃત બને બેલવા-લખવા પર પ્રભુત્વ મેળવ્યું. બેચરદાસ અને અન્ય વિદ્યાથીઓ કાશીમાં તનતોડ મહેનત કરીને અભ્યાસ કરતા હતા ત્યારે મહારાજશ્રીના પ્રતિસ્પધી કેટલાક મુનિઓએ ગુજરાતમાં એવી અફવા ફેલાવી કે કાશીમાં તો મુનિઓ અને વિદ્યાથીઓ માલમલીદા ઉડાવે છે અને સમાજના પૈસાને અપવ્યય કરે છે. પાઠશાળા અંગેની ગેરસમજ દૂર કરવા માટે મહારાજશ્રીએ બેચરદાસ અને અન્ય તેજસ્વી વિદ્યાર્થીઓને ગુજરાતમાં મોકલ્યા. આ વિદ્યાર્થીઓએ જાહેરસભાઓ ગોઠવી એમાં સંસ્કૃત અને ગુજરાતીમાં સરસ વ્યાખ્યાને આપ્યાં. અમદાવાદમાં બનારસની પાઠશાળાની શાખા ખોલી અને “સે મસાલેમેં એક ધનિયા, સો ગંભનમેં એક બનિયા” કહેવત સાચી પાડી. બેચરદાસના વ્યાખ્યાનને સાંભળીને શ્રી આનંદશંકર બાપુભાઈ ધ્રુવ એમના તરફ સદ્દભાવ રાખતા થઈ ગયા. “વસન્તમાં એમના સાહિત્યિક કાર્યની કદર કરી. પૂનામાં ભરાયેલ Oriental Conferenceમાં બેચરદાસે “અર્ધમાગધી ભાષાનું સ્વરૂપ” વિષય પર નિબંધ રજૂ કર્યો. નિબંધ અને ‘વસંત” માં છપાયેલી નેધ ઉપરથી વડોદરામાં શ્રી સી. ડી. દલાલની જગ્યાએ પં. બેચરદાસને નીમવાની વાત ચાલી. એ માટે વડોદરાના દિવાન શ્રી મનુભાઈ મહેતા સાથે મુલાકાત થઈ, પણ મહાત્મા ગાંધીજીમાં વિશેષ શ્રદ્ધા ધરાવનાર ખાદીધારીને દેશી રાજ્યની નોકરી ક્યાંથી અનુકૂળ રહે ? પંડિતજીએ તેનો અસ્વીકાર કર્યો. તેઓ રાષ્ટ્રીય ગૂજરાત વિદ્યાપીઠમાં જોડાયા અને વડોદરા ન ગયા. બેચરદાસ પુનઃ બનારસ ગયા ત્યારે ન્યાયશાસ્ત્રના પ્રાચીન ગ્રંથને અભ્યાસ શરૂ કર્યો. પ્રથમ જૈન ન્યાયના ગ્રંથ સ્યાદ્વાદમંજરી, અવતારિકા વગેરે ભણ્યા પછી ન્યાયસૂત્ર, વૈશેષિકસૂત્ર, સાંખ્યકારિકા વેદાન્તપરિભાષા વગેરે વૈદિક ન્યાયના સૂત્રો ભણ્યા. પિતાના અભ્યાસની સાથે સાથે શ્રી યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળાના ગ્રંથોનું સંપાદન પં. હરગોવિંદદાસ શેઠના સહકારમાં કરવા લાગ્યા. ખૂબીની વાત તો એ છે કે આ ગ્રંથમાળામાં પ્રકાશિત વ્યાકરણ અને ન્યાયને લગતા ગ્રંથે કલકત્તા સંસ્કૃત કૉલેજની તીર્થ પરીક્ષાના કેસમાં સ્થાન પામ્યા અને પછી પંડિતજી વ્યાકરણ અને ન્યાયના તીર્થ થયા. મુંબઈની એજયુકેશન ઑર્ડની પરીક્ષામાં આ બંનેને ઉત્તિર્ણ થયા બદલ રૂા. ૭૫-૭૫નું પારિતોષિક મળ્યું. પ્રાકૃત ભાષા પર પ્રભુત્વ કેળવ્યા પછી બૌદ્ધધર્મના જ્ઞાન માટે પાલિના અભ્યાસની જરૂર જણાઈ. આચાર્ય મહારાજે ડૉ. સતીષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણની સાથે પંડિત બેચરદાસને તથા પં. હરગોવિંદદાસ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ પતિપ્રવરને વન્દના અને ત્રિપિટકના અભ્યાસ શંડને કાલ’બો મેાકલ્યા. ત્યાં આઠ માસના ટૂંકા ગાળામાં પાલિ ભાષા કર્યો અને પાછા આવી યશેવિજય જૈન ગ્રંથમાળાના કામમાં લાગી ગયા. તેએ સાથે મળી ૧૬-૧૭ ગ્રંથનું સંપાદન કર્યું. ગ્રંથમાળા માટે તેમને ૧૨-૧૨ કલાક અને કારેક તા ૧૮-૧૮ કલાક કામ કરવું પડતુ, પ્રાકૃત ભાષા આત્મસાત્ થયા પછી પ'. ખેચરદાસના નવીન જીવનના શ્રીગગ્રેશ મ`ડાયા. પ્રાકૃત શીખ્યા પહેલાં જૈનધર્મ પ્રત્યે કેવળ પારપરિક શ્રદ્ધા-અ`ધશ્રદ્ધા હતી. એ ભાષા શીખ્યા પછી જૈન આગમે વાંચવાનુ` શરૂ કર્યું.. એમાં ઊઁડા રસ પડવા માંડ્યો. જૈન આગમાના વાચનથી આંખ ઉપર જામેલાં અધકારનાં પડળ ખસી ગયાં. વિયારેતે સવિવેક અને તુલનાત્મક રીતે ચકાસવાની વૃત્તિ જાગી. ગુરુ તરીકેની જૈન મુનિએ પરની શ્રદ્ધા ડગી ગઈ. સમાજમાં પ્રવતા રૂઢ જંડ વિધિવિધાને અને શ્રાવકાના આચારી પર અનુકપા છૂટી. એમ લાગ્યુ કે આગમાને લેાકભાષામાં ઉતારવા જોઈએ. બનારસમાં આ ઇચ્છા પૂર્ણ થઈ શકે તેમ ન હતી. એટલે સ ́વત ૧૯૭૦-૭૧ના અરસામાં અમદાવાદના શેડ શ્રી પૂનભાઈ હીરાચ'ઢે સ્થાપેલ જિનાગમ પ્રકાશન સભામાં જોડાયા. જૈન આગમાના પ્રમાણભૂત ભાષાન્તરા તૈયાર કરાવવા એ આ સંસ્થાને મુખ્ય ઉદ્દેશ હતા. આગમે પ્રગટ થતાં ગયાં, જૈન ગૃહસ્થ અને મુનિઓએ તેને ભારે વિરોધ કર્યાં, પંડિતજી માટે વિધ્નાની પરંપરા શરૂ થઈ. અંગત આક્ષેપ અને ગાલિપ્રદાન એવું બધું સહેવું પડયું. પેાતાને જે કઈ સત્ય લાધ્યું-સમજાયું, તેને અભિવ્યક્તિ આપવા ૫. બેચરદાસનું મન ઉછાળા મારવા લાગ્યું, ત્યાં એક તક મળી ગઈ. તા. ૨૧-૧-૧૯૧૯ના રોજ મુંબઈમાં માંગરાળ જૈનસભાના હોલમાં શ્રી મેાતીચંદ ગિરધરલાલ કાપડીઆના પ્રમુખપદે પાર્શ્વનાથથી માંડીને હરિભદ્રસૂરિ સુધીના ઇતિહાસ આલેખી જૈન સાહિત્યમાં વિકાર થવાથી થયેલ હાનિ' એ વિષય ઉપર વ્યાખ્યાન આપ્યું. એ વ્યાખ્યાનની મુંબઈના મોટા મોટા દૈનિકાએ મેટાં મથાળાં સાથે નાંધ લીધી અને તદ્દન શાન્ત એવે જૈન સમાજ ખળભળી ઊડ્યો. અમદાવાદની ગુરુશાહી દ્વારા પ્રેરાયેલા નગરશેઠે બબ્બે નેટિસે મેાલી, બેચરદાસે નમતું જોખવાને બદલે ‘સમાજની લાલ આંખા' નામના હિંદુસ્તાન પત્રમાં લેખ લખ્યા. અમદાવાદના તગરશેઠે પ. બેચરદાસને સધ બહાર જાહેર કર્યાં. તેમની મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની નાકરી છૂટી ગઈ. વળી પા‘જૈન સમાજનું તમસ્તરણ' નામના લેખ લખ્યા અને જૈન સમાજ એમની ઉપર તૂટી પડચો, ‘ જે માથે પડે તે એકલાએ સહી લેવું ' એવી તૈયારી રાખી સમાધાનની વાત ફગાવી દીધી. જૈન સાહિત્યમાં વિકાર થવાથી થયેલી હાનિ' ભાષણુ પછી જૈન સંધ જ્યારે બેચરદાસ ઉપર તૂટી પડચો ત્યારે પંડિતજીએ ગાંધીજીને વાત કરી. ગાંધીજીએ કહ્યું કે, “તમારી વાત શાસ્ત્રની દૃષ્ટિએ તમને પ્રામાણિક લાગતી હોય તા ગમે તે થાય તાપણુ ડગશા નહીં. અને કેાઈના ઉપર ક રાષે પણ ભરાશા નહીં. તમે મૂંઝવણમાં પણ પડશા નહીં. નવી વાત કહેનારને માટે સમાજ હંમેશાં આમ જ કરતા આવેલા છે એ જાણીતુ છે. '' : ઈ. સ. ૧૯૨૧માં ગાંધીજીએ ગૂજરાત વિદ્યાપીઠ સ્થાપી. એમાં સધર્મ-સમભાવની દૃષ્ટિએ ભારતના તમામ ધર્માંનું સાહિત્ય તૈયાર કરવુ એ ગાંધીજીની ભાવના હતી, એ માટે ધર્માનંદ કાસ...બી, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાનજીભાઈ પટેલ મુનિ જિનવિજયજી, પં. સુખલાલજી, અધ્યાપક રામચંદ્ર આથવલે, શ્રી રામનારાયણ પાઠક, શ્રી હરિનારાયણ આચાર્ય વગેરેની વિદ્વદ્રમંડળી પોતપોતાના વિભાગનું કામ ચલાવતી. પં. સુખલાલજી સન્મતિતર્કનું સંપાદન કરવાનું ઇચ્છતા હતા. તેમની માગણીથી ઈ. સ. ૧૯૨૨ થી પં. બેચરદાસ ગૂજરાત વિદ્યાપીઠમાં જોડાયા અને ત્યારથી અમદાવાદમાં આવીને વસ્યા. વિદ્યાપીઠમાં જોડાવાથી આશ્રમના જીવનની ઠીક ઠીક અસર થઈ અને તેમને પોતાનું જીવન ધન્ય લાગવા માંડયું. આ પછી તો ગાંધીજીની દાંડીને ઐતિહાસિક પ્રસંગ આવી પડ્યો. એ ટાણે ગાંધીજીએ એમને જેલમાંથી પત્ર લખીને જણાવેલું કે “તમારે તો પૂંજાભાઈ ગ્રંથમાળાનું કામ કરવાનું છે.” પણ મન માન્યું નહીં. મહાત્માજી જેવા સન્તપુરુષ જેલમાં હેય અને પોતે બહાર રહે એ કેમ બને ? તેથી હસ્તલિખિત “નવજીવનનું તંત્રીપદ સંભાળ્યું. બ્રિટિશ સરકારે એમની ધરપકડ કરી. પહેલાં સાબરમતી જેલમાં અને પછીથી નવ માસ માટે વિસાપુરની જેલના મહેમાન બન્યા. એમને ઘણું સહન કરવું પડયું પણ એને એમને કયારેય અફસોસ થયો નથી. પોતે જે કંઈ કર્યું તે તો રાષ્ટ્ર પ્રત્યેની પોતાની ફરજ હતી ને ! પણ પંડિતજીની ખરી મુશ્કેલીને સમય તે જેલમાંથી છૂટયા પછી શરૂ થયો. તેમને બ્રિટિશ હુકુમતમાં પ્રવેશ કરવાની મનાઈ હતી જે ઈ. સ. ૧૯૩૫-૩૬ સુધી ચાલુ રહી. આ સમય દરમિયાન કુટુંબના ભરણપોષણ માટે મારવાડમાં સ્થાનકવાસી સાધુઓ અને બીજાઓને ભણાવીને પોતાને વિકટ પંથ કાપતા રહ્યા. આ સમય દરમિયાન એક અણનમ યોદ્ધાની જેમ પંડિતજી જીવન-સંગ્રામ ખેલતા રહ્યા. અનેક જૈન મુનિઓને અને પ્રાકૃત શીખવા ઇચછનારાઓને એમણે દિલ દઈને પ્રાકૃત ભણવ્યું. “પ્રાકૃત માર્ગો પદેશિક ” નામે પ્રાકૃત વ્યાકરણ અને અપભ્રંશ વ્યાકરણ લખ્યાં. એમને વિચાર આવ્યો કે યુનિવર્સિટીના અભ્યાસક્રમમાં સંસ્કૃત અને પાલિને સ્થાન છે તે પછી પ્રાકૃતિને કેમ નહીં ? એમણે પ્રાકૃત સાહિત્યને લગતી એક મોટી નોંધ તૈયાર કરી. પ્રાકૃત સાહિત્યને બરાબર ખ્યાલ આપતો નિબંધ તૈયાર કર્યો. અને એની મુંબઈ યુનિવર્સિટીમાં રજૂઆત કરી. થોડા સમય પછી મુંબઈ યુનિવર્સિટીએ સંસ્કૃતની પેઠે જ હાઈસ્કૂલમાં પાંચમા ધોરણથી અર્ધમાગધી ભાષા પણ શરૂ કરવાનું જાહેર કર્યું. પં. બેચરદાસજીએ આગમોની ભાષાની સેવામાં ચત કિંચિત નિમિત્તરૂપ બન્યાની ધન્યતા અનુભવી. વિદ્યાપીઠનું ગ્રંથમાળાનું કામ બંધ થતાં તેમણે “જૈનશાસન” નામના એક પાક્ષિક પત્રના સંપાદનની જવાબદારી સ્વીકારી. એ પત્રમાં તેમણે મર્યાદિત દીક્ષાની પદ્ધતિ, દીક્ષા લીધા પછી તે ન પાળી શકાય એવું લાગે તે દીક્ષા છોડી દઈને સિદ્ધપુરુષ થવાની યા શ્રાવકધર્મ આચરવાની પ્રાચીન રીત, ઉપધાન પાછળ ખર્ચ વગેરે બાબતો પર શાસ્ત્રીય દષ્ટિએ ચર્ચા ઉપાડી. અમદાવાદ નિવાસ દરમ્યાન એમને લાગ્યું કે અમે જે કંઈ જાણીએ છીએ તે અમદાવાદના લોકો પણ જાણે એવી કોઈ યોજના થાય તો સારું. આ વિચારબીજ પાંગર્યું અને એમને ઘેરથી પયુંષણ વ્યાખ્યાન માળાને પ્રારંભ થયો. આજે તો મુંબઈ, અમદાવાદ, કલકત્તા અને પૂના સુધી વ્યાખ્યાનમાળા પહોંચી ગઈ છે. તેને ઉપક્રમે અપાયેલા વ્યાખ્યાને પુસ્તકાકારે બહાર પડે છે. વળાના જિનમાં રૂનાં પૂમડાં વણતા એ બેચરદાસની વિદ્વાન તરીકેની કીર્તિ ચોતરફ વિસ્તરવા માંડી. મુંબઈ યુનિવર્સિટીએ સાત ચોપડી ભણેલા બેચરદાસને ‘ ગુજરાતી ભાષાની ઉત્ક્રાન્તિ” Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પંડિત પ્રવરને વન્દના વિષય પર વ્યાખ્યાન આપવા આમંત્રણ આપ્યું. એમણે વિકફવર્ગની સંનિધિમાં એ વ્યાખ્યાને આપ્યાં, જે પુસ્તકાકારે પ્રગટ થયાં. અમદાવાદની એલ. ડી. આટર્સ કૅલેજમાં વર્ષો સુધી અર્ધમાગધીના અધ્યાપક તરીકે તેમણે સેવા આપી. એમના જેવા મહાપંડિત જે કેલેજમાં અધ્યાપક હોય તે ગૌ૨વ કેમ ન લે ? એમની પાસે તૈયાર થયેલા શિને આજે પણ ગુરુનું સ્મરણ થતાં આંખમાં ઝળઝળિયાં આવી જાય છે. કોલેજમાંથી નિયમ પ્રમાણે અવકાશ પ્રાપ્ત થયા છતાં માનદ્ અધ્યાપક તરીકે સેવા લઈ લેજે પિતાનું તેમ જ પંડિતજીનું ગૌરવ વધાર્યું. ત્યાર પછી લા. દ. ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિર સાથે તેમણે નાતો જોડો. પં. શ્રી દલસુખભાઈ માલવણિયા સાથે આચાર્ય જિનભદ્રના વિશેષાવશ્યકભાષ્યનું સંપાદન કર્યું. એટલે ૯૦ વર્ષની ઉંમરે આચાર્ય હેમચંદ્ર વિરચિત સિદ્ધહેમ–શબ્દાનુશાસન (લઘુવૃત્તિ)નું ત્રણ ભાગમાં યુનિવર્સિટી ગ્રંથનિર્માણ બોર્ડ તરફથી પ્રકાશન થયું. આવો છે આ વણિક બ્રાહ્મણને જીવન-ઈતિહાસ. વણિકપુત્ર હોવા છતાં એમણે વિત્તને બદલે વિદ્યાની સંપ્રાપ્તિને મહત્ત્વ આપ્યું છે. સત્યને પામવું અને સમાજને વિરોધ સહીનેય સમાજમાં પ્રસારવું, એવી એમણે વૃત્તિ રાખી છે. જીવનની પળેપળને અમૂલ્ય ગણુને એને સદુપગ કર્યો છે. સરસ્વતીને આ પુત્રે સમાજ અને રાષ્ટ્ર બનેની સેવા કરી છે. જૈન સાહિત્યની તેમની વિરલ સેવાને લીધે અનેક મહત્ત્વના ગ્રંથે પ્રકાશમાં આવ્યા છે. પ્રાકૃત-અર્ધમાગધી ભાષાના તો પંડિતજી અસાધારણ વિદ્વાન તરીકે ખ્યાતિ પામ્યા છે. દેશ અને દુનિયાના ઉચ્ચ કોટિના વિદ્વાનોમાં માનભર્યું સ્થાન તેમણે પ્રાપ્ત કર્યું છે. સંસ્કૃત ભાષાના તેઓ ઉકટ વિદ્વાન તરીકેની ખ્યાતિ પામ્યા છે. ભારત સરકારે “રાષ્ટ્રીય એવોર્ડ” આપીને તેમનું ઉચિત સન્માન કર્યું છે. પંડિત બેચરદાસજી પ્રાચ્યવિદ્યાના ઊંડા અભ્યાસી અને વિદ્યા પુરુષ હતા. તેઓ પ્રકૃતિથી અતિ સરળ અને આકૃતિથી અતિ સૌમ્ય તથા વૃત્તિથી અતિ ઉદાર હતા. આવા ઋષિ વિદ્યાપુરુષને કેટિ કોટિ વંદન. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પં. બેચરદાસજી વિરચિત, સંપાદિત તથા અનુવાદિત ગ્રંથ અને લેખોની સૂચિ સંપા. સલોની જોષી [એક જિંદાદિલ અધ્યાપક' શીર્ષકતળે ડો. શાંતિભાઈ આચાર્યને “વિદ્યાપીઠ” વર્ષ–૧૦ અંક-૪ (૧૯૭૨)માં આવેલા પંડિતજીના ચરિત્રાલેખ સાથે જોડેલ સુચિને અહીં ઉપયોગ કર્યો છે તે બદલ લેખકને આભાર માનું છું.–સંપા.] ૧. મૌલિક ગ્રંથ આર્ય, બુદ્ધ અને જૈન ધર્મના મૂળ સિદ્ધાંતને સમન્વય – અમદાવાદ સસ્તુ સાહિત્ય વર્ધક કાર્યાલય, સં. ૨૦૦૨. ગંગાધર શાસ્ત્રીજી કે અસત્ય આક્ષેપ કે ઉત્તર - બનારસ : ધર્માલ્યુદય પ્રેસ, ૧૮૧૩. ગુજરાતી ભાષાની ઉત્ક્રાંતિ-મુંબઈઃ મુંબઈ યુનિવર્સિટી, ૧૯૩૯-ઠકકર વસનજી માધવજી વ્યાખ્યાને. જૈન દષ્ટિએ બ્રહ્મચર્ય વિચાર/સુખલાલ સંઘવી સાથે–અમદાવાદઃ ગૂજરાત વિદ્યાપીઠ, ૧૯૩૧. જૈન સાહિત્ય કા બહદ ઇતિહાસ -બનારસઃ પાર્શ્વનાથ વિદ્યાશ્રમ શોધ-સંસ્થાન, ૧૯૬૬-(પાર્શ્વનાથ વિદ્યાશ્રમ ગ્રંથમાલા : ૬)-ભાગ ૧. અંગ આગમ. જૈન સાહિત્યમાં વિકાર થવાથી થયેલી હાનિ-અમદાવાદ: લેખક. તત્વાર્થ સૂત્ર-જૈન આગમ સમન્વય પર એક દષ્ટિન?]: પારેખ રતનલાલ ઈન્દચન્દ્રજી, ૧૯૩૫. ધર્મ સંશોધક ભગવાન મહાવીરની પચીસમી શતાબ્દીને ઉત્સવ-અમરેલીઃ શેઠજી રામજી હંસરાજ અને શેઠ મંગળજી માણેકચંદ, ૧૯૩૪. નવકાર મંત્રને મહિમા-મુંબઈ : પરિપત્ર જૈન જાગૃતિ, ૧૯૪૫. નવાંગી વૃત્તિકાર અભયદેવસૂરિ-કપડવણજ વાડીવાલ એમ. પારેખ, ૧૯૫૪. પર્યુષણના વ્યાખ્યાન-અમદાવાદ : જૈન સાહિત્ય સંશોધક કાર્યાલય, ૧૯૩૦. પ્રાકૃત માર્ગેપદેશિકા-બનારસઃ યશોવિજયજી જૈન સંસ્કૃત પાઠશાળા, ૧૯૧૧–સંસ્કૃત શબ્દ વિના. પ્રાકૃત માર્ગોપદેશિકા-ભાવનગરઃ યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૯-સંસ્કૃત શબ્દ વિના. પ્રાકૃત માર્ગોપદેશિકા-૪ આ.-અમદાવાદઃ ગુર્જર ગ્રંથરત્ન કાર્યાલય, ૧૯૪૭-સંસકૃત શબ્દો સાથે Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ પં. બેચરદાસજી વિરચિત ગ્રંથ-લેખેની સૂચિ પ્રાપ્ત માર્ગોપદેશિકા-દિલ્લીઃ મોતીલાલ બનારસીદાસ, ૧૯૬૮-હિંદી. પ્રાકૃત વ્યાકરણ–અમદાવાદ: ગુજરાત વિદ્યાપીઠ ૧૯૨૫. મણિધારી જિનચંદ્રસુરિ કાવ્યાંજલિ સંપા. સાગરમલ જૈન, હરિહરસિંહ-બનારસ : પાર્શ્વનાથ વિદ્યાશ્રમ શોધ સંસ્થાન, ૧૯૮૧-(પાનાથ વિદ્યાશ્રમ લધુ પ્રકાશન ૩)-અંગ્રેજી અનુવાદ સહ, શ્રમણ ભગવાન મહાવીર- મુંબઈઃ મ. તા. મહેતા, ૧૯૫૪. હેમચંદ્રાચાર્યઅમદાવાદ: લેખક, ૧૯૩૬. ૨. સંપાદિત અનુવાદિત ગ્રંથ અનેકાન્ત જયપતાકા/હરિભદ્રસુરિ—બનારસ : હર્ષચન્દ્ર ભૂરાભાઈ, ૧૯૧૪-(યશે વિજય ગ્રંથમાળા; ૬)-સ્વોપર ટીકા સહ. સંસ્કૃત અભિધાન ચિંતામણી કેશ/હેમચંદ્રાચાર્ય–ભાવનગર : *યશવિજય જૈન ગ્રંથમાળા ઃ ૪૧, ૪૨. , સંસ્કૃત, આવશ્યક નિર્યુક્તિ/ભદ્રબાહુ-બનારસ હર્ષચન્દ્ર ભુરાભાઈ, ૧૯૧૪. (યશોવિજય ગ્રંથમાળા)-પ્રાકૃત મૂળ ગ્રંથ. ઉવસગ્ગહરવૃત્તિ/જિનસૂરિમુનિ-ભાવનગરઃ શાહ મોહનલાલ ગિરધરલાલ, ૧૯૨૧. ગિરનાર ચૈત્ય પરિપાટી અને અપભ્રંશ વ્યાકરણ–અમદાવાદ : પુરાતત્વમંદિર, ગૂજરાત વિદ્યાપીઠ, સંવત ૧૯૭૯ ચાંદ્ર વ્યાકરણ/ચન્દ્રગામી-જોધપુર રાજસ્થાન પ્રાચ્યવિદ્યા પ્રતિષ્ઠાન, ૧૯૬૭ – સંસ્કૃત વ્યાકરણ. ચેઈઅવંદણ મહાભાસ-ભાવનગરઃ આત્માનંદ જૈન સભા, ૧૯૩૦. જગથુરુકાવ્ય/પદ્મસાગર – બનારસ : હર્ષચંદ્ર ભૂરાભાઈ, ૧૯૧૩. (યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા : ૧૪)- સંસ્કૃત મહાકાવ્ય. જિનાગમ કથાસંગ્રહ. –જૈન સાહિત્ય પ્રકાશન ટ્રસ્ટ, ગુજરાત વિદ્યાપીઠ. ૧૯૩૫ (પૂજાભાઈ જૈન ગ્રંથમાળા -૭) પ્રાકૃત કથાઓને ગુજરાતી અનુવાદ. જૈન કથાત્મકશ -ભાવનગર : આત્માનંદ જૈન સભા, ભાગ ૧, ૧૯૫૧ : ભાગ ૨, ૧૯૫૬-જૈન કથાઓને ગુજરાતી અનુવાદ, જૈનદર્શન-રાજકોટઃ મહેતા મનસુખલાલ રવજીભાઈ, ૧૯૨૧-ષડ્રદર્શન સમુચ્ચય” પરની ગુણરતનની ટીકાને “ જૈન દર્શન’ અંગેના ભાગને અનુવાદ પ્રસ્તાવના સાથે. * યશવિજય જૈન ગ્રંથમાળાના પ્રત્યેક પુસ્તકમાં પંડિત બેચરદાસ જીવરાજ દેશની સાથે પં. હરગોવિંદદાસ શેઠ પશુ સહ સંપાદક છે. પ્રત્યેકમાં અલગ ઉ૯લેખ નથી કર્યો, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫ સલાની જેવી દેવાનન્દાલ્યુદય મહાકાવ્ય/મેઘવિજય-મુંબઈ સિંઘી જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૩૭ - (સિંઘી જૈનગ્રંથમાળા: ૭). સંરકૃત. દેશી શબ્દસંગ્રહ/હેમચન્દ્રાચાર્યમુંબઈ : ફાર્બસ ગુજરાતી સભા; ૧૯૪૭ઃ ભાગ ૧ સંસ્કૃત સંપાદન, ગુજરાતી અનુવાદ. દેશી શબ્દસંગ્રહ/હેમચંદ્રાચાર્ય–અમદાવાદઃ યુનિ. ગ્રંથનિર્માણ બોર્ડ, ૧૯૭૪-સંસ્કૃત મળ, ગુજરાતી અનુવાદ. ધમ્મપદ (ધર્મનાં પદે)-અમદાવાદ : સસ્તું સાહિત્ય, ૧૯૫૮-પાલિ મળ અને ગુજરાતી અનુવાદ તથા પ્રસ્તાવના. ધર્મામૃત ભજનસંગ્રહ-અમદાવાદઃ નવજીવન પ્રેસ, ૧૯૩૯. નિર્ભયભીમ વ્યાયાગ/રામચંદ્રસૂરિ-બનારસ : યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, વરસંવત ૨૪૩૭ (યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા : ૧૯). સંસ્કૃત નેમિનાથ મહાકાવ્ય/કીર્તિરાજ ઉપાધ્યાય-ભાવનગર : યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, વીર સંવત ૨૪૪૦ (યશવિજય જૈન ગ્રંથમાળા; ૩૮). સંસ્કૃત. પવિત્ર કલ્પસૂત્ર/સંપા. મુનિ પુણ્યવિજયજી; અનુવાદક બેચરદાસ જીવરાજ દેશી-અમદાવાદઃ નવાબ સારાભાઈ, ૧૯૫૨. પાઈઅલછી નામમાલા/ધનપાલ–ભાવનગર : બી. બી. એન્ડ મહાશયાનાં કંપની, * ૧૯૧૮ વીર સંવત ૨૪૪૩. પ્રાકૃત કેશ પાઈઅલી નામમાલા/ધનપાલ-૨ જી આ-મુંબઈઃ શાદીલાલજી જેન, ૧૯૬૦ પાંડવચરિત્ર/દેવવિજય ગણિ-બનારસ : યશવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૬. (યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા; ૨૬).–સંસકૃત. પાર્શ્વનાથચરિત્ર/ભાવવસરિ-બનારસ : યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૧-(યશવિજય જૈન ગ્રંથમાળા: ૩૨),-સંસ્કૃત. પ્રદ્યુમ્નચરિત્ર/રત્નચંદ્રગણિ-ભાવનગર ઃ બી. બી. મહાશયાનાં મંડલી, ૧૯૧૮. ભગવતીસૂત્ર – અમદાવાદ : જૈનાગમ પ્રકાશન સભા; ૧૯૧૮-ભાગ ૧ મૂળ અને અનુવાદ. ભગવતી સત્ર – રાજકોટ : જૈનાગમ પ્રકાશન સભા, ૧૯૨૩–ભાગ ૨, મૂળ અને અનુવાદ. ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે - અમદાવાદ. ગૂર્જર ગ્રંથરત્ન કાર્યાલય, ૧૯૩૧ – ઉવાસગ દસાએાને ભાવાત્મક અનુવાદ. ભગવાન મહાવીરની ધર્મકથાઓ-અમદાવાદઃ ગૂજરાત વિદ્યાપીઠ, ૧૯૩૧. “નાયાધમ્મકહાઓ ને ભાવાત્મક અનુવાદ. * બી. બી. મહાશયાનાં કપની’ એ નામે પ્રકાશિત ગ્રંથોમાં પં. બેચરદાસજી સાથે પં, ભગવાનદાસ પણ સંપાદક હતા. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પં. બેચરાજી વિરચિત ગ્રંથ-લેખની સૂચિ મદનરેખા આખ્યાચિકા/જિનભદ્રસૂરિ-અમદાવાદ : લા. દ. ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિર, ૧૯૭૩ (લા. દ. ગ્રંથમાળા-૩૯). મલ્લિનાથ ચરિત/વિનયચન્દ્રસૂરિ-બનાસઃ યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૩ – (યશવિજય જૈન ગ્રંથમાળા; ર૯). સંસ્કૃત મહાકવિ ધનપાલ રચિત શ્રી મહાવીર વિજ્ઞપિકા સ્તુતિનું વિવેચન સંપાદન-અમદાવાદ : જૈન સાહિત્ય સંશોધક, ૧૯૨૮. મહાવીરચરિત ઃ છઠ્ઠો પ્રસ્તાવ/ગુણચંદ્ર ગણિ–અમદાવાદ : પ્રાકૃત વિદ્યામંડળ, ૧૯૬૬-ગુજ. અનું. મહાવીરચરિયું : છઠ્ઠો પ્રસ્તાવ/ગુણચંદ્ર ગણિ,-અમદાવાદ : પ્રાકૃત વિદ્યામંડળ, ૧૯૬૬- મૂળ પ્રાકૃત ગ્રંથનું સંપાદન. મહાવીરવાણી–મુંબઈ મ. તા. મહેતા, ૧૯૫૪–આગમોમાંથી સંગ્રહિત સુભાષિતો, ગુજરાતી અનુવાદ સહ. મહાવીરવાણી-અમદાવાદ : સસ્તું સાહિત્ય, ૧૯૫૬. મહાવીરવાણી–૧લી આ. - દિલ્હીઃ સસ્તા સાહિત્ય મંડલ, ૧૯૪ર. મૂળ સાથે હિન્દી અનુવાદ. મહાવીરવાણુ–૨છ આ.-વર્ધા : ભારત જૈન મહામંડલ, ૧૯૫૦. માત્ર હિન્દી અનુવાદ. મહાવીરવાણુ-બનારસ ઃ સર્વ સેવા સંઘ પ્રકાશન, ૧૯૫૬, હિન્દી અનુવાદ. મહાવીરવાણી – સાંગલી : બા. ભૂ. પાટીલ ગ્રંથ પ્રકાશન, ૧૯૫૬, મરાઠી. રત્નાકરાવતારિકા/રત્નપ્રભસૂરિ – બનારસ : યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૩-મૂળ સંસ્કૃત . ટિપ્પણ સહ. રત્નાકરાવતારિકાધલેકશનાર્થી/જિનમાણિજ્ય ગણિ-અમદાવાદ : લા. દ. વિદ્યામંદિર, ૧૯૬૭ (લા. દ. ગ્રંથમાળા : ૧૨). સંસ્કૃત. રાયપાસેણિય સુર-અમદાવાદ: ગૂર્જર ગ્રંથરત્ન કાર્યાલય, વીર સંવત ૨૪૬૪, વિ. સં. ૧૯૯૪-(પ્રાપ્ત ગ્રંથમાળા : ૯). રાયપસેણિચ સુત્ત-લીમડી ઃ લાધાજી સ્વામી પુસ્તકાલય, ૧૯૩૫-(લાધાજી સ્વામી સ્મારક ગ્રંથમાળા: ૨૪) – ગુજરાતી અનુવાદ માત્ર. વિજપપ્રશસ્તિ/હેમવિજય ગણિ-બનારસ : યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૩. (યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા; ૨૪) – ગુણવિજય કૃત ટીકા સહ સંસ્કૃત. વિયાહપણુતિ સુત્ત-મુંબઈઃ મહાવીર જૈન વિદ્યાલય, ૧૯૭૪, ૧૯૭૮, ૧૯૮૨ (જૈન આગમ ગ્રંથમાલા ૪ (૧) ). ભાગ. ૧, ૨, ૩. વિશેષાવશ્યક ભાષ્ય-૩/જિનભદ્રગણિ; સંપા. પં. દલસુખભાઈ માલવણિઓ, બેચરદાસ દેશી અમદાવાદઃ લા. દ. વિદ્યામંદિર, ૧૯૬૮ – (લા. દ. ગ્રંથમાળા : ૨૧)-પ્રાકૃત. શબ્દરત્નાકર કોશ-બનારસઃ યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૩. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સલાની જેવી શબ્દાનુશાસન/મલયગિરિ-અમદાવાદ : લા. દ. વિદ્યામંદિર, ૧૯૬૭-(લા. દ. ગ્રંથમાળા:૧૩); પzટીકા, પ્રસ્તાવના, પરિશિષ્ટ સહ, સંસ્કૃત. શાંતિનાથ મહાકાવ્ય/મુનિભદ્રસૂરિબનારસ : યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૩. શીલદૂત ચારિત્રસુંદર ગણિ – બનારસ : યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૩. (યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા : ૧૮). પદર્શનસમુચ્ચય (લઘુ)/મલધારી રાજશેખરસૂરિ-રજી આ -બનારસ : હર્ષચંદ્ર ભૂરાભાઈ,-(યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા : ૧૭). સન્મતિતર્કપ્રકરણ/સિદ્ધસેનસૂરિ દિવાકર; સંપા. પંડિત સુખલાલજી, બેચરદાસ દેશી-અમદાવાદ: પુરાતત્ત્વ મંદિર, ગૂજરાત વિદ્યાપીઠ, ૧૯૨૪–૧૯૩૬, ભાગ ૧-૫મૂળ પ્રાકૃત, અભયદેવસૂરિ કૃત સંસ્કૃત ટીકા સાથે સન્મતિત પ્રકરણ / સિદ્ધસેનસૂરિ દિવાકર, અબ્દાવાદ : પૂંજાભાઈ જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૩૨ ગુજ. અનુવાદ સાથે. સમણુસુનં–બનારસ, સર્વસેવા સંઘ, ૧૯૭૫, સંસ્કૃત છાયા પરિશાધન. સમરાઈશ્ચકહા/હરિભદ્રસૂરિ– ભાવનગર. બી. બી. એન્ડ મહાશયાનાં મંડળી, ૧૯૧૮. સિદ્ધહેમ શબ્દાનુશાસન : લઘુવૃત્તિ/હેમચંદ્રાચાર્ય–અમદાવાદ : યુનિવર્સિટી ગ્રંથ નિર્માણ બોર્ડ, - ૧૯૭૮, ૧૯૮૧, ભાગ ૧-૩ સંપાદન, અનુવાદ, વિવેચન. સ્યાદવાદમંજરી/મલિષેણસૂરિ - બનારસ: યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૩ હેમવિશ્વમ-બનારસ: યશવિજય જૈન ગ્રંથમાળા, ૧૯૧૩ (યશોવિજય જૈન ગ્રંથમાળા : ૩૪). ગુણચંદ્રવિરચિત ટીકા સાથે, સંપાદન. ૩. લેખે ૧ અખિલ ભારતીય સંસ્કૃત સાહિત્ય સમે- જૈન બૌદ્ધ સાહિત્ય વિભાગના અધ્યક્ષપદેથી લક્ષ્ય સ્વર્ણ જયન્તી સમારોહ અધ્યક્ષીયં આપેલાં વ્યાખ્યાન, પ્રકા. સંસ્કૃત પરિષદ, ભાષણમ દિલી, ૧૯૬૬ ૨ અપૂર્વ અવસર ભૂમિપુત્ર, ૧૯૫૮ ૩ અજલિ નાનાભાઈ સન્માન અંક, ૧૯૬૧ ૪ (સમ્રાટ) અશોકના શિલાલેખો અખંડ આનંદ, એપ્રિલ '૬૩ પૃ. ૨૨ થી ૨૭ ૫ અસત્ય ૬ આ સંસાર ? જીવન માધુરી, ૧૯૫૮ ૭ આધ્યાત્મિક ઉપલબ્ધિઓંકી શોધ ઔર જૈન જગત, નવે.-ડીસે. ૧૯૬૬ પૃ. ૩૧૧-૩૧૬ સમન્વય ૮ આચારાંગ મેં ઉકિલખિત પરમત શ્રમણ ૬/૬ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ પં. બેચરદાસ વિરચિત ગ્રંથ-લેખેની સૂચિ પ્રબુદ્ધજીવન ૪ ૫૪ અખંડ આનંદ સપ્ટે. 'પર, પૃ. ૭-૧૩ શ્રમણ ૬ '૬૬ શ્રમ ૧ '૬૭ બુદ્ધિપ્રકાશ સપ્ટે. ૧૭૧, પૃ. ૨૮૩-૨૮૭ ૯ આપણું કાંતિને વારસો ૧૦ આપણું ત્રણેય સંસકૃતિની દષ્ટિએ બ્રાહ્મણત્વ ૧૧ આર્ષ પ્રાકૃતિકા વ્યાકરણ-૧ ૧૨ આર્ષ પ્રાકૃતિકા વ્યાકરણ-૨ ૧૩ ઈતિહાસ પર અજવાળ નાખતા કેટલાક દેશ્ય શબ્દો ૧૪ ઉપાસના ૧૫ ઉપાસના અને આમ શોધના ૧૬ ઉલ્લાસપ્રેરક ઉત્સવ ૧૭ એક પત્ર ૧૮ એક ભજન ને મહાભારત ૧૯ કેડચ ૨૦ ક્ષામાં તથા ક્ષમાપના ૨૧ ક્ષમાને મહાસાગર (મેતારજ મુનિ) ૨૨ “ગઠિયા’ને સ્વાધ્યાય. (પત્રમ પુ૫મ) ૨૩ ગરબે કે ગરબી (એક વિવાદાસ્પદ ચર્ચા) ૨૪ ગાંધીજી અને પુરાતત્ત્વ ૨૫ ગાંધીજીએ.........જીવંત વ્યવહાર ૨૬ ગ્રામોદ્યોગ ક૯૫વૃક્ષ છે ૨૭ ગુજરાતી ગેય ૨૮ ગુજરાતી ભાષાનું સંશોધન અને પ્રાકૃતિને અભ્યાસ ૯૯ ગુજરાતી ભાષાને ઉત્કર્ષ ૩૦ ચર્ચાપત્ર ૩૧ ચાંદ્ર વ્યાકરણ પરિચય અખંડ આનંદ જુલાઈ '૬૨, પૃ. ૧૧–૧૫ જૈન પર્યુષણાંક સંવત ૨૦૧૨ પૃ. ૩૯-૪૦૦ જીવન માધુરી મે, ૨ પૃ. ૨૫-૩૨ અભ્યાસ ૧૧ '૬૯ અખંડ આનંદ એપ્રિલ ૫૪ પૃ. ૮-૧૩ બુદ્ધિપ્રકાશ જુલાઈ 'પ૨, પૃ. ૩૯-૨૦ અભ્યાસ નવે. ”૬૪, પૃ. ૧૩૧-૪૦ આત્માનંદ પ્રકાશ ? સંસ્કૃતિ ૯ '૬૨, પૃ. ૨૪ સ્ત્રીજીવન એકટ, '૪૫ પૃ. ૬૯૯-૭૦૦ પ્રબુદ્ધજીવન ૪ ૫૪ નિકેતનઅખંડ આનંદ, ૧૯૭૫ ડિસે. પૃ. ૫૧ સ્ત્રીજીવન ગરબાઅંક, પૃ. ૭૭૫-૮૬ બુદ્ધિપ્રકાશ ઑગસ્ટ '૬૮ ૨૮૩-૮૬ ૩૨ ચાંદ્ર વ્યાકરણ પરિચય ૩૩ જનકલ્યાણ ૩૪ જમાઈની પરીક્ષા ૩૫ જાતિવાદનું મૂળ ૩૬ જિજીવિષા ૩૭ જૈન અને બૌદ્ધ વિચારધારાની આલોચના ૩૮ જૈન પરંપરા અનુસાર વિદ્યાર્થીને પ્રકારે ૩૯ જૈન સમાજ કી વર્તમાન પરિસ્થિતિ પ્રજાબંધુ ગુ. સમાચાર અંક ૨ પૃ. ૨૫૭-૨૬૫ બુદ્ધિપ્રકાશ માર્ચ, '૮૦, પૃ. ૧૦૫ ભારતી (વિદ્યાસભાની) ભાવનગર ડિસે. 'પદ સં. ૫.) પૃ. ૧૭–૩૨ પૃ. ૯-૨૭ જનકલ્યાણું ? ગૃહમાધુરી જુલાઈ 'પ૪, પૃ. ૧-૫ અખંડ આનંદ માર્ચ ૫૦, પૃ. ૩૪-૪૦ જનકલ્યાણ ફેબુ. '૬૭, પૃ. ૨૩૬-૩૮ પ્રબુદ્ધ જીવન જનકલ્યાણું મે પ૩, પૃ. ૪૧-૪૭ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સલોની જેવી જૈન ૮૪૩ પ્રબુદ્ધજીવન ૬૬૮ અનેકાન્ત ૨૬૩ જૈન ૧૨૬૦ પ્રબુદ્ધજીવન ૪૫૩ પ્રબુદ્ધજીવન ૧-૬-૬૮, પૃ. ૨૮ ૪૦ જૈન સમાજના વિદ્યાપ્રિય ૪૧ જૈન સમાજમાં પરસ્પર એકતા શી રીતે સ્થાપિત કરવી ? ૪૨ જ્ઞાતવંશ ૪૩ તદન અજાણ્યા ભાઈએ કરેલી અણધારી સહાય ૪૪ તરવસમુરચય ૪૫ તીર્થરક્ષાને કારણે હિંસકમાર્ગ અપનાવ ઉચિત છે ? ૪૬ દસ પારમિતા ૪૭ દિપવિજયજીના બે કાવ્યો (રૂપિયાની શોભા અથ ભાત પાણીનું પરભાતિયું) ૪૮ દેવદ્રવ્યની રૂઢિ ૪૯ દેવ દ્રવ્યને ઉપયોગ ૫૦ દેશભાષા હિંદીકે શીખાનેકી સરલ રીતિ ૫૧ દેશ્ય પ્રાકૃત અને તેના શબ્દોનાં મૂળ પર ધન વિષે ભગવાન બુદ્ધનું નિરીક્ષણ ૫૩ ધમપદની ઉપમાઓ ૫૪ ધર્મને લગતાં કર્મકાંડે અને તેને ફલાતિદેશ અખંડ આનંદ ફેબ્રુ. ૪૯, પૃ. ૬–૧૧. ફાર્બસ ગુજરાતી સભા સૈમાસિક ૧/૩ પૃ. ૨૬૪ પપ ધર્મરસને અનુભવ ૫૬ ધર્માચરણની ભૂમિકા ૫૭ ધર્માચરણને અધિકાર કયારે ? ૫૮ નામકરણ ૫૯ નારીનું નૂર ૬ પોસવર્ણ વિષે વિશેષ વિચારણા ૬૧ પરિગ્રહ વિરમણ ૬૨ પર્યુષણ ક૯૫ પ્રબુદ્ધજીવન ૧૫-૮-૪૮, પૃ. ૩૨૯-૩૩૨ , ૮૪૮ રાષ્ટ્રવીણા એક. ૫૧ પૃ. ૧૦-૧૩ બુદ્ધિપ્રકાશ પૃ. ૯૫-૧૦૨ કુમકુમ (અભિનવ ભારતી) ૭૩ અખંડ આનંદ ન.પ૬ પૃ. ૬-૧૩ પ્રજાબંધુ, ગુજરાત સમાચાર, દીપત્સવી અંક વર્ષ ? પૃ. ૧૬૧-૬૭ અખંડ આનંદ અખંડ આનંદ ૩૫૮ પૃ. ૧૨-૧૮ અખંડ આનંદ ૬પ૭ પૃ. ૭ અખંડ આનંદ ડિસે. ”૫૪ પૃ. ૧૧-૧૯ ગૃહમાધુરી નવે. '૫૪ પૃ. ૧-૮ જૈન ૯૫૩ પ્રબુદ્ધજીવન સુવર્ણ જયંતિ અંક સુઘોષાને ખાસ અંક સંવત ૧૯૮૪-૮૫ આ કારતક અખંડ આનંદ મે 'પ૬, પૃ. ૩૬-૪૨ અભ્યાસ ડિસે. '૬૩, ૨૦૨-૧૪ મહાવીર જૈન વિદ્યાલય સુવર્ણ મહોત્સવ ગ્રંથ ૧૯૬૮ પૃ. ૨૦૯-૧૮ ૯ ૧૩ ૬૩ પશુઓનું નામકરણ ૬૪ પોતેરમાં વર્ષમાં પ્રવેશ: કેટલીક અંગત વાતો ૬૫ “પારસીક પ્રકાશ’ નામના ફારસી ભાષાના શબ્દકોશને અને તે જ નામના ફારસી ભાષાના વ્યાકરણ પરિચય ૬૬ પાલિ ભાષા (૧) ૬૭ પાલિ ભાષા (૨) ૬૮ પાલીતાણાનાં દેહાં ફાર્બસ ગુજરાતી સભા ગૌમાસિક ૬/૨, પૃ. ૨૫ –૫૩ ૬/૩ પૃ. ૪૨૧-૨૮ અખંડ આનંદ નવે.'૫૨, પૃ. પર-પ૬ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦. પં. બેચરદાસ વિરચિત ગ્રંથ-લેખોની સૂચિ જન ૬૧ ઓરિએન્ટલ કોન્ફરન્સ, ગોહત્ત ૧૯૬૬, પૃ. ૨૭૩-૮૯ વિશાલ ભારત સપ્ટે. '૪૫. પૃ. ૧૮૧ અખંડ આનંદ માર્ચ 'પ૧, પૃ. ૩૪-૩૮ સદાચાર નિર્માણ ૮૭૫ ૬૯ પ્રભુપૂજા અને પ્રતિષ્ઠાની પદ્ધતિ અંગે કેટલીક વિચારણીય બાબતો ૭૦ પ્રાકૃત ભાષા ઔર જૈન તત્ત્વજ્ઞાન કે અધ્યક્ષ કા વ્યાખ્યાન ૭૧ પ્રાકૃત માર્ગેપદેશિકાને રિવ્યુ ૭૨ પ્રાચીન શિક્ષણપદ્ધતિ ૭૩ પ્રાર્થના ૭૪ પ્રાર્થના અને સફળતા ૭૫ પ્રેમની વાણીઃ બુદ્ધની ચિંતનકણિકા ૭૬ બુદ્ધિભેદ ૭૭ બુદ્ધિમાન વણજારે ૭૮ ભગવાન બુદ્ધ ૭૯ ભગવાન મહાવીર કે અનેક નામ ૮૦ ભારતની વિવિધ ભાષાઓમાં શબ્દોનું સામ્ય ૮૧ ભારતીય વામ મેં પ્રાકૃત ભાષાકા મહત્ત્વ ૮૨ ભાષાના વિકાસમાં પ્રાકૃત–પાલિ ભાષાનો ફાળો ૮૩ ભીલ બેલીમાં સમાનતા ૮૪ મહાભારત અને જૈન આગમ ૮૫ મહારાષ્ટ્રી પ્રાકૃત ૮૬ મહાવીર જીવન કે વિષયમેં આવશ્યક સામગ્રી ૮૭ (શ્રી) મહાવીર જીવન મહિમા ૮૮ માનવીને માનવતા બક્ષતું ધર્મચક્ર ૮૯ મારી કહાણી ૯૦ મારી કહાણી ૯૧ મુસલમાની સિક્કાઓ ૯૨ (સ્વ.) મેઘાણીની ગુણુપૂજા ૯૩ મેઢા આડે મુહપત્તી બંધન શા માટે ? ૯૪ યુધિષ્ઠિરનું મનોમંથન ૯૫ રાષ્ટ્રભાષાની રચના ૯૬ રાંદલ શબ્દ વિષે વિચાર ૯૭ રૂઢિ છેદક મહાવીર ૯૮ “રેટી” શબ્દકી ચર્ચા ૯૯ દીપક બુદ્ધગુરુ ૧૦૦ વિવાદ-ચો, અનુષ્ઠાનો અને ક્રિયાકાંડે જન્મભૂમિ ૫૫૩ અખંડ આનંદ, જાન્યુ. '૫૪, પૃ. ૫૩૯-૪૪ અખંડ આનંદ જૂન, ૪૯, પૃ. ૪૧-૪૮ અખંડ આનંદ મે, ૧૫, પૃ. ૧૫-૨૦ જૈન વિદ્યા ૭૪૧ અખંડ આનંદ એપ્રિલ '૬, પૃ. ૫૭–૧૯ શ્રમણ ઓગસ્ટ, '૬૮, પૃ. ૬-૧૬ આચાર્ય વિજય વલભ સૂરિ સ્મારક ગ્રંથ ૧૯૫૬, પૃ. ૨૦-૩૦ અખંડ આનંદ ડિસે ૫૦ પૃ. ૩૨-૩૮ અખંડ આનંદ ફેબ્રુ. 'પર, પૃ. ૧૦-૧૭ શ્રમણ ૧૧૬૮ જૈન જગત માર્ચ '૬૭, પૃ. ૪૨૮-૪૩૦ સુષાનો વધારો (અમદાવાદ) ૧૯૩૩ જન્મભૂમિ પ’૫૪ પ્રબુદ્ધજીવન ૧–૧૧ ૫૪, પૃ. ૧૩૨-૩૪, ૧૫૧-૫૨ બુદ્ધિપ્રકાશ-માર્ચ પપ, પૃ. ૬૮, એપ્રિલ, ”૫૫ પૃ. ૯૯, મે ૫૫, પૃ. ૧૩૫, જૂન'૫૫, પૃ. ૧૬૫ સ્ત્રીજીવન જૂન, ૧૯૪૭, પૃ. ૪૭૮ -૪૮૦ પ્રબુદ્ધ જીવન ૧૬-૧૦–૬૭, પૃ. ૧૨૨-૨૪ અખંડ આનંદ ઓકટે. 'પ૧, પૃ. ૧૧-૧૫ અખંડ આનંદ ઓગસ્ટ 'પપ, પૃ. ૮–૧૧ ભારતીય વિદ્યા ૧/૨, માઘ સં. ૧૯૯૬ પૃ. ૧૫૬ ઉથાન ? શ્રમણ જુલાઈ, '૬૭ પૃ. ૧૫-૨૦ અખંડ આનંદ મે, ૧૫ પૃ. ૫–૧૪ નિરીક્ષક ૮૬૯ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સલાની જોષી ૧૦૧ વિવિધ વિચાર ૧૦૨ વિશ્વ વત્સલ મહાવીર ૧૦૩ વીરક્ષત્રિયશિરામણી ભગવાન મહાવીર ૧૦૪ વૈદિક સંસ્કૃતની પૂર્વે પ્રચલિત લોકભાષાના અભ્યાસનું મહત્ત્વ ૧૦૫ શબ્દો વંશ-કડવું ૧૩ ૧૦૬ કડવું ૨ જુ ૧૦૭ : કહ્યું, લાગી, કીધેા ૧૦૮ ,, : તાઈ, નૈસ્તી, દેાશી, નિામે ૧૦૯ : તવ, રીયા, શ્રીમહૈાદય ૧૧૦ ૧૧૧ ૧૧૨ ૧૧૩ ૧૧૪ ૧૧૫ ૧૧૬ ૧૧૭ ૧૧૮ ૧૧૯ ૧૨૦ ૧૨૧ ૧૨૨ ૧૨૩ ૧૨૪ ور : તસ્કર, ઠાકર, ઠાકાર » હૈં તસ્કર, ઠાકર, ડાકારની અનુપૂર્તિ : દાઝની અનુપૂર્તિ, ટાંડવુ : ધાતુ સાધિત શબ્દા 33 ,, : થાતુ સાધિત શબ્દો-ર ઃ પબધ ލ ,, : પદ્મબંધ કરવા આશ : ‘ભાભી'ની અનુપૂતિ : ભાભી વડે-ભાભીએ .. د. : ઃ મહેતા ', ,, : મામેરું –કડવું ૧૩ : મામેરું, મેાસાળુ : માચી, ભણસાલી .. ,, : સમરું, કહું. ,, : હાઉ, સપ ૧૨૫ ૧૨૬ શબ્દોની વ્યુત્પત્તિ અને સમજૂતી ૧૨૭ શબ્દોનું પૃથક્કરણ ૧૨૮ ૧૨૯ ૧૩૦ ૧૩૧ ૧૩૨ ૧૩૩ ૧૩૪ ,, 39 33 "" ,, મહેતા-તણું 39 ;F; બુદ્ધિપ્રકાશ જાન્યુ. '૫૬, પૃ. ૧૯ હિંસાવિરાધ ૪’૭૮ જન્મભૂમિ ૪'૫૫ પ્રજાબંધુ ૧૩-૫-૪૫ રૃ. ૬ શિક્ષણ અને સાહિત્ય ફેબ્રુ. ’૪, પૃ. ૧૮૩-૮૪ જૂન, ’૪૬, પૃ. ૩૪૭ માર્ચ, ’૪૧, પૃ. ૨૧૯–૨૨ ? ? આકટા. ૪૧ પૃ. ૧૮-૨૨ એકટા. ’૪૧, પૃ. ૯૧–૯૨ જાન્યુ. ’૪૦, પૃ. ૧૩૩ ઓગષ્ટ, ’૪૦ પૃ. ૪૨૪ એપ્રિલ. '૪૫, ૮૦-૮૧ મે, ૪૫, ૧૧૪–૧૧૫ "" 39 .. "" 39 ,, 39 ,, ور ,, ,, .. دو . در બુદ્ધિપ્રકાશ કાડિયું "" ,, 39 : : : : 23 "9 .. .. 39 در ܕ .. 33 33 "" ,, 99 "" 39 .. 29 ૨૧ ૧૯૪૦, પૃ. ૬૨-૬૩ ૧૯૪૧ પૃ. ૧૩૬-૩૭ જુલાઈ ’૪૦ પૃ. ૩૮૭ જૂન, '૪૦ પૃ. ૩૪૯-૫૧ મે, ’૪૦, પૃ. ૨૯૯-૩૦૦ ’૪૧, પૃ. ૩૪૪ જાન્યુ. '૪૧ પૃ. ૧૩૬ નવે. ’૩૯. પૃ. ૬૫-૬૭ ? એપ્રિલ ’૪૦, પૃ. ૨૬૩-૬૪ એકટા, ’૫૦, પૃ. ૩૧૦ ? જાન્યુ. '૫૭. પૃ. ૧૨૫-૨૭ એપ્રિલ, 'પ૭ પૃ. ૧૯૮ મે, '૫૭ પૃ. ૨૨૧-૨૫ એકટા. '૫૯, પૃ. ૬૯-૭૧ ફેબ્રુ. '૫૮ પૃ. ૧૫૩-૫૫ એકટા. 'પટ પૃ. ૬૭-૬૮ એપ્રિલ ’૫૯, પૃ. ૧૯૭-૨૦૦ નવે. ૫૯ પૃ. ૮૪-૮૭ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ ૧૩૫ શબ્દમે સામ્ય ૧૩૬ શું છેલ્લેા જ મેળાપ ૧૩૭ શું શું કરીને અહિંસાનું આચરણુ કરી શકાય ? ૧૩૮ શ્રદ્દાધન સુદન ૧૩૯ શ્રદ્ધેય સેવામૂર્તિ શ્રી ગિરધારીલાલ દફતરીનું સંઘે કરેલું બહુમાન ૧૪૦ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની ઓળખ ૧૪૪ સત્ય-પ્રાર્થના પ્રણેતા સ્વામી ભક્ત ૧૪૨ સદાચારની સીડી ૧૪૩ સાચા વૈદ્ય ૧૪૪ (૫) સુખલાલજીની સાથે સાથે ૧૪૫ સાંપ્રદાયિક સંત્ર કથા ૧૪૬ સુંઠ ૧૪૭ હેમચંદ્રના આદેશ વિધાન ૫. બેચરદાસ વિરચિત પ્રથા-લેખોની સૂચિ સાપ્તાહિક હિંદુસ્તાન ૧૪–૪’૬૩. પૃ. ૨૫ પ્રબુદ્ધજીવન ૮'te જિનસંદેશ ૬'૧૬ જનકલ્યાણુ પ્રબુદ્ધજીવન પૃ. ૪૨૨-૨૫ ૨’૭૦ પ્રબુદ્ધજૈન મે '૪પ. પૃ. ૪–૫ પ્રબુદ્ધજૈન ૧'૭૬ ? બુદ્ધિપ્રકાશ સપ્ટે. ’૭૧ પ્રબુદ્ધજીવન પ'૭૮ કાસ ગુજરાતી સભા મહેાત્સવ ગ્રંથ ૧૯૪૦, પૃ. ૧૭૭-૮૮ ભિષક ભારતી પૃ. ૧૭૮-૮૧ આચાર્ય ધ્રુવ સ્મારકગ્ર ંથ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભગવતીસૂત્ર અને અન્ય આગમનું સંપાદન દલસુખભાઈ માલવણિયા શ્રી પં. બેચરદાસજી દેશીએ આગમોનું સંપાદન જે કાળે ઉપાડવું ત્યારે તેમને જોઈતો સહકાર મળે નહીં. કારણ કે તે કાળે એવી માન્યતા પ્રવર્તતી હતી કે શ્રાવકોથી આગમો વંચાય જ નહીં, તે પછી સંપાદનની વાત તો દૂર જ રહે. છતાં પણ પંડિતજીએ વ્યાખ્યા પ્રજ્ઞપ્તિ અ૫રનામ ભગવતી જેવા મહત્વના ગ્રન્થનું સંપાદન શરૂ કર્યુ. આ એક સાહસ જ હતું છતાં પણ તેમણે આગવી સૂઝથી જે પ્રકારે તેનું સંપાદન કર્યું તે પદ્ધતિથી આજે પણ હજી કોઈએ કર્યું નથી એમ કહી શકાય. એટલે આજે પણ ભગવતીની અનેક બીજી આવૃત્તિઓ મેજુદ છતાં પંડિતજીના ભગવતીની માંગ બની રહી છે. ભગવતીસૂત્રની માત્ર એક જ હસ્તપ્રત તેમને તે કાળે મળી હતી છતાં પણ તેમણે યથાસંભવ વિશુદ્ધ મૂળ પાઠ આપવાને તેમાં પ્રયત્ન કર્યો છે. ભગવતીનું પુનઃસંપાદન તેમણે મહાવીર જૈન વિદ્યાલયની આગમ ગ્રન્થમાળામાં અનેક પ્રતાને આધારે કર્યું છે તેને પ્રથમના સંપાદન સાથે મેળવવામાં આવે તે પંડિતજીની એકમાત્ર પ્રતને આધારે કરેલી પાઠશુદ્ધિ કેવી છે તેને ખ્યાલ આવી જાય છે. ભગવતીન સંપાદનમાં તેમણે માત્ર મૂળ પાઠ આપીને સંતોષ નથી માન્યો, તેને ગુજરાતી અનુવાદ પણ આ તે ઉપરાંત આચાર્ય અભયદેવની વૃત્તિ પણ ગુજરાતી અનુવાદ સાથે છાપી છે. આટલાથી પણ તેમને સંતોષ થયો નથી એટલે તેમણે વિષય-ચર્ચા જે મૂળ અને ટીકામાં આવે છે તેને સ્પષ્ટ કરતા ટિપણે અતિ વિસ્તારથી આપ્યા છે. જે કાળની આ તેમની રચના છે તે કાળે આ પ્રકારના ટિપણો લખવાની પ્રથા હતી જ નહીં. આ તેમની સૂઝનું જ પરિણામ છે અને તેમની કાર્ય કરવાની પદ્ધતિનું સૂચક પણ છે. જે કરવું તે સર્વાગીણુ કરવું, તેમાં કશી કમી રહેવા દેવી નહીં. આગમ વિષે બીજુ તેમનું કાર્ય છે આગના સંક્ષેપ કરી આપવાનું. આ બાબતમાં તેમણે ભગવાન મહાવીરની ધર્મકથાઓ કે નામે જ્ઞાતાધર્મકથાનો સારાંશ સરળ ગુજરાતી ભાષામાં આપે છે. આમાં પણ પિતાની આગલી શૈલીમાં પંડિતજીએ ટિ૫ણ આપ્યા છે. તે જ પ્રમાણે ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકોમાં ઉપાસકદશાને સારાંશ આપી દીધું છે. આ ઉપરાંત “રાજપ્રશ્રીય ૫ આગમનું સંપાદન અને ગુજરાતી અનુવાદનું કાર્ય પણ સફળતાથી તેમણે કર્યું છે. આમાં પણ ટિપણે તો છે જ. ૧ જિનાગમ પ્રકાશક સભા, ભાગ-૧-૨ મુંબઈ, ઈ. ૧૯૨૮ ભાગ-૩ ગૂજરાત વિદ્યાપીઠ ઈ. ૧૯૨૯ ૨ મહાવીર જૈન વિદ્યાલય, ભાગ ૧–૩, ૧૯૭૪, ૧૯૭૮, ૧૯૮૨. ૩ ગૂજરાત વિદ્યાપીઠ, અમદાવાદ, ઈ. ૧૯૩૧ ૪ ગૂર્જર ગ્રન્થરત્ન કાર્યાલય, અમદાવાદ ઈ. ૧૯૩૧ ૫ લાધાજી સ્વામી પુસ્તકાલય, લીંબડી, ઈ. ૧૯૩૫ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભગવાન મહાવીરની ધર્મકથાઓ અને ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે રમણીક શાહ ૧. ભગવાન મહાવીરની ધર્મકથાઓ (નાયધમ્મકહા) અનુ. પં. બેચરદાસ દેશી, પંજાભાઈ જૈન ગ્રંથમાળા-૩, ગૂજરાત વિદ્યાપીઠ, અમદાવાદ. આ. ૧ (૧૯૩૧) આ. ૨ (૧૯૫૦) ૨. ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે (ઉવા સગદસાઓ) અનું. પં. બેચરદાસ દોશી, પૂંજાભાઈ જૈન ગ્રંથમાળા-૪, ગૂર્જર ગ્રંથરત્ન કાર્યાલય, અમદાવાદ. આ. ૧ (૧૯૩૧) ભગવાન મહાવીરના મૌલિક ધર્મોપદેશની સંકલના કરી તેમના ગણધરોએ જે વિવિધ સૂત્રોરૂપે ગૂંથણ કરી તે બાર ગ્રંથે દ્વાદશાંગી કે ગણિપિટક તરીકે ઓળખાય છે. આ દ્વાદશાંગીનું અંતિમ “દષ્ટિવાદ' નામક અંગ લુપ્ત થયેલ છે. બાકીના અગિયાર અંગ ગ્રંથે અને બીજા પણ મહત્ત્વપૂર્ણ પ્રાચીન જૈન ગ્રંથોને અનુવાદ ગુજરાતી ભાષામાં તજજ્ઞો પાસે કરાવી પ્રકાશિત કરાવવાનું કાર્ય ગૂજરાત વિદ્યાપીઠે આજથી લગભગ પચાસ વર્ષ પૂર્વે ઉપાડયું હતું. પૂંજાભાઈ જૈન ગ્રંથમાળા નામે પ્રકાશિત થયેલી આ અનુવાદ ગ્રંથની શ્રેણીમાં સૌ પ્રથમ ઈ. સ. ૧૯૩૧માં પં. બેચરદાસજીએ અનુવાદિત કરેલ છઠ્ઠા અને સાતમા અંગ ગ્રંથ “નાયધમ્મકહા” અને “ઉવાસગદસાઓ” ક્રમે “ભગવાન મહાવીરની ધમકથાઓ” અને “ભગવાન મહાવીરના દસ ઉપાસકે” એ નામે પ્રકાશિત થયેલા. કથાઓ, દષ્ટાંતિ, સુભાષિતો અને મહાપુરુષોના જીવનપ્રસંગોને દરેક કાળના ધર્મના સ્થાપક તથા અન્ય ધર્મપ્રચારકે કે ધર્માચાર્યો ધર્મોપદેશને એક આકર્ષક સાધન તરીકે ઉપયોગ કરતા આવ્યા છે. વેદથી લઈને આજ સુધીના ભારતીય ધાર્મિક સાહિત્યમાં નજર નાખીએ કે ભારત બહાર પ્રવર્તેલા ખ્રિસ્તી-મુસ્લિમ વ. ધર્મોના ધર્મગ્રંથોમાં નજર નાખીએ તે ધર્મોપદેશ માટે રચાયેલી અનેક કથાઓ આપણું ધ્યાન ખેંચશે. ભારતનું પ્રાચીન કથાસાહિત્ય તો બેધક ધાર્મિક સાહિત્ય જ છે. મહાભારત અને રામાયણ એનાં જ્વલંત દષ્ટાંત છે. બૌદ્ધ ધર્મમાં બોધકથાઓ રૂપે જાતક કથાઓનું સ્થાન અદ્વિતીય છે. ભગવાન મહાવીરે પણ પિતાને ધર્મસંદેશ સામાન્ય જનોને પહોંચાડવા જેમ જનભાષાનું આલંબન લીધું હતું તેવી જ રીતે એ સંદેશ સામાન્ય જનેનાં હૃદયમાં ઉતારવા કથાઓ-દષ્ટાંતો-સુભાષિતો આદિનો આશ્રય લીધે હતો. જ્ઞાતાધર્મકથા અને ઉત્તરાધ્યયનસૂત્ર જેવા ગ્રંથે ભગવાન મહાવીરની આવી કથનાત્મક વ્યાખ્યાનશૈલીના સુંદર ઉદાહરણે છે. સમગ્ર જૈન સાહિત્યનું પ્રાચીનએ વિષયની દષ્ટિએ ચાર વિભાગો – અનુગમાં વિભાજન કર્યું છે ૧, ચરણકરણનુગ–જેમાં આચારવિષયક સાહિત્યને સમાવેશ થાય છે. ૨. ધર્મકથાનુયોગ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રમણક શાહ જેમાં બોધક કથાઓ, ચરિત્ર આદિને સમાવેશ થાય છે. ૩. ગણિતાનુયોગ–જેમાં ગણિત-તિષ આદિ વિષયક સાહિત્યને સમાવેશ થાય છે અને ૪. દ્રવ્યાનુયોગ - જેમાં દર્શનવિષયક સાહિત્યને સમાવેશ થાય છે. આમ ધર્મકથાનુયોગરૂપે એક સમગ્ર વિભાગનું નિરૂપણ કર્યું છે જે દર્શાવે છે, કે જૈન સાહિત્યમાં ધર્મકથાનું કેટલું મહત્ત્વપૂર્ણ સ્થાન હતું. જ્ઞાતાધર્મ કથા અને ઉપાસકદશા આ અને ગ્રંથ ઉપરોક્ત ધર્મકથાનુયોગના પ્રાચીનતમ પ્રથા ગણી શકાય. વળી એ બને ભગવાન મહાવીરના ઉપદેશ અને જીવન સાથે સંકળાયેલા છે. બન્નેનું વિષયવસ્તુ ક્રમે જોઈએ નાયુધમ્મકહા (સં. જ્ઞાતાધર્મકથા અથવા જ્ઞાતૃધર્મકથા )ના નામની સમજૂતી બે રીતે આપી શકાય. એક તે જ્ઞાત એટલે દૃષ્ટાંતો કે ઉદાહરણે અને ધર્મકથાઓ – એ બને જેમાં છે તે જ્ઞાતધર્મ કથા. બીજી સમજૂતી પંડિતજી એ આપેલ નામ મુજબ જ્ઞાતૃ કે જ્ઞાતા એટલે મહાવીર અને તેમણે કહેલી ધર્મકથાઓ એટલે જ્ઞાતુ કે જ્ઞાતાધર્મકથા. બંને અહીં સરખી રીતે ઘટાડી શકાય છે. જ્ઞાતાધર્મકથા અથવા ભગવાન મહાવીરની ધર્મકથાઓના બે શ્રુતસ્કંધ એટલે કે ભાગ છે. પહેલા શ્રુતસ્કંધમાં ૧૯ અધ્યયનમાં નાની મોટી ૧૯ કથાઓ કે દષ્ટાંતો આપેલાં છે. આમાં શ્રમજીવનના આવશ્યક ગુણો જેવાં કે સમભાવ અને સહનશક્તિ કેળવવા શા માટે જરૂરી છે અને કેમ કેળવવા એને લગતી ત્રણ કથાઓ (૧લી પગ ઊંચો કર્યો, ૧૧ મી દાવદ્રવના ઝાડ અને ૧૭ મી ઘોડા), શ્રમણોએ સાવધાન રહી, અપ્રમત્તપણે માત્ર શરીરના પિષણને માટે જ આહાર-સેવન કરવું એને લગતી ત્રણ કથાઓ (રજી બે સાથે બાંધ્યા, ૪ થી બે કાચબા, ૧૮ મી સુસુમા), અહિંસા આદિ મૂળ ગુણેમાં શંકા ન કરવાને ઉપદેશ આપતી બે કથાઓ (૩ જી બે ઈંડા, મી માર્કદી), આચારની શિથિલતાથી થતા અનર્થ વિશે એક કથા (૫ મી શૈલક ઋષિ), આમાની ઉન્નતિ અને અધોગતિના કારણે આપતું દષ્ટાંત (૬ હું અધ્યયન-તુંબડું), શ્રમણને યોગ્ય ગુણોની સમજૂતી આપતી બે કથાઓ (૭ રેસહિણ, ૧૦ ચંદ્રમાં), સ્ત્રી જીવનમાં ચરમ આત્મોન્નતિની શકયતા દર્શાવતી મહિલાની કથા (૮ મહિલ), સદાચાર અને ગૃહસ્થ ધર્મ દર્શાવતી એક કથા ( ૧૨ પાણ૭), આસક્તિ અને અનાસક્તિ વિષે ૪ કથાઓ (૧૩ દેડકો, ૧૪ અમાત્ય તેલિ, ૧૫ નંદીફળ અને ૧૬-અવરકંકા-દ્રૌપદીની કથા). આમ મોટા ભાગે શ્રમણોના જીવનમાં ઉપયોગી ગુણે અને તે કેળવવા માટે બોધ આપતી કથાએ કોઈ રૂપક, દૃષ્ટાંત કે કથાનક દ્વારા આપવા ધારેલે બોધ સહજ રીતે આપી દે છે, બીજા શ્રુતસ્કંધમાં સ્ત્રીઓ દ્વારા સંયમપાલનની શિથિલતા અને તેના માઠાં પરિણામે વિશે એક જ સરખી અનેક કથાઓ આપવામાં આવી છે. “વાસદસાઓને અનુવાદ પંડિતજીએ “ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકો' એ શીર્ષક તળે આપ્યો છે. પ્રાકૃત ‘ઉવાસગ” એટલે “ઉપાસક'. પ્રાચીન સમયમાં ગૃહસ્થ ધર્માનુયાયીને માટે ઉપાસક શબ્દ વપરાતો. બૌદ્ધોમાં પણ એ જ શબ્દ એ જ અર્થમાં વપરાયેલ છે. પછીના સમયમાં ઉપાસકને માટે શ્રાવક શબ્દ પ્રચલિત થયો, જે અત્યારે પણ વપરાશમાં છે. ઉવાસગદસાઓ” અથવા “ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે'માં ભગવાનના અનુયાયી એવા દશ ઉપાસકે (શ્રાવકે કે ગૃહથે)ના જીવનની ધાર્મિક બાજુની ઝાંખી કરાવવામાં આવી છે. પ્રવજિત થઈને જેઓ સંસાર ત્યાગી શકે નહીં અથવા જે ગૃહસ્થજીવન છોડયા વિના પણ ધર્મમય આચરણ કરવા માગતા હોય તેમને માટે જૈન ધર્મમાં સ્થૂળવતની યોજના છે. અહિંસા, સત્ય આદિ મહાવ્રતોનું મર્યાદિત પાલન તે સ્થૂળવ્રત. આવાં પાંચ સ્થળવતાની સાથે જ ગૃહસ્થજીવનના ભેગપભોગને મર્યા Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભગવાન મહાવીરની ધર્મકથાઓ અને દશ ઉપાસકે દિત કરતા બીજા શિક્ષાદિ વ્રત જેડીને ગૃહસ્થના બાર વ્રતો નિશ્ચિત કરવામાં આવ્યા છે. અહીં આવા ગ્રહસ્થવ્રત પાળ તારા આનંદ આદિ દશ શ્રાવકોના આદર્શ જીવન દર્શાવાયાં છે. આ દશ દશ ઉપાસકે ખૂબ જ સમૃદ્ધિશાળી અને વ્યવહારકુશળ વૈશ્યો અને તત્કાલીન સમાજના પ્રતિષ્ઠિત નાગરિકો છે. મહાવીરના અનુયાયી બની તેઓ ગૃહસ્થના વ્રત અંગીકાર કરે છે. તેમાં તેમને વિના નડે છે છતાં નિશ્ચળ રહે છે અને ઉત્તરોત્તર વધુ ધર્માભિમુખ બને છે. એમનાં ઉદાહરણ આપી ભગવાન મહાવીર પિતાને શ્રમણ સમુદાયને દઢતામાં એમને અનુસરવાની સલાહ આપે છે. આ મૂળ અંગ ગ્રંથે આર્ષ પ્રાકૃત એટલે કે અર્ધમાગધીમાં અને વિશિષ્ટ શૈલીમાં રચાયેલાં છે. ભગવાન મહાવીરની ધર્મકથાઓ'ની પ્રસ્તાવનામાં કાકાસાહેબ કાલેલકરે સ્પષ્ટ કર્યું છે તેમ અનુવાદનો ઉદ્દેશ મળ ગ્રંથ આગળ રાખી તે શીખવામાં વિદ્યાર્થીઓને મદદ થાય તેવો નથી, પણ સામાન્ય વાચકને જૈન આગમમાં આવેલી વસ્તુ પ્રામાણિક અનુવાદમાં જ સીધી રીતે મળી શકે તે છે. આથી અહીં મૂળને શબ્દશઃ અનુવાદ આપવામાં નથી આવ્યા. આગમ ગ્રંથોમાં અત્રતત્ર અનેક વસ્તુનું પુનરાવર્તન થયાં કરે છે. વળી ભગવાન મહાવીર, આર્ય સુધર્મા, પરિષદ, ધર્મદેશના, રાજાઓ રાણીઓ, સાર્થવાહ, ઉપાસક-ઉપાસિકાઓ, ચિત્ય, નગર, દીક્ષા, કળાગ્રહણ આદિ અનેક વિષય ત્યાં આવે ત્યાં તદ્દન એકસરખું જ વર્ણન આપી દેવામાં આવે છે. મોટા ભાગે આવા રૂઢ વર્ણનો જે વર્ણ કે તરીકે ઓળખાય છે – ના આદિઅંતના બેત્રણ શબ્દો બાકીનું વર્ણન “વરણએ.' એટલે કે પૂર્વવર્ણન પ્રમાણે એવી સૂચના આપી છેડી દેવાય છે. આ અનુવાદમાં આવા વારંવાર આવતા વર્ણનને ટાળવામાં આવ્યા છે તથા પુનરાવર્તિત લાગતી કે પીછપેષણરૂપ લાગતી સામગ્રીને અનુવાદ નથી કરવામાં આવ્યું. આમ આ અનુવાદ ભાવાનુવાદ છે. મૂળ ગ્રંથને આશય સ્પષ્ટ થાય, મૂળની કાઈ આવશ્યક વિગત રહી ન જાય અને અર્થતત્વની પ્રામાણિકતાને આંચ ન આવે તથા કથાની સળંગસૂત્રતા જોખમાય નહીં તેની ઝીણવટભરી કાળજી લઈ પંડિતજીએ આ અનુવાદ તૈયાર કર્યો છે. બને ગ્રંથમાં મૂળ સૂત્રમાં આવતા ઐતિહાસિક અને ભૌગોલિક નામો તથા જૈન આચારના પારિભાષિક શબ્દો ઉપર તુલનાત્મક ટિ૫ણ પરિશિષ્ટરૂપે આપવામાં આવેલ છે. તથા અંતે અનુવાદમાં વપરાયેલ કઠિન શબ્દ કોશ આપવામાં આવેલ છે. જે સામાન્ય વાચકને માટે પણ અનુવાદને સમજવાનું તદ્દન સરળ બનાવે છે. ટિપણુમાં આપેલી એતિહાસિક-ભૌગોલિક સામગ્રી પંડિતજીની વેધક તુલનાત્મક દૃષ્ટિની પરિચાયક છે અને ભારતીય સંસ્કૃતિના અભ્યાસીઓને માટે મબલખ માહિતી પૂરી પાડે છે. આજથી પચાસ વર્ષ પૂર્વે ભગવાન મહાવીરની ધર્મકથાઓ'ની પ્રસ્તાવનામાં કાકાસાહેબે પ્રસ્તુત અનુવાદ અને અનુવાદક વિશે લખ્યું છે– આવા ગ્રંથને લીધે જૈન આગમાનું મૌલિક અધ્યયન વધે અને આખા સમાજમાં ધર્મચર્ચા અને ધર્મ જાગૃતિને ચલન મળે એવી અપેક્ષા રાખેલી છે. અને એટલા જ ખાતર, જેમણે આખો જમાને જૈન ધર્મશાસ્ત્રોના અધ્યયન પાછળ ગાળ્યો છે એવા પંડિત બેચરદાસની આ અનુવાદ માટે જના કરી છે. મૂળ શાસ્ત્ર પ્રત્યે અનન્ય શ્રદ્ધા અને સાંપ્રદાયિક સંકુચિતતાનો અભાવ આ બે ગુણોને લીધે તેમનું કામ હંમેશ આદરણય ગણાયું છે.' આ શબ્દ અત્યારના સંદર્ભમાં પણ એટલા જ સાચા છે. પ્રસ્તુત અને ગ્રંથે વર્ષોથી અપ્રાપ્ય છે. બંનેનું પુનર્મુદ્રણ થાય તે આવશ્યક છે. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જિનાગમકથાસંગ્રહ કાનજીભાઈ પટેલ જિનાગમકથાસંગ્રહ” એક સંકલન છે અને સંકલન (compilation) પરથી સંકલનક્તની લેખક તરીકેની વિદ્વત્તાને ખ્યાલ ન આવી શકે. પણ તેમની ફિલસૂફી–જીવનદૃષ્ટિ અને કાર્ય પદ્ધતિ જરૂર ખ્યાલ આવી શકે. પ્રકૃતિથી એકદમ સરળ, ઉદાર અને ચિંતનશીલ, આકૃતિએ સૌમ્ય એવા પૂ. પંડિત બેચરદાસજીની સામાજિક અને ધાર્મિક ઋઢિઓના બંધનમાં જકડાઈ ન રહેવું, હાથ પર લીધેલા કામમાં મક્કમતાથી આગળ વધવું, લીધેલું કામ પૂરી શ્રદ્ધા અને શક્તિથી પાર પાડીને જપવું, મૂળભૂત સિદ્ધાન્તો અને નીતિ-નિયમોની બાબતમાં બાંધછોડ ન કરવી–એ ફિલસૂફી રહી છે. “જિનાગમકથાસંગ્રહ”ની કથાઓની પસંદગીમાં આ ફિલસૂફીએ ભાગ ભજવ્યો હોય તેમ તે કથાઓનું વસ્તુ જોતાં લાગે છે. મૂળકથાઓ અને સૂક્તિઓ ઉપરાંત આ સંગ્રહમાં પ્રસ્તાવના, અનુક્રમણિકા, પ્રાકૃત ભાષાને પરિચય, પ્રાકૃતનું વ્યાકરણ, ટિપણે અને શબ્દકેશ આપવામાં આવ્યાં છે. આ સંપાદનમાં એમનું કર્યું દષ્ટિબિંદુ રહ્યું છે એ પણ ટૂંકી પ્રસ્તાવનામાં પંડિતજીએ સ્પષ્ટ કર્યું છે. પ્રાકૃત ભાષાના અભ્યાસને વવા તેમણે મનોર' અને બોધપ્રદ કથાઓની પસંદગી કરી છે અને એથી પ્રાચીન આગમપાઠોને માત્ર શબ્દશઃ સંગ્રહ ન કરતાં તે પાઠને વિદ્યાથીઓની દૃષ્ટિએ પરિષ્કૃત કર્યા છે. પ્રાકૃત કથાઓ વાંચતાં પહેલા વ્યાકરણને કંઈક પરિચય થાય એ ઉદ્દેશથી પ્રારંભમાં પ્રાતભાષાને પરિચય અને ત્યારબાદ પ્રાકૃત ભાષાનું વ્યાકરણ આપ્યાં છે, જે એમની વ્યાકરણ તરફની વિશેષ અભિરુચિ છતી કરે છે. પ્રાકૃત ભાષાના પરિચયમાં પ્રથમ પ્રાકૃત ભાષાના સ્વરૂપનો પરિચય આપ્યો છે. જે લેકે પ્રાકૃતને સંસ્કૃતમાંથી ઊતરી આવેલી કે સંસ્કૃતિને પ્રાકૃતમાંથી ઊતરી આવેલી માને છે તેમનો ભ્રમ ભાંગવા કેટલીક દલીલો રજૂ કરી છે. જૈન આર્ષ પ્રાકૃત અને બૌદ્ધ પ્રાકૃત યા પાલિને પારસ્પરિક સંબંધ સ્પષ્ટ કર્યો છે. ૪િ શબ્દની વ્યુત્પત્તિની બાબતમાં તો પંડિતજીએ એક નો જ વિચાર મૂક્યો છે. આચાર્ય બુદ્ધષે મૂળ ત્રિપિટક ચા બુદ્ધવચનના અર્થમાં “પાલિ” શબ્દનો પ્રયોગ કર્યો છે. તેને આધારે આધુનિક વિદ્વાનોએ ‘પઢિની નિયુક્તિની બાબતમાં વિભિન્ન મત દર્શાવ્યા છે. ભિક્ષ જગદીશ કાશ્યપને મત gr૪ એ ઉત્તિનું સંક્ષિપ્ત રૂપ છે (રિવારપઢિયાર પત્તિયા-પત્તિ). ભિક્ષુ સિદ્ધાર્થને મત ઘાત્તિ યા વાઢિ શબ્દનો મૂળ આધાર સંસ્કૃત શબ્દ પટ” છે. પં. વિધુશેખરે જણાવ્યું છે કે પા૪િ શબ્દનો અર્થ પંક્તિ છે કે જે સંસ્કૃત પઢિ શબ્દને પર્યાયવાચી છે. જર્મન વિદ્વાન ડૉ. મેકસ વેલેસરે પઢિ યા પાઢિ (પાટલિપુત્રની ભાષા)નું સંક્ષિપ્તરૂપ પાલિ બનાવ્યું છે. કેટલાક વિદ્વાનેએ પરિસ્ટ (ગામ) શબ્દને આધારે પાલિ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ બતાવી છે. પંડિતજીએ પાલિ શબ્દ અંગેના આ વિવાદનો સ્વીકાર કર્યો છે અને વય શબ્દ ઉપરથી તદ્ધિતાન્ત પથરી શબ્દ અને તે ઉપરથી “પાલી” શબ્દ ઊતરી આવ્યાની કલ્પના કરી છે. તેમને આ વિચાર નવીન અને સંશોધદષ્ટિની સૂઝને ઘાતક છે. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જિનામકથાસંગ્રહ આચાર્ય હેમચંદ્ર વગેરેએ પ્રાકતની વ્યુત્પત્તિ બનાવતાં “પ્રવ્રુતિઃ સંક્ષિપ્ત ઇત્યાદિને જે ઉલ્લેખ કર્યો છે તે બાબતમાં પણ પંડિતજીએ મૌલિક વિચાર રજૂ કરતાં જણાવ્યું છે કે પ્રાકૃત ભાષા શીખવા માટે સંસ્કૃત શબ્દોને આધાર લઈ, તેની સાથે ઉચ્ચારણ ભેદને લીધે જે સામ્ય-વૈષમ્ય છે તે બતાવવા પ્રાકૃત વૈયાકરણએ પોતાના વ્યાકરણની રચના કરી છે. એટલે કે, સંસ્કૃત ભાષા દ્વારા પ્રાકૃત શીખવવાને એમને અભિગમ રહ્યો છે. એ દષ્ટિએ એમણે સંસ્કૃતિને પ્રાકૃત અ કહ્યો છે એમ માનવું જોઈએ. મૌલિક રીતે વિચારવાની દષ્ટિ અને પિતાની માન્યતા નિર્ભિક રીતે રજૂ કરવાની હિંમત એ સંશાધકનું લક્ષણ અહીં જોઈ શકાય છે. જિનાગમકથા સંગ્રહમાં આર્ષ અને લૌકિક અને પ્રકારના પ્રાકૃતના શબ્દપ્રયોગ છે. પણ પંડિતજીએ અહીં જે વ્યાકરણ આપ્યું છે તે વ્યવહારુ અને પ્રારંભિક અભ્યાસીને ઉપયોગી થવા પૂરતું જ છે. પ્રાકૃત ભાષામાં પ્રવેશ કરવા વણ વિકારના નિયમ, નામ અને ધાતુના સાધારણ રૂપ ખાન અને કૃદંતના ખાસ ખાસ ઉદાહરણ આપ્યાં છે. એટલે કે આ વ્યાકરણ શાસ્ત્રીય નહીં પણ કથાઓ સમજવા સહાયભૂત થવાય તેટલું સાધારણ છે. જે જે ગ્રંથમાંથી કથાઓ અને સૂક્તિઓ લેવામાં આવ્યાં છે તે બધાના નામનો તે તે સ્થળે ઉલ્લેખ કર્યો છે. પણ આ ગ્રંથને સંક્ષિપ્ત પરિચય આપી શકાયે હેત તે પ્રારંભિક અભ્યાસીને વિશેષ ઉપયોગી બનત એમ લાગે છે. મૂળ વિભાગ પછી આપેલાં ટિપ્પણો અભ્યાસીને વ્યુત્પત્તિ તેમજ શબ્દ અને શબ્દાર્થના કમવિકાસને ખ્યાલ આપે છે. છેલ્લે ઉપયુક્ત શબ્દોને કેશ આપવામાં આવ્યો છે. જિનાગમકથાસંગ્રહમાં ૩૨ કથાઓ અને સૂક્તિઓને સંગ્રહ છે, જેમાં જ્ઞાતાધર્મકથાની પાંચ કથાઓ અને વસુદેવહિંડીની ૪ કથાઓ વિશેષ ધ્યાન ખેંચે છે. ઉપદેશપદ, ઉપાસકદશા, દશવૈકાલિકવૃત્તિ અને આવશ્યકવૃત્તિમાંથી બલ્બ કથાઓ અને નિરયાવલીમાંથી એક કથા લેવામાં આવી છે વિવિધ વિષય અને વિચારને લગતી સતિઓ મુખ્યત્વે “વકા માંથી લેવાઈ છે. કુમારપાળપ્રતિબંધ, પઉમચરિયસમેતિતક અને ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રમાંથી એક એક સૂક્તિસમૂહ લેવામાં આવેલ છે. આ બધી કથાઓ અને સૂક્તિએ માત્ર જૈન આગમમાંથી લેવાયેલ નથી. એથી શીર્ષકની યથાર્થતા અંગે પ્રશ્ન થ સ્વાભાવિક છે. પણ પંડિતજીએ બહુ વ્યાપક અર્થમાં આ શીર્ષકને પ્રયોગ કર્યો હોય એમ લાગે છે. આપ્ત પુરુષનું વચન એ આગમ છે. તીર્થકર અને સર્વજ્ઞ ભગવાન આપ્યું છે. તેમને ઉપદેશ અને વાણુ જિનીગમ છે. શ્રુતજ્ઞાની અને દશપૂવી સ્થવિરો જે કંઈ કહે કે લખે તેનો જિનાગમ સાથે કે વિરોધ ન હોઈ શકે, તેથી તેમના ગ્રંથ પણ આગમ અંતર્ગત ગણાય. સ્થવિરાએ પિતાની પ્રતિભાને આધારે કોઈ વિષય પર આપેલ સંમતિ કે મુક્તકોને પણ આગમોમાં સમાવેશ થાય. આમ મુખ્યરૂપે જિનને ઉપદેશ અને વાણી જેનાગમ છે, ગૌણરૂપે તેનાથી અનુપ્રાણિત અન્ય ગ્રંથ પણ આગમ છે આ વ્યાપક અર્થમાં મૂળ જૈન આગમો, તેની નિતિ આદિ ટીકાઓ, આગમોના વિષયને આધારે રચાયેલા વસુદેવહિંડી, ઉપદેશપદ જેવા બેધપ્રદ કથાગ્રંથ અને આગમ વચને ને અનુમોદન આપતા અન્ય સ્વતંત્ર ગ્રંથ કે સંક્તિસંગ્રહ આગમો ગણાય. એમાંથી લેવાયેલ કથાઓ અને સક્તિઓના સંગ્રહને પંડિતજીએ એમની રીત “જિનાગમકથાસંગ્રહ' નામ આપ્યું છે. મૂળ આગમાંથી લીધેલી કથાઓ ધાર્મિક નહીં પણ સામાજિક અને નૈતિક બોધકથાઓ છે. લેના ચારિત્રઘડતર માટે આ કથાવસ્તુ પ્રેરક બને એ જીવનદષ્ટિથી એમણે આગમોની આ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ કાનજીભાઈ પટેલ કથાઓને પસંદ કરી સંગ્રહમાં સ્થાન આપ્યું હોય એમ લાગે છે. આ વસ્તુ રજૂ કરવા પ્રસ્તુત સંપાદનમાંથી કેટલીક કથાઓ વિશે અહીં ચર્ચા કરવાનો ઉપક્રમ રાખે છે. gિfg મૂળ આગમમાં ભલે પાંચ વ્રતને લગતી કથા હેય પણ સંપાદકની દષ્ટિ તે ગૃહસ્થ જીવનમાં કુટુંબના વડાની ફરજ તરફ અંગુલિનિર્દેશ કરવાની હોઈ શકે એ સંભવ છે. કુટુંબની બધી વ્યક્તિઓની કામ કરવાની ક્ષમતા અને તેમની રુચિ એકસરખી ન હોય. કુટુંબનો વડે સમજુ હોય તો એવું આયોજન કરે કે દરેકને પોતાની રુચિ અને શક્તિ પ્રમાણેનું કામ મળે. કુટુંબની કાર્યક્ષમતા વધારવા અને તેને એકસૂત્રે બાંધી રાખવા આમ થવું જરૂરી છે. આવી સૂઝને અભાવ એ અત્યારે તૂટતી સંયુક્ત કુટુંબની પ્રથાના અનેક કારણે માંનું એક કારણ હોઈ શકે. “સુરે Hi' એ માત્ર બે કાચબાઓની કથા નથી. પણ સંયમી અને સ્વભાવ ચંચળ એવી બે વ્યક્તિઓની કથા છે. માણસ હાથ પર લીધેલ કામમાં સંશય રાખે અને શ્રદ્ધા વગર કામ કરે તો તે કેટલું કારગત નીવડે ? “સંસચવા વિસ્મિની પસંદગીમાં સંપાદકની આ દૃષ્ટિ કામ કરી ગઈ હોય તો નવાઈ નહીં. પોતાના ખૂની તરફ ઉદારભાવ (બીજા ભવમાં) રાખવો (માઢ), એકના એક પુત્રને મારનાર વિજય ચોર જેવાને ક્ષમા આપી તેને સહાયભૂત થવા તત્પર રહેવું એ કંઈ નાનીસૂની વાત છે ? આવું કાણ કરી શકે? ક્ષમાની સાક્ષાત મૂર્તિ. પણ જે સમાજમાં આવાં ઉજજવળ રને હોય ત્યાં વિજય જેવા ચોરનું શું સ્થાન ? આવા સમાજનું નિર્માણ કેમ ન થઈ શકે? મેધાણીની દીકરાને મારનાર” કથા સાથેના સામ્યને ઉલેખ અત્રે અપ્રસ્તુત નહી ગણાય. વસુદેવહિંડી અને ઉપદેશપદ જેવા ગ્રંથમાંથી જે કથાઓ પંડિજીએ પસંદ કરી છે તે વ્યાવહારિક બંધ ઉપરાંત તેમની રમૂજવૃત્તિની પરિચાયક છે. “જેવા સાથે તેવા” કે “ઈટનો જવાબ પથ્થરથી આપવો” એવા વ્યવહારમાં “દુરથોપાર્શ્વ જૈન' કહીને ધૂર્તની પત્નીને હાથ પકડીને ગામડાને ગાડાવાળો ચાલવા માંડે કે દરવાજામાંથી ન નીકળે એવા એટલે કે બહુ જ મોટા લાડુની અપેક્ષા રાખીને બેઠેલા ચતુર શહેરીને બે પૈસાની લાડુડીથી નિરાશ થવાને પ્રસંગ આવે તો કેવી રમૂજ થાય? ઈશ્વરે મનુષ્યને આપેલી બુદ્ધિના પ્રપંચાત્મક ઉપયોગ તરફને કટાક્ષ આ વાર્તાઓ દ્વારા પ્રગટ થાય છે. જીવનમાં ગમે તેવા ઉમદા કામ માટે પણ સાધનશુદ્ધિને વિવેક ન જાળવનારની “લાનાથપરિવરઘi માંની ત્રીજી પુત્રી જેવી દશા થાય. આજે પણ એવી ઘણી માતાએ કુટુંબમાં પિતાની પુત્રીનું વર્ચસ્વ સ્થપાય તે જોવા માગતી હોય છે, એ માટે પુત્રીઓના વૈયક્તિક જીવનમાં પણ ડખલ કરે છે. પણ ઘણી માતાઓને નિરાશ થવું પડે છે. તેમને પાપે પુત્રીને ચાબૂકના ફટકા ખાવાને પ્રસંગ પણ આવે. છેવટે હારી થાકીને શિખામણ આપવી પડે કે “દેવ દેવસ વક્રિાતિ तहेव पइणो वहिज्जासि।" બાળપણમાં માના ગુમાવનાર બાળકની શી દશા થાય છે તેનાથી કોઈ અજાણ નથી. નgg શેહો એવી એક સામાજિક કથા છે જે આજના કુટુંબ જીવનના પાસા પર પ્રકાશ ફેકે છે. અપર Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જિનાગમકથાસંગ્રહ માતા સાવકા પુત્રને માતાનો સ્નેહ આપે તેવું સમાજમાં ભાગ્યે જ જોવા મળે. ફરી લગ્ન કરનાર પિતા પોતાના વ્યવસાયમાં ગળાબૂડ હોય કે નવી પત્નીને સ્ત્રી-ચરિત્રથી અજાણ હોય તો બાળકને પિતાને સ્નેહ પણ ન મળે. આવા સંજોગોમાં જે બાળક ચતુર હોય તો નટપુત્ર રેહની જેમ માતાની સાન ઠેકાણે લાવી ધાર્યું કામ કઢાવી શકે. જો એમ ન થઈ શકે તો બાળકને શારીરિક અને માનસિક વિકાસ રૂંધાઈ જાય. સ્ત્રી-પુરુષના અનૈતિક સંબંધમાં માત્ર સ્ત્રીઓને જ જવાબદાર માનવાની શૈલી ઠેઠ સૂત્રકાળથી આજ સુધીના સાહિત્યમાં એક સરખી રીતે ચાલી આવી છે. એકાદ સ્ત્રીને દાખલે લઈ આખી સ્ત્રી જાતિની નિંદા કરવી કેટલી યુક્તિ-સંગત ગણાય? સ્ત્રી-જાતિની નિંદા કરનારા એ ભૂલી જાય છે કે આવા દાખલા એ તો સ્ત્રીઓ કરતાં પુરુષોમાં વધારે જોવા મળે છે. તે ઉક્ત ન્યાયે પુરુષ-જાતિની નિંદા કેમ નહીં ? વળી, સમાજમાં જેમ શીલવાન પુરુષો હોય છે તેમ દેવવંદ્ય અને પુરુષવંદ્ય થઈ ગઈ હોય તેવી શીલવતી નારીઓના દાખલા ઇતિહાસમાં ઓછા નથી. એ ન્યાયે આખી સ્ત્રી જાતિની પ્રશંસા થવી જોઈએ. પણ પુરુષ-પ્રધાન સમાજમાં સાહિત્ય-નિર્માણ પણ પુરુષોને હાથે થયું છે. એટલે સ્ત્રીઓના સ્વભાવની કેટલીક નિર્બળતાઓને સ્વીકાર કરીએ તો પણ ઉપરોક્ત બાબતમાં તે સ્વ-જાતિ તરફને પક્ષપાત જ જણાય છે. મરિવારોઝારિકા માં કેવળ આ જ માન્યતા સામેના ગેરવ્યાજબીપણુ વિશે વાત કરવામાં આવી છે. લગ્ન પછી પણ ૧૨-૧૨ વર્ષ સુધી એકાકી જીવન જીવતી ધનશ્રી જેવી એવી ઘણી સ્ત્રીઓ હશે કે જે પર-પુરુષના નામ માત્રથી પણ છેડાઈ જાય. શીલને ડાઘ ન લાગે તે માટે ખૂન કરવાની હદે જવું પડે તો તે માટે પણ તૈયાર હોય તેવી સ્ત્રીઓ આજે પણ જોવા મળશે. સામે પક્ષે જેને સમાજ પૂજનીય અને વંદનીય ગણે છે તેવા સંન્યાસીની ચારિત્રહીનતાનાં દર્શન થાય છે. આ કથામાં સામાજિક પાખંડ અને પ્રથા ઉપર વ્યંગ છતો થયો છે. વડીલો તરફ ભક્તિભાવ રાખવો જોઈએ. પણ ગુરુપત્નીનું માન રાખવા, તેમના તરફ આદર દાખવવા રાજા વસુ અન્યાયને પક્ષકાર બને અને અસત્યને આશરો લે તો ધર્મરાજના રથની જેમ આકાશમાં અધ્ધર રહેતુ તેનું સિંહાસન પણ જમીન પર પટકાય તેમાં શી નવાઈ ? ગુરુપત્ની તરફ ભક્તિભાવ રાખવો જોઈએ પણ તે કેઈને ભોગે કે અસત્યને શરણે જઈને નહીં. જીવનમાં ધનનું મહત્ત્વ છે. એ માટે સંઘર્ષ પણ કરવો પડે. પણ ધન અને સ્નેહ કે ધન અને કર્તવ્ય વચ્ચે પસંદગી કરવાનો પ્રસંગ આવે તો શું કરવું ? વ્યવહાર-જગતમાં ધન ગમે તેટલું ઉપયોગી હોય પણ તે સ્થળસંપત્તિ છે, સાચી સંપત્તિ તો સૂક્ષમ સનેહસંપત્તિ છે. અને એને મહિમા વિશેષ છે. “નીવળવાય પરિવવામાં વાત્સલ્યથી છલકાતું આવી એક સાચી માતાનું હૃદય ધનના ઢગલાને લાત મારવા પ્રેરે છે. સંસારમાં અનિષ્ટ તો છે તે સારપ પણ છે. શું ગ્રહણ કરવું તે વ્યક્તિને વશની વાત છે. કાગડાઓ જેવા કૃતની માણસો (ચરઘા વાયા) છે, તો નાના શા ઋણમાંથી મુક્ત થવા જીવનની આહુતિ આપવા તત્પર કેશબીના ચિત્રકાર જેવા કૃતજ્ઞ માણસો પણ છે (સુcવો કો). માટે કઈ રડ્યા -ખડ્યા દાખલાને આધારે માણસાઈ પરની શ્રદ્ધા ગુમાવવાનું ન પોષાય. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાનજીભાઈ પટેલ ૩૧ : અને નન્નમ સમુત્તી' અને ‘વિધિ-વિધાઓ' જેવી કથાએ ધાર્મિક અંધશ્રદ્ધા માન્યતાઓ તરફ લાલખત્તી ધરે છે. પશુખલિ આપનાર વ્યક્તિ એ જાણતી નથી કે તે જીવ પૂ. જીવનમાં પોતાના કાઈ સ્વજત હોઈ શકે. છેલ્લે, આ સંગ્રહમાં જે સૂક્તિ-સમૂહને સ્થાન આપવામાં આવ્યું છે તે છવાપયોગી છે. આદર્શો મૈત્રી, જીવનમાં સાહસનું મહત્ત્વ, અદીન બનીને જીવવું, નીતિપૂર્વક ચાલવુ', ધીરજ ધરવી વગેરેને લગતી સૂક્તિ સ્થૂળ રીતે વ્યવહારને ઘડનારી અને સૂક્ષ્મ રીતે માણુસના શીલને ઘડનારી છે. આ સૂક્તિએ વિધેયાત્મક અને નિષેધાત્મક બન્ને પ્રકારની છે. ગાંધીવાદી વિચારસરણીમાં મનુષ્ય, મનુષ્યત્વ અને સમાજજીવન કેન્દ્રસ્થાને છે. ચારિત્રવાન માણસેાના ઘડતરથી સમાજ સ ંપન્ન ખતે. એ માટે માણુસતી સવ્રુત્તિઓ પર શ્રદ્ધા રાખીને માણસે પોતે નીતિના માર્ગે ચાલવુ જોઈએ, આ ગાંધીવાદી વિચારસરણીને વરેલા પંડિત ખેચરદાસજીએ ‘નિનામુથાતંત્ર ૢ ' માં જાણે તેમના વિચારાનુ પ્રતિબિંબ પડતું હેાય તેવી વૈયક્તિક અને સામાજિક જીવનને સ્પર્શતી કથાએ પસ કરી છે એવુ મને તા આ કથાઓનુ` વસ્તુ જોતાં લાગે છે. કથાનાં જે શી ક આપવામાં આવ્યાં છે તે પણ કદાચ આ વિચારને અનુમેાદન આપે છે. કેટલાક શીર્ષક તેા સંપાદકે પેાતાની રીતે આપ્યાં છે, એટલે કથાના શીકની ખાખતમાં પણ મને એમ લાગે છે કે સૌંપાદકની વિચારસરણીની જાણે-અજાણે અસર પડી છે. ‘ નિનામથાસંપ્રદ્ 'ની કથા અને સુક્તિએની પસંદગીમાં પૂ. પંડિત બેયરસજીની ફિલસૂફીએ ભાગ ભજવ્યા છે એમ જણાવી આ વિદ્યાપુરુષઋષિને જ્ઞાનાંજલિ અર્પવાના મારા અહીં નમ્ર પ્રયાસ છે એટલું જણાવવાની રજા લઉં. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન અને મલયગિરિશબ્દાનુશાસન જયદેવભાઈ શુકલ ભારતીય શાસ્ત્રીય વાલ્મયનાં ઉદ્દગમ અને વિકાસમાં વ્યાકરણશાસ્ત્રનું અસાધારણ મહત્વ છે. છન્દ શાસ્ત્ર, જ્યોતિષ, અર્થશાસ્ત્ર અને બીજ શાસ્ત્રોનો વિકાસ તે તે સમયની સામાજિક સ્થિતિના સંદર્ભમાં થયેલો છે; પરંતુ વ્યાકરણશાસ્ત્રને વિકાસ પ્રાચીન ભારતીય વાલ્મયના પ્રવાહને અનુસરે છે. વ્યાકરણશાસ્ત્રનો ઉદ્દભવ વૈદિક વાયની પરંપરામાં બ્રાહ્મણગ્રંથના યુગમાં ઈ. પૂ. ૮૦૦ ની આસપાસથી શરૂ થશે અને ઈ. સ. પૂર્વે ૧પ૦ સુધી તેને સતત વિકાસ થતો રહ્યો. ત્યાર પછીનાં લગભગ સત્તર વર્ષો સુધી આ શાસ્ત્રને વિવિધ રૂપે અભ્યાસ થતો રહ્યો. ધ્વનિ, વ્યાકરણ અને અર્થવિચારની શાખાઓના અસંખ્ય ગ્રન્થમાં તે નવપલ્લવિત થયો. આ ગ્રન્થમાં પ્રાપ્ત થતાં સૂક્ષ્મ અન્વેષણ, વિસ્તાર અને વૈજ્ઞાનિક અન્વેષણપદ્ધતિ જગતના શાસ્ત્રીય નામયમાં અન્યત્ર જેવા મળતાં નથી. યાસ્ક પૂર્વેના અને પાણિનિપૂર્વેના લગભગ ત્રીસ જેટલા વયાકરણના અને તેમના મતાના ઉલલેખ નિરૂક્તમાં, ઋવેદપ્રાતિશાખ્યોમાં અને અષ્ટાધ્યાયીમાં પ્રાપ્ત થાય છે. આ બધા આચાર્યોના સ્વતંત્ર અને સંપૂર્ણ વ્યાકરણગ્રંથ અર્થાત્ સૂત્ર, ધાતુ, ગણ, ઉણદિ અને લિંગાનુશાસન એવાં પાંચ અંગોને સમાવતા ગ્રંથ હશે કે કેમ તે સ્પષ્ટ થતું નથી. પરંતુ આ આચાર્યોએ દવનિ, વ્યાકરણ, અર્થવિચાર, વ્યુત્પત્તિ અને પરિભાષા વિષે જે મહત્ત્વનાં વિધાને કર્યા હતાં તે અદ્યાપિ સચવાઈ રહ્યાં છે. આવા આચાર્યોમાં શૌનક, શાકટાયન, ઔદુમ્બરાયણ, ગાગ્ય અને આપિશાલિના સંપૂર્ણ ગ્રંથે હતા તે નિર્વિવાદ છે. બ્રાહ્મણગ્રંથેના યુગમાં વ્યાકરણચર્ચાનું સ્વરૂપ વિસ્તૃત હતું. તે ચર્ચામાં વેદોની જુદી જુદી શાખાઓના વનિઓ, મત્રોનાં ઉચ્ચારણે અને તેમની વિશિષ્ટતાઓ, વૈદિક પ્રયોગની ભાષા પ્રયોગોના સંદર્ભમાં વિલક્ષણતાઓ તેમ જ ભાષાપ્રયોગોની સૂક્ષ્મતાઓ અંગેનાં ચિન્તનેને સમાવેશ થતો હતો. કાળક્રમે વૈદિક પ્રયોગો અને ભાષા પ્રયોગોની ચર્ચાઓ બે વિભાગમાં વિભક્ત બની. એક વિભાગ શિક્ષા અને પ્રાતિશાખ્ય રૂપે અવતાર પામ્ય અને બીજે વિભાગ શબ્દપારાયણ અર્થાત્ શબ્દાનુશાસન રૂપે જાણીતા બન્યો. ઈસુપૂર્વેની ટ્રી અને પાંચમી સદીમાં વ્યાકરણચર્ચાનું જે વિશાળ રૂપ પ્રકટ થયું તેમાં બે મહાવૈયાકરને ફાળે મહત્ત્વનો છે. એક હતા. આપિશલિ અને બીજા હતાપાણિનિ, વ્યાકરણના પ્રાચીન ઉલેખોમાં આપિશલિના વિધાનો જે સંદર્ભો મળે છે તેમના ઉપરથી સ્પષ્ટ થાય છે કે આપિશાલિની વ્યાકરણ પરંપરા સત્ર, ધાતુ, ગણ, ઉણુદિ, લિંગાનુશાસન અને પરિભાષારૂપે પૂર્ણ હેવી જોઈએ. છૂટાછવાયા ઉલ્લેખ સિવાય આ પરંપરા વિષે કશી વિશેષ માહિતી પ્રાપ્ત થતી નથી. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જયદેવભાઈ શુકલ ૩૩ ઈસુપૂર્વેની છઠ્ઠી અને પાંચમી સદીમાં વ્યાકરણચર્ચાનું જે વિશાળ રૂપ પ્રગટ થયું તેમાં બે મહાવૈયાકરણનો ફાળે મહત્ત્વનું છે. એક હતા આપિશલિ અને બીજા હતા પાણિનિ. વ્યાકરણના પ્રાચીન ઉલેખોમાં આપિશનિના વિધાનોના જે સંદર્ભો મળે છે તેમના ઉપરથી સ્પષ્ટ થાય છે કે આપિશાલિની વ્યાકરણપરંપરા સૂત્ર, ધાતુ, ગણ, ઉણાદિ, લિંગાનુશાસન અને પરિભાષારૂપે પૂર્ણ હેવી જોઈએ. છુટાછવાયા ઉલેખ સિવાય આ પરંપરા વિષે કશી વિશેષ માહિતી પ્રાપ્ત થતી નથી. ઈસુની પૂર્વે ૫૦૦ની આસપાસ થયેલા આચાર્ય પાણિનિની વ્યાકરણ પરંપરામાં સૂત્રસમૂહરૂપે અષ્ટાધ્યાયી નામનો ગ્રંથ પ્રાપ્ત થાય છે. ધાતુ પાઠ અને ગણપાઠ તેનાં સહાયક અંગો છે. તેમની વ્યવસ્થાને ઉપયોગી કેટલીક પરિભાષાઓ પાણિનિએ સૂત્રરૂપે રજૂ કરી છે. કેઈક ઉણાદિસૂત્રસમૂહ તેમના દયાનમાં હશે તેમ કહી શકાય. અષ્ટાધ્યાયીમાં પ્રાપ્ત થતા લિંગના નિયમોમાં લિંગાનુશાસન સમાઈ જાય છે. ૩૯૮૩ સૂત્રોને આ ગ્રંથ બત્રીસ પાદ અને આઠ અધ્યાયમાં વિભક્ત છે. આ સૂત્રોમાંથી ૧૨૪૫ સૂત્ર ઉપર કાત્યાયને વાર્તિકે રહ્યાં છે અને ૧૨૨૮ સુત્રો ઉપર પતંજલિએ ભાષ્ય રચ્યું છે. પાણિનિએ પ્રબોધેલી વ્યવસ્થા, વિશાળ પ્રદેશ ઉપર બોલાતી સંસ્કૃત ભાષાનાં શબ્દરૂપોની સિદ્ધિ માટે રચેલા નિયમો, એ નિયમોને પરસ્પર અન્વય અને એ નિયમો ઉપરથી કાળક્રમે સધાયેલા કેટલાક પ્રસિદ્ધ ભાષાવૈજ્ઞાનિક સિદ્ધાંતોએ પાણિનિની કીર્તિને જગતમાં પ્રસરાવી છે. જીવન, જગત અને વાડ્મયમાં સર્વત્ર તર્કયુક્ત અને નિયમબદ્ધ વ્યવસ્થા નિહાળનારી પાશ્ચાત્ય વિવેચનપદ્ધતિને અનુસરનારા કેટલાક અર્વાચીન પાણિનીયો પાણિનિની વ્યવસ્થામાં ક્ષતિઓ નિહાળે છે અને પાણિનીય ગ્રંથમાં અનેક સુધારા વધારા થયા હોવાની માન્યતામાં રાચે છે. બ્રાહ્મણ પરંપરાનું સમગ્ર સંસ્કૃત વાડ્મય પાણિનિના નિયમોનું દઢપણે અનુસરણ કરે છે. ઈસુની પહેલી સદી પછી જૈન પરંપરાને પોતાના આગવા વ્યાકરણ વાડ્મયની ખોટ સાલવા લાગી. બૌદ્ધ પરંપરાને આવી ખોટ સાલતી ન હતી. બુદ્ધઘેષ અને બીજા બૌદ્ધ લેખકે પાણિનીય સૂત્રોને છૂટથી ઉપયોગ કરતા હતા. તેમ છતાં ઈસુની ચોથી સદીમાં થયેલા આચાર્ય ચન્દ્રને લઘુ, વિસ્પષ્ટ અને સંપૂર્ણ વ્યાકરણની આવશ્યકતા લાગતાં તેમણે વ્યાકરણને ચાન્દ્રસૂત્ર નામે સૂત્રગ્રન્થ ર. અષ્ટાધ્યાયી ઉપરથી જ તૈયાર થયેલો આ વ્યાકરણગ્રંથ સ્પષ્ટતા, લાધવ અને સરળતા સિવાય બીજા કશાં વિશિષ્ટ લક્ષણે ધરાવતું નથી. ઈસુની આઠમી સદીમાં થયેલા ધર્મદાસે ૨ચેલી ચાન્દ્રવૃત્તિમાં કાશિકાને સાવંત ઉપયોગ થયો છે. બૌદ્ધ અને જૈન પરંપરાઓ અષ્ટાધ્યાયમાં મળતા વૈદિક પ્રયોગો અંગેના અને સ્વરપ્રક્રિયા અંગેના સૂત્રનિયમોનો ત્યાગ કરે છે, પરંતુ પાણિનિએ આપેલાં અને પ્રકૃતિ પ્રત્યય કાર્યમાં ઉપયોગી વેદિક ઉદાહરણે અને યજ્ઞસંદર્ભવાળાં ઉદાહરણોને તે સાચવી રાખે છે. બ્રાહ્મણ પરંપરાની જેમ જૈન વ્યાકરણ પરંપરાએ પોતાના પ્રાચીન આચાર્યોના ઉલલેખો કર્યા છે. જૈનેન્દ્ર વ્યાકરણ, શ્રીદત્ત (૧-૪-૩૪), યશોભદ્ર (૨-૧-૯૯), ભૂતબલિ (૩-૪-૮૩), પ્રભાચન્દ્ર (૪-૩-૧૮૦), સિદ્ધસેન (૫-૧-૭) અને સમન્તભદ્ર (૫-૪-૧૪૦) જેવા આચાર્યોનો ઉલ્લેખ કરે છે. આવી રીતે શાકટાયન વ્યાકરણ પણ આર્યવજ (૧-૨-૧૩), ઈન્દ્ર (૧-૨-૩૭) અને સિદ્ધનન્દી (૨-૧-૨૨૯) જેવા પ્રાચીન વૈયાકરણેને ઉલેખ કરે છે. જૈનેન્દ્ર અને શાકટાયનમાં ને ધેલા પૂર્વા, ચાર્યો પાણિનિમાં નથી અને પાણિનિએ નાંધેલા પૂર્વાચાર્યો જૈનેન્દ્ર અને શાકટાયનમાં નથી. જૈન વ્યાકરણ પરંપરામાં સૌથી પ્રાચીન ગ્રંથ ઈસુની છઠ્ઠી સદીમાં થયેલા આચાર્ય દેવનન્દી Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪ સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન અને મલયગિરિશબ્દાનુશાસન કૃત જૈનેન્દ્ર શબ્દાનુશાસન છે. પાંચ અધ્યાય, વીસ પાદ અને ત્રણ હજાર અડસઠ સૂત્રોવાળા આ ગ્રંથમાં સૂત્ર, ધાતુ, ઉણદિ અને ગણપાઠ પ્રાપ્ત થાય છે. આ વ્યાકરણમાં પ્રત્યાહારોને સ્વીકાર થયો છે તેથી તેમાં પ્રત્યાહાર સૂત્રો હેવાં જોઈએ પરંતુ અભયનન્દીની મહાવૃત્તિમાં પણ તે મળતાં નથી. જૈનેન્દ્ર વ્યાકરણમાં પાણિનિ, કાત્યાયન, પતંજલિ અને ચન્દ્રને યથેચ્છ ઉપયોગ થયો છે. તેવી જ રીતે ઈસુની આઠમી સદીમાં થયેલા આચાર્ય અભયનન્દીની જૈનેન્દ્ર સૂત્રો ઉપરની મહાવૃત્તિમાં કાશિકા, ન્યાસ અને ચાન્દ્રવૃત્તિનો મનભર ઉપયોગ થયો છે. બૌદ્ધ અને જૈન વ્યાકરણ પરંપરાઓ ઉપરનું પાણિનિનું ઋણ કેટલું સાદ્યન્ત છે તેને માટે એક ઉદાહરણ બસ થશે. પાણિનિના સૂત્રનિયમ અનવરને સ્ત્રી (૩. ૨. ૨૧) પ્રમાણે ગઈકાલના પ્રસંગને જણાવવા માટે હ્યસ્તન ભૂતકાળ વપરાય છે. આ સૂત્ર ઉપરનું વાર્તિક પરોક્ષે ૨ વિજ્ઞાને જુનવિષા જણાવે છે કે આ પ્રસંગ લોકપ્રસિદ્ધ હેય અને પ્રયકતાએ પોતે જે ન હોય પરંતુ તેનું દર્શન તેને માટે સંભવિત હેાય ત્યારે પણ આ જ કાળ વપરાય છે. આ નિયમનાં બે ઉદાહરણ પતંજલિએ આપ્યાં છે; જાથાનઃ સાતમા અને અથવા માધ્યમિwIFા આ ઉદાહરણોમાં અધ્યાની પાસેના પ્રાચીન નગર સાકેત ઉપરના અને ચિતોડ પાસેની માધ્યમિકા નગરી ઉપરના મીન્ડરના વિજયને ઉલેખ છે. આનાં અનુકરણે ચાન્દ્રવૃત્તિમાં બનાસકળ દૂiાના (૧. ૨. ૮૧), જૈનેન્દ્ર-મહાવૃત્તિમાં જળઘેરા મથામ્ (૨. ૨. ૯૨), શાકટાયન અમોઘવૃત્તિમાં વ ધારે અપાતીની (૪. ૩. ૨૦૮), સિદ્ધહેમચન્દ્રમાં - સિદ્ધાને અવન્તીના (૫. ૨. ૨૮) અને મલયગિરિમાં જાતીન કુમારપાત્ર . (કૃદન્ત ૩. ૨૩) એવાં મળે છે. જેને શબ્દાનુશાસન પછીની બીજી જૈન વ્યાકરણ પરંપરા શાકટાયન વ્યાકરણ પરંપરા છે. રાષ્ટ્રકૂટ અમોઘવર્ષ પહેલાના અર્થાત ઈસવીસનના નવમા સૈકાના ઉત્તરાર્ધમાં થયેલા અને પાલ્યકીર્તિ એવું નામાંતર પામેલા શાકટાયને સત્રપાઠ રો અને સૂત્રપાઠ ઉપર અમોધવૃત્તિની પણ તેમણે રચના કરી. તેમણે ગણપાઠ, ધાતુપાઠ, ઉણદિપાઠ, પરિભાષાપાઠ અને લિંગાનુશાસન પણ રચ્યાં. - દક્ષિણના કદંબ રાજાઓની અમીદષ્ટિ પામેલી અને પાછળથી દક્ષિણની દિગંબર જૈન પરં. પરાએ અપનાવેલી યાપનીય પરંપરામાં આ શાકટાયન આચાર્યની પ્રસિદ્ધિ છે. શાકટાયનસૂત્રમાં અને અમાધવૃત્તિમાં કાશિકા, ચાન્દ્રવૃત્તિ અને ન્યાસનું પૂરેપૂરું અનુસરણ જોવા મળે છે. વ્યાખ્યાનને વિસ્તાર અને વિપુલ ઉદાહરણે અમેઘવૃત્તિની વિશિષ્ટતા છે. પાણિનીચ વ્યાકરણપરંપરા પછીની આ બધી વ્યાકરણપરંપરાઓ મુનિત્રયે પ્રવર્તાવેલા સિદ્ધાન્તમાં કશું ઉમેરો કરતી નથી. તેમનામાં પ્રાચીન કે નવીન ભાષાપ્રયોગોના વિશિષ્ટ ઉલ્લેખ મળતા નથી. સમકાલીન સાહિત્ય સાથે તેમને ઝાઝે સંબંધ નથી અને આવા સાહિત્યના અનુલક્યમાં તેમનાં વિધાનમાં પણ કશા ફેરફાર જોવા મળતા નથી. હેમચંદ્રાચાર્યનું સિદ્ધહેમ શબ્દાનુશાસન આમાં અપવાદ છે. સૂત્રનિયમને નવેસરથી રજૂ કરાતે ક્રમ, સંજ્ઞાઓમાં મનગમતા ફેરફારો અને વિધાનલાધવમાં એમને મોલિક્તાનાં દર્શન થાય છે. આવી સ્પષ્ટ મર્યાદાઓ હોવા છતાં પાણિનીય પરંપરાના મુનિત્રયનાં વચનને તેમણે બરાબર સાચવી રાખ્યાં છે. અષ્ટાધ્યાયીની સ્વરદિકી પ્રક્રિયાના ત્યાગ સિવાય તેમણે બીજુ કશું ગુમાવવાનું ઇષ્ટ માન્યું નથી. પરિણામે પાણિનીય પરંપરાનાં સૂત્રવાર્તિકભાષ્યકથનોના પાઠશોધન માટે આ વ્યાકરણગ્રંથે ઉપયોગી છે. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જયદેવભાઈ શુકલ ૭૫ જૈન પરંપરાના વ્યાકરણગ્રંથની આવી ઉપગિતાના સંદર્ભમાં સિદ્ધહેમ વ્યાકરણનું ઘણું મહત્ત્વ છે. અષ્ટાધ્યાયીનાં સૂત્રોના, કાત્યાયનનાં વાર્તિકોને અને પતંજલિનાં ભાષ્યવચનોને સૌથી વધારે ઉપયોગ હેમચન્દ્રાચાર્યો કર્યો છે. આ ઉપરાંત ઈસુની દસમી સદી સુધીમાં થયેલા લગભગ બધા મહત્ત્વના વૈયાકરણ, ચન્દ્ર, ભર્તુહરિ, ન્યાસકાર, મૈત્રેયરક્ષિત અને કૈયટનાં વિધાનને પણ તેમણે પિતાના વ્યાકરણગ્રંથમાં સમાવ્યાં છે. સોલંકી રાજવી સિદ્ધરાજ જયસિંહની ઇચ્છાથી હેમચન્દ્રાચાર્ય સિદ્ધહેમચન્દ્રશબ્દાનુશાસનની રચના કરી. આ કાર્ય તેમણે ઈ. સ. ૧૧૪૩માં પૂરું કર્યું. ત્રિષષ્ટિશલાકાપુરુષચરિતની પ્રશસ્તિમાં અને નિર્દેશ મળે છે. पूर्व पूर्वजसिद्धराजनृपतेभक्तिस्पृशो याश्चय।। __ साङ्ग व्याकरणं सुवृत्तिसुगम चक्रुभवन्तः पुरा ॥ સિદ્ધહેમને અંતે પણ આવો જ નિર્દેશ છે, तेनातिविस्तृतदुरागमविप्रकीर्णशब्दानुशासनसमूहकदर्थितेन । अभ्यर्थिता निरवमं विधिवद् व्यधत्त शब्दानुशासनमिद मुनिहेमचन्द्रः ॥ આઠ અધ્યાય અને ૪૬૮૫ સુત્રોવાળા આ સૂત્રગ્રંથમાં પહેલા સાત અધ્યાયોનાં ૩૫૬ સૂત્રોમાં સંસ્કૃત ભાષાના વ્યાકરણની ચર્ચા છે. પહેલા અધ્યાયમાં સંજ્ઞા, સંધિ અને નામ, બીજા અધ્યાયમાં નામ, કારક, ત્વષ્ણત્વ અને સ્ત્રી પ્રત્યય, ત્રીજા અધ્યાયમાં સમાસ અને આખ્યાત, ચોથા અધ્યાયમાં આખ્યાત, પાંચમા અધ્યાયમાં કૃદન્ત અને છઠ્ઠા અને સાતમા અધ્યાયમાં તદ્ધિતની ચર્ચા કરવામાં આવી છે. દરેક અધ્યાયને અંતે એકેક ચાલુક્ય રાજાની પ્રશસ્તિ છે. સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસનમાં વ્યાકરણનાં બધાં અંગે, સૂત્ર, ગણ, ધાતુ, ઉણાદિ અને લિંગાનુશાસન પ્રાપ્ત થાય છે. ગણપાઠને બૃહત્તિમાં સમાવવામાં આવ્યો છે. સૂત્રપાઠ ઉપર હેમચન્દ્રાચાર્યે લઘુ, મધ્યમ અને બૃહદ્ એમ ત્રણ વૃત્તિઓ રચી છે. બ્રહવૃત્તિ અર્થાત્ તત્વપ્રકાશિકા ઉપર શબ્દમહાર્ણવન્યાસ અર્થાત્ બૃહન્યાસ નામની અત્યંત વિસ્તૃત ટીકા પ્રાપ્ત થાય છે. ન્યાસની રચના ઉપર પતંજલિના મહાભાષ્યની અને જિનેન્દ્રબુદ્ધિના ન્યાસની ગાઢ અસર છે. આપણને પ્રાપ્ત થતા ન્યાસમાં પહેલા અધ્યાયને પહેલો પાદ અપૂર્ણ અને ત્રીજે તથા એથે પાદ, બીજા અધ્યાયના ચાર પાદ, ત્રીજા અધ્યાયને એથે પાદ અને સાતમા અધ્યાયને ત્રીજે પાદ એટલા મળે છે. ન્યાસમાં હેમચન્દ્રાચાર્યની પહેલાંના અનેક વ્યાકરણગ્રંથનાં અવતરણ મળે છે. સ્પષ્ટતા, વિસ્તાર અને સૂક્ષ્મતાની દષ્ટિએ બ્રાહ્મણેતર વ્યાકરણ–પરંપરામાં આ ગ્રંથનું સૌથી વધારે મહત્ત્વ છે. સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસનની ખ્યાતિ હેમચન્દ્રાચાર્યના સમયમાં જ ઘણી વિસ્તરી હતી. પછીના સમયમાં બધા જૈન ગ્રંથકારો આ વ્યાકરણને ઉપયોગ કરતા હતા. તેમ છતાં કેટલાક સ્વતંત્ર વ્યાકરણગ્રંથ રચવાનું કામ ચત્રતત્ર ચાલુ હતું. જેન વ્યાકરણગ્રંથોમાં વિ. સં. ૧૦૮૦માં રચાયેલા બુદ્ધિસાગર વ્યાકરણનો ઉલલેખ કરવો જોઈએ. તે હેમચન્દ્રની પૂર્વે ચાયું હતું. મલયગિરિને વ્યાકરણને હસ્તપ્રતોમાં મુષ્ટિવ્યાકરણના નામથી ઉલ્લેખ કરવામાં આવે છે. ઈ. સ. ૧૧૭૭ની અર્થાત સોલંકી રાજવી કુમારપાલના સમયની આ રચના છે. નવાગમ વૃત્તિકાર તરીકે મલયગિરિ જાણતા છે. આગમવૃત્તિઓની રચના પહેલાં તેમણે આ શબ્દાનુશાસનની રચના Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૬ સિદ્ધહેમરામ્દાનુશાસન અને મલગિરિશબ્દાનુશાસન કરી હતી. મલયગિરિ યાન્દ્ર અને શાકટાયનના ઉલ્લેખ કરે છે. હૈમવ્યાકરણની તૈમાં ઘણી અસર હાવા છતાં હેમચન્દ્રતા તેમાં ઉલ્લેખ નથી. કાતન્ત્રની યેાજના પ્રમાણે તેણે સ`ધિ, નામ, આખ્યાત, કૃદન્ત અને તદ્ધિત એવા વિભાગા પાડવા છે. પેાતાની શ્ર થરચનામાં પેાતાના વ્યાકરણના જ ઉપયાગ કરવા એવી મહેચ્છા પૂર્ણ કરવા મલયગિરિનું વ્યાકરણ રચાયું છે. જૈત વ્યાકરણામાં મલગિરિના શબ્દાનુશાસનનું મહત્ત્વ પ્રમાણમાં એન્ડ્રુ છે. ઉપર જણાવ્યુ` તેમ જૈન ગ્રંથકારામાં પેાતાની પરંપરાનાં વ્યાકરણાના અભ્યાસ અને તેમને જ ઉપયાગ કરવાનું સ્પષ્ટ વલણુ નજરે ચઢે છે. જૈન સાધુએ અને વિદ્વાને આ અંગે હમેશાં ઉત્સાહી રહ્યા છે. દિવ'ગત પંડિત બેચરદાસજી આનું ઉત્તમ ઉદાહરણ છે. પંડિતજીએ નાની વયથી જ સિંહેમશબ્દાનુશાસનને અભ્યાસ શરૂ કર્યાં હતા અને આજીવન ચાલુ રાખ્યા હતા. સિદ્ધહેમપર પરાના લગભગ બધા ગ્રંથાના તેમના અભ્યાસ સૂક્ષ્મ હતા. સમગ્ર હૈમસૂત્રપાઠ તેમના જિહવાગે હતા અને હૈમવ્યાકરણુસૂત્રોને તે વાર વાર ઉલ્લેખ કરતા હતા. ગુજરાતનું પ્રધાન વ્યાકરણ નામના તેમના લેખમાં તેમણે સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસના વિસ્તૃત પરિચય કરાવ્યા છે. ગુજરાતી ભાષાની ઉત્ક્રાંતિ અંગેના, મુંબઈ યુનિવર્સિટીના આશ્રયે તેમણે આપેલાં વ્યાખ્યાનામાં સિદ્ધહેમના પ્રાકૃત વ્યાકરણના તેમના અભ્યાસની સ્પષ્ટ છાપ દેખાઈ આવે છે. પંડિતજીના વ્યાકરણુવિષયક પાંડિત્યને પરિચય તેમના મલયગિરિષ્કૃત શબ્દાનુશાસનના શાસ્ત્રીય સંપાદન (અમદાવાદ, ૧૯૬૭) ઉપરથી મળે છે. તેરમા સૈકાની તાડપત્રીય હસ્તપ્રત અને પૂનાની હસ્તપત્ર ઉપરથી તેમણે આ સંપાદનકાર્ય કર્યું છે. હસ્તપ્રતા ઉપરથી ગ્રંથ સંપાદન કરનારા સંશોધકોને હસ્તપ્રતાની કેટલીક વિશિષ્ટતા—સળંગ લખાણ, લેખનની વ્યક્તિનિષ્ઠ પદ્ધતિ અને વિરામચિહ્નોના લગભગ અભાવ—ને કારણે સૂત્ર, વૃત્તિ, ઉદાહરણા અને પ્રત્યુદાહરણાને જુદાં તારવીને વ્યવસ્થિતરૂ પે મૂકવાનું મુશ્કેલ બને છે. વ્યાકરણશાસ્ત્રમાં સૂત્રાનાં એકસરખાં વૃત્તિ, વ્યાખ્યાન, ઉદ્દાહરણ અને પ્રત્યુદાહરણની પરંપરા પતંજલિના સમયથી પ્રચલિત છે અને ઈસવી સનના અઢારમાં સૈકા સુધીના બધા વૃત્તિ થામાં તે પ્રાપ્ત થાય છે. આવી સ્થિતિ જૈત વ્યાકરણુપરંપરામાં પણ હેાય તે સ્વાભાવિક છે. કાશિકા, ચાન્દ્રવૃત્તિ અને ન્યાસમાંની પરપરા જૈતેન્દ્ર, શાકટાયન અને હેમચન્દ્રમાં દૃઢ બનીને મલયગિરિ સુધી પહેાંચી છે. તેથી મલયગિરિના પાઠને વ્યવસ્થિત કરવામાં આ પરંપરા મદદરૂપ અને છે. તેની સાથે સાથે સંપાદક પાસેથી આ પરંપરાના પૂરેપૂરા જ્ઞાનની અપેક્ષા પણ રહે છે. પંડિતજીએ આવી અપેક્ષા પૂરી કરી છે, કાશિકાકાર, જૈતેન્દ્ર, શાકટાયન અને હેમચન્દ્રના ગ્રંથ તપાસીને તેમાંના વિધાતાની મલયગિરિનાં વિધાના સાથે તુલના કરીને મૂત્રા, વૃત્તિ અને ઉદાહરણાને વ્યવસ્થિત રીતે રજૂ કરવાનું મુશ્કેલ કાર્ય પડિતજીએ સફળતાથી પાર પાડયું છે. હસ્તપ્રતામાં વારંવાર પ્રાપ્ત થતા નાના કે મેાટા ગ્રંથપાતાનું પુનઃસંધાન અને પુનર્નિર્માણ કરવું પડે છે. પૉંડિતજીએ નાના ગ્રંથપાતાનું પુનનિ માંણુ અને પુનઃસંધાન કયુ છે, અને તેમને યેાગ્ય સંદર્ભોમાં ગોઠવીને ગ્રંથની સળ ગસૂત્રતા જાળવી છે. મલગિરિના તેમના સ`પાદનની પાદટીપેા ઉપરથી પંડિતજીના સંપાદનકાર્યની બરાબર સ્પષ્ટતા થાય છે. કેટલાંક ઉદાહરણા જોઈશું. (૧) મૂળ પાઠમાં આવશ્યક સ્પષ્ટતા થાય તે માટે તેમણે વ્યાખ્યાન અને વૃત્તિ રજૂ કર્યા છેઃ (અ) વૃત્તૌ સ્થાનનુળપ્રમાળારીનાં ત્રાસસ્યા'' નૃત્યત્ર ‘જ્ઞાતિ’શનિટ્રોન ‘અથેન’ इत्यादिक संग्राह्यं तस्य च उदाहरण इदम् । પૃ. ૪ પાટીપ ૪ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જયદેવભાઈ શુકલ ૨૭ (આ) બત્ર “વિત્રનુ તિ કઃ સંવોને સુવિધાયક્ત્રાર્જન નોર્વ અક્ષા જે પ્રતિજ્ઞ ત તાર્ચ | પૃ. ૧૫ પાદટીપ ૧ (૨) હસ્તપ્રતને દોષ દર્શાવી શુદ્ધ પાઠની ચર્ચા તેમણે કરી છે. (અ) સધિપાદમાં સૂત્ર ન ા૨ા ના ઉદાહરણ કન્યા અંગે ચર્ચા કરતાં તેમણે જણાવ્યું છે કે બત્ર છોડપિ પાઠઃ પતિતઃ વિતે વાઢિપિwાબમાવતઃ પૃ. ૭ પાદટીપ ૫ આ) આખ્યાનપાદમાં સૂત્ર ૩૧ : ના ઉદાહરણ ચાર્જ સવમવીવાથઃા ને બદલે અમોઘવૃત્તિ અને શાકટાયનચિન્તામણિના પાઠ ચઃ ને શુદ્ધ પાઠ સમજવા એમ તેમણે દર્શાવ્યું છે. ત્ર માઘવૃત્તિવત્તાઃ પાટે ચા વં” કૃતિ પાર ઊંચતઃ શુદ્ધ મવેત્તા પૃ. ૧૭૮ પાદટીપ ૧ (૩) મલયગિરિનું કાશિકા, શકટાયન અને સિદ્ધહેમનું અનુસરણ જાણીતું છે. તરત જ ધ્યાનમાં આવે એવાં અનેક ઉદાહરણે તેમણે રજૂ કર્યા છે. કાશિકાનાં બધાં ઉદાહરણે તરફ તેમણે આપણું ધ્યાન દોર્યું છે. નમૂના રૂપે પૃ. ૭, પા. ટી. ૨; પૃ. ૧૦, પા. ટી. ૧; પૃ. ૧૬, પાદટીપ ૧; પૃ. ૨૦, પાદટીપ ૧; પૃ. ૮૪, પાદટીપ ૧; પૃ. ૯૨, પાદટીપ ૩ન રજૂ કરી શકાય. (૪) સૂત્ર અને વૃત્તિની સરખામણું કરતાં કેટલેક ઠેકાણે મલયગિરિની ક્ષતિઓ તરફ પંડિતજી આપણું યાન દોરે છે. (અ) સંધિ પ્રકરણના પાંચમા પાદના ૨૬મા સૂત્રની વૃત્તિમાં સૂકારને આદેશ થાય છે એમ મલયગિરિએ જણાવ્યું છે. અહીં આદેશ નહિ પરંતુ આગમ શબ્દ હે જોઈએ એવો પંડિતજીનો મત છે. (આ) નામ પ્રકરણને આઠમા પાકના ૨૮મા સૂત્ર ઉપરની વૃત્તિમાં સામાને બદલે મરવા (અર્થાત જ્ઞાનત્યાત ) લેવું જોઈએ. (ઈ) આખ્યાત પ્રકરણના નવમા પાદન ૩૭માં સૂવ ઉપરની વૃત્તિમાં સુરિ અસમાનજીને બદલે અર્જુન સમાન એવો પાઠ હોવો જોઈએ. (ઈ) આખ્યાત પ્રકરણના દસમાં પાદના ૪૦મા સૂત્ર ઉપરની વૃત્તિમ શ્રતઃ | dબાન એવાં બે ઉદાહરણને બદલે અગ્રત અને બાથા: એવું વૈકલ્પિક ૨૫ હેવું જોઈએ. (૫) મલયગિરિના સૂત્રપાઠમાં પ્રાપ્ત ન થતાં પરંતુ વૃત્તિમાં નિર્દિષ્ટ એવાં સૂત્રો તરફ પંડિતજીએ આપણું ધ્યાન દેવું છે. (અ) નામ પ્રકરણના બીજા પાદના પાંચમા સૂત્ર ખેં- જ્ઞનરો વિષે પંડિતજી જણાવે છે કે આ સૂત્ર હસ્તપ્રતોમાં નથી પરંતુ વૃત્તિમાંની ચર્ચા ઉપરથી તેનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. (આ) નામ પ્રકરણના ત્રીજા પાદનું પંદરમું સૂત્ર નિ : હસ્તપ્રતોમાં મળતું નથી પરંતુ આ સૂત્ર પછીના સત્તરમા અને ઓગણીસમા સુત્ર ઉપરની વૃત્તિમાં તેને નિર્દેશ મળે છે તેથી તે આવશ્યક છે. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન અને મલયગિરિશબ્દાનુશાસન પંડિતજીની આવી સૂકમેક્ષિકાનાં અનેક ઉદાહરણ આપી શકાય વ્યાકરણના પ્રાચીન અને અપ્રસિદ્ધ ગ્રંથોનાં શાસ્ત્રીય સંપાદનમાં મલયગિરિના શબ્દાનુશાસનનું આ સંપાદન મહત્ત્વનું સ્થાન ધરાવે છે. આ સંપાદનની બીજી ત્રણ વિશિષ્ટતાઓ તરફ આપણું ધ્યાન જાય છે–એક છે આ પુસ્તકની વિસ્તૃત પ્રસ્તાવના; બીજી વિશિષ્ટતા છે તેને અંતે પંડિતજીએ આપેલાં તુલનાત્મક પરિશિષ્ટો અને ત્રીજી વિશિષ્ટતા છે વ્યાકરણસૂત્રસચિ. પ્રસ્તાવનામાં પંડિતજીએ અનેક ઉપયોગી બાબતોની ચર્ચા કરી છે. હસ્તપ્રતોના પાઠની શુદ્ધિ, ગ્રંથપાતનું પુનર્નિર્માણ, પ્રાચીન વયાકરણના કાર્ય સાથે તુલના કરીને શુદ્ધ પાઠને નિશ્ચય, આવી બધી પ્રાથમિક આવશ્યક્તાઓ પંડિતજીએ પૂરી કરી છે. જૈન વયાકરણને સંક્ષેપમાં ઉલ્લેખ કરીને મલયગિરિનાં જીવન, સમય અને કૃતિઓની ચર્ચા તેમણે કરી છે. પ્રબંધામાં મલયગિરિના નામ માત્રને ઉલેખ હેવાથી શબ્દાનુશાસનમાં પ્રાપ્ત થતા અને આપણે જેને અગાઉ નિદેશ કર્યો છે તે ઉદાહરણ સત્ વતન કુમારપત્ર: 2 ઉપરથી મલયગિરિને કુમારપાલના સમકાલિક ઠરાવીને તથા કુમારપાલના વિજયો અંગે ઉત્કીર્ણ લેખોને આધાર લઈને બારમા સૈકાના ઉત્તરાર્ધમાં કુમારપાલ અને મલયગિરિના સમયને નિશ્ચય તેમણે કર્યો છે. પંડિતજીએ મલયગિરિના સંન્યાસ, જૈનધર્મદીક્ષા અને તેના ગ૭ વિષે પણ ચર્ચા કરી છે. મલયગિરિએ તેમની આગમવૃત્તિઓમાં વાપરેલા અને સંસ્કૃત રૂપાન્તર કરીને રજૂ કરેલા કેટલાક સ્થાનિક શબ્દો વિષે પંડિતજીએ ચર્ચા કરી છે અને આ શબ્દનાં પ્રચાર સ્થાન સૌરાષ્ટ્રમાં હેઈને મલયગિરિના સૌરાષ્ટ્રનિવાસની પણ તેમણે કલ્પના કરી છે. પ્રસ્તાવનામાં મલયગિરિની, નવ આગામે ઉપરની વૃત્તિઓની વ્યાખ્યાનપદ્ધતિની પણ વિસ્તૃત ચર્ચા પંડિતજીએ કરી છે. વૃત્તિઓમાં વ્યાકરણકાર્ય માટે મલયગિરિએ પિતાના શબ્દાનુશાસનને જ ઉપયોગ કર્યો છે તે પંડિતજીએ વિગતો આપીને દર્શાવ્યું છે. ચાર્જ અને શાકટયન પરંપરાઓને સમક્ષ રાખીને રચાયેલા મલયગિરિના શબ્દાનુશાસનની યોજના, વિષય નિર્દેશ અને નિરુપણુપદ્ધતિને પંડિતજીએ સમજાવ્યાં છે. આ બે પરંપરાથી જુદા પડીને મૌલિકતા દર્શાવવાના મલયગિરિના પ્રયત્નોને પણ પંડિતજીએ સમજાવ્યા છે. એક તરફ શાકટાયન સાથે અને બીજી તરફ સિદ્ધહેમ સાથે મલયગિરિના શબ્દાનુશાસનની તુલના કરીને તેના ઉપરના આ પ્રાચીન જૈન વ્યાકરણ પરંપરાના ઋણને તેમણે વિસ્તારથી દર્શાવ્યું છે. અંતે પંડિતજીએ કલ્પના કરી છે કે મલયગિરિએ કોઈક પ્રાકૃત વ્યાકરણ પણ રચ્યું હોવાનો સંભવ છે. પંડિતજીની વ્યાકરણ વિષયક વિદ્વત્તા અને પરિશ્રમને નિર્દેશ પ્રસ્થાને મળતાં દસ પરિશિમાંથી મળે છે. પ્રથમ અને અતિવિસ્તૃત પરિશિષ્ટમાં તેમણે મલયગિરિ, શાકટાયન, હેમચન્દ્ર, જેનેજ, કાતન્ન, ચાન્દ્ર અને પાણિનિનાં સૂત્રોની સચિ, ઘણે પરિશ્રમ લઈને રજુ કરી છે. પંડિતજીએ સૂત્રાક્ષરોને બદલે સૂવાંકે આપ્યા છે. એલ. ડી. ઈન્સ્ટિટયૂટ આ પરિશિષ્ટને સૂત્રાક્ષ અને અકે સાથે સ્વતંત્ર પુસ્તક તરીકે છપાવશે તે વ્યાકરણના અભ્યાસીઓને એક મહત્ત્વનું સાધન સહજપ્રાપ્ત બનશે. બીજા પરિશિષ્ટમાં મલયગિરિનાં સૂત્રોની અકારાદિ અનુક્રમથી સુચિ આપવામાં આવી છે. ત્રીજ પરિશિષ્ટ પંડિતજીના અથાક પરિશ્રમને ઉત્તમ નમૂનો છે. મલયગિરિએ પિતાના શબ્દાનુશાસનનાં સત્રોને તેમની પોતાની નવાગમ વૃત્તિઓમાં કયાં કયાં ઉપયોગ કર્યો છે તેની સચિ આ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વ જયદેવભાઈ શુકલ પરિશિષ્ટમાં આપવામાં આવી છે. વૃત્તિઓમાં વ્યાકરણનિક ચર્ચાના સંદર્ભમાં મલયગિરિએ કરેલા નિયમવિધાનને તેમણે સૂત્ર તરીકે શોધવાના પ્રયાસ કર્યા છે. આ પ્રયાસ માટે તેમણે પાણિનિ, ચન્દ્ર, શાકટાયન અને હેમચન્દ્રના કાર્યની પણ મદદ લીધી છે. આને પરિણામે કેટલીકવાર શબાનુશાસનમાં ન મળતા પણ વૃત્તિની વ્યાકરણચર્ચામાં સૂચવાયેલા કેઈક સૂરનિયમને તેમણે સમુદ્ધાર કર્યો છે. પરિશિષ્ટ ૪, ૫, ૬ અને ૭માં ઉણાદિસૂત્રનાં વૃત્તિથલો, પ્રાકૃત વ્યાકરણ સુત્રોનાં વૃતિસ્થલો, વાતિ કે અને પરિભાષાસૂત્રોની સૂચિ આપવામાં આવી છે. મલયગિરિના શબ્દાનુશાસનમાં ઉણાદિસૂત્રો પ્રાપ્ત થતાં ન લેવાથી વૃત્તિસ્થળ ઉપરથી તેમના અસ્તિત્વની કલ્પના પંડિતજીએ કરી છે. એવી જ રીતે પ્રાકૃત વ્યાકરણનાં સૂત્રો અંગેની કલ્પના કરવામાં આવી છે. આઠમા પરિશિષ્ટમાં શબ્દાનુશાસનમાં પ્રાપ્ત થતાં પઘોની અકારાદિ ક્રમથી સૂચિ આપવામાં આવી છે. આ બધાં પધોનાં સ્થળ અગાઉ મત્ર અને વૃત્તિના પાઠમાં દર્શાવવામાં આવ્યાં છે. નવમા પરિશિષ્ટમાં સૂત્રવૃત્તિમાં પ્રાપ્ત થતાં પરંતુ સૂત્રો તરીકે પ્રાપ્ત ન થતાં સૂત્રોની સચિ આપવામાં આવી છે અને દેશમાં પરિશિષ્ટમાં વિશેષનામોની સૂચિ પ્રાપ્ત થાય છે. મલયગિરિશબ્દાનુશાસનનું પંડિતજીનું શાસ્ત્રીય સંપાદન તેમના સૂક્ષ્મ વ્યાકરણઅભ્યાસ અને સંશોધનનું દ્યોતક છે. સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસનનો પંડિતજીને અભ્યાસ આજીવન અને અનન્ય હતો. શબ્દાનુશાસનનાં બધાં જ સૂત્રો અને અનેક સૂત્રો ઉપરની વૃત્તિ તેમને જિહવાગ્રે હતાં એટલું જ નહિ પરંતુ હૈમ ધાતુપાઠના ૨૨૦૦ ધાતુઓ તેમને તેમના કાશીના યશોવિજય પાઠશાળામાંના અભ્યાસકાળથી જિન્નાગ્રે હતાં. આ ધાતુ પાઠની તે રોજ આવૃત્તિ કરી જતા. તેમના આ શબ્દાનુશાસનના સક્ષમ અભ્યાસનું સુફળ, ગ્રંથનિર્માણ બોર્ડે ઈ. સ. ૧૯૭૮ અને ૧૯૮૧માં પ્રસિદ્ધ કરેલ સિદ્ધહેમચન્દ્રશબ્દાનુશાસનને લઘુત્તિ-સસૂત્ર ગુજરાતી અનુવાદ છે. આ મંથના સંસ્કૃત વ્યાકરણના વિભાગને અધ્યાય ૧ થી ૪ના એક ખંડમાં અને અધ્યાય ૫ થી ૭ના બીજા ખંડમાં એમ બે ખંડમાં પ્રકાશિત કરવામાં આવ્યો છે. પંડિતજીના જણાવ્યા પ્રમાણે આ બે ખંડો શબ્દાનુશાસનનાં મૂળ સત્રો અને લઘુત્તિના અનુવાદ રૂપે છે. બીજા ખંડને અંતે હૈમધાતપાઠને ધાત્વર્થ સાથે આપવામાં આવ્યું છે. તેમણે જણાવ્યું છે કે આ પુસ્તકમાં વિવેચનનું વિશેષ સ્થાન નથી અને સમગ્ર પુસ્તક વિવેચન રૂપે નથી. અનુવાદની યોજના પંડિતજીએ લઘુવત્તિના પાઠ પ્રમાણે કરી છે, તેથી હિંદી (૫. ૨. ૯૩) સૂત્રથી સૂચવાતા અને બૃહદવૃત્તિમાં સ્થાન પામેલા ૧૦૦૬ સૂત્રોવાળા ઉણાદિ પ્રકરણના વિભાગને, તે લઘુત્તિમાં ન હોવાથી આ પુસ્તકમાં સામેલ કર્યો નથી. પ્રથમ ખંડના પહેલા ચાર અધ્યાયોની વિષયયોજના એમના પ્રથમ ખંડના પ્રાસ્તાવિક વક્તવ્યમાં તેમણે આપી છે. પહેલાં ત્રણ સૂત્રોમાં હેમચન્દ્રાચાર્યનો શાસ્ત્રીય અભિગમ ધાર્મિક પરં: પરાથી કેવો મુક્ત હતો તે પંડિતજીએ દર્શાવ્યું છે. ના સૂત્ર ભારતીય દેવત્રિમૂર્તિ અને નિર્વાણનું વાચક છે; તે રીતે આ શબ્દાનુશાસન એકદેશીય નહિ પણ સાર્વદેશીય ગણાય. બીજ સૂત્ર સિદ્ધિ સહુવાના માં ઉલ્લેખાયેલા સ્યાદવાદ સિદ્ધાન્તના વિચાર પ્રમાણે તેમણે શબ્દને તેની લોકપ્રસિદ્ધ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન અને મલયગિર્શિદાનુશાસન સ્થિતિમાં નિત્ય અને વ્યાકરણકાર્ય વખતે અનિત્ય માન્ય છે. વાક્યપદીયના કથન રાજુ ચોમેોિપવર્ગ . (ર. ૨૩૩ અ) માં આ વિચાર પ્રાપ્ત થાય છે. પહેલાં ત્રણ સૂત્રો અંગે સ્પષ્ટતા કર્યા પછી પંડિતજીએ પહેલા ચાર અધ્યાયોને વિષયવિભાગ વિગત દર્શાવ્યા છે. વિષયવિભાગ દર્શાવતી વખતે પંડિતજીએ કેટલીક સાદી પરંતુ વ્યાકરણના અભ્યાસીને અન્યત્ર દુર્લભ બાબતો અંગે સ્પષ્ટતા કરી છે, જેમ કે વ્યંજન સંધિ, નામના પ્રકાર, વિભક્તિઓના અર્થો અને તેમના ઉપયોગ, સમાસમાં અને તદ્ધિતાન્ત પ્રયોગોમાં થતા અર્થના ફેરફારો પંડિતજીના સ્વભાવની સરળતા અને સ્પષ્ટ કથન તેમના આ ગ્રંથમાંના વ્યાખ્યાનમાં ઊતરી આવ્યાં છે. સંજ્ઞાપ્રકરણનાં સૂત્રોમાં પ્રાપ્ત થતી સંજ્ઞાઓ – સ્થાન, આસ્થ પ્રયત્ન, વગેરેને તેમણે સરળતાથી સમજાવ્યા છે. તમામ સંસ્કૃત પારિભાષિક શબ્દો અને ઉદાહરણોના અર્થો અને વ્યાખ્યાન તેમણે આપ્યાં છે. પરિણામે હેમશબ્દાનુશાસનમાં પ્રાપ્ત થતાં સંસકૃત ઉદાહરણોને આત્મસાત કરવાથી અભ્યાસીને શબ્દભંડોળરૂપી ખાને ખૂબ વધી જાય છે. ગણુને બોધ કરાવનારાં સૂત્ર સ્વરડચયમ્ (૧.૧.૩૦) અને રાડસા (૧.૧.૩૧)ને સમજાવતી વખતે સ્વરાદિગણના તેમજ ચાદિગણના બધા શબ્દોને તેમના અર્થો સાથે તેમણે રજૂ કર્યા છે. બ્રહવૃત્તિ કે ન્યાસમાં પ્રાપ્ત થતી વિશેષ ચર્ચા તેમણે ગ્રંથવિસ્તારમયથી રજૂ કરી નથી. પ્રથમ અધ્યાયના પ્રથમ પાટનાં સૂત્રોના હેમચન્ટે આપેલા ક્રમમાં તેમણે ફેરફાર સૂચવ્યો છે, કારણ કે સંજ્ઞાઓના ઉપયોગ પહેલાં તે તે સંજ્ઞાઓનું વિધાન કરવું જોઈએ એવું તેમનું માનવું છે. શબ્દાનુશાસનના બીજ ખંડને અંતે હૈમધાતુપાઠના બધા ધાતુઓને તેમના અર્થો સાથે દર્શાવ્યા છે. આ અત્યંત આવકાર્ય છે. બીજી વ્યાકરણ પરંપરાઓના ધાતુપાઠોને પણ આવી રીતે અથવા લઘુ પુસ્તિકાઓ રૂપે પ્રકાશિત કરવા જોઈએ. વ્યાકરણશાસ્ત્ર જેવા કઠિન વિષયને, ગુરુની મદદ વિના અભ્યાસ, આ બે ગ્રંથેથી થઈ શકે છે. પંડિતજીના આ બે ગ્રંથે ઉપરથી હેમશબ્દાનુશાસનના વિશેષ અભ્યાસ અંગે ઉત્સાહ પ્રાપ્ત થાય છે. આ અંગે એક-બે બાબતો સૂચવવાની ઈચ્છા થાય છે. (૧) બહવૃત્તિ અને ન્યાસમાં એવા અસંખ્ય શબ્દો મળે છે જે પ્રશિષ્ટ સંસ્કૃત સાહિત્યમાં પ્રાપ્ત થતા નથી. ઈસુની દસમી સદી પછીના જૈન સંસ્કૃત સાહિત્યમાં મળતા આવા શબ્દને ગુજરાતી અથવા અંગ્રેજી અનુવાદ સાથે કેષ પ્રસિદ્ધ થ જોઈએ. (૨) બહવૃત્તિઓ અને ન્યાસે પ્રાચીન વૈયાકરણના જે ઉલ્લેખો સાચવી રાખ્યા છે તેમની વ્યવસ્થિત સૂચિ થવી જોઈએ. (૩) હેમચન્દ્રાચાર્યની બહવૃત્તિને ગુજરાતી અનુવાદ થ જોઈએ અને એમાં ન્યાસને આવશ્યક ઉપયોગ થવો જોઈએ. હેમશબ્દાનુશાસનમાં પ્રાપ્ત થતા વિસ્પષ્ટ અને સંપૂર્ણ વ્યાકરણને આદર્શ પંડિતજીના અનુવાદ ગ્રંથમાંથી બરાબર સ્પષ્ટ થાય છે એ આનંદની બાબત છે, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાકૃત વ્યાકરણ કે, આર. ચન્દ્ર વિદ્યાવ્યસની પૂ. પંડિતજીએ જીવનના અંત સુધી એક તેજસ્વી વિદ્યાથી, કુશળ અધ્યાપક અને સંશોધક તરીકે કામગીરી બજાવી છે. તેઓ જૈન ધર્મ અને જૈન આગમોના પ્રકાંડ વિદ્વાન હતા. વિદ્યાના અન્ય ક્ષેત્રોમાં પણ તેઓએ ઘણું કામ કર્યું છે. પ્રાકૃત-વ્યાકરણના ક્ષેત્રમાં તેમનું જે પ્રદાન છે તે વિષે અહીં કંઈક કહેવાનું છે એટલે આ વ્યાખ્યાન તેટલા પૂરતું જ મર્યાદિત છે. પૂ. પંડિતજીએ ઈ. સ. ૧૯૧૧ થી ૧૯૭૮ સુધી આપણને પ્રાકૃત-વ્યાકરણના જે ત્રણ ગ્રંથ આપ્યા તે આ પ્રમાણે છે : ૧. પ્રાકૃત માર્ગો પદેશિકા (૧૯૧૧) ૨. પ્રાકૃત-વ્યાકરણ (૧૯૨૫) ૩. હેમચંદ્રવિરચિત સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન લઘુવૃત્તિ, અધ્યાય ૮ (૧૯૭૮) આ ત્રણેય ગ્રંથની જે જે વિશિષ્ટતાઓ તરી આવે છે તે આપની સમક્ષ રજૂ કરવા ૨ા લઉં છું. ૧. પ્રાકૃત માર્ગો પદેશિકા (૧૯૨૧) પૂજ્ય પંડિતજીએ નવા જમાનાના વિદ્યાર્થીઓને પ્રાકૃતભાષાનું જ્ઞાન આધુનિક પદ્ધતિથી સરળ રીતે પહોંચાડવા માટે જે પહેલ કરી છે તે ખરેખર અભિનંદનીય છે. સંસ્કૃત ભાષા શીખવા માટે આધુનિક પદ્ધતિથી લખાયેલા અનેક ગ્રંથે પહેલાંથી ઉપલબ્ધ હતા પરંતુ પ્રાકૃત ભાષા શીખવા માટે એવો કઈ ગ્રંથ મળતો નહોતો. આ ઊણપને લીધે પંડિતજી પ્રાકૃત ભાષા વિષે કંઈક નવીન પદ્ધતિથી લખવા માટે પ્રેરાયા. બનારસમાં પંડિતજી એક પ્રતિભાશાળી વિદ્યાર્થી તરીકે પ્રસિદ્ધિ પામ્યા હતા અને તેથી એક સંશાધન છાત્ર તરીકે કાર્ય કરીને પ્રાકૃત માર્ગોપદેશિકા' નામના ગ્રંથની તેઓએ રચના કરી. આ ગ્રંથ ઈ. સ. ૧૯૧૧માં પ્રકાશિત થયો. એની ભાષા ગુજરાતી છે પણ લિપિ દેવનાગરી છે. તેની વિશેષતા એ છે કે એક પણ સંસ્કૃત સૂત્ર આપ્યા વગર સ્વતંત્ર રીતે પ્રાકૃત ભાષાને વ્યાકરણ વ્યવસ્થિત રીતે સમજાવવામાં આવ્યું છે. વળી અનવાદ માટે પ્રાત અને રાજરાતીના જુદા જુદા ફકરાઓ આપેલા છે. અમુક જગ્યાએ કસોટી માટે પ્રશ્નો પણ આપ્યા છે. દરેક પાઠમાં જુદા જુદા નામિક શબ્દ, વિશેષણ અને ક્રિયાના ધાતુઓ ગુજરાતી અર્થ સાથે આપ્યા છે જેથી વિદ્યાથીની શબ્દસમૃદ્ધિ ઉત્તરોત્તર વધતી રહે. ગ્રંથના અંતમાં અકારાદિ ક્રમથી લગભગ ૨૦૦૦ શબ્દની યાદી ગુજરાતી અર્થ સાથે આપવામાં આવી છે. આ ગ્રંથ પ્રકાશિત થયે તે પહેલાં આધુનિક ભારતીય ભાષામાં પ્રાકૃત વ્યાકરણને લગતો એકેય ગ્રંથ પ્રકાશમાં આવ્યો હોય એમ જાણવા મળ્યું નથી. એની ઉપયોગિતા એટલી બધી પુરવાર થઈ કે આ ગ્રંથની પાંચ ગુજરાતી આવૃત્તિઓ અને એક હિન્દી આવૃત્તિ પ્રકાશિત થઈ ચૂકી છે. પ્રથમ આવૃત્તિમાં માત્ર ૧૭૫ પાનાં હતાં જ્યારે ચોથી આવૃત્તિ ૩૮૮ પાનાંવાળી છે જેમાં બધી બાબતે વિષે વિસ્તારપૂર્વક ચર્ચા કરવામાં આવી છે. એમાં દરેક ઉદાહરણની સાથે સંસ્કૃત રૂપે જોડવામાં આવ્યાં છે અને પાદટિપ્પણમાંસ કૃત અને નવીન ભાષાઓ સાથે સરખામણું કરવામાં Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧ પ્રાકૃત વ્યાકરણા આવી છે. ગ્રંથના અંતમાં પ્રાકૃત શબ્દ-કોષ જુદા જુદા મથાળા હેઠળ આપવામાં આવ્યા છે અને પ્રાકૃત શબ્દોની સામે સંસ્કૃત શબ્દ પણ આપ્યાં છે. આ ચેાથી આવૃત્તિની ભૂમિકામાં અર્ધમાગધીભાષા, લેાકભાષા, વિભાષા, ભાષાના પ્રાંતિક ભેટ્ટા, અવેસ્તાની ભાષા વગેરે સાથે પ્રાકૃત ભાષાની તુલનાત્મક દૃષ્ટિએ ચર્ચા કરવામાં આવી છે. જે ભાષાના વિદ્યાર્થી એ માટે બહુ ઉપયોગી ગણાય. પાંચમી આવૃત્તિની એક વિશેષતા એ છે કે એમાં પાકિટપ્પામાં હેમચન્દ્રના મૂળ સૂત્રેા ટાંકવામાં આવ્યા છે. સંસ્કૃત જાણનાર હેમચન્દ્રના મૂળ વ્યાકરણ ગ્રંથથી પ્રાકૃતના અભ્યાસ કરી શકે છે પરંતુ સંસ્કૃતભાષાથી અનભિજ્ઞ આજને વિદ્યાથી ‘પ્રાકૃત માર્ગાપદેશિકા'ના માધ્યમથી પ્રાકૃતનું સમ્પૂર્ણ પણે અધ્યયન કરી શકે છે. એ આ ગ્રંથની વિશેષ ઉપયોગિતા છે. આમ માહિતીસભર આ ગ્રંથ અનેક વ્યાકરણા પ્રસિદ્ધ થયાં છે પણ ગૌણુ થવા પામી નથી અને આજે અયેાગ્ય નહી ગણાય. આજે પણ બહુ ઉપયાગી છે. આજ સુધી પ્રાકૃત ભાષાના પંડિતજીના ગ્રંથની જે વિશેષતાએ છે તે કાઈ પણ રીતે પણું એમને! આ ગ્રંથ સર્વોપરિતા ધરાવે છે એમ કહેવુ ૨. પ્રાકૃત વ્યાકરણ (૧૯૨૫) પ્રાકૃત માર્ગાપદેશિકા'ની રચનાના ૧૪ વર્ષ પછી પડિતજીના બીજો ગ્રંથ પ્રાકૃત વ્યાકરણ' પ્રકાશિત થયા. આઝાદીની લડત દરમ્યાન આપણી સંસ્કૃતિના ગૌરવસમા સંસ્કૃત, પાલિ, પ્રાકૃત વગેરે પ્રાચીન સાહિત્યને પ્રકાશમાં લાવવા માટે ગૂજરાત વિદ્યાપીઠના એક અંગ રૂપે પુરાતત્ત્વ માઁદિરે મહત્ત્વપૂર્ણ સાંસ્કૃતિક પ્રવૃત્તિ શરૂ કરી. એમાં અનેક મહારથીએ ભેગા મળીને કામ કરવા લાગ્યા. બધાની પ્રેરણાથી પડિતજી લ`કા જઈ પાલિ ભાષા અને સાહિત્યનુ` અધ્યયન કરી આવ્યા. ત્યાર પછી પાલિ-પ્રાકૃત ભાષા અને સાહિત્યને પ્રકાશમાં લાવવાની ચાજના હેઠળ તેઓએ ‘પ્રાકૃત વ્યાકરણ' નામના આ ગ્રંથ તૈયાર કર્યાં અને ઈ. સ. ૧૯૨૫માં એનું પ્રકાશન થયું. 'પ્રાકૃત માર્ગાપદેશિકા' નામના ગ્રંથ વિદ્યાથીએ માટે લખાયા હતા જ્યારે પ્રાકૃત વ્યાકરણુ’ વિદ્યાર્થી એ, અધ્યાપકા અને સંશાધકા માટે લખાયુ' છે. એમાં બધી પ્રાકૃત ભાષાઓની સાથે સાથે પાલિ અને અપભ્રંશભાષાનું તુલનાત્મક અધ્યયન રજૂ કરવામાં આવ્યું છે. ગ્રંથ ગુજરાતી ભાષામાં લખાયા હૈાવા છતાં એની લિપિ દેવનાગરી છે જેથી ગુજરાત સિવાયના લેાકેાને પણ એ ઉપયાગી થઈ શકે. પ્રારંભમાં ૫૦ પાનનાં પરિચય હેઠળ વૈદિક રૂપે અને પાલિ રૂપો સાથે પ્રાકૃત રૂપોની તુલના કરવામાં આવી છે. અમુક ધાત્વાદેશો ધ્વનિપરિવર્તનના નિયમેાથી બદલાયેલા રૂપો જ છે એમ સ્પષ્ટ સમજૂતી આપવામાં આવી છે, જેમ કે એલિ' અને ‘સહુ' ને ‘આલિ' અને ‘સૂમ'ના આદેશ માનવાને બદલે તેમની ઉત્પત્તિ ‘આવલી' અને ‘લક્ષ્ણ'માંથી માનવી જોઈએ. અ માગધી ભાષાને અર્ધમાગધી કહેવી કે માત્ર પ્રાકૃત જ કહેવી એની ચર્ચા બહુ વિસ્તારથી અશાકના શિલાલેખે, પાલિ, પ્રાચીન જૈન અને જૈનેતર પ્રાકૃત પ્રથામાંથી ઉદાહરણૢા આપીને કરવામાં આવી છે. આ નવીન પરિભાષાને લીધે પ્રાકૃત માર્ગાદેશિકાની પાંચમી આવૃત્તિમાં જયાં જયાં અર્ધમાગધી શબ્દ વપરાયા છે, ત્યાં ત્યાં પ્રાકૃત શબ્દ મૂકવામાં આવ્યા છે. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કે, આર. ચંદ્ર આ. હેમચંદ્રના પ્રાકૃત વ્યાકરણને આધાર લઈને જ આ ગ્રંથ લખાય છે પણ વિષયોનો ક્રમ જુદી રીતે ગોઠવાયો છે. બધી પ્રાકૃત ભાષાઓનું જુદું જુદું વ્યાકરણ આપવાને બદલે બધી ભાષાઓનું તુલનાત્મક અધ્યયન રજૂ કરવામાં આવ્યું છે. અવનિ પરિવર્તનના મુદ્દાઓ અકારાદિ ક્રમ પ્રમાણે ગોઠવ્યા છે. રૂપોની ચર્ચા સામાન્ય અને વિશેષ તથા નિયમિત અને અનિયમિત શીર્ષક હેઠળ કરવામાં આવી છે. અપવાદ રૂપે આવતાં અમુક રૂપો પ્રાચીન ગ્રંથમાંથી ઉદાહરણ આપી અને જરૂર પ્રમાણે વૈદિક રૂપો સાથે સરખામણું કરીને સમજાવવામાં આવ્યા છે. આધુનિક ભારતીય ભાષામાં તુલનાત્મક પદ્ધતિથી લખાયેલા પ્રાકૃત વ્યાકરણના આ ગ્રંથનું સ્થાન સૌ પ્રથમ ગણાય છે, જે ગ્રંથ આજથી ૫૦ વર્ષ પહેલાં પ્રકાશિત થયો હતો. પિશલનું પ્રાકૃત વ્યાકરણ એના કરતાં ૨૫ વર્ષ પહેલાં (ઈ. સ. ૧૯૦૦) બહાર પડેલું પણ તે જેમન ભાષામાં હતું અને એની અંગ્રેજી અને હિંદી આવૃત્તિઓ તો બહુ મેડી પ્રકાશમાં આવી છે. પિશલનું વ્યાકરણ એક સંદર્ભ ગ્રંથ તરીકે વધારે ઉપયોગી છે જયારે પંડિતજીને વ્યાકરણ ગ્રંથ વિદ્યાર્થીઓ માટે વધારે ઉપયોગી છે. પંડિતજીના ગ્રંથમાં પાલિ અને અપભ્રંશને પણ સમાવેશ થયો છે જયારે પિશલના ગ્રંથમાં આ બંને ભાષાઓ વિશે કંઈ વિશેષ ચર્ચા કરાઈ નથી. સુકુમાર સેન અને ડી. સી. સરકારના તુલનાત્મક પ્રાકૃત વ્યાકરણના ગ્રંથે અંગ્રેજીમાં અને હિંદીમાં પ્રકાશિત થયા છે પણુ પંડિતજીના ગ્રંથનું સ્થાન પ્રથમ હેવાને કારણે આપણે એમ કહી શકીએ કે પ્રાકૃત વ્યાકરણના ક્ષેત્રમાં એમનું પ્રદાન આગવું છે. ૩. હેમચંદ્ર વિરચિત સિદ્ધહેમ શબ્દાનુશાસન-લઘુવૃત્તિ અધ્યાય-૮ (૧૯૭૮) પૂ. પંડિતજી દ્વારા રચાયેલ આ ગ્રંથ પહેલા હેમચન્દ્રના પ્રાકૃત વ્યાકરણ ઉપર જે જે વિદ્વાનોએ ખેડાણ કર્યું છે તે આ પ્રમાણે છે : કૃણુ શાસ્ત્રી મહાબલેશ્વર (૧૮૭૩), પિશલ (જર્મન ભાષામાં ૧૮૭૭), એસ. પી. પંડિત (અંગ્રેજીમાં ૧૯૦૦), પી. એલ. વૈદ્ય (અંગ્રેજીમાં ૧૯૨૮, ૧૯૩૬ અને ૧૯૫૮). એમાંના અમુક ગ્રંથ ટિપ્પણ વગર અને અમુક ટિપણે સાથે પ્રકાશિત થયા છે. શાસ્ત્રી નર્મદાશંકર દામોદરભાઈને ગ્રંથ મૂળ તથા દ્રઢિકા નામની સંસ્કૃત ટીકાના ગુજરાતી અનુવાદ સાથે ( ૧૯૦૩ ) મળે છે. ઉપાધ્યાય ચારચંદજી મહારાજ (અલબત્ત દ્રઢિકાને આધાર લઈને હિંદી અનુવાદ સાથે બે ભાગમાં, ૧૯૬૪ અને ૧૯૬૮)નાં ગ્રંથમાં ઉદાહણ રૂપે આપેલ દરેક શબ્દ અને રૂપને જેમ દ્રઢિકામાં છે તે જ રીતે સિદ્ધ કરવાના નિયમો આપી સમજૂતી આપવામાં આવી છે. હેમચંદ્રના પ્રાકૃત વ્યાકરણના માત્ર અપભ્રંશ વિભાગ ઉપર જે જે વિદ્વાનોએ ગ્રંથ લખ્યા છે તે આ પ્રમાણે છે: કે. કા. શાસ્ત્રી (૧૯૪૯, ૧૯૬૦), હ. ચૂ. ભાયાણું (૧૯૬૦). આ બન્ને ગ્રંથ ગુજરાતી અનુવાદ સાથે પ્રકટ થયા છે. શાલિગ્રામ ઉપાધ્યાયને ગ્રંથ માત્ર હિંદી અનુવાદ સાથે (૧૯૬૫) પ્રકટ થયો છે. શાસ્ત્રીજીએ ગુજરાતી અનુવાદની સાથે સાથે ઉદાહરણ રૂપે આવતા દોહા અને પદ્યને દરેક શબ્દનું સંસ્કૃત રૂપાન્તર અને અમુક જગ્યાએ સમજૂતી પણ આપી છે. ભાયાણીસાહેબે પ્રારંભમાં અપભ્રંશ ભાષા અને સાહિત્યના સ્વરૂપ વિશે અને હેમચંદ્રીય અપભ્રંશ ભાષાની વિશિષ્ટતાઓ વિશે માહિતી આપી છે. તેઓએ અંતમાં મહત્ત્વપૂર્ણ ટિપ્પણે આપ્યાં છે જેમાં ભાષાશાસ્ત્રીય દષ્ટિએ શબ્દ અને રૂપોની વ્યુત્પત્તિની ચર્ચા કરી છે. વૈદિક અને અર્વાચીન ભાષાએનાં રૂપો સાથે સરખામણી કરી છે અને પદ્યમાં વપરાયેલ છે દેશની સમજૂતી પણ આપી છે, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાકૃત વ્યાકરણે આ ત્રણેય ગ્રંથમાં શબ્દસૂર્ચા અને અમુક ગ્રંથમાં મૂળ સ અને ઉદાહરણ રૂપે આવતાં પોની અનુક્રમણિકા પણ આપવામાં આવી છે. પંડિતજી દ્વારા સંપાદિત ગ્રંથની વિશિષ્ટતાઓ પંડિતજીને આ ગ્રંથનું કાર્ય યુનિવર્સિટી ગ્રંથ નિર્માણ બોર્ડ દ્વારા આપવામાં આવ્યું હતું એટલે આ એક ઉચ્ચ કોટિનું કાર્ય ગણાય. ગ્રંથનું પ્રકાશન ઈ. સ. ૧૯૭૮માં થયું છે. આ ગ્રંથની જે વિશિષ્ટતાએ જણાઈ આવે છે તે આ પ્રમાણે છે : (૧) પંડિતજી દ્વારા પ્રાકૃત વ્યાકરણના મૂળ સૂત્રોની સંધિને વિચ્છેદ કરવામાં આવ્યો છે જેથી સત્રા સરલતાથી સમજી શકાય. આ એક નેાંધવા જેવી બાબત છે અને પંડિતજી એ સો પ્રથમ એવી પહેલ કરી છે. નીચે થોડાંક ઉદાહરણે જઈએ. સૂત્ર-સંખ્યા સંધિયુક્ત સંધિ વગર ૮-૧-૬ ન સુવર્ણસ્યા છે ન ઈ ઉ (યુ) વ સ્ય અસ્તે ! ૮-૧-૨૩ મોનુસ્વાર ! મ: અનુસ્વાર: ૮-૧-૨૬ વક્રાધાન્તઃ | વિકાદો અન્તઃ | ૮-૨-૧૪૬ કસ્તુમણ-દુઆણઃ | કઃ તુમ્ -અતૂહા-દુઆણુ ! ૮-૩-૫૩ ઈશુમમામા ઈસુમ–અમ-આમાં ! ૮-૪-૨ કથર્વજજરપજજ રોપાલ ... કથેઃ વજજર–પજજર–ઉપાલ:...! ૮-૪-૧૨ નિદ્રાતે રોહીધે નિદ્રાતઃ આહીર-ઉધે ! (૨) પંડિતજીએ મૂળ સૂત્રો ઉપરની પવૃત્તિ તો નથી આપી પણ તેને અને ઉદાહરણ રૂપે અપાયેલાં પદ્યોને ગુજરાતી અનુવાદ આપ્યા છે. મૂળ ગ્રંથમાં પ્રાકૃત શબદ અને રૂપે સાથે જ્યાં જ્યાં સંસ્કૃત રૂપાંતર નથી મળતાં ત્યાં ત્યાં સંત રૂપાન્તર અને ગુજરાતી અનુવાદ પણ આપ્યાં છે, જેમ કે જવ, તાવ માટે યાવત, તાવત ; જસો, તમો માટે યશસૂ, તમસ; ગામં વસામિ નયર ન જમિ માટે ગ્રામ વસામિ, નગર ન ચામિ વગેરે. ગુજરાતી અનુવાદ આપવાથી આજકાલનો વિદ્યાથી સરળતાથી સમજી શકશે. આ હેતુ સિદ્ધ થયો છે. (૩) અમુક જગ્યાએ પ્રાકૃત શબ્દોની સરખામણીમાં સંસ્કૃત શબ્દો આપવાથી મોટો લાભ થશે છે. જેમ કે સૂત્ર ૮-૧-૨૪ “વા સ્વરે મચ્ચ” પ્રમાણે અન્ય “મ્' અથવા અન્ય વ્યંજનને અનુસ્વાર થાય છે. અહીં અનેક ઉદાહરણોમાં બે ઉદાહરણ “ઈK ” અને “ઈચં'ના છે પણ સરખામણું રૂપે સંસ્કૃત રૂપના અભાવમાં સ્પષ્ટ સમજૂતી થતી નથી. અન્ય વિદ્વાનેએ અને પિશલે પણ એમના માટે સંસ્કૃત રૂપે આયા નથી; જયારે પંડિતજીએ પ્રથમ રૂ૫ માટે “ધક” અને બીજા માટે ધકક' આપીને આપણાં જ્ઞાનમાં વધારો કર્યો છે અને પ્રાકૃત રૂપોની ઉ૫ત્તિને સ્પષ્ટ ખ્યાલ આપ્યા છે. આ બન્ને સંસકત શબ્દોનો ઉપયોગ વેદ સુધી જ મર્યાદિત રહ્યો છે અને પછીના સંસ્કૃત સાહિત્યમાં એમને પ્રયોગ થયો નથી. એના ઉપરથી સ્પષ્ટ જાણી શકાય કે પ્રાકૃત ભાષાની ઉત્પત્તિ શિષ્ટ સંસ્કૃતમાંથી થઈ હોય એમ લાગતું નથી. (૪) મૂળ ગ્રંથમાં આવતા ઉદાહરણે વિષે જ્યાં જ્યાં જરૂરી લાગ્યું ત્યાં ત્યાં પંડિતજીએ સમજૂતી આપી છે અને આલોચના પણ કરી છે. જેમ કે સૂત્ર નં. ૮-૧-૧૭ પ્રમાણે “ક્ષુબ્ધ” ના Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કે. આર. ચન્દ્ર - અન્ય વ્યંજન “ધુને “હા ” થાય છે એમ કહેવામાં આવ્યું છે પણ પંડિતજીએ “ક્ષુધા ”ના ધા માંથી જ સીધો “હા” થાય છે એવી નેંધ આપી છે. મૂળ સૂત્ર ૮-૧-૬૭ પ્રમાણે અમુક શબ્દમાં “આને “અ” થાય છે અને ઉદાહરણ રૂપે “કુમાર” અને “કુમારે ” આપવામાં આવ્યા છે. પરંતુ પંડિતજીએ “શબ્દનાકર'માં “કુમર' શબ્દ પણ મળે છે એવી સ્પષ્ટતા કરી છે. (૫) કોઈક જગ્યાએ મૂળ સૂત્રની વૃત્તિમાં કંઈક રહી જવા પામ્યું હોય તે પંડિતજીએ તેની પૂર્તિ પણ કરી છે. જેમ કે સંબંધક ભૂતકૃદંત (સૂત્ર ૮-૨-૧૪૬)ના પ્રત્યયોમાં “ઉઆણુ” પ્રત્યય રહી ગયો છે. જો કે ઉદાહરણોમાં તો “ઉઆણ વાળા રૂપ અપાયાં છે. એવા સ્થળે પંડિતજીએ ગુજરાતી અનુવાદમાં “ઉઆણ” પ્રત્યય આપીને ક્ષતિની પૂર્તિ કરી છે. (૬) પંડિતજીએ અમુક પાઠ સુધારાઓ પણ સૂચવ્યા છે. સત્ર નં. ૮-૪-૬૦ પ્રમાણે “ભૂ” ધાતુને બદલે “હે ', “હુર” અને “હવ” એવા ત્રણ વિકલ્પો આપવામાં આવ્યા છે. એની સાથે સાથે “ભૂતમ 'ના બદલામાં “ભાં' પ્રાકૃત રૂપ આપવામાં આવ્યું છે અને “ભત્ત'ના પાઠાંતર રૂપે “ભુત્ત' રૂપ મળે છે. એના વિષે પંડિતજીએ એમ સૂચવ્યું છે કે “ભુત્તને પાઠ જ સ્વીકાર્ય છે જ્યારે “ભાં' પાઠાંતરમાં મુકાવું જોઈએ. ધ્વનિ પરિવર્તનના નિયમોની દષ્ટિએ પંડિતજીનું સૂચન ખરેખર સાચું છે, કારણ કે દીર્ધ સ્વરને હસ્વ કરવામાં આવે તો એ પછીનો અસંયુક્ત મધ્યવતી વ્યંજન ધિત્વમાં પરિણમે છે. (૭) પંડિતજીએ અમુક શબ્દો માટે જુદા પાઠોની સંભાવના કરી છે જેમ કે “ધુડ% (૪-૪૪૪૨) માટે ‘ધડુક્ક’=ધાંધલ, ધમાલ જે યોગ્ય લાગે છે. (૮) ધાત્વાદેશ રૂપે આવતા અમુક શબ્દ દવનિ પરિવર્તનના નિયમોથી બદલાયેલાં તદભવ રૂપ જ છે એમ પંડિતજીએ સમજૂતી આપી છે, જેમ કે સૂત્ર નં. ૮-૪-૨ પ્રમાણે “કદ્' ના આદેશ રૂપે આપેલા વજજર અને પજજરની ઉત્પત્તિ “વ્યુચર' (વિ-ઉત-ચર) અને “પ્રાચર (પ્ર-ઉત-ચર)માંથી થઈ હોય એમ દર્શાવ્યું છે. “સંઘ”ની ઉત્પત્તિ “સંખ્યા માંથી (અઘોષ વ્યંજનનું ઘેષમાં પરિવર્તન) અને “ચવ'ની વચ માંથી (વર્ણ વ્યત્યયના નિયમ પ્રમાણે) બતાવી છે. સૂત્ર નં. ૮-૪-૪ પ્રમાણે જુગુસૂ'ના આદેશ રૂપે “ગુણ” આપેલ છે; તેની ઉત્પત્તિ “ જુગુપ્સા” માટે વપરાતા “ધૂણું 'માંથી સમજાવી છે, ઘૂ , ઋ=ી અને ઘ=ઝ, (“ક” વર્ગનું “ચ” વર્ગમાં પરિવર્તન). સૂત્ર નં. ૮-૪-૧૦ ના “પિબને આદેશ “પિજજ' માનવાને બદલે ચતુર્થ ગણુ “પી”ના પીયતે” રૂપ પરથી ઉત્પત્તિ માનવી જોઈએ. સૂત્ર નં. ૮-૪-૧૩ પ્રમાણે “આઈઘુ ”ને “આઘે ને આદેશ માનવાને બદલે એની ઉત્પત્તિ “આજિવ્રમાંથી માનવી જોઈએ (જુઓ પિશલ ૨૮૭ અને ૪૮૩). (૯) અપભ્રંશ પદમાં (સૂત્ર નં. ૮-૪-૩૯૫) આવતા બે શબ્દો “ઝલકુક” અને “અદ્ભડવની ઉત્પત્તિ “જવલિતક” અને “અભ્યટવ્રજ” (અભિ-અટ-વ્રજ)માંથી દર્શાવી છે. (૧૦) અમુક અર્વાચીન શબ્દને વિકાસ પણ સમજાવવામાં આવ્યો છે, જેમ કે ખાંગું (ગુજરાતી)ની ખડૂગ (ખગ્ન-ખંગ-ખાંગ)માંથી અને બિટ્ટી, બેટ્ટીની પુત્રી (પુત્રી-પિત્તી-વિત્તી-બિટ્ટી-બેટ્ટી)માંથી. બાગડોરની વગ અને દોર (વર્ગ-વગ–વાગ–બાગ અને દેર–ઠેર)માંથી. જો કે અર્થમાં ફેરફાર થયે જ છે. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રાકૃત વ્યાકરણા (૧૧) મરાઠી ‘ કુડે', મારવાડી ‘અડે', ‘કઠે', પાખી થે' ‘કિત્થ' શબ્દો ‘એત્યુ,' ‘થુ’માંથી, ખ‘ગાલી ‘ કિનના ' ‘ કિઈ ' ( ક્રીાતિ ), હિંદી ‘ ભિકના ' વિશુિઇ ( વિક્રૌણાતિ) અને ગુજરાતી ́ ખરીદુ' કરીત ( ક્રીત )માંથી વિકસેલા છે એમ સમજાવવામાં આવ્યું છે. . > ૪૬ (૧૨) અપભ્રંશ ભાષાના વ્યાકરણમાં ડૅ। ભાયાણીની ઉપલબ્ધિઓ પંડિતજીએ પેાતાના ગ્રંથમાં સમાવી લેવાનું માંડી વાળ્યું હેય એમ લાગે છે. અમુક જગ્યાએ પાઠભેદ અને મૂળ શબ્દ વિષે તે ભાયાણી કરતાં જુદા પડે છે, જેમ કે ભાયાણી ‘ કચ્ચ ’(કન્નચિત્ ) જ્યારે પંડિતજી ‘ કચ્ચુ ' ( કાચ્ટ ) આપે છે અને ‘ ઠા’ શબ્દ માટે ભાયાણી ‘ સ્થામ’ આપે છે તેા પડિતજી ‘ સ્થાય આપે છે ( સૂત્ર નં. ૪૩૨૯ અને ૪-૩૩૨ ). (૧૩) ગ્રČથના અંતમાં છેલ્લે સૂત્રાની, પદાની અને શબ્દાની અનુક્રમણિકા આપવામાં આવી હેત તા આ ગ્રંથ સશેાધકા અને અધ્યયન કરનારાએ બન્ને માટે વધારે ઉપયાગી થયા હત. આ એક ખામી રહી ગઈ છે એમ લાગ્યા વગર રહેતું નથી. યુનિવર્સિટી ગ્રંથ નિર્માણુ એડે` આવા ઉચ્ચ કક્ષાના ગ્રંથા માટે આ દષ્ટિ ધ્યાનમાં રાખવી જોઈએ એમ ભલામણ કરીએ તા અજુગતુ' ન કહેવાય. પૂ. પંડિતજીની પ્રાકૃત ભાષામાં ગતિ અને વિદ્વત્તા, એમના દ્વારા થયેલ સંશોધન અને સાહિત્ય રચનાથી સાચે જ કહેવું પડશે કે તેએ પ્રાકૃતના ક્ષેત્રમાં એક યુગપુરુષ હતા. તેઓએ પ્રાકૃતની જે સેવા કરી છે તે ચિરસ્મરણીય રહેશે. છેલ્લે આપણી મુદ્રણુ પદ્ધતિની જે ક્ષતિ છે તે આ ગ્રંથમાં પણ જોવા મળે છે. શુદ્ધિપત્રક અધુરું છે, પાનાં નં. ૪૦૭ થી ૪૧૬ સુધી જ શુદ્ધિપત્રક અપાયુ. છે જયારે સંપૂર્ણ ગ્રંથમાં ૫૧૧ પાનાં છે. શુદ્ધિપત્રકમાં પણ અમુક જગ્યાએ ભૂલે રહી જવા પામી છે, જેમ કે પરિસ્થાપિત માટે પરિસ્થાપિત અને અજિત' માટે અજિત્ત' વગેરે. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દેશીનામમાલાને અનુવાદ તથા અધ્યયન હરિવલ્લભ ભાયાણી હેમચંદ્રાચાર્યની “દેશીનામમાલા' (કે “રયણાવલી – “રત્નાવલી') દેશ્ય શબ્દને કોશ છે, એ તેમણે મુખ્યત્વે પૂર્વવતી દેશી દેશોને આધારે તૈયાર કર્યો છે. આગળના કેશમાં રહેલી અસ્પષ્ટતા, અશુદ્ધિ, વિસંગતિ વગેરે દૂર કરી વર્ણ અને અક્ષરસંખ્યાના ક્રમે શબ્દો ગોઠવી, ઉદાહરણ આપીને હેમચંદ્ર એક વ્યાપક, વ્યવસ્થિત અને પ્રમાણભૂત દેશીકેશ તૈયાર કરી આપ્યો છે. મૂળ પાઠ પ્રાકૃત ગાથાઓમાં છે, અને તેના પર હેમચંદ્રની પિોતાની સંસ્કૃત વૃત્તિ છે, જેમાં સ્વરચિત પ્રાકૃત ઉદાહરણ મૂકેલાં છે. પ્રાકૃત શબ્દના ત્રણ પ્રકાર પરંપરાગત વ્યાકરણેમાં જાણીતા છે : સંસ્કૃત શબ્દોથી અભિન (તત્સમ), સંસ્કૃત શબ્દોમાંથી ઉતરી આવેલા (તાવ) અને સંસ્કૃત શબ્દ ઉપરથી સિદ્ધ ન થઈ શક્તા (દેશ્ય). “દેશ્ય” અથવા “દેશી ” એક પારિભાષિક સંજ્ઞા છે. (૧) જે શબ્દ પરંપરાથી પ્રાકૃત સાહિત્યમાં વપરાય છે, (૨) જે શબ્દનું વર્ણ સ્વરૂપ લોપ, આગમ કે વિકારને આધારે સંસ્કૃત શબ્દના વર્ણસ્વરૂપ ઉપરથી નિષ્પન્ન થઈ શકતું નથી, અને (૩) વર્ણન સ્વરૂપ નિપન થઈ શકતું હોય તો પણ જેનો અર્થ સંસ્કૃત શબ્દના અર્થથી ભિન્ન છે, એવા શબ્દ તે દેશ્ય શબ્દ. દેશ્ય શબ્દોને લેકપ્રચલિત પ્રાદેશિક બેલીના શબ્દ માનવા એ ભૂલ છે. એ સાહિત્યભાષાના અને સાહિત્યકૃતિમાં પરંપરાથી વપરાતા શબ્દ હતા. ઘણું પ્રાકૃત સાહિત્ય લુપ્ત થયેલું હેઈ, હેમચંદ્રાચાર્યને પણ તેમાંથી ઘેડુંક જ પ્રાપ્ય અને જ્ઞાત હેઈ, દેશ્ય શબ્દોમાંથી કેટલાક વપરાશમાંથી લુપ્ત થયા છે , તથા દેશ્યકેશોમાં જાતજાતની અશુદ્ધિઓ હેઈ, પ્રમાણભૂત સંદર્ભગ્રંથ તરીકે દેશ્ય શબ્દોને કેશ બનાવવાનું કામ અત્યંત કપરું હતું, પણ હેમચંદે તે ઘણી મોટી સૂઝબૂઝથી અને વૈજ્ઞાનિક, તટસ્થ દૃષ્ટિપદ્ધતિ રાખીને પાર પાડયું. દેશ્ય શબ્દોની જાણકારી માટે એ એકમાત્ર કેશ બચ્યો છે–ધનપાલનો દેશ પ્રાથમિક કક્ષાને છે અને તદ્દભવોનો પણ સમાવેશ કરે છે, અને ત્રિવિક્રમે આપેલ દેશ્યસામગ્રી હેમચંદ્રના કેશમાંથી લીધેલી છે. ખૂલરે ૧૮૭૪માં પ્રથમ વાર “દેશીનામમાલા'ના મહત્ત્વ પ્રત્યે વિદ્વાનોનું ધ્યાન ખેંચ્યું. તેમની પ્રેરણા અને સહાયથી પિગેલે ૧૮૮૦માં દેશનામમાલા સંપાદિત કરી પ્રકાશિત કરી. તેની બીજી આવૃત્તિ ૧૯૩૮માં પરવતું રામાનુજ સ્વામીએ પ્રકાશિત કરી. કલકત્તાથી મુરલીધર બેનરજીએ પણ એક આવૃત્તિ પ્રકાશિત કરી. સદ્ગત પં. બેચરદાસજીએ ૧૯૩૭માં સટીક “દેશીનામમાલાના છ વર્ગોને ગુજરાતી અનુવાદ ફાર્બસ ગુજરાતી સભા માટે તૈયાર કરી આપેલ. તે મૂળ સાથે ૧૯૪૦માં પ્રથમ ભાગ તરીકે પ્રકાશિત થયો. તે પછી ઠેક ૧૯૭૪માં સમગ્ર ગ્રંથ મૂળ, વૃત્તિ, તેમને અનુવાદ, ગાથાવાર શબ્દાર્થ સાથે દેશ્ય શબ્દ અને અન્ય વિવિધ દેશોને આધારે વિસ્તારથી આપેલી વ્યુત્પત્તિસૂચક સાથે પંડિતજીએ પ્રકાશિત કર્યો. પિલે અને રામાનુજ સ્વામીએ દેશીનામમાલાને પાઠ નિશ્ચિત કરવા જે પ્રતો ઉપયોગમાં લીધેલી છે તે સોળમી શતાબ્દીથી વહેલી નથી. રામાનુજ સ્વામીને અભિપ્રાય એવો છે કે દેશનામમાલા'ને ગ્રંથપાઠ ઘણુંખરું તે શુદ્ધ રૂપે નિશ્ચિત થઈ ગયા છે. પંડિતજીએ બે વધુ હસ્તપ્રતોને Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ દેશી નામમાલા અને અનુવાદ તથા અધ્યયન ઉપયોગ કર્યો છે, પણ થોડાક સ્થળો સિવાય તેમને પાઠ પિશેલના પાઠથી જ નથી. પંડિતજીની આવૃત્તિનું મૂલ્ય તેના અનુવાદ અને તેને લીધે છે. તેમણે મૂળની ગાથાઓ, તેમના પરની વૃત્તિ અને વૃત્તિમાંના ઉદાહરણને અનુવાદ આપ્યો છે. આ કામનું ઘણું મહત્ત્વ છે. ભૂમિકામાં તેમણે ઉત્સવો રમતગમત, રિવાજો વગેરેના વાચક શબ્દો પ્રત્યે દયાન ખેંચીને દશીનામમાલા”નું સાંસકૃતિક મહત્વ પણ દર્શાવ્યું છે. રામાનુજ સ્વામીએ દેશ્ય શબ્દના જે અંગ્રેજી અર્થ આપ્યા છે તેમાંના કેટલાક અચોકકસ કે ભૂલ ભરેલા છે. મેં તેવા પોણા બસો જેટલા શબ્દોના અર્થ સુધાર્યા છે. પંડિતજીએ આમાંના લગભગ બધા અર્થો સાચા આપ્યા છે. બીજ, ઉદાહરણગાથાઓને અર્થ બેસાડવો એ ભારે કડાકૂટનું કામ હતું. પિલે તો એ ગાથાઓની સખત ટીકા કરી છે. માત્ર વર્ણાનુક્રમ અને અક્ષરસંખ્યાને કારણે એક ગાથામાં સાથે આવતા શબ્દોને સાંકળી લઈને કેાઈ સુસંગત, કાવ્યાત્મક અર્થવાળી રચના કરનારને એ અર્થ વચ્ચે મેળ બેસાડવા માટે ભારે તાણખેંચ કે દ્રાવિડી • પ્રાણાયામ કરવો પડે. આવું હેવા છતાં, દેશ્ય શબ્દોના અર્થની ચોકસાઈ અને સ્પષ્ટતા માટે, તેમને સંદર્ભ આપતાં હોવાને કારણે, આ ઉદાહરણોનું મોટું મૂલ્ય છે. પિશેલને તેમને અર્થ બેસાડતાં ઘણી મુશ્કેલી પડી છે. પંડિતજીએ ઘણાંખરાં ઉદાહરણને અર્થ સંતોષકારક રીતે બેસાડી આપીને, દેશ્ય શબ્દના અર્થનું સ્પષ્ટીકરણ કરતું મહત્વનું સાધન આપણને સુલભ કરી આપ્યું છે. વળી તેથી હેમચંદ્રની અસાધારણ રચનાશક્તિનું પણ સમર્થન થાય છે. “પતિ પ્રવાસે જઈ રહ્યો છે તેને માટે ભાતું બનાવવા કણક બાંધતી નાયિકાની આંખમાંથી આંજણવાળાં આંસુ કણકમાં સરી પડતાં ભાતાની વાની કાળાશ પડતી બની ગઈ' એ એક જ ઉદાહરણ, હેમચંકે અહીં અપરિહાર્ય વિનોને અતિક્રમીને કવિતા પણ સાધી છે એ બતાવવા માટે પૂરતું છે. પંડિતજીની આવૃત્તિનું બીજું ઉપયોગી અંગે તેમણે આપેલી વ્યુત્પત્તિધે છે. અન્ય સંસ્કૃત કશે, ઉણાદિસૂત્રની વૃત્તિ, વિક િવગેરેને આધાર લઈને પંડિતજીએ ઘણું દેશ્ય શબ્દોની સંસ્કૃતિને આધારે વ્યુત્પત્તિ આપવાનો પ્રયાસ કર્યો છે. જ્યાં એ આધાર ન મળે ત્યાં વનિ અને અર્થના સામ્યવાળા ગુજરાતી શબ્દો પણ તુલના માટે આપ્યા છે. અજ્ઞાત મૂળના સંસ્કૃત શબ્દની પણ ધાતુપાઠ વગેરેને આધાર લઈને અને આગમ, લેપ કે વિકારની પ્રક્રિયાને મદદમાં બોલાવીને વ્યુત્પત્તિ આપવાની આપણી પ્રાચીન પરંપરા છે. જોકે પંડિતજીએ પોતે જ નમ્ર ભાવે સ્પષ્ટ કહ્યું છે કે આ જાતની વ્યુત્પત્તિઓમાં ભાષાવિજ્ઞાનના નિયમને ભંગ થતો હેવાને પૂરે સંભવ છે. આમ છતાં એટલું નવનીત તે આમાંથી નીકળે જ છે કે જુદા જુદા સમયે અનેક દેશ્ય શબ્દોને, જરૂરી વણું પરિવર્તન સાથે, સંસ્કૃત શબ્દોને મે મળતો રહ્યો છે. હકીકત છે, દ્રાવિડી, મુંડા તથા ઈરાની, અરબી વગેરે ભાષામાંથી અપનાવાયેલા કેટલાક શબ્દ દેશ્ય તરીકે રૂઢ બનેલા છે. રામાનુજ સ્વામી, રત્ના શ્રીમાન વગેરેએ આ દિશામાં થોડુંક કાર્ય કર્યું છે. ઉમરે આવું ઊંચી વિદ્વતા અને ભારે પરિશ્રમ માગતું કામ પાર પાડવા માટે પંડિતજી આપણું આદર અને અભિવાદનના ભાજન છે. એમનું આ વિષયનું કાર્ય આગળ ચલાવવાને ભાર આપણા સૌ ઉપર છે. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હરિવલ્લભ ભાયાણી ૯ ‘દેશીનામમાલા'ની ઉપયોગમાં ન લેવાઈ હ।ઈ તેવી એક પ્રાચીન વ્રત તા આપણી જાણમાં છે જ. તેવી અન્ય હસ્તપ્રત સામગ્રીની તપાસ કરીને શકચ તેટલી પાશુદ્ધિ કરવી ઘટે. ખીજુ, દેશીનામમાલા ઉપર કામ કરવાના મારા ઘેાડાક અનુભવ પરથી મને એ પ્રતીત થયું છે કે અનેક શબ્દોના ધ્વનિસ્વરૂપ અને અને ચાક્કસ કે સ્પષ્ટ કરવા માટે અર્વાચીન ભારતીય-આ ભાષાઓ — ગુજરાતી, રાજસ્થાની, હિન્દી, સિન્ધી, પજાબી, મરાઠી, કુમાઉની, નેપાલી વગેરે – પાસેથી પણ સારી એવી મદદ મળે તેમ છે. આ દિશામાં કાર્યોં કરવા માટે ધણે! અવકાશ છે. ત્રીજુ, શબ્દ અને અર્થાની ખાખતમાં દેશીનામમાલા'માં ઠીક ઠીક પુનરાવત ન મળે છે. સહેજસાજ ભિન્નતા મળતી હેાય તેવા શબ્દ અને અર્થો – ખરેખર તા તે અભિન્ન હેાય – હેમચન્દ્ર, પોતાના મૂળ સ્રોતામાં મતભેદ હૈાય ત્યારે અને નિણૅય કરવાનુ કઠણ લાગ્યું ત્યારે તે અલગ અલગ હાય તેમ માંધ્યા છે. આની કેટલીક સાફી મેં મારા Studies in Hemacandra's Des[nāmamala'માં કરી છે. પણ એ તા એક શરૂઆત છે. કામ ધણું મેાટુ' છે અને ઠીક ઠીક પરિશ્રમ માગી લે તેવું છે. લગભગ ચાર હજાર જેટલા શબ્દો અને તેથી બમણા અર્થાની ખણખાદ કરવાની છે. પરંતુ ભારતીય – આર્ય ના શબ્દભડાળના ઇતિહાસની દૃષ્ટિએ તથા સાહિત્યભાષા લેખે પ્રાકૃતના ઘડતરની દૃષ્ટિએ ઘણું મહત્ત્વ ધરાવે છે. આ ઉપરાંત એક મહત્ત્વનું કાર્યં તે પ્રાકૃત અને અપભ્રંશ સાહિત્યમાંથી વસ્તુતઃ વપરાયેલા દેશ્ય શબ્દને તારવીને ‘દેશનામમાલા'ની સામગ્રીની શુદ્ધિવૃદ્ધિ કે સમર્થન કે પ્રમાણીકરણ કરવું. આ દિશામાં પણ આરંભ થયા છે. ‘પાઈઅસદ્દમહષ્ણુવા માંથી થેાડીક સમર્થક સામગ્રી પ્રાપ્ત થાય છે, પંડિત અમૃતલાલ ભાજકે પ્રાકૃત ટેક્સ્ટ સેાસાયટીના થાડાક પ્રથામાં પરિશિષ્ટરૂપે કેટલાક દૃશ્ય શબ્દા તારવીને મુકવા છે. રત્ના શ્રીયાને પુષ્પદંતની અપભ્રંશ કૃતિમાંથી અને મેં સ્વયંભૂના ‘પઉમચરિય'માંથી દેશ્ય શબ્દો તારવીને હેમચંદ્રના દેશ્ય શબ્દો સાથે તુલના કરી છે. પશુ ચિકિત્સક દૃષ્ટિએ આ દિશામાં 'વસુદેવ`િડી' ‘ કુવલયમાલા' વગેરે જેવી અનેકાનેક કૃતિઓનું અધ્યયન થવુ. બાકી છે, ગુજરાતી વગેરે અર્વાચીન ભાષાઅેમાં આ દૃશ્ય શબ્દોના કૈટલો અંશ ઊતરી આવ્યા છે એ પણ તપાસને સ્વત ંત્ર વિષય છે. પૉંડિતજીની અખ`ડ દીપ જેવી વિદ્યાપ્રીતિ અને કાર્ય નિષ્ઠામાંથી પ્રેરણા મેળવીને આપણે તેમણે કરેલાં કામે આગળ ચલાવીએ. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગુજરાતી ભાષાની ઉત્ક્રાંતિને દસ્તાવેજી આલેખ જયંત કોઠારી મુંબઈ યુનિવર્સિટીના ઈ. સ. ૧૯૩૮-૩૯નાં ઠક્કર વિસનજી માધવજી વ્યાખ્યાને પંડિત બેચરદાસ દેશીએ “ગુજરાતી ભાષાની ઉત્ક્રાન્તિ ” એ વિષય પર ૧૯૪૦માં આપ્યાં અને એ વ્યાખ્યાને પુસ્તક રૂપે ૧૯૪૩માં પ્રસિદ્ધ થયાં.' આ વ્યાખ્યાનો એની પદ્ધતિ અને એનાં કેટલાંક પ્રતિપાદનને કારણે નેધપાત્ર બને છે. કુલ પાંચ વ્યાખ્યામાંથી, મુખ્ય વિષયના “આમુખ' તરીકે યોજાયેલું પહેલું વ્યાખ્યાન ૨૧૮ પાનાં સુધી વિસ્તરે છે અને ગુજરાતી ભાષાની પૂર્વ પરંપરાને વીગતે પરિચય આપવા તકે છે. બાકીનાં ચાર વ્યાખ્યામાં અનુક્રમે ૧૨મા-૧૩મા, ૧૪મા-૧૫મા, ૧૬મા-૧૭મા અને ૧૮માં સૈકાની ગુજરાતી ભાષાના સ્વરૂપનું વિશ્લેષણ ૪૪૬ પાનાંમાં રજુ થયું છે. પહેલા વ્યાખ્યાનમાં સૌ પ્રથમ શબ્દસ્વરૂપ, ધ્વનિઓ, ભાષાસવરૂપ, ભાષાભેદ વગેરે વિષયેનું પ્રાચીન મતાનુસારી નિરૂપણ થયું છે. પ્રાચીન પરંપરાના દેહન તરીકે એ અવશ્ય ઉપયોગી છે પણ આધુનિક ભાષાવિજ્ઞાને આ વિષયોમાં જે કેટલીક મૂળગામી વિચાર કરી છે એનાથી સાવ અસ્કૃષ્ટ રહીને થયેલું નિરૂપણ આજે એકાંગી લાગે અને એ દષ્ટિએ થયેલા ભાષાવિશ્લેષણને કેટલીક ગંભીર મર્યાદાઓ નડે એમાં નવાઈ નથી. આ પછી પંડિતજીએ વૈદિક, લૌકિક સંસકૃત, પ્રાકૃત, પ્રાતભેદે, અપભ્રંશ – આ બધાંનું સ્વરૂ૫ ફટ કર્યું છે અને એમના પરસ્પરના સંબંધ અંગે કેટલોક ઉહાપોહ કર્યો છે. એમાં એમની એક મહત્તવની સ્થાપના તે વૈદિક સાથે પ્રાકૃતને ગાઢ સંબંધ હોવા વિશેની છે, જે એમણે ખૂબ વિગતે ચચી છે. સંસ્કૃત (એટલે લૌકિક સંસ્કૃત)ને એ નાની બહેન અને પ્રાકૃતને મોટી બહેન ગણાવે છે અને સંસ્કૃત પર પડેલા પ્રાકૃતના પ્રભાવનું વર્ણન કરે છે. એથી જ એ તદ્દભવ' અને “સંસ્કૃતનિ' એ શબ્દોનું અનૌચિત્ય પણ દર્શાવે છે. પંડિતજી, અલબત્ત, પ્રાકૃત ભાષામાંથી સંસ્કૃત આવી છે એવા રાજશેખરને મતનો પણ વિરોધ કરે છે. સંસ્કૃત અને પ્રાકૃતને બહેનો ગણાવનાર આ મત પણ ન સ્વીકારી શકે એ સ્વાભાવિક છે. પંડિતજીનું આ ભાષાદશન અત્યંત સ્પષ્ટ છે અને ભારપૂર્વક મુકાયેલું છે પણ એ સાધાર છે અને એકાંગી થઈ જવાના જોખમમાંથી ઊગરી ગયેલું છે. પંડિતજીએ પ્રાકૃત ભાષાના અભ્યાસને આગ્રહ વ્યક્ત કર્યો છે તે ભારતીય-આર્ય ભાષાના વિકાસમાં પ્રાકૃતનું જે મહાવભર્યું સ્થાન એમણે દર્શાવ્યું છે તે જોતાં પૂરેપૂરો ઉચિત લાગે છે. પંડિતજીએ અપભ્રંશને સંબંધ પણ આદિમ પ્રાકૃત સાથે જોડો છે તથા સંસ્કૃત અને પ્રાકૃતની સાથે અપભ્રંશને પણ ત્રીજી બહેન ગણાવી છે. પ્રાકૃતની જેમ અપભ્રંશના મૂળને છેક પ્રાચીનકાળમાં લઈ જવાનું કેટલુંક ઉચિત ગણાય એ પ્રશ્ન છે, પણ એ દ્વારા લોકભાષાનું સાતત્ય તો સચવાય છે. પંડિતજી “અપભ્રંશ' શબ્દના સામાન્ય અર્થ અને વિશેષ અર્થને ભેદ કરે છે તથા પ્રાદેશિક અપભ્રંશે હેવાનું સ્વીકારે છે પણ એમની વચ્ચે નજીવો ફરક હોવાનું જણાવે છે. ૧. “ગુજરાતી ભાષાની ઉત્કાન્તિ' (બારમા સૈકાથી અઢારમા સૈકા સુધી), અધ્યાપક બેચરદાસ જીવરાજ દોશી મુંબઈ યુનિવર્સિટી, ૧૯૪૩. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જયંત કોઠારી અપભ્રંશને ગુજરાતીની માતા, વ્યાપક પ્રાકૃત ને મેટી માસી ને સંસ્કૃતને નાની માસી તથા વૈદિક યુગના આદિમ પ્રાકૃતને માતામહી ગણવી પંડિતજી ગુજરાતીમાં એ માતામહીને વારસો પણ શોધી બતાવે છે. આમાં ઘણે સ્થાને આકસિમકતાને આશ્રય લેવાઈ ગયા હોય એવું જણાય છે. પંડિતજીની એક અત્યંત વિલક્ષણ ને વિવાદાસ્પદ સ્થાપના તે ગુજરાતી ભાષાના આરંભ વિશેની છે. એ હેમચંદ્રના અપભ્રંશમાં ઊગતી ગુજરાતીની પ્રક્રિયા જોવા આગળ અટકતા નથી, હેમચંદ્રને ગુજરાતીના પાણિનિ અને સાહિત્યિક ગુજરાતીના વાલ્મીકિ – આદ્ય કવિ કહેવા સુધી પહોંચે છે અને પછીથી ૧૨મા સૈકાની ગુજરાતી ભાષાના અભ્યાસમાં અભયદેવ, વાદિદેવસરિ, હેમચંદ્ર વગેરેની કૃતિઓને સમાવી લે છે. ડે. હરિવલ્લભ ભાયાણું દર્શાવે છે તેમ સંયુક્ત વ્યંજનના જુભાવના ભેદક લક્ષણને અવગણી ઉક્ત અપભ્રંશ કતિઓને ગુજરાતી ઠરાવી દેવાઈ છે. તે ઉપરાંત પંડિતજી પિતાની કોઈ તાર્કિક કે સ્થિર ભૂમિકા ઊભી કરી શકયા નથી. અભયદેવસૂરિના સ્તોત્ર વિશે તેઓ કહે છે કે “ રચનાર ગુજરાતી. રચવાનું સ્થળ ગુજરાતનું એક ગામ એ જોતાં સ્તોત્રની ભાષા પણ સાપેક્ષ રીતે ગુજરાતી કહેવાય.” જણે ભાષાકીય લાક્ષણિકતાઓ અપ્રસ્તુત હોય ! ઉક્ત કતિઓનાં જે વ્યાકરણગત લક્ષણા પંડિતજીએ તારવ્યાં છે એ બહુધા અપભ્રંશનાં જ છે અને પંડિતજી પોતે એમાં હેમચંદ્ર જે (ઊગતી ગુજરાતીનું !) વ્યાકરણ લખ્યું છે તેના નિયમોથી, સાધારણું ઉચ્ચારણભેદ સિવાય કોઈ ભેદ જતા નથી. ૧૩મા સૈકાના “જબૂચરિય”ની ભાષાને ઊગતી ગુજરાતી કહેવા કરતાં કુમાર ગુજરાતી કહેવી જોઈએ એમ પંડિતજી નેંધે છે. એને અર્થ એટલે જ કે એમાં અપભ્રંશત્તર ભૂમિકાની ભાષા જોવા મળે છે. “ઉપસંહાર'માં પંડિતજીનાં વાક્યો વધારે દ્યોતક છે : બારમા સૈકાની ગુજરાતી ભાષાને શબ્દદેહ પ્રાકૃતની જેવો છે.” “ તેરમા સૈકાની ભાષામાં પ્રાકૃતપણું ઓછું દેખાય છે.” પંડિતજીએ આ વિધાનને સંગત રહીને જ પોતાનાં વ્યાખ્યામાં ભાષાવિકાસનું ચિત્ર આલેખ્યું હોત તો ? બીજાથી પાંચમાં વ્યાખ્યાનમાં પંડિતજીએ ૧૨માથી ૧૮મા સૈકા સુધીનું ગુજરાતી ભાષાના વિકાસનું જે ચિત્ર આપ્યું છે તે એની પદ્ધતિની દષ્ટિએ ખૂબ ધ્યાનપાત્ર છે. એમણે દરેક સૈકાની નમૂનારૂપ કેટલીક કૃતિઓ કે કૃતિ-અંશે લીધા છે અને એમાંથી ભાષાસામગ્રી લઈ પિતાનું વિશ્લેષણ પ્રસ્તુત કર્યું છે – શબ્દભંડળ છે, વ્યાકરણું રૂપોને પરિચય કરાવ્યો છે અને કેટલીક વ્યુત્પત્તિચર્ચાઓ પણ કરી છે. ભાષાવિકાસને આ જાતને પ્રયોગમૂલક અભ્યાસ હજુ સુધી આપણે ત્યાં વિરલ છે, એ રીતે એનું વિશિષ્ટ મૂલ્ય છે. બધાં વ્યાખ્યાનમાં પંડિતજી અનેક શબ્દો અને શબ્દધટકોનાં મૂળ દર્શાવતા રહ્યા છે. પંડિતજીએ પોતે એક વખત અક્ષરસામ્યથી દેરવાવા સામે ચેતવણી આપી છે (પૃ. ૨૫૧) છતાં પોતે એમાંથી સાવ બચી શક્યા છે એવું નથી. ધ્વનિશાસ્ત્રના સ્થાપિત થઈ ચૂકેલા સામાન્ય નિયમો અને ગુજરાતી ભાષાની વ્યુત્પત્તિના વિષયમાં એમની પૂર્વે થયેલા કામનો પંડિતજીએ સામાન્ય રીતે લાભ લીધેલ જણાતા નથી, તેથી વ્યુત્પત્તિને નામે શબ્દોની સમાન્તરતાએ બેંધવા જેવું જ બહુધા થયું છે. ઘણે ઠેકાણે તે પંડિતજી પોતે અટકળની ભૂમિકામાં છે એ એમણે સૂચવેલી વૈકલ્પિક ૨. વાવ્યાપાર, ૧૫૪, પૃ. ૩૭૯. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ગુજરાતી ભાષાની ઉત્ક્રાંતિને દસ્તાવેજી આલેખ વ્યુત્પત્તિઓ પરથી સમજાય છે. એ પોતે ચોક્કસ વ્યુત્પત્તિ આપે છે કે અમુક વ્યુત્પત્તિ તરફ પક્ષપાત બતાવે છે ત્યારે એને માટે સ્વનિશાસ્ત્રના સ્વીકૃત નિયમોને કે વ્યાકરણી હકીકતોને ભાગ્યે જ આધાર હોય છે. થોડા ઉદાહરણ જેવાથી આ વાતની પ્રતીતિ થશે: કરવાનુની વ્યુત્પત્તિ પંડિતજી “તવ્યતીય’ અને ‘તણને આધારે સૂચવે છે અને પહેલી યુતિને સંગત ગણે છે પણ કરવાનું' એ “કરવુંનું ––' પ્રત્યય લાગીને થયેલું વિસ્તરણ છે એ તરફ એમનું લક્ષ ગયું નથી. | ગુજરાતીને ભાવવાચક “આઈ પ્રત્યય વૈદિક “તાતિમાંથી અને ગુજરાતીને પરિમાણવાચક ” (“રૂપિયાને પગાર' વગેરેમાં) વૈદિક “ઈન' માંથી હવાને તક પંડિતજી કરે છે, જે સ્વીકારવા માટે ભાગ્યે જ કશા આધાર છે. ગુજરાતીના -ન-” પ્રત્યયની વ્યાપકતા પંડિતજીએ બરાબર વિચાર હોત તે એને “ઈન માંથી ઘટાવવાનો વિચાર એ ન જ કરત. ગુજરાતીમાં વૈદિકનો વારસ બતાવવાને ઉત્સાહ એમને આવી કેટલીક વ્યુત્પત્તિઓ તરફ ખેંચી ગય લાગે છે. નાતરું' ની વ્યુત્પત્તિ જ્ઞાતિ ઉપરથી સૂચવી પાદટીપમાં પંડિતજી એની “જ્ઞાત્યન્તરમ' સાથેની સમાનતા નિદેશે છે અને પાછા “જ્ઞાતિ-ઇતરને સંભવ પણ સેંધે છે! પંડિતજી પાસે સાર્વત્રિક ધ્વનિનિયમોની ભૂમિકા હોત તો એ સહેલાઈથી સીધા “જ્ઞાત્યન્તરમ' પર જ સ્થિર થઈ શકયા હેત. ગમાર' શબ્દ ફારસી ગુમરાહ”નું રૂપાંતર લાગે છે એમ કહ્યા પછી પંડિતજી હેમચન્દ્ર નંધેલા “ગુમ ધાતુ અને ગ્રામ્યાચાર' પરથી પણ એની વ્યુત્પત્તિ સૂચવે છે વારે વારે પ્રગટ થતી આ જાતની અનિર્ણયાત્મકતા ભાષાવિકાસના ધોરી માર્ગોને પ્રકાશિત કરવાનું કામ ભાગ્યે જ કરી શકે. છતાં વ્યુત્પત્તિ નિમિત્તે જુદી જુદી ભૂમિકાની ઘણી ભાષાસામગ્રીનું અહીં સંનિધાન થયું છે. ભાષાસંશોધકો એને કાચી સામગ્રી તરીકે જરૂર ઉપયોગમાં લઈ શકે. પંડિતજીએ ઘણું અભ્યાસપૂર્વક આ વ્યાખ્યાનો તૈયાર કર્યા છે અને પોતાની સર્વ જાણકારી કામે લગાડી છે. એમના નિરૂપણમાં ઘણી વિશદતા અને સદ્યોગમ્યતા છે, વૈદિકથી માંડી ગુજરાતી સુધીની પ્રચુર ભાષાસામગ્રી એમણે કામમાં લીધી છ અને પ્રયોગમૂલક અભ્યાસની એક વૈજ્ઞાનિક પદ્ધતિને એમણે આશ્રય લીધો છે. આમ છતાં વિષય પર જોઈએ તે પ્રકાશ પડતો ન લાગતો હેય તે એનાં કેટલાક કારણ છે. એમણે, ડે. ભાયાણીએ કહ્યું છે, તેમ આધુનિક મૌલિક પૂર્વકાર્યથી લગભગ નિરપેક્ષ રહીને વિષયનું નિરૂપણ કર્યું છે, પિતે જેમને આધાર લીધે છે તે થાક, નિરક્ત, હેમચન્દ્રાદિની સામગ્રીને ચકાસવાને પ્રયત્ન કર્યો નથી તથા માહિતી નાંધવાને અને સમાન્તરતાઓ નિર્દેશવાને શ્રમ લીધો છે એટલે નિયમ કે વલણે તારવવાને લીધો નથી. એથી જ ઉપસંહારના પ્રકરણમાં થેડા વ્યાપક પ્રકારનાં તારણે ઉપરાંત કંઈ નક્કર એ આપી શકયા નથી. આમ છતાં પંડિતજીએ ગુજરાતી ભાષાના વિકાસના અભ્યાસની એક દિશા ખોલી આપી છે. જે હજ ઝાઝી ખેડાયેલી નથી. પંડિતજીનું આ પ્રદાન નોંધપાત્ર ગણશે. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈનદર્શન ’ અનુવાદ ગ્રંથના પરિચય નગીન જી. શાહ પૉંડિત બેચરદાસજીએ દર્શનશાસ્ત્રમાં પણ અમૂલ્ય ફાળા આપ્યા છે. તેમણે અને પંડિત સુખલાલજીએ સાથે મળી સિદ્ધસેનના સન્મતિતર્ક પ્રકરણની વિસ્તૃત અને સવાદસમુચ્ચયરૂપ અભયદેવસૂરિની ટીકાનું સપાદન કર્યુ છે, દનક્ષેત્રમાં આ એક બહુમૂલ્ય કામ થયુ. વળી, આજથી પચાસ વર્ષ પહેલાં તેમણે આચાર્યં હરિભદ્રસૂરિના ષડ્ક નસમુચ્ચયય ઉપરની ગુણુરતની ટીકાના જૈન ભાગના ગુજરાતી અનુવાદ કર્યાં. આ તેમનું દČનક્ષેત્રમાં ખીજું મહત્ત્વનું કાર્યાં છે. જો કે પતિજીના રસના વિષયે ખાસ તા વ્યાકરણ-ભાષાશાસ્ત્ર અને આચારમીમાંસા રહ્યા હતા તેમ છતાં તેમણે દનના ક્ષેત્રમાં જે કઈ પ્રદાન કર્યું... છે તે પણ ધણું માટુ' છે. આપણે તેમણે કરેલ આ અનુવાદની વિચારણા કરીશું, પૉંડિતજીએ આ અનુવાદ સાથે માહિતીપૂર્ણ અને વિચારપ્રેરક ૧૨૦ પૃષ્ઠની વિસ્તૃત પ્રસ્તાવના જોડી છે. તેમાં શ્રી હરિભદ્રનાં જીવન અને કૃતિએ વિશે તેમ જ ગુણરત્ન વિશે ઐતિહાસિક દૃષ્ટિએ જેટલી વિગતે આપી શકાય તેટલી વિગતે આપી છે. પડિતજીને શુષ્ક તર્ક અને વાદ પસંદ ન હતા. તેમની દૃષ્ટિ સદાય જીવનને શુદ્ધ કરતા તત્ત્વથી આકર્ષાતી. તેમને સમન્વય પ્રિય હતા. આ પ્રસ્તાવનામાં પ"ડિતજીએ કરેલા દર્શનોના સમન્વય ચિત્તાકર્ષક અને સવેંદ્રેકી છે. હરિભદ્રને અનુસરી તેએ પણ કપિલ, સુગત, જિન સૈાને આપ્ત ગણે છે. તેમના ઉપદેશને ભેદ તા શ્રેાતાની કક્ષાએના ભેદને કારણે છે એમ તેએ સમજે છે. તેઓ માને છે કે વાદપ્રતિવાદ છેાડી તેમના ઉપદેશનું હાર્દ સમજવા પ્રયત્ન કરવા જોઈએ. આ હા તે આ રીતે સમજાવે છે: “ઈશ્વરયાદને વળગતારા મુમુક્ષુ પેાતાની કાઈ પણ પ્રવૃત્તિમાં કર્તાપણાની ભાવના એટલે ‘હું કરું છું' · મારા જેવા કરનાર કાણુ છે' એવી વૃત્તિ રાખી શકે જ નહિ. એતે મન તેા કર્તા, હર્તા, પાલયિતા ઈશ્વર જ છે. એણે તા પોતાનું સત્ર સ્વ. શ્રી ઈશને ચરણે ધરેલુ' હાવુ* જોઈએ. પોતાનેા એકના એક ખાટના દીકરા, પોતાની અતુલ સ`પત્તિ કે બીજી ક્રાઈ પેાતાની પ્રિય વસ્તુને! નાશ થતાં પણ એને શાક ન ઊઈ શકે........અદ્વૈતવાદના ખરા અનુયાયીને મારું તારુ” હાઈ શકતું નથી, એ તેા સત્ર સમ જ હેાઈ શકે છે—શત્રુ કે મિત્ર એને ધટે જ શી રીતે ?...... બધા જીવાનુ અદ્વૈત હેાઈ એ કયાંય રાગ કે રાષ શી રીતે કરી શકે?......ક્ષણિકવાદને પા! ભક્ત પેાતાના દેહને સ્થિર શી રીતે માને ? તે થૂંકની છેાળે! ઉડાડી ક્ષણિકત્રાદ સાબિત ન કરે, એ તે એ વાદને પેાતાના જીવનમાં ઉતારીને જ સંસારતી ક્ષણિકતાને વગર મેલ્યે સમાવી દે. કમ વાદને ઉદ્દેશ સૌંસારની વિચિત્રતા જણાવી આત્મામાં સ્થિરતા આણવાના છે, નહિ કે ખીજા ખીજાની ખાતાવહીઓને તપાસ્યા કરવાના તેમ ઈશ્વરવાદીઓના ઈશ્વરને દૂષિત કરવાને પણુ કર્મવાદને આગળ રવાના નથી.” છ કે છ દનાને તેમનું પ્રયાજન છે, તેમને જીવનમાં ઉપયેગ છે એ દર્શાવતાં પડિતજી આન ધનજીના શ્રી નમિનાથસ્તવનનેા વારવાર હવાલા આપે છે. ચાર્વાકદર્શન વિશે પડિતજી લખે છે : વિચાર કરતાં એટલુ તા જરૂર સૂઝે છે કે નીતિપ્રધાન અતે ધર્મપરાયણ આ આ દેશમાં પ્રાચીન સમયે પ્રાદુર્ભૂત થયેલે આ મત હિંસાનું, જુઠાણાનું, ચેરીનું, વ્યભિચારનું "( Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈનદર્શન - અનુવાદ ગ્રંથનો પરિચય અને “જે કૃત્વા કૃતં પિત્તનું જ સમર્થન કરી જીવનવિકાસનો માર્ગ બતાવતો હોય એમ મારા તો માનવામાં આવતું નથી...પરમગી આનંદઘનજી મહારાજ આ મત વિશે જણાવતાં કહે છે કે-“લેકાયતિક કુખ જિનવરની, અંશવિચાર જે કીજે.” પ્રસ્તાવનામાં તેમણે અર્થસભર અને નવી દિશા ખેલનારાં ટિપણે લખ્યાં છે. તેનાં એકબે ઉદાહરણ લઈશું. પૃ. ૬૩ ઉપર બૌદ્ધધર્મ અને બુદ્ધ ઉપર વિસ્તૃત ટિ૫ણ છે તેને અંશમાત્ર આપું છું. તેઓ લખે છેઃ “આ મહાપુરુષ (બુદ્ધ) આત્મવાદી છે, તે પણ તેમની પછીના તેમના કેટલાક અનુયાયીઓની તર્ક જાળને લીધે તેમના ઉપર “અનાત્મવાદી' તરીકે જે આરોપ આજ ઘણા વખતથી મૂક્વામાં આવે છે તે અવિવેકથી થયેલ છે અને ખોટ છે.” પૃ. ૭૫ ઉપર ‘તમાત્રા” શબ્દ ઉપર આ પ્રમાણે ટિપપણ છે“પરમાણુ” શબ્દને ભાવ “તન્માત્રા' શબ્દથી સૂચવી શકાય છે. જેનદર્શનમાં “પરમાણુ' શબ્દ ઉપરાંત એક એવા જ ભાવવાળે “વર્ગણુ” શબ્દ પણ આવે છે. “પ્રદેશ' શબ્દને પણ “પરમાણુ”ના અર્થમાં જૈનભાષામાં વાપરવામાં આવે છે પણ તે, અવિભક્ત પરમાણુને એટલે કે કોઈ જગ્યા માં રહેલા પરમાણુને જ સૂચવે છે અર્થાત જૈન ભાષામાં એકલા છૂટા પરમાણુને “પ્રદે” શબ્દથી સૂચવી શકાય નહિ.” પ્રસ્તાવનામાં આવાં ટિપ્પણે લગભગ એક સે જેટલાં છે. આ ટિપ્પણમાં પંડિતજીની ઐતિહાસિક, તુલનાત્મક અને નિષ્પક્ષ દૃષ્ટિ આપણું ધ્યાન ખેંચે છે. હવે તેમના અનુવાદની લાક્ષણિકતા તપાસીએ. તેના માટે એક ઈશ્વરવિષયક કંડિકા પસંદ કરીએ. તે નીચે પ્રમાણે છે: किञ्च ईश्वरस्य जगन्निर्माणे यथारुचिप्रवृत्तिः, कर्मपारतन्त्र्येण, करुणया, क्रीडया, निग्रहानुप्रहविधानार्थ स्वभावतो वा। अत्राद्यविकल्पे कदाचिदन्यादृश्येव सृष्टिः स्यात् । द्वितीये स्वातन्त्र्यहानिः । तृतीये सर्वमपि जगत् सुखितमेव कुर्यात् । अथ ईश्वरः किं करोति पूर्वाजितैरेव कर्मभिर्वशीकृता दुःखमनुभवन्ति ? तदा तस्य कः पुरुषकारः ? अदृष्टापेक्षस्य च कर्तृत्वे किं तत्कल्पनया, जगतस्तदધનતૈયાતુ (જ્ઞાનપીઠ અતિદેવી જૈન ગ્રન્થમાલા, સંસ્કૃત ગ્રન્થાંક ૩૬, ૧૯૭૦, પૃ. ૧૮૨-૧૮૩) હવે અનુવાદ વાંચીએ. અનીશ્વરવાદીઃ વળી, અમે આ એક બીજું પૂછીએ છીએ કે, તમોએ માનેલે ઈશ્વર, જગતને રચવાની જે ભાંજગડ કરી રહ્યો છે, શું તેમાં તે પિતાની મરજી પ્રમાણે પ્રાપ્તિ કરે છે ? વા કર્મને વશ થઈને પ્રવૃત્તિ કરે છે ? વા દયાને લીધે પ્રવૃત્તિ કરે છે ? વા લીલા કરવાની વૃત્તિથી પ્રવૃત્તિ કરે છે? વા ભક્તોને તારવા અને દુષ્યને મારવા પ્રવૃત્તિ કરે છે કે એ જાતની પ્રવૃત્તિ કરવાનો એને સ્વભાવ જ છે ? ઈશ્વરવાદી: ભાઈ, એ (ઈશ્વર) તે સૌને ઉપરી હોવાથી જગતની રચના કરવામાં એની પિતાની જ મરજી પ્રમાણે વર્તે છે અને જગત પણ એ પ્રમાણે જ ચાલ્યા કરે છે. અનીશ્વરવાદી : ભાઈ! અમને તે એમ જણાતું નથી. જે ઈશ્વર જગતને બનાવવામાં પેતાની જ મરજી પ્રમાણે વર્તતે હોય તે કઈ એવો સમય પણ આવો જોઈએ કે, જે સમયે જગત તદ્દન જુદા પ્રકારનું પણ રચાયું હત-હેય. આપણાથી એ તે ન જ ક૯પી શકાય કે, તેની મરજી હમેશા એકની એક જ રહે છે. કારણ કે, તે પિતે તદ્દન સ્વતંત્ર હવાથી ધારે તેવું કરી શકે છે. પરંતુ જગત તો હમેશા એક જ ધાટે ચાલ્યું જાય છે અને ચાલ્યું આવે છે. એની બીજી કઈ જાતની રચના કદી, કોઈએ અને ક્યારેય સાંભળી કે જાણું પણ નથી. તેથી એમ જાણી શકાય છે કે, જગતની રચના કરવામાં ઈશ્વર પિતાની જ મરજી પ્રમાણે વર્તતા નથી. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નગીન જી. શાહ ૫૫ ઈશ્વરવાદીઃ ભાઈ, ઈશ્વર તે કર્મને વશ રહીને જગતની રચના કરી રહ્યો છે. એથી એ કઈ જાતની નહિ બનવા જેવી રચના કરી શકે જ નહિ. અનીશ્વરવાદીઃ થયું. જે ઈશ્વર પણ કમને વશ રહેતો હોય તો એ ઈશ્વર શાને ? સર્વ શક્તિવાળા પ્રભુ શાને ? ઈશ્વરવાદીઃ ભાઈ, જરા ભૂલ થઈ ગઈ, ખરું તે એ છે કે ફક્ત દયાને લીધે જ ઈશ્વર જગતને રચવાની - ભાંજગડ કરી રહ્યો છે - કારણ કે, એ તો મહાદયાળ છે. અનીશ્વરવાદી: જો ઈશ્વર દયાને લીધે જ જગતને બનાવી રહ્યો હોય તો એ આખા જગતને સુખી શા માટે ન કરે છવમાત્રને સુખ આપવું એ દયાળુ પુરુષનું કામ છે. પરંતુ જગતમાં સુખ તો સરસવ જેટલું અને દુઃખ ડુંગર જેટલું જણાય છે. એથી આવા જગતને જોઈને કોઈ પણ એમ તે ન જ ક૯પી શકે કે, ઈશ્વર ફક્ત દયાની લાગણીથી જ આને (જગતને) બનાવી રહ્યો છે, ઈશ્વરવાદીઃ જો કે, ઈશ્વર તો દયાળુ હોવાથી બધાને સુખી જ સરજે છે, પરંતુ એ બધા જીવો પોતપોતાના કર્મોને લીધે પાછા દુઃખી થાય છે એમાં ઈશ્વર શું કરે ? અનીશ્વરવાદી: થયું. આ તે તમારા જ કહેવા પ્રમાણે ઈશ્વર કરતાં પણ કર્મોનું બળ વધુ જણાય છે. ત્યારે ભાઈ, હવે ઈશ્વરને જવા દઈને જે એને ઠેકાણે કર્મોને માને તો વાંધો છે? પંડિતજીને આ અનુવાદશ વાંચ્યા-સાંભળ્યા પછી સૌને પ્રતીતિ થશે કે પંડિતજી દર્શનના કઠણ વાદ્યને પણ ગુજરાતીમાં સરળ અને સહજ રીતે ઉતારે છે. તેમના અનુવાદમાં તરજુમિયાપણું નથી. ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદ કરતી વખતે તે ભાષાની પિતાની જે લઢણે છે તેમને તે અનુસરે છે. સંસ્કૃત ભાષાની લઢણે ગુજરાતીમાં જેમની તેમ લાવવાથી અનુવાદ લિષ્ટ બની જાય છે. સંસ્કૃતમાં કમાણપ્રયોગ સારે લાગે છે પરંતુ તેને ગુજરાતી અનુવાદ કરતાં જે તે પ્રયોગ બદલી કર્તરિ ન કરવામાં આવે તે અનુવાદમાં અસ્વાભાવિકતા અને કિલષ્ટતા પ્રવેશે છે. બીજુ, સંસ્કૃત ભાષામાં અત્યંત લાઘવ છે. ઘણી બધી વાત ટૂંકમાં કહી શકાય છે. તેથી જ્યારે સંસ્કૃતમાંથી ગુજરાતી અનુવાદ પંડિતજી કરે છે ત્યારે ગુજરાતી ભાષાને સ્વભાવ પ્રમાણે જરૂરી વિસ્તાર પણ તે કરે છે. વળી, પૂર્વપક્ષ-ઉત્તરપક્ષને તરત જ ખ્યાલ આવે એ આશયથી પંડિતજીએ અનુવાદમાં સંવાદશૈલી અપનાવી છે. પંડિતજીએ અનુવાદમાં જ્યાં તક મળી ત્યાં મૂળના અર્થને અનુસરતા ગુજરાતી પદ્યને દાખલ કરી અનુવાદને રોચક કર્યો છે. દેહ અને આત્માને એક માનતા ચાર્વાકનું મૂળ માં જ્યાં ખંડન છે ત્યાં અનુવાદમાં તેમને નીચેનું પદ્ય મૂકવાની જે તક મળી તેને તેમણે સરસ ઉપયોગ કર્યો છે. તે પદ છે પરમબુદ્ધિ કૃશ દેહમાં, સ્થૂલ દેહ મતિ અ૯પ, દેહ હેય જે આતમા ઘટે ન આમ વિકલ્પ. એમણે કરેલ આ અનુવાદ જૈનદર્શન વિશે અભ્યાસીને સારી માહિતી આપે છે અને બધા જ મહત્ત્વના સિદ્ધાન્તોની વિશદ ચર્ચા કરે છે. તેમાં શ્વેતાંબર અને દિગંબર મુનિઓના વેશ અને આચાર, જિનેશ્વરદેવસ્વરૂપ, ઈશ્વરવાદ, સર્વજ્ઞવાદ, કવલાહારવાદ, જીવાદિનવતત્ત્વ, આત્મવાદ, પુદ્ગલ તત્વ, પ્રમાણુવાદ અને અનેકાન્તવાદનું વિસ્તારથી નિરૂપણ કરવામાં આવેલ છે અને તે તે સ્થાને વિરોધી વદન નીરાસ પણ સવિસ્તર કર્યો છે. તેથી જૈનદર્શનને સમજવા આ અનુવાદ અતિ ઉપયોગી છે. દર્શનના અભ્યાસીઓને ઉપયોગી એવાં પૂ. પંડિતજીએ કરેલાં આ બે મોટાં કાર્યોનું સ્મરણ કરી હું તેમને મારી ભાવપૂર્વક જ્ઞાનાંજલિ આપું છું. આભાર. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મહાવીર–વાણું કુમારપાળ દેસાઈ પં. બેચરદાસ દેશીએ કરેલું “મહાવીર-વાણી”નું સંપાદન એમનાં સંપાદનોમાં આગવું તરી આવે છે. ભગવાન મહાવીરની વાણી વિશિષ્ટ એ માટે છે કે એમણે કયાંય એ દાવો કર્યો નથી કે પિતે ઈશ્વરને સંદેશ કે દિવ્ય વાણી પ્રકટ કરી રહ્યા છે. એમણે તો કહ્યું છે કે સાધનાની અનુભવભઠ્ઠીમાંથી તવાઈ તવાઈને પ્રગટ થતો અનુભવ તેઓ આલેખે છે, આથી જ મહાવીર-વાણમાં સ્વયં સાધનાની દીતિ છે અને જીવનનાં રહસ્યો પામવાની ઊંડામાં ઊંડી ઝંખના છે. આવી વ્યાપક દષ્ટિ મહાવીર-વાણમાં પ્રગટ થાય છે અને એ વાણીની વ્યાપકતા પં. બેચરદાસજીએ બીજા ધર્મ ગ્રંથે સાથે તુલના કરીને માર્મિક રીતે દર્શાવી છે. તેઓએ વિચાર કર્યો કે જેને સંસ્કૃતિનો અભ્યદય કરવો હોય તે જૈન સંસકૃતિનાં પુસ્તકે સુલભ બનાવવા જોઈએ. આ હેતુથી એમણે જૈન આગમમાંથી મહાવીર-વાણીને પસંદ કરીને એને ૨૫ સૂત્રમાં વહેચી નાખી. આ ૨૫ સૂત્રની ૩૧૪ ગાથામાં ધર્મની વિસ્તૃત સમજ પ્રગટ થાય છે. આ માટે પં. બેચરદાસજીએ મુખ્યત્વે “સૂત્રકતાંગ સૂત્ર”, “દશવૈકાલિક સૂત્ર”, “ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર” અને “આવશ્યક સૂત્રને પસંદ કર્યા છે. ભગવાન મહાવીરના ઉપદેશના મર્મને સ્પર્શતી ગંભીર તત્વવાળી ગાથા અને તેને અર્થ આપ્યો છે આ સંપાદનની ૩૧૪ ગાથાઓમાં પરિભાષાની પ્રચૂરતા કે રૂઢ ભાષાને બદલે સીધીસાદી શૈલીમાં એની રજૂઆત કરવામાં આવી છે. મહાવીર-વાણુ”માં પ્રગટતા દર્શનની વ્યાપકતા દર્શાવવા માટે એમણે મહાવીરના વચનોની સાથેસાથ બ્રાહ્મણ ધર્મ અને બૌદ્ધ ધર્મના વચનનાં સામ્યને ખ્યાલ આપ્યો છે. પરંતુ પં. સુખલાલજીએ આ તુલનાત્મક ટિપ્પણમાં બાઈબલ અને કુરાનનાં વચને મૂકવાની વાત કરી અને આ માટે સંપાદકે “ઈસુખ્રસ્ત અને તેમને ઉપદેશ” તથા “હજરત મહમ્મદ અને ઈસ્લામ” એ બે પુસ્તકને તુલનાત્મક અભ્યાસમાં ઉપયોગ કર્યો. ભગવાન મહાવીરની વાણી કેઈ ગ૭, વાદ કે સંપ્રદાયના સંકુચિત વાડાને બદલે માનવજીવનની આત્યંતર સુધારણાને હેતુ રાખે છે. તે હકીકત આ તુલનાત્મક અભ્યાસથી પ્રગટ થઈ. પુસ્તકના પ્રારંભમાં ભગવાન મહાવીરનું જીવનચરિત્ર આપવામાં આવ્યું છે. આમાં કેટલાંક મહત્વના મુદ્દાઓની ચર્ચા કરવામાં આવી છે, જેમ કે જૈન ધર્મ અને બૌદ્ધ ધર્મનું સામ્ય અથવા તો બુદ્ધ અને મહાવીર બંને એક નહિ, પણ બે સ્વતંત્ર વ્યક્તિ હતા તેવું પ્રતિપાદન. આ પ્રકરણમાં મહાવીરનું જીવન, એમને ઉપદેશ અને એમની ક્રાંત દષ્ટિ સુંદર રીતે પ્રગટ થઈ છે. વળી આમાં ભગવાન મહાવીરની ઉપદેશશેલી એમના પ્રતિસ્પધીઓ તેમ જ એમના જીવનમાં પ્રગટ થતું જ્ઞાન અને ક્રિયા-સાધના–વિશેનું સમતોલપણું બતાવવામાં આવ્યું છે. ભગવાન મહાવીરે પોતે આચરેલી અને દર્શાવેલી અહિંસક રહેણીકરણીની વિગતો આપેલી છે. આમ આ જીવનચરિત્ર સંપાદનમાં આગવું મહત્ત્વ ધરાવે છે. પુસ્તકનાં ટિપણમાં તુલનાત્મક અને વિવેચનાત્મક બંને દષ્ટિ પ્રગટ થાય છે. પુસ્તકને અંતે મહાવીર-વાણુમાં આવતા છ દે અને અલંકારને પરિચય આપવામાં આવ્યો છે. પુસ્તકના Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કુમારપાળ દેસાઈ ૫૭ ટિપ્પણોમાં શબ્દને અર્થ, એની વ્યુત્પત્તિ, એની પાછળની ભાવના તેમ જ એને વિશેની કથા એ બધી જ સામગ્રી આપવામાં આવી છે. જૈન ધર્મના પારિભાષિક શબ્દની સમજૂતી અને ચર્ચા તે છે જ, પરંતુ એની સાથોસાથ સંપાદકની વિશાળ દષ્ટિને સતત પરિચય થાય છે. કલ્પસૂત્ર, ઉત્તરાયયન સૂત્ર અને હેમ – અનેકાર્થસંગ્રહ જેવા ગ્રંથની સાથે સાથે મનુસ્મૃતિ, મહાભારત અને વિષ્ણુપુરાણ પર પણ લેખકની નજર છે. ધમ્મપદ, ખેરદેહ અવતા, કુરાન અને બાઈબલના ઉપદેશોના ઉલ્લેખ મળે છે. આમ મહાવીરવાણીના ઘણું સંપાદને થયા છે, પરંતુ આ સંપાદન સંપાદકની ઊંડી શાસ્ત્રીય સૂઝ અને વ્યાપક ધર્મદષ્ટિ માટે મરણીય બની રહેશે. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભારતીય દર્શનમાં મેક્ષાપચાર નગીન જી. શાહ પ્રાસ્તાવિક મોક્ષ એટલે મુક્તિ. કોની? પિતાની-આત્માની. શેમાંથી ? દુઃખમાંથી. પિતાની અર્થાત્ આત્માની દુખમાંથી મુક્તિ એટલે મોક્ષ. આમાં નીચેની બાબતોને પૂર્વસ્વીકાર જરૂરી છે: (૧) પિતાનું અર્થાત આત્માનું અસ્તિત્વ છે. (૨) પિતાને અર્થાત્ આત્માને દુઃખ છે. (૩) દુઃખનાં કારણે છે. (૪) દુઃખનાં કારણેને દૂર કરવાના ઉપાયો છે. (૫) દુઃખમુક્તિ શક્ય છે. આમાં ભગવાન બુદ્ધના ચાર આર્યસત્યનોર અને ગદર્શનના ચતુર્વ્યૂહને ૩ સમાવેશ છે. આ દુઃખમુક્તિ થોડા વખત પૂરતી નથી પરંતુ સદાને માટે છે. એક વાર દુઃખમાંથી મુક્ત થયા એટલે ફરી કદી દુઃખ પડવાનું જ નહિ. બધા પ્રકારનાં દુઃખોમાંથી હંમેશ માટેની મુક્તિને દર્શનશાસ્ત્રમાં મોક્ષ કહેવામાં આવે છે. આત્યંતિક દુઃખમુક્તિ મોક્ષ છે. પગમાં કાંટે વાગ્યે તેથી પીડા થઈ – દુઃખ થયું. કાંટો કાઢી નાખવામાં આવ્યો, કાંટાની પીડામાંથી મુક્તિ થઈ. પરંતુ ફરી કાંટો વાગવાનો સંભવ દૂર થયો નથી. વળી, કાંટાની પીડા દૂર થવા છતાં ગુમડા વગેરેની બીજી પીડા રહી હેવાને સંભવ છે જ. એટલે કાંટાની પીડામાંથી મુક્તિને આત્યંતિક દુ:ખમુક્તિ ન કહેવાય.' દુ:ખ કોને છે ? આત્માને. દુઃખ શરીર, મન કે ઈન્દ્રિય અનુભવતાં નથી પણ તેમના દ્વારા બીજું કોઈ અનુભવે છે. અને તે છે આત્મા. આ આત્મા શું છે અને તેનું સ્વરૂપ કેવું છે એ આપણે જાણું લઈએ તે મોક્ષના સ્વરૂપને સમજવું સરળ થઈ જશે. અહીં ચાર્વાક, પ્રાચીન સાંખ્ય, જૈન, બૌદ્ધ, ઉત્તરકાલીન સાંખ્યયોગ, ન્યાયવશેષિક, શાંકર વેદાન્ત – આટલાં દશનોને આમા વિશે શે મત છે તે સંક્ષેપમાં જઈ જઈએ. આત્મા ચાર્વાકઃ (અચિત્તાત) ચા કે કેવળ અચિત્ત તત્ત્વને જ માને છે. પૃથ્વી આદિ ભૂતોના વિશિષ્ટ સંયોજનને પરિણામે જ્ઞાનધર્મ સંયોજનમાં આવિર્ભાવ પામે છે. ભૂતોનું આ વિશિષ્ટ સંયોજન જ આત્મા છે. આત્મા કેઈ સ્વતંત્ર તત્વ નથી. સંયોજનનું વિઘટન થતાં સંજનનો નાશ થાય છે, અર્થાત આત્માને અત્યંત ઉચ્છેદ થાય છે. આમ અહીં જ્ઞાન એ અચિત્તને જ ધર્મ છે. આ અચિત્ત તત્વ પરિણમનશીલ છે. પ્રાચીન સાંખ્ય, જૈન અને બૌદ્ધઃ (ચિત્ત-અચિત્ત દ્વત) ચાર્વાક મતની વિરુદ્ધ પ્રાચીન સાંખ્ય (વીસ તત્ત્વમાં માનનાર સાંખ્ય), જૈન અને બૌદ્ધ એવું પ્રતિપાદન કર્યું કે જ્ઞાનધર્મ એ ભૌતિક ધર્મોથી ભિન્ન શ્રેણિને છે, અને તેથી ભૌતિક ધર્મો ધરાવનાર અચિત્ત તત્ત્વને તે ધર્મ હેઈ શકે નહિ. તેને માટે અચિત્ત તવથી તદ્દન ઊલટું સ્વતંત્ર ચિત્ત તત્ત્વ સવીકારવું જોઈએ. અચિત્ત તત્ત્વની જેમ આ ચિત્ત તત્વ પણ પરિણમનશીલ છે. તેથી ચિત્ત અને અચિત્તને સંયોગ- વિગ થાય છે. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નગીન જી. શાહ ઉત્તરકાલીન સાંખ્ય : (આત્મ-અનાત્મ દ્વૈત) ઉત્તરકાલીન સાંખ્ય ચિત્ત-અચિત્તના દ્વૈતના સ્થાને આત્મ-અનાત્મના દૂતની સ્થાપના કરી. તેણે ચિત્તથી ઉપરવટ પુરુષ યા આત્મા નામનું તત્ત્વ સ્વીકાર્યું", તેના સ્વીકારતે ન્યાય્ય ઠેરવવા ‘ દર્શીન ' નામના ધર્મનુ પ્રતિપાદન તેણે કર્યું. તેણે કહ્યું કે જ્ઞાન એ ચિત્તનેા ધર્મ છે જયારે દર્શીત એ પુરુષના ધર્મ છે. ચિત્ત જ્ઞાતા છે જ્યારે પુરુષ દ્રષ્ટા છે. આ નવા સ્વીકારેલા પુરુષને તેણે પરિણમનશીલ ન માનતાં ફૂટસ્થનિત્ય માન્યા. આમ પરિણામી અને કૂટસ્થનિત્યનું દ્વૈત ઊભુ થયું. ફૂટસ્થનિત્ય આત્માના પરિણામી ચિત્ત-અચિત્ત સાથે સાચે સયેાગ-વિયેાગ ઘટતા ન હેાઈ ખિમપ્રતિબિંબ સબંધની ભાષા ખેાલાવી શરૂ થઈ.૧૦ રૈના અને બૌદ્ધોએ ચિત્ત ઉપરવટ પુરુષ યા આત્મતત્ત્વના સ્વીકારના વિરોધ કર્યો અને જાહેર કર્યું કે સાગ્યે સ્વીકારેલ દાનધર્મને અમે સ્વીકારીએ છીએ પરંતુ તે ચિત્તના જ ધર્મ છે. ચિત્ત કેવળ જ્ઞાતા નથી પણ જ્ઞાતા અને દ્રષ્ટા બંનેય છે, એટલે ચિત્ત ઉપરવટ પુરુષ યા આત્માને સ્વીકારવાની કોઈ જરૂર નથી. ન્યાય-વૈષિક : (આત્મ-અનાત્મ દ્વૈત) ન્યાયવૈશેષિક દાનિકાએ ઉત્તરકાલીન સાંખ્યના ફૂટસ્થનિત્ય પુરુષ યા આત્માને સ્વીકાર્યાં, પરંતુ ઉત્તરકાલીન સાંખ્ય પ્રકૃતિઅંતર્ગત ચિત્ત અને અચિત્ત તેના સ્વીકાર કરેલા જ્યારે ન્યાય-નૈરોષિક ચિત્તના તદ્દન અસ્વીકાર કર્યાં. બૌદ્ધોએ અને જૈનાએ પુરુષને ન સ્વીકારી તેને ધર્મ દર્શન ચિત્તમાં માન્યા જ્યારે ન્યાય વૈશેષિકાએ ચિત્તને ન સ્વીકારી તો ધર્મ જ્ઞાન પુરુષમાં અર્થાત્ આત્મામાં નાખ્યા. ૧૨ હવે આ જ્ઞાન ધર્મ પરિણામી હાઈ, કૂટથનિત્ય આત્મામાં પરિ ામીપણું આવતું અટકાવવા કાઈ રસ્તા કાઢવાનું તેમને માટે અત્યંત આવશ્યક હતું. તેમણે કહ્યુ કે જ્ઞાન ગુણ છે અને આત્મા દ્રવ્ય છે, અને દ્રવ્ય અને ગુણુ વચ્ચે અત્યંત ભેદ છે.૧૩ જ્ઞાન એ આત્માના સ્વભાવ નથી. તે તા શરીરાવચ્છન્ત આત્મ-મનઃસન્નિકરૂપ નિમિત્તકારણથી આત્મામાં ઉત્પન્ન થઈ સમવાયસંબંધ દ્વારા તેમાં રહે છે.૧૪ હવે અહી” પ્રશ્ન થાય કે પુરુષ યા આત્માના ધર્મ `ન અંગે ન્યાય-વૈશેષિકા શું કહે છે? આત્માના ધર્મ દર્શીન ખાખત કાંચ કશી વાત તેઓએ કરી નથી. કદાચ તે જ તેમને મતે આત્માનું સ્વરૂપ હૈય અને એમ હાય તા, દાન આત્માને ગુણુ અને દર્શન આત્માનું સ્વરૂપ ગણાય. પરિણામે `નને આત્મા કદી ન છેડે, સાંખ્યના ચિત્તનેા ધર્મ એકલેા જ્ઞાન જ નથી પણું સુખ, દુ:ખ, ઇચ્છા, દ્વેષ વગેરે ખીજ ધણા ધર્મો તેના છે. આ બધા ધર્મને ચિત્ત ન સ્વીકારનાર ન્યાય-વૈશેષિકાએ અત્માના ગુણા ગણ્યા છે, ૧૫ ૫૯ શાંકર વેટ્ટાન્ત : (આત્માદ્વૈત) શાંકર વેદાન્તે ચિત્ત અને અચિત્ત બંનેના અસ્વીકાર કર્યા છે. ન્યાયવૈશેષિકાએ ચિત્તને ન સ્વીકારવ! છતાં ચિત્તના ધર્માંતે સ્વીકારી તેમને પુરુષના ગણ્યા પરંતુ ચિત્તના ધર્માંતે પણ સ્વીકાર્યા નથી. અચિત્ત, ચિત્ત, ચિત્તમાં બધું જ સત્ય છે. આમ હાય તા ચિત્તના ધર્મ જ્ઞાન એ પુરુષમાં તે ન જ પુરુષમાં હોય, જ્ઞાન નહિ. પુરુષ જ્ઞાનસ્વરૂપ નહિ પણ્ શિથિલપણે દર્શીનના અર્થમાં 'જ્ઞાન' શબ્દના પ્રયાગ ભલે થતા જોવા મળે, શાંકર વેદાન્તીએ તા તે જ મિથ્યા છે. કેવળ પુરુષ સ્વીકારે જ નહિ, કેવળ દર્યાંનસ્વરૂપ જ મનાય. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભારતીય દર્શનેમાં મેક્ષવિચાર આમ જેને અને બૌદ્ધોને મતે પરિણમનશીલ ચિત્ત જ આત્મા છે જ્યારે ઉત્તરકાલીન સાંખ્ય, ન્યાય-વૈશેષિક અને વેદાન્તના મતે ફૂટસ્થનિત્ય પુરુષ આત્મા છે. દરેકને પિતાને દુઃખનો અનુભવ છે. દુઃખ ત્રિવિધ છે–આધ્યાત્મિક (માનસિક), આધિભૌતિક (શરીરની અંદરથી રોગને લીધે ઉદ્ભવતાં દુખે) અને આધિદૈવિક (બીજા છ દ્વારા અપાતાં શારીરિક દુઃખો ).૧૬ વિષયને ભગવતી વખતે લાગતું સુખ પણ પરિણામે દુઃખ છે. સુખભેગકાળે વિષયના નાશના ભયે ચિત્તમાં દુઃખ બીજરૂપે હોય છે. મારા પ્રિય વિષયો છીનવાઈ જશે, નાશ પામશે એવું મનમાં રહ્યા કરે છે. વિષયના ભોગના સુખાનુભવના સંસ્કાર ભવિષ્યમાં નવા ભેગની પૃહા જન્માવી દુઃખનું વિષચક્ર ચાલુ રાખે છે. આમ વિષયોમાં પરિણામ દુ:ખતા, તાપદુ:ખતા અને સંસ્કારદુઃખતા છે. તેથી જ ભગવાન બુદ્ધે કહ્યું કે “સર્વ દુ ”. પિતાના સ્વભાવ ઉપર આવરણે આવી જવાં એ પણ દુ:ખ છે. અ૯૫તા દુ:ખ છે. જન્મમરણ પણ દુ:ખ છે. દુઃખનાં કારણે પિતાની જાતનું, પોતાના ખરા સ્વરૂપનું અજ્ઞાન એ દુઃખનું મૂળ કારણ છે.૧૮ આ અજ્ઞાનને કારણે આપણે રાગ-દ્વેષ કરીએ છીએ. અને રાગ-દ્વેષ દુઃખ પેદા કરે છે. અજ્ઞાન, રાગ, દ્વેષ આ કલેશો છે. રાગ-દ્વેષપૂર્વક કરાતી પ્રવૃત્તિથી આત્મા (કે ચિત્ત) કર્મ બાંધે છે.૧૮ સાંખ્ય-યોગ, જૈન તે આ કર્મને સહમાતિસૂક્ષમ ભૌતિક દ્રવ્ય ગણે છે, જે આત્માની (કે ચિત્તની) ઉપર આવરણ રચી તેના જ્ઞાન આદિ ગુણને ઢાંકી દે છે. બૌદ્ધો પણ કર્મને આવા ભૌતિક દ્રવ્યરૂપ માનતા હેય એ સંભવ છે.• આ કર્મોનું આવરણ દુઃખરૂપ છે. કલેશને પણ આવરણ માનવામાં આવ્યાં છે. આસકિત, કામ, ક્રોધ, વગેરે સ્વભાવને કેવો ઢાંકી દે છે તેની વાત “ઘાયરો વિષચન પુલ...લેકમાં ગીતાએ કયાં નથી કરી ? દુઃખનાં કારણેને દૂર કરવાના ઉપાય દુઃખનાં કારણોને દૂર કરવા માટે સૌપ્રથમ તો પોતાના ખરા સ્વરૂપનું જ્ઞાન મેળવવું જોઈએ. આને માટે ચિત્તશુદ્ધિ જરૂરી છે. ચિત્તમાંથી મળે દૂર કરવા મંત્રી, કરુણા, મુદિતા અને ઉપેક્ષા (માધ્યય) ભાવના કેળવવી જોઈએ. વળી, અહિંસા આદિ પાંચ યમ અને શૌચ આદિ પાંચ નિયમનું પાલન કરવું જોઈએ. પછી ધ્યાનમાર્ગની સાધના દ્વારા ચિત્તની વૃત્તિઓને નિરોધ કરવો જોઈએ. ચિત્તવૃત્તિઓનો નિરોધ થતાં પિતાના ખરા સ્વરૂપને સાક્ષાત્કાર થાય છે. જેટલાં કલેશે ઓછાં એટલું દુઃખ એ છું. કલેશપૂર્વક કરાતી પ્રવૃત્તિ જ કર્માવરણ રચતી હોઈ ક્લેશ દૂર થતાં કર્માવરણે સંપૂર્ણપણે દૂર થાય છે અને ચિત્ત પોતાના શુદ્ધ સ્વરૂપમાં પ્રગટ થાય છે, દુઃખમાંથી મુક્ત થાય છે. મોક્ષ શકય છે? દુઃખમુક્તિ–મોક્ષ શક્ય છે. કેટલાક મોક્ષને અશકય માને છે. તેમની દલીલે નીચે પ્રમાણે છે: (૧) વ્યક્તિ જન્મે છે ત્યારે કલેશે સાથે જ જન્મે છે અને મરે છે ત્યારે પણ કલેશ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નગીન જી. શાહ ક સાથે જ મરે છે, કલેશસંતતિ સ્વાભાવિક હૈ, અનાદિ છૅ, એટલે તેના ઉચ્છેદ શકલ્પ નથી. કલેશાની શ ંખલા અત્યંત પ્રાળ અને અદ્ય છે.૨૨ (૨) વ્યક્તિ જન્મથી માંડી મૃત્યુ સુધી પ્રવૃત્તિએ કર્યાં જ કરે છે. પ્રવૃત્તિથી ક`બધ થાય છે. બંધાયેલાં કર્મ ભોગવવા પ્રવૃત્તિ થાય છે. વળી તે પ્રવૃત્તિથી કર્મ બંધ અને બધાયેલાં કમ ભેગવવા વળી પ્રવૃત્તિ. આમ ચક્ર ચાલ્યા જ કરે છે, એટલે મેાક્ષ શકય નથી. ૭ (૩) મેાક્ષનું સાક્ષાત્ કારણુ સ્વસ્વરૂપનું જ્ઞાન અર્થાત વિદ્યા છે. આ વિદ્યાની ઉત્પત્તિ માટેના ઉપાય સમાધિ છે. પરંતુ સમાધિ પોતે જ અશકય છે કારણ કે વિષયે અત્યન્ત પ્રખળ છે;૪ ઈચ્છા ન કરવા છતાં વિષયા તા વૃત્તિઓ ઉત્પન્ન કરે છે અને ચિત્તને એકાગ્ર થવા દેતા નથી. વળી, આધિ, વ્યાધિ અને ઉપાધિને લઈને ચિત્ત એકાગ્ર થઈ શકતું નથી.૨૫ (૪) જો મેાક્ષ સંભવતા હોય તા એક સમય એવે આવે જ્યારે બધા મુક્ત થઈ જાય અને સંસારના ઉચ્છેદ થઈ જાય. મેાક્ષની સંભાવના સ્વીકારતાં સંસારાચ્છેદની આપત્તિ આવે. તેથી મેાક્ષ સંભવતા નથી. ઉપરની ચારેય દલીલોના ઉત્તરે નીચે પ્રમાણે છે. (૧) કલેશાના ઉચ્છેદ શકય છે એ સુષુપ્તિના દૃષ્ટાન્તથી સમાય છે. લેશેપશાન્તિની અવસ્થા સુષુપ્તિ એ ક્લેશક્ષયની અવસ્થાની સંભવિતતા સૂચવે છે.૨૭ ક્લેશા સ્વાભાવિક નથી પશુ તેમનું કારણ છે, તેમનું કારણુ અજ્ઞાન છે.૨૮ રાગ વગેરેના નાશ તેમની પ્રતિપક્ષ મૈત્રી આદિ ભાવનાથી થઈ શકે છે. ૨૯ (૨) ક્લેશરહિત વ્યક્તિની પ્રવૃત્તિ કર્મ બંધનું કારણ નથી. (૩) વિક્ષેપે। સમાધિના ભંગ ન કરી શકે તે માટેને ઉપાય છે અભ્યાસ.૧ (૪) મેાક્ષ શકય હોવા છતાં સંસરાચ્છેદ થવાનેા નથી કારણ કે સંસારી જીવે અનંત છે. માટે આત્યંતિક દુ:ખમુક્તિ શકય છે એ નિઃશંક છે. ૨ માક્ષ જૈતાને મતે મેાક્ષ : અનાદિ કાળથી કલેશયુક્ત ( કાયયુક્ત ) પ્રવૃત્તિઓને કારણે ચિત્તને લાગતાં રહેલાં કર્મોનાં આવરણા, ક્લેશાનેા સંપૂર્ણ ક્ષય થતાં જ્યારે સંપૂર્ણપણે દૂર થાય છે ત્યારે જીવના મેાક્ષ થયા કહેવાય છે. જૈતેને મતે ચિત્ત જ આત્મા છે, તે પરિણામી છે. મેાક્ષમાં પણ તે પરિણામી જ રહે છે અને શુદ્ધ પરિણામા પ્રવાહ ચાલ્યા કરે છે. શુદ્ધ ચિત્ત અનંત જ્ઞાન અને અનંત દર્શીન ધરાવે છે. કારણ કે જ્ઞાનાવરણીય કર્યાં અને દનાવરણીય કર્માંના ક્ષય થઈ ગયા હોય છે. સુખ અને દુ:ખના કારણભૂત વેદતીયક્રમના ક્ષય થઈ ગયા હોઈ સુખદુઃખથી પર તે બની જાય છે. આને પરમ આનન્દની અવસ્થા ગણવામાં આવે છે. દર્શીત મેાહનીય કા ક્ષય થયા હ।ઈ ચિત્તને ક્ષાયિક સમ્યક્ દન હૈાય છે. ચારિત્ર્યમાહનીય ક`તા ક્ષય થયા હોઈ ક્રોધ, માન, માયા અને લેાભ આ ચાર કષાયેના આવિર્ભાવ મેક્ષમાં શકય નથી. તેમ જ હાસ્ય, રતિ, અરતિ, શાક, ભય, જુગુપ્સા વગેરે તાકષાયાને આવિર્ભાવ પણ તેમાં શકય નથી. અન્તરાય કર્માંતા ક્ષયના કારણે આત્મા મેાક્ષમાં પૂર્ણ વી ધરાવે છે. નામકર્મના, ગાત્રકના અને આયુષ્કર્મોના ક્ષયને કારણે Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભારતીય દર્શનમાં માક્ષવિચાર વ્યક્તિત્વને, ઊંચ-નીચ ગોત્ર અને આયુષ્યને અભાવ હોય છે, અર્થાત મોક્ષની સ્થિતિમાં તે અશરીરી હેાય છે.૨૩ મોક્ષ થતાં જીવ ક્યાં જાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં જૈને જણાવે છે કે કર્મો દૂર થતાં જીવ ઊર્ધ્વગતિ કરે છે અને સીધે એક ક્ષણમાં તે લેકના અગ્રભાગે પહોંચી ત્યાં આવેલ સિદ્ધશિલા ઉપર સ્થિર થાય છે.૩૪ જે શુદ્ધ ચિત્તો બધાં જ અનન્તજ્ઞાની, અનંતદશી, અનંતચારિત્રી અને અનંતવીર્યવાન હોય તો તેમની વચ્ચે ભેદ છે ? કંઈ જ નહિ. બધાં એકસરખાં હોય છે. પરંતુ જેનેએ અહીં મોક્ષમાં પણ દરેકનું જુદું વ્યક્તિત્વ સ્થાપવા પ્રયત્ન કર્યો છે અને જણાવ્યું છે કે અંતિમ જન્મમાં દેહપાત વખતે જે શરીરાકાર હોય તેવો આકાર મોક્ષાવસ્થામાં પણ તેને હોય છે.૩૫ આ જૈન માન્યતા કંઈક વિચિત્ર લાગે છે. મોક્ષના ઉપાય તરીકે જૈન સંવર અને નિજરને ગણાવે છે. સંવરનો અર્થ છે કર્મોને આવતાં અટકાવવા અને નિર્જરાને અર્થ છે લાગેલાં કર્મોને દૂર કરવાં. કર્મોને આવતાં અટકાવવા માટે મન, વચન, કાયાની પ્રવૃત્તિનો સંયમ (ગુતિ), પ્રવૃત્તિ કરવામાં વિવેક રાખવો ( સમિતિ), સહનશીલતા, સમતા, ક્ષમા, ત્યાગ, પાપવિરતિ, અનુપ્રેક્ષા, તપ વગેરે ઉપાય જણાવાયા છે. કર્મોને દૂર કરવા માટે તપ આવશ્યક છે. બીજી રીત, જૈન સમ્યફ દર્શન, સમ્યફ જ્ઞાન અને સમ્યફ ચારિત્રને મોક્ષનો ઉપાય ગણે છે. મોક્ષ માટે ત્રણેય જરૂરી છે. સમ્યફ દર્શન એ તત્ત્વ તરફને પક્ષપાત છે, સત્ય તરફને પક્ષપાત છે. સમ્યફ દર્શનને પરિણામે, જે કંઈ જ્ઞાન હોય છે તે સમ્યકુ બની જાય છે, કારણ કે હવે તે મોક્ષ પ્રાપ્તિ માટે ઉપયોગી બને છે અને કુકર્મોથી પાછા વાળે છે. જૈનોએ કર્મોના બે ભેદ કર્યા છે – ઈપથિક અને સાંપરાયિક. પથિક કર્મો તે છે જે કષાયરહિત પ્રવૃત્તિને કારણે આત્માને લાગે છે. અને સાંપરાચિક કર્મો તે છે જે કષાયયુક્ત પ્રવૃત્તિને કારણે આત્માને લાગે છે. ઇર્યાપથિક કર્મે ખરેખર આમા સાથે બંધાતા નથી, બંધ નામને જ હેય છે, તેનું કોઈ ફળ નથી.૩૮ આ દર્શાવે છે કે પ્રવૃત્તિ છેડવા કરતાં કષાયો છેડવા ઉપર વિશેષ ભાર આપવો ઉચિત છે. જેનામાં કષાયો નથી તેમ છતાં જે પ્રવૃત્તિ કરે છે તેને જૈન પરિભાષામાં સયોગી કેવલી કહેવામાં આવે છે. તેને જીવમુક્ત ગણી શકાય. જે કલેશે ઉપરાંત કર્મથી અને પ્રવૃત્તિથી પણ મુક્ત બને છે તેને અયોગી કેવલી કહેવામાં આવે છે. આને વિદેહમુક્ત ગણી શકાય. બૌદ્ધને મતે મેક્ષ : બૌદ્ધ મતે ચિત્ત જ આત્મા છે. ચિત્ત સ્વભાવથી પ્રભાસ્વર છે. જ્ઞાન અને દર્શન તેનો સ્વભાવ છે. રાગ-દ્વેષ આદિ મળ આગન્તુક છે.૪૦ આ આગંતુક મળે અનાદિ કાળથી ચિત્તપ્રવાહ સાથે સેળભેળ થઈ ગયા છે. તેમને દૂર કરી ચિત્તને તેના મૂળ સ્વભાવમાં લાવવા બુદ્ધને ઉપદેશ છે. મળો દૂર થતાં ચિત્તનું સ્વસવભાવમાં આવવું તે જ મોક્ષ છે. “કુરિનિર્મઢતા ધિય: ૨ બોદ્ધો મોક્ષને માટે “નિર્વાણુ” શબ્દનો પ્રયોગ કરે છે. બૌદ્ધ મોક્ષને વિશે કહેવામાં આવ્યું છે કે કપ-વેના-સંજ્ઞા-સંછાન-વિજ્ઞાનપદ્મધુનિરાધા ૩૪માવો મોક્ષ આમ પંચસકધાભાવ એ મેક્ષ છે. રૂપક દેહવાચી છે. તેને વ્યાપક અર્થ છે Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૭ નગીન જી. શાહ ભૂત-ભૌતિક તૈયપદાર્થો, વિજ્ઞાનધ એ નિવિચાર અને પરિણામે કેવળ અનુભવાત્મક એવું વિષયાકાર જ્ઞાન છે. સંજ્ઞાસ્ક ધ એ સવિચાર અને સ્મૃતિજન્ય જ્ઞાન છે. વેદનાસ્કંધ સુખ-દુ:ખનું વેદન છે. સંસ્કારસ્ક ધ એ વાસના છે. આ પાંચ સ્કધોને નિાધ એ મેાક્ષ છે. આને અથ એ થયા કે ચિત્તની વૃત્તિરહિતતા નિર્વાણુ છે. નિર્વાણમાં વિષયાકારો કે સુખદુ:ખાકારો ચિત્તમાં ઊઠતા નથી. નિર્વાણમાં કેવળ શાન્તિ હૈાય છે. તેને સુખ ગણુવું હોય તે ગણુા. એક વાર ચિત્ત આવી અવસ્થાને પામે છે પછી તે તેમાંથી શ્રુત થતુ' નથી. આ અર્થાંમાં નિર્વાણુને અચ્યુત અને નિત્ય ગણવામાં આવે છે. રૂપાદિ પાંચ સ્કન્ધા જ સંસારી અવસ્થામાં એક ચિત્તને ખીન્ન ચિત્તથી ભેદ્દ કરે છે અને વ્યક્તિત્વ બક્ષે છે. આ વ્યક્તિત્વને માટે ‘પુદ્ગલ' શબ્દના પ્રયે!ગ કરવામાં આવે છે. રૂપ આદિ પાંચ જ ચિત્તનું વ્યક્તિત્વ છે, મ્હારુ છે. તેમનાથી અતિરિક્ત વ્યક્તિત્વ છે જ નહિ. આ સમાવવા માટે જ નાગસેને રથનું પ્રસિદ્ધ દૃષ્ટાન્ત આપ્યું છે. રથના એક એક અવયવને લઈ નાગસેન પૂછે છે, “ આ રથ છે” ? દરેક વખતે મિલિન્દ “તા'' કહે છે. છેવટે કાઈ અવયવ કે કશું ખચતું નથી ત્યારે નાગસેન પૂછે છે, કે તેા પછી રથ કયાં ? ચક્ર આદિ અવયવાથી અતિરિક્ત રથ નામની કોઈ અવયવી વસ્તુ નથી. અવયવાથી ભિન્ન અવયવી નામની કઈ વસ્તુને બૌદ્ધો સ્વીકારતા નથી એ અહી` યાનમાં રાખીએ. સ્કંધા પાતે જ વ્યક્તિત્વ છે. આ વ્યક્તિત્વને જ પુદ્ગલ કહેવામાં આવે છે.૪૪ નિર્વાણુમાં પાંચ સ્ક'ધાના અભાવ થતાં વ્યક્તિત્વના અર્થાત્ પુદ્ગલના અભાવ થાય છે. પરંતુ એનેા અર્થ એ નહિ કે ચિત્તને અભાવ થઈ જાય છે. વ્યક્તિવિહીન ચિત્ત તા નિર્વાણુમાં રહે છે જ.૪૫ અર્થાત, નિર્વાણમાં બધાં ચિત્તો તદ્દન એકસરખાં જાય છે. તેમની વચ્ચે કાઈ પણ પ્રકારને ભેદ હાતા નથી. દીપનિર્વાણુનુ દૃષ્ટાન્ત આ પુદ્ગનિર્વાણુને સમજાવે છે. તેલ ખૂટી જતાં કે વાટ સળગી જતાં દીવા જેમ હાલવાઈ જાય છે, તેને ઉચ્છેદ થાય છે,૪૬ તેમ પાંચ ધાન અભાવ થતાં વ્યક્તિત્વને (પુદ્ગલનેા) નાશ થાય છે. ‘આત્મા' શબ્દ ચિત્ત અને પુદ્ગલ બનેને માટે વપરાયા હોવાથી નિર્વાણુમાં ચિત્તનાય અભાવ થઈ જાય છે એવી ગેરસમજ ઊભી થઈ છે. કેટલાકના મતે દીપનિર્વાણુનું દૃષ્ટાન્ત, મુક્ત થયેલું ચિત્ત કયાં જાય છે એવા પ્રશ્નના પેાતાના ઉત્તર સમજાવવા બૌદ્ધોએ આપેલ છે. દીવા ઝુઝાઈ જતાં કાં જાય છે? પૂ॰માં, ઉત્તરમાં, ઉપર, નીચે, દક્ષિણમાં, ઇત્યાદિ આવા પ્રશ્ન પૂછી ભોદ્દો સૂચવવા માગે છે કે મુક્ત થયેલું ચિત્ત કાં જાય છે એ પ્રશ્ન પૂછવા યાગ્ય નથી. તે અમુક જગ્યાએ જઈને રહે છેએમ *હેવુ ઉચિત નથી. સિદ્ધશિલા જેવી કલ્પનાને બૌદ્ધો યેાગ્ય ગણુતા નથી. બૌદ્ધોએ નિર્વાણુના બે પ્રકાર માન્યા છે-સાપધિશેષ અને નિરુપધિશેષ, સેાધિશેષમાં રાગાદિના નાશ થઈ જાય છે પણ પાચકધો રહે છે. અહીં ચિત્તનુ પુદ્ગલ અર્થાત વ્યક્તિત્વ નિરાસ્રવ (રાગાદિ દેખરહિત ) ડેાય છે. આને જીવનમુક્તિ ગણી શકાય. નિરુપધિશેષમાં પાંચ સ્થાને પણ અભાવ થઈ જાય છે. અહીં ચિત્તનું પુદ્ગલ અર્થાત્ વ્યક્તિત્વ પણ નાશ પામે છે. કેવળ ચિત્ત જ રહે છે. આને વિદેહમુક્તિ ગણી શકાય.૪૭ ખૌદ્ધોનુ ચિત્ત ક્ષણિક છે, તેા પછી તેના મેાક્ષની વાત કરવાના શો અર્થ? આના ઉત્તર એ છે કે ચિત્ત ક્ષણિક હેાવા છતાં એવાં ચિત્તોની એક હારમાળાને (=સન્તતિને), જેમાં પૂ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભારતીય દર્શનમાં મેક્ષવિચાર પૂર્વનાં ક્ષણિક ચિત્તો ઉત્તરઉત્તરનાં ક્ષણિક ચિત્તોનાં ઉપાદાને કારણે હોય છે, બૌદ્ધો માને છે. ચિત્તસગ્નતિમાં પ્રવાહનિત્યતા છે. તેથી તેના મોક્ષની વાત કરવામાં કશું અનુચિત નથી.૪૮ જે ચિત્તસગ્નતિ મળો દૂર કરી શુદ્ધ થાય છે તે જ સન્નતિ મુક્ત થાય છે, બીજી નહિ. ચિત્તસંતતિ અને ચિત્તદ્રવ્ય એ બેમાં કઈ ખાસ ભેદ નથી. - બુદ્ધ નિર્વાણના ઉપાય તરીકે શીલ, સમાધિ અને પ્રજ્ઞાને ગણાવ્યાં છે. વળી તેમણે આર્ય અષ્ટાંગિકમાર્ગ, સાત બેધિ-અંગ, ચાર મૈત્રી આદિ ભાવના (બ્રહ્મવિહાર) અને સમાધિને પણ નિર્વાણુના ઉપાયો ગણાવ્યા છે. બૌદ્ધો પણ કહે છે કે તૃષ્ણ જ દુઃખનું મૂળ છે અને કર્મબંધનું કારણ છે. જે તૃણુરહિત બની પ્રવૃત્તિ કરે છે, તે દુ:ખી થતો નથી અને કર્મ બાંધતો નથી.. સાંખ્યયોગ દૃષ્ટિએ મેષ : સાંખ્યયોગ મતે આધ્યાત્મિક, આધિદૈવિક અને આધિભૌતિક દુઃખત્રયની આત્યંતિક નિવૃત્તિ મેક્ષ છે. સાંખ્યયોગ ચિત્ત ઉપરવટ પુરુષ માને છે. તેથી પ્રશ્ન ઊઠે છે કે મોક્ષ કોન–ચિત્તનો કે પરષનો ? કેટલાક બંધ અને મોક્ષ ખરેખર ચિત્તના જ માને છે.૫૦ જ્યારે બીજા કેટલાક બંધ અને મોક્ષ પુરુષના માને છે. જેઓ બંધ અને મોક્ષ ચિત્તના માને છે તેઓ કહે છે: ચિત્તમાં પુરુષનું પ્રતિબિંબ પડે છે. પુરુષના પ્રકાશથી પ્રકાશિત ચિત્ત પોતે જ પુરુષ છે એમ માની લે છે અને સુખદુઃખ તેમ જ વિષયાકારે પરિણમનાર હું પોતે જ પુરૂષ છું એવું અભિમાન ધરાવે છે. આ ચિત્તને અવિવેક (યા અજ્ઞાન) છે. ચિત્ત યોગસાધના દ્વારા વૃત્તિનિરોધ કરે છે અને ચિત્તમળાને દૂર કરી પિતાની શુદ્ધિ કરે છે. આવા ચિત્તમાં પુરુષનું સ્પષ્ટ અને વિશદ પ્રતિબિંબ પડે છે. હવે ચિત્તને પુરુષના ખરા સ્વરૂપનું જ્ઞાન થાય છે અને પરિણામે પોતાને પુરુષથી ભેદ સમજાય છે. આ છે વિવેકજ્ઞાન. વિવેકજ્ઞાનથી તે જાણે છે કે પુરુષ તે કૂટસ્થનિત્ય અને નિર્ગુણ છે, જ્યારે હુ પરિણમી અને ગુણું છું. આવું વિવેકજ્ઞાન થતાં ચિત્ત પુરુષના પ્રતિબિંબને ઝીલવાનું બંધ કરી દે છે અને સંપૂર્ણ વૃત્તિનિરોધ કરી પુરુષ આગળ પોતે પ્રગટ થવાનું બંધ કરી દે છે. તેને હવે પુરુષ સાથે કોઈ સંબંધ રહેતો નથી, કારણ કે પુરુષ ચિત્તની વૃત્તિઓને જ દ્રષ્ટા છે.પ૧ પરંતુ વૃત્તિઓને સપૂર્ણ નિરોધ થતાં પુરુષ પિતે દ્રષ્ટાસ્વરૂપ હોવા છતાં તેને ચિત્ત સાથે દ્રષ્ટાપણાને સંબંધ પૂરો થઈ જાય છે. ચિત્ત કેવળ બની જાય છે. પુરુષનું પ્રતિબિંબ ચિત્તમાં પડતું નથી. છેવટે ચિત્તનો પોતાની મૂળ પ્રકૃતિમાં લય થઈ જાય છે. આ ચિત્તલય જ મેક્ષ છે. ચિત્તમાં પુરુષના પ્રતિબિંબને અર્થ સમજવાનો છે ચિત્તનું પુરુષાકારે પરિણમન. ચિત્ત તે તે વિષયના આકારે પરિણમી તેને જાણે છે. જેઓ ચિત્તનો મોક્ષ માને છે તેઓ પુરુષમાં ચિત્તના પ્રતિબિંબની વાત કરતા નથી. જેઓ પુરુષનો મોક્ષ માને છે તેઓ પુરુષમાં ચિત્તનું પ્રતિબિંબ સ્વીકારે છે.પ૩ આ પ્રતિબિંબ દર્પણમાં મુખપ્રતિબિંબ જેવું છે, પરિણામરૂપ નથી. તેમ છતાં જેઓ પુરુષમાં ચિત્તનું પ્રતિબિંબ નથી સ્વીકારતા તેઓ માને છે કે આવું પ્રતિબિંબ પણ પુરુષમાં માનીએ તો ફૂટસ્થનિત્ય પુરુષની બે અવસ્થાઓ માનવી પડે અને પરિણામે પુરુષના કૂટસ્થંનિત્યત્વને હાનિ થાય. કેઈને પ્રશ્ન થાય કે ચિત્તના મેક્ષની વાતમાં દુઃખમુક્તિ કયાં આવી ? એને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે. દુઃખ એ ચિત્તની વૃત્તિ છે. દુઃખરૂપ ચિત્તવૃત્તિ ઉદ્દભવવાનું કારણ રાગ આદિ લેશે છે. કલેશે. પણ ચિત્તવૃત્તિઓ છે. રાગ આદિ કલેશરૂપ ચિત્તવૃત્તિઓને નિરોધ થતાં દુઃખરૂપ ચિત્તવૃત્તિઓનો WWW.jainelibrary.org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નગીન જી. શાહ ૬૫ નિરોધ થઈ જાય છે. વિવેકજ્ઞાનરૂપ ચિત્તવૃત્તિથી અવિવેકજ્ઞાનરૂપ ચિત્તવૃત્તિને નિરોધ થઈ જાય છે. અવિવેકજ્ઞાનરૂપ ચિત્તવૃત્તિના નિરાધ થતાં રાગ આદિ કલેશરૂપ ચિત્તવૃત્તિને નિરોધ થાય છે અને ક્લેશરૂપ ચિત્તવૃત્તિઓને નિરોધ થતાં દુઃખરૂપ ચિત્તવૃત્તિને નિરાધ થઈ જાય છે.પ૪ વિવેકી ચિત્તને ક્લેશ કે દુ:ખ હેતાં નથી. વિવેકી ચિત્તને પુનર્ભવ નથી. આ જીવનમુક્તિ છે,૫૫ તેનાં પ્રારબ્ધ કમેર્યાં ભાગવાઈ જતાં વિવેકી ચિત્ત કમમુક્ત થાય છે અને તેને પ્રકૃતિમાં લય થાય છે. આ વિદેહમુક્તિ છે.પ. આમ ક્રમથી અજ્ઞાનમુક્તિ, કલેશમુક્તિ, દુ:ખમુક્તિ અને કરમુક્તિ થાય છે.૫૭ જે પુરુષની મુક્તિની વાત કરે છે તે આ પ્રમાણે જણાવે છે: પરિણામી ચિત્તની વૃત્તિઓનુ` પ્રતિબિંબ પુરુષમાં પડે છે. પુરુષગત ચિત્તવૃત્તિના પ્રતિભિ અને અર્થ પુરુષનું ચિત્તવૃત્તિના આકારે પરિણમન નથી પરંતુ કેવળ પ્રતિબિંબ જ છે. તેથી પુરુષની ફૂટસ્થનિત્યતાને કઈ વાંધા આવતા નથી.૫૮ ચિત્તની સ્વપુરુષતા અવિવૈકરૂપ ચિત્તવૃત્તિ, સુખાકાર કે દુઃખાકાર ચિત્તવૃત્તિ પુરુષમાં પ્રતિબિંબિત થાય છે. આમ પુરુષમાં પ્રતિબિંબાત્મક અવિવેક અને દુ:ખ છે. જ્યારે ચિત્તમાં વિવેકજ્ઞાનરૂપી વૃત્તિ જાગે છે ત્યારે ક્રમથી રાગાદિ લેશેારૂપ ચિત્તવૃત્તિ અને દુઃખરૂપ ચિત્તવૃત્તિ ચિત્તમાં ઊઠતી નથી. પરિણામે પુરુષમાં પણ પ્રતિબિંબાત્મક વિવેકજ્ઞાન જાગે છે અને તેથી ક્રમશઃ પ્રતિબિંબાત્મક ક્લેશરૂપ ચિત્તવૃત્તિએ અને દુ:ખરૂપ ચિત્તવૃત્તિ દૂર થાય છે. આમ પુરુષ પ્રતિષિ ખાત્મક દુઃખમાંથી મુક્ત થાય છે.૫૯ છેવટે જ્યારે ચિત્ત વિવેકજ્ઞાનરૂપ વૃત્તિનેાય નિરોધ કરી સર્વ વૃત્તિઓને નિરાધ સાધે છે ત્યારે ચિત્તનું પ્રતિબિંબ પુરુષમાં પડતું મધ થઈ જાય છે, કારણ કેવૃત્તિરહિત ચિત્તનું પ્રતિષિઞ પુરુષમાં પડી શકતું નથી.” આમ પુરુષ સાવ કેવળ ખની જાય છે અને કૈવલ્ય પામ્યા એમ કહેવાય છે. આમ ચિત્તને ચા ગુણૢાના પેાતાના મૂળ કારણમાં લય એ કૈવલ્ય છે; અથવા સ્વસ્વરૂપમાં પ્રતિષ્ઠિત ચિતિશક્તિ એ કૈવલ્ય છે.૬૧ મેક્ષમાં ચિત્તને તા લય થઈ ગયા હૈાય છે. કેવળ પુરુષ જ હેાય છે. પુરુષને સુખ હતુ નથી, કારણ કે હવે સુખરૂપ ચિત્તવૃત્તિનું પુરુષમાં પ્રતિબિંબ અસંભવ છે. બીજું, પુરુષ દ્રષ્ટા છે પરંતુ તેના દનના વિષયભૂત ચિત્તવૃત્તિને અભાવ હાઈ પુરુષને કશાનુ` દર્શન નથી. આમ અહીં તે કશાનું દર્શન ન કરતા હોવા છતાં દ્રષ્ટા છે. સાંખ્ય-યોગ પુરુષમહુત્વવાદી હાઈ આવા મુક્ત પુરુષો અનેક છે. ૨ મુક્ત પુરુષાને રહેવાનું કંઈ નિયત સ્થાન સાંખ્ય-ચેાગે જણાવ્યુ` નથી. આનું કારણ એ હોઈ શકે કે તેમને મતે પુરુષ વિભુ યા સર્વાંગત છે. પુરુષને જ્ઞાન હેતુ નથી કારણુ કે એ તા ચિત્તના ધર્મો છે. ન્યાયવૈશેષિક મતે મેાક્ષ : ન્યાય-વૈશેષિક મતે પણ આત્મન્તિક દુ:ખનિવૃત્તિ મેાક્ષ છે. આપણે જોઈ ગયા કે આ દાર્શનિકા ચિત્તને માનતા નથી. પરંતુ ચિત્તના જ્ઞાન, દુ:ખ વગેરે ધર્મ પુરુષમાં માને છે. આમ દુઃખ પુરુષના ધર્મ છે, ગુણુ છે. જ્ઞાન, સુખ, દુ:ખ વગેરે ગુણે અનિત્ય છે, તેઓ ઉત્પન્ન થાય છે અને નાશ પામે છે. અનિત્ય ગુણા ધરાવનાર પુરુષ ફૂટસ્થનિત્યક્રમ હેાઈ શફે ? તે માટે દ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભારતીય દર્શનમાં ક્ષવિચાર ન્યાયવૈશેષિકોએ અનિત્ય ગુણેને પુરુષથી અત્યંત ભિન્ન માન્યા છે. છતાં તે ઉત્પન્ન થઈ પુરુષમાં સમવાયસંબંધથી રહે છે. તેથી દુઃખ એ પુરુષનું સ્વરૂપ નથી પણ આવો ગુણ છે. દુઃખની ઉત્પત્તિ થતી તદ્દન બંધ કરી દેવામાં આવે તે પુરુષમાં સમવાય સંબંધથી રહેતા દુઃખને અભાવ થઈ જાય. આ જ મેક્ષ છે. સાંખ્યના ચિત્તના જે ધર્મો છે તે વશેષિકના પુરુષના વિશેષ ગુણ છે. આ ગુણો નવ છે– જ્ઞાન, સુખ, દુઃખ, ઈચ્છા, દ્વેષ, પ્રયત્ન, ધર્મ, અધર્મ અને સંસ્કાર. આ નવેય ગુણોને અત્યત ઉચ્છેદ મેક્ષ છે. ૬૩ આત્માના આ વિશેષ ગુણોને અત્યન્ત ઉચ્છેદ થવાથી આત્માને પિતાને ઉછેદ થતો નથી, કારણ કે દ્રવ્યરૂપ આત્મા નિર્વિકાર, ફૂટસ્થનિત્ય છે અને તેને તેના વિશેષગુણોથી અત્યન્ત ભેદ છે. આત્માના બધા વિશેષગુણોને જ્યારે અત્યન્ત 3છેદ થાય છે ત્યારે તેનું સ્વસ્વરૂપમાં અવસ્થાન થાય છે. પરંતુ આત્માનું સ્વરૂપ શું ? ન્યાય-વૈશેષિકેએ કહ્યું નથી પણ તેમના આત્માનું સ્વરૂપ પણ સાંખ્યના પુરુષનું જે સ્વરૂપ – દર્શન છે તે હેય. ન્યાયશેષકોને આત્મા ચેતન છે. ઉપરની ચર્ચા ઉપરથી ફલિત થયું કે મેક્ષમાં આત્માને જ્ઞાન પણ નથી કે સુખ પણ નથી. (અને દર્શનની વાત તે ક્યાંય ન્યાયવશેષિકેએ કરી જ નથી.) ન્યાય-વૈશેષિકોના આવા મોક્ષની કટુ આલેચના વિરોધીઓએ કરી છે. તેઓ કહે છે કે મુક્તિમાં આત્મા સુખ અને સંવેદનથી રહિત થઈ જતો હોય તે એની અને જડ પથ્થરની વચ્ચે શું અંતર રહ્યું ? મુક્ત આત્મા અને જડ પથ્થર બંને સુખ અને જ્ઞાનથી રહિત છે. જે મુક્ત આત્મા જડ પથ્થર જેવો જ હોય તે પછી તે દુઃખ મત છે એમ કહેવાને શો અર્થ ? ૫ આના ઉત્તરમાં ન્યાય-વશેષિકા જણાવે છે ? માણસને એવ’ કહેતા સાંભળ્યો નથી કે પથ્થર દ:ખમાંથી મુક્ત થયો. દુઃખનિવૃત્તિના પ્રશ્ન તે જેની બાબતમાં દ ૫ત્તિ શકય હોય. પથ્થરમાં ૫ત્તિ શકય જ નથી. તેથી મુક્ત આત્માને પથ્થર સાથે સરખાવો યોગ્ય નથી. વળી, વિરોધીએ આક્ષેપ કરે છે કે જે મુક્ત પુરુષને કંઈ જ્ઞાન ન હોય અને તેને કંઈ સુખ ન હોય તો તેની અવસ્થા મૂછવસ્થા જેવી ગણાય અને મૂછવસ્થાને કાઈ નથી ઈચ્છતું, તો તેને કોણ છે ? આના ઉત્તરમાં ન્યાય-વૈશેષિક જણાવે છે કે બુદ્ધિમાન મનુષ્ય કદીય મૂર્વાવસ્થા નથી ઈચ્છતો એમ માનવું બરાબર નથી. અસહ્ય વેદનાથી કંટાળી બુદ્ધિ. માન મનુષ્ય પણ મછવસ્થા ઈચ્છે છે અને કેટલીક વાર તો આત્મહત્યા કરવા પણ તત્પર થાય છે. ૬૭ વળી, ન્યાય-વૈશેષિક ચિંતકો કહે છે કે સુખ અને દુઃખનિવૃત્તિ બંનેય ઈષ્ટ છે, પુરુષાર્થ છે, પરંતુ બુદ્ધિમાન વ્યક્તિને તે બેમાંથી દુઃખનિવૃત્તિ જ વધુ પ્રિય છે કારણ કે તે જાણે છે કે કેવળ સુખ પામવું અશકય છે, સુખ દુઃખાનુષક્ત જ હોય છે. ૪૮ ન્યાય-વૈશેષિકના આ પ્રસ્થાપિત સિદ્ધાન્ત વિરુદ્ધ નવમી શતાબ્દીના ભાસર્વજ્ઞ નામના નિયાચિકે મેક્ષમાં નિત્ય સુખ અને તેના સંવેદનની સ્થાપના કરી છે.૬૯ જે પુરુષનું સવરૂપ દર્શન હોય તે ન્યાય-વૈશેષિકેએ દર્શનની વાત કેમ ક્યાંય કરી નથી ? આપણે જાણીએ છીએ કે પુરુષના દર્શનને વિષય ચિત્તવૃત્તિઓ છે. ચિત્તને ન માનવાથી ચિત્તત્તિ નો અભાવ છે, તેથી ન્યાય–વૈશેષિકોના પરષને દશનના વિષયને સદંતર સર્વકાળે અભાવ છે. એટલે ન્યાય-શેષિકોએ દાનની વાત કરી લાગતી નથી. ચિત્તને ન માનવા છતાં વૃત્તિઓ તો ન્યાયવૈશેષિકોએ માની છે. અલબત્ત તે પુરુષગત છે. પુરુષમાં સમવાયર્મબંધથી રહેતી વૃત્તિઓનું દર્શન પુરુષ કરે છે એમ માનવામાં ન્યાય વશેષિકોને શી આપત્તિ છે ? કોઈ આપત્તિ જણાતી નથી, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નગીન જી. શાહ ૩૭ અલબત્ત, તેમ માનતાં તેમણે જ્ઞાન કદી અસર્વિતિ રહેતું નથી એમ માનવુ· પડે, જ્ઞાન સ`વિદિત જ ઉત્પન્ન થાય છે એમ માનવું પડે – જે એમને ઇષ્ટ નથી. કદાચ એ કારણે દનને તેમણે સ્વીકાર્યું" જ ન હોય એમ બને. - અનાત્મ દેહ વગેરેમાં આત્મષુદ્ધિ મિથ્યાજ્ઞાન છે." અનાત્મ દેહ વગેરેમાં અનાત્મષુદ્ધિ અને આત્મામાં આત્મષુદ્ધિ તત્ત્વજ્ઞાન છે.૭૧ તત્ત્વજ્ઞાનથી મિથ્યાજ્ઞાન દૂર થાય છે. મિથ્યાજ્ઞાન દૂર થતાં અનાત્મ શરીર વગેરે પ્રત્યેના મેહ, રાગ દૂર થાય છે. અર્થાત્ મિથ્યાજ્ઞાન દૂર થતાં રાગ વગેરે દોષો દૂર થાય છે.૭૨ રાગ વગેરે દોષો દૂર થતાં વ્યક્તિની પ્રવૃત્તિ નિર્દોષ બની જાય છે. આવી રાગાદિર્દોષરહિત પ્રવૃત્તિ પુનાઁવનું કારણું નથી.૭૩ દોષરહિત પ્રવૃત્તિ કરનારના પુનર્ભવ અટકી જાય છે. પ્રવૃત્તિ દોષરહિત હોવાથી નવાં કર્મ બંધાતા નથી. તેથી જે રાગ વગેરે દાષાથી મુક્ત થઈ ગયા હોય છે તે વિહરતા હોવા છતાં મુક્ત છે—જીવનમુક્ત છે.૪ આ અવસ્થાને અપરામુક્તિ કહેવામાં આવે છે. જે રાગ વગેરે દાષાથી મુક્ત થયેા હાય છે તેનેા પુનઃ`વ અટકી ગયા હોવા છતાં અને તે નવાં કર્મ બાંધતા ન હેાવા છતાં તેના પૂર્વીકૃત કર્માનાં બધાં ફા ભગવાઈ ન જાય ત્યાં સુધી તેને છેલ્લા જન્મમાં જીવવાનું હ્રાય છે.પ અનન્ત જન્મામાં કરેલાં કર્યાં એક જન્મમાં કેવી રીતે ભાગવાઈ જાય એવી શંકા અહીં” કાઈ થાય. આ શંકાનું... સમાધાન ન્યાય-વૈશેષિક ચિંતકો નીચે પ્રમાણે કરે છે. એક, કર્મક્ષય માટે આટલા સમય જોઈએ જ એવા કાઈ નિયમ નથી.૬ ખીજુ, પૂર્વના અનન્ત જન્મોમાં જેમ કર્મોના સંચય થતા રથો તેમ ભોગથી તેમને ક્ષય પશુ થતા રહ્યો હોય છે.” ત્રીજુ, છેલ્લા જન્મમાં તે તે કર્મને વિપાક ભાગવવા માટે જરૂરી જુદાં જુદાં અનેક નિર્માણુથરીરા યાગસિદ્ધિના બળે નિર્માણુ કરીતે તેમ જ મુક્ત આત્માએ છેડી દીધેલાં મનને ગ્રહણ કરીને તે જીવન્મુક્ત બધાં પૂર્વીકૃત કર્યાંના વિપાકને ભાગવી ૭૮ પૂર્વ કર્માં છેલ્લા જન્મમાં ભાગવાઈ જતાં નિર્દોષ પ્રવૃત્તિ પણ અટકી જાય છે, અર્થાત્ શરીર પડે છે.૯ પરંતુ હવે ભોગવવાનાં કાઈ કર્મો ન હેાવાથી નવું શરીર તે ધારણ કરતા નથી. તેના જન્મ સાથેને સંપક છૂટી જાય છે, દેહ સાથેના સબંધ છૂટી જાય છે. દેહ સાથેના સબોંધ નાશ પામતાં સર્વાં દુ:ખાના આત્મન્તિક ઉચ્છેદ થઈ જાય છે. આને પરામુક્તિ યા નિર્વાણુમુક્તિ કહેવામાં આવે છે. તત્ત્વજ્ઞાનથી દેષ, પ્રવૃત્તિ, જન્મ અને દુઃખ દૂર થાય છે એ ખરું પણ તત્ત્વજ્ઞાન કેવી રીતે ઉત્પન્ન થાય છે? તત્ત્વજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ અષ્ટાંગ યોગના અનુષ્ઠાનથી થાય છે. વળી, તત્ત્વજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ માટે અધ્યાત્મવિદ્યાનું શ્રવણ-મનન-નિદિધ્યાસન, અધ્યાત્મવિદ સાથેને સંવાદ૧ અને અશુભ સંજ્ઞાની ભાવના પણ જરૂરી છે. મીમાંસક મતે મેક્ષ : આત્મા વિશેની મીમાંસક માન્યતા લગભગ ન્યાય-વૈશેષિકની માન્યતા જેવી જ છે. મીમાંસક મતે પણ જ્ઞાન આનું સ્વરૂપ નથી પણ ગુણ છે જે અમુક નિમિત્તકરણને પરિણામે આત્મામાં ઉત્પન્ન થાય છે. સુષુપ્તિ અને મેક્ષમાં માત્મામાં જ્ઞાન હૈ।તું નથી, કારણુ કે જ્ઞાનનાં નિમિત્ત કારણો ઇન્દ્રિયા સન્તિક વગેરે સુષુપ્તિ અને મેાક્ષમાં હોતાં નથી. મીમાંસકાને વૈશેષિકાથી એટલે Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભારતીય દિશામાં વિચાર ભેદ છે કે મીમાંસકો મોક્ષમાં આત્મામાં જ્ઞાનશક્તિ માને છે જ્યારે વૈશેષિક મેક્ષમાં આત્મામાં જ્ઞાનશક્તિ માનતા નથી. આનું કારણ એ છે કે મીમાંસકે દ્રવ્ય, ગુણ, કર્મ વગેરે ઉપરાંત પદાર્થોમાં શક્તિને એક પદાર્થ તરીકે સ્વીકારે છે, જ્યારે ન્યાય-વૈશેષિકે શક્તિપદાર્થને સ્વીકારતા નથી. આત્માને મોક્ષમાં જેમ જ્ઞાન નથી તેમ સુખ, દુઃખ, ઈરછા, દ્વેષ, પ્રયત્ન, ધર્મ, અધર્મ તથા સંસ્કાર પણ નથી. મીમાંસા કામ્ય કર્મોને અર્થાત્ તૃષ્ણા પ્રેરિત પ્રવૃત્તિને જ દુઃખનું અને કર્મબંધનનું કારણ ગણે છે. નિષ્કામભાવે કરવામાં આવતાં વેદવિહિત અને નિત્ય નૈમિત્તિક કર્મે દુઃખ કે કર્મબંધનું કારણ નથી. એટલે દુઃખમાંથી મુક્ત થવા કામ્ય કર્મોને તેમ નિષિદ્ધ કર્મોને છોડવાં જોઈએ. આ કર્મોને છોડવા તૃષ્ણા યા કામને છેડવો જોઈએ, તૃષ્ણને જીતવા આત્માને બરાબર જાણે જોઈએ. આત્માને અર્થાત બ્રહ્મને જાણવા વેદાન્તને અભ્યાસ કરવો જોઈએ. આત્મજ્ઞાન મેક્ષાભિગમી પ્રવૃત્તિનું કારણ છે, આત્મજ્ઞાન મેક્ષનું સાક્ષાત કારણ નથી. મોક્ષનું સાક્ષાત્ કારણ આત્મજ્ઞાનપૂર્વકની પ્રવૃત્તિ છે – કમ છે. મેક્ષમાં જ્ઞાન નથી. મોક્ષમાં સુખ નથી. નિદાન મોક્ષ: ૨૩ મેક્ષમાં દુઃખાભાવ માત્ર છે. મેક્ષમાં જ્ઞાનશક્તિ માની છે.૮૪ શાંકર વેરાતીઓના મતે મોક્ષ: બ્રહ્મને સત્ય અને જગતને મિથ્યા માનનાર શાંકર વેદાન્તીને મત જગતની બધી વસ્તુઓની જેમ ચિત્ત પણ મિથ્યા છે, માયાજનિત છે. તેમનું અસ્તિત્વ વ્યાવહારિક છે, પારમાર્થિક નથી. જ્યાં સુધી જીવને અજ્ઞાન છે ત્યાં સુધી તેને માટે તેમનું અસ્તિત્વ છે. જ્ઞાન થતાં તેમનું અસ્તિત્વ નથી. પરંતુ જીવ શું છે ? તે છે માયિક ચિત્તમાં પડતું બ્રહ્મનું ( = પુરુષનું) પ્રતિબિંબ. સાંખ્યથી વિરુદ્ધ અહીં પુરુષો અનેક નથી પણ એક છે. એ એક પુરુષનું પ્રતિબિંબ અનેક ચિત્તો ઝીલે છે. ચિત્તોને ભેદ સંસ્કારભેદે અને લેશભેદે છે. આવાં ભિન્ન સંસ્કાર અને ભિન્ન કલેશ ધરાવતાં ચિત્તોમાં પડતું પ્રતિબિબ ચિત્તમાધ્યમભેદે ભિન્ન ભિન્ન હોય છે. આ પ્રતિબિંબ (છો) એમ માને છે કે તેઓ બધાં પુરુષથી ભિન્ન છે અને તેમનું સ્વતંત્ર અસ્તિત્વ છે. પ્રતિબિંબનું અસ્તિત્વ કદી બિબનિરપેક્ષ સ્વતંત્ર હોઈ શકે ? ના. પરંતુ તેઓ તો પિતાને સ્વતંત્ર અસ્તિત્વ ધરાવતા માને છે. આ તેમનું અજ્ઞાન છે.૮૫ “ તું બ્રહ્મ જ છે” એ મહાવાકયનું શ્રવણ, આચાર્યોપદેશ, વગેરેથી તેને ઝાંખી થવા લાગે છે કે હું બ્રહ્મ છું, ત્યાર બાદ તે “હું બ્રહ્મ છું.” એવી અખંડાકાર ચિત્તવૃત્તિના પ્રવાહ દ્વારા (અર્થાત્ ધ્યાન દ્વારા) ભેદવિષયક અજ્ઞાનરૂપ ચિત્તવૃત્તિને નાશ કરે છે.* અજ્ઞાનરૂપ ચિત્તવૃત્તિનો નાશ થતાં અજ્ઞાનના વૈશ્વિક રૂપ માયામાંથી પેદા થયેલું ચિત્ત લેપ થઈ જાય છે, ચિત્તને લેપ થતાં ચિત્તમાં પડતું બ્રહ્મનું પ્રતિબિંબ પિતાના બિંબમાં (= બ્રહ્મમાં) સમાઈ જાય છે. આમ છવ-બ્રહ્મનું એક્ય થાય છે. આજ બ્રહ્મસાક્ષાત્કાર છે. આ જ વેદાન્તની મુક્તિ છે. હવે પ્રશ્ન થાય છે કે આમાં દુ:ખમુક્તિની વાત કયાં આવી ? એક જીવ પિતાને બીજ છાથી અને બ્રહ્મથી જ માને છે એટલે મોહ, શોક, વગેરે જન્મે છે, જે દુઃખનાં કારણ છે. એટલે જીવે બધે એકત્વ જ જોવું જોઈએ અને બધાને બ્રહ્મરૂપ જ સમજવા જોઈએ, જેથી દુઃખનો સંભવ જ ન રહે. તત્ર છે મો: રાઃ શરદ પવારમનપરચતી એકત્વ હેાય ત્યાં ભય પણ કેનો રહે ? બે હેય ત્યાં એક બીજાથી ભય પામે. દ્વિતીયા હૈ અર્થ મવતિ છે એટલે અતસાક્ષાત્કાર જ દુઃખમુક્તિ છે. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નગીન જી. શાહ બ્રહ્મને આનંદસ્વરૂપ વણુવ્યું છે. મુક્તિમાં જીવ બ્રહ્મમાં સમાઈ જાય છે, બ્રહ્મરૂપ બની જાય છે, તેનું અલગ અસ્તિત્વ કે વ્યક્તિત્વ રહેતું જ નથી. તે બ્રહ્મત્વ પ્રાપ્ત કરે છે. પરિણામે તે સ્વય આત દસ્વરૂપ બની જાય છે, તે આનંદના અનુભવ કરનારા કે ભોક્તા નથી પણ તે પોતે જ આનદ છે. મુક્તિમાં ચિત્તનું અસ્તિત્વ ન હેાઈ, ચિત્તની કોઈ વૃત્તિ હૈતી નથી. નથી હોતું સુખ, નથી હાતું દુ:ખ, નથી હતું જ્ઞાન. અહીં પ્રશ્ન થાય કે આન એ સુખ નથી તેા શું છે ? તે સુખ નથી. તે સુખ, દુ:ખ, શાક, ભય, કામ વગેરેના અભાવને કારણે વ્યક્ત થતી પરમ શાન્તિ છે. અધ્યાત્મશાસ્ત્રોમાં આશાન્તિ જ ઈચ્છવામાં આવી છે. બ્રહ્મને જ્ઞાનરૂપ વર્ણવવામાં આવ્યું છે પરંતુ ત્યાં જ્ઞાનના અંદન, દ્રષ્કૃત્વ યા સાક્ષિત્વ છે. જ્ઞાન તા ચિત્તની (અન્તઃકરણની ) વૃત્તિ છે. મુક્તિમાં ઐકયજ્ઞાન પણુ નથી. જેમ સાંખ્યમાં મુક્તિમાં ભેદજ્ઞાન (= વિવેકજ્ઞાન ) નથી, તેમ વેદાતમાં મુક્તિમાં અકયજ્ઞાન પણ નથી. બ્રહ્મ પરમ સત્ છે. આમ મુક્ત થયેલ જીવ સત્, ચિત્ અને આનંદસ્વરૂપ બ્રહ્મમાં સમાઈ જાય છે, તરૂપ થઈ જાય છે. ઐકયજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ માટે જીવે વેગસાધના કરવી જરૂરી છે. ૧. જુએ ન્યાયસૂત્ર ૧, ૧. ૧ ઉપર ઉદ્યોતકરનુ વાતિક २. धम्मचक्कपवत्तन सुत्त, संयुत्तनिकाय. ૩. ચથા વિવિસ્તારાનું ચતુગૂંદોરો, રોગહેતુ, બોન્ચ, મૈમિતિ । મિત્રવિ શાસ્ત્ર चतुर्व्यूहम् —तद् यथा संसारः संसारहेतुः मोक्षो मोक्षोपाय इति । व्यासभाष्य २.१५ ૪. ન્યાયવાતિક ૧, ૧, ૧, ૫. પ્રશસ્તપાઃભાષ્ય, આત્મપ્રકરણ, ૬. સાંખ્યપ્રવચનભાષ્ય, ૩. ૨૨ ૭. ચિત્ત ચેતળા વૃદ્ધિ, સં નીવતત્ત્વમેવ । અસ્થતિપૂર્તિ, વસાયિમુત્ત ૪. ૪. | પ્રાચીન જૈન સાહિત્યમાં પ્રયુક્ત ‘સચિત્ત’, ‘અયિત્ત ’, ‘પુઈ ચિત્ત’ વગેરે શબ્દ વિચારો. k ૮. ચિત્તચ. . .પ્રણ્યાપમ્ | ચેનતિ ૨. ૨ | પ્રખ્યાના અથ છે જ્ઞાત... પુરવણ્ય...દૂરૢચમ્ | સાંચાિ છ્ । યે દ્દિ જ્ઞાનાતિ. . . મૈં તત્ત્વ... ..અર્થવર્શનમ્ ..ચર્ચ ચાર્થીને ન સ જ્ઞાનાતિ । न्यायमअरी (काशी संस्कृत सिरिज) पृ. २४. ૯. ...પુત્રસ્યાાિમિત્રાત્। ચેનસૂત્ર ૪, ૮૫ પુર્વાશ્ચમાત્રોઽવારી | ચેવસિં ૨. ૪ । १०. यथा च चिति बुद्धेः प्रतिबिम्बमेवं बुद्धावपि चित्प्रतिबिम्बं स्वीकार्यम् । योगवार्तिक १.४ । ११. सब्बे धम्मेसु च आणदस्सी । सुत्तनिपात ४७८ । तमहं जानामि पस्सामि ति । मज्झिमનિાય ૧.૩૨૧ હવયોનો (નીવયપિત્તય) જળમ્ । સ ટ્વિવિધ... | તત્ત્વાર્થસૂત્ર ૨. ૮-૧) સ્ લા વિવિધ:... જ્ઞાને પયા વર્ગને ચેવચ્ચે સર્વાર્થસિદ્ધિ, ૨.૧ । ૧૨. જ્ઞાનાધિળમામા । સર્વસંપ્રદ (૭) જુઆ વૈશેષિકસુત્ર ૩. ૨,૪ ૧૩...તુળનુબિનૌ. . .મિથ: સમ્વઢાવનુંમૂયેતે ..તમાર્ મનેવ વસ્તુની સભ્ય સામાનાધિ करण्येन प्रतीयेते । न्यायार्तिकतात्पर्यटीका १. १. ४ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભારતીય દશામાં મેાક્ષવિચાર १४. बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावना आत्ममनः संयोगजाः । कन्दली (गंगानाथज्ञाग्रंथमाला -१), १८९३, ५. २३८ Go १५. वैशेषिकसूत्र ३. २.४ १६. तत्र दुःखत्रयम् आध्यात्मिकम् आधिभौतिकम् आधिदैविकश्चेति । सांख्यकारिकागौडपादभाष्य १. १७. परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः । योगसूत्र २.१५, मौद्धोनी परिणामः अने सौंसारहु:मनी मान्यता भाटे यो अभिधर्मकोशव्याख्या ( Woghara 1971) पृ. २३ १८. तस्य ( दुःखस्य) हेतुः अविद्या । योगसूत्र २.२४ । यो न्यायसूत्र १. १. २ तथा तत्वार्थ सूत्र ८.१ । १८. क्लेशमूलः कर्माशयः । योगसूत्र २. १२. । निदानसंयुक्त्त, संयुत्तनिकाय । महानिदानसुत्त, दीघनिकाय. २०. Rajas and Karman', Sambodhi Vol. 6. Nos 1-2. २१. योगसूत्र १.३३ । तत्रार्थसूत्र ७.६ । विशुद्विभार्ग, हिन्दी अनुवाद, सारनाथ, १८५६, ला. १. ५. २६३-२८८ २२. न, क्लेशसन्ततेः स्वाभाविकत्वात् । न्यायसूत्र ४.१.६५ । अनादिश्यं क्लेशसन्ततिः, न चानादि: शक्य उच्छेत्तुमिति । न्यायभाष्य ४.१.६५ क्लेशानुबन्धान्नास्त्यपवर्गः । क्लेशानुबद्ध एवायं म्रियते शानुबद्धश्च जायते नास्य क्लेशानुबन्धविच्छेदो गृह्यते । न्यायभाष्य ४.१.५९ 6 २३. प्रवृत्त्यनुबन्धान्नास्त्वपवर्गः । न्यायभाष्य ४.१.५९ २४. न, अर्थविशेषप्राबल्यात् । न्यायसूत्र ४.२.३९ २५. क्षुदादिभिः प्रवर्तनाच्च । न्यायसूत्र ४.२.४० २६. कन्दली पृ. २१३ २७. सुषुप्तस्य स्वप्नादर्शने क्लेशाभावादपवर्गः । न्यायसूत्र ४.१.६३ २८. न, सङ्कल्पनिमित्तत्वाच्च रागादीनाम् । न्यायसूत्र ४.१.६८ २८. .. प्रतिपक्ष भावनाभ्यासेन च समूलमुन्मूलयितु ं शक्यन्ते दोषा इति । न्यायमञ्चरी, भाग २, पृ. ८६ ( काशीसंस्कृत सिरिझ ) I 30. न प्रवृत्ति: प्रतिसन्धानाय हीनक्लेशस्य । न्यायसूत्र । ४.१.६ ४ । ततो मिथ्याज्ञानस्य दग्धबीजभावापगमः पुनश्चाप्रसवः । येोगभाष्य २.२६ । ३१. न्यायसूत्र ४.२.४२ ॥ ३२. कन्दली पृ. २१३ 33. तत्त्वार्थसूत्र, १०.२ ( सर्वार्थसिद्धिसहित ) ३४. तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् । तत्त्वार्थसूत्र ५.५ ३५. जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरमसमयम्मि । आसीय पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥ आवश्यक नियुक्ति गाथा १२२८ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નગીન જી. શાહ ३९. तत्वार्थसूत्र ९.१-८ ३७. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थसूत्र १.१. ३८. तत्वार्थ सूत्र (५. सुसासनी गुन राती व्याख्या साथै ) सूत्र १.९. ३८. सकषायाकषाययेोः साम्परायिकेर्यापथयेाः । तत्त्वार्थसूत्र ६.५ (५ सुसासनी गुभराती વ્યાખ્યા સાથે) ४०. प्रभास्वरमिदं चित्तं प्रकृत्याऽऽगन्तवो मलाः । प्रमाणवार्तिक १.२१० ४१. चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैविनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते । तत्त्वसंग्रहपञ्जिका (प्र. १०४) भां मौद्धायार्य उभुतશીલે ઉદ્ધૃત કરેલ પ્રાચીન બૌદ્ધ શ્લોક. ४२. शान्तरक्षित तत्त्वसंग्रहमा (५. १८४ ) स्पष्टपणे या प्रमाणे यावे. ४३. जैन विद्वान अस पोताना 'तत्त्वार्थराजवार्तिक'मां प्रभाषे मौद्ध निर्वाणुने समन्नवेस छे. ४४. मिलिन्दपण्ड (V. Trenckner London 1880) अ. २ पृ. २५-२८ ४५. कम्मस्स कारको नत्थि विपाकस्स च वेदका । सुद्धधम्मा पवत्तन्ति एवेतं सम्मदस्सनं । विसुद्धिमग्ग अ. १९ ४९. दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काचिद् विदिशं न स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ सौन्दरनन्द, १६.२९ ૭૧ ४७. द्विविधं निर्वाणमुपवर्णितम्-सोपधिशेषं निरुपधिशेषं च । तत्र निरवशेषस्य अविद्यारागादिकस्य शगणस्य प्रहाणात् सोपधिशेषं निर्वाणमिष्यते ।... उपधिशब्देन... पश्चोपादानस्कन्धा उच्यन्ते ।... सह उपधिशेषेण वर्तत इति सोपधिशेषम् । तच्च स्कन्धमात्रकमेव केवलम्...। यत्र तु निर्वाण स्कन्धमात्रकमपि नास्ति तन्निरुपधिशेषं निर्वाणम् । माध्यमिकवृत्ति, पृ. ५१९ ४८. क्लेशकर्माभिसंस्कृतस्य सन्तानस्याविच्छेदेन प्रवर्तनात् परलोके फलप्रतिलम्भोऽभिधीयते । बोधिचतारपञ्जिका ( बिब्लिओथेका इंडिका ) पृ. ४७३ । । शान्तरक्षितत तत्त्वसमां ક કુલસંબંધપરીક્ષા નામનુ" પ્રકરણ. ४८. यो मौद्धधर्मदर्शन, पृ. १२-११८ ५०. सांध्यारिडा, १२ ५१. सदा ज्ञातावित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्य...। योगसूत्र ४.१८ ५२. तदवस्थे चेतसि विषयाभावात् बुद्धिबोधात्मा पुरुषः किंस्वभाव इति ? तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । योगसूत्र १.३ ( भाष्योत्थानिकासहित) 43. यथा च चिति बुद्धेः प्रतिबिम्बमेवं बुद्धावपि चित्प्रतिबिम्बं स्वीकार्यम् । योगवार्तिक, १.४ ५४-५५. तल्लाभाद् ( - विवेकज्ञानलाभाद्) अविद्यादयः क्लेशाः समूलकाषं कषिता भवन्ति । कुशलाकुशलाश्च कर्माशयाः समूलघातं हता भवन्ति । क्लेशकर्मनिवृतौ जीवन्नेव विद्वान् विमुक्तो भवति । कस्मात्। यस्माद् विपर्ययो भवस्य कारणम् । नहि क्षीणविपर्ययः कश्चित् केनचित् क्वचित जातो दृश्यत इति । योगभाष्य ४.६० ५६. सांख्यकारिका, ६८ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gર ભારતીય દર્શનોમાં મોક્ષવિચાર ५७. आद्यस्तु मोक्षो ज्ञानेन...द्वितीयो रागादिक्षयादिति...कर्मक्षयात तृतीयं व्याख्यातं मोक्षलक्षणम् । योगवार्तिक, ४.२५-४.३२ ५८. यद्यपि पुरपश्चिन्मात्रोऽविकारी तथापि बुद्धेविषयाकारवृत्तीनां पुरुपे यानि प्रतिबिम्बानि तान्येव पुरुषस्य वृत्तयः, न च ताभिः अवस्तुभूतामिः परिणामित्वं स्फटिकस्येवातत्त्वतोऽन्यथाभावात् । योगवातिक, १.४ ५८. सांख्यप्रवचनभाष्य १.१ ६०. परमाणोरिव वृत्त्यतिरिक्तानां प्रतिबिम्बसमर्पणासामर्थ्यस्य फलबलेन कल्पनात् । योगवार्तिक, १.४ ११. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यम् , स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । योगसूत्र,४.३४ १२. कैवल्यं प्राप्तास्तर्हि सन्ति च बहवः केवलिनः। योगभाष्य १.२४. ६३. नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः । व्योमवती (चौखम्बा, १९३०) पृ. ६३८ १४. समस्तात्मविशेषगुणोच्छेदोपलक्षिता स्वरूपस्थितिरेव । कन्दली पृ. ६९२ ६५. यदि मुक्तात्मानः पाषाणतुल्यजडास्ताहि कथं तत्र दुःखनिवृत्तिव्यपदेशः ? ११. न हि ‘पाषाणो दुःखान्निवृत्तः' इति केनापि प्रेक्षावता व्यपदिश्यते । दुःखसंभव एव हि दुःखनिवृत्तिनिर्दिष्टुमर्हति । ६७. न, दुःखार्तानां तदभाववेदनमभिसन्धायैव तज्जिहासादर्शनात , कथमन्यथा देहमपि जह्यः। आत्मतत्त्वविवेक (चौखम्बा ११४०) पृ. ४३८ ६८. न्यायभाष्य १. १. २ ६. न्यायसार पृ. ५९४-९८ (१३६शनप्राशनप्रतिष्ठान, पासी , १८६८). ७०. किं पुनस्तन्मिथ्याज्ञानम् ? अनात्मन्यात्मप्रहः । न्यायभाष्य ४. २.१ ७१. तत्त्वज्ञानं खलु मिथ्याज्ञानविपर्ययेण व्याख्यातम् । न्यायभाष्य १.१.२ ७२. यदा तु तत्त्वज्ञानाद् मिथ्याज्ञानमपैति तदा मिथ्याज्ञानापाये दोषा अपयन्ति । न्यायभाष्य १.१.२ ७3. न प्रवृत्तिः प्रतिसन्धानाय हीनक्लेशस्य । न्यायसूत्र ४.१.६४ ७४. सोऽयमध्यात्म बहिश्च विविक्तचित्तो विहरन्मुक्त इत्युच्यते । न्यायभाष्य ४.१.६४ ७५. ...सर्वाणि पूर्वकर्माणि ह्यन्ते जन्मनि विपच्यन्त इति । न्यायभाष्य ४.१.६४ * ...अनन्तानां कथमेकस्मिन् जन्मनि परिक्षय इति चेत् । कन्दली पृ. ६८७ ७६. न, कालानियमात् । कन्दली पृ. ६८७ ७७. यथैव सावत् प्रतिजन्म कर्माणि चीयन्ते, तथैव भोगात् क्षीयन्ते च । कन्दली पृ. ६८७ ७८. योगी ही योगद्धिसिद्धथा...निर्माय तदुपभोगयोग्यानि...तानि तानि सेन्द्रियाणि शरीराणि, __ अन्तःकरणानि च मुक्तात्मभिरुपेक्षितानि गृहीत्वा सकलकर्मफलमनुभवति प्राप्तैश्वर्य इतीत्थमुप. भोगेन कर्मणां क्षयः । न्यायमञ्जरी, भा. २, पृ. ८८ ७१. प्रवृत्त्यपाये जन्मापैति । न्यायभाष्य १.१.२ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७3 નગીન જી. શાહ ८०. समाधिविशेषाभ्यासात् । न्यायसूत्र ४.२.३८ तदर्थे यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारो योगाश्चाध्यात्मविध्युपायैः । न्यायसूत्र ४.२.४६ ८१. ज्ञानग्रहणाभ्यासस्तद्विद्यैश्च सह संवादः । न्यायसूत्र ४.२.४७ ८२. न्यायभाष्य ४.२.३ ४३. शास्त्रदीपिका पृ. १२५-३० । ८४. यदस्य स्वं नैज रूपं ज्ञानशक्तिसत्ताद्रव्यत्वादि तस्मिन्नवतिष्ठते । शास्त्रदीपिका, पृ. १३० ८५. बुद्धिभेदादिति । बुद्धिरन्तःकरणम् । आयें पक्षे बुद्धिभेदात् तत्संस्कारभेदः। तद्भेदाच्च तदव च्छिन्नाज्ञानभेदः। तद्भदाच्च तत्प्रतिबिम्बितचैतन्य भेद इति जीवनानात्वम् । अन्त्ये तु बुद्धिभेदात् तत्प्रतिबिम्बितचैतन्यभेद इति जीवनानात्वम् । पारमार्थिकत्वादिति । प्रतिबिम्ब च न बिम्बादन्यत् किञ्चिदित्यनुपदमेवोक्तमिति बिम्बरूपेण पारमार्थिकमेव तत् । सिद्धान्तबिन्दुटीका (अभ्यंकरकृता) पृ. ४७, B.O.R.I Poona, 1928. ८६. तदेवं वेदान्तवाक्यजन्याखण्डाकारवृत्त्या अविद्यानिवृत्तौ तत्कल्पितसकलाननिवृत्तौ परमानन्दरूपः सन् कृतकृत्यो भवति । सिद्धान्तबिन्दुटीका (शंकरकृता) पृ. १५३, B.O.R.I., Poona 1928. १. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જીવસ્વરૂપ-પરામને વૈજ્ઞાનિક દષ્ટિબિંદુ છે. નારાયણ મ, કંસારા ૧. દાર્શનિક માન્યતા - પ્રખર જૈનાચાર્ય ઉમાસ્વાતિએ જીવના બે પ્રભેદો દર્શાવ્યા છેસંસારી અને મુક્ત.' વાદિદેવસૂરિએ સંસારી જીવના સ્વરૂપ અંગે નિરૂ પણ કરતાં કહ્યું છે કે તે પ્રત્યક્ષાદિ પ્રમાણે દ્વારા સાબીત થાય છે, કેમકે તે ચૈતન્ય સ્વરૂપ, પરિણામી, કર્તા, ભક્તા, સ્વદેહ પરિમાણ, પ્રત્યેક શરીરમાં ભિન્ન અને દિગલિક કર્મો લાગેલો છે. પંડિત સુખલાલજીએ જીવસ્વરૂપ પરત્વે જૈન દષ્ટિનું મુદ્દાસર વિશ્લેષણ કરતાં નોધ્યું છે કે (૧) જીવ અસ્તિત્વ ધરાવે છે અને તે સ્વાભાવિક ચૈતન્યમય, સ્વતંત્ર અને તેથી અનાદિનિધન છે. (૨) જીવે અનેક, અનંત અને દેહભેદે ભિન્ન છે. (૩) જીવમાં અનેક શક્તિઓ પૈકી મુખ્ય અને સર્વને સર્વસંવિદિત થઈ શકે એવી શક્તિઓ છે જ્ઞાનશક્તિ, પુરુષાર્થ વીર્ય-શક્તિ અને શ્રદ્ધા-સંકલ્પશક્તિ, જે એનું અભિન્ન સ્વરૂપ છે. (૪) વિચાર અને વર્તન અનુસાર જીવમાં સંસ્કારો પડે છે અને એ સંસ્કારને ઝીલતું એક ગલિક શરીર તેની સાથે રચાય છે, જે મૃત્યુ પછી બીજે દેહ ધારણ કરવા જતી વખતે તેની સાથે જ રહે છે. (૫) જીવ સ્વતંત્રપણે ચેતન અને અમૂર્ત સ્વરૂપ હોવા છતાં તેણે સંચિત કરેલાં કર્મો મૂર્ત શરીર સાથે જોડાવાથી, તે શરીરની હયાતિ સુધી, મૃત જેવો બની જાય છે. (૬) શરીર અનુસાર તેનું પરિમાણ ધટે યા વધે છે. પરિમાણુની હાનિ-વૃદ્ધિ એ એના મૌલિક દ્રવ્યતત્વમાં અસર નથી કરતી; એનું મૌલિક દ્રવ્ય કે કાઠું જે હોય તે જ રહે છે; માત્ર પરિમાણુ નિમિત્તભેદે વધે યા ઘટે છે. (૭) સમગ્ર જીવરાશિમાં સહજ યોગ્યતા એક સરખી છે, છતાં તેના પુરુષાર્થ અને અન્ય નિમિત્તાના બળાબળ ઉપર દરેક જીવને વિકાસ અવલંબિત છે. (૮) વિશ્વમાં એવું કેઈ સ્થાન નથી જ્યાં સૂક્ષ્મ અથવા સ્કૂલ શરીરી જનું અસ્તિત્વ ન હેય. જીવ વિષેની જેન દાર્શનિક ધારણા પ્રાથમિક અને સર્વ સાધારણને બુદ્ધિગ્રાહ્ય લાગે છે. પંડિત સુખ લઇએ એ વાત ખાસ નોધી છે કે ઈ. સ. પૂર્વે આઠમા સૈકામાં થયેલ ભગવાન પાર્શ્વનાથની નિર્વાણુ સાધનાના આધાર લેખે એ જીવવાદની કલ્પના સુસ્થિર થયેલી હતી, અને જૈન પરંપરામાં આ માન્યતામાં અત્યાર સુધીમાં કશો મૌલિક ફેરફાર થયો નથી. જીવ પરત્વે જૈન, સાંખ્યયોગ અને ન્યાય-વૈશેષિક દષ્ટિઓની પરસ્પર વિગતવાર તુલના કરીને પંડિત સુખલાલજીએ તારણ એમ કહ્યું છે કે જીવને કુટસ્થનિત્ય ઠરાવવા માટે સાંખ્યયોગ પરંપરાએ ચેતનામાં કોઈ પણ જાતના ગુણાનું અસ્તિત્વ જ ન સ્વીકાર્યું. અને જ્યાં અન્ય દ્રવ્યના સંબંધથી પરિવર્તન યા અવસ્થાતરને પ્રશ્ન આવ્યો ત્યાં તેણે એને માત્ર ઉપચરિત યા કાલ્પનિક માની લીધું. બીજી બાજુ ન્યાય-વશેષિક પરંપરાએ સ્વરૂપતઃ ફૂટસ્થનિત્યત્વ સાચવવા દ્રવ્યમાં ઉત્પન્ન થનારા અને નાશ પામનારા ગુણોને સ્વીકાર્યો, છતાં તેને લીધે આધારદ્રવ્યમાં કશું જ વાસ્તવિક પરિવતન યા અવસ્થાન્તર થતું હોવાનું તેણે નકાય' એના સમર્થનમાં એમણે યુક્તિ એ રજ કરી એમણે યુક્તિ એ રજૂ કરી કે આધાર દ્રવ્ય કરતાં ગુણે સર્વથા ભિન્ન છે, એટલે એમને ઉત્પાદ-વિનાશ એ કાંઈ આધારભૂત જીવદ્રવ્યને ઉપાદ-વિનાશ કે અવસ્થાન્તર ન ગણાય. ઉપરાંત ન્યાય-વૈશેષિક પરંપરાએ જેન અને સાંખ્યયોગ પરંપરાની પેઠે દેહભેદે ભિન્ન એવા અનંત અનાદિનિધન છવદ્રવ્ય સ્વીકાર્યાપણ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ડે. નારાયણ મ. સારા જૈન પરંપરાની પેઠે તેને મધ્યમ પરિમાણ ન માનતાં, સાંખ્યયોગ પરંપરાની જેમ સર્વવ્યાપી માન્યાં; દ્રવ્યદૃષ્ટિએ જીવતત્ત્વનું કુટસ્થનિત્યત્વ સાંખ્ય-ગ પરંપરાની જેમ જ સ્વીકાર્યું, છતાં ગુણગુણિભાવ યા ધર્મધર્મિભાવની બાબતમાં સાંખ્યયોગ પરંપરાથી જુદા પડી અમુક અંશે જેન પરં પરા સાથે સામ્ય પણ જાળવ્યું. આથી અલગ પડીને જેન પરંપરાએ જીવતવમાં સાહજીક અને સદાતન એવી ચેતના, આનંદ, વિર્ય આદિ અભિન શક્તિઓ સ્વીકારી તેના પ્રતિક્ષણ નવાં નવાં પરિણામો યા પર્યાયો સ્વીકાર્યા, જેથી શરીરયોગ ન હોય તેવી વિદેહમુક્ત અવસ્થામાં પણ જીવતત્વમાં સહજ ચેતના, આનંદ, વીર્ય આદિ શક્તિઓનાં વિશુદ્ધ પરિણામો યા પર્યાયનું ચક્ર ચાલ્યા કરે છે એવું માનવું સુસંગત ઠરે. ૨. દષ્ટિભેદનું કારણ દાર્શનિક આચાર્યોમાંથી સાંખ્ય પરંપરાના મૂળ પ્રવક્તા કપિલનો શ્રીમદ્ ભગવદ્દગીતામાં ભગવાનની સર્વશ્રેષ્ઠ વિભૂતિઓમાં સિદ્ધ તરીકે ઉલ્લેખ થયો છે, અને તેમને શ્રીમદ્ ભાગવતમાં વિષ્ણુના પંચમ અવતાર તરીકે ગણાવ્યા છે. યોગ પરંપરાને આદિ પ્રવકતા તરીકે હિરણ્યગર્ભને સ્વીકારવામાં આવે છે. 13 ન્યાયદર્શનના મૂળ પ્રવકતા મહર્ષિ ગૌતમ મહાન ઋષિ હતા. વૈશેષિકદર્શનના આદ્ય પ્રવકતા કણાદ પ્રખર તપસ્વી અને દેવતાના સાક્ષાત્કારી હતા.૧૪ જૈન તીર્થંકર પાર્શ્વનાથ પણ દિવ્ય અલૌકિક અપરોક્ષ કેવલજ્ઞાન ધરાવનાર મહાપ્રસિદ્ધ હતા. આ સાક્ષાત્કારી મહાપુરુષોને જીવતત્વને સાક્ષાત્કાર થયો હોવાથી તેઓએ એ અંગેના પિતાના નિરૂપણમાં તદષ્ટિને પ્રાધાન્ય ન આપતાં અનુ મવમૂલક પ્રત્યક્ષ વ્યવહારમાંનાં ઉદાહરણો અથવા રૂપકે ઉપયોગ કરવાનું વધુ યોગ્ય લેખ્યું હતું. પરંતુ આ સાક્ષાત્કારી મહાપુરુષોની શિષ્ય પરંપરામાં પાછળથી જે તે દર્શનગત મુદ્દાઓની પષ્ટ સમજૂતી માટે બૌદ્ધિક છણાવટ અને સંપ્રદાય રક્ષા અથે એકબીજાની માન્યતાઓનું તર્કમૂલક ખંડનમંડન કરનાર આચાર્યો થયા. એ વિદ્વાનો કેવળ બુ કે દ્વારા તેનાથી પર એવા તત્ત્વને પકડવા મથતા હતા, અને ઉપનિષદ્દના ઋષિઓની જૈવ તન મતિયાપ એ સ્પષ્ટ ચેતવણીને અવગણીને આ વિષય બુદ્ધિની સીમા બહારને, કેવળ સ્વાનુભવગમ્ય છે, અને એ સ્વાનુભવ દીર્વકાલીન તપ અને યોગાભ્યાસ દ્વારા જ પ્રાપ્ત થઈ શકે છે તે વાત જ વીસરી જવા લાગ્યા. પરિણામે જેટલી વધુ સ્પષ્ટતા કરવા ગયા તેટલી વધુ ગુચવણમાં ફસાતા ગયા છે અને મૂળ તરવે તે પકડની બહાર જ રહ્યું ! ૩. સાક્ષાતકા૨ પુરક્ષાના મૂળ ઉ૫દેશ બધા જ સાક્ષાત્કારી મહર્ષિઓ અને સિદ્ધોએ એ નિર્વિવાદ રીતે સ્વીકાર્યું છે કે છવ શરીરથી અલગ તત્ત્વ છે; અને જુદાં જુદાં શરીરમાં એ બંધાઈને જુદી જુદી યોનિઓમાં જન્મમરણના ચક્રમાં ભમ્યા કરે છે. શરીર નશ્વર છે અને જીવ શાશ્વત છે. તીર્થંકર ભગવાન પાર્શ્વનાથના ઉપદેશને જ તીર્થકર ભગવાન મહાવીરે શિષ્યો સાથેના સંવાદમાં જે તે પ્રસ ગે પ્રશ્નના અનુસંધાનમાં જવાબ આપીને વણી લઈ તત્વની સમજૂતી આપી. જૈન પરંપરામાં જીવન નિરૂપણમાં તેના શરીર પરિ. માણના મુદ્દાને ધણું જ મહત્ત્વ આપવામાં આવ્યું છે, કારણ કે તે અંગે પ્રશ્નો પૂછનાર જીજ્ઞાસુ શ્રાવકેએ આ મુદ્દા પર જ વધુ સ્પષ્ટતા ની અપેક્ષા રાખી હશે એવું મૂળ આગમ ગ્રંથે પરથી જણાય છે. ઉત્તરકાલીન વાદગ્રંથમાં આ મુદ્દાનું સ્પષ્ટીકરણ માત્ર બૌદ્ધિક ચર્ચાના સ્તરે થયેલ છે, જ્યારે મળ તીર્થકરેએ એની સ્પષ્ટતા સ્વાનુભાવને આધારે અને સાસુ સાધકના રેજબરોજના જીવન માં વ્યાવહારિક અનુ મવમૂલક ઉદાહરણ અને તે ઉપર આધારિત વાસ્તવવાદી તર્કની સહાય ધી કરી છે. આ દષ્ટિએ મૂળ આગમગ્રંથમાંની ચર્ચાનું થોડુંક સિંહાવકન કરવા જેવું છે. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જીવસ્વરૂપ – પરામનાયૈજ્ઞાનિક દૃષ્ટિબિંદુ જૈન આગમસાહિત્યમાં જીવના અસ ંખ્ય અન ંત પર્ચાયા, જીવનુ દેહપરિમાણુ, જીવના સંકાય વિસ્તારી સ્વભાવ વગેરે મુદ્દાઓની ચર્ચા પંચાસ્તિકાય, સર્વાં સિદ્ધિ, રાજવાતિ ક, શ્લા*વાર્તિક, પ્રવચનસાર, કાતિ ક્રેયાનુપેક્ષા, અનગારધર્મામૃત, તત્ત્વાર્થસૂત્ર, ખ'ડાગમ, ગામ્મટસાર ઇત્યાદિ ગ્રંથામાં થયેલી છે.૧૬ મૂળ આગમગ્રંથામાંથી ‘રાયપસેણુઇયસુત્ત'માં વિસ્તારથી અને ‘પણ્વાસુત્ત’માં સક્ષેપમાં આ ચર્ચા જોવા મળે છે. પણ્વણુ સુત્ત'માં મહાવીરસ્વામી અને ગૌતમના સ'વાદમાં જીવના અસંખ્ય પર્યાયે છે એનું કારણ દર્શાવતાં કહ્યું છે કે અસુરકુમારા, નાગકુમાર, સુવર્ણ કુમાર, વિદ્યુતકુમાર, અગ્નિકુમારા, દીપકુમારા, ઉદધિકુમારે, દિશાકુમારે, વાયુકુમારા, સ્તનિતકુમારેશ, પૃથ્વીકાયા, અસૂકાયા, તેજસ્કાયા, વાયુકાયા, વનસ્પતિકાયા, દ્વીન્દ્રિયા, ત્રીન્દ્રિયા, ચતુરિન્દ્રિયે, પંચેન્દ્રિયા, તિર્યંગ્યાનિ, મનુષ્ય, વાણુમ તરે, જ્યોતિષિઓ, વૈમાનિકા અને સિદ્ધો અસખ્ય અને અન ંત છે, તેથી જ જીવના અમુખ્ય અને અનત પર્યાયેા છે,૧૭ આ ચર્ચામાં પર્યાય’ શબ્દ પ્રકારવાચી કે દ્રવ્યધ વાચી જણાય છે. ‘રાયપસેલુઇય'માં કુમાર કેશીશ્રમણ અને રાજા પ્રદેશીના સંવાદમાં જીવના શરીરપરિમાણુ અંગેની ચર્ચામાં આ પર્યાયાની અન`તતા અને અસંખ્યેયતાના આધારે જ વધુ સ્પષ્ટતા કરતાં કહ્યુ` છે કે જીવ અવાજની જેમ પૃથ્વી, શિલા કે પર્વતને ભેદીને બહાર નીકળી જઈ શકે છે;૧૮ પ્રદીપની જેમ પેાતાના પ્રકાશ વડે પેાતના અસ`ખ્ય પ્રદેશે કે પર્યાયા દ્વારા નાના કે મેૉટા શરીરમાં વ્યાપી શકે છે;૧૯ જીવ દસસ્થાનાવાળે અને છદ્મસ્થ, અર્થાત્ અસર્વજ્ઞ, હેવાથી તેને સર્વાંત; જાણી શકાતા નથી, કેમકે જેમને જ્ઞાત અને દન ઉત્પન્ન થયાં ઢાય તેવા કે વળી જિન અ``તા જ ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, અશરીરભદ્ર જીવ, પરમાણુ પુદ્ગલ, શબ્દ, ગંધ, વાત, અમુક જીવ જિનપદ પામશે કે નહિં, અમુક જીવ સર્વ દુ:ખાના અંત પામશે કે નહિં વગેરે ખાખતા અંગે જાણકારી મેળવી શકે છે.૧૦ ઉપરાક્ત મૂળ આગમત્ર થામાંની ચર્ચા ઉપરથી એ ફલિત થાય છે કે જીવના સ્વરૂપ અંગેની મૂળ જૈન દૃષ્ટિ બૌદ્ધિક ચર્ચા ઉપર નહીં', પશુ મૂળ તીર્થંકરાના અતીન્દ્રિયકક્ષ ના—Clairvoyance સ્વરૂપતા-સ્વાનુભવ ઉપર અવલ"બિત છે. આ દૃષ્ટિએ જૈન આગમગ્રંથ અને વેદબ્રહ્મધમી ઉપનિષદોના તર્ક વિષયક ઉપરાક્ત ઉદ્ગાર વચ્ચે ખૂબ સામ્ય છે. અહી' પ્રશ્ન એ છે કે જો ઉપરોક્ત દષ્ટિબિંદુ અતીન્દ્રિય સ્વાનુભવમૂલક હોય તેા આધુનિક પરામવિજ્ઞાનનાં સ`શેાધતેને આધારે એની કૈાઈ સંગતિ બેસી શકે ખરી? આ વિચારણા માટે પરામને વિજ્ઞાનના ક્ષેત્રે થાડાક દષ્ટિપાત કરીએ, અને તપાસીએ કે બ્રાહ્મણુધી ઋષિઓ, બૌદ્ધ ધર્માંના પ્રવક ભગવાન બુદ્ધ અને જૈન ધર્મના તીર્થંકરાએ જીવતા સ્વરૂપ અંગે પોતપાતાનાં અલગ રીતનાં પ્રતિપાદન કર્યાં તે બધાં જ વસ્તુતઃ સત્ય છે, છતાં પરસ્પર વિાધી જણાય છે તેનું કારણ શું છે? ૪. પરામનાવૈજ્ઞાનિક સંશાધના ૭૬ પરામને વિજ્ઞાન એ આ સદીમાં જ અમેરિકા અને ખીન્ન પાશ્ચાત્ય દેશમાં વિકસેલું એક નવું જ વિજ્ઞાન છે, જેને ઊંડે અભ્યાસ કરનાર વૈજ્ઞાનિકાના ‘પૅરાસાઈ કાલાજી એસેસિયેશન'ને આંતરરાષ્ટ્રીય પ્રચંડ માન્યતા પ્રદાન કરનાર ‘અમેરિકન એસેાસિયેશન ફાર એડવાન્સમેન્ટ ઍફ સાય સ’ (AAAS) દ્વારા આંતરરાષ્ટ્રીય સ્તરે એક વિજ્ઞાન તરીકેની માન્યતા છેક ઈ. સ. ૧૯૬૯થી મળી ચૂકી છે. આ પેરાસાયક્રાલાજી એસેસિયેશન' (PA)ના બે તૃતીયાંશથી વધુ સભ્યો પરામનેાવિજ્ઞાનના ક્ષેત્રે ડોક્ટરેટ ડિગ્રી પ્રાપ્ત કરનાર સંશાધક વૈજ્ઞાનિકા છે, અને એમણે દુનિયાભરમાંથી આ વિષેના સંશોધન, લેખાને બહુ વિશાળ સંગ્રહ એકઠા કર્યાં છે. આજે આ નવા વિજ્ઞાનની ટેલીપથી, સાઈ કાકાઈનેસીસ, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ડો, નારાયણ મ, કંસા બાયો-ફિડબેંક-ટ્રેઈનિંગ, માઈન્ડ-ટ્રાવેલ, સાઈકીક સર્જરી વગેરે અનેક શાખાએ પણ વિકસી છે, અને એકસઠ સંસ્થાઓમાં આ ક્ષેત્રે સંશોધન કાર્ય ચલાવી રહી છે. ૨૨ આપણી પ્રસ્તુત છવસ્વરૂપ વિષયક વિચારણની દૃષ્ટિએ પરામને વિજ્ઞાનના ક્ષેત્રે કેટલાક વૈજ્ઞાનિકે એ રસપ્રદ સંશોધન કાર્ય કર્યું છે. ઈ. સ. ૧૯૭૭માં બ્રિટનમાંની એફસફર્ડ યુનિવર્સિટીના ખૂલેજીના પ્રોફેસર સર ઍલિસ્ટર હાડીએ માન્ચેસ્ટર કોલેજમાં ‘રિલિજીયસ ઍકસપિરિયન્સ રીસર્ચ યુનિટ સ્થાપીને ધાર્મિક અનુભવોના પાંચ હજાર નમૂનાઓ એકઠા કરવાનો પ્રોજેક્ટ હાથ ધર્યો હતા, અને ઈ. સ. ૧૯૭૪ સુધીમાં તેમને સાડા ત્રણ હજાર અનુભવની ને પ્રાપ્ત થઈ ચૂકી હતી, જેમાંથી એક હજાર અનુભવોનું તેમણે વિશ્લેષણ કર્યું છે. ૨૩ બીજી બાજ, આંતરરાષ્ટ્રીય ખ્યાતિ ધરાવતા પ્રખર મનોવૈજ્ઞાનિક સંશોધક ડો. હેરેવાર્ડ કેરિંગ્ટને છેક ઈ. સ. ૧૯૨૫ના અરસામાં મંડર્ન સાઈકિકલ ફિનેમિના નામનો ગ્રંથ પ્રકાશિત કર્યો હતો જેમાં એણે એમ. ચાર્લ્સ લેન્સેલીનના સંશોધન કાર્યને સાર આપતું પ્રકરણ લખ્યું હતું, અને પાછળથી તે પ્રકરણને વિસ્તાર કરીને હાયર સાઈકોલોજીકલ ડેવલપમેન્ટ' નામને અલગ ગ્રંથ રચ્યો. ઈસ. ૧૯૨૭માં તેમને લિંગશરીર (Astral Body)ના બહિ:પ્રક્ષેપણ (Projection)ના બાર વર્ષોના અનુભવી સિલવાન મુલદૂન નામના વ્યક્તિના પત્રો મળ્યા, જેમાં લેસેલીનની જાણમાં ન હતી તેવી કેટલીક પરામવિજ્ઞાનગત બીનાઓના અનુભવની વાત તેણે જણાવી. પછી આ અનુભવોનું વૈજ્ઞાનિક વિશ્લેષણ કરીને કેરિંટને મુલદૂનનાં સાથમાં લિંગશરીરના બહિ પ્રક્ષેપણને લગત ગ્રંથ પ્રકાશિત કર્યો, જેમાં લિંગશરીર તથા તેની અંતર્ગત રહેલા કારણ શરીરના અસ્તિત્વને લગતા સ્વાનુભવે તથા સાબિતીઓ રજૂ કરી છે. ૨૪ હમણાં હમણું ઈ. સ. ૧૯૮૦માં અમેરિકામાંના મૅટા સાયન્સ કોર્પોરેશને મૃત્યુ પછીની જીવની અવસ્થાને લગતાં જોજે મીકનાં સંશોધન પ્રકાશિત કર્યા છે. ૨૫ અમેરિકામાં કેલિફોર્નિયાની સ્ટેનફર્ડ રીસર્ચ ઈ-સ્ટીટયૂટના ડિપાર્ટમેન્ટ ઍવ મટીરિયલ સાયંસના અધ્યક્ષ. વિલિયમ ટીલર નામના ભૌતિકવિજ્ઞાનીએ મનુષ્યમાત્રના અસ્તિત્વના (Being)ના સાત સ્તરે (levels) અથવા કલેવર અંગે વૈજ્ઞાનિક સંશોધન કર્યું છે. આ સાત સ્તરોને તે ફિઝિકલ (પી), ઈથેરિક (ઈ), ઑસ્ટ્રલ (એ), માઈન્ડ (એમ ૧, એમ ૨, એમ ૩) અને સ્પીરીટ (એસ) એવા નામે ઓળખાવે છે. અને એમાંના દરેકને સંબંધ હોગમાં નિરૂપાયેલા સાત ચઢે, કરોડરજજુમાંથી શરીરમાં પ્રસરતા મજજાતંતુઓ કે નાડીઓ તથા પીનિયલ, પીટ્યુટરી, થાઈરોઈડ, થાયમલ, ઍડ્રિનલ અને લીડન અથવા ગેનીઝ વગેરે ગ્રંથિઓ સાથે સાંકળે છે. કેલિફેનિયામાંની મેટા સાયંસ લેબોરેટરીના સંશોધક વિજ્ઞાની જોજ મીક પણ આ હકીકતનું પિતાના અલગ સંશોધનના આધારે સમર્થન કરે છે. જ્યોજ મકની લેબોરેટરીમાંને યુજીન ફિલ્ડ, સાર હ ગ્રાન, હાન્સ હેકમાન, જ્હોન પોલ જેન્સ, લિલિયન સ્કેટ વગેરે સંશોધકોને આજથી વીસ, ગ્રીસ કે ચાલીસ વર્ષો પૂર્વે મૃત્યુ પામેલા . જેસે હરમન હેમ્સ (૧૮૯૬–૧૯૪૦), એફ. સકૅટ ફિટ્ઝરાલ્ડ (૧૮૮૦૧૯૭૬), મૂછન ફિલ્ડ (૧૮૫૦-૧૮૯૫) રફસ જેન્સ (૧૮૬૩–૧૯૪૮) મેરી રેબિટર્સ હાઈનહાર્ટ (1-૧૯૫૮) ડોરોથી પાર્કર (૧૮૯૩-૧૯૬૭) ઍલન સીજર (૧૮૮૮–૧૮૧૬) અને ઍડગર ૨ ઈસ બરેઝ (૧૮૭૫–૧૯૫૦) જેવા વૈજ્ઞાનિકોને માધ્યમ દ્વારા સહકાર સાંપડયો છે અને એમણે ઇન્દ્રિયાતીત જગતનાં અનેક રહસો આજે આપણુ સમક્ષ ખુલ્લાં મૂકવા માંડયાં છે.૨૮ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ge જીવસ્વરૂપ ૫. સૂક્ષ્મ શરીર વિશે વૈજ્ઞાનિકાનાં સ`શાષના સિલ્વન મુલને લિંગશરીર (ઈથરિક અને ઍસ્કૂલ)ના દ્રવ્યગત સ્વરૂપ વિષે જણાવતાં કહ્યુ છે કે પ્રાણુ ( life-force)નું બનેલું છે, અને તેમાંની શક્તિને પુરવઠા તે રેજેરાજ નિદ્રા દરમિયાન સ્થૂળ શરીરથી આશરે છ એક ઈંચ જેટલું છૂટુ પડીને વૈશ્વિક પ્રાણુ સાથે સીધા સંબંધ ધરાવતુ બનીને મેળવી લે છે.૨૯ ડૉ. જેસી હરમન હોમ્સ અને તેમના જૂથના વૈજ્ઞાનિકોએ પણ વૈશ્વિક જગતના પણ ફિઝિકલ લેઍસ્ટ એસ્ટ્રેલ, ઇન્ટરમિજીએટ ઍસ્કૂલ, હાઇએસ્ટ ઍટ્ટલ, મૅન્ટલ ઍન્ડ કાઝલ, સિલેટીયલ અને કોસ્મિક એમ સાત સ્તર કે લેાક અંગે માહિતી આપી છે, અને મૃત્યુ પછી સૈન્ટલ પ્લેન સુધી પહાંચવા જેટલા આધ્યાત્મિક વિકાસ પામેલ જીવાત્માને તે પછીના સિક્રેસ્ટીયલ પ્લન માટેના જરૂરી આધ્યાત્મિક વિકાસ અથે અંતિમ મનુષ્ય અવતાર (ફાઈનલ રીખ)ની તક મળે છે એ રહસ્ય ઉપરાંત દેવા સિદ્દો વગેરે સિલેસ્ટીયલ પ્લૅનમાં રહે છે, અને કોસ્મિક પ્લેનમાં એકીભાવ કે અદ્વૈતભાવ કે નિર્વાણની અવસ્થામાં શુદ્ધચૈતન્ય જ અસ્તિત્વ ધરાવે છે એ રહસ્ય પ્રગટ કર્યુ છે. આ કૅમિક પ્લેનને ઉપનિષદોમાંના મેાક્ષ કે કૈવલ્ય કે જૈત આગમામાંના અને બૌદ્ધ પિટકામાંના નિર્વાણ તરીકે ઓળખીએ છીએ. જયારે સિલેસ્ટીયલ પ્લૅનને વેદ અને બ્રાહ્મણુત્ર થામાંના વિષ્ણુપદ તરીકે સહેલાઇથી ઓળખી શકાય છે. ડૅા. હેમ્સે આ સાત પ્લેનને મનુષ્યના સાત રતરી સાથે સીધા સંબધ હેાવાનુ` જણાય છે.૧ પરામનાવૈજ્ઞાનિક દૃષ્ટિબિંદુ યેાજ મીકે સ્પષ્ટતા કરી છે કે મનુષ્યના અસ્તિત્વના ઉપરોક્ત સાત સ્તરામાંથી સ્થૂળશરીર અને લિંગશરીર ( ઈરિક કે ખાયેાપ્લામિક ડબલ ) એ એ સ્તી મનુષ્ય નજરે જોઈ શકે તેવા છે.૩૨ સામાન્ય મનુષ્ય તે કેવળ સ્થૂળશરીરને જ જોઈ શકે છે, જ્યારે લિંગશરીરને અમુક પ્રકારનાં પ્રાણીએ, અને વિશિષ્ટ પ્રકારના આરસા કે લેન્સવાળા યત્રાની મદદથી અથવા અમુક તાંત્રિક કે યોગિક સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરેલા મનુષ્ય જોઈ શકે છે. કેટલીક વાર સામાન્ય મનુષ્યને પણ અમુક વિશિષ્ટ સોગામાં લિગશરીર ક્ષણભર નજરે પડી જાય છે, પણ પછી તેમના શરીર પર તેની ખૂબ માઠી અને ચિત્ જીવલેણુ અસર પડી જાય છે. આ લિ'ગશરીર પ્રાણુના સૂક્ષ્મતમ પરમાણુઓનું બનેલુ હોય છે અને તેને વિશિષ્ટ ર'ગવાળું આભામંડળ ( Aura) ઢાય છે.૩૩ આ આભામંડળ સ્થૂળશરીરના આકારને અનુસરતું અને સ્થૂળશરીરમાં વ્યાપીને તેની ખધી બાજુ આશરે છ ઈંચ જેટલું બહાર સુધી પ્રસરેલુ. હેાય છે. ૩૪ ૬. ઉપસ’હાર પરામનેાવિજ્ઞાનનાં સંશાધનાની આ પશ્ચાદ્ભૂમિકાને લક્ષમાં રાખીને આપણે ઋષિમુનિએ, જૈન તીર્થંકરા અને બુદ્ધ ભગવાને પ્રમાધેલ ઉપદેશામાં જીવ અંગે જે વિચારો રજૂ કર્યા હતા. તેની તપાસણી કરીએ તેા નવી જ દૃષ્ટિ પ્રાપ્ત થશે. વૈશ્વિક જગતના ઉપરક્ત સાત પ્લેન અને મનુષ્યના અસ્તિત્વની સ્થૂળ શરીરથી આર ભીને ઉપર જણાવેલા સાત સ્તરે માંથી કયા સ્તરને લક્ષમાં રાખીને આ આ દૃષ્ટાએ પેાતા ઉપદેશ આપતાએ સમજીએ તે! મૂળ દ્રષ્ટાએકનાં મ તબ્બે વચ્ચેને વિરાધાભાસ આપણા અજ્ઞાન ઉપર આધારિત, અને આપણે જેને સર્વોચ્ય માની ખેઠા છીએ તે ઝુદ્ધિની ટૂંકી પહેાંચને આભારી છે તેની પ્રતીતિ થયા વિના નહીં રહે. આદ્ય શંકરાયાયે જ્યારે જીવ બ્રહ્મની એકાત્મતા કે અદ્વૈતની વાત કરી ત્યારે તે અંતિમ કક્ષાનો પરમ સત્ય (Absolute Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ડો, નારાયણ મ, કંસારા Truth)ને પારમાર્થિક દૃષ્ટિએ વિચારતા હતા, અને જ્યારે તેમણે વિવિધ દેવદેવતાઓનાં ઉપાસનાપરક તેત્રે રચ્યાં ત્યારે તે વ્યાવહારિક સત્યની કક્ષાએ વિચારતા હતા. જ્યારે બુદ્ધ ભગવાને જીવના અસ્તિત્વ કે સ્વરૂપ અંગે કશી સ્પષ્ટતા ન કરતાં શન્ય કે નિર્વાણને લગતા ઉપદેશ કર્યો ત્યારે તે પરમ સત્યની પારમાર્થિક ભૂમિકાનો ઉલ્લેખ કરતા હતા, અને તેથી જ તેમણે નિર્વાણથી અવિદ્યા સુધીની જીવનબંધકારક કારણુશંખલાનું જીવનસાધનાની જીપકારક બુદ્ધિ, વ્યાવહારિક ભૂમિકાએ નિરૂપણ કર્યું. કપિલે સક્ષમ વિશ્લેષકની દષ્ટિ રાખીને પુરુષ-પ્રકૃતિના વિવેકજ્ઞાનને પાયામાં રાખીને વ્યાવહારિક ભૂમિકાએ જીવ બહુર્ત, લિગશરીર, જીવબંધકારક કાર વગેરેનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું. ગૌતમે બુદ્ધિપ્રવણુ મનુષ્યોને તાર્કિક પ્રતીતિ દ્વારા છવધર્મનું દર્શન કરાવવા તથા કણાદે સૃષ્ટિમાંના પંચમહાભૂત કાળ, દિશા અને મનથી આત્માને અલગ દર્શાવવા અનુભવમૂલક તાર્કિક દષ્ટિ રજૂ કરી અને પરમાણુકારણવાદને આશ્રય લીધો. જૈન તીર્થકરોએ સમ્યફ જ્ઞાન, સમ્યફ દર્શન, સમ્યફ ચારિત્ર્ય એ ત્રિવિધ રનોની ઉત્તરોત્તર અધિક મૂલ્યવત્તા લક્ષમાં રાખીને, કર્મના પાયાના સક્ષમ વૈશ્વિક કાયદાને કેન્દ્રમાં રાખી, અણિશુદ્ધ વ્યાવહારિક દષ્ટિકોણથી જીવના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કર્યું હોવાથી તેમણે મનુષ્યના અસ્તિત્વના નીચેના બે સ્તરને જ પ્રસ્તુત લેખ્યા, અને તેમને લગતી રહસ્યમય હકીકતને તેમણે પોતાના ઉપદેશમાં નિરૂપી. મનુષ્યના અસ્તિત્વના ઉપર દર્શાવેલા સાત સ્તરોમાંના દરેક પરસ્પર નીચેનામાં વ્યાપેલા રહે છે અને જીવાત્મા સ્થૂળ શરીરને છેડી જાય ત્યારે બાકીના છ સ્તરે સહિત ઉચિત વૈશ્વિક લેક તરફ પ્રયાણ કરે છે અને પછી બીજા શરીરમાં ફરીથી જન્મ લેવા પ્રવેશે ત્યારે પણ એ છ સ્તરે તેની સાથે જ રહે છે, છતાં અતીન્દ્રિય દષ્ટિને તો ઍસ્કૂલ સુધીના બે કે ત્રણ સ્તર જ નજરે પડે છે તે હકીક્તને વાસ્તવવાદી પ્રત્યક્ષપ્રિય તીર્થકરાએ ખાસ લક્ષમાં રાખી છે. બીજી બાજુ તેમણે જીવને પ્રદીપની સાથે સરખાવ્યું છે તેમાં તો ઉપનિષદના ઋષિઓ સાથે તેઓ એકમત હોવાનું દર્શાવે છે, અર્થાત જીવાત્માના શુદ્ધચૈતન્ય સ્વરૂપ અંગે એમને જાણકારી જ નહતી એવું નથી. કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલા તીર્થકરને એ જ્ઞાન ન હોય તે સંભવિત નથી. પરંતુ એ કક્ષાના જ્ઞાનને સામાન્ય મનુષ્યોને ઉપયોગી વાસ્તવાદી ઉપદેશમાં વણવાથી અનુયાયીઓ માટે, વેદાન્તી કે બૌદ્ધ સાધકોની જેમ, ભ્રમમાં અટવાવાની વધુ શક્યતા છે, અને તેથી જીવાત્માની મોક્ષ માટે, જરૂરી કર્મક્ષય, તેના પરિણામે શુદ્ધ જ્ઞાન, તેના પરિણામે શુદ્ધ દર્શન અને તેના દ્વારા મોક્ષ માટે ઉપકારક શુદ્ધ આચારની સાધનામાં વિક્ષેપ આવશે એવી અણિશુદ્ધ વ્યાવહારિક-વણિબુદ્ધિવાળી-દષ્ટિ રાખીને કિંચિત્ તપઃસિદ્ધિ કે અતીન્દ્રિય જ્ઞાન થતાં જ સાક્ષાત અનભવની કક્ષામાં આવી પડે તેવા લિંગશરીરની ભૂમિકાથી જ જીવસ્વરૂપનું નિરૂપણ તેમણે કહ્યું". અને તેથી જ તેમણે જીવને શરીરપરિમાણ પ્રબો, તેથી જ તેમણે જીવના પુદગલ-પરમાણમય શરીર અને તેમાંની નીલ, કાપિત, તેજ, પદ્મ, શુદ્ધ અને કૃષ્ણ લેસ્યા-તેજછૂટા-કે આભામંડળ (Aura)ને લગતી હકીકતો નિદેશી. આધુનિક પરામવિજ્ઞાને સિદ્ધ કર્યું છે કે મનુષ્યના માનસિક ભાવોમાં ફેરફાર થતાં જ તેના આભામંડળમાંના રંગોમાં પણ પરિવર્તન આવે છે અને મનુષ્યને આધ્યાત્મિક વિકાસ થતાં તેના મનના સ્થાયી, ભાવપિંડનું આભામંડળ ઉત્તરોત્તર વધુ તેજસ્વી થવા લાગે છે. જૈન તીર્થકરોની લેસ્યાને લગતી વિચારણું આ દૃષ્ટિએ ખાસ સમજવા જેવી છે. આધુનિક પરામનોવિજ્ઞાનનાં જ સંશાધનોને યુવાચાર્ય મહાપ્રણે જૈન પરિભાષામાં વણીને રજૂ કર્યા છે, ૩૫ તેનું રહસ્ય આ લેખમાંની સામગ્રીને આધારે સમજમાં આવશે, Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० જીવવરૂપ - પામનોવૈજ્ઞાનિક દષ્ટિબિંદુ स : १. भारवाति-तत्त्वार्थसूत्र, २. १० : संसारिणों मुक्ताश्च । २. वादिदेवसूरी-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ७. ५५. ५६ : प्रमाता प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध आत्मा। चैतन्य__ स्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाभोक्ता स्वदेहपरिमाण प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौद्गलिकादृष्टवाँश्वायम् । 3. ५डित सुममा १७ सी -भारतीय तत्वविद्या (म. स. युनि., 431६२!, १६५८) ५. ५३-५४. ४. भास्वाति-त. सू. ५. ३ : नित्यावस्थितान्यरूपाणि। ५. उत्तराध्ययनसूत्रम् , २८.११ : नाणं च दसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ।। ६. मास्वाति-त. सू. २.२६.२९ : विग्रहगतौ कर्मयोगः। विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः । ७. ३२वा, गाथा ११३८. ८. मास्वाति-त. सू. ५.१५-१६ : असंख्येयभागादिषु जीवानाम् । प्रदेशसंहार विसर्गाभ्यां प्रदीपवत् । ६. ५डित सुमसा संघकी-मा.त.वि., ५. ५३. १०. मेन, पृ. ५८. ११. भगवद्गीता, १०.१६ : ...सिद्धानां कपिलो मुनिः। १२. श्रीमद्भागवतम् १.३.१० : पंचमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् । प्रोवाथासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् ।। १३. बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृति, १२.५ : हिरण्यगर्भो योगस्य प्रोक्ता नान्यः कदाचन ।। १४. वायुपुराणम् , २३.२१६. १५. कठोपनिपद् १.२.९. १६. जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग २, (संपादक क्षु. जिनेन्द्र वर्गी, प्रका. भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९४४), पृ. ३३०-३३८. । १७. पण्णवणासुत्तं (५. सगवानहास संपादित), पृ. ५२७. १८. रायपसेणइय (५. मेय२६स संपादित मात्ति), पृ. 3१४. १९. मेनन, पृ. ३२४. २०. मेन, पृ. ३२४. २१. Nona Coxhead-Mind Power, (Penguin Books, 1976) Pp 17-25. २२. Ibid; pp. 257-262. २३. Ibid; pp. 218-220. २४ Sylvan Muldoon & Hereward Carrington-The Projection of the Astral Body (Pub, Rider & Co., London, 1974). Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નારાયણ કસારા 4. George W. Meek-After We Die, What then? (Publ. Meta Science Corporation Publications Division, Franklin, U. S. A., 1980). 2. Tiller, W.A.-The Transformation of Man. Monograph, U.S.A., 1970; Nona Coxhead, op. cit., pp. 202-207. 20. Meek-op. cit., pp. 37-39. 2. Dr. Jesse Herman Holmes and the Holmes Research Team-As We See It From Here (Meta Science Corporation Publication Division, U.S.A., 1980). 2. Muldoon & Carrington, op. cit., pp. 122-125. 30. Holmes, etc.-op. cit., pp. 63-100. 31. Ibid, pp. 92-103. 32. Meek-op. cit., pp. 37-38. 33. Holmes, etc., op. cit., pp. 77-79. 38. Coxhead, op. cit., pp. 105-152. ૩૫, યુવાચાર્ય મહાપ્રસ—આભામંડળ (સૌંપાદક : મુનિ દુલહરાજ, અનેકાન્તભારતી પ્રકાશન, અમદાવાદ, ૧૯૮૨). ૧૧ ૧ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રસ–મીમાંસામાં નુકzવોરનું પ્રદાન કાનજીભાઈ પટેલ વેતામ્બર જૈનાગમમાં અનુગદ્વાર (સંકલન આ. ઈ. સ. ૩૫૦) તેમાં અપાયેલ કેટલીક સાંસ્કૃતિક સામગ્રી માટે નોંધપાત્ર છે. અનુગારસૂત્રકારે સૂત્ર ૨૬૨માં નવ નામની ચર્ચા કરતી વખતે નવ રસ ગણાવ્યા છે: ૧. વીર, ૨. શુંગાર, ૩. અદૂભુત, ૪. રૌદ્ર, ૫. વડનક, ૬. બીભત્સ, ૭. હાસ્ય, ૮. કરુણ અને ૯. પ્રશાન્ત. સૂત્રકારે રસ અંગે કોઈ શાસ્ત્રીય ચર્ચા કરી નથી, પણ આ અંગેનું તેમનું કેટલુંક પ્રદાન મૌલિક અને નોંધપાત્ર છે. એમની રસમૌલિકતા બે પ્રકારની છે. ૧. રસના ક્રમ અંગેની ૨. પરંપરાસ્વીકૃત “ભયાનક રસને સ્થાને થ્રીડનક' રસની રવીકૃતિ. મૌલિકતાના નિર્દેશને અહીં ઉપક્રમ રાખ્યો છે. રસ એટલે શું? 'रस्यन्ते आस्वाद्यन्ते इति रसाः। એવી રસ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે. વૈદિક સાહિત્યમાં રસ શબ્દ પ્રયોગ છે. પણ આરંભમાં વનસ્પતિમાંથી નિચોવીને જે પાણી જે પદાર્થ કાઢવામાં આવે તેને માટે તે પ્રયુક્ત થતો. જેમ કે, સોમલતાને વાટીને તેમાંથી નિચોવીને કાઢેલે રસ તે સમરસ. આ રસમાં વિશિષ્ટ સ્વાદ હશે. તેથી જેને આસ્વાદ થાય, સ્વાદ માણવામાં આવે તે રસ” એ અર્થ કાળે કરીને થતો ગયો. આ રસનું પાન કરવાથી કે આસ્વાદ માણવાથી શક્તિ આવે, મદ થાય, ઉત્સાહ ઉભવે અને અંતે આલાદ જમે. આ રીતે રસનો અર્થ ધીમે ધીમે માનસિક આહૂલાદ થતો ગયો. ઉપનિષત્કાલ આ વાતની સાક્ષી પૂરે છે. જ્યારે એ વિશ્વના પરમતત્વરૂપ બ્રહ્મને રસમય કહે છે : ‘સો છે ઃ સં ઘવાથું ઢરડ્યાનની મતિ ” (તૈત્તિરીય ઉપનિષ-૨/૭) : ત્યારે તે કેવળ આ લાદમય કે આનંદમય છે એ દર્શાવવાને હેતુ સ્પષ્ટ થાય છે. રસ શબ્દના અર્થો વિશ્વકેશ મુજબ– __ "रसो गन्धरसे स्वादे तिक्तादौ विषरागयोः । शृंगारादौ द्रवे वीर्ये देहधात्वम्बुपारदे ॥” અ માંથી શૃંગાર વગેરેની સાથે જે રસ પ્રયુક્ત થાય છે, તેની ચર્ચા અહીં અભિપ્રેત છે. શૃંગાર વગેરે રસ” એવો પ્રયોગ સહુ પ્રથમ આપણને રામાયણમાં મળી આવે છે. પણ રામાયણના બાલકાંડને આ અંશ પ્રક્ષિપ્ત હોવાની સંભાવના છે. આથી કામસૂત્રના નિર્દેશને સૌથી પ્રાચીન માનવામાં વાંધો નથી, જ્યાં વાત્યાયન કહે છે-“વિટમાસ્ત્રીત્રાનુવર્તનમ્ ” (કા. સૂ. ૬/૨-૩૫). આ સ્થળે સ્પષ્ટ રીતે શૃંગારાદિ રસની વાત છે, તે સહજમાં સમજી શકાય છે. કેમકે, તેના પરની “જયમંગલા” ટીકામાં લખ્યું છે : “નાયચ ના િય રૂછો તો માત્ર સ્થાપિશ્ચારિ. સારિપુ શ્રીણિતાનિ તેષામનુવર્તનમ્ " (–નગેન્દ્રઃ રસસિદ્ધાન્ત પૃ. ૮) વાસ્યાયનને સમય ઈ. સ. પૂર્વે લગભગ છઠ્ઠી સદીને મનાય છે, આથી સાહિત્યશાસ્ત્રમાં રસ શબ્દની પ્રચલિત વિભાવના પણ તેટલી પ્રાચીન હશે એમ કહી શકાય. રસની વ્યાખ્યા “વિમવાનુમાવમિસંયોગનિવત્તિઃ” (ના. શા.-ગા. એ, સિ. ભા. ૧, પૃ. ૨૭૨) WWW.jainelibrary.org Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાનજીભાઈ પટેલ <3 (C એમ ભરતમુનિએ નાટયશાસ્ત્રમાં સની ચર્ચામાં જણાવ્યું છે. વિદ્વાને આને ભરતનુ રસસૂત્ર ગણાવે છે. અને તે ઉપરથા ૧. ઉત્પત્તિત્રાદ, ર. અનુમિતિવાદ, ૩. ભુક્તિવાદ, ૪. અભિવ્યક્તિવાદએવા ચાર સિદ્ધાન્તાના વિકાસ થયા છે. અનુયોગદ્રારસૂત્રકારે કેવળ ‘નવ વરના વાત્તા' એમ કહ્યું છે. 7 શબ્દ અહીં ‘કાવ્ય'ના વ્યાપક અમાં સૂત્રકારને અભિપ્રેત હેાય એમ લાગે છે. તેમણે રસની વ્યાખ્યા કરી નથી. પણ ટીકાકાર (હપુરીય ગચ્છના) મલધારી હેમચંદ્રે રસ શબ્દની શાબ્દિક વ્યુત્પત્તિ અને વ્યાખ્યા આપતાં જણાવ્યું છેઃ રહ્યન્ત બન્તાબનાડનુંમૂયન્ત કૃતિ સાઃ તત્તાનरिकारणसन्निधानोद्भूताश्वेतोविकारविशेषा इत्यर्थः उक्तं च बालम्बना यस्तु विकारो માનલો મવેત્ । સ માવ: વ્યંતે સમસ્તસ્યોર્જે સઃ સ્મૃતઃ ।' (અનુ. હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૩૫) અર્થાત્ અંતરાત્માથી જે અનુભવાય છે તે રસ કહેવાય છે. એ રસે તત્તત્સહકારી કારણેની સમીપતાથી ચિત્તમાં ઉત્કષ વિશેષ ઉત્પન્ન કરે છે. તે અનુપમ હોય છે. કહ્યું પણ છે કે ખાદ્યાર્થીના અવલ બનથી જે માનસિક ઉલ્લાસ હેાય છે તે ભાવ છે. ભાવના ઉત્કષ રસ છે. અલબત્ત, ટીકાકારની વ્યાખ્યા સૂત્રકાર પછી સારા એવા સમયે (ઈ. સ.ને ૧૧-૧૨મે સા) થયેલી હાઈ તે દરમિયાનના સમયગાળામાં રસની ચર્ચા ભારતીય સાહિત્યશાસ્ત્રમાં વિસ્તારથી થઈ ચૂકી હતી. રસ–સંખ્યા : ભરતમુનિના નાટષશાસ્ત્રમાં રસની વ્યાખ્યા, પ્રકારો ઇત્યાદિની વિસ્તૃત ચર્ચા છે. ત્યાં તેમણે શૃંગાર, હાય, કરુણુ, રૌદ્ર, વીર, ભયાનક, બીભત્સ અને અદ્ભુત એ આઠ રસા નાટકમાં સ્વીકાર્યાં છે : शृंगार हास्य करुणा रौद्रवीरभयानकाः । વીમત્સાવ્મુતસંજ્ઞો વેચી નાટને લાઃ સ્મૃતાઃ ।। (ના. શા. ૬/૧૫) : આઠ રસ માનવાની પરરંપરા ભરતમુનિ કરતાં પણ પ્રાચીન છે. કારણ કે, તેમણે મહાત્મા ગ્રુહિણે રસ આઠે છે એમ કહ્યું છે' એવે। હવાલો આપ્યા છે તે ઘટી લાઃ ત્રોવ્રુદ્િળન મહાત્મના |’ (ના. શા. ૬/૧૬) : ભરતમુનિના ટીકાકાર અભિનવે ‘સ નવ છે, પણ શાન્તને અપલાપ-નિષેધ કરતાર ત્યાં આઠ' એમ પાઠ આપ્યા છે : તેના પ્રથમ સાઃ । તે જ નવ | શાન્તાપાવિનત્ત્વષ્ટામિતિ સત્ર યત્તિ 1 ( તા.શા—ગા. એ. સિ, પૃ. ૨૬૭ ) : પણ તે ખરાખર લાગતું નથી. કારણ કે, રસની ઉત્પત્તિ, વ, અધિદેવતા વગેરેની ચર્ચામાં પણ ભરતે આઠ રસની જ ચર્ચા કરી છે; નવની નહી. નવમા શાંત નામને રસ પાછળથી ઉમેરાયેા છે. ભરતમુનિ પછી પ્રાચીન આચાર્યાંમાં મહાકવિ કાલિદાસ (ઈ. સ. ૪-૫ શતાબ્દી), અમરસિંહ (ઠ્ઠી શતાબ્દી, ભામહ (ઠ્ઠી શતાબ્દી) અને દંડી (!. ઈ. સ. ૬૭૫-૭૨૫) આદિએ પણ નાટકામાં આઠ રસોને જ ઉલ્લેખ કર્યા છે. નાટકમાં શાન્ત સહિત નવ રસના પ્રથમ ઉલ્લેખ ઉપલબ્ધ ગ્રંથામાં સૌથી પહેલાં ઉદ્ભટના ‘ કાવ્યાલ કારસંગ્રહ 'માં મળે છે : शृंगारहास्य करुणरौद्रवीरभयानकाः । बीभत्साद्भुत शान्ताश्च नव नाटये रसा स्मृताः । ( ४-४ ) રામચ`દ્ર–ગુણ, ( ઈ. સ. ૧૨ મી શતાબ્દી મધ્યભાગ ) પણ નવ રસે। માન્યા છે: शृंगारहास्य करुणा: रौद्रवीरभयानकाः । શ્રીમન્ના ભૂત્તરાન્તાએ સાઃ સદ્ધિનાત્ર સ્મૃતાઃ ॥ (ના. ૬. ૩/૯): Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રસમીમાંસામાં અનુગદ્વારસૂત્રકારનું પ્રદાન આ સ્વીકૃત નવ રસમાં રૂટ પ્રેયાન નામના દસમા રસને ઉમેરી દીધું છે: शृंगारवीरकरुणा बीभत्सभयानकाद्भुता हास्यः। ૌદ્ર શાન્તિઃ પ્રેણાનિતિ મન્તવ્યા હતા તે (કા. સ. ૧૨૯૩): અલબત્ત, રકટને કઈ અનુયાયી કે શિષ્ય મળ્યો નહીં. આ ઉપરાંત સ્નેહ, લૌલ્ય અને ભક્તિને રસ તરીકે નિર્દેશ થયો છે અને વિદ્વાનોએ એનું ખંડન પણ કર્યું છે. (જુઓ હેમચંદ્રાચાર્ય–કાવ્યાનુશાસન : મહાવીર જૈન વિદ્યાલય, મુંબઈ. પૃ. ૧૦૬) ટૂંકમાં, નવ રસોની સ્વીકૃતિ સામાન્ય રીતે થઈ છે. ડો. વી. રાઘવનનું માનવું છે કે નવમા શાંત રસની સ્વીકૃતિ માટે ઘણું કરીને જૈન અને બૌદ્ધો જવાબદાર છે. (The Number of Rasas : synopsis page XIV) ઉભટે નવ રસો નાટકમાં હોય છે તેમ કહ્યું છે, તે કટના સમસામયિક સુભટે તે નવ રસ કાવ્યમાં હોય છે એવી ઘેષણ કરીને “નવ વાગ્યે સાઃ કૃતા” એમ કહી દીધું. અભિનવગુપ્ત રસ નવ જ છે એમ કહી શાન્ત રસની નાટક અને કાવ્ય બનેમાં પ્રતિષ્ઠા કરી છે : “વમેતે લા શેયા નતિ' (ના. શા. ગા. ઓ. સિ, પૃ. ૩૪૧). મમ્મટે ‘નવરિ ' ભારતીની સ્તુતિ કરી છે જે અત્યન્ત પ્રસિદ્ધ છે. ( કા. પ્ર ૧.૧ ) અનુગાર સત્રકારે પણ “નવ વરણા પuત્તા તં કદા-ચો હિરો અમુકો ૨ શેરો ય ઢોડુ વધો . ઢળગો વામો હૃાો વહુનો પસંતો ય ! ” (અનુ. સત્ર. ૨૬૨), એમ કહી કાવ્યના નવ રસો આપ્યા છે. અર્થાત અહીં તેમણે વીર, શૃંગાર, અદ્ભુત, રદ્ર, ગ્રીડનક, બીભત્સ, હાસ્ય, કરુણ અને પ્રશાંત એમ કાવ્યના નવ રસ ગણાવ્યા છે. આમાંથી પાંચમો ગ્રીડનક નામને જે રસ તેમણે દર્શાવ્યો છે તેને નિર્દેશ સાહિત્યશાસ્ત્રના કોઈ પણ આચાર્યના ગ્રંથમાં મળતો નથી. નાટયશાસ્ત્રમાં જ્યાં વ્યભિચારી ભાવોની ચર્ચા છે તેમાં બીડા નામના વ્યભિચારી ભાવને સમાવેશ થાય છે. ગ્રીડનકને થાયીભાવ આ ગ્રીડા યા લજજા ગણવામાં આવ્યો છે. ભરતમુનિએ બ્રીડા માટે લખ્યું છે: ગ્રીલા નામ-અર્ચદાણાત્મિવા સા જ ગુરુસ્થતિમUવજ્ઞાનપ્રતિજ્ઞાતાનિર્વાपश्चात्तापादिभिर्विभावैः समुत्पद्यते।......किञ्चिदकार्य कुर्वन्नेवं यो दृश्यते शुचिभिरन्यैः । पश्चात्तापेन युतो ब्रीडित इति वेदितव्योऽसौ॥ लज्जानिगूढवदनो भूमि विलिखिन्नखांश्च विनिकृन्तन् । वस्त्राङ्गुलीચનાં સંસ્પર્શ ગ્રહિત કુર્યાત છે (ના. શા–ગા. એ. સિ. ભા. ૧, પૃ. ૩૬૩-૬૪) વ્રડાના ભરતમુનિએ આપેલાં લક્ષણે સાથે સત્રકારનું વ્રીડનક રસનું વર્ણન સહજમાં સરખાવી શકાય તેમ છે: विणओवयारगुज्झगुरुदारमेरानतिक्कमुप्पण्णो । वेलणओ नाम रसो लज्जासंकाकरणलिंगो । અહી જોઈ શકાય છે કે ગુરતિકમણની વાત શબ્દશઃ બનેમાં એક છે. પશ્ચાત્તાપજનિત લજજા પણ અને સ્વીકારે છે. આથી એક અનુમાન થઈ શકે કે સરકારને થ્રીડનક રસની ક૯૫ના ઉદ્દભવી છે તેમાં ભરતમુનિએ દર્શાવેલ બ્રીડા નામના વ્યભિચારી ભાવે ભાગ ભજવ્યો હોય. સૂત્રકારે વડનક રસનાં લક્ષણ અને ઉદાહરણ પણ આપ્યાં છે. વાસ્તવમાં તેમને પુરોગામીઓ નથી કે કોઈ અનુગામીઓ નથી કે જેણે વડનક નામને રસ સ્વીકાર્યો હોય. રામચંદ્ર-ગુણચંદ્ર જેવા જેન કાવ્યશાસ્ત્રીઓએ પણ વોડનક રસ સ્વીકાર્યો નથી. એ રીતે મૂલવતાં આ તેમનું મૌલિક પ્રદાન કહેવાય. ભયાનકને ન સ્વીકારી સૂત્રકારે રસની સંખ્યા તો નવ જ રાખી છે. ભયાનક રસને સ્વીકાર ન કરવા માટે તેમણે પોતે કોઈ કારણ આપ્યું નથી. પણ ટીકાકાર મલધારી હેમચંદ્ર Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાનજીભાઈ પટેલ “બ્રીડનકને સ્થાને કેટલાક ભયજનકસંગ્રામદિવસ્તુદર્શનથી ઉત્પન્ન થતા ભયાનક રસ ગણવે છે, પરન્તુ ભયાનક તે તેના કારણભૂત રસ રૌદ્રનું જ અંગ છે. માટે તેની પૃથક સત્તા નથી.” એમ કહી તેને અહીં રૌદ્ર રસ ની અંતર્ગત ગાતાં જુદે ન ગણવા જણાવ્યું છે. (અનુ. હેમ. વૃત્તિ પૃ ૧૩૫). સૂત્રકારે જેને પ્રશાંત રસ કહ્યો છે તે શાંતરસનું નામાન્તર છે એમ માનવામાં વાંધો નથી. અનુયોગઠારસૂત્રમાં પ્રશાંત રસની સ્વીકૃતિ માં માત્ર ધાર્મિક દૃષ્ટિ છે, તેને નાટક કે કાવ્ય સાથે કંઈ સંબંધ નથી એવું મંતવ્ય ડે. એસ. કે. ડેએ દર્શાવ્યું છે. ( Sanskrit Poetics Vol. I p. 36 f. n ) પણ ડો. વી. રાઘવને તેમના આ મંતવ્યનું ખંડન કર્યું છે. (The Number of Rasas, page 23 ). સેને વિશેષક્રમ : ભરતમુનિએ ગાર, હાસ્ય, કરુણ, રૌદ્ર, વીર, ભયાનક, બીભત્સ અને અદ્ભુત એ પ્રકારે રસોને ક્રમ આપે છે (ના. શા. ૬/૧૫). અભિનવભારતીમાં તે ક્રમનું કારણ વિગતથી જણાવવામાં આવ્યું છે. શૃંગાર દરેકને અતિ સુલભ અને સુપરિચિત લેવાથી સૌને માટે હદ છે, માટે શુંગરને પ્રથમ સ્થાન આપવામાં આવ્યું છે. (અનુ. હેમ. વૃત્તિ પૃ. ૧૩૪-૩૫ પર અનુગારસૂત્રના ટીકાકારે પણ આને ઉલ્લેખ કર્યો છે.) હાસ્ય એ શંગારને અનુગામી છે, માટે શૃંગાર પછી હાસ્યનું સ્થાન છે. હાસ્યથી વિપરીત સ્થિતિ કરૂણની છે, એથી તેનું સ્થાન હાસ્ય પછીનું છે. કરુણનું નિમિત્ત રૌદ્રરસ હોવાથી કરુણ પછી રૌદ્રરસનું સ્થાન છે. એ પછી કાળ, અર્થ અને ધર્મપ્રધાન વીરરસ આવે છે. વીરરસનું મુખ્ય કાર્ય ભયભીતને અભય પ્રદાન કરવાનું હે ઈ વીરરસની સાથે તેના વિરોધી ભયાનકને સ્થાન આપવામાં આવે છે. વીર રસના પ્રભાવથી બીભત્સ દશ્ય ઉપસ્થિત થાય છે, એથી ભયાનક પછી બી મન્સને મૂકવામાં આવે છે. કહ્યું છે કે “ અંતમાં અભુતને સ્થાન આપવું જોઈએ.” : પર્યન્ત વાર્તો નિત્યં રસોડમુરઃ || ( ના. શા. ૧૮.૪૩): એથી આઠ રસોમાં છેલ્લું સ્થાન અદ્દભુતનું છે. ત્યાર પછી ધર્મ–અર્થ-કામરૂપ ત્રિવર્ગને સાધનભૂત પ્રવૃત્તિ ધર્મોથી વિપરીત નિવૃત્તિધર્મપ્રધાન અને ટેક્ષફળવાળો શાંત રસ આવે છે. (ના. શા-ગ. ઓ. સિ. પૃ. ૨૬૭). - અ યોગકારસૂત્રકારે શંગારને સ્થાને વીરરસને પ્રથમ સ્થાન આપ્યું છે. એ માટે તેમણે કોઈ કારણ નથી આપ્યું. પણ ટીકાકાર મલધારી હેમચંદ્ર આપેલ કારણ વિશેષ નોંધપાત્ર છે. તેમના જણાવ્યા પ્રમાણે વીરરસને પાઠ પહેલો રાખવામાં આવ્યું છે, તેનું કારણ એ છે કે લોકોને તપ અને કર્મનિગ્રહ કરવામાં જે પ્રેરણાત્મક ગુણ હોય છે તે ફક્ત વીરરસમાં જ હોય છે, હજાર ગુણ કરતાં પણ વધારે પડતો ત્યાગ ગુણ મનાય છે. તપ અને શ્રુત પણ મેક્ષ આપનારાં છે. (અનુ. હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૩૫) વળી, વિચાર કરતાં જણાય છે કે જૈનધર્મના આ આચાર્યો નિજ ધર્મના મહાપુરુષ ભગવાન મહાવીર સ્વામીનું શૃંગાર રસ વિષયક કોઈ ઉદાહરણ મળી શકે જ નહીં તેથી તેને રથાને વીરરસથી જ ક્રમને આરંભ કર્યો હોય. વીરરસની ચર્ચા જો પ્રથમ થાય તો પ્રથમ મહાવીર સ્વામીનું ઉદાહરણ શકય બને. વળી, “મહાવીર”માં “વીર” શબ્દને સમાવેશ થઈ જાય છે. ઉપરાંત, વીરરસના ત્રણે પ્રકારે – ધર્મવીર, દાનવીર, યુદ્ધવીરને સમાવી શકાય તેવું એક જ ઉદાહરણ અને તે પણ મહાવીર સ્વામીનું પ્રથમ આવે તો તે વિશેષ ઉપયુક્ત ગણાય. આથી સૂરકારે વીરરસને પ્રથમ સ્થાન આપ્યું હોય એમ બને. વીર પછી શૃંગાર આવે છે. અદ્દભુત રસ શુગાર પછી તરત જ તેમણે મૂકયો છે. રોદ્રને ક્રમ એ જ રાખે છે; જ્યારે Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ કરુણ રસ-મીમાંસામાં અનુયાગદ્વારસૂત્રકારનું પ્રદાન અસલમાં આવતા વીરરસના પાંચમા ક્રમે ભયાનકના સ્થાને આવેલ નવો વીડનક રસ મૂક્યો છે અને ભયાનકને રૌદ્રની અંતર્ગત ગણી લીધું છે. બીભતસ રસ છો મૂકયો છે. હાસ્યને કરુણની પહેલાં તે રાખ્યો છે, પણ કરુણ અને અભુતના સ્થાનની અદલાબદલી થતાં તે સાતમો આવ્યો છે. શાંતને સ્થાને આવેલ પ્રશાંતનું સ્થાન છેલું છે. આમ, સૂત્રકારે નાટયશાસ્ત્રના આઠ રસ અને કાવ્યાલંકારના નવ રસના ક્રમમાં મોટો ફેરફાર કર્યો છે, જે નીચેના કોઠા પરથી જોઈ શકાય છે. નાટયશા કાવ્યાલંકાર અનુગદ્વારસૂત્ર ૧ શૃંગાર ૧ શૃંગાર ૧ વીર ૨ હાસ્ય ૨ હાસ્ય ૨ શૃંગાર ક અદભુત ૪ રદ્ર ૪ રોદ્ર ૪ રોક ૫ વીર ૫ વીર પ બ્રીડનાક ૬ ભયાનક ૬ ભયાનક ૬ બીભત્સ ૭ બીભત્સ ૭ બીભત્સા ૭ હાસ્ય ૮ અદ્ભુત ૮ અદ્દભુત ૮ કરુણ ૯ શાંત ૯ પ્રશાંત લક્ષણ અને ઉદાહરણ: સૂવકારે નવ રસનાં લક્ષણોની શાસ્ત્રીય ચર્ચા કરી નથી, માત્ર તે કેવી રીતે લક્ષમાં આવે છે તે જણાવી દરેકનાં ઉદાહરણ જ આપ્યાં છે. આ માટે વીર, શૃંગાર, શિક, ગ્રીડક, હાસ્ય અને કરુણ માટે સ્ક્રિન શબ્દને અને અદ્દભુત તથા બીભત્સ માટે સ્ટfar શબ્દનો પ્રયોગ કર્યો છે. રસનાં ઉદાહરણે પણ કેટલાંક તો અસરકારક બની શક્યાં નથી. દરેકનું પૃથફ વિવેચન કરતાં આને ખ્યાલ આવી શકે છે. વીરરસ :-સૂત્રકાર પ્રમાણે દાન દેવામાં પશ્ચાત્તાપ ન કરે, તપશ્ચર્યામાં ધીરજ ધરવી અને શત્રુઓને વિનાશમાં પરાક્રમ કર પણ વ્યાકુળ ન થવું – આવાં લક્ષણે વીરરસનાં છે. ટીકાકારે વીરરસની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે આપી છે – જે રસ માણસને વીરત્વપૂર્ણ કરે છે; ત્યાગમાં, તપમાં અને કર્મરૂપ શત્રુઓના નિગ્રહકાર્યમાં પ્રેરિત કરે છે તે વીરરસ છે. ( હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૩૪). વાસ્તવમાં આ સ્થળે વીરરસનાં લક્ષણ નથી. પણ ભરતમુનિએ જે દાનવીર, ધર્મવીર અને યુદ્ધવીર એમ ત્રણ પ્રકારને વીરરસ કહ્યો છે, તે ત્રણે પ્રકારે સુત્રકારે વીરરસનું લક્ષણ બાંધતાં આપી દીધાં છે. જેમ કે– दानवीरं धर्मवीरं युद्धवीरं तथैव च । સં વીમો પ્રાદુ બ્રહ્મા ત્રિવિધમેવ હ ના. શા.૬/૭ વીરરસના ઉદાહરણમાં સૂત્રકારે જે ગાથા આપી છે તેમાં મહાવીરનું વર્ણન છે. ત્યાં તેમને રાજ્યના વૈભવને ત્યજી દેનાર' ગણાવી દાનવીર, “દીક્ષિત થનાર” કહી ધર્મવીર અને કામક્રોધરૂપ ભયંકર શત્રુઓને “વિનાશ કરનાર' કહીને યુદ્ધવીર એમ ત્રણે પ્રકારના વીર બતાવ્યા છે. આમ, એક જ ઉદાહરણમાં ત્રણેને સમાવી લેવાની સૂત્રકારની શક્તિ અહીં ઉલ્લેખનીય છે. શૃંગાર રસ -શુંગાર વિશે સૂત્રકારે કહ્યું છે કે શૃંગારરસ રતિના કારણભૂત રમણ આદિ સંબંધી અભિલાષાનો જનક હોય છે. વૃત્તિકારે જે રસ પ્રધાનતયા વિષયો તરફ વાળે છે તેને Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * કાનજીભાઈ પટેલ ગાર કહ્યો છે. (અનુ. હેમ. વૃત્તિ-પૃ. ૧૩૬) અહીં ભરતમુનિનું વાક્ય સરખાવવું રસપ્રદ થઈ પડશે કે-“ તત્ર સમોનસ્તાવન ઋતુમાત્યાનુપનનાdgઝનવિષયવમવનોપમોનોપવન નાનુસસરકારની રાત્રીરસિઘિા ( ના. શા-ગા. આ. શિ. ભા. ૧, પૃ. ૩૦૩) વળી, પૃ. ૩૦૮ પર શુંગારને રિઝમઃ કહ્યો છે. સૂત્રકારે પશુ શુંગાર રસને તરંગોઢિારસંવાળો કહ્યો છે અને જે મંડન, વિલાસ, બિબેક, હાસ્ય, લીલા વગેરે શૃંગારનાં લક્ષણે ગણાવ્યાં છે તેમાં પણું નાટયશાસ્ત્રની અસર સ્પષ્ટપણે જોઈ શકાય છે. અહીં એક વાત નોંધવાની છે કે ભારતના વાસમાં શગારના સંભોગ અને વિપ્રલંભ એવા જે બે પ્રકારે ગણાવ્યા છે તેની ચર્ચા સૂત્રકારે ટાળી છે. તેમનો ઉદ્દેશ જેન સાધુઓને બોધ આપવાનું હોવાથી શંગારની વિસ્તૃત ચર્ચા તેઓ ન કરે તે સ્વાભાવિક છે. એટલું જ નહીં, પણ તેમણે તે શંગારનું ઉદાહરણ આપ્યા પછી સ્પષ્ટ કહી દીધું છે કે ઉપરોક્ત સ્વરૂપવાળા શૃંગારને “ધિકાર છે, ધિક્કાર છે. આ રસ મુનિઓ માટે ત્યાજ્ય કહેવામાં આવ્યો છે. તે મોક્ષરૂપી ઘરની અર્ગલા છે. તેથી મુનિ આ રસનું સેવન ન કરે. અદ્દભુત રસદ નાટયશાસ્ત્રમાં રસોની ચર્ચામાં અદ્દભુત છેલ્લે આવે છે. પણ અહીં સૂત્રકારે તેને શુંગાર પછી તરત જ મૂક્યો છે. સૂત્રકાર અને ટીકાકાર (અનુ. હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૩૫) મુજબ પૂર્વે કેઈ દિવસ ન અનુભવેલ અથવા અનુભવેલ એવા કોઈ પદાર્થને જોઈને આશ્ચર્ય થાય તે અદ્દભુત રસ છે. હર્ષ અને વિષાદ અભુત રસનાં લક્ષણ છે. આશ્ચર્યજનક બાબતથી વિસ્મય જન્મ અને વિસ્મય એ અદ્દભુત રસને થાયીભાવ છે. આ બાબત ભરતમુનિમાં પણ છે. પરંતુ અદ્ભૂત રસનાં હર્ષ અને વિષાદ એ બે લક્ષણ છે એમ સૂત્રકારે જે કહ્યું છે તે વિચારવા જેવું છે. નાટયશાસ્ત્રમાં અદ્દભુત રસના વર્ણનમાં કહ્યું છેઃ સ્તન્મશ્રાદુરોનાલ્ઝાકાસામનડતાકરચયઃા (ના. શા. ગા. એ. સિ ભા. ૧, પૃ ૩૨૮-૩૩૦) અહીં જે જડતા, પ્રલય વગેરે કહ્યાં છે તે ઉપરથી વિષાદને સુત્રકારે અદ્ભુતનું લક્ષણ માન્યું હશે, અન્યથા અન્ય કેઈએ વિષાદને અદૂભુતનું લક્ષણ કહ્યું નથી. ૪. રૌદ્રરસ : સૂત્રકારે ભયજનક રૂ૫, શબ્દ, અંધકારના ચિંતન, કથા અને દર્શનથી ઉત્પન્ન થનાર તથા સંમોહ, સંભ્રમ, વિષાદ અને મરણ લિંગવાળો રૌદ્રરસ ગણાવ્યો છે. ટીકાકારે કહ્યું છે: “જે અતિદારુણ હેવા બદલ રડાવે છે એટલે કે અશ્રુ વહેવડાવે છે તે રૌદ્ર છે. શત્રુઓ, મહારણ્ય, ગાઢ તિમિર વગેરે રૌદ્ર છે. એમના દર્શનથી ઉદભવેલ વિકૃત અથવસાયરૂ૫ રસ રૌદ્ર છે.' (અનુ. હેમ. વૃત્તિ પૃ. ૧૩૭) સૂત્રકારે આપેલા લક્ષણોની સરખામણી ભારત મુનિના રૌદ્રરસના વિવેચન સાથે કરવા જતાં કેઈ નેંધપાત્ર સામ્ય મળી આવતું નથી. સૂત્રકારે જે ઉદાહરણ આપ્યું છે, તેમાં રૌદ્રને બદલે ભયાનક રસ જોવા મળે છે. ટીકાકારે આનું કારણ આપતાં જણાવ્યું છે : “જે કે લક્ષણક ભયાનકને નિર્દેશ કરે છે. પણ તે ભયાનકના કારણભૂત રૌદ્રને સ્પર્શે છે, તેમ સમજવાનું છે.” (અનુ હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૩૫). ડે. વી. રાધવને ટીકાકારની આ દલીલ તર્કસંગત ગણી નથી (The Numbar of Rasas, Page 142). અન્યને કારણે ઉત્પન્ન થયેલા રસને ના સ્વીકારવામાં આવે તો તે ભારતે કહ્યું છે તેમ માત્ર ચાર જ મૂળ રસ રહે (ના. શા. ૬/૩૯-૪૧) વળી, કારણભૂતને સ્વીકારો અને કાર્યભૂતને ન સ્વીકાર એ યોગ્ય નથી. તેનાથી ઊલટું કેમ નહીં ? ૫. ગ્રીડનક રસઃ સૂત્રકાર અને ટીકાકાર (અનુ. હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૩૫) ના જણાવ્યા પ્રમાણે વિનય કરવા યોગ્ય માતા-પિતા વગેરે વડીલો સાથે અવિનયપૂર્ણ વ્યવહાર કરવાથી, મિત્ર વગેરેની Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૮ રસમીમાંસામાં અનુગદ્વારસૂત્રકારનું પ્રતાન ગુપ્ત વાત પ્રકટ કરવાથી તેમજ માન્યજનોની ધર્મપત્નીઓ સાથે ઔચિત્યપૂર્ણ વ્યવહારના અતિક્રમથી વીડનક રસ ઉત્પન્ન થાય છે. લજા અને શંકા ઉત્પન્ન થવી તે આ રસનું ચિહ્ન છે. આ રસની બાબતમાં સૂત્રકારનું પ્રદાન મૌલિક છે અને તેની ભરતમુનિએ વર્ણવેલ ૩૩ વ્યભિચારી ભાવમાંના બ્રીડા સાથે સરખામણી શક્ય છે. એ વાત અગાઉ જણાવી દીધી છે. વરવધૂના પ્રથમ સમાગમ પછી વડીલો ( સાસુ-સસરા) વધૂએ પહેરેલાં વસ્ત્રોનાં વખાણ કરે છે. તે જોઈને વધુ શરમાઈ જાય છે એવું જે ઉદાહરણ છે તે સમસામયિક સામાજિક પરિસ્થિતિને વ્યક્ત કરતું, - લોકવ્યવહારને દર્શાવતું અને સાથે સાથે નવપરિણીતાના લજજાભાવોને સુંદર રીતે વ્યક્ત કરતું છે. આને ઉત્તમ કાવ્યનું ઉદાહરણ કહી શકાય તેમ છે. સૂત્રકાર ધર્મશાસ્ત્રના જ્ઞાતા હોવા ઉપરાંત લેકવૃત્તાન્તની પણ જ્ઞાતા હશે એ વાત અહીં પ્રતીત થાય છે. ૬, બીભત્સ રસ : બીભત્સ રસની નાટયશાસ્ત્રમાં ચર્ચા વખતે ભારતે એક આર્યા છંદ આ છે ? अनभिमतदर्शनेन च गन्धरसस्पर्शशब्ददोषैश्च । કનૈશ્ચ દુમિર્કીમત: સમુર્મવતિ ૫ (ના. શા. ૬/૭૩) સૂત્રકાર અનુસાર અશુચિ, કુણપ (શબ), દુર્દશનના સંયોગ, દુધને અભ્યાસ બીભત્સ રસ જન્માવે છે. નિર્વેદ અને અવિહિંસા (જીવઘાતથી નિવૃત્તિ) એ બીભત્સ રસનાં લક્ષણ છે. ટીકાકાર પ્રમાણે શુક્ર, શોણિત, મતવિષ્ટા, મૂત્ર વગેરે જે અનિષ્ટ અને ઉદ્દે નજનક વસ્તુઓ છે તે બીભત્સ કહેવાય છે. એમને જોવા-સાંભળવાથી જે જુગુપ્સાત્મક ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે તે જ જુગુપ્સાપ્રકર્ષ રસ બીભત્સ રસ કહેવાય છે. (અનુ. હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૩૫). ભરત અને સૂત્રકારની વ્યાખ્યામાં કેટલાક સમાન અંશે છેજેવા કે, અનભિમત દર્શન ભરતમુનિની વ્યાખ્યામાં છે, અહીં દુર્દર્શન શબ્દ છે. ગંધરસસ્પર્શ વગેરેના ની વાત ભરતમુનિએ કરી છે. સૂત્રકાર દુર્ગધને સ્પષ્ટ ઉલ્લેખ કરે છે. આ ઉપરાત સરકારે નિર્વેદ અને અવિહિંસા લક્ષણવાળા બીભત્સ રસ પણ કહ્યો છે. ભરતમુનિ એ બીભત્સ રસના ભાવોની ગણના કરી છે કે “માવાસ્યાસ્વાપરમાર નામોચ્ચાધિકાદ:” (ના. શા –ગા. એ. સિ. ભા. ૧ પૃ. ૩૨૮) અહીં ઉગ વગેરેમાં નિવેદ આવે, પણ જે અવિહિંસાની વાત સૂત્રકારે કરી છે તે તેમની જૈનસંસ્કારજન્ય વિચારધારાને દર્શાવે છે. બીભત્સ રસનું સૂત્રકારનું ઉદાહરણું પણ નોંધપાત્ર છે. તેમણે શરીરમાં રહેલ અપવિત્ર મળ અને ઈન્દ્રિયોના વિકાર રૂપી ઝરાઓની વાત કરી છે, તેમાં સદાકાળ દુર્ગધ છે અને એ સર્વ મળ છે એમ તે જણાવે છે. પણ આટલેથી તે અટકતા નથી. ભાગ્યશાળી વ્યક્તિએ તે શરીરની મૂછને ત્યાગ કરી પોતાની જાતને ધન્ય બનાવે છે એમ ઉદાહરણમાં દર્શાવી જૈન સાધુઓ માટે આડકતરો પણ ઉપાદેય ઉપદેશ આપ્યો છે. આમ બીભત્સ રસનાં વિવેચના અને ઉદાહરણ બને વધુ સંતર્પક લાગે છે, અને સૂત્રકારની શક્તિનાં ઘાતક છે. ૭. હાસ્ય રસ : ભરતમુનિએ શૃંગાર પછી તરત હાસ્યરસની ચર્ચા કરી છે, કારણ કે એ બનેને એકબીજા સાથે સંબદ્ધ છે; જ્યારે સૂત્રકારે હાસ્યરસને બીભત્સ રસની પછી મૂક્યો છે. આ ક્રમમાં કોઈ વૈજ્ઞાનિકતા નથી. હાસ્યની ઉત્પત્તિ માટે ભરતમુનિ લખે છે: “સ જ વિકૃતવેપારધાદર્યટૌડુવાસબસ્ટાર્ચનોવોટાદiામિમિ દ્વૈપા ' (ન. શા-ગા, એ. * સિ. ભા. ૧ પૃ. ૩૧૨–૩૧૩). Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ કાનજીભાઈ મ. પટેલ હવે જ્યારે રૂ૫, વય, વેશ અને ભાષાના વિપરીતપણુથી હાસ્યરસ ઉત્પન્ન થાય છે, એમ સૂત્રકાર અને ટીકાકાર (અનુ. હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૩૫) ની વ્યાખ્યા વાંચીએ છીએ ત્યારે લાગે છે કે ભરતની વ્યાખ્યામાંથી કેટલીક બાબતે ગાળી નાખીને સૂત્રકારે આ વ્યાખ્યા તૈયાર કરી હશે. નાટયશાસ્ત્રમાં આર્યા ઉદ્દત કરી છે કે –“ વિતાવાગૈવિશ્વાશ્ચ વિશ્વ | દારૂતિ ચસ્મારHIણેયો સો દુ: || ” (ના. શા. ૬/૫૦). એમ પણ ઈ શકે કે સંસ્કૃત નાટકને ફક્ત વિદુષક તનની દષ્ટિમાં હોય. વિદુષકની વ્યાખ્યા છે : વિતાવવોઃ ટ્રાચવા વિદ્રુપ” આ ઉપરથી સૂત્રકારે પોતાની વ્યાખ્યા આપી હેય. ભરતમુનિ અનુસાર હાસ્યરસ આમસ્થ અને પરસ્થ એમ બે પ્રકારનો હોય છે. (ના. શા. પૃ. ૩૧૩) સૂત્રકાર આ બાબતમાં મૌન સેવે છે. ભરતમુનિએ સ્મિત, હસિત, વિહસિત, ઉપહસિત, અપહસિત અને અતિસિત એવા હાસ્યના છ ભેદ દર્શાવ્યા છે. (ના. શા. ૬/૫૩) આમાંથી કોઈને સીધે નિર્દેશ સૂત્રકાર કરતા નથી, પણ જ્યારે તેઓ કહે છે કે મુખનું વિકસિત થવું, પેટનું પ્રૂજવું, અટ્ટહાસ્ય વગેરે હાસ્યનાં લક્ષણો છે. ત્યારે તેમના મનમાં આ પ્રકારનો કદાચ ખ્યાલ હશે. સૂત્રકારે આપેલું ઉદાહરણ એ હાસ્યનું રમણીય ઉદાહરણ છે. રાત્રે પત્નીના નેત્રનું કાજળ તેના દિયરને ગાલ ઉપર લાગેલું જોઈને ભાભી ખડખડાટ હસી પડે છે. અહીં શૃંગારની છાંટ પણ આહૂલાદક છે. ૮, કરુણરસઃ કરુણરસની ભરતમુનિની ચર્ચા આ પ્રમાણે છેઃ સ જ વાપરાવાનિત છત્તરવિકામિનારવિધવવિદ્રોપધાતવ્યસનરંથો અર્વિમા સમુપાયા (ના.શા. પૃ. ૩૧૭) સૂત્રકાર કહે છે કે પ્રિયને વિયોગ, બંધ, વધ, તાડન, વ્યાધિ, વિનિપાત અને પરચક્રના ભયથી કરુણરસ ઉત્પન્ન થાય છે. અનુ. ટીકાકારની વ્યાખ્યા પણ આવી જ છે. (અનુ. હેમ. વૃત્તિ પૃ ૧૩૫) અહીં પરચકના ભય સિવાયની અન્ય વાતો ભરતમુનિની ચર્ચાને મળતી આવે છે. શોક, વિલાપ, મુખશુષ્કતા, રુદન વગેરે કરુણરસનાં લક્ષણ છે, એમ સૂત્રકાર જે કહે છે તે કરુણરસને અભિનય કેવી રીતે કરો એ વાત દર્શાવે છે. સૂત્રકારનું કરુણરસનું ઉદાહરણ સાદું છે. તેમાં પુત્રીની કરુણદશાનું વર્ણન છે. ૯, પ્રશાન્ત રસ : “શાન્તોડ નવમો રતઃ' એ વાત પાછળથી આવી છે. ભરતમુનિએ નાટકના આઠ રસોની ચર્ચા કરી હોવાથી “નાદ અષ્ટસ: સ્મૃતા:” એમ કહ્યું છે. શાંત રસના સૌથી પ્રબળ વિરોધી ધનંજય અને ધનિકે પણ શાંતરસ નિવૃત્તિપ્રધાન હોય છે અને અભિનયમાં તો પ્રવૃત્તિનું પ્રાધાન્ય હોય છે એમ જણાવી નાટકમાં શાંતરસને સ્વીકાર કર્યો નથી. પણ દશરૂ૫કની એ ચર્ચાથી એટલું જ સિદ્ધ થાય છે કે નાટકમાં શાંતરસની ઉપયોગિતા નથી; પણ એથી શાંતરસને અભાવ ન માની શકાય. શ્રી રામસ્વામી શાસ્ત્રીના મત પ્રમાણે “મને નદિ સાઃ તાઃએવા ભરતમુનિના કથનનો આશય માત્ર નાટકમાં આઠ રસોનું પ્રતિપાદન કરવાને છે; કાવ્યમાં શાંતરસ હોઈ શકે છે. એટલે કે કાવ્યમાં નવ રસ સ્વીકૃત છે. અનુયોગદ્વારસૂત્રકારે ‘ઇવિ વરસા quTત્તામાં નવ રસ એટલે કે શાંત રસને સ્વીકાર કર્યો છે તે ઉક્ત ભાવનાને અનુરૂપ જ છે, ૧૨. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રસમીમાંસામાં અનુગદ્વાર સૂત્રકારનું પ્રદાન હિંસા વગેરે દોષોથી રહિત થયેલ મનની એકાગ્રતાથી જેની ઉત્પત્તિ થયેલ છે તેમ જ વિકાર૨હિતતા જેનું લક્ષણ છે એવા પ્રશાન્ત ભાવને સત્રકારે પ્રશાંત સ કહ્યો છે. ટીકાકારે ઉપશમની પ્રકર્ષતારૂપ રસને પ્રશાન્ત રસ કહ્યો છે. આની તુલના શાંતરસના સ્વીકૃત સ્થાયીભાવ નિવેદ સાથે થઈ શકે તેમ છે. ઉપસંહારઃ સૂત્રકારે નવરસોની ચર્ચા પછી ઉપસંહારમાં એક નવીન અને નેધપાત્ર વાત કરી છે કે આ રસોની ઉત્પત્તિ ૩૨ સૂત્ર (અલીક, ઉપઘાતજનક, નિરર્થક આદિ ૩૨ સૂત્રદોષ માટે જઓ વિશેષાવશ્યક સૂત્ર ગાથા ૯૯૯)માંથી થાય છે. આ વાતને ટીકાકારે નીચે મુજબ ઉદાહરણ આપીને સમજાવી છે. અલીતાના દોષથી અદભુત રસ ઉત્પન્ન થાય છે. જેમ કે, “તેના હાથીઓના કપોલતટ પરથી ઝરતા મદના બિંદુએથી હાથી, ઘોડા અને રથને વહાવનારી ઘોર નદી ઉત્પન્ન થઈ તેષાં તિટનાનાં નત્િમક કાવર્તિત નવી ઘોડા દુશ્વરથવાની છે (અનુ. હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૩૯-૧૪૦) આ સ્થળે વાસ્તવમાં અદ્ભુત રસ છે. પણ આ વાત જીવનમાં કયારેય સત્ય ન હોઈ શકે. એટલે અહીં અલીતાને દેષ રહેલો છે. (વિશેષાવશ્યકસૂત્રમાં આ ઉદાહરણને અઘટિતાર્થ કથન બતાવી અયુક્તદોષ કહેલ છે.) એવી જ રીતે ટીકાકારે ઉપઘાત દોષથી ઉત્પન્ન થતા રસનું ઉદાહરણ આપ્યું છે કે–“એ જ માણસ જીવે છે કે જેણે પોતાના ધનથી પ્રેમપૂર્વક માંગનારને ખુશ કર્યા છે અને કેધથી દુશ્મનના લોહીથી પિતાના બાણોને પ્રસન્ન કર્યા છે.” સ કાતિ પ્રાળી કિર્તન સુપિૉન રા વિવિપક્ષૌ પ્રીણિતાન માળા || (અનુ. હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૪૦): અહીં છે તે વીરરસ, પણ એ ઉપઘાત દેષને કારણે ઉત્પન્ન થયેલ છે. ઉપરાંત ટીકાકારે એક વાત સુંદર જણાવી છે કે જે ૩૨ દોષમાંથી રસ ઉત્પન્ન થવાની વાત કરી છે તેને પ્રાયોવૃત્તિ-પ્રાયવાદ ગણવો જોઈએ, કારણ કે તપ અને દાન જેને વિષય છે તે વીરરસ કે પ્રશાંત વગેરે રસે અમૃત વગેરે દેશે વિના પણ સંભવી શકે છેઃ તપોવાનવિષયસ્થ વચ પ્રાન્તાહિરાનાં વિતાવિલોપાન્તપિ નિ પરિતિ ! (અનુ. હેમ. વૃત્તિ પૃ. ૧૪૦) આમ સૂત્રકાર અને ટીકાકાર બને એ રસેના બે વિભાગ કર્યા છે.–૧ અનૃત, ઉપઘાત જેવા સૂત્રદોષોથી ઉતપન્ન થતા અને ૨. સૂત્રદોષો સિવાય ઉત્પન્ન થતા. યુદ્ધવીર પરોપધાતથી ઉત્પન્ન થાય છે. અદ્દભુત અનૂતદોષથી ઉત્પન્ન થાય છે. પણ તપાવીર અને દાનવીર પ્રશાન્તરસની જેમ સૂત્રદોષથી પર હોઈ શકે. રસની બાબતમાં એક બીજી સેંધપાત્ર હકીકત અહીં એ છે કે સૂત્રકારે “શુદ્ધ અને “મિશ્ર' એમ બે પ્રકારના રસની નિષ્પત્તિની વાત કરી છે. જે ગ્રંથમાં કેવળ એક જ રસ આવે તો તે શુદ્ધ અને જ્યાં એકથી વધુ રસોની નિષ્પત્તિ થાય તે “મિશ્ર” એમ ટીકાકાર જણાવે છે : क्वचित्काव्ये शुद्ध एक एव रसो निबध्यते, क्वचित्तु द्वथादिरससंयोग इति भाव इति गाथार्थः । (અનુ. હેમ. વૃત્તિ. પૃ. ૧૪૦) સંસ્કૃત કાવ્યશાસ્ત્રીઓએ પણ પ્રબંધના અંગ એટલે ગૌણ અને અંગી એટલે મુખ્ય એવા રસની વાત કરેલી જ છે. સંસ્કૃત કાવ્યશાસ્ત્રની અંગી રસ-કલ્પના પોતે એક અત્યંત રોચક પ્રસંગ છે. પ્રબંધકાવ્યના આસ્વાદનું સ્વરૂપ-વિશ્લેષણ કરવા માટે કદાચ આ કલ્પના કરવામાં આવી હતી. એ દૃષ્ટિએ એનું મહત્વ અસંદિડધ છે. આવી સંસ્કૃત કાવ્યશાસ્ત્રની મહત્ત્વની કલ્પનાને ટીકાકારે નિર્દેશ કર્યો છે. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાનજીભાઈ પટેલ સંદર્ભ ગ્રંથ १. अनुयोगद्वारसूत्र-सं. मुनि पुण्यविजयजी, महावीर जैन विद्यालय, मुंबई २. अनुयोगद्वार-वृत्ति (हरिभद्र) - देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, मुंबई 3. अनुयोगद्वार वृत्ति (मलधारी हेमचन्द्र)-आगमोदय समिति, मुबई ४. अनुयोगगद्वार-चूर्णि- ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम ५. विशेषावश्यकभाष्य (जिनभद्र) - सं. पं. दलसुख मालवणिया - ला.द.भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद 8. आवश्यक नियुक्ति -- सं. ज्ञानसागर सूरि, दे. ला. जैन पुस्तकोद्धार ७. ब्रहत्कल्पसूत्र-सं. मनि पुण्यविजयजी : आत्मानन्द सभा, भावनगर ८. काव्यानुशासन (हेमचन्द्र) सं. परीख - कुलकर्णी : महावीर जैन विद्यालय, मुंबई ४. नाट्यशास्त्र - (भरत) - सं. रामकृष्ण कवि : गा. ओ. सि., बरोडा १०. नाटयदर्पण (रामचन्द्र - गुणचन्द्र) - सं. गांधी - श्रीगान्डेकर, गा. ओ. सि., बरोडा ११. काव्यालंकारसंग्रह (उद्भट) - के. एस. रामस्वामी शास्त्री : गा. ओ. सि., बरोडा १२. काव्यालंकार - (भामह) - सं. देवेन्दनाथ शर्मा १३. काव्यादर्श - (दण्डी) - सं. रामचन्द मिश्र : विद्याभवन संस्कृत ग्रंथमाला, वाराणसी १४. कामसूत्र (वात्स्यायन) - सं. शास्त्री गोस्वामी दामोदर : हरिदास संस्कृत प्रथमाला १५. तैत्तिरीय उपनिषद - आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रंथावलि १४. विक्रमोर्वशीय (कालिदास)- सं. पंडित शंकर पी. : बोम्बे संस्कृत सिरीज १७. काव्यप्रकाश (मम्मट) सं. डा. नगेन्द्र : ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी १८. रससिद्धान्त - डो. नगेन्द्र : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली । 96. The Number of Rasas - Dr. V. Raghvan : Adyar Library, Adyar Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મેટેફર (Metaphor )-ઉપચાર અને ધ્વનિ રમેશ બેટાઈ " Art is the manifestation, of emotion, obtaining external interpre. tation now by expressive arrangements of line, form or colour, now by a series of gestures, sounds or words governed by particular rhythmic cadence." યુઇન વન दोषैर्मुक्तं गुणैर्युक्त - मपि येनोज्झितं वचः । स्त्रीरूपमिव नो भाति ___ तं ब्रुवेऽलंक्रियोच्चयम् ॥ १ -वाग्भट વિષયપ્રવેશ-મેટેફર એટલે ઉપચાર મેટફર” એટલે કાવ્યને એક અર્થાલંકાર એવા સામાન્ય ખ્યાલ સાથે તેનું રૂઢ ગુજરાતી રૂપક' એવું કરવામાં આવે છે. પરંતુ અંગ્રેજી આલોચનના આ પરિભાષિક શબ્દની મીમાંસા આપણે કરીએ ત્યારે જ, આરંભે જ એ સ્પષ્ટ કરી લેવું જરૂરી છે કે અંગ્રેજીમાં “મેટેફરને ખ્યાલ રૂ૫ક ઉપરાન્ત ઘણે વધુ વિશાળ, વ્યાપક છે. મમ્મટ રૂપક સહિત ૨૨ ઉપમામૂલક અલંકાર નિદેશે છે તે તમામ આ “મેટેફર માં આવરી લેવાઈ શકે અને છતાં તેનો ખ્યાલ પૂરો અધિગત ન થાય, એ સ્થિતિ છે. “મેટેફર”ની મીમાંસામાં મૂળ ખ્યાલ કવિકલ્પિત એવાં અત્યન્ત સદશ્ય સ્વીકારીને તેનાં કાવ્ય પર તથા સહૃદય વાચકની કાવ્યાનુભૂતિ પરતના કાર્ય તથા પરિણામનો ઝીણવટભરી મીમાંસા આપણે કરીએ એ જરૂરી છે. તે ખ્યાલ મીમાંસિત કરવામાં પાશ્ચાત્ય વિવેચકેએ પોતાની વિદ્વત્તા પૂરી સિદ્ધ કરી છે. સર્જક કવિ કાવ્યના સૌદર્યને ખીલવવા માટે જ વિભિન્ન પ્રયોગો કરે છે, અને વાચન સમયે સહૃદય વાચક જેને અનુભવ કરે છે, જે આસ્વાદે છે. તેની વિજ્ઞાનિક મીમાંસા કરવી જરૂરી છે. આ બધી હકીકતને આધારે “મેટેફર” એ શબ્દ અમને ગુજરાતીમાં “ઉપચાર” એ રીતે મૂકે ઉચિત લાગ્યો છે. ઉપમા અને રૂપકની અનેક વ્યાખ્યાઓ તપાસ્યા પછી અને ગૌણું પ્રયજન વતી લક્ષણના મૂળમાં રહેલા સાદસ્ય સંબધનું પરીક્ષણ કર્યા પછી “મેટેફર નો સમાનાર્થ ગુજરાતીમાં “ઉપચાર” શબ્દ પસંદ કરતાં “સાહિત્યદર્પણ”ની ઉપચારની વ્યાખ્યા અને શોભાકર મિત્રની રૂપકની વ્યાખ્યા દયાનમાં લેવા યોગ્ય લાગે છે. વિશ્વનાથ “ઉપચારની વ્યાખ્યા આ રીતે આપે છે : उपचारो हि नामात्यन्तं विशकलितयोः पदार्थयोः सादृश्यातिशयमहिम्ना भेदप्रतीतिस्थगनमात्रम् । | સાવ ૨૦ ૨-૨૦ શેભાકરમિત્ર “રૂ૫કની મીમાંસા આ રીતે કરે છે– * યુજીસીની પૂરા સમયની ગ્રંથલેખનની યોજનાને આધારે તૈયાર થયેલા ગ્રંથ “લોચન ટીકા સાથે વન્યાલોકમાંથી. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રમેશ મેઢાઈ आरोपी रूपकम् । न च तस्या सादृश्ये सम्बन्धान्तरे वा कश्चिद्विशेषः येने कत्रालंकारतापरऋतद्भाव इति स्यात् । न च सम्बन्धान्तरनिमित्त आरोपोऽलंकारतया कलितः....। सादृश्यसम्बन्धनिबन्धनायाः अलंकृतित्वं यदि लक्षणायाः । साम्येऽपि सर्वस्य परस्य हेतोः सम्बन्धमेदेऽपि तथैव युक्तम् ॥ એકબીજાથી અત્યન્ત જુદા એવા પદાર્થો વચ્ચે પણ કવિકલ્પિત, અતિશય સાદશ્યના ગૌરવના ચેગે ભેદની પ્રતીતિ માત્ર સ્થગિત થઈ જાય, તેને ઉપચાર કહે છે. વિશ્વનાથની ઉપચારની આ સમજે એ સિદ્ધ થાય છે કે કવિએ પેાતાના કલ્પનાના સામર્થ્ય પરસ્પર અત્યન્ત જુદા દેખાતા પદાર્થો વચ્ચે પણ સાદસ્યના અતિશય સાધી આ ભેદની પ્રતીતિ કાવ્યાનુભવના સમયે દૂર કરી દે છે. આ અત્યન્ત સાદૃશ્ય એ કાવ્યનુ` એક વિલક્ષણ તત્ર મની રહે છે. અને “ આરાપ એટલે રૂપક ” એટલુ’ વિધાન કર્યાં પછી મેટેકરના ખ્યાલની ચર્ચા આપણે આગળ કરીએ ત્યારે વિશેષ પ્રતીત થશે કે તેના સમાનાર્થ ગુજરાતી શબ્દ રૂપક' નહી* પરન્તુ ‘ઉપચાર ' એ જ વધારે ઉચિત છે. મેટેર્-ઉપચાર-પાશ્ચાત્ય ખ્યાલ : સતત પરિવર્તનપર, પ્રગતિશીલ અને વૈવિધ્યપૂર્ણ એવાં પાશ્ચાત્ય કવિતા અને આલેચનામાં સ્વાભાવિક રીતે જ ઉપચારને ખ્યાલ સમય સાથે સતત બદલાતા રહ્યો છે. આ છતાં પ્લેટા અને એરિસ્ટોટલના સમયથી આજ સુધી ક્રમશઃ અને સુવ્યવસ્થિત રીતે ઉપચારના ખ્યાલ ઉત્ક્રાન્ત થતે! રહ્યો છે એમ કહેવું મુશ્કેલ છે. અભિગમ અને ખ્યાલ નેની ખાખતમાં ઉપચારના અથ વ્યવસ્થિત રીતે વિકસ્યા નથી. રાજસ કહે છે ૯૩ Aristotle's comparison of metaphors with riddles, besides suggesting that every methaphor contains a submerged riddle, confronts us with the related possibilty that there is something inherently puzzling about metaphor as a class or genuspara a fi inherenty puzzling as a class or genus {ી વાત છે, તેનું રહસ્ય ઉકેલવાનેા જ પ્રયત્ન નણે અનુગાની આલાયકોએ કર્યા છે. Metaphor એ શબ્દ મૂળ બાબત ટેરેન્સ હૉસ કહે છે— “ The word 'metaphor ' comes from the Greek word ‘ metaphora ' derives from ' meta' meaning over', and 'pherein' to carry '. It refers to a particular set of linguistic processes whereby aspects of one object are carried over' or transferred to another object so that the second object is spoken as if it were the first," : અને " ‹ Figurative language deliberately interferes with the system of literal usage by its assumption that terms literally connected with one Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૯૪ મેટેફ (Metaphor) ઉપચાર અને ધ્વનિ object can be transferred to another object. The interference takes the form of transference, or carrying over' with the aim of achieving a new, wider, special or more precise meaning." મેકરની આ તદ્દન પ્રાથમિક અને અતિસરળ સમજૂતી છે તેના થકી તે એક અલંકાર કઈ રીત છે, અલંકાર તરીકે તેની રમણીયતા કે તેનુ અલંકારત્વ કયાં છે તે પૂરુ સ્પષ્ટ થતું નથી. છતાં અહી એક વાતની સ્પષ્ટતા થાય છે કે આમાં એક પદાર્થનાં લક્ષણ્ણા ખીમાં જોવામાં આવે છે, અને આ સ્પષ્ટતા તેની પોતાની રીતે ઉપયાગી છે. છતાં ઉપચાર તરીકે મેટેકરના કાન્ચગત ગરવા સ્થાનના ખ્યાલ તે આનાથી ઊપસે જ કઈ રીતે? યાગ્ય જ કહેવાયું છે કે -- · Metaphor......is not fanciful ‘embroidery ' of the facts. It is a way of experinencing the facts. It is a way of thinking and of living an imaginative projection of the truth." અને ઝેવનું આ વિધાન ઉપરની વાતના આધાર બને છે— .......if the poet's subject be judiciously chosen, it will naturally, and upon fit occasion, lead him to passions the language of which, if selected truly and judiciously, must necessarily be dignified and variegated and alive with metaphors and figures." કવિનુ` કથયિતવ્ય સમુચિત ભાષા પ્રયાગની ઉત્કૃષ્ટ અભિવ્યક્તિથી અને મેકર વગેરે અલકારાના પ્રયાગના ખળે ઉચ્ચતર કક્ષાનુ', વૈવિધ્યપૂર્ણ અને ચેતનામય બને છે. સિસેરા અલંકાર તરીકે મેટેકરની એક નોંધપાત્ર વ્યાખ્યા રજૂ કરે છે— A methaphor is a short form of simile, contracted into one word; this word is put in a position not to belong to it as if were its own place and if it is recognizable it gives pleasure, but if it contains no similarity it is rejected '' આના પરથી મેટેરની બાબતમાં આટલા મુદ્દા સ્પષ્ટ થાય છે—રૂપક તરીકે તે ઉપમાનું નાનું સ્વરૂપ છે, કાવ્યમાં તે પેાતાની નહી” એવી સ્થિતિ પ્રાપ્ત કરે છે, અલંકાર તરીકે અનુભવાતાં તે વાચકને આનંદની અનુભૂતિ કરાવે છે. એક મુદ્દા પર ભાર મૂકવામાં આવ્યા છે કે અહીં સાદશ્ય નથી તેા મેટેફર નથી, અને તે તેની ઉપર્યુક્ત સિદ્ધિએ નથી. ભારતીય કાવ્યમીમાંસક્રાની એ વાત અહી. તેોંધપાત્ર રીતે વધારે સ્પષ્ટ અને સાથે તુલનાપાત્ર છે કે ઉપમામૂલક અલકારામાં ઉપમેય ઉપમાનને સર્વથા સમાન હાવાનેા દાવા કરી શકતું નથી, છતાં તેને અલંકારામાં જુદા જુદા સાદસ્યભાવે મૂકવામાં આવે છે અને એ જ આ અલંકારેનુંઅલ કારત્વ છે. આ દૃષ્ટિએ ઉપમાની ચન્દ્રાલેાક'ની આ વ્યાખ્યા નોંધપાત્ર છે. . उपमा यत्र सादृश्य लक्ष्मीरुल्लसति द्वयोः । हृदये खेलतोरुच्चे સ્તન્યનીસ્તનયોવિ ॥ (૧૨) વેન્ટીલિયન મેટરની વ્યાખ્યા આ રીતે આપે છે Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રમેશ બેટાઈ ૨૫ “ Metaphor occurs when a word applying to one thing is transferred to another, because the similarity seems to justify the transference...They say that a metaphor ought to be restrained so as to be a transition with good reason to a kindred thing, and not seem an indiscriminate, reckless and precipitate leap to an unlike thing."3 અહીં ઉપચારનાં આટલાં લક્ષણો જોવા મળે છે–એક પદાર્થોને લાગુ પડતો શબ્દ બીજા પ્રતિ ગતિ કરે છે, સાદગ્યને કારણે આ ગતિ અત્યન્ત આત્મીય લાગે છે, ઉપચાર અત્યંત સંયમિત હે ધરે, તે કદી પણ કાળજી વિનાના પ્રયોગરૂપે ન હેય. આ જ વાત સંસ્કૃત કાવ્યમીમાંસાની પરિભાષામાં રજુ કરીએ તે કહી શકાય કે કાવ્યના સૌન્દર્યની સિદ્ધિને માટે બે વસ્તુ વચ્ચેની અતિ ગરવી આત્મીયતા એટલે રૂપક, જે પૂરી કાળજી સાથે પ્રયોજાય, અર્થાત તે તેના પિતાને અલંકારચિત્યથી સર્વથા સમ્પન હેય. કવિકલ્પનાથી મડિત તે સહૃદય વાચકને પ્રભાવશાળી, હૃદયસ્પર્શી, ચેતનામય લાગે. પશ્ચિમની આલોચનામાં વોલેસ સ્ટીવન્સ આ જ પ્રકારની વાત રજૂ કરે છે “Metaphor creates a new reality from which the original seems to be unreal." મેટેફર થકી નવી અને ચેતનાસભર એવી જે વાસ્તવિકતા ઊભી થાય છે તેની પાસે મૂળ વાસ્તવિકતા ઝાંખી લાગે છે. એ ભવ ભારતીય કાવ્યમીમાંસકે એ અર્થમાં રજૂ કરે છે કે અલંકારનું અલંકારત્વ, તેનું સૌંદર્ય રહસ્ય કવિની કલ્પનાશક્તિએ સજેલા નવા સોંદર્યમાં એટલે કે નવી ચેતનામાં છે. સ્ટીવન્સની વ્યાખ્યા એ મેટફરને માત્ર અલંકાર તરીકે રજૂ કરતી નથી. છતાં આપણને એ સુવિદિત છે કે ભારતીય કાવ્યશાસ્ત્રીઓના મતે અલંકારોના ઉપનામૂલક, વિરોધમૂલક, તર્કન્યાયમૂલક, ભણિતિમૂલક વગેરે પ્રકારે પાડવામાં આવે છે ત્યારે આ ઓપમ્ય, તર્કવાય, વિરોધ, ભણિતિ એ વ્યવહારની વાસ્તવિકતા નહીં પરંતુ કવિક૯૫નાની કવિજગતની વાસ્તવિકતા ધરાવે છે. સ્ટીવન્સના મેટેફરના ખ્યાલને આપણે નિશેના જીવનની પેલી ઘટનામાં સાકાર થતા ગણી શકીએ, ચાબુકથી પિતાના ઘડાને ફટકારતા ઘડાના માલિકના હાથમાંથી ચાબૂક ઝૂંટવી લઈ નિટશે ઘોડાને ભેટયો અને તેને “ Brother ' એવું સંબોધન કર્યું.. આટલી ચર્ચા પરથી એ સિદ્ધ થાય છે કે એક અર્થાલંકાર તરીકે મેટફરે તેનું સૂદઢ અને સુનિશ્ચિત સ્થાન કાવ્યોમાં અલંકારોને અલંકાર તરીકેનું સ્થાપિત કર્યું છે. આ છતાં આટલા ચર્ચા પછી પણ મેટેફર એટલે કે ઉપચાર પોતાના અલંકાર તરીકેના સ્થાનની મર્યાદા બહાર વ્યાપ્ત થતી નથી. અલબત્ત, સ્ટીવન્સની વ્યાખ્યામાં તેનાં બીજ તે છે જ. આથી હોકસ યોગ્ય જ “The effect of mataphor properly' used is by combining the familiar with the unfamiliar, it adds charm and distinction to clarity, clarity comes from the intellectual pleasure afforded by the new resemblances noted in the metaphor, distinction from the surprising nature of some of the resemblances discerned. The proper use of metaphor also involves the principle of dewrum. Metaphors should be fitting ', i.e., in keeping Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૯૬ મેટેફર (Metaphor) ઉપચાર અને ધ્વનિ with the theme or purpose. They must not be far-fetched or strange, and should make use of words which are beautiful themselves."* અલંકાર તરીકે અહીં મેટેકર પાસેથી આટલાં લક્ષણ્ણાની અપેક્ષા રાખવામાં આવી છે—યારુત્વ, સ્પષ્ટતા, બૌદ્ધિક આનંદ, આશ્ચર્યજનક સામ્ય, વિષય સાથે સ ંવાદિતા, અતિરેકનુ નિવારણ, સ્વયંસુંદર શબ્દપ્રયાગા વગેરે. ઉપચારને અલંક ર્ તરીકે મીમાંસવા ઉપરાન્ત આ વિધાન એ આગન્તુક ભાવિના એંધાણુ આપી દે છે, જ્યારે માત્ર અલંકાર મટી જઈને મેકર કાવ્યસર્જન અને કાવ્યપ્રભાવમાં અત્યંત વ્યાપક અને ઘણું બધું વિશેષ બની રહે છે. અલંકાર તરીકે અને વ્યાપક તેધપાત્ર કાવ્યતત્ત્વ તરીકે ઉપચારનું સ્થાન કાવ્યમાં સ્થિર, સુદૃઢ અને અત્યંત આકર્ષીક બની રહે છે. કવિવાણી વિષે આધુનિક વિવેચક રિચર્ડસનું વિધાન છે કે "We shall do better to think of a meaning as though it were a plant that has grown - not a can that has been filled or a lump of clay that has been moulded." અને "But where the old Rhetoric treated ambiguity as a fault language in language, and hoped to confine or eliminate it; the new rhetoric sees it as an inevitable consequence of the powers of language and as the indispensable means of most of our most important utterances especially in Poetry and Religion."" આ પછી મેટેકરને તેના આધુનિક અર્થમાં રજૂ કરતાં તે કહે છે— kr ......The co-presence of vechicle and tenor results in a meaning (to be clearly distinguished from the tenor) which is not attainable without their interaction." આગળ વધીને રિયડૂ સ તા એટલે સુધી કહે છે કે મેટેરમાં અન્તત થાય છે.— "All cases where a word gives us to two ideas for one, where we compound different ideas of the word into one, and speak of one thing as if it were another.''s આટલા પરથી એ સ્પષ્ટ થાય છે કે મેટેકરના ખ્યાલ સમયની ગતિ સાથે વધુ ને વધુ વ્યાપક બનતા ગયેા છે અને સારી રીતે મલાયા છે. પ્રથમ એક સાદૃશ્યમૂલક પછી અલકારે ને અલ કાર બનેલ તે હવે કાવ્યનું એક એવુ' તત્ત્વ બની રહે છે જે કવિત્રાણીને તેની વિલક્ષણ ભાવસભરતા, કાવ્યા અને સૌ ની સાધનામાં એક અનેરી અભિવ્યક્તિ અને વિલક્ષણ સાકતા અપે છે, અત્યન્ત આત્મીય રીતે યુક્ત બે પદાર્થાના પ્રાયઃ અવિનાભાવ સમા બની જતા સંબંધને વ્યક્ત કરવા સાથે તેનામાં વ્યક્ત નહી એવા કવિના ઉદ્દિષ્ટ અર્થાને તે વાચા આપે છે. આ સાદશ્ય પ્રકૃતિનાં એ તત્ત્વા, માનવ અને માનવ, માનવ અને પ્રકૃતિ, પ્રકૃતિ અને માનવ, માનવભાવના પ્રકૃતિ પર સમારાપ, પ્રકૃતિના વિલક્ષણુ ચારુત્વના માનવભાવ પર પ્રભાવ વગેરે અનેક રૂપે કાવ્યમાં વ્યક્ત થાય છે. શેકસપિયરના ફ્રિ`ગ લિયર'માં પ્રમત્ત લિયર પર વરસાદનાં તત્કૃાતાના Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રમેશ બેટાઈ જે પ્રભાવ વર્ણવ્યો છે તે તેના મનમાં ભીષણ તોફાનની સાથે અત્યન્ત સદશ્ય ધરાવે છે. કાલિદાસના “રઘુવંશ'માં પરિત્યક્તા અને જંગલમાં અસહાય તથા એકલી પડી ગયેલી સીતા રુદન કરે છે ત્યારે તેને પ્રતિભાવ કવિ આ રીતે વર્ણવે છે– नृत्यं मयूराः कुसुमानि वृक्षाः दर्भानुपात्तान्विजुहुर्ह रिण्यः । तस्याः प्रपन्ने समदुःखभाज मत्यन्तमासीद्रुदित वनेऽपि ॥ १४ અહી આ બંને ઉદાહરણોમાં ઉપચાર એક વિલક્ષણ કાવ્યતત્વ તરીકે અને કાર્ય બજાવે છે અને એ સિદ્ધ થાય છે કે ઉપચાર એ કાવ્યના કાવ્યત્વને અત્યન્ત આત્મીય બની રહે છે. હવે એ માત્ર બાહ્ય શોભારૂપ નથી. અને ઉપર વર્ણવેલાં જુદાં જુદાં સાદને કાવ્યકૃતિનાં પાત્રોના મન પર ઊંડો પ્રભાવ વાચકમનમાં જગાડવામાં કે પછી કવિનાં પિતાનાં સક્ષમ હૃદયગત સ્પન્દને કે સંઘર્ષો કે દ્વિધાઓને વ્યંજિત કરવામાં અને કાર્ય કરે છે તે પણ આપણને અનેક ઉદાહરણેમાંથી સમજાય છે. ઉપચાર પ્રત્યે જાય છે ત્યાં કેટલીક વખત રાજ કહે છે તેમ "... ...primary-process diction may be said to partake of the characteristics of the primary process; if it is primitive, impulse-iden, id-oriented, wish-fulfilling, hallucinatory, concrete, symbolic, diction, diction which may paradoxically be said to have a proverbal quality. Secondary-process words are "adult words." They tend to be abstract, have a defensive function, and an ego and super ego oriented." અને અન્ય કેટલાંક કાવ્યતરની માફક ક્યાંક અલંકાર રૂપે અને વિશેષતઃ તેની વ્યાપક સ્વરૂપે ઉપયાર કવિનાં, પાત્રોનાં અને વાતાવરણનાં મનોવૈજ્ઞાનિક ઊંડાણમાં ઊતરીને પણ વિલક્ષણ કાર્ય કરે છે, તેને ઈશારો આપણને મળે છે. તેથી જ તે વહીલરાઈટ માને છે કે “What really matters in a metaphor is the psychic depth at which the things of the world, whether actual or fancied, are transmuted by the cool head of the imagination." ભાવાભિવ્યક્તિના ક્ષેત્રમાં ઉપચાર જે કાર્ય કરી શકે છે તે પશુ આપણે ઉપરની ચર્ચાને અનુસંધાનમાં લઈ શકીએ. એસન યોગ્ય જ કહે છે કે .." Emotions, as is well-known are frequenty expressed by language; this does not seem one of the ultimate mysteries; but it is extremely hard to get a consistent and usable theory about their mode of action. What an Emotive use of language may be, where it crops up, and whether it should be praised there, is not so much one question as a protean confusion, harmful in a variety of fields and particularly ram-pant in literary criticism,"? Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મેટેફર (Metapoor)–ઉપચાર - આ વિધાનનું મૂળ એ હકીકતમાં છે કે ભાવસભરતાનું રહસ્ય ક્યાં અને શું છે તે પશ્ચિમને માટે મહાંશે વણઉકલી સમસ્યા છે. અને તેના સાઈનએસ્થેસિયાના ખ્યાલમાં પણ આવી સ્પષ્ટતાને પ્રયત્ન છે. માનવભાવનોના વિલક્ષણ નિરૂપણ વિના શ્રેષ્ઠ કાવ્ય સંભવતું નથી તેવું પ્રતિપાદન રોમેન્ટિક કવિઓ ઉપરાન્ત બીજાઓનું પણ છે. છતાં આ વિષયમાં જે સ્પષ્ટતા ભારતીઓ કરી શકયા છે તે તેમની પોતાની આગવી સિદ્ધિ છે. ભાષા દ્વારા જ્યારે માનવભાવ વ્યક્ત થાય છે, ત્યારે ભાષા એ તો સાધન કે માધ્યમ માત્ર છે. માધ્યમ તરીકેના તેના કાર્યમાં ક્યાંક એ રહસ્ય છુપાયેલું છે. ક્યાંક આ રહસ્ય ઉપચાર થકી પણ અભિવ્યક્ત થઈ શકે છે. ઉપચારના સામર્થ્યથી તે ભાવાભિવ્યક્તિ, કોશેના શબદોમાં કહીએ તો ભાવાભિવ્યંજનાથી કાવ્યને મંડિત કરે છે. અને ઉપચારને ખ્યાલ કેટલે વ્યાપક બની ગયો છે તેની પ્રતીતિ વિશેષતઃ હર્બટ રીડ આપણને આ રીતે આપે છે– "Metaphor is the synthesis of several units of observation into one commanding image; it is the expression of a complex idea, not by analysis, nor by direct statement, but by a sudden perception of an objective relation.? અને આથી જ શાપે યોગ્ય જ કહે છે કે – "Words both reveal and conceal thought and emotion ......Metaphor fuses sense-experience and thought in language. The artist fuses them in a material medium or in sounds with or without words... My sound theory is that metaphor can only evolve in language or in the arts when the bodily artifices become controlled." રાજર્સ તેના Metaphor એ નામના પુસ્તકમાં મેફરની મને વૈજ્ઞાનિક મીમાંસા સૂક્ષ્મ સ્વરૂપે આપીને તેને કાવ્યગત પ્રભાવ સર્જક કવિ તથા આસ્વાદક વાચકની દષ્ટિએ મીમાંસે છે. અને તેમાં ખાસ અનુભવની દશામાં primary અને secondary મેટેફરને ઉલ્લેખ કરે છે. તે આપણને આનંદે લક્ષણામૂલા વ્યંજના અને શાબ્દી વ્યંજનાના પ્રકારે આપ્યા છે તેનું સહેજે મરણ કરાવે છે. ઉપચારને લગતાં અને આને સમાન અન્ય વિધાને સપષ્ટ રીતે સિદ્ધ કરે છે કે ઉપચારના કાવ્યગત અર્થ, કાર્ય અને કલાપ બાબત પશ્ચિમમાં અનેકવિધ મત પ્રવર્તમાન છે. એક અર્થાલંકારથી શરૂ કરીને કાવ્યર્થના મૂળ આધાર રૂપ, કાવ્યમાં સૌન્દર્યનું આદાન કરનાર કાવ્યાલંકાર તરીકે તે સ્વીકારાયેલ છે. આનાથી એ પણ સિદ્ધ થાય છે કે સાદસ્થને અનેકવિધ અનંત એવો પ્રયોગ કવિએ તેમના ગ્રંથમાં કરે છે, અને તેનાથી કાવ્યનું સૌંદર્યમંડન થાય છે. કવિઓ વિરોધને પણ આધાર લે છે, તેના સુભગ પ્રયોગો પણ આપણને મળી આવે છે. છતાં, જગતનાં જાણીતાં ભાષાસાહિત્યોમાં, સંસ્કૃતમાં તો ખાસ ખાસ, આ સાદસ્થ અને ઉપચારને આશ્રય ખૂબ ખૂબ લેવામાં આવ્યા છે. અને કાવ્યર્થ, કાવ્યચારુત્વને સાકાર કરવામાં આ ઉપચાર અપાર રીતે સફળ અને સાર્થક બન્યો છે. દષ્ટાન્ત રૂપે કહી શકાય કે વિલક્ષણ ઉપચારપ્રવેગ રસપ્રધાન વનિકાવ્યની નિષ્પત્તિ ઉપરાન્ત અલંકાર વિનિના સુંદર પ્રયોગમાં અત્યન્ત ઉપયોગી થાય છે, અને Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રમેશ મેટાઈ ૯ સ્વતંત્ર વિસ્તીણુ અભ્યાસમાં આવા પ્રયાગૈા સમાન્તરે રીતે પાશ્ચાત્ય સાહિત્યેામાંથી પશુ બતાવી શકાય. આ કારણે જ આધુનિક ઉપચારથી મુગ્ધ બન્યા છે, મરેનુ વિધાન છે.— "Metaphor is as ultimate as speech itself, and speech is as ultimate as thought. If we try to penetrate them beyond a certain point, we find ourselves questioning the very faculty and instrument with which we are trying to penetrate them." આથી જ સી. ડે. લેવિસના મતે ઉપચાર એ “ કવિતાને જીવનસિદ્ધાંત, કવિની મુખ્ય ભાષા, કવિનું ગૌરવ ” ખતી રહે છે. અને નાન બ્રાઉન પણ કહે ,, છે "" Everything is only a metaphor; there is only metaphor." આ સંદર્ભીમાં હોકસ રિચર્ડસનના મત આ રીતે ટાંકે છે— k. Accordingly language"...... is utterly unable to aid us except the command of metaphor which it gives' and that is why Aristotle...argued that a command of metaphor is by far the most important to master and the mark of great natural ability.'' ઉપચાર અને વ્યંજના : ઉપચારતા આ અભિગમ, તેના આ અનેકવિધ અર્થા અને તેને સર્જનક્રિયા પર પ્રભાવ તથા વાયકને આસ્વાદનમાં સહાય વગેરેને ખ્યાલ કરતાં એ સ્પષ્ટ થશે કે ઉપચારના આ અર્થ પાશ્ચા ત્યોના ‘ સજેશન ’ના ખ્યાલની બહુ નજીક છે, કેટલેક અંશે ાણે ભારતીય કાવ્યમીમાંસાના ખ્યાલોની પણ પાશ્ચાય આલોચનામાં અનેાખી ભાત પાડતા તેના ખ્યાત વિવેયન ગ્રંથ Seven Types of Ambiguityમાં એસન કહે છે— "Ambiguity implies a dynamic quality in language which enables to be deepened and enriched as various layers' of it become simultaneously available.૧૩ અને ચેાન્ય રીતે જ ઉમેરે છે ઃ "All good poetry is ambiguous sense. It contains a feeling of generalisation from a case which has been presented definitely." અને "What often happens when a piece of writing is felt to offer hidden riches is that one phrase after another lights up and appears as the heart of it; one part after another catches fire.''૧૫ કવિ કહે છે તેના કરતાં તે દ્વારા તે જે કહેવા માગે છે, તેના ગૂઢ સૌન્દર્યની સમૃદ્ધિ કવિવાણીમાં વ્યંજિત થાય છે, તે વાચકયે પ્રત્યાયન પામતાં કલ્પના, અનુભૂતિ, વધુ ન, વિચાર, ઘટના, પરિસ્થિતિ, ભાવ, અલંકાર, વાતાવરણ, ગમે તે સ્વરૂપે સૌન્દર્ય*-સંપન્ન બની, વાચકના ચિત્તને આકષી, તેને આનંદની અનુભૂતિ કરાવી શકે છે. પરન્તુ એમ્પ્સનને મતે તે હોય છે એક્ખીચ્યુઅસ. આ એમ્બીંગ્યુઈટીમાં પશુ ઉપચાર કવિને અત્યન્ત ઉપયોગી થાય છે. વાસ્તવમાં ઉપચાર વય પશુ એક એગ્બીચ્યુઅસ પ્રયાગ છે, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦૦ મહેફર (Metaphor)-ઉપચાર બારફીલ્ડને મતે પાશ્ચાત્ય આલયનાને એસનનું આ મુખ્ય પ્રદાન છે. તે કહે છે – “ His major contribution is to recognize that ambiguity is fundamentally part of the same process...because metaphor, more or less far-fetched, more or less complicated, more or less taken for granted (so as to be unconscious), is the normal mode of development." આ રીતે ઉપચારનો એક અર્થ એમ્બીવુઈટી-વ્યંજના એ થઈ શકે છે. આ અર્થ પરથી ઉપચારના એક નવા અર્થ પર આપણે આવી શકીએ. રોબર્ટ ફ્રોસ્ટ માને છે કે ઉપચારમાં વાણીની ઉોજનાનું મૂલ્ય ઘણું મેટું હોય છે. તે કહે છે – “...but the chiefest of these is that it is metaphor, saying one thing and meaning another, saying one thing in terms of another. Poetry is simply made of metaphor...Every poem is a new metaphor inside, or it is nothing." . આથી ઉપચાર એટલે વ્યંજનાનું ઉતેજક તત્વ અને વ્યંજના એવા બંને અર્થે થઈ શકે. કવિએ વાચ્ય રૂપે કહ્યું હોય તેના કરતાં જુદો જ આકાર ઉપચાર કવિના કાવ્યાર્થીને આપે છે. આથી ભાષાને ઉપચારાત્મક પ્રયોગ કાવ્યના ઉદિષ્ટની વ્યંજના સહૃદય વાચકને આપવાની ક્ષમતા ધરાવે છે. જે ધ્વનિની વ્યાખ્યા આનંદે આપી છે તેની સિદ્ધિમાં પણ આ રીતે ઉપચાર અગત્યના સ્થાને રહેશે. મેટેગ્યુ જ કહે છે– “ The writer's mind will single out words and caress them, adorning the mellow fullness or granular hardness of their several sounds, the balance, undulation or trailing fall off their syllables, or the core of sunlike splendour in the broad warm central vowel of such a word as 'auroral'; each word's evocative value or virtue, its individual power of teaching springs in the mind and of initiating visions, becomes a treasure to revel in. "10 પિતે પસંદ કરેલા અને પ્રયોજેલા શબ્દનો અર્થ અને અર્થે સાથે કવિ કાવ્ય દ્વારા રમત માંડે, ત્યારે તે કશુંક સહૃદય વાચકના મનમાં સ્વયમેવ જાગ્રત કરવા માગે છે. સ્વાભાવિક રીતે જ અપ્રયત્ન અને સહજ ભાવે આ કશુંક વાચકના હૃદયમાં સ્વયમેવ ઉત્તેજાય ત્યારે અહીં સીધું વાગ્ય વિધાન ખાસ ઉપયોગી થતું નથી, તેમાં ખાસ કાવ્યસૌન્દર્ય ઉદ્દભવતું નથી. સર્જક કવિના અને કાવ્યના નાડીના ધબકારા વાચક પોતાના હૃદયમાં અનુભવવા માગે છે, અને એ રીતે એક વિલક્ષણ આનંદરૂપા અનુભૂતિ તે પામવા માગે છે, જેમાં કાવ્યના કાવ્યત્વની સાર્થકતા રહેલી છે. અહીં ઉપચાર કવિને ખૂબ ખૂબ મદદકર્તા થાય છે. હવે વ્યંજન રૂપ જેનું વિધાન છે તેની પૂર્ણ એકરૂપતા ઉપચાર કવિના ઉદિષ્ટ વિષય . અર્થની સાથે સ્થાપિત કરે છે, અને તે પણ એ રીતે કે વાગ્યવિધાન જેમાં લુપ્ત થઈ ગયું છે તેવી વ્યંજનાને સહૃદય વાચક અનુભવ કરે છે, અને આ અનુભવમાં તે પોતે કાવ્યાસ્વાદનની સાર્થકતા પામે છે. આમ તે આ જ કાવ્ય પ્રધાન ઉદ્દેશ છે. આથી જ ડેચીસ કહે છે– Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રમેશ બેટાઈ ૧૦૧ "Good poetry is the result of the adequate counter-pointing of the different resources of words (meaning), associations, rythm, music, order and so forth in establishing a total complex of significant expression."16 , અને તેની પૂર્વે મેલામે એ તો કહ્યું જ છે કે – "My aim is to evoke an object in deliberate shadow, without ever actually mentioning it, by allusive words, never by direct words." શબ્દની અનેક અર્થછાયાઓ અને તેના પ્રભાવની વ્યાપકતામાંથી આમ કાવ્યનું સર્જન થાય છે. અર્થાત, વ્યંજનાસભર સજન સંભવે છે, ત્યાં કવિઓ ઉપચારને બહોળો ઉપયોગ કરતા આવ્યા છે તે આપણને વિદિત છે. • આને લીધે, ઉપચાર તેના વ્યાપક અર્થમાં ઘણી વખત કવિનું અભિવ્યક્તિનું એકમાત્ર માધ્યમ બની રહે છે એ વાત પર રોબિન એલ્ટન ભાર મૂકે છે “Metaphor is not to be considered then, as the alternative of the poet, which he may elect to use or not, since he may state the matter directly or straight-forwardly if he chooses. It is frequently the only means available if he is to write at all. '16 અને વિમસેટને મત તો આ બાબત પૂરી સ્પષ્ટ છે કે – " The metaphoric quality of the meaning turns out to be the inevitable counterpart of the mixed feelings. Sometimes this situation is to be far developed as to merit the name of paradoxical, ambiguous, ironic. The poem is subtle, elusive, tough, witty. Always it is an indirect stratagem of its finest or deepest meaning.'? મરે ઉપચારને કાવ્યનાં વિલક્ષણતા અને ચમત્કારની સિદ્ધિના સાધન તરીકે આ શબ્દોમાં રજૂ કરે છે– " It (i. e., metaphor) is the means by which the less familiar is assimilated to the more familiar, the unknown to the known; it gives to airy nothing a local habitation and a name ', so that it ceases to be airy nothing. "29 ઉપચાર આ રીતે કાવ્યમાં કવિના ઉદિષ્ટને નિશ્ચિત આકાર આપીને નિરર્થક ઉશ્ચત માત્ર હેવાના આરોપમાંથી બચાવે છે, વાચકને એના થકી કાવ્યાનુભૂતિ અત્યંત પરિચિત અને આત્મીય ભાસે છે. કૃષ્ણરાયન વળી ઉમેરે છે– "Metaphor specifies an idea, a local relation; suggestion is imprecise, intermediate, accessible through interpretation and dependent on such variable as the writer, the reader, the context. ''R? આમ હોવા છતાં આપણે ઉપર જોયું છે તેમ ઉપચાર વ્યંજનાને મદદરૂપ થાય છે, અને તેની દેખીતી લાક્ષણિકતા impreciseness, indeterminatenessને દૂર કરે છે. અને એ પણ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦૨ મેટેફર (Metaphor)-ઉપચાર સ્પષ્ટ થાય છે કે ભાવાત્મક લેખનની બહાર પણ ઉપચારને વ્યાપ છે. આનંદની પરિભાષામાં કહીએ તેા રસધ્વનિ ઉપરાન્ત વસ્તુઘ્નતિ અને અલ કારધ્વનિની સિદ્ધિમાં પશુ ઉપચાર કાર્ય રત થાય છે. આથી કાવ્યગત ઉપચારમાં જે કઈ સૌન્દર્યાં છે, તે જે કઈ કાવ્યને અપે છે, તે વ્યંજના થકી જ છે, વ્યંજના એ ઉપચારને પ્રાણુ છે. એમ્પ્સન યાગ્ય જ કહે છે— "The rose of metaphor is an ideal rose, which involves a variety of vague suggestions and probably does not involve thorns, but the leaf of transfer is merely leafish. " આથી કૃષ્ણરાયન ચાગ્ય રીતે જ પાશ્ચાત્ય સાહિત્યના ઉપચાર માટે કહે છે— "All that is claimed here is that often (if not always, as sanskrit poetics insists) a metaphor carries a load of suggestion and that in certain conditions its momentary disruption of logical discourse quickens the reader's sense of the suggested meaning, ”૨૪ Suggested meaning-a falui metaphor, ambiguity, symbolism, expressionism, grotesque, oblique વગેરે પોતપોતાની રીતે કારત છે. આમાં ઉપચાર અન્ય તમામને તેમના કામાં વિલક્ષણ રીતે ઉપયાગી થવાને અવકાશ છે. સાથે એમ પણ કહી શકાય કે વ્યંજનાપ વસાયી આ તમામ પોતાની કાÖસિદ્ધિમાં ખરેખર તેા પરસ્પરાશ્રયી પણુ હેઈ શકે છે. આથી, ઉપચાર એ વ્યંજના છે, વ્યંજનાનીકાળ્ય ગત સિદ્ધિમાં સહાયક પણ છે, કાવ્યના સૌન્દર્યની સિદ્ધિમાં તેનું ચેક્કસ પ્રદાન હોઈ શકે છે, તે પાતે કેટલીક વખત કાવ્ય સૌન્દ રૂપ પશુ હોય છે. તમામ પ્રકારનાં કાવ્યેામાં, તમામ વાદવિશેષતી ભાત પાડતાં કાળ્યામાં ઉપચાર વ્યંજના સ્વરૂપે અને અન્યથા પણ કાર્યરત હોઈ શકે છે. ઉપચારસીમાંસા-પાશ્ચાત્ય આલેાચનાની અનુપમ સિદ્ધિ : ઉપચાર એ કાવ્યમીમાંસાને ખાસ તૈોંધપાત્ર એવા પારિભાષિક શબ્દ નથી અને ઉપચારના કાવ્યગત કાર્યની વિલક્ષણુતા ભારતીય કાવ્યમીમાંસાએ સર્વ દૃષ્ટિએ પૂરી વિગતે પ્રમાણી નથી. રૂપક અલ'કારના સંદર્ભમાં ઉપયારની ઉપલબ્ધ અગત્યની વ્યાખ્યા આપણે આ વિષયની ચર્ચાના આરંભે જોઈ છે. અંગ્રેજી ભાષાના મેટેકર' માટે સમાન સ ંસ્કૃતમાં ખીજો શબ્દ ‘રૂપક’ એ છે અને અલ'કાર તરીકે રૂપકના કા'ની સૂમ મીમાંસા ભારતીય કાવ્યમીમાંસામાં મળી આવે છે. વળી ઉપમા મૂલક તરીકે જાણીતા તમામ અલ`કારેમાં કવિ-કલ્પિત અત્યંત સાદૃશ્યનું તત્ત્વ છે, અને આ સાદશ્ય જુદા જુદા અલંકારામાં જુદી જુદી વિલક્ષણતા સહ વિલસે છે. સાદૃશ્યમૂલક અલ કારાથી સંસ્કૃત કાવ્ય અને કાવ્યમીમાંસા અત્યન્ત સમૃદ્ધ બન્યાં છે તે વિષે બે મત નથી. અલંકાર તરીકે રૂપકની ચર્ચા જુદાં જુદાં દૃષ્ટિબિન્દુએથી થઈ છે. છતાં આ રૂપક અલંકાર તરીકે જ સ્વીકારાયા છે. અન્ય અલંકારાની સાથે આ અલ કારને પ્રયાગ કાજ્યમાં કેટલા હેવા ઘટે, અલકાર કઈ રીતે ક્રાવ્યના આત્માને અનુસરી કાવ્યસૌન્દ્ર ના પેષક બને, તેની જે વિસ્તૃત મીમાંસા આન ંદે કરી છે, તેમાં કાવ્યમાં અને વ્યંજનામાં આ અલંકારાનુ` શુ` કા` છે તે સિદ્ધ થાય છે. છતાં અલંકાર તરીકેની પ્રાથમિક ગણનાથી આગળ વધી ઉપચારને ખ્યાલ પશ્ચિમમાં જે રીતે સતત વ્યાપ બનતા ગા Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પેશ બેટાઈ ૧૦૩ અને તે સાથે તેના કાવ્યર્થ પરના પ્રદાનની જે ઊંડી સૂઝ પાશ્ચાત્ય વિવેચને દાખવી તે ભારતીય કાવ્યમીમાંસાને અધિગતા નથી. વિશાળ રીતે કાવ્યમાં વાસ્તવિક જગતની કાવ્યજગતમાં પરિવર્તિત આકૃતિઓ, તેનાં ચિત્રો, તેનાં પાત્ર, તેનાં કલ્પને, તેનાં વિભિન્ન અલંકારણોની સિદ્ધિ વગેરેમાં સાદશ્યમૂલકતા એટલે ઉપચાર કેવો અને કેટલો ભાગ, તથા કઈ રીતે ભજવે છે તેની ચર્ચા અને હાર્દ દર્શન એ પાશ્ચાત્ય કાવ્યમીમાંસાની આગવી સિદ્ધિ છે. આ કાવ્યગત ઉપચારની મનોવૈજ્ઞાનિક અસરો અને સિદ્ધિની પણ ઊંડી મીમાંસા એ પાશ્ચાત્ય આલોચનાની પોતીકી સિદ્ધિ છે. રૂપકના અર્થને આમ વિસ્તારી, વ્યાપક બનાવી તેના કાવ્યગત કાર્યની મીમાંસા કરવી શક્ય છે તે સંસ્કૃત કાવ્યોનાં જ ઉદાહરણે લઈ આપણે બતાવી શકીએ. ઉત્તરરામચરિત' ના તૃતીયાંકના આરંભે દંડકવનની ભીષણતાનું વર્ણન આપણને ભવભૂતિ આપે છે. કેવળ વર્ણન તરીકે પણ આ વર્ણન નિર્વિવાદ રીતે સુંદર છે. છતાં આપણે આ વર્ણનને સીતાવિવાસનપટુ રામહદયની ઊંડી વ્યથા અને રામના હૃદયને વ્યથાની કોરી ખાતી ભીષણતાની પ્રતિષ્ઠાયા. રૂપે જોઈએ તો આ વર્ણનનું વ્યંજનાત્મક કવિત્વ છે અને તે મૂલવાયું છે તેના કરતાં ઘણું ઉચ્ચતર છે તે આપણે અનુભવી શકીશું. રામહદયની વ્યથાની ભીષણતા સાથેના સદશ્યના સંદર્ભમાં બીજા અંકના અને કંઈક અંશે ત્રીજા અંકના દંડકવનવર્ણનને મૂલવવા આસ્વાદવા જેવું છે. આપણને સહેજે આનાથી શેક્સપિયરના “કિંગ લીયરમાંના પવનનાં, તેફાને, લીયરના મનમાં તેફાને સાથે સાદસ્ય ધરાવતાં મરણમાં આવશે. આવું જ એક દષ્ટાંત આપણને “શાકુન્તલ'ને છ3 અંકમાં મળે છે. કુલવધિની, કુલપ્રતિષ્ઠા એવી પ્રિયતમા ધર્મપત્નીને અકારણ ત્યાગ કરી ભારે હીણપતને અનુભવ કરતો પશ્ચાત્તાપરત દુષ્યન્ત પિતાના દિલ- બહેલાવવા માટે, પિતે સર્વપ્રથમ જે શકુન્તલાનું સુભગ દર્શન કર્યું હતું તેનું ચિત્ર, તેના, અનુપમ પ્રાકૃતિક વાતાવરણ સાથેનું દેરે છે. વાસ્તવિક જીવનની મુગ્ધ પ્રણયની દષ્ટિએ જોયેલી, તેના હૃદયમાં અંકિત શકુન્તલાનું સદશ્ય વાસ્તવિક શકુન્તલાની સાથે છે જ. આમ જ વાસ્તવિક જીવનની શકુન્તલા, દુષ્યન્તનાં પ્રણયી હૃદયમાં અંકિત શકુન્તલા અને ચિત્રાકારા શકુન્તલા વચ્ચે કેટલું સાદસ્ય છે, છતાં ભેદ પણ કેટલે છે! આ ભેદ પ્રણયી અને હવે પશ્ચાત્તા પરત દુષ્યન્તના ઉમાભર્યા, અનેક ઉમળકાભર્યા પ્રણયના રંગને છે. અને તેથી વાસ્તવિક શકુન્તલા અને દુષ્યન્તના હદયની શકુન્તલા અને ચિત્રાકારા શકુન્તલા વ્યંજિત કરે છે કે એકમાં અનેક વ્યક્તિ ધરાવતી કાવ્યગતા શકુન્તલા વિલક્ષણ રીતે, અનુપમ રીતે સુંદર છે. આને આધારે જ આપણને સહૃદય વાચકને વ્યંજનાની અક૯ય સોંદર્યપરમ્પરાને વિલક્ષણ આનંદદાયી અનુભવ થાય છે. અહીં ઉપચાર કાવ્યના કાવ્યત્વને અભિવ્યકત કરવામાં વ્યંજનાઓની આ પરમ્પરાને સાધક બને છે. આમ કવિવાણુ એ વાસ્તવિક જીવનની વાણું છે તે છતાં તેની પિતાની વિલક્ષણતાઓ ને લઈને કાવ્યમાં વિકસે છે. વાણીની કાવ્યગત આ વિલક્ષણતાઓનું સાધક અતિ અગત્યનું અલંકરણ ઉપચાર એ છે. આથી જ કહેવાયું છે કે• “Metaphor is hardly an amusing embellishment or diversion, an 'escape from harsh realities of life or of language. It is made out of, and it makes those realities. Their opposite and discordant Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦૪ મેટેફર (Metaphor)-ઉપચાર qualities are given by metaphor's inter-active function, a form and an integrity, a whole and an oder. In this sense, man's reality is formed by the metaphorical processes that inform his language.” - આ છે કાવ્યમાં, કાવ્યર્થમાં, કાવ્યવ્યંજનાની સિદ્ધિમાં ઉપચારનું પ્રદાન. કાવ્યના આ અતિ અગત્યના અલંકારણને સુભગ, સુંદર અને સહજ પ્રયોગ ભાવપ્રધાન કવિતામાં, રોમેન્ટિક કવિતામાં, રહસ્યપ્રધાન કાવ્યમાં, નાટકોમાં અને પ્રાયઃ તમામ પ્રકારનાં કાવ્યોમાં કાવ્યચારુત્વના અતિ મહત્ત્વના આધારરૂપ છે. ઉપચારથી કાવ્યવ્યંજના કાવ્યર્થ અને કાવ્યસૌન્દર્યને સિદ્ધ કરે છે. મોટે ભાગે ઉપચાર સ્વયં કાવ્યર્થ નથી, સ્વયં વ્યંજના, હમેશાં હેત નથી. જો કે તે સ્વયં કાવ્યર્થ કે કાવ્યચારુ કે કાવ્યવ્યંજન ન જ બની શકે એવું પણ નથી. કાવ્યમાં ઉપચારના આ અતિ વ્યાપક પ્રભાવની પાશ્ચાત્ય વિવેચનની મીમાંસા સંસકૃતનાં શ્રેષ્ઠ કાવ્યોની વ્યંજનાના નવા જ સંદર્ભમાં આસ્વાદનમાં પ્રેરક બળ બની શકે તેમ છે. પાદટીપો. ૧. વાગભટાલંકાર – ૪૦૯ ૨. “ Metaphor’-પા.4 ૩. ઉપર મુજબ–પા. 11-12 ૪. ઉપર મુજબ–પા. 9 ૫. “Philosophy of Rhetoric.” ૬ ઉપર મુજબ ૭. રઘુવંશ ૧૪. ૮. Metaphor” પા. 27 ૯. “Structure of Complex words,” એસન. ૧૦. English Prose Style,” પા. 339 ૧૧. “ Metaphor” પા. 22 ૧૨. “Metaphor’ પા. 63 ૧૩, “Seven Types of Ambiguity” ૧૪. ઉપર મુજબ ૧૫. ઉપર મુજબ 45. ' Poems of Robert Frost' Intro 24.' Words, Words.'96, 'A Study of Literature.” પા. 126 ૧૯. “Practice of Poetry,” પા. 15 ૨૦. “Twentieth Century Poetry,” Martin and Furbank, પા. 5 ઉપરથી ૨૧. ઉપર મુજબ પા. 7-8 ઉપરથી. ૨૨. “Suggestion and Statement in Poetry, ” પ. 73 ૨૩. “Seven Types of Ambiguity,' 4. 70 28. "Suggestion aud Statement in Poetry,” પા. 85 અગત્યના સન્દર્ભગ્રંથો ૧. નાટયશાસ્ત્ર (છઠ્ઠો અધ્યાય)–ભરત, “અભિનવ ભારતી' ટીકા સાથે ગાયકવાડ ઓરિએન્ટલ સીરીઝ, વડોદરા. ૨. Metaphor-Robert Rogers, University of California Press, London, 1978.3. Metaphor-Terence Hawkes, Methuen and Co. London, 1978. 8. Practical Criticism-I. A. Richards, Routledge and Kegan Paul, London, 1930 4. Principles of Literary Criticism -I, A, Richards - Routledge and Kegan Paul, London, 1976 $. Seven Types of Ambiguity - William Empson,-Chatto and Windus, London, 1968 6. Structure of Complex Words-William Empson. Chatto and Windus. 'London, 1977 L. Suggestion and Statement in Poetry-Krishna Rayan, University of London, Athlone Press, London' 1972. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જેન અંગ બાગમમાં પૂજા શબ્દનો અર્થ દલસુખ માલવણિયા જૈન વિશ્વભારતી, લાડ દ્વારા પ્રકાશિત “આગમ શબ્દકોશ'માં જૈન અંગ આગમોમાં જે જે શબદ જ્યાં જ્યાં આવે છે તેને સંદર્ભ આપવામાં આવ્યો છે. આથી પૂજા, પૂજના, પૂજાથી જેવા શબ્દો અંગ આગમોમાં કયાં કયાં વપરાયા છે તે શોધી કાઢવાનું સરલ થાય છે. એટલે તેને આશ્રય લઈ અહીં પૂજાદિ શબ્દો અને તેના અર્થો જે ટીકાઓમાં આપવામાં આવ્યા છે તેનું તારણ આપવા પ્રયત્ન કર્યો છે. ટીકાકારે તે પૂજને જે અર્થ કરે છે તેને પછી જોઈશું, પણ મૂળ સૂત્રમાંથી જ પૂજાને જે અર્થ ફલિત થાય છે-સ્પષ્ટ થાય છે તે સર્વ પ્રથમ જોઈએ. સૂવકૃતાંગના બીજ શ્રુતસ્કંધમાં પ્રથમ અધ્યયનમાં તૈર્થિકોની ચર્ચા કરવામાં આવી છે તેમાં લેકાથત કે ચાર્વાક કે શરીરને જ આત્મા માનનારના અનુયાયી પૂજા કઈ રીતે કરતા તેને સ્પષ્ટ નિર્દેશ મળે છે. તે પાઠ આ પ્રમાણે છે“તુમં પૂયયામિ, તે ગા-સળેખ વા વાળ વે હાફળ વ સાફમેન વા વા વા જાળ વા વા વા વાયjછળ વાટે આગોદય આવૃત્તિ પૃ. ૨૭૭. તેની દીલ્હીથી પ્રકાશિત ફોટો કોપી પૃ. ૧૮૫. સ્પષ્ટ છે કે પૂજા એટલે પૂજ્યને અનાદિ, વસ્ત્ર, પાત્ર, કંબલ, પગલૂછણિયું– આદિ આપવા તે જ પૂજા છે. જ્યાં જ્યાં પૂજા શબ્દ અંગ આગમમાં આવે છે ત્યાં ટીકાકારે જે અર્થ કરે છે, તેનાં હવે કેટલાંક ઉદાહરણ જોઈએ. સૂત્રકૃતાંગ (૧. ૧૪. ૧૧)માં પ્રાપ્ત પૂજા શબ્દને અર્થ ટીકાકાર આ પ્રમાણે કરે છે-“અચ્યુંચાનવિનચારિમિઃ પૂના વિધેતિ આગમો, પૃ. ૨૪૫; દીલ્હી પૃ. ૧૬૪. સૂત્રકૃતાંગ (૧.૧૬૪)માં ““uથ વિ ળિયાંથો . પૂયાત્રામી? એવો પાઠ છે-તેની ટીકામાં જણાવ્યું છે–“નો પૂનાણા(ત્રામાથી વિનુ નિરપેક્ષી –આગમ૦ પૃ. ૨૬૫; દીલ્હી પૃ. ૧૭૭. સ્થાનાંગમાં (આગમો૦ સુત્ર ૪૯ ૬) “છાળા સાવકો અતિ સુનાતે......મયંતિ તં વહાવૃતાંતરે ! છટા અવતો હિતામવંતિ સં.નવ પૂતાવારે તેની ટીકામાં શ્રી અભયદેવ જણાવે છે-“અનામવાન્ સપાય સુર્થ... પૂના હસ્તવાહિક, તપૂર્વ સારો વસ્ત્રમ્પર્વન, પૂનામાં વા બાઃ પૂજ્ઞાતિવાર રૂતિ આગમેપૃ. ૩૫૮; દીહી પૃ. ૨૩૯. સ્થાનાંગમાં છદ્મસ્થની ઓળખ પ્રસંગે જણાવ્યું છે –“સત્તë હાર્દિ છ૩મર્થ જ્ઞા તૈ૦ વાળ કાપત્તા મવતિ...પૂતાનામgવત્તા મવતિ આગમ. સૂત્ર ૫૫૦. તેની ટીકામાં या प्रमाणे छे-पूजासत्कारं-पुष्पार्चन-वस्त्राद्यर्चने अनुबृहयिता-परेण स्वस्य क्रियमाणस्य तस्य જનગિતા, તદુમાવે દૂર્વાર્થ –આગમેપૃ. ૩૮૯; દીહી પૃ. ૨૬ ૦. સ્થાનાંગમાં (સૂત્ર ૭૫૬) “ક્ષધિ સંનg ......પૂજાલંકારો – દશ પ્રકારે મનુષ્ય પ્રશંસાવ્યાપાર કરતા હોય છે તેમાંનું એક છે પૂજાશંસાપ્રયોગ. આની ટીકામાં શ્રી અભયદેવ લખે છે–“તથા પૂના-gsyiqqનં જે સ્થાતિ પૂMારસાકયોના આગમ૦ પૃ. ૫૧૫; દીલ્હી પૃ. ૩૪૪. ૧ આજકાલ જૈન સમાજમાં કેટલાક આચાર્યો જિન પ્રતિમાની જેમ પોતાનાં નવ અંગેની પૂજા કરાવે છે અને તે વિશે સમાજમાં વિવાદ ચાલે છે, તે સંદર્ભમાં પ્રસ્તુત લેખ લખવાની ઈચ્છા થઈ છે, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન અંગ આગમમાં પૂજા શબ્દના અ આવા આશ સાપ્રયોગ કરણીય નથી એવા અભિપ્રાય પણ શ્રી .અભયદેવે આપ્યો છે. આ જ સૂત્રમાં ‘સત્કારશસા' પૃથક્ ગણાવી છે અને તેની ટીકામાં ટીકાકાર જણાવે છે—“સાર પ્રવર-વસ્ત્રાફિમિઃ પૂત્રનમ, તમે ચારિતિ સતાપરાંસાપ્રયોગ તિ ॥” આ ઉપરથી જણાય છે કે સૂત્રકારને પૂર્જા અને સત્કાર એમ ઈષ્ટ છે, પૂજા વડે સત્કાર એમ નહિ. સમવાયાંગ સૂત્રમાં ૩૬મા સમવાયમાં ઉત્તરાધ્યયનનાં ૩૬ અધ્યયને ગણાવ્યાં છે તેમાં અગિયારમું અધ્યયન બહુશ્રુતપૂજા' નામે છે. આમાં ગા. ૧૫-૩૦માં બહુશ્રુતની અનેક ઉપમા દ્વારા પ્રશંસા કરવામાં આવી છે. આ જ તેની પૂજા છે, એમ માનવું રહ્યું. ટીકામાં માત્ર ૧૦૬ ભગવતી સૂ. પપ૬માં “પૂયાસારથિતિળયા” એવા પાડે છે પણુ તેની તેની સ`સ્કૃત છાયા આપી છે. પૂજાને અથ કર્યાં નથી. पूयण- पूयणा આચારાંગ (૧. ૧. ૧)માં મન્ન ચેત્ર ગવિયમ્સ વિર્ળમાળપૂયા' ઇત્યાદિ પાઠ છે જેને અનેકવાર પુનરાવૃત્ત કર્યાં છે. આની ટીકામાં પૂજન વિષે શ્રી શીલાંક જણાવે છે—‘ધૂનન પૂના-મૂવિનત્રસ્ત્રાન્તવાનનાબળામસેવાવિશેષવર્’--આગમા॰ પૃ. ૨૬, દીલ્હી પૃ. ૧૮. આચારાંગ (૩. ૩. ૧૧૯)માં ‘“તુઓ વિચસ્ત પરિવરળ-માળા-પૂચળાણ જ્ઞત્તિને વમાયંતિ” પાઠ છે તેની ટીકામાં શીલાંક લખે છે—તથા પૂનનાર્થમાં પ્રવર્તમાનાઃ ર્માધાભાન भावयन्ति मम हि कृतविद्यस्योपचितद्रव्यप्राग्भारस्य परो दान-मान-सत्कार- प्रणाम - सेवाविशेषैः પૂનાં દ્ધિતીયાતિ પૂનન, તહેવમય મેચિનોતિ ' આગમે॰ પૃ. ૧૬૯, દીલ્હી પૃ. ૧૧૩. પ્રશ્નવ્યાકરણ સૂત્રમાં પાઠ છે— ધનવિ વળાતે, નત્રિ માળખાતે નવિ પૂચળાતે...મિક્ષ્ વેસિયન્ત્ર” જૈત વિશ્વભારતી પ્રકાશિત-૬. ૯. તેની ટીકામાં આ. અભયદેવે લખ્યું છે—‘નવિ पूजनया - तीर्थ निर्माल्यदानमस्तकगन्धक्षेपमुखवस्त्रिकानमस्कार मालिकादानादिलक्षणया" આગમા પૃ. ૧૦૯. સૂત્રકૃતાંગ (૧. ૨. ૨. ૧૧) માં પાઠ આવે છે—ના વિચ વ ફળ-પૂચના ” તેની ટીકામાં આચાર્ય શીલાંક લખે છે-“નાિિમા/મિ: ના, વજ્રપાત્રાફિમિશ્ર પૂનન” આગમા પૃ. ૬૪; દીલ્હી પૃ. ૪૩. સૂત્રકૃતાંગ (૧. ૩. ૪. ૧૭)માં પાઠ છે—નહિં નારીળ સંગોના પૂચળા વિદ્યુતો તા” તેની ટીકામાં આ. શીલાંક લખે છે—તથા સત્સંગ મેવ પન્ના ધામાસ્યાલિમિઃ મનઃ વૂઝના’વામવિભૂષા પ્રવ્રુતઃ તા”” આગમા॰ પૃ. ૧૦૦; દીલ્હી પૃ. ૬૭ સૂત્રકૃતાંગ (૧, ૨. ૨. ૧૬)માં પાડે છે—“નોઽવ ય પૂચળપસ્થસિયા” તેની ટીકામાં આ. શીલાંક જણાવે છે-‘ન ૨ ૩પસસનઢાળ પૂના-પ્રાથઃ પ્રર્ષામિાળી સ્થાત્ મવેત્ ।” આગમા પૃ. ૬૫; દીલ્હી પૃ. ૪૪. સૂત્રકૃતાંગ (૧. ૨. ૩. ૧૨)માં પાડે છે-“નિવિ ટેક્સ લિસ્રો-પૂયનં” તેની ટીકામાં આ. શીલાંક લખે છે. વિશ્વેત-જીગુપ્તયેત્ તિ માધાં સ્તુતિમાં તથા પૂઝન' વસ્ત્રાવિત્ઝામસ્વ ”િ આગમા॰ પૃ. ૭૩, દીલ્હી પૃ. ૪૯. સૂત્રકૃતાંગ (૧. ૯. ૨૨)માં પાડે છે—વ ના ય વર્ળપૂવૅળા” તેની ટીકામાં આ. શીલાંક લખે छे–“ तथा याच सुरासुराधिपतिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवादिभिः वंदना, तथा तैरेव सत्कारपूर्विका વસ્ત્રાવિના જૂનના' આગમા॰ પૃ. ૧૮૧-૨, દીલ્હી પૃ. ૧૨૧-૨ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દલસુખ માલવિયા ૧૦૭ सूत्रतांग (१५ - ११) मां पाठ छे - " वसुम पूयणासु ( स ) ते अणास ए" तेनी टीम था. शीझस छे -"किं भूतोसौ अनुशासक इत्याह-वसु द्रव्य, स च मोक्ष प्रति प्रवृत्तस्य संयमः, द्विद्यते यस्यासौ वसुमान्, पूजन देवादिकृतमशोकादिकमा स्वादयति-उपभुङ्क्त इति पूजनास्वादकः । ननु चाधकर्मणो देवादिकृतस्य समवसरणादेरुपभोगात् कथमसौ सत्संयमवान् इत्याशङ्क्याह- न विद्यते आशयः पूजाभिप्रायो यस्य असौ अनाशयः, यदि वा द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोsनास्वादको सौ, तद्गतगार्थ्याभावात् ।” यागम० पृ. २५७; हल्ली पृ. १७२. पूयडि સમવાયાંગસૂત્ર (સમવાય ૩૦)માં ત્રીશ મહામેહનીય સ્થાનના વંત પ્રસંગે ૩૪મી ગાથા નીચે પ્રમાણે છે—તેમાં ત્રીશમું સ્થાન છે— " अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्खे य गुज्जगे । अण्णाणी जिणपूट्ठी महामोहं पकुव्वइ ||३४|| साग०५. ५१ ही पृ. ३४. तेनी टीडामां मा. अलयहेव स छे - " अपश्यन्नपि यो ब्रूते पश्यामि देवानित्यादिस्वरूपेण, अज्ञानी जिनस्येव पूजा अर्थयते यः स जिनपूजाथी, गोशालकवत् । स महामोह प्रकरोतीति-' गो० . प होल्डी ५. ३७. पूयणकाम सूत्रतांग (१. ४. १. २८) मां गाथा - "बालरस मंद' बीय' ज च कड अवजाणह मुज्जे । दुगुणं करेई से पाव पूयणकामो विसन्नेसी ॥ २९ ॥ " गाथानी टीमशी " - " किमर्थमपलपति इत्याह-पूजन - सत्कार पुरस्कारस्तत्कामः - तदभिलाषी, मा मे लोके अवर्णवादः स्यादित्यकार्य प्रच्छादयति-" सागमे। ० . ११४; हीहंडी पृ. ७६ पूयट्ठि सूत्रहृतांग (१. १०. २३)भां गाथा - "सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा अमुच्छिए ण य अज्ज्ञोववन्ने । धितिम' विमुक्के ण य पूयणट्ठी, न सिलोगगाभी य परिव्वज्जा ||२३|| तेनी टीम या. शील समे छे - " तथा संयमे धृतिर्यस्यासौ धृतिमान् तथा स बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन विमुक्तः, तथा पूजन वस्त्रपात्रादिना, तेनार्थः पूजनार्थः, स विद्यते यस्यासौ पूजनार्थी तदेव भूतो न भवेत् । तथा श्लोकः— • धा कीर्तिस्तद्गामी न तदभिलाषुकः परिव्रजेदिति । कीर्त्यर्थी न काञ्चनक्रियां कुर्यादित्यर्थः ॥ " आगमो० पृ. १८५; हीडी पृ. १३०. સ્પષ્ટ છે કે અંગ આગમામાં પૂગ્ન શબ્દને મુખ્ય અર્થ પૂજ્યનાં અંગોની પૂજા—એવા નથી પશુ પૂજ્યને આવશ્યક એવી વસ્તુનું સમર્પણુ એ છે. એટલે પૂન્ન અને દાનમાં શા ભેદ—એ પણ અહી વિચારણીય છે. પૂજા પૂજ્ય પાસે જઈ વસ્તુનું અણુ એ છે, જ્યારે પૂજ્ય પોતે દાતા પાસે જઈ લે તે દાન છે. આમ પૂજા અને દાનમાં ભેદ પાડી શકાય છે. પૂજા શબ્દને બદલે અર્યા શબ્દના પ્રયાગ નાતાધમ કથામાં દ્રૌપદીની કથામાં થયેÀા છે, સમગ્ર અંગ આગમામાં આ એક જ उसे जिन प्रतिमानी शर्मा विषे छे. ते पशु हीं नांध लेडो पाउ छे– “जिगपडिमाणं अच्चर्ण करेइ" - नाया० १. १६. ७५८ (जैन विश्वभारती, साउनूनी सावृत्ति) आगमोहय समितिनी નાયાધમ્મકડા મૂળમાં લાંબા પાડે છે પણ ટીકામાં જણાવ્યું છે કે ઉપર પ્રમાણે સંક્ષિપ્ત પાઠ પણ મળે છે, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આગમગચ્છીય આ. જિનપ્રભસૂરિકૃત સર્વ-ચિત્ય-પરિપાટી-સ્વાધ્યાય સંપા, રમણીક મ. શાહ પ્રાચીન ગૂર્જર ભાષામાં ઉપલબ્ધ ચૈત્યપરિપાટી રચનાઓમાં કદાચ આદ્ય રચના કહી શકાય તેવી આ કૃતિ અહીં પ્રથમ વાર પ્રકાશિત થાય છે. મધ્યકાળમાં રચાયેલી આવી અનેક કૃતિઓની જેમ આમાં કવિનો હેતુ કોઈ એક તીર્થની જ પરિપાટી આપવાનું નથી, પણ અનેક પરંપરામાન્ય પૌરાણિક, અર્ધ ઐતિહાસિક અને કેટલાંક ઐતિહાસિક તીર્થસ્થળોનું માહાસ્ય દર્શાવી, શ્રદ્ધાળુ શ્રા કેના નિત્ય-સ્મરણ માટે “સજઝાય' (સ્વાધ્યાય) રચવાને છે. કર્તાએ આપેલ નામ પણ તેમ જ સૂચવે છે. આગમગરછીય આચાર્ય જિનપ્રભસૂરિ વિરચિત આ ચૈત્ય-પરિપાટી પાટણના ખેતરવસહી જૈન જ્ઞાનભંડારની એક તાડપત્રીય પ્રત પરથી સંપાદિત કરેલ છે. એને ક્રમાંક ૧૨ (ન ૬) છે. અને તેમાં ૩૫ ૪૫ સે. મી. કદનાં ૨૬૪ પત્રોમાં નાની મોટી કુલ ૫૪ કૃતિઓ લખાયેલ મળે છે. પ્રસ્તુત કૃતિ પત્ર ૨૧૨/૧ થી ૨૧૪૨ સુધીમાં આવેલ છે. પ્રતિ પ્રાયઃ શુદ્ધ છે. આ જ પ્રતિમાં કર્તાની અન્ય ત્રીસેક લઘુ રચનાઓ સંગ્રહાઈ છે. લિપિ પરથી પ્રતિ ચૌદમી સદીની શરૂઆતની હેવાનું અનુમાની શકાય છે. આ. જિનપ્રભસૂરિની અન્ય ત્રણ કૃતિઓમાં રચના-વર્ષ મળે છે, ' યથા – ૧. મયણ રેહા-સંધિ વિ. સં. ૧૨૯૭ (ઈ. સ. ૧૨૪૧) ૨. વરસામિ-ચરિઉ વિ. સં. ૧૩૧૬ (ઈ. સ. ૧૨૬૦) ૩. નમયાસુંદરિ-સંધિ વિ. સં. ૧૩૨૮ (ઈ. સ. ૧૨૭૨) આ પરથી તેમના કવનકાળને અંદાજ સ્પષ્ટપણે આવી જાય છે. પ્રસ્તુત ચિત્ય-પરિપાટી કર્તાની પ્રારંભિક રચના હેય તેમ તેની સરળ ભાષા અને તેમાં નિરૂપિત સામાન્ય વિષય પરથી માની શકાય. આ. જિનપ્રભસૂરિ આગમિક-ગછના દેવપ્રભસૂરિના શિષ્ય હતા અને તેમણે ઉત્તરકાલીન અપભ્રંશ કે પ્રાચીન ગૂર્જર ભાષામાં અનેક નાની નાની પદ્યકૃતિઓ રચી છે – આથી વધારે કેઈ વિગત તેમના વિશે મળતી નથી. ચિત્ય-પરિપાટીને વિષય સામાન્યતયા જ્યાં જ્યાં જિનચૈત્ય હોય તે તે સ્થળના વર્ણન સાથે વંદન-વિધિ આપવાને હોય છે. અહીં પણ એ જ રીતે કવિ પરંપરાગત અનેક શાશ્વત-અશાશ્વત ચે ગણાવી તે બધાને વંદન કરી કૃતાર્થ થવાને ઉપદેશ આપે છે. પ્રથમ જિનધર્મને અને જિનવરને જય વાંછી, દુર્લભ મનુષ્ય જન્મ અને તેમાંય જિનધર્મ પ્રાપ્ત કરનાર ભવ્ય આત્માઓને ઉદ્દેશી, સર્વવિરતિ – સંપૂર્ણ મુનિધર્મ ન પાળી શકાય તે દેશવિરતિ એટલે કે આંશિક ધર્મ – શ્રાવક ધર્મ – પાળવાને, જિનપૂજા કરવા અને સુપાત્રે દાન કરવાને બોધ આપે છે. (૧૬) બાદ ભવનપતિ, વ્યંતર-તિષ, ઊર્વલક, મેરુ પર્વત, ગજદંત, વિષધર, વૈતાઢય, વક્ષષ્કાર, ૧. આમાંની પ્રથમ અને તૃતીય કૃતિના આદિ-અંત માટે જુઓ – “અપભ્રંશ સંધિ કાવ્યો' - સંબોધિ, વર્ષ ૨-અંક-૨, દ્વિતીય કૃતિ હજુ અપ્રકાશિત છે. આચાર્ય જિનપ્રભસૂરિ અને તેમની કૃતિઓને સામાન્ય પરિચય ઉપરોક્ત લેખમાં આ સંપાદકે આપેલ છે. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સંપા. રમણીક મ. શાહ ૧૦૮ કુતર, માનુષત્તર, કંડલ, રેચક, તથા નંદીશ્વર એ આગમોક્ત સ્થળે એ રહેલા શાશ્વત જિનચેની સંખ્યા આપી, ભાવપૂર્વક વંદન કરવા કહે છે. (૭ ૧૨) પછી તિલોકના અશાશ્વત-શાશ્વત જિનગૃહે તથા રથનપુર જેવા વિદ્યાધરનગર અને મહાવિદેહ ક્ષેત્રના ક્ષેમ (મા) આદિ પુરોના દેવગૃહે ગણાવે છે. (૧૩-૧૪) - ત્યાર બાદ ભરત અને ઐરાવત ક્ષેત્રનાં તીર્થો, કે જ્યાં તીર્થકરેનાં કલ્યાણક-સ્થળો આવેલાં છે અને જેમાં ભરત વગેરે રાજેશ્વરીએ તીર્થકરેના વર્ણપ્રમાણ મુજબ કનકમય બિબે ચાવ્યાં છે, એની નોંધ આપે છે? અષ્ટાપદ, સમેત (સમેત શિખર), રેવતગિરિ (ગિરનાર), અયોધ્યાપુરિ, ગજપુરિ (હસ્તિનાપુર), કપિલ (કાસ્પિલ્ય), ધર્મચક્ર (તક્ષશિલા), શૌરીપુર, વારાણસી, સોપારક, ભૃગુકચ્છ, વિમલગિરિ (શત્રુંજય), વૈભારગિરિ (રાજગૃહી), તામ્રલિપ્તિ (તાલુક), ઉજજૈન, ચંપા, મિથિલા, કુંડગ્રામ (વીરજન્મસ્થાન), શ્રાવસ્તિ, મથુરા, અબુંદ, સત્યપુર (સર), ખંભાત, મેહેરા અને અણહિલવાડ. (૧૫-૧૯) અંતે કવિ કહે છે કે આ અનેક શાશ્વત-અશાશ્વત ચો, જેમાં ઋષભાદિકની પ્રતિમાઓ પ્રતિષ્ઠિત છે – તેમને પ્રણામ કરનારને દિવસ સફળ છે. વિશ વિહરમાન જિનેનાં પ્રત્યક્ષ દર્શન નિત્ય કરનારા પુણ્યશાળીઓ કૃતકૃત્ય છે. દ્વાદશાંગી રચનાર ગણધર અને જિનવરેના પરિવાર પણ ધન્ય છે. ચોવીસમા તીર્થંકર વર્ધમાન તથા જેના પ્રભાવે જિનધર્મ નિર્વિધન છે તે ચતુર્વિધ સંઘ આનંદ પામે. દ્રવ્ય (બાહ્યોપચાર) કે ભાવ (અંતઃકરણ)થી જે આ ચૈત્યની સ્તુતિ કરે છે તેનાં અનંત ભવોનાં દુઃખ નાશ પામે છે અને સઘળા ઉપસર્ગો દૂર થઈ તત્કાળ સ્વર્ગ અને અપવર્ગનાં સુખ મળે છે. (૨૦-૨૪). અંતિમ કડીના ત્રીજા ચરણમાં કવિએ લેષપૂર્વક પિતાનું નામ જિનપ્રભ ( નિષ૬) ગૂંથી લીધેલું જોઈ શકાય છે. સરળ અને પ્રવાહી ઉત્તરકાલીન અપભ્રંશ ભાષાની આ પદ્યરચનાને પ્રાન્ત કવિએ કે પછી લિપિકારે કરેલ નોંધ સજઝાય (સ્વાધ્યાય) નામ આપે છે, અને રાસરૂપે સમૂહમાં ગાઈ શકાય તેવી તથા બેલી (બેલિકા) રૂપે શાંત એકાંતમાં ઉચ્ચારી શકાય તેવી છે એમ કહી તેની ગેયતા તરફ નિર્દેશ કરે છે. પ્રથમ કડીને છંદ પ્રસિદ્ધ આર્યા છંદ છે – પ્રથમાધ ૩૦ માત્રા ( ચતુષ્કલ + –) અને દ્વિતીયાધ ૨૭ માત્રા (૫ ચતુષ્કલ + + ૧ ચતુષ્કલ + –), બાકીની બધી કડીઓ ૪ + + + -- કે ૬ + ૬ + - એવી ગણુ વ્યવસ્થા ધરાવતા, પંદર માત્રાના પ્રત્યેક ચરણવાળા ચોપાઈ છંદમાં છે. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमगच्छीय जिनप्रभसूरि विरचित सर्व-चैत्य-परिपाटि-स्वाध्याय जयइ जयइ जिण-धम्मो विवेय-रम्मो पणासिय-कुहम्मो । उवसमापुर-पायारो पयडिवानाणाइ-आयारो ॥१॥ तं जयइ जगि सिरि-जिणवर-विंद, जसु पय पणमइ सयल सुरिंद । परिवज्जिय-सावज्जारंभ, नरयकूव-निवडतह खभ ॥२॥ त दुल्लहु लहिउ सु माणुस-जम्मु, तह वि कह वि सिरि-जिगवर-धम्मु । तत्थ वि बोहि-बीउ पुण रम्मु, जं निहणइ दुट्ठऽट्ठ वि कम्मु ॥३॥ तं मुत्तु कुमय कुबोहु कुग्गाहु, - किं अणुसरहु न जिनवर-नाहु । तसु विणु जीवु सया व अणाहु, समय विसमय कसायह दाहु ॥४॥ ता भो भविय(या) भावउ भव-भावु, (पुण) दुलहउ सामग्गी-सब्भावु । सव्व-विश्इ जइ करण न जाइ, देस-विरइ तो धामिउ ठाइ ॥२॥ जइ बाहिर-पावह परिहारु, तोइ सारु संसारु असारु । पूअह जिणवरु भाविहिं भत्ति, देयह दाणु सुपत्तह सत्ति ॥६॥ त मोह-चरड नीधाडिय धाडि, तउ करहु चेइय-परिवाडि । भवणवई ठिय वंदह दक्ख, सत्त-कोडि बाहत्तरि लक्ख ॥७॥ त' वितर-जोइस-माझि असख, उड्ढ-लोइ चउरासी लक्ख । सत्ताणउइ सहसा तह तत्थ, तेवीसाहिय रयण पसत्थ ॥८॥ मेरुसु पचासी जिण-गेह, भवियहु पणमहु विहिय सिणेह । गयदंतेसु चेइय वीस, पव्वय वासहरेसु तीस ॥९॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा. भली भ. शा सत्तरिसउ वेयड्ढ-नगेसु, जहिं न लहइ नीपुन्न पवेसेो ॥ १०१ तं वखारे असीई जिणवर, नाणाहि यहि मणोहर । नइ य जिगह कुरुतरु हुंति, नरउत्तर - नगि चियारि न भांति ॥ ११ ॥ कुंडल - रुगिसु चियारि चियारि, नंदीसर - वरि वीस विचारि । एगारुत्तर पाँचसयाई, भावि वंदउ सव्वि वि ताई || १२ || अट्ठ कोडि छप्पन्न य लक्ख, सत्ताणुइ सहसा इव पक्ख । पचसयई चउतीसइं अहिय, सासय चेइय एत्तिय कहिय ॥१३॥ तिरिय- लोइ पुण संखाईय, सव्वे वि जिण - सासण - विहिय । जाणि असासय सासय गेह, विधि - विहियाइ नीसंदेह ||१४|| रहनूपुर - नयराइय रम्म, वेडूढे विज्जाहर - गम्म । महाविदेहे देवहराई', खेमाइ नगराइ जाइ ||१५|| त भरहेखए खिक्ति जि तित्थ, जम्माइय कल्लोण पसत्थ । भर निवाइय कारियाई, बन्न - पमाणिहिं कण्यमयाई ॥१६॥ सिरि- अट्ठावयगिरि - सम्मेय रेवगिरि - पमुहाइ अणेय । अवज्झाउरि गयपुरि क पिल्लि, धम्मचक्क रयणमय महल्लि || १७|| सोरियपुरि वाणारसि रम्मि, सोपारइ भरुअच्छि पुरम्मि । विमलगिरी - वे भारगिरिम्मि, तामलित्ति-उज्जेणी - रम्मि ॥१८॥ ૧, પ્રતમાં આ કડીના અંતે હું ને અંક છે અને અપૂર્ણ છે, ૧૧૧ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૧૨ चपा - महिलानगर पुरम्मि, कुडगामि जिण - जम्मण - रम्मि । सावत्थी - महुरापुर जाइ करण - मणि-मोहराइ ||१९|| अब्बुअ - सिरि सच्चर - वरम्मि, थं भणपुर - मोढरपुरम्म । अहिलवाड - वर-नयरम्मि, सोइ सुदर - देवहरमि ||२०|| त असासय-सासय- चेइयाई, रिसाइय- पडिम-पइठियाइ । सर्व-यैत्य- परिपाटि - स्वाध्याय गामागर-पुर-नयरोईसु, जे पणमइ' तहँ सहलउ दीसु ॥२१॥ त विहरइ संपइ वीस जिणिंद लोआलोअ - पयास-दिनिंद | धन्न पुन्न जे पिच्छइ निच्चु. ताण जम्मु जीविउ कयकिच्चु ॥ २२ ॥ गणहर- सेणी सयल वि चौंग, जेहिं विरइय बारस अंग । सिरि-जिणवर - परिवारु वि धन्नु, मोक्ख- मग्गु पडिपुन्नु पवन्नु ||२३|| तं नंदउ चउवीसमउ जिणिंदु, वद्धमाण- पहु भुवणाणंदु | नंदउ चउविह-संधु अणग्घु, जसु पहावि जिण धम्मु अविग्धु ||२४|| दव्व - थउ भाव - थउ जि कुणंति, ते अणंतु भव-दुहु निहणंति । सिरि-जिण - पहणिय-सयलुवसग्ग, ते लहु लहिसइ सग्गऽपवग्ग ॥ २५ ॥ १ १. अत: - इति सर्व- चैत्य-परिपाटि - स्वाध्यायो रासेन दीयते, बोल्लिका भण्यते समाधिना । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ્ઞાનચંદ્રકૃત સંસ્કૃતભાષા-નિબદ્ધ “શ્રીરંવતતીર્થ સ્તોત્ર (સ્વ.) અગરચંદ નાહટા અને મધુસૂદન ઢાંકી (સ્વ.) પં. બેચરદાસ દેશી જૈન મહાતીર્થ ઉજજ્યન્તગિરિ વિષયક પુરાણી જૈન તીર્થમાલાત્મક સાહિત્ય રચનાઓ પ્રકાશિત કરવાની પહેલ કરવામાં એક હતા. એમણે તપાગચ્છીય રતનશેખરસૂરિશિષ્ય હેમહંસસૂરિની જૂની ગુજરાતીમાં રચાયેલ બહુમૂલ્ય કૃતિ –“ગિરનાર ચૈત્ર વાડી” (આ. વિ. સં. ૧૫૧૫ ઇ.સ. ૧૪૫૯) – પુરાતત્ત્વ અંક ૩ (ચૈત્ર ૧૯૭૬, પૃ. ૨૯૧-૩૨૨ %)માં પ્રકાશિત કરેલી. એમનાથી એક વર્ષ પૂર્વે વિજયધર્મસૂરિ દ્વારા એક બીજ તપાગચ્છીય મુનિ - રત્નસિંહસૂરિ શિષ્ય – દ્વારા “ગિરનાર તીર્થમાલા” એમના ઐતિહાસિક દષ્ટિએ અત્યંત ઉપયુક્ત પ્રાચીન તીર્થમાલા સંગ્રહ (ભાવનગર સં.૧૯૭૮ . સ. ૧૯૨૨)માં પ્રગટ કરેલી. (પૃ. ૩૩-૩૭.) (.) પં. દેશી આમ આ ક્ષેત્રમાં બે અગ્રચારિઓમાંના એક હેઈ, તેમ જ હેમહંસસૂરિની ચૈત્યપરિપાટીના આધારે તેમણે ગિરનાર તીર્થ સબધે જે ગવેષણ કરી છે તે એ વિષય અનુલક્ષીને સૌ પ્રથમ જ હોઈ, ઉજજયન્તતીર્થ વિશે છેલ્લાં કેટલાંક વર્ષો દરમ્યાન પ્રાપ્ત થયેલી (પણ અદ્યાવધિ અપ્રકાશિત) સંસ્કૃત અને જૂની ગુજરાતીમાં રચાયેલી કેટલીક કૃતિઓ અહીં એમને સ્મરણાંજલિ રૂપે પ્રસ્તુત થઈ રહી છે. અહીં રજૂ થઈ રહેલી કૃતિઓમાં સૌથી પુરાણી કૃતિ જ્ઞાનચંદ્રની છે. વસન્તતિલકા છન્દમાં નિબદ્ધ આ સંસ્કૃત ડિશિકાને સંગ્રહકારે (વા લિપિકારે) “ગિરનાર ચૈત્ય-પરિપાટી સ્તવન” એવું શીર્ષક આપ્યું છે, જે કૃતિની અંદરની વસ્તુને લક્ષમાં રાખીને અપાયું હોય તેમ લાગે છે, પણ મૂળ કર્તાને તે “ઉજજ્યન્તગિરિતીર્થ સ્તોત્ર” વા “રેવતગિરિતીથ–સ્તોત્ર” અભિપ્રેત હોય તેમ લાગે છે. પ્રાન્ત પદ્યમાં રચયિતાએ પોતાનું “જ્ઞાનેન્દુ” અભિધાન પ્રકટ કરેલું છે; પણ પિતાના ગ૭ કે પરંપરા વિશે કંઈ જણાવ્યું નથી. સ્તોત્રમાં મંત્રીશ્વર વસ્તુપાલ અને મંત્રી બધુ તેજપાલે ગિરિ પર નિર્માણ કરાવેલ કપનો ઉલ્લેખ હેઈ કર્તા ઈ. સ. ૧૨૩૨-૧૨૩૪ બાદ જ લખી રહ્યા હોવાનું સૂનિશ્ચિત છે. પણ બે જ્ઞાનચંદ્ર જાણમાં છે. એક તે રાજગછીય વાટીન્દ્ર ધર્મઘોષસૂરિની પરંપરામાં થઈ ગયેલા અમરપ્રભસૂરિના શિષ્ય, જેમણે સં. ૧૩૭૮-ઈ. સ. ૧૩૨૨માં અબુંદગિરિ પર દેલવાડાની વિશ્વ વિખ્યાત વિમલવસહીમાં ભંગ પશ્ચાત પુનઃપ્રતિષ્ઠા કરેલી.' બીજા તે પર્ણમિક ગુણચન્દ્રસૂરિ શિષ્ય, જેમણે હર્ષપુરીયગરછને રાજશેખરસૂરિની રત્નાવતારિકા પર પ્રસ્તુત સૂરિના અનુરોધથી ટીપ્પન રચેલું. આ બીજ પં. જ્ઞાનચન્દ્રને સમય આથી ઈસવીસનના ૧૪મા શતકના મધ્યમાં પડે છે, અને એ કારણસર તેઓ રાજગચ્છીય જ્ઞાનચન્દ્રથી એક પેઢી પાછળ થયેલા. આમ નજીકના સમયમાં થઈ ગયેલા આ બે જ્ઞાનચન્દ્રોમાંથી સાંપ્રત સ્તોત્ર કેની રચના હશે તે વિશે આમ તે નિર્ણય કરે કઠણ છે, પણ દેલવાડાની સં. ૧૩૭૮ની વિમલવસહી પ્રશસ્તિમાં વચ્ચે વચ્ચે પ્રયોજિત વસન્તતિલકા પઘોના છોલય તેમ જ શૈલી-પરાગને ધ્યાનમાં રાખતાં ચર્ચા હેઠળનું રેવતગિરિ-સ્તોત્ર આ રાજગછીય જ્ઞાનચન્દ્રની, અને એથી ઈ. સ. ૧૩૨૦-૧૩૨૫ના અરસાની રચના હેઈ શકે. કૃતિનું સંપ્રતિ સંપાદન પ્રથમ સંપાદકે ઘણાં વર્ષો પહેલાં એક જૂની પ્રત પરથી ઉતારી લીધેલ પાના પરથી કર્યું છે. પ્રસિદ્ધ પુરાતત્ત્વવેત્તા એવં સંસ્કૃત ભાષા-વિશારદ શ્રીકૃષ્ણદેવે એને લક્ષપૂર્વક તપાસી લિપિકારે દાખલ કરેલા અક્ષર અને વ્યાકરણ દેષને નિવાર્યા છે અને કઈક કોઈક સ્થળે અક્ષર ઊડી જવાથી થયેલ છન્દોભંગ દૂર કર્યો છે. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૧૪ જ્ઞાનચંદ્રકૃત સંસ્કૃતભાષા-નિબદ્ધ “શ્રીરૈવતતીર્થ સ્તોત્ર સ્તોત્ર ઉજજ્યન્ત મહાતીર્થ અનુલક્ષિત હેઈ તેમાં સ્વાભાવિક જ તીથનાયક જિન અરિષ્ટ નેમિને પ્રધાનતા અપાઈ છે; એમને તથા રૈવતગિરિને મહિમા પ્રારંભનાં પાંચ પઘોમાં કહ્યો છે. તે પછી વાભદમંત્રી કારિત, ગિરનાર પર ચઢવાની પદ્યા (પાજા) વિશે આલંકારિક કહી, ક્રમશઃ ગિરિસ્થિત અર્ચનીય સ્થાને ને ઉલેખ કર્યો છે. જેમાં (કાશ્મીરના) શ્રેષ્ઠી રત્ન તથા મદન દ્વારા (અમ્બિકાના પ્રસાદથી) મળેલ નૂતન બિંબની પ્રતિષ્ઠા (ઈ. સ. ૯૩૪), તથા સજજન મંત્રી દ્વારા પુનર્ધારિત (ઈ. સ. ૧૧૨૯) નેમિનાથના પુરાણપ્રસિદ્ધ મૂળ મંદિર અતિરિક્ત (મંત્રી તેજપાલકારિત) “કલ્યાણત્રય” જિનાલય (આ. ઈ. સ. ૧૨૩૪), (દેપાલ મંત્રી કારિત) દેવેન્દ્ર મડ઼૫ (ઈ. સ. ૧૨૩૨) અને સમી પવતી રહેલ પુનિત પ્રાચીન ગજેન્દ્રપાદકુડ, સચિવેશ્વર વસ્તુપાલે કરાવેલ સમેતશિલ અને અષ્ટાપદની રચના સહિત આદિનાથને “વસ્તુપાલ વિહાર” (ઈ.સ. ૧૨૩૨), રાજીમતિની ગુફા, અમ્બાશિખરસ્થિત ગિરનાર-અધિષ્ઠાત્રી યક્ષ અમ્બિકા, અને અમ્બા શિખર પછીનાં અવલોકનાદિ શિખરો, સહસ્ત્રસહકારવન (સહસ્સામ્રવન, સેસાવન), તેમ જ લાખારામ એમ તે સ્થાને માં પ્રતિષ્ઠિત નેમિજિનની ચરણ–પાદુકાઓને વંદન દઈ, સ્તોત્રની સમાપ્તિ કરી છે. સ્તોત્રકારને આ રચના બે અનિવાર્ય મર્યાદાઓ વચ્ચે રહીને કરવી પડી છે. એમનું ધ્યેય એને ચૈત્યપરિપાટી રૂપે રજૂ કરવાનું હોઈ તેમાં પૌરાણિક-ઐતિહાસિક વ્યક્તિઓનાં, તેમ જ તીર્થાશ્રિત મન્દિરાદિ રચનાઓનાં વિશેષ નામે છેડી શકાય તેમ નહોતું. વસ્તુતયા તેની પ્રધાનતા રહે છે. બીજી બાજુ તેઓ મધ્યયુગના મુખ્ય ભાગની સમાપ્તિ પશ્ચાત થયા છે. આથી એમનું કવિતા-સામર્થ્ય અને ભાષાનું આભિજાત્ય અગાઉના કર્તાઓ જેવું હોવાને સંભવ ઓછો છે; અને છતાંય જ્ઞાનચન્દ્ર આ બને મર્યાદાઓ પાર કરી સ્તોત્રને એક સફળ સજન રૂપે ઘડી શકયા છે. સાધારણતયા કવિતામાં વિવિધ વર્ણ યુક્ત વિશેષનામોની ઉપસ્થિતિ એને આકારને અસુષ્ક બનાવે છે; અને પશ્ચાત કાળની કૃતિઓમાં સામાન્યતઃ ગિરાવૈભવ અને કલ્પકતાને સાવ અભાવ નહીં તોયે એકંદર સંગુષ્કનમાં ઘણી વાર અદેદરાપણું વરતાય છે; જ્યારે અહીં તે સારુંયે સ્તોત્ર સુલલિત પદાવલિથી સુશૃંખલ બની ઋજગતિએ વહેતું લાગે છે; ને સાથે જ પદોમાં ચાતુરી અને સુરુચિ સમતોલ પ્રમાણમાં વણાયેલાં રખાય છે. તો બીજી બાજ અલંકારને અકારણ પ્રોગ, વસ્તુ-નિરૂપણમાં વૃથા વિસ્તાર કે હાશિયારીનાં પ્રદર્શનથી મુક્ત રહ્યાં છે. સમગ્ર રચના આથી અથપૂર્ણ બનવા ઉપરાંત સુચારુ, ભાવવાહી, સુઘટિત અને વ્યવસ્થિત બની શકી છે. આટલા ગુણ ધરાવતી હોવા છતાં એને અસાધારણ રચના તે કહી શકાય નહીં; તોપણ તે સરસ અને કર્ણ પેશલ જરૂર બની છે. ચૌદમા શતકમાં થયેલા કવિ જ્ઞાનચન્દ્રની કાવ્યસૂઝ અને આવડત વિશે પ્રસ્તુત સ્તોત્રથી સહેજે જ ઊચો ખયાલ બંધાય છે; અને તેમની આ કાવ્યકતિ ઉત્તર મધ્યકાળના પ્રારંભની ઉત્તમ જૈન સ્તકાત્મક રચનાઓમાં સ્થાન લઈ શકે તેમ છે. પાદટીપો ૧. મુનિરાજ શ્રી જયન્તવિજયજી, શ્રી અબ્દ-પ્રાચીન-જન-લેખસંદેહ, (આબૂ-ભાગ બીજે), શ્રી વિજયધર્મસૂરિ જૈન ગ્રંથમાળા, પૃ.૪૦, ઉજજૈન વિ. સં. ૧૯૯૪ ઈ. સ. ૧૯૩૮, લેખાંક ૧, પૃ. ૭. ૨. મોહનલાલ દલીચંદ દેશાઈ, જૈન સાહિત્યને સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ, મુંબઈ ૧૯૩૨, કંડિકા ૬૪૨, પૃ. ૪૩૭. ૩. રાજશેખર સૂરિના પ્રબન્ધકોશની મિતિ સં. ૧૪૦૫ ઈ. સ. ૧૩૪૯ છે; અને તેમણે મુનિભદ્રનું સંશોધન સં. ૧૪૧૦ ઈ. સ. ૧૩૫૪માં કર્યું છે. (દેશાઈ એજન). આથી પૌણિમાગછના સમકાલિક જ્ઞાનચન્દ્રને પણ એ જ સરાસરી સમય ગણાય. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरैवतगिरितीर्थ-स्तोत्रम् सौराष्ट्र-राष्ट्र-वसुधा-वनिता-किरीट ____ कल्पोजयन्तगिरि-मौलि-मणीयमान । नेमीश्वर जिनवर प्रयतः प्रणौमि सौभाग्य-सौरभ-सुभावित-विश्वविश्वम् ।।१।। स्वामिन् स्मर प्रसरथ स्मरकान्धकार प्रत्यूष भास्कर सुरासुर-सेव्यपादः । श्रीरैवताचल सदोदित विश्वदीप ज्जयोर्तिमय प्रशमयामयम तरं नः ॥२॥ दुःकर्म शर्म मिदुर गलित ममाद्य प्रोद्यन्मनोरथ-तरुः फलितश्च सद्यः । मानुष्य-जन्मदुरवाप्यमभूत्कृतार्थ यल्लाघवी क्षणपथ त्वमुपागतोसि ॥३॥ श्रीनेमि-निष्क्रमण-केवल-मोक्षरूप __कल्याण[क]त्रय-पवित्रित-भूमिभागं । तीर्थाधिराजमभिषिंचतियत्तडित्वात् तत्सर्पि गर्जित महोर्जित तूर्य रायः ॥४॥ राजीमती बल सनातन सौख्यलक्ष्मी । सांगत्य गौरवमहो! गभिता जितेश । विश्वत्रयी प्रभवता भवता तथापि त्यक्ते त्यजायत मुधैव जनः प्रघोषः ॥५॥ पद्यामीवाद्य दलिती किल सिद्धिसौध सोपान-पद्धतिमिवेहसदाधिरोहन् । भव्या जनः स्मरति वाग्भटदेवम त्रि राजन्य नेमि जिन यात्रक धर्मबन्धाः ॥६॥ आतीय कांचनबलानक तोऽम्बिकाया ___ स्तोष्येन रत्नमयबिंबमनयमेतत् । रत्नः पुरोहित निवेशितमुद्दधार तीर्थ भवाब्धि-पतयालुमिवजीवम् ॥७॥ चैत्यं चिरंतनमिदमदनोद्दधार ___ श्रीसज्जनः सुकृतसज्जनसज्जधयः । सौवर्ण-कुभ-मणि-तोरण-रत्नदीप यदैवताद्रि-कटके पटकायतीव ॥८॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૧૬ જ્ઞાનચકૃત સંસ્કૃતભાષા-નિષ્ઠદ્ધ શ્રીરૈવતતી સ્તા” रत्नानि तान्यपि चतुर्दश यत्पुरस्ता नूनंजरा तृणमुलापति न स्पृशति । विश्वैरत्न भवता तवतात्मजेन मन्ये समुद्रविजयेन जितः समुद्रः ||९|| माहात्म्यस्य भणितुं भुवनातिशायि श्रीवतस्य न तु वाधिपः किमीशः । नेमीश्वरस्य विजिनांतर वैरिणोपि प्रेयानभूत् समवसृत्यणुबंधतो यः ॥१०॥ कल्याणकत्रयजिनालय भूत्रयेपि नेमिं नमामिं चतुराननम' जनाभ । देवेन्द्रमण्डप जिनानथ दिव्य कुण्ड दौर्गत्यतापमलहारि गजेन्द्रपाद ॥११॥ शत्रुञ्जयाभिध गिरीश कृतावतार' श्रीवस्तुपालसचिवेशविहारसार । सम्मेतचैत्य भवनेन युगादिदेव मष्टापदेन च निविष्टमह' नमामि ॥ १२ ॥ राजीमती किल स निर्झर कन्दराया मणि नेम-विरहादिवशो चयन्ती । अम्बेव यात्रकजने दुरिता पहन्त्री दिव्यांका जयति कामित - कामधेनु ॥ १३ ॥ asardaशखरे तमरिष्टनेमि वैषम्यमाक् शिखरशेखरतामितौ तौ । प्रद्युम्न शाम्ब मुनिकेवलिनो दिशंता चैर्महोदयपदं तु यथा तथेति ॥१४॥ श्रीमान् सहस्र सहकारवनेन लक्षा - रामेण नेमिपदपंकज - पावितेन । तीर्थात्मकः शुचिरयां क्षितिभृत्समन्तात् जीयान्निशास्वपि सदोषधिदीपदीप्तः || १५॥ ज्ञानेन्दु रुग्विदित वैद्यसुरेन्द्र वन्य विश्वाभिनद्य यदुनंदन सम्मदेत । स्तोत्रं पठन्निदमनन्यमनाः सुतीर्थ यात्राफल शुभमतिर्लभते स्थितोऽपि ॥१६॥ इति श्री गिरनारचैत्य परिपाटीस्तवनम् विहितं श्रीज्ञानचंद्रसूरिभिः || Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીવિજયચંદ્રસૂરિવિરચિત “શ્રીરૈવતાચલ ચિત્યપરિપાટી સ્તવન” સં. પં. બાબુભાઈ સવચંદ શાહ શ્રી વિજયચન્દ્રસૂરિ વિરચિત પ્રસ્તુત રેવતાચલત્યપરિપાટી સંસ્કૃત ભાષામાં અને રોચક શૈલીમાં રચાયેલ છે. તેમાં ઉજજ્યન્તગિરિ, જિન નેમિનાથનાં ત્યાં થયેલાં કલ્યાણકે, તેમ જ અંબિકાદેવી અને શાંબ-પ્રદ્યુમ્નશિખર આદિ ગિરિસ્થ તીર્થો ૨૧ પદ્યોમાં વર્ણિત છે. ૨૦ પદ્યો વસંતતિલકામાં નિબધ્ધ છે જ્યારે આખરી પદ્યમાં છન્દભેદ બતાવવા અધૂરાને પ્રયોગ કર્યો છે. સાંપ્રત કૃતિનું સંપાદન લાલભાઈ દલપતભાઈ ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિર (અમદાવાદ)ના જ્ઞાનભંડારમાં રહેલ પ્રતિ નંબર ૨૮૪૧/૭ ઉપરથી કરવામાં આવેલ છે. પ્રતિનું પરિમાણ ૨૬.૫ ૪ ૧૧.૫ સેન્ટીમીટર છે. પ્રતિને લેખન સમય વિક્રમ સંવત ૧૪૭૩/ઈ. સ. ૧૪૧૭ છે. સુવાચ્ય અક્ષરે લખાયેલી આ પ્રતિ પ્રાયઃ શુદ્ધ છે. પાઠતુલના અથે આ જ ભંડારની બીજી ૮૬ ૦૧ નંબરની પ્રતિને ઉપયોગ કર્યો છે, જેનું પરિમાણ ૨૪ x ૯.૯ સેન્ટીમીટર છે અને લીપી–સમય વિક્રમને સોળમો રોકે છે. પ્રથમ પ્રતિ વિ. સં. ૧૪૭૩ (ઈ. સ. ૧૪૧૭)માં લખાયેલી હેઈ આ રચના તે વર્ષ પૂર્વની નિશ્ચિત થાય છે. આ સિવાય આ રચનામાં તેજપાળ મંત્રીએ વસાવેલ તેજલપુર (જીર્ણદુગ કિવા ઉપરકેટ નીચેના શહેર) તથા તેમાં રહેલ મંત્રી કારિત પાર્શ્વનાથ મંદિરને, તેમ જ ગિરનાર પર મંત્રીશ્વર વસ્તુપાળે કરાવેલ શત્રુજયાવતાર એવં અષ્ટાપદાદિ મંદિરને ઉલેખ હેઈ સાંપ્રત કૃતિ ઈ. સ. ૧૨૩૨ બાદ જ બની હેવી ધટે. આથી પણ સૂક્ષ્મતર કાળનિર્ણય માટે એક બીજો મુદ્દો પણ છે. “શ્રી શત્રુંજય મહાતીર્થત્યપરિપાટિકા” અપનામ “શ્રી પુંડરિક શિખરી તૈત્ર”; જો કે તેમાં કર્તાનું નામ નથી આપ્યું છતાં વનિ, સંધટન તથા આકાર-પ્રકારમાં આને ખૂબ જ મળતી આવતી રચના છે. પ્રસ્તુત કૃતિને રચનાકાળ પ્રા. મધુસૂદન ઢાંકીએ ઈ. સ. ૧૩૦૫ અને ૧૩૨૦ વચ્ચે હોવાને નિર્ણય કર્યો છે. પ્રસ્તુત બને કૃતિઓ એકકક હેવાને પૂરે સંભવ હેઈ, તેમ જ બન્ને એક જ પ્રતિમાં ઉપલબ્ધ થઈ હેઈ, સાંપ્રત રચનાને ઈસ્વીસનના ચોદમા શતકના પ્રથમ ચરણમાં મૂકવામાં કોઈ આપત્તિ નથી. રચયિતાએ પિતાના ગ૭ કે ગુર્વાદિક વિશે કશું કહ્યું નથી, પરિપાટીને અંતે ૨૧મા શ્લોકમાં “સેચઃ સૌ તમોષિત વનો ?િ આ પ્રમાણે કર્તાએ પોતાના નામનો ઉલલેખ શ્લેષપૂર્વક કરેલ હેવાથી કર્તાનું નામ “વિજયચન્દ્રસૂરિ” હેવાનું નિશ્ચિત થાય છે. વિજયચન્દ્ર” નામવાળા ચારેક સૂરિઓ મયકાળમાં થઈ ગયા છે. સમયની દષ્ટિએ એ સૌ સાંપ્રત કૃતિના સંભાવ્ય કાળથી ઠીક ઠીક પૂર્વે થઈ ગયા હોઈ આ સ્તોત્રના કર્તા કઈ અઘાવધિ અજ્ઞાત વિજયચન્દ્ર જણાય છે. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૧૮ શ્રીવિજયચંદ્રરિવિરચિત ભાષાતર ૧. રામતીના મનરૂપી સરેવરમાં રાજહંસ સમાન, યાદવકુળના શણગાર નેમિ જિનેશ્વરે પિતાના ચરણકમળથી જે ગિરિરાજને અલંકૃત કર્યો છે, તે રૈવતગિરિની હું સ્તુતિ કરું છું. ૨. તેજલપુર (હાલનું જૂનાગઢ) મુકુટસમાન શ્રી પાર્શ્વનાથ તથા ખેંગારદુર્ગ (ઉપરકોટ, અસલી જૂનાગઢ)ના તિલકસમાન વૃષભ આદિ જિનેશ્વરે જેની તળેટીમાં નિર્મળ પુણ્યને પુષ્ટ કરે છે તે ઉજજયન્તગિરિ વિજય પામો. ૩. બે જન ઊંચા જેના શિખર ઉપર આકાશને સ્પર્શ કરતી, ચન્દ્ર સમાન ઉજજવળ જિન મંદિરની શ્રેણિ એકઠા કરેલા પુણ્યરાશિની જેમ શોભે છે. ૪. જ્યાં સુવર્ણના દડકલશ અને આમલસાર વડે શ્રેષ્ઠ ઉ¢ગ નેમિનાથનું મંદિર દેવાંગનાઓ અને વિદ્યાધરીઓને હર્ષ પ્રમાડે છે. ૫. જ્યાં પ્રાણુઓ વડે નમસ્કાર કરાયેલી પ્રભુની પાદુકા નખના અગ્ર ભાગ વડે પાપના સમૂહને દૂર કરીને કપાળરૂપી ફલકમાં પુણ્યને અંકિત કરે છે. ૬. ત્રણે લેકના લોચનને લોભાવનાર નેમિજિનેશ્વરનું જ્યાં દર્શન થવાથી ચિત્ત પ્રસન્ન થાય છે અને દુઃખને સમૂહ દૂર થાય છે. ૭. વિશાળ રાજ્યને જીણું તૃણની જેમ તજીને પિતાના વિરહના દુઃખથી વ્યાકુળ એવા પણ બંધુજનેને ત્યાગ કરીને ત્રણ ભુવનને અભયદાન આપનારી દીક્ષા નેમિ પ્રભુએ જ્યાં સ્વીકારી છે. ૮. લોક અને અલોકને પ્રકાશિત કરવાના સ્વભાવવાળું તથા જગતના જીવને આનંદિત કરવામાં નવા મેઘ (પહેલી વર્ષા) સમાન કેવળજ્ઞાન નેમિનાથ ભગવાને જ્યાં પ્રાપ્ત કર્યું. ૯. જ્યાં પાંચસો છત્રીસ મુનિવરો સાથે એક માસનું અનશન કરી નેમિનાથ પ્રભુ મોક્ષરૂપી અદ્દભુત સ્થાનને પામ્યા. ૧૦, જિનેશ્વરનાં બિબોથી ભરેલા વાસવશંડપ (ઇન્દ્રમંડ૫)માં રહેલા નેમિનાથના સ્નાત્રમeત્સવમાં તત્પર બનેલા ભવ્ય પ્રાણીઓ જ્યાં હજાર નેત્રવાળા હોય તેમ આનંદિત બને છે. ૧૧. સઘળી નદીઓનું જ્યાં આગમન થયું હોય તે, હંમેશાં અમૃત સમાન પાણી વડે રમ્ય, ગજેન્દ્ર પદ નામને કંડ શોભે છે. ૧૨. અષ્ટાપદાવતાર વિગેરે શ્રીવાસ્તુપાલકારિત પ્રશંસનીય મંદિર (સમૂહ)માં જ્યાં પ્રથમ જિનેશ્વર બિરાજમાન છે. ૧૩. સિંહના આસન પર બેઠેલી, ઉત્તમ સુવર્ણ સમાન કાન્તિયુક્ત શરીરવાળી નેમિનાથના ચરણ કમલમાં ભમરી સમાન આચરણ કરનારી અંબિકાદેવી જ્યાં સંઘની રક્ષા કરે છે, ૧૪. નેમિજિનેશ્વરના ચરણકમળથી પવિત્ર બનેલ અવલેકન શિખરને જ્યાં જઈને ભવ્ય છે પિતાનાં નેત્રોને કૃતકૃત્ય બનાવે છે. ૧૫. જાંબુવતીના ઉદરરૂપી કંદરામાં સિંહના બાળક સમાન શાંબે જ્યાં તારૂપી તીક્ષણ નો વડે સંસારરૂપી હસ્તીના કુંભાસ્થળને ભેદીને મુક્તિસુખ (મેતી સમાન નિર્મળ સુખ) પ્રાપ્ત કર્યું. ૧૬. સિદ્ધિરૂપી સ્ત્રીમાં આસક્ત હૃદયવાળા રુકિમણીના પુત્ર (પઘુને) (મુનિ પદ પામ્યા પછી જેના શિખર ઉપર આત્માને નિર્મળ કરનાર તપશ્ચર્યા કરી મુક્તિસુખ પ્રાપ્ત કર્યું. ૧૭. તેજસ્વી દીપકની જયોત સરખી અનેક ઔષધીઓના સમુદાય જ્યાં શોભે છે તથા “ધંટાક્ષરા' નામની તાપને દૂર કરનારી શિલાથી જે પર્વત શોભી રહ્યો છે. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ. પં. બાબુભાઈ સવચંદ શાહ ૧૧૯ ૧૮. ઉત્તમ પલ રૂપી વસ્ત્રો પરિધાન કરતી હોય તેવી, વેતપુપરૂપી ચંદન વડે વિલેપન કરાયેલી, સુંદર ફળો વડે અલંકૃત બનેલી વનશ્રી જ્યાં પ્રાણીઓના મનને આનંદિત કરે છે. ૧૯. સહસ્ત્રાપ્રવન (સહસાવન, સેસાવન), લક્ષવન” (લા ખાવન) આ દિને વૃક્ષ-સમુદાય કેયેલોના મધુર નાદ વડે જાણે ભવ્ય જીવોનું જ્યાં સ્વાગત કરી રહ્યો છે. ૨૦. જ્યાં સ્નાત્ર, વિલેપન, ઉત્તમ પૂજા, દાન, તપ વિગેરે કરાયેલાં સઘળાં કાર્યો મોક્ષસુખનાં કારણ ભૂત બને છે. ૨૧. આ પ્રમાણે રેવતાચળના શિખરને શોભાવવામાં ચૂડામણિ સમાન, વિશ્વરૂપી કમળને વિકસાવ વામાં વાસરમણિ (સૂર્યકાન્ત મણિ) સમાન, ઐક્યનાં વંછિતને પૂર્ણ કરવામાં ચિંતામણિ સમાન, અંધકારને “વિજય” કરવામાં “ચંદ્ર” તુલ્ય “સૂરિ વડે સ્તવાયેલા જગતના સ્વામી શ્રી નેમિનાથ પ્રભુ મારા દુષ્ટ અષ્ટકમના ઉછેર માટે (કારણભૂત) થાઓ. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरैवताचलचैत्यपरिपाटीस्तवनम् राजीमतीयुवतिमानसराजह सः यादवप्रथितव शशिरोवतंसः । नेमिनिजाहिकमलैयं मल'चकार श्रीरैवतं गिरिपतिं तमहं स्तवीमि ॥१॥ पार्श्वः स तेजलपुरकशिरः किरीटः । खङ्गारदुर्गतिलका वृषभादिदेवाः । पुष्णन्ति पुण्यममल यदुपत्यकायां श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥२॥ अभ्र लिहा जिनगृहावलिरिन्दुशुभ्रा शृङ्ग यदीय इह योजनयुग्मतुगे । पिण्डीकृतः सुकृतराशिरिष भाति श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥३॥ सौवर्णदण्डकलसामलसारसारम् श्रीनेमिमन्दिररमुदारमुद विधत्ते । यस्योपरि त्रिदशखेचरसुन्दरीणाम् श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुजयन्तः ॥४॥ यत्राङ्गिभिः कृतनुतिः प्रभुपादुकेयम् सन्तक्ष्य पापपटल नखकीटिटकैः । पुण्यानि भालफलकेषु समुत्करोति श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥५॥ लोकथलोकशुचिलोचनलोभनीये नेमीश्वरे जिनवरे किल यत्र दृष्टे । चेतः प्रसीदति विषीदति दुःखराशिः श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्ज्यन्तः ॥६॥ प्राज्य' जरत्तृणमिव प्रविहाय राज्यम् । बन्धून् विधूय विधारानपि यत्र नेमिः । दीक्षां श्रितस्त्रिभुवनाभयदानदक्षाम् श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥७॥ श्रीनेमिनो भगवतोऽजनि यत्र लोकाs लोकावलोकनकलाकलितस्वभावम् । ज्योतिर्जगज्जनवनीनवनीरदाभम् श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥८॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ'. ૫. ખાજુભાઈ સવચંદ શાહ पत्रिंशदभ्यधिकया मुनिपञ्चशत्या नेमिर्निषन्नवपुषाऽनशितच भासम् । यस्मिन् जगाम शिवमद्भुतधाम धाम श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ ९॥ श्रीजैनबिम्बभृतवासवमण्डपस्थाः श्रीने मिमज्जनमहोत्सवबद्धकक्षाः । यस्मिन् सहस्रनयना भविनो भवन्ति श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुन्जयन्तः ॥ १० ॥ यत्रावतार इव सर्व सरस्वतीनाम् रम्य सदैव सलिलैरमृतायमानैः । कुण्ड' विराजति गजेन्द्र पदाभिधानम् श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ ११॥ अष्टापदप्रभृतिकीर्त्तनकीर्त्तनीये श्रीवस्तुपालसचिवाधिपतेर्विहारे । यत्र स्वयं निवसति प्रथमा जिनेन्द्रः श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ १२॥ सिंहासनावर सुवर्ण - सुवर्णदेहा पुष्पन्धयी पदपयोरुहि नेमिभर्तुः यत्राका वितनुते किल सङ्घरक्षाम् श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ १३॥ शैवेयदेवपदपङ्गकजसङ्गचङ्गम् शृङ्ग' विलोक्य भविका अवलोकनाख्यम् । यस्मिन् नजानि नयनानि कृतार्थयन्ति श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ १४॥ श्री जाम्बुवत्युदरकन्दरसिंहपोतः शापः सितखैर्भवकुम्भिकुम्भम् । यस्मिन् बभञ्जकिल मौक्तिक लाभ हेतोः श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुजयन्तः ॥ १५॥ श्रीरुक्मिणीसुतमुनिः शिखरे यदीये तेपे तपांसि सुभगंकरणानि कायम् । सम्बन्धबद्धहृदयः किल सिद्धवध्वाम् श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ १६॥ ૧૧ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨૨ दीपप्रदीपकलिका इव यत्र नित्यम् नानाविधौषधिगणा रजनौ ज्वलन्ति । घण्टाक्षरा तपनिवारशिलैकशाली सत्पल्लवैर्निवसितेव सितप्रसूनैः लिप्तेव सत्फलभरैः समलङ्कृतेव यस्मिन् मनांसि रमयत्यनिशं वनश्रीः श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ १७॥ શ્રીવિજયચંદ્રસૂરિવિરચિત શ્રીરૈવતાચલ ચૈત્યપરિપાટી સ્તવન यस्मिन् सहस्रवन-लक्षवनद्रुमौघः पुंस्कोकिलप्रियतमा कलनाददम्भात् । सुस्वागतानि कि पृच्छति भव्यलोकम् श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ १८ ॥ स्नान' विलेपनमुदारतरा च पूजा श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ १९ ॥ ब जायेत यत्र विहितं शिवसौख्यहेतोः ब दान' तपः प्रभृति शेषमशेषकृत्यम् । १.१ ० मनासराजहनाः २.१ शिरु कीरीट २.३ पूर्णति... यदुपत्तिकायां ब ब इत्येव विधtवताच शिरःशृङ्गारचूडामणि विश्वाम्भोज विकासवासरमणि त्रैलोक्यचिन्तामणिः । सेव्यः सैष तमोवितानविजये चन्द्रोपमैः सूरिभिः श्रीर्जिगतां विभुर्भवतु मे दुष्टाष्टकम् छिदे ॥ २१ ॥ પાડાંતા ३. १ ० रिन्द्रशुभ्रा ५. १ ० कृतनतिः ५. २ समत्करोति ९.१ षटूत्रिंशताभ्यधिकया ९. २ ० निषिन्न... नशतश्च श्रीमानसौ विजयतां गिरिरुज्जयन्तः ॥ २० ॥ अ ब अ ब १०. १ ० मण्डपस्थां ब १३.२ पुप्फधयी... पयोरुह० १५.१ श्रीजांबव० ब ब १५.२ ० तपः शत० १६.३ संबद्धबद्ध... सिद्धवध्यो १७.१ दीपप्रदीप० १७.३ ०कसाली अ ब अ अ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જયતિલકસૂરિ વિરચિત “શ્રી ગિરનાર ચિત્ય પ્રવાડી" સં. (સ્વ) અગરચંદ નાહટા-મધુસૂદન ઢાંકી ૩૬ કડીમાં ગૂર્જરભાષા-નિબદ્ધ સંપ્રતિ રચના બહ૬ તપાગચ્છીય રત્નાકરસૂરિની પરંપરામાં થઈ ગયેલા જયતિલકસૂરિની છે. એમણે સં. ૧૪૫૬/ઈ. સ. ૧૪૦૦માં અનુયાગદ્વાર-ચૂર્ણને ઉદ્ધાર કર્યો હોવાનું જાણમાં છે; અને એમના શિષ્ય રત્નસિંહસૂરિના શિષ્ય ચારિત્રસુંદરગણિએ ૧૪૮૭/ ઈ. સ. ૧૪૩૧માં શીલદૂત કાવ્ય રચ્યું છે. એમના ઉપદેશથી ખંભાતના શ્રીમાલી સંધપતિ હરપતિએ સં. ૧૪૪૯ ઈ. સ. ૧૩૯૩માં ગિરનારની યાત્રા કરી ત્યાં નેમિનાથના મંદિરને દુરસ્ત કરાવેલું. આ હકીકતને લક્ષમાં લેતાં અહીં તેમની પ્રસ્તુત થઈ રહેલી “ગિરનાર ચૈત્ય પ્રવાહીને પંદરમાં શતકના પ્રારંભ આસપાસ મૂકવામાં હરકત જેવું નથી. વધુમાં આ કૃતિમાં ગિરનાર પર પંદરમાં શતકમાં નિર્માયેલાં મંદિરે ઉલ્લેખ નથી. આ તથ્ય, અને કૃતિનાં ભાષા–લક્ષણે ઉપર્યુક્ત સમયાંકનને સમર્થન આપી રહે છે. તદુપરાંત રત્નસિંહસૂરિશિષ્ય (નામ અજ્ઞાત) રચેલી “ગિરનાર તીર્થમાલા” (ઈ. સ. ૧૪૫૩ બાદ)થી આ રચના બે પેઢી અગાઉ થયેલી છે અને સ્પષ્ટતયા પ્રાચીન છે. સંભવ તે એ છે કે શ્રેષ્ઠિ હરપતિની ગિરનારતીર્થની સંધયાત્રા સમયે, એટલે કે ઈ. સ. ૧૩૯૩માં આની ચના થઈ હેય. પ્રારંભની પાંચ કડીઓમાં કાવ્યસુલભ સામાન્ય વર્ણન બાદ પરિપાટીકાર તીર્થવદના પ્રારંભ કરે છે. પહેલાં તે (મંત્રી તેજપાળે વસાવેલ તે જલપુર, હાલના ઉપરકેટ નીચેના જૂનાગઢની) તેજલવસહી (તેજપાલ વસતી)ના પાર્શ્વનાથને નમી, તે પછી “જીરણગઢ' (જીર્ણદુર્ગ, જૂનાગઢ એટલે કે ઉપરકેટ)ના મુખમંડન આદીશ્વર તથા વીરના ધામમાં પ્રણામ કરી, સોનરેખ, દામોદર અને ક્ષેત્રપાલ (કાલમેઘ) જોઈ, (તળેટીની) વનરાઈ પાસે પહોંચી ત્યાંથી પાજ ચડતાં ક્રમશઃ ચાર પર વટાવી, પાજનું નિર્માણ કરાવનાર બાહડ મેહતા (મહત્તમ વાગભટ્ટ)ને ધન્યવાદ દઈ, દેવકીટની પિળમાં યાત્રીકવિ પ્રવેશે છે. ત્યાંથી આગળ તીર્થાધિપતિ જિન અરિષ્ટનેમિના ત્રણ ધારવાળા મંદિરમાં નમસ્કાર કરી, બહેતર દેવકુલિકાઓમાં પ્રણમી, (ત્યાં દક્ષિણ દ્વારમાં રહેલ) અપાપામઢીમાં રહેલ આઠ તીર્થ. કરેને પ્રણામ કરી, ત્યાર પછી કલ્યાણત્રય જિનાલયમાં રહેલ નેમિનાથને નમી, આગળ ચન્દ્રગુફા જોઈ, નાગમર-ઝરા સમીપ ગજેન્દ્રપદ કુંડમાં પ્રક્ષાલન કરી, ઈન્દ્રમડપ થઈ ત્યાંથી પાછા વળીને નેમિનાથના મંદિર–સમુદાય પાછળ રહેલ) શત્રુંજયાવતાર તથા સમેતશિખર અને અષ્ટાપદના દેવે (જિન)ને વંદી (તેની પાછળ આવી રહેલ) કર્પદી યક્ષ ને મરુદેવીનાં મંદિરોમાં નમસ્કાર કરી ઉપર રાજુલ-રથનેમિની ગુફામાં થઈ, ઘંટાક્ષર, છત્રશિલા થઈ અને સહસ્સામ્રવન (સાવન)માં ઉતરી પછી અમ્બિકા, સાબુ, પ્રદ્યુમ્ન અવલોકન શિખર જઈ પ્રણામ કરે છે. ત્યાં (પ્રદ્યુમ્ન શિખરે) (દંતકથાનું) “કંચનબાલક” હેવાને ઉલ્લેખ કરી સિદ્ધિવિનાયકની પોળમાં પ્રણમે છે. તે પછી સહસ્ત્રબિંદુએ ગંગાજળ જોઈ ફરી નેમિનાથના મૂળ મંદિર તરફ વળે છે, અને યાત્રા-સાફલ્યને આનંદ વ્યક્ત કરે છે. ૩૫મી કડીમાં ર્તા રૂપે જયતિલકસૂરિનું નામ આવે છે. | ગિરનારતીર્થ સંબદ્ધ જૂની ગુજરાતીમાં લખાયેલી ઉપલબ્ધ રચનાઓમાં આ સૌથી પુરાતન જણાય છે. તેનું સંપાદન અહીં લાલભાઈ દલપતભાઈ ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિરની પ્રત ૮૬૦૧ પૃ. ૧૨ થી ૧૩, તેમ જ પ્રથમ સંપાદક પાસેના એક જૂના ઉતારા પરથી અહીં કરેલ છે. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગિરનાર ચૈત્યપ્રવાહી સરસતિ વરસતિ અમીય જ વાણી હદયકમલિ અભિતરિ આણી જાણીય કવીયણિ છંદ–૧ ગિરનાર ગિરિવરણ જ કેરી ચેન્નપ્રવાડિ કરઉ નવેરી Vરીય પરમાણુંદો–૨ ફૂરિથીયા જઉ ડુંગર દીઠG નયણ-જુયેલ અમીય ઘણુ લૂઠ6 ફીટ ભવદ-દાહ–૩ ઝીંઝરીયાનક કેટ જવ ઉલિક મણે જનમનું સફલઉ ઉલિ@(?) કહુલિઉ મન ઉછાહ-૪ કુંઅર શેવર તણીય જ પાલિઈ મન રંજિલ તરૂઅરડિ માલિઈ ટાલઈ દુહ સંતાપ-૫ અમૃત સરીખી આવઈ લહિર જ જાણે પુણ્યતણી એ મુહુર જ દુહર ગિયા જયા પાપ-૬ તેજલવસહીય પાસ નમિનું તું આઘા સવિ કાજ કરેસિલું લેસુફ પુશ્યપભા-૭ જીરણગઢ મુખમંડણ સામી આદીસરૂ પય સીસ જ ગામી ધામય પ્રણમઉ તીર-૮ આગલિ નય૭ઈ સેવનરેખી દામોદર તસ તરહ દેખી આખી ક્ષેત્રપાલે-૯ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અગરચંદ નાહટા-મધુસૂદન ઢાંકી આંખા રાયણ તણીય વનરાજી જાણે આવિઉ જલહેર ગાછ ભાજીય ગિઉ દુાલેા—૧૦ મન રંગિ જઉ ચડીય પાજ નિશ્ર્વ સરીયાં અમ્હે કાજ રાજ-પાહિં અણુતા—૧૧ પ્રીય ભણુઈ, દુખિ જઈય તિહાં અઈ નિરંતર સીયલી છાડાં ખાડાં મ મેલ્ડિંસિ કંતા—૧૨ ઇક્રિ વીસમઈ ઇકિ આઘા જાઈ કિ મનરંગ વાયત્ર વાઇ ઈક ગાય” તીડાં ગીતા-૧૩ પઢુિલી પરવઇ લેઈ વીસામઉ ખીજી ઊપરિ વિઠ્ઠલા ધામ જિમ પાસુ ભવ-અંતા—૧૪ આગલિ....છઈ માર્કેડે પગથાહર તીચ્છે અતિ સાકડ કાઈ કડિંકર રઈજ હાથે—૧૫ ધન ધન તુ માહડદે મુહતા મા ........ સહુ’તા જાતા સંઘહુ સાથેા--૧૬ ત્રિહુ શિલા ત્રીજી પર્વ ભણીઈ ચઉથી સૂતકકારણ સુણીય હણી ....રા ૧૭ - તુ પામી મઇ પાલિ જ પઢુિલી પુણ્યકાજિ જે અચ્છઈ સઈલી હલીસક દ્વિક સારા—૧૮ દેઅલ દેખી મનિ ગહુમહીય' સહુ કચ્ચું જ માગિ સહીયેં રહીય’ પાપ અસેસે—૧૯ ૧૨૫ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨૬ જ્યતિલકસૂરિ વિરચિત ગિરનાર ચિત્રપ્રવાહી તિરિ પાહિણ દેઈ ત્રિવાર માહિ જઈ નેમીસ જુહારઈ સારઈ કાજ સવેસે–૨૦ ન્ડવણ પૂજયીય વંદણ સારી બહત્તરિ દેહેરે જિણહ જુહારી હારી તે દ્વિ ન જન્મ-૨૧ અપાપામઢિ આઠ તીર્થકર ગઈ ચકવીસી બલઈ મણિવર - સુરવર કરય પ્રણ –૨૨ કલ્યાણત્રય નેમિ નમેટૂ ચંદ્રગ્રહ વેગિઈ જાએસિ કરીસુ સફલા પા –૨૩ નાગરિ ઝિરિ આગલિ કુંડ જ ગચંદમઈ પક્ષાલઉ પિંડ જ ઈંદ્રમંડપ સે ચંગ–૨૪ ઊજલગિરિ સેત્તજ અવતરી આદિરિણસર અ૩િ અણસરીલ દરીયં હરફ અસેસે-૨૫ સમેતિસિહરિ અષ્ટાપદિ દેવા વાંદઉ કવડિજલ મરુદેવા રાજલિ – રહનમીસે-૨૬, ઘંટાક્ષર છત્રશિલા વખાણું અંબસહસ પ્રભુ દીક્ષા જોણું નાણ હવે તસ ખે–૨૭ બિહુ બેટ્ટસિઈ અધિકમાતા સાંબ–પજૂન અવલેણા જાતાં વલતા પ્રણમ્ સુખ–૨૮ તિહં અછઈ કંચન-બલાણું સિદ્ધિ–વણયગ પિલિ વખાણું જાણું પ્રણમ્ નિ –૨૯ - Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અગરચંદ નાહટા-મધુસૂદન ઢાંકી સહસ્રમિંદ ગંગાજલ જોઈ પ્રભુ નેમીસરુ દેહ જ ધાઈ જે ય હુઈ સુપવિતા—૩૦ *મિ ક્રમિ ચેત્રપ્રવાડિ જ કીધી મય-જનમ ઊગારિ જ લીધી સીધીય સઘલી ય વાતા—૩૧ ભમીય ભમીય ભવમાહિ જ ભાગુ તુ પ્રભુ તાહેરે પાય જ લાગ માગ” સિવસુહ-નાતા—૩૨ હરખિઇ મૂલિગભારુ પામીય નય િનરીયખિઉ નેમિ સુસામીય કામીય-લ-દાતારા—૩૩ જા ગયણ...ગણિ રવિ-સિરિચંદ મૂરતિ સામિ તણીયતાં નંદુ આણંદ સુખ ભારા—૩૪ હું મૂરખ પઈ અછું અજાણ્ શ્રી જયતિલકસૂરિ બહુમાન માનું મનમાહિ એહે—૩૫ પઢઇ ગઈ જે એ નવરંગી ચૈત્રપ્રવાડિ અતિહિ સુચંગી ચંગીય કરÜસુ દેહા—૩૬ ઇતિ શ્રી ગિરનાર ચૈત્રપ્રવાહિ ૧૨૭ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગિરનાર ચેતપ્રવાડિ સં. વિધાત્રી વેરા અજ્ઞાત કર્તાની આ કૃતિ કેવળ પચીસ ગાથાની જ છે, છતાં તીર્થના ઇતિહાસની દષ્ટિએ માહિતીસભર હેઈ, મહત્ત્વની છે. સાદી અને સરળ એવી આ રચના સાહિત્યિક દૃષ્ટિએ ખાસ નેધપાત્ર નથી, તે પણ પ્રાસ (એકાદ સ્થાનાપવાદ સિવાય) તૂટતું ન હોવાથી ગેય અને સુવાચ્ય છે; છંદ દોધક છે. મંત્રીશ્વર વસ્તુપાળના ગિરનારના શિલાલેખો (સં. ૧૨૮૮/ઈ. સ. ૧૨૩૨), મંત્રીશ્વરના કુલગુરુ નાગેન્દ્રગથ્વીય વિજયસેનસૂરિ કૃત “રેવંતગિરિ રાસ' (આ. સં. ૧૨૮૮/ઈ. સ. ૧૨૩૨]", ધર્મઘોષસુરિ કૃત “ગિરનારકલ્પ' (૧૩મી શતાબ્દીનું ત્રીજું ચરણ) જિનપ્રભસૂરિ રચિત “રેવતકલ્પ અને અન્ય રચનાઓ (તેરમા શતકને અંત અને ચૌદમા શતકને પ્રારંભ), અજ્ઞાત કર્તાને “પેથડરાસ (આ. સં. ૧૩૬૦/ઈ. સ. ૧૩૦૪), અંબદેવસૂરિ કૃત “સમરાવાસુ (આ. સં. ૧૩૭૧/ઈ. સ. ૧૩૧૫), – આદિ રચનાઓમાં ગિરનારના જૈનમંદિર વિશે નેધ મળે છે. એકંદરે તે આ સૌ ગિરિસ્થ તીર્થભવને વિશેની માં સમાન કથને મળે છે. આ સિવાય હેમહંસ કૃત “ગિરનાર ચેત્ત પરિપાટી (આ. સં. ૧૫૧૫ ઈ. સ. ૧૪૫૯), અને રત્નસિંહસૂરિ શિષ્ય રચેલી “ગિરનાર તીર્થમાલા' (આ. સં. ૧૫૨૩/ઈ. સ. ૧૪૬૭)માં ઉપર્યુક્ત રચનાઓમાં અપાયેલ સામગ્રી ઉપરાંત પંદરમા શતકમાં ગિરનાર પર બંધાયેલ બીજ પણ કેટલાંક મંદિરનો ઉલ્લેખ છે. આ બધી જ કૃતિઓનું સમાંતર પઠન રસપ્રદ અને બેંધનીય બની રહે છે. આગળ વિશેષ ચર્ચા કરતાં પહેલાં સાંપ્રત કૃતિ વિશે થોડી પ્રારંભિક વિગતો જોઈએ. સાંપ્રત પ્રતિ પાટણના શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય જૈન જ્ઞાનમંદિરમાંની શ્રીસંઘ જેનભંડારની ક્રમાંક ૩૧૩૨, ડા. ૧૧૪ની છે. “અબુદાચલ વિનતી સંગ્રહ આદિ વિનતી સંગ્રહ’ એવું આ પ્રતિનું શીર્ષક છે, જેના છેલલા પત્રમાં પ્રસ્તુત કૃતિ “ગિરનાર ચેર પ્રવાડિ' નામે છે. પ્રતિનું માપ ૨૬.૫ ૪ ૧૧.૫ પત્ર ૮ છે. સરાસરી દરેક પત્રમાં ૧૮ લીટી અને દરેક લીટીમાં ૫૭ અક્ષર છે. પ્રતિની લેખનશૈલી સોળમા શતકની છે; પરિપાટી જૂની ગુજરાતીમાં નિબદ્ધ છે. આ કાવ્યમાં રચના સંવત આપેલ નથી પરંતુ, હેમહંસે “ગિરનાર ચત્ત પરિપાટી'માં અને અને રત્નસિંહરિ શિવે ગિરનાર તીર્થમાળા'માં – પંદરમી સદીમાં બંધાયેલાં જે ત્રણ મંદિરને ઉલ્લેખ કર્યો છે, એ મંદિરને ઉલેખ આ કાવ્યમાં કરવામાં આવેલ નથી. એ ત્રણ મંદિરે તે નરપાલ સંઘવી, સમરસિંહ-માલદે, અને બુભવ શાણરાજનાં છે. એ સમયના પ્રખ્યાત આ મંદિરે આ કાવ્યની રચના સતયે હજી બંધાયેલાં નહિ હેય. ઉપરાંત ભાષાની દૃષ્ટિએ પણ આ કૃતિ આગળની બેને મુકાબલે વહેલી રચાયેલી લાગે છે. એટલે કે પંદરમી સદીના પ્રારંભ કાળની કે એ પહેલાંની આ કૃતિ સંભવી શકે. પ્રતિના અન્તભાગે “જયાનંદગણિએ લખ્યું” એમ નેંધ છે. આ સમયમાં થઈ ગયેલા જયાનંદગણિ તે તપાછીય સોમતિલકસૂરિના શિષ્ય જયાનંદસૂરિ લેવા જોઈએ જેમને સ્વર્ગવાસ સં. ૧૪૪૧/ઈ. સ. ૧૩૮પમાં થયો છે. આ વાત દયાનમાં લઈએ તે આ કૃતિ તે પહેલાંની હેય. કર્તા કઈ જૈન યાત્રિક કવિ છે અને તેમને સમય આગળ નિદેશેલા હેમહંસની પાસે હશે એમ તેમણે આપેલી છે અને કૃતિની સરાસરી ભાષા ઉપરથી જણાય છે, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ. વિધાત્રી વારા ૧૨૯ તીર્થાટનની દૃષ્ટિથી લખનાર આ કવિ વાચકને, ‘જીણુ પ્રાકાર' (ઉપરકાટ)થી તળેટી સુધી થઈ, ગિરનાર ઉપર જવાની પાજ સુધીમાં વચ્ચે આવતાં સ્થાનાની જાણ કરાવે છે. ઉપરકોટના તળપ્રદેશમાં આવતાં ત્યાં મ`ત્રી તેજપાળે વસાવેલ ‘તેજલપુર, મંત્રીએ પોતાની માતાના નામ પરથી કરાવેલ ‘કુમાર સરાવર', પાર્શ્વનાથનું મ ́દિર (આસડરાજ વિહાર) તેમ જ ઉપરકેટમાંનું ‘મહાવીર સ્વામી'નું મંદિર, દામેાદર કુંડને કાંઠે કાળમેધ ક્ષેત્રપાલનું સ્થાનક વગેરે તેાંધી ગિરનારની પાજ ઉપર ચઢતાં અન્ય અવલાકના નોંધે છે. સૌ પ્રથમ ગિરનાર ચઢવાની પાજના નિર્માતા વિશે માહિતી આપતાં પરિપાટી કર્તા કહે છે, કે ખાહડે (વાગ્ભટ્ટ મંત્રીએ) એ સમરાવી. જ્યારે રવ'તગિરિરાસ'માં અંખડ મંત્રીએ કરાંવ્યાને ઉલ્લેખ છે.૧૦ હવે કવિ કાટની ટુંક પાસે આવી પહેાંચતાં, દૂરથી દેખાતાં દહેરાંનાં સુવણુ મય દંડકળશને નિર્દેશ કરે છે; અને રત્નાશ્રાવકે તેમિનાથના બિંબતા જીર્ણાહાર કરાવ્યા એ અનુશ્રુતિને ઉલ્લેખ કરે છે. પછી ત્યાં આગળ આપાપામઢ'ને ઉલ્લેખ કરે છે. આ રચના શું હશે એ મુદ્દો વિવાદાસ્પદ બન્યા છે, જેણી ચર્ચા અગાઉ પુરાતત્ત્વ (ભા.૧ પૃ. ૩૦૮-૩૦૯)માં ૫. ધ્યેયરદાસ દોશીએ કરેલી છે. પ`ડિતજીએ ત્યાં કાઈ પ્રપાના સબધ કલ્પ્યા છે. તિ એ પછી કવિ કોટ અંતગતનાં મદિરાની વાત કરે છે. તેમાં સૌ પ્રથમ તીર્થંધિય નેમિનાથ અને જમણીબાજુએ રાજીમતીનું દહેરું અને નેમિનાથનું ‘કલ્યાણુત્રય’નું સચિવેશ્વર વસ્તુપાળે કરાવેલ૧ મંદિર, ગજપાદ (કુંડ), નાગઝરા મારઝરા...ને ઉલ્લેખ, તતિરિકત વસ્તુપાલકારિત શત્રુ જયાવતાર શ્રી આદીશ્વરનું ભવન, વીરજિતેન્દ્ર (સત્યપુરાવતાર), વીસ જિન સાથે સમેતશિખર અને ચતુર્વિં જિત સાથેના અષ્ટાપદ પ્રાસાદ, તેમ જ મરુદેવી અને ભરતેશ્વરનાં દેવગૃહેને ઉલ્લેખ પણ કરે છે. ત્યાર પછી રથનેમિને નમસ્કાર કરી, લખાવન (સ'. લક્ષારામ) અને સહસાવન (શૈષવન/સ. સહસ્રામ્રવન),૧૨ તરફ જતાં પહેલાં, અવલેાકન શિખર (ગુરુદત્તાત્રય), શામ્ભ (ગેારખનાથ) અને પ્રદ્યુમ્ન (આધડનાથ) શિખરાને પ્રણામી પછી સહસ્રબિન્દુગુક્ા (વર્તીમાન સાતપુડાની જગ્યા ?) અને ચંદ્રગુફા જોઈને છેવટે યાત્રાની ફળશ્રુતિ આપી, કવિ કૃતિ સમાપ્ત કરે છે. આ કૃતિ વાંચ્યા પછી, એ એક સ્થાનની પીછાનના પ્રયત્ન કરી જોવા જરૂરી બને છે. (૧) સહસ્રબિન્દુ ગુઢ્ઢા ઃ (કડી ૨૪.) એ અત્યારે જ્યાં સાતપુડાની જગ્યા છે, તે જ માટે ભાગે હાઈ શકે, કાટથી અબાજી શિખર જવાના રસ્તામાંથી વચ્ચેથી આ રસ્તા ફંટાઈને ‘સાતપુડા' તરફ જાય છે, અને બીજો જે કાળકા' તરફ જાય છે, એ અખાજીથી ગારખનાથ જવાના રસ્તામાંથી ફટાઈ જાય છે. સાતપુડા કે સહસ્રબિંદુગુફાની વાત કરીએ તા કાટથી થેાડુ ઉપર ચઢીને ડાખીબાજુએ પથ્થરચટ્ટી જવાય અને જમણીબાજુએ જટાશંકરની ધર્મશાળા પાસેથી થાડું નીચે ઊતરીને જવાય છે. મોટી મોટી શિલાએના ખનેલી, શંકુ આકારની બખાલ જેવું છે એમાં નીચે એ શિલાઓમાંથી સતત ટપકયા કરતા પાણીને લીધે મોટા ખાખાચીયા જેવુ થયું છે. (આ ખાખાચીયુ' ઉનાળામાં પણ પાણીથી ભરેલું રહે છે) એટલે ‘સહસ્રબિન્દુ' નામ વ્યાજખી છે અને માટી માટી સાત જેટલી શિલાઓની બનેલી એ જગ્યા હૈાવાથી અત્યારે 'સાતપુડા' નામ પ્રચલિત થયું હશે, એને રસ્તા પગથીયાં વગરતા છે અને ત્યાંનું વાતાવરણુ આલાદક છે, ૧૭ - Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૦ ગિરનાર ચત્તપ્રવાડી કાળકા (કડી ૪) – ૨. હવે બીજે રસ્તો જે “કાળકા' તરફ જાય છે, એ કાળકાનું સ્થાનક પણુ ગુફા જેવું છે. એને કાવ્ય-પ્રચલિત ચંદ્રગુફા હેવાનું અનુમાન કરવાનું મન એટલા માટે થાય છે કે, એને રસ્તો સહસ્ત્રબિન્દુગુફા સાથે સમાંતર જ ફંટાય છે અને દરેક કાવ્ય આ બન્ને ગુફાને સાથે સાથે ઉલ્લેખ કરે છે. એ સિવાય એને માટે, સાતપુડા માટે આપ્યું એવું જોરદાર બીજું પ્રમાણ નથી. - ભરતેશ્વર (કડી ૧૫-૧૭) – ૩. આપણી આ પરિપાટીમાં ભરતેશ્વરને ઉલલેખ છે, તે પણ બીજે નથી. તેમ જ સત્યપુરાવતાર વિરજિનેન્દ્રને ઉલ્લેખ પણ ડાક અપવાદ સિવાય ક્યાંય મળતો નથી. પાજ. (કડી. ૬) – ૪. ગિરનારની પાજ માટે સામાન્ય મત આંબડે તે સમરાવ્યા છે. પ્રસ્તુત કાવ્યમાં બાહડે તે બંધાવ્યાનો ઉલ્લેખ છે. અત્યારે પણ એક બીજે રસ્તે બેરદેવી પાસેથી જાય છે. પાદ ટિપ્પણી ૧. પ્રાચીન ગુજ૨ કાવ્યસંગ્રહ (કાવ્યમાળાનું પુસ્તક ૧૩મું) સંપા. સી. ડી. દલાલ, વડોદરા - ઈ. સ. ૧૯૨૦ - મૃ. ૧. ૨. એજન. Appendix 7 p. 19. • ૩. એજન. Appendix 5 p. 15. કમ. એજન, Appendix 10 p. 24. ૪. “આપણું કવિઓ - લે. કે. કા. શાસ્ત્રી અમદાવાદ – ૧૯૪ર. પૃ. ૧૬૬ ૧૬૭. ૫. પ્રા. ગુ. કા. સં. ભાગ ૧૩ પૃ. ૩૪ (નવમી ભાષા.). ૬. આ સિવાય પણ વસ્તુપાળ-તેજપાળની પ્રશસ્તિઓમાં ગિરનારના તેમણે કરાવેલ જિનાલય આદિ રચનાઓના ઉલ્લેખો મળે છે. ૭. પુરાતત્વ ભાગ ૧ અમદાવાદ સં. ૧૯૭૮, પૃ. ૨૯૩, ૮. પ્રાચીન તીર્થમાળા સંગ્રહ ભા. ૧; સંપા. શ્રી વિજયધર્મસૂરિ, ભાવનગર, સં. ૧૯૭૨, પૃ. ૩૩, ૯. પ્રા, તી. સં. પૃ. ૫૭ની પાદટીપ. ૧૦. પ્રા. ગુ. કા. સં. પૃ. ૨. ૧૧. અન્ય કૃતિઓમાં અને શિલાલેખે તેમજ બીજાં પ્રમાણે દ્વારા એ બાબત સિદ્ધ છે કે એ મંદિર તેજપાળે બંધાવ્યું છે. ૧૨. પં. બેચરદાસ દેશી, પૃ. ૨૯૪-૨૯૫. ૧૩. જૈન તીર્થ સર્વસંગ્રહ ભા. ૧, અમદાવાદ ૧૯૫૩, પૃ. ૧૨૫-૧૨૬. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગિરનાર ચત્તપ્રવાડો સમરવિ સામિય સામલ અંબિકિ હઈ ધરવિ મહાતીરથ ગિરનારગિરે તીરથ ધૃણઉં સવિ ૧ કુયર સરવર કલસ ભરે તેજલપુરિ પહ પાસે ન્ડવણ વિલેણ પૂજા કરી જિમ હુઈ વિઘન-વિણા ૨ તઉ ગિરનારહ તલહટીય જે છરણ–પ્રાકારે જોહારિય જુગાદિ-જિણ તે જાઈ ભવપારે ૩ તી છે ત્રિસલાદેવિ–તણ ભવતું નયણાસુંદ ભાવિહિં ભગતિહિ ભેટિય એ સામી વીર જિર્ણ ૪ સેવનરેખાઇ લહિય એ દેવ દામોદર નામિઈ કાલમેઘ-ક્ષેત્રપાલ તહિ સેહઈ બહુ આરામિઈ ૫ બાહડદેવિહિં સેહલિય નવી કરાવી પાજ વિસમઉ મારગ સમ કિઉ ગિરનાર ગિરિરાજ ૬ પરવતું પરવતું ભવિય જિણિ સયલ શલિધુ પિયત ગિરિ વાઈ ગહગહિય મનુ ગિરિવરિ સહિરિ ચડતે ૭ જઈ ઊણ હર મણ-હરણ ઊજલિગિરિ કિવલાસ દંડકલસ સેવન્નમ એ અમ્ય મનિ પૂગી આસ ૮ રેવઈગિરિ રુલિયામણઉ જસ સિરિ જાદવરાઉ નેમિ જિસેસર પણમિઈ એ હિઈ ધરેવિણુ ભાઉ ૯ આદેસિઈ અંબિતઈ રતનિહિ આણી બિંબ બાવીસમઉ તીથરે સો પૂજિસુ અવિલંબ પાખલિ ફિરતી દેહરિય આપાપામઢ માહિતી જે કિવિ બિંબ રે જીવ તુંય તે સવૅ આરાહે ૧૧ દેવહં દાહિણિ દેહૂરિય જે રાઈમઈ નમંતિ સિદ્ધિરમણિસિઉ તીહ નર સહીયા અવિહડ હુંતી ૧૨ વસ્તિગ મંત્રિહિ કારવિઉ દેવહ પય કીય સેવા પ્રહિ ઊઠેવિણ પણમિસિક કલ્યાણત્રય દેવ ૧૩ નાગઝરિ નાહીઉ મેરઝરે અમિઉ કુંડ પડિછંદો કલસ ભરેવિ ગઈદમ એ હવિસિવું નેમિ જિર્ણ ૧૪ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૨ વસ્તિગમ`ત્રી–વિચારે સિત્રુ ંજય-અવતારો વીસ જિષ્ણુ નમેસા અષ્ટાપદ પ્રણમેસે માડી છઈ મરુદેવ ગિરનાર ચેત્તપ્રવાડી એક જીભ કિમ વન્નીઇએ ઉજલિગિરિ જિણિ નિમ્નવીયા જિષ્ણુમઇ પાસ” સંમેયસિદ્ઘરે ડાબઇ પાસઈ ચઉવીસ જિષ્ણુ પાછલિ મેગલિ આરુહિય પૂજિતુ ભરથેસરિ–સહિય સંગ્રહ સામિધુ જો કરએ ફિલ નાલીયરે ભેટીઇ એ તીછે અછઇ વિમએ કન્જલ વને અંસલે જો પ્રતિમાધીય રાયમએ જિમણુઇ પાસઇ દેહૂરિય વેલ વઉલ નિમ્માલીય કું—મચકંદડુ સહીય સંઘડુ વિઘ્ન—વિણાસણીય ઢાઇસ નેવજ–નાલીયર તાહિં આગલિ અવલેાણાસિહરિ સિદ્ધિ વિણાયગ સેા લહુઇ એ દેખીય લખારામ–વતુ સહસષ'ક્રુ શુક્ જોઇયએ ઇણિ પરિ રૈવઇ–ગિરિસિદ્ઘરે તીરથ જ્યાત્રા તણુઉ લેા તીઠુંનર નિશ્ચઇ હુંતે ॥ ઇતિ ગિરનાર ચેત્ત-પ્રવાડિ જયાણ’ઢગણિ લખિતા ॥ ૨૫ ૧૫ ૧૬ કુસમ” કરડ ભવિ વિધન તણુક અપહારા વડુ જખ ડિહારા મણુિનેઉરમાડત ગિરિ નીઝરણું ઝરત સંધવ કેરઉ મિ વસુ સા રહૂમ પાડા જૂહી જાઈ તRsિ' સાહુઇ વણરાય ટાલઇ અલી[ય] સવેવિ આગલિક અખિક દેવિ સામિ-પજૂન નમેસે જો સાહસ ́ સંપન્નુ ૨૩ રુયડઉં સહુસારા મુ ચ'દ્ર ગુફા અભિરામુ ચેત્તપ્રવાડિ કરતે ૧૭ ૧૮ ૧૯ ૨૦ ૨૧ ૨૨ 2/26 ૨૪ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ગિરનાર ચેન્ન પરિવાડી સં, મધુસૂદન ઢાંકી-વિધાત્રી વોરા ઉજજયન્તગિરિનાં મંદિરે અનુલક્ષે રચાયેલી ચૈત્યપરિપાટીએમાં માહિતીની દષ્ટિએ આ એક બહુ જ કિમતી ચૈત્યપરિપાટી છે. અગાઉ પ્રકાશિત થઈ ચૂકેલ, બૃહતપગચ્છીય “રતનસિંહસરિશિષ્યની, અને “સોમસુંદરસૂરિના પરિવારના “રત્નશેખરસૂરિશિષ્ય હેમહંસની “ગિરનાર તીર્થ માળા”માં અપાયેલી વાતનું આમાં સમર્થન હેવા અતિરિક્ત કેટલુંક વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ પણ છે, અને અન્ય કોઈ પરિપાટીકારે નહીં જણાવેલ એવી નવીન હકીકત પણ છે. કર્તા પોતાનું નામ પ્રગટ કરતા નથી; પણ કોઈ “સંધવી શવરાજ”ના સંધમાં આવેલ મુનિની આ રચના હોઈ શકે તે તક છેવટની એટલે કે ૪૧મી ગાથા પરથી થઈ શકે છે. સંપ્રતિ રચના લા.દ.ભા.સં.વિ.પં.ના મુનિપુણ્યવિજયજી સંગ્રહની પ્રતિ ક્રમાંક ૨૯૭૦ ઉપરથી ઉતારી છે. મૂળ પ્રતિમાં જે કે રચના સંવત કે લિપી સંવત દર્શાવ્યો નથી; પણ ભાષા અને વસ્તુની દષ્ટિએ સાંપ્રત કૃતિ પંદરમા શતકના ઉત્તરાર્ધની જણાય છે, જ્યારે પ્રતિની લિપી સત્તરમાં શતકના ઉત્તરાર્ધથી પુરાણી લાગતી નથી. પ્રારંભમાં યાત્રી-કવિ દેવી “અંબિકા” અને “સરસ્વતીને સ્મરી, નેમિજિન”ને વંદના દઈ, ઊજલિગિરિ' (ઉજજયન્તગિરિ)ના જિણવરને સાનંદ સ્તવવાનો નિર્ધાર જાહેર કરે છે: (૧). આ પછી “ગિરનારની તળેટીમાં આવેલ વિશાળ એવા “જુનગઢ' (જૂનાગઢઃજીણુદુર્ગ ઉપરકેટ)ને ઉલ્લેખ કરી, ત્યાંના “સલષપ્રાસાદ' (શ્રેષ્ઠી “સલક્ષ' કારિત જિનાલય)માં જહાર કરી, ઉસવંસ (ઓસવાલ વંશ)માં જન્મેલ “સમરસિંહે ઉદ્ધારાવેલ, તિજલપુરિ (તેજપાલ સ્થાપિત તેજલપુર” શહેર) પાશ્વને નમસ્કારી, “સંધવી ધુંધલ'ના પ્રાસાદમાં “આદિ જિનવર'ને જહારવાનું કહે છે: (૨-૩). તે પછી ધરણિગ વસહી” (“જીર્ણ દુર્ગમાં હતી)ને મહાવીરસ્વામીને વંદવાનું કહે છે. અને પ્રસ્તુત વસહીમાં ડાબી બાજુને “ભદ્રપ્રાસાદ' શ્રેષ્ઠી “પૂનિગે' કરાવ્યાની નોંધ કરે છે. (૪) આ પછી “લખરાજે' ઉત્સાહથી કરાવેલ “ખમાણાવસહી'માં પિત્તળના જિનનાથ “રિસફેસર (ઋષભેશ્વર)ને પૂછએ તેમ જણાવે છે. (૫). - હવે ગિરિવર (ગિરનાર) તરફ સંચરવાની વાત કરે છે. ત્યાં (“વસ્ત્રાપથક્ષેત્રમાં રહેલ) દામોદર', “સોવનરેખ” (નરેખ) નદી, અને “કાલમેઘ ક્ષેત્રપાલને ઉલ્લેખ કરે છે (૬). એ પછી આવતી નિસગ. શોભાનું વર્ણન ગાથા ૭માં કહે છે. આ પછી (મંત્રીશ્વર) ઉદયન પુત્ર બાહડે (મંત્રી વાભ) વિસલપુરી ત્રેસઠ લાખ ખરચીને “પાજ' કરાવ્યાનું કહે છે. (). પાજે ચડતાં પહેલી ઊસવા સોની પદમની પરવ' (પરબ), બીજી આવે પરવાડ’વાળાની, તે પછી હાથી વાંકીમાં “રાયણ વૃક્ષ નીચે વિશ્રામી, ત્રીજી ધુલિ પરવ' તે “લોડ નાયકની, તે પછી “માંકડકુડી કને “માલીપરબ' જવાનું. (૯-૧૧). તે પછી સાપણની વાંકીચૂંકી વાટડીએ આગળ વધતાં “સિલખડકી અને તે પછી બીજી ખડકી આવેઃ (૧૨). ને ત્યાર બાદ પાંચમી “સુવાવડીની પરબ. ને ત્યાંથી જમણે હાથ તરફ સહસવિંદ ગુફા” હેવાનું કવિ-યાત્રી નેધે છે. (૧૩). તે પછી આગળ ચાલતાં ડાબી જમણી બાજ તારણો” અને “આંચલીયા પ્રાસાદ' (અંચલગચ્છીય જિનાલય) નજરે પડવા માંડે છે. આ પછી પહેલી ળિ' અને બીજી પળને ઉલ્લેખ કરે છે. (૧૪-૧૫). આ પછી યાત્રાકાર તીર્થ નાયક ભગવાન નેમિનાથને દેહરે પહોંચે છે. અને ત્યાં છત્ર સાથે Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૪ શ્રી ગિરનાર ચેત્ત પરિવાડી ચામર ઢાળતાં પચ શબ્દ વાદિત્ર વગાડતાં સંધવી પ્રવેશે છે અને ભંગલ-ભેરિના ગગનભેદી નાદ, ઢાલ-દૂરના હડહડાટ, ને ત્યાં વાગતા ‘નિસ્રાણુ' અને કન્યાઓ દ્વારા ગવાતા ધવળમીંગળના કાવ્યમય ભાષામાં ઉલ્લેખ કરે છે: (૧૬). સૌ પહેલાં મેલાસાહ'ની દૈતુરીમાં જિનધનાથ'ને તમી, (પશ્ચિમ બાજુના) ‘મૂળદ્વાર'ની સામા રહેલ ‘સવાલાખી ચુકીધાર’ — જેમાં વસ્તિગે' (‘વસ્તુપાળે') સ્થાપેલ – ‘તેમીસર'ના બિંય્યને વાંદી ‘પાર્શ્વનાથ'ની દેહરી (વસ્તુપાળ કારિત સ્તંભનપુરાવતાર)ને પ્રણમી (મૂળનાયકના મંદિરમાં પ્રવેશે છે) : (૧૭). ‘તેમિનાથ'ને નિહાળ્યા બાદ ‘તારણુ' વધાવી, દાન દઈ, ‘પાઉમ’ડપ' (પાદુકા મંડપ) આવી, (ત્યાંથી) તેમિનાથ'ને શિરસહ નમી, ત્રણ ભાર ધરાવતા (ગૂઢમ`ડપ'વાળા) પ્રાસાદને પ્રદક્ષિણા દઈ, (ફરીતે) દાન દઈ, વિવિધ ફળફૂલ સાથે (કરીને) 'જિન'ને ભેટવાની વાત કરે છેઃ (૧૮). તે પછી અધુકળે પગે (‘નેમિનાથ') દેવની પૂજા કરી જેથી માનવ જનમ સફળ થાય, પછી ‘ગજપદકુંડ'માં સ્નાન કરી ધેાઈ કરી (ફરીને તેમિનાથના) પ્રાસાદે આવ્યા અને ન્હાવણુ-મહેાત્સવ કરી, દેસર-ચંદનની અર્ચના કરીએ તેમ કવિ કહે છે: (૧૯). તે પછી ‘અગર'ની પૂજા રચી ‘રતન' (‘રત્ન શ્રાવક') દ્વારા સ્થાપિત નૈમીસર'ની સેવા કરી, ભમતી'માં ‘ચૈત્ય પરિપાટી' કરી, ‘રંગમ’ડપ' (ગૂઢમંડપ)માં રહેલ જિષ્ણુવરને પૂજી, ધરમશાળાના મદિરમાં વદના દઈ, પછી ‘અપાપામઢ' જઈએ તેમ યાત્રીકવિ ઉમેરે છે: (૨૦). (આ ‘અપાપામઢ'માં) ગઈ ચેાવિસી, (ખીજા) સાત તીર્થંકરને પૂછ પાપક્ષય કરી, આઠમુ (નેમિનાથનું) બિંબ બપ્પભટ્ટસૂરિએ ત્રંબાવતી (ખ'ભાત)માં (મન્ત્ર બળ આકષી) (અભિગ્રહ ધારણ કરેલ) આમરાજને વાવેલ (તે અહીં ગિરનાર પર લાવેલ બિંબને નમી), (૨૧) પિત્તળના નેમિનાથના બિંબને પૂછ, પછી (મૂળપ્રાસાદને ફરતી રહેલ) મ`ત્રીશ્વર વસ્તુપાલે કરાવેલ ૭૨ દેહરીઓમાં પૂજા કરી ત્યાંથી નીકળી વસ્તુપાળે કરાવેલ ત્રણુ દેવળની રચનાવાળા લાખા રૂપિયા ખર્ચીને કરાવેલ શત્રુંજયાવતાર આદિનાથને જુહારીશું (૨૨). ત્યાં ડાબી જમણી બાજુએ રહેલ ગાઢ વસ્તુપાલતેજપાલ તથા (વસ્તુપાલ-પિતામહ) સેામ (મન્ત્રી) અને પિતા (મ ંત્રી) આસરાજ છે. મનમેાહક પુતળી આ જોતાં તૃપ્તિ થતી નથી; વળી ત્યાં (ડાબે પડખે) અષ્ટાપદમાં રહેલ ૨૪ જિનવર અને જમણી બાજુએ રહેલ સમેત-શિખરમાં ૨૦ જિન જોઈશું (૨૪). તે પછી ગોવિન્દ શ્રેષ્ઠિએ સ્થાપેલ જીરાપલ્લિ (પાર્શ્વનાથ) પૂછ કળીયુગને સંતાપીશું. ત્યારબાદ આગળ સચરતાં (ખ'ભાતના) શ્રેષ્ઠી શાણુ અને ભૂભવના પ્રાસાદે (મૂલનાયક) વિમલનાથ તથા પાર્શ્વનાથને સ્તથી તેના રળિયામણા મુખમાંડપ જોઈશું (૨૫). (આ મ ંદિરમાં) પિત્તળમય સરસ મિત્ર છે અને મંદિર કંચન – બલાનકની ઉપમાને લાયક છે. આ પછી સમરસિંહે ઉદ્દારાવેલ કથાત્રયના મંદિરમાં ત્રણુ સ્વરૂપે વિરાજમાન નૈમિકુમાર છે ને સ્ત ંભયુક્ત મેધનાદ મંડપ (૨૬) તેમ જ જગતી પરની ખાવન દેહરીએ જોઈ હચડું હરખાય છે. (આ મંદિરના) (દક્ષિણ તરફ્ને) સુંદર ભદ્ર પ્રાસાદ માલદેવે કરાવેલા તે રત્નદેવે પિત્તળનું મોટું ખિંબ કરાવેલું. પશ્ચિમના નામી ભદ્ર-પ્રાસાદ હાજા શ્રેષ્ઠીએ (૨૭) શ્રેષ્ઠી સદા તથા શ્રેષ્ઠી વત્સ (રાત્રે) કરાવેલ. કરાવેલા અને ઉત્તર બાજુના હવે ખરતર વસહી તરફ આવીએ. આ (વસહી) સાધુ નરપાલની સ્થાપેલી છે. તેમાં (જિન)વીરનું તારણુયુક્ત પિત્તળનું બિંબ છે. તે આજુખાજુ શાંતિજિન તેમ જ પાર્શ્વનાથના પિત્તળના વખાણવાલાયક કાઉસ્ગીયા છે (૨૮): અહીં રંગમંડપ(ની છંતામાં) નાગબંધ અને પંચાંગવીર જોતાં અને મંડપમાં પૂતળીઓ પેખી મન પ્રસન્ન થાય છે. મંડપ મૂળ ‘માલા ખાડ' પર કરેલા Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-વિધાત્રી વશ ૧૩૫ છે. ત્યાં જમણી બાજુ ભણશાળી જેને કરાવેલ અષ્ટાપદ (ભદ્રપ્રસાદમાં) (૨૯) અને ડાબી બાજુ ધરણશાહે કરાવેલ (ભદ્રપ્રસાદમાં) સુપ્રસિદ્ધ સમેતશિખર (ની રચના) છે. (અહીંથી નીકળી આગળ જતાં) અદ્ભૂત મૂર્તિ, ચન્દ્રગુફા, પૂર્ણસિંહવસતી, સુમતિજિન, વ્રજ શ્રેષ્ઠિએ સ્થાપેલ સુંદર હમસર (૩૦), સેમસિંહે – વરદે મૂકાવેલ સારંગ-જિનવર, તે પછી ખરતરગચ્છીય શ્રેષ્ઠી જેઠા કારિત મનહર વસતી, અને ચન્દ્રપ્રભજિન પૂજી, નાગઝર-મોરઝરના બે કુંડ જોઈ, પૂર્ણસિંહ કેકારીએ સ્થાપિલ ૭૨ જિનાલયયુક્ત શાંતિનાથ પ્રાસાદમાં નમી (૩૧), ઇન્દ્રમંડપે ઇન્દ્રમહત્સવ કરી, ત્યાં નિમ દેરીમાં દર્શન કરી (૩૨), ગજપદકુંડ (પરના આઠબિંબ ), સાંકળીયાળી પાજ, છત્રશિલા થઈ (૩૩) પ્રાતઃકાળે અબિકા(ના શિખર) તરફ જવા રવાના થાય છે. રસ્તામાં ચંદ્રપ્રભ જિનવરની સ્તુતિ કરી, સિદ્ધરાજ (શ્રેષ્ઠીએ) ઉદ્ધારાવેલ (વસ્તુપાલ મન્ત્રકારિત) કપદ યક્ષ તરફ જઈ, ત્યાંથી ચક્રી ભરતે કરાવેલ(ને મંદિરે) આરાધી, રામડુંગરની બે દેહરીએ થઈ, રાજમતી તરફ વળે છે (૩૪); રામતીની ગુફામાં નેમિ-વિરહમાં કંકણ ભાંગી (સાવી થયેલી રામતીની પ્રતિમાના દર્શન કરી, ત્યાંથી નીચે દેખાતા શિવાદેવી પુત્ર (નેમિનાથ)ના ઉદયશેખર કલશયુક્ત મંદિરની વાત કરી (૩૫), હવે દિગમ્બર સમ્પ્રદાયના કોટડી – વિહાર તરફ જાય છે. ત્યાં શ્રેષ્ઠી પાતાએ કરાવેલ પિત્તળના આદિનાથને નમી, ભાવસાર ડાહાવિહાર (શ્વેતામ્બર)માં અજિત જિનેશ્વરને નમી, શ્રેષ્ઠી લખપતિએ કરાવેલ ચતુર્મુખ પ્રાસાદમાં જિનવરની પૂજા કરી (૩૬), ગંગાડે ગંગાના દેવળમાં ઇન્દ્ર સ્થાપેલ જિનવરનું ધ્યાન ધરી, તે પછી ગણપતિ અને રથનેમિની દેરીમાં નમી, ચિત્તર સાહે કરાવેલ અંબિકાની પાજ પર ચઢી (૩૭), ચીત્તડા પૂનાએ કરાવેલ અને સામલ શાહે ઉદ્ધારાવેલ અંબિકાના પ્રાસાદમાં નમી, ત્યાં સંધવિદનવિનાશના ભગવતી અંબિકા (સમેનની) પંચમૂતિ સમક્ષ શ્રીફળ ધરાવી (૩૮) હવે અવલોકના શિખર પર ચડી ત્યાંથી સહસ્ત્રા»વનનું નિરીક્ષણ કરી, અને ત્યાંથી નીચે દેખાતા લાખારામ તથા સામે શામ્બ અને પ્રદ્યુમ્ન શિખરને દૂરથી નમી તેમજ પ્રદ્યુમ્ન શિખર પર રહેલ સિદ્ધિ – વિનાયક તેમ જ અદષ્ટ રહેલ કંચન – બલાનકને નિર્દેશ કરી (૩૯), નેમિનાથના મંદિર પર યાત્રી આવે છે. ત્યાં ઈન્દ્રમાલ પહેરી ઇન્દ્ર મહેત્સવ કરી દાન દઈ, સુવર્ણના ઝળહળતા કલશવાળા એ સજજનવિહારના (વાસ્તુશાસ્ત્રોક્ત) પૃથ્વીજય પ્રાસાદ પર વજ ચઢાવી (૪૦) યાત્રી-કવિ કહે છે કે જયસિંહ સિદ્ધરાજે ગરવા ગિરનારના તળ પરના પ્રાસાદ બનાવવા પાછળ ૫,૭૨,૦૦૦૦૦ વીસલપુરી (દ્રમ્મ) ખચીને પિતાની ‘ કીર્તિને સંચય કર્યો. પ્રસિદ્ધ એવા સંધવી શવરાજે (નેમિનાથના) ભવને કનકકળશ અને દેવજ સ્થાપી યશ લીધો. જે એકચિત્તથી જિનવરની (માલ?) નિત્ય સાંભળે છે તેને તીર્થયાત્રાનું ઘણું ફળ મળે છે (૪૧). આ ચૈત્ય પરિપાટીમાં પંદરમા શતકમાં થયેલ બાંધકામ સંબંધમાં અન્ય ગિરનાર સંબદ્ધ પરિપાટીએમાં નહીં દેખાતી ઘણું ઘણું નવી હકીકત નેંધાયેલી જોવા મળે છે. જેમકે અંચલીયા પ્રાસાદ, (તારંગાતીર્થના ઉદ્ધારક) ગોવિંદ શ્રેષિએ કરાવેલ છરાપલિ – પાર્શ્વનાથ, લખપતિ શ્રેણીને ચતુર્મુખ પ્રાસાદ, દિગમ્બર પાતાવહી, અને તેની બાજુની શ્વેતામ્બર ડાહાવસહી, ચિત્તર સાહની કરાવેલી અંબાજીની પાજ, ઇત્યાદિ. તો બીજી બાજુ અહીં કરાવેલ બેએક વાતો જૂની હકીકતો સામે રાખતાં તશ્યપૂર્ણ જણાતી નથી. જેમકે નેમિનાથના મંદિરને ફરતી દેવકુલિકાએ વસ્તુપાલ મન્વીની બનાવેલ નહતી. મૂળ મંદિર ઈ. સ. ૧૧૨૯માં પૂર્ણ થયા બાદ આ દેવકુલિકાઓના છાદ્ય તથા સંવરણ ઈ. સ. ૧૧૫૯માં પૂર્ણ થયાને શિલાલેખ ત્યાં છે; અને નેમિનાથના મંદિરના બાંધકામને લગતે ખર્ચ આત્યંતિક અતિશયોક્તિપૂર્ણ હવા ઉપરાન્ત “વીસલપુરીય કેરીનું સિદ્ધ રાજના સમયમાં ચલણ હોવાનું કહેવું એ તો કાલાતિક્રમ જ છે. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ગિરનાર ચૈત્ય પરિપાટિ સમરીય અંબિક સરસતી, વંયિ નેમિ જિષ્ણુ દ ઊજલિગિરિ જિસવર-થણુઅ, હીઇઇ ધરી આણંદ શ્રીગિરિનારહ તલહુટીય, જૂનૂગઢ સિવશાલ સલખ-પ્રસાદિ જુહારીઇએ, તિજલપુરિનુ પાસ સમરિ સિંધિ ઊધાર્ં કીઉ, ઉસવંસ અવયાર તુ સંધવી ધંધલ તણુક એ, જિષ્ણુહરિ આદિ જુહાર ધરણિગવસહી વંદીઇ એ, સ્વામીશ્રી મહાવીર ડાબઈ ભદ્રપ્રાસાદ તિહુ પૂર્નિંગ ગુણુગ'ભીર ખમાણા વિસહી કારવીય લખરાજ ધરીએ ઊછાઢ પીતલમઈ પ્રભુ પૂઈ એ, રિસહેસર જિષ્ણુનાહુ હુવિગિરિવરભણી સાંચર્યાં એ, દામેાદર વિલાસ સેાવનરેખનઢી-કન્હઈ એ, કાલમેઘ ક્ષેત્રપાલ રાયણિ આંખા આંખલીય, વનસઈ ભાર આઢાર માર મધુર-સર સેાહુતી એ, ગિરિ પાખલિ વન ખાર પાજ કરાવી સેાહુલીય, મેથિ ઉડ્ડયન સાખ મહુડ વીસલપુરીય તિહાં, વેચા ત્રિસઢિ લાખ ઊસવાલ સેાની પદમતણી, પાઈ પઢુિલી પરવ પરવ બીજી પેારવાડ તણી, વીસ ભીમ કિરિસ ગર્વ હાથી વ કિ ઝીલિ દીસર્ચ, રાયણિ રુખ વિશ્રામ ત્રીજી ધુલીય પરવ લેાડાયગની અભિરામ ત્રિહૂ' સલઉરી ચાહતાં એ લાગઇ સીઅણુ વાઉ માંકડકૂડી-કન્હિઈ ચઉથી, માલીપરવઇ જાઉ વાંકી ચૂંકી વાટડી અલિઈલી સાપલ જેમ વરતિત્ત સિલખડકી પરઈ એ, બીજી ખડી તેમ પાંચમી પરવ સૂઆવડીએ, વલી અખર િ જાતાં જિમણુઈ સહસબિંદ ગુફા ભણી દઉ કે ઠિ ડાખા–જિમણા તારા એ, આ ગમ આંચલીયાપ્રાસાદ પઢુિલી પાલિ પા(પે)સતાં એ, સહીઅર કીજઈ સાદ સભકર નવલખ જિહરુ એ, પઇસત બીજી પાલિ દેવલાક સારૂં કરઈ એ, સંઘવી બિઠા ઊલિ. 3 ४ ७ ૯ ૧૦ ૧૧ ૧૨ ૧૩ ૧૪ ૧૫ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૭ મધુસૂદન ઢાંકી - વિધાત્રી વોરા [વસ્તુ] નેમિપ્રતિમા નેમિપ્રતિમા લેઈઅ આનંતિ છત્રચામર સિરિ ઢાલીઈ, પંચશબદ–વાજિત્ર વાજઈ, પસારુ સંઘવી હુઈ ભુગલ–ભેર–ઝિણિ ગગન ગાજઇ, ઢોલ-દદામાં દડદડી વાજઇ ગુહિર નીસાણ, ધવલમંગલ બાલા દેઈ, અરીયણ પડઈ પરાણ ૧૬ [ઢાલ]. ૧૭ મેલાસાહ તણી દેહરીઈ, ધર્મનાથનઈ નમતાં જઈ મૂલ કૂવારિ થાકણુ એ, સામી સવાલાખી ચુકીધર વસ્તગિ થાપિલ તિહાં નેમીસર પ્રણમુ પાસઈ દેરીએ નેમિ નિહાલી તરણિ વધાવું, દાન દઈ પાઉ–મંડિપિ આવક નેમિનાથ સિર નામીઈ એ, ત્રિવારઈ પ્રાસાદ પ્રદક્ષીણે દાન દેઈ જે હુઈ વચક્ષણ, ફૂલફલે જિન ભેટીઈ એ ૧૮ અધૂલક પાયે પૂજ્યા દેવ, માનવ-જનમ સફલ હુઉ હેવા ગજપદ-કંડિસનાંન કરું, ધેતિ કરી આવ્યા પ્રાસાદિ હવણુ-મહેછવ કીઉ નવનાદિ, કેસર-ચંદનિ ચરચીઈ એ ૧૯ પૂજ રચીનઈ અગર ઊંખેવઉ રતન–થાપિત નેમીસર સેવક ભમતી ચૂત્રપ્રવાડિ કરઉ રંગમંડપિ જિણવર પૂજઈ ધર્મશાલા ચઈત્ય વંદન કી જઈ, અપાપામઢિ જાઈઈ એ ૨૦ અતીત ચઉવીસી સાત તીર્થકર તે પૂછજઈ પાપ-ક્ષયંકર આઠમૂ બિંબ ત્રંબાવતીય, આમરાયનઈ તે વંદાવિવું બપભસૂરિ તિહાં અણવું, અરિઠનેમિનઈ દેહરઈ એ ૨૧ હવઈ પીત્તલમઈ દિગંબર બિંબ નેમિતણું પૂજઉ અવિલંબ બહુતિરિ દેહરી પૂજઈ એ ત્રિણિ તેર વસ્તીગ ઈહિં કીધી આદિલ અણિ =ણિ પ્રસિધી, લાખ લાખ ધન વેચીફ એ ૨૨ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૮ વસ્તગિ કીધુ સેત્તેજિ–અવતાર આદીસરનઈ કરુઅ જોહાર ગિરુઆં પીતલ બિંબ નમુ ડાખા–જિમણા ગયવર ખિ વસ્તગિ-તેજુગઊરી તેઉ સામ અનઈ આસરાજ અઇ રંગમંડિપ નવ-નાટક સાહઈ પુતલીએ અપ૭ર મન માહુઈ જોતા તૃપતિ ન પામઇ એ, અષ્ટાપઢિ જિવર ચઉવીસઈ જિમણુઇ સમેત સિદ્ધરિ જિષ્ણુ વીસઈ, વઈરા દેહરી જોઇઇએ ૨૪ સાવ પીતલમઈ કિંમ વખાણુ કંચણુ ખલાણા ઉપમ આણું શ્રી ગિરનાર ચૈત્ય પરિષાઢિ જીરાઉલઉ ગેઇમરિ થાપિ, તે પૂછ કલિયુગ સંતાપ્યઉ ચેત્ર–પવાડિઇ સાંચર્યા એ, શાંણાગર ભૂભવ પ્રાસાદઇ વિમલ પાસ થણુઉ સરુઉ સાહિ, મુખમંડપ રુલીઅમણુ એ ૨૫ કલ્યાણુત્રય પેખીઈ એ, સમરસિ'હુ કીધુ ઉધાર ત્રિહરૂપે છઇ નેમિકુમાર, મેઘનાદ મંડપ સુધર સઇવહેરઈ તેઉ કરાવિક હવઈ ખરતરવસહીભણી આવિઉ ૨૩ જગતિઇ ખાવન દેહરી દીસઈ જિણવર જોતાં હઈડલ હીસઈ માલદેવ તણુક ભદ્ર ભલઉ, રતનદેગુરુ પીત્તલસામિ પશ્ચિમ ભદ્ર હાજાનઈ નામિ, ઉત્તરસિ ભદ્ર વર્ણવૂ એ २७ ડાખઇ સમેતસહિર પ્રસીધુ તે પણિ ધરઈ સાહિ કીધÎ ૨૬ નરપાલસાહુની થાપના એ, સતારણઉ પીતલમઈ વી૨ શાંતિ-પાસ છઈ સાચઉ શરીર, કાસગી પીત્તલતા એ ૨૮ રંગમંડપ નાગબંધ નિહાલઉ પૂતલીએ મંડિપે મન વાલઉ પંચાંગવીર વસેખીઈ એ, માલાખાડઈ મંડપ જાણુ જિમણુઈ અષ્ટાપ[t] વખાણુ, ભણસાલી ોગર્ટ કીઉ એ ૨૯ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી – વિધાત્રી વેરા અદબદ મૂરતિ ચંદ્રગા, પુનિમવસહી સ(સુ)મત જિજ્ઞેસર વયજાગર થાપિ૩ અલવેસર, હામસર રુલીમણું સામસીવરદે સારંગ જિવર ખરતર જેઠાવસહી મર ચંદ્રપ્રજિન પૂઇ એ, નાગઝિર મારઝિર એ કુંડ ચાહુ બહુત્તિરિ જિણાલઇ શાંતિ આરાહુ, પુનઈ કોઠારી થાપી” એ ૩૧ ઇંદ્રમંડપિ હુઇ ઇંદ્ર–મહેાછવ પૂનિમ દેડુરી દીસઈ અભિનવ વવેક સં.... નેમિ નમુ, માંસખમણુ મનરંગ કીધૂ ચિહું ચાલતુ અણુસણું સીધઉં, સહુડાદે ચકી-કન્હઈ એ ૩૨ ગજપદકુંડ ઉરી છઈ અષ્ટ તેડુ પરઈ છઈ કડ વિશ સંકલ પાઈ છત્રસિલ ૩૦ ઢાલ રાજમતી પ્રાસાદ તલિ ગર્ફે માહિ પડ'તી શંભમૂરતિ જોઉ નેમિ વિરહ-કંકણુ મોડતી ફૂં ફૂંકાજલ-ન્ન તિહાં નીઝરણુ ઝરંતી ઉદ્દયસેખર વીર કલસ શિવાદેઉલ દીસતી હવઈ ચાલ્યા દિગંબરુ એ, કોટડીઅ વિહાર પાતાનઈ પીતલ તણુક એ, આદિનાથ જોહારુ ભાવસાર ડાહાવિહાર નમ્ર અજિત જિસર ચતુર્મુ`ખ લખપતિ તણુ એ, પૂજીઇ જિવર [વસ્તુ] હુવઈ ચાલઉ હવઈ ચાલઉ ભણીએ અખાવિ ભાણુ મૂરતિ ગુરુ જિહુરર્થ ચંદ્રપ્રભ જિણવર થુણી ઇ સીધરાજ ઉધ્ધાર કીઉ, કવડજ દેઉલ ભણી જઈ મરુદેવ્યા મયત્રલ આરુષી ભરથેસર સંજત રાડા( ? રામ) ડુંગર હા(દો ?)ઇ દેહરી રાજમતી તુપત્ત ૩૪ ૩૩ રૂપ ૩૬ ૧૩૯ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ ૩૭ ૩૮ શ્રી ગિરનાર ચય પરિપાટ ગંગાકુંડિ ગંગદેઉલ જઈ નઈ જાઉ મહિતી આણ દેવરાજ તણઉ, જિણહર જિન ધ્યાઉ ગણપતિ રહિનેમિ દેહરી એ, દોઈ અંબિક પાજ ચીત્તરસાહિ કરાવઉ એ, કીધું અવિચલ કાજ ચીજુડા પુનાતણઉણ અંબાઈ પ્રસાદ તે સાંમલસાહઈ ઉધરિઉ એ, બેત્ર વસતા નાદ પંચમૂરતિ અંબિકતણી એ. નમતાં દુખ નાસઈ ફલ-નાલીઉરે ભેટીઈ એ, સંઘ વિઘન વિણસઈ હિવ અવલેણ સહિર(સિહર) ચડી સહિસાવન પખું લાખારામી કણયરી એ, સિદ્ધ દેહરી દેખું સામિ–પજૂન નવિ બેલ, સિધવણાયગ વખાણ કંચણબલાણુઉં જિહાં છઈ એ, પણિ ઠામ ન જાણું ૩૯ નેમિ ભૂયણિ વલી આવીયા એ પહિરઈ ઈન્દ્રમાલ, ઈન્દ્રમહેછવ દાન દઈ ધજ ચડઇ વિશાલ, હેમકલસ દંડ ઝલહલઈ એ સાજણ વિહાર પૃથ્વી જઈ પ્રાસાદ તલિ ગિરુઉ ગિરનાર ૪૦ લાખ બહુત્તિરિ પાંચ કેડિ વિસલપુરી વેચી સિદ્ધરાય જેસંગદેવિ નિજ કરતિ સંચી વીરાહુ સંઘવી સજાણ શવરાજ પ્રસીધG કનક કલસ ધજ ઠવિય ભૂયણિ જિણિ જસ લીધ9 એકમના નિતુ સુણઈ એ એહ જિણહર-માલ તીરથ યાત્રા તણુએ ફલ હેઈ વિશાલ ઇતિ શ્રી ગિરનાર ચેવ પરવાડિ સંપૂર્ણ સમાપ્તઃ કલ્યાણું ચ | ૪૧. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગિરનાર ચૈત્ય પ્રવાડિ વિનતિ સં, વિધાત્રી વોરા કર્તાના નામનિર્દેશ વગરની આ ચૈત્ય પરિપાટી આ પહેલાં જે “ગિરનાર ચેર પ્રવાડી' જોઈ ગયા એને કેટલેક અંશ મળતી આવે છે, તેમજ ઐતિહાસિક માહિતી પણ ઘટાડે છે. પરંતુ વિશેષમાં પ્રસ્તુત રચના એક સુંદર કાવ્યકૃતિ પણ છે. કવિનું અનુભાવન-સંવેદન આગળની કૃતિ કરતાં ગાઢ લાગે છે. અને અભિવ્યક્તિ પણ તદનુરૂપ રોચક અને ભાવવાહી છે. આ પહેલાં ચચી એ કૃતિ માત્ર પ્રાસંગિક તથ્યલક્ષી જ છે. આ મૂળગત ભેદ, બને કૃતિઓ એક પછી એક જોઈ જતાં સહજ રીતે વરતાય છે. બંનેને કાવ્ય ઢાંચે જ એવી રીતને છે. પહેલી પરિપાટીને આરંભ સીધેસીધો યાત્રાવર્ણન રૂપે જ છે, જ્યારે આ તીર્થ વંદનામાં તે કવિ સખીને ઉબધી ચૈત્યપ્રવાડી ગાઈ સંભળાવે છે. અને ખરેખર સારીએ રચના ગેય અને રક્તિપૂર્ણ હોવાને અનુભવ થાય છે. ગિરનાર પરના અને નીચે જૂનાગઢ અને અન્ય યાત્રાનુષગિક સ્થાનોને માટે બને કાવ્યોમાં લગભગ સમાન કહી શકાય એવા ઉલ્લેખ છે. જો કે એકમાં એક વાત વિશેષ છે, બીજામાં બીજી આખરે એક જ તય વિષે કહેવાનું હોઈ, વિષય એક જ હેઈ, સમાનતા સામાન્ય રીતે સંભવી શકે છે. આ વાત કાવ્યનું કથાવસ્તુ તપાસતાં સ્પષ્ટ બની રહેશે. આરંભમાં સરસ્વતીની સ્તુતિ કરીને કવિ ગિરનારમંડન, યાદવવંશવિભૂષણ નેમિનાથનાં ગુણ ગાય છે. કવિ સખીને સંબોધીને કહે છે, “સખિ, ગિરનાર ઉપર જઈએ અને જન્મનું સાફલ્ય લઈએ, (વળા) ત્યા ચતુર્વિધ સંધના મેળાપ થતાં બેવડે લાભ મળે.' એમ તીર્થમાળાનું પ્રવેશ પદ ઉચ્ચારે છે. યાત્રા “મંગલપુર” (માંગરોળ)થી શરૂ કરે છે, ત્યાં પાર્શ્વનાથને પ્રણમી, “વણથલી (વંથળી)માં સોળમા તીર્થંકરના દર્શને આવે છે. આ કવિ સ્થૂળ દષ્ટિ રાખી યાત્રાએ નથી નીકળ્યા, પણ ક૯પનાવિહાર કરતા હોય એમ લાગે છે. વ થળીથી “તેજલપુર' (ઉપરકોટની નીચ)માં પાર્શ્વનાથને નમે છે. ત્યાં કોઈ તળાવના ઉલ્લેખ કરે છે, જે તેજપાળ કારિત 'કેમરસર' જ હોવું જોઈએ.– હવે જુનાગઢમાં (ઉપરકેટમા) પ્રવેશ કરી ત્યાં મહાવીર અને આદિનાથનું પૂજન કરે છે. તે પછી સોવનરેખ સોનરેખ) નદીને ઉલલેખ કરી, “દામોદર વાટ પકડે છે; ત્યા ડાબી બાજ “કાલમેધ ક્ષેત્રપાલના મંદિરનું નિર્દેશ કરી, નજીકમાં રહેલા દાદરના ઘાટ વસ્તુપાળ મંત્રાએ બ વાવ્યાનું જણાવે છે. દામોદરથી ગિરનારની પાજ સુધીના માર્ગનું રોચક વર્ણન કરે છે. ત્યાં દેખાતા નિસર્ગનાં દશ્યોના સો દર્યનું વર્ણન કરતાં કવિ રસપ્રવણ બની, સખીને કહે છે કે કોઈ પ્રણયી યુગલ એ માર્ગે જતાં જરા વિશ્રામ લેવાને વિચાર કરે છે, પણ પ્રેયસ માનતો નથી. એમ સાંસારિક ભાદ્રકમાં બેડું આવી જઈ, ગિરનારની પાજ સુધી આવી રહેતાં, કવિ પાકના ઉલ્લેખ સાથે જ એના બનાવનાર બાહડદે (વાગભટ મંત્રી)ને ધન્યવાદ આપી દે છે. પર્વતનાં ચઢાણ સાથે સાથે કર્મો ખપતાં જાય છે, એમ કહી સીધા જ કેટ સુધી આવી પહોંચે છે. પરંતુ એ પહેલાં માર્ગની પ્રાકૃતિક અદ્દભુતતાનું સંવેદના કવિ અનુભવે છે તેનું મને હર વર્ણન કરે છે. કેટના દરવાજાથી ખડકી બંધ માર્ગ વટાવતાં (મિજિનના) મૂળ ગભારે પ્રવેશતાં જ મંદિરમાંથી આવતી સુવાસિત દ્રવ્યની દિવ્ય સુગંધને Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૨ ગિરનાર ચેત્ય પ્રવાડિ વિનતિ નિર્દેશ કરી, મંદિરમાં “નેમિનાથને પ્રણમે છે. એ પછી ઈદ્રમંડપમાંથી પસાર થઈ, ગજપદ કુંડમાં સ્નાન કરી, કવિ પૂજનવિધિ વર્ણવે છે. બેતર બિંબ અને “અષ્ટાપદ'ના આઠ બિંબનું પૂજન કરે છે. આમ ક્રમે ક્રમે “શત્રુજયાવતાર આદીશ્વર', “અષ્ટાપદ', “સમેત શિખર'ના દેવો, મરુદીવ અને કવડીલ યક્ષ” (કપદ યક્ષ) તેમજ “નેમિનાથ”ના કલ્યાણત્રય મંદિરમાં દર્શન કરી, રથનેમિ-રાજમતીના મંદિરોની મુલાકાત લઈ, અંબાજીની ટૂંક સુધી પહોંચી જાય છે. પછી “અવલોકન શિખર', અને “શામ્બ-પ્રદ્યુમ્નને નમી, હેમબલાનક' બિંબને જુહારે છે. ત્યાંથી કંટાઈ કવિ “સહસારામ” (શેષાવન), “લાખારામ”, “ચંદબિંદુ' (ચંદ્રગુફા), સહસ્ત્રબિન્દુ ગુફા, સાતપુડા અને કાળકા (2) ) ગુફામાં નમસ્કાર કરી, ત્યપ્રવાડી પૂર્ણ કરે છે. આ સિવાય બીજા નહિ નિર્દેશાયેલાં અનેક સ્થાનકે અને છત્રશિલા” (ભૈરવ જ૫ ?) )ને પણ ઉલ્લેખ કરે છે. આ પ્રમાણે કવિ સખીને પૂરી ચૈત્યપ્રવાડી ગાઈ સંભળાવે છે. કવિ ભાવિક છે, માટે પૂજાવિધિના વર્ણનમાં ખાસી ૬ કડી રોકે છે, (૧૫ થી ૨૧) કવિ હૃદય પ્રકૃતિનું ચેહર સૌંદર્ય નીરખી રોમાંચિત થઈ પહેલી ૮ કડી તે તેનું વર્ણન ગાવામાં રોકે છે. આમ પરિપાટીને અર્ધો ભાગ કાવ્ય વ્યંજના માટે રાખી, શેષ ભાગમાં ઐતિહાસિક માહિતી આપે છે. ને ત્યાં પણ કવિની કાવ્યકળા તે છતી થતી રહે જ છે. (૬ શ્રી કડીને પૂર્વાધ નથી.) આગલી “ગિરનાર ચેર પરિપાટીમાં નથી આપ્યા એવા, મંગલપુરના પાર્શ્વનાથ, વંથલીના શાંતિજિન, દામોદરને ઘાટ વસ્તુપાળે બંધાવ્યાને ઉલેખ, હેમબલાનક (કાંચન બલાણ), છત્રશિલાના ઉલેખ, ઇત્યાદિ આ કૃતિમાં મળે છે. આ રચના જે પ્રતિમાંથી મળી છે એને લેખન સંવત સતરમા શતકને લાગે છે. પ્રતિ લા.દ.ભા.સં. વિદ્યામંદિરમાંથી પુણ્યવિજયજી સંગ્રહની (નં. ૮૨૮૫) છે. પ્રતિ પરિમાણ ૨૬.૪૪. ૧૧.૧ સે. મિ. પંક્તિ ૧૪; અક્ષર ૪૮ (દરેક પત્રમાં સરાસરી) છે. કાવ્યની ભાષા પણ આગલી કૃતિ “ગિરનાર ચેન્ન પ્રવાડી” કરતાં થોડી પાતરા સમયની છે. વ્રજભાષાના કવિ જેવું પદ લાલિત્ય પણ છે. ગિરિસ્થ સ્થાને માટેની ઐતિહાસિક વિગતોની ચર્ચા આગલી કૃતિ વખતે કરેલી છે, એટલે અહી તે પર વિશેષ ચર્ચા અનાવશ્યક બની રહે છે. કૃતિ રથનેમિનું મંદિર બંધાઈ ગયા પછીની છે અને એથી ૧૫મા શતકના દ્વિતીય ચરણમાં ક્યારેક રચાઈ હશે. પાદટીપ ૧. રતનશેખરસૂરિશિષ્ય કૃત “ગિરનાર તીર્થમાળા' - (ક. ૧૪), પ્રાચીન તીર્થમાળ ભા ૧, ભાવનગર, વિ. સં. ૧૯૭૮. ૨. હેમહંસકૃત “ગિરનાર ચૈત્ય પરિપાટી' (ક. ૩૦-૩૪). સં. પં. બેચરદાસ દેશી, અમદાવાદ વિ. સં. ૧૯૭૮ પુરાતત્ત્વ ભા. ૧ (પૃ. ૨૯૩). Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ગિરનાર ચૈત્યપ્રવાડિ વિનતિ સરસતિ સામિણ વીનવું માગઉ એક પસાઉ ગિરનારહ ગિરિમંડણુઉ ગાસિઊં યાદવરાઉ ॥ ૧ ખિ, ઊજિગિરિવર જાઇએ એ, ફૂલ લીજઇ ઇણુ સંસારિ ચવિહુ સંઘ મેલાવડઉ ચડઉ ગઢ ગિરનાર —સખિ૰ આંકિણી છ મંગલપુર મહિમા ઘણ”, પણમઉ પાસ જિણુંદ સંતિજિજ્ઞેસર સેલમ, વણુથલી વીરજિષ્ણુ દ અમરિતતઉ અધિકેરડઊ', જલનિર્મલ ભરિ* તલાવ તેજલપુર પહ પણમીઇ, પાસનાડુ સકલાવ ગઢજૂન જિગ જાણીઇ, જાણે ગિરિકલાશ વીર-આદિ પૂછ તિહાં જિષ્ણુ, તિહુઁયણિ પૂરઇ આસ સેાવનરેખ નદી વહેઇ, દામેાદર તીર વાટ કાલમેઘ ડાખઈ અછઈ, વસ્તુપાલ આ ઘાટ -સખિ॰ સખિ૦ -સખિ —સખિ૰ —સખિ આંબા જાબૂ આંખલી, ખીજઊરી બહુરંગ મારિગ વનરાજી ઘણી, ખડૂલી દીસઇ છાહુ એક ભણુઇ ઇહા ખઇસી, પણ પ્રેમિ ન મૂકઈ બાહુ —સખિ॰ માર મધુર કી ગારડા, કોઇલ સલલિત-સાદ પરખત પાણી ઊતરÛ, નીઝરણે નીર નિનાદ —સખિ॰ ~સખિ॰ હવ પદ્ધિ પરવ દેખીઇ, દેખીઇ જન—વિશ્રામ પાજઇ ચડતાં સાહિલૂ, ધન માહડદે તુમ્હેં નામ —સ॰િ ખીજી ત્રીજી તર્ક વલી, વલી ગયા સિવ કર્મ તાઢ વાઉ તિ વાઇઉ, ટલઇ શરીરદ્ધિ શર્મ ખડકી એ વલી કરી, સૂયકારા િચઉથી પર્વ પાલિ પ્રવેસિદ્ધિ પુહવીઇ, મેલ્હી મનના ગર્વ દેઉલ દીઠઉ દેવન, જાણે સ્વર્ગ–વિમાન અમીય રસાયણ ઊજલૂ', અહિવા પુણ્ય-નિધાન ત્રન્તિ પ્રદક્ષણ પરિકરી, હરી દુરી સિવ પાપ મૂલિ ગભારઇ આવીયા, દુખડુ ટાલિય વ્યાપ —સખિ॰ —સખિ —સખિ॰ ર ૩ ૪ ૫ ७ . રે ૯ ૧૦ ૧૧ ૧૨ ૧૩ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૪ શ્રી ગિરનાર ચિત્યપ્રવાડી કઈ કસતૂરી વજા મઈ કઈ કલપતરક? સામલવન સેહામણઉ, પણમિય નયણાણુંદ –સખિ૦ ૧૪ ઇંદ્રમંડપ માહિ થઈ ગજપતિ કુડિ સમાન નિર્મલ ધતિ સુપહિરઈ, માગત–જન દીજઈ દાન –સખિ. ૧૫ કલસભરી સેવન–મઈ, નીર નિરોપમ ગંગ ઉત્સવિસિઉ સંધિ સહી, નેમીસર ભૂયણિ રંગ –સખિ- ૧૬ કુસમંજલિ વિધિ સાચવી, સાપન સામિ સરીર આદરિ અંગ વિલુહિઈ, પાવિત્ત હુઈ શરીર –સખિ૦ ૧૭ બાવનિ ચંદનિ ચરચીઈ, અરચઈ કુશમહ માલ પૂજ રચી મન ભાવતી, ગુણ ગાઈ વર બાલ –સખિ૦ ૧૮ ચેખા આખે અતિ ઘણા, ફલફેફલ પકવાન સાલિ દાલિ ઘત સાલણું, ઢોઈ વસ્તુ પ્રધાન –સખિ૦ ૧૯ ખેલા નાચઈ ખંતિસિઉ, અંગિહિ રંગ અપાર પુણ્ય પાર ન પામઈ, ધ્વજ આરેપિય સાર -સખિ૦ ૨૦ આરતી આરતિ હરઈ, મંગલદીપકમાલ જે ભવીયણ ભાવિ કરઈ, પ્રતપઈ તે ચિરકાલ –સખિ૦ ૨૧ પખે[] બલી પૂજતાં, પૂજઈ ન(ને)હ જગીસ પાઊમંડપિ પાદુકા, સતરિસઉ જગદીસ –સખિ૦ ૨૨ જગતિ જગ તિસઊ ઈઈ, બહુતરિ દેહરી બિંબ આઠ તીર્થંકર આગલા, તે પૂજઉ અવિલંબ –સખિ૦ ૨૩ અભિનવઉ સેતુજ અવતરિઉ, આદિલ પૂય પાય અષ્ટાપદ સમેતિ સિ', મરુદેવિ કવડિલ રાય –સખિ૦ ૨૪ કલ્યાd [કલ્યાણત્રય) નિરખીઈ હરખીય ચિત્ત અપાર ત્રિહરૂપે નેમિ પૂજીઈ સફલ હૂઈ સંસારિ –સખિ૦ ૨૫ રાજીમતી રહનેમિસિઉં, અબિક આગઈ કૃમિ ફલનાલીયરે ભેટીઇ, પૂરઈ મનના રંગ –સખિ૦ ૨૬ અવલેણ સિફિરિ નમી, સામિપજૂનકુમાર હેમ બલાણુઈ બિંબ અછઈ, જિણવર તીહ જુહારુ –સખિ૦ ૨૭ સહસારામ સરૂયડું, દૂયડું લાખારામ ચંદ્રબિંદુ ગુફ જિન નમૂ, છત્રસિલાઈ પ્રમાણુ –સખિ ૨૮ રૂડાં થાનક છઈ ઘણા, ગુણણા નહી મજ્જ પાડિન મનસિદ્ધિ માહી કરી, કીધીય ચૈત્ય-પ્રવાડિ –સખિ. ૨૯ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૫ સં. વિધાત્રી વોરા પુનરપિમણિ ઊલટી સહી, નેમીસર પ્રાસાદિ મનહ માહિ ઈમ માનીઉં, છતઉ જગિ જયવાદિ –સખિ૦ ૩૦ યાદવરાય નમી વલી, તીરથપતિ ઉદયવંત વલી વિશેષિ જોઈઈ, ગુડ ન લાભઈ અંત –સખિ૦ ૩૧ ત્ય ગુરુ બંધવ તાય તું, તૂ પરમખ પર દેવ મેં સેવક કરુણા કરી, પાતલિ દેજે વાસ –સખિ૦ ૩૨ તીરથભાલા જેઉ ભણુઈ, ગુણઈ સદા સવિચારુ અલિય વિઘન દૂરિ પુલઈ, પામઈ સુકખ ભંડાર –સખિ૦ ૩૩ ઇતિ શ્રી ગિરનાર ચૈત્યપ્રવાડી વિનતી Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અજ્ઞાતકર્તૃક “નેમિનાથ ભાસ” સં. વિધાત્રી વોરા પ્રસ્તુત કાવ્ય “ભાસ પ્રકારની કાવ્યરચના છે. એ નેમિનાથ ભાસ એવા નામે હેવા છતાં વાસ્તવમાં ગિરનાર યાત્રાવર્ણન છે. આરંભમાં જ કવિ સોરઠદેશમાં જૂનાગઢમાં રાજુલવરનેમિનાથની સ્તુતિ ગાવાને નિર્દેશ કરે છે. સાથે સાથે જ યુગાદિદેવ, વર અને પાર્શ્વનાથને વંદના કરે છે. એટલે કે સોરઠપ્રદેશ ગિરનાર ઉપર નેમિનાથની યાત્રાએ જતાં “ઉપરકોટ'માંના શત્રુંજયાવતાર આદિનાથ, સત્યપુરમંડન મહાવીર સ્વામી અને તેજલવસહી-પાર્શ્વનાથના મંદિરના દર્શનને નિદેશ અહીં અભિપ્રેત છે. બીજી કડીમાં સોવન રેહ (સોનરેખ-સુવણરેખા' નદીને ઉલલેખ કરી, સાતમી કડીમાં દાદરકુંડ સુધી આવતાં વચ્ચેની ચાર કડીમાં કવિ પ્રકૃતિવિહારની મોજમાં રાચે છે. આઠમી કડીમાં ફરી વર્ણનવિભોર બની, નવમી કડીમાં ગિરનારની પાજો ઉલ્લેખ કરે છે. “કિરિ આવ્યાં સરગકિ ટૂકડાં' એમ દસમી કડીમાં કવિ “કેટ’ સુધી આવી પહોંચ્યા લાગે છે. અને ત્યાંના સજજનમંત્રિએ બંધાવેલાં જિનાલય (કડી ૧૧), તે પછી “નાગઝરા – મેરઝરા', ગજપદકુંડ' અને “મુચકુંદની ગુફાને નિર્દેશ કરે છે. (કડી ૧૨) – ૧૩મી કડીમાં નેમિનાથનું કલ્યાણયનું મંદિર, અષ્ટાપદ અને “સમેતશિખરનાં લલિતપતિ (વસ્તુપાલ')એ કરાવેલાં વિહારનાં દર્શન કરે છે. પછી રાજુમતીને સ્મરી, “અંબાજી”, “અવલોકન (ગુરુદત્તાત્રય, “સાંબ (શાંબ-ગોરખનાથ)”, “પજૂન (પ્રદ્યુમ્ન–ઓઘડનાથ) અને સિદ્ધિ વિનાયક’ના સીધાં ચઢાણની આકરી પાજનો ઉલ્લેખ કરે છે. કડી ૧૬માં “સહસાવન (શેષાવન સહસ્સામ્રવન) લસણ (લાખાવન – લક્ષામવન)'ને ટાંકી પાછા “ગજપદકુંડ' આવી, નેમિનાથની પૂજા કરી ભક્તિભાવે ભાસ પૂરી કરે છે. પ્રકૃતિનું વર્ણન પ્રાધાન્યવાળી રચના હેવા છતાં ધાર્મિક ભાવનાને અંતઃસ્ત્રોત સતત વહે છે. માત્ર ૧૭ કડી જેટલું ટૂંકું હોવા છતાં તેમાં ઐતિહાસિક માહિતી ભરપૂર છે, એ કાવ્યની વિશેષતા છે. લાલભાઈ દલપતભાઈ ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિરની નં. ૮૬૦૧, ૨૪૪૯૮ સે. મિ. માપની આ પ્રતિમાં વિષય અને કર્તાના વૈવિધ્યવાળી કુલ ૧૫૦ રચનાઓ છે. આ રચના પત્ર ૬૩– ૬૪ અને ૧૬૬–૧૬૭માં છે જેને અનુક્રમે અને ૨ સંજ્ઞાથી સમજીને પાઠભેદ નાંખ્યા છે. અક્ષરો અસ્પષ્ટ છે તદુપરાંત કક્યાંક ક્યાંક શાહી રેલાઈ જવાથી બગડયા છે. પ્રતિ લિપીકાળ સોળમાં શતકથી અર્વાચીન નથી. જ્યારે ભાસની રચના પંદરમા શતકના પૂર્વાર્ધમાં થઈ હોવાનું ભાષાના અધ્યયનથી જણાય છે. નેમિનાથ ભાસ સહી સોરઠમંડલ જાઈયઈ રાજલિવર રંગિઈ ગાયઈ જઉ જૂનઈગાઢિ યુગાદિદેવ વર-પાસ જિણેસર કરું સેવ-૧ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૭ સપા. વિધાત્રી વોરા પિલિ વઉલીય સેવન તીરિ સીયલ જલ નિર્મલ અઈ ગંભીર તર્યરતલિ દીસઈ વિસમ ઘાટ રવિકિરણ ન લાગઈ તેણુ વાટ-૨ વામદાહિણ પરવત તણીય ઉલિ દીસઈ તલિ વિસમ ઝોલિ રાયણ ઘણુ ગહરીય છાંહડી ધન ચાલંતિ લડત બાંહડી-૩ તલિ પાચીય પડઇ તિ કેકડી વસ ભૂખ નહી તિહાં ટૂકડી સહકારિઈ કેયલિ ટહકાઉ કામિણિ મનિ હરખિઈ ટહકાઉ-૪ અંબ આંબીય ઊબર આંબિલી ફલ ભરીય તિ દીસઈ અતિ ભલી સરલા તરુ કેવીય માધુરી દીસઈ દલ ફલ ફૂલિ સાથ–પ વર વણસઈ વિકસીય કુસુમારિ સેહામણું મહૂયરિ રણઝણારિ આભૈરીય આણંદિ વન મઝારિ રછયલિ છાય રતિ રમાઈ તે જોયારિ-૬ દામોદર દાહિણિ દિસિ નિહાલિ કેકિ કરઈ તિ તાંડવ મિલીય તાલિ કાલમેધિઈ કલરવ કરઈ કવિ એક છાહ છાહી ચિહુ ગમેવિ-૭ સવિ મારગ સાંકડ વાંકડા રંગિ રમતા દીસઈ માંકડાં નિઝરણું ઝરણ રણઝણ ઊતરઈ તીણ નાદિઈ મયૂરીય રવ કરઈ–૮ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૮ અજ્ઞાતકર્તક “નેમિનાથ ભાસ? કેલિ કુંદરિ કિંનરી રમઈ રાસ સેહાવ ઊજલિગિરિ નિવાસ પાજ પાણીય પરિઘલ પરવડી ચાલતી ચાચરિ રમઈ ગેરડી-૯ જિમ જિમ ચડિયાં ઊચાં ટૂકડાં કિરિ આવ્યાં સરગ કિ ટૂંકડાં ઊરિલિગિરિ ઊપરિ જેઈઈ પુષ્યભવ કય કલિમલ પેઈઈ-૧૦ અતિ ઊલટિ સાજણ મંત્રિ વિહારિ ધન નેમિ નિહાલઈ તિ નરનારિ સુંદર જિણમંદિર મઠ વિશાલ રવિ રાસ રમઈ તિહાં મિલીય બાલ-૧૧ નાગઝિરિ મેરઝિરિ ઝરઝરઈ નીર ગયંદમઈ જમલિ નહી અમીય ખીર મચકુંદ નીમાલય જાઈ વેલ ચંપકવણિ અલીલ કરઈ ગેલિ-૧૨ કલ્યાણત્રય વાસવ ઠાણ ચંગ આદિમ દિર જેય તાં અતિહિ રંગ અઠ્ઠાવઈ સંતસહિર સાર લલતા પતિ કરીય સામ્રાર-૧૩ જબ કાજલ વન ઘન કંકૂય લેલ રાજમતીય જેય તાં રંગ રેલ પંચાયણ ગામિણિ પઢમ અંબા અવયાલયણ બીજ ય તીય સંબ-૧૪ તંગિ અંગિ રંગિ ચઉત્થઈ પજુન દેવ તિહાં સિદ્ધિ વિણાયક કહઈ કેવિ નીસરણું દોહિલી કડી સેર કાયર જણ ચડતાં ચડઈ ફેર-૧૫ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ સંપા, વિધાત્રી વેરા દિસઈ દુહદિસિ તુંગ શૃંગ સહસંબ-લસ્સવણ પમુહ ચંગ ત્રિતુ ભૂયણે ઉપમા નહાય જાસ ગગનાચલ છાંડઈ ભવહ પાસ-૧૬ ગજપદ-જલિ નેમિઈ ન્હવીય અંગ પ્રભ પૂછય પૂરિસુ મન રંગ ભાવિ ભગતિહિં ભણે સિઇ એક ભાસ સિરિ નેમિ પૂરેસિઈ ભવિય આસ-૧૭ –ઈતિ પાઠભેદ ૧૧ મંલિ જાઈઈ એ; ૧૨ - ગાઈઈ ર – ૧.૩ જય; જેગાદિ ૧.૪ કરવું ૨.૨ નિમલ અય ૨.૩ વિસમા - ૨.૪ તીણ ૩૫ ૩.૧ પરબત ઓલિ – ૩.૨ દીહર ૪.૨ ત્રિસ; ૪.૩-૪ ટહિકડઉ– ૫.૪ માથરા ૬.૧ ભાર મ૬૨ મહૂલિ; ૬.૩ આભૈરી કર ૭.૪ એક છાંહ ઈ છાતીય ચઉહ ગમેવિ. ૮.૩ ઉવારઈ – ૯.૩ પર લગ ૧૦.૧ ચડવાં ; ટકડાં – ૧૦.૨ ટૂકડાં ૧૦.૩ ઈય ૧૦.૪ ઈય – ૧૧.૧ વિહારે ૧૧.૨ જે ગ; - ૧૨.૧ ઝિમિર – ૧૩.૨ જોઈ ૧૪.ર લેલ મ; – ૧૬.૨ લખાવનિ મ; ૧૬.૩ ઊપમ ૧૭.૩ એઓ - ૧૭.૪ તીહ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કવિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ સંપા, કનુભાઈ ત્રિ. શેઠ પ્રાસ્તાવિક પ્રાચીન – મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્યમાં વિકસેલા અનેક લઘુ કાવ્ય પ્રકારોમાં “ફાગુ' કાવ્ય પ્રકાર સ્વરૂપની અને વિષયવસ્તુની અપેક્ષાએ સેંધપાત્ર છે. વર્તમાને લગભગ ૭૮ જેટલાં ફાગુ કાવ્યો ઉપલબ્ધ છે; જેમાંથી ૫૦ જેટલાં પ્રસિદ્ધ થયેલાં છે. અહીં એક અપ્રકાશિત – લાવણ્યરત્ન શિષ્ય કવિ કેશવકૃત – નેમિનાથ ફાગને સપરિચય પ્રસ્તુત કરવામાં આવે છે. પ્રતવર્ણન અને સંપાદન પદ્ધતિ પ્રસ્તુત કૃતિનું વર્ણન લા. દ. ભારતીય સંસ્કૃતિ વિદ્યામંદિર, (અમદાવાદ)ના મુનિશ્રી પુણ્ય વિજયજી હસ્તપ્રત ગ્રંથભંડારની એક માત્ર પ્રત (ક્રમાંક (૭૯૪) પરથી કરેલ છે. પ્રથમ પૃષ્ઠ પર તીર્થકર ભગવાનનું રંગીન ચિત્ર દોરેલ છે. પ્રત્યેક પત્રનું માપ ૨૪.૭ ૪ ૧૧.૦ સે.મિ. છે. બને બાજ ૩,૦ સે.મી. ને હાંસિયો છેઃ પત્ર ક્રમાંક પત્રની ડાબી બાજુ લખેલો છે; પાતળા કાગળની આ દેવનાગરી લિપિમાં લાલ તથા કાળી શાહી વડે લખાયેલ છે. લેક ક્રમાંક લાલ શાહી વડે લખેલે છે. પ્રતની લેખનમિતિ દર્શાવી નથી; પણ તે લિપિ અનુસાર અનુમાને અઢારમા શતકની હેય તેમ લાગે છે. આરંભઃ (કોઈ સૂચન નથી.) અતઃ તિશ્રી નેમિનાથ = સંપૂfમશીનરનું સંપાદનમાં સર્વત્ર પ્રતિ અનુસારને મૂલપાઠ કાયમ રાખે છે. કાવ્યના કર્તાઃ કવિ કેશવ કાવ્ય-પ્રશસ્તિ પરથી એના કર્તા વાચક લાવણ્યરનના શિષ્ય કેશવ હેવાનું નિશ્ચિત છે. કૃતિની રચના સંવત ૧૭૫૧ (ઈ. સ. ૧૬૯૫) ફાગણ સુદ તેરસના દિને પાટણમાં થઈ હોવાનું કહી શકાય. સંવત સતર એકાવન વરખ ફાગણ સુદ તેરશ હરખે રે, ને પાટણ સહર સદા સુખદાઈ એ ફાગ રચે વરદાઈ રે, ૧૦ ને. વાચક લાવન્યરત્ન પસાયા, કેશવ જિનના ગુણગાયા રે, ને ભણસ્ય ગુણસ્ય જે સાંભર્ય, તેહના મનવંછિત ફલસ્ય રે ૧૧ ને. આ કવિ વિશે આટલી માહિતી મળે છે. એમનું નામ કેશવ કેશવદાસ અને અરિનામ કુશલસાગર હોવાનું જાણવા મળે છે. ખરતર ગચછના જિનભદ્ર શાખાના સાધુકીર્તિની પરંપરામાં લાવણ્ય Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સપા, કનુભાઈ વ્ર. શેઠ ૧૫૧ રનના શિષ્ય હેવાના ઉલ્લેખો એમની અન્ય કૃતિઓમાં મળે છે. આ કૃતિ સિવાય કેશવબાવની, માતૃકાબાવની (ઈ. સ. ૧૬૮૦) અને “વીરભાણુ ઉદયભાણ રાસ” (ઈ. સ. ૧૬ ૮૯) જેવી કૃતિઓ રચી હેવાના ઉલ્લેખ મળે છે.' નેમિનાથ ફાગઃ કાવ્ય તરીકે નેમિનાથ ફાગ” એ ૧૧૫ કડીનું ફાગુ કાવ્ય છે. વર્ષ વિષય જૈન પરંપરામાં પ્રસિદ્ધ બાવીસમાં તીર્થંકર નેમિનાથના ચરિત્રના કેટલાક પ્રસંગને આલેખવાને છે. કાવ્યારંભે કવિએ નેમિનાથના ગુણસ્તવનો નિર્દેશ કરી, શીલને મહિમા વર્ણવે છે. શીલ વડો સંસાર મ, શીલ વહઈ સિદ્ધિ, મનવાંછિત શી મિલે, અષ્ટ-સિદ્ધિ નવ-નિધ્ધિ ૨ કવિ નેમિનાથના ઇન્દ્ર ઉજવેલ જન્મ-મહત્સવના નિરૂપણમાં નેમિકુમારના દેહ-લાવણ્યનું વર્ણન માત્ર એક પંક્તિમાં સુંદર રીતે આલેખે છે : • “સમલ–વરણ સેડામણ, કાયા ધનુષ દસ” ૧૫ સ. એ જ રીતે નેમિકુમાર અને મિથાદષ્ટિ દેવના પ્રસંગને કવિ શીધ્ર – ગતિએ વર્ણવે છે. ઇન્દ્ર વિનંતી કરી એ દેવને નેમિકુમાર પાસેથી છોડાવે છે, તે ઉક્તિ ઉલ્લેખનીય છે; કેમકે તે નેમિકુમારના વ્યક્તિત્વને છતી કરે છે. અતુલી–બલ જિનવર કહ્યા, તાહરી કુણ કરે હોડ, એ મુરખ મહા દેવતા, કહે ખામૈ કર જોડિ ૧૮ સત્ર અત્રે “અતુલી બલ” નેમકુમાર અને “મુરખ મહા દેવતા'ના પરસ્પર વિરોધી નિરૂપણ દ્વારા કવિએ નેમિકુમારના વ્યક્તિત્વને વિશિષ્ટ એપ આપ્યો છે. બીજી ઢાળમાં કવિ નેમિકુમારના શૌરીપુરથી દ્વારિકા આગમનના પ્રસંગને વર્ણવે છે. રાજા ઉગ્રસેન અને માપવાસી તાપસના પ્રસંગને કવિ શીધ્ર ગતિએ કથાત્મક રીતે વર્ણવી જાય છે. તાપસને પારણા કરાવવા અંગેના પિતાના વચનનું પાલન ન કરી શકનાર ઉગ્રસેન પર ક્રોધે ભરાયેલે તાપસ “આને મારક થાઉં” એવું નિયાણું કરીને મૃત્યુ પામ્યો, તે પ્રસંગને કવિ આઠ કડીમાં સંક્ષિપ્તતાથી નિરૂપે છે, જે કવિની લાઘવ સાધવાની શક્તિનું ઘોતક છે, એમાં ક્રોધિત થયેલા તાપસની ટૂંકમાં છતાં બળકટ ઉક્તિ લક્ષપાત્ર છે. તાપસ ચિંતઈ એમ, એ રાજા મહાભૂડ, બોલ ન પાલે એ, લક્ષણ વિહેણે લુંડે.” જે તપને પરભાવ, હું હજ્ય મારક એહને, એમ નિઆણે કીધ, મરી પુત્ર ઉપને તેહને. ૩૧ આ પછી કવિ કંસના જન્મ – પ્રસંગને ટૂંકમાં વર્ણવી, એના જરાસંધની પુત્રી જયશા સાથે થયેલા લગ્ન – પ્રસંગનું નિરૂપણ કરે છે. કંસ – પત્ની છવયશા અને સાધુ અતિમુક્તના નાટયાત્મક પ્રસંગને ઉત્કટ શબ્દ દ્વારા કવિએ વાચા આપી છે. મદિરાપાનથી મત્ત થયેલી છવયશા સાધુ અતિમુક્ત પાસે અનુચિત માગણી કરતા કહે છે: ૩૦ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ ४८ ૧૫૨ કવિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ ચું ઘરઘર મળે કાંઈ, સ્યુ કરે પરની આસ, ભેગવ સુખ–વિલાસ, પુરે મનની આસ. ૪૪ તું ભરમે ફિરે કાંઈ, હું કહું છું ગુઝ સાચે, છોડ પર વિરાગ, તન ધન યોવન રાચે. ૪૫ કામાંધ અવયશા અતિમુક્ત પર હુમલો કરે છે, તે શબ્દ-ચિત્ર પણ જુઓ: એ લીધે ખેસ, સંઘટ કરવા લાગી, લવ લવ કરતી તેહ, રહે નહી દેભાગી. ખાઈજઈ તે મીઠ, પરભવ કોણે દીઠે, દેવરને ઉપદેશ, લાગો વચન-એ મીઠો. આ સંજોગોમાં છવયશાની અનુચિત ઉક્તિ તથા વ્યવહાર જોઈને અતિમુક્ત મુનિએ એને મદ ઉતારવા પિતાના જ્ઞાનને ઉપયોગ કરી ભવિષ્યવાણું ઉચ્ચારતા કહ્યું : ગરવ-ઊતારણ કાજ, મુનિવર એહવે ભાખે, સાતમે ગરભ વિણાસ, દેવકીને કહું સામૈ. ૪૯ આવી ભવિષ્ય – ઉક્તિ સાંભળીને જીવયશાને ગર્વ ગળી ગયો. સાતમા ગર્ભમાં ઉત્પન્ન થયેલ વાસુદેવ કૃષ્ણ કંસને મારી, ઉગ્રસેનને રાજગાદી આપી, યાદો સાથે સોરઠ દેશમાં આવી ભાનુ અને ભીરક (ભાભર)ના જન્મસ્થાને દ્વારિકા નગરી વસાવીને રહ્યા. આ વિગત માત્ર બે પંક્તિમાં કવિ વર્ણવે છે. બીજી અને ત્રીજી ઢાળ વચ્ચેના માત્ર આઠ દૂહામાં કવિએ કૃષ્ણ વાસુદેવ સાથે રહેતા નેમિકુમારનું એક દિવસ અકસ્માત કૃષ્ણના શસ્ત્રાગારમાં જઈ ચડવું, ત્યાં ધનુષ્યને ટંકાર કરવો તથા પાંચજન્ય શંખ વગાડે, કૃષ્ણ અને નેમિકુમાર વચ્ચે થયેલી ભૂજાબલકટી, એમાં કૃષ્ણનું હારવું, અને એમનાં મનમાં પિતાની પદવી જવા અંગે પેઠેલ ભય, તે સમયે થયેલી “દેવવાણી' ઇત્યાદિ પ્રસંગો અતિ-સંક્ષિપ્તમાં વર્ણવ્યા છે જે કવિની કથનકલાના સામર્થ્યની દ્યોતક છે. ત્રીજી ઢાળમાં કવિએ કરેલા વસંત-વર્ણનના કેટલાક શબ્દચિત્ર નોંધનીય છે. ટહુકા કરતી કેયલ અને ગુંજારવ કરતા ભમરાઓની ભેગીઓના મન પર થતી અસર અને સર્વત્ર ખલેલ વનરાજીનું કવિએ સુરેખ ચિત્ર ઉપસાવ્યું છે. ઉચે સરલે સાદ, કેઈલ ટહુકા કરઈ વાળ, ભમર કરઈ ગુંજારવ, ભેગીના મન હર વાટ, કુકી સબ વનરાય, વસંત આવ્યાં સહી વા સવ સણગાર બનાય, મિલાં પિઉને વહી.” ૬૫ વસંતાગમને વન ક્રીડાથે વિવિધ સાજ સજીને નીકળેલ ગોપીઓનું આ ચિત્ર પણ એની સ્વાભાવિકતાને કારણે નેંધપાત્ર છે. સજિ કર સેલ-શૃંગાર, વિરાજે પદરાણી વાટ પગ નેઉર-ઝણકાર, પહિરી ઓઢી બણી વા૦ ૭૧ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૩ સપાકનુભાઈ વ્ર, શેઠ નેમિકુમાર પરણવા પ્રત્યે ઉદાસીન છે તે અંગે ચિંતિત શિવાદેવી અને ગોપીઓ વચ્ચે સંવાદ નાટયાત્મક અને ચોટદાર છે. શિવાદેવી બોલાય, ગૌપ્પાને ઈમ કહે, નેમ ન પરણે કેમ, ઉદાસી કેમ રહૈ, વા૦ ૭૧ પૂછને તત્કાલ, ખબર કરો તહે, વાઇ મન્ના વિવાહ, તે ગુણ જાણું અહે, વા૦ ૭૨ શિવાદેવીએ આપેલ આ પડકારને ઝીલી લેતી ગોપીઓની મર્માળી ઉક્તિ વારૂ વારૂ કહીને, સહુ ઊઠી તદા, વાટ નેમિ કુમારની વાત, રાખી મન મેં યદા ૭૨ વસંતના આગમનથી વનમાં વિહાર કરતા જલ-તીરે આવેલા યાદવના સ્વરૂપ દર્શન તથા દેવર નેમિકુમારના શીશ પર કેસર-ચંદન વગેરે ઢળી ગોઠ'ની માગણી કરતી ગોપીનું કવિએ તાદશ ચિત્રાત્મક આલેખન ઉપસાવ્યું છે. ચંદનની રચી ખોલ, અરગજે મહમહ્યા, વાવ સીસ સારંગી પાગ, ખાંગી સિર હતી, વાટ તિલક વિરાજૈ ભાલ, ચાલ મન મોહતી, વા૦ ૭૩ કેસર ચંદન અગર, તગર જેવા તણા, વાટ હાલે દેવર–સીસ, ન રાખે કામણવાટ બેલે એવી વાણિ શેઠ દેત્યે સહી, વાળ અમ વસ પડીઆ સ્વામિ, જાવા દેશ્યા નહીં વા૦ ૭૪ સુંદર રૂપ સરૂપ, સેહે યાદવ તણ, વાટ ઈક ઈક ચઢતૈ રૂપ, નહી કઈ મણ વાળ, લાલ ગુલાબ અબીર, ઉછાલે બહુ પરે, વાવ, માહે માંહિ રમૈ, રસ રાખી ઈણ પરે વાવ” ૭૫ ફાગ રમતા યાદવે અને તે સમયે વાગતાં વાજીનું વર્ણન–એમાં આવતી રવાનુકારી શબ્દ રચના કારણે વિશેષ આસ્વાદીય બન્યું છે: બાજૈ તાલ કંસાલ, ધપમપપ ડફ કરે, વાળ દદ કરે એ મૃદંગ રંગ મધુકર સુરે, વાવ ઢોલક વાજે વીણ, વાજૈ વલિ વાંસલી, વાટ ઈણ પર ફાગ રમત, ચિંતા ગઈ વાંસલી ૭૬ અહીં દીધેલ ગોપીઓ અને નેમકુમાર વચ્ચે સંવાદ પણ મામિક છે, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૪ જિહાં ખેલ ગાવિંદ, ગેાપી આવી તે તિહાં, વા૦ લ્યાવા લ્યાવે ગાઠ, હિવૈ જાસ્યા કહાં,' વા પાસે ઊભેા નેમ, દીઠો ગોપી તિસૈ, વા૦ સગલી આવી ચાલ, દેવરને ઇમ હુસૈ વા૦ સાંભલ દેવર ઘેબર, સરિખા તું અર્થ, વા॰ ગામમાં તાડુરા જોર, કહી ન સકાય છે, વા હિવ આવ્યા અમ હાથ, જોર સ્યા તુમ તણું, વા આ પ્રસંગે રુકમણીની વ્યંગાત્મક ઉક્તિ પણ ધ્યાન ખેંચે તેવી છે. ખેલે રુકમણી નારિ, સંતાવા મન ઘણું, વા૦ એ દેવર પૂજનીક શીલ, જિણ આદર્યા, વા૦, એ માટા ગુણવ ́ત, જિણું મન વસ કર્યા, વા જ'જીવંતીની ઉક્તિ પણ એમાં રહેલેા કટાક્ષને કારણે લક્ષપાત્ર છે. જ'ખવતી કહે એમ નાર, નિરવાડણી, વા॰ ખરા કઠન વ્યવહાર, નાર સંવાદ્ગુણી. વા એ કાયર છે તેમ કેમ, પુરા પૐ, વા૦ જોડા વેડા તેણુ, કહાને કિમ જુડૈ, વા વળી ગાપી પણ નેમિનાથને કહે છે— વિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ ગાપી મિલ બે-ચ્ચાર, નેમી સૂરને કહુઈ, વા૦ તુમ પરણા ઈક નાર, કૃષ્ણ તે નિરવહૈ. વા૦’ ઇણુ વાતે મુખ હાસ, તેમને આવી, વા ગાપી તાલી દેઈ, વીવાડુ મનાવ્યે વા’ ७७ ७८ .. આ મર્મારી ઉક્તિને હસી કાઢતા નૈમિકુમારનું થાડા શબ્દો વડે સુ ંદર શબ્દ-ચિત્ર કવિએ ઉપસાવ્યું છે. ७८ ૭૯ ૮૧ ત્રીજી અને ચેાથી ઢાળની મધ્યમાં આવેલા માત્ર સાત દૂહામાં કવિ બહુ જ ટુંકાણમાં ઉગ્રસેન રાજાની પુત્રી રાજીમતી સાથે નેમિનાથના નક્કી થયેલા વિવાહ, વિવાહ અથે તેમનું જાન લઈ નિકળવુ, મામાં પશુને આ`નાદ સાંભળી તેમનુ વૈરાગ્ય પામવું, અને પરણ્યા વગર પાછા ફરવું, ઇત્યાદિ નાટત્યાત્મક પ્રસંગે કવિએ લઘુતાપૂર્વક નિરૂપ્યા છે, જે કવિની રસળતી કથનકલાનું સૂચક છે. ચેાથી ઢાળમાં કવિ રાજીમતીના વિરહ અને વ્યાકુળતાનું વિશદ આલેખન કરે છે. રાજીમતી નેમિનાથને એક પ્રશ્ન કરતી કહે છે; તેં શા માટે મારા તેડુ તાડી નાંખ્યું ?' Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સંપા, કનુભાઈ વ. શેઠ ૧૫૫ “ અવગુણ તે દેખનઈ, મુઝ સો ત્રાડ્યો નેહ, પ્રત પાલતાં દોહિલી રે, છેલે દાખે છે ૯૧ પ્રિ. પિતાને પ્રિય એવા નેમિનાથ વિનાની પિતાની શી દશા થશે એનું વર્ણન રાજીમતી ઉપમા વડે સચોટ રીતે વ્યક્ત કરે છે. વિણ આધારઈ વેલડી રે, જલ-વિણ મછલી જેમ પ્રિ. તુત્ર વિણ હું તિમ તિમ રહું રે, કહો હિવ કીજે કેમ? પ્રિ. ૨ વળી અકાટય દલીલ રજુ કરતા કહે છે પશુઓને પિકાર સાંભળી એના પર આપને દયા આવી અને મને નિરાધાર તથા આંખમાં આંસુ સારતી દુઃખી થતી એવી મને છોડી ચાલ્યા ગયા, એમાં આપે કેવી રીતે જીવદયા બતાવી કહેવાય? કેમકે તમે મારા જીવને તો દુઃખ આપ્યું જ છે. પસૂઅ–પુકાર સુણી કરી રે, મુઝ છોડી નિરધાર રે, પ્રિ. જીવ–દયા કહે કિહાં રહી, મુઝ આંખે આંસૂધાર ૯૩ પ્રિય વળી રામતી નેમિનાથના આચારને કાયરને આચાર ગણાવી ઉપાલંભ આપે છે તે નોંધપાત્ર છે. પ્રીત પતી પાલતાં રે, ખરે કઠન વ્યવહાર, લીધાં મૂડી જે કરે છે, એ કાયર આચાર.” ૯૪ પ્રિ. સખીઓ રાજી મતીને સમજાવતા જણુવે છે “તું નેમિકુમારને ત્યજી દે, તને એવા અન્ય સાથે પરણાવવામાં આવશે ત્યારે સખીઓને તે કહે છે મારી અને નેમિકુમાર વચ્ચેની પ્રીત તે આઠ ભવની છે. એકદમ કેમ છેડી દઉં?' આ ઉક્તિ નેમિકુમાર સાથેના ઉત્કટ અનુરાગને અભિવ્યક્ત કરે છે. આઠ ભવાની પ્રીતડી રે, નવમે દાખે છે, મે જાણે ઈમ નહીં કરે રે, નિર્મોહી નિસનેહ” ૯ પ્રિ. આ બાજુ સગાં-સ્નેહીઓ નેમિકુમારને પણ આમ કરવાદ' ન કરવા અને પરણવા માટે રથ પાછો વાળવા વિનવે છે પણ નેમિકુમાર તે સંયમ ગ્રહણ કરવા અથે દઢ છે અને ધર્મધ્યાન કરતા અંતે એમને કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે. પાંચમી ઢાલમાં કવિ ગિરનાર પર્વત પર સાધુ બનેલ નેમિનાથ અને સાધવી બનેલ રામતીને મેળાપ થાય છે તે પ્રસંગ વર્ણવે છે. એક સમયે “વર્ષ દરમ્યાન રાજીમતી પોતાના ભીંજાયેલા વસ્ત્રો એક ગુફામાં જઈને સુકવે છે તે વખતે નેમિનાથને ભાઈ રહનેમી એને આ દશા માં જોઈને ચલાયમાન થાય છે. રામતી એને ઉપદેશ આપી સાચા પથ પર લાવી એને ઉદ્ધાર કરે છે તે પ્રસંગને કવિ સંક્ષિપ્તમાં વર્ણવે છે. ભીંજાયેલા વસ્ત્રો સૂક્વતા સાધી રામતીનું સુરેખ ચિત્ર કવિએ સુંદર રવાનુસારી શબ્દ પસંદગી વડે આલેખ્યું છે. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૬ કવિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ ઝિરમિર ઝિરમર વરસે મેહ, જિહાં ભીજે કમલ દેહ રે, ૧૦૭ ૧૦ ચીર સુક ગુફા મેં આવી, રહનેમને મન ભાવી રે ને રાજીમતી પતિ પહેલાં મુક્તિ પામે છે અને નેમિનાથ પણ સાત વર્ષને સંયમ પાળી અંતે મુક્તિ પામે છે. અને બને “મુક્તિધામમાં મળે છે એમ કહી કવિ કાવ્યનું સમાપન કરે છે. કાવ્યની પ્રશસ્તિમાં કાવ્યની રચના સંવત ૧૭૫ના ફાગણ સુદ તેરસના રોજ પાટણમાં થઈ હેવાને ઉલ્લેખ મળે છે. અંતમાં કવિ પિતાના ગુરુ અને પિતાના નામનો ઉલ્લેખ કરી કાવ્ય સંપૂર્ણ કરે છે. વાચક લાવન્યરત્ન પસાયા, કેશવ જિનના ગુણ ગાયારે, ને ભણસ્ય ગુણ જે સાંભ, તેહના મનવંછિત ફલસ્યૌ રે ૧૧૫. આમ આ ફાગ સાંભળનારના “મનવંછિત ફળશે એવી ભાવના પ્રગટ કરી કવિ કાવ્યનું સમાપન કરે છે. ૧. મ.દે. દેસાઇ, જૈન ગૂર્જર કવિઓ-૨, મુંબઈ ૧૯૩૧, પૃ. ૩૫૪ અને ૩૬૬–૩૬૯, ૩. ૧૯૪૪-પૃ. ૧૩-૨૮; તથા ભારતી વૈદ્ય, મધ્યકાલીન રાસ સાહિત્ય, મુંબઈ ૧૯૬૬ પૃ. ૧૨૮. - લય વિહીન વાંકલિ , મા " અને Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કવિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ નેમનાથના ગુણ સ્તવું, આણી ભાવ અપાર, બ્રાચાર ચૂડામણ, વંછિત ફલ દાતાર. સીલ વડે સંસાર મેં, સીલે લહઈ સિદ્ધિ, મનવંછિત સીલે મિલે, અષ્ટ સિદ્ધિ નવ નિદ્ધિ. છતી ઋદ્ધિ જિણ પરિહરિ, છેડી રાજુલ નારિ મહાપુરુષ તે જાણીયઈ, નામ થકી નિસ્તાર. સૂરજિ ઊગ્યાં મહુરથી, સીલવંતના નામ, સહૂ ઊઠી સમરણ કરે, તિણથી સીજઈ કામ. ઢાલ પહેલી ઝબુકડાની સોરીપુર સેહામ, સમુદ્રવિજે કરે રાજ, સનેહી સાંભલે. સિવાદેવી રાણી તહેનઈ, પતિ–ભગતી ઘણલાજ, ૫ સને. કાત્તિક વદિ બારસ દિન, ચવણ થયે શ્રીમ, સ. અપરાજિતની સ્થિત કહી, બત્રીસ સાગરોપમ ૬ સને. ચઉદ સુપન રાણી લક્ષ્ય, મનમૈ હરખ ન માય, સ. જાય રાજાનૈ ઈમ કહે, એને મ્યું ફલ થાઈ. ૭ સને. સમુદ્રવિજૈ કહે સુણ પ્રિયા, પુત્ર હચૈ સિરદાર, સ. શ્રાવણ સુદિ પાંચમી, જનમ્ય નેમિકુમાર ૮ સને. સિઠિ ઈંદ્ર મિલી કરી, છપનકુમારી આય, સ. જનમ-મહોત્સવ સુર કરઈ, મેર-શિખર ન્ડવરાય. ૯ સ. એ વિધ સહુ જિનવર તણી, “જીતકલપ” કહેવાય, સ. ઈક કેડિ દેવ સેવે સદા, પૂજે પ્રભુના પાય. ૧૦ સ. સાંમલ–વરણ સોહામણું, કાયા ધનુષ દશ જોણું, મુખ-છબિ ઓપમ શશિ જિસી, સકલ-કલા-ગુણ–ખાણ ૧૧ સ. એક દિવસ બાલક સમૈ, પાલણે પિડ્યા નેમ, સ. ઈદ્ર પ્રસંસા ઈમ કરે, સહુ સાંભલ સુર જેમ. ૧૨ સ. બાલક–વિ છે નેમજી, તે પણ છે બલવંત, સ. મિથ્યા-દષ્ટિ દેવતા, વાત ન માની તંત ૧૩ સ. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૮ કવિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ અસહમાન સૂર આવીઆ, છેતરવાને કાજ, સ. નેમ પોઢયા જિણ પાલન, તે અપહર્યો તજિ લાજ ૧૪ સ. સવા લાખ જેજન લગે, લે ઊડડ્યો આકાસ, સં. નેમકુમાર અવધે જાયે, મનમાં રહ્યા વિમાસિ ૧૫ સ. નેમ-વિચારે મન્નમે, વકે વાંક હોઈ, સ. અંગૂઠા સું ચાંપી, ધરતી મૈ ગયે સાંઈ ૧૬ સ. સો જન ઊંડે સહી, દુખ પામ્ય અસમાન, છોડાવ્યું આવી, સ્વામી એ અગન્યાન ૧૭ સ. અતુલી-બલ જિનવર કહ્યા, તાહરી કુણ કરે હોડ, એ મુરખ-મહા દેવતા, કહે ખામે કર જોડિ ૧૮ સ. પહિલી ઢાલ વહેલી થઈ, ઝબૂકડાની એહ, સ. કેશવ નેમના ગુણ કહું, સાંભલિયે ધરી નેહ ૧૯ સ. ૨૩ વન-વઈ આવ્યે જિસે, રૂપ તણે ભંડાર, યાદવ-કુલ સિર-સેહરે, શ્રી શ્રીમકુમાર. સોરીપુરથી દ્વારિકા, યાદવ આ કેમ, મૂલ થકી અધિકાર સહ, પણું ભાખો જેમ મથુરા નગરીને ધણી, ઉગ્રસેન રાજન, ભાર્યા તેહની ધારિણી, જીવન-પ્રાણ સમાન એક દિન રેવાડી ચડ્યો, રાજા શ્રીઉગ્રસેન, દીઠ એક તાપસ તિસૌ, તપ કરતે સુધ તેણ, ઢાલ બીજી . રામચંદ કે વાગ, એ દેશી રાજા બોલે એમ, સુણ હો તાપસ વાણી, તું તપીઉ અસમાન, વાણી અમીય સમાણુ માસ પૂરવ હવે જામ, પારણો અમ ઘર કરિજે, તાપસ કહે તહર, રાજન તુહે મ વીસર રાજ-કાજના કામ, રાજા મન આવી, તપસી બીજે માસ, પચો કેધ ચઢાવી. એક સમે રાજાન, તપસ્વી આ ચીત, ઉઠ તરત સકાલ, મામૈ આ ભીત, Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૮ ૨૮ પ૦ ૩૧ ૨૨ ૩૩ ૩૪ સપા, હનુભાઈ વ્ર, શેઠ તપસ્વીને પગ લાગ, ખમ એ અપરાધ, અમ ઘર કરજો સ્વામિ, પારણે સુખ્ય સમાધ વલિ વિકેમ (2) રાજાન, તાપસ ખબર ન લીધી, ત્રીજે પચ માસ, દેહનઈ વેદના કીધી. તાપસ ચિંતઈ એમ, એ રાજા મહા ભૂંડ, બેલ ન પાલે એહ, લક્ષણ વિહૂણે લુંડ જે તપને પરભાવ, હું હું મારક એહને, એમ નિઆણો કીધ, મરી પુત્ર ઊપને તેને હૂદે મંસની હું, તે પણિ પૂરણ કીધી, ચિતઈ એમ ઈણે પુત્ર, કુબધ જિ દીધી કાંસની પિકી કીધ, હાથ નામાંકિત મુદ્રા, યમુનાસૈ દીધી વાહિ, પ્રણામ કરી અતિ મુદ્રા વહતી પટી તેહ, સૌરીપુર મૈ આઈ, સુભદ્ર વણિક ગ્રહી તામ, સુત દીઠે સુખ-દાઈ નામ કંસ તિણ દીધ, પરં વેઢને મૂલ, જે તે ભાખઈ એમ, છઈ સૂલીને ફૂલ ડોસીને ધરિ સીહ, કનઈ કિમ કરી છાજઈ, તિમ કમ હાણિજિહાં તિહાં લાઈ વસુદેવને કીધે ભેટ, કંસ રહે તસ પાસે, હિવ સુણજ અધિકાર, આગે કહું ઉલાફેંક જરાસિંધુ ભૂપાલ, રાજગૃહીને રાજ, પ્રતિવાસુદેવ કહાય, કટક સમદલ તાજ પુત્રી છે જસુ એક, જીવજસા ઈણ નામ કુલ-ક્ષયકારક તેહ, વર પ્રાપત થઈ તમે યાદવ ઉતકટ જાણ, કંસને તે પરણાવી. મથુરાને દીધ રાજ, ન મટે કઈઈ ભાવી. પુરવ–પૈર સંભારિ, કાષ્ટ-પંજર પિતા ઘા, લઘુ-ભ્રાતા મત્તા, દીખ લેઈ નઈ ચાલે વસુદેવ કંસને પ્રીત, દેવકી જીવજસાને, ખેલે બોલે રંગ, સહ કે સ્વાર્થ-વસાન ૩૫ ३७ ૩૮ ૩૯ ૪૨ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કવિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ એક દિવસ અણગાર, એમનો તિહાં આયે, જીવજસા કહે એમ, દેવર તું મન ભાય ચું ઘરઘર માગે કાંઈ, સ્યુ કરે પરની આસ, ભેગવ સુખ-વિલાસ, પુરે મનની આસ. તું ભર ફિરે કાંઈ, હું કહું છું તુઝ સાચે, છેડ પર વિરાગ, તન ધન યવન રચે. ૪૫ ઈહાં કિણ જેને દુઃખ, તે પણિ આગલિ દુખીઆ, ઈહાં જેહને હાઈ સુખ, તે વલિ આગલિ સુખીઆ. ૪૬ ઓઘે લીધે બસ, સંઘટો કરવા લાગી, લવ લવ કરતી તેહ, રહે નહી દોભાગી. ખાઈ જઈ તે મીઠ, પરભવ કોણે દીઠે, દેવરને ઉપદેશ, લાગે વચન--અંગીઠો. ગરવ-ઊતારણ કાજ, મુનિવર એહવે ભાખે, સાતમ ગરમ વિણાસ, દેવકીનૈ કહું સાખે. તબ બીન્હી મન માંહિ, ગરબ સહુ ખૂબ ગલીલ, અમો અણગાર, કહિને પાછે વલીએ. સાતમ ગરમ વિણાસ, કંસને માર ઉથાપી, કૃષ્ણ તણી થઈ જિત, ઉગ્રસેન રાજ્ય આપી. સહુ યાદવ મિલી વેગ, સોરઠ દેસે આયા, તિહાં કિણ કીધ વિશ્રામ, ભાનુ ભીરુક જિહાં જાયા. પર ઇહ છઈ બહુ વિસ્તાર, વિસ્તારી નઈ કહિ, બીજી ઢાલ રસાલ, કેશવ રૂડી કહિ. ૫૩ ૫૪ દ્વારિક નગરી અતિ ભલી, કોણ કરઈ તસુ હડિ, સુખે સમાધઈ તિહાં વસ, યાદવની કુલ કેડિ રાજ કરઈ શ્રીકૃષ્ણજી, વાસુદેવ કહિવાય, નમકુમાર મહિમા નિલે, કીરત સબલ કહાય. આયુધ–સાલા એકદા, આયાં તિહાં શ્રીમ, ધનુષ ચઢાયે રંગ સુ, મન ઘર અધિકે પ્રેમ. પપ પ૬ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬૧ સંપા, કનુભાઈ ત્રિ. શેઠ પૂર્યો સંખ સુહામણ, ધન-ગરજા–રવ જેમ, માધવ મન મે ચિત, જોરાવર છે નેમ. પ૭ કૃષ્ણ નરેસર ચિત, એ મે સું બલવંત. ભુજ-બલ વાદ કરું હવઈ, જિમ પૂગે મન–અંત. ૫૮ બાંહ ગ્રહી જબ નેમજી, ન વલે તે તિલ માત્ર, ખ, ખીજી બેસી રહ્યો, હિવ સી કરવી વાત. ૫૯ મહારી પદવી એ સહી, લેસ્ય નેમકુમાર, દેવ તણી વાણુ થઈ, મ કરિ દુઃખ લગાર. એહને ખપ નહી રાજ્યની, એ મેટો બ્રહ્મચાર, તબ મન માહે હરખીલ, નારાયણ તિણવાર. ઢાલ ત્રીજી મારુજીની હિવ આ માસ વસંત, ફૂલી વનરાયજી, જયાહું છે, મહકે પરમલ-પૂર, સુગંધ સુહાયજી વાવ, તરવર વૃક્ષ અનેક, ફલ્યા ફલ્યા સહી વાટ, માંજરીયાં સહકાર, લુંબ લુંબી રહી વાવ ૬૨ દાડિમ દ્રાખ બીજોરા, દીસે અતિ ઘણા, વાટ, રાયણ ફલીએ અપાર, કુંદની નહી મણું, વાટ, જાઈ જઈ દમણે, મઉ મહમહૈ વાટ, પરમલ પાલ ફૂલ, માલતી ડહડહૈ વાવ ૬૩ આંબલી અંબ બકાયણ, કરણ બહુ પરે વાવ અગર અખેડ અનાર, વિરાજૈ ઈણ પરે વાર નાગ પુનાગ અશોગ, ખજૂરી કરમદા વાવ નારંગી નવરંગના, રંગી ફલ સદા વાવ ૬૪ ઉચે સરલે સાદ, કેઈલ ટહુકા કરઈ, વાળ ભમર કરઈ ગુંજારવ, ભેગીના મન હરે, વાવ કુલી સબ વનરાય, વસંત આવ્યાં સહી, વાવ સવ સણગાર બનાય, મિલાં પિન વહી. વા૦ ૬૫ ૨૧ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬૨ કવિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ જેહ જેહને રૂપ, તેહ પ્રગટ કરે, વાઇ સોહૈ સબ વનરાય, વસંત મુઝ કરે, વા૦ એહ માસ વસંત, દેખી મન ગગડ્યો, વાવ વનપાલક તતકાલ, જાય હરિને કહ્યો, વા ૬૬ ખેલે સ્વામી ફાગ, રાગ ધરિન સહી, વાટ અવસર વારેવાર, અહં આવૈ નહી, વાવ ખબર કરાવી કૃષ્ણ, દ્વારિકા મૈ સહી, વાવ હિવે ખેલ ફાગ, વસંત સહુ આ વહી વાવ ૭૧ ખ્યાલી દેખણ ખ્યાલ, સહુ તતપર થયા, વાવ મિલીઆ દસે દસાર, હીઆમે ગડગયા, વારા સેલ સહસ કર જોડી, ગોપી વીનવે, વા. * આ અવસર એહ, ફાગ ખેલે હિવે. વાવ ૬૮ મન મૈ હરખ અપાર, મુરાર ચાલ્યા તબ, વાવ તેમને સાથે લીધ, હઠ કરનૈ જબ, વાવ બલભદ્રને મહસૈન, તેલ સાથે થયા, વાવ છેલ છબીલા પુરુષ, સહુ જેવા ગયા, વારા ૬૯ ભેગી ભમર સુજાણ, રસીલા મિલ સહુ, વા. જાદવની કુલ કોડિ, મીલી છે જિહાં બહુ, વાટ રાધા રકમણ નારિ, સત્યભામા વડી, વાવ સુંદર સોળ હજાર, આવી મિલી તિણ ઘડી, વા૦ ૭૦ સજિ કર સોલ-શંગાર, વિરાજૈ પદરાણી, વાવ પગ નેઉર-ઝણકાર, પહિરી ઓઢી ગણી, વાટ શિવાદેવી બોલાય, ગેખાને ઈમ કહૈ, વાળ નેમ ન પરણે કેમ, ઉદાસી કિમ રહે. વાવ ૭૧ પૂછને તતકાલ, ખબર કરયે તુહે, વાળ મન્ના વિવાહ, તે ગુણ જાણું અહે, વાઇ વારુ વારુ કહિને, સહુ ઊઠી તદા, વાળ જેમકુમારની વાત, રાખી મનમે યદા. વાવ ૭૨ સહુ આવ્યા જલ-તીર, નીરસ્યું સુચ થયા, વાવ ચંદનની રચી ખોલ, અરગજે મહમહયા, વાવ, સીસ સારંગી પાગ, ખાંગી સિર સેહતી, વાવ તિલક વિરાજૈ ભાલ, ચલ મન મેહતી વા૦ ૭૩ * 38. વા૦ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સંપા, કનુભાઈ વ. શેઠ કેસર ચંદન અગર, તગર જેવા તણા, વાવ ઢલૈ દેવર–સીસ, ન રાખે કામણ, વાવ બેલે એવી વાણિ, ગોઠ દે સહી, વાળ અમ વસ પડીઆ સ્વામિ, જાવા દેયાં નહીં. વા૦ ૭૪ સુંદર રૂપ સરૂપ, સેહે યાદવ તણા, વાવ ઈક ઈક ચઢતે રૂપ, નહી ઠઈ મણા, વાવ લાલ ગુલાબ અબીર, ઉછાલે બહુ પર, વાટ માહમાંહિ રમે, રસ રાખી ઈણ પરે. વા૦ ૭૫ બાજે તાલ કંસાલ, ધપમપ૫ ડફ કરે, વાહ દે દે કરિઅ મૃદંગ, ચંગ મધુકર સુરે, વાટ ઢોલક વાજૈ વીણ, વાજૈ બલિ વાંસલી, વાટ ઈણ પર ફાગ રમત, ચિંતા ગઈ વાંસલી. વા. ૭૬ જિહુ ખેલે ગેવિંદ, ગેપી આવી તે તિહું, વાટ લ્યા ત્યારે ગોઠ, હિ જા કિહાં, વાવ પાસે ઊભે નેમ, દીઠો ગોપી તિસ, વાવ, સગલી આવી ચાલ, દેવરને ઈમ હસે. વા. સાંભલ દેવર ઘેવર, સરિખે તું અછઈ, વાવ ગામમાં તારો જેર, કહી ન સકાય છે, વા. હિવ આવ્યા અમ હાથ, જેર એ તુમ તણું, વાળ બોલે રૂકમણુ નારિ, સંતા મત ઘણું, વા૦ ૭૮ એ દેવર પૂજનીક, શીલ જિણ આદર્યો, વાળ એ માટે ગુણવંત, જિર્ણ મન વસ કર્યો, વાવ જંબવતી કહે એમ નાર, નિરવાણી, વાટ ખરે કઠન વ્યવહાર, નાર સંવાહણી. વા. ૭૯ એ કાયર છે તેમ કેમ, પૂરે પડ, વાઇ જેડાડે તેણ, કહો ને કિમ જુડે, વાળ ગેપી મિલ બાર, નમીસરને કહઈ, વાળ તમે પરણે ઈક નાર, કૃષ્ણ તે નિરવહે. વાવ ૮૦ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬૪ ઇણુ વાતે મુખ હ્રાસ, નેમનૈ આવી, વા૦ ગોપી તાલી દેઈ, વિવાહ મનાવીયા, વા૦ ફાગ રમીનૈ સહુ, ઘર અપણે આવીયા, વા૦ તેમ વિવાહુની વાત, સાલિ મન ભાવીયા. વા૦ ૮૧ એ ત્રીજી ઢાલ રસાલ, કહી કેશવ સહી, વા શિવાદેવી સાંભલિ વાત, હૈયા થૈ ગડુગહી. વા૦ દહા ઉગ્રસેન રાજન-સુતા, રાજમતી તસુ નામ, નેમ–વિવાહુ મિલ્યે તિઢુાં, અતિ આડંબર જાન સજિ, રથ ઉપર બૈઠા થકા, એ મંદિર ધાલિત સુઘટ, તમ સારથી હસનૈ કહૈ, આગલ જાતાં પેખી, કિણ કારણુ એ બાપડાં, સારથી કહૈ તુમ ગૌરવૈ, તિણુ એ સહુએ જીવડા, નેમ વિચારે મન્નમ, પરણેવા સુઝ આખડી, થ પાછા વાલ કરી, કૃષ્ણાદિક સહૂએ કહ્યો, કવિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ યાદવ હરખ્યા તામ. પરણુ ચાલ્યા નેમ, સારથીને કહે એમ. કહેનેા એ છે ગેહ, તુમ સુસરાના એહ. એ સુપાટકના ઘાટ, આક્રંદ કરૈ ઉચાટ. એ સહુ જી–સંહાર, આક્રંદ કરે પુકાર. ધિક્ ધિગ્ એ સંસાર, પરહર ચાલ્યું નારિ. મન વૈરાગ વિચાર, મકરા એહ વિચાર, હાલ ચાથી નાંહુના નાલે ૮૩ ૮૪ ૮૫ ૮૬ ૮૭ ૮૮ ૮૯ ૮૨ રાજુલ સાંલિ વાતડી રે, કરવા લાગી દુઃખ, પિયુંડે ક્યું કર્યા ૨ વિષ્ણુ અપરાધે મુઝ તજી રે, કીધી કેમ કુરખ સ્યા અવગુણ તે દેખનઇ રે, મુઝ સૌ ત્રાડયા નેહ, પ્રત પાલતાં દાહિલી રે, છેલે દાખ્યા છેટુ. વિષ્ણુ આધારઇ વેલડી રે, જલ-વિણુ મછલી જેમ, પ્રિ તુત્ર વિષ્ણુ હું તિમકિમ રહું રે, કહેા ડ્રુિવ કીજૈ કેમ, પ્રિ૦ ૯૩ પ્રિ॰ ૯૧ પ્રિ. ૯૦ પ્રિ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સંપાકનુભાઈ , શેઠ પસૂઅ-પુકાર સુણી કરી રે, મુઝ છોડી નિરધાર રે, પ્રિ. જીવ–દયા કહો કિડાં રહી, મુઝ આંખે આંસૂત્રધાર. પ્રિ. ૯૩ પ્રીત પતી પાલતાં રે, ખરે કઠન વ્યવહાર, પ્રિ લીધાં મૂકી જે કરે છે, એ કાયર આચાર, પ્રિ. ૯૪ આસા પુરે મહારી રે, જેમ ટલે ઊવાટ, પ્રિત મહિર કરી પાછા વલે રે, ગોરી જો વાટ. પ્રિ. ૯૫ નમતા સું સહુ કો નમે રે, એમ કહે સહુ કેઈ, પ્રિન્ટ કીડી પર કટકી કિસી રે, નાહ વિચારી જે ઈ. પ્રિ. ૯૬ સખી સહેલી ઈમ કહૈ રે, જાવા દે તું નેમ, પ્રિ અવર ભલે પરણવિસ્યાં રે, તેનું બાંધે પ્રેમ. પ્રિ. ૯૭ રાજુલ કહે સખી પ્રતિ રે, એ સી કહે છે વાત, પ્રિ. હું મોહી ઈણ દેખને રે, ભેદી સાતે ધાત. પ્રિ. ૯૮ આઠ ભવાની પ્રીતડી રે, નવમે દાખે છે, પ્રિ. મે જાણે ઈમ નહી કરે રે, નિર્મોહી નિસનેહ પ્રિ. ૯ મોટુવસે જે માનવી રે, બેલે આલ–પંપાલ, પ્રિ. મોહ જીપ ભવીયણ તુહે, કહે કેશવ એથી ઢાલ પ્રિ૧૦૦ દુહા સેર નેમ ભણી સમઝાય, સગા-સણુજા સહુ મિલી, એ કરવાદ કહાય, રથ ફરી પાછો વલે. નેમ કહે છે એમ, હારે પરણે નહી, દુખ-બંધણુ છે પ્રેમ, હું દીખ્યા લેટું સહી. શ્રાવણ સુદિની છઠિ, નેમ સંયમ આદર્યો, દૂર-કરણ કર્મ અઠ, ધરમ ધ્યાન સુધે ધરે પાસે કેવલનાણુ, આસૂની અમાસ, ઉતકૃષ્ટ ગુણઠાણ, વંદું હું શ્રીને મને. ઢાલ પાંચમી આ અણુરા જોગી શ્રીનેમીસરના ગુણ ગાવે, તેહ મનવંછિત સુખ પાવૈ રે, નેમ બ્રાચારી, ૧. અત્રે ત્રીજા ચરણ તરીકે હસ્તપ્રતમાં વધારાની પંકિત નીચે મુજબ મળે છે – “ધિગ ધિગ મોહની રે Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬૬ કવિ કેશવકૃત નેમિનાથ ફાગ વિહાર કરતા ગિરનાર આયા, તીરથ દેખી સુખ પાયા રે, ૧૦૫ ને. સડસ પુરબ સે દીક્ષા લીધી, જિણ ઉત્તમ કરણ કીધી રે, ને રાજુલ મન વૈરાગ મેં આયે, તિણ અથિર સંસારને જાણે રે, ૧૦૬ ને. પ્રભુ પાસે લીધી જિણ દીક્ષા, વિધિ સુપાલી ગુરુ-શિખ્યા રે, ને ઝિમિર ઝિરમર વરસે મેહ, જિહાં ભજે કેમલ દેહ રે. ૧૦૭ ને ચીર સુકાવૈ ગુફા મૈ આવી, તબ રહનેમને મન ભાવી રે, ને ચિત ચૂકે રહનેમ જિવાર, રાજુલ ઉપદેશ દે તારે રે. ૧૦૮ ને. સીલવતી એ રાજુલ રાણી, સોલ સતી માહિ વખાણી રે, ને પિઉ–પહિલી તે પહતી મુગત, મુઝ બહિની દેખું જગતૈ રે. ૧૦૯ ને. મુઝન પ્રીતમ પહિલી છોડી, જિણ મેખ-વધૂ સે પ્રીત જડી રે, ને તિયું કારણ પહિતી હું જાઉં, તિડાં મનવંછિત સુખ પાઉ રે. ૧૧૦ ને જિણ ભરમા વાલંભ મેરે, તેહને રૂપ છે અધિકેરે રે, ને એ તે ઈહાં કિણ કવિ ચતુરાઈ, શિવ-પદવી રાજુલ પાઈ રે. ૧૧૧ ને. વરસ સાતસૈ સંજમ પાથે, જિણ આપણે કુલ ઉત્પાલ્યા રે, ને સહસ વરસને પાલી આપ, એ ધાતી-કરમ ખપાઈ રે. ૧૧૨ ને. રાજલ નેમ મુગત મિલીયા, દુખ-દેહગ સગલા ટલીઆ, ને પાપ થકી જેહના મન વલીયા, તે પામે નિત રંગરલી રે. ૧૧૩ ને. સંવર સતર એકાવન વર, ફાગુણ કૃદિ તેરસ હરએ રે, ને પાટણ સહર સદા સુખદાઈ, એ ફાગ રચે વરદાઈ રે. ૧૧૪ ને વાચક લાવન્યરત્ન પસાયા, કેશવ જિનના ગુણ ગાયા રે, ને ભણસ્ય ગુણ જે સાંભી , તેમના મનવંછિત ફલી રે. ૧૧૫ ને. ઇતિશ્રી નેમિનાથ ફાગ સંપૂર્ણમ્ શ્રીરસ્તુ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અજ્ઞાત કઈંક શ્રી ગિરનાર ચૈત્ય પરિપાટી રાસ” સ', વિધાત્રી વેારા ગિરનારતીર્થ ની યાત્રાના પ્રસંગવષ્ણુ નનુ. વિ.સં. ૧૬મી સદીમાં લખાયેલી પ્રતિનું જ આ પશુ કાવ્ય છે. એટલે વિષય, વર્ણન સામગ્રી અને વનપદ્ધતિમાં સ્વાભાવિક રીતે જ સામ્ય અનુ ભવાય છે. છતાં પાટણની શ્રી સંધ જૈન ભંડારની અને અમદાવાદની લા,દ. ભારતીય સૌંસ્કૃતિ વિદ્યામ દિરસ્થ પુણ્યવિજયજી ભ`ડારની અનુક્રમે નં. ૩૧૩૨ અને ૮ ૬૦૧ની ‘ગિરનાર ચૈત્ય પરિપાટી' ની સાથે સાથે આ કાવ્ય વાંચતાં અને કથાવસ્તુ મેળવતાં પ્રસ્તુત કર્તાની ઐતિહાસિક વિગતા નાંધવાની સૂઝ અને સાહિત્યિક અભિરુચિ વિશેષ વરતાય છે. કારણ કે જે કડીમાં તેાંધપાત્ર સ્થાન આવતુ હાય ઍની ઐતિહાસિક ભૂમિકાને નિર્દેશ કરવા કવિ ચૂકતા નથી. કથાવસ્તુ :-કવિ ‘ઉપરકાટથી યાત્રારભ કરે છે. જેમાં ‘તેજલપુર પાર્શ્વનાથ (તેજપાલકારિત)', ‘શત્રુ ંજ્યાવતાર – આદીશ્વર', હમીરતે જીત્યાના ઉલ્લેખ સાથે સત્યપુરમ`ડન મહાવીર'-ને પૂજન અર્ચન કરી, જૂનાગઢની બજારમાં ફરી, તળેટીમાં આવતાં, ધેરીમાગે જમણે હાથે આવેલા નેમિનાથના મદિરની નોંધ લે છે. ‘સાવ(ન) રેખ (સુવર્ણ રેખા-સાનરેખ)', નદી (કડી ૬); ‘દામેાદરકુંડ' તેમજ કાળમેધ – ક્ષેત્રપાલના મદિરે (કડી ૭.) થઈને સુંદર વનરાજી પસાર કરી, અજીયડ મહેતા (અભયડ દંડનાયક ના પુત્ર બાહડમ ત્રિએ કરાવેલી 'પાજ' સુધી (કડી ૯) કવિ આવી પહેાંચ્યા ૧૦મી કડીમાં ખાઉડ દે તે ફરીથી ધન્યવાદ આપે છે કે પાજ બધાવ્યાથી રસ્તા સુગમ બન્યો. કડી ૧૧-૧૨માં રમણીય ઝાડી અને છાંયડીનેા સુખદ અનુભવ કવિહૃદયને સ્પર્ચ્યા અને ૧૩મી કડીથી કવિએ જાણે પાછે વાસ્તવિકતામાં પ્રવેશ કર્યાં, ગિરનાર ઉપરનું ‘કાટ'નું વર્ણન શરૂ કર્યું. કેટમાંના મિદિરા, ‘ગજપદકુંડ'ના જળથી પ્રભુને નવરાવી, આંગિ રચી, વસ્તુપાળે બધાવેલા કલ્યાણત્રય (નૈમિ) માઁદિર' કવિ જાય છે. ‘ચંદ્રચુ¥'માં ચંદ્રપ્રભુની ચંદનથી પૂજા કરી, નાગઝરા-મારઝરાની મુલાકાત લઈ, ‘શત્રુંજ્યાવતાર' મ દિશમાં પૂજા કરે છે. રાજીમતી – રથતેમિના મંદિરે જઈ, ત્યાંથી ‘અંબાજી' જતાં એની સાથે સંકાળાયેલી અનુશ્રુતિ ાંધે છે. ત્યારબાદ ‘સહસારામ (શેષાવન–સહસ્રરામ)' થઈને ‘અવલેાણા (અવલેાકન-ગુરુદત્તાત્રય) શિખરે તેમજ સાંખ (શામ્ભગોરખનાથ) ‘અને' પજૂન (પ્રદ્યુમ્ન-મેઘડનાથ)ની ટૂક જાય છે. ‘સિદ્ધિવિનાયક'ની સિદ્ધિની સ્તવના કરી, રત્નશ્રાવકે બનાવરાવેલા ‘કનકમ`ડપ'માં (કાંચન માળાણુક)માં ચાર પ્રતિમાને વંદન કરે છે. પાછા નૈમિમ`દિર (કાટ) જઈ ચૈત્ય પરિક્રમા પૂરી કરે છે. કવિએ આ કાવ્ય રાસ' પ્રકારનુ ખનાવ્યું છે ‘હખિઈ રાસ રમેસિ'-કડી ૨૭. કુલ૩૬ કડીનું કાવ્ય છે. કવિહૃદય પ્રકૃતિ સૌંદર્યથી ભાવુક બની જતું લગભગ દરેક કડીમાં અનુભવાય છે, છતાં કડી ૭, ૮, ૧૨, ૧૨, ૧૩, ૧૫, ૨૫ એ માટે નમૂના છે. કાવ્યને સમય માંધતાં કવિ—૬૧મા વર્ષે આસાવદ અમાસના દિવસ નૈધે છે. સાલ આપી નથી. પ્રતિ વિ.સ’. ૧૬મા સૈકાની લખેલી માનવામાં આવે છે. એટલે મેડામાં મેાડા વિ.સ. ૧૫૬૧/ ઈ.સ. ૧૫૦પનું વર્ષ રચનાસમય-માટે અંદાજે મૂકી શકાય. લા.દ.ભા.સ”, વિદ્યામ`દિરમાં નં.૩૨૧૧ ની, ૨૬×૧૧.૧ સે.મિ. પરિમાણુની પ્રતિના પથી ૬માં આ રચના છે. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ગિરનાર ચિત્યપરિપાટી રાસ સવિહ તઈ સરજ્યા, વિવાહપુરા જુનઈ ગઢિ દાંત, સેહ ઉઠીનઈ પણમીઈ પણમીઈ એ, તેજલપુર પહુ પાસ-૧ આદિઈ વંદઉ આદિ જિણ, નાભિનરેસર જાઉ, સિરે સેનંજય અવતારિઉં સવિડ તીરથરાઉ-૨ પૂજ કરીઉં પ્રભ આરતીય, વંદિતુ વીરે, સાચલર સિરમંડણુઉએ, જિણ જતઉ હમીરે-૩ જનઈગઢિ જે હાટ હેડલાં, દિસઈ અતિ ભલિ ઉલિ ગિરયા વંદિણિ ચાલી અઈએ, ગઢગિરનારહ પિલે–૪ ધરહિય મારગિ ચાલતાં એ, મનિ ધરી બડભાઉ જિમણુઈ પાસઈ દેહરી, તિહિ વસેદ વહ જાઉ–૫ નિરમલ નીર નિડાલીય, દીજઈ ગંગ વેખ ગિરુયા પરવત ઊતરઈ એ, નદીય જ સોવરેખ-૬ આરામઈ રમિ વલતાં એ, હીયડઈ હરખ જ વેગ કુંડઈ કંચઈ દેહરીય, તિહાં છઈ કાલે મેધા(કાલમેઘ)-૭ અંબા–રાયણ--અંબલીયા, ફલી ફલ અણેરી જિમણઈ ઈક જે દેહરીય, તિહિં છઈ સિવિધ કણેરી-૮ પાઈ પરબઈ આવી આ એ, હીયડઈ નિશ્ચલ ભાઉ બાહડ દેવિહિં વરણુઈ એ, અજયડ મહેતા જાઉ-૯ ઊંચા ઊંચા ટુકડલાં દસઈ વિસને ઘાટ બાહુડદેવિ કરાવિઈ એ, સુખઈ સુહેલી વાટ-૧૦ ગિરયા પરબત આવીયા એ, ધન ધન ચલણ જ ગાઢાં સીતલ છાંહ સોડાવણ ય, પવન લહકઈ તાઢાં-૧૧ હીયલ કઉં હરખિઈ ઉલ્લસિલે, પહતાં પિલી બારે ડાબા-જમણુઈ બિંબ સંવે, મન સુધિઈ જુહારે-૧૨ ગિરયા ગિરિવરિ ગિરિ હિરે, વદિસુ નેમિ કુમારો સહજ સલૂણુઉ સામલઉ, અને ગલિ ખેતીહારો-૧૩ ગંગાની સુગઈદમઈ એ, તેણુ પખાલિસુ અંગે ભરિએ કલસ સેવંનમઈ એ, નમસિક નેમિજિણિંદ-૧૪ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬૯ વિધાત્રી વોરા માલી આણન ફલ તG, સુગંધા સુવિસાલા અંગેઅંગિ પિઈ એ, તઉ ગલિ ઘાલિસુ માલ-૧૫ બાહાં સેહઈ બહરખા એ, કાને કુંડલ બેઉં માથઈ મઉડ સેવનમઈ એક હીરા ઝલકઈ દેહા-૧૬ પાંચે વરણે પૂજ કીઅ, કરિ બીજઉરઉ છાજઈ જિગુહ ઊતારિ સ આરતી અ, પંચ સબદ તીઠું વાઈ-૧૭ કલ્યાણત્રય કમલ જિમ, ઈસિલ જિ રચિઉ ઠામ ” વસ્તિગ મંત્રિહિં કારવિઉં, જાણે ઇંદ્રવિભાણ–૧૮ ચંદ્રગુફા તિહિં ચંદ્રપ્રભે, ચંદણિ ચરચિસુ અંગે નીકે કુસુમ પૂજ કીઅ, તક પ્રાભિસુ અંગ–૧૯ નાગરે તિહિ મેરઝરે દીરાઈ કુંડ વિસાલ, જલ નિમલ તિહિં સીલેલાં, આણે અમીએ પયાલ-૨૫ દેઉલ ખા(પા)ખલિ દેહરીય બિંબ ન લાભઈ પારે જગતિ જુહારીય સંયેલ હિવ, સેત્ત જય અવતારે-૨૧ રાણી વદિસ રાયમઈ એ, નેમિજિણેસર ના ગિરુઆ પહિલી હિંગઈય, સુકકીય કેરઈ બારે-૨૨ રહનેમિ સામી પૂજસિઉં, બંધવ કેરઉ નેમિ મયણ મલ્લિ ધૂતારિઉ', મગતિ પહૃતઉ ખેમિ-૨૩ અંબિકદેવી વરણીય એ, સમભટ્ટ ધરનારે એક રખીસર પારણુઈએ, સામણિ હૂઈ ગિરનારે-૨૪ ગિઆ પરબત સિહર વિષિઈ, તીહ ન લાભઈ પારો સહસારામે સહસ તિમ કાઈલડી ઝમકારો-૨૫ ભમરાણ રણઝણ કરઈ એ, મોર મધુરી ભાષા દીસઈ વણસઈ મેરિ€ એ, મેરિઉ રામ લાખા-૨૬ સિહરિ અવલેણ આવીયા એ, સાંબ જૂને જાસિઉં, ત્રિણિ ત્રિણિ પૂજિતુ બિબ તિહિ, હરખિઈ રાસ રમેસિ૬-૨૭ સિયિધ વિણાયગ સિદ્ધ ફલે, દુલહિ તેહની વાટ નવિ દેસઈ તે દેહરીય, દીમઈ વિસમાં ઘાટ-૨૮ અંતરિ અછઈ ભુહિરઉ એ, વંદિસ પ્રતિમા સ્થારિ રતનઈ શ્રાવકી આણુયા, કણયમંડપ જુહારે-૨૯ ગિરુઆ ગિરુઅતિ તુમૂ તણીય, તીહં ન લાભઈ પારો નેમિજિણેસર ઉલગઉં ઈસિ€ જિ નામ વિલગઉં-૩૦ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭૦ અજ્ઞાત કર્તક “શ્રી ગિરનાર ચૈત્ય પરિપાટી રાસ ચઉગઈ માહે હીડવઉ એ, ભમી ભમી ભવ ભાગિઉં જીવદયા દયકરણું, નિરયાગતિ નવારઉ–૩૧ પાંચઉ વીનવઈ પસાઉ કરી, પંચમ ગતિ દિવારઉ–૩૨ મૂરખિ કીધી વીનતીય, ગિઆ તીં અવધારે બુદ્ધિ વિહૂણંઈ બાપડલઈ, કીધી આપ વિચારે–૩૩ મેર સરિસવ કિમ સમઉએ, દિવાયર કિહાં દીવઉ કવિઅણુ માહે કાબૂઅડG તિણિ લેખઈ ગણેવઉ-૩૪ સંવત સંવછરએ એકસઠા ધુરિ વર્ષે આસૂવદિ અમાવસઈએ, તવન કઉં મઈ હરર્ષે હરખ સલૂણું વીનતીય, હીયડમાહિ સંભારે મન સૂધઈ જે નીત ગુણઈ, જાત્ર ફલઉ ગિરનારે-૩૫ ભગતિ ભણી મઈ ગાઈઈ એ, મગતિ કરઉ જગદીસ ગુણ ગાશુ ગિરૂયા તણા એ, ગાઈ ગાહ છત્રીસ-૩૬ ઇતિ શ્રીગિરનારિ ચૈત્યપરિપાટી સમાપ્તઃ તેહગ્યું Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રંગસાકૃત “ગિરનાર ચેત્યપરિપાટી સંપા. (સ્વ.) અગરચંદ નાહાટા – પં. બાબુભાઈ સવચંદ શાહ પ્રથમ સંપાદકના સંગ્રહની સં.૧૭૨૪/ઇ.સ. ૧૬૬૮માં લખાયેલી, મૂળે પંદરમા શતકના અતિમ ચરણમાં રચાઈ હશે તે, ખરતરગચ્છીય ભાવહર્ષ ગણિના શિષ્ય રંગસારની આ ૨૨ કડીમાં વહેતી મગૂર્જર ભાષામાં રચાયેલી સલલિત રચના છે. કાવ્યનું લક્ષ ગિરિરાજ ગિરનાર પર રહેલા જિનમન્દિરાને વન્દના દેવાનું છે. પ્રારંભમાં ભગવતી સરસ્વતીનું સ્મરણ કરી (૧), કવિ જૂનાગઢ (ઉપરકોટ)માં રહેલ જિન ઋષભ અને જિન વીરને અણુમ કરે છે. (૨). એ પછી ગિરનાર તળેટી સુધી પહોંચતાં જોવા મળતી વનશ્રીની શોભા વર્ણવે છે (૩). ત્યારબાદ વ્યવહારિ બાહડદેએ (વાભટ્ટદેવે) કરાવેલ પાજને ઉલ્લેખ કરી, નદી સોનરેખને નિર્દેશ દઈ, ઉપર (દેવ)-ગઢની “પ્રેલિ” (પ્રતોલી)માં પ્રવેશે છે (૪). ત્યાં તીર્થપતિના દંડકલયુક્ત ભવનની કૌતુકકારણ જોઈ, અંદર પદ્માસનસ્થ નેમિકુમારના દર્શન કરે છે (૫). સાથે જ સજજન મંત્રીના ઉદ્ધારને અને તે પૂર્વના રત્ન શ્રાવકે અમ્બિકાની સન્નિધિમાં પ્રતિષ્ઠાવેલ બિંબની કથાને યાદ કરે છે (૬). તે પછી નેમિનાથની સ્નાત્ર પૂજાદ કરી (૭-૮), ભમતીમાં પ્રદક્ષિણ દેતે સમયે ત્યાં રહેલ સમેતશિખર પટ્ટ, રથનેમિ-રાજીમતી, તથા નંદીશ્વરપટ્ટને જુએ છે (૯). ને (વસ્તુપાલકારિત) શત્રુંજયાવતાર(ના મંદિર વિષે) ગુરુમુખે સાંભળેલી વાતને યાદ કરે છે (૧૦). ભમતીની ૭ર દેહરીએ અને “આપમઢ' (અપાપામઢ)ને ઉ૯લેખી (૧૧) ત્યાંથી ખરતરવસહીમાં આવે છે (૧૨). ત્યાં સંપ્રતિરાજાએ કરાવેલ પીતલમય વીર જિનેશ્વર, ફરતા બાવન જિનાલય અને તેની નવનવી કોરણી વિષે કહે છે (૧૩). ત્યાંથી નીકળી નેમિનાથના મંદિરથી હેઠાણ આવેલા અને સોની સમરસિંહ માલદેએ (સં. ૧૪૯૪(ઈ.સ. ૧૪૩૮)માં ઉદ્ધારાવેલ કલ્યાણત્રયની ત્રણ ભૂમિમાં કાર્યોત્સર્ગમાં રહેલ નેમિકુમારની પ્રતિમાઓને વદે છે (૧૪-૧૫). તે પછી વસ્તુપાલતેજપાલે બાર કોટી દ્રવ્ય ખચી કરાવેલ અષ્ટાપદ અને સમેત શિખરની રચનાવાળા, કસોટીના પથ્થરના થાંભલાવાળા, નવીનવી કેરણીયુક્ત મંદિર (વસ્તુપાલ-વિહાર)ને વાંદી; ગજેન્દ્રપદ કુંડ જોઈ, રાજીમતી-રથનેમીના સ્થાનમાં નમી (૧૬), અંબાદેવીની ટૂકે જાય છે (૧૭). ત્યાંથી અવકના શિખર, કે જ્યાં એક કોટી યાદવ સાથે નેમિનું નિર્વાણ થયેલું, ત્યાં કવિ-યાત્રી જાય છે (૧૮). ત્યાં ઊભા રહી લાખાવન જોઈ, આગળ સાંબ અને પ્રદ્યુમ્નના શિખરોને નમી, (પ્રદ્યુમ્ન શિખરે રહેલા), સિદ્ધી વિનાયકનું ચિંત્વન કરી (૧૯), સહસામ્રવનમાં નેમિચરણ વાંદવા જાય છે; ને હવે જુનાગઢ પાછા વળવા પોતાના તરસતા મનની વાત કરી (૨૦), નેમિનાથના ગુણ ગાતાં (૨૧), ચૈત્યપરિપાટી પૂરી કરે છે. છેલ્લી કડીમાં કર્તા પિતાનું “રંગસાર' નામ પ્રગટ કરે છે (૨૨) તીર્થ સ્થિત જિનાલયે સબદ્ધ કંઇ વિશેષ નવી વાત અલબત્ત આમાં નથી. પણ કવિની નિખાલસ અને કાવ્યમય વાણુમાં જાણિતી હકીકત પણ પુનઃ રસમય બને છે. આ ચિત્યપરિપાટીની નકલ પ્રથમ સંપાદક બિકાનેર શ્રી અભય જૈન ગ્રન્થાલયની પ્રતિસંખ્યા ૭૭૨ પરથી વર્ષો પહેલાં ઉતારી લીધી હતી. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રંગસાર કૃત ગિરનાર ચિત્ય પરિપાટી સરસતિ સામણી ગજગતિ ગામણી, દઈ મુઝ વિમલ મતિ અતિ ઘણી એT. શ્રીગિરનારગઢ-ચેત્ર પરવાડિ, વિરચિમું રંગ રલીયાંમણી એ જૂનએ ગઢ સિર રિસહ જિણ વીર ખીરનીરઈ જિમ નિરમલઉ એ ! પૂજવિ પણમવિ પેખવિ નિઈ નયણ સુધ સમકિત કીયઉ ઉજજલઉ એ રા. હિવ ગિરી સિહર આહવા કારણઈ પાજઈ પહચતાં પરમ પિત્ર | વાવિ દુહ કુવ વણરાઈ અભિરામ ખિતાં ગહગઈ નઈ ચીત છે કુલીય ફલીય નવ વીઈ પૂ એક એકથકી અતિભલીય | વનસપતી અતિપરમલ મહકતી ગહકીતી કેઈલ તાહિ વલીઈ વા સેસ તે છિ લાખવિતા કરિ મુણહરિ સેહલી પાજ ગિરનાર ! ગિરે તે ધન્ન તે બાહડદે વ્યાપારય જેણ કરાવીય હરખ ભાર ! સેવન રેહન નિરમલ નીર વહુઈ, ગિર અંતર અતિ ઉદાર ! અનુક્રમ પરવહઈ બિસતાં જોવતાં પહતલા ગઢતણિ પ્રેલિ બાર મકા દ્વાલ દીઠા દૂર થકી ભવણ, ડંડ કલસ સુવિસાલા ! કેરણી કઉતિગ જેવતહાં જેવઈ અબલ પૂરવદિસ પદમાસણહ બયઠા નેમકુમાર પણ સાજણમંત્ર કરાવીયા એ જે રણ ઉધાર ! કાંચણબલાણા થકીય રતન સાવક અણુ ! અંબકદેવી સાનિધ્ધાં મંડઈ એહ વિનાન ૬ નેમિ [જિ]સર દંસણાં મન હુઉ આણંદ | જિમ ગયેદ રેવાનદીય નિસ ચકોર જિમ ચંદ | નિરમલ નીરઈ કલસ ભરે પખાલલિ જિન અંગ | ઘન ચંદન ઘનસાર ઘસે પુજસિ નવ નવ અંગે આગલિ નાસિ ભાવસું એ ગાઈસ મધુરઈ સાદ ઈશુપરિ પૂજસિ નેમણિ ટાલિસ પંચ પ્રમાદ હાલ ભમતીઈ એ જિણચઉ વીસ સિરસમેત અબતાર સાર . રાઈમઈ એ સિર રહનેમ દીવ નંદીસરનઉ વિચાર સેતુંજ એ પ્રમુખ અવતાર સાંભલિયા હુંતા ગુરુવયણે I તેહવ એ કાલવશેષ મઈ નવ દીઠી નીય નયણ || ૧૮ Tલા ૧ | Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭૩ ૧૧ા ૧૨ા અગરચંદ નાહટા-- બાબુભાઈ શાહ દેહરી એ બહતર સાર આપમઢ નેમજિણ | સીધરૂ એ જિણ તિણ તીથ જસ મુરત નવ નવઈ મણ અઈણિ પરુ એ આદ અવલેઈ નિરખિવા | આવી આ હરિ દુવાર ઇણિ ગિરઈએ નેમવિહાર આવીયા ખરતરવસહી વાર હાલ સંપતિ રાય કરાવિ મુણહર તિલમઈ શ્રી વીરજિસર ખરતરવસમા પાખતીયાં બાવન જિલ નવલ નવલ કેરણીય નિહાલ ટાલક કુમતિ કસાય નમીયઈ નેમભવણથી સનમુખ કિલાણમય નમિય ચન્ન મુખ સુખ સંપત જસ નામ ધન ધન સેનીવંસ પ્રભાવક સમરસંઘ માલદેસુ શ્રાવક જિણ કરી ઉધાર તિણ ભુમીપતિ જિણવર વારઈ કાઉસગ રહીયા નેમકુમાર ! પઢમ ભુમિ પિઝેવિ સંવત ચવદ ચઉરાંણું વછર ઉધરીયા જિણભાવણ મહિર ભૂધર જેમ ઉતંગ ૧૩ ૧૪ ૧પ + ૧૬ાા અાપદ ડવી દિવઈ દાંહિણ દિસ સંમેત વસતપાલ તેજપાલ બે કરાવીયા ગુણગેહ બાર કેડિ લખા અસી ખરચીવિ તસુ ઠામ કસવટથંભા કેર નવી નવી તિણ કામ જોઈ કુંડગયંદમઉ સહસબધ અભિરામ કાજલકુંડ પામતી રહનેમીનઉ ઠામ કેઈ નિરા નિય નયણ કેઈ સુણિયા કાંન અવર વિહાર અછઈ તિહાં તેહિ વન કીયા ગાન પઢમ ઢક ઈમ ફરતીય અંબકદેવ પસાય હિવ અંબકટુંક ચઢી નિરખી અંબિકુમર ઢાલ સેરઠી અવલેણ રે સિહરય નેમ નિહાલીયઈ નાનસલા રે પંખી પાપ પખાલીઈ ચઉપન દિન રે નમીસર કાવસગિ રહ્યા ઉઠ કેડી રે યાદવ કુમર મુગતિ ગયા ૧૭ના (૧૮ાા Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭૪ રંગસારસ્કૃત “ગિરનાર ચૈત્યપરિપાટી’ ઇષ્ણુ ગિરવર રે ઉચ્ચ ટુક અવર નહી લીખાવન રે નિરખી ઈંડાં ઊભા રહી દ્વિવ આગલ રે સબ પ્રજુન નમી કરી દુર[ઇ....દી]ડી સીધ–વિનાઈક મન ધરી સહસાવન રે તેમ ચરણ રલીયામણા ભાવઈ નમું રે પુન કીયા પાતઈ ઘણા તિલઈક રે ઇણુ પરિ ગિરવર ફરસીઈ જૂનય ગઢ રે હિવ જાઈવા મન તરસીઈ ઇષ્ણુ પરિ કીરે ચેત્રપરવાડ સુદ્ધાંમણી વીનવીયા નેમીસર ત્રિભુવનધણી ઉલગડી રે હું કરતુ જિન તાહરી મુઝ આપઉ રે સિધ્ધ બુદ્ધિ સંપદ ઘણી ઈમ તવીયા શ્રી શ્રીગિરનારરાય શ્રીયતાવહર સુહ ગુરુપસાઈ જય વંછીયપૂરણ વીરરાઈ રંગસાર નમઈ મનરંગ પાય ઇતિ શ્રીનેમનાથ વૃદ્ધ સ્તવનું । સમાપ્ત ॥ શ્રી ॥ છ॥ પવઈશુલિખત... । શ્રી । સુભં ભવતુ । સાધ્વી હીરી વચનારથ' । વિનયન વિદ્યા ગ્રાહ્યા, પુશ્કલેન નેન વા । અથવા વિધયા વિદ્યા, ચતુર્થાં નાસ્તિ કારણું ॥૧॥ ॥૧૯॥ ॥૨॥ 112011 ॥૨૧॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર્ણસિંહત ગિરનારસ્થ “ખરતરવસહી–ગીત” સં. મધુસૂદન ઢાંકી ૧૬ કડીમાં નિબદ્ધ અને કેટલાંક ઐતિહાસિક તથ્ય સમાવતા આ ગીતના રચયિતાએ આખરી કડીમાં પિતાનું નામ “કરણસંધ' આપ્યું છે. એક પ્રાગ્વાટ કરણસિંહની ચૈત્યપરિપાટી સહસંપાદના અથે (સ્વ.) અગરચંદ નહાટાએ મને મોકલી આપેલી'; પણ તેમાં કર્તાએ પિતા વિષે કંઈ વિશેષ કહ્યું નથી. તેમ બન્નેમાંથી એકેમાં રચનાનું વર્ષ પણ બતાવ્યું નથી; પણ વસ્તુની દૃષ્ટિએ પહેલી ચૈત્યપરિપાટી પંદરમા શતકના આખરી ભાગ યા સોળમા શતકથી પ્રાચીન હોય તેમ જણાતું નથી. આથી કર્તા પંદરમા સોળમા સૈકામાં થઈ ગયા જણાય છે. સંભવ છે કે તેઓ ખરતરગચ્છની આમ્નાયના શ્રાવક હોય. સંપ્રતિ રચનાર – ખરતરવસહી – ગીત – ગિરનાર પર ખરતરગચ્છીય નરપાલ સંઘવીએ ઈ. સ. ૧૪૪૧થી ચેડાં વર્ષ પૂર્વે (મોટે ભાગે ઈ. સ. ૧૪૩૮ના અરસામાં), પૂવે વસ્તુપાલ મન્ત્રીએ કરાવેલ સત્યપુરાવતાર મહાવીરના જૂના મંદિરને કાઢી નાખી તે સ્થળે નવું બંધાવેલું તે મંદિરને અનુલક્ષીને થઈ છે. નવનિર્માતા ખરતરગચ્છીય હોવાથી આ મંદિર “ખરતરવસહી” નામથી પંદરમા શતકના ઉત્તરાર્ધથી જાણીતું થયેલું; જે કે એ નામ પણ પછી તે ભૂલાઈ જવાઈ વર્તમાને તે (ખોટી રીતે) “મેકવસહી’ કે ‘મેરકવસહી' નામે પરિચયમાં છે. (જુઓ અહીં મારો આ ખરતર– વસહી સંબદ્ધ વિસ્તૃત લેખ). રચયિતા કવિએ ૮મી કડીમાં જિનભદ્રસૂરિના વચનથી ભણસાળી નરપાળે પ્રસ્તુત મંદિર બંધાવ્યાનું કહ્યું છે; અને મંદિરના વર્ણનમાં મંડપની પુતળીઓ જમણુ બાજુએ રહેલ (ભદ્ર પ્રાસાદમાં) અષ્ટાપદની રચના, તેમજ તેની સામે) ડાબી બાજુએ એ જ પ્રમાણે રહેલા નંદીશ્વરને ઉલેખ કરે છે. મૂળ ગભારામાં અધિષ્ઠિત જિનવીરની ધાતુમતિ, તેનું રત્નજડિત પરિકર અને તારણને પણ ગીતકર્તા ઉલ્લેખ કરે છે. એકંદરે ગીતનું કલેવર પાતળું છે. કૃતિ દેશ્ય ઢાળમાં ઢળેલી છે, પણ સંધાન બહુ વ્યવસ્થિત નથી. ભાષા જૂની ગુજરાતીને બદલે મરૂ ગૂર્જર જણાય છે. ખરતરગચ્છનું જેર રાજસ્થાનમાં ઘણું હતું! કર્તા “કરણસંધ” એ તરફના હેવાને સંભવ છે. પાદટીપ : ૧. આ રચના પંઇ દલસુખ માલવણિયા અભિનન્દન ગ્રન્થમાં પ્રકટ થનાર છે. ૨. પાટણના શ્રી હેમચન્દ્રાચાર્ય જ્ઞાનભંડારમાં રહેલી, અને એક માત્ર ઉપલબ્ધ પ્રતિ (ક્રમાંક ૩૧૨૨), પરથી અહીં સંપાદિત કરવામાં આવી છે. સંપાદક પ્રસ્તુત સંસ્થાના આભારી છે. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર્ણસિંહકૃત ગિરનારસ્થ ખરતરવસહી–ગીત ગિરિ ગિરનારિ વખાણીઈ હે ઈસર કવિ કવિલાસ / સ તસ સિરિ સામી સામલા હે અંબિકાદેવિ પ્રકાસ ૧ પ્રીય ખરતરવસહી જોઈએ જાણે કરતલ-માણ | પ્રીય લેચન તનમન જાઈરે તું સાંભલિ હે ચતુર સુજાણ તારા પ્રીય હયવરનરવષભહ તણું હે વિતપતિ પુણ્યસલેક . મંડપિ મેહણ-પૂતલી હો જાણે કરિ કીઓ ઇદ્રક ૩ પ્રીય કરકમલિ લખલખ પંખડી સહલ સરૂપ સરંગ ! શિખરપ્રાસાદ ઉદ્યોતમઈ છે દંડકલસ ધજદંડ કા પ્રીય સેવનજાઈ મણિરુખ્યમઈ છે મોતી ચઉક પૂરાવિ ! આગલિ તિલક પબેવડ ઉરે પખવિ હરખ ન માઈ પા પ્રીય નેમિ કડણિ પ્રભુ દાહિણિ હો અષ્ટાપદ અવતાર ! વામઈ કલ્યાણકાન નંદીસર જગિ સાર દા પ્રીય સંઘ માઈ અણુવિલ હો સાત-ધાત જિણ વીર ! પરિગર રતન જડાવિઈ હો તેરણ ઉલકઈ બઈ હાર છા પ્રીય Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ, મધુસૂદન ઢાંકી ૨૩ લખધિવત જિનભદ્રસૂરિ ગુરૂજી સુચની વિસાલ । સમ-ભવન સમુધરઈ હો સે ધન ધન મા નરપાલ ॥૮॥ પ્રીય૦ ભણસાલી તે પરિકરઈ હા જે કીઓ ભરવેસર રાએ 1 ઉજલ અષ્ટાઉરે તે નિરખતા અગિ ઊમાડુ ॥૯॥ પ્રીય૦ પદ્ધિરિ ધેાતિ નિજ નિરમલી હા અષ્ટાવિધ પૂજ રસ । ભાવના ભાવિસુ ઇ જિમલી હા જીવ સલ કરેલું ॥૧૦॥ પ્રીય૦ ચંદન ભરી કચેાલડી હા આણી માલિણ ફુલડી ચ'પક પાડલ સેવ‘ત્રી જેમ ગધ-પરિમલ વહુમૂલ ॥૧૧॥ પ્રીય૦ ખારણ વરણ તીરથ અષ્ટાપદ પમ પુણ્ય પ્રકાર । સમતિ શ્રવણુ સખ સંપજઇ હા કેવિલ કરઈ વખાણુ ॥૧૨॥ ચિહું દિસિ ખારડુ ભારણા હે આંખલડા આરામ । પ્રવર પ્રાસાદ સેાહામણા હા પુણ્ય તણા ધિર ઠામ ॥૧૩॥ પ્રીય૦ અલિ કાજસુ તસુ હાથલડા હૈ। સૂત્ર સઘન સૂત્રધારક । એક જીભ ગુણ તેડુ તણા પહિવઇ ન લાભઈ પાર ॥૧૪॥ પ્રોય॰ ૧૭૭ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭૮ કણસિંહકૃત ગિરનારસ્થ “ખરતરવસહી ગીત પારખઉ મ તણુઈ પારખઈ હો અવર ન પૂજઈ કઈ ! સકૃત કૃવાણ વજિયા હો જિણ લાભઈ અનંત હે ૧૫ પ્રીય સજ વેષધિ આણંદિઈ હો સહક સતન સુવિચાર | કરણસંઘ સાર ભણઈ હે ચીરંજીવઓ સં૫રવાર ૧૬પ્રીય ઈતિ શ્રી ગિરનાર મુખમંડણ ખરતરવસહી ગીત / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जूनागढ, महावीर स्वामीनु मन्दिर, अम्बिका देवी. सं. १०९२, ई. स. १०३४ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૂનાગઢની અમ્બિકાદેવીની ધાતુપ્રતિમાના લેખ સપા. લક્ષ્મણભાઈ ભેાજક જૂનાગઢમાં ઉપરકોટ તરફ જતાં, જગમાલ ચેકના વણિક મહેાલ્લામાં શહેરના સૌથી મોટા પણ પ્રમાણમાં અર્વાચીન એવા મહાવીરસ્વામીના મન્દિરમાં જિન અરિષ્ટનેમિની શાસનદેવી અમ્બિકાની એક ધાતુપ્રતિમા સંરક્ષિત છે. એને ઉલ્લેખ (તેના પર અંકિત અભિલેખના વજ્ર સાથે) પંડિતપ્રવર અબાલાલ પ્રેમચંદ શાહ દ્વારા થયેલા છે. અહી` લેખની વાચના મૂળ પ્રતિમાના ચિત્ર સાથે પ્રકાશિત કરું છું. લેખ પ્રતિમાના પાછળના ભાગમાં નીચે મુજબ કંડારાયેલા છે: [] સં.૨૦૧૨ વવે` નાગેન્દ્રસંતાનેન તવસ્થા [−] [२] ने अंबिकाप्रतिमा समस्तगोष्ठया कारिता || પ્રતિમા નાગેન્દ્રગચ્છતા ગાડિઆએ ભરાવેલ છે; પણ સ્થાનનું નામ ‘ઇતબારક'(?) જણુાવ્યું છે, ગિરિનગર કે જીણુ દુગ (જૂનાગઢ) નહીં; આથી આ પ્રતિમાને જૂનાગઢ સાથે સ'બ'ધ હોય તેમ જાતું નથી. ‘ઇતબારકસ્થાન'ને અલખત્ કંઈ પત્તો લાગતા નથી. ( કાતરનારે નામ કંડારવામાં કકંઈ ગરબડ કરી હશે ?) પ્રતિમા (જુએ ચિત્ર) લગભગ ૧૩ ઇંચ ઉંચી અને તળીએ લગભગ ૭ ઇંચ પહાળી છે. ભદ્રાસનની ઉપર વાહનરૂપે પ્રલમ્બિત સિંહ, અને તેના પર પાથરેલ પદ્ય પર અપ "કાસનમાં ભગવતી અશ્મિકા વિરાજમાન છે. ડાખી બાજુ અંકમાં પુત્ર શુભકર અને સિંહના માઢા પાછળ દીપ’કર ઉભેલ છે. આસનના ઊદનમાં ઉપર મનેહર વલ્લિમય ઇલ્લિકા તારણ, તેમાં વચ્ચે જિન અરિષ્ટનેમિનું મંગલ-બિમ્બ, અને તારણુ કરતી આમ્રાલની શાભા કરી છે. દેવીની (ધસાયેલી) મુખાકૃતિ પાછળ પદ્મપ્રભા કાઢેલી છે. જિન તથા શુભકરનાં મુખ પણ, વર્ષાની પૂર્જાને કારણે, ઘસાઈ ગયાં છે. તેમ છતાં ૧૧મા શતકના પૂર્વાર્ધની, ઈ.સ. ૧૦૩૬ની, કલાત્મક પ્રતિમા હાઈ, તેમજ તેમાં નાગેન્દ્ર (૩૭)ના ઉલ્લેખ હાઈ, એનું મહત્ત્વ અવશ્ય છે. ૧. જુએ જૈન તીર્થ સર્વાંસંગ્રહ ભાગ પહેલે [ખંડ પહેલે] અમદાવાદ સત ૧૯૫૩, પૃ. ૧૧૯-૨૦, Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉજજયન્તગિરિનો એક ખંતિ અપ્રકાશિત પ્રશસ્તિલેખ સંપા, લક્ષ્મણભાઈ ભેજક લગભગ ૩૨ ૩ ૪ ૨૩ ઈચના કદના પીળા પથ્થર પર કોતરેલ લગભગ છત્રીસેક પંક્તિઓમાં, કલેક-નિબંધ એક મોટી સંસ્કૃતમય પ્રશસ્તિના ચાર ખૂણાના ચાર ટૂકડાઓ શ્રીમધુસૂદન ઢાંકી તથા સાંપ્રત લેખકના સન ૧૯૭૩ના સર્વેક્ષણ દરમિયાન જોવામાં આવેલા. તે પછી પ્રસ્તુત લેખની વાચના કરવાને સન ૧૯૭૭માં તથા તાજેતરમાં પુનઃ પ્રયાસ કરેલો. આ લેખના ખંડે ગિરનાર પરના કહેવાતા કુમારપાળના મન્દિરના પ્રાંગણમાં ઉત્તરની બાજુએ સાચવેલા શિલ્પખંડ સાથે જોવા મળેલા. પ્રશસ્તિને મોટો, હૃદભાગ, નષ્ટ થયે હેઈ ઉપલબ્ધ પદનાં સન્દર્ભ અને સાતત્ય ખંડિત તેમજ લુપ્ત થઈ જવાથી લેખમાં મૂળ હશે તે કેટલીયે મહત્ત્વપૂર્ણ હકીકતાને વિલય થયો છે. વધુમાં શિલાલેખ હવામાં ઘણું વર્ષોથી ખુલે અને ચત્તો પડ્યો રહ્યો હશે તે કારણસર ઉપલબ્ધ ભાગે માંથી કેટલાયે અક્ષરો તદ્દન ઘસાઈ જઈ દુર્વાશ્ય બન્યા છે. ક્યાંક ક્યાંક વળી પથર ટોચાઈ જવાને લીધે અક્ષરો સર્વથા ગાયબ થયા છે. લેખના સંવત-વારાદિ નષ્ટ થયા છે; પણ તિથિ કાર્તિક વદ ૫ ની જણાય છે. અક્ષરો બારમા શતકના લેખોમાં મળે છે તેવા, અને પછી માત્રા યુક્ત લિપિમાં હેઈ, તમજ લેખના ઉપલબ્ધ હિસ્સાઓમાં રાજા કુમારપાળનું નામ ત્રણેક સ્થળે વંચાતુ હેઈ, ને વિશેષમાં પ્રશસ્તિકાર બૃહદ્ગછના વિજયસિંહસૂરિ હેઈ, આ મહત્ત્વપૂર્ણ પ્રશસ્તિલેખ આગળ અવલોકીશું તેમ ચૌલુકયાધિપ કુમારપાળ (ઈ.સ ૧૧૪પ-૧૧૭૫)ના સમયને જણાય છે. લેખના પ્રારમ્ભના લેકમાં યદુવંશનંદનમણિ, શિવાદેવીનન્દન, રાજમતીવલ્લભ જિન નેમિનાથની લલિત-ગંભીર શબ્દમા સ્તુતિ કરી છે. પછીના વિશેષ ખંડિત લેકમાં “કુમારપાળ નૃપતિ”નું નામ આવે છે. પંક્તિ ૧૩મા રેવતક તથા રૈવતગિરિને ઉલેખ છે. પં. ૧૭માં “કુમારપાળ-ક્ષિતિપાલ” ને ઉલેખ છે; ને પંક્તિ ૧૯માં “કુમાર-નૂપ”ના કોઈ દંડેશ્વર (દંડનાયક)ને નિર્દેશ છે: (નામ ગયું છે; કદાચ ત્યાં ગિરનાર પર સં. ૧૨૨૨-૨૩ (ઈ.સ. ૧૧૬૬-૬૭) પાજા કરાવનાર દંડનાયક આમૃદેવ કિંવા આંબક હેવાને સંભવ છે). પંક્તિ ૨૦માં ગજપદકુંડના ઝરાનો ઉલલેખ છે. પંક્તિ ૨૩માં કઈ જગતસિંહ અને પક્તિ ૨૪માં જસઈલદેવી (?) નું નામ આવે છે. તે પછી પંક્તિ ૩૨ માં કઈ સોમસિંહને ઉલેખ છે. લેખને મુખ્ય ભાગ અહીં ગયેલે હાઈ આ વ્યક્તિઓનો પારસ્પરિક સંબધ તેમ જ તેમના ગિરનાર પર (કદાચ અન્યત્ર પણ) કરાવેલ સુકૃતિ સંબંધમાં કશી ભાળ મળી શકતી નથી. (પં. ૩૩માં “પ્રા” શબ્દ મળે છે.) | વિજયસિંહસૂરિનું નામ (ખંડિત અવસ્થામાં) પંક્તિ ૩૫માં અને ફરીને પંક્તિ ૩૬માં છે જ્યાં સ્પષ્ટરૂપે બૃહદ્ ગચ્છીય વિજયસિંહસૂરિએ પ્રશસ્તિ ચી તેવો ઉલ્લેખ આવે છે. લેખ કેતરનાર સૂત્રધાર “મેવાડા' જ્ઞાતિને હશે તેમ અંતિમ ત્રુટિત ભાગ પરથી સુચિત થાય છે, જો કે તેનું નામ ઊડી ગયું છે. પ્રશસ્તિના વધુ નિશ્ચિત સમય વિશે આ પળે વિચાર કરીએ તે બે મુદ્દા તરફ લક્ષ આપવાનું રહે છે. તેમાં પ્રથમ છે વિજયસિંહસૂરિના વિદ્યમાનતાનો કાળ. ઉપલબ્ધ પ્રમાણો અનુસાર વિજયસિંહસૂરિ જયસિંહદેવ સિદ્ધરાજ તેમજ કુમારપાળના સમકાલીન હતા. તેઓ બૃહદ્દગચ્છીય અજિત દેવસૂરિના શિષ્ય હતા. બીજી બાજુ સુવિશ્રુત જિનવર્મપ્રતિબોધ (કુમારપાલપ્રતિબોધ) સં. ૧૨૪૧ (ઈ.સ. ૧૧૮૫) ના કર્તા સોમપ્રભાચાર્યના તેઓ ગુરૂ થાય.' આથી સોમપ્રભાચાર્યના તેઆ વૃદ્ધ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સંપા. લક્ષ્મણભાઈ ભોજક ૧૮૧ સમકાલિક હતા અને તેમને સ્વર્ગવાસ ઈ.સ. ૧૧૮૫ થી કેટલાંક વર્ષો પૂર્વે થઈ ચૂક્યો હશે તેમ લાગે છે. આબુક્ષેત્ર સમી પવતી કરંટ (વર્તમાન કેરટા)ના જિનાલયમાં તેમણે વિ.સં. ૧૧૪૩ (ઈ. સ. ૧૧૨૭)માં પ્રતિષ્ઠા કરાવેલ પ્રતિમાના લેખે ઉપલબ્ધ છે, જે સ્પષ્ટતયા સિદ્ધરાજના સમયમાં પડે છે. જ્યારે બીજી બાજુ આરાસણમાં સં. ૧૨૦૪ (ઈ.સ. ૧૧૪૮) માં અને સં.૧૨૦૬ (ઈ.સ. ૧૧ ૦)માં તેમના હસ્ત થયેલ જિન પાર્શ્વનાથની પ્રતિષ્ઠા કુમારપાળના સમયમાં જાય છે. કોરંટની પ્રતિમાઓ તેમણે જે પ્રૌઢાવસ્થામાં કરી હોય તે આરાસણની પ્રતિમા તેમની વૃદ્ધાવસ્થામાં થઈ હોવાનું અનુમાન થઈ શકે. ગિરનારવાળી પ્રશસ્તિના કાવ્યની પરિપકવ શૈલી જોતાં તે સૂરીશ્વરની ઉત્તરાવસ્થામાં થઈ હશે તેમ કહપી શકાય. બીજે મુદ્દો છે પ્રશસ્તિમાં કુમારપાળના અનુલક્ષે થયો હશે તે માત્રામાયશ્રી ઉલલેખ, મહાકવિ શ્રીપાળની રચિત વિ.સં. ૧૨૯૭-૮ (ઈ.સ. ૧૧૫૦-૫૧) ની કુમારપાળની વડનગર-પ્રશસ્તિમાં કમારપાળના બલાલ પરના માલવિજયને ઉલેખ છે. અને પ્રસ્તુત વિજય ઈ.સ. ૧૧૫૦ થી છેડે વહેલે થઈ ચૂકયો હશે. સામ્પ્રત ગિરનાર પ્રશસ્તિ પણ આથી ઈ.સ. ૧૧૫૦ બાદ જ રચાઈ હેવી જોઈએ. ત્રીજો મુદ્દો છે દંડનાયક. સિદ્ધરાજના સમયમાં સોરઠને દંડનાયક સજ્જન હવાનું પ્રબંધ પરથી જ્ઞાત છે. કુમારપાળે ત્યાં શ્રીમલિ રાણિગના પુત્ર આંબાકને નિયુક્ત કર્યો હોવાનું સમકાલિક લેખક બહગચ્છીય સોમપ્રભાચાર્ય જિનધર્મપ્રતિબંધમાં જણાવે છે. પછીના નાગેન્દ્રગચ્છીય વિજય સેનસૂરિના રેવંતગિરિરાસુ (આ. ઈ.સ. ૧૨૩૨) તેમ જ ચરિત્ર પ્રબંધાદિ સાહિત્યમાં પણ એ વાત ચર્ચાઈ છે. સ્વયં આંબાકના ગિરનાર પર પગથયાં કરાવ્યા સંબંધી સં. ૧૨૨૨ (ઈ.સ. ૧૧૬૬) અને સં. ૧૨૨૩ (ઈ.સ. ૧૧૬૭) ને ટૂંકા લેખે મળી આવ્યા છે. વિશેષમાં આંબાના ભાઈ ધવલે પ્રપા કરાવ્યાનું ઉપર્યુક્ત રાસમાં વિજયસેનસૂરિ કહે છે; અને અહીં ચર્ચા હેઠળના લેખમાં એક સ્થાને “પ્રપા” શબ્દ આવે છે. એટલે વિજયસિંહસૂરિના લેખમાં દંડનાયકની પદવી પર એ સમયે આમ્રદેવ હેવાનું અભિપ્રેત હોય તે લેખ ઈ. સ. ૧૧૬૬–૧૧૬૭ના અરસાને હેવાને સંભવ છે. લેખની વાચને આ પ્રમાણે છે. [G. 9] નમઃ શ્રી નેમિનાથાય || રેવઃ શ્રીયદુર્ગાનંદનમળિ (?) મારાહ્મપતિ... व्यदकिंदर्पपाटनपटुर्निस्तीणराजीमती रागाब्धिः शिवतातिरस्तु जगतां स श्रीशिवानद [पं.२] नः | શ્રી નટુકાતિનીવૃત્ત... મ કતે, સાત્તિરસ ગુમારપારકૃતિમૂ વાતા...રા.... આ [.રૂ] નિર્વાગ..વી વિંડાર...સ [૫ ૪] તિ મેરિની..[g. ૧] . [f. ૬] i | ૨૪... [૪] [. ૭] જી .[. ૮] [. 8] =ાતી..[, ૨૦] વાની...[, ૨૨] સયતઃ .. . ૨૨] . [f. ૨૩] દૈવત ૧૮ ચેન વિરવળવતાર...T. ૨૪] . ઘાટન...વાત્રઃ [G. ૨૧]... [૬, ૨૬ ૨૪ કૃતિ [. ...તાઃ ગુHવા તિવાઝ [. ૨૮ ...માત્રામાવથીઃ રળી...[T. ૨૧] ..fમાના | શ્રીમવુમr .... [. ૨૦]...? [r) gpsોવરિના[. ૨૨] વિ મનમવિ શ્રી[િR]... [í. ૨૨]. રૂ૪ સ્ટાર્સ... પ્રમુઝાય...મંદરું [g. ૨૩]...વનિ રદ્દા તત્ર ક્ષત્રી) ફુવતંત્રઃ વંશવપ્રતીશઃ પતાવી [. ૨૪]...તારોમ રૂટની તસ્થા કા...ચા जासइइलदेवीति कलिकुलरीतिः । निक [प. २५]...वरकांतिकांताः । पञ्चेन्द्रियाणि सुकृतावर Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૨ ઉજ્જયગિરને એક ખ'ડિત અપ્રકાશિત પ્રશસ્તિલેખ णैर्जयन्तो ध्यान ं च पञ्चपरमेष्ठि]... [ २६ ]... दध्वे सकलकुलधुरमात्रं राम्रा..... ....इलक्ष्मीक मान्यः स ।... [२७] ... नासं चकार ||४२|| तस्य गुणरत्नसु]धी: कालिकल्मषदल...[पं. २८] सहश्च ... भिस्तनवः सुजनम...||४४ ॥ तेषां ... [पं. २९] ... कृपणभृकुटीभंग... व सुखानि यः । ... [प ३० ]... प्रशस्तः | श्री सोमसिंह इति...कूलभि... कास्ति ||४७|| दानं वलभ ... [पं.३१]... तश्च ॥ ४८ । । यस्य विधोरिव रजनी... देवीति क्षय...[१.३२]...मष डकुलन दनश्च...॥५०॥ [ प ३३] प्रपा ॥५२॥ [प·३४]... प्रेश्न [ पं. ३५] सूरे विजयसिंहेन || ५५ ॥ यावन्नल... रमि राजति राजह ंस...[प ं.३६]...[का]र्त्तिक शुदि ५ श्रीबृहद्गच्छीय [ विज]यसिंहसूरिभिः प्रशस्तिरिय मेवाड... ४ १. Ed. Muniraja Jinavijaya, Gaekwad's Oriental Series No. XIV, Baroda 1920, P. 477 Prasasti. २. प्राचीन लेख संग्रह (भाग १ सो ) सौंपा. मुनिराज विद्याविश्य, श्री यशोवि नैन श्रथभासा, भावनगर. १८२८, पृ. २. 3. गुरातातिहासिक क्षेत्रे, आ. २ ले, स. आयार्य गिरलश १२ सल श्री शस गुजराती सभा ग्रन्थावली १५. सुह १८३५, ५. ५५-५६. ત્રુટિત હોવા છતાં પ્રશસ્તિમાં શાર્દૂલવિક્રીડિત, ઉપેન્દ્રવજી, વસ'તતિલકા, ઇત્યાદિ ન્હેં એળખી શકાય છે. ४. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉજ્જયન્તગિરિના કેટલાક અપ્રકટ ઉત્ત્તીણ લેખેા મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભાજક મહાતી ઉજયન્તગિરિના અદ્યાવધિ અપ્રકટ રહેલ પ્રતિમા તથા પદ્માદિ લેખા વિશે સાંપ્રત લેખમાં મૂળ વાચના સમેત વિસ્તારથી કહીશું. સન ૧૯૭૩ તથા પુનઃ સત ૧૯૭૭ની વસંત ઋતુમાં પર્યંત પુના મિંદરાનાં કરેલાં સર્વેક્ષણા દરમિયાન પ્રાપ્ત થયેલા ચૌદેક જેટલા અદ્યાવિધ અજ્ઞાત અભિલેખા સાંપ્રત લેખમાં વિવરણ પ્રસ્તુત કરવામાં આવી રહ્યા છે. પ્રાપ્ત અતિહાસિક (સાહિત્યિક, અભિલેખીય) પ્રમાણુ અનુસાર ઉજયન્ત પત-ગિરનારગિરિ -ઉત્તર મધ્યકાળ સુધી તા કેવળ જૈન તીર્થ જ રહ્યો હૈઈ ત્યાંથી પ્રકાશમાં આવેલા તમામ લેખા જૈન દેવાલયો અનુલક્ષિત જ છે અને નવપ્રાપ્ત લેખેાથી પશુ એ પરિસ્થિતિમાં કશે! ક્ પડતા નથી. ગિરનાર પરના થાડાક લેખાની (વાચના (લીધા વિના) અંગ્રેજ સેનાનાયક જેમ્સ ટોડ દ્વારા પ્રાથમિક પશુ અત્યંત સંદિગ્ધ, ભેળસેળીયા અને ગડબડગોટાળાયુક્ત નાંધ લેવાઈ છે. (ટાડે જેની સહાયતાથી આ લેખ વાંચ્યા હશે તેનું મધ્યકાલીન લિપિવિષયક જ્ઞાન તેમ જ લેખની અંદરની વસ્તુની લાંખી સમજ હોય તેમ જણાતું નથી. ભારતીય અભિલેખવિદ્યાના અને ઇતિહાસ-લેખનના આર્ભકાળે અનભિજ્ઞ લેાકેા પાસેથી ઝાઝી આશા પણ ભાગ્યે જ રાખી શકાય. તત્કાલીન ભાષા સમજવાની કઠણાઈને કારણે પણ ઢોડે તે સમજ્યા હશે તેવું લખ્યું હશે.) આથી ટાંડની તૈાંધા પર બિલકુલ ઈતખાર રાખી શકાય તેમ નથી. ટોડ પછી પૂ. ભગવાનલાલ ઇન્દ્રજીએ તીથ નાયક જિન નેમિનાથના મંદિરના (એમના કથન અનુસાર) દક્ષિણુ દ્વાર અંદરના સ, ૧૧૭૬/ઈ. સ. ૧૧૨૦ના લેખ પર વાચના દીધા સિવાય ઘેાડી શી ચર્ચા કરી છે, જો કે આવા સમર્થ વિદ્વાન પણ પ્રસ્તુત લેખને ન તા સારી રીતે વાંચી શકયા છે કે ન તા તેનું હાર્દ સમજી શકષા છે. (આ સંબંધમાં અમે આ ગ્રન્થમાં જ આના પછી આવતા લેખમાં ચર્ચા કરી છે.) ઈન્દ્રજી પછી જેમ્સ બર્જેસે ગિરનારના મદિરા આવરી લેતા સર્વેક્ષણુ-અહેવાલમાં વસ્તુપાળના સં. ૧૨૮૯/ઈ.સ. ૧૨૩૧-૩૨ની મિતીના છ પ્રશસ્તિ લેખામાં એક, તે ઉપરાંત શાણુરાજની પ્રશસ્તિના અપૂર્ણ લેખ અને અન્ય નાના મોટા છ એક લેખા પ્રગટ કર્યાં છેક : પણ ખજેસ દ્વારા પ્રકાશિત કેટલાક લેખાના પાઠામાં વાચના દેષા (અને અર્થ સમજવામાં ક્ષતિ રહી ગયાં છે; શાણુરાજની પ્રશસ્તિનેા યથાકાળ જ્ઞાત ન થવાથી તેના અર્થઘટનમાં, તેમ જ ચૂડાસમા વંશ સંબધિ ઐતિહાસિક તારવણીએ દોરવામાં, બન્નેસ જથ્થર ભૂલ થાપ ખાઈ ગયેલા. (બર્જેસના આ ભૂલભરેલા લખાણુથી થયેલી દિગ્બાન્તિમાંથી પછીના વિદ્વાનોએ મહદશે મુક્તિ મેળવી લીધી છે. ૪) તત્ પશ્ચાત્ બસ અને કજિન્સે એમનાં મુંબઈ મહાપ્રાન્તના પ્રાચ્યાવશેષોની બૃહસૂચિ ગ્રંથમાં આગળના બર્જેસે આપ્યા છે તે (કયાંક કયાંક પાડાન્તર છે), અને તેરેક જેટલા બીન લેખા પણુ સમાવી લીધેલા,૫ આ પછી દત્તાત્રય ડિસકળકરે કાર્ડિઆવાડના અભિલેખોની એક લેખમાળા Poona Orient. alistમાં શરૂ કરેલી (જે પછીથી પુસ્તકાકારે પ્રગટ થયેલી છે), જેમાં ખજેસ-કઝિન્સે અગાઉ આપી દીધેલ ચારેક લેખા અતિરિકત અન્ય ચારેક નવીન લેખેાનાં વાચના એવં ભાવા આપ્યાં છે, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૪ ઉજ્જયન્તગિરિના કેટલાક અપ્રકટ ઉત્કીર્ણ લેખે બર્જેસ અને બજેસ-કઝિસે આપેલા લેખોમાંથી ચૂંટી કાઢેલા અઢારેક જેટલા લે છે (સ્વા.) મુનિશ્રી જિનવિજયજીએ પિતાના પ્રાચીન જૈન શિલાલેખેને સંકલન ગ્રંથમાં આવરી લીધા છે, અને તેના પર કેટલુંક ટીપણુ પણ કર્યું છે. ૬ તત્પશ્ચાત એક વર્ષે આચાર્ય વિજયધર્મસૂરિએ એક પિત્તળના પરિકરના કાઉસગીયાના લેખ (સં. ૧૫૨૩)ની વાચના એમની ચર્ચાને સંદર્ભમાં આપેલી. તે પછી (સ્વ.) ગિરજાશંકર વલ્લભજી આચાર્યું પણ ગુજરાતના શિલાલેખે સંબંધિ તેમના બૃહદ-. સંકલન ગ્રન્થના ભાગ ૨-૩માં બજેસ-કઝિન્ને પ્રકાશિત કરેલ, તથા ડિસકળ કરે સંપાદિત કરેલ ગિરનાર-પ્રાપ્ત લેખોમાંથી ૧૭ જેટલા લેખોને સમાવેશ કર્યો છે.• આ પછી ગિરનારના બે વિશેષ લેખની વાચના (એક અલબત્ અપૂર્ણ) સારાભાઈ મણિલાલ નવાબે પોતાના જન તીર્થો અને સ્થાપત્ય વિષયક ગ્રન્થમાં દીધી છે. ત્યાર પછીના તરતનાં વર્ષોમાં તે ગિરનારના અભિલેખે વિશે ખાસ નોંધપાત્ર પ્રવૃત્તિ થઈ હેવાનું અમને જ્ઞાત નથી; પણ જેના દેવાલયો ફરતા દેવકેટના સમારકામ માંથી પ્રાપ્ત થયેલ શિ૯૫ખંડાદિ અવશેષેમાંથી ત્રણ પરના અંકિત લેખોની વાચના છે. મ. અત્રિએ આપેલી છે, જેમાંથી એક પર–વરહુડિયા કુટુંબની પ્રશસ્તિની વાચનામાં સુધારા સૂચવી પુનઃ અથઘટન સહિત-વિસ્તૃત ચર્ચા સાંપ્રત લેખના પ્રથમ લેખક દ્વારા થયેલી છે. ૩ અમારા માનવા મુજબ નીચે આપીએ છીએ તે લેખે અદ્યાપિપર્યન્ત પ્રકાશમાં આવ્યા નથી; છતાં અમારી જાણ બહાર રહેલા કેઈ સોતમાં તેમાંથી કોઈક પ્રગટ થઈ ચૂક્યો હોય તે અમારા ભવિષ્યના પ્રકાશમાં તેની ઉચિત નેંધ લેશું. અહીં રજૂ થાય છે તેમાંથી ડાકની સંગાનુસાર પૂરી વાચના થઈ શકી નથી, જેનાં કારણે તેવા કિસ્સાઓના સંદર્ભમાં દર્શાવ્યાં છે. આ લેખ કહેવાતા સંપ્રતિ રાજાના (વાસ્તવમાં સં. ૧૫૦૯/ઈ.સ. ૧૪૫૩માં વ્યવહારિ શાણરાજ વિનિર્મિત વિમલનાથ-જિનના મંદિરના) ગૂઢમંડપના દક્ષિણ દ્વારની ચોકીમાં વાપરેલ, ને અત્યારના મંદિરથી પુરાણા એવા સાદા સ્તંભમાં નીચે કરેલ મુનિમતિની નીચે ખોદાયેલે ચાર પંક્તિને લેખ જેટલે વાંચી શકાય છે તેટલે આ પ્રમાણે છે: સંવત ૧૨૩૬ જત્ર સુદ ૯ શ્રી સૂર... ઉજજ્યન્તગિરિ પર જૈન મુનિઓ સલેખનાથે આવતા એવાં સોં હિત્યિક પ્રમાણે છે. ૧૪ આ સ્તંભ કઈ સૂરિના સં. ૧૨૩૬ ઈ.સ. ૧૧૮૦માં થયેલ નિર્વાણ બાદને, તેમની “નિષેદિકા' રૂપે ઊભો કર્યો જણાય છે. (આવા સાધુસૂતિઓ ધરાવતા બીજા પણ બેએક સ્તંભના ભાગ દેવ કોટથી ઉપર અંબાજીની ટ્રક તરફ જતાં માર્ગની બંને બાજુએ જડી દીધેલાં જોવાય છે.) સંપ્રતિ લેખ ચૌલુકયરાજ ભીમદેવ દ્વિતીય (ઈ.સ. ૧૧૮૬-૧૨૪૦) ના શાસનકાળના પ્રારંભના ચોથા વર્ષમાં પડે છે. વસ્તુપાલવિહારની પાછળની ભેખડ પર સ્થિત આ લેખ હાલ ગુમાસ્તાના મંદિર તરીકે ઓળખાતા (મૂળ વસ્તુપાલ મંત્રી કારિત મરુદેવીના) મંદિરના મૂળનાયકની ગાદી પર છે; પણ પુષ્કળ કચરે જામેલ હેઈ . ૨૨૭૬ વર્ષે જુન મુદ્દે ક..એટલું જ સ્પષ્ટ વાંચી શકાયું છે. (ઈ. સ. ૧૨૨૦ને આ તુલ્યકાલીન લેખ વસ્તુપાલ-તેજપાલના નિર્માણેથી પૂર્વને છે. અહીં મૂળે તે નેમિનાથના મંદિર અંતર્ગત ક્યાંક હશે.) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૧૮૫ (૩) તીથપતિ જિન નેમિનાથની પશ્ચિમ તરફની ભમતીમાં વેત આરસના નદીશ્વરપટ્ટ (ચિત્ર ૧) પર બે પંક્તિમાં આ લેખ કોતરાયેલે છે; યથાઃ [प. १] ९ स. १२८२ फागुण व र शुक्र प्राग्वाट ठ. राजपालसुत मह. धांधलेन बांधव उदयन __ वाघा तथा भार्या सिरीसुत सूमा सोभा सीहा आसपाल तथा सुता जाल्ह नासु प्रभृति निजगोत्रमात्रुय श्रेयसे नदीश्वरजिनबिम्वा[प.२] नि कारापितानि ॥ बृहद्गच्छीय श्रीप्रद्युम्नसूरि-शिष्यः श्रीमानदेवसूरिपदप्रतिष्ठित श्री जयानदसूरिभिः प्रतिष्ठितानि । छ । शुभं भवतु || पुरुषमूर्ति मह. धांधलमूर्तिः ૪. સૂતા પહું. धांधलभार्या मह. सिरीमूर्तिः । ઈ.સ. ૧૨૩૬ના તુલ્યકાલીન આ લેખમાં ઉલિખિત મહે. ધાંધલ (જેઓ કદાચ મંત્રી મુદ્રા ધારણ કરતા હશે), તેમના વિશે વિશેષ માહિતી હાલ તે ઉપલબ્ધ નથી. (૪) રેવતાચલાધીશ નેમિજિનના મંદિરની ઉત્તર તરફની ભમતીમાં અને ઉત્તર નિગમ-પ્રતિલીની ભમતીમાં પડતી ભિંતને અઢેલીને લગાવેલ વીસ વિહરમાન જિન'ના મનાતા પટ્ટની નીચે આ પ્રમાણે ત્રણ પંક્તિમાં લેખ કર્યો છે. (ચિત્ર ૨). આ લેખની અપૂર્ણ વાચન સારાભાઈ નવાબે છપાવેલી છે. ૫ અહીં અમે તે લેખને ઉપલબ્ધ પૂરો પાઠ આપીએ છીએ स. १२९० आषाढ श्र ८ भोमे प्रोग्वाट ठ. राजपाल ठ. देमति सुत मह. धांधलेन स्वभार्या मह. सिरी [१] तत्पितृतः कान्हड ठ-णू सुत सूमा सोमा सीहा आसपाल सुता जाल्ह રૂપિણિ મસ્તરા શ્રીમુ + [૨] [સમેતશિરપટ્ટ] રતિઃ પ્રતિષ્ઠિત શ્રી કિશાનંદજૂર]મિ [૩] આ પદના કારાપક, આગળ અહીં આઠ વર્ષ અગાઉ નંદીશ્વર દ્વીપ પટ્ટ સ્થાપનાર, મહત્તમ ધાંધલ અને તેમને પરિવાર છે; આગળ લેખાંક “જ'માં કહેલ કેટલાકનાં નામો અહીં પણ મળે છે. પ્રતિષ્ઠાપક આચાર્ય અગાઉ કહ્યા છે તે જયાનંદસૂરિ હશે તેવું અમારું અનુમાન છે. પટ્ટ જો કે તેમાં કંડારેલ વીસ જિનની સંખ્યાને કારણે વીસ વિહરમાન (સીમંધરાદિ મહાવિદેહ ક્ષેત્રના પ્રર્વતમાન) જિન હોવાનું માની લેવામાં આવ્યું છે; પણ બે કારણસર અમને તે સમેતશિખરને પટ્ટ હેવાનું લાગે છે. તેમાં પહેલું એ કે અંકિત વીસ જિનેમાં ભરતક્ષેત્રની વર્તમાન ચોવીસીના ૨૩મા તીર્થંકર પાર્શ્વનાથ (નાગફણા-છત્રાંકિત) છે; અને પ્રત્યેક જિનને શિખરયુક્ત પ્રાસાદમાં પ્રતિષ્ઠિત હોય તેમ દર્શાવ્યા છે, જે તેમની મૂર્તિઓની સમેતશિખર પર મુક્તિ પામેલ ૨૦ જિનોના દેવકો વિશે સ્થાપનાને ભાવ રજૂ કરે છે. આ તો લક્ષમાં લઈ અમે પંક્તિ બેમાં સંદર્ભગત સ્થાને ખૂટતા આઠ અક્ષરે “સમેતશિખરપટ્ટ' હશે તેમ માન્યું છે.' બનને લેખોમાં અપાયેલી કારાપક સંબંધી માહિતી એકઠી કરતાં આ પદે સ્થાપનાર મહત્તમ ધાંધલનું વંશવૃક્ષ નીચે મુજબ આકારિત બને છે: ૨૪. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૬ ઉજજયન્તગિરિના કેટલાક અપ્રકટ ઉકીર્ણ લેખે . + ણ = 5. કાન્હડદે ઠ. રાજપાલ = 6. દેમતિ (પુત્રી) મહે. સિરી = | મહ. ધાધલ ઉદયન વાઘા [, પુત્રો) | | _ (પુત્રીઓ) . ! સૂના સોમ સીહા 11 આસપાલ જાલ્ડ નાસ રૂપિણ મહત્તા શ્રીમુદ + જિન નેમિનાથના મંદિરના દક્ષિણ દિશાના પ્રતોલી-નિગમઠારની નજીકના કાળમીંઢ પથ્થરના એક સ્તંભ પર આ ઘણો જ ઘસાઈ ગયેલો સં. ૧૩૩૪/ઈ.સ. ૧૨૭૮ને લેખ મળે છે. તેમાં મહત્વની વાત એ છે કે જીર્ણદુર્ગ (ઉપરકેટ), અસલી જૂનાગઢના ઉપકંઠમાં, દુર્ગની પશ્ચિમે મંત્રી તેજપાળે ઈ.સ. ૧૨૩૨ આસપાસમાં (આજે જૂનાગઢ રૂપે ઓળખાતુ) “તેજલપુર” નામક શહેર વસાવ્યાની વાત જે ઈસ્વીસનના ચૌદમા-પંદરમા શતકના જૈન પ્રબંધાત્મક સાહિત્યમાં, તેમ જ એ જ કાળમાં રચાયેલી ચૈત્ય-પરિપાટીઓમાં મળે છે, તેને અહીં પ્રથમ જ વાર, અને ઉપલબ્ધ સાહિત્યિક પ્રમાણોથી પ્રાચીન એવો અભિલેખીય ઉલ્લેખ મળે છે. લેખ નીચે મુજબ છે: રંવત ૨૨ રૂ૪ વર્ષે વૈશાલ વરિ ૮ વાવ (?)[૪] ઘડ્યું........ •••••••• ••••••••••••••• .............................પૂનાથ, શ્રીતે પુજે... ક્ષેત્રપઢિ............ श्रीदेवकीयक्षेत्रे प्रोग्वाटज्ञाती ठ. श्री -माल मह आल्हणदेव्या श्रेयोर्थ વાગડેન....માર્યા ... .....શ્રીવિવેદીચમાંહાજે] .......શ્રીતીથે શ્રીમાસ્ત્રજ્ઞા તીય.........••••••••••• ..............પિતા (૬) હવે પછીના લેખો સેલંકી-વાઘેલાયુગની સમાપ્તિ બાદના છે. પીળા પાષાણુ પર કંડારેલ સં. ૧૩૬૧/ઈ.સ. ૧૩૦પને લેખ નેમિજિનના ગૂઢમંડપમાં વાયવ્ય ખૂણાના ગોખલામાં ગોઠવેલ છે. લેખ ઉજજ્યન્ત મહાતીર્થ પર ચતુર્વિશતી પટ્ટની સ્થાપના સંબંધી છેઃ યથાઃ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ འགན་ १. सं. १२८२नो नन्दीश्वरद्वीप-पट्ट, नेमिनाथ जिनालयनी भमतौ, गिरनार Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-8 AFAR A מר AAR A சூ விக்ஸ் AL २. सं० १२९०नो सम्मेतशिखर पट्ट, नेमिनाथ नजिलियनी भमती, गिरनार H A Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૧૮૭ __ संवत १३६१ ज्येष्ट शुदि ९ बुघे श्री श्रीमालज्ञातीय ठ. तिहुणा सुत [प.१] मह. पदम महं. वीका मह हरिपालप्रभृतिभिः श्री उज्जयंतमहातीर्थे [प'.२] निज पितृपितामह मातामह भ्रातृ स्वस श्रेयोर्थ चतुर्विशतिपट्टः का [प.३] रितः । प्रतिष्ठितः श्रीनेमिचंद्रसूरि शिष्य श्री जयचंद्रભૂમિ ગુમ માતુ . સમસ્ત કું. પટ્ટના કારાપક તથા પ્રતિષ્ઠાપક સુરિ વિશે કોઈ જ માહિતી ઉપલબ્ધ નથી. સં. ૧૪૯૪/ઈ.સઃ ૧૪૩૮ને આ લેખ એક પુરુષ અને પાંચ સ્ત્રીઓની આરાધક પ્રતિમા સમૂહ ધરાવતા પીળા ફલક પર નીચેના ભાગમાં કરેલ છે યથાઃ સા સારંગ | Wાળી રહૃા#t ( 2) . નાથી (વરી?) [ સંવત ૨૪૨૪ વર્ષે શ્રી श्रीमालन्यातीअ श्रेष्ठि करमण भार्या करमादे सुत सारग भार्या सहित [१] उलगिसहा [२] પદરમી શતાબ્દીના એક ચૈત્ય-પરિપાટીકાર હાથીપગલા જવાના માર્ગે “સારંગ જિણવરને નમ્યાને ઉલેખ કરે છે તે જિન આ સાહુ સારંગના કરાવેલા હશે ? પ્રસ્તુત જિનને નિર્માણકાળ આથી ઈ.સ. ૧૪૩૮ના અરસાને અંદાજી શકાય. આ જ સાલમાં અહીં જિનકીર્તિસૂરિ દ્વારા, સમરસિંહ-માલદે દ્વારા નિર્મિત, “કલ્યાણત્રય' પ્રાસાદની પ્રતિષ્ઠા થયેલી. પ્રસ્તુત સૂરિ દ્વારા (વર્ષ અજ્ઞાત) અહીં પુનિવ-વસહીની પણ પ્રતિષ્ઠા થયેલી, જે પણ મોટેભાગે આ ૧૪૩૮ની સાલમાં કે તેની સમીપના વર્ષમાં હેવાનું અનુમાન થઈ શકે. (આ વિષય પર જુઓ અહીં પ્રથમ લેખકને “ગિરનારસ્થ કુમારવિહારની સમસ્યા” નામક લેખ) (૮). - જિન નેમિનાથના ગૂઢમંડપમાં હાલ જોવા મળતા પીળા પાષાણુના જિનચતુવિશતિપટ્ટ (૩૮” * ૨૧”)ની નીચે આ સં. ૧૪૯૮ ઈ.સ. ૧૪૪૨-૪૩ને ટૂંકે લેખ છેઃ યથાઃ [प.१ ] स . १४९९ वर्षे फागुण सुदि १२ सोमे ओसवाल ज्ञातीय सा. समरसिंहेन सो. વયુતે ચતુર્વિ. [૨] પદૃ તિ વ્રત શીરોમણૂમિઃ | લેખનું મહત્વ તેમાં આવતા પ્રતિષ્ઠાપક આચાર્ય–રાણકપુરના જગપ્રસિદ્ધ નલિની ગુમ ચતુર્મુખ -મહાવિહાર તેમજ દેવકુલપાટક (મેવાડ–દેલવાડા)માં પ્રતિષ્ઠા કરનાર તપગચ્છાલંકર યુગપ્રધાન આચાર્ય-સોમસુંદરસૂરિને કારણે વધી જાય છે. સોમસુંદરસૂરિ ગિરનારની યાત્રાએ ગયાના સાહિત્યિક ઉલલેખે છે. ૮ અને સમરસિંહ તે કદાચ “કલ્યાણના મંદિરને સં. ૧૪૯૪માં નવું કરાવનાર બે ઓસવાળ કારાપક (સમરસિંહ-માલદે) પૈકીના એક હશે ? આ લેખ તથાકથિત સંપ્રતિરાજાના મંદિરના ગૂઢમંડપમાં જળવાયેલી એક વેત આરસની જિનપ્રતિમા પર નીચેના હિસ્સામાં કંડારાયેલે છેઃ યથાઃ [૬૨] સં. ૨૧ [૧] માઘ , ૨ સૂરત વાસ શ્રી શ્રી[प.२] मालज्ञातीय श्रे. भाई आरव्येन भा. रुडी सु. श्रे. ज्ञांझण प्रमुख कुटुंब [प..३ युतेन श्रीबिमलनाथबिंब कारित प्रतिष्ठितं वृद्धतपापक्षे श्रीरत्नसिंहसूरिभिः ।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૮ ઉપયનગિરિના કેટલાક અપ્રકટ ઉકીર્ણ લેખે આ લેખને ઉલેખ (સ્વ.) મુનિ શ્રી દર્શન વિજયજીએ કર્યો છે૧૯; પણ ત્યાં વાચના આપી નથી. વર્ષના છેલ્લા બે અંક વંચાતા નથી; પણ મુનિશ્રીએ સં. ૧૫૦૦ વર્ષ જણાવ્યું છે, જે લેખમાં આવતા પ્રતિષ્ઠાપક આચાર્યરૂપે શ્રીરત્નસિંહ સૂરિના નામને કારણે લખ્યું હશે; કેમકે પ્રસ્તુત સૂરિવરે આ મંદિરમાં મૂળનાયક જિન વિમલનાથની પ્રતિષ્ઠા સં. ૧૫૦૯માં થયેલી તેવું સમકાલિક સાહિત્યિક પ્રમાણ છે; પરંતુ સાંપ્રત મૂર્તિ જિન વિમલનાથની હેવા છતાં, અને તેની પ્રતિષ્ઠાની મિતિ સં. ૧૫૦૯ હેવાને સંભવ હોવા છતાં, ખત પ્રતિમા આ મંદિરના મૂલનાયક વિમલનાથની અસલી પ્રતિમા નથી લાગતી; કેમકે આની પ્રતિષ્ઠા તે “સૂરયત (સૂરત) નિવાસી શ્રીમાળી કુટુંબ કરાવી છે; જ્યારે મંદિર ખંભાતવાસી શ્રેષ્ઠી શાણરાજ અને ભુંભવનું કરાવેલું હોઈ તેમનાં નામ ત્યાં હવા ઘટે. વળી મૂળનાયકનું બિંબ પિત્તળનું હતું, છતાં લેખમાં અન્યથા મંદિરના પ્રતિષ્ઠાપક બૃહદૂતપગચ્છનાયક રત્નસિંહસૂરિનું નામ મળતું હોઈ આ લેખ એક મૂલ્યવાન ઐતિહાસિક દસ્તાવેજ બની જાય છે. (૧૦) સગરામ સેનીને કહેવાતા મંદિરની જગતી પરની (અને મૂળ મંદિરની પાછળની) દેવકુલિકામાં એક આદિનાથના ચોવિસી પટ્ટ પર સં. ૧૫(૦૨) નું વર્ષ અંકિત છે જેની પ્રતિષ્ઠા આગમગછના કેઈ (દેવેન્દ્ર?) સૂરિની કરેલી હેવાને ઉલેખ પ્રાપ્ત થાય છેઃ યથાઃ स्वस्ति संवत १५(०१)९ वर्षे वैशाष वदि ११ शुक्रे वीसलनगर-वास्तव्य श्री श्रीमालज्ञाती श्रे. लषमण भार्या [लीटी १] लषमादे सु. मेघावामणकमण भा. जागू श्रीआदिनाथबिंब कारित ગામ છે [ીટી-૨] પ્રતિષ્ઠિતં –(ફૂરિ 8) fમ છે [ી. રૂ] - પ્રતિમા વિસનગર (વિસનગર) ના શ્રીમાળી શ્રાવકોએ ભરાવેલી છે. (૧૧) આ લેખ રત્નસિંહસૂરિના શિષ્ય ઉદયવલ્લભસૂરિ દ્વારા પ્રતિષ્ઠિત, મૂળ ગભારામાં વર્તમાન મૂળનાયકની બાજુમાં રહેલ, પીળા પાષાણની પ્રતિમા પર છે. લેખમાં જિનનું નામ આપ્યું નથી, તેમ જ લાંછન સ્પષ્ટ રીતે દેખાતું ન હોઈ ઓળખ શકય નથી બની. [૨] સં ૨૧૨૨ વર્ષે વૈ. વ . [૫૨] સા. માં મ. વિરે સુતા હી •• [प.३] श्री उदयवल्लभसूरिभिः હાલ મૂળનાયક રૂપે પૂજાતી, પણ જિન નેમિનાથની શ્યામ પ્રતિમા પર પણ સં. ૧૫૧૯ ને * (રામંડલિકના શાસનને ઉલલેખ કરત) લેખ છે અને બીજે સં. ૧૫૨૩/ઈ.સ.૧૪૬૭ને મૂળનાયક જિન વિમલનાથના ભેંયરામાંથી મળી આવેલ પિત્તળમય પરિકર પર છે. જે રત્નસિંહસૂરિ તેમ જ ઉદયવલભસૂરિના ઉપદેશથી કરાવવામાં આવેલું, અને તેની પ્રતિષ્ઠા ઉદયવલભસૂરિના શિષ્ય જ્ઞાનસાગરે કરેલી.૨૩ (પરિકર પિત્તળનું હેઈ, અસલી મૂળનાયક વિમલનાથની પ્રતિમા પણ પિત્તળની હેવાનો પૂરે સંભવ છે.) · Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૧૮૯ આ સિવાય થોડાક ઈસવીસનની ૧૮-૧૯મી શતાબ્દીના વેતામ્બર લેખો, તેમ જ કેટલાક દિગમ્બર સમ્પ્રદાયના ૧૫-૧૭મી શતાબ્દીના લેખે જોવામાં આવ્યા છે, જેને અહીં સમાવેશ કર્યો નથી. પાદટીપે 9. Travels in Western India, reprint, Delhi 1971, Nos. XI (1-3) and XII (–4), pp. 504–512. R. Fd. James M. Campbell, Gazetter of the Bombay Presidency, Vol. 1, Pt. 1, "History of Gujarat," Bombay 1896, P. 177. Report on the Antiquities of Kathiawad and Kacch (1874-75), Archaeological Survey of Western India, reprint, Varanasi 1971; pp. 159170, 241 fuqi4 47 Hal Memorandum on the Antiquities at Dabhoi, Ahmedabad, Than, Junagadh, Girnar and Dhank, London, 1875 Hi પ્રારંભિક નેધ છે. ૪. કે.કા. શાસ્ત્રીના ચૂડાસમા વંશ સમ્બન્ધ લેખમાં આ સ્પષ્ટતા વરતાય છે. 4. "Inscpritions of Girnar," Revised List of the Antiquarian Remains in the Bombay Presidency, Vol VIII. f. "Inscriptious of Kathiawad," New Indian Antiquary, Vols. 1-III, Poona 1934–1941. છે. પ્રાચીન જૈન જેવાં (હૂિતીર મા), પ્રવર્તક શ્રીકાંતિવિજયજી જૈન ઇતિહાસમાળા, પુષ્પ છઠું, જન આત્માનંદ સભા-ભાવનગર ૧૯૨૧, પૃ. ૪૭–૭૪. એજન, પૃ. ૬૯-૧૦૦. ૯. પ્રાચીન તીર્થમાળા-સંગ્રહ (ભાગ ૧૯) શ્રી યશોવિજયજી જન પ્રસ્થમાલા, ભાવનગર સં.૧૯૭૮ (ઈ.સ. ૧૯૨૨), પૃ. ૫૭. ૧૦. ગુજરાતના એતિહાસિક લેખો (ભાગ ૨), શ્રી ફાર્બસ ગુજરાતી સમા ગ્રન્થાવલિ ૧૫, મુંબઈ ૧૯૩૫, પૃ. ૫૧, , અને ૧૫૪; તથા પ્રસ્તુત ગ્રંથને ભાગ ૩જો, ફા. ગુ. સ. 2. ૧૫, મુંબઈ ૧૯૪૨, પૃ. ૧૪, ૧૯, ૨૩, ૯૮૩૨, ૩૭, ૪૨; તથા એજન, “પુરવણીના લેખો", પૃ. ૧૮૧, ૨૧૦, ૨૫૪, તેમ જ ૨૫૭-૧૫૮. 99. Jaina Tirthas in India and Their Architecture, Shri Jaina Kala Sah itya Samsodhaka Series 2, English series Vol II, Ahmedabad 1944, P. 34. ૧૨. “ગિરનારના ત્રણ અપ્રસિદ્ધ લેખે” સ્વાધ્યાય પુ. ૫, અંક ૨ પૃ. ૨૦૪-૨૧૦ તથા જA Collection of Some Jaina Images from Mount Girnar," Bulletin of the museum and Picture Gallery, Baroda, Vol XX, pp. 34-57, Fig. 3 (pl XLIII) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯૦ ઉજજયન્તગિરિના કેટલાક અપ્રકટ ઉકીર્ણ લેખે ૧૩. “ગિરનારના એક નવપ્રસિદ્ધ પ્રશસ્તિ–લેખ પર દષ્ટિપાત,” સ્વાધ્યાય, પુ. ૮, અંક ૪, પૃ. ૪૬૮-૪૮૯. ૧૪. જેમકે પૂર્ણતલગરછીય સુપ્રસિદ્ધ હેમચન્દ્રાચાર્યના ગુરુના પ્રમુરુ યશોભદ્ર સૂરિએ (ઇસ્વીસનના દશમા શતકના અન્તભાગે) ગિરનાર પર સંથારે કર્યાને ઉલેખ પ્રસ્તુત ગચ્છના દેવચન્દ્રસૂરિના શાંતિનાથચરિત્ર (પ્રાકૃતઃ સં. ૧૧૬૦/ઈ.સ. ૧૧૦૪), તથા હેમચન્દ્રાચાર્યના ત્રિષ્ઠિશલાકાપુરુષચરિત્ર (૧૨મી શતાબ્દી મધ્યભાગ)ની પ્રાન્ત–પ્રશસ્તિ, ઈત્યાદિ સાહિત્યમાં મળે છે; તથા થારાપદ્રવછીય વાદિ વેતાલ શાંતિસૂરિએ ઉજજયન્તગિરિ પર સં. ૧૦૯૪ ઈ.સ. ૧૦૪૦માં પ્રાયોપવેશન કર્યાને પ્રભાવક ચરિતમાં નિર્દેશ થયે છે. 74. Nawab, Jaina Tirthas., p. 34, ૧૬. નવાબે આ પદને “વીસવિહરમાન”ને માને છે તે ભૂલ જ છે. ૧૭. સંઘવી શવરાજવાળી આ ગ્રન્થમાં સંપાદિત (મધુસૂદન ઢાંકી, વિધાત્રી વોરા) માં આવે ઉલેખ છે. ૧૮. સંઘપતિ ગુણરાજ તથા સંધપતિ શ્રીનાથની સાથે સેમસુંદરસૂરિ ઓછામાં ઓછું બે વાર તા. યાત્રાથે ગિરનાર ગયેલા : (જુઓ મો. દ. દેશાઈ, જન સાહિત્યને, પૃ. ૪૫૬, ૪૫૮, ઇત્યાદિ. ૧૯. જન તીર્થોને ઇતિહાસ, શ્રી ચારિત્ર સ્મારક ગ્રંથમાળા પુષ૫ ૩૮મું, અમદાવાદ ૧૯૪૯, પૃ. ૧૨૭. તપગચ્છીય રત્નસિંહસૂરિશિષ્યની પંદરમા શતકના મધ્યના અરસામાં રચાયેલી ગીરનાર-તીર્થ માળામાં નીચે મુજબ ઉલ્લેખ છેઃ સામી વિમલનાથ તિહિ ગાજઈ નિરૂમલ સોવનમ તને છાજઈ, રાજઈ મહિમ નિધાન; ચિંતામણિ શ્રી પાસ જિસેસર સુરતરૂ અજિતનાથ તિથ્રેસર, બિહુપરિ સેવન વાન, ૧૫ પીતલમય જિન પ્રતિમા બહુવિધ સમવસરણિ શ્રીવીર ચતુર્વિધ પૂજ પુય નિધાન; પનરનોત્તર ફાગણ માસિઈ, વંદુ જ સસિ ભાણ. ૧૬ (સં. વિજયધમસૂરિ, પ્રાચીન તીર્થમાળા-સંગ્રહ, ભાવનગર સં. ૧૯૭૮ ઈ.સ. ૧૯૧૨, પૃ. ૩૫.) આ પ્રમાણને હિસાબે મૂળ પ્રતિમા સેને રસેલ કે ચકચકિત પિત્તળની હશે. એમાં કહેલ પિત્તળના મહાવીરના સમવસરણને મેટા ખંડિત ભાગ ભોંયરામાંથી પ્રાપ્ત થયું છે. આ વિમલનાથને પ્રસાદ ખંભાતના શ્રેષ્ઠી શાણરાજ તથા ભંભ કરાવેલું. તેમાં પિત્તળની પ્રતિમા હેવાનું તપાગચ્છ હેમસગણિની ગિરનાર ચૈત્ય-પરિપાટીમાં સેંધાયું છેઃ યથાઃ ૨૦. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૧૯૧ (શો? શા)ણગર પ્રાસાદિ બિંબ પિત્તલમઈ ઠાવિએ ૨૦” (જુઓ. પં. બેચરદાસ જીવરાજ દેશી, પુરાતત્ત્વ, ૧-૩ એપ્રિલ ૧૯૨૩, પૃ. ૨૮૬) ૨૧. શાણરાજ ભુંભવની મૂળ પ્રશસ્તિ ખંડિત રૂપે મળતી હે ઈ તેમાં પ્રતિષ્ઠાનું જે નિશ્ચિત રૂપે વર્ષ દીધું હશે તે પ્રમાણ લુપ્ત થયું છે. ૨૨, જુઓ Diskalkar, Inscriptions., p. 120. ૨૩. વિજયધર્મ સરિ, પૃ. ૫૭, પાદટીપ. ત્રણ સ્વીકાર 2451 452 zel otro f American Institute of Indian Studies, Varanasi Center, ના ચિત્રદેશમાંથી પ્રાપ્ત થયા છે. પ્રસ્તુત સંસ્થાના સહાય અને સૌજન્યને અહીં સાનંદ સ્વીકાર કરીએ છીએ. ચિત્રસ્થ બને પટ્ટો અગાઉ સારાભાઈ નવાબના ઉપર સન્દર્ભ સૂચિત ગ્રન્થમાં Plate 33, Figs 73–74 રૂપે પ્રગટ થઈ ચૂક્યાં છે; પણ એ પુસ્તક અલભ્ય હેઈ ચિત્રોને અહીં સંદર્ભ–સુવિધાથે પુનઃ પ્રકાશિત કરવાનું થગ્ય માન્યું છે. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જયન્તગિરિના પૂર્વ પ્રકાશિત અભિલેખે વિષે મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક તીર્થરાજ ઉજજયન્તગિરિ પર જુદા જુદા સ્રોતામાં પ્રકાશિત કેટલાક મહત્ત્વપૂર્ણ અભિલેખાનું થવું ઘટે તેટલું મૂલ્યાંકન થયું નથી. તેનાં કારણે માં મૂળ લેખોની દષપૂર્ણ વાચનાઓ, સંપાદક અને સંકલનકારોમાંથી કેટલાકના જૈન સાહિત્ય અને ઐતિહાસિક પરંપરાઓના જ્ઞાનને અભાવ, અને ગષણું ચલાવવાને બદલે કેવળ એમને જરૂરી લાગ્યું તેટલા પ્રમાણમાં અને ઉપલક દૃષ્ટિએ સમજાયું તે પ્રમાણે, અનુવાદ વા ભાવાર્થ આપી સંતોષ પડવાની વૃત્તિ હેય તેમ લાગે છે. અહીં આથી નવેક જેટલા વિશેષ મહત્ત્વ ધરાવતાં અભિલેખની, શકય હતું ત્યાં પુનર્વાચના કરી, વિશેષ અન્વેષણ સહિત વિચારણા કરીશું. સ્થાપના-મિતિ ધરાવતા આ લેખને શ્રી છે. મ. અત્રિ પ્રકાશમાં લાવ્યા છે. અત્યંત ટૂંકા એવા આ ત્રણ પંક્તિમાં કરાયેલ લેખનું વર્ષ સં. ૧૧૯૪/ઈ.સ. ૧૧૩૮નું છે; અને ગિરનારગિરિ પર અદ્યાવધિ પ્રાપ્ત લેખમાં કદાચ સૌથી પ્રાચીન છે. કાળની દષ્ટિએ તે ચૌલુક્યાધીપ જયસિંહદેવ સિદ્ધરાજના સૌરાષ્ટ્ર પર સ્થપાઈ ચૂકેલ શાસન અંતર્ગત આવે છે. લેખ આ પ્રમાણે છે: स ११९४ वर्षे ठ. थेहासुत ठ. जसयोगस्य ।। ઠકકુર જયોગ (યશગ) કોણ હતા, શું હતા, અને કયા કારણસર આ લેખ કેતર પડયો છે તે જણાવ્યું નથી. લેખ સોલંકીયુગમાં મળે છે તેવા, પ્રાચીન પાળિયા પદ્ધતિના પ્રસ્તરફલક પર કરેલ છે. લેખના ઉપરના ભાગમાં, તકતીમાં, અશ્વારૂઢ પુરુષની આકૃતિ પૂર્ણભાસ્કમાં ઉઠાવેલી છે? (ચિત્ર ૧). નીચે બાજુમાં છત્રધર એમના મસ્તકને છત્રછાયા કરી રહેલે દર્શાવ્યું છે. લેખમાં જે કે કહ્યું નથી, તે પણ આ ખાંભી સં. ૧૧૯૪માં ઠકકુર જગના સંભવતયા ગિરિ નારગિરિ પર થયેલ આકરિમક યા અન્ય કારણસર મરણ (કે સલલેખનાથી પ્રાપ્ત કરેલ મરણ?) ઉપલક્ષે જિન નેમીશ્વરના મંદિરની આસપાસમાં કયાંક ખેડી હશે તેવું અનુમાન થઈ શકે. ઠકકર સંજ્ઞા ધરાવતા જસોગ એ યુગના કેઈ જૈન રાજ પુરુષ હશે; પણ તેમના વિષે ઉપલબ્ધ સ્રોતોમાંથી પ્રકાશ લભ્ય બનતો નથી. આ લેખની વાચના બજેસ-કઝિન્સ દ્વારા અપાયેલી છે. પ્રસ્તુત લેખ નેમિનાથ જિનાલયની જગતીના ઉત્તર પ્રતેલી-દ્વારની આંતરભિત્તિના એક પાષાણ પર અંકિત હતા; પણ સાંપ્રત કાળે સમારકામ દરમિયાન ત્યાં રહેલા લેખો ધરાવતા પથ્થરો અસ્તવ્યસ્ત થયા છે, જેના પરિણામે આજે તે આ મહત્ત્વપૂર્ણ લેખ ગાયબ થયે છે, આથી મૂળ બજેસ-કઝિન્સે આપેલી વાચના પર આધાર રાખવો પડ્યો છે. લેખમાં કેટલેક સ્થળે કયાંક ક્યાંક ખાલાં છે તેમાં શક્ય હતું તેટલા સાધાર – સતર્ક (ચોરસ કૌંસમાં) પૂરણું કરી, લેખના તાત્પર્યને સ્પષ્ટ કરવા પ્રયત્ન કર્યો છેઉપલબ્ધ પાઠ આ પ્રમાણે છે: Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सं. १२४४नो प्रभानन्द सूरिनो स्मृतिलेख ( वर्तमानमां जूनागढ़ म्यूजियम ) तारघर Pानना सामोटादास निबार AR.. दायाराम मरमरनापालन १. सं. ११९४ना स्मृतिलेख युक्त पालियामां ( वर्तमानमा जूनागढ़ म्यूजियम ) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. सं. १२५६नो नन्दीश्वरद्वीपपट्ट, सगराम सो नोनु मन्दिर, गिरनार Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૧૯૩ .... લવ ઊંતિ] સિદ્ગિ પર શ્રી નસિંઘવ [જ્યા] વિના ]િ ... પર જરાયતન વિતસિ (?)..ઘાન [येनकेन उपायेन जादवकुलतिलक . तीर्थकर શ્રીનેમિનાથબાવા... નવા ૨ ક. વાત... •સૂત્ર [૧] વિશ્રામ માત... લેખન સાલ બતાવતો ભાગ તે કાળે નષ્ટ થઈ ચૂક્યો હશે, યા વાંચી શકાય નહીં હેય. લેખને પૂરો અર્થ સમજવો તો અસંભવિત છે; પણ સિદ્ધ ચક્રપતિ (સિદ્ધ ચક્રવતી) શ્રી જયસિંહ દેવનું શાસન તે વખતે ચાલતું હતું એ તે તદ્દન સ્પષ્ટ છે. બીજે મહત્ત્વને ઉલેખ “કરાયતન ( કયતન)ને છે. નાગેન્દ્રનછીય આચાર્ય વિજયસેનસૂરિને રેવંતગિરિરાસુ (આ. ઈ. સ. ૧૨૩૨) અનુસાર ખેંગારને હણ્યા બાદ સિદ્ધરાજે અહીં સજજનને સોરઠને દંડનાયક બનાવેલો, જેણે નેમિનાથના પુરાણું મંદિરનું નવનિર્માણ સં. ૧૧૮૫ ઈ. સ. ૧૧૨૯માં કરાવેલું. પ્રભાચંદ્રાચાર્યના પ્રભાવકચરિત્ર (સં. ૧૩૪૪ ઈ. સ. ૧૨૭૮) અનુસાર નવનિર્માણ પૂર્વે નવ વર્ષથી (એટલે કે ઈ. સ. ૧૧૨૦થી) સોરઠ દેશ સજજનને અધિકારમાં હતા, સિદ્ધરાજના સોરઠ વિજયની મિતિ ઇતિહાસમાં ઈ. સ. ૧૧૧૫ની માની છે. ચૌદમા-પંદરમા શતકના પ્રબધામાં પ્રસ્તુત જિનાલયનું અભિધાન સિદ્ધરાજ પિતૃ કર્ણદેવ પરથી “કર્ણવિહાર” રાખેલું એવું જે કથન મળે છે તેનું આ સમકાલિક અભિલેખ પૂર્ણતયા સમર્થન કરી રહે છે. (૩) નેમિનાથના મંદિરની દેવકુલિકાઓની હારમાળામાં પરોવેલ ઉત્તર તરફની પ્રતોલીની અંદરની ભિંતમાં આ લેખ આજ પણ મોજૂદ છે; એને (સ્વ.) ભગવાનલાલ ઈન્દ્રજીએ (વાયના દીધા સિવાય) ઈ. સ. ૧૧૨૦ (સં. ૧૧૬૬), સજજન મંત્રીનું નામ દેતે, લેખ માની લીધેલું અને વિશેષમાં તેને દક્ષિણ દ્વારમાં કંડારેલ હોવાનું બતાવેલું. પણ આ તમામ ધારણાઓ બ્રાન્ત છે. તે પછી બજે સ દ્વારા તેમજ બસ કઝિન્સ દ્વારા એમ બે વાર તેની વાચના છપાયેલ છે; બન્નેમાં પાઠાન્તર પણ છે, અને પાઠવાયના પણ ક્યાંક ક્યાંક દોષપૂર્ણ છે. લેખમાં આવતા મુનિઓને તેઓ ઓળખી શક્યા નથી; પણ (સ્વ.) પં. લાલચન્દ્ર ગાંધી દ્વારા તેની યથાર્થ સ્પષ્ટતા થયેલી છે. છેલ્લા સમારકામમાં લેખના બેમાંથી એક પથ્થરને કાપવામાં આવ્યું છે અને લેખ ધરાવતા પથરો પણ આડાઅવળા ગાઠવ્યા છે. આથી વાંચવામાં મુશીબત ઉભી થવા અતિરિક્ત લેખની યે પંક્તિના છેલ્લા ત્રણ ચાર અક્ષર ઉડી ગયા છે. આથી અમારી અને બર્જે સાદિની વાચના મેળવીને નીચે તેને સંશુદ્ધ પાઠ આપીએ છીએ: श्रीमत्सूरिधनेश्वरः समभवन्नी शीलभ (ट्टाद्रा) त्मजः शिष्यस्तत्पदपंकजे मधुकर क्रीडाकरो योऽभवत् । शिष्यः शोभितवेत्र नेमिसदने श्रीचन्द्रसूरि...त... श्रीमद्रेवतके चकार शुभदे कार्य प्रतिष्ठादिकम् ॥१॥ श्री सनातमहामात्य पृष्टार्थविहितोत्तरः भे समुदभूतवशा રેવન્કાર જ્ઞનતાવિત સં. ૨(૧૦) // ૨૫. . Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉજ્જયન્તગિરિના પૂર્વ પ્રકાશિત અભિલેખા વિષે આમાં પહેલી વાત તા એ છે કે સજ્જન મત્રીનું તેમાં નામ જ નથી. ત્યાં સદ્ગગાતમહામાત્ય” જ વંચાય છે. ખીજી વાત એ છે કે ત્યાં લેખનું વર્ષ સં. ૧૧૭૬ નહી. પશુ ૧૨૭૬ જેવું વહેંચાયેલું; પણ શ્રીચન્દ્રસૂરિની સમય-મર્યાદા જોતાં ત્યાં ત્રીજો અંક કાં તા શૂન્ય (૧૨૦૬) કે બહુ બહુ તા એકતા અંક (૧૨૧૬) હવે ઘટે.૧૧ ૭” અંક, કૈારનાર સલાટે ભ્રમવશ વા પ્રમાદવશ કાર્યાં લાગે છે, આમ લેખ ઈ. સ. ૧૧૫૦ અથવા ઈ. સ. ૧૧૬૦ના ઢાવા ઘટે. શ્રીયન્દ્રસૂરિની ધણિક સાહિત્યિક રચનાએ ઉપલબ્ધ છે. આચાર્ય પદ પૂર્વે તેમનું નામ 'પા દેવગણિ' હતું. અને તેમની કૃતિઓ સં.૧૧૬૯/ઈ. સ. ૧૧૧૩થી લઈ સ`.૧૨૨૮/ઈ. સ. ૧૧૭૦ સુધીના ગાળામાં મળે છે,૨ પ્રસ્તુત કૃતિઓ પરથી સ્પષ્ટ છે કે તેમને મુનિવ‘શ પ્રસિદ્ધ ચન્દ્રકુલના આમ્લાયમાં હતા; અને ત્યાં તેમણે પોતાની જે ગુરુ પરમ્પરા આપી છે તે ગિરનારના શિલાલેખ મુજ મળી રહે છે. તદનુસાર એમની ગુર્વાવિલ આ પ્રમાણે મતે છે ૧૯૪ ચન્દ્રકલ શીલભદ્રસૂરી ધનેશ્વરસૂરિ શ્રીચન્દ્રસૂરિ આબૂ-દેલવાડાની વિમલવસહીમાં દેવકુલિકા ક્રમાંક ૧૪ની ભિંત જે લેખા કડારેલા છે તેમાં સં. ૧૨૦૬ ઈ. સ. ૧૧૫૦ના મંત્રી પૃથ્વીપાલના સમુદ્દાર સમ્બન્ધ જે અભિલેખ ારેલ છે ત્યાં સંધ સહિત શીલભદ્રસૂરિની (શિષ્ય-પરમ્પરા)માં થયેલ શ્રી ચન્દ્રસૂરિને શ્રીશીહમદ્રસૂરીળાં સિધ્યેઃ શ્રીશ્વન્દ્રસૂરિમિઃ । એવા પ્રારભમાં ઉલ્લેખ છે.૧૩ આ શ્રીચન્દ્રસૂરિ તે ગિરનારના અભિલેખવાળા શીલભદ્રસૂરિ પ્રશિસ્ય શ્રીચન્દ્રસૂરિથી અભિન્ન જણાય છે. આનૂની તીથ યાત્રા મિતિ—ઈ. સ. ૧૧૫૦—ને લક્ષમાં લઈએ તા એમના દ્વારા ગિરનાર પર થયેલ પ્રતિષ્ઠાદિક કાર્યો અને એમના ગિરનારના લેખની મિતિ ઈ. સ. ૧૧૬૦ હાવાની સભાવના બલવત્તર ખતે છે. લેખ કુમારપાળના સમયના છે તેટલું ચોક્કસ, સઙગાત મહામાત્ય” કાણુ હતા તેમના વિષે ઉપલબ્ધ સ્રોતામાંથી કઈ જ માહિતી મળી શકતી નથી. (૪) નેમિનાથ મદિરથી પાછળ કથિત ઉત્તર તરફના પ્રતાલી દ્વારમાં એક અન્ય પ્રાચીન લેખ પણ કંડારેલ છે, ૧૪ જેની અપભ્રષ્ટ ભાષાને કારણે તેમજ તેમાં નિર્દેશિત સ્થળ તેમજ વાસ્તુ પરિભાષા ન સમજી શકવાને લીધે તેનું અધટન ઠીક રીતે કરવામાં આવ્યું નથી. એ લેખની તપાસ કરતાં એની પણ ત્યાંના ખીજા લેખેાની માફક જ દુર્દશા થયેલી જોવા મળી. આથી બન્ને સે કરેલી વાચના સાથે વમાને ખૂશ્ન જ ખડિત થયેલ લેખની અમારી વાચના મેળવી નિમ્નાનુસાર પાઠ રજૂ કરીએ છીએ: संवत १२१६ वर्षे चैत्र शुदि ८ वावद्येह श्रीमदुज्जयन्ततीर्थे जगती समस्त देवकुलिकासत्क छाजा कुवालिसंविरण संघवि ठ. सालवाहण प्रतिपत्या सू. जसहड (ठ. पु. १) सावदेवेन परिપૂર્તતા // તથા ૩. મરતભુત 5. પંકિતિ] સાશ્ત્રાળન નામરિસિયા (?નામોરિયા) ત્તિઃ कारित [भ]ाग चत्वारि बिंवीकृत कुंड कर्मा तरतदधिष्ठात्री श्री अंबिकादेवी प्रतिमा देवकुलिका च નિષ્ણાહિતા ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૧૫ ભાષા વિભ્રષ્ટ હોવા છતાં અર્થ તે સમજાય છે જઃ “સંવત ૧૨૧૫ (ઈ. સ. ૧૧૫૯)ના ચૈત્ર શુદિ આઠમને રવિવાર(ના દિને) (અઘેડ) ઉજજયન્તતીર્થ (નેમિનાથના મન્દિર)ની જગતી (૫૨) બધી જ દેવકુલિકાઓ(નું બાંધકામ) છાઘ (‘છાજ', છજજા), કપોતાલિ (કુવાલિ', કેવાળ) અને સંવરણ ('સંવિરણું', સામરણ) સમેત સંઘવિ (સંધપતિ) ઠકકુર શાલિવાહન (“સાલવાહણ')ની નિગાહમાં સૂત્રધાર યશભટ (જસડ')ના (પુત્ર) સર્વદેવે (“સાવદેવે') પૂરું કર્યું. (તથા) ઠકકુર ભરત (‘ભરથ')ના પુત્ર (ઉપર્યુક્ત) ઠકકુર પંડિત શાલિવાહને (“સાલવાહણે') નાગોરઝરાને ફરતી ચાર મૂર્તિઓ સહિત કરેલ કુંડના છેડે તેની અધિષ્ઠાત્રી અંબિકાદેવીની પ્રતિમા દેવકુલિકા સહિત નીપજવી (‘નિપાદિતા', કરાવી).” મૂળ સંપાદક બજેસ-કઝિન્સે તે વાસ્તુના પારિભાષિક શબ્દ અનુવાદમાં છેડી જ દીધા છે, અને અનુવાદ પણ બહુધા બ્રાન્તિમૂલક છે.૧૫ (સ્વ.) મુનિ જિનવિજયજીએ તેમાં જરાતરા સુધારો કર્યો છે, પણ તેઓ પણ “કુવાલિ” અને “સંવિરણ” ઈત્યાદિને અર્થ સમજી શક્યા નથી. જયારે અન્ય સંકલનકાર (સ્વ) ગિરજાશંકર આચાર્યો બજે સાદિની જૂની બ્રાન્તિઓને યથાતથા જાળવી રાખી છે.૧ ૭ લેખમાં આવતા “નાઝરાને ઉલેખ ગિરનાર અનુલક્ષે ઈસ્વીસનના પંદરમાં શતકમાં યાત્રી મુનિઓ દ્વારા લખાયેલ અનેક ચૈત્ય પરિપાટીમાં આવે છે, ૧૮ અને ત્યાં તેનું સ્થાન ગજેન્દ્રપદ-કુંડ” (હાથી પગલાના કુંડ) સમીપ હતું. પ્રસ્તુત લેખને પથ્થર નેમિનાથના મંદિરની પૂરણીમાંથી નીકળેલે. આ નિવેદિકા પરના લેખની વાચના શ્રી. છે. મ. અત્રિએ સાર્થ-સટિપ્પણ પ્રગટ કરી છે૧૯ પણ શ્રી અત્રિના, અને અમે કરેલ વાચના તેમજ અર્થધટનમાં સારું એવું અત્તર છે. સાત પક્તિમાં કરેલ લેખ નીચે (ચિત્ર “૨') મુજબ છેઃ सं[.] १२४४ वैशाख सुदि ३ वादींद्र श्रीआनंदसूरिशिष्य श्रीप्रभान दसूरयः सपादलक्षात् सहोदरसंघः सेनापति श्रीदूदेन सह यात्रायामागच्छतः सुरधारायां सुरसदन ययुः । तन(म ? भृ?) + ચો ” સેનાપતિ દૂધ સાથે સપાદલસ(ચાહમાના શાકંભરી દેશ)ના સંઘ સહિત (૩જજયનગિરિની) યાત્રાર્થ આવેલ, વાદીન્દ્ર આનન્દસૂરિના શિષ્ય પ્રભાનંદસૂરિ સુરધારા પર સં. ૧૨૪૪ (ઈ. સ. ૧૧૮૮) વૈશાખ સુદ ત્રીજના દિને કાળધર્મ પામ્યા (ારસન્ન થયુ), તેમનું (આ મૃત્યુ-સ્મારક છે ?” લેખમાં કહેલ પ્રભાનન્દસૂરિ કોણ હતા તે વિશે પ્રાપ્ત સોનામાંથી કોઈ સૂચન મળતું નથી. લેખમાં તેમના ગરછ વિશે કહેવામાં આવ્યું નથી; પણ ગુરુ આનન્દસૂરિ માટે “વાદીન્દ્ર” વિશેષણ લગાવ્યું છે તે જોતાં તો તેઓ નાગેન્દ્ર ગ૭માં થયેલા પ્રસિદ્ધ “વાદી આનન્દસૂરિ” હેવા ઘટે. આનન્દસરિતે (અને તેમના સતીશ્ય અમરચન્દ્રસૂરિને) તેમની નાની ઉંમરમાં પણ જબરી નિયાવિક વિદ્વત્તા અને વાદશક્તિને કારણે “વ્યાધ્ર શિશુક” (અમરસૂરિને “સિંશિશુક”)નું બિરૂદ જયસિંહદેવ સિદ્ધરાજે આપેલું. પ્રભાનન્દસૂરિના ગુરુ વાદીન્દ્ર આનન્દસૂરિને સંભવ્ય સમય, અને નાગેન્દ્રગરીય વાદી આનન્દસૂરિની સમયસ્થિતિ જોતાં એ બંને આચાર્યો અભિન્ન જણાય છે. પ્રમાનન્દસૂરિની મરણતિથિ (ઈ. સ. ૧૧૮૮)- ચૌલુક્ય ભીમદેવ દ્વિતીય - ના શાસનકાળ અંતર્ગત આવે છે. જે “સુરધારા” સ્થાન પર પ્રભાનન્દસૂરિ (કદાચ વૃદ્ધાવસ્થા, ગિરનારને આકરે ચઢાવ, અને એથી થાકને Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯૬ ઉજ્જયન્તગિરિના પૂર્વ પ્રકાશિત અભિલેખા વિષે કારણે, કે પછી સંથારો કરીને) દેત્રલે!ક પામેલા તે સંભવતઃ હાલનુ ગૌમુખી ગંગાવાળું સ્થાન, કે પછી કદાચ હાથી પગલાં પાસે કુંડમાં પડતી જલધારાનુ સ્થળ હશે, હાલ સંગ્રામ સેાનોના કહેવાતા મંદિરના મંડપમાં મૂકાયેલ (પણ મૂળે નેમિનાથની ભમતીમાં હશે તે) નંદીશ્વર-દ્વીપના પ૬ (ચિત્ર ‘૩') પરના લેખની વાચના તા ઠીક છે પણ એને અથ કાઈ જ સમજ્યુ હાય એમ લાગતુ` નથી! મૂળ લેખ દત્તાત્રય બાલકૃષ્ણ ડિસ્કળકર સપાદિત કરેલા. ૨૧ તે તે પછી (સ્વ.) આચાર્યના સકલનમાં તે સ્થાન પામ્યા.૨૨ શ્રી અત્રિએ પશુ તેને ઉલ્લેખ કર્યા છે.૨૩ લેખ પટ્ટના ઉપરના ભાગમાં ખે ખૂણામાં કાતરાયેલ છે. ડાબી બાજુના ખૂણે! ખડિત થતાં ચારેક પક્તિના પ્રારંભના અક્ષરો નષ્ટ થયા છે. છતાં એકદરે લેખની મુખ્ય વાત! સમજવામાં કણાઈ નડતી નથી. કારણ વિનાની કઠણાઈ તા લેખના અથ ખેોટી રીતે ઘટાવવાને કારણે ઊભી થઈ છે; એટલું જ નહીં, લેખ પર વિશ્વાસ ન રાખી શકાય તેવા પશુ અભિપ્રાય વ્યક્ત થયા છે, જેનું નિરસન અહીં આગળની ચર્ચામાં થશે. લેખ આ પ્રમાણે છેઃ (!) [स्वस्तिः संवत् ] १२५६ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १३ शुक्रे ॥ વિમૂત] [શ્રઞાત્ર] રેવઃ શ્રીમાસાવવાં વર્' । વુમુ[]+++Rઽશે ચંદ્રમા ચ ।। कुमारपालदेवस्य चौलुक्यान्वयभास्वतः । પ્રતાપ પોતે(એચ) સંચાવનોદ્યમઃ ।। स दंडनायकोत्तंस स्तत्युत्रोऽभयदा (हुवः) । जिनप्रणितसद्धम पारावारनिशाकरः ॥ ३॥ जनाशाभूतराजीनां वसंतस्तत्सुतोऽजनि । ख्यातो वसतपाला [ख्यो ] राजलक्ष्मी विभूषितः || ४ || नंदीश्वर वरद्वीप जैन बिबान्यकरत् । जनश्रेयसे सोय जगदेव प्रबोधतः ||५|| श्रीचन्द्रसूरिसच्छिष्य श्रीजिनेश्वरसद्गुरोः । वेद्रस्रभिः शिष्यैः द्वीप एषदे प्रतिष्ठितः ॥६॥ द्वीपो नंदतां तावदुज्जयं तावे गिरौ । जगत्यामुदित्त यावत्सूर्यचंद्रमसाविमौ ||७|| 1 લેખાર'ભે પદ્મસ્થાપનાની મિતિ [સ] ૧૨૫૬ (ઈ. સ. ૧૨૦૦) જેઠ સુદી ૧૩ને શુક્રવારની આપી છે. પછી ૭ શ્લે!કમાં કારાપકની વહેંશાવલિ તથા પ્રતિષ્ઠાપક આયાની ગુર્વાલિ આપી છે: યથાઃ “શ્રીમાલિઅન્વયમાં (શ્રીમાલી જ્ઞાતિમાં) (સરેવરને વિશે) પ્રકાશમાન ચન્દ્રમા સમેા, અને ચૌલુકય વંશના આદિત્ય સમાન ‘કુમારપાળદેવના' (શાસન)ચક્રને ધારણુ કરી વહન કરવામાં તત્પુર એવા ‘[આ*]દેવ' નામના દંડનાયક થયા. તેને જિન પ્રણિત સમ` રૂપી ચન્દ્ર સમાન અભયદ’ નામક પુત્ર થયે. તેને રાજલક્ષ્મીથી વિભૂષિત (જનાશાભૂતરાજીનાં ) વસન્ત સમા વસતપાલ' Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૧૯૭ નામના પુત્ર થયા. તેણે ‘જગદ્દેવ’ના અનુરોધથી પિતા (વસન્તપાલ)ના શ્રેય માટે (બાવન) જિનબિંબ યુક્ત મેટા નંદીશ્વર દ્વીપ(ના પટ્ટ)' કરાવ્યા. ‘શ્રીચન્દ્રસૂરિ'ના શિષ્ય ‘જિનેશ્વર(સૂરિ)' જેના સદ્ગુરુ છે તે ‘દેવેન્દ્રસૂરિ'એ આ આનંદકારી વા માંગલિક (નંદીશ્વર) દ્વીપ(પટ્ટ)ની પ્રતિષ્ઠા ‘ઉજ્જયન્ત' નામના ‘પર્વત' પર કરી, જે સૂર્ય-ચન્દ્ર પ્રકાશે ત્યાં સુધી જગતીને ઉદ્દિત્ત કરતા રહે.” પટ્ટા કારાપક કુમારપાલના કોઈ દેવાન્ત નામક શ્રીમાલકુલના દડનાયકના પૌત્ર વસન્તપાલ છે. કુમારપાલના જૈન દંડનાયકામાં દેવાન્ત નામધારી બે શ્રીમાળી દંડનાયકા હતા ઃ એકતા ઉદયન મંત્રીા પુત્ર આપ્રભટ કિવા આમ્રદેવ, જેણે ભૃગુકચ્છમાં સુવિશ્રુત મુનિસુવ્રત જિનના મંદિરા પુનરુદ્ધાર કરી નવું બંધાવ્યું; બીજો તે મહત્તમ રાણિગ સુત આંબાક, જેણે કુમારપાળની આજ્ઞાથી ગિરનાર પર ચડવાની પાજા કરાવી, આ આંબાક ઉર્ફે આમ્રદેવતા, અને તના દ્વારા કરાવેલ ‘પદ્યા’’ના, ઉલ્લેખ સિદ્ધરાજ તેમ જ કુમારપાળની સભાના મહાકવિ શ્રીપાલના પુત્ર કવિવર સિધ્ધાલે રચેલી કઈ પ્રશસ્તિમાંથી સેામપ્રભાચાર્યના જિનધમ પ્રતિબોધ (સં. ૧૨૪૧/ઈ. સ. ૧૧૮૫)માં તેમના ગિરનાર પાજા-સબંધીના વિવરણમાં ટાંકયા છે. સેમપ્રભાચાય ના કથન અનુસાર કુમારપાળે રાણિપુત્ર (આમ્ર)ને ‘સુરાષ્ટ્રાધિપતિ' (સેરના દંડનાયક) ખનાવી પ્રસ્તુત કાર્યાર્થે મેકલ્પો, વિજય સેનસ્રારના રેવ‘તિમિર રાસમાં પણ કુમારપાળે આંબાકને સારડના દંડનાયક બતાવીને મેકલેલા અને તેણે ત્યાં પાા કરાવી એવું કથન છે. પછીના લેખક તપાગચ્છીય જિનમંડનના ‘કુમારપાલ ચરિત્ર’ (સ. ૧૪૯૨/ઈ. સ. ૧૪૩૬)માં પણુ એ જ પ્રમાણે નોંધાયેલું છે;૨૪ અને સ્વય આંબાકના પશુ સં. ૧૨૨૨ અને સં. ૧૨૨૩ (ઈ. સ. ૧૧૬૬-૬૭)ના તસમ્બન્ધ લઘુ અભિલેખે ગિરનાર પર જ છે.૨૫ અમને તેા લાગે છે કે ગિરનાર તી માં નન્દીશ્વર દ્વીપ-પટ્ટ કરાવનાર વસન્તપાલના પિતા મહુ દંડનાયક — દેવ'' અન્ય કાઈ નહી પણ રાત્રિ સુત મહત્તમ આંબાક અપરનામ દંડનાયક આમ્રદેવ જ હેવા ઘટે. ગિરનાર સાથે સંબંધ એને હતા, લાટના દંડનાયક અને ઉદ્દયન મત્રીના પુત્ર આન્નદેવને નહીં, પટ્ટ-કારાપક વસન્તપાલનું વંશવૃક્ષ આ પ્રમાણે નિપજી શકે છે : શ્રીમાલવશ [મહત્તમ રાણિગ] દંડનાયક [આશ્ર્વ]દેવ (મહત્તમ આંબાક) અભયદ વસન્તપાલ પ્રતિષ્ઠાપક આચાર્ય દેવેન્દ્રસૂરિતે (જો તેમણે પોતે આ લેખ છંદોબદ્ધ મુસદ્દો તૈયાર કર્યાં હેાય તા) સારી સંસ્કૃત કાવ્ય-રચના કરતાં આવડતી હતી તેવી પ્રતિતી થતી નથી ! લેખમાં એમણે પોતાના ગુચ્છ વિશે કશું કહ્યું નથી; પણ ગુર્વાલિ નીચે મુજબ આપી છે, જેના પરથી એમના ગચ્છની ઓળખ કરવા પ્રયત્ન કરીશુ. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉજજયન્તગિરિના પૂર્વ પ્રકાશિત અભિલેખ વિષે શ્રી ચન્દ્રસૂરિ જિનેશ્વરસૂરિ દેવેન્દ્રરિ (સં. ૧૨૫૬ (ઈ. સ. ૧૨૦૦) “શ્રીચન્દ્ર” નામ ધરાવતા અનેક સૂરિવર થઈ ગયા છે; અને “જિનેશ્વર” નામધારી પણ ત્રણ ચાર આચાર્ય જાણમાં છે; જ્યારે દેવેન્દ્ર અભિધાનક રાજગચ્છીય તેમ જ તપાગચ્છીય ઇત્યાદિ મુનિએ પણ એટલા જ સુવિધૃત છે, પણ “શ્રી ચન્દ્ર' સાથે જેના શિષ્યનું નામ “જિનેશ્વર” હોય તેવી એક જ ક્રમાવલિ જાણમાં છે; તે રાજગરછીય પ્રભાચન્દ્રસૂરિને પ્રભાવક ચરિત્ર (સં. ૧૩૩૪/ઈ. સ. ૧૨૭૮)ની પ્રાન્ત પ્રશસ્તિમાં મળે છે. પ્રશસ્તિની ગુર્નાવલિ તે લાંબી છે; તેમાં પ્રભાચન્દ્રાચાર્યના ત્રીજા પૂર્વ જ જિનેશ્વર અને ચોથા શ્રીચન્દ્રસૂરિ કહ્યા છે. ત્યાં જિનેશ્વર પછી કેટલાક સમય માટે તેમના ગુરુબંધુઓ પદ્ધદેવ અને જિનદત્ત પણ આચાર્ય પદે રહ્યા હશે તેવો ભાસ થાય છે.) એક અન્ય સહાયકર્તા મુદ્દો એ છે કે શ્રી ચન્દ્રસૂરિના ગુરુબધુ વાદીન્દ્ર ધર્મસૂરિને સમય લગભગ ઈ.સ. ૧૧૨૦૧૧૮૦ના અરસાને છે. આમ નંદીશ્વર-પટ્ટના પ્રતિષ્ઠાપક દેવેન્દ્રસૂરિની સમય સ્થિતિ જોતાં તેમનું સ્થાન પ્રસ્તુત રાજ ગચ્છમાં હોવું ઘટે અને તે નીચે મુજબ હોઈ શકે ? રાજગચ્છ શ્રીચન્દ્રસૂરિ પર જિનદત પત્રદેવ જિનદત્ત જિનેશ્વરસૂરિ પૂર્ણભદ્રસૂરિ દેવેન્દ્રસૂરિ (સં. ૧૨૫૬ (ઈ.સ. ૧૨૦૦, નન્દીશ્વરદીપ-પટ્ટ) ચન્દ્રપ્રભસૂરિ પ્રભા ચન્દ્રાચાર્ય (સં. ૧૩૩૪/ઈ.સ. ૧૨૭૮) નન્દીશ્વર પટ્ટના કારાપકના મંત્રી વંશ તેમજ પ્રતિષ્ઠા પક આચાર્યના ગ૭ સંબંધી નિર્ણય થઈ જતાં લેખ સંબંધ મુખ્ય ગષણું તો પૂરી થાય છે : પણ પૂર્વના લેખકના આ અભિલેખ પરના મંતવ્યો વિષે અહીં જોઈ જવું જરૂરી છે. (સ્વ.) ગિરજાશંકર આચાર્યનું કથન (કંઈક અંશે ડિસકળકરના અંગ્રેજીને તરજૂમે યથાર્થ રૂપેણ ન કરવાને કારણે) અનેક દષ્ટિએ કઢંગુ બન્યું છે: જેમકે પ્રસિદ્ધ ગિરનારની ટેકરી ઉપર સંગ્રામ સોનીના મંદિરથી વાયવ્યમાં નન્દીશ્વરની મૂર્તિના ગોખલાની બને બાજુએ આ લેખ કરેલ છે.૨૬ ગિરનારને “ટેકરી” ભાગ્યે જ કહી શકાય; અને ત્યાં “નન્દીશ્વરની મૃતિ” (શિવના નન્દીનું પુરુષાકાર સ્વરૂપ) નહીં પણ “નન્દીશ્વર-દીપને પટ્ટ અભિપ્રેત છે ! અને લેખ ગોખલાની બંને બાજુએ નહીં પણ પટ્ટના ઉપરના બને ખૂણે કંડારેલો છે. અને પટ્ટ ગૂઢમંડપમાં છે! ડિસકળ કરે કે આચાર્ય લેખની અંદરની વસ્તુનું યન્ત્રવત્ આલેખન કરવા સિવાય કંઈ જ વિચારણા ચલાવી નથી. બીજી બાજુ શ્રી અત્રિનું કહેવું છે કે “It refers to Kumarapala in 1200 A.D. when Bhimadeva II was ruling over Gujarat. Shri G. V. Ach. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેાજક ૧૯૯ arya has correctly drawn the attention of readers to this inconsistency. This inscription too cannot be relied upon ૨૭ આમાં ધ્યાનમાં રાખવા જેવું પહેલુ તથ્ય એ છે કે લેખની મિતિ ૧૨૦૦ છે તેની ના નહીં, પણ લેખમાં કુમારપાલનું નામ આપ્યું છે તે પટ્ટ કારાપક વસન્તપાલના પિતામહ દંડનાયક [આશ્ર]દેવના સન્દ'માં છે, લેખના સમયના સન્દ માં, કે કારાપક વસન્તપાલના સન્દર્ભમાં નહીં, ખીજી વાત એ છે કે શ્રી અત્રિ કહે છે. તેવી તા કાઈ “અપ્રસ્તુતતા” તરફ આચાર્ય નિર્દેશ નથી કર્યાં. એમણે તે એટલું જ કહ્યું છે કે “લેખ વિ. સં. ૧૨૫૬ના એટલે ભીમ. રાજાના સમયના છે પણ તેનુ નામ લેખમાં આપ્યું નથી.”૨૮ એવા તા ભારતમાં અને ગુજરાતમાં અનેક લેખા – સેંકડા – છે જેમાં પ્રવત માન શાસનકર્તાનું નામ દીધું ન હેાય. તે મુદ્દાનું ચકાસણીમાં કાઈ જ મહત્ત્વ નથી.૨૯ ગુજરાતના એક મંત્રી વશ સંબંધ આ લેખ નવું અજવાળુ` પાથરતા હાઈ મૂલ્યવાન છે. (૭) શ્રી અત્રિએ ગિરનારથી પ્રાપ્ત થયેલા નવીન લેખામાં એક વાઘેલા સમયને – સ. ૧૨૯૯ (ઈ. સ. ૧૨૪૩)ના-તેજપાળ મંત્રીના કાળને એક અભિલેખ પ્રકટ કરેલેા.૩૦ મૂળ અભિલેખ જોવાને અવકાશ પ્રાપ્ત ન થયા હોવા છતાં પ્રસ્તુત લેખની વાચના કેટલાક સુધારા સાથે, અને તેની વિગતાના ખરા અર્થ સાથે સંપ્રતિ લેખના પ્રથમ લેખકે એક વિસ્તૃત ચર્ચાત્મક લેખ લખ્યા હતા.૩૧ ત્યાર બાદ સન ૧૯૭૭માં આ લેખના બન્ને લેખăાએ એ લેખની પ્રત્યક્ષ વાચના કરી, તેમાં શ્રી અત્રિની વાચનાઓમાં જે જે સુધારા અગાઉ સૂચવેલા તે સૌ સાચા ઠરવા ઉપરાંત કેટલાંક ખાલાંએ અને અન્ય ખામી પણુ દૂર કરી શકાઈ. લેખની સાચી અને શકય હતી તેટલી વાચના હવે અહીં રજૂ કરીએ છીએ : [पं.१) संवत १२९९ फागु सुदि ३ श्री उजयंतमहातीर्थे [ प २] महामात्य श्रीवस्तुपालबिहारे महं श्रीतेजपाल आदे[ प . ३] शेन साः पेढा लाहडेन श्रीनेमिनाथबिंब पतकं च कारितं [४] प्रतिष्ठित श्रीविजयसेणसूरिभिः ॥ श्रीशत्रु जयमहा[प. ५] [ती] श्रीआदिनाथबिंबं देवकुलिका डडकलसादि सहिता [प ं.६]...वती - मह श्रीवस्तुपालकारित श्रीसाचउरदेवकुले [૧૭]...શ્રીમહાવીચિવ વાત જ શ્રીબવુંવાપજે મામા[प.८] त्य श्रीतेजपालकारित श्रीनेमिनाथ चैत्यजगत्यां देवकुलि[९] का. २ बिंब ६ सपरिगरा श्रीजाबालिपुरे श्रीपारस्वनाथदेव चै[प्र.१०] त्यजगत्यां देवकुलिका श्रीरिषभनाथबिंब वीजापुरे श्री ने[प्र.११] [मिनाथ ] बिंब' देवकुलिका डडकलसादिसहिता [વ.૨૨] શ્રીવલ્હારનપુર [વાસ્તવ્ય વ] દુરિયા સાદું, ने [F,૨૨] [મs].. ..સાટ્ટુ, વેઢા સા. [F*, 9]. [[*]. .. डघणेस्वर लघु ..મત્ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉજ્જયગિરિના પૂર્વ પ્રકાશિત અભિલેખો વિષે અભિલેખ વસ્તુપાળ-તેજપાળના સમકાલિક વરહુડિયા કુટુ'એ ગિરનાર પર (અને અન્યત્ર કરેલ) સુકૃતાની (કંઈક અંશે અપભ્રષ્ટ ભાષામાં) નૈાંધ લે છે. સ ંપ્રતિ લેખના પ્રથમ લેખકના મૂળ લેખમાં તેની પૂરેપૂરી અને સાધાર ચર્ચા થઈ ચૂકી હોઈ, તેને પૂર્ણતયા બહાલ રાખવાની નોંધ સિવાય અહીં વિશેષ કહેવુ... અનાવશ્યક છે. ૨૦૦ (૮) ઉદયન મંત્રીના દ્વિતીય પુત્ર ઠક્કુર ચાહડના પુત્ર પદ્મસિંહના (ચાર પૈકીના) બે પુત્રા, મહત્તમ સામતસિંહ તથા મહામાત્ય સલક્ષણુસિંહે, ઉજ્જયન્તગિરિ પર સં.૧૩૦૫ (ઈ.સ. ૧૨૪૯)માં પિતૃ શ્રેયાર્થે પાર્શ્વનાથનું બિબુ ભરાવ્યાને લેખ ધરાવતુ પત્રાસણુ વ માને વસ્તુપાલવિહારમાં ગર્ભ - ગૃહમાં મૂલનાયક મલ્લિનાથની પ્રતિમાની ગાદી રૂપે બહુ પાછળના સમયે સ્થાપી દેવામાં આવ્યું છે. કાંટેલાના પ્રસ્તુત મહત્તમ સામંતસિંહના સ’.૧૩૨૦ ઈ.સ. ૧૨૬૪ના લેખ અનુસાર તેમણે રૈવતાચલ (ગિરનાર) પર નેમિનાથના પ્રાસાદના ઉપરના ભાગે પાર્શ્વનાથના બિંબવાળા પ્રાસાદ કરાવ્યા જે ઉલ્લેખ છેકર તે જોતાં પ્રસ્તુત સ,૧૩૦૫ને ચર્ચા હેઠળને, ગિરનારને લેખ તે પાર્શ્વનાથ–પ્રાસાદના મૂળનાયકની પ્રતિમાના જ અસલી લેખ માનવાના રહે છે. આ મૂળ લેખક આ પ્રમાણે છે: १ ॥१॥ संवत १३०५ वर्षे वैषाख शुदि ३ शनौ श्रीपत्त वास्तव्य श्रीमालज्ञातीय ठ. चाहड सुत मह[] पद्मसिंह पुत्र ठ. पृथिवीदेवी अंगज [ महणा] नुज मह. श्री साम तसिंह || तथा महामात्य श्री सलखणसिंहाभ्यां श्री पार्श्वनाथबिंब पित्रोः श्रेयसेऽत्र कारित [] ततो बृहद्गच्छे श्रीप्रद्युम्नसूरिपटोधरणश्रीमानदेवसूरिशिष्य श्रीजयोनद [ सूरिभिः ] પ્રતિત્રિત” [1] શુમાં મવતુ II આ સિવાય કદાચ આ જ મન્દિરના મૂળ હશે તેવા, પિપ્પલગચ્છના ધનેશ્વરસૂરિના શિષ્ય વિજયસિંહસૂરિ વિરચિત પ્રશસ્તિ ધરાવતા, લગભગ ૨૭. પદ્યોવાળા પણુ અતિ ખ`ડિત લેખમાં પણ આ પરિવાર સંબંધી, અને એમના સુકૃતાની તેાંધ લેવી કેટલીક વાતા અસ્પષ્ટ રૂપે જળવાઈ રહી છે. તેમ જ કારાપકનું ટ્ર કાવેલું વંશવૃક્ષ ઉપરના લેખને, અને અહીની એ ખડિત માટી પ્રશસ્તિ અને કાંટેલાના કુંડનાં લેખના આધારે નીચે મુજબ ખતે છે : શ્રીમાલકુલ [ઉદ્દયન મંત્રી] I ચાહડ I પદ્મસિંહ = પૃથિવીદેવી २ (માહસિદ્ધ) મહત્તમસામન્તસિહ (સ.૧૩૨૦/ઈ.સ.૧૨૬૪) મહામાત્યસલક્ષસિંહ (સ....૧૩૦પ/ઈ, સ. ૧૨૪૯) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૨૦૧ (સ્વ.) મુનિ જિનવિજયજીએ૩૪ તથા સ્વ. રામલાલ મેદીએ ૩૫ (અને કંઈક અંશે મેહનલાલ દલિચંદ દેશાઈએ ) ઉદયન મંત્રીના વંશ વિષે વિસ્તારપૂર્વક અને ઉપયોગી ચર્ચા કરેલી હોઈ અહીં તે વિષે પુનરુક્તિ અનાવશ્યક છે. પણ પ્રતિષ્ઠાપક આચાર્ય વિષે એ ત્રણે વિદ્વાને જ નહીં મૂળ સંપાદક બજે સે, તેમ જ ડિસકળ કરે પણ, મૌન સેવ્યું છે; તેથી અહીં તેમને વિષે કંઈક કહેવા ધાયું છે. મહત્તમ ધાંધલે કરાવેલ અને પ્રસ્તુત જયાનન્દસૂરિએ પ્રતિષ્ઠિત કરેલ, નેમિનાથ મન્દિરની ભમતીના નન્દીશ્વરપટ્ટના સં.૧૨૮૨/ઈ.સ.૧૯૨૬ના લેખમાં એ જ ગુર્નાવલિ આપેલી છે.૩૭ જયાનન્દસરિના ગુરુના ગુરુ પ્રધુમ્નસૂરિ તે જ છે કે જેમણે વાદસ્થલ નામક ગ્રન્થમાં આશાપલ્લીના ઉદયનવિહારની પ્રતિમાઓ યતિ દ્વારા પ્રતિષ્ઠિત થયેલી હેઈ અપૂજ્ય હોવાના ખરતરગચ્છીય અભિપ્રાય સામે બચાવ કરેલ. પ્રદ્યુમ્નસૂરિ બૃહદ્ગછીય સુવિશ્રુત વાદીન્દ્રદેવસૂરિના શિષ્ય મહેન્દ્રસૂરિના શિષ્ય હતા. અને આશાપલ્લીને ઉદયનવિહાર સાથે સંકળાયેલા હોય તેમ લાગે છે. કદાચ તે જ કારણસર ઉદયન મન્ત્રીના પ્રપૌત્રાને પણ પ્રદ્યુમ્નસૂરિની શિષ્યશાખા પ્રતિ પરમ્પરાગત ભક્તિભાવ અને અનુરાગ રહ્યાં છે, જેને કારણે પ્રસ્તુત શાખાના જયાનન્દસૂરિએ ગિરનાર પરની સામતસિંહ-સલક્ષણસિંહ દ્વારા કારિત પાર્શ્વનાથના મંદિરની પ્રતિષ્ઠાવિધિ સમ્પન્ન કરી હેય. ગિરનારના આ પરિવારના ખંડિત પ્રશસ્તિ લેખમાં વળી પ્રતિષ્ઠા કરાવનાર આચાર્ય રૂપે જયાનન્દસૂરિના પટ્ટધર દેવસૂરિનું નામ છે. કદાચ આ પ્રશસ્તિલેખ પાર્શ્વનાથ જિનાલયને બદલે ગિરનાર પર ઉદયન મંત્રી પરિવારે કરાવેલ કોઈ બીજા મંદિરના ઉપલક્ષમાં હેય. સાહિત્યિક તેમજ અભિલેખીય પ્રમાણેના આધારે ગિરનાર પરના સંબંધ કર્તા બૃહદ્ગછીય પ્રતિષ્ઠાપક આચાર્યોની ગુર્નાવલિ નીચે મુજબ બને છે; બૃહદ્ગછ (વાદીન્દ્ર દેવસૂરિ) (મહેન્દ્રસૂરિ) પ્રદ્યુમ્નસૂરિ માનદેવસૂરિ જયાનન્દસૂરિ (સં.૧૨૮૨ (ઈ.સ.૧૩૨૬; સં.૧૩૦૫/ઈ. સ. ૧૨૪૮) (દ્વિતીય) દેવસૂરિ (લેખની મિતિ નષ્ટ) તીર્થાધિપતિ ને મીશ્વરના મંદિર-સમુદાયના દક્ષિણ દ્વાર સમીપની પશ્ચિમ તરફની દેહરીની અિંતમાં લગાવેલ આ ખંડિત લેખની પ્રથમ વાચના બસ કઝિન્સ, ૮ અને ફરીને ડિસાળકર દ્વારા થયેલી છે. લેખ ચુડાસમા સમય, રાજ મહીપાલદેવના સમયને છે; જે પ્રસ્તુત રાજા મહિ૨૬ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ ઉજજયન્તગિરિના પૂર્વ પ્રકાશિત અભિલેખો વિશે પાલદેવ પ્રથમ હેય તે તો ઈસ્વીસનની ચૌદમી શતાબ્દીના બીજા ત્રીજા દશકના અરસાને હશે, પણ દ્વિતીય મહિપાલદેવના સમયને હોય તો તે પંદરમા શતકના ત્રીજા ચરણના અરસાને હશે. લેખના ખંડિત થયેલા અંશને અહીં અમે શક્ય બને તેટલું પૂરું કરવાની કોશિષ કરી છે અને તેમાં આવતા “કારાપક”ના વિષયમાં થોડી ચર્ચા કરી છે. ૨ ૨ સ્વસ્તિ શ્રીવૃતિ + + + + + ૨ ના શ્રી નેમિનાથાચ = + + [i૨૪૨૪] ३ ॥वर्षे फाल्गुन शुदि ५ गुरौ । श्री [यादवकुल] ४ ॥तिलक महाराज श्रीमहीपाल [देव राज्ये सा.] ५ ॥वयरसीह भार्या फांउ सुत सा [०सालिग] ૬ માસુર સા. સાધ્યા સા. મે મેરા રિવી? ] ૭ સુત કરી પણ ઘમૃતિ [શ્રીધf] ૮ નાથ બેસાર [] પિત્ત (s) I mતિષ્ઠિત શ્રી ] ९ ॥द्र सूरि तत्पट्टे श्रीमुनिसिंह [सूरि भिः] ૨૦ ...............હલ્યાત્રિી ....... પંદરમી શતાબ્દીના મધ્યભાગના અરસામાં રચાયેલી બે પૃથફ પૃથફ ગિરનાર ચૈત્ય પરિપાટીઓમાં આવતા ઉલ્લેખ પરથી અમે ચર્ચા હેઠળનાં લેખના ખાલાં પૂર્યા છે, જેમકે સં.૧૫૦૮/ઈ.સ.૧૪૪૯ પછી તુરતમાં રચાયેલી, બૃહતપાગચ્છીય રતનસિંહસૂરિશિષ્યની ચૈત્યપરિપાટીમાં આ પ્રમાણે ઉલ્લેખ છે૪૧ : ઉસવાલ સાલિગ મેલાગરિ ધરમનાથ થાપીય વર જિણહરિ, પણમિતુ સુભ પરિણામ ૨૦ અને બીજો ઉલલેખ છે સંપ્રતિ ગ્રન્થમાં આગળ છપાયેલી ચૈત્યપરિપાટીમાં યથાર: મેલાસાહ તણી દેહરીઈ ધર્મનાથનાઈ નમતાં જઈઈ મૂલદુવારિ થાકણુએ સાતમી સવાલાખી ચુકીધર, ૧૭’ શિલાલેખમાં પણ કારાપકોમાં “સા. મેલા”નું નામ છે, જો કે તેના બાપનું નામ ઉડી ગયું છે, અને તીર્થકરના નામમાં “નાથ” ભાગ રહ્યો છે, ગલે ભાગ નીકળી ગયો છે. ઉપર ટાંકેલ બને સન્દર્ભોના આધારે, તેમ જ પ્રસ્તુત દેહરી મૂલદ્વાર (પ્રતિલી) નજીક, અને “સવાલખી ચેકી પાસે, યાને નેમિનાથના પૂર્વ તરફના સ્તભયુક્ત પ્રકાર પાસે ક્યાંક હતી તે ધ્યાનમાં રાખતાં, અને લેખ પણ નેમિનાથના મંદિરના બહારના દખણાદા પરિસરમાં સેંધાયો છે, એ બધી વાત વિચારતાં એમ લાગે છે દે સન્દર્ભગત લેખ ઓસવાળ વંશના “સાધુ સાલિગ” અને તેના પુત્ર “સાધુમેલા એ (મલાગેરે) બંધાવેલ જિન ધર્મનાથની કુલિકા સંબંધને છે. ચૈત્યપરિપાટીઓના સમયને લક્ષમાં લેતાં પ્રસ્તુત દેહરી પંદરમા શતકના મધ્યભાગ પૂર્વે બંધાઈ ચૂકી હેવી જોઈએ. લેખમાં પ્રતિષ્ઠાપક આચાર્ય મુનિસિંહસૂરિને ગરછ બતાવ્યો નથી; પણ પાટણના કનાસાના પાડાના મોટા દેરાસરમાં મૂળનાયક શાંતિ. નાથના ગભારાની સં. ૧૪૯૪ ઈ.સ.૧૪૩૮ના લેખવાળી શ્રેયાંસનાથની ધાતુ મૂર્તિમાં પ્રતિષ્ઠાપક રૂપે સિદ્ધાતિક–ગછના મુનિસિંહસૂરિનું નામ છે. અમને લાગે છે ગિરનારવાળી ઉપર ચર્ચિત લેખના મનિસિંહસરિ આ જ હેવા જોઈએ. ગિરનાર પર સં.૧૪૯૪/ઈ.સ.૧૪૩૮ના અરસામાં ત્રણેક મોટાં Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૨૦કે જિનમંદિરો–ખરતરવસહી, કલ્યાણત્રય, અને પૂર્ણસિંહ વસતી બંધાયેલાં. તે જોતાં, અને મહિને પાલદેવ (દ્વિતીય)ને પણ એ જ સમય હાઈ પ્રસ્તુત લેખ સં.૧૪૮૪ના અરસાને હશે. સંભવ છે કે મુનિસિંહ સૂરિના ગુરુનું નામ શ્રીચન્દ્રસૂરિ હેય. (લેખમાંદ્ર સૂરિ ભાગ અવશિષ્ટ છે) કારાપનું વંશવૃક્ષ લેખ અનુસાર આ પ્રમાણે સમજાય છેઃ [સા.] વયરસિંહ = ફાઉ સા. [સાલિગ] સા. સાઈઆ. સા. મેલા (=મેલા દેવી ?)* રેડી ગાંગી ગિરનાર પર કેટલાક અન્ય પણ ચર્ચાસ્પદ અભિલેખે છે; પણ અહી' લંબાણ ભયે તે છોડી દીધા છે. સંભ્રાન્તિ નિવારણ લેખ પૂર્ણ થઈ ગયા બાદ ગિરનાર પરના કેટલાક અભિલેખોની હસ્તિ સંબંધી અર્વાચીન જૈન લેખકે દ્વારા અજ્ઞાનપણે ફેલાવાતા સંભ્રમ બાબતમાં અહીં ધ્યાન દેરવું આવશ્યક સમજી, ડીક વિશેષ ચર્ચા, જૈન પરિભાષામાં કહીએ તે “ચૂલિકા” રૂપે (પરિશિષ્ટ રૂપે કરવા ધાયું છે. આવાં ભ્રાન્ત લેખને, ખાસ કરીને તે તીર્થનાયક નેમિનાથના મંદિરના ઉપલક્ષમાં રહેલ અભિલેખે સંબંધમાં જોવા મળે છે. (૧) મુનિ નિત્યાનંદવિજયજીએ શ્રીરૈવતગિરિ-સ્પર્શના, શ્રી આત્મ કમલ-દાન-પ્રેમ-જબૂસૂરિ જૈન ગ્રંથમાળા મણકે ૪૭, સુરેન્દ્રનગર વિ.સ. ૨૦૨૦ ઈ.સ. ૧૯૬૪, પૃ. ૧૨૬ તથા પુનઃ પૃ. ૧૭૧ પર નોંધ કરી છે, તદન્વયે નેમિનાથ ભગવાનના રંગમંડપના ત્રણ થાંભલાઓ પર અનુક્રમે સં. ૧૧૧૩ વર્ષને નેમિનાથ મંદિર બનાવ્યાને, સં. ૧૧૩પને પ્રતિષ્ઠા સંબંધુ, અને ઈ.સ. ૧૨૧૮માં દેવાલયને સમરાવ્યાનો ઉલેખ છે. (૨) મુનિ નિત્યાનંદવિજયથી ૧૧ વર્ષ પૂર્વે પં. અંબાલાલ પ્રેમચંદ શાહ પણ (જૈન તીર્થ સર્વ સંગ્રહ ભાગ ૧, અમદાવાદ ૧૯૫૩, પૃ. ૧૨૧ પર) આવી જ વાત નેધે છે; તે માટે તેઓ દેલરચંદ પુ. બડિયાના ગિરનાર માહાસ્યનો “ઉપધાત” પૃ. ૨૧ને (કઈ ભાષામાં [હિન્દી ?), કયાંથી, અને કયા વર્ષમાં પુસ્તક છપાયું તેની નોંધ કર્યા સિવાય) હવાલે દે છે. (૩) પં. અંબાલાલ શાહથી ચાર વર્ષ પૂર્વે મુનિ ન્યાયવિજયજી (જૈન તીર્થોને ઈતિહાસ, શ્રી ચારિત્ર સ્મારક ગ્રંથમાલા : પુ૫ ૩૮ મહેસાણા ૧૯૪૯ પૃ. ૧૧૮)માં લખે છે કેઃ “રંગમંડપમાં એક થાંભલા પર સં. ૧૧૧૩ના જેઠ ૧૪ દિને નેશ્વર જિનાલય કરાવ્યા, બીજ થાંભલા પર સં. ૧૧૩૫માં પ્રતિષ્ઠા કરાવ્યા, ત્રીજામાં ૧૧૩૪માં દેવાલય સમરાવ્યા લેખ છે. (જૈન સાહિત્યનો સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ).” તથા એમના પૃ. ૧૨૦ પર) “રંગમંડપના પૂર્વ તરફના થાંભલામાં નીચે પ્રમાણે લેખ છે. સંવત ૨૨૨૩ વ ને મારે ૨૪ દિને શ્રીમાનેશ્વા નિનાટ્યાઃ તિઃ. વળી, બીજા Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૪ ઉજ્જયન્તગિરિના પૂત્ર પ્રકાશિત અભિલેખા વિષે સ્થંભમાં આ પ્રમાણે કારેલુ છે કે સંવત્ ૧૬૩૯ વર્ષે પ્રતિષ્ઠા ાન્તિ: | ત્રીન સ્થ`ભમાં લખે છે કે “સ', ૧૩૩૫માં મંદિરજીના જીÍધાર કરાવ્યા.” (૪) માહનલાલ દલીચંદ્ર દેસાઈ (જૈન સાહિત્યના॰ મુંબઈ ૧૯૩૨, પરિચય. પૃ. ૧૪૫) નેમિનાથ મૉંદિરના ઉપલક્ષમાં નાંધે છે કે “એક થાંભલા પર સ. ૧૧૧૩ના જેઠ ૧૪ દિને તૈમીશ્વર જિનાલય કરાવ્યું તે બીજા થાંભલાપર સં. ૧૧૩૫માં પ્રતિષ્ઠા કરાવી, તે ત્રીજમાં સ. ૧૩૩૪માં દેવાલય સમરાવ્યું એમ લખે છે.” (૫) આ બધી ગેરસમજણુનું મૂળ બસની મૂળ તેાંધ પૂરી ન સમજવાને કારણે ઉપસ્થિત થઈ છે. (થાડાક ગાય તા ખુદ બર્જેસે પશુ વાળ્યા છે !) (જુએ Report on Antiquities,, p. 166; cf. also his Visit to Somnath, Girnar in May 1869, Reprint Varanasi 1976, p. 38.) બસ ત્યાં લખે છે: “The largest temple is that of Neminatha...... and bears an inscripton on one of the pillers of the mandapa, stating, that it was repaired in A.D. 1278.' The temple is of very conisderable age,......" (Infra) "It bears on two of the pillars of the mandap inscriptions dated 1275, 1281, and 1278, relating to donations of wealthy Sravakas for the daily worsip of the Jina." જેસ અને કઝિન્સ નેમિનાથ જિનાલયના ઉપર કથિત સાલાવાળા ત્રણે લેખાની વાચના સદ્ભાગ્યે પ્રકાશિત કરી છે. (Revised List., pp. 352-353). તદનુસાર લેખાની મિતિએ નીચે મુજબ છેઃ (અ) સ. ૧૩૩૩ વર્ષે જયેષ્ઠ વિ ૧૪, (૬) સ. ૧૭૩૫ વર્ષ વૈશાખ શુદ્ધિ ૮. (૪) સં. ૧૩૩૯ વષે જ્યેષ્ઠ સુદિ ૮. આ સિવાય પદ્મશાલાના સ્તમ્ભ પર પણ એક લેખ છૅ. (૩) સં. ૧૩૩૪ વૈશાષ વિદ ૮. આધુનિક જૈન લેખÀા જેને સં. ૧૧૧૩ વર્ષાંતે જેઠ માસ ૧૪ને લેખ માની બેઠા છે તે ઉપર્યુક્ત સ. ૧૩૩૩ના જ્યેષ્ઠ વિદ ૧૪ને જ લેખ છે! તેમાં તેમીશ્વર જિનાલય કરાવ્યાની વાત હેવાને બદલે ખરતરગચ્છીય જિનપ્રમાધસૂરિના ઉપદેશથી ઉચ્ચાપુરીના શ્રાવકાએ તેમિનાથની પ્રક્રિ અથે કરેલાં ધન-દાનના ઉલ્લેખ છે! વળી જે લેખને તેએ સં. ૧૧૩૫ના ઘટાવે છે તે વસ્તુતયા સ’. ૧૩૩૫ના છે, અને તે પણ પ્રતિષ્ઠાને બદલે ધવલક (ધોળકા)ના શ્રાવક ખિલ્હણે નેમિનાથની પૂાથે કઈ દાન આપ્યું હશે તેની તેોંધ લેતા (ખ ંડિત) લેખ છે. જેતે સ. ૧૧૩૪માં મંદિર સમારાવ્યાને લેખ માન્યા છે તે સ’. ૧૩૩૪નેા, દક્ષિણ તરફની હારની દેવકુલિકાની પટ્ટુશાલાના દક્ષિણ પ્રવેશ પાસેના સ્તભ પર છે, અને એ અતિ ખંડિત લેખમાં ધનાની જ હકીકત અભિપ્રેત છે, પુનરાધાર નહીં. અસલમાં જ્યાં મદિર જ સજ્જન મ`ત્રી દ્વારા સ`. ૧૧૮૫/ઈ.સ. ૧૧૨૯માં નવેસરથી બન્યું છે ત્યાં સં. ૧૧૧૩, સ. ૧૧૩૪ અને સ. ૧૧૩૫ના લેખા હેાવાની વાતને સ્થાન જ કાં છે? એ જ પ્રમાણે ઈ.સ. ૧૨૧૮માં જીર્ણોધ્ધાર થયાની ગલત વાતનેા આધાર તા બન્ને સે સ ંભ્રમથી ઈ. સ. ૧૨૭૮માં છાઁધારની જે વાત લખી છે તેને વિશેષ વિભ્રમ, અને ત્યાં ત્રીજા અંકને વિપર્યાંસ માત્ર છે! ઈ.સ. ૧૨૭૮/સ. ૧૩૩૪)ના લેખમાં ઉપર કહી ગયા તેમ છધ્ધારની વાત જ નથી! Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેાજક ૨૦૫ કર્નલ ટોડથી ચાલતી આવતી એક ખીજી મહાન ભ્રમણા તે સં. ૧૨૧૫ ચૈત્ર શુદિ ૮નાં રોજ પંડિત દેવસેન–સૌંધના આદેશથી જૂના મંદિરા કાઢી નાખી તેને સ્થાને નવાં કરાવ્યાની વાત, જેનેા પહેલા ભાગ ખજે સ બન્યા,૪૩ અને બન્ને સ પછીના કેટલાયે લેખકે ગતાનુગત અનુસર્યાં! સં. ૧૨૧૫ ચૈત્રવિદ ૮ ને (નેમિનાથની ઉત્તર-પ્રતાલીમાં) લેખ છે ખરે; પણ તેમાં જૂના મદિરા કાઢી નાખી નવા કર્યાની વાત નથી; ત્યાં તેમિનાથને ફરતી દેવકુલિકાઓનાં બાંધકામ પૂરાં થયાની હકીકત નોંધાયેલી છે. એ કાળે ત્યાં ખાજુમાં રહેલ સં. ૧૨(૭o ૦ ?)૬ના શ્રીચન્દ્રસૂરિવાળા લેખમાં રૈવતક” “દેવચંડ” (દેવચ’દ, દેવચન્દ્ર, દેવસેન નહીં) અને પ્રતિષ્ઠિાકિ કાર્યાની વાતા કહી છે. એ જોતાં અમને લાગે છે કે કર્નલ ટોડ જે જૈન યુતિને સાથે લઈ ગયેલા તેને કાં તા જૂની લિપિ પૂરી વાંચતા આવડતી નહીં હાય, યા તા એણે જે વાતચીતમાં કઈ કહ્યું હશે તે ટોડ પૂરું સમજ્યા પણ નહીં હેાય; અને એમ ખોટી રીતે સમજી ખેઠેલ, બે પડખેાપડખ રહેલ શિલાલેખની વિગતાને તેમણે વિચિત્ર રીતે ભેળવી મારી છે. “સ, ૧૨૧૫ ચૈત્ર વદ ૮” અને “પડિત' શબ્દો (પંડિત સાલવાહણુ પરથી) એક લેખમાંથી લીધા; તે બીજા શિલાલેખના દેવચંદને દેવસેન બનાવી સઙગાત મહામાત્ય”ના “સગાત”તે બદલે “સંધ” વાંચી બહુ' એકમેકમાં જેમ ધટયુ. તેમ જોડી દીધુ! તે દેવકુલિકા બતાવ્યાની સાદી વાત જૂનાંને કાઢી નવાં મંદિરા બનાવ્યાંની વાત બની ગઈ ! ટૉડના આવા બીજા સંભ્રમતે, સ. ૧૩૩૯/ઈ.સ. ૧૨૮૩ જ્યેષ્ઠ સુદિ ૧૦ના રોજ રૈવતાચલના જૂનાં દિશ કાઢી નવાં થયાની વાતને, બન્નેસ સાચી માનીને ચાલે છે;૪૪ પશુ સં. ૧૩૩૯ના લેખ જ્યેષ્ઠ સુદિ ના છે, ૧૦તા નહી; અને તે દાન પ્રસંગના છે તે વિષે અહીં ઉપર ચર્ચા થઈ ચૂકી છે. નેમિનાથના પરિસરમાં પુનરુધ્ધાર કે ÌÍધાર સમ્બદ્ધ એક પણ લેખ વાસ્તવિક રીતે તેાંધાયા નથી, અને છે પણ નહી'. ગિરનાર પરના અભિલેખોમાં સાલકી-વાઘેલા કાળની સમાપ્તિ સુધીના વસ્તુતઃ કેટલા, કઈ સાલના છે તે અહીં તાલિકામાં સ`ક્ષિપ્ત રૂપે રજૂ કરીએ છીએ; તેના સન્દર્ભ થી લાંબા ચાલેલ સભ્રમાનું નિવારણ થઈ શકશે. વ સ’. ૧૧૯૪ (૧૧ નષ્ટ) સ. ૧૨૧૫ વિગત ઠે. જસયેાગની ખાંભી સિદ્ધચક્રવતી જયસિંહ દેવના શાસન કાળના ઠંકુર (૫.) સાલવાહષ્ણુતા નેમિનાથની દેવકુલિકાઓનું કામ પૂર્ણ થયા બાબતના લેખ સિધ્ધરાજયુગ વર્તમાન સ્થાન જૂનાગઢ મ્યુઝીયમ એક કાળે તેમિનાથ જિનાલયની ઉત્તર પ્રતાલીમાં (હાલ ગાયબ) કુમારપાલયુગ નેમિનાથની ઉત્તર પ્રતાલીમાં (હાલ અસ્તવ્યસ્ત અને નુકશાન પામેલ હાલતમાં) સંપાદક/સંક્લનકાર છે.મ. અત્રિ; ફરીતે મધુસૂદન ઢાંકી અને લમણુ ભેાજક, ખરે સ અને કઝિન્સ; સ’કલન જિતવિજય, આચાય; પુનવચના ઢાંકી અને ભેાજક, ખજે સ, તથા ખજે સ અને કઝિન્સ; સ`કલન જિનવિજય, આચાય; પુનર્વાચના ઢાંકી અને ભાજક, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ ઉજયન્તગિરિના પૂર્વ પ્રકાશિત અભિલેખે વિષે સં. ૧૨ (૭૦૧૨) શ્રીચન્દ્રસૂરિને (વર્ષ નષ્ટ) બૃહદ્ગછીય વિજય ગિરનાર પર લક્ષમણ ભોજક. સિંહ સુરિ વિરચિત ખંડિત પ્રશસ્તિ; કુમારપાળનું નામ ત્રણ સ્થાને આવે છે. સં. ૧૨૨૨ મહત્તમ આંબાકને ખબુતરીખાણને બજેસ અને કઝિન્સ. સં, ૧૨૨૩ ભીમદેવ (દ્વિતીય)ને સમય સં. ૧૨૩૬ શ્રી વેતામ્બર જૈનમુનિને કહેવાતા સંપ્રતિરાજાના મધુસૂદન ઢાંકી અને લક્ષ્મણ સ્મરણ-સ્તંભઃ અતિ ગૂઢમંડપની દક્ષિણ ભોજક ખંડિત ચેકીને સ્તભ સં. ૧૨૪૪ પ્રભાનંદસૂરિની નિષિકા જૂનાગઢ મ્યુઝિયમ અત્રિ, પુનર્વાચના ઢાંકી અને ભેજક સં. ૧૨૫૬ દંડનાયક (આમ્ર)દેવના હાલ સગરામ સેનાના ડીસકળક૨; સંકલન પત્ર વસન્તપાલ કારિત કહેવાતા મંદિરના આચાર્ય; પુનર્વાચના ઢાંકી નંદીશ્વરદીપ-પટ્ટને લેખ મંડપમાં. અને ભેજક સં. ૧૨૭૫ કિંજરાપદ્રીય ગચ્છના નેમિનાથ જિનાલયના મે.દ. દેશાઈ દ્વારા ઉલિખિત શાંતિસૂરિને લેખ ગૂઢમંડપમાં પણુ અદ્યાવધિ અપ્રકાશિત સં. ૧૨૭૬ ગુમાસ્તાના મંદિરમાં, ઢાંકી અને ભોજક અતિ ઘસાયેલ વાઘેલા યુગ નેમિનાથ મંદિરની પશ્ચિમ તરફની ભમતી. સં. ૧૨૮૭ મહત્તમ ધાંધલ કારિત નન્દીશ્વરદીપ-પટ્ટુ પરનો લેખ વસ્તુપાલ પ્રશસ્તિ સ. ૧૨૮૮ વસ્તુપાલ વિહાર સારાભાઈ નવાબ (અપૂર્ણ વાચના); પુનર્વાચના ઢાંકી અને ભેજક બનેંસ, બજેસ અને કઝિન્સ: સંકલન જિનવિજય, આચાર્ય, મુનિ પુણ્યવિજયજી૪૫ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૨૦૭ મિતિ વિહિન વસ્તુપાલ અને લલિતા- વસ્તુપાલ વિહાર બજેસ; સંકલન જિનવિજય દેવીની મૂળે આરાધક મૂર્તિના ગોખલા પર વસ્તુપાલ અને સોખુ બજેસ; સંકલન જિનવિજય દેવીની આરાધક મૂર્તિના ગોખલા પર વસ્તુપાલ અને લલિતા બજેસ દેવીની મૂતિ બાબતને ભારપટ્ટ પર લેખ વસ્તુપાલ અને સોનુ બજેસ દેવીની મૂર્તિના ભારપટ્ટ પરને લેખ સં. ૧૨૮૯ ટૂંકી વસ્તુપાલ પ્રશસ્તિ રાજલ વેજલ ગુફાની બન્ને સ; બજેસ અને કઝીન્સ; પૂર્વ તરફ સંકલન જિનવિજય, આચાર્ય, મુનિ પુણ્યવિજયજી ખબુતરી ખાણ બર્જેસ અને કઝીન્સ; સંકલન (અતિ ખંડિત જિનવિજય સં. ૧૨૯૦ મહત્તમ ધાંધલને (સમ્મત નેમિનાથથી ઉત્તર ઢાંકી અને ભેજક શિખર પદ)ને તરફની ભમતી સં. ૧૨૯૯ વરડિયા કુટુંબને જૂનાગઢ મ્યુઝીયમ અત્રિ, પુનર્વાચના ઢાંકી; પુનપ્રશસ્તિ લેખ (મૂળ વસ્તુપાલ- વચના ઢાંકી તથા ભેજક વિહારમાં) સં. ૧૩૦૫ ઉદયન મંત્રી વંશજ વસ્તુપાલ વિહાર બજેસ અને કઝિન્સ, ડિસકળ સામંતસિંહ અને મહા- ગર્ભગૃહમાં હાલ કર; સંકલન જિનવિજય, માત્ય સલક્ષણસિંહને મલ્લિનાથ-મૂલનાયક આચાર્ય, વિશેષ ચર્ચા ઢાંકી મૂલનાયક પાર્શ્વનાથને નીચેની ગાદી રૂપે અને ભેજક પબાસણને લેખા [સંભવતઃ ઉપર્યુક્ત પરિવારની ગિરનાર (મૂળ પાશ્વ બજેસ અને કઝિન્સ: સંકલન સં. ૧૩૦૫] મોટી (પણુ અતિખંડિત નાથના મંદિરમાં ) તથા ચર્ચા જિનવિજય; પુનપ્રશસ્તિ) વચના ડિસકળકર. સં. ૧૩૧૯ અપૂર્ણ અને ખંડિત ગિરનાર ડિસકળકર સં. ૧૩૩૦ અર્જુનદેવ વાઘેલાના નેમિનાથ જિનાલય ડિસકળકર; સંકલન આચાર્ય સમય સૂત્રધાર હરિપાલ- ગૂઢમંડપ ને પ્રદત્ત અધિકાર સબંધી Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ ઉજજયન્તગિરિના પૂર્વ પ્રકાશિત અભિલેખ વિષે સં. ૧૩૩૩ દાન સબંધી બજેસ કઝિન્સ: સંકલન જિન વિજય સં. ૧૩૩૪ નેમિનાથ મંદિરના ઢાંકી અને ભોજક પશાલા તલ્મ પર સં. ૧૩૩૫ નેમિનાથ જિનાલય બજેસ કઝિન્સ: સંકલન જિન વિજય સં. ૧૩૩૯ નેમિનાથ જિનાલય આ તાલિકામાં જાણમાં છે તે તમામ લેખોને કાલક્રમાનુસાર ગણત્રીમાં લઈ લીધા છે. તે હિસાબે સિદ્ધરાજ - કુમારપાળ સમય પૂર્વેને એક પણ લેખ અવાવધિ પ્રાપ્ત નથી થયો. (સાહિત્યના તેમ પ્રતિમાઓના અલબત્ત પ્રાચીનતર એવા ઘણું પ્રમાણે છે. અને વાઘેલાયુગની સમાપ્તિ બાદના ઘણાખરા લેખ ચૂડાસમા યુગના, છેલા રાજા રા'માંડિલક સુધીના કાળના છે; તે પછી કોઈ કઈ મુઘલ, અને ત્યારબાદ બ્રિટિશ (યા નવાબી) યુગના છે. દિગમ્બર સમ્પ્રદાયના થોડાક લેખે જોવા મળ્યા છે, પણ તે સૌ ૧૫મી તેમજ ૧૭મી શતાબ્દી અને બાદના છે. જ્યારે એક પણ બ્રાહ્મણીય સમ્પ્રદાયને અનુલક્ષતો અભિલેખ અદ્યાપિપર્યન્ત મળ્યું નથી, કે પર્વત પર બ્રાહ્મણીય મંદિરો હેવાનાં સાહિત્યિક કે પુરાતત્ત્વનાં પ્રમાણે ઉપસ્થિત નથી, પ્રાપ્ત થયાં નથી. (ગિરનાર પરના તમામ સાહિ ત્યિક ઉલ્લેખે – આમિક, જૈન પૌરાણિક, તીર્થનીરૂપણાત્મક – સાહિત્ય (કલ્પ, તીર્થમાળાઓ, ચૈત્યપરિપાટીઓ, રાસ, વિવાહલાઓ, ઇત્યાદિના) અને સ્તોત્રો, સ્તવને ઇત્યાદિના તેમ જ ઉપલબ્ધ અભિલે, દેવાલય નિર્માણે, યાત્રા-વિષયક અને સલ્લેખના આદિના ઉલ્લેખોના પરિ શ્રેગ્યમાં, અને મળ સ્ત્રોતને સાંગોપાંગ ઉદ્રકિત કરવા સાથેની શિ૯૫ – સ્થાપત્યની વિસ્તૃત ચર્ચા પ્રથમ લેખકના સચિત્ર “મહાતીર્થ ઉજજ્યન્તગિરિમાં આવનાર હોઈ અહીં આથી વિશેષ કહેવાને આયાસ કર્યો નથી, પાદટીપ અને સન્દર્ભે ૧. જુઓ ગિરનારના ત્રણ અપ્રસિદ્ધ શિલાલેખે” સ્વાધ્યાય, પુ. ૫, અંક ૨, પૃ. ૨૦૪-૨૧૦. ૨. શ્રી અત્રિ લેખ આ પ્રમાણે વાંચે છેઃ (૨) સં ૨૨૨૬ (૬૨) વે. (૨) ૪. ઘેદા () સુત (૨) 8. y (3)ય છે. 3. Cf.C.M. Atri "A collection of Some Jain Stone Emages from Mount Girnar", Bulletin of the Museum and Picture Gallery, Baroda, Vol. Xx1, Baroda 1968, PI, XLIII, Fig. 3. ૪. અત્રિ પ્રસ્તુત રાજપુરુષની સ્મારક પ્રતિમાને “ગુજરાતી દાનેશ્વરી”ની “દાતામૂતિ” ધટાવે છે (પૃ. ૨૦૪). પણ દાતામતિ (એટલે કે આરાધક મૂતિ)ને મધ્યકાલિન પશ્ચિમ ભારતમાં પ્રાયઃ અંજલિહસ્તમાં વા માલાધર રૂપે રજૂ કરવાની પ્રથા હતી. 4. Revised List of the Antiquarian Remains in Bombay Presidency, Vol. VIII, P. 356, No, 17. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભેજક ૨૦૯ આ લેખ પ્રાચીન જૈન લેખ સંગ્રહ (ભાગ બીજો) (સંગ્રા–સંપા. જિનવિજય), પ્રવર્તક શ્રી કાંતિવિજય જૈન ઇતિહાસમાળા પુષ્પ છઠુ, જૈન આત્માનન્દ સભા-ભાવનગર, ભાવનગર ૧૯૨૧, અંતર્ગત પૃ. ૭૩ પર લેખાંક ૬૨ રૂપે સંકલિત કર્યો છે; પણ ઉપર્યુક્ત અને ગ્રંથ આજે દુપ્રાય બન્યા હેઈ અહીં તેનું કેટલાક ખૂટતા શબ્દો સાથેનું પુનર્મુદ્રણ ઉપયેગી નીવડશે. १. इक्कारसयसहीउ पचासीय वच्छरि । नेमिभुवणु उध्धरिउ साजणि नरसेहरि ॥९॥ al C.D. Dalal, Pracina-Garjara Kavyasamgraha Part 1, Gaekwad's Oriental Series, No. 13, First ed., Baroda 1920; Reprint 1978, p. 4; તથા મુ. પુણ્યવિજય સૂરિ, સંતવીર્તિદોઢિચઢિાર વરઘુપત્તિ સંબ, સિંઘી જૈન ગ્રન્થમાલા [પ્રન્યાંક ૫], મુંબઈ ૧૯૬૧, પૃ. ૧૦૧, 6. Ed. James M. Campbell, Gazetteer of the Bombay Presidency, Vol. 1, Pt. 1, “History of Gujarat” Bombay 1896, P. 177. L. Report on the Antiquities of Kathiawad aud Kacch (1874-75), Arch aeological Survey of Western India, Reprint, Varanasi 1971, p. 167. 6. Revised List., Ins. No. 14, p. 355. ૧૦. “સિદ્ધરાજ અને જેને,” ઐતિહાસિક લેખ-સંગ્રહ, શ્રી સયાજી સાહિત્યમાળા, પુષ્પ ૩૩૫, વડોદરા, ૧૯૬૩, પૃ. ૧૧૯-૧૨૦. એજન. ૧૨ એજન તથા મેહનલાલ દલિચંદ દેશાઈ, જૈન સાહિત્યને સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ, મુંબઈ ૧૯૩૨, પૃ. ૨૪૩-૨૪૪. ૧૩. જુઓ મુનિ જયન્તવિજય, શ્રી અબુંદ-પ્રાચીન-જૈન-લેખસંદોહ (આબૂ-ભાગ-બી, શ્રી વિજયધર્મસૂરિ જૈન ગ્રંથમાળા, પૃ. ૪૦, ઉજજૈન વિ.સં. ૧૯૯૪ (ઈ. સં. ૧૯૩૮), લેખાંક ૭૨, પૃ. ૩૯; તથા પં. કલ્યાણવિજયજી ગણિ. 98. Cf Burgess, Report on Antiquities., p. 167. And Burgess & Cousens, Revised List. p. 356. ૧૫. એજન. ૧૬, કાવીન, “અવલોકન” પૃ. ૮૦. ૧૭. ગુજરાતના ઐતિહાસિક લેખ, (ભાગ રજ), શ્રી ફાર્બસ ગુજરાતી સભા ગ્રન્થાવલિ ૧૫, મુંબઈ ૧૯૩૫, પૃ. ૫૧. ૧૮. બહાપાપછીય રત્નાકરસૂરિની પરંપરાના જયતિલકસૂરિની સંપ્રતિ ગ્રંથમાં આગળ પ્રકાશિત, ઈસ્વીસનના ચૌદમા શતકના પ્રારંભની “ગિરનાર ચત્ય પ્રવાડી” (સં. સ્વ. અગરચંદ નાહટા અને મધુસૂદન ઢાંકી)માં ૨૪મી કડીમાં નીચે મુજબ ઉલ્લેખ છે? નાગરી ઝિરિ આગલિ કુંડ જ ગયંદમઈ પક્ષાલઉ પિંડ જ ઈંદ્રમંડપ સે અંગો-૨૪ આ ઉલ્લેખ ઉપરથી સ્પષ્ટ છે કે બજેસે જેની “નાગજરિ સિરિયા” એવી વાચના કરી છે તે ૨૬ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૦ ઉજજ્યનગિરિના પૂર્વ પ્રકાશિત અભિલેખો વિષે અસલમાં “નાગરિ ઝિરિયા” હેવું જોઈએ. (અમે તે સુધારો લેખ અંતર્ગત સૂચવ્યો છે.) પંદરમા શતકના મધ્યભાગની તપાગચછીય રત્નસિંહ સૂરિશિષ્યની ગિરનારતીર્થમાલા અંતર્ગત પણ આ પ્રમાણે ઉલલેખ છેઃ ઇંદ્રમંડ૫ ગજપદ વસિષ્ઠરિષિ નાગમોરઝિરિ કુંડ - જિહાં જિન તિહાં કરે સેવ સુણ સખિ. ૧૯ (સં. વિજયધર્મસૂરિ, પ્રાચીન તીર્થમાળા-સંગ્રહ ભાગ ૧ લે, ભાવનગર સં. ૧૯૭૮ (ઈ.સ. ૧૯૨૨), પૃ. ૩૬.) તથા તપાગચ્છીય મુનિસુંદર સૂરિશિષ્ય હેમહંસ મણિની ગિરનારમૈત્યપરિપાટી (આ. સં. ૧૫૧૫/આ. ઈ.સ. ૧૪૫૯)માં નીચે મુજબ ઉલેખ છે: નાગર ઝિરિ ઈદ્રમંડપ પેખિએ આણું દે જોઈએ કુંડ ગઈદમુ એ છત્રસિલા તસુ હેઠિ ૨૮'. (સં. પંડિત બેચરદાસ જીવરાજ દેશી, પુરાતત્ત્વ, ૧-૩, એપ્રિલ ૧૯૨૩, ૫. ૨૯૬). ૧૯. “ગિરનારના.” પૃ. ૨૦૪-૨૦૫. ૨૦. શ્રી અત્રિએ ઠક્કર જસોગવાળા લેખનું ચિત્ર તો પ્રગટ કર્યું છે (cf “A collections, pl. XLIII, Fig. 3), પણ આ સ્મરણ-સ્તમ્ભનું ચિત્ર પ્રકાશિત નથી કર્યું. 29. Poona Orientalist, Vol I, No. 4, p.45. રર. ગુજરાતના અતિહાસિક લેખે, ભાગ ૩જે, “પુરવણના લેખ” (૧૫૭ ઈ), મુંબઈ ૧૯૪૨, પુ. ૧૯૧–૧૯૨. ૨૩. “A collection” p. 57. ૨૪. મુનિ શ્રી જિનવિજયજી આ બધા સ્રોતોમાંથી મૂળ સન્દર્ભે ટાંકયા છે? જુએ કાન, અવલોકન” પૃ.૮૧-૮૩, ૨૫. Revised list, Ins. 27 and 30, p. 359; અને પ્રાર્થન, લેખાંક ૫૦-૫૧, પૃ. ૭૦: તથા “અવલોકન' પૃ. ૮૧-૮૩. ૨૬. ગુજરાતના , ભાગ ૩, પૃ. ૧૯૧. ૨૭. “A collection,” p. 57. ૨૮. આચાર્ય પૃ. ૧૮૧. ર૯ લેખમાં અલબત તિથિ વાર અને ખ્રિસ્થાબ્દિ મા સતારિખમાં ફર્ક છે તે તરફ અલબત ડિસ' કળકરે અને એમને અનુસરીને આચાર્યજીએ ધ્યાન દોર્યું છે પણ લેખ બનાવટી નથી. ૩૦. “ગિરનારના.”. પૃ. ૨૦૫, અને તે પરનું વિવેચન પૃ. ૨૦૬-૨૦૮. - ૩૧. ગિરનારના એક નવપ્રસિદ્ધ પ્રશસ્તિ-લેખ પર દષ્ટિપાત,” સ્વાધ્યાય પુ. ૮, અંક ૪, પૃ. ૪૬૯-૪૮૯. ૩૨. જુઓ “અર્જુનદેવને કાંટેલા શિલાલેખ” ગુજરાતના ભાગ ૩જે, પૃ. ૨૦૪-૨૦૭ સન્દભ. કર્તા લોક આ પ્રમાણે છે: તથા ગ્રાચીન “અવલોકન” પૃ. ૮૬ रैवताजलचूलै च श्रीनेमिनिलयायतः प्रांशुप्रासाद प्रस्थापि बिंव पाश्वजिनेशतुः ॥१०॥ ૩૩. Revised list, No. 23, p. 358; પ્રાચીન, લેખાંક ૫૩, ૫.૭૧ તથા “અવકન” પુ. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી-લક્ષ્મણ ભ્રાજક ૧૩ ૮૪–૯૬; D.B. Diskalkar, Inscriptions of Kathiawad; (Reprinted from new Indian Antiquary, No. I-II (1938–41) Bombay, p. 691; ગુજરાતના ભાગ ૩જો, લેખાંક નં. ૨૧૦, પૃ. ૪૨; ૩૪. પ્રાચીન૦ પૃ. ૮૪-૯૬, ૩૫. “માઁત્રી ઉદયન અને તેના વંશ” સ્વ. રામલાલ ચુનીલાલ મોદી લેખસંગ્રહ ભાગ-૨, અમદાવાદ ૧૯૬૫, ૬, ૧૦૦-૧૧૯. ૩૬. જૈન સાહિત્યના સક્ષિપ્ત ઇતિહાસ, મુંબઈ ૧૯૩૨, પૃ. ૨૬૮-૨૭૧ તથાપૃ. ૪૨-૪૦૩. ૩૭. જુએ ગ્રંથમાં આગળના અમારા લેખ “ઉજયન્તગિરિના કેટલાક અપ્રકટ ઉકી લેખા," લેખાંક ૨. ૩૮. Revised List., Ins., No. 11, pp. 353-354. ૩૯. Diskalkar, Inscriptions., No. 30, p. 736. ૪૦. આ બાબતમાં ડિસળકરનું આમ માનવું છે: I think the King Mahipata in this inscription is probably the first of the three." (Ibid.) He dates the first to V.S. 1364–87 (A.D. 1308-31), the second to V.S. 1452-56 (A.D. 13961400), and the third to V,S, 1506-27 (A,D. 1450-71). પશુ વિમલનાથ જિનાલયની પ્રતિષ્ઠા સમયે (ઈ. સ. ૧૪૫૩માં) રા’મડલિક (દ્વિતીય)નું શાસન ચાલતું હતું; અને આ મંડિલકના પિતા મહિપાલદેવ (દ્વિતીય) હતા તેમ પ્રસ્તુત જિનાલયના કારાપાની પ્રશસ્તિને આધારે સિદ્ધ છે, તેનું શું ? ૪૧. સૌ. વિજયધર્માંસૂરિ, પ્રાચીન તીર્થં માળા સંગ્રહ, ભાગ ૧૯, ભાવનગર સ. ૧૯૭૮ (ઈ.સ. ૧૯૨૨), પૃ. ૩૬. ૪ર. આ ગ્રન્થમાં પ્રકાશિત સુધી શવરાજવાળી ચૈત્ય-પરિપાટી. (સ'. મધુસૂદન ઢાંકી, વિધાત્રી વેરા). * લેખમાં સા. મેા પછી પુનઃ મે શબ્દ છે. એ નામ એની ભાર્યાનું “મેલાદેવી” રૂપ હોઈ શકે. અહીં આવી કલ્પના કરવા માટે એ યુગના બે સમાન્તર દાખલાએ ટાંકીશું. વિ. સં. ૧૪૫૫ (ઈ.સ. ૧૩૯૯)માં શ્રીમાળી ‘મેલિગ” શ્રાવકે પાર્શ્વનાથયરિતની પ્રતિલિપી કરી છે, તેની પ્રશસ્તિમાં તેની પત્નીનું નામ મેલાદેવી” આપ્યું છે. (જુઆ, મુનિ જિનવિજય, જૈનપુસ્ત પ્રાતિલ પ્રē, સિંઘી જૈન ગ્રન્થમાલા, મુંબઈ ૧૯૪૩, પ્રશસ્ત્યાંક ૪૪, પૃ. ૪૫.) ખીજો દાખàા પણ પ્રસ્તુત સંકલનમાં પૃ. ૧૪૮ પર ક્રમાંક ૩૯૪માં તૈાંધાયા છે. સ ૧૪૯૨ (ઈ.સ. ૧૪૩૬)માં આવશ્યકષ્ટúવૃત્તિની નકલ કરાવનાર રાજમંત્રી સજજનપાલની માતાનું નામ “મેલાદે” આપ્યું છે. ૪૩. Report on Antiquities., p. 169. ૪૪. Ibid. ૪૫. મુદ્દતીતિ પરોહિખ્યાતિ વસ્તુવાદ્રરા સ્તન હૈં, સિંચી જૈત ગ્રન્થમાલા, [પ્રથાંક ૫], મુંબઈ ૧૯૬૧. આ ગ્રન્થમાં વસ્તુપાલ અને પરિવાર સમ્મુદ્ર એકાદ બે નાના અપવાદ છેડતાં તમામ લેખા સમાવી લેવામાં આવ્યા છે. ઋણ સ્વીકાર American Institute of Indian Studies, Varanasi Centerની સડાય તેમ જ સૌજ ન્યથી અહીં સન્દર્ભ ગત ત્રણે ચિત્રા પ્રકટ કરવામાં આવે છે. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉજજ્યન્તગિરિની ખરતર–વસહી મધુસૂદન ઢાંકી ઉજજયન્તગિરિના અધિષ્ઠાતૃદેવ, જિન અરિષ્ટનેમિના પ્રાસાદની જગતના ઉત્તર દ્વારેથી ઉતરતાં હેઠાણ ભાગે ડાબી બાજુએ જે પહેલું મોટું મંદિર આવે છે તે વતમાને “મેલવસહી' વા “મેરકવસહી કે “મેરકવશી' નામે ઓળખાય છે: પરંતુ આ અભિધાન ભ્રમમૂલક છે; કેમકે જે બે'એક ચૈત્યપરિપાટીકારે “મેલાગર' (મેલા સાહ) ના મંદિરને ઉલેખ કરે છે તે મંદિર તે તમના કથન અનુસાર “ધરમનાથ” (જિન ધર્મનાથ)નું હતું, કેવળ નાની દેહરા રૂપે જ હતું, અને તેનું સ્થાન નેમિનાથની જગતીના પૂર્વારની પાસે કયાંક હતું. જ્યારે આ કહેવાતી “મેલક વસહી” તે ઉત્તરદ્વારથી હેઠાણમાં રચાયેલ મારું બાવન જિનાલય છે અને તે અષ્ટ ૧દ અને સમેતશિખરને ભદ્રપ્રાસાદે, ગૂઢમંડપ, અને રંગમંડપની રચનાઓ ઉપરાન્ત “પંચાગવાર” અને “નાગબધુ' ઇત્યાદિ ચમત્કૃતિભરી આકૃતિઓની કરણવાળી, તેમ જ અન્ય વાસ્તુશાસ્ત્રોકત પ્રકારાવાળી સરસ છતાથી શોભાયમાન મંદિર છે. પંદરમા શતકના ઉત્તરાર્ધના ચૈત્યપરિપાટીકારે આ મંદિરનું ખૂબ હાશપૂર્વક અને વિગતે વર્ણન કરે છે, જે સર્વ તે વર્તમાન મંદિરની રચના સાથે મળી રહે છે, જે વિષય અહીં અગાઉ ઉપર જોઈશુ. ચૈત્યપરિપાટીકારોએ આ મંદિરને સ્પષ્ટતયા “ખરતર-વસહા” કહ્યું છે અને તેના નિર્માતા તરીકે ભણસાલ નરપાલ સંઘવીનું નામ આપ્યું છે. પ્રસ્તુત ખરતર-વસહીની નિર્માણમિતિ ખરતરગચ્છીય ઉપાધ્યાય જયમ સ્વરચિત “જયસાગરોપાધ્યાય-પ્રશસ્તિ”માં સં. ૧૫૧૧/ઈ.સ. ૧૪૫૫ બતાવે છે; પરંતુ રાણકપુરના ધરણુવિહારમાં સ્થિત, સં. ૧૫૦ ઈ.સ. ૧૪૫૧માં બનેલા “શત્રુંજય-ગિરનાર શિલા પટ્ટમાં પણ ગિરનાર પરની આ ખરતર-વસહીનું અંકન કરેલું હાઈ પ્રસ્તુત વસહી તે પૂર્વે બંધાઈ ચૂકી હવા જોઈએ - આ મંદિર વિષે બીજી એક ખોટી કિંવદતી, જે સામ્પ્રતકાલિન વેતામ્બર જૈન લેખકે અનવેષણ કર્યા વગર લખે જ રાખે છે,–તે એ છે કે સજજન મંત્રાએ ટીપ કરીને તૈયાર રાખેલું નેમિનાથ મંદિરના નિર્માણ-ખર્ચ જેટલું દ્રવ્ય જયસિંહદેવ સિદ્ધરાજે ગ્રહણ ન કરતાં તેને ઉપયોગ આ મંદિરને બંધાવવામાં થયો હતા; પણ આ મંદિર સમ્બદ્ધ કોઈ જ સમકાલિક કે ઉત્તરકાલિક ઉલ્લેખ આ માન્યતાનું સમર્થન કરતા હોવાનું જ્ઞાત નથી. મંદિરની શૈલી તો સ્પષ્ટતઃ ૧૫ મા સૈકાની છે. મંદિરના મૂલગભારામાં વર્તમાન સં. ૧૮૫૯ ઈ.સ. ૧૮૦૩માં વિજય જિનેન્દ્રસૂરિ દ્વારા પ્રતિષ્ઠિત સહસ્ત્રફણા-પાર્શ્વનાથ મૂળનાયક રૂપે વિરાજમાન છે; પણ ૫ દરમાં શતકમાં તે તેમાં સ-તારણ પિત્તળની, સોનાથી રસેલ, “સેવનમય વીર’ની પ્રતિમા અધિનાયક રૂપે પ્રતિષ્ઠિત હતી; અને તેની અડખેપડખે શાન્તિનાથ અને પાર્શ્વનાથની પિત્તળની કાર્યોત્સર્ગ પ્રતિમાઓ હતી તે ચૈત્યપરિપાટીકારના કથન પરથી નિર્ણય થાય છે. મૂલનાયકની પ્રતિમા “સંપ્રતિકારિત” હેવાનું તપાગચ્છીય હેમહંસગણિ, શવરાજ સંધવાની યાત્રાનું વર્ણન કરનાર ત્યપરિપાટીકાર, ખરતગચ્છીય રંગસાર, તેમજ કરણસિંહ પ્રાગ્વાટ પણ કહે છે. આ ઉપરથી આ મંદિર તે કાળે સંપ્રતિ રાજાનું મંદિર કહેવાતું હશે. પણ હાલમાં તે આ મંદિરની સામેની ધાર પર આવેલ, ખંભાતના શ્રેષ્ઠીવરે શાણરાજ અને ભવે ઈ.સ. ૧૪૫૯માં બંધાવેલ, અસલમાં જિન વિમલનાથના, મંદિરને સંપ્રતિ રાજાનું મંદિર હેવાનું Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી ૨૧૩ પ્રસ્તુત ખરતરવસહીના બનાવનારાઓએ ઉપલબ્ધ જગ્યાને બની શકે તેટલે ઉપયોગ કરી, તેમાં બાવન જિનાલયને તળ૨છંદ લાઘવપૂર્વક સમાવી લીધું છે. ઘાટવાળા, પણ અ૯પાલંકૃત સ્તંભે અને દ્વારવાળી મુખચકી વટાવી અંદર પ્રવેશતાં સૌ પહેલાં મુખમંડપ કિવા અગ્રમંડપ આવે છે. તેમાં પંચાગવીર (ચિત્ર ૧) અને “વાસુદેવ-ગોપ-લીલા' ચિત્ર ૨)નાં આલેખન કંડારેલાં છે. (આમાં કલેવરોની મહમૂદ બિધરાના આક્રમણ સમયે ખંડિત થયેલ મુખાકૃતિઓને સં. ૧૯૩૨/ઈ.સ. ૧૮૭૬ના કેશવજી નાયકના જીર્ણોધાર સમયે ફરીને ઘડી વણસાવી મારી છે.) અહીં કેટલીક બીજી પણ સારી (અને વાસ્તુશાસ્ત્રોક્ત) છત છે, જેમાંથી “નાભિમંદારક વર્ગની એક અહીં ચિત્ર ૩માં રજૂ કરી છે. - મુખમંડપ વટાવતાં તેના અનુસંધાને કરેલ રગમ ડપમાં જોવા લાયક વસ્તુ છે તેને “સભાપદ્મ-મંદારક જતિને મહાવિતાન (ચિત્ર ૪). અહીં રૂપકંઠમાં કલ્યાણ કેના, અને જિનદર્શને જતા લોક સમુદાયના, દેખા કંડાર્યા છે (ચિત્ર પ-૬). તે પછી આવતા ત્રણ “ગજતાળું, અને ત્યાર બાદ બહુ જ ઘાટીલા કલ’ના પણ ત્રણ થી લીધા છે, જેનાં પડખેલાંમાં સુરેખ રત્નોની ઝીણું કંડાર શોભા કાઢી છે (ચિત્ર ૪); અને વજશૂ ગો'માં કમળપુષ્પો ભર્યા છે (ચિત્ર ૪). આ થરે પછી ૬ લૂમા” (લાંબસા)ને પટ્ટ આવે છે. તે પછી (હેવી ધટે ત) અસલી “પદ્મશિલાને સ્થાને આધુનિક જીર્ણો. ધારમાં રમક શૈલીનું “લમ્બન બેસી, સોનાની થાળીમાં લેઢાની મેખ મારી છે ! આ મુખ્ય વલયાકાર મહાન વિતાનના બહારના પ્રત્યેક વિકર્ણવિતાને (તરખુણીયાએ)માં મોટું અને માતબર ગ્રાસમુખ કરેલું છે (ચિત્ર ૭). રંગમંડપ પછી ચોકી કરેલી છે; પણ તેનું તળ ઊચું લેવાને બદલે રંગમંડપના તળ બરાબર રાખવાથી વાસ્તુને વિન્યાસ અને એથ, આંતર ર્શનના લય નબળા પડી જાય છે, રસરેખાને છન્દ પણ વિલાઈ જાય છે. અહીં કેટલીક ઘુમટીએ કરી છેતે માની એકન “નાભિછન્દ' જાતિને વિતાનને ઉપાડ બહુ જ જીવાળ અને સુનિલષ્ઠ હસોની પંક્તિથી કર્યો છે (ચિત્ર ૮). રંગમંડપ તેમજ છકીનાં સ્તમાં થોડીક જ કારણે કરેલી હેઈ, વિતાનોને મુકાબલે (અને વિરવાભાસથી) તે સૌ શુષ્ક લાગે છે. છ ચેકીમાં “ગૂઢમંડપનું મુખ્ય કેરણીયુક્ત સપ્તશાખાદ્વાર પડે છે (ચિત્ર ૧૦), જેના ઉંબરનું આરસનું માણુ અલબત આધુનિક છે. ધારાની બન્ને બાજુએ, મથાળે “ઈલિલકાવલણના મોડ યુક્ત, લક્ષમી (ચિત્ર ૯) અને સરસ્વતીની મધ્યમૂર્તિવાળા મઝાને ખતક' (ગખલી) કાઢયા છે. ગૂઢમંડપની બહારની ભિંત તત્કાલીન શિ૯૫–પરંપરાને અનુકુળ અને વાસ્તુશાસ્ત્રોમાં વર્ણવી હશે તેવી, ધાટ અને રૂપાદિ અલંકારયુક્ત રચના બતાવે છે (ચિત્ર ૧૧). આમાં ‘કુભા” પર યક્ષયક્ષીઓ-વિદ્યાદેવીએ, અને “જ ઘા'માં દિફ પાલે, અસરા ઓ અને ખડ્રવાસન જિનમૂર્તિઓ ક ડારેલી છે, જેમાંની ઘણુ ખરી ખંડિત છે. ૫ દરમા શતકની અન્યત્ર છે તને મુકાબલે અહીંની કેટલીક મૂર્તિઓ –ખાસ કરીને દિકપાલદિની મૂર્તિઓના કામમાં લચકીલપણું જરૂર દેખાય છે; મૂર્તિઓ ખંડિત હોવા છતાં. ગૂઢમંડપની અંદરના ભાગમાં દિવાલોમાં ગોખલાઓ કર્યા છે, તે પ્રાચીન છે (જો કે તેમાં અસલી મુતિએ રહી નથી); પણ મોટી ક્ષતિ તે મૂળ અલંકૃત વિતાનને હટાવી તે સ્થળે જીદ્ધારમાં Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ ઉજ્જયગિરિની ખરતર-વસહી આધુનિક ઘુમ્મટ કરી નાખ્યા છે, તે છે. ગૂઢમ’ડપનાં પડખાનાં (ઉત્તર-દક્ષિણ) દ્વારા જો કે મૂળ દ્વારને મુકાબલે ઓછી શાખાવાળાં હેાવા છતાં તેમાં વેલનું કડાર-કામ સુધડ અને સુચારુ છે (ચિત્ર ૧૧). મંદિરના મૂળ પ્રાસાદને સેાળમા શતકના અતે કે સત્તરમા સૈકાના પ્રારભે આમૂલચૂલ દૂર કરી તેને સ્થાને નવા બનાવેલા છે; અને તેમાં રૂપકામને બદલે પટ્ટમબન્ધા કર્યા છે (ચિત્ર ૧૨), જેમાં વચ્ચેટ પુષ્પષ્ણધમાં મુધલાઈ કારિગરીને પરામર્શ' વરતાય છે. અહીં જે નરપાલ શાહ કારિત પ્રાસાદ હતા તેનું (વાસ્તુશાસ્ત્રોક્ત) અભિધાન રત્નસિંહસૂરિશિષ્ય શ્રીતીલક” જણાવે છે; ઉપાધ્યાય જયસેામ તેને “લક્ષમી તીલક” નામક ‘વવિહાર' કહે છે. (વસ્તુતયા બન્ને અભિધાનો એકા વાચી છે.પ) પણ પાછળ જોઈ ગયા તેમ આ પ્રાસાદના મ`દિરની બહિરંગની મૂતિએ ખડિત થવાથી તેને પૂર્ણતયા કાઢી નાખી, શહેનશાહ અકબરના જમાનામાં નવા પ્રાસાદ કર્યાં, જો કે ગૂઢમંડપને ખંડિત મૂર્તિએ સાથે મૂળ અવસ્થામાં યથાતથા રહેવા દીધેલો. બિકાનેરના રાજાના મંત્રી, અકબર-માન્ય કર્મચન્દ્ર ખચ્છાવતે, ખરતરગચ્છીય જિનચન્દ્રસૂરિ (ચતુર્થી)ના ઉપદેશથી, શત્રુજય-ગિરનારતી'માં પુનરુદ્વારા થે દ્રવ્ય મેકલેલું તેવી નાંધ મળે છે. કરમચંદ મુછાવત ખરતરગચ્છની આમ્નાયતા શ્રાવક હાઈ, સ્વાભાવિક રીતે જ, તેમનું દ્રવ્ય ગિરનાર પર તેા “ખરતરવસહી 'ના ઉદ્દારમાં વપરાયું હશે; અને પ્રસ્તુત ઉદ્ધારમાં ખાસ તા મૂલપ્રાસાદ નવા થયા તે જ ઘટના બની હશે તમ જણુાય છે. મદિર ફરતી બાવન કુલિકાઓ છે. તેમાં ધ્યાન ખેંચે તેવી તા ત્રણ જ, અને માટી, દેહરીઆ છે. તમા પણુ ગૂઢમંડપના દ્વારસૂત્ર દક્ષિણુ, ‘અષ્ટાપદ'ની રચના ધરાવતા, ભણુસાલી જોગે કરાવેલ, ભદ્રપ્રાસાદ' અને એ રીત ઉત્તર બાજુએ સમ્મેતૌલ (વા નન્દીશ્વર)ની રચનાએને આરસથી મઢીતે તેનાં મૂળ સ્વરૂપને નષ્ટ કર્યું છે. દાક્ષણુ તરફના અષ્ટાપદવાળા ભદ્રપ્રાસાદની તા દિવાલે પશુ નવી થઈ ગઇ છે; છતાં અહીં ધ્યાન ખેચે તી, અને બહુમૂલ્ય કહી શકાય તેવી, એક અસલી સત્યના રહા ગઇ છે : તે છે તેના ‘સભા-માંદારક’ જાતના વતાન કિવા કરાટકઃ (ચિત્ર ૧૪), અહી રૂપક ઠમાં બહુ જ સરસ, સચત ભાસતા ચક્રવાકાની આવલ કાઢી છે, અને આતરે આતરે ૧૬ વિદ્યાદેવીઓને ઊભવાના ૧૬ ઘાટીલા, વિદ્યાધરા સાથે સ લગ્ન એવા નદલ ઘેાડા) કર્યા છે (ચિત્ર ૧૫), મહાવિદ્યાની મૂર્તિ આ અલબત્ ખંડન બાદ દૂર કરવામા આવી જાય છે.) આ પછી ગજતાલુના ત્રણ સુટિત સ્તા, અને તે પછી બે નવખ ડા-ગાળે ગાળે પદ્મવાળા—કાલ(કાચલા)ના ચર જેના દર્શન ભાગની કારણી રગમંડપના કાલ સય છે. અન ત પછી, કરાટકના મધેલા ભાગવી શરૂ થતી, પાચ અણુયુ.ળા અને સાદા પાઘડાયા કાચલ અને ઝીણી કિનારીયા મહેલ કાલના ક્રમશઃ સ'કાચાતા જાળીદાર પાચ થરવાળી, ખૂણુ ખૂલું, ન છૂટા છૂટા વરલ, પાયણાના ૬ સહિતની અને કેન્દ્રભાગ લટકતા પદ્મકેસરયુક્ત મનેાહર પદ્મશિલા કરા છે (ચિત્ર ૧૪). સામે ઉત્તર બાજુએ પ્રતિવિન્યાસે કરેલા સમ્મેતરીલ (વા નન્દીશ્વર) ભદ્રપ્રાસાદની મૂળ ભીંતા કાયમ છે (ચિત્ર ૧૩), તમા વૈબિન્ધના કુમ્મ-કલશને મણિબન્ધ અને રત્નાલ કારથી ખૂબ શાભિત કર્યા છેઃ અને જ ધામા પણુ દેરૂષાદિ કર્યાં છેઃ પણુ તેમાની ખંડિત થયેલ તે મુખાકૃતિ ઇત્યાદિ પુનરુદ્ધારમાં ટાંચીને બગાડી માર્યાં છે. અંદરના ભાગમાં જોઈએ તા અહીં પણ દનીય વસ્તુ છે, પ્રાસાદને સમા-પદ્મ-મંદારક કીટક (ચિત્ર ૧૭.) આ મહાવિંતાનમાં ગજતાળુ અને કાલના થા. આમ તા. રંગમંડપના થરા સદશ છે. પશુ થાના તળભાગ વિશેષ અલંકૃત છે. રૂપકડમાં પચ કલ્યાણુક અને વિદ્યાધરાને બદલે તાડિકાની ટેકણવાળા ૧૬ પ્રલમ્બ મદલે કર્યાં છે Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી ૧૫ (ચિત્ર ૧૮), રૂપકડની નીચે, સામેના ભદ્રપ્રાસાદના વિતાનમાં, મણિપટ્ટિકા છે [ચિત્ર ૧૫]; જ્યારે અહી વેલ કાઢી છે [ચિત્ર ૧૮], મહાવિદ્યાએનાં બિબ અહીં પણુ અદૃષ્ટ થયાં છે; અને નીચેના બે ગજતાલુના થરાની પટ્ટીઓના તળિયાંના ભાગે પુષ્પાવલિ અને ત્રીજા થરે ઝીણી ઝીણી ઘટિકાઆની શ્રેણી કરેલી છે (ચિત્ર ૧૮). ર'ગમંડપમાં છે તેમ અહીં પણ કરાટકના મધ્યભાગમાં ૧૬ લૂમાના વલયાકર ઊંડા પટ્ટ, અને તે પછી શરૂ થતી પદ્મશિલા દક્ષિણ ભદ્રપ્રાસાદના વિતાનની પદ્મશિલાને મળતી જ છે; ફેર એટલે કે અહી... પાયણાને સ્થાને ચંપક અને અર્ક (આંકડા)ના પુષ્પા છંટકાવ છે, અને કેન્દ્રભાગે પકેસરને બદલે કમળના પુટ દીધે છે (ચિત્ર ૧૭). અષ્ટાપદ અને સમ્મેતશિખરકે નન્દીશ્વર-દ્વીપના ભદ્રપ્રાસાદાના કરાટકે જોતાં લાગે છે કે ર્ગમાઁડપની મૂળ પદ્મશિલા પણુ જો સાબૂત હેત તે તે પણ કેવી અદ્ભુત લાગત. વસ્તુતયા પંદરમી શતાબ્દીમાં ગિરનાર પરની ખરતરવસહીની અને ત્યાં અન્યત્ર છતેમાં જે કામની સફાઈ, ઝીણવટ, નાજુકતા, અને નમનીયતા છે તેના મુકાબલા નથી. એની સામે રાજસ્થાનમાં રાણકપુર, વરકાણા, હમ્મીરપુર, દેવકુલપાટક (મેવાડ-દેલવાડા), દેલવાડા, અને ચિત્તોડગઢમાં જોવા મળતું સમાન્તર એવું સમાકાલીન કામ ધીંગુ, છીછરું, અને કલ્પનાવિહીન જણાય છે. દક્ષિણ તરફના ભદ્રપ્રાસાદમાં પદ્મશાલાના સ્તમ્ભાન્તરમાં સુંદર કારણીયુક્ત ખેડવાળી અંધ’ (અદ્રિ) જાળી ભરાવેલી છે (ચિત્ર ૧૬). જ્યારે મૂલપ્રાસાદના ગસુત્રે રહેલ પશ્ચિમ તરફના ભદ્રપ્રાસાદનું માવાળ ખુલ્લું છે. ચૈત્યપરિપાટીકાર હેમહંસ ગણુ તેને શત્રુ જયાવતાર'ના પ્રાસાદ કહે છે, તેના નિર્માતા વિષે જાણવા મળતું નથી. પર્વતની મેખલા(ધાર)ને સાવ અડીને કરેલે! આ ભદ્રપ્રાસાદ સાદો હાઈ શિલ્પની દષ્ટિએ તેમાં ખાસ ધ્યાન ખેંચે તેવું કશું નથી. (આ ત્રણે ભદ્રપ્રાસાદા અહીંની અન્ય દેહરીને મુકાબલે ઘણા મોટા છે.) દેવકુલિકાઓ (દેહરીએ)માં ખાસ ધ્યાન ખેંચે તેવું કશું નથી; (કેટલીક તા વચ્ચે ભી'તા કર્યાં સિવાયની સળંગ છે.) આ સિવાય પશ્ચિમ તેમજ ઉત્તર બાજુની દેહરીના ગભારાનાં, અને તેને લગતી પટ્ટશાલાઓનાં વિતાને, તેમાંયે ભમતીના વાયવ્ય ભાગની પદ્મશાલાનાં વિતાના, તેા પંદરમા શતકની વિતાન-સર્જનકલાની પરાકાષ્ઠા દાખવી રહે છે. આમાંથી દશેક જેટલા ચૂનંદા નમૂનાઓ અહી... મૂળ ચિત્રા સાથે અવલેાકીશું'. ચિત્ર ૧૯માં દર્શાવેલ સમતલ વિતાનમાં વચ્ચે કમલપુષ્પ કરી, ફરતી એ પટ્ટીમાં સાસેહાગણ જેવા ભાસતા છ પાંખડીવાળાં ફૂલાની હાર કાઢી છે, (જેવા પછીથી અમદાવાદ પાસેની ઈ.સ. ૧૫૦૦-૧૫૦૧માં બધાયેલી સુપ્રસિદ્ધ અડાલજની વાવના શૈાભનાંકામાં મળે છે.) વચ્ચેના ભાગની ચેારસાઈને રક્ષવા, અને એનીલ'બચારસાઈ તાડવા, એ બાજુએ કુંજરાક્ષની પટ્ટી કરી છે. તે પછી ઉપસતા ક્રમમાં સદાસાહાગણુની ફરીને પટ્ટી કરી છે. છેવટે ભારપટ્ટોને તળિયે ચારે બાજુ મેટાં પદ્માની કારણી કરી છે. ચિત્ર ૨૦માં ચાદાર પહેાળી પટ્ટીમાં સામંજસ્યના વિન્યાસપદે ચાખડા બાર કાલ કર્યાં છે, અને વચ્ચે જતાલુના થર આપી ઊંડાણુમાં એવું જ, પણુ જરા મેટું, મણિટ્ટિકાથી બાંધેલ ચોરસ ક્ષેત્રમાં, ચાખડુ કાલ કર્યુ છે. આવા છન્દની એક પરિવત નાયુક્ત, મૂળે ફરતાં મોટાં આઠ ચેખડા કેાલ અને વચ્ચેાવચ્ચ ક્ષિપ્ત-પ્રક્રિયાથી કરેલ (નવખંડમાં ચોખંડ કાલ ઉતારેલ હશે તેત્રા) કિંતાનને વયલા ટુકડો માત્ર જ બચી ગયા છે (ચિત્ર ૨૧). ઉપર કથિત બે પ્રકારાનુ વિશેષ વિકસિત દૃષ્ટાન્ત હવે જોઈએ. ચિત્ર ૨૩માં સમતલ પટ્ટમાં સામ`જસ્ય-ન્યાસમાં ૨૫ પૂર્ણભદ્ર કાલના સંધાન ભાગે પદ્મ-પુષ્પાના ઉડાવ કરેલા છે; જયારે ચિત્ર Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૬ ઉજ્જયન્તગિરિની ખરતર-વસહી ૨૨માં આવા કાલની સંખ્યા વધારીને પાંચ અને ચારને ગુરુ લઘુ ક્રમ પ્રયોજયા છે અને તેમાં છેલ્લે ફરતાં અકાલની હાર કરી છે. કાલના સંધાન ભાગે છ પાંખડીવાળા બહુ જ સરસ સદાસેાહાગણુનાં, સજીવ ભાસતાં, મેટાં ફૂલે છાંટેલાં છે, જેમાંનાં ઘણાખરાં દુર્ભાગ્યે ખડિત થયાં છે. આ પ્રકારના છન્દવિન્યાસનું આગળ વધેલું દૃષ્ટાન્ત તે કાલને સ્થાને, ૧૧૪=૯૯ કુંજરક્ષા સમતલમાં ઉતારીને, તેના સંધાનભાગ ચાર પાંખડીઓનાં પુષ્પથી ભરી લીધા છે. (ચિત્ર ૨૪). એ જ હૈતવ (motif) અને ન્યાસનુ' ઝીણવટ ભર્યું, પરિવર્તિત રૂપ ચિત્ર ૨૫માં બતાવેલ સમતલ વિતાનમાં જોવા મળે છે. ત્યાં છેવટે ફરતી મણિપટ્ટી કાઢી છે. ચિત્ર ૨૬માં કરીને ચેખડા કેાલના ૫૪૪ના વિન્યાસે કરેલ સમતલ વિતાનમાં ગાળે ગાળે તુહલથી સીમિત કરેલ મેટાં પદ્મપુષ્પા ડાંસ્યાં છે. ભમતીના બિલકુલ નૈઋત્ય ખૂણામાં રહેલા (ચિત્ર ૨૭) કાલના ઘટતા ક્રમમાં ઊંડા ઉતરતા જતા ચાર થાથી સર્જાતી ચાર ઉક્ષિપ્ત લૂમાએના સયેાજનથી રચાતા આ પદ્મક-નાભિચ્છન્દ જાતિના વિતાન તા સેાલકીયુગના કાગિરાને પણ સ્તબ્ધ કરી દે તેવા છે. પ્રત્યેક લૂમાની નાભિમાંથી નીકળતા અણુિદાર પાંખડીનાં પદ્મફૂલ, અને છતના વચલા, ઊયકાઈ આવતા ભિ દુમાં કરેલ કામળ પાંખડીએથી સર્જાતાં કમળફૂલ, તેમ જ કણુ ભાગે ગ્રાસનાં મુખે અને ભદ્રભાગે ચંપાના પાનથી સાહતા આ વિતાન પંદરમા શતકના સજ્જનામાં તે બેજોડ કહી શકાય તેવા છે. કાલના થરાના ઊંડા ઉતરતા જતા વિન્યાસથી સર્જાતા એક ક્ષિપ્ત-નાભિચ્છન્દ જાતિના વિરલ વિતાનનું દૃષ્ટાન્ત ચિત્ર ૨૮માં જોવા મળશે. બહુભ'ગી કાલના એક પછી એક, ક્ષયક્રમથી, અંદર ઊતરતા જતા કુલ અગિયાર જેટલા થરોથી સર્જાતા આ વિતાનની તા સેાલ કી કાળમાંયે જોડી જડતી નથી ! મન્ત્રીશ્વર ઉદયનના પુત્ર આપ્રભટ્ટ દ્વારા નવનિમિત શકુનિકાવિહાર (ઈ.સ. ૧૧૬૬)માં આવા સિદ્ધાન્ત પર રચાયેલા અને ધણા માટા વિતાના હતા; (હાલ તે ભરુચની જુમા મસ્જિદમાં છે); પશુ તેમાં પણ આટલા બધા પડા યુક્ત અને આવડી સંખ્યામાં થરા લેવાનું સાહસ શિલ્પીઓએ કર્યુ હોવાના દાખલા જાણુમાં નથી. ઘડીમાં વાદળાંના પટલને પેલે પાર રહેલ લેાકાલેકને પાર પામવા મથતા લાગે, તેા ધડીમાં પાતાળ-પાણીમાં બાઝેલ શેવાળના એક પછી એક થી વીંધીને તળિયાને આંબવા યત્ન કરતા હોય એવા વિતાનનું સમગ્ર ભારતમાં આજે તે આ માત્ર દૃષ્ટાન્ત છે ! વસ્તુપાળ-તેજપાળના સમયના, ભાતિગળ અને અતિરિક્ત સૂક્ષ્માતિસૂક્ષ્મ કારણી કરનાર શિલ્પીએ પશુ જેના વખાણ કરે તેવા એક પદ્મનાભ જાતિના ચેતાહર વિતાન ચિત્ર ૨૯માં રજૂ કર્યો છે. આની રચનામાં સૌ પહેલાં તા ભારાટથી ઊંડા ઊતરીને સદા સેાહાગણના ચેતનથી ધબકતાં, ફૂલાની કિનારી કરી, અંદર ચતુર છન્દમાં ગુજતાલુના થરવાળા, પછી વિશેષ ઊંડા ઉતારેક ચેરસી ન્યાસ કાલને થર લઈ, અંદર બનતા ભાંગાયુક્ત ક્ષેત્રમાં ચાર મૂળવાળી, બહુભંગી, ચાર ઉક્ષિપ્ત લૂમાના સયાજન, અને વચ્ચે ડૂબકી દેતી ક્ષિપ્ત લૂમાના આવિર્ભાવથી પ્રગટતા આ મનારમ વિનાનનાં મૂળ તા સાલકીકાળમાં છે; પણુ દળદાર ચેાટદાર કલ્પનામાં તા આની સામે આબૂ-દેલવાડાની જગવિખ્યાત વિમલવસહીના સૂત્રધારા પશુ એક કાર ઊભા રહી જાય; અને તાકાતને ભેગ આપ્યા સિવાય નિપજાવેલી સમગ્ર ઘાટની મુલાયમ સફાઈ, લૂમાના ઉપસતા કેન્દ્રના કમળામાં અણુિદાર પાંખડીઓમાં સિફતથી ઉતારવામાં આવેલ કુમાશ, અને સાહજિક સજીવતાની સામે તા આરાસણુના રસને મીજીની જેમ પ્રયોજી જાણનાર, દેલવાડાની લૂણુવસહીના Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી ૨૧૭ શિલ્પી પણ અચા પામી ઊભા રહી જાય! ગિરિરાજ ગિરનાર પર આવું બેનમૂન કામ કરી ગયેલ શિલ્પીઓના મુકાબલા એમના જમાનામાં અન્ય કોઈ સ્થળાના ગજધો નહી કરી શકયા હાય. પંદરમા શતકમાં આવા સર્વાં ગસુન્દર વિતાનાની રચના થઈ શકે તે માનવું મુશ્કેલ બને છે ! પંદરમી શતાબ્દીના સમકાલિન અને સમીપકાલિન જૈન યાત્રી કવિઓ-લેખકાએ આ ખરતરવસહી વિષે જે તેાંધા લીધી છે તે હવે જોઈએ. એમણે વધુ વેલ મ`દિર ગિરનારપરના વર્તમાને અસ્તિત્વમાં નાનાં મોટાં વીકક જિનાલયામાં કેવળ આ કહેવાતી મેલક વસહી” તે જ લાગુ પડે છે. મૂલ કવિઓનાં કવિત વા શબ્દોમાં જ તે હવે જોઈએ ઃ (૧) તપાગચ્છીય હેમહંસ ગણુની પંદરમા શતકના મધ્યમાં રચાયેલી, ગિરનારચૈત્યપરિપાટીમાં યાત્રી આસવાલ સમરસિંહ માલદે દ્વારા સ`. ૧૪૯૪/ઈ.સ. ૧૪૩૮માં સમુદ્ધારેલ ‘કલ્યાણુત્રય’ને (હાલમાં સગરામ સાનીના કહેવાતા મદિરમાં) વાંદ્યા પછી, અને હાથી પગલાં તર વળતાં પહેલાં, નીચે મુજબ નોંધ કરે છે હવ જઈઇ નરપાલસાડુ કારિઅ પ્રાસાદ । સંપ્રતિ નિવ કરાવિ વીર પિત્તલમય વાંઢિ। ન'દીસર અઠ્ઠાવહુ સેતુ જય અવતાર । ત્રિહું ફ્રિંસિ થજી (થકી ?) જિષ્ણુ નમઉં” નિરમાલડિએ ચંદ્રગુફા મારિ રા અહી મંદિર નરપાલ સાહે કરાવ્યા, તેમાં સંપ્રતિ રાાએ કરાવેલ પિત્તળની (મૂલનાયક) મહાવીરની મૂર્તિને, તેમ જ ત્રણ દિશામાં (ભદ્રપ્રાસાદેમાં રહેલ) નંદીશ્વર, અષ્ટાપદ, અને શત્રુંજ્યાવતારનો ઉલ્લેખ છે, મંદિરનું જે સ્થાન બતાવ્યું છે તે જોતાં, અને ભદ્રપ્રાસાદ્યની વિગત જોતાં તે વર્તમાને કહેવાતી ‘મેરકવશી' જ છે. (૨) ઉજયન્તશિખર પર (ગિરનાર પર) લક્ષ્મીતિલક” નામને મોટા વિહાર (જિનાલય) નરપાલ સંધવીએ (ખરતરગીય) જિનરાજસૂરિના પટ્ટાલ`કાર જિનભદ્રસૂરિના ઉપદેશથી સં.૧૫૧૧ કરાવ્યાના ઉલ્લેખ ઇસ્વીસનના ૧૬માં શતકના અન્તભાગે રચાયેલ પડિંત જયસેામની જયસાગરાપાધ્યાય પ્રશસ્તિમાં આ રીતે મળે છે. संवत् १५११ वर्षे श्री जिनराजसूरि पट्टालंकारे श्रीजिनभद्रसूरि पट्टालंकार राज्ये श्रीउज्जयन्तशिखरे लक्ष्मीतिलकाभिधो वरविहारः । नरपालसंघपतिना यदादि कारयितुमा रेभे ॥ (૩) ભૂંડત્તપાગચ્છીય રનિસંહરિ-શિષ્ય (કદાચ ઉદયવલ્લભસૂરિ કે પછી જ્ઞાનસાગર સૂરિ) સ્વરચિત ગિરનારતીથ માળામાં (ઈ.સ. ૧૪૫૩ બાદ)માં કલ્યાણુત્રયના દન પછી જે પ્રાસાદમાં જાય છે તે આ પ્રેરકવશી” જ છે; ત્યાં તેને નરપાલ સાહે સ્થાવ શ્રીતિલકપ્રાસાદ' કહ્યો છે, અને તેમાં (મૂલનાયક) સાવનમય વીરહેવાની વાત કરી છે; અને તેમાં ડાબી જમણી બાજુએ અષ્ટાપદ અને સમ્મેતશિખરની રચના હેાવાની વાત કહી છે; યથા : २७ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૮ ઉજ્જયન્તગિરિની ખરતર-વસહી થાપી શ્રીતિલકપ્રાસાદિ હિંસાહ નરપાલૢિ પુણ્ય પ્રસાદિહિં, સેાવનમય શ્રી વીરે; અષ્ટાપદ સંમતસિહરસ્યૂ ડાવઇ જિમણિ” અહુ હિરક્યૂ', રચના અતિ ગ'ભિરા. ૧૮ કવિએ પ્રાસાદની રચનાને ‘અતિગભિર' કહી છે તે યથાર્થ જ છે. (૪) પંદરમા શતકમાં શવરાજ સંધવીના સંધ સાથે ગયેલા કાઈ અજ્ઞાત યાત્રી-મુનિએ કરેલ ગિરનાર ચૈત્યપરિપાટીમાં તેા આ જિનાલયના અંતરંગની ઘણી વિગત આપવા સાથે એ જે કઈ કહે છે તેનાથી તા મેલકવસહી” તે જ ખરતરવસહી” હેાવાના તથ્યને આખરી મહેાર મારી દે છે. સમરિસંહ-માલદેના મ`દિર બાદ યાત્રી જે મ`દિરમાં આવે છે તેને સ્પષ્ટરૂપે તેઓ “ખરતરવસહી” કહે છે. તે નરપાલ સાહુ દ્વારા નિમિ`ત થયેલી અને તેમાં (ગભગૃહમાં) મહાવીરની સતારણુ પિત્તળની મૂલનાયક મૂર્તિ ની આજુબાજુ એ જ ધાતુની શાંતિનાથ અને પાર્શ્વનાથની કાયાત્સગ* મૂતિ હાવાનું પણ કહ્યું છે. તદુપરાન્ત રંગમંડપનું વર્ણન કરતાં ત્યાં ‘નાગન્ધ' અને ‘પ્‘ચાંગવીર'ની હતા, પુતળીએ (આજે વિનષ્ટ), જમણી બાજુ ભણસાળી જોગે કરાવેલ અષ્ટાપદ' અને ડાખી બાજુએ ધરણા સાહે કરાવેલ સમ્મેતશિખર' (ના ભદ્રપ્રાસાદેની) નોંધ લે છે: ૧૦ યથા : હવઈ ખરતરવસહી ભણી આવિ નરપાલસાહની થાપના એ સતારણઉ પીતલમઈ વીર શાંતિ–પાસ છઈ સાચઉ શરીર કાસગીઆ પીત્તલ તણાએ. ૨૮ રંગમ’ડિપ નાગબંધ નિહાલઉ પૂતિલએ મ’ડિપ મન વાલ પંચાંગવીર વસેખીઇએ માલાખાડઈ મડપ જાણુ જિમણુઈ અષ્ટા[≠] વખાણુ ભણસાલી જોગર્ટ કીઉ'એ. ૨૯ ડાવઈ સમેતસિહર પ્રસીધુ તે પણિ ધરઈસાહિ કીધઉ. ૩૦ (૫) પંદરમા–સેાળમા શતકના ઉત્તરાર્ધમાં થયેલા, ભાવતુષ -શિષ્ય રગસારની ગિરનાર ચૈત્યપરિ પાટીમાં૧૧ મુનિ-યાત્રી તીર્થ નાયક નેમિનાથના મદિરને (દેવકુલિકામાં પરાવેલ) ઉત્તર દ્વારેથી નીચે ઉતરીને જે પહેલા મદિર–હાલની મેરક વસહી-માં આવે છે. તેને “ખરતરવસહી' કહેવા ઉપરાંત તેમાં સંપ્રતિરાજાના કરાવેલ પિત્તળમય મનેાહર વીર જિનેશ્વર, આજુબાજુની બાવન દેહરીએ અને મદિર ભીતરની અવનવી કારણીના ઉલ્લેખ કરે છે: ઋણુ ગિરઇએ નેમવિદ્વાર આવીયા ખરતરવસહી વાર ॥૧૨॥ હાલ સ'પતિરાય કરાવિ મુહર પીતલમઈ શ્રીવીર જિજ્ઞેસર ખરત[૧]સહી માહે પાખતીયાં ખ[]ન જણાલ નવલ નવલ કેારણીય નિહાલ ટાલ કુમતિ કસાય ॥૧૩॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી ૧૯ રંગસાર પછી અને કાલક્રમમાં છેલ્લી નોંધ સાળમા-સત્તરમા શતકમાં થયેલા (પ્રાગ્ગાટ) કહ્યુ - સિંહ કૃત ગિરનારસ્થ ખરતરવસહી-ગીત અંતર્ગત મળે છે. એમના કથનમાં મંદિરને “ખરતરવસહી” કહેવા ઉપરાન્ત તેમાં માંડપની પૂતળીઓ, ડાબી બાજુ (નેમિનાથના મંદિર તરફ) ‘અષ્ટાપદ’ અને જમણી બાજુ (કલ્યાયના મંદિરની દિશાએ) ‘નન્દીશ્વર', ગભારામાં સંપ્રતિએ આણેલ સપ્ત ધાતુની તારણ તેમ જ રત્નખચિત ‘જિનવીર'ની મૂતિ અને રત્ન જડિત પરિકર તેમ જ આ મ`દિર (અગાઉના) દુ:ખમ ભવનને સ્થાને ભણસાલી નરપાલે જિનભદ્રસૂરિના વચનથી ઉદ્ધાર રૂપે કરાવ્યાનું નાંખ્યું છે પ્રીય ખરતરવસહી જોઈએ જાણે કરતલ વખાણું રા મંડિપ માણુ પૂતલી હ જાણે કરિકી ઇંદ્રલેાક ॥૩॥ નેમિ કડણિ પ્રભુ દાહિણિ હા અષ્ટાપદ અવતાર । વામર્દ કલ્યાણુકત(ન ? ય) હા નદીસર જગસાર ॥૬॥ (સંઘ મરેઈ ? સંપતિરાર્ધ) અણુાવિ હા સપત ધાત જિવીર । પરિગર રતન જડાવિઈ હા તારણ લકઈ ખઈ દ્વાર છા લખધિવત જિનભદ્રસૂરિ ગુરુજી સુવચની વિસાલ । સમ ભવન સમુહૂરઈ હા સે ધનધન મા નરપાલ ॥૮॥ ભણસાલી તે પરિ કરઈ હા જે કી ભરવેસર રાસે 1 ઉજલિ અષ્ટાઉરે તે નિરખત અંગિ ઉમાદ ॥૯॥ આમ ખરતરગચ્છનાં જ નહીં, તપાગચ્છતાં પણુ સાક્ષ્ા વર્તમાન મેલકવસહી” તે અસલમાં “ખરતરવસહી' હતી તેમ નિર્વિવાદ જણાવી રહે છે. ચૈત્યપરિપાટીઓનાં વિધાનમાં આમ તા એકવાકયતા છે, પણ એક બાબતમાં મતભેદ છે. જ્યાં હેમહ...સણ અને કસિંહ “દીશ્વર” કહે છે ત્યાં રત્નસિંહસૂરિશિષ્ય તથા શવરાજ સંધવી Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૦ ઉજ્વતગિરિની ખરતર-વસહી વાળા યાત્રી-મુનિ “સમેતશિખર' કહે છે. ઉત્તર ભદ્રપ્રસાદ-સ્થિત આ રચના આરસ નીચે દબાઈ ગઈ હેય અસલી વાત શું હશે તેને નિર્ણય થઈ શકે તેમ નથી. મ દિર જેકે ખરતરગચ્છીય ભણસાળી નરપાળ સંઘવીએ કરાવ્યું છે, પણ કર્ણસિંહના કથન અનુસાર ત્યાં કોઈ મંદિર અગાઉ હતું અને આ નવું મંદિર એથી જૂનાના સમુદ્વાર રૂપે કર્યાનું માનવું રહ્યું. વળી અંદરની પિત્તળના મૂલનાયકવીરની પ્રતિમા એ કાળે સંપ્રતિ રાજાની લેવાની માન્યતા હતી. એટલે મૂર્તિ નરપાલ સાહના સમયથી જની તો ખરી જ હું માનું છું કે આ મંદિરને સ્થાને અસલમાં મગ્નીશ્વર વસ્તુપાલ કારિત “મહાવીર”નું મંદિર હતું; (વસ્તુપાલે ગિરનાર પર આદિનાથ [વસ્તુપાલ-વિહાર] ઉપરાંત (સ્તમ્ભપુરાવતાર) પાર્શ્વનાથ તથા (સત્યપુરાવતાર) મહાવીરનાં મંદિરે કરાવેલાં) જેની નૈધ સમકાલિન લેખક હર્ષપુરીચગછના નરેન્દ્રપ્રભસૂરિએ લીધી છે.૧૨ કર્ણસિંહના કથન અનુસાર ત્યાં આગળની (માલા-ખાડ નામની) ખાડ પૂરીને (બિલકુલ ઘેર રહેલા) દુષમ ભવનને “ઉદ્ધાર” કરાવેલ. સંપ્રતિ રાજાની કરાવેલ કે લાવેલ મૂર્તિ હેવાની વાત પંદરમાં શતકમાં વહેતી થઈ હશે. ઈસ્વીસનની ૧૪મી શતાબ્દીના પૂર્વાર્ધમાં ખરતરગચ્છીય જિનપ્રભસૂરિની ગિરનાર સમ્બદ્ધ જુદી જુદી ચાર રચનાઓમાં, એમનાથી પહેલાં તપગચ્છીય ધમકીર્તિગણિ (પછીથી ધર્મઘોષસૂરિ)ના ગિરનારકલ્પ (આ. ઈ.સ. ૧૨૬૪) અંતર્ગત, કે નાગેન્દ્રગથ્વીય વિજયસેન સૂરિના રેવંતગિરિરાસ, (ઈ.સ. ૧૨૩૨ બાદ)માં આને સ્પર્શતો કોઈ જ ઉલ્લેખ નથી. | ગુજરાત-રાજસ્થાનના ઉત્તર મધ્યકાલિન જૈન મંદિરના સર્વેક્ષણ દરમિયાન જોવા મળે છે કે ખરતરગચ્છમાં મંદિરોની રચના વિન્યાસ તરફ, અને તેને સુરુચિપૂર્વક આભૂષિત કરવા પરત્વે ખૂબ કાળજી લેવાઈ છે. શત્રુંજય પરની ખરતરવસહી (આ. ઈ.સ. ૧૩૨૦-૨૪), મેવાડમાં દેલવાડા (દેવકુલપાટક)ની ખરતરવસહી (૧૫મા શતકને પ્રારંભ), રાણકપુરની ખરતરવસહી (પાર્શ્વનાથ જિનાલય-૧૫મા સૈકાને મધ્યભાગ), અને આ ગિરનાર પરની ખરતરવસહી તેનાં જવલંત ઉદાહરણ છે. પાદટીપે ૧. આ પટ્ટ પદ વિસ્તૃત વિવેચન હું અન્યત્ર કરી રહ્યો છું. ૨. (સ્વ.) મુનિ દર્શનવિજયજી લખે છે: “આ ટૂંક શ્રી સિદ્ધરાજના મંત્રી સજજને બંધાવેલ છે. ગૂર્જરાધીશ સિદ્ધરાજે સજજનને સૌરાષ્ટ્રને દંડનાયક નીમ્યો હતો. તેમણે સૌરાષ્ટ્રની ત્રણ વર્ષની ઉપજમાંથી ગિરનાર પર સુ દર જીર્ણોદ્ધાર કરાવ્યું. ત્રણ વર્ષની ઉપજ સિદ્ધરાજને ન મળવાથી તે ગુસ્સે થઈ જૂનાગઢ આવ્યું. સજજને જુનાગઢ અને વંથલીના શ્રાવકો પાસેથી ધન મેળવી સિદ્ધરાજને ચરણે ધયું અને કહ્યું કે જોઈએ તો જીર્ણોદ્ધારનું પુણ્ય હાંસલ કરે અને જોઈએ તે ધન . રાજા સત્ય હકીક્ત જાણું અત્યંત ખુશી થયો. બાદ આવેલા ધનથી શ્રાવકના કહેવાથી સજજને આ મેરકવશી ટૂંક બનાવી.” (જૈન તીર્થોને ઇતિહાસ, શ્રી ચારિત્ર સ્મારક ગ્રંથમાળા : પુ૫ ૩૮મું, અમદાવાદ ૧૯૪૯, પૃ. ૧૨૨.) સ્વ, મુનિશ્રીની પહેલી વાતને તે પ્રબોને આધાર છે, પણું સજજને પ્રસ્તુત દ્રવ્યથી આ મેરકવશીનું મંદિર બંધાવ્યાનેય કયાંય જ ઉલેખ નથી. પં. અંબાલાલ પ્રેમચંદ શાહે “મેલક વસહી”ની ચર્ચા કરતાં આ જ સજજન મંત્રી વાળી વાત (સાચી અને પરિકૃત ગુજરાતીમાં) જણાવી છે; પણ તેઓની પાસે એને લગતું કોઈ પ્રમાણ નહોતું; આથી સાવચેતી ખાતર એમણે લખ્યા બાદ ઉમેર્યું કે “..એવી લોક માન્યતા છે. કોઈ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૧ મધુસૂદન ઢાંકી આને મેલકશાહે બંધાવ્યાનું કહે છે.” (જૈન તીર્થ સર્વ સંગ્રહ, ભાગ પહેલો, ખંડ પહેલ, અમદાવાદ ૧૯૫૩, પૃ. ૧૨૩). મુનિ નિત્યાનંદવિજયજીએ (પં. શાહ જેવી સાવધાની રાખ્યા સિવાય) એની એ જ કિંવદન્તી તથ્ય રૂપે માની ૨જુ કરી છે. શ્રી રૈવતગિરિ પર્શના, વડોદરા વિ.સં. ૨૦૨૦ (ઇ. સ. ૧૯૬૪), પૃ. ૧૨૯-૧૩૦.) ૩. અહીં આગળ ઉપર મૂળ કૃતિઓમાંથી પ્રસ્તુત ભાગો ટાંકી ચર્ચા કરી છે. 8. Cf. M.A. Dhaky "The 'Nagabandha' and the Pancangavira' ceiling," Sam bodhi, vol. 4, No. 3 4, pp. 78-82, and plates. ૫. આગળની ચર્ચામાં તેના મૂળ સન્દર્ભે ટાંક્યા છે. ૬. કર્મચન્દ્રના જીવનની રૂપરેખા ખરતરગચછીય સાધનોથી સ્વ. મોહનલાલ દલિચંદ દેશાઈએ જૈન સાહિત્યને સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ, મુંબઈ ૧૯૩૨, પૃ. ૮૩૬-૮૪૫ પર ચચી છે, ત્યાં જુઓ. ૭. સં.પં. બેચરદાસ જીવરાજ દેશી, પુરાતત્ત્વ, ૧-૩. એપ્રિલ ૧૯૨૩, પૃ. ૨૮૬. ૮. આ મહત્ત્વપૂર્ણ ચૈત્યપરિપાટીનું પુનર્મુદ્રણ થવાની જરૂર છે. ૯. આ ઉદ્ધરણ મેં પં. અંબાલાલ પ્રેમચંદ શાહ જૈન તીર્થ૦, પૃ. ૧૧૮ પરથી લીધું છે; અને એમણે તે “એતિહાસિક જૈન કાવ્યસ ગ્રહ” (પૃ. ૪૦૦) પરથી લીધું હેવાની નોંધ કરી છે. (આને સંપાદક કોણ છે, કયાથી કયા વર્ષમાં, કઈ ગ્રન્થમાળામાં પ્રસ્તુત સંગ્રહ છપાયે છે, તેની ત્યાં નેધ નથી લેવાઈ.) ૧૦. આ ગ્રંથમાં આ ચૈત્યપરિપાટીનું સંપ્રતિ લેખક તથા વિધાત્રી વોરા દ્વારા સંપાદન થયું છે. ૧૧. સંપ્રતિ ગ્રન્થમાં (સ્વ) અગરચંદ નહાટા તથા પં. બાબુલાલ સવચંદ શાહ દ્વારા સંપાદિત થયેલ છે. ૧૨. વિશેષ રૈવતક્ષ્ય મૂમ્રતઃ શ્રીનેમિક્લે નિવેમકુત્રિપુ ! श्रीवस्तुपालः प्रथम जिनेश्वर पार्श्व च वीरं च मुदान्बीविशत् ॥८॥ -વતુપઢિપ્રશસ્તિ (જુઓ મુનિ પુણ્યવિજયજી, સુતર્લિ બ્રોન્ટિન્ય વસ્તુપારિતસંઘ, સિંધી જૈન ગ્રંથમાલા, ચિન્યાંક ૫ મુંબઈ ૧૯૬૧, પૃ. ૨૮.). ચિત્રસૂચિ ૧. ગિરનાર, ખતરવસહી (વર્તમાન “મેલવસહી”) મુખમંડપ, મુખાલિન્દ, સમતલવિતાનમાં “પંચાંગવીર'.. ૨. ખરતવસહી, મુખમંડપ, સમતલ-વિતાન, “વાસુદેવ-ગોપલીલા.” ૩. મુખમંડપ, નાભિમંદારક જતિન વિતાન. ૪. રંગમંડપ, સભા-પદ્મ-મંદારક જાતિને કોટક (મહાવિતાન). ૫. ૨ ગમંડપ, મહાવિતાન, રૂપકંઠમાં જિનદર્શને જતા લોક સમુદાયનું દશ્ય. ૬. – ditto ૭. રંગમંડપ, ખુણાના ચાર પૈકીને એક વિકર્ણ-વિતાનમાં પ્રાસમુખ. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ ઉજ્જયન્તગિરિની ખરતર-વસહી ૮. છ ચોકી, એક નાભિચછન્દ-વિતાનમાં હંસાવલિ. ૯. ગૂઢમંડપની પૂર્વ ભિત્તિ પરના એક ખત્તક પરના ઈલિકાવલણના મધ્યભાગે દેવી કમલાની મૂર્તિ. ૧૦. ગૂઢમંડપના પૂર્વારની દ્વારશાખા. ૧૧. ગૂઢમંડપના ઉત્તરાભિત્તિ અને દ્વાર. ૧૨. કર્મચન્દ્ર બછાવત દ્વારા નવનિર્મિત મૂળપ્રાસાદ (ઈસ્વીસનના ૧૬મા શતકને અન્તભાગ). ૧૩. ધરણાસાહ દ્વારા વિનિમિત, સમેત શિખર (વા નન્દીશ્વર) ધરાવતે ઉત્તર તરફને ભદ્રપ્રસાદ. ૧૪. ઉત્તરના ભદ્રપ્રાસાદના કટક. ૧૫. ઉત્તરના ભદ્રપ્રાસાદના કટકના રૂપકંઠમાં ચક્રવાક, માલા અને વિવાદેવીઓની ટેકણના મદલ (ઘડા). ૧૬. અષ્ટાપદના દક્ષિણ તરફના ભદ્રપ્રસાદની પટ્ટશાલાની જાળી. ૧૭. અષ્ટાપદાવતાર ઉપરને કરાટક. ૧૮. અષ્ટાપદાવતારના કરાટકને મદલે સહિતને રૂપકંઠ અને ઉપરના મજલાલુના થરે. ૧૯. પશ્ચિમ દિશાની પદૃશાલા (ભમતી)માં જમણુ હારને પુષ્પક-મંદારક જાતિને વિતાન. ૨૦. પશ્ચિમ દિશાની ભમતીમાં જમણું હારમાં સમતલ નાભિદ વિતાન. ૨૧. ઉત્તર દિશાની ભમતીમાં ઉક્ષિપ્ત જાતિના વિદ્વાનને અવશિષ્ઠ ભાગ. ૨૨. ઉત્તર દિશાની ભમતીમાં સમક્ષિપ્ત જાતિને વિતાન. ૨૩ . ઉત્તર દિશાની ભમતીમાં સમક્ષિપ્ત જાતિને એક અન્ય વિતાન. ૨૪. ઉત્તર દિશાની ભમતીમાં સમક્ષિપ્ત જાતિને એક ત્રીજે વિતાન. ૨૫. ઉત્તર દિશાની ભમતીમાં સમક્ષિપ્ત પતિને એક ચોથો વિતાન. ૨૬. ઉત્તર દિશાની ભમતીને એક ક્ષિપ્તક્ષિપ્ત જાતિને વિતાન. ૨૭. ઉત્તર દિશાની ભમતીને પદ્મક-નાભિચછન્દ જાતિને વિતાન. ૨૮. ઉત્તર દિશાની એક દેવકુલિકાને ક્ષિપ્ત-નાભિચ્છન્દ વિતાન. ૨૯. ઉત્તર દિશાની ભમતીને પદ્મનાભ જાતિને વિતાન. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. खरतरवसही,गिरनार, (वर्तमान मेलकवसही), मुखालिद, समतल वितान, पञ्चाङ्गवीर ECONOCTOR २. खरतरवसही, मुखमण्डप, समतल वितान, वासुदेव-गोप लीला 2122 मगरमासान ADORE 22MARACLCIEI GGIRITTETC Foavate & Personal use only jainel Dy.org Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ICELECrored Insit:stsstitsthurtantant3 ROPATITIENTS MIEKUTA ASHETRATAKAM HAMARIJALDIER NIRALALI MROSATTA KAREETITIVITICAL NG SATT RACHANASI AMITTIVEmySTA FLAMETECH ३. खरतरवसही, मुखमण्डप, नाभिच्छन्द जातिनो वितान ४. खरतरवसही, रंगमण्डप, सभापद्ममंदारक जातिनो वितान 60-00809000 rielated Jain Educatio n al DESonaliSSEN Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ונונוני איי איאלץ מינרוויורי י 5 ५. खरतरवसही, रंगमण्डपना रुपकण्ठमां जिनदर्शनार्थे जता लोकसमुदायतुं दृश्य ६. खरतरवसही, रूपकण्ठमां जिनदर्शनार्थे जता लोकसमुदाय- दृश्य, रंगमण्डप, महावितान ניניניניניניני ({(וגופיתיוניונפגע ב וווווווווווווווווווווווויי 44 -אה For Private & Personal use only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ph साय 5/2/2/12/27/18 Nain Education Rternationa 12525752 InIn M ८. छ चौकी, एक नाभिच्छन्द वितानमा हंसावलि ९ गूढ़मण्डपनी पूर्वभित्तिना एक खत्तक पर इल्लिकावलणनो मध्य भाग, देवी कमलानी मूर्ति Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ITATARTMA IRALA ASHTRA 2999999oONESIAGE १०. गूढ़मण्डपना पूर्व द्वारनी द्वारशाखा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kisaani Conta ११. गूढ़मण्डपना उत्तर द्वारनी द्वारशाखा लक्ष Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. कर्मचन्द्र बच्छावत द्वारा नवनिर्मित मूलप्रासाद ( ई० १६ मी शतीनो अन्त भाग Jain Egeatonternatio BETVICE 25006000 1850 250-10000 १३. धरणा साह द्वारा विनिर्मित सम्मेतशिखर ( या नन्दीश्वरयुक्त) उत्तर दिशानो भद्रप्रासाद, ( ई० १५ मी शताब्दीनो तृतीय भाग) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kirtetrict.tk KirittetetectricKECE SanANJAN Sternattactretectane ARSHAN Colateracterta SHA KAHAIR 4OTOTTA2 Cont-sitewww WLOGScoconsce4marate AMERICACASESSES AMINISTERS HEALTD INTHAROO REIFiltra RANSGRRIChitadkatest NASDEShreemaSWASTHAN RC111 PA30 TITIciclertaina Migragnath TEEEEEEEEEEEER GORAGARLSEMEDhse OEM १४. खरतरवसही, दक्षिण दिशाना भद्रप्रासादनो करोटक १५. उत्तर दिशाना भद्रप्रासादना करोटकमां रूपकण्ठमां चक्रवाकमाला एवं विद्या देवियोना टेकणना मदल ककका O RIES कामसDDED SUSIL PRIORAICTORoutitrintuititititinuviuminatiRIME-URIHMARATE PramananRILAILAnnnnnnVIII hindichatavita-Jiulaa cotathitoiadie= - ae Jamedaveationwinternational For Private & Personal use God www.jalnelibrary.org Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain CELE ० NANSICIONA १६. खरतरवसही, दक्षिण दिशाना भद्रप्रासादनी पट्टजालानी जाली १७. खरतरवसही दक्षिण दिशाना भद्रप्रासादनी अदंरनो करोटक Priva o Use Only TITLE XE Velibrary.org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NCICIENCET E CTION a ctreetOVIE १८. दक्षिण भद्र प्रासादना करोटकनो मदलो सहितनो रूपकष्ठ अने ऊपरना गजतालुना थर याम MEG INSTITUN Wwwwwww सगरम M erayersawenses Mirror Tarta ATTरा Co0 m-LRIDD Erkiki २. पश्विम दिशानी पट्टशाला, (भमतीमा) जमणी पंक्तिमा पुष्पक-मन्दारक जातिनो वितान creterLLERaciurkistar CTC77TENTRITION PAHILO SHOROSTELAKHIMAL E STEसरसRANIKHARA rririkCLCULE EXPHATTERRITTENTION ORLD Jain Education Internatio Jamsubmary.org Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. पश्चिम दिशानी जमणी पंक्तिमां समतल-नाभिच्छन्द वितान nder 4 rctcICSDS ICICIC LLLLLLLL U CICONIC " "" "" २१. उत्तर दिशानी भमतीना उत्क्षिप्त जातिना विताननो अवशिष्ट भाग For ate & arsonaron Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. उत्तर दिशानी भमतीमां समक्षिप्त जातिनो वितान २३. उत्तर दिशानी भमती मां समाक्षिप्त जातिनो एक अभ्य वितान LELEI 112 TELEVI LELELELELELGI (esclerckt Audiob LELETAJAR ARG1212 V51D CVC 112 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. उत्तर दिशानी भमतीमां समक्षिप्त जातिनो एक त्रीजो वितान REPORATOR ३.-02 BUVViccremeCCCC B&Bac २५. उत्तर दिशानी भमतौमां समक्षिप्त जातिनो चोथो वितान a SAPivajersonaronlyAL www.sainelibrary.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. उत्तर दिशानी भमतीनो एक क्षिप्तोक्षिप्त जातिनो वितान - उत्तर दिशानी तीनो पद्मक नाभिच्छन्द जातिनो वितान एक Jain Education Internatio CUFFCICIES 16131 Eichan Stay (CIC/C/LICE CRELE PO ESTUD (721) Cle //cite כלוא Pleas DDDDDD Please पाग www www.jainelibramarg Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCHE २८. उत्तर दिशानी एक देवकुलिकानो क्षिप्त-नाभिच्छन्द वितान Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागा GENGREHEREREDEEMERE RARIA honium ۱۱۱۱۱۱۱۱۱ PARIKLAGUID PORNWWWशासकमार 166766rciniciartic17.. (PICAREERIOR( NRH M .. .. . . . . .. .. सरररDDDDDDDDDDDDDDDU CATEGOctri" २९. उत्तर दिशानी भमतीनो पद्मनाभ जातिनो एक वितान Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગિરનારસ્થ “કુમારવિહારની સમસ્યા મધુસૂદન ઢાંકી ઉજાતગિરિ પર મુખ્ય જૈન દેવળ ધરાવતી હારની ઉત્તર સીમા પર આવેલું છેલ્લું મંદિર “કુમારવિહાર”ના નામે હાલ કેટલાક દશકાથી પ્રસિદ્ધિમાં છે. ગુજરાતના ઇતિહાસાદિ વિષયના વિદ્વાનો પણ ગિરનાર પર સોલંકી રાજ કુમારપાળે “કુમારવિહાર' બંધાવ્યાને (કોઈ પણ પુરાણું આધાર સિવાય) ઉલ્લેખ કરે છે. કુમારપાળના આદેશથી શ્રીમાલી રાણિગના પુત્ર સેરઠના દંડનાયક અબાક કિંવા આમ્રદેવ દ્વારા સં. ૧૨૨૨-૨૩/ઈ.સ. ૧૨૬૬-૬૭માં ગિરિ પર ચઢવાની પઘા (પાજા) બંધાવેલી એવા તત્કાલીન સાહિત્યિક ઉલલેખો અને અભિલેખે મોજૂદ છે. પણ સમકાલિક વા સમીપકાલિક કોઈ લેખકે (પૂર્ણતલગરછીય હેમચન્દ્રાચાર્ય વા રાજગ૭ીય સોમપ્રભાચાય) કુમારપાળે ઉજજ્યન્તગિરિ પર જિનચૈત્ય બંધાવ્યાનું કહેતા નથી. તે પછી જોઈએ તે મન્ચીદય વસ્તુપાળ-તેજપાળે ગિરિ પર ઈ.સ. ૧૨૩૨–૧૨૩૪માં નવાં મંદિરે રચેલાં; જે જિનાલયે તેમના કાલ પૂર્વે રચાઈ ગયેલાં (જેમ કે તીર્થાધિપતિ જિન અરિષ્ટનેમિ અને શાસનાધિષ્ઠાત્રી અબિકાદેવી), તેને અનુલક્ષીને તેમણે કંઈને કંઈ સુકૃત કરાવેલું; પણ “કુમારવિહાર”માં તેમણે કશું કરાવ્યું હેવાની નેંધ તેમના સમકાલિક લેખેઠે-નાગેન્દ્રગીય ઉદયપ્રભસૂરિ, હર્ષપુરીયગાછીય નરેન્દ્રપ્રભસૂરિ, ભગુપુરીયા જયસિંહસૂરિ, કવિ સોમેશ્વર, કવિ અરિસિંહ ઠકકુર અને કવિ બાલચન્દ્ર,–વા ઉત્તરકાલીન લેખકો જેવા કે નાગેન્દ્રગરીય મેરૂતુંગાચાર્ય (પ્રબંધચિંતામણિ ઈ.સ. ૧૩૦૫), હર્ષપુરીયગ૨છીય રાજશેખર સૂરિ (પ્રબંધકેશર ઈ.સ. ૧૪૪૧) પણ આ કશે જ ઉલ્લેખ કરતા નથી. આ સિવાય કુમારપાલ સમ્બદ્ધ લખાયેલા ચૌદમા શતકના પ્રબન્ધ–કુમારપાલચરિત (તપગચ્છીય જયસિંહરિ: ઈ.સ. ૧૩૮૬), કુમારપાલ-ભુપાલ-ચરિત (તપગચ્છીય જિનમંડન ગણિઃ સં. ૧૪૯૨ ઈ.સ. ૧૪૩૬), કે કુમારપાલચરિત્રસંગ્રહમાં પ્રકટ થયેલ કુમારપાલ સમ્બદ્ધ ચૌદમા શતકમાં રચાયેલ જુદા જુદા પાંચેક વિસ્તૃત પ્રબન્ધામાં પણ આવી કોઈ જ વાત નેંધાયેલી નથી. ગિરનાર તીર્થ સમ્બદ્ધ જે સાહિત્ય ઉપલબ્ધ છે, અને નવું પ્રકાશમાં આવી રહ્યું છે, તેમાં પણ ગિરનાર પર કુમારવિહારને ઉલ્લેખ નથી. જેમકે નાગેન્દ્રગથ્વીય વિજયસેનસૂરિને રેવંતગિરિ-રાસ (આઈ.સ. ૧૨૩૪), તપાગરછીય ધર્મષસૂરિને ગિરનારકપ (આ.ઈ.સ.૧૨૬૪), રાજગછીય જ્ઞાનય% તેમ જ અજ્ઞાતણછીય વિજયચન્દ્ર કૃત રૈવતગિરિતીર્થ પર રચાયેલાં (અહીં પ્રકાશિત) સંસ્કૃત સ્તોત્રો (આઈ.સ. ૧૩૨૦-૧૩૨૫), ખરતરગચ્છીય જિનપ્રભસૂરિના કલ્પપ્રદી૫ અન્તર્ગત “રેવતકગિરિકલ્પ સંક્ષેપ”, “શ્રીઉજયન્તસ્તવ”, “ઉજજ્યન્ત મહાતીર્થકલ્પ” અને રૈવતકગિરિક૫” (ઈ.સ. ૧૯૩૫ પહેલાં), ઉપદેશગીય કકસૂરિના નાભિનન્દન જિદ્ધારપ્રબધા (ઈ.સ. ૧૩૩૭), કે ચૌદમા શતકના ઉત્તરાર્ધથી લઈ સળમાને આરંભ સુધી જૂની ગુજરાતીમાં રચાયેલ ગિરનારતીર્થને આવરી લેતી અનેક તીર્થ માળાઓ, ચૈત્યપરિપાટીઓ, વિવાહલા, રાસ, સભા રચનાઓમાં કયાંય પણ કુમારવિહારને જરા સરખે પણ નિર્દેશ નથી. આ અતિ વિપુલ નકારાત્મક પ્રમાણને ધ્યાનમાં રાખીએ તો ગિરનાર પરના મંદિરને “કુમારવિહાર” કહેવું એ તે નરી બ્રાન્તિ છે! આ પશ્ચિમમુખ મંદિરને મૂળપ્રાસાદ, ગૂઢમંડપ અને મૂળ જૂનાને સ્થાને આધુનિક રંગમંડપ છે. એને ફરતી ૭૨ દેવકુલિકાઓ હતી, પણ તે નષ્ટ થઈ છે. મૂળ મંદિરનાં ઘાટડાં, કરણી અને રૂપકામ પંદરમાં શતકનાં છે. અને ગૂઢમંડપને “કોટક' પણ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૪ ગિરનાસ્થ કુમારવિહારની સમસ્યા પંદરમા શતકની શૈલી બતાવે છે. આથી એક વાત તે સ્પષ્ટ જ છે કે આને નિર્માતા પંદરમાં શતકમાં થયો હે જોઈએ. આ સમસ્યાના ઉકેલમાં પંદરમાં શતકમાં રચાયેલું કેટલુંક સાહિત્ય સહાયભૂત થાય છે; ખાસ તો એ સમયમાં, પંદરમા શતકના મધ્યભાગ અને ત્રીજા ચરણમાં, રચાયેલી તીર્થમાળાએ અને ચૈત્યપરિપાટીઓ. તીર્થાધિપતિ જિન અરિષ્ટનેમિના મંદિર પછી ખરતરવસહી, અને તે પછી કલયાણત્રય બાદ વાંદવામાં જે ક્રમમાં આખરી મંદિર આવતું તેના વિષયમાં ત્રણેક પરિપાટીઓમાં ઉપયોગી નોંધ મળે છે. આ સૌમાં તે સ્પષ્ટ રીતે કહ્યું છે કે તે પૂનસીહ (પ્રકારાન્તરે પૂનસી, પૂનઈ) કોઠારીએ સ્થાપેલ શાંતિ જિનેન્દ્રનું ૭ર દેવકુલિકાયુક્ત મંદિર છે. જેમકે તપાગચછીય હેમહંસ કૃત “ગિરનાર ચૈત્યપરિપાટી” (આ. સં. ૧૫૧૫/૧૪૫૯'માં નેધ્યું છે કેઃ કોઠારિઅ પૂનસીડ તણુઈ સિરિ સંતિ જિદિ ૨૮. એ જ પ્રમાણે વૃદ્ધતપાગચ્છીય રત્નસિંહસૂરિશિષ્યની “ગિરનાર તીર્થમાળા” (ઈ. સ.૧૪૫૩/ પશ્ચાત)માં પણ એવી જ મતલબનું લખ્યું છે, જે કે છપાયેલે પાઠભ્રષ્ટ છે. ત્યાં વિશેષમાં મંદિરને ફરતી ૭૨ દેહરીની પણ નોંધ છે; યથા : એક (મનામ? પૂનસી) કે (તા? ઠા)રી વસહી સંત નમિ સવઈ સારી બહુતરિ દેહરી દેવ ૧૯ તે પછી સંધપતિ શવરાજની યાત્રા વર્ણવતી અજ્ઞાત ક ક “ગિરનારમૈત્યપરિપાટી”માં પણ આ જ વાત સ્પષ્ટતા પૂર્વક કહી છે? બહુત્તિરિ જિલઈ શાંતિ આરાહુ પુનઈ કોઠારી થાપી એ ૩૧ આ પૂનસી કે પૂના કોઠારી દેણ હતા તેની સ્પષ્ટતા બે તપાગચ્છીય મુનિઓની રચનામાંથી મળે છે. તપાગચ્છીય લક્ષ્મીસાગરસૂરિશિષ્ય શુભાશીલગણિના -પંચાલતીપ્રબોધસમ્બધ (સં.૧૫૨૧/ ઈ.સ. ૧૪૬૫)માં બે સ્થળે આ મંદિરના નિર્માતા સમ્બદ્ધ ઉલલેખ પ્રાપ્ત છે. જેમકે [ક્રમાંક ૫૬૪] “શ્રીમુનિસુન્દરસૂરિ સમ્બન્ધ”માં કહ્યું છે કે (તપાગચ્છીય) જયચંન્દ્રસૂરિના શિષ્ય રત્નશેખરસૂરિ થયા. તેમના સમયમાં પૂણસિંહ કેષ્ઠગારિક તથા સંઘપતિ (થા ધા કે ગિરિનારગિરિ પર પ્રસાદે કરાવ્યાં અને ત્યાં બિબ પ્રતિષ્ઠા કરી. સમ્બન્ધ ક્રમાંક ૩૪૬નું તે શીર્ષક જ આ હકીકત સૂચવે છે. “પૂનસિંહ કોઠાગારિકકારિતગિરનાર તીર્થપ્રાસાદ સંબંધ?” શીર્ષક છે ત્યાં આ પ્રમાણે નોંધ્યું છે: तपागच्छाधिराजश्रीरत्नशेखरसूरीणामादेशात् श्रीगिरनारतीथे' पूनसिंह कोष्ठागारिको महान्त प्रासाद कारयामास । तत्र श्रीऋषभदेव प्रतिष्ठियत् । तत्र बहुलक्षटंकधनव्ययः । ચિત્યપરિપાટીકારે પૂનાસી વસહીમાં જ્યાં શાતિનાથની પ્રતિષ્ઠા હેવાનું કહે છે ત્યાં શુભશીલ ગણિ ઋષભદેવ મૂલનાયક હેવાની વાત કરે છે જે કદાચ સ્મૃતિ દોષને કારણે હેય. પ્રસ્તુત પ્રસાદ તપાગચ્છીય રત્નશેખરસૂરિના ઉપદેશથી બંધાયો હતો તેથી વિશેષ હકીકત અહીં મળે છે. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મધુસૂદન ઢાંકી ૨૨૫ બીજા લેખક પ્રતિષ્ઠાસોમના સોમસૌભાગ્યકાવ્ય (સં. ૧૫ર૪/ઈ.સ. ૧૯૬૮)માં થેડી વિશેષ હકીકત નેંધાયેલી છે. ત્યાં કહ્યા પ્રમાણે બિદરના સુલતાનના માન્ય શ્રેષ્ઠિ પૂર્ણસિંહ કોઠાગારિક (અને એમના ભાઈ બંધુરમને) ગુરુવચનથી ગિરનારગિરિ પર ઊચું મંદિર બાંધ્યું. તેમાં ગરછનાથના આદેશથી જિનકીર્તિસૂરિએ પ્રતિષ્ઠા કરી : યથાઃ श्रीपूर्णसिंहकोष्ठागारिकनामा महेभ्यराट शुशुभे । सुन्दर बिदरनगरे मान्यः श्रीपातसाहि विभोः ॥८१॥ तेन श्रीगुरुवाक्यावर्जितहृदयेन नृणाम् । बधुरमनाख्य बांधव सहितेन नरेन्द्र महितेन ॥८२॥ श्रीमगिरिनारगिरावकारि जिनमंदिरं महोत्तुंग । जिनकीर्तिसूरिराजः प्रतिष्ठित गच्छनाथगिरौ ॥८३॥ આ વિધાનથી સ્પષ્ટ છે કે પ્રતિષ્ઠાપક આચાર્ય જિનકીર્તિસૂરિ હતા. અહીં “ગુરુ” શબ્દથી રત્નશેખરસૂરિ વિવક્ષિત હેય; અને “ગરનાથથી કદાચ સમસ્ત તપાગચછના તે સમયના પ્રમુખ આચાર્ય યુગપ્રધાન સોમસુન્દરસૂરિ ઘટિત હેય. શભશીલગણિ કે પ્રતિષ્ઠા મે મન્દિરના નિર્માણનું વર્ષ બતાવ્યું નથી. પણ રાણકપુરના ધરણવિહારમાં મૂકેલ સં. ૧૫૦૭/ઈ.સ. ૧૪૫૧ના ગિરનાર-શત્રુંજય પટ્ટીમાં ક્રમમાં “કલ્યાણત્રય”ના જિનાલય પછી “પૂનસી વસતી” બતાવી છે; આથી આ પૂના કોઠારીનું પ્રસ્તુત જિનાલય તે સમયથી કેટલાક વર્ષ પહેલાં બની ચૂકયું હશે. આ પૂનસી-વસતીના ગૂઢમંડપના મહાવિતાનનાં આકૃતિ, પ્રકાર અને પ્રણાલિ ગિરનાર પરની “ખરતરવસહીના ત્રણ મોટાં કરાટકના કરનાર શિપીઓની પરિપાટીની લગોલગનાં હેઈ, અને પ્રસ્તુત ખરતરવસહી પણ ઈ.સ. ૧૪૪૧ પહેલાં બની ચૂકી હોઈ, પૂનસીવસતીનું નિર્માણ પણું ઈ.સ૧૪૪૧થી અગાઉ થઈ ગયું હશે. પૂનસી-સહીની ઉત્તરે આવેલ કલ્યાણત્રયના મંદિરનો ઉદ્ધાર અમદાવાદના સુલ્તાન અહમદશાહ-માન્ય એસવાલ શ્રેષ્ઠિ સમરસિંહે સં. ૧૪૯૪/ઈ.સ. ૧૪૩૮માં કરેલ. જેમાં પણ પ્રતિષ્ઠાપક આચાર્ય હતા જિનકીર્તિસૂરિ ! આ હકીક્ત ધ્યાનમાં લઈએ તો એ જ સમયે જિનકીર્તિસૂરિએ પૂનસવસહીમાં પણ પ્રતિષ્ઠા કરી હોવાનું ધારી શકાય. આથી આ કહેવાતું “કુમારપાળ'નું મંદિર વસ્તુતયા ઈ.સ. ૧૪૩૮માં બન્યું હતું, અને તેના કારાપક સોલંકી સમ્રાટ કુમારપાળ નહીં પણ બિદરના પૂર્ણસિંહ કાષ્ઠાગારિક ઉફે પૂનસી કોઠારી હતા, મંદિરમાં આજે ધ્યાન ખેંચે તેવી કોઈ વસ્તુ હોય તે તે ગૂઢમંડપને લગભગ ૨૦ ફીટના વ્યાસને વિશાળ કોટક (ચિત્ર ૨). તેમાં નીચે રૂપકંઠ પછી ગાજતાળુના થરે કરી, તેના પર નવખંડા કેલનાં ત્રણ થરો અને વચ્ચે મોટા માનની અણીદાર-જાળીદાર કેલનાં પાંચ થરવાળી પુ૫ખચિત અને પકેસરયુક્ત ચેતોહર, ખરે જ બેનમૂન પદ્ધશિલા કરેલી છે, જેની ગણના પશ્ચિમ ભારતના પંદરમા શતકના સર્વોત્તમ ઉદાહરણેમાં થઈ શકે તેમ છે. ખરતરવસહીના વિતાનની પદ્ધશિલા કરતાં આમાં એક થર વિશેષ છે તે વિશેષ પ્રભાવશાળી જણાય છે. ૨૯ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૬ ઉજજયન્તગિરિની ખરતર-વસહી પાદટીપ ૧. સ. પં. બેચરદાસ દેશી, પુરાતત્ત્વ, ૧-૩, (ચૈત્ર ૧૯૭૯ (ઈ.સ. ૧૯૩૩), પૃ. ૨૮૬. ૨. સં. શ્રી વિજયધર્મ સૂરિ, પ્રાચીન તીર્થમાળા-સંગ્રહ ભાગ ૧લે, શ્રીયશોવિજયજી જૈન ગ્રંથમાળા, ભાવનગર સં. ૧૯૭૮ ઈ.સ. ૧૯૨૨, પૃ. ૩૬. ૩. સાંપ્રત ગ્રંથમાં જુઓ અમારું શ્રીમતી વિધાત્રી વોરા સાથેનું સંપાદન. ૪. સં. મૃગેન્દ્ર મુનિજી, સૂરત ૧૯૬૮. પૃ. ૩૧૬. ૫. એજન, પૃ. ૧૯૨. ૬. જૈન જ્ઞાનપ્રસારક મંડલ, મુંબઈ ૧૯૦૫, સર્ગ ૯. ૭. આ કરાટકનું ચિત્ર પ્રથમ જ વાર (સ્વ.) સારાભાઈ મણિલાલ નવાબે Jaina Tirthas in India and their Architecture, Ahmedabad 1944, P. 111, Fig. 293. તરીકે છાપ્યું છે. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HASEELTS MARRUARita MadaKEEP R EAK testantAREILITY C a SEARCH ALASSTERNETaru SECTOR S Farathiarrera ARTNER ickirta an LOG m S PATIरासस arathisruary andutierries PAHASIRRis RECEILL recretAREE SEAR MATASTROKES PART Esthetition IERTERS NANCIAARUITamang SSCNRN THAN 11 गिरनार, पूर्णसिंहवसती ( तथाकथित कुमारविहार, गूढ़मण्डप, सभामदारक वितान, (प्रायः ईस्वी १४३७ ). Jain 48 sa 41370 mana pe fat American Institute of Indian Studies, Varanasi # Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “પાલિતાણા-કલ્પસૂત્ર'ની જૈન ચિત્રકળા પર વિશેષ પ્રકાશ મુનિ શીલચન્દ્ વિજય ભારતીય ચિત્રકલાના ઇતિહાસમાં એક મહત્ત્વપૂ` શુ`ખલા સમાન બની રહેલી અને જુદાં જુદાં કારણેાસર, જૈનાશ્રિત ચિત્રકળા, ગુજરાતી ચિત્રકળા, પશ્ચિમ ભારતીય ચિત્રકળા, અપભ્ર‘શ શૈલીની ચિત્રકળા અને મારુ-ગુર્જર શૈલીની ચિત્રકળા, એમ જુદાં જુદાં નામે વડે ઓળખાવવામાં આવેલી જૈન ચિત્રકળાના એક વિશિષ્ટ ગણી શકાય તેવા દસ્તાવેજ એટલે કે એક વિશિષ્ટ હસ્તપ્રત, હમણાં તાજેતરનાં વર્ષોમાં જ, પ્રકાશમાં આવેલ છે. જો કે ડા. ઉમાકાન્ત કે. શાહે, પેાતાના Treasures of Jaina Bhandara માં, આ સચિત્ર પ્રતની નોંધ લીધી જ છે, તા પણ તે પ્રતના થાડાક વધુ પરિચય કરાવવાની ગણતરીથી આ ઉપક્રમ થાય છે. આ પ્રત, શ્રીકલ્પસૂત્રની તાડપત્રીય પ્રત છે. ડા. ઉમાકાન્તભાઈએ તેને “પાલિતાણા-કલ્પસૂત્ર”૩ એવી સંજ્ઞા આપી છે, અને આપણે પણ એ જ સ`જ્ઞાએ તેને એળખીશું. આ પ્રતની વિશિષ્ટતા તેના ચિત્રોને આભારી છે. ૩૯૪૬ સે.મી. માપ ધરાવતી આ હસ્તપ્રતની કુલ પૃષ્ઠ સંખ્યા ૧૪૫ છે, અને તેમાં પહેલાં ૧૧૦ પૃષ્ઠોમાં કલ્પસૂત્ર છે અને બાકીનાં પૃષ્ઠમાં કાલકાચાર્ય કથા છે. આ પ્રત સ`, ૧૪૩૯માં લખાઈ છે, એમ તેની અંત્ય પુષ્પિકા વાંચતા સમજાય છે. અંત્ય પુષ્ટિકા આ પ્રમાણે છે: “કૃત્તિ શ્રીાણિकाचार्य कथानकं समाप्तं ॥ छ ॥ ग्रंथाग्रं ६९९ ॥ छ ॥ छ ॥ सं. १४३९ आषाढादि ४० वर्षे आषाढ शुदि १३ शनौ श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनोदयसूरिशिष्य श्रीजिनराजसूरिभ्यो सा० तेजासुत साधु धरणा साधु कडून श्रीकल्पपुस्तिका लिखाप्य श्रीसत्गुरुभ्यो वाचनार्थ प्रदत्ता ॥ छ ॥ छ ॥ આ ઉપરાંત, આ પુષ્પિકા ઉપરથી એ પણ ખબર પડે છે કે, આ પ્રતિ પાટણમાં લખાઈ છે. જોકે તે અંગે આમાં કાઈ સ્પષ્ટ ઉલ્લેખ નથી, પરંતુ પુષ્પિકામાં આવતા ખરતરગચ્છીય આ. જિનરાજસૂરિ તથા સાધુ ધરણા-એ એને ઉલ્લેખ, આવું અનુમાન કરવા પ્રેરે છે. આ બન્ને વ્યક્તિએ માટે, પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રીજિનવિજયજી સ`પાદિત “તળજીવદૃાવસ્રી મંત્ર’૪માં આ પ્રમાણે ઉલ્લેખ મળે છે : "श्री जिनोदयसूरिपट्टे पञ्चाशत्तमः श्रीजिनराजसूरिः । तस्य च सं. १४३२ फाल्गुन वद षष्ठयां पाटणनगरे साहधरणकतन दिमहोत्सवेन सूरिपदं जातम् । . स. १४६१ देवलवाडाख्ये તારે વર્ષાં ગતાઃ ।'' આ ઉલ્લેખ પરથી સ્પષ્ટ સમજી શકાય છે કે, ‘સાહ ધરણુ' એ પાટણના વતની હાવા જોઈએ અને તેણે આ. જિનરાજસૂરિના સુરિપદ-ઉત્સવ કર્યાં હતા. આ. જિતરાજસૂરિના પદ-મહે।ત્સવ કરાવનાર ‘સાહ ધારણું' તે જ પ્રસ્તુત પ્રતિ લખાવનાર ‘સાધુ ધરણા' હશે, એમ નક્કી કરવામાં હવે કાઈ આપત્તિ નથી જણાતી. તે તેથી જ નક્કી થાય છે કે પ્રસ્તુત પ્રતિ પાટણમાં જ લખાઈ છે. આમ પશુ, પાટણ એ મધ્યકાલીન કલા અને સાહિત્યનું કેન્દ્રસ્થળ તેા હતું જ.પ જોકે આ પ્રતનાં ચિત્રોમાં નાના-સાનેરી શાહીનેા ઉપયોગ જરાય નથી થયા, તા પશુ, આ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ “પાલિતાણુ-કલ્પસૂત્રની જેન ચિત્રકળા પર વિશેષ પ્રકાશ પ્રતમાંના લખાણને બે વિભાગમાં વહેચી દેનારા તેમ જ પ્રતના પૃષ્ઠોની બને બાજુના બે એમ કુલ ત્રણ હાંસિયામાં દોરાયેલી કિનારમાં સોનેરી શાહીની રેખા જોવા મળે છે. ચિત્રકળાના સમીક્ષકોએ, તાડપત્રીય લઘુચિત્રોના ઈતિહાસને, બે વિભાગમાં વહે છે. તેમાં બીજા વિભાગને સમયગાળ, સામાન્યતઃ, વિ. સં. ૧૩૫૭ થી ૧૫૦૦ને મનાય છે. પ્રસ્તુત પ્રત પણ આ જ સમયની અને વિભાગની છે. આ સમયની ઉપલબ્ધ બીજી તાડપત્રીય સચિત્ર પ્રતે પૈકી એક, ઉજમફઈની ધર્મશાળાના સંગ્રહની ક૯પસૂત્રની પ્રત (સં. ૧૪૨૭) છે, અને એમાં સોનાને ઉપયોગ થયાનું નોંધાયું નથી. બીજી બે પ્રતિએ અનુક્રમે, આવશ્યક લઘુત્તિની (ખંભાત) વિ. સં. ૧૪૪પમાં લખાયેલી પ્રત તથા ઈડરની શેઠ આણંદજી મંગળજી પેઢીના સંગ્રહની કલ્પસૂત્રની પ્રત છે. આ બનેમાં, ચિત્રોમાં સોનાને ઉપયોગ થયો છે. ઈડરની પ્રતના એક્કસ સમયને ઉલેખ, જે કે મૂળ પ્રતમાં છે નહિ, તે પણ વિદ્વાને એને ચૌદમા સૈકા°(A.D.)ના અંત ભાગમાં લખાઈ હેવાનું માને છે. અને એ ઉપરથી, આ ચારેય પ્રતાને ક્રમ આ પ્રમાણે ગોઠવી શકાય: ૧. ઉજમફઈની ધર્મશાળાની કલ્પ–પ્રત સં. ૧૪ર૭ (ઈ. ૧૩૭૦)ની પ્રત. ૨. પાલિતાણુ-કલ્પસૂત્ર સં. ૧૪૩૯ (ઈ. ૧૩૮૨) ૩. ઈડરની કલ્પસૂત્ર–પ્રત. ૪. ખંભાતની આવશ્યક લઘુવૃત્તિની પ્રત, સં. ૧૪૪૫ (ઈ. ૧૩૮૯) આમ, પ્રસ્તુત પાલિતાણુ-કલ્પસૂત્ર એ ઉજમફઈ ધર્મશાળાવાળી પ્રત અને ઈડરની પ્રતએ બને વચ્ચેની એક મહત્ત્વપૂર્ણ કડીરૂપ બની રહે છે. પાલિતાણા-કલ્પસૂત્રમાં ૫૬ ચિત્રો છે એમાં પહેલાં ૪૦ ચિત્રો કલ્પસૂત્રનાં અને શેષ ૧૬ ચિત્રો કાલક-કથાનાં છે. એ ચિત્રાને ટૂંકો પરિચય આ પ્રમાણે છે – ૧. (પૃ. ૧) મહાવીર સ્વામી, ૨. (પૃ. ૨ જ.) ઋષભદત્ત અને દેવાનન્દા, ૩. (પૃ. ૩ ૪) ચૌદ સ્વપ્ન, ૪. (પૃ. ૩ ય.) ઋષભદત્ત દ્વારા સ્વપ્નફળ કથન, ૫. (પૃ. ૫ .) ઈન્દ્રસભા, ૬. (પૃ. ૬ વ.) બાળક સહિત માતા અને શક્રતવ, ૭. (પૃ. ૭ ક.) ઈન્દ્રની આજ્ઞા સ્વીકારતો હરિનૈગમેષી, ૮. (પૃ. ૯ ૩) ગર્ભાપહાર, ૯. (પૃ. ૧૦.) વિમાનમાં હરિને ગમેથી, ૧૦. (પૃ. ૧૩ ૨) ગભસંક્રમણ, ૧૧. (પૃ. ૧૬ ૧) ચૌદ સ્વપ્ન જોતાં ત્રિશલા, ૧૨. (પૃ. ૨૦ ૨.) સિદ્ધાર્થ અને ત્રિશલા ૧૩. (પૃ. ૩૨ .) રાજ અને સ્વપ્ન પાઠક તથા રાજા અને રાણુ, ૧૪. (પૃ. ૩૮ ક.) મહાવીર જન્મ અને પાંચ રૂપધારી ઇન્દ્ર દ્વારા ભગવાનને લઈ જન્માભિષેક માટે મેરુ તરફ પ્રયાણ, ૧૫. (પૃ. ૪૦ ) જન્માભિષેક, ૧૬. (પૃ. ૪૧ ૨) સિદ્ધાર્થની કોટુંબિક પુરુષને આજ્ઞા, ૧૭, (પૃ. ૪૨ વ.) આજ્ઞાને અમલ કર્યાનું કૌટુંબિક દ્વારા નિવેદન, ૧૮. (પૃ. ૪૭ ૨.) મહાવીર-દીક્ષાયાત્રા, ૧૯. (પૃ. ૪૮ ૨) મહાવીર-દીક્ષાયાત્રા, ૨૦. (પૃ. ૫૦ ) મહાવીરદીક્ષા (કેશલું ચન), ૨૧. (પૃ. ૫૦ વ.) મહાવીરકાઉસગ્ગ મુદ્રાએ, ૨૨. (પૃ. ૫૩ વ.) સમવસરણ (મહાવીર-કેવળજ્ઞાન), ૨૩. (પૃ. ૫૫ ૨.) મહાવીરનિર્વાણ, ૨૪. (પૃ. ૫૬ ૨) ગૌતમ ગણધર, ૨૫. (પૃ. ૬૦ ) સિદ્ધાવસ્થામાં મહાવીર સ્વામી, ૨૬. (પૃ. ૬૨ .) પાર્શ્વનાથ-જન્મ, ૨૭. (પૃ. ૬૨ ૧) પાશ્વ—દીક્ષા (દીક્ષાયાત્રા અને લચ), ૨૮. (પૃ. ૬૩ વ.) પાર્શ્વ—સમવરણ, ૨૯. (પૃ. ૬૬ વ.) પાર્શ્વ-નિર્વાણ, ૩૦. (પૃ. ૬૭ ઘ.) નેમિ–જન્મ, ૩૧. (પૃ. ૭૧ વ.) નેમિ-સમવસરણ અને નિર્વાણ, ૩૨. (પૃ. ૭૬ .) aષમ-જન્મ, ૩૩. (પૃ. ૭૮ ૪) ઋષભ-દીક્ષા અને સમવસરણ, ૩૪. (પૃ. ૮૧ .) ઋષભ-નિવણ, ૩૫. (પૃ. ૮૧ ૨.) મહા Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મુનિ શીલચન્દ્ર વિજય ૨૨૯ વીરસ્વામીના છ ગણુધરે, ૩૬. (પૃ. ૮૨ ૧.) બાકીના પાંચ ગણુધરે, ૩૭. (પૃ. ૯૩ ઇ.) સમવસરણ, ૩૮. (પૃ. ૯૩ વ.) આચાર્ય સમક્ષ ચતુર્વિધ સંધ, ૩૯. (પૃ. ૧૦૯ ૨) સમવસરણ, ૪૦. (પૃ. ૧૧૦ .) આચાર્ય સમક્ષ ચતુર્વિધ સંઘ; (કાલક-કથા-) ૪૧. (પૃ. ૧૧૧ ૨) વજસિંહ અને સુરસુંદરી (કાલકનાં પિતા-માતા), ૪૨. (પૃ. ૧૧૨ ક.) ગુણાકરાચાર્ય અને રાજકુમાર કોલક, ૪૩. (પૃ. ૧૩૧ .) કાલક-દીક્ષા ગ્રહણ, ૪૪. (પૃ. ૧૧૮ ક.) શાહિ (યવન રાજને દરબાર ૪૫. (પૃ. ૧૨૪ ૫.) કાલકાચાર્ય સમક્ષ રજૂ કરાયેલે બંદીવાન ગર્દભિલ, ૪૬. (પૃ. ૧૨૫ ૧) કાલકાચાર્ય અને વિક્રમાદિત્ય, ૪૭. (પૃ. ૧૨૬ .) રાજા વિક્રમાદિત્ય, ૪૮. (પૃ. ૧૨૮ ક.) કાલકાચાર્ય અને બલમિત્રભાનુમિત્ર, ૪૯. (પૃ. ૧૩૩ .) કાલકાચાર્ય અને શાલિવાહન, ૫૦. (પૃ. ૧૩૩ ૨.) કાલકાચાર્ય સમક્ષ ચતુર્વિધ સંધ, ૫૧. (પૃ. ૧૩૯ વ.) શધ્યાતર ગૃહસ્થ અને કાલકાચાર્યના શિષ્યો પર. (પૃ. ૧૪૦ લ.) સાગરચંદ્રસૂરિ અને વૃદ્ધ કાલકાચાર્ય, ૫૩. (પૃ. ૧૪ર વ.) કાલકાચાર્યના ચરણે પડી ક્ષમા પ્રાર્થના શિષ્ય, ૫૪. (પૃ. ૧૪૩ ૧.) સીમંધરસ્વામીનું સમવસરણ, ૫૫. (પૃ. ૧૪૪ અ.) કાલકાચાર્ય અને વૃદ્ધ બ્રાહ્મણના વેષે ઇન્દ્ર, પ૬. (પૃ. ૧૪૫) કાલકાચાર્ય સમક્ષ મૂળ વેષે પ્રગટ થતા ઇન્દ્ર. છે. ઉમાકાન્તભાઈ શાહે આ ચિત્રોની ક્રમવાર નેંધ આપી છે. પરંતુ, તેમાં પૃ. ૪૧ (a), પૃ. ૧૧૨ () અને પૃ. ૧૨૫ (a) (ચિત્રક્રમાંક ૧૬, ૪૨, ૪૬,) આ ત્રણ ચિત્રોની નોંધ લેવાઈ નથી. વળી પૃ. ૧૨૮ B' આ ચિત્રની, તેના પરિચય વિના, નોંધ છે, પરંતુ મૂળ પ્રતમાં પૃ. ૧૨૮ B.માં કઈ ચિત્ર છે નહિ. આ ઉપરાંત, તેમણે, ચિત્ર ૫ ને “સ્વપાઠક” તરીકે; ચિત્ર ૧૩ ને “ત્રિશલાના હર્ષ-શોક” તરીકે; ચિત્ર ૧૭ ને “દાન” તરીકે; ચિત્ર ૪૫ ને “કાલક” તરીકે; ચિત્ર ૪૭ ને “ગઈ ભિલ” તરીકે; ચિત્ર ૪૮”ને આરોપી ‘ગદભિલ' તરીકે; ચિત્ર કને” ઉપદેશ આપતા કાલક' તરીકે; ચિત્ર ૫૧ ને “રાજા સમક્ષ ઊભેલા બે સાધુ તરીકે, ઓળખાવેલ છે, તેમ જ ચિત્ર ૫૩માં “The preceptor and king” આવું લખીને એ ચિત્રમાં રાજા હેવાનું નોંધ્યું છે. ઉપર આપેલી ચિત્રોની યાદી અને પરિચય જો તું સમજાશે કે આ બધી માહિતી ક્ષતિપૂર્ણ છે. નંધમાં આવી ક્ષતિ રહી જવાનું કારણ કદાચ એ હોઈ શકે કે, આ પ્રત, ડે. શાહને, ખૂબ જ અ૫ કહી શકાય તેટલા સમય પૂરતી જ જોવા મળી હતી, અને તેથી તેનું વ્યવસ્થિત નિરીક્ષણ ન થઈ શકવાને કારણે અને ખૂબ ત્વરાથી ન ઊતારી લેવી પડી હેવાને કારણે આમ બન્યું હશે. ડે. ઉમાકાન્તભાઈ, પાલિતાણુ-કલ્પસૂત્રને, તેમાં પ૦ (૧ પ૬) ચિત્રો હેવાથી; તે ચિત્રો ઉત્કૃષ્ટ શૈલીઓ (superior workmanship) આલેખાયાં હેવાથી; તેમજ જે યુગમાં તાડપત્રનું સ્થાન કાગળે લેવા માંડયું હતું તે યુગની તાડપત્રીય શૈલીનું પ્રતિબિંબ રજૂ કરતું હોવાથી, પશ્ચિમભારતની જૈન ચિત્રકળાના “ખૂબ અગત્યભર્યા દસ્તાવેજ' તરીકે ઓળખાવે છે, અને તે તદ્દન યથાર્થ છે. લાઘવ-કૌશલ્ય એટલે કે એક જ લઘુ-ચિત્રમાં, એકથી વધુ સ્વતંત્ર ચિત્રો થઈ શકે તેવી ઘટનાઓને, સમાવી દેવાનું કૌશલ્ય, એ આ પ્રતની ચિત્રકળાનું નેધપાત્ર લક્ષણ છે. દા.ત. ચિત્ર ૬ (Fig 1), ૧૩, ૧૪, ૨૭, ૩૧, ૩૩, ૩૮ વગેરે. આ ચિત્રમાં, સામાન્ય રીતે અન્ય કલ્પસૂત્રોનાં ચિત્રોમાં એકેક સ્વતંત્ર ચિત્રરૂપે જોવા મળતી બે બે ઘટનાઓને પણ, એક જ ચિત્રમાં, ખૂબ નિપુણતાથી સમાવી લેવામાં આવી છે. આ પ્રતમાં બીજી વિશેષતા એ જોવા મળે છે કે, જે પૃષ્ઠોમાં ચિત્ર છે, તે પૃષ્ઠના-જે તરફ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩ “પાલિતાણા-કલપસૂત્રની જેન ચિત્રકળા પર વિશેષ પ્રકાશ ચિત્ર હોય તે તરફના- હાંસિયામાં, હરતાલ વડે, ચિત્રનું નાનકડું ને ઝડપી રેખાંકન-નાનો લાઈન સ્કેય દેરી બતાવવામાં આવેલ છે. આપણે સારી રીતે જાણીએ છીએ કે, ઘણી પ્રતમાં, લેખક, લખતી વખતે, ચિત્ર માટેની જગ્યા છોડી દઈને લખતા અને સાથે એ જગ્યાની પાસેના હાંસિયામાં, જે ચિત્ર દોરવાનું હોય તેની વિગત અને સૂચના લખી દેતા.૧૪ પણ જે કાળમાં આવું લખી દેવાની પ્રથા હજી નહાતી પ્રારંભાઈ, તે કાળમાં ચિત્રકારને કઈ રીતે સૂચના અપાતી હશે ? જે લખનાર પોતે જ ચિત્રકાર હેય, તે તે આવી કોઈ સૂચના આપવાની ઝંઝટ રહેતી નહિ. પરંતુ લખનાર ને ચિત્રકાર જુદા હોય, ત્યારે તે, કાં તો મૌખિક રીતે અને કાં તે બીજી કોઈ રીતે પણ, સૂચના કે માર્ગદર્શન આપ્યા સિવાય તો નહિ જ ચાલતું હોય, એ ચોક્કસ છે. તે મૌખિક રીત સિવાય કઈ રીતે સૂચના કે સમજૂતી અપાતી હશે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર પાલિતાણા-કલ્પસૂત્ર જોતાં મળી રહે છે. ઉપર કહ્યું તેમ, આ પ્રતમાં, ચિત્રપૃષ્ઠોના હાંસિયા પર, જ્યાં જે વિષયનું ચિત્ર દોરવાનું હોય, તે વિષયને રફ કેચ કે આઉટલાઈન દેરી દેવામાં આવેલ છે. એ સ્કેચના આધારે જ, નિષ્ણાત ચિત્રકાર, પૂરું ચિત્ર દોરી દેતા હશે. જો કે આ પદ્ધતિમાં ક્યારેક ભૂલ થઈ જવાને પણ પૂરો સંભવ છે. જેમ કે આ જ પ્રતમાં, ચિત્ર ૬માં, “શકસ્તવ અને શયન પલંગ પર સૂતેલી દેવાનંદા” એ બે દ એકી સાથે આલેખાયાં છે; તે માટે હાંસિયામાં તે દૃશ્યને કેય કરીને (Fig. 2) તે પત્ર, ચિત્રકારને એમ ને એમ જ સેંપી દેવામાં આવ્યું હોવાથી, બીજે બધે ઠેકાણે સુતલી માતાની સાથે બાળક હેાય જ છે' એવા રૂઢ અનુભવના આધારે જ, ચિત્રકારે, અહીં પણ, દેવાનંદાના હાથમાં નવજાત બાળક આલેખી દીધું છે, હકીકતની દષ્ટિએ મોટે દેષ છે. આમ છતાં, આપણે કહેવું જોઈએ કે, સાવ નાનકડા અને રફ સ્કેચને આધારે જ, જે તે વિષયનું સંપૂર્ણ ચિત્ર આલેખી બતાવવું, એ, આ ચિત્રોના ચિત્રકારની જેવીતેવી સિદ્ધિ નથી. અલબત્ત, આવી વિશિષ્ટતા ધરાવતી માત્ર આ એક જ કે પહેલી જ પ્રત છે, એવું નથી. બીજી પણ એક પ્રત છે, જેમાં, હાંસિયામાં, આ રીતે જ, ચિત્રને સ્કેચ દોરવામાં આવ્યો હોય. આ પ્રત તે ખંભાતના શાન્તિનાથભંડારની વિ.સં. ૧૨૯૭ની ત્રિષશિલાકા પુરુષયરિત્રની તાડપત્રીય પ્રત છે. આ પ્રતનું એક ચિત્રપૃષ્ઠ, Treasures of Jaina Bhandarasમાં, Black and white ચિત્રોમાં, ચિત્ર નં. ૪ તરીકે, ઠે. ઉમાકાન્તભાઈએ મૂકયું છે. તેમાં દેખાતી શ્રાવક અને શ્રાવિકાની બે આકૃતિઓને લાઈન સ્કેચ, પડખેને હાંસિયામાં આલેખાયેલો સ્પષ્ટ જોઈ શકાય છે, આમ છતાં, આ બાબતની નોંધ, એ ચિત્રના પરિચયમાં કેમ નથી લેવાઈ, એ મેટાં આશ્ચર્યની બાબત છે. લાગે છે કે એ લાઈન સ્કેયને, વિદ્વાન, હસ્તપ્રતોમાં ખાલી જગ્યા જોઈને, પાછળથી કઈકે કરેલાં આડાં અવળાં ચીતરામણ જેવો જ સમજીને ચાલ્યા હશે. પાલિતાણુ-કલ્પસૂત્રમાં ચિત્ર ક્રમાંક ૨૪મું ચિત્ર શ્રીગૌતમસ્વામીનું છે. (Fig. 3) આ ચિત્ર ખરેખર અદ્દભુત કહી શકાય તેવું તે છે જ, તદુપરાંત, એમાં મુખાકૃતિ એવી તે વિલક્ષણ રીતે આલેખાઈ છે કે જેનારને પ્રથમ નજરે એ ભગવાન બુદ્ધનું ચિત્ર હોવાને ભ્રમ થયા વિના ન રહે. બુદ્ધની પ્રાચીન ચિત્રિત મુખાકૃતિઓને ઘણુ રીતે મળતી આ ચિત્રની મુખાકૃતિ છે, એમ મને લાગ્યું છે. કઈ એમ કહી શકે કે બુદ્ધની આંખે ઢળેલી હોય છે, ને આમાં તે ખુલ્લી-આપણી સામે જોતી હોય Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મુનિ શીલચન્દ્ર વિજય ૩૧ તેવી-આંખે છે પરંતુ, આવું હોવા છતાંય, બીજ કેટલાંક તત્તવે એવાં હોય છે કે જેના આધારે આ ભ્રમ સહજ રીતે જ થઈ જાય. દા.ત. ઉત્તર ગુજરાતમાં આવેલા મહુડીના કેટયર્ક મંદિરમાંથી મળી આવેલી આઠમી શતાબ્દીની ધાતુપ્રતિમા, જૈન તીર્થંકરની છે, એ તો સુવિદિત છે; અને તેની આંખો પણ સાવ ઢળેલી કે બીડાયેલી નથી જ; છતાં, ડે. મંજુલાલ ૨. મજમુદાર જેવા ખ્યાતનામ વિદ્વાને તેને બુદ્ધની મૂર્તિ તરીકે ઓળખાવી દીધી છે!૧૫ ઘણી વખત એવુંયે બને છે કે, કળા સમીક્ષકે ચિત્રગત વિષયથી પૂરેપૂરા પરિચિત ન હોય તોય, મૌન રહેવાને બદલે ભળતો જ વિષય લખી દેવાનું વધુ પસંદ કરે છે. અહીં એ અંગે બે ઉદાહરણ પર્યાપ્ત થઈ પડશે. ૧. The Development of Style in Indian Painting૬માં શ્રીકાલ ખંડાલાવાલાએ, Plate VII તરીકે મુકેલા “અભિમાનરૂપી હાથી પર ચઢી બેઠેલા બાહુબલીને હાથી ઉપરથી નીચે ઊતરવા માટે સમજાવતી બે બહેને (બ્રાહ્મી-સુંદરી)'ના ચિત્રને “મરુદેવી(?)” એ પરિચય આપીને મૂક્યું છે. ૨. એ જ રીતે, ભારતીય જ્ઞાનપીઠે પ્રકાશિત કરેલા જૈન ઢ સ્થાપત્ય”ના તૃતીય ખંડમાં, ૨૮મા ચિત્ર તરીકે મૂકાયેલું ક૯પસૂત્રનું એક ચિત્ર, સ્થવિરાવલીને, રોહગુપ્ત (વૈર શિવ મમિતા પરવાદી સાથેના વાદનો અને તે બનેએ સામસામી પ્રયોજેલી પ્રતિસ્પધી: સાત સાત વિદ્યાઓના પ્રસંગને દર્શાવતું ચિત્ર હેવા છતાં, ત્યાં, તે ચિત્રને, ગઈ ભિલ્લ અને કાલકાચાર્યના ચિત્ર તરીકે ઓળખાવવામાં આવ્યું છે. પાલિતાણુ-કલ્પસૂત્રનાં ચિત્રોમાં બીજી ઘણી ઘણી વિશિષ્ટતાઓ છે અને જેમ જેમ તેને અભ્યાસ થતો જશે, તેમ તેમ નવાં નવાં તથ્ય બહાર આવશે જ, એ નિઃશંક છે. સમજશક્તિની મર્યાદા સમજીને અહીં જ અટકું, એ પહેલાં એક વાત કહેવી ઉચિત ગણાશે કે પ્રસ્તુત પાલિતાણુ-કલ્પસૂત્ર, પાલિતાણાની શ્રીનેમિ-દર્શન જ્ઞાનશાળાના ગ્રંથભંડારની છે અને હવે તેનું રજીસ્ટ્રેશન પણ થઈ ગયું છે. પાદટીપ ૧. “ શ્રીવ ના મનંદની ”ના દ્વિતીય ખઠાંતર્ગત પ્રથમ ખંડમાં ડે.યુ.પી. શાહને લેખઃ “મારુ ગુર્નાદ વિવારે પ્રાચીન પ્રમાણ'-જુએ. 2. “Treasures of Jaina Bhandaras” (L. D. Series 69) pp. 13-15. ૩. એજન p. 14. ૪. પૃ. ૩૨, પ્રકાશક: બાબું પૂરણચન્દ નાહાર, કલકત્તા, વિ.સં. ૧૯૮૮. પ. જુઓ “Treasures of Jaina Bhandaras” p. 16. ૬. જુઓ “Jain Miniature Painting From Western India” By Dr. Motichandra chapter III, p. 28, ૭. જૈન ચિત્રકલ્પદુમ” સા.મ. નવાબ લિખિત લેખ “ગુજરાતની જૈનાશ્રિત કળા અને તેને ઈતિહાસ” પૃ. ૪૧. ૮. એજન. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૨૩૨ “પાલિતાણા-કલ્પસૂત્રની જેન ચિત્રકળા પર વિશેષ પ્રકાશ ૯. જુઓ “Treasures of Jain Bhandaras” p. 15. 90. ORRI "Jain Miniatnre Painting from Western India" p. 34." 99. gyarl "Treasures of Jaina Bhandaras''-catalogue pp. 67-68. ૧૨. એજન, p. 14, “It was temporarily brought in the L.D. Institute, Ahmeda. bad and was very soon returned to the owner monk in Palitana." ૧૩. એજન p. 14. ૧૪. જુઓ “જૈન ચિત્રક૯૫૬મ”માં સા. મ. નવાબને લેખ, પૃ. ૩૪. ૧૫. જુઓ “Gujarat: Its Art-heritage” By M.R.Majmudar (પ્રકાશક: મુંબઈ યુનિ. વર્સિટી)માં Plate LIV તથા તેને પરિચય. ૧૬. પ્રકાશક: Macmillar Company of India-1974. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गायचय वाणि Ballan Godadesopansacoolsex मोटा यादि ELUWA रक्षा Vain Education International Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू० जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा के० आर० चन्द्रा यह सर्व-विदित है कि आचाराङ्ग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राकृत साहित्य का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। इसकी भाषा भ० महावीर की मूल वाणी है-यह बात यदि सबको स्वीकार्य नहीं भी हो, तो भी इतना तो सबको मान्य है कि इसकी भाषा भ० महावीर की मूल वाणी के साथ बहुत समानता रखती है । अतः इस ग्रन्थ में प्राकृत भाषा का प्राचीनतम रूप उपलब्ध होना चाहिए। परन्तु वर्तमान संस्करणों में अनेक स्थलों पर भाषा की प्राचीनता विलुप्त सी जान पड़ती है। इसका कारण यह है कि प्राकृत भाषा में होने वाले सतत परिवर्तनों ने इस ग्रन्थ के उपदेशकों, अध्येता-आचार्यों, व्याख्याकारों एवं प्रतिलिपिकारों (लेहियों) को ऐसा प्रभावित किया कि ग्रन्थ की मूल भाषा में परिवर्तन आ गये और प्राचीनता के स्थान पर अर्वाचीनता प्रवेश कर गयी। पाठकों को सुविधा हो, इसलिए समय-समय पर भाषा के अप्रचलित रूप निकाल दिये गये और प्रचलित रूप रख दिये गये। ग्रन्थ की विविध प्रतियों में मिलने वाले विभिन्न पाठ इस प्राचीनता-अर्वाचीनता के साक्षी हैं। यह सब होते हुए भी प्राकृत भाषा के विकास का शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक अध्ययन करने वाले को इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि कौन सा रूप प्राचीन है और कौन सा अर्वाचीन है। विभिन्न शताब्दियों के प्राकृत भाषा में मिलने वाले शिलालेख इस भाषा के तत्कालीन स्वरूप को जानने के लिए हमारे पास अकाट्य प्रमाण हैं । ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से प्राकृत भाषा का विकास सामान्यतः इस प्रकार माना गया है कि सबसे पहले इसमें संयुक्त व्यञ्जनों का समीकरण हुआ, तत्पश्चात् मध्यवर्ती अघोष व्यञ्जनों का घोष एवं घोष व्यञ्जनों का अघोष में परिवर्तन हुआ और अन्त में मध्यवर्ती व्यञ्जनों का लोप हुआ । विभक्तियों एवं प्रत्ययों में भी क्रमशः परिवर्तन आये, जिन्हें प्राकृत भाषा के ऐतिहासिक विकास का कोई भी अध्येता अच्छी तरह से जानता है। इसी भाषायी विकास या परिवर्तन को ध्यान में रखकर आचाराङ्ग के पू० जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित संस्करण की यह समीक्षा की जा रही है। इसके फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होता है कि अभी भी आचाराङ्ग के एक ऐसे नये संस्करण की आवश्यकता है, जिसमें उपलब्ध प्रतों के आधार पर अनेक पाठ बदले जा सकते हैं, जो भाषा की प्राचीनता को सुरक्षित रखने में सहायक हैं । १. अर्धमागधी आगम साहित्य के अनेक संस्करण प्राप्त हैं । उसी प्रकार आचाराङ्ग के भी अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं, परन्तु उन सबमें जर्मनी से प्रकाशित शुब्रिग महोदय का, आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित पू० सागरानन्दसूरिजी का, जैन विश्वभारती द्वारा प्रकाशित मुनि श्री नथमलजी का एवं श्री महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित पू० जम्बूविजयजी का-ये चार संस्करण महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। इनमें से प्रथम और अन्तिम संस्करण में ही विभिन्न प्रतियों से पाठान्तर दिये गये हैं, जबकि अन्य दो में पाठान्तर नहीं दिये गये है। अन्तिम संस्करण आधुनिकतम संस्करण होने से उसकी ही यहां पर समीक्षा को जा रही है। - For Private &Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के० आर० चन्द्रा प्रस्तुत समीक्षा ग्रन्थ की भाषा की प्राचीनता को कायम रखने में कितनी उपयोगी बन सकती है, इस पर विद्वानों को विचार करना है। यहाँ पर प्रस्तुत किये गये सुझाव स्वीकार करने योग्य हैं या नहीं, उन पर विद्वानों की आलोचना हो, इसी उद्देश्य से यह अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है, विद्वान् अपने-अपने विचार प्रकट करेंगे, जिससे प्राचीन ग्रन्थों के मूल भाषायी स्वरूप को सुरक्षित रखा जा सके।' श्री जम्बविजयजी द्वारा स्वीकृत पाठों को समीक्षा ध्वनि-परिवर्तन१. (क) प्राचीन रूप स्वीकृत किया गया है, चाहे वह प्राचीनतम प्रत में नहीं मिलता हो । १. अविजाणए (सूत्र १०, पृ० ४ पं० १; पाठान्तर-अवियाणए ) २. परिपंदण ( सूत्र ७, पृ० ३, पं० ९; सूत्र ५१, पृ० १३, पं० ८; सूत्र ५८, पृ० १५, पं० १; पाठान्तर-परियंदण) ३. गुणासाते (सूत्र ४१, पृ० ११, पं० १; पाठान्तर-गुणायाए) ४. पडिसंवेदयति ( सूत्र ६, पृ० ३, पं०७; पाठान्तर-पडिसंवेदेति, पडिसंवेएइ) ५. पवेदितं ( सूत्र २६, पृ० ७, पं० १६; पाठान्तर-पवेतियं ) ६. अधेदिसातो ( सूत्र १, पृ० १, पं० १४; पाठान्तर-अहेदिसातो) ७. खेत्तण्णे (सूत्र ३२, पृ०८, पं० १५; पाठान्तर-- खेतणे, खेअन्ने, खेयन्ने) ८. पिच्छाए ( सूत्र ५२, पृ० १३, पं० १७; पाठान्तर--पिंछाए) ९. पुच्छाए ( सूत्र ५२, पृ० १३, पं० १७; पाठान्तर-पुंछाए ) (ख) कभी-कभी कागज की एक मात्र अर्वाचीन प्रत से प्राचीन रूप लिया गया है। १. अपरिणिव्वाणं (सूत्र ४९, पृ० १२, पं० १७; मात्र ला० प्रत का पाठ; ( पाठान्तर -अपरिणेव्वाणं) (ग) पद-रचना १. विजहित्ता ( सूत्र २०, पृ० ६, पं० ११; पाठान्तर-विजहित्तु) २. कभी-कभी अर्वाचीन रूप स्वीकृत किया गया है, जबकि प्राचीन प्रतों एवं चूणि में प्राचीन रूप मिलता है। १. कप्पइ णे कप्पइ (सूत्र २७, पृ० ८, पं० १ ) यह पाठ ताडपत्रीय जे० प्रत और कागज की ___अर्वाचीन प्रतों में मिलता है। २. कप्पति णे कप्पइ ( यह पाठ प्राचीन प्रतों एवं चूणि में मिलता है, लेकिन उसे छोड़ दिया __ गया है।) ३ सहसम्मुइयाए (सूत्र २, पृ॰ २, पं० ४) पाठ स्वीकृत है, जबकि चूणि का पाठ सहसम्मुतियाए और सं० शां० का पाठ 'सहसम्मुदियाए' छोड़ दिया गया है। १. आगमों को मूल भाषा कितनी बदल गयी है, इसको जानने के लिए देखिए-पू० मुनि पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित 'कल्पसूत्र' की प्रस्तावना, पृ० ३ से ७, साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, १९५२। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ३ आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा कभी-कभी अर्वाचीन रूप स्वीकृत किया गया है, चाहे वह चूर्णि एवं अर्वाचीन कागज की प्रतों का पाठ हो । १. मंद अवियाणओ (सूत्र ४९, पृ० १२, पं० १५, प्रत हे० १,२,३ एवं चूर्णि ) जबकि प्राचीन प्रतों शां०, खे०, खं० एवं जै० में 'मंदस्साविजाणतो' पाठ मिलता है । यदि ऐसा पाठ मिलता हो, तो उसे 'मंदस्स अविजाणतो' करने में क्या दोष है । लिपिकारों की भूल से भी सन्धि कर दी गयी हो । ( शुब्रिंग के संस्करण में चूर्णि एवं प्राचीन प्रत का 'मंदस्स अविजाणओ' पाठ ( पृ० ५, पं० ४ ) स्वीकृत किया गया है । ) ४. कभी-कभी चूर्णि में मध्यवर्ती गया है । मूल व्यञ्जन के मिलने पर भी उसका लोप स्वीकृत किया (१) उववाइए (सूत्र १, पृ० २, पं० २ ) ( चूर्णि पाठ - उववाविए) (२) सहसम्मुइयाए ( सूत्र २, पृ०२, पं० २ ) ( चूर्णि - पाठ - सहसामुतियाए ) प्राचीन रूप ही ग्रहण करना या चूर्णि एवं प्राचीन प्रतों में उपलब्ध रूप ही ग्रहण करना या चूर्णि के ही प्राचीन रूप को ग्रहण करना- ऐसा कोई नियमित विधान इस संस्करण में अपनाया गया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । अर्वाचीन प्रतों से अर्वाचीन रूप भी ग्रहण किये गये हैं । ऐसी अवस्था में किसी भी प्रत में यदि प्राचीन रूप मिलता हो, तो भ० महावीर के समय एवं प्राकृत के तत्कालीन रूप को ध्यान में रखते हुए प्राचीन रूप क्यों नहीं अपनाये जाने चाहिए ? क्योंकि अर्वाचीन प्रतों के सामने आदर्श प्रत तो इससे भी प्राचीन ही रही होगी । ऐसी भी सम्भावना नहीं की जा सकती कि अर्वाचीन प्रतों में जानबूझकर रूपों को प्राचीन कर दिया गया हो । यदि ऐसा होता तो सभी रूपों को प्राचीन क्यों नहीं कर दिया जाता, कभी-कभी तो प्राचीन प्रतों अर्वाचीन एवं प्राचीन रूप दोनों ही एक साथ मिलते हैं । यहाँ पर इस दृष्टि से प्रस्तुत श्रीजम्बूविजयजी के संस्करण के कुछ पाठों की समीक्षा की जाय, उसके पहले शुक्रिंग महोदय द्वारा स्वीकृत किये गये कुछ पाठों की समीक्षा करना भी उपयोगी सिद्ध होगा । के कुछ पाठों का विश्लेषण ( आचाराङ्ग-प्रथमश्रुतस्कन्ध ) १. प्राचीन रूप स्वीकृत, भले ही अर्वाचीन प्रतों में मिलते हों । स्वीकृत - णिव्वाणं, परियावेण अस्वीकृत - (व्वाणं ), ( परियावेणं ) २. प्राचीन रूप अस्वीकृत, भले ही अर्वाचीन प्रतों में मिलते हों । अस्वीकृत – (पडिसंवेदयइ ), ( समुट्ठाय ), ( खेत्तण्णे ) स्वीकृत – पडिवेएइ, समुट्ठाए, खेयण्णे जबकि पू० जम्बूविजयजी ने अपने संस्करण में इन जगहों पर प्राचीन रूप स्वीकृत किये हैंसंवेदयति, खेत्तणे ( संदी० प्रत में शुद्ध पाठ मिलते हैं, ऐसा कहने से उसका 'समुट्ठाय ' पाठ उनके ( जम्बू० ) लिए स्वीकार्य हो जाता है । ) Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के० आर० चन्द्रा ३. प्राचीन रूप अस्वीकृत, भले ही प्राचीन प्रत में मिलता हो । अस्वीकृत-( जीवा अणेगे) स्वीकृत-जीवा अणेगा (श्री जम्बूविजयजी के अनुसार संदी० में मिलने वाला शुद्ध पाठ 'अणेगे' लिया जाना चाहिए) [ इससे यह सिद्ध होता है कि अर्वाचीन प्रतों में भी प्राचीन रूप मिलते हैं। ] ४. अर्वाचीन प्रत और चूर्णि में प्राचीन रूप मिलते हुए भी उसे छोड़ दिया गया है। अस्वीकृत-(अखेत्तन्ने) स्वीकृत-अखेयन्ने ५. प्राचीन प्रत एवं चणि में अर्वाचीन रूप प्राप्त होते हुए भी उसे ही लिया गया है। स्वीकृत-घायमीणे, समणुजाणमीणे __ अस्वीकृत-( घायमाणे ), ( समणुजाणमाणे ) ६ चूणि एवं प्राचीन प्रत का पाठ छोड़ दिया गया है। अस्वीकृत-( अस्सायं) स्वीकृत-असायं ७. चणि एवं अर्वाचीन प्रत का पाठ छोड़ दिया गया है। अस्वीकृत-( अवियाणए ), ( पिञ्छाए) स्वीकृत-अविजाणए, पिच्छाए ८. मात्र चूर्णि में प्राचीन रूप हो तो छोड़ दिया गया है। अस्वीकृत-( अकरणीयं), ( अनितियं ),' ( सोतपण्णाणेहि) स्वीकृत-अकरणिज्जं, अनिच्चियं, सोतपण्णाणेहिं अस्वीकृत-(परिहायमाणहि ) स्वीकृत-परिहायमाणेहि ९. चूणि की प्रतों में गलत रूप भी मिलते हैं। पवुच्चई ( पवुच्चइ ) ( शुब्रिग ) मंता ( मत्ता ) ( जम्बू०, शुब्रिग ) हिंसिस्सु ( हिंसिसु ) (जम्बू०, शुब्रिग ) १०. चूर्णि की प्रतों में अर्वाचीन रूप भी मिलते हैं। आरंभमीणा ( आरंभमाणा), परिन्नाए (परिन्नाय) अवियाणए ( अविजाणए ), पिञ्छाए ( पिच्छाए ) लोयं ( लोगं); [जम्बू०, संस्करण] [ इससे यह सिद्ध होता है कि चूणि में सदैव प्राचीन और शुद्ध रूप ही मिलते हों, ऐसा नियम नहीं है।] ११. विविध सम्पादकों के लिये एक ही पाठ उपलब्ध सामग्री एवं विविध प्रतों के अनुसार प्राचीन या अर्वाचीन हो सकता है। १. श्री जम्बूविजयजी ने 'अणितियं' पाठ स्वीकृत किया है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा ५ 'पिछाए' पाठ श्री जम्बूविजयजी के लिए आचा० की प्राचीनतम ताडपत्र एवं चूर्णि का पाठ है, जबकि शुनिंग के लिए आचा० की अर्वाचीन प्रत एवं चूर्णि का पाठ है । १२. चूर्णि की विभिन्न प्रतों में विभिन्न पाठ मिलते हैं । पन्नाह ( शु० ), पण्णाणेहि ( जम्बू० ) १३. अलग-अलग सम्पादकों द्वारा अलग-अलग पाठ स्वीकृत किये गये हैंशुब्रिंग - 'विहित्तु' पृ० ३, पं० १०, पडिसंवेरुइ, पृ० १, पं० १८ जम्बू - 'विजहित्ता' पृ० ६, पं० २०, पडिसंवेदयति, पृ० ३, पं० ७ शुनिंग - समुट्ठाय, खेणे, अणेगा, अनिच्चयं जम्बू - समुट्ठाय, खेत्तण्णे, अणेगे', अणितियं १४. एक ही सम्पादक ने ध्वनि परिवर्तन के नियमों के अनुसार कभी प्राचीन तो कभी अर्वाचीन रूप स्वीकार किया है शुब्रिंग - अविजाणए पृ० २, पं० ३; ( पाठान्तर 'अवियाणए' ) विहित्तु पृ० ३, पं० १० ( पाठान्तर 'विजहित्ता' ) अब हम पुनः पू० जम्बूविजयजी के संस्करण के पाठों की समीक्षा करेंगे । श्री जम्बू विजयजी द्वारा स्वीकृत पाठों की समीक्षा वे सन्दर्भ जिनमें प्राचीन प्रतों में मध्यवर्ती मूल व्यञ्जन सुरक्षित होते हुए भी उसका परिवर्तित रूप स्वीकृत किया गया है : १. मूल अघोष के बदले घोष व्यञ्जन स्वीकृत ( क ) एगेसिं ' ( सूत्र १, १४, २५, पाठान्तर - एकेसि ) ( ख ) लोगावादी ( सूत्र ३, पाठान्तर लोकावादी, पुरानी प्रत शां० में 'लोयावादी' भी मिलता है | ) ( ग ) लोगंसि ( सूत्र ८, ९, पाठान्तर - लोकंसि ) (घ ) लोगं ( सूत्र २२, पाठान्तर - लोकं ) (ङ) एगे (सूत्र १२, पाठान्तर - एके ) १. श्री जम्बूविजयजी को यह पाठ स्वीकार्य है, जो शंदी प्रत में मिलता है । २. ऐसा जरूरी नहीं है कि मध्यवर्ती 'क' के लिए 'ग' वाला पाठ ही स्वीकृत किया जाना चाहिए। 'क' की यथावत् स्थिति, उसका घोष या लोप ( या 'य' श्रुति ) ये तीनों पाठ इस ग्रन्थ में लिए गये हैं । जैसे : ( अ ) एकयरं ( सूत्र ९६ ), णिकरणाए ( सूत्र ९७ ), पकरेंति ( सूत्र ६२ ) ( ब ) एगेसि ( सूत्र १ ), अणेग ( सूत्र ६ ), महारग ( सूत्र ४५ ), लोगंसि ( सूत्र ५ ) ( क ) लोए ( सूत्र १० ), पत्तेयं ( सूत्र ४९ ), उदय ( सूत्र २३ ) [ सूत्र ५२ में एक ही शब्द के दो रूप एक 'सदा' दोनों रूप एक साथ मिलते हैं । ] साथ मिलते हैं - वर्धेति, वहेंति । सूत्र ३३ में 'सता' और Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के० आर० चन्द्रा २. मूल घोष व्यञ्जन के बदले में अघोष ' व्यञ्जन का त्याग एवं लोप का स्वीकार - ( ) आयाणीयं ( सूत्र १४, ३६, ४४, ५२, पाठान्तर - आताणीयं ) (ख) पवयमाणा (सूत्र १२, पाठान्तर - पवतमाणा ) ३. ४. ५. मूल अघोष व्यञ्जन का घोष अस्वीकृत, परन्तु लोप स्वीकृत - ( ) उववाइए (सूत्र १, २, पाठान्तर - उववादिए ) ( ख ) सहसम्मुइयाए ( सूत्र २, पाठान्तर - सहसम्मुदियाए ) [ दिगम्बरों के प्राचीन शास्त्र की भाषा शौरसेनी है और उसमें 'त' का 'द' पाया है । 'त' का लोप तो बहुत बाद में हुआ है । अतः श्वेताम्बरों के अर्धमागधी आगम की भाषा क्या दिगम्बरों के आगमों से भी पश्चात्कालीन मानी जानी चाहिए ? ] मूल व्यञ्जन के बदले में लोप स्वीकृत - क. सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ ( सूत्र २, पाठान्तर - सव्वातो वा दिसातो सव्वात अणुदिसतो ) ख. अवियाणओ ( सूत्र ४९, पाठान्तर - अविजाणतो ) ग. कप्पइ कप्प णे पातुं ( सूत्र २७, पाठान्तर - कप्पति णे कप्पइ णे पातुं ) घ. सहसग्गुइयाए ( सूत्र २, पाठान्तर - सहसग्गुतियाए ) ङ. अहं ( सूत्र ४१, पाठान्तर - अधं ) प्राचीन के बदले अर्वाचीन रूप ( शब्द का ) स्वीकृत - १. 'त' श्रुति का प्रश्न :- मध्यवर्ती 'त' एवं 'थ' का क्रमशः 'द' एवं 'घ' में बदलना शौरसेनी एवं मागधी भाषा का लक्षण माना गया है। यह प्रवृत्ति महाराष्ट्री प्राकृत में होने वाले लोप से प्राचीन मानी गयी है । पैशाची प्राकृत में 'द' का 'त' में परिवर्तन होता है और यह प्रवृत्ति भी लोप से प्राचीन मानी गयी है । 'द' के 'त' में होने वाले परिवर्तन एवं मध्यवर्ती 'त' को सुरक्षित रखने वाली प्रवृत्ति को 'त' श्रुति नहीं कहा जा सकता। इन दो व्यञ्जनों के अतिरिक्त अन्य मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यब्जन के स्थान पर यदि 'त' आता हो तो उसे हो 'त' श्रुति कहा जायगा । जैसे: - धम्मतं ( धर्मकम्, सूत्र ४५ ), उपवादिते ( उपपातिके, सूत्र २ ), बाहिता ( बाह्यका, सूत्र ५६ ) इत्यादि 'त' श्रुति के उदाहरण हैं । सता ( सदा, सूत्र ३३), पवतमाण ( प्रवदमान, सूत्र १२ का पाठान्तर ) इत्यादि 'त' श्रुति के उदाहरण नहीं माने जाएँगे, परन्तु घोष व्यञ्जन का अघोष में परिवर्तन माना जायेगा । [ इधर इतना और स्पष्ट कर देना उचित होगा कि पू० जम्बूविजयजी ने 'तहा' और 'जहा' के बदले ताडपत्रीय प्रतों और चूर्णि में मिलने वाले 'तधा' और 'जवा' को छोड़ दिया है और उनके पाठान्तर भी क्वचित् ही दिये हैं (देखिए प्रस्तावना, पृ० ४४ ) । ऐसा करके उन्होंने प्राचीन रूप छोड़ दिये हैं और उनके बदले में अर्वाचीन रूपों को स्वीकार किया है । ] २. सूत्र नं. १ में ओ एवं तो ( पंचमी एकवचन की विभक्ति ) दोनों रूप एक साथ स्वीकृत किये गये हैं । सूत्र नं. २ में 'पुरत्थिमातो दिसातो' में 'दिसातो' का स्वीकृत पाठ किसी भी ताडपत्रीय प्रत का पाठ नहीं है । इसी तरह आगे इसी सूत्र में 'इमाओ दिसाओ' के बदले में कागज की जै० प्रत का पाठ 'इमातो दिसातो' क्यों छोड़ दिया गया है ? Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा क. अट्ठिमिजाए' ( सूत्र ५२, पाठान्तर-अट्ठिमिज्जाए) ६. प्राचीन के बदले अर्वाचीन रूप ( पद ) का स्वीकृत क. पण्णाणेणं ( सूत्र ६२, पाठान्तर-पण्णाणेण ) ख. समुट्ठाए (सूत्र १४, २५, ३६, ४०, ४४, ५२, ५९एवं ७०, ९५, १९३ में भी कुछ स्थलों के पाठान्तर 'समुट्ठाय' संदी०-प्रत को शुद्धतम माना गया है, उसमें भी 'समुट्ठाय' पाठ मिलता है।) ग. अणुपुव्वीए (सूत्र २३०, पृ० ८४, पं० १३, पाठान्तर-अणुपुत्वीयं; प्राकृत के व्याकरणकारों ने इस 'य' विभक्ति का उल्लेख नहीं किया है, परन्तु प्राचीन प्राकृत साहित्य में 'य' विभक्ति के कितने ही उदाहरण मिलते हैं और पालि भाषा में यह प्रचलित विभक्ति है।) ७. लेहिए की गलती से कभी-कभी भ्रम होने से पाठ बदल गया है और प्राचीन विभक्ति के बदले अर्वाचीन विभक्ति अपनायी गयी हो, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। क. अण्णयरम्मि ( सूत्र ९६, पृ० २८, पं० ११, पाठान्तर-अण्णयरसि ) यह पाठान्तर शुबिंग महोदय द्वारा दिये गये प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रत और चूर्णि में भी उपलब्ध है। प्रतों में 'स्सि' के बदले 'म्मि' की भ्रान्ति होती है, यदि अक्षर स्पष्ट नहीं हो । उदाहरण के तौर पर 'संपमारए' ( जम्बू० सूत्र १५, पृ० ५, पं० १७ एवं शुब्रिग० पृ० २, पं० ३० ) के बदले में शुकिंग के संस्करण में एवं प्राचीनतम ताडपत्र की प्रत में 'संपसारए' पाठ मिलता है और हिंसिसु ( अर्थात् 'हिंसिम्सु' ) के बदले में चूर्णि में 'हिंसिस्सु' ( जम्बू० सूत्र ५२, पृ० १४, पं० १ ) पाठ मिलता है । १. स्वीकृत "मिजाए' के बदले 'मिज्जाए' रूप प्राचीन है, जबकि इसी सूत्र नं. ५२ में पिछाए, पुंछाए' के बदले में 'पिच्छाए, पुच्छाए' रूप स्वीकृत किये गये हैं, तब फिर 'मिज्जाए' रूप क्यों छोड़ दिया गया ? २. तृतीया एकवचन की-एण विभक्ति-एणं से प्राचीन है और यह एण विभक्ति प्राचीनतम प्रत में मिलती है। ३. यह जरूरी नहीं कि सभी जगह एक ही रूप प्रयुक्त हुआ हो। खं० हे० ३ एवं ला० प्रतों में 'समुट्ठाय' मिलता है और सूत्र नं. ७० में तो संदी० प्रत में भी समुदाय ही मिलता है। संदी० प्रत शुद्धतम मानी गयी है ( देखिए पृ० ४१६ )। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुत्त या रामगुत्त : सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में ? . सागरमल जैन मधुसूदन ढाको सूत्रकृताङ्ग के तृतीय अध्ययन में कुछ महापुरुषों के नामों का उल्लेख पाया जाता है। उनमें रामगुत्त ( रामपुत्त) का भी नाम आता है।' डा० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' ने "सम् एथिकल आस्पेक्ट आफ महायान बुद्धिज्म ऐज़ डिपिक्टेड इन सूत्रकृताङ्ग" नामक अपने निबन्ध में सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में की है। समुद्रगुप्त के ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त ने चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त एवं प्रद्मप्रभ की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थीं, इस तथ्य की पुष्टि विदिशा के पुरातात्त्विक सङ्ग्रहालय में उपलब्ध इन तीर्थङ्करों की मूर्तियों से होती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि रामगुप्त एक जैन नरेश था, जिसकी हत्या उसके ही अनुज चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने कर दी थी। किन्तु सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त की पहचान गुप्त-सम्राट् समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त से करने पर हमारे सामने अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं। सबसे प्रमुख प्रश्न तो यह है कि इस आधार पर सूत्रकृताङ्ग की रचना-तिथि ईसा की चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं पाँचवीं शती के पूर्वार्द्ध तक चली जाती है, जबकि भाषा, शैली एवं विषयवस्तु सभी आधारों पर सूत्रकृताङ्ग ईसा पूर्व की रचना सिद्ध होता है। सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के पुत्र से करने पर या तो हमें सूत्रकृताङ्ग को परवर्ती रचना मानना होगा अथवा फिर यह स्वीकार करना होगा कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र रामगुप्त न होकर कोई अन्य रामगुप्त है । हमारी दृष्टि में यह दूसरा १. आहंसु महापुरिसा पुट्विं तत्ततवोधणा । उदएण सिद्धिमावन्ना तत्य मंदो विसीयति ।। अभुंजिया नमी विदेही रामगुत्ते य भुंजिया बाहुए उदगं भोच्चा तहा नारायणे रिसी आसिले देविले चेव दीवायण महारिसी पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य । -सूत्रकृताङ्ग, १.३.४.१-३ 8. Some Ethical Aspects of Mahayana Buddhism as Depicted in the Sutrakritanga, Page 2 ( यह लेख All India Seminar on Early Buddhism and MahayanaDeptt. of Pali and Buddhist Studies, B. H. U. Nov. 10 13, 1984 में पढ़ा गया था।) ३. भगवतोऽहतो चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता महाराजाधिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् । ४. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-१, पृ० ५१-५२ तथा सेक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट, भाग-२२, प्रस्तावना, पृ० ३१ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुत्त या रामगुत्त: सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में ? विकल्प ही अधिक युक्तिसङ्गत है । इस बात के भी यथेष्ट प्रमाण हैं कि उक्त रामगुप्त की पहचान इसि - भासिया के रामपुत्त अथवा पालि साहित्य के उदकरामपुत्त से की जा सकती है, जिनका उल्लेख हम आगे करेंगे | सर्वप्रथम हमें सूत्रकृताङ्ग में जिस प्रसङ्ग में रामगुप्त का नाम आया है, उस सन्दर्भ पर भी थोड़ा विचार कर लेना होगा । सूत्रकृताङ्ग में नमि, बाहुक, तारायण ( नारायण ), असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि ऋषियों की चर्चा के प्रसङ्ग में ही रामगुप्त का नाम आया है।' इन गाथाओं में यह बताया गया है कि नमि ने आहार का परित्याग करके, रामगुप्त ने आहार करके, बाहुक और नारायण ऋषि ने सचित्त जल का उपभोग करते हुए तथा देवल, द्वैपायन एवं पाराशर ने वनस्पति एवं बीजों का उपभोग करते हुए मुक्तिलाभ प्राप्त किया। साथ ही यहाँ इन सबको पूर्वमहापुरुष एवं लोकसम्मत भी बताया गया है । वस्तुतः यह समग्र उल्लेख उन लोगों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है, जो इन महापुरुषों का उदाहरण देकर अपने शिथिलाचार की पुष्टि करना चाहते हैं । इस सन्दर्भ में "इह सम्मता"" शब्द विशेष द्रष्टव्य है । यदि हम “इह सम्मता” का अर्थ - जिन प्रवचन या अर्हत्-प्रवचन में सम्मत - ऐसा करते हैं, तो हमें यह भी देखना होगा कि अर्हत्-प्रवचन में इनका कहाँ उल्लेख है और किस नाम से उल्लेख है ? इसिभासिया में इनमें से अधिकांश का उल्लेख है, किन्तु हम देखते हैं कि वहाँ रामगुप्त न होकर रामपुत्त शब्द है । इससे यह सिद्ध होता है कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुत्त समुद्रगुप्त का पुत्र न होकर रामपुत्त नामक कोई अर्हत् ऋषि था । यहाँ यह भी प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठाया जा सकता कि यह रामपुत्त कौन था ? पालि साहित्य में हमें रामपुत्त का उल्लेख उपलब्ध होता है । उसका पूरा नाम 'उदक रामपुत्त' है। महावस्तु एवं दिव्यावदान में उसे उद्रक कहा गया है । अङ्गुत्तरनिकाय के वस्सकारसूत्र ' में राजा इल्लेय के अङ्गरक्षक यमक एवं मोग्गल को रामपुत्त का अनुयायी बताया गया है । मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय और दीघनिकाय में भी उदकरामपुत्त का उल्लेख है ।" जातक में उल्लेख है कि बुद्ध ने उदकरामपुत्त से ध्यान की प्रकिया सीखी थी । यद्यपि उन्होंने उसकी मान्यताओं की समालोचना भी की है - फिर भी उनके मन में उसके प्रति बड़ा आदर था और ज्ञानप्राप्ति के बाद उन्हें धर्म के उपदेश योग्य मानकर उनकी तलाश की थी, किन्तु तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी । इन सभी आधारों से यह स्पष्ट है कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामपुत्त ( रामगुत्त ) १. सूत्रकृताङ्ग १. ३. ४. २-३ । २. एते पुच्वं महापुरिसा आहिता भोच्चा बीओदगं सिद्धा इति - सूत्रकृताङ्ग, १.३. ४. ४ । ३. रामपुत्तेण अरहता इसिणं बुझतं । - इतिभासियाई, २३ । ४. ये समणे रामपुत्त अभिप्पसन्ना - अङ्गुत्तर निकाय, ४।१९।७ । ५. मज्झिमनिकाय, २/४/५ संयुक्त निकाय, ३४/२/५/१० । ६. अथ खो भगवतो एतदहोसि - " कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं ? को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती 'ति ? अथ खो भगवतो एतदहोसि - "अयं खो उद्दको रामपुत्तो पण्डितो ब्यत्तो मेधावी दीघरतं अप्परजक्खजातिको; यन्नूनाहं उद्दकस्स रामपुत्तस्स पठमं धम्मं देसेय्यं, सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्तीति । अयं खो अन्तरहिता देवता भगवतो आरोचेसि - " अभिदोसकालंकतो, भन्ते, उद्दको रामतोति । भगवतो पिखो जणं उदपादि "अभिदोस कालंकतो उद्दको रामपुत्तो 'ति । - महावग्ग १ ६ १० r इह सम्मता । मेयमणुस्सुअ || Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरमल जैन, मधुसूदन ढाको वस्तुतः पालि साहित्य में वर्णित उदकरामपुत्त हो है--अन्य कोई नहीं। उदकरामपुत्त की साधनापद्धति ध्यान-प्रधान और मध्यममार्गी थी, ऐसा भी पालि साहित्य से सिद्ध होता है।' सूत्रकृताङ्ग में भी उन्हें आहार करते हुए मुक्ति प्राप्त करने वाला बताकर इसी बात की पुष्टि की गई है २ कि वह कठोर तप साधना का समर्थक न होकर मध्यममार्ग का समर्थक था। यही कारण था कि बुद्ध का उसके प्रति झुकाव था । पुनः सूत्रकृताङ्ग में इन्हें पूर्वमहापुरुष कहा गया है। यदि सूत्रकृताङ्ग के रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त से करते हैं तो सूत्रकृताङ्ग की तिथि कितनी भी आगे ले जायी जाय, किन्तु किसी भी स्थिति में वह उसमें पूर्वकालिक ऋषि के रूप में उल्लिखित नहीं हो सकता। साथ ही साथ यदि सूत्रकृताङ्ग का रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र रामगुप्त है तो उसने सिद्धि प्राप्ति की, ऐसा कहना भी जैन दृष्टि से उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी तक जैनों में यह स्पष्ट धारणा बन चुकी थी कि जम्बू के बाद कोई भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सका है, जबकि मूल गाथा में 'सिद्धा' विशेषण स्पष्ट है। पुनः रामगुप्त का उल्लेख बाहुक के पूर्व और नमि के बाद है, इससे भी लगता है कि रामगुप्त का अस्तित्व इन दोनों के काल के मध्य ही होना चाहिए। बाहुक का उल्लेख इसिभासियाइं में है और इसिभासियाइं किसी भी स्थिति में ईसा पूर्व की ही रचना सिद्ध होता है। अतः सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र नहीं हो सकता। पालि साहित्य में भी हमें 'बाहिय' या 'बाहिक' का उल्लेख उपलब्ध होता है, जिसने बुद्ध से चार स्मृति-प्रस्थानों का उपदेश प्राप्त कर उनकी साधना के द्वारा अर्हत् पद को प्राप्त किया था। पालि त्रिपिटक से यह भी सिद्ध होता है कि बाहिय या बाहिक पूर्व में स्वतन्त्र रूप से साधना करता था। बाद में उसने बुद्ध से दीक्षा ग्रहण कर अर्हत्-पद प्राप्त किया था। चूंकि बाहिक बुद्ध का समकालीन था, अतः बाहिक से थोड़े पूर्ववर्ती रामपुत्त थे । पुनः रामगुत्त, बाहुक, देवल, द्वैपायन, पाराशर आदि जैन परम्परा के ऋषि नहीं रहे हैं, यद्यपि नमि के वैराग्य-प्रसङ्ग का उल्लेख उत्तराध्ययन में है । इसिभासियाइं में जिनके विचारों का सङ्कलन हुआ है, उनमें पार्श्व आदि के एक दो अपवादों को छोड़कर शेष सभी ऋषि निग्रंन्थ परम्परा ( जैन धर्म ) से सम्बन्धित नहीं हैं। इसिभासियाई और सूत्रकृताङ्ग दोनों से ही रामगुत्त ( रामपुत्त) का अजैन होना ही सिद्ध होता है, न कि जैन । जबकि समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त स्पष्ट रूप से एक जैन धर्मावलम्बी नरेश है। सम्भवतः डा० भागचन्द्र अपने पक्ष की सिद्धि इस आधार पर करना चाहें कि सूत्रकृताङ्ग को मूल गाथाओं में "पुत्त" शब्द न होकर "गुत्त" शब्द है और सूत्रकृताङ्ग के टीकाकार शीलाङ्क ने भी उसे रामगुप्त ही कहा है, रामपुत्त नहीं, साथ ही उसे राजर्षि भी कहा गया है, अतः उसे राजा होना चाहिए। किन्तु हमारी दृष्टि से ये तर्क बहत सबल नहीं हैं। प्रथम तो यह कि राजर्षि विशेषण नमि एवं रामगुप्त ( रामपुत्त) दोनों के सम्बन्ध में लागू हो सकता है और यह भी सम्भव है कि नमि के समान रामपुत्त भी कोई राजा रहा हो, जिसने बाद में श्रमण दीक्षा अङ्गीकार कर ली । पुनः हम यदि चूणि की ओर जाते हैं, जो शीलाङ्क के विवरण की पूर्ववर्ती हैं, उसमें स्पष्ट रूप से 'रामाउत्ते' ऐसा पाठ है, न कि 'रामगुत्ते' । इस आधार पर भी रामपुत्त ( रामपुत्र ) की अवधारणा १. मज्झिम निकाय, २।४।५; २।५।१०। २. सूत्रकृताङ्ग, १।३।४।२ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामपुत्त या रामगुत्त : सूत्रकृताङ्ग के सन्दर्भ में ? सुसङ्गत बैठती है । इसिभासियाई की भूमिका में भी सूत्रकृताङ्ग के टीकाकार शीलाङ्क ने जो रामगुप्त पाठ दिया है, उसे असङ्गत बताते हुए शूब्रिङ्ग ने 'रामपुत्त' इस पाठ का ही समर्थन किया है।' यद्यपि स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार अन्तकृतदशा के तीसरे अध्ययन का नाम 'रामगुत्ते' है। किन्तु प्रथम तो वर्तमान अन्तकृतदशाङ्ग में उपलब्ध अध्ययन इससे भिन्न है, दूसरे यह भी सम्भव है कि किसी समय यह अध्ययन रहा होगा और उसमें रामपुत्त से सम्बन्धित विवरण रहा होगा-यहाँ भी टीकाकार की भ्रान्तिवश ही 'पुत्त' के स्थान पर गुत्त हो गया है । टीकाकारों ने मूल पाठों में ऐसे परिवर्तन किये हैं। ___इन सब आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामपुत्त ( रामगुप्त ) समुद्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त न होकर पालि त्रिपिटक साहित्य में एवं इसिभासियाइं में उल्लिखित रामपुत्त ही है, जिससे बुद्ध ने ध्यान-प्रक्रिया सीखी थी। १. Isibhasiyaim (A Jaina Text of Early Period), Introduction, p. 4 (Published by L. D Institute of Indology, Ahmedabad). २. अंतगड़दसाणं दस अज्झयणा पण्णता, तं जहा नमि मातंगे सोमिले, रामगुत्ते सुदंसणे चेव । जमाली य भगाली य, किंकिमे पल्लए इ य ॥१॥ फाले अंबड़पुते य, एमए दस आहिया । -स्थानाङ्गसूत्र, ७५५ । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न कानजी भाई पटेल अनुयोगद्वार-सूत्र ( सङ्कलन लगभग ५वीं शताब्दी ) के सूत्र ५ में सूत्रकार ने आवश्यक का अनुयोग प्रस्तुत करने की बात कही है। अतः ऐसा लगता है कि इस सूत्र में आवश्यक की व्याख्या होगी। परन्तु समग्र ग्रन्थ के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि अनुयोगद्वार-सूत्र पदार्थ की व्याख्यापद्धति का निरूपण करने वाला ग्रन्थ है। नाम के अनुसार उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय इन चार द्वारों का निरूपण इसमें हुआ है । आवश्यक-सूत्र के पदों की व्याख्या इसमें नहीं हुई है। आवश्यकानुयोग के सन्दर्भ में सूत्रकार ने प्रथमतः आभिनिबोधिक आदि पाँच ज्ञान का निरूपण कर अनुयोग के लिये श्रुतज्ञान ही योग्य है, ऐसा कहकर उसका महत्त्व प्रदर्शित किया है। श्रुतज्ञान के ही उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग हो सकते हैं, जबकि शेष चार ज्ञान असंव्यवहार्य हैं । परोपदेश के लिये अयोग्य होने से इन चार के माध्यम से अनुयोग होना सम्भव नहीं है। उक्त चार ज्ञानों के स्वरूप का वर्णन भी श्रुतज्ञान द्वारा ही होता है। इस प्रकार ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही अङ्गप्रविष्ट, अङ्गबाह्य, कालिक, उत्कालिक, आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त में आवश्यक का स्थान कहाँ है, यह बताने के लिये आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान का उल्लेख किया गया है। तदनन्तर सूत्र ४६६ से ४७० तक में ज्ञान-प्रमाण के विवेचन में ज्ञान के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इस प्रकार चार भेद बताये हैं । ज्ञान-प्रमाण की विवेचना में अनुयोगद्वार-सूत्रकार को पाँच ज्ञानों को ही प्रमाण के भेदों के रूप में बताना चाहिये था, किन्तु ऐसा न करके सूत्रकार ने प्रथम तो नैयायिकों में प्रसिद्ध चार प्रमाणों को ही प्रमाण के भेद के रूप में बताया है। तत्पश्चात् पाँच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और आगमइन दो प्रमाणों में समाविष्ट किया है। वस्तुतः अनुयोगद्वार-सूत्रकार का यह अभिमत रहा है कि अन्य दार्शनिक जिन प्रत्यक्षादि चार प्रमाणों को मानते हैं, वे ज्ञानात्मक हैं, आत्मा के गुण हैं। ___ अनुयोगद्वार-सूत्र में इन पाँच ज्ञानों के स्वरूपों की चर्चा नन्दी-सूत्र की भाँति प्रत्यक्ष एवं परोक्ष के रूप में विभाजन करके नहीं की गई है। वस्तुतः अनुयोगद्वार-सूत्र में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा सबसे निराली है। आगमों में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा के विकास की जो तीन भूमिकाएँ हैं, इनमें से एक भी अनुयोगद्वार-सूत्र में देखने को नहीं मिलती है। ज्ञान के स्वरूप की चर्चा का विकासक्रम --ज्ञान के स्वरूप की चर्चा के विकास-क्रम को आगमों के ही आधार पर देखें, तो उसकी तीन भूमिकाएँ स्पष्ट हैं, यथा१. प्रथम भूमिका वह, जिसमें ज्ञान को पाँच भेदों में विभक्त किया गया है। २. द्वितीय भूमिका में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ऐसे दो विभाग कर मति एवं श्रत को परोक्ष तथा शेष तीन-अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान के अन्तर्गत माना गया है। यहाँ अन्य दर्शनों की तरह इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं माना गया है, Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न जो ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त अन्य साधनों को अपेक्षा रखता है, उसका जैन सिद्धान्तानुसार परोक्षज्ञान में समावेश किया गया है। ३. इन्द्रियजन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों में स्थान दिया गया है। यह तृतीय भूमिका है। इन तीन भूमिकाओं में से किसी भी एक का अनुसरण अनुयोगद्वार में नहीं किया गया है, तथापि वह तीसरी भूमिका के अधिक निकट है। प्रथम प्रकार का वर्णन हमें भगवतीसूत्र में (८८-२-३१७ ) मिलता है, जिसमें ज्ञान के पाँच भेद कर आभिनिबोधिक के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार भेद बताये गये हैं। स्थानाङ्ग में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा द्वितीय भूमिका के अनुसार है। उसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ऐसे दो भेद कर उनमें पाँच ज्ञानों की योजना की गई है। निम्न तालिका से यह बात स्पष्ट हो जाती है, इसमें ज्ञान के मुख्य दो भेद किये गये हैं, पाँच नहीं। मुख्य दो भेदों में ही पाँच ज्ञानों का समावेश किया गया है । यह स्पष्टतः प्रथम भूमिका का विकास है। पं० दलसुखभाई मालवणिया के मतानुसार इस भूमिका के आधार पर उमास्वाति ने प्रमाणों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ऐसे दो भेदों में विभक्त कर, उन्हीं दो में पाँच ज्ञानों का समावेश किया है। ज्ञान १ प्रत्यक्ष २परोक्ष १ केवल २ नोकेवल १ आभिनिबोधिक २ श्रुतज्ञान १ अवधि २ मनःपर्याय १भवप्रत्यायिक २क्षायोपशमिक १ श्रुतनिःसृत २ अश्रुतनिःसृत १ अर्थावग्रह २ व्यञ्जनावग्रह | २ विपुलमति १अर्थावग्रह २व्यञ्जनावग्रह | १ ऋतुमति . १ अङ्गप्रविष्ट २ अङ्गबाह्य १ आवश्यक २ आवश्यक-व्यतिरिक्त १ कालिक २ उत्कालिक Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ कानजी भाई पटेल नन्दी सूत्र में ज्ञान चर्चा की तृतीय भूमिका व्यक्त होती है, इस प्रकार है ज्ञान [ १ आभिनिबोधिक, २ श्रुत, । ३ अवधि ४ मनः पर्याय ५ केवल ] इन्द्रिय प्रत्यक्ष १ श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष २ चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष ३ घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष ४ जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष ५ स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यक्ष हा अवग्रह प्रत्यक्ष नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष आभिनिबोधिक १ अवधि २ मनःपर्याय श्रुतः निसृत ३ केवल व्यञ्जनावग्रह अर्थावग्रह अवाय धारणा अश्रुतनिःसृत परोक्ष 1 औत्पत्तिकी वैयक कर्मजा पारिणामिकी प्रस्तुत तालिका से स्पष्ट है कि नन्दीसूत्र में प्रथम तो ज्ञान के पाँच भेद किये गये हैं । पुनः उनको प्रत्यक्ष और परोक्ष - ऐसे दो भेदों में वर्गीकृत किया गया है । स्थानाङ्ग से इसकी विशेषता यह है कि इसमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञान का स्थान प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों में है। जैनेतर सभी दर्शनों में इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष नहीं, अपितु प्रत्यक्ष माना गया है। इस लौकिक मत का नन्दीसूत्रकार ने समन्वय किया है | आचार्य जिनभद्र ने इन दोनों का समन्वय कर यह स्पष्ट किया है कि इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए अर्थात् लोकव्यवहार के आधार पर इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है। वस्तुतः वह परोक्ष ज्ञान ही है । प्रत्यक्ष ज्ञान तो अवधि, मनःपर्याय तथा केवल ज्ञान ही है। आचार्य अकलङ्क और उनके परवर्ती जैनाचार्यों ने ज्ञान के व्यावहारिक और पारमार्थिक -- ऐसे दो भेद किये हैं, जो मौलिक नहीं हैं, परन्तु उनका आधार नन्दोसूत्र और जिनभद्रकृत स्पष्टीकरण है । श्रुत इस प्रकार अनुयोगद्वार - सूत्र की ज्ञान के स्वरूप की चर्चा नन्दी -ज्ञान सम्मत चर्चा से भिन्न है | इसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष - ऐसे दो भेद नहीं अपितु प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चार भेदों की चर्चा मिलती है । यहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद किये गये हैं- इन्द्रिय- प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय- प्रत्यक्ष । इन्द्रिय- प्रत्यक्ष में नन्दी की भाँति ही श्रोत्रेन्द्रिय- प्रत्यक्ष इत्यादि पाँच ज्ञानों का समावेश होता है और नोइन्द्रिय- प्रत्यक्ष में अवधिज्ञान, मनःपर्याय और केवल ज्ञान को समाविष्ट किया गया है। श्रुत को आगम में रखा है । नन्दी - सूत्र और अनुयोगद्वार में मुख्य अन्तर यह है कि नन्दी-सूत्र में श्रोत्रेन्द्रिय आदि को सिर्फ प्रत्यक्ष माना है और उसमें पाँच ज्ञान तथा दो प्रमाणों का लगभग समन्वय हो जाता है, जबकि अनुयोगद्वार सूत्र में अनुमान और उपमान को कौन सा ज्ञान कहना, यह एक प्रश्न रहता है। निम्न तालिका से यह बात स्पष्ट हो जाती है Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न जीव के गुण १ज्ञान २ दर्शन ३ चारित्र २ अनुमान १ प्रत्यक्ष २ अनुमान ३उपमान ४आगम १ इन्द्रिय प्रत्यक्ष २ नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष १पूर्ववत् २शेषवत् ३दृष्टसा-लौकिक २ लोकोत्तर १ श्रोत्रेन्द्रिय प्र० १ अवधिज्ञान प्र० (वेद, रामायण) (आचाराङ्ग २ चक्षरिन्द्रिय प्र. २ मनःपर्यायज्ञान प्र० महाभारतादि आदि १२ अङ्ग) ३ घ्राणेन्द्रिय प्र० ३ केवलज्ञान प्र० Fqw0 जिह्वेन्द्रिय ० ५ आश्रयेण । . ५ स्पर्शेन्द्रिय प्र० १साधोपनीत २ वैधोपनीत १ कार्येण २कारणेन ३ गुणेन ४ अव्ययेन ५ आश्रयेण | १ किञ्चिसाधो - १ किश्चिद्वैधर्म्य १ सामान्यदृष्ट २ विशेषदृष्ट २ प्रायःसाधोपनीत २ प्रायःवैधयं ३ सर्वसाधोपनीत ३ सर्ववैधयं पनातोपनीत २ प्राय १ अतीतकालग्रहण २ प्रत्युत्पन्नकालग्रहण ३ अनागतकालग्रहण ज्ञान-चर्चा को आगमिक और ताकिक पद्धतियाँ-ज्ञान-चर्चा की उपर्युक्त तीन भूमिकाओं में से पहली आगमिक और अन्य दो तार्किक पद्धतियाँ हैं । ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय तथा केवलज्ञान-ऐसे पाँच भेद करने की पद्धति को दो कारणों से आगमिक कहा गया है, यथा१. इसमें किसी भी जैनेतर दर्शन में प्रयुक्त नहीं हुए ऐसे पाँच ज्ञानों का निरूपण हुआ है। २. जैनश्रुत में कर्मप्रकृतियों का जो वर्गीकरण है, उसमें ज्ञानावरणीय कर्म के विभाग के रूप में मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय-ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। प्रत्यक्षावरण, परोक्षावरण, अनुमानावरण, उपमानावरण, आगमावरण आदि शब्दों का प्रयोग देखने को नहीं मिलता। ज्ञान प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ये दो भेद तथा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम आदि चार भेद करने की पद्धति को तार्किक पद्धति कहने के पीछे भी दो कारण हैं१. उसमें प्रायोजित प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान आदि शब्द न्याय, बौद्ध आदि जैनेतर दर्शनों में भी प्रचलित हैं। २. प्रत्यक्ष, परोक्ष इत्यादि रूप में ज्ञान-वृत्ति का पृथक्करण करने में तर्कदृष्टि प्रधान है। मूल आगमों से लेकर उपाध्याय यशोविजयजी के ग्रन्थों तक ज्ञान-निरूपण-विषयक समग्र श्वेताम्बर, दिगम्बर वाङ्मय में आगमिक एवं तार्किक दोनों पद्धतियों को स्वीकार किया गया है। इन दोनों में आगमिक पद्धति अति प्राचीन लगती है, यद्यपि दूसरी तार्किक पद्धति भी जैन वाङ्मय में प्राचीन काल से अस्तित्व में है। परन्तु दार्शनिक सङ्घर्ष तथा तर्कशास्त्र के परिशीलन के Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानजी भाई पटेल परिणामस्वरूप ही उसे योग्य रूप में स्थान मिला है, ऐसा प्रतीत होता है। मूल आगमों में से भगवतीसूत्र में आगमिक पद्धति की, स्थानाङ्ग में तार्किक पद्धति के दोनों प्रकारों की, नन्दी में द्विभेदी तार्किक पद्धति की और अनुयोगद्वार में चतुर्विध तार्किक पद्धति की चर्चा है। किन्तु नन्दी और अनयोगद्वार की पद्धति को तर्कमिश्रित आगमिक ज्ञान-पद्धति कहना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्ष के व्यावहारिक और पारमार्थिक भेदों के प्रथम भेद में मतिज्ञान को रखकर तथा दूसरे विभाग में अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान को और परोक्षज्ञान में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, आगम आदि को रख कर एक शुद्ध तार्किक पद्धति का विनियोग किया जा सकता है। ज्ञान एवं प्रमाण के समन्वय का अभाव मूल आगमों में आगमिक एवं तार्किक इन दोनों पद्धतियों से समग्र ज्ञान-वृत्ति का निरूपण हुआ है, तथापि इन दो पद्धतियों का परस्पर समन्वय हुआ दिखाई नहीं देता। भद्रबाहुकृत दशवैकालिक नियुक्ति के प्रथम अध्ययन में न्याय-प्रसिद्ध परार्थ-अनुमान का वर्णन जैन दृष्टि से किया गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि नियुक्तिकार के पूर्व तार्किक पद्धति जैनशास्त्र में स्थान प्राप्त कर चुकी होगी, तथापि नियुक्ति तक में इन दो पद्धतियों का समन्वय देखने को नहीं मिलता। जैन आगमिक आचार्यों ने प्रमाण-चर्चा को ज्ञान-चर्चा से भिन्न रखा है । आगमों में जहाँ ज्ञान की चर्चा आती है, वहाँ प्रमाण अप्रमाण के साथ ज्ञान का सम्बन्ध बताने का प्रयास नहीं हुआ है और जहाँ ज्ञान की चर्चा हुई है, वहाँ प्रमाण को ज्ञान कहने पर भी प्रमाण में आगम प्रसिद्ध पाँच ज्ञानों का समावेश और समन्वय कैसे हुआ, यह नहीं बताया गया अर्थात् आगमिकों ने जैनशास्त्र में प्रसिद्ध ज्ञान-चर्चा और दर्शनान्तर में प्रसिद्ध प्रमाण-चर्चा का समन्वय करने का प्रयत्न नहीं किया है। अनुयोग और नन्दी में ज्ञान एवं प्रमाण के समन्वय का अस्पष्ट सूचन ___ अनुयोगद्वार में इन दो पद्धतियों के समन्वय का सङ्केत मिलता है । नन्दीसूत्र में भी ऐसा प्रयत्न दिखाई देता है, तथापि दोनों की पद्धतियाँ भिन्न हैं। अनुयोगद्वार में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चार प्रमाणों के उल्लेख के साथ प्रथम भूमिका निश्चित की गयी है। पूर्व प्रस्तुत तालिका में प्रत्यक्ष ज्ञान-प्रमाण के दो भेद किये गये हैं, यथा-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष में श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रियइन पाँच प्रकार के प्रत्यक्षों का समावेश हुआ है। उसी प्रकार नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रमाण में जैनशास्त्रप्रसिद्ध तीन प्रत्यक्षों का समावेश हुआ है- अवधिज्ञान प्रत्यक्ष, मनःपर्यायज्ञान प्रत्यक्ष और केवलज्ञान प्रत्यक्ष । इस प्रकार यहाँ प्रत्यक्ष के दो विभागों में से एक विभाग में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष मान्य रखा है और दूसरे विभाग में अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। श्रुतज्ञान को आगम में रखा है। ___नन्दीसूत्र में भी अनुयोगद्वार की तरह ही समन्वय का प्रयत्न हुआ है। परन्तु उसकी पद्धति अलग है। उसमें प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ऐसे दो भेद बताये हैं । पुनः प्रत्यक्ष को दो उपविभागों में विभाजित कर, प्रथम विभाग में श्रोत्रेन्द्रिय आदि मतिज्ञान के पाँच प्रकारों को और दूसरे विभाग में अवधि आदि तीन ज्ञानों को वर्गीकृत किया है; परन्तु आगे जहाँ परोक्ष के भेदों का वर्णन हुआ है, वहाँ नन्दीकार ने श्रुतज्ञान के साथ-साथ मतिज्ञान ( आभिनिबोधिक ) का भी परोक्ष प्रमाण के रूप में वर्णन किया है। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न इस प्रकार जहाँ अनुयोगद्वारसूत्र में चतुर्विध प्रमाण और पाँच ज्ञान का समन्वय हुआ है, वहीं नन्दीसूत्र में द्विविध प्रमाण एवं पाँच ज्ञान का समन्वय हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है । जैन परम्परानुसार इन्द्रियजन्य ज्ञान, परोक्ष ज्ञान कहा जाता है । जेनेतर अन्य दर्शनों ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष नहीं, अपितु प्रत्यक्ष माना है। इस लौकिक मतानुसरण द्वारा अनुयोगद्वार तथा नन्दीसूत्र में मतिज्ञान ( इन्द्रियजन्य मतिज्ञान ) को प्रत्यक्ष के एक भाग के रूप में वर्णित करके लोकमान्यता को स्वीकृति दी गई तथा अन्यान्य दर्शनों से विरोध-भाव भी कम हुआ, परन्तु इससे प्रमाण एवं ज्ञान के समन्वय का विचार स्पष्ट और असन्दिग्ध न हुआ । लौकिक और आगमिक विचार का समन्वय करते समय अनुयोगद्वार में मतिज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया (जिसको परवर्ती प्रमाण-मीमांसकों ने सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है ) । श्रुतज्ञान को आगम में रखा और अवधिज्ञान, मनःपर्याय तथा केवलज्ञान को पुनः प्रत्यक्ष प्रमाण कहा । परन्तु मनोजन्य मतिज्ञान को कौन-सा प्रमाण कहना तथा प्रमाण-पक्ष की दृष्टि से अनुमान और उपमान को कौन से ज्ञान कहना, यह बात स्पष्ट नहीं हुई। यह बात निम्न समीकरण से स्वयं स्पष्ट हैज्ञान प्रमाण १. (अ) इन्द्रियजन्यमतिज्ञान = प्रत्यक्ष (ब) मनोजन्यमतिज्ञान २. श्रुत आगम ३. अवधि । ४. मनःपर्याय । प्रत्यक्ष ५. केवल अनुमान आगम पूर्ण समन्वय कैसे हो? न्यायशास्त्रानुसार मानस-ज्ञान के दो प्रकार हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । सुख-दुःखादि विषयों से सम्बन्धित मानसज्ञान प्रत्यक्ष तथा अनुमान, उपमानादि से सम्बन्धित मानसज्ञान परोक्ष कहा जाता है। अतः मनोजन्यमतिज्ञान, जो जैन मतानुसार परोक्ष है, में अनुमान और उपमान को समाहित कर लेना अधिक समीचीन है। ऐसा करने से पाँच ज्ञान और चार प्रमाणों का समन्वय हो जाता है। परन्तु अनुयोगद्वार के रचयिता यहाँ एक कदम पीछे रहे हैं । नन्दीकार ने उसका सङ्केत तो दे दिया है, परन्तु वह इतना स्पष्ट नहीं है। मतिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दोनों में गिनाया है। वस्तुतः इन्द्रियजन्यमतिज्ञान को प्रत्यक्ष में और मानसमतिज्ञान को परोक्ष में गिना जाय तो विवाद ही समाप्त हो जाये । वास्तव में अनुमान आदि मानसज्ञान परोक्ष ही हैं, परन्तु इन्द्रियजन्यमतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहना तो लौकिक मान्यता का अनुसरण ही है। प्रमाण और पञ्चविध ज्ञान का समन्वय जैनदृष्टि से प्रमाण और पाँच ज्ञानों की अवधारणा में स्पष्ट समन्वय करने का प्रयत्न उमास्वाति ने किया है। ज्ञान के मति, श्रुत आदि पाँच भेद बताकर तार्किक पद्धति की दृष्टि से Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानजी भाई पटेल उन्होंने प्रथम दो ज्ञानों को परोक्ष और शेष तीन को प्रत्यक्ष कहा है। यद्यपि उन्होंने अपने तत्वार्थभाष्य में 'चतुर्थविधमित्यके' कहकर चार प्रमाणों का अभिमत दिया है। परन्तु जिस प्रकार पाँच ज्ञान को परोक्ष एवं प्रत्यक्ष-इन दो प्रमाण-भेदों में सूत्र द्वारा माना गया है, उसी प्रकार इन पाँच ज्ञान को प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चार प्रमाणों में नहीं माना गया है । भाष्य में भी इसका उल्लेख नहीं है। इसका कारण यह हो सकता है कि प्रमाण के दो भेदों की प्रथम प्रकार की तार्किक पद्धति ही जैन दर्शन को विशेष अनुकूल है। चार प्रमाणों की दूसरी ताकिक पद्धति आगम में निर्दिष्ट होने पर भी मूलतः यह दूसरे दर्शनों की है। तत्त्वार्थसूत्र की तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के प्रथम प्रकरण में मति और श्रुत को परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष रूप में वर्णित किया है। इस प्रकार आगमिक और तार्किक पद्धति के द्विविध प्रमाण का समन्वय हुआ है, परन्तु चतुर्विध वर्गीकरण का दूसरा प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है। जैनेतर दार्शनिक विद्वान् इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं, जबकि जैन विद्वान् मति एवं श्रुत दोनों को परोक्ष कहते हैं। इसका पूर्णतः समाधान न तो उमास्वाति और कुन्दकुन्द ने ही किया और न नन्दीसूत्रकार और अनुयोगद्वार-सूत्रकार ने ही किया। इस बात का स्पष्ट निराकरण परवर्ती श्वेताम्बर आचार्यों में सर्वप्रथम जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और दिगम्बर आचार्यों में भट्टारक अकलङ्क ने किया है। क्षमाश्रमण ने अपने विशेषावश्यक में उक्त प्रश्न का निराकरण करते हुए कहा है कि इन्द्रियजन्य मतिज्ञान, जो प्रत्यक्ष कहा गया है, उसे सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष समझना चाहिए। भट्टारक अकलङ्क ने अपनी लघीयस्त्रयी में स्पष्टतः उल्लेख किया है कि प्रत्यक्ष के मुख्य और सांव्यावहारिक-ऐसे दो भेद हैं । उसमें अवधि आदि तीन ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष और इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष समझना चाहिए। दोनों के कथन का स्पष्ट आशय यही है कि जैन दर्शन ने तात्त्विक दृष्टि से अवधि, मनःपर्याय और केवल-इन तीन ज्ञान को प्रत्यक्षरूप में माना है। मति और श्रुत वस्तुतः परोक्ष होने पर भी उनमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है पर यह तात्त्विक दृष्टि से नहीं, इसमें लोकव्यवहार की स्थूल दृष्टि ही है। तात्त्विक दृष्टि से तो, यह ज्ञान श्रुतज्ञान की तरह परोक्ष ही है। इन दोनों आचार्यों का यह स्पष्टीकरण इतना असन्दिग्ध है कि आज तक के परवर्ती किसी ग्रन्थकार ने उसमें संशोधन या परिवर्धन करने की आवश्यकता नहीं समझी। क्षमाश्रमण के बाद प्रस्तुत विषय के श्वेताम्बर अधिकारी विद्वानों में चार आचार्य उल्लेखनीय हैं-जिनेश्वर, वादिदेवसूरि, आचार्य हेमचन्द्र और उपाध्याय यशोविजय । भट्टारक अकलङ्क के पश्चात् दिगम्बर आचार्यों में माणिक्यनन्दि, विद्यानन्दि आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । दोनों ही सम्प्रदायों के इन आचार्यों ने अपनी-अपनी प्रमाणमीमांसा-विषयक कृतियों में बिना किसी परिवर्तन के लगभग एक ही प्रकार से अकलङ्ककृत शब्द-योजना पर ही ज्ञान का वर्गीकरण स्वीकार किया है । इन सभी ने प्रत्यक्ष के मुख्य और सांव्यावहारिक, यह दो भेद किये हैं। मुख्य में अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को और सांव्यावहारिक में मतिज्ञान को लिया है। परोक्ष के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम इन पाँच भेदों में प्रत्यक्ष को छोड़कर सभी प्रकार के ज्ञान के भेदोपभेदों को समाहित कर लिया है। इस प्रकार ज्ञान एवं प्रमाण का सम्पूर्ण समन्वय सिद्ध होता है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य में ज्ञान और प्रमाण के समन्वय का प्रश्न सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची १. दलसुखभाई मालवणिया-आगमयुग का जैनदर्शन, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा २. सिद्धसेन-सन्मति प्रकरण-पं० सुखलालजी, ज्ञानोदय ट्रस्ट ३. सिद्धसेन-न्यायावतार, प्रस्तावना-पं० सुखलालजी ४. उमास्वाति-तत्त्वार्थसूत्र-पं० सुखलालजी, जैन साहित्य प्रकाशन समिति, अहमदाबाद ५. पं० अमृतलाल भोजक-अनुयोगद्वारसूत्र, महावीर जैन विद्यालय ६. अमोलक ऋषि-नन्दिसूत्र, सुखदेव सहाय ज्वाला प्रसाद जोहरी, हैदराबाद ७. कुन्दकुन्दाचार्य-प्रवचनसार, श्रीमद् राजचन्द्र ग्रन्थमाला ८. जैनभद्रक्षमाश्रमण-विशेषावश्यकभाष्य, ला० द० ग्रन्थमाला ९. यशोविजयजी-जैन तर्कभाषा-सिन्धी जैन ग्रन्थमाला १०. अकलङ्क-अकलङ्कग्रन्थत्रय-सिन्धी जैन ग्रन्थमाला ११. अकलह-तत्त्वार्थवातिक भाग-१-२, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १२. माणिक्यनन्दि-परीक्षामुख, पं० घनश्यामदास जैन, स्या० म०, काशी १३. विद्यानन्दि-प्रमाणपरीक्षा, सनातन जैन ग्रन्थमाला १४. कणाद-वैशेषिकदर्शन, चौखम्बा सं० सी० १५. देवसूरि-प्रमाणनयनतत्त्वालोक, अहंतमत प्रभाकर कार्यालय, पूना १६. अक्षपाद-न्यायसूत्र, चौखम्बा सं० सी० १७. अमोलकऋषि-भगवतीसूत्र, सुखदेव सहाय ज्वाला प्रसाद जौहरी, हैदराबाद Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में भिखारी राम यादव हमारी भाषा विधि' और 'निषेध' से आवेष्टित है । हमारे सभी प्रकथन 'है' और 'नहीं है' इन दो ही प्रारूपों में अभिव्यक्त होते हैं। भाषाशास्त्र प्रकथन के 'विधि' और 'निषेध' इन दो ही मानदण्डों को अपनाता है। किन्तु जैनदर्शन 'विधि' 'निषेध' के अतिरिक्त एक तीसरे विकल्प को भी मानता है, जिसे अवक्तव्य कहते हैं। जैनदर्शन की अवधारणा है कि वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक हैं। प्रत्येक वस्तु सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि विरुद्ध धर्मों का पुंज है। इन परस्पर विरुद्ध धर्मों का युगपत् प्रतिपादन 'विधि' और 'निषेध' रूपों से असम्भव है, क्योंकि भाषा में ऐसा कोई क्रियापद नहीं है, जो वस्तु के किन्हीं दो धर्मों का युगपत् प्रतिपादन कर सके । इसीलिए जैनदर्शन में एक तीसरे विकल्प की कल्पना की गयी है, जिसे 'अवक्तव्य' कहा जाता है। इस प्रकार स्यादस्ति (विधि), स्यान्नास्ति (निषेध) और स्यात् अवक्तव्य (अवाच्य)-ये जैन दर्शन के तीन मौलिक भंग हैं। इन्हीं तीन मूलभूत भङ्गों से जैनदर्शन में चार यौगिक भङ्ग तैयार किये गये हैं। तीन मूल और चार यौगिक भङ्गों को मिलाने से सप्तभङ्गी बनती है, जो निम्न हैं १. स्यात् अस्ति। २. स्यात् नास्ति । ३. स्यात् अस्ति च नास्ति । ४. स्यात् अवक्तव्य ५. स्यात् अस्ति च अवक्तव्य । ६. स्यात् नास्ति च अवक्तव्य । ७. स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य । अब प्रश्न यह है कि क्या सप्तभङ्गी के ये सातों भङ्ग तर्कतः सत्य हैं ? क्या इनकी सत्यता, असत्यता जैसी दो ही कोटियाँ हो सकती हैं, जैसा कि सामान्य तर्कशास्त्र मानता है ? क्या ये तार्किक प्रारूप (Logical Form) हैं ? क्या इन भङ्गों का मूल्यांकन संभव है ? आदि । किन्तु इतना तो निर्विरोध सत्य है कि जैन-सप्तभङ्गी एक तार्किक प्रारूप है। उसके प्रत्येक भङ्ग में कुछ न-कुछ मूल्यवत्ता है । इसलिए सप्तभङ्गी की आधुनिक बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में विवेचना आवश्यक है। सर्वप्रथम, सप्तभङ्गी द्वि-मूल्यात्मक (Two-valued) नहीं है। इसलिए इसका विवेचन द्वि-मल्यीय तर्कशास्त्र (Two-valued Logic) के आधार पर करना असंभव है; क्योंकि द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र सत्य और असत्य (Truth and False) ऐसे दो सत्यता मूल्यों पर चलता है। जबकि जैन-सप्तभंगी में असत्यता (Falsity) की कल्पना नहीं है, यद्यपि उसके प्रत्येक भङ्ग में आंशिक सत्यता है, किन्तु उसका कोई भी भङ्ग पूर्णतः असत्य नहीं है । दूसरे, द्वि-मूल्यीय तर्कशास्त्र के दोनों मानदण्ड निरपेक्ष हैं, किन्तु जैन तर्कशास्त्र इस धारणा के विपरीत है अर्थात् जैन तर्कशास्त्र के अनुसार जो Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सप्तमजी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में २१ भी कथन निरपेक्ष होगा, वह असत्य हो जायेगा । इसीलिए जैन तर्कशास्त्र केवल सापेक्ष कथन को ही सत्य मानता है। वस्तुतः सप्तभङ्गी के प्रत्येक भङ्ग सापेक्ष हैं, इसलिए सप्तभङ्गी में जो भी मूल्यवत्ता निर्धारित होगी, वह सापेक्ष होगी। ___इस प्रकार सप्तभङ्गी द्विमूल्यात्मक नहीं है। किन्तु क्या वह त्रि-मूल्यात्मक है ? ऐसा कहना भी ठीक नहीं लगता कि सप्तभङ्गी त्रि-मूल्यात्मक (Three Valued) है । आधुनिक त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र से उसकी किसी प्रकार तुलना ठीक नहीं बैठती है । त्रि-मूल्यीय तर्कशास्त्र में कुल तीन मानदण्डों की कल्पना की गयी है-सत्य, सत्य-असत्य (संदिग्ध) और असत्य । सत्य वह जो पूर्णतः सत्य है, कथमपि असत्य नहीं हो सकता है। असत्य वह जो पूर्णतः असत्य है, जो किसी प्रकार भी सत्य नहीं हो सकता है, और संदिग्ध वह जो सत्य भी हो सकता है और असत्य भी। किन्तु वह एक साथ दोनों नहीं है। वह एक बार में एक ही है अर्थात् वह या तो सत्य है या असत्य है। किन्तु उसका अभी निर्णय नहीं हो पाया है। इसी संदिग्धता की तुलना अवक्तव्य भङ्ग से करके कुछ विद्वान् जैन सप्तभङ्गी को त्रि-मूल्यात्मक सिद्ध करते हैं। किन्तु यह भूल जाते हैं कि अवक्तव्य की संदिग्धता से कोई तुलना ही नहीं है । अवक्तव्य में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही एक साथ हैं, किन्तु उनका प्रकटीकरण असम्भव है। जबकि संदिग्धता में दोनों नहीं हैं। उसमें तो एक ही है, वह या तो सत्य है या असत्य है और उसे प्रकट किया जा सकता है। दूसरे वह संदेह या संभावना पर निर्भर है, जबकि अवक्तव्य पूर्णतः सत्य है। उसमें संदेह या संभावना का लेशमात्र भी समावेश नहीं है। तीसरे द्वि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र में एक तीसरे मूल्य असत्यता (०) की कल्पना है, जो जैन सप्तभंगी के विपरीत है। इसका विवेचन अभी हमने ऊपर किया है, साथ ही हमने यह भी स्पष्ट किया कि सप्तभंगी में सापेक्ष मूल्य का ही निर्धारण किया जा सकता है, निरपेक्ष का नहीं। परन्तु त्रि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र निरपेक्ष मूल्यों पर ही निर्भर करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैन सप्तभङ्गी त्रि-मूल्यात्मक नहीं है। किन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या इसे सप्तमूल्यात्मक या बहुमूल्यात्मक कहा जा सकता है ? यद्यपि आधुनिक तर्कशास्त्र में अभी तक कोई भी ऐसा आदर्श सिद्धान्त विकसित नहीं हुआ है, जो कथन की सप्तमूल्यात्मकता को प्रकाशित करे । परन्तु जैन आचार्यों ने सप्तभङ्गी के सभी भङ्गों को एक दूसरे से स्वतन्त्र और नवीन तथ्यों का प्रकाशक माना है। सप्तभङ्गी का प्रत्येक भङ्ग वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में नवीन तथ्यों का प्रकाशन करता है। इसलिए उसके प्रत्येक भङ्ग का अपना स्वतन्त्र स्थान और स्वतन्त्र मूल्य है । वस्तुतः प्रत्येक भङ्ग के अर्थोद्भावन में इस विलक्षणता के आधार पर ही सप्तभङ्गी को सप्तमूल्यात्मक कहना सार्थक हो सकता है। इस संदर्भ में जैन-दार्शनिकों के दृष्टिकोण पर गंभीरता पूर्वक विचार करना अपेक्षित है। __जैन आचार्यों ने सप्तभङ्गी के प्रत्येक भङ्ग को पृथक्-पृथक् दृष्टिकोण पर आधारित और नवीन तथ्यों का उद्भावक माना है। सप्तभङ्गीतरंगिनी में इस विचार पर विस्तृत विवेचन किया गया है । वहाँ कहा गया है कि प्रथम भङ्ग में मुख्य रूप से सत्ता के सत्व धर्म की प्रतीति होती है और द्वितीय भङ्ग में असत्व की प्रमुखतापूर्वक प्रतीति होती है। तृतीय 'स्यादस्ति च नास्ति' भंग में सत्व, असत्व को सहयोजित किन्तु क्रम से प्रतीति होती है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में एक दृष्टि से सत्व धर्महै, तो अपर दृष्टि से असत्व धर्म भी है। चतुर्थ अवक्तव्य भङ्ग में सत्व-असत्व धर्म की सहयोजित Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ भिखारी राम यादव किन्तु अक्रम अर्थात् युगपत् भाव से प्रतीति होती है। पञ्चम भंग में सत्व धर्म सहित अवक्तव्यत्व की, षष्ठ भंग में असत्व धर्म सहित अवक्तव्यत्व की और सप्त भंग में क्रम से योजित सत्वअसत्व सहित अवक्तव्यत्व धर्म की प्रतीति प्रधानता से होती है । इस तरह प्रत्येक भंग को भिन्नभिन्न दृष्टि-बिन्दु वाला समझना चाहिए।' इस प्रकार स्पष्ट है कि सप्तभंगी के प्रत्येक भङ्ग में भिन्न-भिन्न तथ्यों की प्रधानता है । प्रत्येक भङ्ग वस्तु के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करता है। इसलिए सप्तभङ्गी के सातों भङ्ग एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं, किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि सप्तभङ्गी के प्रत्येक कथन पूर्णतः निरपेक्ष हैं । वे सभी सापेक्ष होने से एक दूसरे से सम्बन्धित भी हैं। ऐसा मानना चाहिए। किन्तु जहाँ तक उनके परस्पर भिन्न होने की बात है, वहाँ तक तो वे अपने-अपने उद्देश्यों को लेकर ही परस्पर भिन्न हैं । इस प्रकार सप्तभङ्गी का प्रत्येक कथन परस्पर सापेक्ष होते हुए भी परस्पर भिन्न है। इसलिए प्रत्येक भङ्ग का अपना अलग-अलग मूल्य ( Value ) है । अब यहाँ संक्षेप में 'मूल्य' ( Value) शब्द को भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है। आधुनिक तर्कशास्त्र में सभी फलनात्मक क्रियाएँ (Funtional Activities ) सत्यता मूल्यों ( Truth Values ) पर ही निर्भर करती हैं। आधुनिक तर्कशास्त्र के सभी फलन ( Function ) प्रकथन ( Proposition ) की सत्यता-असत्यता का निर्धारण करते हैं। आधुनिक तर्कशास्त्र यह मानता है कि प्रकथन जो किसी वस्तु या तथ्य के विषय में है, वह या तो सत्य है अथवा असत्य । सामान्य तर्कशास्त्र मूल रूप से इन्हीं दो कोटियों को मानता है। किन्तु आधुनिक तर्कशास्त्र के अनुसार सत्य-असत्य की भी अनेक कोटियाँ हो सकती हैं, जिन्हें भिन्न-भिन्न सत्यता मूल्यों से सम्बोधित किया जाता है। आधुनिक तर्कशास्त्र में उन्हीं मूल्यों की सत्यता मूल्य ( Truth Value) करते हैं, जिस प्रकथन के सत्य होने की जितनी अधिक संभावना होती है, उसका उतना ही अधिक सत्यता मूल्य होता है। जैसे यदि कोई तर्कवाक्य ( प्रकथन ) पूर्णतः सत्य है, तो उसका सत्यता मूल्य पूर्ण होगा । उसे आधुनिक तर्कशास्त्र में सत्य ( True ) या '१' से सम्बोधित करते हैं और जो पूर्णतः असत्य है, उसे असत्य (False) अथवा '०' से सूचित किया जाता है। इसी प्रकार जो संभावित सत्य है, उसे उसको संभावना के आधार पर १/२, १/३, १/४ आदि संख्याओं या संदिग्ध पद से अथवा किसी माडल से अभिव्यक्त किया जाता है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि तकवाक्य में निहित सत्य की संभावना को सत्यता-मूल्य कहते हैं । यद्यपि असत्यता ( Falsity ) भी मूल्यवत्ता से परे नहीं है। असत्यता भी सत्यता ( Truth ) की ही एक कोटि है । जब सत्यता घट कर शून्य हो जाती है, तब वहाँ असत्यता का उद्भावन होता है। वस्तुतः असत्यता को सत्यता की अन्तिम कड़ी कहना चाहिए । इस असत्यता और सत्यता (जो कि सत्यता की पूर्ण एवं अन्तिम कोटि है) के बीच जो सत्य की संभावना होती है, उसको संभावित सत्य कहते हैं। इस प्रकार सत्य, असत्य आदि विभिन्न आयाम हैं। यहाँ हमें देखना यही है कि सप्तभङ्गी में इस तरह का सत्यता मूल्य प्राप्त होता है अथवा नहीं। __ संभाव्यता तर्कशास्त्र में एक ऐसा सिद्धान्त है, जिसमें सप्तभङ्गी जैसी प्रक्रिया का प्रतिपादन किया गया है। उसमें A, B और C तीन स्वतन्त्र घटनाओं के आधार पर चार सांयोगिक घटनाओं १. सप्तभंगीतरंगिणी, पृ० ९ । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में का विवेचन किया गया है। जिस प्रकार सप्तभङ्गी में अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य के संयोग से चार यौगिक भंग प्राप्त किये गये हैं, उसी प्रकार संभाव्यता तर्कशास्त्र में A, B और C तीन स्वतन्त्र घटनाओं से चार युग्म घटनाओं को प्राप्त किया गया है, जो इस प्रकार है P ( A B ) = P (A). P (B) P ( AC ) = P (A). P (C) P ( BC ) = P (B). P (C) P ( A B C ) = P (A). P (B). P (C) यहाँ P = संभाव्य और A, B और C तीन स्वतन्त्र घटनायें हैं। यद्यपि सप्त भङ्गी के सभी भङ्ग न तो स्वतन्त्र घटनायें हैं और न सप्तभंगी का 'स्यात्' पद संभाव्य ही है, तथापि सप्तभंगी के साथ उपर्युक्त सिद्धान्त की आकारिक समानता है। इसलिए यदि उक्त सिद्धान्त से 'आकार' ग्रहण किया जाय तो सप्तभङ्गी का प्रारूप हू-बहू वैसा ही बनेगा जैसा कि उपर्युक्त सिद्धान्त का है। यदि सप्तभङ्गी के मूलभूत भङ्गों, स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य को क्रमशः A, B औरC तथा परिमाणक रूप 'स्यात्' पद को P और च को डाट (.) से प्रदर्शित किया जाय, तो सप्तभङ्गी के शेष चार भङ्गों का प्रारूप निम्नवत् होगा स्यादस्ति च नास्ति = P ( A.-B)-P (A). P (-B) स्यादस्ति च अवक्तव्य = P (A.-C) = P (A). P (C) स्यान्नास्ति च अवक्तव्य = (P-B-C) = P (-B). P (C) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्य = P (A.-B.-C) = P (A). ____P-B). P (-C) इस प्रकार सम्पूर्ण सप्तभङ्गो का प्रतीकात्मक रूप इस प्रकार होगा (१) स्यादस्ति = P (A) (२) स्यान्नास्ति = P (-B) (३) स्यादस्ति च नास्ति = P (A.-B) (४) स्यात् अवक्तव्य %DP (C) (५) स्यादस्ति च अवक्तव्य = P (A.-C) (६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्य = P (-B.-C) (७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्य = P (A.-B.-C) प्रस्तुत विवरण में A स्वचतुष्टय, B परचतुष्टय और C वक्तव्यता के सूचक हैं, B और C का निषेध (-) वस्तु में परचतुष्टय एवं युगपत् व्यक्तव्यता का निषेध करता है। जैन तर्कशास्त्र की यह मान्यता है कि जिस तरह वस्तु में भावात्मक धर्म रहते हैं, उसी तरह वस्तु में अभावात्मक धर्म भी रहते हैं । वस्तु में जो सत्व धर्म हैं, वे भाव रूप हैं और जो असत्व धर्म हैं, वे अभाव रूप हैं। इसी भाव रूप धर्म को विधि अर्थात् अस्तित्व और अभाव रूप धर्म को प्रतिषेध अर्थात् नास्तित्व कहते हैं सदसदात्मकस्य वस्तुनो यः सदंशः-भावरूपः स विधिरित्यर्थः। सदसदात्मकस्य वस्तुनो योऽसदंशः अभावरूपः स प्रतिषेध इति । ( प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३/५६-५७) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २४ भिखारी राम यादव वस्तुतः ये अस्तित्व और नास्तित्व एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्म हैं, जो अबिनाभाव से प्रत्येक वस्तु में विद्यमान रहते हैं। कहा भो गया है अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्मिणि । विशेषणत्वात् साधर्म्य यथा भेदविवक्षया ॥ . नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्मिणि ।। विशेषणत्वाद्वैधयं यथाऽभेदविवक्षया ॥ -आप्तमीमांसा, १११७-१८ ॥ अर्थात् वस्तु का जो अस्तित्व धर्म है, उसका अबिनाभावी नास्तित्व धर्म है । इसी प्रकार वस्तु का जो नास्तित्व धर्म है, उसका अबिनाभावी अस्तित्व धर्म है । इस प्रकार अस्तित्व के बिना नास्तित्व और नास्तित्व के बिना अस्तित्व की कोई सत्ता ही नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि अस्तित्व और नास्तित्व दो ऐसे धर्म हैं, जो प्रत्येक वस्तु में अबिनाभाव से विद्यमान रहते हैं। सप्तभङ्गी के अस्तित्व और नास्तित्व रूप दोनों भङ्गों में इन्हीं धर्मों का मुख्यता और गौणता से विवेचन किया जाता है। ये दोनों एक दूसरे के विरोधी या निषेधक नहीं हैं । अस्तित्व धर्म दूसरे, तो नास्तित्व धर्म दूसरे हैं। इसीलिए इनमें अविरोध सिद्ध होता है। स्याद्वादमञ्जरी में (पृ० २२६ ) में कहा गया है, "जिस प्रकार स्वरूपादि से अस्तित्व धर्म का सद्भाव अनुभव सिद्ध है, उसी प्रकार पररूपादि के अभाव से नास्तित्व धर्म का सद्भाव भी अनुभव सिद्ध है। वस्तु का सर्वथा अस्तित्व अर्थात् स्वरूप और पररूप से अस्तित्व-उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार स्वरूप से अस्तित्व वस्तु का धर्म होता है, उसी प्रकार पररूप से भी अस्तित्व वस्तु का धर्म नहीं बन जावेगा। वस्तु का सर्वथा नास्तित्व अर्थात् स्वरूप और पररूप से नास्तित्व भी उसका स्वरूप नहीं है; क्योंकि जिस प्रकार पररूप से नास्तित्व वस्तु का धर्म होता है, उसी प्रकार स्वरूप से भी नास्तित्व वस्तु का धर्म नहीं बन जावेगा । इसलिए अस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही धर्मों से युक्त रहना वस्तु का स्वभाव या स्वरूप है अर्थात् वस्तु में स्वचतुष्टय का भाव और परचतुष्टय का अभाव होता है। अतः इन धर्मों को एक दूसरे का निषेधक या व्याघातक ( कान्ट्राडिक्टरी ) नहीं कहा जा सकता है। किन्तु जब इन भावात्मक और अभावात्मक धर्मों के कहने की बात आती है, तब हम स्वचतुष्टय रूप वस्तु के भावात्मक गुण धर्मों को एक शब्द 'स्यादस्ति' से कह देते हैं और जब परचतुष्टय रूप वस्तु के अभावात्मक गुण-धर्मों को कहने की बात आ जाती है, तब उन्हें 'स्यान्नास्ति' शब्द से सम्बोधित करते हैं। किन्तु जब उन्हीं धर्मों को एक साथ ( युगपद् रूप से ) कहना होता है, तब उन्हें अवक्तव्य ही कहना पड़ता है । वस्तुतः अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये ही सप्तभङ्गी के तीन मूल भंग हैं। अब वस्तु में स्वचतुष्टय रूप भावात्मक धर्मों को A, परचतुष्टय रूप धर्मों को B और उनके अभाव को-B तथा स्वचतुष्टय और परचतुष्टय रूप भावात्मक धर्मों को युगपत् रूप से कहने में भाषा की असमर्थता अर्थात् अवक्तव्यता को -C से प्रदर्शित करें और स्यात् पद को P से दर्शायें, तो तीनों मूल भङ्गों का प्रतीकात्मक रूप इस प्रकार होगा Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में स्यादस्ति = P (A) स्यान्नास्ति = P ( -B) स्यादवक्तव्य = P(-c) इस प्रकार प्रथम भङ्ग में स्वचतुष्टय का सद्भाव होने से उसे भावात्मक रूप में A कहा गया है। दूसरे भङ्ग में परचतुष्टय का निषेध होने से अभावात्मक रूप में -B कहा गया गया है और तीसरे मूल भङ्ग में वक्तव्यता का निषेध होने से -C कहा गया है । इस प्रकार सप्तभङ्ग के प्रतीकीकरण के इस प्रयास का अर्थ उसके मूल अर्थ के निकट बैठता है। अब विचारणीय विषय यह है कि स्यान्नास्ति भङ्ग का वास्तविक प्रारूप क्या है ? कुछ तकविदों ने उसे निषेधात्मक बताया है तो कुछ दार्शनिकों ने स्वीकारात्मक माना है और किसी-किसी ने तो द्विधा निषेध से प्रदर्शित किया है। इस सन्दर्भ में डा० सागरमल जैन के द्वारा प्रदत्त नास्तिभङ्ग का प्रतीकात्मक प्रारूप द्रष्टव्य है। उन्होंने लिखा है कि नास्तिभंग के निम्नलिखित चार प्रारूप बनते हैं (१) अ, उ, वि, नहीं है। (२) अ* उ,-वि, है । ( ३ ) अ*2 उ,-वि नहीं है ( यह द्विधा निषेध रूप है ) । (४) अ२० उ, नहीं है। इनमें भी मुख्य रूप से दो ही प्रारूपों को माना जा सकता है-एक वह है, जिसमें स्यात् पद चर है। जिसके कारण अपेक्षा बदलती रहती है। यदि चर रूप स्यात् पद को P', P२ आदि से दर्शाया जाये, तो अस्ति और नास्ति भंग का निम्नलिखित रूप बनेगा (१) स्यादस्ति = P (A) (२) स्यान्नास्ति = P (-A) इसे निम्नलिखित दृष्टान्त से अच्छी तरह समझा जा सकता है-स्यात् आत्मा नित्य है (प्रथम भंग ) और स्यात् आत्मा नित्य नहीं है ( द्वितीय भंग ), इन दोनों कथनों में अपेक्षा बदलती गई है। जहाँ प्रथम भंग में द्रव्यत्व दृष्टि से आत्मा को नित्य कहा गया है, वहीं दूसरे भंग में पर्याय दृष्टि से उसे अनित्य ( नित्य नहीं ) कहा गया है । इन दोनों ही वाक्यों का स्वरूप यथार्थ है. क्योंकि आत्मा द्रव्यदृष्टि से नित्य है, तो पर्याय दृष्टि से अनित्य भी है। वस्तुतः यहाँ द्वितीय भंग का प्रारूप निषेध रूप होगा । अब यदि उक्त दोनों भंगों को मूल भंग माना जाये और अवक्तव्य को-C से दर्शाया जाये, तो सप्तभंगी का प्रतीकात्मक प्रारूप निम्नलिखित रूप से तैयार होगा (१) स्यादस्ति = P (A) (२) स्यान्नास्ति = P" (-A) (३) स्यादस्ति च नास्ति = P° (A -A) (४) स्यादवक्तव्य = P* (-c) (५) स्यादस्ति च अवक्तव्यम् = P (A-c) (६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम् = P° (-A.-c) (७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् = P' (A-A-C) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिखारी राम यादव भङ्गों से अब प्रश्न यह है कि अवक्तव्य को -C से क्यों प्रदर्शित किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर है कि अवक्तव्य वक्तव्य पद का निषेधक है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में किसी निषेध पद को विधायक प्रतीक से दर्शाने का विधान नहीं है। वहाँ पहले विधायक पद को विधायक पद से दर्शाकर निषेधात्मक बोध हेतु उस विधायक पद का निषेध किया जाता है। इसलिए पहले वक्तव्य पद हेतु प्रतीक प्रस्तुत कर अवक्तव्य के बोध के लिए उस C का निषेध अर्थात् -C किया गया है। अब यदि यह कहा जाये कि ऐसा मानने पर सप्तभङी-सप्तभङी नहीं बल्कि अष्टभङी बन जायेगा. तो ऐसी बात मान्य नहीं हो सकती क्योंकि जैन तर्कशास्त्र में सप्तभङ्गी की ही परिकल्पना है, अष्टभड़ी की नहीं; और वक्तव्य रूप भंग सप्तभङ्गी में इसलिए भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि अवक्तव्य के अतिरिक्त शेष भङ्ग तो वक्तव्य ही हैं अर्थात् वक्तव्यता का होता है। इसलिए वक्तव्य भङ्गको स्वतन्त्र रूप से स्वीकारा नहीं जा सकता है। वह तो प्रथम अस्ति, द्वितीय नास्ति और तृतीय क्रम भावी अस्ति-नास्ति के रूप में उपस्थित ही है। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार 'स्यात्' पद अचर है। उसके अर्थ अर्थात् भाव में कभी भी परिवर्तन नहीं होता है । वह प्रत्येक भंग के साथ एक ही अर्थ में प्रस्तुत है। इस प्रकार इस दृष्टिकोण को मानने से नास्ति भंग में द्विधा निषेध आता है, जिसका निम्न प्रकार से प्रतीकीकरण किया जा सकता है (१) स्यादस्ति = P (A) (२) स्यान्नास्ति = P-(-A) अब इसका यह प्रतीकात्मक रूप निम्नलिखित दृष्टान्त से पूर्णतः स्पष्ट हो जायेगा 'स्यात् आत्मा चेतन है ( प्रथम भंग ) और स्यात् आत्मा अचेतन नहीं है' (द्वितीय भंग)। अब यदि हम 'आत्मा चेतन है' का प्रतीक A मानें, तो उसके अचेतन का -A होगा और इसी प्रकार 'आत्मा अचेतन नहीं है' का प्रतीक-(-A) हो जायेगा । इस प्रकार इन वाक्यों में हमने देखा कि वक्ता की अपेक्षा बदलती नहीं है। वह दोनों ही वाक्यों की विवेचना एक ही अपेक्षा से करता है । इस दृष्टिकोण से उपर्युक्त दोनों वाक्यों का प्रारूप यथार्थ है। अब यदि इन दोनों वाक्यों को मूल मानें, तो सप्तभङ्गी का प्रतीकात्मक प्रारूप निम्न प्रकार होगा (१) स्यादस्ति = P ( A) (२) स्यान्नास्ति = P-(-A) (३) स्यादस्ति च नास्ति = P ( A. -(-A)) (४) स्यादवक्तव्य =P(C) (५) स्यादस्ति च अवक्तव्य - P(A. -C) (६) स्यात् नास्ति च अवक्तव्य = P(-(-A) -C (७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्य = P(A. -(-A) -C) इस प्रतीकीकरण में A और --A वक्तव्यता के और -C अवक्तव्यता का भी सूचक है। किन्तु स्यादस्ति और स्यान्नास्ति को क्रमशः A और -A अथवा A और --A मानना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है। क्योंकि नास्तिभङ्ग परचतुष्टय का निषेधक है और अस्तिभङ्ग स्वचतुष्टय का प्रतिपादक है । यदि उन्हें A और -A का प्रतीक दिया जाये, तो उनमें व्याघातकता प्रतीत होती है, जबकि वस्तुस्थिति इससे भिन्न है। अतः स्वचतुष्टय और परचतुष्टय के लिए अलग-अलग प्रतीक अर्थात् A और B प्रदान करना अधिक युक्तिसंगत है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में २७ हमने स्वचतुष्टय के लिए A और परचतुष्टय के निषेध के लिए - B माना है । मेरा यह दावा नहीं है कि मेरा दिया हुआ उपर्युक्त प्रतीकीकरण अन्तिम एवं सर्वमान्य है । उसमें परिमार्जन की संभावना हो सकती है । आशा है कि विद्वान् इस दिशा में अधिक गम्भीरता से विचार कर सप्तभङ्गी को एक सर्वमान्य प्रतीकात्मक स्वरूप प्रदान करेंगे, ताकि उसके सम्बन्ध में उठनेवाली भ्रान्तियों का सम्यक्रूपेण निराकरण हो सके । अब सप्तभङ्गी की यह प्रतीकात्मकता संभाव्यता तर्कशास्त्र के उपर्युक्त प्रतीकीकरण के अनुरूप है । इसलिए यह उससे तुलनीय है । जिस प्रकार सप्तभङ्गी में उत्तर के चारों प्रकथन पूर्व के मूलभूत तीनों भंगों के सांयोगिक रूप हैं और प्रत्येक कथन को 'च' रूप संयोजन के द्वारा जोड़ा गया है, उसी प्रकार संभाव्यता तर्कशास्त्र के उपर्युक्त सिद्धान्त में तीन मूलभूत भङ्गों की कल्पना करके आगे के भंगों की रचना में संयोजन अर्थात् कन्जंक्शन का ही पूर्णतः व्यवहार किया गया है। जिस क्रम में सप्तभंगी की विवेचना और विस्तार है, उसी क्रम का अनुगमन संभाव्यता तर्कशास्त्र का उक्त सिद्धान्त भी करता है। एक रुचिकर बात यह है कि सप्तभंगी के सातवें भंग में क्रमार्पण और सहार्पण रूप तीसरे और चौथे भंग का संयोग माना गया है। इस संदर्भ में सप्तभंगीतरंगिणी का निम्नलिखित कथन द्रष्टव्य है- 'अलग-अलग क्रम योजित और मिश्रित रूप अक्रम योजित द्रव्य तथा पर्याय का आश्रय करके 'स्यात् अस्ति नास्ति च अवक्तव्यश्च घट" किसी अपेक्षा सत्व असत्व सहित अवक्तव्यत्व का आश्रय घट है - इस सप्तम भङ्ग की प्रवृत्ति होती है ।' ( पृ० ७२) इसका भाव यह है कि अस्ति और नास्ति भङ्ग के क्रमिक और अक्रमिक संयोग से अवक्तव्य भङ्ग की योजना है अर्थात् अस्ति और नास्ति के योजित रूप 'अस्ति च नास्ति' में अस्ति नास्ति के अक्रम रूप अवक्तव्य को जोड़ा गया है । अब यदि अस्ति A है, नास्ति - B और अवक्तव्य - C है, तो सातवें 'भङ्ग का रूप होगा, AB में - C का योग । जो संभाव्यता तर्कशास्त्र के उपर्युक्त सिद्धान्त के अन्तिम कथन से मेल खाता है । जिस प्रकार सप्तभङ्गी में तीन मूल भङ्गों से चार ही यौगिक भङ्ग बनने की योजना है, उसी प्रकार संभाव्यता तर्कशास्त्र में भी तीन स्वतन्त्र घटनाओं के संयोग से चार सांयोगिक स्वतन्त्र घटनाओं की अभिकल्पना है । वस्तुतः ये सभी बातें जैन तर्कशास्त्र को स्वीकृत हैं । इसलिए इस प्रतीकात्मक प्रारूप को सप्तभङ्गी पर लागू किया जा सकता है । - अब सप्तभङ्गी की मूल्यात्मकता को निम्न रूप से चित्रित करने का प्रयास किया जा सकता है । यदि स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य अर्थात् A, B और C को एक-एक वृत्त के द्वारा सूचित किया जाये, तो उन वृत्तों के संयोग से बनने वाले सप्तभङ्गी के शेष चार भङ्गों के क्षेत्र इस प्रकार होंगे - चित्र- 1 ~B 3 AA B C 680 A-Buc А 8-8/ S Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ भिखारी राम यादव अब चित्र संख्या ५ को देखने से स्पष्ट हो जायेगा कि A,-B-C, A-B, A-C,B-C और A-B-C का क्षेत्र अलग-अलग है । जिसके आधार पर सप्तभङ्गी के प्रत्येक भङ्ग की मूल्यात्मकता और उनके स्वतन्त्र अस्तित्व का निरूपण हो सकता है। यद्यपि सप्तभङ्गी का यह चित्रण वेन डाइनाम से तुलनीय नहीं है, क्योंकि यह उसके किसी भी सिद्धान्त के अन्तर्गत नहीं है, तथापि यह चित्रण सप्तभङ्गी की प्रमाणता को सिद्ध करने के लिए उपयुक्त है। ___ सांयोगिक कथनों का मूल्य और महत्त्व अपने अङ्गीभूत कथनों के मूल्य और महत्त्व से भिन्न होता है । इस बात की सिद्धि भौतिक विज्ञान के निम्नलिखित सिद्धान्त से की जा सकती है कल्पना कीजिए कि भिन्न-भिन्न रंग वाले तीन प्रक्षेपक अ, ब और स इस प्रकार व्यवस्थित हैं कि उनसे प्रक्षेपित प्रकाश एक दूसरे के ऊपर अंशतः पड़ते हैं, जैसा कि चित्र में दिखलाया गया है लाल 222lB काला नीला प्रत्येक प्रक्षेपक से निकलने वाले प्रकाश को हम एक अवयव मान सकते हैं। क्षेत्र अ, ब और स एक रंग के प्रकाश से प्रकाशित हैं और क्षेत्र अ+ब, ब+स और अ+ स दो-दो अवयवों से प्रकाशित हैं। जबकि बीचवाला भाग जो तीन अवयवों से प्रकाशित है। उसे अ+ब + स क्षेत्र कह सकते हैं । उस भाग को जो रंगों के प्रकाश से प्रकाशित है, मिश्रण कहते हैं । क्योंकि प्रकाशित भाग अ,ब और स तीनों से प्रकाशित होता है। जैसे ही तीनों अवयवों में से कोई अवयव बदलता है, मिश्रण का रंग बदल जाता है और किसी भी रंग वाले भाग में से उसके अवयवों को पहचाना नहीं जा सकता है। वस्तुतः वह दूसरे रंग को जन्म देता है, जो उसके अङ्गीभूत अवयवों से भिन्न होता है । उस मिश्रण को उसके अवयवों में से किसी एक के द्वारा सम्बोधित नहीं किया जा सकता है। अतएव उन्हें मिश्रण कहना ही सार्थक है । रंगों का ज्ञान भी कुछ इसी प्रकार का है। यदि हम पीला, नीला और वायलेट को मूल रंग मानकर मिश्रित रंग तैयार करें, तो वे इस प्रकार होंगे नीला + पोला = हरा पीला + वायलेट = लाल वायलेट + नीला = बैंगनी हरा + बैंगनी + लाल = काला Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सप्तभङ्गी : आधुनिक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में २९ इस प्रकार तीन मूलभूत रंगों के संयोग के चार ही मिश्रित रंग बनते हैं। इन मिश्रित रंगों का अस्तित्व अपने मूल रंगों के अस्तित्व से भिन्न है। इसलिए इन्हें मूलरंगों के नाम से अभिहित नहीं किया जा सकता है । ठीक यही बात स्याद्वाद के संदर्भ में भी है । यद्यपि सप्तभङ्गी के उत्तर के चार भङ्ग पूर्व के तीन मूलभूत भङ्गों के संयोग मात्र ही हैं, किन्तु वे सभी उक्त तीनों भङ्गों से भिन्न हैं । इसलिए उनके अलग-अलग मूल्य हैं। इस प्रकार सप्तभङ्गी के सातों भङ्ग अलग-अलग मूल्य प्रदान करते हैं । इसलिए सप्तभङ्गी सप्तमूल्यात्मक है, ऐसा मानना चाहिए। ---दर्शन विभाग, एस० सिन्हा कालेज, औरंगाबाद (बिहार ) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन भागचंद जैन भास्कर 'तत्त्व' किसी भी धर्म और दर्शन की मूल भित्ति है । अतः सभी दर्शनों ने 'तत्त्व' की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की है। वस्तु के असाधारण स्वतत्त्व को 'तत्त्व' कहा जाता है। तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, परम, परमपरम, ध्येय, शुद्ध-ये सभी एकार्थवाची शब्द हैं। जैन एवं बौद्धधर्म ने इसके लिए 'सत्' शब्द का भी प्रयोग किया है। जैनधर्म में मूलतः दो तत्त्व हैं-जीव और अजीव । आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष तथा पुण्प और पाप ये सात तत्त्व अथवा सात पदार्थ जीव और अजीव की ही पर्याय हैं। बौद्धधर्म में आचार्य अनुरुद्ध ने प्रज्ञप्त्यर्थ और परमार्थ को बात करते हुए परमार्थ को चतुविध बताया है-चित्त, चैतसिक, रूप और निर्वाण । यहाँ प्रज्ञप्त्यर्थ कल्पित है, भ्रमजनित है, अतः व्यावहारिक धर्म है तथा परमार्थ को वास्तविक धर्म की संज्ञा दी गई है। ये चारों परमार्थ एक दूसरे से गंथे हुए हैं, फिर भी तुलना की दृष्टि से हम इन्हें क्रमशः आत्मा, कर्म, द्रव्य और मोक्ष के साथ रख सकते हैं। ये चार परमार्थ बौद्धधर्म के तत्त्व कहे जा सकते हैं। एक अन्य प्रकार से चार आर्यसत्यों को चार तत्त्वों के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रथम सत्य जीव और कर्म से सम्बद्ध है, द्वितीय सत्य आश्रव और बंध से, तृतीय सत्य मोक्ष से और चतुर्थ सत्य संवर और निर्जरा से सम्बन्धित है। बौद्धधर्म में वस्तु-सत् को संस्कृत धर्म और असंस्कृत धर्म के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। हीनयान में संस्कृत धर्म वस्तु-सत् है, पर महायान उसे शन्य कहता है। महायान में धर्म शन्य केवल धर्मता (धर्मकाय) वस्तु-सत् है। क्षणिक संस्कृत धर्मों के अतिरिक्त हीनयान में आकाश और निर्वाण को असंस्कृत धर्म कहा गया है । यहाँ संसार और निर्वाण, दोनों वस्तु-सत् हैं और प्रज्ञप्ति-सत् भी हैं । महायान में वस्तु को शान्त, अद्वय, अवाच्य, विकल्पातीत और निष्प्रपञ्च कहा गया है । उसको दृष्टि से जो परतन्त्र है, वह वस्तु नहीं है। अतः संस्कृत-असंस्कृत पदार्थ वस्तु-सत् नहीं हैं। वे तो शून्यता के प्रतीक हैं । इसप्रकार हीनयान का बहुधर्मवाद' महायान में अद्वयवाद बनकर आया है । जैन दर्शन में इतना अधिक सैद्धान्तिक विकास नहीं दिखाई देता। इसका मूल कारण यह है कि बौद्ध दर्शन के विकास में जो तत्त्व एकत्रित हुए हैं, वे तत्त्व जैन दर्शन की पृष्ठभूमि में नहीं पनप सके। जैन दर्शन का विकास बौद्ध दर्शन के विकास की तुलना में एक अत्यन्त मन्थर गति लिये हुए दिखाई देता है । आगे के विवेचन से यह तथ्य स्पष्ट हो जायगा । १. राजवार्तिक, २, १,६ । २. नयचक्र, ४। ३. अभिधम्मत्थसंगहो. पञ्चम परिच्छेद । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन द्रव्य-व्यवस्था द्रव्य का स्वरूप सतत मंथन का विषय रहा है। जैन दार्शनिक वास्तव में बहुतत्त्ववादी (Realistic pluralism) हैं। उनके अनुसार प्रत्येक परमाणु परमार्थ अखण्ड, स्वतन्त्र और उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है। बौद्ध उसे स्वलक्षणात्मक मानते हैं, पर उसका प्रत्यक्ष कल्पनाजन्य अथवा भ्रमित स्वीकार करते हैं। सांख्य जड़ और चेतन को पृथक् तो मानते हैं, पर वे एक दूसरे के प्रति उनमें परिणामीकरण नहीं मानते । न्याय-वैशेषिक पृथ्वी आदि सभी द्रव्यों को स्वतन्त्र मानते हैं और बेदान्ती उन्हें ब्रह्म की ही पारमार्थिक सत्ता की प्रतीति समझते हैं । जिस प्रकार जैनदर्शन ने तत्त्व के सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान को मोक्ष के कारणों में अन्यतम माना है, उसी प्रकार बौद्धदर्शन ने भी धर्मप्रविचय को निर्वाण का कारण प्रतिपादित किया है । धर्मप्रविचय प्रज्ञा पर आधारित है और प्रज्ञा वह है, जो सास्रव-अनास्रव का भेद कर सके। जो स्वलक्षण करता है, वह धर्म है और धर्म ही पुष्पों के समान व्यवकीर्ण हैं, जिन्हें प्रज्ञा के माध्यम से विभाजित किया जाता है। जैनधर्म ने तत्त्व के मूलतः दो भेद किये हैं-जीव और अजीव । बौद्धधर्म ने भी दो भेद किये हैं, पर उसने अनात्मवादी होने के कारण वैसे भेद न करके उन्हें संस्कृत और असंस्कृत के रूप में विवेचित किया है। संस्कृत में जाति (उत्पत्ति), जरा (वृद्धत्व या ह्रास), स्थिति और अनित्यता ये चार लक्षण होते हैं। रूपादि पञ्चस्कन्ध संस्कृत कहे गये हैं। समग्र रूपविधान में तत्त्व के स्थान पर 'रूप' का भी प्रयोग हुआ है। असंस्कृत अनास्रव धर्म-आकाश, प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध हैं। रूप के लक्षण के प्रसंग में उसे उपचय (उत्पाद), संतति, जरता (स्थिति) एवं अनित्यतामय माना है।' इसी को अहेतुक, सप्रत्यय, सास्रव, संस्कृत, लौकिक, कामावचर, अनालंबन और अप्रहातव्य कहा है। उपचय एवं संतति उत्पत्ति का प्रतीक है, जरता स्थिति का और अनित्यता भंग का प्रतीक है। यहाँ सम्बद्ध वृद्धि को 'सन्तति' कहा गया है, जिसका सम्बन्ध उत्पत्ति के साथ अधिक है। उत्पत्ति के बाद निष्पन्न रूपों के निरुद्ध होने से पूर्व ४८ क्षुद्रक्षण मात्र के स्थितिकाल को जीर्ण स्वभाव होने से 'जरता' कहा जाता है। प्रत्येक क्षण में उत्पाद, स्थिति और भंग नामक तीन क्षुद्रक्षण होते हैं । रूप का एक क्षण चित्तवीथि के १७ क्षणों के बराबर होता है । इन १७ क्षणों में भी क्षुद्रक्षण ५१ होते हैं, जिनके बराबर रूप का एक क्षण होता है। इन ५१ क्षुद्रक्षणों में से सर्वप्रथम उत्पाद क्षण को और अंतिम भंगक्षण को निकाल देने पर चित्त के ४८ क्षुद्रक्षण के बराबर रूप की जरता का काल होता है। एक चित्तक्षण में ये उत्पाद-स्थिति-भंग इतनी शीघ्रतापूर्वक प्रवृत्त होते हैं कि एक अच्छरा काल (चुटको बजाने या पलक मारने के बराबर समय) में ये लाखों करोड़ों बार उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाते हैं। इन उत्पाद-व्यय भङ्ग स्वभावो रूपों को 'संस्कृत' कहा जाता है। संस्कृत पदार्थ में परिवर्तन की शीघ्रता अन्वय की भ्रान्ति पैदा करती है। उसे ही स्थायी कह देते हैं-अन्वयवशात् । वस्तुतः प्राणो का जीवन विचार के एक क्षण तक रहता है । उस क्षण १. अभिधम्मत्थसङ्गहो, ६.१५:। २. वही, ६.१९ । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ भागचंद जैन भास्कर के समाप्त होते ही प्राणी भी समाप्त हो जाता है।' इसे 'भेदवाद' कहते हैं। वैभाषिक-सौत्रान्तिक भेदवादी हैं। क्षणभङ्गवाद उनका परम सत्य है। वे धर्मनैरात्म्य (बाह्य पदार्थ क्षणिक और निरंश परमाणुओं का पुञ्ज है) और पुद्गल नैरात्म्य (अनात्मवाद) को मानते हैं। सारा व्यवहार संततिवाद और संघातवाद पर आश्रित है। संस्कृत पदार्थ प्रतीत्यसमुत्पन्न और अनित्य है । जिस पदार्थ का समुत्पाद सकारण होता है, वह स्वतन्त्र नहीं। अतः माध्यान्तिकवादियों ने पदार्थ को शून्यात्मक कहा है। सूत्रान्तपालि में "जरा मरणं भिक्खवे ! अनिच्चं, सङ्खतं पटिच्चसमुप्पपन्न" ३ में संस्कृत के तीन ही लक्षण दिये गये हैं । यहाँ स्थिति का कोई उल्लेख नहीं । सौत्रान्तिकों की दृष्टि में संस्कृत के लक्षण चार ही हैं। उन्होंने 'जरा' के साथ स्थिति को प्रज्ञप्त किया है। वे वस्तुतः इन लक्षणों को पृथक् द्रव्य न मानकर उन्हें प्रवाह रूप मानते हैं। यह प्रवाह ही उनकी स्थिति का सूचक है। सौत्रान्तिक जीवित-आयु को द्रव्य नहीं मानते । विज्ञानवादी संस्कृत-असंस्कृत धर्मों को प्रज्ञाप्तिसत् मानते हैं और माध्यमिक उनका निषेधकर निःस्वभावता की सिद्धि करते हैं। बौद्धदर्शन में स्वलक्षण और सामान्यलक्षण दो तत्त्व माने गये हैं । स्वलक्षण का तात्पर्य हैवस्तु का असाधारण तत्त्व । इसमें प्रत्येक परमाणु की सत्ता पृथक् और स्वतन्त्र स्वीकार की गई है । इसके साथ ही वह सजातीय और विजातीय परमाणुओं से व्यावृत है। परमाणुओं में जब कोई सम्बन्ध ही नहीं, तो अवयवी के अस्तित्व को कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? बौद्धदर्शन में सामान्य तत्त्व को एक कल्पनात्मक वस्तु माना गया है। परन्तु चूंकि वह स्वलक्षण को प्राप्ति में कारण होता है, अतः मिथ्या होते हुए भी उसे पदार्थ की श्रेणी में रखा गया है। मनुष्यत्व, गोत्व आदि को सामान्य तत्त्व कहा गया है । स्वलक्षण तत्त्व अर्थक्रियाकारी है, अतः परमार्थ सत् है । पर सामान्य अर्थ क्रियाकारी नहीं, अतः उसे संवृति सत् माना है। सामान्य को कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। धर्मकीर्ति ने स्वलक्षण और सामान्य लक्षण के भेद को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया हैस्वलक्षण सामान्यलक्षण १. अर्थक्रिया में समर्थ १. अर्थक्रिया में असमर्थ २. असदृश-सर्वतो व्यावत २. सदृश-सर्व व्यक्ति साधारण ३. शब्दाविषय (अवाच्य) ३. शब्दविषय ( वाच्य ) ४. स्वातिरिक्त निमित्त के होने पर स्वविषयक ४. स्वातिरिक्त निमित्त के होने पर बुद्धि का अभाव स्वविषयक बुद्धि का सद्भाव १. विसुद्धिमग्ग, ८। २. चतुःशतकम्, ३४८ । ३. संयुत्तनिकाय, द्वितीय भाग, पृ० २४ । ४. प्रमाणवार्तिक, २-३; तर्कभाषा, पृ० ११। प्रमाणवातिक, २.१.३, २७-२८, ५०-५४; न्यायविनिश्चय, १०२३-२४; न्यायावतार वात्तिक वृत्ति, भाषा टिप्पण, पृ. २११ । ५. प Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ३३ ५. परमार्थसत्-अकल्पित ५. संवृति सत्-कल्पित ६. सस्वभाव ६. निःस्वभाव ७. वस्तु ७. अवस्तु ८. असाधारण ८. साधारण ९. संकेत स्मरणानपेक्षप्रतिपत्तिकत्व ९. संकेत स्मरणसापेक्षप्रतिपत्तिकत्व १०. सन्निधान-असन्निधान से स्फुट या अस्फुट रूप १०. सन्निधान-असन्निधान से स्फुट या प्रतिभास भेद का जनक . अस्फुट रूप प्रतिभास भेद का अजनक यहाँ यह द्रष्टव्य है कि दिङ्नाग और धर्मकीर्ति ने प्रमाण को द्वैविध्य मानकर प्रमेय को भी द्वैविध्य माना है। इनमें स्वलक्षण प्रत्यक्षगम्य है और सामान्यलक्षण अनुमानगम्य है। अनुमान परोक्ष के अन्तर्गत् आता है। जैनदर्शन प्रमेय भी एक ही मानता है-द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु । वह किसी को स्पष्ट प्रतिभासित होता है और किसी को अस्पष्ट। यह ज्ञाता की शक्ति पर अवलम्बित है। अतः यहाँ भी प्रमेय की प्रतीति प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों रूप से होती है। जैनों का प्रत्यक्ष बौद्धों का स्वलक्षण है और जैनों का परोक्ष बौद्धों का सामान्य है । दोनों मान्यताओं में अन्तर यह है१. जैनदर्शन वस्तु को सामान्य-विशेषात्मक मानता है, जबकि बौद्धदर्शन उसका निषेध करता है। २. जैनदर्शन की दृष्टि में वस्तु का स्वरूप और पररूप, दोनों सापेक्षिक और वास्तविक हैं, जबकि बौद्धों की दृष्टि में दोनों का अस्तित्व होते हुए भी पररूप कल्पित और वासनाजन्य है । __ कल्पित और वासनाजन्य होते हुए भी बौद्धदर्शन की दृष्टि में पररूप अर्थ से संबद्ध है, पर जैनदर्शन उसे इस स्थिति में अर्थ से कथंचित् असंबद्ध मानता है। ४. बौद्धों ने स्वलक्षण और सामान्यलक्षण के प्रतिपादन में क्षणभंगवाद की प्रस्थापना की है। जैन भी क्षण-भंगवाद मानते हैं, पर पर्याय की दृष्टि से । यह पर्याय उत्पाद और व्यय का प्रतीक है। जैनदर्शन का ध्रौव्य बौद्धधर्म का 'सन्तान' कहा जा सकता है। ध्रौव्य में उत्पाद-व्यय के माध्यम से न तो शाश्वतवाद और उच्छेदवाद का प्रसंग उपस्थित होता है और न उसका दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्य रूप से परिणमन होता है। 'सन्तान' भी अपने नियत पूर्वक्षण नियत उत्तरक्षण के साथ कार्यकारण भाव रूप से सम्बद्ध रहते हैं ।' अन्तर यह है१. इस "संतान" को बौद्धदर्शन ने पंक्ति और सेना के समान मृषा और व्यवहारतः कल्पित माना है, पर जैनदर्शन ध्रौव्य को परमार्थ सत् मानता है । वह उसे तद्व्यत्व का नियामक प्रस्थापित करता है। हर पर्याय अपने स्वरूपास्तित्व में रहती है। वह कभी न तो द्रव्यान्तर में परिणत हो सकती है और न विलीन हो सकती है। १. यस्मिन्नेव तु सन्ताने, अहिता कर्मवासना । फलं तव संघत्ते, कार्पासे रक्तता यथा ।। तत्त्वसंग्रह पञ्जिका, पृ० १८२ में उद्धृत । २. सन्तानः समुदायश्च पंक्तिसेनादिवन्मषा-बोधिचर्यावतार, पृ० ३३४ । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागचंद जैन भास्कर २. संतान की अन्तिम परिणति तो निर्वाण में चित्तसंतति की समलोच्छिन्नता के रूप में द्रष्टव्य है । परन्तु द्रव्य का समूलोच्छेद कभी नहीं होता। वह तो अर्थ-पर्याय के रूप में परिणमन करता रहता है। ३. द्रव्य, ध्रौव्य और गुण समानार्थक शब्द हैं। 'ध्रौव्य' या 'द्रव्य' में जो अन्वयांश है, वह 'सन्तान' में नहीं। इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि जैनदर्शन द्रव्य की अनेकान्तिक व्यवस्था करता है। उसकी दृष्टि में प्रत्येक द्रव्य अनंतधर्मात्मक है। उसमें कुछ धर्म सामान्यात्मक होते हैं और कुछ विशेषात्मक । सामान्य द्रव्यात्मक हैं और विशेष पर्यायात्मक । सामान्य के दो भेद हैं-तिर्यक् सामान्य ( सादृश्यास्तित्व ) और अवंता सामान्य ( स्वरूपास्तित्व )। इसी प्रकार विशेष के भी दो प्रकार हैं-तिर्यक् विशेष और ऊर्ध्वता विशेष । बौद्धदर्शन सामान्य को वस्तु सत् नहीं मानता, वह तो उसे कल्पित मानता है। एकाकार प्रत्यय होने से अभेद दिखाई देने लगता है । वस्तुतः उनमें अभेद नहीं, भेद ही है । एकाकार परामर्श होने का कारण विजातीय व्यावृत्ति है। एक ही गो को अगो व्यावृत्त होने से गो कहा जाता है, अपशु व्यावृत्त होने से पशु कहा जाता है, अद्रव्य व्यावृत्त होने से द्रव्य कहा जाता है और असद् व्यावृत्त होने से सत् कहा जाता है। इस प्रकार व्यावृत्ति के भेद से जातिभेद की कल्पना की जाती है। जितनी परवस्तुएँ हों, उतनी व्यावृत्तियाँ उस वस्तु में कल्पित की जा सकती हैं । अतएव सामान्य बुद्धि का विषय वस्तु सत् सामान्य नहीं, किन्तु अन्यापोह हो मानना चाहिए एकार्थ प्रतिभासिन्या, भावान्नाश्रित्य भेदतः । पररूपं स्वरूपेण, यया संवियते धिया ॥ तया संवृत नानात्वा, संवृत्या भेदिनः स्वयं । अभेदिन इवाभान्ति, भेदा रूपेण केनचित् ।। तस्या अभिप्रायवशात्, सामान्यं सत् प्रकोर्तितं । तदसत् परमार्थेन, यथा संकल्पितं तया ॥२ तस्माद् यतो यतोऽर्थानां, व्यावृत्तिस्तन्निबन्धनाः। जातिभेदाः प्रकल्प्यन्ते, तद्विशेषावगाहिनः ॥ बौद्धों के इस अवस्तुरूप सामान्यवाद को जैनों ने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अनेकान्तवाद पर आधारित सामान्य की कल्पना की। उनका मत है कि सादृश्य प्रत्यय पर्यायनिष्ठ और व्यक्तिनिष्ठ रहता है, अतः अनेक है । तिर्यक्सामान्य एक काल में अनेक देशों में स्थित अनेक पदार्थों में समानता की अभिव्यक्ति करता है और ऊर्ध्वतासामान्य उसके ध्रौव्यात्मक तत्त्व पर विचार करता है। जैनों का यह सामान्यवाद सांख्य के परिणामवाद से मिलता-जुलता है । वेदान्त का १. दिशं न काश्चिद्विदिशं न काश्चित, नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम । दीपो यथा नितिमप्युपेतः, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥-सौन्दरानन्द, १६.२८-२९ । २. प्रमाणवार्तिक, ३, ६७-६९ । ३. वही, ३, ४०, ३, १३३ । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ३५ चिब्रह्म और शब्दाद्वैतवाद का शब्दब्रह्म भी लगभग इसी प्रकार का है । नैयायिकों का सामान्य नित्य और व्यापक है, जबकि जैनों का सामान्य अनित्य और अव्यापक है । मीमांसकों का सामान्य अनेकान्तवादी होते हुए भी एकान्तवाद की ओर अधिक झुका हुआ है। बौद्धों ने प्रतीत्यसमुत्पाद के माध्यम से पदार्थ को एकान्तिक रूप से क्षणिक माना । जैनाचार्य प्रतीत्यसमुत्पाद के स्थान पर उपादानोपादियभाव को मानते हैं । उनका द्रव्य कूटस्थनित्य न होकर अन्वयिपर्याय प्रवाह के रूप में अविच्छिन्न है । यही उसका ऊर्ध्वतासामान्य है । वैशेषिक एवं नैयायिकों के समवायिकरण से इसकी तुलना की जा सकती है । इस प्रकार जैनदर्शन में द्रव्य को सामान्य विशेषात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक माना गया है । सामान्य विशेषात्मक विशेषण पदार्थ के धर्मों की ओर संकेत करता है, जबकि द्रव्यपर्यायात्मक विशेषण उसके परिणमन की ओर । दोनों विशेषण पदार्थ की परिणमनशोलता और उत्पाद-व्ययधौव्यात्मकता को स्पष्ट कर देते हैं । इस प्रकार जैनधर्म में द्रव्य का जो स्वरूप निर्दिष्ट है, लगभग वही स्वरूप बौद्धधर्म में भी स्वीकार किया गया है। जैनधर्म के निश्चयनय और व्यवहारनय बौद्धदर्शन के परमार्थ सत् और संवृतिसत् हैं । स्वलक्षण और सामान्यलक्षण भी इन्हीं के नामान्तर हैं । पर अन्तर यह है कि द्रव्य को 'संस्कृत' स्वरूप मानते हुए भी बौद्धदर्शन, विशेषतः माध्यमिक सम्प्रदाय, उसे निःस्वभाव अथवा शून्य कह देता है। इसकी सिद्धि में उसका कहना है कि संस्कृत रूप से उत्पाद आदि के स्वीकार किये जाने पर उत्पाद, स्थिति और भंग में सभी वस्तुओं को पुनः उत्पत्ति होती है और पुनः उत्पत्ति होने पर उत्पत्ति के बाद उत्पत्ति होगी। जैसे उत्पत्ति के बाद उत्पत्ति होना न्यायोचित है, वैसे भंग का होना भी न्यायोचित है । इसलिए भंग का भी, संस्कृतत्व होने के कारण, उत्पाद, भंग और स्थिति से सम्बन्ध है । अतएव भंग का भी अन्य भंग के सद्भाव से विनाश होगा । उसके बाद होने वाले भंग का भी विनाश होगा। इस प्रकार अनवस्था दोष हो जायगा। और अनवस्था होने पर सभी पदार्थों की असिद्धि हो जायेगी । इसलिए स्वभावतः संस्कृत लक्षणों की सिद्धि नहीं हो सकती । वे शून्य और निःस्वभाव हैं । दिखाई देते हैं, वे भी माया के समान हैंउत्पादस्थितिभङ्गानां युगपन्नास्ति संभवः । क्रमशः संभवो नास्ति, सम्भवो विद्यते कदा ॥ उत्पादादिषु सर्वेषु, सर्वेषां सम्भवः पुनः । तस्मादुत्पादवत् भङ्गो, भङ्गवद् दृश्यते स्थितिः ॥' द्रव्य रूप भेद जैन दर्शन में जिस तरह से द्रव्य के भेद-प्रभेद हुए हैं, बौद्धदर्शन में भी उसी तरह से रूप का विस्तार हुआ है । रूप को अभिधम्मत्थसंगहो में पाँच प्रकार से निर्दिष्ट किया गया है - समुद्देश विभाग, समुत्थान, कलाप एवं प्रवृत्तिक्रम । समुद्देश में पृथ्वी, अप्, तेज और वायु ये चार महाभूत हैं और उनका आश्रय लेकर उत्पन्न होने वाले रूपों को स्थविरवाद में ग्यारह प्रकार से बताया गया है १. चतुःशतकम्, ३६०-३६१ । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ १. भूत रूप ४ २. प्रसाद रूप ५ ३. गोचर रूप ५ ४. भाव रूप २ ५. हृदय रूप १ ६. जीवित रूप १ ७. आहार रूप १ ८. परिच्छेद रूप १ ९. विज्ञप्तिरूप २ १०. विकार रूप ३ ११. लक्षण रूप ४ भागचंद जैन भास्कर पृथ्वी, अप्, तेज और वायु चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और काय रूप, शब्द, गंध, रस और स्पृष्टव्य स्त्रीत्व और पुरुषत्व हृदय वस्तु जीवितेन्द्रिय ( कर्मज रूपों की आयु ) कवलीकार आहार आकाशधातु काय एवं वाग्विज्ञप्ति निष्पन्न रूप लघुता, मृदुता, कर्मष्यता व विज्ञप्तिद्वय अनिष्पन्न रूप उपचय, संतति, जरता एवं अनित्यता वसुबन्धु ने रूप के ११ प्रकार एक अलग ढंग से दिये हैं-५ इन्द्रिय, १ इन्द्रियों के विषय और १ अविज्ञप्ति | उन्होंने इसके २० प्रकार भी बताये हैं नील, लोहित, पीत और अवदात १. मूल जाति के वर्ण ४ २. संस्थान ८ दीर्घ, ह्रस्व, वृत्त, परिमण्डल, उन्नत, अवनत, शात (सम ) और विशात (विषम ) | ३. वर्ण ८ अभ्र, धूम, रज, महिका ( वाष्प ), छाया, आतप, आलोक और अन्धकार । कुछ आचार्य 'नभस्' को भी वर्ण मानकर उसकी संख्या २१ कर देते हैं । सौत्रान्तिक संस्थान और वर्ण को पृथक नहीं मानते, जबकि वैभाषिक मानते हैं । कुछ वैभाषिक आचार्य आतप और आलोक को ही वर्णं मानते हैं, क्योंकि नील, लोहित आदि का ज्ञान दीर्घं, ह्रस्व आदि आकार के रूप क्योंकि एक ही द्रव्य उभयथा में दिखाई देता है । सोत्रान्तिकों के अनुसार यह मान्यता सही नहीं । कैसे हो सकता है और वह वर्ण संस्थानात्मक कैसे हो सकता है ? जैनधर्म में इन महाभूतों को 'स्कन्ध' कहा गया है । स्कन्ध सामान्य संज्ञा है । बौद्धधर्म इसके ही आश्रय से चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा एवं काय को उत्पन्न मानता है, जिन्हें उपादाय रूप कहा गया है। जैन-बौद्धधर्म में इन्हें 'पंचेन्द्रिय' भी कहा जाता है । रूप, रस, गंध, शब्द तथा अप् धातु वर्जित भूतत्र संख्यात नामक स्पृष्टव्य को "गोचर" रूप कहा है। जैनधर्म में इनमें से कुछ पुद्गल के लक्षण के रूप में आ जाते हैं और कुछ पुद्गल की पर्यायों के रूप में अर्न्तभूत हो जाते हैं । चार भूत रूप, ५ उपादाय रूप, ५ गोचर रूप, २ भाव रूप, हृदय रूप, जीवित रूप व आहार रूप, ये अठारह प्रकार के रूप स्वभाव रूप, लक्षण रूप, निष्पन्न रूप, रूपरूप और संघर्षन रूप होते हैं । यहाँ सभाव रूप से द्रव्यवाचक है, परमार्थ रूप से वह सत् स्वभावी है । परन्तु यहाँ परमार्थ रूप से आकाशादि का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया । इन रूपों का लक्षण अनित्यता, दुःखता, अनात्मता तथा उपचय, संतति, जरता नामक उत्पाद, स्थिति और भङ्ग है । आकाशादि में ये लक्षण नहीं पाये जाते । अतः बौद्धधर्म में उन्हें 'अलक्षण रूप' माना गया है । परन्तु जैनदर्शन में आकाश को एक स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन बौद्धदर्शन इस दृष्टि से भेदवादी है और असत्कार्यवादी है। वहाँ किसी भी पदार्थ में अन्वय नहीं पाया जाता। इसलिए क्षणभंगवाद और शून्यवाद जैसे सिद्धान्तों को उसमें चरम सत्य माना गया है। परन्तु जैन 'भेदाभेदवाद' को स्वीकार करता है। जितना सत्य भेद में है, उतना ही सत्य अभेद में है। एक दूसरे के बिना उसका अस्तित्व नहीं। पदार्थ न केवल सामान्यात्मक है और न केवल विशेषात्मक, बल्कि सामान्य-विशेषात्मक है। द्रव्य का यही वास्तविक स्वरूप है। उसका यह स्वभाव है। अनेकान्तात्मक दृष्टि से वह कथञ्चित् भिन्न है और कथञ्चित् अभिन्न । अभेद द्रव्य का प्रतीक है और भेद पर्याय का । द्रव्य और पर्यायों का यह स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। उपादान और निमित्त कारणों के माध्यम से पदार्थों का संगठन और विघटन भी होता रहता है। इसके लिए किसी ईश्वर आदि की आवश्यकता नहीं रहती। पञ्चस्कन्धों को 'संस्कृत' कहा जाता है । स्कन्ध का तात्पर्य है-राशि अर्थात् संस्कृत पदार्थ । संस्कृत के दो भेद हैं-सास्रव और अनास्रव । उपादान स्कन्ध (लोभ और दृष्टि) सास्रव हैं तथा पञ्च स्कन्ध अनास्रव हैं। जैनधर्म में रूप उस अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ; जिस अर्थ में बौद्धधर्म में प्रयुक्त हुआ है। फिर भी उसका, प्रयोग अनेक अर्थों में यहाँ मिलता है। कहीं चक्षु के द्वारा ग्राह्य शुक्लादि गुणों के अर्थ में उसका प्रयोग हुआ है, जैसे-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श । कहीं रूप का अर्थ स्वभाव भी है। जैसे अनन्त रूप अर्थात् अनन्त स्वभाव ।' कहीं-कहीं रूप का अर्थ निर्ग्रन्थ साधुओं की वीतराग मुद्रा भी किया गया है । बौद्धधर्म में वर्णित भूतरूपों को जैनधर्म में एकेन्द्रिय जीवों के आश्रय के रूप में उल्लिखित किया गया है। वर्ण शब्द का भी अनेक अर्थों में प्रयोग हुआ है। जैसे शुक्लादिक वर्ण, अक्षर, ब्राह्मण आदि जाति विशेष, यश आदि । वर्ण नामका एक नाम कर्म भी है, जो पाँच प्रकार का है-कृष्ण, नील, रुधिर, हारिद्र और शुक्ल । यहाँ हरित और कृष्ण का बौद्धधर्मोक्त वर्णों के अतिरिक्त उल्लेख है। सर्वार्थसिद्धि में हरित के स्थान पर पीत वर्ण नियोजित किया गया है।५ लेश्या के प्रकरण में इन वर्गों की संख्या छह हो गई है। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ।' जैनधर्म में संस्थान भी नामकर्म का भेद है। इसका अर्थ है-आकृति । जिसके उदय से औदारिकादि शरीरों की आकृति बनती है, वह संस्थान नामकर्म है। इसके छह भेद किये गये हैं१. समचतुस्र (समचक्र), २. न्यग्रोध (ऊपर विशाल और नीचे लघु), ३. स्वाति (ऊपर लघु और नीचे भारी), ४. कुब्ज (कुबड़ापन), ५. वामन और ६. हँडक (अंगोपांगों को बेतरतीब हुण्ड की तरह रचना) । पूज्यपाद ने संस्थान के वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण, आयत, परिमण्डल आदि भेद भी किये हैं। इन संस्थानों में बौद्धधर्मोक्त प्रायः सभी संस्थान अन्तर्भूत हो जाते हैं। १. राजवातिक, १, २७ । २. प्रवचनसार, ता. व. गाथा, २०३ । ३. भगवती आराधना, वि. गा. ४७ । ४. षट्खण्डागम, ६.१, ९-१, सूत्र ३७ । ५. सर्वार्थसिद्धि, ५.२३ । ७. षट्खण्डागम, ६१,९१, सूत्र, ३४ । ६. षट्खण्डागम, १,१,१, सूत्र, १३६ । ८. सर्वार्थसिद्धि, ५, २४ । : । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागचंद जैन भास्कर शब्द जो उच्चरित होता है, वह शब्द है-सद् दीयति उच्चारीयतीति सद्दो । अर्थात् श्रोत्रविज्ञान के आलम्बनभूत सभी जीव-अजीव शब्दों को शब्द कहते हैं। सजीव सत्वों के भाव प्रकट करने वाले हँसने, रोने जैसे शब्द चित्त से उत्पन्न होते हैं तथा उदर शब्द, मेघ शब्द आदि बाह्य शब्द ऋतु से उत्पन्न होते हैं।' वसुबन्धु ने शब्द आठ प्रकार का बताया है। उनके अनुसार वह मूलतः चार प्रकार का है-उपात्त महाभूतहेतुक (हस्त, वाक्शब्द), अनुपात्तमहाभूत हेतुक (वायु, नदी शब्द) सत्त्वाख्य (वाग्विज्ञप्ति) एवं असत्त्वाख्य (अन्य शब्द)। ये चारों शब्द मनोज्ञ और अमनोज्ञ भी होते हैं । उपात्त वह है, जो चित्त चैत के अधिष्ठान भाव से उपगृहीत अथवा स्वीकृत हो । पंच ज्ञानेन्द्रिय भूत रूप चित्त से उपगृहीत हैं। लोक में इसे सचेतन या सजीव कहा जाता है । कुछ आचार्य प्रथम दो प्रकार के शब्द युगपत् मानते हैं, परन्तु वैभाषिक इसे स्वीकार नहीं करते। __जैनधर्म में शब्द को ध्वनिरूपात्मक माना गया है। अकलंक ने शब्द को अर्थाभिव्यक्तिकारक कहा है। यह दो प्रकार का है-भाषात्मक और अभाषात्मक । भाषात्मक शब्द के दो भेद हैंअक्षरात्मक (संस्कृत, प्राकृत आदि भाषायें) तथा अनक्षरात्मक (द्वीन्द्रियादि के शब्द-रूप एवं दिव्यध्वनि रूप)। अभाषात्मक शब्द दो प्रकार के हैं-प्रायोगिक और वैससिक। प्रायोगिक शब्द चार प्रकार का है १. तत (चमड़े से मढे हुए पुष्कर, भेरी आदि का शब्द)। २. वितत (तांत वाले वीणा और सुघोष से उत्पन्न होने वाला शब्द)। ३. घन (ताल, भेरी, मृदंग आदि के ताड़न से उत्पन्न होने वाला शब्द)। ४. सौषिर (बांसुरी और शंख आदि के फूकने से उत्पन्न होने वाला शब्द)। धवलाकार ने घोष और भाषा को भी इसी में संयोजित किया है । मेघादि से उत्पन्न होनेवाले शब्द वैस्रसिक हैं। ये शब्द स्कंधजन्य हैं। स्कन्ध परमाणुदल का संघात है और वे शब्द स्पर्शित होने से शब्द उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार शब्द नियत रूप से उत्पाद्य है। अतः वह पुद्गल की पर्याय है, आकाश का गुण नहीं । यहाँ सजीव अथवा उपात्त शब्द भाषात्मक शब्द जैसा है तथा अजीव अथवा अनुपात्तिक शब्द अभाषात्मक शब्द जैसा है । अनुपात्त महाभूतहेतुक और बैनसिक, दोनों समानार्थक हैं। रस और गन्ध बौद्धधर्म में रस (जिसका आस्वाद किया जा सके) छह प्रकार का है-मधुर, आम्ल, लवण, कटु, कषाय और तिक्त। षट्खण्डागम में लवण को छोड़कर शेष पांचों रसों को स्वीकार किया गया है। जो अपने आधारभूत द्रव्य को सूचित करे, वह गंध है-गन्धयति अत्तनो वत्थु सूचेतीति १. अभिधम्मत्थसंगहो, ६, ४० । २. धवला, १११,३३ । ३. राजवातिक, ५,२४ । ४. पंचास्तिकाय, ७९; राजवातिक, ५,१८ । ५. अभिधम्मत्थसंगहो, ६-६, अभिधर्मकोश, १-१०। ६. षट्खण्डागम, ६,१,९,१, सूत्र ३९ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तस्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ३९ गन्धो । यह गंध चार प्रकार का है - सुगन्ध, दुर्गन्ध, उत्कृष्ट (सम) और अनुत्कृष्ट (विषम) । प्रकरण शास्त्र में विषम गंध को न मानकर तीन ही भेद किये गये हैं । जैनधर्म में गंध भी नामकर्म का भेद है । जिस कर्म स्कंध के उदय से जीव के शरीर में जाति के प्रति नियत गंध उत्पन्न होता है, उस कर्म स्कन्ध को गन्ध कहा गया है। वह दो प्रकार का है - सुरभि और दुरभि । सम, विषम जैसे भेद यहाँ नहीं मिलते | स्पृष्टव्य स्पर्श करने योग्य धर्मं को 'स्पृष्टव्य' कहा गया है। यह स्पृष्टव्य गुण पृथ्वी, वायु और तेजस् धातुओं में ही होता है, अप् धातु में नहीं, सूक्ष्म न होने के कारण । शीतल धातु को अप् नहीं, बल्कि शीतल तेजस माना गया है । अप् धातु के स्पर्शकाल में अप् का ज्ञान भ्रम मात्र है । वस्तुतः अप् में रहने वाली पृथ्वी, वायु अथवा तेजस् धातु का ही सर्वप्रथम स्पर्श होता है, जो मनोद्वार वीथि से जाना जाता है । यह ११ प्रकार का है - महाभूत चतुष्क, इलक्षणत्व, कर्कशत्व, गुरुत्व, लघुत्व, शीतत्व, जिघत्सा ( बुभुक्षा) और पिपासा । यहाँ यह दृष्टव्य है कि स्थविरवाद अप् धातु में स्पृष्टव्य नहीं मानता, पर वसुबन्धु उसे मानते हुए प्रतीत होते हैं । ४ जैनधर्म में स्पर्श भी नामकर्म का भेद है । उसे आठ प्रकार का बताया गया है - कर्कश, मृदुक, गुरुक, लघुक, स्निग्ध, रुक्ष, शीत और उष्ण । निक्षेप की दृष्टि से स्पर्श के नाम, स्थापना, द्रव्य, एकक्षेत्र, अनन्तरक्षेत्र, देश, कर्मस्पर्श, त्वक्स्पर्श, स्पर्श-स्पर्श, सर्वस्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श, भावस्पर्श आदि अनेक भेद किये गये हैं। स्पर्श विषयक अनेक प्ररूपणाओं का भी वर्णन यहाँ मिलता है । इतना विस्तृत वर्णन बौद्धधर्म में नहीं मिलता। बौद्धधर्म में वर्णित ११ प्रकार जैनधर्मं में वर्णित ८ प्रकारों से मिलते-जुलते हैं । प्रसाद रूप स्वच्छ, अनाविल तथा प्रसन्न रूप को प्रसादरूप कहते हैं । ये प्रसादरूप रूपकलाप ही होते हैं। इनमें एक स्वच्छ धातु होती है, जो सम्बद्ध आलम्बनों को प्रतिभासित करती है । चक्षुविज्ञान का अधिष्ठान होकर जो सम या विषम आलम्बन को कहने वाले की तरह होती है, उसे चक्षुर्धातु कहते हैं । चक्षुःप्रसाद में चक्षुविज्ञान आश्रित होता है । चक्षुविज्ञान ही रूपालम्बन के समत्व - विषमत्व को जानते हैं । चक्षुः पिण्ड में जिस स्थान पर प्रतिबिम्ब पड़ता है, उसे ही चक्षुप्रसाद का स्थान कहते हैं । उसका परिमाण जूँ ( यूका ) के शिर के बराबर होता है और उसके सात स्तर होते हैं । इसमें दस रूप रहते हैं - पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वर्ण, गंध, रस, ओजस्, जीवित तथा चक्षुप्रसाद । साथ ही चित्तज, ऋतुज, आहारज एवं कर्मज कलाप रूप रहते हैं । इसी प्रकार श्रोत्रादि के विषय में भी समझना चाहिए । १. अभिधर्मकोश, १- १० । २. सर्वार्थसिद्धि, ५,२३ ॥ ३. विभावली, पृ० १४९ । ४. अभिधर्मकोश १,१० 1 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० भागचंद जैन भास्कर श्रोत्रप्रसाद कर्णकुहर के अन्तर्भाग में मुद्रिका सदश एक अत्यन्त निगढ़ स्थान है, जहाँ लोम सदृश तन्तु रहते हैं, उस स्थान पर श्रोत्रप्रसाद कलाप समूह रहता है। नासिका के अन्तर्भाग में अजाक्षुर सदृश एक स्थान विशेष में अनेक घ्राणप्रसाद कलाप रहते हैं। केश, लोम आदि ३२ कुत्सित कोट्टास एवं अकुशल पाप धर्मों का स्थान काय है। कायप्रसाद सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर रहता है। ये पाँचों प्रसाद रूप तृष्णा मूलक कर्मों से उत्पन्न होते हैं और अपने आधारभूत पुद्गल को रूपादि आलम्बनों की ओर आकर्षित करते हैं। इसलिए कामभूमि में रहने वाले सत्व इनके आकर्षण से रूपावलम्बन का दर्शन, श्रवण, घ्राण, आस्वादन और स्पर्श कराते हैं। ये पाँचों इन्द्रियाँ चक्षुर्विज्ञान, श्रोत्रविज्ञानादि के आश्रयभूत होती हैं। ये सभी रूप अहेतुक ( अलोम आदि अव्याकृत हेतुओं से असंप्रयुक्त ), सप्रत्यय (कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार में से किसी एक प्रत्यय से उत्पन्न होने वाले ), सास्रव ( लोम, दृष्टि एवं मोह के साथ उत्पन्न होने वाले ) संस्कृत, लौकिक, कामावचर, अनालम्बन तथा अप्रहातव्य हैं। इनमें प्रसाद नामक पाँच प्रकार के रूप आध्यात्मिक हैं। ये आध्यात्मिक रूप आत्मा को उद्दिष्ट या अधिकृत करके प्रवृत्त होते हैं अर्थात् आत्मा के रूप में मिथ्या उपादान करके व्यवहृत होते हैं। शेष २३ रूप बाह्य रूप हैं । वे स्कन्ध के उपकारक नहीं होते हैं । प्रसाद एवं हृदय नामक छह प्रकार के रूपों को 'वस्तुरूप' कहते हैं। ये चित्त-चैतसिकों के आश्रय होते हैं। शेष रूप अवस्तुरूप होते हैं। प्रसाद रूप एवं विज्ञप्तिद्वय नामक सात प्रकार के रूप. द्वाररूप हैं, क्योंकि प्रसादरूप चक्षुद्वार आदि वीथियों को उत्पन्न करते हैं तथा विज्ञप्तिद्वय कर्म के उत्पत्ति के कारण (द्वार ) होते हैं । शेष रूप अवद्वार रूप हैं। प्रसार (१) भाव (२) तथा जीवित (१) नामक आठ प्रकार के रूप इन्द्रिय रूप हैं। इनका अपने-अपने कृत्यों पर आधिपत्य होता है। शेष अनिन्द्रिय रूप हैं। प्रसाद एवं विषय नामक बारह प्रकार के रूप औदारिक रूप (स्पष्ट प्रतिभासित होने वाले), सन्ति के रूप (ज्ञान द्वारा प्रतिभासित होने वाले) तथा सप्रतिद्यरूप ( अन्योन्य संघट्टन करके वीथिचित्रों को उत्पन्न करने वाले ) होते हैं । शेष रूप सूक्ष्म, दूरेरूप तथा अप्रतिद्यरूप हैं । कर्मज रूप 'उपादिष्ण' ( उपादत्त ) रूप हैं। वे तृष्णा, दृष्टि आदि लौकिक कुशल या अकुशल कर्मों का आलम्बन करते हैं। कर्मज रूपों से भिन्न चित्रज, ऋतुज एवं आहारज रूप 'अनुपादिन्न' रूप हैं। रूपायतन सन्निदर्शन रूप ( रूपालम्बन ) है। शेष अनिदर्शन रूप हैं। चक्षुष एवं श्रोत्र दोनों स्वसमीप अप्राप्त ( अघट्टित ) आलम्बन का ग्रहण करते हैं तथा घ्राण, जिह्वा एवं काय नाम प्रसाद रूप सम्प्राप्त आलम्बन का ग्रहण करते हैं। इसलिए इन्हें गोचर ग्राहक रूप कहा जाता है । शेष रूप अगोचर ग्राहक हैं। वर्ण, गन्ध, रस, ओजस् एवं भूतचतुष्क ये आठों रूप अविनिर्भोगरूप (पृथक्-पृथक् उत्पन्न होकर पिण्डीभूत होकर अवस्थित रहते हैं। शेष रूप विनिर्भोग रूप हैं। कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार ये चारों तत्त्व रूप के उत्पादक कारण हैं। इन चारों से किस १. विशेष देखिये, परमत्थदीपिनी, पृ० २३३-३४; विसुद्धिमग्ग, पृ० ३०८-११ । २. विस्तार से देखिये, अभिधम्मत्थसंगहो का छठा उद्देश । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ४१ प्रकार रूपों की उत्पत्ति होती है, इसे रूप समुत्थानकलाप में स्पष्ट किया गया है। इसी प्रकार रूपकलापों की उत्पत्ति, स्थिति और भंग का विवेचन रूपकलापविभाग में उपलब्ध है। जैन दर्शन में इस प्रकार के रूपकलापों के विषय में इतने विस्तार से चर्चा नहीं मिलती। इनका विषय बहुत कुछ इन्द्रियों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया है। जैनधर्म में पुद्गल के आठ प्रकार बताये गये हैं-औदारिक, आहार, भाषा, वैक्रियक, मन, श्वासोच्छ्वास, तैजस और कार्मण। ये सभी वर्गणा प्रकार उपर्युक्त कलापों से मिलते-जुलते हैं । जीवितेन्द्रिय और चित्त का सम्बन्ध आत्मा ( श्वासोच्छ्वास ) और मन से है। कायविज्ञप्ति, आहार, वाग्विज्ञप्ति का सम्बन्ध क्रमशः औदारिक, कर्मसमुत्थान का सम्बन्ध क्रमशः औदारिक, आहार, भाषा और कार्मण वर्गणा से है। तैजस् और वैक्रियक वर्गणा बौद्धदर्शन में नहीं मिलती। जैनदर्शन की स्कन्ध-निर्माण-प्रक्रिया बौद्धदर्शन से काफी सुलझी और व्यवस्थित दिखाई देती है। इन्द्रिय बौद्धधर्म में इन्द्रिय वह है, जो अपने संबद्ध कृत्यों में आधिपत्य बनाये रखे। जैनधर्म में भी इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों को सेवन करने में स्वतन्त्र बताया गया है। इस दृष्टि से दोनों व्युत्पत्तियाँ लगभग समान हैं। परन्तु जैनाचार्यों ने इन्द्रिय के कुछ और विशेष अर्थों को स्पष्ट किया है-२ (1) इन्द्र का अर्थ आत्मा है । अतः उसे जानने में जो निमित्त होता है, वह इन्द्रिय है। (ii) सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में जो कारण हो, वह इन्द्रिय है। (iii ) इन्द्र का अर्थ नामकर्म है, अतः नामकर्म से जो रची गई हो, वह इन्द्रिय है। ( iv ) जो प्रत्यक्ष में व्यापार करती है, वह इन्द्रिय है।। (v) जो अपने-अपने विषय का स्वतन्त्र आधिपत्य करती हों, वे इन्द्रिय हैं। ये इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्श रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । यहाँ मन को ईषत् इन्द्रिय स्वीकार किया गया है। ये पाँचों इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । शरीर नामकर्म से रचे गये शरीर के चिह्न-विशेष द्रव्येन्द्रिय हैं। वे दो प्रकार की हैं-निवृत्ति और उपकरण । निवृत्ति का अर्थ है-रचना । इन्द्रियों के आकार रूप से अवस्थित शुद्ध आत्म-प्रदेशों की रचना को आभ्यन्तर निवृत्ति और तदाकार प्राप्त पुद्गल प्रचय को बाह्यनिवृत्ति कहते हैं। जो निवृत्ति का उपकार करता है, वह उपकरण कहलाता है। नेत्रेन्द्रिय में कृष्ण और शुक्ल मण्डल आभ्यन्तर उपकरण है तथा पलक और दोनों बरोनी आदि बाह्य उपकरण हैं। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में भी विवेचन मिलता है। इन्द्रिय रूप से परिणत जीव को ही भावेन्द्रिय कहा जाता है । यह दो प्रकार की है-लब्धि और उपयोग । आत्मा के चैतन्य गुण का क्षयोपशम हेतुक विनाश लब्धि है और चैतन्य का परिणमन उपयोग है । भावेन्द्रिय द्रव्यपर्यायात्मक नहीं, बल्कि गुणपर्यायात्मक होती है। ये इन्द्रियां ज्ञानावरण के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होती हैं । क्षयोपशम रूप भावेन्द्रियों १. "अधिपतिछैन इन्द्रियं," "इन्दट्ठ कारेतीति इन्द्रियं",-अटुसालिनी, पृ० ९९ एवं २४५ । २. धवला, १. १. १.४, पृ. १३५-१३७; सर्वार्थसिद्धि, १. १. ४; राजवार्तिक, १. १४ । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ भागचंद जैन भास्कर के होने पर ही द्रव्येन्द्रियों की उत्पत्ति होती है । इसलिए भावेन्द्रियाँ कार्य हैं और द्रव्येन्द्रियाँ कारण हैं। इनमें चक्षु और मन अपने विषय को स्पर्श किये बिना ही जानती हैं, अतः वे अप्राप्यकारी हैं। शेष इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं। घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, और जिह्वा इन चार इन्द्रियों का आकार क्रमशः जौ की नली, मसूर, अतिमुक्तक पुष्प तथा अर्धचन्द्र अथवा खुरपा के समान हैं और स्पर्शन् इन्द्रिय अनेक आकार(रूप) है। इनका विषय क्रमशः गन्ध, वर्ण, शब्द, रस और स्पर्श है । ये मूर्तिक पदार्थ को ही विषय करती हैं, जबकि मन मूर्तिक और अमूर्तिक दोनों को विषय करता है। ___ इन इन्द्रियों के क्षेत्र इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैंइन्द्रिय एकेन्द्रिय । द्वीन्द्रिय । त्रीन्द्रिय । चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पंचे। संज्ञी पंचेन्द्रिय १. स्पर्शन् | ४०० ८०० १६०० ३२०० ६४०० ९योजन | धनुष धनुष धनुष धनुष धनुष २. रसना ६४ धनुष २५६ । ५१२ ९ योजन धनुष धनुष घ्राण १०० २०० ४०० ९ योजन धनुष धनुष चक्षु २९५४ ५९०८ ४७२६२, धनुष । धनुष ५. श्रोत्र । ८००० १२ योजन धनुष ६.मन सर्वलोकवर्ती १२८ धनुष धनुष बौद्धधर्म में चक्षु आदि की गणना इन्द्रियों, आयतनों (असाधारण कारण), धातुओं तथा प्रसाद रूपों में की गई है। इसका तात्पर्य यह है कि चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श (काय) अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में स्वतन्त्र हैं, असाधारण कारण हैं, अपना स्वभाव धारण करते हैं तथा स्पष्ट हैं । इन्हें द्वार भी कहा गया है। इन द्वारों से रूपादि का आलम्बन करने वाली विज्ञान धातुओं की उत्पत्ति होती है । उन्हें द्वारालम्बनतदुत्पन्न कहते हैं। द्वार आलम्बन विज्ञान चक्षुर्धार रूपालम्बन चक्षुर्विज्ञान श्रोत्रद्वार शब्दालम्बन श्रोत्रविज्ञान घ्राणद्वार गन्धालम्बन घ्राणविज्ञान जिह्वाद्वार रसालम्बन जिह्वाविज्ञान कायद्वार स्पृष्टव्यालम्बन कायविज्ञान मनोद्वार धर्मालम्बन मनोविज्ञान जैनधर्म के समान भावेन्द्रियों की कल्पना बौद्धधर्म में नहीं है। पाँचों इन्द्रियावरण के क्षयोपशम को भावेन्द्रिय कहते हैं । बौद्धधर्म में इन्द्रियों को कर्मज कहा गया है। उसी रूपकलाप को १. धवला, १.१.१.४-११५; मूलाचार, १०९१-९२; सर्वार्थसिद्धि, १.१४; २.१६-१९; गोम्मटसार-जीवकांड, १६५; जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग १ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन हम भावेन्द्रिय के साथ किसी सीमा तक बैठा सकते हैं । इनके क्षेत्र का वर्णन बौद्धधर्म में नहीं । आकार का वर्णन मिलता है, पर कुछ अन्तर के साथ । बौद्धधर्म में चक्षु, श्रोत्र, घ्राण और जिह्वा को क्रमशः यूंका, मुद्रिका, अजाक्षुर तथा कमलदल के समान बताया है तथा जैनधर्म में मसूर, जौ की नली, अतिमुक्तक पुष्प और खुरपा अथवा अर्धचन्द्र के समान कहा है। दोनों परम्पराओं में कोई विशेष मतभेद नहीं है। बौद्धधर्म में जिसे चक्षुर्धातु व चक्षुद्वार कहा है, वह जैन धर्म का निवृत्ति द्रव्येन्द्रिय है । बौद्धधर्मं में जिसे चक्षुप्रसाद कहा है, जैनधर्म का वह आभ्यन्तर उपकरण द्रव्येन्द्रिय है । आलम्बन और विज्ञान में कोई विशेष अन्तर नहीं । पञ्चेन्द्रियों के गोचररूपों को जैनधर्म में इन्द्रियों का विषय कहा है । स्त्रीत्व और पुरुषत्व ये दो भाव रूप हैं । ये दोनों भावरूप प्रतिसन्धिक्षण से ही स्कन्ध में उत्पन्न हो जाते हैं और कायप्रसाद की तरह संपूर्ण शरीर में व्याप्त होकर विद्यमान रहते हैं । भाव के अनुसार ही उनका लिंग, निमित्त, कुत्त (क्रिया) एवं आकार होता है । हस्त, पाद आदि संस्थान लिंग (नियतचिह्न) हैं, स्मश्रु रहित या युक्तं दाढी आदि निमित्त (अनियत चिह्न) हैं, चलनी, चक्की अथवा रथ आदि के साथ क्रीड़ा करना कुत्त (स्वभाव) है तथा विशेष प्रकार का गमन आदि आकप्प (आकार) है ।' उभयव्यञ्जक योनि का भी कथन मिलता है, जिसमें कहीं स्त्रीत्व का और कहीं पुरुषत्व का प्राधान्य रहता है । स्त्रीभाव और पुरुषभाव रूपों में पुरुषभाव रूप उत्तम तथा स्त्रीभाव रूप हीन माना गया है। कुशल कर्मों से पुरुषभाव और अकुशल कर्मों से स्त्रीभाव की प्राप्ति होती है । ४३ जैनधर्म में इन भाव रूपों को वेदकर्म का परिणाम माना गया है । यह वेद कर्म मोहनीय कर्म से उत्पन्न होता है और स्त्रीभाव, पुरुषभाव तथा नपुंसकभाव को प्राप्त होता है । ये तीनों वेद द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग के भेद से दो प्रकार के होते हैं । इन्हें नोकषाय जनक कहा गया है । नाम कर्म के उदय से होने वाली शरीर रचना द्रव्यलिङ्ग है तथा आत्मपरिणाम भावलिङ्ग है । अन्तरङ्ग परिणामों के कारण द्रव्य पुरुष को स्त्रीवेद का और द्रव्य स्त्री को पुरुषवेद का उदय देखा जाता है । भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यञ्चों में तथा देवों में स्त्री और पुरुष ये दो ही वेद होते हैं, परन्तु कर्मभूमिज मनुष्य एवं पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में तीनों वेद होते हैं। नारकी जीव नपुंसकवेदी ही होते हैं । पुरुषवेद के कर्म अपेक्षाकृत अधिक शुभ माने जाते हैं । सिद्धान्तः दोनों में कोई भेद नहीं । वर्णनप्रक्रिया में ही अन्तर है । हृदयवस्तु को हृदय रूप कहते हैं । इसी के होने पर व्यक्ति कुशल- अकुशल कर्म करता है । पालि त्रिपिटक में हृदयवस्तु के सन्दर्भ में कुछ विशेष जानकारी नहीं मिलती। पर आगे चलकर पट्टान के आधार पर उसे विकसित किया गया है। फलतः उसे मनोधातु और मनोविज्ञानधातु के आश्रयस्थल के रूप में स्वीकार कर लिया गया । जीवितेन्द्रिय को जीवित रूप कहा जाता है। यह जीवितेन्द्रिय कर्मज रूपों की आयु है । इसमें कायप्रसाद तथा भावरूप नहीं होते, पर वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। जिससे सहजात धर्म जीवित रहते हैं और जीवन धारण करने में जो अधिपति रहता है, वह जीवितेन्द्रिय कहलाता १. अभिघम्मत्थसंगहो, ६.७; विभावनी, पृ० १५० । २. मट्टसालिनी, पू० २५९ । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागचंद जैन भास्कर ૪૪ है । धातुक आयु ही जीवितेन्द्रिय है । यह ऊष्म और विज्ञान का आधार है । शरीर से आयु, ऊष्म और विज्ञान के अलग हो जाने पर शरीर काष्ठवत् अचेतन बन जाता है । यह जीवितेन्द्रिय दो प्रकार की होती है - नाम जीवितेन्द्रिय और रूप जीवितेन्द्रिय । नाम जीवितेन्द्रिय अपने संप्रयुक्त धर्मों का अनुपालन करती है और रूप जीवितेन्द्रिय अपने साथ अत्यन्त कर्मज एवं चित्तज रूपों का अनुपालन करती है ।' प्राणियों का जीवन इन दोनों जीवितेन्द्रियों पर अवलम्बित है । उदक, धात्री एवं नाविक से इसकी उपमा दी जाती है । यही नाम रूप धर्मों की निरन्तर प्रवृत्ति ( संतति ) बनाये रखती है । जब तक कर्म अवशिष्ट रहते हैं, तबतक संप्रयुक्त धर्मं निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं । इसलिए यह जीवितेन्द्रिय नाम-रूप स्कन्ध संतति में प्रधान होती है । उसी के अनुपालन -सामर्थ्य से कर्मज रूपों की आयु ५१ क्षुद्रक्षण पर्यन्त होती है । स्थविरवाद में इसे सर्वचित्तसाधारण चैतसिकों में अन्यतम माना गया है । जीवितेन्द्रिय की तुलना आत्मा से की जा सकती है। आत्मा भी सर्वचित्त साधारण चैतसिक जैसा ही है । अन्तर यह है कि बौद्धधमं के अनुसार परिनिर्वाण प्राप्त होते ही इसका उच्छेद हो जाता है, जबकि जैनधर्म में आत्मा का उच्छेद कभी नहीं होता । कर्म विनिर्मुक्त होने पर वह विशुद्ध अवस्था में आ जाता है । कवलीकार आहार वह आहार है, जिसका कवल किया जाता है। अतः समस्त खाद्य पदार्थ कवलीकार आहार हैं । यहाँ आहार में सन्निविष्ट ओजस् को ही आहार रूप माना 1 जैनधर्म में उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों के ग्रहण को आहार कहते हैं । यह आहार शरीर नामकर्म के उदय तथा विग्रह गति नाम के उदय के अभाव से होता है । जैनागमों में आहार विषयक वर्णन विस्तार से किया गया है । वहाँ आहार के चार भेदों का वर्णन मिलता है— कर्माहारादि, खाद्यादि, काँजी आदि तथा पानकादि । कर्माहारादि में कर्माहार, नोकर्माहार, कवलाहार, लेप्याहार, ओजाहार और मानसाहार का समावेश है। यहाँ कवलाहार और ओजाहार का सम्बन्ध बौद्धधर्म में उल्लिखित कवलीकार आहार और उसके ओजस् आहार से स्पष्ट है। जैनधर्म में " अर्हत् कवलाहार करते हैं या नहीं" यह एक विवाद का विषय रहा है । बौद्धधर्म में इस प्रकार की किसी समस्या का उल्लेख नहीं । अठारह प्रकार के ये रूप स्वभावरूप, सलक्षणरूप, रूपरूप एवं संमर्शनरूप कहे जाते हैं । इनमें अनित्यता, दुःखता, अनात्मता तथा उपचय, संतति, जरता एवं अनित्यता रूप द्रव्य सत् कहलाते हैं । इन्हें भाव भी कहते हैं । जैनधर्म में भी इनके लिए द्रव्य सत् और भाव शब्दों का प्रयोग हुआ है । बौद्धदर्शन की यह रूप की कल्पना रूप के गुणत्व पर आधारित है । उसके अनुसार गुण से व्यतिरिक्त गुण की अवस्थिति किसी भी तर्क से सिद्ध नहीं होती, पर जैनदर्शन इसमें कथञ्चित् भेद मानता है । १. परमत्थदीपिनी, पृ० २३७; विशुद्धिमग्ग, पृ० ३१२ । २. अभिधम्मत्थसंग हो, ६-१० विसुद्धिमग्ग, पृ० ३१३; अट्टसालिनी, पृ० २६५-६ । ३. राजवार्तिक, ९.७ ४. अभिधम्मत्थसंगहो, ६.११ । ५. मूलाचार, ६७६; भगवती आराधना, ७००; अनागार धर्मामृत, ६.७३ । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा: एक तुलनात्मक अध्ययन कुछ धातुएँ या रूप ऐसे होते हैं, जो स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं। उन्हें अनिष्पन्न रूप कहा जाता है। इनकी संख्या दस है-परिच्छेद रूप आकाश, विज्ञप्ति द्वय ( कायविज्ञप्ति और वाग्विज्ञप्ति), विकाररूप तीन ( रूप की लघुता, मृदुता और कर्मण्यता ) तथा लक्षणरूप चार ( रूप का उपचय, संतति, जरता एवं अनित्यता )। ये परमार्थ सत् नहीं अपितु प्रज्ञप्तिसत् द्रव्य हैं। ___आकाशधातु परिच्छेदरूप है। वह चार प्रकार का है-१. अजराकाश, २. परिच्छिन्नाकाश, ३. कसिणुग्घाटिकाकाश और ४. परिच्छेदाकाश । इनमें अजराकाश जैनधर्म का अलोकाकाश है और शेष तीन प्रकार लोकाकाश के रूप में समाहित किये जा सकते हैं। विज्ञप्तिद्वय शरीरादि की हलन-चलन से संबद्ध हैं। बौद्धधर्म ने आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार कर उसे प्रज्ञप्तिसत् कह दिया । परिणामतः उसको हलन-चलन आदि क्रियाओं को भी प्रज्ञप्तिसत् कहना पड़ा। उसे विकार रूपों में भी अन्तर्भूत किया गया है। चित्त और मन इस प्रसंग में चित्त और मन पर विचार किया जाना अपेक्षित है। श्रमण साहित्य में दोनों शब्द लोकप्रिय रहे हैं, फिर भी बौद्धधर्म ने चित्त शब्द का प्रयोग अधिक किया है और जैनधर्म ने 'मन' का। बौद्धधर्म में चित्त के साथ ही मन और विज्ञान शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं-"चित्तं इति पि, मनो ति पि विज्ञाणं इति पि"।' जो कुशल-अकुशल कर्मों का संचय करता है, वह चित्त है (चिनोति)। यही चित्त मनन करता है (मनुते), जो अपर चित्त का आश्रयभूत है, यही चित्त अपने आलंबन को जानता है, जो इन्द्रिय और आलंबन पर आश्रित है। ये तीनों शब्द चित्त को विभिन्न अवस्थाओं को स्पष्ट करते हैं। यह चित्त रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य तथा धर्म नामक विषयों पर उत्पन्न होता है तथा पुनः उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाता है । यही उसकी अनवरत प्रक्रिया उसकी चंचलता को सूचित करती है ।२ चित्त की शुद्ध और अशुद्ध अवस्था को स्पष्ट करते हुए बुद्ध ने मन को ही प्रधानता दी है। षड्विज्ञान और मन को मिलाकर सप्त धातुओं की बात कही गई है। विज्ञान की उत्पत्ति विषय और प्रसादरूप के संघट्टन से होती है। मन को आयतन, इन्द्रिय और द्वार भी कहा गया है। विज्ञानवाद में इस सिद्धान्त का कुछ और विकास हुआ, वहाँ विज्ञान को तीन भागों में विभाजित किया-आलयविज्ञान, मनोविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञान । इसका विवेचन आत्मा और कर्म का विवेचन करते समय किया जायगा । ___ जैनधर्म में चित्त, मन और विज्ञान का प्रयोग हुआ है। आत्मा का चैतन्य विशेष रूप परिणाम 'चित्त' कहलाता है। यह हेयोपादेय का विचार करता है। बोध, ज्ञान और चित्त ये तीनों १. संयुत्तनिकाय, भाग २, पृ० ९४ । २. फन्दनं चपलं चित्तं, दुरक्खं दुन्निवारयं-धम्मपद, चित्तवग्ग, १ । ३. मनो पुब्बंगमाघम्मा-धम्मपद, १. १-९ । ४. सर्वार्थसिटि, २.३२ । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागचंद जैन भास्कर शब्द समानार्थक हैं।' ज्ञान को विज्ञान भी कहा गया है, जो आत्मा के गुण हैं। बौद्धधर्म के चित्त और विज्ञान भी आत्मा का वही कार्य करते हुए दिखाई देते हैं। जैनदर्शन में मन को आभ्यन्तर इन्द्रिय माना गया है। उसे अतीन्द्रिय और अन्तःकरण भी कहा जाता है। यह मन दो प्रकार का होता है-द्रव्यमन और भावमन । हृदय स्थान में अष्ट पांखड़ी के कमल के आकार रूप पुद्गलों की रचना विशेष द्रव्यमन है। सूक्ष्म होने के कारण इसे 'ईषत न्दिय' भी कहा जाता है। संकल्प-विकल्पात्मक परिणाम रूप ज्ञान की अवस्था विशेष को भावमन कहते हैं । भावमन ज्ञान स्वरूप है और ज्ञान जीव का गुण होने से आत्मा में अन्तर्भूत हो जाता है। बौद्धधर्म में मन को इन्द्रियों के अन्तर्गत रखा गया है, पर जैनधर्म उसे इन्द्रिय नहीं मानता। इसका मूल कारण यह है कि यहाँ आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहा गया है। जिस प्रकार शेष इन्द्रियों का बाह्य इन्द्रियों से ग्रहण होता है, उस प्रकार मन का नहीं होता। इसलिए उसे इन्द्रिय का लिंग नहीं कह सकते । जीव अथवा आत्मा जैनधर्म विशुद्ध आत्मवादी धर्म है, जबकि बौद्धधर्म अनात्मवादी अथवा निरात्मवादो । बौद्धधर्म की निरात्मवादिता उसके विकास के इतिहास में प्रतिबिम्बित होती है। उसने आत्मा को वस्तु सत् नहीं माना, बल्कि उसे प्रज्ञप्तिसत् स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, वहाँ यह भी कहा गया है कि आत्मवादिता क्लेशोत्पादिका है और संसार का मूल कारण है। उत्तरकालीन बौद्ध साहित्य में तो इस मत को तर्कनिष्ठवृत्ति से प्रस्तुत किया गया है और यह कहा गया है कि आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती। प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण उसके पृथक् सद्भाव को सिद्ध नहीं कर पाते। बौद्धदर्शन में आत्मा के अस्तित्व को स्पष्ट रूप से भले ही स्वीकार न किया गया हो, पर 'चित्तसंतति' शब्द देकर उसके रिक्त स्थान की पूर्ति अवश्य कर दी है। इसके अनुसार पूर्व चित्त का नाश और उत्तर चित्त का उत्पाद होता है। चित्त की यह संतति अनादि काल से प्रवृत्त हो रही है और आगे भी होती रहती है। जैनदर्शन चित्त संतति के समकक्ष ज्ञानपर्यायों को मानता है। ये ज्ञानपर्यायें प्रत्येक क्षण परिवर्तित होती रहती हैं अर्थात् पूर्वज्ञान का विनाश होते हो उत्तर ज्ञानपर्याय उत्पन्न हो जातो है । बौद्ध पर्यायवादी हैं, अतः ज्ञान तो है पर उसका आश्रय रूप कोई द्रव्य नहीं। जबकि जैन द्रव्यवादी हैं और द्रव्यपर्यायात्मक होने के कारण ज्ञान को जीव द्रव्य का गुण स्वीकार करते हैं और उसको विविध अवस्थाओं को उसका पर्याय । यह दोनों सिद्धान्तों में अन्तर है। १. नियमसार, ता० वृ० ११६ । २. सर्वार्थ सिद्धि, ५.१९ । ३. धवला, १.१.१.३५ । ४. विशेष देखिए, लेखक की पुस्तक "बौद्ध संस्कृति का इतिहास" पृ० ८८-९२ । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ४७ यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि बौद्धदर्शन की दृष्टि से चित्तसंतति ज्ञान काल्पनिक और भ्रमजनित है, परन्तु जैनों के अनुसार यह काल्पनिकता ही सही नहीं है । यदि चैतन्य का सर्वथा अपलाप किया जाय, तो संतानत्व सिद्ध नहीं हो सकता। संतान की सिद्धि प्रतीत्यसमुत्पाद पर आधारित है, जो क्षणभंगवाद के मानने पर निर्दोष नहीं रह जाता। बौद्धधर्म में स्कन्ध संतति के साथ ही आत्मा को स्वीकार करने के बीज अवश्य दिखाई देते हैं। यही कारण है कि उसके विवेचन काल में संवृतिसत् और परमार्थसत् की बात आचार्यों को करनी पडी। बौद्ध संप्रदाय में ही एक वात्सीपत्रीय सम्प्रदाय तो पुदगलवादी ही रहा है। तत्त्वसंग्रह में उल्लिखित भदंत योगसेन भी वात्सोपुत्रीय होना चाहिए। वे क्षणिकवाद में 'अर्थक्रिया' नहीं मानते दिखाई देते हैं । फलतः आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते होंगे। उनके अनुकरण पर अन्य दार्शनिकों ने भी क्षणिकवाद में अर्थक्रिया के प्रति सन्देह व्यक्त किया है ।' पुद्गलवादियों जैसे कुछ और भी बौद्ध सम्प्रदाय थे, जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते थे, पर उनके ग्रन्थ उपलब्ध न होने से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वात्सीपुत्रीय सम्प्रदाय के अनुसार आत्मा न स्कन्धों से मिला है और न अभिन्न है। यह वस्तुतः "न च सो न च अो" की ही अभिव्यक्ति है। वस्तुतः पुद्गलवाली होते हुए भी वात्सीपुत्रीय अनात्मवाद से उभर नहीं सके। इसलिए वे उसे एक द्रव्य नहीं मान सके। उनके अनुसार पुद्गल-प्रज्ञप्ति का व्यवहार प्रत्युत्पन्न आध्यात्मिक उपात्त स्कन्धों के लिए होता है। इसलिए वे कहते हैं कि यदि आत्मा स्कन्धों से अन्य होता, तो वह शाश्वत और असंस्कृत होता। यदि वह स्कन्धों से अनन्य होता, तो उसके उच्छेद का प्रसंग आता। हम यह जानते हैं कि कुछ बुद्ध अपने आप को न शाश्वतवादी मानते और न उच्छेदवादी। वसुबन्धु आदि आचार्य वात्सीपुत्रीय सम्प्रदाय का खण्डन करते हुए दिखाई देते हैं। उन्होंने बड़े आयास के साथ वात्सीपुत्रीयों के तर्कों का खण्डन किया और प्रस्थापित किया कि पुद्गल स्कन्ध समुदाय प्रज्ञप्तिमात्र है, संज्ञा मात्र है, वस्तु सत् नहीं। उसे नाम और रूप स्कन्धों का संयोजन कहा जा सकता है । कर्मों के कारण उसमें नैरन्तर्यमात्र है, नित्यता नहीं। वसुबन्धु के उत्तर देने के बावजूद वसुबन्धु का एक प्रश्न तो बिलकुल अनुत्तरित रह जाता है। उनका कहना है कि यदि आत्मा नाम का कोई सत्व नहीं, वह केवल हेतु-प्रत्यय से जनित ही धर्म है, स्कन्ध, आयतन और धातु है, तो फिर बुद्ध को सर्वज्ञ कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि सर्वज्ञता का आधार आत्मा के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? __वात्सीपुत्रीय के ये प्रश्न कदाचित् बौद्धेतर सम्प्रदायों के प्रश्नों का प्रतिनिधित्व करते हुए दिखाई देते हैं । इसलिए कर्मों का कर्ता, भोक्ता, संसरणकर्ता, प्रत्यभिज्ञाता कौन होगा ? यदि आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकारा जाय । इन ज्वलन्त प्रश्नों का उत्तर महायानी आचार्यों ने यथासंभव देने का प्रयत्न किया है। उनके उत्तर से उनकी वाक्पटुता तथा अगाध विद्वत्ता एवं चिन्तनशीलता का दर्शन होता है । वसुबन्धु, नागार्जुन, आर्य देव, शान्तरक्षित आदि आचार्यों के नाम उल्लेखनीय हैं। इस सन्दर्भ में वात्सीपुत्रीय के पक्ष में कुमारलात का यह श्लोक दृष्टव्य है १. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. ३७९; स्याद्वादमंजरी, कारिका ५ । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ भागचंद जेन भास्कर दृष्टिदंष्ट्रावभेदं चापेक्ष्य भ्रंशं च कर्मणाम् । देशयन्ति बद्धा धर्म व्याघ्री पोतापहारवत् ।। चित्तों का आश्रय कौन है ? और कौन संस्कार विशेष की अपेक्षाकर चित्त का उत्पाद करता है ? आदि जैसे प्रश्न भी सही समाधान की खोज में लगे हुए हैं। बौद्धाचार्य इन प्रश्नों का पूरा समाधान नहीं कर पाये। आत्मा के अस्तित्व को सीधे ढंग से अस्वीकार किये जाने पर बौद्धों को 'संतति' स्पष्ट करने के लिए अनेक तत्त्वों की कल्पना करनी पड़ी। इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने रूप का विभाजन किया। चतुर्महाभूतों के अतिरिक्त प्रसादरूप, गोचररूप, भावरूप, हृदयरूप, जीवितरूप, आहाररूप आदि अनेक प्रकार के रूप हैं। कर्म, चित्त, ऋतु एवं आहार रूप के उत्पादक कारण हैं। इनमें आत्मा के कार्य को करने वाले तत्त्वों के लिए चित्तविज्ञान, जीवितरूप, विज्ञप्तिरूप, हृदयरूप आदि जैसे तत्त्वों को खोजना पड़ा। चित्त, विज्ञान जैसे तत्त्व कहाँ से कैसे उत्पन्न होते हैं ? यह गुत्थी बनी ही रहती है। इसके बावजूद अत्तवादोपादान जैसे तत्त्वों को भी संयोजित किया गया, जो संसरण के कारणों के रूप में प्रस्तुत हुए। इस पर्यवेक्षण से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि बौद्धधर्म ने 'अत्तवाद' को विवाद का मूल कारण माना और उसे अव्याकृतवाद से आगे बढ़ाकर निरात्मवाद तक पहुंचाया। विवाद समाप्त तो नहीं हो सका, पर मानस में एक नई विचार-क्रान्ति अवश्य सामने आई । जिसने अपने उच्च स्वर में यह प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया कि आत्मा को न मानने से भी काम चल सकता है । पर यह सिद्धान्त सभी बौद्ध संप्रदायों को संतुष्ट नहीं कर सका। जैसा हम पीछे लिख चुके हैं, संमितीय बौद्ध अस्तित्ववादी हैं। उनका मन्तव्य है कि दर्शन, श्रवण, घ्राणादि वेदनाओं के उपादाता का अस्तित्व उपादानों के पूर्व अवश्य है, क्योंकि अविद्यमान कारक की दर्शनादि क्रिया का होना किसी भी स्थिति में संभव नहीं। परन्तु विज्ञानवादी इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते । वे उसके खण्डन में अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं कि पुद्गल की प्रज्ञप्ति दर्शनादि से होती है । दर्शनादि से पूर्व यदि पुद्गल की सत्ता मानी जाय, तो वह दर्शनादि से निरपेक्ष होगी । यदि दर्शनादि के बिना पुद्गल आदि की सत्ता मानते हैं, तो पुद्गल के बिना भी दर्शनादि की सत्ता माननी पड़ेगी । अतः उपादान और उपादाता सिद्धि परस्परापेक्ष है। इसलिए दर्शनादि के पूर्व आत्मा के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। नागार्जुन, आर्यदेव, चंद्रकीर्ति आदि आचार्यों ने इस सिद्धान्त पर और भी गंभीर मंथन कर यह चिंतन प्रस्तुत किया कि आत्मा का अस्तित्व अग्नि और ईंधन के अस्तित्व से सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि अग्नि-इंधन में भेद, अभेद और भेदाभेद सिद्ध नहीं होता। उपादाता आत्मा के साथ उपादान पञ्च स्कन्ध की भी सिद्धि नहीं होती। उनके बीच क्रम का भी निर्धारण नहीं किया जा सकता, अन्यथा कर्ता और कर्म का एकत्व प्रसंग उपस्थित होगा। यहां यह दृष्टव्य है कि पुद्गलवादी बौद्ध जिस अनवराग्रता (आदि-अन्तकोटि शून्य) के माध्यम से जन्म, जरा, मरण की सत्ता रूप आत्मा की अस्तित्व-सिद्धि की बात रखते हैं, उसी अनवराग्रता का आधार लेकर माध्यमिक दर्शन असत्ता को सिद्ध करता है। उनके अनुसार संसार और भाव की कोई पूर्व कोटि सिद्ध नहीं होती। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ४९ पंचोपादान स्कन्ध दुःख हैं और उस दुःख का आश्रयभूत आत्मा होना चाहिए, इसे भी माध्यमिक दर्शन नहीं मानता। वह कहता है कि दुःख ही नहीं, तो दुःख का आश्रयभूत आत्मा कहाँ से सिद्ध होगा। दुःख की सिद्धि उसके स्वयं कृतत्व, परकृतत्व उभयकृतत्व या अहेतुकत्व पर अवलंबित है, जो सिद्ध नहीं होता। माध्यमिक संप्रदाय में अनात्मवाद को शून्यवाद के माध्यम से सिद्ध किया गया है। चंकि उसकी दृष्टि में आध्यात्मिक अथवा बाह्य कोई भी पदार्थ उपलब्ध नहीं होता, इसलिए वस्तुतः पञ्चोपादान स्कन्ध में आत्मा को नहीं खोजा जा सकता। संसार का मूल सत्काय दृष्टि है । आत्मा उसका आलम्बन है। यदि आत्मा स्कन्धरूप है, तो उसका उत्पाद-व्यय मानना पड़ेगा और उसकी अनेकता को भी स्वीकार करना पड़ेगा। यदि आत्मा स्कंध व्यक्तिरिक्त है, तो उसका लक्षण उत्पाद-स्थिति-भंग नहीं कहा जा सकेगा । फलतः लक्षणविहीन होने से वह असंस्कृत और खपुष्प के समान हो जायगा । माध्यमिक कारिका और चतुःशतक में इस सिद्धान्त को प्रस्थापित किया गया है। बौद्धदर्शन में जिसे 'चित्त' कहा है, अन्य दर्शनों में वही आत्मा है। चित्त, चैतसिकों के मुख्य कार्य हैं-प्रतिसन्धि, भवंग, अवजन, दर्शन, श्रवण, घ्राण आस्वादन, स्पर्श संपरिच्छन, संसोरण, वोठ्ठपन ( व्यवस्थापन ), जवन तदालम्बन एवं च्युति ।' आत्मा भी यथासमय यही कार्य करता है। वसुबन्धु ने जिसे 'उपात्त' धातु कहा है, वह भी वस्तुतः आत्मा का प्रतीक है। उपात्त का अर्थ है-जिसे चित्त-चैत्त अधिष्ठान भाव से स्वीकृत करते हैं। इन्हें पाँच ज्ञानेन्द्रिय रूप भी कहा गया है। सर्वास्तवादियों ने बाह्यार्थ को प्रत्यक्ष माना, पर सौत्रान्तिकों ने उसे अनुमेय माना । योगाचार ने कुछ और आगे बढ़कर कहा कि जब बाह्यार्थ का प्रत्यक्ष ही नहीं होता, तो उसके अस्तित्व को स्वीकार करने की आवश्यकता हो क्या और फिर बाह्यार्थ की सत्ता ज्ञान पर अवलम्बित है, सो ज्ञान को ही क्यों न माना जाय । अतः योगाचार ने विज्ञान की ही वास्तविक सत्ता मानी, शेष सत्ता को निःस्वभाव तथा स्वप्न सदृश माना। माध्यमिकों ने आगे चलकर यह प्रस्थापित किया कि जब अर्थ का ही अस्तित्व नहीं तो ज्ञान मानने की भी क्या आवश्यकता? अतः उन्होंने शून्य को ही परमार्थ तत्त्व माना है। यहाँ 'आलयविज्ञान' वही काम करता है, जो आत्मा करता है। आत्मा का निषेध करने पर विज्ञानवाद को आलयविज्ञान की कल्पना करनी पड़ी। इसके मानने पर जीवितेन्द्रिय के मानने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती । विज्ञानवाद में विज्ञान एक सामुदायिक परमाणु रूप है । वह रागादि धर्मों का और विलक्षण प्रमाणप्रमेय अधिगम रूपों का एक समुदाय मात्र है । उसका भेद नहीं किया जा सकता। उपनिषद् साहित्य में जैनधर्म के समान आत्मा को शरीर व्यापी माना गया है। परन्तु बृहदारण्यक में आत्मा को चावल अथवा यव के दाने के बराबर तथा कठोपनिषद् आदि में अंगुष्ठ १. अभिधम्मत्थसंगहो, ३.१८ । ३. राजवात्तिक, १.१.६८ । ५. कठोपनिषद्, २. २. १२ । २. अभिधर्मकोश, १.३४ । ४. कौषीतिकी, ४.२० । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागचंद जैन भास्कर प्रमाण माना गया है । इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद् में उसे विलस्त (प्रदेश ) बराबर स्वीकार किया गया है । आत्मा का यही परिमाण बढ़ते-बढ़ते व्यापकता तक पहुँचा । जैन दार्शनिकों ने देहपरिमाण और व्यापकता के बीच समन्वयात्मक ढंग से कहा कि केवल ज्ञान की दृष्टि से आत्मा व्यापक है और आत्मप्रदेश की दृष्टि से वह शरीर-व्याप्त है। बौद्धदर्शन भी इसी को मानता हुआ दिखाई देता है। ___ इस संदर्भ में इतना और लिखना आवश्यक है कि चित्त की उत्पत्ति स्पर्श, वेदना आदि सर्वचित्तसाधारण चैतसिक धर्मों से सम्बद्ध होकर ही होती है । नाम ( संप्रयुक्त चैतसिक ) एवं रूप धर्म उसके आसन्न कारण हैं, जबकि जैनधर्म आत्मा को अजात, अनादि, अनन्त, अजर, अमर भोक्ता, कर्ता आदि मानता है । बौद्धदर्शन में चैतसिकों का आलम्बन चित्त उसी प्रकार है, जिस प्रकार कर्म का आलम्बन चित्त है। चित्त के अभाव में चेतसिकों का अस्तित्व रह ही नहीं सकता। चैतसिकों से निर्मुक्त होने पर इसी चित्त धातु का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसलिए निर्वाण अवस्था में चित्त के सद्भाव को स्वीकार नहीं किया गया। जैनधर्म आत्मा को मूलतः विशुद्ध मानता है, पर कर्मों के आवरण के कारण वह अविशुद्ध हो जाता है। इस अविशुद्धावस्था का नाम ही संसार है । धीरे-धीरे त्याग, तपस्या आदि के बल पर व्यक्ति कर्मों से पूर्ण मुक्त हो जाता है, उसके परिणाम विशुद्ध हो जाते हैं । यही अवस्था निर्वाणावस्था है। इसमें आत्मा का विनाश नहीं होता, बल्कि वह अपनी मूल विशुद्धावस्था में पहुँच जाता है। बौद्धधर्म में चित्त की अवस्थाओं (भूमियों) का वर्णन करते हुए उसे चार प्रकार का बताया गया है-कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर एवं लोकोत्तर। इनके ८९ भेद चित्त की विविध अवस्थाओं के सूचक हैं। जैनधर्म की परिभाषा में इन भूमियों को हम गुणस्थान कह सकते हैं। कामावचर चित्त का सम्बन्ध बहिरात्मा से है, रूपावचर और अरूपावचर चित्त आत्मा की अन्तरात्मावस्था को द्योतित करते हैं तथा लोकोत्तरचित्त परमात्मावस्था का प्रतीक है । इसी तरह कुशल, अकुशल और अव्याकृत चित्त को हम क्रमशः शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोग कह सकते हैं। आत्मा का स्वरूप उपयोग या ज्ञान-दर्शनमय है। चित्त के लक्षणादि चतुष्कों से यह स्पष्ट है कि वह बिजानन लक्षण है । जहाँ विजानन होता है, वहाँ दर्शन होता ही है। अतः चित्त को भी आत्मा के समान ज्ञान-दर्शनवान् मानना चाहिए। __ अशुभोपयोग में आसक्त आत्मा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग में गुथा रहता है, वह मोह, माया, राग, द्वेष आदि के बन्धनों से जकड़ा रहता है । यही संसार का मूल कारण है। बौद्धधर्म में वर्णित अकुशल चित्त भी लगभग इसी प्रकार के हैं । वे लोभमूल, द्वेषमूल और मोहमूल होते हैं। सौमनस्य, दौमनस्य तथा उपेक्षा भाव भी उसके साथ चक्कर लगाते रहते हैं। इन अकुशल चित्तों(१२) का सीधा सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। १. मुण्डकोपनिषद्, १. १. ६ । २. द्रव्यसंग्रह, वृत्ति, गा. १०; न्यायावतार वार्तिक वृत्ति, भाषा टिप्पण देखिये । ३. छान्दोग्योपनिषद्, ५. १८.१। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन अहेतुक चित्तों में लोभ, द्वेष, मोह अकुशल हेतुक हैं तथा अलोभ, अद्वेष और अमोह कुशल अथवा अव्याकृत हेतुक हैं। ये अहेतुक चित्त अकुशल विपाक, कुशल विपाक तथा क्रिया के भेद से तीन प्रकार के हैं। अकुशल और अहेतुक चित्त समवेत रूप में अशोभन चित्त कहलाते हैं। इनका आलम्बन आदि अनिष्ट रहता है, अतः अशोभन चित्त कहलाते हैं। इसलिए इनकी तुलना अशुभोपयोग अथवा मोहनीय कम से कर सकते हैं। क्लेशादि कर्मों से विशुद्ध होने के कारण चित्त शोभन चित्त कहलाता है। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि यह शोभन-अशोभन नाम वस्तुतः चित्त का नहीं, चैतसिक का है। चित्त का काम तो मात्र आलम्बन को जानने का है। अतः चित्त का शोभन-अशोभन होना चैतसिकों के शोभन-अशोभन होने पर निर्भर करता है । उसे हम आत्मा की विशुद्ध अथवा मूल अवस्था कह सकते हैं, जो हमारे शुभाशुभ भावों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। शोभन चित्त जैनधर्म की शुभोपयोगावस्था के सूचक हैं। देव, गुरु, शास्त्र की पूजा, दान, सदाचार और उपवासादिक तप में तीन आत्मा शुभोपयोगात्गक हैं । 'शुभोपयोग पुण्य कर्म के आश्रव का कारण है। पाँच महाव्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का पालन करने वाला शुभोपयोगी संयमी तपस्वी सरागचरित्र वाला होता है ।२ क्रियाचित्तअर्हत् की सन्तान में होते हैं। अतः वे विपाक (फल) नहीं देते। किन्तु यदि वे विपाकोन्मुख हों, तो कुशलचित्तों की तरह उनका विपाक असीमित होता है । जैनदर्शन में भी अर्हत् के कर्म विपाक देनेवाले नहीं होते हैं। कुशल चित्त ध्यानचित्त कहलाते हैं। प्रथम ध्यान से लेकर चतुथं ध्यान पर्यन्त सुखवेदना तथा पंचम ध्यान में उपेक्षा वेदना होती है। जैनधर्म का शुभोपयोगी तपस्वी भी इसी प्रकार के ध्यान से युक्त होता है। दोनों के बीच सूक्ष्म अन्तर को हम ध्यान के प्रकरण में स्पष्ट करेंगे । कर्मवाद जैन-बौद्ध धर्म कर्मवादी हैं । मिथ्यादर्शनादि परिणामों से संयुक्त होकर जीव के द्वारा जिनका उपार्जन किया जाता है, वे कर्म कहलाते हैं। दोनों धर्मों की दृष्टि से यही कर्म संसरण का कारण होता है। बौद्धधर्म में कर्म को चैतसिक कहा गया है और वह चित्त के आश्रित रहता है। जैनधर्म में भी कम आत्मा के आश्रय से उत्पन्न माने गये हैं। जैनधर्म में त्रियोग (मन, वचन, काय ) को आश्रव और बन्ध तथा संवर और निर्जरा का मूल कारण माना गया है। बौद्धधर्म में भी कर्म तीन प्रकार के हैं-चेतनाकर्म ( मानसिक कर्म ) और चेतयित्वाकम ( कायिक और वाचिक कम )। इन्हें त्रिदण्ड कहा गया है। इनमें से मनोदण्ड हीनतम और सावद्यतम कर्म माना गया है। जनधर्म को भी यही मान्यता है। यहाँ कर्म के तीन रूप बताये गये हैं-कृत, कारित और अनुमोदित । इनमें यद्यपि तीनों कर्म समान दोषोत्पादक हैं, पर कृत कर्म अपेक्षाकृत अधिक दोषी माना जाता है, यदि उसके साथ मन का सम्बन्ध है। १. प्रवचनसार, ६९। २. द्रव्यसंग्रह, ४५। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ भागचंद जैन भास्कर बौद्धधर्म में कर्म की परिपूर्णता के लिए चार बातों की आवश्यकता बताई गई है - १. प्रयोग ( चेतना कर्म, अर्थात् इच्छा ) २ मौल प्रयोग ( कार्यं प्रारम्भ ) ३. मोल कर्मपथ (विज्ञप्ति कायकमं तथा शुभ-अशुभरूप अविज्ञप्ति कर्म ) तथा ४. पृष्ठ ( कर्म करने के उपरान्त शेष कर्म ) ये दोनों कर्म भावों के अनुसार शुभ और अशुभ होते हैं । जैनधर्म के द्रव्यकर्म और भावकर्म की तुलना किसी सीमा तक इनसे की जा सकती है । बौद्धधर्म में भी मुख्य कर्म चेतना कर्म माना गया है। उसे चित्त सहगत धर्म कहा है । मानसिक धर्म उसकी अपरसंज्ञा है । यह चेतना चित्त को आकार विशेष प्रदान करती है और प्रतिसन्धि (जन्म) के योग्य बनाती है । चेतना के कारण ही शुभाशुभ कर्म होते हैं और तदनुसार ही उनका फल होता है । यह मनसिकार दो प्रकार का है १. योनिशो मनसिकार (अनित्य को अनित्य तथा अनात्म को अनात्म मानना ) २. अयोनिशो मनसिकार (अनित्य को नित्य तथा नित्य को अनित्य मानना ) जैनधर्म की परिभाषा में इनमें से प्रथम कर्म सम्यक्त्व और दूसरा मिथ्यात्व है । मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म को यहाँ 'योग' कहा गया है। जिससे आठ कर्मों का छेद हो, वे कृति कर्म हैं और जिनसे पुण्य कर्म का संचय हो, वे चित्कर्म हैं । बौद्धधर्म के समान जैनधर्म में भी चेतना कर्म है, जिसे भाव विशेष कहा गया है। वह कुशल अकुशल के समान शुद्ध - अशुद्ध होती है। चेतना कम के दो रूप हैं - दर्शन और ज्ञान । चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदना ये सभी शब्द समानार्थंक हैं। योनिशो मनसिकार को ज्ञानचेतना और अयोनिशो मनसिकार को अज्ञानचेतना कह सकते हैं । सम्यग्दृष्टि को ही ज्ञान चेतना होती है और मिथ्यादृष्टि को कर्म तथा कर्मफल चेतना होती है ।" जैनधर्म के ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म जैसे कर्म बौद्धधर्म में नहीं दिखते । ज्ञान और दर्शन आत्मा के गुण हैं । बौद्धधर्म आत्मा को मानता नहीं, अतः इन गुणों के विषय में वहाँ अधिक स्पष्ट विवेचन नहीं मिलता। शोभन चैतसिक वेदनीय कर्म के अन्तर्गत रखे जा सकते हैं । मोह, आहीवत्य अनपत्राप्य, औद्धत्य, लोभ, दृष्टि, मान, द्वेष, ईर्ष्या, मात्सर्य, कौकृत्य, स्त्यान, मिद्ध एवं विचिकित्सा ये चौदह अकुशल चैतसिक हैं । इन चैतसिकों की तुलना जैनधर्म के भावकर्म से की जा सकती हैं | मोहनीय कर्म के अन्तर्गत ये सभी भावकर्म आ जाते हैं । बौद्धधर्म के अकुशल कर्म मोहनीय कर्म के भेद-प्रभेदों में समाहित हो जाते हैं । जीवितेन्द्रिय जैनधर्म का आयुकर्म है, जिसे 'सर्वचित्त साधारण' कहा गया है। नामकर्म की प्रकृतियाँ भी बौद्धधर्म में सरलतापूर्वक मिल जाती हैं । शोभन चैतसिकों में श्रद्धा आदि शोभन साधारण, सम्मा वाचा आदि तीन विरतियाँ तथा करुणा, मुदिता दो अप्रामाण्य चैतसिक जैनधर्म के सम्यग्दर्शन के गुणों में देखे जा सकते हैं । अकुशल कर्मों की समाप्ति होने पर हो साधक श्रद्धा, स्मृति, ह्री, अपत्राप्य, अलोभ, अद्वेष, तत्रमध्यस्थता आदि गुणों की प्राप्ति करता है । ऐसे ही समय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । यहाँ दर्शन १. प्रवचनसार, १२३ १२४; पञ्चाध्यायी, २२३, ८२३-२३ । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन का अर्थ श्रद्धा है और सप्त तत्त्वों पर भली प्रकार ज्ञानपूर्वक श्रद्धा करना ही सम्यग्दर्शन है। दोनों धर्मों में श्रद्धा को प्राथमिकता दी गई है। एक में सम्यग्दर्शन है, तो दूसरा उसे ही सम्मादिट्ठी कहता है। यहाँ 'सम्यक्' शब्द विशेषण के रूप में जुड़ा हुआ है, जो पदार्थों के यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धा को प्रस्तुत करता है। सम्यग्दर्शन निःशंकित, निःकांक्षित आदि आठ अंग शोभन चैतसिकों को और स्पष्ट कर देते हैं। ये वस्तुतः सम्यग्दृष्टि के चित्त की निर्मलता को सूचित करते हुए उसकी विशेषताओं को बताते हैं। अभिधम्मत्थसंगहो के प्रकीर्णक संग्रह में चित्तचैतसिकों का संयुक्त वर्णन किया गया है। चित्त-चैतसिकों के विविध रूप किस-किस प्रकार से परस्पर मिश्रित हो सकते हैं, इसे यहाँ वेदना, हेतु, कृत्य, द्वार, आलम्बन तथा वस्तु का आधार लेकर स्पष्ट किया गया है। वेदना संग्रह के सुख, दुःख, सौमनस्य, दौर्मनस्य और उपेक्षा को हम वेदनीय कर्म के भेद-प्रभेदों में नियोजित कर सकते हैं । अनुकम्पा, दान, पूजा, प्रतिष्ठा, वैयावृत्ति आदि सातावेदनीय कर्म हैं और दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिवेदन आदि कर्म असाता वेदनीय कर्म हैं। कृत्य संग्रह में निर्दिष्ट प्रतिसन्धि, भवंग, आवर्जन, दर्शन, श्रवण, घ्राण, आस्वादन, स्पर्श, संपरिच्छन आदि सभी चित्त-चैतसिक के कार्य हैं। इन्हें जैनधर्म के शब्दों में कर्मयुक्त आत्मा के परिस्पन्द कह सकते हैं। बौद्धधर्म में कर्म के भेद अनेक प्रकार से किये गये हैं। भूमिचतुष्क और प्रतिसन्धिचतुष्क का सम्बन्ध जीव अथवा चित्त के परिणामों पर आधारित अग्रिम गतियों में जन्म लेने से है । कुशलअकुशल चेतना के आधार पर बौद्धधर्म में जनककर्म, उपष्टंभक कर्म (मरणान्तकाल में भावों के अनुसार गतिदायक), उपपीड़क कर्म (विपाक को गहरा करने वाला) तथा उपघातक कर्म (कर्मफल को समूल नष्ट करने वाला) ये चार भेद किये गये हैं। ये भेद वस्तुतः कर्म की तरतमता पर आधारित हैं। किसी विषय विशेष से इनका सम्बन्ध नहीं है। पाकदान पर्याय की दृष्टि से गरुक, आसन्न आदि चतुष्क कम समय पर आधारित हैं। विपाक चतुष्क भी चार कर्म हैं-इष्टधर्मवेदनीय, उपपद्यवेदनीय, अपरपर्यायवेदनीय और अहोसिकमं । इनकी हम प्रकृतिबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध के साथ तुलना कर सकते हैं | जैनधर्म में वर्णित प्रदेशबन्ध जेसा विषय बौद्धधर्म में नहीं मिलता है। जैन-बौद्धधर्म में अकुशल कर्मों में मोह और तज्जन्य मिथ्यादृष्टि का स्थान प्रमुख है। मिथ्यादृष्टि को ही दूसरे शब्दों में 'शीलव्रत परामर्श' कहा गया है। जैनधर्म इसी को 'मिथ्यात्व' संज्ञा देता है। सबसे बड़ा अन्तर यह है कि जैनधर्म आत्मवादी धर्म है । बौद्धधर्म आत्मवाद को मिथ्यात्व कहता है, जबकि जैनधर्म अनात्मवाद को । अन्त में चलकर दोनों एक ही स्थान पर पहुंचते हैं। गति जिसके उदय से आत्मा भवान्तर को प्राप्त करता है, वह गति नामकर्म है । जैनधर्म में गतियाँ चार प्रकार की बताई हैं-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति । बौद्धधर्म में इस संदर्भ में चार भूमियों का उल्लेख है-अपाय, कामसुगति, रूपावचर एवं अरूपावचर । अपायभूमि चतुर्विध हैनिरक, तिरश्चीनयोनि, पैत्रविषय एवं असुरकाय । कामसुगति भूमि सात प्रकार की है-मनुष्य, चातुमहाराजिक आदि । नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और शेष देवों के प्रकार उन भूमियों में दिखाई देते हैं । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ १. नरक गति बौद्धधर्म में नरकों की संख्या आठ है - १. सञ्जीव, २. कालसुत्त, ३. संघात, ४. जालरोसव, ५. धूमरोसव, ६. तापन, ७. प्रतापन एवं ८. अवीचि । यह पृथ्वी २,४०,००० योजन गम्भीर है । इसमें १,२०,००० योजन पर्यन्त मृत्तिकामय तथा १,२०,००० योजन पर्यन्त पाषाणमय है । नीचे-नीचे एक निरय से दूसरे निरय के बीच १५,००० योजन का अन्तर है। इन चार महानरकों के आसपास ४ प्राकार और ४ द्वार हैं । उनके समानान्तर ४ उपनिरय हैं - गूथनिरय, कुक्कुलनिरय, सिम्बलिवन और असिपत्रवन । इनके चारों ओर खारोदका नदी है । क्षुधा, तृष्णा आदि का वर्णन जैनधर्मं से मिलता-जुलता है । जैनधर्म में बौद्धधर्म की अपेक्षा नरकों का वर्णन अधिक गंभीर और विस्तृत मिलता है । इसके अनुसार सात नरक हैं । इन भूमियों में दुगंन्ध, शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा आदि रहती हैं। भयंकर दुःख यहाँ जीव प्राप्त करता है। इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है' नाम १ १. रत्नप्रभा खरभाग पंकभाग अब्बहुल २. शर्करा अपर नाम २ धर्मा भागचंद जैन भास्कर वंशा मेघा ३. बालुका ४. पंकप्रभा अंजना ५. धूमप्रभा अरिष्टा ६. तमप्रभा मघवी ७. महातमप्रभा माघवी मोटाई इन्द्रक ३ योजन १८०००० १३ ४४२० १६००० ८४००० ४ श्रेणीबद्ध ५ ८०००० ३२००० ११ २६८४ २८००० ९ १४७६ २४००० ७ २०००० ५ २६० १६००० ६० ८०३० १ ३ ७०० ४ ४९ ९६०४ बिलों का प्रमाण प्रकीर्णक ६ २९९५५६७ २४७९३०५ १४९८५१५ ९९९२९३ २९९७३५ ९९९३२ X ८३९०३४७ कुल बिल ३० लाख २५ लाख १५ लाख १० लाख ३ लाख ९९९९५ १. तिलोय पण्णत्ति २.२६ २७ राजवार्तिक, ३.२.२; त्रिलोकसार, १५१; जंबूदीवपण्णत्ति, ११, १४३१४४; जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग २, पृ० ५७७ । ८४ लाख Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन २. तिर्यञ्च गति द्ध साहित्य में तिर्यञ्चगति का वर्णन बहुत कम मिलता है। जैन साहित्य में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के पशु-पक्षी - कीड़े इसके अन्तर्गत आते हैं । ये जलचर, थलचर, नभचर होते हैं। संज्ञीअसंज्ञी होते हैं, गर्भज और संमूर्छनज होते हैं । ५५ ३. मनुष्य गति दोनों धर्मों में मनुष्य गति को श्रेष्ठतम माना गया है। जैन साहित्य में मनुष्य दो प्रकार का है - आर्य और म्लेच्छ । उसके चार प्रकार भी हैं - कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तद्वीपज तथा संमूर्च्छ । पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद भी मिलते हैं । ४. देवगति बौद्धधर्म में देवों का वर्णन भी उतने विस्तार से नहीं है, जितना जैनधर्म में मिलता है। कामसुगतभूमि में मनुष्य को छोड़कर शेष छह प्रकार के देव हैं - चातुर्यहाराजिक, त्रायस्त्रिश, याम, तुषित, निर्माणरति और परनिर्मितवशवर्ती । इन भूमियों के ऊपर रूपावचरभूमि हैं, जिनकी संख्या १६ है - (i) ब्रह्मपारिषद्य, ब्रह्मपुरोहित, महाब्रह्मा, (ii) परित्ताभा, अप्रमाणाभा, आभास्वस, (iii) परीत्तशुभा, अप्रमाणशुभा, शुभाकीर्णा, (iv) वृहत्फला, असंज्ञिसत्त्वा, शुद्धावासा - अवृहा, अतपा, सुदृशा, सुदर्शी, अकनिष्ठा । इन रूपी ब्रह्माओं के ऊपर ४ अरूपी भूमियाँ हैं -- आकाशानन्त्याय - तन, विज्ञान, आकिञ्चन्य और नैवसंज्ञानासंज्ञा । जैनधर्म में देवों के चार भेद हैं- भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिषी और वैमानिक ( कल्पवासी) । कल्पवासियों के सोलह भेद सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार आदि रूपी ब्रह्माओं से मिलते-जुलते हैं और अरूपावरभूमि के देवों की नव ग्रैवेयक तथा सर्वार्थसिद्धि आदि से तुलना की जा सकती है । इनकी प्रकृति में कुछ अन्तर अवश्य दिखता है । धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य धर्मं द्रव्य और अधर्मं द्रव्य, जैनधर्म के विशिष्ट पारिभाषिक शब्द हैं । जो बौद्धधर्म में भी नहीं दिखाई देते हैं । जैनदर्शन में आकाश का कार्य अवगाहन करना है, स्थान देना है । वह अमूर्तिक, अखण्ड, नित्य, सर्वव्यापक, और अनन्तप्रदेशी द्रव्य है । इसमें जीव और पुद्गल को एकसाथ अवकाश देने की क्षमता है। बौद्धदर्शन में आकाश को असंस्कृत माना गया है, जिसमें उत्पादादि नहीं होते । काल द्रव्य जैनधर्म में वर्णित धर्म और अधर्म द्रव्य बौद्धधर्म में नहीं हैं । कालद्रव्य को जैनधर्म स्वीकार करता है । उसके अनुसार वह अमूर्तिक और निष्क्रिय है । घड़ी, घण्टा आदि से उसका अस्तित्व प्रमाणित होता है । बौद्धधर्म का प्रारम्भिक रूप काल को स्वीकार करता हुआ दिखाई देता है । वहाँ कहा गया है कि काल से औपाधिक द्रव्यों की उत्पत्ति होती है । यहाँ रूप को ही अनित्य माना जाता था और चित्त, विज्ञान जैसे अन्य सूक्ष्म धर्म इस अनित्यता के परे थे । वैभाषिक में रूप और चित्त को अनित्य माना है । सौत्रान्तिकों के अनुसार भूत, भविष्यत् काल का अस्तित्व नितान्त काल्पनिक एवं आधारविहीन है । सर्वास्तिवाद में उसके अस्तित्व को स्वीकार किया गया है । आर्यदेव ने काल " Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागचंद जैन भास्कर के अस्तित्व का खण्डन किया है। इस प्रकार बौद्धधर्म में काल के अस्तित्व के विषय में दोनों परम्परायें रही हैं।' पाश्चात्य दार्शनिकों में भी कालवान प्रचलित रहा है। न्यूटन, देकार्ते, लाइवनीज़ आदि विद्वान् इस संदर्भ में अन्तनिरीक्षणवादी तथा यथार्थवादी हैं। बर्कले, ह्यम आदि दार्शनिक काल की बाह्यगत सत्ता को अस्वीकार करते हैं तथा उसे अमूर्त विचार मात्र मानते हैं । काण्ट काल को बुद्धिनिहित मानते हैं, जबकि हेगेल द्वयात्मक दृष्टिकोण से उपर्युक्त मतों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। जंबूद्वीप और उसका उत्तर कुरु क्षेत्र तत्त्वमीमांसा के संदर्भ में विचार करते समय 'जम्बूद्वीप' की परिकल्पना पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। 'जम्बूद्वीप' भारतीय संस्कृति और साहित्य में एक सर्वमान्य भौगोलिक शब्द है, जिसकी परिधि सर्वसम्मत नहीं है। जैन-बौद्ध और वैदिक तीनों संस्कृतियों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विशाल जम्बू वृक्ष की अवस्थिति के कारण इस महाद्वीप को 'जम्बूद्वीप' कहा गया है। पालि साहित्य में इसे जम्बूखण्ड, जम्बूवन और महापठवी" भी नाम दिये गये हैं। पुराणों में समची पृथ्वी को सात द्वीपों में विभक्त किया गया है-जम्बू, शाक, कुश, शाल्मल क्रौंच, गोमेद और पुष्कर। इनमें जम्बूद्वीप के नव वर्ष हैं, जिनमें भारतवर्ष एक है और भारतवर्ष भी नवद्वीपों में विभक्त है। जैन परम्परा में संपूर्ण पृथ्वी को 'जम्बूद्वीप' अभिधान दिया गया है। इसमें सात क्षेत्र हैंभरत, हेमवत, हरिवर्ष, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत् और ऐरावत । जम्बूद्वीप के १९० भागों में भरतक्षेत्र एक भाग है। जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड और पुष्करार्ध अर्थात् ढाई द्वीपों में ही मनुष्य रहते हैं। तिथंच समस्त मध्यलोक में तथा स्थावर जीव समस्त लोक में भरे हुए हैं। जम्बूद्वीप का तारामण्डल दस हजार योजन व्यास वाले सुदर्शन मेरु को तारामण्डल ११२ योजन दूरी पर प्रदक्षिणा करता है। दो चन्द्र और दो सूर्य परस्पर विरोधी दिशा में सुमेरु पर्वत के मध्य से ४९८२० और और ५०३३० योजन दूरी पर दो दिनों में एक प्रदक्षिणा देते हैं तथा सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन और दक्षिणायन से उत्तरायण (४९८२० व ५०३३ योजनों के मध्य में) १८३ दिन में भ्रमण करता है। इस प्रकार सौरवर्ष ३६६ दिनों का होता है। तारामण्डल को हम इस प्रकार समझ सकते हैं १. विशेष देखिये, लेखक की पुस्तक 'बौद्धसंस्कृति का इतिहास', पृ० १५३-१५८ । २. देखिए-पुराण साहित्यः विनय पिटकः परमत्थजोतिका, भाग २, पृ० ४४३ । ३. सुत्तनिपात सेलसुत्त । ४. पयंथसूदनी, भाग २, पृ० ४२३ । ५. दीघनिकाय, महागोविन्दसुत्त । ६. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, पृ० ९०-१००। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन क्रमांक | सामान्य तारामण्डल जंबूद्वीप से ऊँचाई । सामान्य तारामण्डल सूर्य ००० चंद्र नक्षत्र Gowww ८८४ बुध व्यास ( योजनों में) १/४ से १ कोश तक ४८/६१ योजन ५६/६१ योजन १ कोश तक १/२ योजन १ योजन एक कोश से कम १/२ कोश १/२ कोश एक योजन से कम एक योजन से कम ८८८ ८९१ ८९४ ८९७ ९०० शुक मंगल शनि राहु नोट-१ कोश = १००० मील १ योजन - ४ कोश- ४००० मील स्वर्ग और मोक्ष जम्बू-सुमेरु पर्वत के ऊपर अवस्थित हैं तथा नरक जम्बूद्वीप के नीचे अवस्थित है। इनके विषय में जैन-बौद्ध मान्यताओं का संक्षिप्त विवरण पीछे दिया जा चुका है। पालि साहित्य में समूचे भारतवर्ष के लिए ही 'जम्बूद्वीप' शब्द का प्रयोग हुआ है। पौराणिक जम्बूद्वीप इससे बृहत्तर है और जैन जम्बूद्वीप तो निश्चित ही बृहत्तम है। इसके मध्य में मेरु ( सुमेरु ) पर्वत है । जम्बूद्वीप के सात भागों अथवा क्षेत्रों में भारतवर्ष एक है, जिसे हम आधुनिक भारत की भौगोलिक स्थिति से तुलना कर सकते हैं। अतः पालि साहित्य का जम्बूद्वीप जैन साहित्य का भरतक्षेत्र कहा जाना चाहिए । इसे चीनी साहित्य में भी 'जम्बूद्वीप' नाम दिया गया है। यही नहीं, मगधदेश, ब्राह्मणदेश जैसे शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। पालि साहित्य में समूची पृथ्वी को चार महाद्वीपों में विभक्त किया गया है-जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, उत्तरकुरु और अपरगोयान । ये चारों महाद्वीप सुमेरु पर्वत के चारों ओर अवस्थित हैं। जैन परम्परा में सात क्षेत्र हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। इन क्षेत्रों के छह कुलाचल हैं-हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मि ( रूप्प ) और शिखरी । पालि साहित्य में सुमेरु पर्वत की ऊँचाई १६८ योजन बताई गई है तथा उसके चारों ओर सात पर्वत श्रेणियों का उल्लेख है-युगन्धर, ईसधर, करवीक, सुदस्सन, नेमिन्धर, विनतक और अस्सकण्ण । सुमेरु के पूर्व में पूर्व विदेह, उत्तर में उत्तरकुरु, पश्चिम में अपरगोयान और दक्षिण में जम्बूद्वीप अवस्थित है । जब जम्बूद्वीप में सूर्योदय होता है, तब अपरगोयान में रात्रि का मध्यप्रहर होता है । अपरगोयान में जब सूर्यास्त होता है, तो जम्बूद्वीप में अर्धरात्रि होती है । अपरगोयान में जब सूर्योदय होता है, तो जम्बूद्वीप में दोपहर होती है, पूर्वविदेह में सूर्यास्त और उत्तरकुरु में अर्धरात्रि । __इस विवरण को किसी सीमा तक जैन जम्बूद्वीप की स्थिति से मिला सकते हैं । पालि परम्परा के अनुसार चक्रवर्ती राजा चारों महाद्वीपों का स्वामी होता है। पहले वह पूर्वदिशा में पूर्वविदेह पर विजय प्राप्त करता है, उसके बाद दक्षिण दिशा में अवस्थित जम्बूद्वीप पर, फिर पश्चिम में अपर Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ भागचंद जैन भास्कर गोयान और उत्तर में उत्तरकुरु की विजययात्रा के लिए प्रस्थान करता है । चक्रवर्ती मान्धाता ने अपनी विजययात्रा का क्रम यही रखा था । वे संसार - विजय करने के बाद अपने कुछ साथियों के साथ जम्बूद्वीप में आ बसे । उनके पूर्वविदेह से आने वाले साथी जिस प्रदेश में बसे, उसका नाम विदेह राष्ट्र पड़ गया । इसी तरह उत्तरकुरु और अपरगोयान से आने वाले लोग क्रमशः कुरु और अपरान्त राष्ट्र में बस गये । पूर्वविदेह को लोगों ने तुर्किस्तान से पहिचान करने का प्रयत्न किया है । उत्तरकुरु को साइबेरिया बताया है तथा अपरगोयान को पश्चिमी तुर्किस्तान से मिलान किया है । बुद्धकालीन जम्बूद्वीप की दक्षिणी सीमा आन्ध्र, तमिल और लंका तक चली जाती है । पश्चिमी सीमा में भृगुकच्छ ( भडोंच), सोपारा ( सुप्पारक ) और सिन्धु-सोवीर देश आते हैं । उत्तर- पश्चिमी सीमा में गन्धार और कम्बोज अर्थात् अफगानिस्तान और काश्मीर का काफी भाग आता है। पूर्व और दक्षिण पूर्व में वंग, सुम्ह, उत्कल और कलिंग समाहित होता है। चीनी लेखकों इस जम्बूद्वीप के आकार को उत्तर में चौड़ा और दक्षिण में सकरा बताया है । उत्तरकुरु के सन्दर्भ में जैन साहित्य के समान बौद्ध साहित्य में भी पौराणिक विवरण मिलता है । दीघनिकाय के अनुसार उत्तरकुरु के व्यक्ति व्यक्तिगत संपत्ति नहीं रखते और न उनकी अपनी अलग-अलग पत्नियाँ होती हैं । उन्हें अपने जीवन-निर्वाह के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता । यहाँ अनाज स्वयं उग जाता है। यहाँ का जीवन नितान्त सुखमय है । यहाँ के राजा का नाम कुबेर तथा राजधानी का नाम विषाण है। प्रधान नगर हैं-आटानाटा, कुसीनाटा, नाटापरिया, परकुसीनाटा, कपीवल जनोध, नवननिया, अम्बर और अलकमन्दा । यहाँ के निवासी यक्ष कहे गये हैं । यहाँ कल्पवृक्ष हैं। लोग निर्लोभी हैं, आयु नियत है । बुद्धघोष तो यहाँ के लोगों को उनके प्राकृतिक शील के कारण सर्वोत्कृष्ट मानते हैं । उत्तरकुरु का यह पौराणिक वर्णन होते हुए भी कुछ उदाहरण ऐसे मिलते हैं, जो उत्तरकुरु को भारतीय प्रदेश के समीप अवस्थित सिद्ध करते हैं । विनयपिटक के अनुसार भगवान् बुद्ध उत्तरकुरु ये । अल्प भिक्षु भी उनके साथ थे। राजगृहवासी जोतिक की पत्नी भी उत्तरकुरु की थी । विसुद्धिमग्ग में उत्तरकुरु को सुमेरु पर्वत के उत्तर में बताया गया है और उसका विस्तार आठ हजार योजन है और समुद्र से घिरा है। महाभारत के भीष्मपर्व में भी उत्तरकुरु की यही अवस्थिति है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी उत्तरकुरु को मेरुपर्वत के उत्तर और नील पर्वत के दक्षिण में बताया गया है । इसका विस्तार ११८४२ योजन व दो कला अधिक है । जम्बूवृक्षों, पर्वतों और नदियों का वर्णन अत्यन्त पौराणिक है। देवकुरु की भी अवस्थिति का वर्णन यहीं उपलब्ध है। इसका वर्णन योगभूमि जैसा है । मनुष्य तीन कोश ऊँचे और उत्तर लक्षणों से युक्त होते हैं । जैन साहित्य में विदेह, पूर्वविदेह और अपर विदेह का वर्णन मिलता है । बौद्ध साहित्य अपरविदेह के स्थान पर अपरगोयान का उल्लेख करता है । विदेह और पूर्वविदेह का वर्णन तो है ही । १. महाबोधिवंस, पृ० ७३-७४ । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध साहित्य में विदेह को प्रथमतः राजतन्त्र और बाद में गणतन्त्र कहा गया है। उसकी अवस्थिति मगध देश से गंगापार मानी है । बुद्ध भी यहाँ के मखादेव आम्रवन में रुके थे । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में विदेह का वर्णन पौराणिक ही है। वहाँ कच्छा नामक विजय तथा क्षेमा नामक नगरी का उल्लेख है । कच्छा के तीन द्वीपों का भी उल्लेख है-मागध, वरतनु और प्रभास । अतः लगता है, यह विदेह मिथिला विदेह ही होना चाहिए। उत्तरकालीन जैन साहित्य में इसी विदेह का वर्णन मिलता है । आचार्य कुन्दकुन्द दक्षिण से कदाचित् इसी विदेह में पहुँचे होंगे। पूर्व विदेह सुमेरु के पूर्व में है। यहाँ सुकच्छा विजय और क्षेमपुरी नगरी है, अरिष्टपुरी नाम की राजधानी है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति इसी सन्दर्भ में वत्स, सुवत्स नगरियों का भी वर्णन करती है, जो उसके पश्चिम में अवस्थित हैं । हम यह जानते ही हैं कि वत्स राज्य मगध और अवन्ती के बीच स्थित था। उसके उत्तर में कोशल, पश्चिम में सुरसेन और दक्षिण में चेदि के कुछ भाग आते थे। यहाँ का राजा उदयन शक्तिसम्पन्न था। उसने चण्डप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता से विवाह सम्बन्ध किया था। वत्स की राजधानी कौशाम्बी थी। पूर्व विदेहवर्ती वत्स को बुद्धकालीन वत्स से मिलाया जा सकता है। यहाँ तीर्थंकर गणधरदेव तथा चक्रवर्ती की स्थिति सर्वकालिक कही गयी है। जम्बूद्वीप का अपर विदेह रत्नसंचया नगरी के पश्चिम में अवस्थित है। यहाँ अशोकाविगतशोका नगरी का उल्लेख है, जिसका संकेत पाटलिपुत्र की ओर होना चाहिए। पूर्व की ओर अयोध्या की अवस्थिति बतायी है । विदेह, पूर्वविदेह और अपरविदेह को कहीं-कहीं मिला सा दिया है। इसलिए ऐसा लगता है, ये तीनों प्रदेश आसपास ही रहे होंगे। कहा गया है विदेह में विष्णु, महेश्वर, दुर्गा, सूर्य, चन्द्र और बुद्धदेव के भवन नहीं हैं। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि उस समय वहाँ जैनधर्म काफी प्रभावक स्थिति में था। इस प्रकार जम्बूद्वीप का भूगोल व्यावहारिक स्तर पर यदि देखा जाये, तो अधिक से अधिक एशिया तक विस्तृत किया जा सकता है। उसके अधिकांश देश और नगर हमारे भारत देश से संबद्ध हैं । आचार्यों ने कहीं देशों और नगरों यहाँ तक कि राजाओं के नामों का भी अनुवाद कर दिया है। इसलिये मूल नामों की पहिचान करना कठिन-सा हो जाता है । अतः अभी जैन भौगोलिक परम्परा पर निष्पक्ष और निरभिनिवेश पूर्वक विचार किया जाना आवश्यक है। सृष्टि-सर्जना तत्त्वमीमांसा के सन्दर्भ में ईश्वर और सृष्टि कल्पना पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। श्रमणेतर संस्कृति में ईश्वर को सृष्टि कर्ता-हर्ता और साथ ही सुख-दुःखदाता के रूप में अंगीकार किया गया है, पर श्रमण ( जैन-बौद्ध ) संस्कृति में ईश्वरवाद को कर्मवाद तथा सृष्टिवाद को निमित्त-उपादान कारणवाद के रूप में उपस्थित किया गया है। . पथिकसुत्त के अनुसार बौद्धधर्म में ईश्वर सत्ता वस्तुतः मानसिक सत्ता है। उसका सृष्टिकर्ता के रूप में कोई अस्तित्व नहीं, पर उनके स्वरूप पर विचार करने के बाद ऐसा लगता है कि बुद्ध ने ईश्वर का स्वरूप भी अवक्तव्य मानने की ओर संकेत किया है । उन्होंने विद्य ब्राह्मणों के कथन का अप्रामाणिक घोषित कर ईश्वर एवं ईश्वर द्वारा प्रवेदित वेद को अमान्य किया है और साथ ही ईश्वर मानने वालों की परम्परा को अन्धवेणी के समान कहा है। इसी तरह सभी सुख-दुःखों का कारण Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. भागचंद जैन भास्कर कर्म ही नहीं, लौकिक कारण भी माना गया है । 'अत्तदीपो भव' कहकर पुरुषार्थवादी की ओर संकेत किया है। प्रतीत्यसमुत्पाद अथवा हेतु-प्रत्यय सापेक्षता ईश्वरवाद का खण्डन करने के लिए पर्याप्त है, पर शून्यवाद तक पहुँचते-पहुँचते यह वाद 'अजातिवाद' तक चला गया।' जैनदर्शन स्कन्धों के परस्पर भेद, मिलन आदि से पुद्गलों की उत्पत्ति मानता है। उसी को हम जगत्-सृष्टि कहते हैं | शरीर, वचन मन, श्वासोच्छ्वास पुद्गल के ही परिणमन हैं। ये दृश्य और अदृश्य दोनों प्रकार के होते हैं । लोक द्रव्य की अपेक्षा सान्त है और वह पर्यायों की अपेक्षा से अनन्त है। काल की दृष्टि से शाश्वत है, पर क्षेत्र की दृष्टि से सान्त है । लोक पञ्चास्तिकायिक है। वह अनेकान्त की दृष्टि से शाश्वत भी और अशाश्वत भी है ।३ लोकसृष्टि ब्रह्मा आदि किसी ईश्वर की कृति नहीं, वह तो द्रव्यों का एक स्वाभाविक परिणमन है। जैन-बौद्ध दार्शनिकों ने सृष्टि के सन्दर्भ में वैदिक दार्शनिकों के तर्कों का निम्न प्रकार से खण्डन किया है (i) कार्यत्व हेतु युक्ति-युक्त नहीं, क्योंकि उसके मानने पर ईश्वर भी कार्य हो जायेगा। फिर ईश्वरवाद का भी कोई निर्माता होना चाहिये । इस तरह अनवस्था दोष हो जायेगा। (ii) जगत् यदि कृत्रिम है, तो कुपादि के रचयिता के समान जगत् का रचयिता ईश्वर भी अल्पज्ञ और असर्वज्ञ सिद्ध होगा। असाधारण कर्ता की प्रतीति होती नहीं। समस्त कारकों का अपरिज्ञान होने पर भी सूत्रधार मकान बनाता है। ईश्वर भी वैसा ही होगा। (iii) एक व्यक्ति समस्त कारकों का अधिष्ठाता हो नहीं सकता । एक कार्य को अनेक और अनेक को एक करते हैं। (iv) पिशाचादि के समान ईश्वर अदृश्य है, यह ठीक नहीं। क्योंकि जाति तो अनेक व्यक्तियों में रहती है, पर ईश्वर एक है। सत्ता मात्र से ईश्वर यदि कारण है, तो कुम्भकार भी कारण हो सकता है । अशरीरी व्यक्ति सक्रिय और तदवस्थ नहीं हो सकता। (v) ईश्वर की सृष्टि यदि स्वभावतः रुचि से या कर्मवश होती है तो ईश्वर का स्वातन्त्र्य कहाँ रहेगा ? उसकी आवश्यकता भी क्या ? वीतरागता उसकी कहाँ ? और फिर संसार का भी लोप हो जायेगा। (vi) स्वयंकृत कर्मों का फल उसका विपाक हो जाने पर स्वयं ही मिल जाता है। उसे ईश्वर रूप प्रेरक चेतना की आवश्यकता नहीं रहती। कर्म जड़ है अवश्य, पर चेतना के संयोग से उसमें फलदान की शक्ति स्वतः उत्पन्न हो जाती है। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल यथासमय मिल जाता है। १. विशेष देखिए, लेखक की पुस्तक 'बौद्धसंस्कृति का इतिहास', पृ० ११२-११८ । २. भगवतीसूत्र, २-१-१० । ३. वही, १३-४-४८१ । Jajn Education International Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ६१ अतः ईश्वर को न तो जगत् का सृष्टिकर्ता कहा जा सकता है और न कर्मफलप्रदाता । सृष्टि तो अणु-स्कन्धों के स्वाभाविक परिणमन से होती है । उसमें चेतन-अचेतन अथवा अन्य कारण कभी निमित्त अवश्य बन जाते हैं, पर उनके संयोग-वियोग में ईश्वर जैसा कोई कारण नहीं हो सकता। अपनी कारण-सामग्री के संवलित हो जाने पर यह सब स्वाभाविक परिणमन होता रहता है । आचार्य अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र आदि जैन दार्शनिकों ने तथा नागार्जुन, आर्यदेव, शान्तिदेव, शान्त रक्षित आदि बौद्ध दार्शनिकों ने इस विषय को लगभग इन्हीं तर्कों को बड़ी गम्भीरता से प्रस्तुत किया है ।' इस प्रकार जैन-बौद्ध तत्त्वमीमांसा के उपर्युक्त संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा लगता है। कि श्रमण संस्कृति की ये दोनों शाखाएँ प्रारम्भ में सामान्यतः वस्तु-तत्त्व के विषय में लगभग एक दृष्टिकोण से विचार करती हैं, पर उत्तरकाल में उनमें गंभीर से गंभीरतर भेद होते गये । उनके भीतर भी पारस्परिक भेद काफी पनपे । बौद्धदर्शन की शाखा प्रशाखाओं में जितने अधिक आन्तरिक भेद हुए हैं, उतने जैनदर्शन में नहीं दिखाई देते । इस भेद को हम विकास की संज्ञा दे सकते हैं । विकास की यह धारा अलग-अलग गति लिये हुए भी वह कहीं न कहीं मूल सूत्र से मूल संस्कृति दोनों की एक होने से दोनों का अन्तर बहुत अधिक नहीं हो पाया। तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत आलेख में परिचय रूप में ही प्रस्तुत किया जा रहा है । बंधी रही है । इस अन्तर का - अध्यक्ष, पालि- प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर - १ १. विस्तार के लिए देखिये, लेखक की पुस्तकें - बौद्धसंस्कृति का इतिहास', पृ० ११२ से ११८ और 'जैनदर्शन और संस्कृति का इतिहास', पृ० १५३-१५६ । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर जैन साहित्य की कुछ अनुपलब्ध रचनायें मधुसूदन ढांको समदृष्टा एवं स्पष्टवाक अन्वेषक (स्व०) पं० नाथूराम प्रेमी ने "कुछ अप्राप्य ग्रन्थ" नामक छोटे, किन्तु उपयोगी लेख में, सुमति वज्रनन्दि, महासेन और प्रभजन की सम्प्रति अप्राप्त रचनाओं पर विचार किया है।' इन रचयिताओं के अलावा कुछ और भी प्राचीन दिगम्बर जैन साहित्यिक हुए हैं, जिनके नाम तो हम जानते हैं, परन्तु उनकी कृतियां अनुपलब्ध हैं । ठीक यही स्थिति श्वेताम्बर साहित्य की भी है। यद्यपि हमें श्वेताम्बर वाङ्मय विविध विधाओं एवं विपुल राशि में उपलब्ध है, फिर भी जो रचनायें आज उपलब्ध नहीं हैं, उनके विषय में कहीं ग्रन्थकार का तो कहीं ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है और कहीं-कहीं उक्त उल्लेखों सहित अवतरण भी मिलते हैं। कई स्थानों पर केवल अवतरण ही मिलते हैं; ग्रन्थ अथवा उसके कर्ता का उल्लेख नहीं मिलता है। उपर्युक्त आधारों पर विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि श्वेताम्बर वाङ्मय की भी अनेक कृतियाँ काल के गर्भ में समा चुकी हैं। श्वेताम्बर परम्परा में आगम ग्रन्थों एवं आगमिक व्याख्यायें (नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टीका आदि ) के अतिरिक्त दर्शन, न्याय, शब्दशास्त्र, चरित्रकाव्य, दूतकाव्य, नाटक आदि विविध विषयों पर भी बहुत कुछ लिखा गया था, जो आज प्राप्त नहीं है। यदि इन सबके विषय में खोज की जाय तो एक विशाल और उपयोगी पुस्तक की रचना सम्भव है। यहाँ तो केवल मध्यकाल के पूर्व के कुछ दार्शनिक धर्मप्रवण या नीतिपरक साहित्य के सम्बन्ध में ही विचार किया जायेगा। जैन दार्शनिक साहित्य में अग्रचारि, महामति सिद्धसेनदिवाकर ( ईस्वी ४थी-५वीं शताब्दी) की सभी रचनायें आज उपलब्ध नहीं हैं। जो उपलब्ध हैं, उनके सम्बन्ध में भी कुछ गवेषकों को धारणा है कि ये उनकी कृतियाँ नहीं हो सकतीं। यहाँ तो हम, सिद्धसेन दिवाकर के बाद के श्वेताम्बर लेखकों की रचनाओं के विषय में ही विचार करेंगे। मल्लवावि क्षमाश्रमण सिद्धसेन दिवाकर के अपूर्व दार्शनिक-प्राकृत ग्रन्थ सन्मतिप्रकरण पर द्वादशारनयचक्रका र १. जैन साहित्य और इतिहास, संशोधित साहित्य माला, प्रथम पुष्प, द्वितीय संस्करण, बम्बई १९५६, पृ० ४१८-४२२ । २. हमारे एक मित्र हाल ही में इस विषय पर कार्य कर रहे हैं। उनका यह प्रकाशन प्रतीक्षित है। ३. आगमिक चूणियों में, हरिभद्र सूरि की रचनाओं में, और बाद के वृत्यादि साहित्य में विविध विषयों पर __ ऐसे अनेक अवतरण मिलते हैं, जिनके मूल स्रोत की संख्या प्रथम दृष्टि से भी बहुत ही विशाल मालूम होती है। ४. जैसे कि न्यायावतार, और द्वात्रिशिका क्रमांक २१ । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर जैन साहित्य की कुछ अनुपलब्ध रचनायें ६३ मल्लवादि सूरि ( ईस्वी षष्ठम् शताब्दी मध्याह्न ) की संस्कृत टीका आज अनुपलब्ध है ।" हरिभद्र सूरि के अनेकान्तजयपताका ( ईस्वी ७६० पश्चात् ) में उपर्युक्त टीका से दो अवतरण उद्धृत किए हैं, जिनकी शैली मल्लवादि की द्वादशारनयचक्र की शैली से बिल्कुल ही मिलती-जुलती है । देव सूरि की सम्मति प्रकरण पर २५००० श्लोक- प्रमाण संस्कृत टीका (ईस्वी १०२४ पूर्व) में अन्य ग्रन्थों के अतिरिक्त, मल्लवादि की इस टीका का भी आधार लिया गया होगा । अभयदेव सूरि की बृहदकाय टीका के शैलीगत परीक्षण से उसमें मूल टीका का कुछ भाग या अवतरण भी मिल जाना असम्भव नहीं । मल्लवादि की कोई ऐसी ही प्राकृत रचना भी थी, जो आज नहीं मिलती । आचार्य मलयगिरि ( ईस्वी १२वीं शताब्दी ) ने इसमें से एक अवतरण उद्धृत किया है । हो सकता है कि यह कृति बहुत कुछ "सम्मति" के समान रही होगी । वाचक अजितयशस् हरिभद्रसूरि की अनेकान्तजयपताका पर लिखी स्वोपज्ञ वृत्ति में "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" कथन के सन्दर्भ में " अजितयशा " का उल्लेख हुआ है । उपर्युक्त ग्रन्थ के सम्पादक प्रा० हीरालाल कापडिया ने अजितयशा के विषय में कुछ नहीं कहा है। लेकिन राजगच्छीय प्रभाचन्द्राचार्य के प्रभावकचरित ( वि० सं० १३३४ / ई० सं० १२७८ ) के अन्तर्गत् "मल्लवादि चरित" में अजितयशा को मल्लवादि सूरि का ज्येष्ठ सहोदर कहा है और मुनित्व में उनको सूरिपद से विभूषित १. मल्लवादि का समय ईस्वी ४ थी या ५वीं शताब्दी नहीं हो सकता, जैसा ( स्व० ) पं० सुखलालजी और मुनिवर श्री जम्बुविजयजी मानते थे । दूसरी ओर मल्लवादी को विक्रम की ९वीं शती तक खींच लाना भी युक्त नहीं है, जैसा कि ( स्व० ) पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने किया था । ( उन्होंने धर्मोत्तर पर टिप्पण लिखने वाले, ९वीं शताब्दी के मल्लवादी, जो बौद्ध थे, उनको श्वेताम्बर दार्शनिक मल्लवादी मान लिया था । ) मल्लवादी ने नियुक्तियों में से उद्धरण दिये हैं, इसलिए उनको हम ६ठी शताब्दी के मध्यभाग से पहले नहीं रख सकते और द्वादशारनयचक्र (ईस्वी ७वीं शताब्दी उत्तरार्ध) के टीकाकार सिंहसूरि क्षमाश्रमण से वह पहले हो गये हैं । २. “स्वपरसत्त्वव्युहासोपादानापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वम् "न विषयग्रहणपरिणामा हतेऽपरः संवेदने विषय प्रतिभासो युज्यते युक्त्ययोगात् ॥” ין ( Cf. H.R, Kapadia Anekāntajaypataka, Vol II, Gaekwad's oriental Series, Vol. CV. Baroda 1947, “Introduction” p. 10). ३. यह तथ्य बिल्कुल ही स्पष्ट है । ४. उनकी आवश्यक वृत्ति में मल्लवादी के नाम से निम्नलिखित गाथा उद्धृत है । यथाः " सङ्ग्रह विसेस सङ्ग्रह विसेसपत्थारमूलवागरणी । हवडिओ च पञ्जवनओ च सेसा वियप्पा सिं ॥ (Kapadia, "Intro.", p. 10) लेकिन यह गाथा कुछ पाठान्तर के साथ सिद्धसेन दिवाकर के सन्मति प्रकरण में मिलती है । ( १.४ ) । यदि मलयगिरि ने भ्रमवश इसे मल्लवादी का मान लिया तो सम्भव है कि यह मल्लवादी की सम्मति टीका में से ही लिया गया हो । ५. Kapadia, Ibid. pp. LXXIIl and 33. ६. Cf. Ibid. p. LXXIV. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुसूदन ढांकी भी बताया गया है ।' प्रमाणशास्त्र पर उनके द्वारा किसी ग्रन्थ-लेखन की भी यहाँ सूचना है। अजितयशा की यह रचना आज हमारे सामने नहीं है । प्रभावकचरितकार ने अजितयशा से सम्बन्धित उपर्युक्त सूचना कहाँ से प्राप्त की, यह विचारणीय है। सं० १२९१ ( ईस्वी १२३५ ) को एक अप्रकाशित ताड़पत्रीय हस्तप्रति में अन्य श्वेताम्बर महापुरुषों के चरित्र महापुरुषों के चरित्र के साथ मल्लवादि सूरि का चरित भी सम्मिलित है।' क्या यह स्रोतों में से एक होगा ? प्रभावकचरित से लगभग १३५ वर्ष पूर्व लिखी गई बृहद्गच्छीय आम्रदत्त सुरि की आख्यानकमणिकोश-वृत्ति में भी अजितयशा के सम्बन्ध में ठीक यही बात कही गई है। इस कृति में अजितयशा द्वारा किसो ग्रन्थ की रचना से कुछ वर्ष पूर्व की एक कृति-- भद्रेश्वर सूरि की कहावलि-में अन्य बातों के साथ वादि अजितयशा द्वारा ग्रन्थ-लेखन का उल्लेख है। ऐसा लगता है कि कहावलि का "मल्लवादि चरित" ही प्रभाचन्द्राचार्य के "मल्लवादि-चरित्र" में पल्लवित हुआ है । कहावलिकार ने मल्ल और तीसरे बन्धु यक्ष ( जिसने भी मुनि बन कर सूरिपद प्राप्त किया ) के साथ ही अजितयशा को भी “परवादि-वारण-मृगेन्द्र" कहा है, जो उनके न्याय-विषयक और दार्शनिक ज्ञान तथा खड्ग सदृश्य तीक्ष्ण बुद्धि का परिचायक है। शोध द्वारा अजितयशा के अन्य अवतरण उनके नाम से अथवा बिना नाम के, मिल जाना असम्भव नहीं। हारिल वाचक और उनका ग्रन्थ थारापद्र-गच्छ के वादिवेताल शान्ति सूरि ने, अणहिल्लपत्तन में लिखी गई, स्वकृत उत्तराध्ययनसूत्र-वृत्ति ( प्राकृतः ईस्वी १०४० पूर्व ) में हारिल वाचक के वैराग्यप्रबोधक, दो पद्य उनके नाम सहित उद्धृत किये हैं । यथाः १. सं० जिनविजय मुनि, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद कलकत्ता १९४०, पृ० ७७ । २. Ed. C. D. Dalal, A Descriptive catalogue of Manuscripts in the Jain Bhandars of Pattan, Gaekwad's oriental Series No. LXXVI, Baroda 1937, pp. 194-195. ३. सं० मुनि पुण्यविजय, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी १९६२, पृ० १७२-१७३ । ४. "नवरं विरइओ अजियजस्सो वायगो निओ पमाणगंथो वि, अजियजस्सो वाइ नाम पसिद्धो।" Cf. Lalchandra B. Gandhi, "Introdution", Dvādaśaranaya Cakra of Sri Mallavadisuri, Pt. 1 ( Ed. Late muni Caturvijayji), Gaekwad's oriental Series, No. CXVI, Baroda 1252, p. 10; एवं सं० मुनि जम्बुविजय, "प्राक्कथनम्" द्वादशारं नयचक्रम्, प्रथमो विभाग ( १-४ अराः ), जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर १९६७, पृ० १२), प्रभावकचरित में संस्कृत रूप में यही बात इस तरह मिलती है।" ..........."सन्ति ज्येष्ठोऽजितयशाभिधः १०॥" तथाऽजितयशोनामः प्रमाणग्रन्थमाहर्य । ३४।" ( वही, पृ० ७७-७८ )। ५. दोनों ग्रन्थों के पाठों की तुलना से यह स्पष्ट है। ६. भोगीलाल ज० सांडेसरा, जैन आगम साहित्यमां गुजरात [ गुजराती ], संशोधन ग्रन्थमाला-ग्रन्थांक ८, गुजरात विधानसभा, अहमदाबाद, पृ० २१७; तथा मोहनलाल मेहता, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ३, वाराणसी १९६७, पृ० ३९२ । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ श्वेताम्बर जैन साहित्य की कुछ अनुपलब्ध रचनायें तथा च हारिलवाचक चलं राज्यैश्वर्य धनकनकसारः परिजनो नपाद वाल्लभ्यं च चलममरसौख्यं च विपुलम् । चलं रूपारोग्यं चलमिह चरं जीवितमिदं जनो दृष्टो यो वै जनयति सुखं सोऽपि हि चलः॥ तथा च हारिलः "वातोद्धृतो दहति हुतभुग्देहमेकं नराणां मत्तो नागः कुपितभुजगश्चैकदेहं तथैव । ज्ञानं शीलं विनयविभवौदार्यविज्ञानदेहान् सर्वानर्थान् वहति वनिताऽमुष्मिकानैहिकांश्च ॥ विद्वत्प्रवर भोगीलाल सांडेसरा का कहना है कि प्रस्तुत वृत्ति में एक अन्य अवतरण भी मिलता है, जो रचनाशैली की दृष्टि से हारिल को कृति में से ही लिया गया हो तो असम्भव नहीं ।' यथाः तथा चाहु भवित्री भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां पुरा यद्यत्किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् । पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजोर्णवपुषाम् ॥ थारापद्र-गच्छ का उद्भव हरिगुप्त (हारिल वाचक ) की परम्परा में बटेश्वर क्षमाश्रमण ( ईस्वी ८वीं शताब्दी प्रारम्भ ) को लेकर हुआ था और शान्ति सूरि थारापद्र-गच्छ के आम्नाय में हुए हैं। इसलिए उनका अपनी परम्परा के आदि मुनि की कृति से परिचित होना, और अपने ग्रन्थ-संग्रह में उनकी वह कृति होने की अपेक्षा भी स्वाभाविक है। __सम्प्रति अध्ययन में इसी कोटि का एक अन्य वैराग्यपरक पद्य भी हमारे देखने में आया, जो हारिल वाचक का हो सकता है। उत्तराध्ययनसुत्र की बहद्गच्छीय देवेन्द्र गणि (बाद में सैद्धान्तिक नेमिचन्द्र सूरि ) की सुखबोधा-टीका ( सं० ११२९/ईस्वी १०७३ ) में यह बिना नाम के उद्धृत है । ठीक यही पद्य कृष्णर्षि-शिष्य जयसिंह सूरि के धर्मोपदेश-मालाविवरण (सं० ९१५/ईस्वी ८५९ : दूसरे चरण में; थोड़ा पाठभेद के साथ ) तथा उनके पूर्व की रचना आवश्यक-सूत्र की चूणि में भी उद्धृत हुआ है । यथाः १. सांडेसरा, वही। 8. Cf. Jarl Charpentier, The Uttaradhyayana Sūtra, Indian edition, New Delhi 1980, p. 285. ३. सम्पा०, पं० लालचन्द भगवानदास गान्धी, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २८, बम्बई १९४९, पृ० ६२ । ४. मेहता, जैन साहित्य का बहद इतिहास, भाग ३, पृ० ३०४ । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुसूदन ढांकी वरं प्रविष्टं ज्वलितं हुताशनं न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः परिशुद्धकर्मणो न शोलवृत्तस्खलितस्य जीवितम् ॥ जर्मन विद्वानों ने इस चूणि का समय ईस्वी ६००-६५० के मध्य माना है।' किन्तु इस पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य ( लगभग ५७५-५८५ ईस्वी) का कोई प्रभाव न मिलने से ( स्व० ) मुनि पुण्यविजय जी ने इसे भाष्य पूर्व की रचना स्वीकार किया है। परन्तु आवश्यक चूणि में "सिद्धसेन क्षमाश्रमण" का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने जिनभद्रगणि के जीतकल्प-भाष्य पर चूणि लिखी है। इसको देखते हुए आवश्यक-चूणि को सातवीं शती के पूर्वार्ध की रचना मानना ही संगत होगा। ऊपर उद्धृत पद निश्चितरूप से ७वीं शती से पूर्व की जैनरचना है। इसकी शैली भी हारिल वाचक की शैली के सदृश है। साथ ही पद के सम्भावित समय के आधार पर यह माना जा सकता है कि यह उनकी ही रचना होगी, और यह भी असम्भव नहीं है कि शायद एक ही कृति में से यह सब उद्धृत किया गया हो । ( स्व० ) मुनि कल्याणविजय को धारणा थी कि यह हारिल वाचक वही हैं, जिनका समय युग प्रधान पट्टावलि में "हरिभद्र'' नाम से वीर निर्वाण सं० १०६१/ईस्वी ५३४ दिया गया है। त्रिपुटि महाराज का कथन है कि पट्टावलिकार ने भ्रमवश "हरिगुप्त" के स्थान पर ( विख्याति के कारण ) ( याकिनीसूनु ) "हरिभद्र' नाम लिख दिया है । यह हरिगुप्त वही है, जिनसे कुवलयमाला-कहाकार (सं० ८४५/ईस्वी ७७९) ने अपनी गुर्वावलि आरम्भ किया है और उनको "तोरराय" (हुणराज तोरमाण) से सम्मानित भी बताया है। "हरिगुप्त" का प्राकृत रूप "हारिल" बन सकता है और यदि उनकी स्वर्गगमन तिथि ईस्वी ५३४ हो तो वह तोरमाण के समकालिक भी हो सकते हैं। उपर्युक्त आधार पर हारिल वाचक की यह अज्ञात रचना ६ठी शती के आरम्भ की मानी जा सकती है। यह कृति भर्तृहरि के वैराग्य-शतक जैसी रही होगी। इसके उपलब्ध पद्यों में रस और लालित्य के साथ शुद्ध वैराग्य भावना ( कुछ खिन्नता के साथ) प्रतिबिम्बित है। वाचक सिद्धसेन वादिवेताल शान्ति सूरि ने "सुखबोधा-वृत्ति" में वाचक सिद्धसेन के नाम से दो श्लोक उद्धृत किये हैं । यथाः १. यह मान्यता शूबिंग, अल्सडोर्णादि अन्वेषकों की है। विस्तार भय से यहाँ उनके मूल ग्रन्थ के सन्दर्भ नहीं दिये गये है। २. "प्रस्तावना", श्री प्रभावक चरित्र, [ गुजराती भाषान्तर ], श्री जैन आत्मानन्द ग्रन्थमाला नं० ६३ भावनगर १९३१, पृ० ५४ । ३. जन परम्परा नो इतिहास ( भाग १ लो) (गुजराती), श्री चारित्रस्मारक ग्रन्थमाला ग्र० ५१, अहमदाबाद १९४२, पृ० ४४७-४४८ । ४. मेहता, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, पृ० ३९१ । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर जैन साहित्य की कुछ अनुपलब्ध रचनायें मोक्षाय धर्मसिद्धयर्थ, शरीरं धार्यते यथा। शरीरधाराणार्थ च, भैक्षग्रहणमिष्यते ॥ तथैवोपग्रहार्थाय, पात्रं चीवरमिष्यते । जिनैरुपग्रहः साधोरिष्यते न परिग्रहः॥ जिस कृति से ये श्लोक लिये गये हैं, वह या तो विलुप्त है अथवा अभी तक मिल नहीं पाई है।' वाचक सिद्धसेन प्रसिद्ध वादी सिद्धसेन दिवाकर से सर्वथा भिन्न जान पड़ते हैं। इनकी कृति में शैली-भेद और विषय की भिन्नता स्पष्ट है। यदि यह सिद्धसेन जीतकल्पचूणि तथा निशीथमूल-चूणि के रचयिता सिद्धसेन क्षमाश्रमण नहीं हैं तो इन्हें कोई अन्य अज्ञात आगमिक विद्वान् माना जा सकता है। इनकी लेखन-शैली ६ठी-७वीं शताब्दो के बाद की नहीं प्रतीत होती। साथ हो वाचक पदवी भी ६ठी शताब्दी के पश्चात् देखने में नहीं आती। प्रस्तुत लेख में केवल चार ही प्राचीनकर्ताओं की लुप्त रचनाओं के सम्बन्ध में विचार किया गया है। भविष्य में ऐसी ही कुछ अन्य विनष्ट एवं विलुप्त कृतियों के सम्बन्ध में विचार किया जायेगा। अमेरिकन इन्स्टीट्यूट आफ इण्डियन स्टडीज, -रिसर्च डाइरेक्टर, रामनगर, वाराणसी १. विलुप्त मानी जाने वाली कृतियाँ बाद में मिल गई हों, ऐसे बहुत उदाहरण हैं । २. यह पदवी मध्यकाल में पुनर्जीवित की गई थी। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या बोटिक दिगम्बर हैं ? दलसुख मालवणिया सर्वप्रथम यहाँ 'दिगम्बर' शब्द के प्रयोग से क्या अभिप्रेत है ? यह बताना आवश्यक है । 'दिगम्बर' शब्द का सामान्य अर्थ 'नग्न' होता है । यह सामान्य अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं, अपितु विशेष अर्थ 'दिगम्बर-सम्प्रदाय' अभिप्रेत है । जिसकी मुख्य मान्यता है कि मुनि को वस्त्र का, पात्र का सर्वथा त्याग कर नग्न रहना चाहिए और इसी मान्यता का फलित है कि क्योंकि आर्या वस्त्ररहित हो नहीं सकती, अतएव स्त्री की मुक्ति नहीं होती । तदुपरान्त केवली के कवलाहार का निषेध आदि अन्य मान्यताएँ भी दिगम्बर-सम्प्रदाय में आई हैं । प्रस्तुत प्रसङ्ग में इतना समझ लेना पर्याप्त है । तो अब परीक्षा की जाय कि जिस बोटिक - सम्प्रदाय या निह्नव का श्वेताम्बर के प्राचीन ग्रन्थ आवश्यक सूत्र की टीका आदि में उल्लेख है, क्या वह दिगम्बर है ? आवश्यक के मूल भाष्य में गाथा १४५ से १४८ तक में सर्वप्रथम बोटिक का उल्लेख आया है, वह इस प्रकार है छव्वाससयाई नवुत्तराई तइया सिद्धिगयस्स वीरस्स । तो बोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पण्णा ॥ रवीरपुरं नयरं दीवगमुज्जाण मज्जकण्हे य । सिवभूइस्सुवहिंमि य पुच्छा थेराण कहणा य ॥ ऊहाए पण्णत्तं बोडस भूउत्तराहि इमं । मिच्छादंसणमिणमो रवीरपुरे समुप्पणं ॥ बोओ बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती । कोडिण्ण-कोट्टवीरा परंपराफासमुप्पण्णा' ॥ आवश्यक निर्युक्ति के मत से तो वर्धमान के तीर्थ में सात ही निह्नव थे, ऐसा निर्युक्ति गाथा ९९८ और उक्त भाष्य गाथाओं के बाद आने वाली नियुक्ति गाथा ९८४ से भी स्पष्ट होता है । अतएव मूलभाष्यकार ने बोटिक मत का निर्देश सर्वप्रथम किया है, यह स्पष्ट हो जाता है। आचार्य हरिभद्र आवश्यकटीका में उपर्युक्त गाथा १४६-१४७ को संग्रह गाथा के रूप में निर्दिष्ट करते हैं । १४५वीं गाथा को मुद्रित प्रति में भाष्य गाथा माना गया है । पुनः हरिभद्र ने गाथा १४७ एवं १४८ को मूल भाष्य की गाथा बताई है । तात्पर्य यह हुआ कि गाथा १४७ को उन्होंने संग्रह गाथा कहा और मूलभाष्य को भी गाथा बताया। इससे मालूम होता है कि उनके मत में संग्रह और मूल भाष्य एक ही होगा । आवश्यकचूर्णि में इन गाथाओं की व्याख्या करते समय चूर्णिकार ने कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है कि ये गाथाएँ नियुक्ति की हैं या अन्यत्र से आयी हैं । किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि ये १. आवश्यकटीका - हरिभद्रकृत, पृ० ३२३ । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या बोटिक दिगम्बर हैं ? गाथाएँ मूल नियुक्ति को नहीं हो सकतीं, क्योंकि नियुक्ति में बार-बार सात निह्नवों का ही उल्लेख किया गया है, जिसमें बोटिक का समावेश नहीं है। आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यक मूलभाष्य के इस अन्तर का स्पष्टीकरण करने का प्रयत्न आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में किया है। विशेषावश्यक में भी ये गाथाएँ इसी रूप में मिलती हैं, किन्तु इस मत के विवरण में, जो विशेषावश्यक में विस्तार करने वाली गाथाएँ हैं, उनका कोई निर्देश आवश्यकचूणि में नहीं है। अतएव यह प्रतीत होता है कि मूलभाष्य विशेषावश्यकभाष्य से पृथक् था। सम्भव है कि विशेषावश्यक में जो 'विशेष' शब्द है, वह मूलभाष्य से पृथक्करण के लिए प्रयुक्त है। प्रस्तुत भाष्य-गाथाओं में बोटिक के मन्तव्य को दिट्ठी ( दृष्टि ) और मिच्छादसण ( मिथ्या दर्शन ) कहा है और उसकी उत्पत्ति को भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद ६०९ वर्ष व्यतीत होने पर हुई, यह भी स्पष्ट किया है। यह मिथ्यादर्शन आर्य कण्ह ( कृष्ण ) के शिष्य शिवभूति ने शुरू किया है और उनके दो शिष्य हुए-कोडिण्ण ( कौण्डिन्य ) और कोट्टवीर, उसके बाद परम्परा चली। मूलगाथाओं में इसे दिट्ठी या मिच्छादसण कहा है, किन्तु टीकाकारों ने इसे निह्नव कहा है तथा अन्य निह्नवों से इस निह्नव का जो भेद है, उसे बताने का प्रयत्न किया है। अन्य निह्नवों से इसका अन्तर स्पष्ट करने के पूर्व बोटिक शब्द के अर्थ को देखा जाय "बोटिकश्चासौ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वेन"-अर्थात् वे नग्न थे, इतना तो स्पष्ट होता है। 'चारित्र विकल' जो कहा गया है, वह साम्प्रदायिक अभिनिवेश है। आवश्यकचूणि में सात निह्नवों को 'देसविसंवादी' कहा है, जबकि बोटिक को 'पमूततरविसंवादी' कहा है। किन्तु साम्प्रदायिक व्यामोह बढ़ने के साथ बोटिक के लिए कोट्याचार्य ने विशेषावश्यक की गाथा ३०५२ की टीका में उसे 'सर्वविसंवादी' कह दिया है। आचार्य हरिभद्र अपनी आवश्यक वृत्ति में बोटिक को 'प्रभूतविसंवादी' कहते हैं, जो चूणि का अनुसरण है। विशेषावश्यक टीकाकार हेमचन्द्र ने कोट्याचार्य का अनुसरण करके बोटिक को 'सर्वविसंवादी' कहा है। इतने से सन्तुष्ट न होकर उन्होंने उसे 'सर्वापलाप' करने वाला भी कह दिया है। निशीथ भाष्य में सभी निह्नवों के विषय में कहा है कि ये 'वुग्गइ वक्केन' हैंगाथा ५६९६ और निशीथचूर्णि में 'बुग्गह' का अर्थ दिया है-"वुग्गहो त्ति कलहो त्ति वा भंडणं ति वा विवादो त्ति वा एगह्र' । उत्तराध्ययन की टीका में शाक्याचार्य ने चूर्णि का अनुसरण करके बोटिक को 'बहुतरविसंवादी' कहा है । पूर्वोक्त भाष्य-गाथाओं में तो इतनी ही सूचना है कि शिवभूति को उपधि के विषय में प्रश्न था । इस प्रश्न का विवरण भाष्य में उपलब्ध नहीं। इस विवरण के लिए हमारे समक्ष सर्वप्रथम जिनभद्र १. उत्तराध्ययन की शाक्याचार्य टीका, पृ० १८१ । २. आवश्यक चूर्णि, पृ० १४५ ( भाग १ )। ३. आवश्यक वृत्ति, पृ० ३२३ । ४. विशेषावश्यक, गाथा २५५० । ५. वही, गाथा २३०३ । ६. निशीथचूणि, गाथा ५५९५ । ७. उत्तराध्ययन टीका, पृ० १७९ । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलसुख मालवणिया का विशेषावश्यक भाष्य है। उसमें आवश्यकचूर्णिगत शिवभूति का कोई परिचय नहीं है, केवल उनकी उपधि के विषय में गुरु के साथ हुई चर्चा का विवरण है। इससे इतना स्पष्ट होता है कि कथा के तन्तु की सम्पूर्ति आवश्यक चूर्णि में की गई है । हमें यहाँ कथा से कोई मतलब नहीं है, किन्तु गुरु के साथ उनकी जो चर्चा हुई, उसी से है । निम्न बातें आवश्यकचूर्णि से फलित होती हैं, जो शिवभूति को मान्य थीं १. जिनकल्प का विच्छेद जो माना गया था, उसे शिवभूति अस्वीकार करते हैं । २. उपधि-परिग्रह का त्याग और अचेलता का स्वीकार, अर्थात् वस्त्र आदि किसी प्रकार की उपधि को वे परिग्रह मानते थे । अतएव वे नग्न रहते थे। ३. उनकी बहन उत्तरा ने भी प्रथम तो वस्त्र का त्याग किया, किन्तु गणिका द्वारा दिया गया वस्त्र वह रखे, क्योंकि वह देव का दिया हुआ है-ऐसा मानकर ऐसी अनुमति शिवभूति ने दी। अतएव उनके संघ में आर्याएँ-साध्वियाँ वस्त्र रख सकती थीं--ऐसा फलित होता है। ४. साध्वी जब वस्त्र रख सकती थी तो स्त्री-निर्वाण के निषेध को चर्चा को कोई अवकाश ही नहीं था। विशेषावश्यक भाष्य में शिवभूति की गुरु के साथ जो चर्चा हुई, उसका विस्तृत विवरण है। उस विवरण के आधार पर निम्न बातें शिवभूति के विषय में कही जा सकती हैं १. समर्थ के लिए जिनकल्प का विच्छेद नहीं मानना चाहिए। २. जिनेन्द्र अचेल थे, अतएव मुनि को भी उनका अनुसरण करना चाहिए। ३. मुनि को अचेल परोषह जीतना जरूरी है, अतएव नग्न रहना आवश्यक है। वस्त्रादि परिग्रह कषाय के हेतु हैं, अतएव परिग्रह का त्याग आवश्यक है। निर्ग्रन्थ का ग्रन्थहीन होना जरूरी है। ४. आगम को वह मानता था । आचारांङ्ग के सूत्र को 'उभयसम्मत' कहा है । फिर भी उसकी बात को माना नहीं है । ५. पात्र की आवश्यकता भी अस्वीकृत है। ६. अचेल का अर्थ अल्पचेल भी इसे मान्य नहीं है। ७. अचेलक होते हुए भी तीर्थंकर दीक्षा के समय वस्त्रधारी होते थे, क्योंकि यह दिखाना था कि साधु वस्त्रधारी भी हो सकते थे-यह तर्क भी शिवभूति को मान्य नहीं था। ८. साध्वी को एक वस्त्र की छूट थी। विशेषावश्यक की विस्तृत चर्चा में विवाद के विषय केवल वस्त्र और पात्र हैं। इसमें स्त्री-मुक्ति निषेध की चर्चा नहीं है। दिगम्बर-सम्प्रदाय में वस्त्र-पात्र के अलावा स्त्री-मुक्ति का भी निषेध है। अतएव जिनभद्र तक के समय में बोटिक को दिगम्बर-सम्प्रदाय के अन्तर्गत नहीं किया जा सकता। १. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ३०३२-९२ । २. आवश्यकचूर्णि, पृ० ४२७ । ३. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ३०३६ । ४. आचाराङ्ग, सत्र १३४ । ५. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ३०५४ । ६. वही, गाथा ३०६२ । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या बोटिक दिगम्बर हैं ? यहाँ एक स्पष्टीकरण आवश्यक है। मुद्रित आवश्यकचूणि में जितने अंश में बोटिक की चर्चा है, उसके माजिन में 'दिगम्बरोत्पत्ति' छपा है। किन्तु वह सम्पादक का भ्रम है। क्योंकि चूर्णि में भी बोटिक की चर्चा में कहीं भी स्त्री-मुक्ति की चर्चा को स्थान मिला नहीं है। अतएव बोटिक और दिगम्बर में भेद करना जरूरी है, इसीलिए बोटिक की उत्पत्ति का जो समय है, वह दिगम्बरोत्पत्ति या श्वेताम्बर-दिगम्बर-पृथक्करण का नहीं हो सकता। यहाँ यह भी बता देना जरूरी है कि विशेषावश्यक भाष्य की गाथा २६०९ की टीका में बोटिक-चर्चा का हेमचन्द्र ने उपसङ्हार करते हुए 'स्त्री-मुक्ति' की चर्चा के लिए उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन की टीका को देख लेने को कहा है। वह भी उनके मत में बोटिक और दिगम्बर-सम्प्रदाय को एक मानने के भ्रम के कारण है। जब मूल में स्त्री-निर्वाण-चर्चा की कोई सूचना ही नहीं है. तब उस चर्चा को यहाँ आना उचित नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि आगे चलकर यह भ्रम श्वेताम्बर आचार्यों में फैला है कि दिगम्बर = नग्न होने के कारण बोटिक भी दिगम्बर-सम्प्रदाय है। यहाँ यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि बोटिक की चर्चा में जिनभद्र ने कहीं भी दिगम्बर शब्द का प्रयोग नहीं किया है। वस्त्र के लिए चेल और नग्न के लिए अचेल शब्द का प्रयोग है। बाह्य लिङ्ग के विषय में और बोटिक के विषय में आचार्य अभयदेव के मत का यहाँ निर्देश जरूरी है स्थानाङ्ग मूल में पाठ है__ "चत्तारि पूरिस जाया पन्नत्ता तं जहा-रूवं नाम एगे जहति, नो धम्म; धम्म नाम एगे जहति, न रूवं, एगे रूवं वि जहति, धम्मं वि; एगे नो रूवं जहति, नो धम्मं"। उसकी टीका में अभयदेव ने लिखा है-"रूपं साधुनेपथ्यं जहाति त्यजति कारणवशात्, न धर्मं चारित्रलक्षणं, बोटिकमध्यस्थितमुनिवत्; अन्यस्तु धर्म न रूपम्, निह्नववत्"। इससे इतना तो स्पष्ट होता है कि अभयदेव के मतानुसार बोटिकों के बीच कुछ मुनि ऐसे थे, जिनका बाह्य लिङ्ग तो श्वेताम्बरों के अनुकूल नहीं था, किन्तु मुनि-भाव यथार्थ था। निह्नव और श्वेताम्बरों में भेद यह है कि निह्नवों ने बाह्य वेश तो तत्काल में प्रचलित ही रखा था, किन्तु मान्यता में भेद किया था। किन्तु आचार्य जिनभद्र ने, जो अभयदेव से पूर्वकालीन हैं, लिखा है-"भिन्नमय-लिंगचरिया मिच्छदिट्टित्ति बोडियाऽभिमया"। इसकी टीका में हेमचन्द्र ने लिखा है-"मतं च लिङ्गं च भिक्षाग्रहणादिविषया चर्या च मतलिङ्गचर्याः, भिन्ना मतलिङ्गचर्या येषां ते तथाभूताः सन्तो बोटिका मिथ्यादृष्टयोऽभिमताः।"४ यहाँ सामान्य रूप से बोटिकों के विषय में कहा है कि उनका मत, लिङ्ग और आचरण भिन्न है और ये मिथ्यादृष्टि हैं। जबकि अभयदेव ने उदारता से विचार किया है कि वेश कैसा १. स्थानाङ्ग, सत्र ३२०, पृ० २३९ । २. वही, टीका, पृ० २४१ । ३. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा २६२० । ४. वही, गाथा २६२०, पृ० १०४४ । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दलसुख मालवणिया भी हो, बाह्याचार कैसा भी हो, यथार्थ रूप से कोई मुनि हो सकता है। ___ आवश्यक की टीका में हरिभद्र ने बोटिक सहित सभी निह्नवों को मिथ्यादृष्टि कहा है"निह्नवो मिथ्यादृष्टिः", साथ ही अन्य किसी का मत देकर कहा है कि 'अन्ये तु द्रव्यलिङ्गतोपि भिन्ना बोटिकाख्या इति ।"१ । सारांश यह है कि बोटिक बाह्य वेश की अपेक्षा से भी भिन्न हैं अर्थात् वे नग्न रहते थे। अतएव मतभेद के अलावा बाह्यवेश से भी वे भिन्न हुए। विशेषावश्यक में लिङ्ग-भेद की बात तो आचार्य ने कही, किन्तु समग्र चर्चा से इतना हो स्पष्ट होता है कि बोटिकों ने वस्त्र और पात्र का त्याग किया। वेशान्तर में रजोहरण के स्थान में पिच्छी का ग्रहण किया या नहीं-इस विषय की कोई चर्चा नहीं मिलती। यदि पिच्छी का ग्रहण किया होता, तो आचार्य जिनभद्र अपनी चर्चा में उसे भी परिग्रह क्यों न माना जाय-यह प्रश्न अवश्य उठाते। ऐसा न करके उन्होंने यदि वस्त्र परिग्रह है, तो शरीर को भी परिग्रह क्यों नहीं मानते-इत्यादि जो दलीलें दी हैं, वह पिच्छी की चर्चा के बाद ही देते। इससे पता चलता है कि पिच्छी का उपयोग प्रारम्भ में बोटिकों ने किया नहीं था। रजोहरण का प्रयोग वे करते थे या नहीं यह स्पष्ट नहीं होता, किन्तु यदि करते होते तो वह परिग्रह क्यों नहीं- ऐसी चर्चा भी जिनभद्र अवश्य करते ।। आचाराङ्ग-चूणि में एक वाक्य बोटिक की उपधि के विषय में आता है, उसका अर्थ स्पष्ट नहीं होता। किन्तु तद्गत कुच्चग-कड से तात्पर्य कूचा (पिच्छ) और कट अर्थात् सादडी (चटाई) से हो, तो आश्चर्य नहीं-पाठ है-“जहा बोडिएण धम्म कुच्चग-कड-सागरादि सेच्छया गहिता ।" बोटिक पात्र नहीं रखते थे, अतएव जहाँ भिक्षार्थ जाते थे, वहीं भोजन कर लेते थे"असणादी वा (३) तत्थेव भुंजति जहा बोडिय" और उनकी भोजन-विधि क्या थी, उसे भी बताया है कि वे "पाणिपुडभोइणो" अर्थात् हस्त-पुट-भोजी थे- "तेण जे इमे सरीरमत्तपरिग्गहा पाणिपुडभोइणो ते णाम अपरिग्गहा, तं जहा उड्डंडगबोडियासारक्खमादि ।"४ यहाँ उड्डंड का अर्थ है-तापस और सारक्ख का अर्थ है-आजीवक । आचार्य शीलाङ्क ने बोटिकों के उपकरणों की चर्चा करते हुए उनके उपकरणों की तालिका दी है- "कुण्डिका-तट्टिका-लम्बणिका-अश्ववालधिवालादि ।'६ शुरू में शायद इतने उपकरण बोटिक रखते नहीं होंगे, किन्तु शीलाङ्क के समय तक उपकरणों की वृद्धि हुई होगी। अश्ववालादि से रजोहरण का बोध होता है। ___ शीलाङ्क ने सरजस्क = आजीवक और बोटिक-दोनों को जो दिगम्बर कहा है, वह सम्प्रदाय का सूचक नहीं है, किन्तु नग्नता का-"यद्येवं अल्पेनापि परिग्रहेण -परिग्रहवत्वं अतः पाणिपुटभोजिनो दिगम्बराः सरजस्क-बोटिकादियोऽपरिग्रहाः स्युः, तेषां तदभावात् ।'' १. आवश्यक टीका, पृ० ३११ ।। २. आचाराङ्ग चूर्णि, पृ० ८२ । ३. वही, पृ० ३३६ । ४. वही, पृ० १६९ । ५. श्रमण भगवान् महावीर : कल्याणविजयकृत, पृ० २८० । ६. आचाराङ्ग, शीलाङ्क टीका, पृ० १३५ । ७. वही, पृ० २०७। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या बोटिक दिगम्बर हैं ? ७३ शीलाङ्क ने अन्यत्र पिच्छक का उल्लेख किया भी है-'बोटिकानामपि पिच्छकादिपरिग्रहात् ।' बोटिकों के उपकरण की चर्चा, जो विशेषावश्यक भाष्य के बाद हुई है, वह सम्भवतः दिगम्बर और बोटिक का भेद न करके हुई है। यह भी सम्भव है कि कालक्रम से बोटिकों का हो रूपान्तर दिगम्बर-सम्प्रदाय में है इस समग्र चर्चा से इतना तो स्पष्ट होता ही है कि बोटिक मूलतः दिगम्बर नहीं थे, क्योंकि स्त्री-मुक्ति के निषेध को चर्चा हमें सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द में मिलती है। यद्यपि उनका समय विवादास्पद है, फिर भी मेरा अपना यह निश्चित मत है कि आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य उमास्वाति के पूर्व नहीं हुए हैं। इसको सिद्ध करने का प्रयत्न मैंने अपनी न्यायावतार वृत्ति की प्रस्तावना में दोनों आचार्यों के जैन दर्शन सम्बन्धी मन्तव्यों की तुलना करके किया है। इस समग्र चर्चा से दो फलित निकलते हैं-प्रथम तो यह कि श्वेताम्बर ग्रन्थों में बोटिक नाम से जिस सम्प्रदाय का उल्लेख हुआ है, वह दिगम्बर-सम्प्रदाय से भिन्न है और जिसे अन्यत्र यापनीय के नाम से पहचाना जाता है। दूसरे दिगम्बर-सम्प्रदाय, जो स्त्री-मुक्ति का निषेध करता है, वह या तो बोटिकों का ही परवर्ती विकास है, या फिर उससे प्रारम्भिक श्वेताम्बर आचार्य परिचित नहीं थे। क्योंकि प्राचीन नियुक्तियों एवं भाष्यों से ऐसी मान्यता की उपस्थिति के न तो कोई संकेत ही मिलते हैं और न उसके खण्डन का ही कोई प्रयास देखा जाता है। ८, ओपेरा सोसायटी, अहमदाबाद-३८०००७ १. आचाराङ्ग, शीलाङ्क टीका, पृ० २०७ । सन्दर्भ-सूची १. आवश्यक चूर्णि : प्रका० ऋषभदेवजी केसरीमलजी, रतलाम, भाग-१, १९२४; भाग-२ । २. विशेषावश्यक भाष्य : भाग-२, ला० द० ग्रन्थमाला, १९६४ । ३. श्वेताम्बर-दिगम्बर : मुनिदर्शनविजय, १९४३ । ४. निशीथसूत्र :: भाग-४, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६० । ५. आवश्यक सूत्र : हरिभद्र टीका, आगमोदय समिति, १९१५ । ६. विशेषावश्यक भाष्य हेमचन्द्र टीका, यशोविजय ग्रन्थमाला, बनारस, वीर सं० २४३९ । ७. विशेषावश्यक भाष्य : कोट्याचार्य टीका, भाग-२, ऋषभदेवजी केसरीमलजी, रतलाम, १९३७ । ८. उत्तराध्ययन : शाक्याचार्य टीका, देवचन्द्रलाल भाई, १९१६ । ९. स्थानाङ्गसूत्र : अभयदेव टीका, आगमोदय समिति, १९१५ । १०. आचाराङ्ग चूर्णि : ऋषभदेव केसरीमलजी, १९४१ । ११. आचाराङ्ग : शीलाङ्क टीका, आगमोदय समिति । १२. श्रमण भगवान महावीर : कल्याणविजयजी, श्री० क० वि० शास्त्रसंग्रह समिति, जालोर, वि० सं० १९९८ । गीलाल Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व मध्यकालीन भारतीय न्याय एवं दण्ड व्यवस्था ( प्राकृत कथा साहित्य के सन्दर्भ में ) झिनकू यादव प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की संरचना में अभिलेख, मुद्रा, विदेशी यात्रियों के विवरण एवं खुदाई से प्राप्त सामग्रियों के साथ-साथ साहित्यिक स्रोतों का भी अत्यधिक महत्त्व है। प्राचीन भारत में इतिहास लेखन को सुव्यवस्थित परम्परा का अभाव था। ऐसी स्थिति में पुरातत्त्व एवं साहित्य ही भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी के साधन हैं। साहित्यिक स्रोतों में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैनधर्म के आचार्यों ने जिन कथानक एवं घटनाओं का वर्णन किया है, वे निरर्थक नहीं हैं। वे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इतिहास एवं संस्कृति की थाती के रूप में संजोई गई सामग्रियाँ हैं। ब्राह्मण एवं बौद्ध साहित्य की भाँति जैन साहित्य भी बृहद् रूप में लिखा गया । प्रारम्भिक जैन साहित्य तो जैन धर्म में आचार-नियम, संयम-साधना एवं दर्शन आदि का संकलित रूप है, जो आगम साहित्य के रूप में जाना जाता है। जैन आगमों को आधार मानकर डॉ० जगदीश चन्द्र जैन ने 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज' नामक ग्रन्थ की रचना की, जो जैन स्रोतों से प्राचीन भारतीय समाज के विभिन्न पक्षों की जानकारी का महत्त्वपूर्ण साधन है । आगमों की रचना के बाद उन पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य एवं टीकाएँ लिखी गईं । तत्पश्चात् कथा साहित्य एवं पुराणों की रचनाएँ की गई। जैन कथा साहित्य की रचना लगभग छठी-सातवीं शताब्दी से लेकर १२वीं-१३वीं शताब्दी के बीच में की गई है। प्रस्तुत निबन्ध समराइच्चकहा, कुवलयमालाकहा, कथाकोषप्रकरण, ज्ञानपंचमीकहा एवं कुमारपाल प्रतिबोध से ली गई सामग्रियों पर आधारित है। न्याय-व्यवस्था पूर्व मध्यकालीन प्राकृत कथा साहित्य के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका का प्रमुख अधिकारी राजा स्वयं होता था। आरम्भ में अपराधों की जाँच मन्त्रिगण अथवा अन्य अधिकारी करते थे और तत्पश्चात् मुकदमे राजा को सौंप दिये जाते थे। राजा भी न्यायपालिका के अधिकारियों की सलाह से निर्णय देता था। कभी-कभी नगर के प्रमुख व्यक्ति मिलकर किसी वाद-विवाद सम्बन्धी मामलों पर निर्णय देते थे और निर्णय उभय पक्ष को मान्य होता था । राजाज्ञा के विरुद्ध आचरण करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाता था । अपराध करने वाली १. समराइच्चकहा 4, 259; देखिए-मनुस्मृति, 814-7 । २. वही 6,561 । ३. वही 6, 498 । ४. वही 7, 642 । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व मध्यकालीन भारतीय न्याय एवं दण्ड व्यवस्था स्त्रियों को तथा राजद्रोही पुत्र को देशनिर्वासन तक की सजा दी जाती थी।' तत्कालीन धार्मिक परम्परा के अनुसार स्त्रियाँ अवध्य मानी जाती थीं, अतः उन्हें मृत्युदण्ड के स्थान पर देशनिर्वासन की सजा दी जाती थी। राजा-महाराजा न्याय-प्रिय होते थे। न्याय में भेद-भाव नहीं किया जाता था। राजा ही सर्वोच्च न्यायाधिकारी था तथा अपने सामने उपस्थित किये गये अभियोग या अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनता था। कुमारपाल प्रतिबोध में सोमप्रभ सूरि ने लिखा है कि चालुक्य नरेश कुमारपाल दिन के चौथे प्रहर में राज-सभा में बैठता था, जिसमें राज्य से सम्बन्धित अन्य कार्यों के अतिरिक्त वह न्यायिक कार्य भी करता था । वसुदेवहिण्डो के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि अपराधों की जाँच के लिए राजा के पास लिखित अपील भी दी जाती थी। राजा यथासम्भव स्वयं न्याय करता था, पर अधिक कार्य के कारण 'प्राड्विवाक' या प्रधान न्यायाधीश उसका कार्य संभालते थे।६ राजद्रोह का अपराध गुरुतर था। सप्त प्रकृति ( राजा, अमात्य आदि ) के प्रति शत्रुभाव रखना महान् अपराध था और उसके लिए जीवित अग्नि में जलाने का विधान था। मनु ने राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों को तथा चोरी करने वालों को उसी प्रकार का अपराधी माना है। वादी तथा उसकी सूचना के आधार पर राजा अपराधी को दण्ड देता था।९ समराइच्चकहा में स्त्री को अवध्य बताकर उसे निर्वासित करने का उल्लेख है, किन्तु याज्ञवल्क्य ने गर्भपातिकी एवं पुरुष को मारने वाली स्त्रियों को मृत्यु-दण्ड का भागी बताया है। सम्भवतः प्राकृत कथा साहित्य में स्त्रियों के प्रति उदार दृष्टिकोण का कारण जैनों की अहिंसा नीति ही है, जिसके आधार पर उन्हें अवध्य बताकर देशनिर्वासन की सजा ही पर्याप्त मान ली गई; किन्तु धर्मशास्त्रीय विधि के अनुसार स्त्रियों को भी र अपराधों के लिए परुषों के समान दण्ड का भागी बताया गया है। मौर्यकाल में भी उचित दण्ड व्यवस्था थी। ऐसी मान्यता थी कि दण्ड देने वाला राजा सदैव पूज्य होता है। क्योंकि विधिपूर्वक शास्त्रविहित दिया गया दण्ड प्रजा को धर्म, अर्थ एवं काम से युक्त करता है।" दण्ड-व्यवस्था-चोरी पूर्व मध्यकालीन भारतीय शासन पद्धति में साधारण से साधारण अपराध पर कठोर दण्ड की व्यवस्था थी। समराइच्चकहा में भी धर्मशास्त्रों के समान पुरुष-घातक तथा परद्रव्यापहारी को उसके जीते ही आँख, कान, नाक, हाथ तथा पाँव काटकर अंग छेद किये जाने का विधान बताया गया है।' २ मौर्यकाल में भी बलवान व्यक्ति निर्बलों को कष्ट न पहुँचाये, इसके लिए १. समराइच्चकहा, 2, 115%; 4, 286%; 7, 643 । २. वही,5, 362: 6,560-81 । ३. अल्तेकर-प्राचीन भारतीय शासन पद्धति, पु० 150 । कुमारपाल प्रतिबोध, प्रस्तावना, १० 13-गायकवाड ओरियण्टल सीरीज 14, बड़ौदा 1920 । ५. वसुदेवहिण्डी, पृ० 253, 'लिहियं से वयणं संभोइयो य' ( भावनगर एडी० )। ६. अल्तेकर-प्राचीन भारतीय शासन पद्धति, पृ० 150 । ७. वृहस्पति, 17116 ।। ८. मनुस्मति, 91275 । ९. हरिहर नाथ त्रिपाठी-प्राचीन भारत में राज्य और न्यायपालिका, पु० 215 १०. याज्ञवल्क्य स्मृति, 21268 । ११. अर्थशास्त्र, 114113-यथार्हदण्डः पूज्यतेः -114114 । १२. समराइच्चकहा, 2, 117; 4, 326-27 । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ झिनकू यादव कठोर दण्ड-व्यवस्था थी।' फाहियान के अनुसार उत्तर भारत में मृत्यु-दण्ड नहीं था। चोल और हर्ष के शासन-काल में ऐसे दण्ड की कमी थी ।२ चोरी होने पर राजा द्वारा नगर भर में यह घोषणा करायी जाती थी कि यदि किसी के घर में चोरी का सामान मिलेगा तो उसे शारीरिक दण्ड दिया जायगा तथा उसका सारा धन भी छीन लिया जायगा ।३ पूरे नगर में चोरों का पता लगाया जाता था और अपराध सिद्ध होने पर अभियुक्त को मृत्युदण्ड दिया जाता था। अपराधी के शरीर में तृण तथा कालिख पोत कर डिमडिम की आवाज के साथ यह घोषणा करते हुए नगर भर में घुमाया जाता था कि इस व्यक्ति को अपने कृत्यों के अनुसार दण्ड दिया जा रहा है। अतः यदि दूसरा व्यक्ति भी ऐसा अपराध करेगा तो उसे भी इसी प्रकार से कठोर दण्ड दिया जायगा और तत्पश्चात् उसे चाण्डाल द्वारा श्मशान भूमि पर ले जाकर मृत्यु-दण्ड दिया जाता था। अभियुक्त को नगर भर में वाद्य के साथ घोषणा पूर्वक घुमाने का तात्पर्य लोगों को अपराध न करने के लिए भयभीत करना था, ताकि नगर अथवा राज्य में अपराधों की कमी हो तथा लोग राजाज्ञा का पालन करते हुए शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखें। समराइच्चकहा में अपराध सिद्ध होने पर अभियुक्तों के लिए आठ प्रकार के दण्ड देने का निर्देश है, यथा-खेद प्रकट करना, निषेध, धिक्कारना, डाँटना-फटकारना, संसीमन (किसी सीमा तक बाहर रहने का आदेश ), कारावास, शारीरिक दण्ड और आर्थिक दण्ड देना। सेंध लगाकर चोरी करने वालों का अपराध सिद्ध होने पर राजाज्ञा द्वारा अपराधी को शूली पर लटका कर मृत्यु-दण्ड दिया जाता था ।' छल-कपट तथा धूर्तता करनेवालों को भी मृत्यु-दण्ड दिया जाता था । आचारांगचूणि से पता चलता है कि चोरी करने वाले को कोड़े लगवाये जाते थे अथवा विष्टा भक्षण कराया जाता था।' आदिपुराणकार के अनुसार अपराध सिद्ध होने पर अभियुक्त को मृत्तिका-भक्षण, विष्टा-भक्षण, मल्लों द्वारा मुक्के से पिटवाना तथा सर्वस्व हरण आदि दण्ड दिये जाते थे। वैदिक काल में भी चोरी को अपराध माना गया है।'' गाय एवं वस्त्र आदि के चोरों को 'तायुस्' कहा गया है।' चोरी के अपराधी को राजा के सामने उपस्थित किया जाता था तथा उन पर चोर के चिह्न लगाने का उल्लेख है ।१२ स्मृतियों में चोरों का पता लगाने के विविध प्रकार बताये गये हैं, यथा-जो व्यक्ति अपने निवास स्थान का पता नहीं बताता, संदेहपूर्ण दृष्टि १. अर्थशास्त्र, 114113, 114116--'अप्रणीतो हि मात्स्यन्यायमुद्भावयति ।' २. हरिहरनाथ त्रिपाठी-प्राचीन भारत में राज्य और न्यायपालिका, पृ० 246 । ३. समराइच्चकहा, 2, 111। ४. वही 4, 259-60, 272; 5, 367;6, 523-24, 507-8; 9, 957 । ५. वही, 5, 358। ६. वही 3, 184, 210; 7, 669, 716 । ७. वही, 6, 560-61 । ८. आचारांग चूणि 2, पृ० 65; देखिए-पतंजलि महाभाष्य 5-1-64, 65, 66 । ९. आदिपुराण 461292-93 । १०. ऋग्वेद् 413815; 511515 । ११. वही, 101416; 413815; 611215 ।। १२. वही, 1124114-15; 718615; 517919; 1124112-13 । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व मध्यकालीन भारतीय न्याय एवं दण्ड व्यवस्था से देखता हो, अनुचित स्थान पर रहता हो, पूर्व-कर्म से अपराधी हो, जाति आदि छिपाता हो, सुरा और सुन्दरी के सम्पर्क में रहता हो, स्वर बदल कर बात करता हो, अधिक खर्च करता हो, पर आय के स्रोत का पता न हो, खोई वस्तु या पुराना माल बेचने वाला हो, दूसरे के घर के पास वेष बदल कर रहता हो, उसे चोर समझना चाहिये ।' स्मृतियों में चोरी करने वालों को कठोर दण्ड का भागी बताया गया है । बहुमूल्य रत्नों की चोरी के लिए मनु विधान किया है। सेंध लगाकर चोरी करने वालों को शूली की सजा दिये जाने मनुस्मृति में एक अन्य स्थान पर राजकोष एवं मन्दिर की वस्तु, अश्व, रथ, गज करने वालों को मृत्यु का भागी बताया गया है । * स्मृतियों में चोर के कार्य में वाले को भी चोर के समान दण्ड दिये जाने का उल्लेख है । १. याज्ञवल्क्य स्मृति, 21226-68; नारद परिशिष्ट, 9112 २. मनुस्मृति 81323 ४. वही, 9180 । पुलिस विभाग - दण्डपाशिक समराइच्चकहा, कुवलयमालाकहा और कुमारपाल प्रतिबोध आदि ग्रन्थों में पुलिस विभाग के एक प्रमुख अधिकारी को दण्डपाशिक कहा गया है। उसकी नियुक्ति राजा के द्वारा की जाती थी । वह अपराध का सतर्कता पूर्वक निरीक्षण करने के बाद समुचित दण्ड देता था । वह अपराधियों का पता लगाता था और अपराध सिद्ध होने पर दण्ड की आज्ञा देता था। मुकदमें दण्डपाशिक के बाद मन्त्रिमण्डल में लाये जाते थे और तत्पश्चात् राजा उस पर अन्तिम निर्णय देता था । ' दण्डपाशिक ( चोरों को पकड़ने का फन्दा धारण करने वाले ) का उल्लेख पाल, परमार तथा प्रतिहार के अभिलेखों में प्राप्त होता है । " उत्तर भारत में पूर्व मध्यकालीन राजाओं के केन्द्रीय प्रशासन में दण्डपाशिक, महाप्रतिहार, दण्डनायक एवं बलाधिकृत जैसे प्रमुख अधिकारी होते थे । ये अपने-अपने विभाग के प्रमुख अथवा अध्यक्ष होते थे । १° दण्डपाशिक पुलिस विभाग का एक अधिकारी था, जो विभिन्न भागों में नियुक्त रहते थे तथा अपराधियों को दण्ड देने का कार्य करते थे । दण्डपाशिक दण्डभोगिक के समान था, जिसे पुलिस मजिस्ट्रेट कहा जा सकता है । "" ३. वही, 91276 । ५. वही, 91271; याज्ञ०, 21286 1 ७७ E, 4, 358-59-60; 6, 508-520-523; 7, 714, 715-716, 718; 8, 847-48; 9, 957; देखिए - इंडि० हिस्टा० क्वार्ट०, दिसम्बर 1960, पृ० 266 । ७. समराइच्चकहा, 6, 597 98 99; देखिए - डी सी० सरकार — इंडियन इपिग्रैफिकल ग्लासरीज, पृ० 81 । मृत्यु दण्ड का का निर्देश है। आदि की चोरी सहायता करने ८. समराइच्चकहा, 8, 84950 1 ९. हिस्ट्री आफ बंगाल, भाग 1, पृ० 285; इपिग्रेफिया इंडिका, 19, पृ० 73, 9, पृ० 6, देखिए - सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, 1, पृ० 77; डी० सी० सरकार — इण्डियन इपिग्रेफी - पृ० 76 १०. इपिग्रेफिया इण्डिका, 13, पृ० 339 ११. दी एज आफ इम्पीरियल कन्नौज, पू० 240 1 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ झिनकू यादव समराइच्चकहा में कालदण्डपाशिक' का भी उल्लेख आया है। सम्भवतः यह दण्डपाशिक से उच्च अधिकारी होता था, जो गंभीर मुकदमों की निगरानी कर अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड देता था। अर्थशास्त्र तथा कामसूत्र में नगर के प्रमुख अधिकारी को नागरक कहा गया है। कुछ समालोचकों ने नागरक की व्याख्या दण्डपाशिक के समान की है। समराइच्चकहा में उल्लिखित दण्डपाशिक और कालदण्डपाशिक तथा अन्य उपर्युक्त साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि दण्डपाशिक पुलिस विभाग का प्रमुख अधिकारी था, जो चोर-डाकुओं का पता लगाकर उनको दण्डित भी करता था । वह न्यायिक जाँच के पश्चात् दण्ड देने का भी कार्य करता था। पुलिस विभाग का दूसरा कर्मचारी प्राहरिक' कहलाता था, जो नगरों तथा गाँवों को चोरडाकुओं से सुरक्षित रखने में सहायता करता था। ये प्रहरी ( पहरा देने वाले ) पुलिस कर्मचारी होते थे। कुवलयमाला में जामइल्ल ( यामडल ) शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार : ग्रंथ में पुरमहल्ल' और नगरमहल्ल' शब्द का भी प्रयोग हआ है। यहां जामइल्ल शब्द का अर्थ प्राहरिक या पहरेदार बताया गया है।' कादम्बरी में भी प्राहरिक' यामिक और यामिक लोक २ ( पहरे के सिपाही ) का उल्लेख है। यहाँ ये अधिकारी याम अर्थात् रात्रि के समय नगर आदि में सुरक्षा की दृष्टि से पहरा देने वाले यामिक और यामिकलोक कहे गये हैं। __समराइच्चकहा में अन्य पुलिस कर्मचारी यथा नगररक्षक तथा आरक्षक ४ आदि का भी उल्लेख है । प्रो० दशरथ शर्मा के अनुसार राज्य की ओर से गाँवों को सुरक्षा एवं शान्ति व्यवस्था के लिए रक्षकार नियुक्त किये जाते थे ।१५ किन्तु समराइच्चकहा में केवल नगररक्षक का ही उल्लेख है, सम्भवतः नगर की रक्षा के लिए पुलिस अथवा सैनिकों का एक जत्था नियुक्त रहता था। आरक्षक का तात्पर्य सुरक्षा सैनिक से है, जो नगरों और गाँवों में शान्ति एवं सुरक्षा बनाए रखने में सहायता करते थे। आरक्षकों को आधुनिक पी० ए० सी० की श्रेणी में रखा जा सकता है, जो केवल आन्तरिक सुरक्षा के ही काम आते थे। १. समराइचकहा, 3, 212; 4, 321 । २. अर्थशास्त्र, 2, 36 11। ३. कामसूत्र, पंक्ति 5-9 । ४. डी० सी० सरकार-इंडियन इपिग्रफी ग्लासरी, पृ० 269 । ५. समराइच्चकहा, 8, 825 । ६. कुवलयमालाकहा, 84124; 135118। ७. वही, 18314। ८. वही, 127131; 24713-4 । ९. देखिए-पाइअसद्दमहण्णवो, पृ० 354 । १०. अग्रवाल-कादम्बरी एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० 267, 270 । ११. वही, पृ० 94, 111, 217-232 । १२. वही, 268, 270 । १३. समराइच्चकहा, 4, 270 ( तओ आउलीहूय नायरया नयरारविषया); 5, 387 । १४. वही, 2, 155-56; 4, 326; 5, 457; 6-509, 519, 522, 597 । १५, दशरथ शर्मा-अर्ली चौहान डायनेस्टीज, पृ० 207 । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व मध्यकालीन भारतीय न्याय एवं दण्ड व्यवस्था ग्राम तथा नगर शासन 'पंचकुल' समराइच्चकहा में 'पंचकुल'' का उल्लेख हुआ है। यह पाँच न्यायिक अधिकारियों की एक समिति होती थी। समराइच्चकहा में उल्लिखित पंचकुल आधुनिक ग्राम पंचायत की भांति पाँच अधिकारियों की एक न्यायिक समिति होती थी। इनका निर्वाचन धन और कुल के आधार पर होता था। अतः स्पष्ट होता है कि पंचकुल के ये सदस्य धनी, सम्पन्न एवं कुलीन होते थे । कौटिल्य के अनुसार राजा को चाहिए कि प्रत्येक अधिकरण ( विभाग ) में बहुत से मुख्यों ( प्रमुख अधिकारी) की नियुक्ति करे, जो न्यायिक जाँच करें तथा उन्हें स्थायी नहीं रहने दिया जाय । स्पष्टतः मौर्य काल में भी इसका संकेत प्राप्त होता है। मेगस्थनीज ने नगर तथा सैनिक-प्रबन्ध के लिए पाँच सदस्यों की समिति का उल्लेख किया है।४ गुप्तकाल में भी पाँच सदस्यों की ग्राम समिति को पंचमंडली कहा जाता था। इससे पता चलता है कि पाँच व्यक्तियों का यह बोर्ड बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। गुजरात में विशाल देव पोरबन्दर-अभिलेख से पता चलता है कि पंचकुल को सौराष्ट्र का प्रशासन नियुक्त किया गया था । आठवीं शताब्दी के अन्त में हुंड (प्राचीन उमण्डपुर ) के सारदा अभिलेख में पंचकुल का उल्लेख है। गुजरात में प्रतिहार नरेश के सियादोनो अभिलेख में पंचकुल का पाँच बार उल्लेख आया है। विक्रम संवत् १३०६ के चाहमान अभिलेख तथा विक्रम संवत् १३३६ के भीमनाल अभिलेख में पंचकुल का उल्लेख हुआ है और दोनों अभिलेखों से पता चलता है कि पंचकुल राजा द्वारा नियुक्त किये जाते थे । १३४५ ई० के चाहमान अभिलेख" ° में भी पंचकुल का उल्लेख है। एक अन्य स्थान पर तो ग्राम पंचकुल११ शब्द का उल्लेख आया है । इसी प्रकार एक अभिलेख में पंचकुल को महामात्य के साथ उद्धृत किया गया है । '२ सौराष्ट्र के शक संवत् ८३९ के एक अभिलेख में पंचकुलिक का उल्लेख है, जो सम्भवतः पंचकुल के पाँच सदस्यों की समिति में से एक था। इसी प्रकार संग्रामगप्त के एक अभिलेख में महापंचकलिक' ४ का उल्लेख है, जो एक उच्च अधिकारी जान पड़ता है। इसी प्रकार गुप्त सम्राटों के दामोदर प्लेट में प्रथम कुलिक का १. समराइच्चकहा, 4, 270-71; 6, 560-61 । २. निशीथचूणि, 2, पृ० 101 । ३. अर्थशास्त्र, 219 । ४. मैकक्रिडिल--मैगस्थनीज फ्रेगमेंट, 31, पृ० 86-88 । ५. अल्तेकर--प्राचीन भारतीय शासन पद्धति, पृ० 177 । ६. इपिग्राफिया इंडिका, 22, पृ० 97 । ७. वही, 1, पृ० 173 । ८. वही, 11, पृ० 57 । ९. बाम्बे गजेटियर, 1, 480, नं0 12 । १०. इपिग्राफिया इंडिका, 11, पृ० 58। ११. वही 11, पृ० 50 । १२. नाहर---जैन इंस्क्रिप्सन्स 248-महामात्य प्रभृति पंचकुला । १३. इंडियन एंटीक्यूरी, 12, पृ० 193-94 । १४. जर्नल आफ दी बिहार एण्ड उडिसा रिसर्च सोसायटी, 588 । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० झिनकू यादव उल्लेख है।' यहाँ मजूमदार ने भी पंचकुल के पाँच सदस्यों का एक बोर्ड माना है, जिनमें से प्रत्येक को पंचकुलिक और उनके मुख्य अधिकारी को महापंचकुलिक बताया है। समराइच्चकहा में पंचकूल को राजा के साथ बैठकर मुकदमों की निगरानी तथा उनके (पंचकुल ) परामर्श से राजा द्वारा उचित निर्णय देने का उल्लेख है । ३ हर्षचरित से भी पता चलता है कि प्रत्येक गांव में पंचकुल संज्ञक पाँच अधिकारी गाँव के करण या कार्यालय के व्यवहार ( न्याय और राजकाज ) चलाते थे। प्रबन्धचिन्तामणि तथा अन्य कथाओं में भी पंचकुल का उल्लेख है। ऊपर के आभिलेखीय तथा साहित्यिक साक्ष्यों से पता चलता है कि पंचकुल का निर्वाचन राजा द्वारा किया जाता था, जो गाँव तथा नगर के मुकदमों की न्यायिक जाँच कर राजा, अमात्य तथा अन्य अधिकारियों के परामर्श से निर्णय भी देते थे। राजपूताना में १२७७ ई० के भीमनाल अभिलेख में पंचकुल के सदस्यों द्वारा एक दान देने का वर्णन है । अभिलेखों के आधार पर यह प्रकट होता है कि पंचकुल मंत्री और गवर्नरों से सम्बन्धित थे तथा कभी-कभी नगर के अधीक्षक का भी कार्य करते थे, किन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार उनके ( पंचकुल ) कार्य किसी निश्चित सीमा (नगर-गाँव अथवा मन्त्री ) तक सीमित न थे। कारणिक पंचकुल को भांति समराइच्चकहा में अपराधों की न्यायिक जाँच करते हुए कारणिक' का उल्लेख किया गया है। अन्य प्राचीन जैन ग्रंथों में न्यायाधीश के लिए कारणिक अथवा रूप-यक्ष (पालि में रूप-दक्ष ) शब्द का प्रयोग हुआ है। रूप-यक्ष को माठर के नीतिशास्त्र और कौडिन्य की दण्डनीति में कुशल होना बताया गया है तथा उसे निर्णय देते समय निष्पक्ष रहने का निर्देश दिया गया है। उत्तराध्ययन टोका में" उल्लिखित है कि करकण्डु और किसी ब्राह्मण में एक बाँस के डण्डे को लेकर झगड़ा हो गया। दोनों कारणिक के पास गये। बाँस करकण्डु के श्मशान में उगा था, इसलिए उसे दे दिया गया। बहत्कल्पभाष्य१२ में भी उल्लिखित है कि अपराधी को राजकुल के कारणिकों के पास ले जाया जाता था और अपराध सिद्ध होने पर घोषणापर्वक दण्डित किया जाता था। सोमदेव ने कर्णी ( कार्णिक ) के पांच प्रकार के कार्य एवं अधिकार गिनाये हैं, यथा१. इपिग्राफिया इंडिका 15, 113-145 । २. ए० के० मजूमदार-चालुक्याज आफ गुजरात, पृ. २३९ । ३. समराइच्चकहा, 6, 560-31 । ४. वासुदेवशरण अग्रवाल-हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० 203 । ५. सिन्धीजैनग्रन्थमाला, 1, पृ० 12, 57, 82 । ६. अल्तेकर-प्राचीन भारतीय शासन पद्धति, पृ० 178 । ७. ए० के० मजूमदार-चालुक्याज आफ गुजरात, पृ० 240 । ८. समराइच्चकहा 4, 271-'नीया पंचउल समीयं, पुच्छिया पंचउलिएहि कओ तुन्भेत्ति । तेहि भणियं-'सावत्थीओ'। कारणिएहिं भणियं कहि गमित्सह त्ति । तेहि भणियं सुसम्म नयरं । कारणिएहिं भणियं किंनिमित्त त्ति-कारणिएहि भणियं-आथे तुम्हाणां किंचिदविणाजायं...' । ९. जगदीशचन्द्र जैन-जैनागम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० 64 । १०. व्यवहार भाष्य, 1, भाग 3, पृ० 132 । ११. उत्तराध्ययन टीका, 9, पृ० 234 । १२. बृहत्कल्पभाष्य, 11900,904-5 । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व मध्यकालीन भारतीय न्याय एवं दण्ड व्यवस्था (१) अदायक ( राज्य की आय को एकत्र करने वाला ), (२) निबन्धक ( लेखा-जोखा का कार्य करने वाला), (३) प्रतिबन्धक (सील का अध्यक्ष ), (४) नीति ग्राहक (वित्त विभाग का कार्य), (५) राज्याध्यक्ष ( इन चारों का अध्यक्ष )' । कर्णाटक के कलचुरि शासन में पाँच अधिकारी नियुक्त किये जाते थे। इन्हें 'करणम' कहते थे। इनका कार्य यह देखना था कि सार्वजनिक धन का दुरुपयोग न हो, न्याय की व्यवस्था ठीक हो तथा राजद्रोहियों और उपद्रवियों को समुचित दण्ड मिले। प्राकृत जैन कथा ग्रन्थों में उल्लिखित कारणिक राज्य के आय-व्यय आदि का लेखा-जोखा तैयार करने के साथ-साथ न्यायिक जाँच का भी कार्य करता था, जैसाकि ऊपर के साक्ष्यों द्वारा पुष्ट होता है। १. जी० सी० चौधरी-पोलिटिकल हिस्ट्री आफ नार्दर्न इंडिया फ्राम जैन सोर्सेज, पृ० 362 । २. इपिरॅफिया कर्णाटिका, भाग, 7, शिकारपुर संवत् 102 और 123 । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ! आधुनिक सन्दर्भ में लक्ष्मीचन्द्र जैन "इस बिन्दु पर एक उलझन स्वयं आ खड़ी होती है, जो सभी युगों में शंकित मस्तिष्कों को प्रेरणा प्रदान करती रही है। यह किस प्रकार सम्भव है कि गणित, अनुभूति द्वारा स्वतन्त्र मानवीय विचारों की अन्ततः उपज होते हुए भी, वस्तुओं की वास्तविकता से इतना प्रशंसनीय रूप से उपयुक्त सिद्ध हुआ है ? तब क्या मानवीय न्याय बुद्धि, बिना अनुभव के, केवल विचारों के सहारे, वास्तविक वस्तुओं के गुणों को गहराई नापने में समर्थ है ?'' -अलबर्ट आइन्स्टाइन' आचार्य नेमिचन्द्र को इस तथ्य का सर्वाधिक श्रेय है कि उन्होंने ग्यारहवीं सदी में आगे आने वाली पीढ़ियों को जैन धर्म की सारभूत कर्म सिद्धान्त विषयक अपार सामग्री के बचे हुए अंश के गणितीय विवेचन को सूत्रबद्ध रचनाओं में पिरो दिया। निस्सन्देह, उनके समक्ष उनके पूर्ववर्ती आचार्यों के न केवल मौलिक ग्रन्थ वरन् उन पर रची गईं विशाल टीकाएँ भी उपस्थित रही होंगी और उन्हीं के आधार पर वे अतीव आत्मविश्वास के साथ घोषणा कर सके . जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण । तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ सूत्रबद्ध की गई उनकी रचनाएँ अपने आप में परिपूर्ण, क्रमबद्ध, सरलता से ग्राह्य, संस्थोपयोगी एवं ऐतिहासिक बन पड़ीं। उनमें परम्परागत ज्ञान सामग्री भरपूर आ गई, जो सभी मतों से विलक्षण थी। जहाँ तक न्यायगत पक्ष थे वे तो तुलना की वस्तु बन गये और भारतीय न्याय के अनेक मतों से सीधी टक्कर में आ गये किन्तु नेमिचन्द्राचार्य द्वारा चुनी एवं रची हुई सामग्री सीधी गणितीय थी, विश्वरचना सम्बन्धी तथा सूक्ष्मतम जगत् के रहस्यों से भरी हुई विलक्षण थी, इसलिये वह अपने आप में भारतीय अन्य मतों से अथवा विश्व के अन्य मतों से विलग पनपती चली आई। हम इस सामग्री की तुलना क्रम से करते चलेंगे और देखेंगे कि ग्यारहवीं सदी के इस ज्ञान सामग्री के क्या मायने थे, क्या उपयोगिता थी और उससे आगे की पीढ़ी किस प्रकार प्रभावित हो सकती थी। इसके पूर्व हम उनकी रचनाओं का परिचय प्राप्त करेंगे और समसामयिक परिस्थितियों का भी अवलोकन करेंगे। १. आइडियाज़ एण्ड ओपिनिअन्स, लन्दन १९५६ । २. गोम्मटसार, गा० ३९७ क० का० । ३. देखिए, लक्ष्मीचन्द्र जैन, “आगमों में गणितीय सामग्री तथा उसका मूल्यांकन", तुलसी प्रज्ञा, जै० वि० भा०, खंड ६, अंक ९, १९८० । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ खगोलविद्या खगोल शब्द ही कुछ ऐसे तथ्यों का द्योतक है, जिनका सम्बन्ध अन्तरिक्ष की गहराईयों और विश्वसंरचना की इकाईयों से है । कोई भी वस्तु कहां स्थित है, कब से स्थित है, किस दशा में है, उसकी विगत दशा क्या थी, अनागत दशा क्या होगी और दशा परिवर्तन का कारण क्या हैये प्रश्न स्वाभाविक होते हैं, हर युग के विचारकों को सर्वप्रिय होते हैं और उनकी खोज कभी नहीं मिटती है । उनके हल करने में विचारक का क्या उद्देश्य होता है, यह भी महत्त्वपूर्ण बात है । यदि वह इन प्रश्नों को किसी सीमा तक हल कर लेगा तो उसका उद्देश्य किस अनुपात तक सफल होगा, यह भी गणना कार्यकारी होती है । उपर्युक्त प्रश्नों को लेकर सबसे बड़ी क्रान्ति यूनान, भारत तथा चीन एवं गौण रूप से इसके आस-पास के देशों में दृष्टिगत होती है । विश्व के सभ्यता वाले इन क्षेत्रों में एक विचित्र उत्सुकता जगी कि विश्व की घटनाओं का सम्पादन कैसे होता है- - क्या कोई कार्य या घटना अथवा क्रिया के पीछे दैवी, आधिदैविक शक्तियाँ होती हैं, जिन पर नियंत्रण करने के लिए उन्हें प्रसन्न करना होता है ? अथवा कोई देवादि के अप्रसन्न होने से अनिष्टकारी घटनाएं होती हैं, जिन पर मानव का कोई नियंत्रण नहीं होता है ? ८३ जैन धर्म में इस नियंत्रण - योग्यता का बड़ी गहराई से अध्ययन हुआ । सभी घटनाओं को, जो पुद्गल ( matter ) से सम्बन्धित थीं, उन्हें कारणता नियम ( law of causation ) के अन्तर्गत बांधा गया । न केवल पुद्गल के बीच यह नियम लागू था, वरन् पुद्गल और जीव के बीच यह नियम कर्म के अधीन तथा कुछ और भी भावों के अधीन बांधा गया । विज्ञान की ओर बढ़ने का यह प्रयास और भी विश्व सभ्यताओं में परिलक्षित होता है । वास्तव में यह कारणता नियम तभी सार्थक होता है, जब विगत, वर्तमान और अनागत की तारतम्यता घटनाओं के बीच का सम्बन्ध राशि रूप में परिमाण पुंज रूप में तथा गणितीय कलन रूप में ठीक-ठीक व्यवस्थित किया जाता है । वैज्ञानिक अथवा उसके समूह की सफलता का आधार यही रहा है । इसके पूर्व कि हम नेमिचन्द्राचार्यं की मान्यताओं पर प्रकाश डालें, यह आवश्यक है कि विश्व की खगोलविद्या सम्बन्धी जानकारी का संक्षिप्त परिचय दिया जाये । इस जानकारी को प्राप्त करने के साधन अब अतुलनीय हैं। सूक्ष्मवीक्षण यन्त्र, दूरवीक्षण यन्त्र, रडार, लेसर, मेसर प्रक्षेप यन्त्र, स्पुतनिक अथवा प्रसिद्ध उपग्रह जो अणुशक्ति से संचालित होते हैं, इत्यादि यन्त्र जो गाइजर काउंटर, कम्प्यूटर्स आदि गणक यन्त्रों से विभिन्न प्रकार से अध्ययन की विशाल सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं । शोध के अभिलेख कुछ ही क्षणों में विश्व के एक भाग से दूसरे भाग में सूचित किये जा रहे हैं । इन सभी के पीछे उन वैज्ञानिकों का इतिहास है, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन कारणता के नियमों का शोध करने, अन्वेषणों द्वारा उन्हें स्थापित करने में समर्पित कर दिया । विज्ञान की जागृति का प्रथम प्रयास थेलीज़ ( ई० पू० ६०० ) द्वारा प्रस्तुत होता है, जबकि वे गणना द्वारा यूनान ग्रहण के लगने का समय बतलाते हैं । यहाँ देवताओं की शक्ति के मत के लिए चुनौती प्रस्तुत होती है । पाइथागोरस ( ई० पू० ५४० ) विश्व में जीवों की संख्या नियत बतलाते हैं और चदुचंकमण ( tetractys ) से छूटने हेतु मांस भक्षण-निषेध एवं अहिंसा की प्रतिष्ठा करते हैं तथा हरी फलियों को भी जीवधारी मानकर भोजन की वस्तु नहीं मानते हैं । हर वस्तु और घटना को वे संख्या से Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ लक्ष्मीचन्द्र जैन सम्बन्धित करते हैं और रेखागणित को नियमों में बांधते हैं, जिसमें संगीत के वाद्य यन्त्रों में गणितीय अनुपात प्राप्त किये जाते हैं। सुकरात ( ई० पू० ४१५ ) तर्क को आगमन विधि से पुष्ट करते हैं। और सत्य की गहराई में पहुँचने हेतु जीनो ( ई० पू० ४५० ) अनन्त विषयक तथा अनन्तांश विषयक विरोधाभासों को समय और आकाश की संरचनाओं में प्रस्तुत कर घटनाओं द्वारा गति का विश्लेषण करते हैं। देमोक्रितस ( ई० पू० ४१० ) ने परमाणुवाद स्थापित किया। अरस्तु ( ई० पू० ३८४ से ३२२ ) ने तर्क-वाक्यों का सिद्धान्त बनाया और गणितविज्ञान की नींव प्लेतान ( ई० पू० ४२७ से ई० पू० ३४७ ) के साथ डाली ? यूडो ( ई०पू० ३७०) ने पृथ्वी की गोलाई नापी और इसी प्रकार टालेमी (-२री सदी) ने ग्रहों के गमन को वृत्त गुच्छों द्वारा समझाने का प्रयास किया और डायोफेन्टस ( २७५ ई०) ने यान्त्रिकी तथा उद्स्थैतिकी की नींव डाली। इस प्रकार लगातार विज्ञान, मनोविज्ञान के दायरे को तोड़कर, यन्त्र विज्ञान द्वारा सभी कारणता पर ढलता चला गया। चीन में भी लगभग इन्हीं युगों में वैज्ञानिक क्रान्ति का दृश्य दृष्टिगत होता है । कन्फयूशस, लाओत्जे ने दार्शनिकता के पक्षों को वैज्ञानिक रूप में ढालना प्रारम्भ किया।' आकाशीय पिंडों का गहन अध्ययन, चित्रों सहित चीन में सर्वाधिक हुआ। नये प्रकार के सिद्धान्त बनाये गये और यूनान तथा चीन में पञ्चाङ्गों में सुधार हुए। न्यूटन ( १६४२ ई० से १७२७ ई० ) ने विज्ञान-जगत् में जो कार्य किया, वह अभूतपूर्व था। गति सम्बन्धी नियमों ने तथा गुरुत्वाकर्षण सम्बन्धी कलन ने सम्पूर्ण यन्त्र विज्ञान जगत् को एक नई दिशा दी। खगोलीय पिण्डों के गमन का कारण, उनके बीच की दूरियाँ, गतियों में परिवर्तन आदि का आधार गुरुत्वाकर्षण का बल बनाया गया, जिससे आगे आने वाली घटनाओं का समय, स्थिति आदि की गणना सम्भव होने लगी। कोई भी यन्त्र सम्बन्धी घटना से प्रकृति की घटनाओं का कलन किया जाने लगा। यह एक महान सफलता का द्वार था, जिसने प्रकृति के अनेक रहस्यमय ताले तोड़ दिये । किन्तु यह सिद्धान्त सभी घटनाओं में प्रयुक्त नहीं हो सका। भौतिक कारणता के दूसरे पक्ष मेक्सवेल, लारेन्ज़, आइंस्टाइन आदि ने उद्घाटित किये । विद्युत् चुम्बकत्व के बलों में, उनकी घटनाओं में न्यूटन के नियम सफल न हो सके और एक नयी बनियाद डाली गई रेखागणित के आधार पर ही। न्यटन ने रेखागणितीय गमन के आधार पर गुरुत्वाकर्षण के बलों को निकाला और आइंस्टाइन ने चतुर्विभीय रेखागणित के आधार पर गुरुत्वाकर्षण तथा विद्युत् चुम्बकीय बलों को निकाला । खगोलविद्या का आधार यहीं सापेक्षता का सिद्धान्त बना. जिसमें निरपेक्ष का दर्शन केवल सापेक्ष घटनाओं को लेकर होने लगा। अनागत घटनाओं को विगत घटनाओं से सम्बन्धित कर देने के कारण यह एक नियतवाद का प्रयास जैसा था, जिसमें अगले क्षण होने वाली सम्बन्धित घटना ज्ञात की जा सकती थी। किन्तु सूक्ष्म जगत् का नियम प्लांक द्वारा क्वांटम सिद्धान्त के रूप में कुछ और हो पाया गया । पहले तो यह ज्ञात हुआ कि प्रकृति घड़ी की सुइयों की तरह छोटे झटकों में ही आगे बढ़ती है । आइंस्टाइन ने मेक्स प्लांक के असांतत्य सिद्धान्त में एक और विलक्षण एवं क्रान्तिकारी बात १. देखिये नीथम जे, लिंग विंग, साइन्स एण्ड सिविलिजेशन इन चाइना, केम्ब्रिज, १९५४-खंड १.२.३ इत्यादि। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ जोड़ी । प्राचीन विज्ञान ने निश्चय पूर्वक घोषणा की थी कि प्रकृति केवल उसी पथ पर चल सकती थी, जो समय के आदि से अन्त तक के लिए कारण और कार्य को अविच्छिन्न श्रृंखला में निश्चित हो चुका था । 'क' स्थिति के पश्चात् क्रम से अनिवार्यतः 'ख' स्थिति प्रकट होती थी । किन्तु आज तक का नया विज्ञान केवल इतना ही बतला सका है कि 'क' स्थिति के बाद 'ख', 'ग', 'घ' या अन्य असंख्य स्थितियों में से कोई भी एक स्थिति हो सकती है । नया विज्ञान 'ख', 'ग', 'घ' स्थितियों के घटने की आपेक्षिक सम्भाव्यताओं का निर्देश कर सकता है ।" यहाँ केवल सम्भाव्यता है, निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि किसी एक स्थिति के बाद दूसरी स्थिति क्या होगी ? क्वांटम के ऐसे सिद्धान्त की रहस्यात्मक इकाई 'h' है, जो गति में वृद्धि को नापती है । हाइजेनबर्गादि द्वारा यह ज्ञात किया गया कि कण और तरंगें मूलतः एक हैं और श्रोएडिंजर ने तरंग यान्त्रिकीको स्थापित कर एक नया वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जो सूक्ष्म जगत् की आने वाली घटनाओं को समझा सकता है । वह भी पूरी तरह नहीं । इस प्रकार आधुनिक भौतिकी द्वारा विश्व के स्वरूप को समझने का प्रयास और उससे खगोल विद्या के रहस्यमय आयाम, विश्व का आयतन, उसमें विभिन्न आकाशीय पिण्डों के स्वरूप और उनके गमन तथा उनकी उत्पत्ति आदि के विभिन्न कलन लगातार प्राप्त किये जा रहे हैं । मैक्सवेल ( १८३१ ई० से १८७९ ई० ) ने यूनानी एटमों ( परमाणुओं) को विश्व की अनश्वर आधारशिला बतलाया था और यह विश्व केवल परमाणुमय ही माना गया था । विकिरण को पदार्थ का मूल संघटक अंग न माना जाकर केवल कम्पन माना जाता था । किन्तु बाद में ज्ञात हुआ, वे एटम (परमाणु) विद्युत् कणों तथा अन्य प्रकार के गमनशील कणों से निर्मित हैं, जिनसे सारा विश्व निर्मित है । आइन्स्टाइन ने बतलाया कि ऊर्जा ( energy) तथा द्रव्यमान ( mass) में परस्पर सम्बन्ध है और एक दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं । यह एक घातक रहस्य था, जिनके आधार पर अणुशक्ति का प्रादुर्भाव हो सका और अणुबम आदि के निर्माण होने लगे । फिर हाइड्रोजन बम बनाने के आधार पर सूर्यादि पिण्डों पर होने वाली प्रक्रिया समझी जा सकी। सूर्य अपना भार तभी स्थिर बनाये रख रकता है, जबकि पदार्थ लगभग २५ करोड़ टन प्रति मिनट की दर से सूर्य के भीतर पहुँच रहा हो - इतना विकिरण भार सूर्य से प्रति मिनिट ऊर्जा के रूप में प्रक्षिप्त होता रहता है | ८५ सूर्य और ताराओं के जीवन काल का अनुमान उपर्युक्त के सिवाय अन्य तरीकों से भी प्राप्त किया जा सकता है । उनकी अन्तरिक्ष में गति ही बतलाती है कि उनका जीवन काल लाखों-करोड़ों वर्षों का है । गुरुत्वाकर्षणादि शक्ति के सहारे सम्पूर्ण गतिमान विश्व के पिण्ड अपने आप में नियत गति हैं, सुरक्षित हैं । स्थूल जगत् में आइंस्टाइन का सापेक्षता सिद्धान्त वास्तविक ठहरता है और सूक्ष्म जगत् में कवांटम यांत्रिकी । सूर्य और ताराओं की गतियों से ज्ञात होता है कि उनका जीवन काल लाखों-करोड़ों वर्ष होगा । अन्तरिक्ष वास्तव में किस आकार का है ? इस प्रश्न को भी भौतिकी ने कई प्रकार से साधित किया । अन्तरिक्ष स्वयं में वक्र है, जैसी पृथ्वी स्वयं में नारंगी की वक्रता लिये हुए है । १. किन्तु आइन्स्टाइन ने इस तथ्य को कभी मान्यता नहीं दी । उनका विश्वास था कि ईश्वर मानव के साथ पाँसे ( डाइस) नहीं खेल सकता है । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मीचन्द्र जैन आइंस्टाइन ने विश्व को साबुन के बुलबुले के समान ही माना। उनके अनुमान के अनुसार विश्व में पदार्थ से उत्पन्न वक्रता के साथ ही साथ एक सहज वक्रता भी होती है, जिसके कारण पदार्थ का परिमाण बढ़ने पर उसका आकार भी बढ़ जाता है। यदि विश्व पदार्थ-विहीन हो जाये तो वह असीम आकार का हो जाये । यह भी हो सकता है कि पदार्थ के परिमाण को बढ़ाने से विश्व का आकार घट जाये। इस प्रकार का संरचित विश्व क्या अस्थाई नहीं होगा ? ऐसे परिमित विश्व में वास्तविक अंतरिक्ष गतिशील पिण्डों को लिये हुए या तो फैल रहा होगा या सिकुड़ रहा होगा? प्रोफेसर डी सिटर ने भी माना था कि आकाश और काल के अपने गुणों के कारण विश्व में एक निश्चित परिमाण में वक्रता होती है और विश्व के पदार्थों के कारण उत्पन्न वक्रता आकाश और काल से उत्पन्न वक्रता की तुलना में नगण्य है। यह धारणा आइंस्टाइन को पूरक है। आइंस्टाइन का अस्थाई विश्व जैसे-जैसे बढ़ता जायेगा, उसमें पदार्थ विरल होता जायेगा और अन्ततः डी सिटर का विश्व रिक्त रूप में रह जायेगा। विश्व कितना विशाल है, इसका अनुमान एक उदाहरण से प्रस्तुत है। किसी नीहारिका का प्रकाश ( १ सेकेन्ड में १८६००० मील की गति से ) हमारे पास पहुँचने में ५ करोड़ वर्ष लग जाते हैं और ऐसी नीहारिकाएँ हमसे लगभग ४५०० मील प्रति सेकेन्ड की गति से दूर भाग रही हैं। आइंस्टाइन के सिद्धान्तानुसार प्रकाश का वेग ही विश्व में महत्तम है और गतिशील वस्तु से भी निकलने वाला प्रकाश उसी अपने वेग से निकलता है। प्रश्न है कि क्या यही प्रकृति के कणों का महत्तम वेग है ? ऐसे कण जिनका वेग प्रकाश कण के वेग से अधिक हो सकता है, टेख्यिान रूप में कल्पित किये गये हैं। आज अन्तरिक्ष की शोध पर अणुशक्ति यान व प्रयोगशालाएँ स्थापित कर करोड़ों रुपयों का व्यय किया जाता है। हाल ही संयुक्त राष्ट्र अमेरीका का चन्द्रतल पर पहुँचने का खर्च २५,०००० लाख डालर आया था और अन्य मद में ३०००० लाख डालर आया है। यह शोध नियन्त्रण योग्यता की ही है। अभी भी अन्यत्र खगोलीय पिण्डों में जीवन के आसार नहीं मिल सके हैं। किन्तु चन्द्रतल की शोध से ज्ञात हआ है कि वहाँ की चटाने ३७० करोड़ वर्ष पुरानी हैं। इसी प्रकार अन्य जानकारियों ने रहस्यमय विश्व के अनेक सिद्धान्तों को नया मोड़ दिया है। अब रेडियो, दूरवीक्षण यन्त्र भी नई कहानियाँ बतला रहे हैं। स्काईलैब में प्रयुक्त अति दूरस्थ उपग्रहों पर स्थित यन्त्र फ्रेड हायल के सिद्धान्त को अब अनुचित ठहरा रहा है तथा बिग बैंग सिद्धान्त के पक्ष में उपस्थित कर रहे हैं । उनके द्वारा x - किरण ज्योतिष का भी विकास हुआ है, जिनसे पल्सरों और क्वासरों का अविष्कार हुआ है। इनके अतिरिक्त अन्तरिक्ष की गहराईयों में एंटी-मेटर आदि से निर्मित काले छिद्र भी आविष्कृत हुए हैं। हमारा सूर्य स्वयं एक सितारा है, जो ५४१० वर्ष की आयु का है और लगभग इतने ही काल तक रहेगा। इसके पश्चात् वह श्वेत बौना न्युत्रान तारा तथा कृष्ण छिद्र में बदलता जायेगा। जब सभी नाभिक इंधन सूर्य का समाप्त होगा, तब वह ग्रह जैसा सफेद बौना तारा रूप में बदल जायेगा और पल्सर कहलाने लगेगा। उसे पल्सेटिंग रेडियो सोर्स कहा जायेगा। ऐसे तारों का आविष्कार १९६८ में केम्ब्रिज के रेडियो ज्योतिषियों ने किया। इसी प्रकार १९६० में अत्यन्त सघन ऊर्जा वाले तारों क्वासरों का आविष्कार हुआ, जो क्वासी स्टेलर रेडियो सोर्सेज़ कहलाते हैं । इनका व्यास अनेक किलो प्रकाश वर्ष Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ८७ होता है। इसी प्रकार नीहारिकाओं के फैलाव की कहानी विचित्र है । इन सभी आविष्कारों के बीच जीव-विज्ञान भी पनप रहा है और उसकी नियन्त्रण योग्यताओं का अध्ययन भी यन्त्र जैसा हो रहा है। भारत के दो उपग्रह आर्यभट्ट तथा भास्कर एवं अन्य उपग्रह अनेक रहस्यों को खोलने हेतु विशेष कार्य कर रहे हैं। नेमिचन्द्राचार्य की मान्यताएँ उपर्युक्त तारतम्य में अब हम वर्द्धमान महावीर के तीर्थ में उदित खगोल विद्या का अध्ययन करेंगे। चूंकि नेमिचन्द्राचार्य का कार्य आचार्य परम्परागत ज्ञान के आधार पर संकलित हुआ, इसलिए उनकी मान्यताओं का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन श्रुत परम्परा । इसे लगभग ईसा की प्रथम सदी माना जा सकता है। खगोल विद्या सम्बन्धी दो रचनायें नेमिचन्द्राचार्य की निम्नलिखित है--द्रव्यसंग्रह (५८ श्लोक) एवं त्रिलोकसार (१०१४ श्लोक)। द्रव्यसंग्रह बृहद्रव्यसंग्रह के नाम से भी विख्यात है। सबसे प्रथम इसी ग्रन्थ से बालबोध प्रारम्भ किया जाता है। इसमें नय की सरलता, पदार्थविज्ञान एवं खगोलविद्या का प्रथम द्वार खुलता है। लघुद्रव्यसंग्रह भी २६ गाथाओं में उपलब्ध है। द्रव्यसंग्रह पर संस्कृत में श्री ब्रह्मदेव सूरि की टीका उपलब्ध है। त्रिलोकसार पर संस्कृत में माधवचन्द्र वैविध्य एवं पं० टोडरमल की हिन्दी भाषा टीका उपलब्ध है। अभी श्री महावीरजी से प्रकाशित आर्यिका श्री विशुद्धमती द्वारा नवीन रूप में अवतरित त्रिलोकसागर भी दृष्टव्य है। इनके सिवाय खगोलविद्या सम्बन्धी जानकारी गोम्मटसार एवं लब्धिसार में भी उपलब्ध है। अब हम देखेंगे कि नेमिचन्द्राचार्य ने खगोलविद्या सम्बन्धी मान्यताओं को किस प्रकार स्पष्ट किया है। समस्त विश्व में सर्वप्रथम जीव और अजीव के दो जगत् विभक्त किये गये। जीव के विभिन्न लक्षण व्यवहार नय तथा निश्चय नय (behavioral purport and deterministic purport) पर आधारित किये गये हैं । व्यवहार नय से तीनों कालों में जीव के इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास है, किन्तु निश्चय नय से उसके चेतना (consciousness) ही है। उसका उपयोग ज्ञान दर्शनमय है, वह स्वयं अमूर्त है, कर्ता है, निज शरीर के बराबर है, भोक्ता है, संसारी तथा सिद्ध है। व्यवहार नय से विवेचन वैज्ञानिक प्रयोग का आधार बनता है और निश्चय नय से व्याख्या वैज्ञानिक सिद्धान्त का आधार बनती है। अदृष्ट, अमूर्तता, इन्द्रियग्राहय न भी हो, तो भी उसका अस्तित्व है, वह जानी जा सकती है, लक्षण में स्थापित की जा सकती है। बन्ध होने से व्यापार में जीव मूर्त और वर्ण, रस, गंधमय अथवा पौद्गलिक सामग्री के लक्षणों से पूर्ण दिखाई देता है । (द्रव्यसंग्रह १-८)। सबसे बड़ी उपलब्धि यह मान्यता है कि जीव यन्त्रवत् भी है, उसे पौद्गलिक यन्त्र द्वारा साइमुलेट (simulate) किया जा सकता है और इस प्रकार के व्यवहार से आत्मा पुद्गल कर्मादि का कर्ता होता है। उस यन्त्र में पुद्गल का आस्रव होता है, उसमें बन्ध होता है, निर्जरा उदयभूत होती है और इसमें रुकावट या संपर भी होता है। इस प्रकार का पुद्गल यन्त्र भौतिक विज्ञान का आधार बन जाता है। उसमें आने जाने वाले परमाणुओं की गिनती, उनकी ऊर्जा का परिमाण, उनके रहने की स्थिति तथा उनके द्वारा जीवादि को दिये गये फल, अनुभाग की भी गणना हो सकती है। यह जीव के विकारी भावों के निमित्त (field) को पाकर ही हो सकता है, अन्यथा Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ लक्ष्मीचन्द्र जैन कैसे होगा? यह कारणता का नियम है। सिद्ध जीवों के शुद्ध भाव होते हैं, वे पौद्गलिक यन्त्रों के परिवर्तन में निमित्त नहीं होते हैं । इससे कारणता का नियम प्रकट हो जाता है । (द्रव्यसंग्रह ९)। . ___ जीव के विकास सम्बन्धी तथ्य हैं कि इन्द्रियों का क्रमशः विकास एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक होता है। स्पर्शन् इन्द्रिय वाले जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति काया वाले स्थावर होते हैं । फिर दो, तीन आदि वाले जीव त्रस कहलाते हैं। एक से चार इन्द्रियवाले असंज्ञी अर्थात् अविकसित मस्तिष्क (brain) अथवा मन-रहित होते हैं। एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म होते हैं, जैसे वाइरस, बेक्टीरिया आदि । पुनः वे सभी पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं। इस प्रकार विज्ञान की ओर जागृत ये मान्यताएँ क्रमशः अध्ययन का विषय बनती हैं । (द्रव्यसंग्रह १०-१३)। पुद्गल को मेटर (matter) कहा जा सकता है। किन्तु पुद्गल परमाणु एक विशिष्ट तथ्य है, उसे अल्टीमेट पार्टिकल या कान्स्टीट्यून्ट (ultimate particle or Constituent) कहा जा सकता है। आज का विज्ञान इस तक पहुंचने का अभी दावा नहीं कर सका है और इसके सम्बन्ध में विभिन्न मत तथा सिद्धान्त प्रस्तुत किये जा सकते हैं। क्या जैन परमाणु ऊर्जा में बदल जाता है ? उत्तर है-नहीं। परमाणु की ऊर्जा की सतहें अनन्त हो सकती हैं, उनमें परिवर्तन हो सकते हैं, वह परमाणु का गुण है, उनके अंश हो सकते हैं किन्तु ऊर्जा, परमाणु नहीं हो सकती। परमाणु से स्कन्ध बनते हैं। उनके रूप, शब्द, बन्ध सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप आदि हो सकते हैं-ये पर्याय रूप हो सकते हैं, किन्तु परमाणु स्वयं ऊर्जा नहीं हो सकता है, यह मान्यता है । शक्ति वस्तु अलग है, परमाणु वस्तु अलग है । (द्रव्यसंग्रह १६) । "गुणपर्यायवद् द्रव्यं" इसका आधार है। अजीव द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य के सिवाय धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य, काल-द्रव्य खगोल विद्या में आते हैं। धर्म, अधर्म अमूर्त हैं, अदृष्ट हैं । किन्तु उनका अस्तित्व है, जैसे ईथर और इनशिया का। ये दोनों जीव और पुद्गल के क्रमशः गमन और स्थित होने में सहकारी हैं, जैसे मछली के गमन के लिए तालाब का पानी और यात्री को विश्राम हेतु स्थित करने में पेड़ की छाया । गति और स्थिति में जीव और पुद्गल हो सक्रिय तत्त्व हैं, किन्तु धर्म, अधर्म सक्रिय कारण नहीं, वे केवल उदासीन कारण हैं। आइंस्टाइन ने आकाशकाल की ज्यामिती द्वारा धर्मअधर्म जैसे ईथर के अस्तित्व को भौतिकी से बाहर कर दिया। क्योंकि ईथर को पौद्गलिक गुण देने पर पृथ्वी की गति नहीं प्राप्त की जा सकी। अतः यह मानना पड़ा कि प्रकाश की महत्तम गति चलती हई पृथ्वी पर से अपनी गति किसी भी दिशा में नहीं बदलती है। इसलिए ईथर सम्बन्धी मान्यता एक भुलावा मात्र है, क्योंकि उसमें मैटर के कोई गुण नहीं हैं। ईथर के बिना माने भौतिकी की गणनाएँ, घटनाओं की व्यवस्था जम सकती है। क्या जैनागम में धर्म-अधर्म को बिना माने ऐसी कोई व्यवस्था जम सकती है ? उत्तर है-नहीं। अमूर्त मान लेने पर पौद्गलिक गुणों को देने की जरूरत तो नहीं है, किन्तु लोक-व्यवस्था का फिर क्या होगा? लोक आकाश में हैं, अलोक भी आकाश में है । यदि लोक में जीव और पुद्गल ही होते तो क्या होता ? बिना काल के परिवर्तन न होता। बिना धर्म द्रव्य के गति नहीं होती। बिना अधर्म द्रव्य के स्थित न होती। धर्म-अधर्म द्रव्य की मान्यता इस रूप में वैज्ञानिक है कि वह लोक के अनन्त आकाश में पूर्ण बिखराव का नियन्त्रण करती है । आज का विज्ञान लोक की सम्पूर्ण अनन्त आकाश में बिखराव की स्थिति को Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ८९ किसी हद तक स्वीकार करता है । किन्तु जैन दर्शन के अनुसार कोई शक्तियाँ हैं, जो उन्हें अनन्त दूरी पर ले जाने से रोकेंगी। यदि हैं तो क्या वे नष्ट नहीं हो सकती हैं ? यदि ऐसी शक्तियाँ नष्ट हो सकती हैं, तो प्रश्न होता है कि अनादिकाल से लोक-व्यवस्था क्यों बनी रही - पूर्ण रूप से अति विरल क्यों नहीं हो गई। इसका उत्तर विज्ञान कैसे दे सकता है ? वहाँ धर्म और अधर्मं द्रव्यों मान लेने पर लोक की अनन्त आकाश के बहुमध्य भाग में एक व्यवस्थित स्थिति बन जाती है. जिसके बाहर जीव, पुद्गल की गति नहीं होने से लोक के विरल होने और नष्ट होने का प्रश्न नहीं उठता है । सिद्धान्त साधारणतः धारणाओं पर निर्भर करता है और मान्य होता है, यदि पूर्वापर विरोधादि का अभाव हो । ( द्रव्यसंग्रह १५ - १८ ) | आकाश द्रव्य अवकाश हेतुत्व लिये है, काल वर्तना हेतुत्व लिये है । कालाणु रत्नों की राशि के समान केवल लोकाकाश में असंख्यात प्रदेशी हैं । इसकी आवश्यकता लोक के बाहर क्यों न हुई । लोक के बाहर केवल आकाश ही है, अन्य कुछ नहीं; अतएव वर्तना का वहाँ प्रश्न नहीं उठता। जीव, धर्म, अधर्मं द्रव्यों का माप भी असंख्यात प्रदेशी है, चाहे जीव में संकोच - विस्तार होता रहे । होगा ही, क्योंकि जैसा वर्तन होगा, वैसा उसमें द्रव्य समावेगा । द्रव्य, गुण और पर्यायों में द्रवित होता है । काल को छोड़कर अन्य द्रव्य अखण्ड अथवा खण्ड-खण्डरूप समूहों में विस्तारयुक्त होने से अस्तिकाय कहलाते हैं । पुद्गल द्रव्यों में इस प्रकार के समूह ( स्कन्ध) प्रदेश संख्येय, असंख्येय और अनन्त होते हैं । इन सभी तथ्यों में वैज्ञानिकता है | जीव के असंख्यात प्रदेशों में कर्म परमाणुओं का बन्ध कितना हो सकता है - यह तथ्य तीव्र एवं मंदता के कारण चलराशि का द्योतक है। एक ओर जीव के योग, कषाय परिणामों का चलन, दूसरी ओर तदनुसार कर्म परमाणुओं की प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग, स्थिति में चलन या फलन (Variation functioning) । जैनाचार्यों ने इसके आनुपातिक चलन या फलन की विवेचना तक ही अपने को सीमित नहीं रखा, वरन् कितना चलन या फलन होगा, इसके भी नाप, माप, प्रमाण आदि स्थापित किये गये । ( द्रव्यसंग्रह २५-२६) । प्रदेश और समय क्रमशः आकाश एवं काल माप की इकाईयाँ हैं। जितना आकाश एक अविभागी परमाणु से घेरता है, उसे समस्त परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश कहते हैं । इसकी विचित्रता इस तथ्य में है कि एक प्रदेश में केवल एक या दो परमाणु ही नहीं, अनन्तानन्त परमाणुओं का समावेश हो सकता है। इसके आधार पर गणितीय काम्पेक्टनेस ( compactness ) अथवा संहतता की सांस्थतिक समष्टि का मापन होता है । आकाश अखण्ड है, सांतत्यक ( conti nuum ) है, जिसके परिमित भाग में केवल परिमित संख्या के प्रदेश ही माने गये हैं । यह प्रदेश जैन प्वाइन्ट ( point ) अथवा बिन्दु है । और समय क्या है ? उसकी काल विषयक परिभाषा परमाणु की गति से बँधी है । जितने काल में एक परमाणु दूसरे संलग्न परमाणु का अतिक्रमण करे, परमाणु उतने काल में १४ राजू छलांग ले सके, उसे समय माना गया है । इससे मंदतम और और तीव्रतम गति का बोध होता है । यहाँ काल में दिशा- परिवर्तन का भी प्रश्न उठता है । पर्याय परिवर्तन का यही समय है, जो कालाणुओं के वर्तन से भी लक्षित होता है । इससे छोटे काल की कल्पना नहीं है । इतने ही अखण्ड समय में परमाणु की स्थिति १४ राजू के सभी प्रदेशों में है । यह एक वैज्ञानिक तथ्य है, जिस पर सहसा विश्वास नहीं होता है । यहाँ विरोध नहीं अपितु विरोधाभास १२ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मीचन्द्र जैन ( paradox ) उपस्थित होता है। साधारणतः किसी भी समय किसी भी वस्तु की स्थिति एक ही स्थान पर होनी चाहिये । किन्तु सूक्ष्म जगत् का नियम ही कुछ और है। गतिशील होते ही वह एक ही समय में अनेक प्रदेश में स्थित ऋजु रेखा पार कर सकती है। प्रश्न है कि क्या वक्र रेखा पर नहीं ? यहाँ स्थिति का अर्थ position है, life time नहीं। इस तथ्य का सूक्ष्म अध्ययन आज के विज्ञान की अनिश्चितता सम्बन्धी क्वांटम यान्त्रिकी के सिद्धान्त में नया मोड़ ला सकता है। यह देखना होगा कि प्रकृति में सबसे सूक्ष्म काल का अन्तराल क्या है। यह भी देखना होगा कि इस अन्तराल में सबसे सूक्ष्म हटाव कितना होता है और अधिकतम कितना । अभी तक ज्ञात सबसे सूक्ष्म अन्तराल (१०)-१४ सेंटीमीटर है, अथवा (१०)१४ सेन्टीमीटर है। प्रकाश की गति एक सेकेन्ड में ३४ (१०) सेन्टीमीटर है, जो इस दूरी को (१०)-२४ अथवा /(१०)२४ सेकेन्ड में तय करती है। . विश्वप्रहेलिका में मुनि महेन्द्रकुमार (द्वितीय) ने १ प्राण का मान ४४४६३५५६ आवलिकाएं प्राप्त किया है, जो ३८९३ सेकेन्ड के लगभग होना चाहिये । एक आवलि में जघन्ययुक्त असंख्यात समय होते हैं, जिसको संख्या की गणना की जा सकती है। उसे दाशमिक रूप में लाकर आज के ज्ञात सूक्ष्मतम कालान्तराल से तुलना की जा सकती है। उसी पर आधारित पल्यकाल के समयों की संख्या है, जिसका सम्बन्ध सूच्यंगुल के प्रदेश संख्या माप से निम्नलिखित हैसूच्यंगुल प्रदेश संख्या = पल्य के समयों की संख्या में उसी संख्या का पल्य के अर्धच्छेद बार गुणन से प्राप्त संख्या हो सकता है कि मंदतम गति की अवधारणा ध्रुवीकरण जैसी घटनाओं पर गहराई तक प्रकाश दे सके। अब कुछ त्रिलोकसार विषयक विवरण पर आयें । खगोल विद्या से सम्बन्धित लोक की सीमाएँ, उसमें ज्यामितीय खण्ड, चारों ओर से वेष्टित पदार्थ, कुछ भूगोल, कुछ ज्योतिकीविज्ञान तथा अन्य तथ्य हैं। इस ग्रन्थ में कुछ नवीन तथ्य अवश्य हैं, यथा ऋतु, राहु, मध्यप्रदेश, धारा विवरण आदि। हम सर्वप्रथम इस बात को समझने का प्रयत्न करें कि इन तथ्यों को प्रकाशित करने में जैन मत का प्रयोजन ( अभिप्राय ) क्या था? लोक का आकार 'पुरुष', जो सर्व प्राणियों में सर्वाधिक विकसित अवस्था है-सिद्ध का भी अन्ततः आकार वही है। कमर पर हाथ रखे हुए पुरुष को चारों ओर घुमा देने पर शंक्वाकार छिन्नक पिण्डों वाला लोक दृष्टिगत होता है, जो आधार और शीर्ष आदि के नापानुसार ठीक ३४३ घन राजू नहीं होता है। वीरसेनाचार्य ने उसे स्फान ( wedge ) के आकार में सिद्ध कर उसे ठीक ३४३ घन राजू सिद्ध किया और नि परम्परा को बदल दिया ।' आधार प्रमाण लोक और द्रव्य लोक की सिद्धि थी। प्रमाण या जीवों की संख्या वाली पट्टियाँ बतलाते हुए इन ग्रन्थों में दशा का विवरण भी चलता रहा, और अन्ततः न केवल ज्योतिष वरन् भौगोलिक वर्णन भी उसमें प्रमाण रूप से तथा विवरण रूप से स्थान पा गये। एक बात तो यह है कि इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि किस प्रकार का अंगुल अथवा योजन वहाँ उपयोग में आ रहा है। आत्मांगुल, प्रमाणांगुल और उत्सेधांगुल, तीनों के लिए केवल अंगुल प्रतीक बनता चला गया। छायामाप से भौगोलिक गणनाएँ होती थीं, गगनखण्डों में ग्रहों की स्थिति, अथवा तारादिगणों की जम्बूद्वीप सम्बन्धी गणनाएँ भी होती थीं और इन दोनों को मिला देने पर १. षड्खण्डागम, पुस्तक-४, १९४२, पृ० ११ आदि देखिये आकृतियाँ १, २,३ । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ कोणीय एवं रेखीय माप भी कुछ स्थानों में गृहस्थ को विभ्रम में डाल देते रहे हैं। आवश्यकता है कि इनका सम्पूर्ण विश्लेषण किया जाये। जिस प्रकार का योजन जहाँ लागू हो, वहाँ उसका यथावत् नाम दिया जाये; तब कहीं आधुनिक विज्ञान से उसकी तुलनाओं में ज्यादा अन्तर नहीं आवेगा। (त्रिलोकसार १८)। रज्जु क्या है ? उसकी गणना असंख्यात द्वीप समुद्रों में स्थित ज्योतिष बिम्बों की संख्या पर भी आधारित है, और ऊर्ध्व लोक तथा अधोलोक की सीमाओं से भी सम्बन्धित है। इस प्रकार लोक या अन्तरिक्ष की गहराईयाँ केवल दृष्ट आकाशीय पिण्डों पर ही आधारित नहीं हैं । उस अन्तिम दूरी से भी सात राजू ऊपर की ओर तथा सात राजू नीचे की ओर विस्तृत है। मिस्र देश के हरपिदोनाप्री भी रस्सों के माप में पिथेगोरस के साध्य का उपयोग करते थे। ऊपर की ओर स्वर्ग ही होंगे, नीचे की ओर नर्क ही होंगे-यह सापेक्ष तथ्य ही है। गोल पृथ्वी के लिए दिशाओं की अवधारणा भी सापेक्ष ही होगी। इस प्रकार लोकाकाश एक ऐसी कल्पना का चित्र बना, जो प्रमाणों को बैठा सके, आत्मा को बैठा सके, उसकी उपलब्धियों को बैठा सके, साथ ही ज्योतिलोक को दिग्दर्शित कर सके । सभी कुछ करतल आमलकवत् हो सके । (त्रिलोकसार ११०)। . किस सीमा तक भौतिक सुख हो सकता है और भौतिक दुःख, इसका भी चित्रण लोक के नक्शे में किया गया । उसे भी ऊँचाई और गहराई दी गई। सातवा नरक राजू नीचे और उससे भी नीचे नित्यनिगोद के दुःख की गहराई । ऊपर की ओर आत्मा की उपलब्धियों सहित सुख सोलहवें स्वर्ग तक और फिर अहमिन्द्रों और उससे भी सुख की अधिक ऊंचाई सिद्धों की। यदि इसे दिशा निरपेक्ष न माने, ज्यामितीय आधार को गुणादि का आधार मानें तो वह आत्मलोक होगा। इस प्रकार अध्यात्मवाद और द्रव्यवाद आदि अनेक रूप में लोक स्वरूप को समझाने का प्रयास किया गया । (त्रिलोकसार १४४-२०३, ४५१-५६० )। श्रुत जहाँ तक, जिस रूप में, प्रतीकबद्ध होकर बोध दे सका, आत्मोन्नति में वहाँ तक प्रयास होते रहे। ज्ञानलोक की विवेचना आगे करेंगे। किन्तु इसके पूर्व कुछ ज्योतिष एवं भूगोल की भी चर्चा कर ली जाये। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, जैनों की ज्योतिष सम्बन्धी गणनायें रहस्यमयी थीं। एक सूर्य के समक्ष और दूसरा चन्द्रादि को आमने-सामने चलाकर सम्भवत: वे ग्रहणादि की गणनाएँ करते रहे । चीन, बेबिलान आदि कुछ अन्य देशों में इसी प्रकार की पद्धति प्रचलित थी। पथ को दुगुना कर उसे वृत्तों अर्थात् अक्षांशों और देशांशों में गगनखण्डादि रूप में विभाजित कर प्रायः १००० वर्षों तक पञ्चवर्षीय युगवाला पञ्चांग जारी रहा। इसमें वेदांग ज्योतिष के ज्ञान के सिवाय नये तथ्य, अयनादि के गणन डाले गये। चन्द्र और सूर्य की चालों के पञ्चांग पूर्ण रूप से मिलते हैं, किन्तु ग्रह-गमन सम्बन्धी सामग्री विनष्ट हो गई । यतिवृषभ (पाँचवीं सदी ) ने इस बात का उल्लेख किया है। जैन धर्म ग्रन्थों में यूनानियों एवं अन्य भारतीय ज्योतिषियों की ज्योतिष पद्धति प्रवेश नहीं कर सकी । धर्म में सर्वज्ञता का अगम्य विश्वास जैन आचार्यों को पूर्व स्वीकृत पद्धति से विचलित २. सूर्य गमन के लिए देखिये, Jain, L.C.-On the Spiro-elliptic Motion of the Sun implicit in the, Tiloyapannatli, I.J. H. S., vol. 13, no.1, 1978, pp. 42-49. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मीचन्द्र जैन न कर सका और वास्तव में उस पद्धति में अपने आप मौलिकता तो थी ही, ग्रहों के संचरण का भी पञ्चाङ्ग उसी वृत्त पद्धति से समाविष्ट किया जा सकता था, किन्तु इस ओर प्रयास यतिवृषभ के पश्चात् किये ही नहीं गये और न यह जानने का प्रयास हुआ कि ग्रहों की चाल का जैनागम में क्या विवरण रहा होगा? पुनः चित्रा पृथ्वी क्या है ? मेरु पर्वत किस निर्देश का द्योतक है ? चित्रा पृथ्वी से ऊँचाई का क्या तात्पर्य है ? इन प्रश्नों को विगत वर्षों में कई संगोष्ठियों में प्रस्तुत किया गया है। उनके उत्तर भी निकाले गये । मेरु पर्वत एक खगोलीय अक्ष के रूप में निर्देशांकों का चित्रण करता रहा होगा, जहाँ भी इसकी स्थिति रही हो, वह बीचों-बीच ही स्थित होगी और कहीं उत्तर दिशा की ओर इसका प्रेक्ष्य रहा होगा। चित्रा समतल को भूमध्य रेखीय समतल माना जाता रहा हो, जिससे ज्योतिबिम्बों की ऊचाईयाँ योजन के कोणीय माप देती रही हों। शेष विवरण वैज्ञानिक है, पञ्चांग में अन्तर्भूत है। किन्तु चन्द्र और सूर्य आदि की देवांगानायें उस प्राचीन काल की याद दिलाते हैं, जब दैविक और आधिदैविक शक्तियों की मान्यता थी। उनमें वैज्ञानिक तथ्यों का प्रवेश नहीं हुआ था। क्या जैन मत में इन अगणनीय शक्तियों की मान्यता थी और वह भी किस सीमा तक ? यह विचारणीय है। जैन मान्यता में एक द्रव्य की दूसरे द्रव्य पर्यायों पर नैमित्तिक प्रभाव माना गया है, जो उपादान द्रव्य की योग्यता पर निर्भर करता है । द्रव्य की द्रव्यता पर त्रिकाल में कोई प्रभाव नहीं होता है। जीव जीव ही रहेगा, काल काल ही, आकाश आकाश ही, पुद्गल पुद्गल ही रहेंगे। उनके गुण भी वही रहेंगे । बात केवल पर्याय तक अटकती है, जो समयवर्ती होती है। द्रव्य स्वातन्त्र्य में पर्याय परिवर्तन स्वयं व्य की योग्यता से होता है। व्यावहारिक भौतिक विज्ञान कारणता चाहता है और कारणता में कम से कम एक समय का अन्तर चाहता है। साथ ही पारस्परिक सम्बन्ध स्थिति चाहता है। उसी के आधार पर विज्ञान आगे की घटना का अथवा विकारी पर्याय का फलादेश करना चाहता है। फिर पर्याय समूह का भी फलादेश चाहता है। अनेक पुद्गल द्रव्य का पिण्ड पर्याय समूह का पिण्ड बन जाता है और समूह में ही उसका फलादेश अपेक्षित होता है । जीव और पुद्गल सम्बन्धी कर्मपिण्ड का फलादेश दिया जाता है। परिस्थितियाँ बतलाई जाती हैं, उनमें प्राणी की योग्यता के अनुसार योग और कषायानुसार तथा आत्मा के स्वतन्त्र परिणामानुसार क्या होगा ? यह फलादेश कर्म ग्रन्थों में मिलता है। किन्तु यह सभी अन्त सहित क्षणभंगुर निस्सार, सुखाभासी होने के कारण एक नवीन विज्ञान की ओर झुकाव होता है। वह है-वीतराग विज्ञान । मोह का अभाव जितने अंशों में होता जाता है, उतने अंशानुपात में ज्ञान चेतना की जागृति और आत्मा के निर्मल परिणामों की शक्ति एवं समृद्धि बढ़ती है। अस्तु, देव, देवियाँ, नारकी आदि सभी निज कर्मानुसार ही संचरणादि करते हैं। जैनाचार्यों की दैविक और आधिदैविक शक्तियों की यह अवधारणा अन्ध विश्वास के लिए नहीं है। ___ राहु कोई देव नहीं हैं, नाम के विमान हैं। वे भी दिन राहु, पर्व राहु, ऋतु राहु, जो चन्द्रकलाच्छादन, ग्रहण, संवत्सरादि के कलन में उपयुक्त होते हैं । __ असंख्यात द्वीप समुद्र क्या हैं, उनके दिग्दर्शन का अभिप्राय क्या है ? एक तो लोक की सीमा और उसमें करोड़ों ज्योतिबिम्बों का, स्थिर एवं अस्थिर व्यवस्था के अभिप्राय से इतने द्वीप समुद्रों Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ९३ का एक समतल में फैलाव बतलाया गया है । अढ़ाई द्वीप तक जहाँ तक मानुषोत्तर पर्वत है, नक्शा देने की आवश्यकता तो है ही। इनमें सभी रचनाएँ सम्मिलित हैं । द्वीप और समुद्र ठीक वृत्ताकार किस तथ्य के द्योतक हैं ? इन सभी बातों से प्रतीत होता है कि विस्तृत क्षैतिज समतल में विभाजन की आवश्यकता पड़ी होगी और वृत्ताकार क्षैतिज रूप में द्वीप समुद्रों की कल्पना करते हुए रज्जू के विस्तार को भरा गया। इसका एक उपयोग और था । वह था - पल्योपम और सागरोपम की वर्षं एवं समय संख्या राशि प्राप्त करना । अस्तु, जम्बूद्वीप में ही भौगोलिक सामग्री भी भर देने का प्रयास किया गया होगा । यह निश्चित है कि जम्बूद्वीप को एक लाख योजनं मानने पर उसकी तुलना आज पृथ्वी के भूगोल से हो ही नहीं सकती है। न ही उसके पर्वतों और नदियों की तुलना आज की भौगोलिक वस्तुओं से की जा सकती है । यह तब तक असम्भव है जब तक कि यहाँ प्रयुक्त योजन hat fनर्धारित नहीं किया जाता है। लिश्क एवं शर्मा ने ' x ( ४९८२० ) अर्थात् ( ४४८२० - ५००० ) योजनों को पृथ्वी के गोल के ६६° में मान्यता दी है । वहीं ५१० योजनों को आत्मांगुल पद्धति में ४८° की मान्यता दी है। इस प्रकार ६६° चाप x ६६ = ७०११ योजन आत्मांगुल पद्धति में उत्सेधांगुल पद्धति के १४०२ योजनों में परिवर्तित हो जाते हैं । इन्हीं का मान चीनी ली माप में १४०२३ × ३५ = ४९०८७ ली होता है। यह माप ४९८२० के विशेष निकट है। उन्होंने तदनुसारे एक योजन को पृथ्वी पर ६३ मील के लगभग मान कर ७०१ योजन जम्बूद्वीप की त्रिज्या को पृथ्वी की त्रिज्या, जो ४००० मील के लगभग है, ला दिया है । यह प्रयास वास्तव में प्रशंसनीय है । योजन यहाँ कोणीय माप के रूप में सूर्य और चन्द्र के उत्तर-दक्षिण गमन के अवलोकन से अवतरित हुआ होगा । उन्हीं मापों में जम्बूद्वीप को लेना तो एक सीमा तक ठीक है, किन्तु प्रश्न है कि शेष द्वीप समुद्रों के विवरण का क्या अभिप्राय रहा है ? यह तथ्य भी स्पष्ट है कि उनके द्वारा पल्य और सागर का तथा कुल ज्योतिष बिम्बों का संख्यामान स्थापित किया गया होगा । नेमिचन्द्राचार्य की गणित सम्बन्धी मान्यताएँ और अब गणित विद्या का प्रारूप । गहराई तक जाने के लिए गणित के प्रतीकों में तन्मय रहना पड़ता है । सबसे स्पष्ट निरूपण है— ज्यामिति, जीवामिति अथवा रेखागणित का, जिसका अनुसरण यूनानियों ने विलक्षण ढंग से अनेक प्रकार की गणित को सरल बनाने में किया । जैसे √२ अर्थात् २ का वर्गमूल किस प्रकार रेखा में प्ररूपित हो समकोण त्रिभुज में यदि आधार और लम्ब दोनों ही एक-एक इंच हों तो उनका कर्ण √२ होता है और आसानी से नापा व समझा जा सकता है | नेमिचन्द्राचार्य के विवरण में उपमा मान में बहुत कुछ यही रेखागणित है, जिससे कई प्रकार की राशियों के मान स्थापित किये गये हैं । ? १. Lishk, S.S.; Sharma, S. D. — The Evolution of Measures in Jain Astromony Tirthankar Vol. I, nos. 7. 12, Jul. Dec 1975, 73-92. २. चीन में छाया माप द्वारा सूर्य की ऊँचाई १,००,००० ली ज्ञात की गई, जबकि पृथ्वी की गोलाई का कोई योजन लगभग ९६ मील आता है, जिससे इसके द्वारा भौगोलिक सामग्री व तथ्यों को अनुमान नहीं था । अतएव इसे ८०० योजन मान लेने पर पृथ्वी की परिधि लगभग २३००० मील प्राप्त हो जाती है। जैनागम के अनुसार व्यवस्थित करने सम्बन्धी शोध को बढ़ावा मिल सकता है | Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मीचन्द्र जैन सूच्यंगुल का अर्थ वह प्रदेश संख्या है, जो अंगुल सूची विस्तार में संलग्न रखी जा सके । प्रतरांगुल का अर्थ वह प्रदेश संख्या है, जो एक अंगुल लम्बे-चौड़े वर्ग में संलग्न समा सके । इसी प्रकार घनांगल का अर्थ है । जगश्रेणी का अर्थ वह प्रदेश संख्या है, जो जगश्रेणी विस्तार को संलग्न रूप से पूरित करती है । जगप्रतर एवं घनलोक के अर्थ प्रदेश संख्याओं से हैं । इन संख्याओं का उपयोग विभिन्न प्रकार की जीव राशियों की गुणस्थान वा मार्गणास्थान में पाई जाने वाली संख्या का निरूपण करने में हुआ है । यह एक विलक्षण प्रणाली है, जो विश्व में कहीं उपलब्ध नहीं है । ९४ पल्य का अर्थ क्या है ? पल्य वह समय संख्या है, जो पल्यों ( गढ़ों) के विविध निर्माणादि विधि से सम्पन्न, उन्नत होती है। काफी बड़ी संख्या है। इससे कर्म स्थिति, आयु आदि के माप होते हैं, इसी प्रकार सागर भी समय संख्या की राशि का द्योतक है। इन्हें उपमा प्रमाण कहा जा सकता है, क्योंकि इनकी उपमा देते हुए अन्य राशियों के प्रमाण क्षेत्र कालादि रूप में स्पष्ट किये गये हैं । इसी प्रकार संख्या प्रमाण द्रव्य राशियों के प्रमाण का द्योतक होने से द्रव्य प्रमाण भी कहलाता है । यह क्रमश: संख्येय, असंख्येय एवं अनन्त होता है । संख्येय और अनन्त के बीच असंख्येय एक नई कल्पना है । किन्तु यह प्रमाण मात्र शाब्दिक नहीं है, वरन् परिमाण बोधक, संख्या बोधक भी है। नेमिचन्द्राचार्य के युग में मान प्रकार के थे - प्रथम लौकिक दूसरा लोकोत्तर । लौकिक मान में प्रस्थादि को मान, तुलादि को उन्मान, चुल्ल आदि को अवमान, संख्या को गणिमान, रत्ती मासा आदि को प्रतिमान और अश्व के मूल्यादि को तत्प्रतिमान रूप में मान्यता थी । लोकोत्तर मान के चार प्रकार थे । द्रव्यमान, क्षेत्रमान, कालमान और भावमान । ये चतुर्दिक् आयाम असाधारण थे । क्योंकि इनके द्वारा किसी भी राशि का मान अच्छी तरह ज्ञात किया जाता था । इनके जघन्य और उत्कृष्ट मानों के तथा मध्यम मानों के उपयोग संख्याओं की ओर ज्ञात राशियों की असीम सीमाओं को बाँधते थे । (त्रिलोकसार १० - १२ ) । विश्व के गणित इतिहास में तब तक कहीं भी द्रव्य, क्षेत्र, काल द्वारा भावमान अथवा ज्ञानमान की व्यवस्था इस रूप में उपलब्ध नहीं है । निम्न सारणी द्वारा इन मानों का निरूपण किया गया है मान द्रव्यमान क्षेत्रमान कालमान भावमान जघन्य एक परमाणु एक प्रदेश एक समय जघन्य, सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक का पर्याय नामक ज्ञान ( अविभागी प्रतिच्छेदन) राशि उत्कृष्ट सम्पूर्ण द्रव्य समूह (समस्त जीव, पुद्गल परमाणु इत्यादि ) सर्व आकाश ( प्रदेश | सर्व काल (समय) केवल ज्ञान ( अविभागी प्रतिच्छेद ) राशि Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ९५ इस प्रकार ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जो मान की इकाईयों द्वारा मापी न जा सकी हो । द्रव्यमान के तीन भेद थे - संख्येय, असंख्येय और अनन्त । ये गणना- उपयोग में आते थे । सविस्तार इनके भेद बनाये गये, इनमें राशियाँ पिरोई गईं तथा असंख्येयता और अनन्तता का वास्तविक गुण निर्मित किया गया । वोरसेन ने अनन्त उस राशि को संज्ञा दी, जो अनन्तकाल तक व्यय होते हुए भी समाप्त न हो । यथा, मिध्यादृष्टि जीव राशि अनादिकाल द्वारा समाप्त नहीं हो पाई है, यद्यपि भव्य मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा उस राशि का व्यय जारी रहा । निम्नलिखित सारणी से स्पष्ट होगा कि संख्यामान के रूप क्या थे ? जघन्य संख्येय संख्येय मध्यम संख्येय परीत - अनन्त उत्कृष्ट संख्येय संख्यामान असंख्येय परीत- असंख्येय युक्त असंख्येय असंख्येय-असंख्येय युक्त - अनन्त ד जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य अनन्त I मध्यम उत्कृष्ट अनन्त अनन्त जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट पूर्व परम्परानुसार नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशिकानन्त, एकानन्त, उभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त, भावानन्त और शाश्वतानन्त में से यह गणनानन्त की रूप रेखा है । उत्कृष्ट संख्यात श्रुत केवली का विषय बनता है, संभवतः जितना कुछ प्रतीकों, शब्दों आदि से समझा जाता हो । उत्कृष्ट असंख्येय अवधिज्ञानी का विषय बनता है, जो रूपी पदार्थों के रूप से सम्बन्धित हो सकता है - जितने रूप दूरियों में समाये हों, वे अवधि ज्ञानी के लिए उत्कृष्ट असंख्येय तक बन पाते होंगे । अनन्तानन्त केवल ज्ञानी का विषय बनता है, जिसमें कोई भी ज्ञान का अंश नहीं छूट पाता होगा ।" संख्यामान का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है-अनन्तों के अल्पबहुत्व का । क्या अनन्त से बड़ा अनन्त होता है ? क्या अनन्त के बराबर दूसरा अनन्त तथा किसी अनन्त से छोटा अनन्त भी होता है ? इन सभी प्रकार के अनन्तों का अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है और संख्याओं में इनके अस्तित्व को जार्ज केन्टर ( १८४५-१९१८ ) ने १८६४ के बाद के शोध पत्रों में लगातार बतलाया १. देखिये तिलोपणती का गणित, पृ० ५५-६२ । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ लक्ष्मीचन्द्र जैन और सिद्ध किया । निस्सन्देह उन्हें तत्कालीन उच्चकोटि के गणितज्ञों से बड़ा कड़ा संघर्ष करना पड़ा। आज जार्ज केन्टर को राशि सिद्धान्त के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है और इसका आज इतना विकास हुआ है तथा उपयोग हुआ है कि कोई विज्ञान न तो इससे अछूता है न ही इसके बिना आधारित है । अनन्त से बड़े अनन्त का अस्तित्व सिद्ध करना एक दृष्टि से सरल है, किन्तु अनन्त से बड़ा अनन्त निर्मित कर दिखाना कठिन है । केन्टर ने एक विधि बतलाई, जिससे बड़ा अनन्त उत्पन्न किया जा सके, किन्तु दो अनन्तों के बीच कौन सा अनन्त है, यह वह न दिखा सके । किन्तु जैनागम में धाराओं द्वारा प्रायः सभी प्रकारों के प्रमुख अनन्तों की क्रमवार स्थिति नेमिचन्द्र के त्रिलोकसार में उपलब्ध है । ऐसा वर्णन और कहीं उपलब्ध नहीं है । परिमित संख्याओं को क्रमवार स्थिति दिखाना सरल है, किन्तु किसी धारा ( sequence ) में क्रमशः आने वाले अनन्तों की स्थिति दिखाना एक बहुत ही बड़े बुनियादी कार्य का परिणाम हो सकता है । 1 उदाहरणार्थ, द्विरूपवगंधारा (, ) में आने वाले संख्येय, असंख्येय अनन्त विशेषता लिये हुए n पद वृद्धिगत में क्रमशः जघन्य परीतासंख्यात, आवली, पल्य, अंगुल, जगश्रेणी का घनमूल, जघन्य परीतानन्त, अभव्य जीव राशि, सर्वजीव राशि, सर्वं पुद्गल राशि, सर्वकाल राशि, श्रेण्याकाश एवं प्रतराकाश प्रदेशराशि, धर्माधर्मद्रव्य - अगुरलघु-अविभाग- प्रतिच्छेद-राशि, एकजीव - अगुरलघु-अविभागप्रतिच्छेद - राशि, जघन्य ज्ञान - अविभाग- प्रतिच्छेद राशि, जघन्य क्षायिक लब्धि ( सम्यक् दर्शन ) अविभाग राशि प्रतिच्छेद राशि और केवल ज्ञान अविभाग प्रतिच्छेद राशि और बीच की राशियों सहित प्रकट होती है। फर्मा ( १६०१ - १६५५ ) गणितज्ञ ने + १ संख्याओं की ( के विभिन्न मानों के लिए ) विशेषता पर कार्य किया था । २० n इसी प्रकार दिव्यरूपघन धारा (२३. (२) - १ ) में आवलिघन, पल्य, घन, जगश्रेणी प्रदेश राशि, जीवराशि घन, सर्वाकाश (तथा बीच की संख्याएँ) प्राप्त होती हैं । यथा, पल्य वर्गशलाका घन, पल्य अर्थच्छेद घन आदि भी । द्विरूप घनाघन धारा में लोकाकाश प्रदेशराशि, तैजास्कायिक जीवराशि, गुणकार शलाका राशि, तैजस्कायिक जीवराशि, तैजस्कायिक स्थिति, अवधि निबद्ध उत्कृष्ट क्षेत्र स्थितिबद्ध प्रत्यय स्थान, रसाबंधाध्यवसाय स्थान, निगोद जीव काय उत्कृष्ट संख्या, निगोद काय स्थिति, सर्वज्येष्ठ योग उत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेद आदि राशियाँ प्राप्त होती हैं । इसमें थोड़ा सा अन्तर दृष्टव्य है :● ३ (२)2-? -- उपर्युक्त धारायें द्विरूप (dyadic) हैं, जिन पर केन्टर द्वारा गहन कार्य किया गया था । केन्टर के अनुसार यदि No कोई अनन्तात्मक संख्या हो तो उससे बड़ी अनन्तात्मक संख्या No होगी। इसमें संचय का भेद छिपा हुआ है । जैसे ६४ अक्षरों से बनने वाले पदों की कुल संचय संख्या (२) ६४ - १ होगी । आज के सभी विज्ञानों में सर्वाधिक महत्त्व उस विधि का है, जो जघन्य (minimal ) और उत्कृष्ट (maximal) पर आधारित है। जैन आगम में गति समय, प्रदेश, ज्ञान आदि प्रत्येक के Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की खगोल विद्या एवं गणित सम्बन्धी मान्यताएँ ९७ सम्बन्ध में जघन्य और उत्कृष्ट मान प्रस्तुत किये हैं, जो(extremals)कहलाते हैं । इन सभी तथ्यों की, जहाँ जघन्य और उत्कृष्ट का बंधन लगाया जाता है, प्रकृति के नियम, बलों और घटनाओं के क्षेत्र सम्बन्धी नियम अपने आप प्राप्त होते हैं। यह एक बहुत ही गहरे रहस्य की बात है, जिस पर निम्नलिखित रूप से वैज्ञानिकों का ध्यान गया और आज भी जटिलतम विज्ञानों के रहस्यमय नियमों को ज्ञात करने में ये ही मान उपयोग में लाये जाते हैं-मोपेर्श ( Mau pertuis : १६९८-१७५९) का जघन्य कर्म ( action) का सिद्धान्त, फर्मा का जघन्यकाल का सिद्धान्त, हेरन (लगभग ५० ई०) का जघन्य पथ का सिद्धान्त, गाऊस ( १७७७-१८५५ ) का जघन्य नियंत्रण का सिद्धान्त, जैकोबी ( १८०४-१८५१) एवं हैमिल्टन ( १८०५-१८६५ ) के जघन्य परिवर्तन के सिद्धान्त, हत्ज ( १८५७१८९४ ) का जघन्य वक्रता का सिद्धान्त, आइन्स्टाइन ( १८७९-१९५५ ) का प्रकाश सम्बन्धी निश्चल उत्कृष्ट गति का सिद्धान्त, यह याद दिलाते हैं कि जघन्य और उत्कृष्ट के मानों में प्रकृति के अनेक रहस्य छिपे हुए हैं। मोपेशं ने सर्वप्रथम यह कहा था कि सभी सम्भव गतियों में से प्रकृति उसी को निर्वाचित करती है, जो अपने इष्ट स्थान पर क्रिया के अल्पतम व्यय से पहुँचती है। बाद के गणितज्ञों, आयलर ( १७०७-१७८३ ) तथा लाग्रान्ज (१७३६-१८१३ ) द्वारा इसे परिष्कृत रूप दिया गया। इससे सम्बन्धित तत्त्वार्थ सूत्र का कथन है : विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुभ्यः ( २-२९ ) । इसमें गति सम्बन्धी रहस्य छिपा हुआ है। इसी प्रकार गोम्मटसारादि में कर्म सम्बन्धी आस्रव, निर्जरा में जघन्य और उत्कृष्ट योग, कषायादि, जघन्य और उत्कृष्ट समयप्रब्ध्वादि, जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग प्रदेशादि के विवरण अत्यन्त गढ़ प्रकृति रहस्यों को दिग्दर्शित करते हैं। यहीं फंक्शन और फंक्शनल का रहस्य छिपा हुआ है, जो विभिन्न राशियों के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है। एक्शन (कर्म?) का मालिक क्वान्टम है, जो ६.६२४४१०-२० अर्ग प्रति सेकेन्ड है। यहाँ जैनागम में यह जघन्य योगादि क्रियाओं से तुलना की वस्तु है। अविभागी प्रतिच्छेदों का भेद भी विशेष रूप से समझने योग्य है। सार रूप में प्रस्तुत उपर्युक्त मान्यताएँ नेमिचन्द्राचार्य के कार्य को महत्त्वपूर्ण बनाती हैं। उनके वैज्ञानिक अध्ययन की परम आवश्यकता है, जिसमें उनकी महान् टीकायें सहायक सिद्ध हो सकती हैं, जो जीवतत्त्वप्रदीपिका एवं सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका के नाम से विख्यात हैं। -प्राचार्य, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय धर्मटेकड़ो, छिन्दवाड़ा ( म०प्र०) ४८०००१ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवल धर्मसूत्र में ऐश्वर्यों का विवरण लल्लनजी गोपाल सम्प्रति केवल आपस्तम्ब, बौधायन, गौतम, वसिष्ठ, विष्णु और वैखानस के धर्मसूत्र ही मुद्रित और उपलब्ध हैं। किन्तु प्राचीनकाल में अन्य कई धर्मसूत्रों की रचना हुई थी, जो अपने पूर्णरूप में अब उपलब्ध नहीं हैं । कुमारिल ने तन्त्रवातिक' में शङ्खलिखित और हारीत के धर्मसूत्रों का उल्लेख किया है। वास्तव में धर्मसूत्रों अथवा उनके रचयिताओं की कोई प्रामाणिक सूची न होने के कारण हम कभी भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकेंगे कि काल के प्रवाह के साथ धर्मसूत्रों की विधा में कितनी हानि हुई है। प्राचीन काल में देवल के नाम से एक धर्मसूत्र प्रचलित था, इसका हमारे पास निर्विवाद प्रमाण है ।प्रसिद्ध अद्वैतवेदान्तिन् शङ्कराचार्य ने देवल के धर्मसूत्र का स्पष्ट उल्लेख किया है । ३ इस उल्लेख से सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ शङ्कर के काल में उपलब्ध था । शङ्कर के अनुसार देवल ने अपने धर्मसूत्र में सांख्य के सिद्धान्त का ही प्रतिपादन किया है, जिसमें प्रधान को ही संसार का कारण कहा गया है। सांख्य-मत के प्रतिपादकों में इस ग्रन्थ का विशेष महत्त्व होने के कारण ही शङ्कर ने उसके खण्डन के लिए विशेष प्रयास किया। देवल धर्मसूत्र के अनेक उद्धरण मध्यकालीन भाष्यों और निबन्धों में उपलब्ध हैं। मूल देवल धर्मसूत्र के स्वरूप के विषय में हमारे विचार इन्हीं उद्धरणों पर आश्रित होंगे। भाष्यकारों और निबन्धकारों ने इस ग्रन्थ से किन अंशों को उद्धृत किया और किन को छोड़ दिया, इसके लिए उनके अपने कारण और तर्क रहे होंगे। प्राप्य उद्धरणों को सीमा के भीतर ही हम देवल धर्मसूत्र के विषयों और उनके सापेक्षिक महत्त्व की कल्पना कर सकते हैं । इन उद्धरणों से यह प्रतीत होता है कि मूल ग्रन्थ लघु आकार का नहीं था। अन्य विषयों के अतिरिक्त इसमें सांख्य और योग का विस्तार के साथ विवरण था। यह इस ग्रन्थ की प्रमुख विशेषता थी और इस दृष्टि से अन्य धर्मसूत्रों की तुलना में इसका महत्त्व था। इन दोनों दर्शनों के सिद्धान्त और व्यवहार पक्ष के अनेक विषयों पर देवल से लम्बे उद्धरण मध्यकालीन भाष्यों और निबन्धों में सुरक्षित हैं । गाहड़वालवंश के नरेश गोविन्द चन्द्र ( १११३-११५४ ई० ) के मन्त्री लक्ष्मीधर ने अपने निबन्ध ग्रन्थ कृत्यकल्पतरु के मोक्षकाण्ड में ऐश्वर्यों ( दैवी शक्तियों) पर देवल से एक लम्बा उद्धरण दिया है। मोक्षकाण्ड के अध्याय २२ में योगविभूतियों का विवरण है। इस अध्याय में १. तन्त्रवार्तिक ( कुमारिल ), पृ० १७९ । २. इस विषय पर हमारा लेख पं० बलदेव उपाध्याय अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित है। ३. वेदान्तसूत्र, १.४.२८ पर आचार्य शङ्कर को टोका। ४. कृत्यकल्पतरु ( सं० के० वी० आर० ऐयांगर), पृ० २१६-१८ । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवल धर्मसूत्र में ऐश्वर्यों का विवरण ९९ 1 लक्ष्मीधर ने देवल के अतिरिक्त केवल याज्ञवल्क्य से ही उद्धरण दिया है । ये श्लोक संख्या में दो हैं और याज्ञवल्क्यस्मृति में प्राप्य हैं ( याज्ञवल्क्य, ३।२०२-३ ) । इस प्रकार मोक्षकाण्ड का यह पूरा अध्याय एक प्रकार से देवल पर ही आधारित है । लक्ष्मीधर ने कृत्यकल्पतरु में देवल से अनेक अंश उद्धृत किये हैं, जिनमें से कुछ बहुत ही लम्बे हैं । ये उद्धरण किसी एक काण्ड तक सीमित नहीं हैं । ये सभी काण्डों में बिखरे हैं और धर्मसूत्र की विषय-वस्तु की परिधि में आने वाले अनेक विषयों से सम्बन्धित हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि लक्ष्मीधर को देवल का धर्मसूत्र अपनी सम्पूर्णता में उपलब्ध था । मित्र मिश्र दूसरे निबन्धकार हैं, जिन्होंने ऐश्वर्यों पर देवल के इस अंश को उद्धृत किया है । मित्रमिश्र ने ओर्छा नरेश वीरसिंह (१६०५-१६२७ ई०) के प्रपौत्र का उल्लेख किया है, अतः उनकी सक्रिय रचनात्मकता का काल सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध रहा होगा ।' प्रस्तुत उद्धरण उनके निबन्ध ग्रन्थ वीरमित्रोदय के अन्तिम खण्ड मोक्षप्रकाश में मिलता है । मोक्षप्रकाश अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है । के० वी० आर० ऐयाङ्गर ने इसकी एकमेव उपलब्ध हस्तलिखित प्रति का उपयोग कृत्यकल्पतरु के मोक्षकाण्ड का सम्पादन करते समय तुलना के लिए किया था । २ उनका मत है कि मोक्षप्रकाश एक प्रकार से कृत्यकल्पतरु के मोक्षकाण्ड का परिवर्धन मात्र है और इस निबन्ध ग्रन्थ से अनेक लम्बे अंशों को अपने में समाविष्ट किये है । अतः मोक्षप्रकाश के प्रमाण का कोई स्वतन्त्र महत्त्व नहीं है और उसकी कोई अधिक उपयोगिता नहीं है । मात्र वीरमित्रोदय में देवल के उद्धरणों के आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि देवल धर्मसूत्र सत्रहवीं शताब्दी तक अपने पूर्णं रूप में वर्तमान था । लक्ष्मीधर ने ऐश्वर्यों के विषय में देवल के मत को जो महत्त्व दिया है, उससे यह प्रतीत होता है कि वे देवल द्वारा प्रस्तुत विवरण को सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक प्रामाणिक मानते थे । सम्भवतः यह देवल धर्मसूत्र में एक पृथक् अध्याय था, किन्तु हमारे पास इसके शीर्षक का निर्धारण करने का कोई प्रमाण अथवा आधार नहीं है । लक्ष्मीधर ने मोक्षकाण्ड में इस अध्याय को योगविभूतयः ( योग द्वारा प्राप्त अतिमानवीय शक्तियों) की संज्ञा दी है । योगविभूति का अर्थ है - ऐश्वर्य । यह संभावना सर्वथा उपयुक्त है कि लक्ष्मीधर ने योगविभूतयः शीर्षक अध्याय की रचना मुख्यतः देवल से उद्धृत लम्बे अंश के रूप में करने के साथ ही देवल धर्मसूत्र के इस अध्याय के शीर्षक को भी अपने ग्रन्थ के लिए ग्रहण किया था । इस उद्धरण में गद्य और पद्य दोनों मिश्रित हैं। प्रारम्भ में सूत्र हैं और अन्त में ९ श्लोक हैं । अंश के आरम्भ में ८ ऐश्वर्य-गुणों के नाम दिये गये हैं । दूसरे सन्दर्भ में अन्य ग्रन्थों में देवल से जो उद्धरण प्राप्य हैं, उनसे देवल धर्मसूत्र में विषयों के प्रस्तुतीकरण की शैली की जो जानकारी मिलती है, उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि उद्धरण में देवल धर्मसूत्र के १. पी० वी० कणे, हिस्ट्री आव धर्मशास्त्राज़, खण्ड १, भाग २, पृ० ९४८ ॥ २. कृत्यकल्पतरु भूमिका, पृ० ११ । ३. वही, पृ० ८; पुनः देखिये पृ० ३४८ । ४. अमरकोश, १.१.३६ विभूतिभू तिरैश्वर्यमणिमादिकमष्टधा । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० लल्लनजी गोपाल अध्याय के आरम्भ के कुछ अंश सुरक्षित नहीं रह पाये हैं । इनमें सम्भवतः सर्वप्रथम ऐश्वर्यों की प्राप्ति को योगी के लिए अभीष्ट कहा गया था और तदन्तर योग के सन्दर्भ में ऐश्वर्यों की परिभाषा दी गई थी । देवल ने ८ ऐश्वर्यगुण इस प्रकार गिनाये हैं- अणिमा ( अणुशरीरत्वम्: अणु भाव से सूक्ष्म में भी आवेश की शक्ति ), महिमा ( शरीरमहत्त्वम्; महत्ता के कारण सभी शरीरों को आवृण करने की शक्ति ), लघिमा ( शरीराशुगामित्वम्; इससे अतिदूरस्थान को भी क्षण भर में पहुँच जाता है ), प्राप्ति (विश्वविषयावाप्ति; इससे सर्व प्रत्यक्षदर्शी हो जाता है ), प्राकाम्यम् ( यथेष्टचारित्वम्; इसमें सभी भोगवरों को पाता है ), ईशित्वम् ( अप्रतिहतैश्वर्यम्; इससे देवताओं से भी श्रेष्ठ होता है ), वशित्वम् (आत्मवश्यता; इससे अपरिमित आयु और वक्ष्यजन्मा होता है) और यत्रकामावसायित्वम् । इन आठों को दो वर्गों में विभक्त किया गया है। अणिमा, महिमा और लघिमा को शारीर कहा गया है ( क्योंकि इनका सम्बन्ध शरीर के आकार से है ) और शेष पाँच को ऐन्द्रिक कहा गया है ( क्योंकि इनका सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों से है ) । इसके अनन्तर इन आठ ऐश्वर्य गुणों की व्याख्या है । इस सम्बन्ध में देवल की विशिष्ट शैली है । प्रत्येक ऐश्वर्यगुण की प्रथम सूक्ष्म किन्तु स्पष्ट व्याख्या है और तदनन्तर उससे प्राप्त अतिमानवीय शक्ति का वर्णन है । आठवें गुण यत्रकामावसायित्वम् के तीन प्रकारों का उल्लेख किया गया है— छायावेश, अवध्यानावेश और अङ्गप्रवेश । इनके स्वरूप की व्याख्या करके यत्रकामावसायित्वम् के द्वारा प्राप्य अतिमानवीय शक्ति का वर्णन किया गया है । अन्तिम सूत्र में कहा गया है कि इस प्रकार इन ऐश्वर्य गुणों को प्राप्त करके, कल्मषों को उद्धूत करके, संशयों को छिन्न करके, सभी वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखने वाला होकर, पर और अवर धर्म का जानने वाला होकर, कूटस्थ होकर और यह सब असत् और अनित्य है, ऐसा जानकर स्वयं ही शान्ति प्राप्त करता है | यह ऐश्वर्य की व्याप्ति है । अतिमानवीय शक्तियों अथवा सिद्धियों की अवधारणा आपस्तम्ब धर्मसूत्र' में उल्लिखित है । पतञ्जलि ने योगसूत्र' में भूतजय से प्राप्त तीन प्रकार के फलों में एक प्रकार 'अणिमादि का प्रादुर्भाव' कहा है । व्यास ने इस सूत्र पर भाष्य में आठों सिद्धियों का नामोल्लेख किया है और उनके स्वरूप की व्याख्या की है । योग से सम्बन्धित सांख्य दर्शन में भी ऐश्वर्यों को स्थान मिला है । आठ सिद्धियों अथवा ऐश्वर्यों की सूची अनेक ग्रन्थों में दी गई है । प्रपञ्चसार में यत्रकामावसायित्व को हटाकर उसके स्थान पर गरिमा को जोड़ दिया गया है पूर्वकालीन किसी भी ग्रन्थ में ऐश्वर्यो अथवा सिद्धियों का विवरण देवल द्वारा प्रस्तुत विवरण से तुलनीय नहीं है । इनमें देवल के समान विस्तृत विवरण नहीं है । ये इस प्रकार प्रत्येक ऐश्वर्य अथवा सिद्धि की व्याख्या करके उनके महत्त्व का निरूपण नहीं करते । । १. आपस्तम्ब धर्मसूत्र, २.९.२३.६-७ । २. योगसूत्र, ३.४५ –— ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद्धर्मानभिघातश्च । ३. सांख्यकारिका, २३ । ४. अमरकोश, १.१.३६; भागवत पुराण ११.५.४-५ । ५. प्रपञ्चसार, १९.६२-६३ । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवल धर्मसूत्र में ऐश्वर्यों का विवरण १०१ सूत्रों के अनन्तर दिये गये ९ श्लोकों में योग की विधि के पालन से प्राप्य लाभ एवं गुणों का विवरण है । प्रथम पाँच श्लोकों में साहित्यिक शैली में दुर्बल और बली योगियों के बीच अन्तर को उभारा गया है। अग्नि की उपमा के माध्यम से यह कहा गया है कि एक दुर्बल योगी योग के भार से आक्रान्त होकर नष्ट हो जाता है, जबकि वह योगी, जिसकी शक्ति योग के द्वारा वर्धित है, सम्पूर्ण संसार का संशोधन कर सकता है। जिस प्रकार बलहीन व्यक्ति धारा के द्वारा बहा लिया जाता है, उसी प्रकार दुर्बल व्यक्ति विषयों के द्वारा अवश कर दिया जाता है, जबकि बली योगी विषयो पर नियन्त्रण पाता है। योग की शक्तियों से युक्त योगी प्रजापति, ऋषि, देव और महाभूतों में प्रवेश करता है। यम, अन्तक अथवा मृत्यु का उस पर कोई वश नहीं है। सहस्रों प्रकार के रूपों को धारण करके वह पृथ्वी पर विचरण करता है। कुछ के द्वारा वह विषयों को प्राप्त करता है और कुछ के द्वारा कठिन तप करता है। अन्त में वह उसको त्याग देता है। ये ९ श्लोक महाभारत के पूना संस्करण में शान्तिपर्व के अध्याय २८९ के श्लोक १९ से २७ तक प्रायः पूर्णरूपेण समान हैं । निःसन्देह कुछ अत्यल्प महत्त्व के पाठ भेद मिलते हैं। ऐसा अपेक्षित भी है क्योंकि अनेक शताब्दियों की लम्बी अवधि में प्रतिलिपिकर्ताओं के द्वारा ऐसे अन्तर उपस्थित होने की स्वाभाविक सम्भावना है। महाभारत की हस्तलिखित प्रतियों के विश्लेषण से उसके अनेक पाठ-संस्करण ज्ञात होते हैं। इनमें महाभारत के विकास के विभिन्न चरणों में पाठ में किये गये परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। एक ही चरण, वर्ग और पाठ-संस्करण की विभिन्न प्रतिलिपियों में भी परस्पर अन्तर दिखलाई पड़ता है। अतः देवल में प्राप्य श्लोकों का पूना संस्करण के श्लोकों से पूर्ण साम्य किसी भी प्रकार अपेक्षित नहीं हो सकता। हमने आगे देवल धर्मसूत्र ( = देवल०) और महाभारत (= महा० ) के श्लोकों के पाठों की तुलना को है। श्लोक १-"हि नु प्रभो' के स्थान पर महा० में "अबलः प्रभो" है ( मोक्षप्रकाश में पाठ है "-गबल प्रभोः" । महा० में भी "प्रभो" के स्थान पर "प्रभोः" पाठान्तर मिलता है ) । श्लोक २-महा० में "यथा" के स्थान पर “यदा", "बहिर" के स्थान पर "बह्नि", "पुमान्" के स्थान पर “पुनः" और "महीमिमाम्" के स्थान पर “महीमपि" पाठ है। इनमें से "यथा" और "महीमिमाम्" महा० में पाठान्तर के रूप में मिलते हैं। महा० के "पुनः" पाठ का समर्थन मोक्षप्रकाश से और कृत्यकल्पतरु के मोक्षकाण्ड की दो प्रतिलिपियों से होता है। अतः के० वी० आर० ऐयाङ्गर ने "पुमान्" पाठ को क्यों स्वीकार किया, यह समझने में हम असमर्थ हैं । श्लोक ३-महा० में "न त्वजात-' के स्थान पर "तद्वंजात" मिलता है। महा० में अन्य परिवर्तन हैं '-तजो' के स्थान पर "-तजा" और "संशोधयेत्" के स्थान पर “संशोषयेत्" । इनमें से अन्तिम दो देवल० में उपलब्ध पाठ महा० में उल्लिखित पाठान्तरों में प्राप्य हैं। श्लोक ४-"योगी" और "क्रियते" के स्थान पर महा० में क्रमशः “योगो" और "ह्रियते" पाठ मिलते हैं। इसमें से देवल० का केवल "योगी" पाठ ही पूना संस्करण के पाठान्तरों में उल्लिखित है। श्लोक ५-"रावणः" के स्थान पर महा० में "वारणः" पाठ है, जो निश्चय ही अधिक उपयुक्त है । महा० की किसी प्रतिलिपि से देवल० का पाठ समर्थित नहीं है। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ लल्लनजी गोपाल ___ श्लोक ६-महा० में "परशल्यार्थ" के स्थान पर "चवशाः पार्थ" पाठ आया है ( मोक्षप्रकाश में “परभोगार्थ" पाठ है ) और प्रथम पंक्ति के उत्तरार्ध में समस्त पद को तोड़कर "योगा योग-" पाठ दिया गया है। दोनों ही में देवल० द्वारा प्रस्तुत पाठ महा० की किसी प्रतिलिपि द्वारा स्वीकृत नहीं है। श्लोक ७-यह महा० के श्लोक २५ से अभिन्न है। श्लोक ८-महा० में "आत्मानं तु" और "योगं" के स्थान पर क्रमशः "आत्मनां च" और "योगः" पाठ उपलब्ध है। देवल० के ये दोनों ही पाठ पूना संस्करण में उल्लिखित पाठान्तरों में प्राप्य हैं। ___श्लोक ९-महा० में प्राप्य परिवर्तन ये हैं-"कैश्चित् फैश्चिदुःख' के स्थान पर “चैव पुनश्चोग्रं","पुनस्तानि" के स्थान पर “पुनः पार्थ" और "-गणा-" के स्थान पर "-गुणा-"। किन्तु इनमें से देवल० का केवल एक ही पाठ "पुनस्तानि' पूना संस्करण में उल्लिखित पाठान्तरों में · मिलता है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि पूना के संस्करण में कुछ दूसरे पाठ स्वीकृत हैं, देवल० में आये पाठ का समर्थन कुछ प्रतिलिपियों में मिलता है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि देवल धर्मसूत्र और महाभारत में से कौन मूल है और कौन ग्रहीता या प्रतिकर्ता है। यद्यपि सभी ९ श्लोक भावों की एकता की दष्टि से निरन्तर हैं. वीरमित्रोदय के मोक्षप्रकाश में श्लोक ५ के बाद "तथा" शब्द मिलता है। इससे यह प्रतीत होता है कि मित्रमिश्र ने श्लोकों के दो वर्गों ( श्लोक १-५ और श्लोक ६-९) को देवल धर्मसूत्र में दो पृथक् स्थलों से लिया था। महाभारत में ये सभी श्लोक परस्पर सम्बन्धित और निरन्तर क्रम में प्राप्य हैं । अतः यह सम्भावना उपस्थित होती है कि महाभारत के संस्कर्ता ने इन श्लोकों को देवल धर्मसूत्र से लिया था। किन्तु मोक्षप्रकाश में श्लोकों का जो वर्गीकरण है', उसका समर्थन कृत्यकल्पतरु में मोक्षकाण्ड से नहीं होता। कृत्यकल्पतरु पूर्वकालीन है और मोक्षप्रकाश में बहुत सी सामग्री उसी से ली गई है। अतः मोक्षप्रकाश में श्लोक ५ के बाद “तथा" शब्द को अनावश्यक मानना होगा और सभी ९ श्लोकों को एक क्रम में जुड़ा स्वीकार करना होगा। इस प्रकार महाभारत को ग्रहीता अथवा अनुकर्ता मानने का तर्क शिथिल हो जाता है। दोनों ग्रन्थों में किसने किससे लिया है, इसका निर्णय करना कठिन नहीं है। इन श्लोकों में हम सम्बोधन कारक का रूप “राजन्"(देवल० १,२ और ४),“प्रभो"(देवल०१) और "भरतर्षभ" (देवल० ८) में देखते हैं। देवल धर्मसूत्र के सम्भावित रूप में किसी ऐसे सन्दर्भ अथवा स्थल की सम्भावना नहीं है, जिसमें शब्दों के इन रूपों के उपयोग का कोई औचित्य हो । स्पष्ट है कि ये श्लोक भरत वंश के किसी राजा या राजकुमार को सम्बोधित करके कहे गये कथन हैं। इससे १. मित्रमिश्र ने इन श्लोकों को "तथा" के द्वारा दो वर्गों में जो विभक्त किया, उसके पीछे कदाचित् यह तर्क था कि यद्यपि इन श्लोकों में योगी की शक्तियों का ही गुणगान है, हमें यहाँ दो स्पष्ट बातें मिलती हैंएक में दुर्बल योगी की तुलना में उसकी शक्तियों का निरूपण और दूसरे में उसकी कुछ अतिमानवीय शक्तियों का उल्लेख । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवल धर्मसूत्र में ऐश्वर्यों का विवरण प्रतीत होता है कि इन श्लोकों का उचित और मूल स्थान महाभारत में ही है, जहाँ वे भीष्म के द्वारा युधिष्ठिर को दी गई शिक्षा के अन्तर्गत प्राप्य हैं। महाभारत में इन श्लोकों से पूर्व का श्लोक और साथ ही उनके अनुवर्ती श्लोक परस्पर सम्बन्धित हैं और एक तार्किक क्रम में उपस्थित हुए हैं। इस प्रकार देवल का प्रथम श्लोक ( महा० १२.२८९.१९) महाभारत के १२.२८९.१८ से सीधे उत्पन्न प्रतीत होता है और इसी प्रकार महाभारत के १२.२८९.२८ और २९ देवल के नौ श्लोकों की स्वाभाविक परिणति हैं। पुनः इन नौ में से दो श्लोकों का जो पाठ महाभारत में उपलब्ध है, उसमें "पार्थ" का नाम सम्बोधन कारक में आता है । देवल में उनके समानान्तर श्लोकों में "पार्थ" के नाम का उच्चारण नहीं हुआ है। देवल के श्लोक ६ में 'चावशः पार्थ" के स्थान पर "परशल्यार्थ'३ पाठ है और इसी प्रकार श्लोक ९ में "पुनः पार्थ" के स्थान पर “पुनस्तानि" पाठ मिलता है। यह परिवर्तन देवल धर्मसूत्र के लेखक ने कदाचित् जानबूझकर किया था। किन्तु यह महाभारत से इन श्लोकों के हरण को छुपाने का बहुत ही भोंडा प्रयास है। लेखक ने कुछ अन्य शब्दों (“राजन्", "प्रभो" और "भरतर्षभ" ) को यथास्थान रहने दिया है, जब कि वे देवल के सन्दर्भ के सर्वथा अनुपयुक्त हैं और इस प्रकार अधमर्ण की पहचान खुले स्वर से कर रहे हैं। शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र पर अपने भाष्य में दो श्लोकों को उद्धृत किया है, जो देवल के श्लोक ८ और ९ ( = महा० १२।२८९।२६-२७ ) ही हैं, किन्तु शङ्कर ने यह नहीं कहा है कि ये श्लोक देवल धर्मसूत्र से उद्धृत किये जा रहे हैं। जैसा हमने ऊपर कहा है शङ्कर को देवल धर्मसूत्र का परिचय भलीभाँति प्राप्त था। अतः हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि शङ्कर ने इन दोनों श्लोकों का सम्बन्ध उनके मूल स्रोत महाभारत से जोड़ना चाहा, न कि देवल धर्मसूत्र से । ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि देवल में ये नौ श्लोक महाभारत से लिये गये थे। इसकी स्वाभाविक निष्पत्ति यह होगी कि देवल धर्मसूत्र की रचना को महाभारत के शान्तिपर्व के अध्याय २८९ ( पूना संस्करण ) की रचना के काल के उत्तर में रखा जाय । १. महाभारत, १२.२८९.२४,२७ । २. “पार्थ" प्रायः अर्जुन के लिए प्रयुक्त होता है, किन्तु यह मातृवाचक है और युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन के लिए समान रूप से सार्थक है । यह “पृथा" से बना है, जो कुन्ती का मूल नाम था। कुन्ती यादवनरेश शुर की पुत्री थी, किन्तु उसका पालन उसके सन्तानहीन पितृव्य कुन्ति अथवा कुन्तिभोज ने किया था । पाण्डु के साथ विवाह के पूर्व वह कर्ण की माता बनी और विवाह के बाद उसने युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को जन्म दिया। "पार्थ" का उपयोग पार्थिव अथवा राजकुमार के अर्थ में भी होता है। यहाँ "पार्थ" युधिष्ठिर का बोधक है । ३. जैसा हमने पहले देखा है, इस पाठ का भी समर्थन महाभारत की कुछ प्रतिलिपियों से मिलता है । ४. ब्रह्मसूत्र, १.३.२७ । शङ्कर ने इन श्लोकों का उल्लेख "ततः स्मतिरपि" शब्दों के द्वारा किया है। स्मरणीय है कि अन्यत्र समानान्तर सन्दर्भो में शङ्कर ने “स्मृति" शब्द का उपयोग स्मृतिग्रन्थ के अर्थ में नहीं किया है । यहाँ स्मृति को श्रुति के विरोध में रखा गया है और यह महाभारत, गीता और पुराणों का द्योतक है। यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि शङ्कर ने सम्बोधन कारक में "भरतर्षभ" शब्द को हटाया नहीं है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ लल्लनजी गोपाल देवल में इन श्लोकों की उपस्थिति को एक दूसरी व्याख्या सम्भव है। हमने देखा है कि देवल के इन श्लोकों का एकमेव सीधा प्रमाण कृत्यकल्पतरु का मोक्षकाण्ड है, वीरमित्रोदय के मोक्षप्रकाश ने तो केवल उन्हें कृत्यकल्पतरु से ले लिया है। यह सम्भव है कि लक्ष्मीधर ने केवल सूत्रों को ही देवल का बतलाया था और श्लोकों को महाभारत से उद्धृत किया था, किन्तु कालान्तर में किसी प्रतिलिपिकर्ता ने प्रमादवश महाभारत के नाम के उल्लेख को छोड़ दिया हो और इस प्रकार देवल के सूत्रों और महाभारत के श्लोकों को परस्पर संपृक्त कर दिया हो, जिससे यह प्रतीत हुआ कि ये श्लोक भी देवल धर्मसूत्र के ही अंश थे। हमने अन्यत्र यह दिखलाया है कि एक दूसरे स्थल पर भी कृत्यकल्पतरु के मोक्षकाण्ड में इसी प्रकार की त्रुटि का एक दूसरा उदाहरण है। यहाँ महाभारत के एक उद्धरण को ब्रह्मपुराण का बतलाया गया है।' एक अन्य सम्भावना यह भी है कि यद्यपि ये ९ श्लोक देवल धर्मसूत्र में मूलतः नहीं थे किन्तु जब कालान्तर में इसमें परिवर्तन और परिवर्धन हुए, तो इन श्लोकों को जोड़ दिया गया। यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि पार्थ का नाम जानबूझकर श्लोक ६ ( और सम्भवतः श्लोक ९) से हटा दिया गया था, तो इन नौ श्लोकों को प्रक्षिप्त मानना होगा, क्योंकि उनको जोड़ने वाले ने अपने कार्य को छुपाने का प्रयास किया था। इस स्थिति में शान्तिपर्व के २८९वें अध्याय का रचनाकाल वह सीमा होगी, जिससे पूर्व देवल धर्मसूत्र का संशोधन और उसमें इन श्लोकों का प्रवेश हो गया था। यदि देवल के साथ इन श्लोकों के सम्बन्ध के विषय में शङ्कराचार्य के मौन का कोई महत्त्व है, तो इन प्रक्षेपकों के प्रवेश की तिथि बहुत उत्तर काल में होगी-शङ्कराचार्य के बाद, किन्तु निश्चय ही लक्ष्मीधर से पूर्व ।। __ अतः कृत्यकल्पतरु में प्राप्य देवल धर्मसूत्र के उद्धरण में ऐश्वर्यों पर नौ श्लोकों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यद्यपि मूल देवल धर्मसूत्र अत्यन्त प्राचीन है, इसमें उत्तरकाल में दूसरे स्रोतों से सामग्री जोड़कर इसका परिवर्धन किया गया और यह कार्य महाभारत के शान्तिपर्व के अपने वर्तमान स्वरूप प्राप्त करने और महाभारत में योग विषयक अध्यायों के प्रवेश के बाद ही हुआ था। -९, गुरुधाम कालोनी, दुर्गाकुण्ड रोड वाराणसो ( उ० प्र०) १. "कृत्यकल्पतरु में अरिष्टों पर ब्रह्मपुराण से उद्धरण" पर हमारा लेख कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग को पत्रिका में प्रकाशित है । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरक्षित जैन संघ में भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा का प्रश्न अरुण प्रताप सिंह जैन ग्रन्थों के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल से ही जैन संघ में भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं से अधिक रही है। कल्पसूत्र के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के चौरासी हजार भिक्षु तथा तीन लाख भिक्षुणियाँ थीं'; अरिष्टनेमि के अठारह हजार भिक्षु तथा चालीस हजार भिक्षुणियाँ थीं२; पार्श्वनाथ के सोलह हजार भिक्षु तथा अड़तीस हजार भिक्षुणियाँ थीं; तथा महावीर के चउदह हजार भिक्षु तथा छत्तीस हजार भिक्षुणियाँ थीं। संघ में भिक्षुणियों की अधिक संख्या ने जहाँ एक ओर धर्म के प्रसार को अति व्यापक बनाया, वहीं दूसरी ओर भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के प्रश्न को भी महत्त्वपूर्ण बना दिया। जैन आचार्यों के समक्ष सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा का था, एक स्त्री जब भिक्षुणी बन जाती थी, तो उसकी सुरक्षा का पूरा उत्तरदायित्व संघ पर आता था । जैन. संघ में भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा किस प्रकार की जाती थी, इस सम्बन्ध में हमें नियमों की एक विस्तृत रूप-रेखा प्राप्त होती है । उपाश्रय में भिक्षुणी को कभी भी अकेला नहीं छोड़ा जाता था। यात्रा के समय उन्हें आवास में ही ठहरने का निर्देश दिया गया था। सरक्षित आवास न प्राप्त होने पर शीलसुरक्षा हेतु अनेक वैकल्पिक नियमों का विधान किया गया था । अनावृत द्वार वाले उपाश्रय में ठहरना भिक्षुणी के लिए निषिद्ध था। परन्तु आवृत द्वार वाले उपाश्रय के न मिलने पर वह अनावृत द्वार के उपाश्रय में रह सकती थी, यद्यपि इसके लिए निम्न सावधानियाँ रखी जाती थीं। अनावृत द्वार को छिद्र रहित पर्दे से दोनों ओर कसकर बाँधा जाता था। बन्धन अन्दर से ही खुलता था । उसके खोलने के रहस्य को या तो प्रतिहारी जानती थी या वह जो सिकड़ी बाँधती थी, अन्य कोई नहीं। सूत्रों के अर्थ में पारंगत ( सम्यगधिगतसूत्रार्था ), उच्चकुल में उत्पन्न ( विशुद्धकुलोत्पन्ना), भयहीन (अभीरु), गठीले शरीर वाली ( वायामियसरीर ) बलिष्ठ प्रतिहारी उपयुक्त मानी जाती थी । वह हाथ में मजबूत डण्डा लेकर द्वार के पास बैठती थी, जो कोई भी भिक्षुणी-वेश में उपाश्रय के अन्दर प्रवेश करने का प्रयत्न करता था, प्रतिहारी भिक्षुणी उसकी पूरी जाँच करती थी। वह आगन्तुक के सिर, गाल, छाती का भली प्रकार स्पर्श कर पता लगाती थी कि आने वाला व्यक्ति स्त्री है या पुरुष । फिर वह उसका नाम पूछती थी। इन सारी क्रियाओं के बाद जब वह सन्तुष्ट हो जाती थी कि वह भिक्षुणी ही है, तभी प्रतिहारी आगन्तुक को उपाश्रय के अन्दर प्रवेश की आज्ञा देती थी। उपाश्रय के अन्दर उसे देर तक रुकने या व्यर्थ का वार्तालाप करने की आज्ञा नहीं थी । यदि इन सारी सतर्कताओं के बावजूद भी कोई दुराचारी व्यक्ति उपाश्रय में प्रविष्ट हो जाता था, तो सभी भिक्षुणियाँ मिलकर भयंकर कोलाहल करती थीं। वे प्रविष्ट चोर या कामी पुरुष को १. कल्पसूत्र, 197 पृ० 266 । २. वही, 166 पृ० 236 । ३. वही, 157 पृ० 2201 ४. वही, 133-34, पृ. 198 । ५. बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, 2331-52 । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुण प्रताप सिंह डण्डे से पीटती थीं। पहले वृद्धा भिक्षुणी ( स्थविरा), फिर युवती भिक्षुणी, फिर वृद्धा-इस क्रम से वे अपने शील की रक्षा के लिए व्यूह रचना करती थीं। अनावृत द्वार वाले उपाश्रय में भिक्षुणियों को जोर-जोर से पढ़ने के लिए कहा गया था। उपर्युक्त विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि कभी दुराचारी पुरुष स्त्री-वेष धारण कर भिक्षुणियों के उपाश्रय में पहुँच जाते थे। इसके निराकरण हेतु हो यह व्यवस्था की गयी थी। इसके अतिरिक्त ऐसे उपाश्रयों या शून्यागारों में भिक्षु को भी बाहर से साध्वियों की रक्षा करने को कहा गया था। युवती साध्वी की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाता था । उपाश्रय में पहले वृद्धा (स्थविरा) भिक्षुणी, फिर तरुणी भिक्षुणी, उसके पश्चात् पुनः वृद्धा भिक्षुणी, फिर तरुणी भिक्षुणी, इस क्रम से उनके शयन करने का विधान था | इसका तात्पर्य यह था कि प्रत्येक युवती भिक्षुणी के आस-पास वृद्धा भिक्षुणियाँ शयन करें ताकि उसके शील को सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था रहे । उपाश्रय में भिक्षुणी को कभी अकेला नहीं छोड़ा जाता था। गच्छाचार के अनुसार गच्छ में रहने वाली साध्वी रात्रि में दो कदम भी बाहर नहीं जा सकती थी। उन्हें आहार, गोचरी या शौच के लिये भी अकेले जाना निषिद्ध था ।४ वस्त्र के सम्बन्ध में अत्यन्त सतर्कता रखी ज थी। बृहत्कल्पभाष्य तथा ओघनियुक्ति में भिक्षुणियों द्वारा धारण किये जाने वाले ग्यारह वस्त्रों का उल्लेख है। रूपवती साध्वियों को "खज्जकरणी" नामक वस्त्र धारण करने की सलाह दी गई थी ताकि वे कुरूप सी दीखने लगें।" भिक्षुणियाँ अपने प्रयोग के लिये डण्ठल युक्त तुम्बी तथा डण्डेवाला पाद पोंछन नहीं रख सकती थी। इसी प्रकार भोजन में अखण्ड केला आदि ( तालप्रलम्ब) ग्रहण करना निषिद्ध था । यह विश्वास किया गया था कि इस प्रकार के लम्बे फलों के फलक को देखकर भिक्षुणियों में काम-वासना उद्दिप्त हो सकती है। भिक्षुणियों के लिये पुरुष स्पर्श सर्वथा निषिद्ध था । अपवाद अवस्था में भी उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि पुरुष-स्पर्श से उद्भूत आनन्द का आस्वाद न लें । साध्वी को बीमारी से कमजोर हो जाने के कारण या कहीं गिर जाने के कारण यदि पिता-भ्राता-पुत्र अथवा अन्य कोई पुरुष उठावे तो ऐसे पुरुष-स्पर्श को पाकर अथवा मल-मूत्र का त्याग करते समय यदि पशु-पक्षी उसके अंगों को छू लें तो ऐसे स्पर्श को पाकर, उससे उत्पन्न काम-वासना के आनन्द से विरत रहने को कहा गया था; अन्यथा उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के दण्ड का भागी बनना पड़ता था। संक्षेप में भिक्षुणियों को यह कठोर निर्देश दिया गया था कि वे किसी भी परिस्थिति में पुरुष के स्पर्श का आनन्द या आस्वाद न लें। १. "बहिरक्खियाउवसहेहि" -बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, 2324, पृ० 6 58 । २. गच्छाचार, 123, पृ० 52 । ३. वही, 108, पृ० 46। ४. बृहत्कल्प सूत्र, 5/16-17, पृ० 149 । ५. "खुज्जकरणी उ कीरइ रूववईणं कुडहहेउं"-ओघनियुक्ति, 319 । ६. बृहत्कल्प सूत्र, 5/38-44, पृ० 153-155 । ७. वही, 1/1, पृ० 1 । ८. वही 4/14, पृ० 138 । ९. वही, 5/13-14, पृ० 147-148 । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संघ में भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा का प्रश्न १०७ इसके अतिरिक्त भिक्षुणियों के शील-रक्षा का उत्तरदायित्व भिक्षु-संघ पर भी था। उनके शील-रक्षा के निमित्त महाव्रतों का उल्लंघन भी किसी सीमा तक उचित मान लिया गया था। संघ का यह स्पष्ट आदेश था कि भिक्षुणी की शील-रक्षा के लिये भिक्षु हिंसा का भी सहारा ले सकते थे। निशीथ चूर्णि' के अनुसार यदि कोई व्यक्ति साध्वी पर बलात्कार करना चाहता हो, आचार्य अथवा गच्छ के वध के लिए आया हो, तो उसकी हत्या की जा सकती है। इस प्रकार की हिंस करने वाले को पाप का भागी नहीं माना गया था, अपितु विशुद्ध माना गया था । मन्त्रों एवं अलौकिक शक्तियों के प्रयोग के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार के उदाहरण द्रष्टव्य हैं। कालकाचार्य ने अपनी भिक्षणी बहन को छडाने के लिये विद्या एवं मन्त्र का प्रयोग किया था एवं विदेशी शकों : सहायता ली थी। इसी प्रकार शशक एवं भसक नामक जो भिक्षुओं का उल्लेख मिलता है, जो अपनी रूपवती भिक्षुणी बहन सुकुमारिका की हर प्रकार से रक्षा करते थे। एक यदि भिक्षा को जाता था तो दूसरा सुकुमारिका की रक्षा करता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि महाव्रतों एवं आचार के सामान्य नियमों को भंग करके भी जैन संघ भिक्षुणियों की रक्षा का प्रयत्न करता था। इसके मूल में यह भावना निहित थी कि संघ के न रहने पर वैयक्तिक साधना का क्या महत्त्व हो सकता है। वैयक्तिक साधना तभी तक सम्भव है, जब तक कि संघ का अस्तित्व है। अतः साध्वी की रक्षा एवं उसकी मर्यादा को अक्षुण्ण रखने के लिये महाव्रतों की विराधना को भी किसी सीमा तक उचित माना गया। ब्रह्मचर्य के मार्ग में आने वाली कठिनाई के निवारण के लिये जैनाचार्यों ने प्रारम्भ से ही प्रयत्न किया था। संघ में स्त्री-पुरुष के प्रवेश के समय से अर्थात् दीक्षा काल से ही इसकी सूक्ष्म छानबीन की जाती थी। संघ का द्वार सबके लिये खुला होने पर भी कुछ अनुपयुक्त व्यक्तियों को उसमें प्रवेश की आज्ञा नहीं थी। ऋणी, चोर, डाकू, जेल से भागे हुए व्यक्ति, क्लीव, नपुंसक को दीक्षा देने की अनुमति नहीं थी। जैनाचार्यों को सबसे अधिक भय नपुंसकों से था। नपुंसकों के प्रकार, संघ में उनके द्वारा किये गये कुकृत्यों का विस्तृत वर्णन बृहत्कल्प भाष्य एवं निशीथ चूणि४ में मिलता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैनाचार्य नपुंसकों के लक्षणों का पूरा ज्ञान रखते थे। नपुंसक ऐसी अग्नि के समान माने गये थे जो प्रज्वलित तो जल्दी होती है, परन्तु रहती देर तक है" ( नपुंसकोवेदो महानगरदाहसमाना )। उनमें उभय वासना की प्रवृत्ति होता है। वखा-पुरुष दोनों को काम-वासना का आनन्द लेते है। इस कारण वे स्त्री-पुरुष दोनों की काम-वासना को प्रदीप्त करने वाले होते हैं। इनके कारण समलैंगिकता ( Homose mosexuality) को प्रोत्साहन मिलता है और भिक्षु-भिक्षणियों का चारित्रिक पतन होता है। अतः यह प्रयत्न किया गया था कि ऐसे व्यक्ति संघ में किसी प्रकार प्रवेश न पा सकें। इन सभी सावधानियों के बावजूद कोई न कोई भिक्षुणी समाज के दुराचारी व्यक्तियों के जाल में फँस जाती थी। ऐसी परिस्थिति में उन्हें सलाह दी गई थी कि वे चर्मखण्ड, शाक के पत्ते, १. निशीथ भाष्य, गाथा, 289 । २. बृहत्कल्पभाष्य, भाग पंचम, 5254-59, पृ० 1397 । ३. वही , 5139-64, पृ० 1368-1373 । ४. निशीथ भाष्य, भाग तृतीय, गाथा 3561-3624 पृ० 240-254 । ५. बृहत्कल्पभाष्य, भाग पंचम, 5148-टीका पृ० 1370 । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुण प्रताप सिंह दर्भ तथा हाथ से अपने गुप्तागों की रक्षा करें।' इतनी सावधानी रखने पर भी उस पर बलात्कार कर दिया जाता था और गर्भाधान हो जाता था। इस अवस्था में जब साध्वी का स्वयं का कोई दोष न हो, जैन संघ सच्ची मानवता के गुणों से युक्त होकर रक्षा करता हुआ उसकी सभी अपेक्षित आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। न तो वह घृणा की पात्र समझी जाती थी और न उसे संघ से बाहर निकाला जाता था। उसे यह निर्देश दिया गया था कि ऐसी घटना घटने के बाद सर्व. प्रथम वह आचार्य या प्रतिनी से कहे। वे या तो स्वयं उसकी देखभाल करते थे या गर्भ ठहरने की स्थिति में उसे किसी श्रद्धावान श्रावक के घर ठहरा दिया जाता था। ऐसी भिक्षुणी को निराश्रय छोड़ देने पर आचार्य को भी दण्ड का भागी बनना पड़ता था। भिक्षुणी को भिक्षा के लिए नहीं भेजा जाता था, अपितु दूसरे साधु एवं साध्वी उसके लिए भोजन एवं अन्य आवश्यक वस्तुएँ लाते थे। ऐसी भिक्षुणी की आलोचना करने का किसी को अधिकार नहीं था। इस दोष के लिए जो उस पर ऊँगली उठता था या उसकी हँसी उड़ाता था, वह दण्ड का पात्र माना जाता था। इसके मूल में यह भावना निहित थी कि ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में उसकी आलोचना करने पर वह या तो निर्लज्ज हो जायेगी या लज्जा के कारण संघ छोड़ देगी। दोनों ही स्थितियों में उसका भावी जीवन के संकटपूर्ण होने तथा संघ की बदनामी का भय था। इस कारण उसके साथ सहानुभूति पूर्वक व्यवहार किया जाता था। इसके मूल में यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिकता थी कि बुरे व्यक्ति भी अच्छे बन सकते हैं और कोई कारण नहीं है कि एक बार सत्पथ से विचलित हुई भिक्षुणी को यदि सम्यक् मार्गदर्शन मिले तो वह सुधर नहीं सकती है। निशीथभाष्य में कहा गया है कि क्या वर्षाकाल में अत्यधिक जल के कारण अपने किनारों को तोड़ती हुई नदी, बाद में अपने रास्ते पर नहीं आ जाती है और क्या अंगार का टुकड़ा बाद में शान्त नहीं हो जाता है ? इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों ने सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है । यह परिकल्पना की गई कि यदि मनुष्य हमेशा कार्य में लगा रहे तो बहुत कुछ अंशों में काम पर विजय पाई जा सकती है। निशीथ चूणि में गाँव की कामातुर एक सुन्दर युवती का दृष्टान्त देकर उपर्युक्त मत को समझाने की सफल चेष्टा की गई है। वह सुन्दर युवती जो पहले अपने रूप-रंग एवं साज-शृंगार में व्यस्त रहती थी-कार्य की अधिकता के कारण काम-भावना को ही भूल जाती है, क्योंकि घर के सामान के रख-रखाव की जिम्मेदारी उसे सौंप दी गई थी। इस प्रतीकात्मक कथा के माध्यम से संघ के सदस्यों को यह सुझाव दिया गया था कि वे हमेशा ध्यान एवं अध्ययन में लीन रहें तथा मस्तिष्क को खाली न रखें। दिगम्बर साहित्य में भिक्षुणियों के शील सम्बन्धी नियम : जैनों के दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भी भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा के सम्बन्ध में अत्यन्त सतर्कता बरती गई थी। भिक्षुणियों को कहीं भी अकेले यात्रा करने की अनुमति नहीं थी। उन्हें १. खंडे पत्ते तह दब्भचीवरे तह य हत्थपिहणं तु, अद्धाणविवित्ताणं-आगाढं सेसऽणागाढं । -बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, 2986, पृ० 843 । २. उम्मग्गेण वि गंतु, ण होति किं सोतवाहिणी सलिला, कालेण फुफुगा वि य, विलीयते हसहसेउणं'। -बृहत्कल्पभाष्य, भाग चतुर्थ, 4147 पृ० 1128 । ३. निशीथ भाष्य, भाग द्वितीय, गाथा, पृ०21 । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ जैन संघ में भिक्षुणियों की शील-सुरक्षा का प्रश्न ३, ५ या ७ की संख्या में ही एक साथ जाने का विधान था। उनकी सुरक्षा के लिए साथ में एक स्थविरा भिक्षणी भी रहती थी। उन्हें उपयुक्त उपाश्रय में ही ठहरने का निर्देश दिया गया था । संदिग्ध चरित्र वाले स्वामी के उपाश्रय में रहना निषिद्ध था। उपाश्रय में भी उन्हें २, ३ या इससे अधिक की संख्या में ठहरने की सलाह दी गयी थी। उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि उपाश्रय में रहते हुए वे परस्पर अपनी रक्षा में तल्लीन रहें। उपयुक्त उपाश्रय न मिलनेपर उन्हें रोष-बैरमाया आदि का त्याग कर, एकाग्र चित्त होकर ध्यान-अध्ययन करते हुए मर्यादापूर्वक रहने का निर्देश दिया गया था । नैतिक नियमों का पालन कठोरता से किया जाता था। उन्हें सांसारिक वस्तुओं के मोह से सर्वथा विरत रहने की सलाह दी गई थी। स्वयं स्नान करना तथा गृहस्थ के बच्चों को नहलाना तथा खिलाना पूर्णतया वर्जित था । सुन्दर दीखने के लिये अपने शरीर को सजाना तथा सुशोभित करना भी सर्वथा निषिद्ध था । भिक्षु-भिक्षुणियों के पारस्परिक सम्बन्धों के अति-विकसित होने से उनमें राग आदि की भावना उत्पन्न हो सकती थी-अतः उनके पारस्परिक सम्बन्धों को यथासम्भव मर्यादित करने का प्रयत्न किया गया था। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म के दोनों सम्प्रदायों में भिक्षुणियों के शील-सुरक्षार्थ अत्यन्त सतर्कता बरती जाती थी। इस सम्बन्ध में परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए अनेक नियमों का निर्माण किया गया था। इन नियमों की प्रकृति से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैन धर्म के आचार्यों ने इस सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन किया था। यही कारण था कि उन्होंने जिन नियमों का सृजन किया था उनमें उनकी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिकता के दर्शन होते हैं। -शोध सहायक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, आई० टी० आई० रोड, वाराणसी। १. मूलाचार, भाग प्रथम 4/194, पृ० 167 । २. "दो तिण्णि वा अज्जाओ बहुगीओ वा संहत्थति"-मूलाचार, भाग प्रथम, 4/191, पृ० 164 । ३. मूलाचार, भाग प्रथम, 41188-पृ०, 162 । ४. “अगृहस्थमिश्रनिलयेऽसन्निपाते विशुद्धसंचारे द्वे तिस्रौ बह्वयो वार्याः अन्योन्यानुकूलाः परस्पराभिरक्षणा भियुक्ता गतरोषवरमायाः सलज्जमर्यादक्रिया अध्ययनपरिवर्तनश्रवणकथनतपोविनयसंयमेषु अनुप्रेक्षासु च तथास्थिता उपयोगयोगयुक्ताश्चाविकारवस्त्रवेषा जल्लमलविलिप्तास्त्यक्तदेहा धर्मकुलकीर्तिदीक्षाप्रतिरूपविशुद्धचर्याः सन्त्यस्तिष्ठन्तीति समुदायार्थः ।" -मूलाचार, भाग प्रथम, 41191-टीका । पृ० 166 । ५. वही , भाग प्रथम, 41193, पृ० 164 । ६. वही, भाग प्रथम 41196, पृ० 168-169 । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० - अरुण प्रताप सिंह १. कप्पसूत्त ( कल्पसूत्रं ) २. बृहत्कल्पभाष्य, ( भद्रबाहु रचित ) ३. कप्पसूत्त ( बृहत्कल्पसूत्र ) ४. गच्छायार पइण्णयं (गच्छाचार) ५. ओघनियुक्ति ( वृत्ति ) ६. निशीथ सूत्र ( विशेष चूणि ) प्रथम भाग द्वितीय भाग तृतीय भाग . ७. मूलाचार ( प्रथम भाग) सन्दर्भ ग्रन्थ -प्राकृत भारती, जयपुर, 1977 । -- भाग तृतीय, जैन आत्मानन्द समा । भावनगर, 1936 । भाग चतुर्थ, जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, 1938 । भाग पंचम, -सम्पादक-मुनि श्री कन्हैयालाल जी कमल, आगम अनुयोग प्रकाशन, बांकलीवास, सांडेराव, राजस्थान, 1977 । -रामजी दास किशोरचन्द्र जैन । मावसा मण्डी, पेप्स, 1951 । -भद्रबाहु कृत, आगमोदय समिति, 1919 । -जिनदासमहत्तर विरचित । सन्मति ज्ञान पीठ-आगरा 1958। , ,, ,, 1957 । " "" , 19581 -वटकराचार्य विरचित, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, गिरगांव, बम्बई, वि० सं० 1 77 । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणि का एक अचचित प्रबन्ध शिवप्रसाद गुप्त नागेन्द्रगच्छीय मेरुतुङ्गाचार्यकृत सुप्रसिद्ध ग्रन्थ प्रबन्धचिन्तामणि ( रचनाकाल वि० सं० १३६२।ई० सन् १३०५ ) के प्रकीर्णक प्रबन्धों में एक है-"गोवर्धननृपप्रबन्ध", उसका सार इस प्रकार है : "चोल देश में गोवर्धन नामक एक राजा राज्य करता था, जो बड़ा ही न्यायप्रिय था। अपनी लोकप्रियता के कारण ही उसने अपने महालय के द्वार पर एक स्वर्णघण्ट लटका दिया था, जिसे बजाकर लोग उसके पास फरियाद लेकर जा सकते थे। एक दिन किसी देव ने राजा की परीक्षा लेनी चाही और उसने गाय का रूप धारण किया। उसके साथ बछड़ा भी था। एक दिन राजा का कुमार राजमार्ग पर रथ हाँकता हुआ चला जा रहा था। रास्ते में एक जगह उक्त गाय का बछड़ा रथ के पहिये के नीचे आ गया और कुचलकर वहीं मर गया। अब गाय रोती हई राजा के द्वार पर पहँची। राजा ने उसकी बात सुनी और न्याय हेतु दूसरे दिन स्वयं सारथी बन कर रथ हाँकने लगा तथा कुमार को पहिये के नीचे डाल दिया। रथ का पहिया कमार के ऊपर से होकर निकल गया, परन्तु वह मरा नहीं। उसी समय देव ने प्रकट होकर राजा की न्यायप्रियता की प्रशंसा की और उसे चिरकाल तक राज्य करने का आशीर्वाद दिया।" यही कथानक पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह' (संपा०—जिनविजयमुनि, प्रति--B. Br. P) में भी पाया जाता है, परन्तु वहाँ राजा का नाम 'यशोवर्म' तथा उसे 'कल्याण कटक' का राजा बतलाया गया है। प्रबन्धचिन्तामणि के अब तक मूल एवं अनुवाद के एक से ज्यादा संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो इस प्रकार हैं -- १. The Prabandha Cintamani Translated from the original Sanskrit By C. H. Tawney, Published by The Asiatic Society of Bengal New Series N. 931 Year A.D. 1899. २. प्रबन्धचिन्तामणि-मूल एवं गुजराती अनुवाद सम्पादक और अनुवादक-दुर्गाशङ्कर शास्त्री प्रकाशक-फार्बस गुजराती सभा, मुम्बई प्रकाशन वर्ष A. D. 1932 । ३. प्रबन्धचिन्तामणि-मूल एवं हिन्दी अनुवाद मूल सम्पादक - जिनविजय मुनि १. पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह सम्पादक जिनविजय मुनि, (सिन्धी जैन ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्क 2) कलकत्ता 1936 "न्याये यशोवर्मनृपप्रबन्ध" पृ० 107-8 । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ शिवप्रसाद गुप्त हिन्दी अनुवादक - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रकाशक - सिन्धी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन, पश्चिम बङ्गाल प्रकाशन वर्ष - प्रबन्धचिन्तामणि (मूल) सिन्धी जैन ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क 1 A. D. 1931 प्रबन्धचिन्तामणि ( हिन्दी अनुवाद) सिन्धी जैन ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्क 3 A D 1940 परन्तु उक्त प्रकीर्णक प्रबन्ध के बारे में किसी भी संस्करण में कोई चर्चा नहीं मिलती । चूँकि मेरुतुङ्ग ने उक्त कथानक को चोल देश से सम्बन्धित बतलाया है, अतः तमिल प्रदेश में ही उसके स्रोत को ढूँढना चाहिए । तमिलनाडु प्रान्त के तंजावूर जिले में तिरुवारुर नामक तीर्थस्थल में एक प्राचीन और महिम्न शिवमन्दिर है, जिसे त्यागराज स्वामी का मन्दिर कहा जाता है ।" इस मन्दिर के बहिप्रकार के गोपुर से ईशान में थोड़ी सी दूरी पर पाषाण खण्डों से उकेरा गया रथ भी है, जिसमें चार पहिये लगे हैं और उसे एक व्यक्ति हांक रहा है । रथ के पहिये के नीचे एक बालक पड़ा हुआ है । मन्दिर के द्वितीय प्राकार के उत्तरी दीवाल में इसी अङ्कन से सम्बन्धित एक कथानक शब्दोत्कीर्ण है, जिसे चोल नरेश विक्रम चोल - (AD 1118-1135) के शासनकाल के पाँचवें वर्ष (A.D. 1122- 23 ) में उत्कीर्ण कराया गया । २ इसी प्रकार का कथानक शिलप्पदिकार ( A. D. 5th - 6th Cen.) और पेरिय पुराण (A.D. 12th Cen.) में भी पाया जाता है । अतः यह माना जा सकता है कि मेरुतुङ्ग द्वारा प्रबन्धचिन्तामणि में उल्लिखित "गोवर्धन नृपप्रबन्ध" का आधार असल में यही कथानक रहा होगा । पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह में इस कथानक को कल्याणी नगरी से सम्बन्धित बताया गया है । यद्यपि यह नगरी भी दक्षिण भारत में ही स्थित है, परन्तु उक्त कथा का स्रोत हमें चोलदेश में प्राप्त हो गया है, अतः यह समझना चाहिए कि उक्त प्रबन्ध के रचनाकार को इस कथा मूल देश को समझने में भ्रान्ति हो गयी होगी। हो सकता है उनके मूल स्रोत में कुछ गड़बड़ी रही हो । १. S. Ponnusamy - Sri Thyugurāja Temple Thirunarur, Madras 1972, p-77. २. South Indian Inscriptions Vol V (ASI New Imperial Series Vol XLIX 1925) No. 456, pp-175-176. ३. श्री के० जी० कृष्णन् (Former Chief Epigraphist, Mysore State) से व्यक्तिगत पत्र व्यवहार से उक्त सूचना प्राप्त हुई है, जिसके लिये लेखक उनका आभारी है । ४. पश्चिमी चालुक्यों की राजधानी, जो कर्णाटक प्रान्त के वर्तमान बीदर जिले में स्थित है । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य रविशंकर मिश्र श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में अनेक गच्छ प्रचलित हैं, जिनमें चौरासी गच्छों की मान्यता बहुत प्राचीन है ।' पाश्चात्य विद्वान् डा० बहूलर ने भी चौरासी गच्छों की मान्यता को स्वीकार किया हैAbout the middle of the tenth century there flourished a Jalna high priest named Uddyotana, with whose pupils the eighty four gachhas Originated. This number is still spoken of by the Jainas, but the lists that have been hitherto published are very discordant." परन्तु वर्तमान में खरतरगच्छ, तपागच्छ, अञ्चलगच्छ आदि गच्छ ही प्रमुख हैं । इन गच्छों अञ्च गच्छ का अपना इतिहास है। इस गच्छ ने न केवल जैन संघ के इतिहास को उज्ज्वल किया है, बल्कि अपनी बौद्धिक प्रखरता एवं ज्ञान- गाम्भीर्यता से भारतीय साहित्य को एक अनुपम देन दी है । इस गच्छ के इतिहास - सङ्कलन में सहायभूत होने वाली विपुल साधन-सामग्री यतस्ततः विनष्टप्राय ही है । मात्र इस गच्छ से सम्बन्धित पट्टावलियाँ एवं प्रशस्तियाँ ही इस गच्छ के इतिहास को उजागर करती हैं । अञ्चलगच्छ के संस्थापक श्री आर्यरक्षितसूरि थे । इनका जन्म संवत् ११३६ में दन्ताणी ग्राम हुआ था। इन्होंने कालीदेवी की उपासना की थी तथा ७० बोलों ( मान्यताओं) का प्रतिपादन कर अपने समुदाय का नाम "विधिपक्ष" रखा था । संवत् १२१३ में इसी विधिपक्ष का दूसरा नाम पड़ा—— अञ्चलगच्छ” ।रे इस अञ्चलगच्छ की स्थापना में पूर्व की पट्टावली निम्नक्रमानुसार प्रस्तुत की गई है - ( १ ) आर्य सुधर्मास्वामी ( आद्य पट्टधर ), ( २ ) आर्य जम्बुस्वामी, ( ३ ) प्रभवस्वामी, ( ४ ) सय्यम्भवस्वामी, ( ५ ) यशोभद्रसूरि, ( ६ ) सम्भूतिविजय, (७) भद्रबाहुस्वामी, (८) स्थूलभद्रस्वामी, ( ९ ) आर्य महागिरि, (१०) आर्य सुहस्ती, ( ११ ) आर्य सुस्थित तथा आर्य सुप्रतिबुद्ध, (१२) इन्द्रदिन्नसूरि, (१३) आर्य दिन्नसूरि, (१४) सिंहगिरिसूरि, (१५) वज्रस्वामीसूरि, ( १६ ) वज्रसेनसूरि, ( १७ ) चन्द्रसूरि, (१८) सामन्तभद्रसूरि, (१९) वृद्धदेवसूरि, (२०) प्रद्योतनसूरि, (२१) मानदेवसूरि, (२२) मानतुंगसूरि, ( २३ ) वीरसूरि, (२४) जयदेवसूरि, (२५) देवानन्दसूरि, (२६) विक्रमसूरि, (२७) नरसिंहसूरि, ( २८ ) समुद्रसूरि, (२९) मानदेवसूरि, (३०) विबुधप्रभसूरि, (३१) जयानन्दसूरि, ( ३२ ) रविप्रभसूरि, ( ३३ ) १. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैनधर्म, पृ० ३०९ । २. J. G. Buhler : The Indian sect of Jainas, P. 77. ३. पं० कल्याणविजयगणि: श्रीपट्टावलीपरागसङ्ग्रह, पृ० २४१ । ४. श्री पार्श्व : अञ्चलगच्छ दिग्दर्शन ( गुजराती ), पृ० ९-१० । १५ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ रविशंकर मिश्र यशोभद्रसूरि, ( ३४ ) विमलचन्द्रसूरि, ( ३५ ) उद्योतनसूरि, ( ३६ ) सर्वदेवसूरि, ( ३७ ) पद्मदेवसूरि, (३८) उदयप्रभसूरि, (३९) प्रभानन्दसूरि, ( ४० ) धर्मचन्द्रसूरि, (४१) सुविनयचन्द्रसूरि, (४२) गुणसमुद्रसूरि, ( ४३ ) विजयप्रभसूरि, (४४) नरचन्द्रसूरि, (४५ ) वीरचन्द्रसूरि, (४६) मुनितिलकसूरि, ( ४७ ) जयसिंहसूरि । ___ जयसिंहसूरि के पश्चात् आर्यरक्षितसूरि हुए। इन्हीं के द्वारा अञ्चलगच्छ की स्थापना हुई। इनके द्वारा स्थापित अञ्चलगच्छ की पट्टावली निम्नानुसार उपलब्ध होती है४८. आर्यरक्षितसूरि : जन्म वि० सं० ११३६, दीक्षा सं० ११४२, गच्छस्थापना सं० ११५९, स्वर्गगमन सं० १२३६ । ४९. जयसिंहसूरि : जन्म सं० ११७९, दीक्षा सं० ११९७, आचार्यपद सं० १२०२, स्वर्ग गमन सं० १२५८ । ५०. धर्मघोषसूरि : जन्म सं० १२०८, दीक्षा सं० १२१६, आचार्यपद सं० १२३४, स्वर्गगमन सं०१२६८। ५१. महेन्द्रसिंहसूरि : जन्म सं० १२२८, दीक्षा सं० १२३७, आचार्यपद सं० १२६३, स्वर्ग गमन सं० १३०९ । ५२. सिंहप्रभसूरि : जन्म सं० १२८३, दीक्षा सं० १२९१, आचार्यपद सं० १३०९, स्वर्गगमन सं० १३१३। ५३. अजितसिंहसूरि : जन्म सं० १२८३, दीक्षा सं० १२९१, आचार्यपद सं० १३१४, स्वर्ग गमन १३३९ । ५४. देवेन्द्रसिंहसूरि : जन्म सं० १२९९, दीक्षा सं० १३०६, आचार्यपद सं० १३२३, स्वर्ग गमन सं० १३७१ । ५५. धर्मप्रभसूरि : जन्म सं० १३३१, दीक्षा सं० १३४१, आचार्यपद सं० १३५९, स्वर्गगमन सं०१३९३। ५६. सिंहतिलकसूरि : जन्म सं० १३४५, दीक्षा सं० १३५२, आचार्यपद सं० १३७१, स्वर्ग गमन सं० १३९५ । ५७. महेन्द्रप्रभसूरि : जन्म सं० १३६३, दीक्षा सं० १३७५, आचार्यपद सं० १३९३, स्वर्ग गमन सं०१४४४ । ५८. मेरुतुङ्गसूरि : जन्म सं० १४०३, दीक्षा सं० १४१०, आचार्यपद सं० १४२६, स्वर्गगमन सं०१४७१ ।। ५९. जयकोतिसूरि : जन्म सं० १४३३, दीक्षा सं० १४४४, आचार्यपद सं० १४६९, स्वर्गगमन सं० १५०० । ६०. जयकेसरीसूरि : जन्म सं० १४७१, दीक्षा सं० १४७५, आचार्यपद सं० १४९४, स्वर्गगमन सं० १५४१ । ६१. सिद्धान्तसागरसूरि : जन्म सं० १५०६, दीक्षा सं० १५१२, आचार्यपद सं० १५४१, स्वर्गगमन सं० १५६० । श्री पार्श्व : अञ्चलगच्छ दिग्दर्शन (गुजराती), पृ० १० । १. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य ६२. भावसागरसूरि : जन्म सं० १५१६, दीक्षा सं० १५२०, आचार्यपद सं० १५६०, स्वर्ग गमन सं० १५८३। ६३. गुणनिधानसूरि : जन्म सं० १५४८, दीक्षा सं० १५५७, आचार्यपद सं० १५८४, स्वर्ग गमन सं० १६०२। ६४. धर्ममूर्तिसूरि : जन्म सं० १५८५, दीक्षा सं० १५९९, आचार्यपद सं० १६०२, स्वर्ग गमन सं० १६७१ । ६५. कल्याणसागरसूरि : जन्म सं० १६३३, दीक्षा सं० १६४२, आचार्यपद सं० १६४९, - स्वर्गगमन सं० १७१८ । ६६. अमरसागरसूरि : जन्म सं० १६६४, दीक्षा सं० १६७५, आचार्यपद सं० १६८४, स्वर्ग गमन सं० १७६२ । ६७. विद्यासागरसूरि : जन्म सं० १७४७, दीक्षा सं० १७५८, आचार्यपद सं० १७६२, स्वर्ग गमन सं० १७९७। ६८. उदयसागरसूरि : जन्म सं० १७६३, दीक्षा सं० १७७७, आचार्यपद सं० १७९७, स्वर्ग गमन सं० १८२६ । ६९. कीर्तिसागरसूरि : जन्म सं० १७९६, दीक्षा सं० १८०९, आचार्यपद सं० १८२६, स्वर्ग गमन सं० १८४३ । ७०. पुण्यसागरसूरि : जन्म सं० १८१७, दीक्षा सं० १८३३, आचार्यपद सं० १८४३, स्वर्ग गमन सं० १८७०। ७१. राजेन्द्रसागरसूरि : इनके जन्मादि के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती। मात्र इतना ही कि इनका जन्म सूरत में तथा स्वर्गगमन सं० १८९२ में माण्डवी में हुआ। ७२. मुक्तिसागरसूरि : जन्म सं० १८५७, दीक्षा सं० १८६७, आचार्यपद सं० १८९२, स्वर्ग गमन सं० १९१३ । ७३. रत्नसागरसूरि : जन्म सं० १८९२, दीक्षा सं० १९०५, आचार्यपद सं० १९१४, स्वर्ग __गमन सं० १९२८ । ७४. विवेकसागरसूरि : जन्म सं० १९११, दीक्षा एवं आचार्यपद सं० १९२८, स्वर्गगमन __ सं० १९४८ । ७५. जिनेन्द्रसागरसूरि : जन्म सं० १९२९, दीक्षा सं० १९३६, आचार्यपद सं० १९४८, स्वर्गगमन सं० २००४ । ७६. गौतमसागसूरि' : जन्म सं० १९२०, दीक्षा सं० १९४०, स्वर्गगमन सं० २००९ । ७७. दानसागरसूरि : जन्म सं० १९४४, दीक्षा सं० १९६६, आचार्यपद सं० २०१२, स्वर्गगमन सं २०१७। ७८. नेमसागरसूरि' : दीक्षा सं० १९८०, स्वर्गगमन सं० २०२२ । ७९. गुणसागरसूरि : जन्म सं० १९६९, दीक्षा सं० १९९३, आचार्यपद सं० २०१२ । १. श्री पार्श्व : अञ्चलगच्छ दिग्दर्शन (गुजराती), पृ० ५९४ । २. वही, पृ० ६०१ । ३. वही, पृ० ६०१ । ४. वही, पृ० ६०५ । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रविशंकर मिश्र वर्तमान में अञ्चलगच्छ की परम्परा विद्यमान है । अञ्चल गच्छ के संक्षिप्त परिचय के पश्चात् हम अपने विवेच्य - बिन्दु की ओर अभिमुख होते हैं । अञ्च गच्छ की इस विस्तृत पट्टावली में आचार्य मेरुतुङ्ग का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है । जैन-संस्कृत-साहित्य के निर्माण में आचार्य मेरुतुङ्गसूरि ने पर्याप्त योगदान दिया है । वैसे जैन साहित्य में मेरुतुङ्ग नामक तीन आचार्य हुए हैं, परन्तु काव्यप्रणेता के रूप में दो मेरुतुङ्ग ही प्रसिद्ध हैं । प्रथम आचार्य मेरुतुङ्गसूरि, जो चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य थे, प्रायः नगेन्द्रगच्छ के आचार्य थे। इन्होंने - प्रबन्धचिन्तामणि नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ वि० सं० १३६१ में पूर्ण किया था । द्वितीय आचार्य मेरुतुङ्गसूरि ही हमारे विवेच्य आचार्य हैं, जो पन्द्रहवीं शताब्दी के तथा अञ्चलगच्छीय आचार्यं महेन्द्रप्रसूरि के शिष्य थे । २ ११६ अञ्चलगच्छीय आचार्यं मेरुतुङ्गसूरि जैन साहित्य - क्षितिज के अत्यन्त प्रभावक आचार्य हुए हैं। इनके जीवन-परिचय सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सामग्री यतस्ततः अभी तक बिखरी हुई है । अतः वास्तविक परिचय न प्राप्त हो सकने के कारण तथा आचार्य द्वारा स्वयं अपने प्रति कुछ भी न लिखने के कारण, आचार्य मेरुतुङ्गसूरि की जीवन रेखा को रेखांकित कर पाना असाध्य तो नहीं, पर दुःसाध्य अवश्यमेव है । उपलब्ध सामग्री के आधार पर यहाँ इनका जीवन-चरित दिया जा रहा हैजन्मस्थान एवं काल : मरुभूमि मारवाड प्रदेश के अन्तर्गत नाणी नामक एक ग्राम में वहोरा वाचारगर एवं उनके भ्राता वहोरा विजयसिंह निवास करते थे । उनमें वहोरा विजयसिंह के वहोरा वयरसिंह नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त विचक्षण बुद्धिवाला एवं धार्मिक था । नालदेवी नामक अत्यन्त शीलवती कन्या से उसका पाणिग्रहण संस्कार हुआ । किञ्चित् कालानन्तर एकदा नालदेवी की महनीय कुक्षि में एक अतीव पुण्यशाली जीव देवलोक से आकर अवतीर्ण हुआ । फलतः उस प्रभावी जीव के प्रभाव से नालदेवी ने स्वप्न में देखा कि सहस्रकिरणपुञ्ज सहित रवि मेरे मुख में प्रविष्ट हो रहा है । तभी चक्रेश्वरी देवी ने तत्काल आकर इस महास्वप्न के प्रभावी फल को नालदेवी से बताया कि तुम्हारी कुक्षि से ज्ञानकिरणयुक्त रवि की भाँति महाप्रतापी, तेजस्वी एवं मुक्तिमार्गप्रकाशक एक पुत्र जन्म-ग्रहण करेगा, जो अपरिग्रहभाव से संयम मार्ग का अनुगमन करता हुआ एक युगप्रधान योगीश्वर होगा । चक्रेश्वरीदेवी के इन वचनों का ध्यानपूर्वक श्रवणकर एवं उसको आदरसम्मान देती हुई, नालदेवी तब से धर्मध्यान में अत्यधिक अनुरक्त हो, अपने गर्भस्थ शिशु का यथाविधि पालन करने लगीं । गर्भस्थ शिशु शनैः-शनैः वृद्धि प्राप्त करता रहा एवं वि० सं० १४०३ में उसने माता नालदेवी के गर्भ से जन्म-ग्रहण किया । वहोरा वयरसिंह के कुल परिवार में हर्षोल्लासपूर्वक खुशी की शहनाईयाँ बज उठीं । हर्षंपूर्ण उत्सव के साथ पुत्र का नाम वस्तिगकुमार " रखा गया । शिशु वस्तिग चन्द्र की १. त्रयोदशस्वब्दशतेषु चैकषष्ट्यधिकेषु क्रमतो गतेषु । वैशाखमासस्य च पूर्णिमायां ग्रन्थः समाप्तिङ्गमितो मितोऽयम् ॥ ५ ॥ - आचार्य मेरुतुङ्गसूरि : प्रबन्धचिन्तामणि, ग्रन्थकारप्रशस्ति । २. (क) श्री पार्श्व : अलगच्छ दिग्दर्शन ( गुजराती ), पृ० १९९ । (ख) आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, प्रस्तावना, पृ० १७ । ३. पट्टावली में नाम नाहुणदेवी है, परन्तु रास व अन्यत्र नालदेवी ही नाम वर्णित है' ४. व्याख्यानपद्धति में पुत्र का नाम वस्तो है, गच्छ की गुर्जर पट्टावली में वस्तपाल नाम दिया गया है । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य ११७ भाँति दिन-प्रतिदिन उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर अग्रसर होता रहा और उसके जीवन में समस्त सद्गुण निवास करने हेतु प्रविष्ट होने लगे । दीक्षा :शिश वस्तिग ने अभी शैशव की किलकारियाँ भरते हए, बाल्यावस्था की दहलीज पर अपने पग रखे ही थे कि उसी बीच नाणी ग्राम में अञ्चलगच्छीय आचार्य महेन्द्रप्रभसूरि का शुभागमन हुआ । आचार्य महेन्द्रप्रभसूरि के सारगर्भित मुक्तिप्रदायी उपदेशों के श्रवण से अतिमुक्तकुमार की तरह सांसारिक सुखोपभोगों के प्रति आसक्ति रहित होकर बालक वस्तिग ने मात्र सात वर्ष की अल्पवय में ही माता-पिता की आज्ञा प्राप्तकर, वि० सं० १४१० में आचार्य श्रीमहेन्द्रप्रभसूरि से दीक्षा ग्रहण कर ली। इस दीक्षा-महोत्सव में वस्तिगकुमार के माता-पिता ने प्रचुर द्रव्यादि का दान एवं उत्सव में अपार धनराशि का व्यय किया। ___ इसी दीक्षा-महोत्सव पर ही आचार्य महेन्द्रप्रभसूरि ने इस नवदीक्षित मुनिकुमार का नाम "मेरुतुङ्ग" रखा। सूरि' पद से अलङ्करण : एक तो बाल्यावस्था, दूसरे मुनि-जीवन-दोनों के एक साथ संयोग के कारण मनि मेरुतज का विद्याध्ययन सचारु रूप से चलता रहा। इस बालमनि को एक के पीछे कर समस्त सिद्धियाँ स्वयमेव प्राप्त होती गयीं। आचार्य महेन्द्रप्रभसरि के सान्निध्य में तत्कालीन शिक्षा-प्रणाली के अनुसार मनि मेरुतङ. अपनी बद्धि-विचक्षणता द्वारा संस्कत, प्राकत तथा इनसे सम्बद्ध विविध विषयों के पारङ्गत विद्वान बन गये । कालक्रम से उनके चरित्र, ज्ञान एवं क्रियाओं का पूर्णतया विकास होता गया और वे शद्ध-संयम का पालन करते हुए अपनी अमतसदश कल्याणमयी वाणी से सदुपदेश व प्रवचन आदि भी देने लगे। इस प्रकार अप्रतिम प्रतिभा से सम्पन्न मुनि मेरुतुङ्ग को-आचार्य पद के हेतु सर्वथा योग्य जानकर-आचार्य श्रीमहेन्द्रप्रभसूरिजी ने संवत् १४२६ में पाटण नामक स्थान में "सूरि" पद से समलङ्कत किया । इस माङ्गलिक अवसर पर सङ्घपति नरपाल नामक श्रेष्ठी ने एक भव्य-महोत्सव आयोजन कर विविध दानादि दिये । तब से मुनि श्रीमेरुतुङ्गसूरि की ख्याति बहुत ही बढ़ गयी। वे मन्त्रप्रभावक बन गये एवं उन्होंने अष्टाङ्गयोग तथा मन्त्राम्नाय आदि में पूर्ण महारत प्राप्त कर ली। वे देशविदेश में यतस्ततः विचरण करते हुए, अपने सदुपदेशों व प्रवचनों द्वारा भव्यजीवों एवं नरेन्द्रादिकों को प्रतिबोध देने लगे। अन्य उपाधियाँ : आचार्य मेरुतुङ्गसूरि से सम्बधित ऐसे अनेकानेक प्रभावी अवदातों (गुणों) का उल्लेख उपलब्ध होता है, जिनके द्वारा उन्होंने अनेकानेक नृपतियों को प्रतिबोधित कर जैनधर्म में दीक्षित किया।' इन्हीं गुणों के कारण आचार्यश्री को "मन्त्रप्रभावक', “महिमानिधि" आदि उपाधियों से भी सम्बोधित किया गया है। शिष्य-परिवार : आचार्य श्रीमेस्तुङ्गसूरि का शिष्य-परिवार भी अतिविशाल था। उन्होंने छः मुनियों को आचार्य, चार मुनियों को उपाध्याय तथा एक साध्वी को महत्तरा के पद पर स्थापित १. दृष्टव्य-लेखक का पी-एच० डी० शोधप्रबन्ध : महाकवि कालिदासकृत मेघदूत और जैनकवि मेस्तुङ्गकृत जैनमेघदूत का साहित्यिक अध्ययन, पृ० ५९-६१ । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ रविशंकर मिश्र किया।' इनमें श्रीजयकोतिसूरि मुख्य पट्टधर थे। इसके अतिरिक्त रत्नशेखरसूरि, माणिक्यनन्दनसूरि माणिक्यशेखररि, महीतिलकसरि आदि अनेक विद्वान् उपाध्याय व मुनि थे । आचार्यश्री के सङ्क में विशाल साध्वी-परिवार भी था। साध्वी श्रीमहिमश्रीजी को आचार्यश्री ने "महत्तरा" पद पर स्थापित किया था। "चक्रेश्वरीभगवती विहित प्रसादाः श्रीमेरुतुङ्गगुरवो नरदेववंद्याः'' ॥ यह उल्लेख स्पष्ट करता है कि आचार्य श्रीमेरुतुङ्गसूरि चक्रेश्वरीदेवी के विशिष्ट कृपापात्र थे । स्वर्गगमन : इस प्रकार आचार्य श्रीमेरुतुङ्गसूरि अनेकानेक ग्रामों एवं नगरों का पाद-विहार करते हुए एवं जन-जन का उपकार करते हुए, अन्त में वि० सं० १४७१ की मार्गशीर्ष पूर्णिमा दिन सोमवार को अपराह्न उत्तराध्ययनसूत्र का श्रवण करते-करते समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हो गये। साहित्य-क्षेत्र में अवदान : आचार्य श्रीमेरुतुङ्गसूरि का साहित्य-क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इनके द्वारा रचित साहित्य, जैनसंस्कृति के लिए तो प्रभावी सिद्ध ही हआ, साथ ही समग्न भारतीय साहित्य में भी अपना मूलभूत स्थान रखता है । आचार्यश्री के ग्रन्थों की संख्या के विषय में विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न ही सम्मतियाँ दी हैं। डा० रामकुमार आचार्य एवं डा० नेमिचन्द्रशास्त्री ने आचार्यश्री के आठ ग्रन्थों का ही उल्लेख किया है। श्री भंवरलाल नाहटा ने आचार्यश्री द्वारा रचित ग्रन्थों की संख्या बारह दी है। मुनि कलाप्रभसागरजी ने आचार्यश्री के ग्रन्थों की संख्या उन्नीस कही है, परन्तु श्रीपार्श्व ने आचार्यश्री के ग्रन्थों की संख्या छत्तीस दी है। उन्होंने "अञ्चलगच्छ दिग्दर्शन" नामक अपने ग्रन्थ में आचार्यश्री के छत्तीस ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय देते हुए उन्हें निम्न क्रम में प्रस्तुत किया है - १. कामदेवचरित्र, २. सम्भवनाथचरित्र, ३. कातन्त्रबालावबोधवृत्ति, ४. आख्यातवृत्ति टिप्पण, ५. जैनमेघदूतम्, ६. षड्दर्शनसमुच्चय, ७. धातुपारायण, ८. बालावबोधव्याकरण, ९. रसाध्यायटीका, १०. सप्ततिभाष्यटीका, ११. लघुशतपदी, १२. शतपदीसारोद्धार, १३. जेसालप्रबन्ध, १४. उपदेशचिन्तामणिवृत्ति, १५. नाभाकनृपकथा, १६. सूरिमन्त्रकल्प, १७. सूरिमन्त्रसारोद्धार, १८. जुरावल्लीपार्श्वनाथस्तव, १९. स्तम्भकपार्श्वनाथप्रबन्ध, २०. नाभिवंश महाकाव्य, १२. यदुवंशसम्भवमहाकाव्य, २२. नेमिदूतमहाकाव्य, २३. कृवृत्ति, २४. चतुष्कवृत्ति, २५. ऋषिमण्डलस्तव, २६. पट्टावली, २७. भावकर्म प्रक्रिया, २८. शतकभाष्य, २९. नमुत्थणंटीका, ३०. सुश्राद्धकथा, ३१. लक्षणशास्त्र, ३२. राजमती-नेमिसम्बन्ध, ३३ वारिविचार, ३४. पद्मावतीकल्प, ३५. अङ्गविद्योद्धार, ३६. कल्पसूत्रवृत्ति । १. श्री पार्श्व : अञ्चलगच्छ दिग्दर्शन ( गुजराती), पृ० २३२ । २. वही, पृ० २३१ । ३. वही, पृ० २०९ । ४. डा० रामकुमार आचार्य : संस्कृत के सन्देश-काव्य, पृ० १९४-१९५ । ५. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री : संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ० ४८३ । ६. मुनि कलाप्रभसागरजी द्वारा सम्पादित : श्री आर्यकल्याण गौतम स्मृति ग्रन्थ, पृ० २६ । ७. वही, पृ० ८८-८९ । ८. श्री पार्श्व : अञ्चलगच्छ दिग्दर्शन ( गुजराती), पृ० २२०-२२३ । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य जैनमेघदूत आचार्य श्रीमेरुतुङ्गसूरि की उपर्युक्त रचनाओं में सर्वप्रमुख व सर्वसशक्त ग्रन्थ हैजैनमेघदूत । यहाँ प्रस्तुत है, इसी ग्रन्थ का संक्षिप्त कथ्यात्मक-विश्लेषण । आचार्यश्री ने जैनमेघदूतकाव्य की यद्यपि स्वतन्त्र रूप से रचना की है, फिर भी यह काव्य विश्व-विश्रुत कालिदासीय मेघदूत से अनुप्रेरित है, इसमें रञ्चमात्र भी सन्देह नहीं है। जैन आगम ग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र' में वर्णित रथनेमि और राजीमती का प्रसङ्ग इस दूतकाव्य की कथा का आदिस्रोत प्रतीत होता है । सम्पूर्ण काव्य चार सर्गों में विभक्त है। काव्य के प्रथम सर्ग में ५०, द्वितीय सर्ग में ४९, तृतीय सर्ग में ५५ और चतुर्थ सर्ग-में ४२ श्लोक हैं, जो मन्दाक्रान्ता वृत्त में निबद्ध हैं। काव्य-नायिका राजीमती मेघ को दूत बनाकर काव्यनायक श्रीनेमि के पास भेजती है, जिसे उसने पति स्वीकार कर लिया है। इसी कारण इस काव्य का नाम मेघदूत हुआ है। परन्तु जैनधर्म के बाईसवें तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथ के जीवनचरित पर आधारित होने के कारण एवं एक जैन विद्वान् द्वारा रचित होने के कारण इस काव्य को "जैनमेघदूत'' कहा गया है। ___ जैनमेघदूत की कथावस्तु जैन धर्म के बाईसवें तीर्थङ्कर, करुणा के जीवन्त प्रतीक भगवान् श्रीनेमिनाथ के जीवन-चरित से सम्बन्धित है। महाभारत काल में इनका प्रादुर्भाव हुआ था। इन्होंने यदुवंश में जन्म-ग्रहणकर अपनी करुणा की परम-पुनीत धारा द्वारा सृष्टि के कण-कण को अभिसिञ्चित किया। श्रीनेमि अन्धकवृष्णि के ज्येष्ठ तनय श्रीसमुद्रविजय के पुत्र एवं राजनीतिधुरन्धर भगवान् श्रीकृष्ण के चचेरे भ्राता थे। जहाँ योगपुरुष श्रीकृष्ण ने समग्र जनमानस को राजनीति की शिक्षा दी, वहाँ करुणा-सिन्धु श्रीनेमि ने प्राणिमात्र पर करुणा की शीतल-रश्मियों की वर्षा की। समुद्रविजय ने अपने पुत्र नेमि का-जो सौन्दर्य एवं पौरुष के अजेय स्वामी थे--विवाह महाराज उग्रसेन की रूपसी एवं विदुषी पुत्री राजीमती (राजुल) से करना निश्चित किया । वैभवप्रदर्शन के उस युग में महाराज समुद्रविजय ने अनेक बारातियों को लेकर पुत्र नेमिनाथ के विवाहार्थ उग्रसेन की नगरी की ओर प्रस्थान किया। बारात जब वधू के नगर 'गिरिनगर' पहुँची, तब वहाँ पर बँधे पशुओं की करुण-चीत्कार ने श्रीनेमि की जिज्ञासा को कई गुना बढ़ा दिया। अत्यन्त उत्सुकतावश जब श्रीनेमि ने पता लगाया, तब उन्हें ज्ञात हुआ कि ये सारे पशु बारात के भोजनार्थ लाये गये हैं। इन सभी पशुओं का वध कर इनके आमिष (मांस) से बारातियों के निमित्त विविध भाँति के व्यञ्जन बनाये जायेंगे। ऐसा ज्ञात होते ही श्रीनेमि के प्राण अत्यधिक मानस-उद्वेलन के कारण काँप उठे और उनकी भावना करुणा की अजस्रधारा में परिवर्तित हो प्रवाहित हो उठी। उस समय ऐसा प्रतीत हुआ जैसे करुणा-सिन्धु में अचानक प्रचण्ड ज्वार प्रादुर्भूत हो उठा हो । उनके करुणापूरित अन्तर्मानस में अनेकानेक प्रश्न आलोडित होने लगे कि जिस विवाह में अपने भोजन के लिए निरोह पशुओं की बलि दी जाती है, फिर भला उसकी अमङ्गलता में सन्देह कैसा ? इसका निदान यह, उन्होंने निश्चय कर लिया कि ऐसे सांसारिक-बन्धन में बंधने की अपेक्षा क्यों न इस निष्करुण-संसार का त्यागकर सर्वश्रेयस्कर मोक्षपद को प्राप्त किया जाये। इस विचार के साथ ही श्रीनेमि इस दुःखमय संसार का त्यागकर तपस्या के सङ्कल्प के साथ वन-कानन की ओर मुड़ गये। १. उत्तराध्ययनसूत्र, २२वाँ अध्ययन । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० रविशंकर मिश्र ___ इधर कल्पना भी नहीं की जा सकती कि उस समय हल्दी-चढ़ी, मेंहदी-रची, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एवं विवाह के हेतु प्रस्तुत वधू के रूप और विवाह की इस अकल्पनीय असफलता ने राजीमती के हृदय-सिन्धु में हाहाकार के कितने चक्रवातों को एक साथ उत्पन्न किया होगा? इसके पूर्व में अपने प्रिय की प्राप्ति के प्रति कितनी सुकोमल-कुमारी-कल्पनाएँ उसने अपने आन्तर-प्रदेश में संजो रखी होंगी ? किन्तु अकस्मात् यह क्या ? वधू का चूंघट-पट उठने से पूर्व ही यह निर्मम पटाक्षेप कैसा ? | परन्तु भारतीय नारी भी अपने आदर्श के प्रति अडिग है, वह जीवन में अपने पति का चयन एक ही बार करती है। इसी आदर्श के अनुरूप राजीमती भी पति-स्वरूप श्रीनेमि को अपने मनमन्दिर में प्रतिष्ठित करती है। श्रीनेमि के विवाह-महोत्सव त्यागकर वन चले जाने की सूचना ने गिरिनगर में तो मानो वज्रपात ही कर दिया था। नगर के सभी माङ्गलिक-अनुष्ठान समाप्त कर दिये गये थे। इधर इस दुःखद समाचार से राजीमती एवं सखियों के करुण-क्रन्दन की चीत्कारें पाषाणहृदयों को भी तरलीभूत कर रही थीं। काव्य की कथावस्तु को सहजतया हृद्गत करने के लिए और आवश्यक सा प्रतीत होने के कारण इतनी पूर्वकथा दी गयी है । आचार्य मेरुतुङ्ग ने प्रस्तुत पूर्वकथा के पश्चात् के अत्यन्त कारुणिक कथास्थल से अपने काव्य को प्रारम्भ कर पूनः श्रीनेमि के जन्म से विवाह-त्याग तक की कथा को अपना विषय बनाया है, जो सर्ग-क्रम से संक्षेपतः प्रस्तुत हैप्रथम सर्ग कथा : काव्य के प्रथम सर्ग में श्रीनेमि की बालक्रीडा तथा पराक्रमलीला वर्णित है । कवि ने काव्य के प्रारम्भ में श्रीनेमि के विवाह-महोत्सव का त्यागकर चिदानन्द सुख-प्राप्ति-हेतु रैवतक पर्वत पर चले जाने का वर्णन किया है। श्रीनेमि द्वारा-विवाह-महोत्सव त्यागकर रैवतक पर चले जाने की सचना से अति क्षुभित एवं कामजित् श्रीनेमि की भावी पत्नी राजीमती को कामदेव ने, यह जानकर कि यह हमारे शत्रु श्रीनेमि की भक्त है, अत्यन्त पीड़ित किया। जिस कारण प्रियविरहिता भोजकन्या (राजीमती) मूच्छित हो गयी। राजीमती की सखियाँ अपने शोक गद्-गद् वचनों एवं लोकप्रसिद्ध चन्दन-ज़ला-वस्त्रादि-प्रभूत शीतोपचार द्वारा उसकी (राजीमती की) चेतना वापस लाती हैं। सचेत होते ही राजीमती हृदय में तीव्रोत्कण्ठा उद्भूत करने वाले मेघ को अपने समक्ष देखकर सोचती है कि उन भगवान् श्रीनेमि ने अपने में आसक्त तथा तुच्छ मुझको किस कारण सर्प की केंचुली की भाँति छोड़ दिया है। इन विचारों में उलझती हुई, नवीन मेघों से सिक्त भूमि की तरह निःश्वासों को छोड़ती हुई तथा मदयुक्त मदन के आवेश के कारण युक्तायुक्त का विचार न करती हुई राजीमती, जिस प्रकार मेघमाला प्रभूत जलवृष्टि करती है, उसी प्रकार अश्रुधारावृष्टि करती हुई, दुःख से अतिदीन होकर उक्त प्रकार ध्यान कर मधुर वाणी में मेघ का सर्वप्रथम स्वागत करती है, फिर उसका गुणगान करती है। १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक १।१ । २. वही, ११२ । ४. वही, १।१०। ३. वही, १७ । ५. वही, १४११-१३ । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य १२१ तत्पश्चात् वह मेघ से श्रोनेमि के चरित्र का विस्तृत वर्णन करती है, जिसके अन्तर्गत वह श्रीनेमि की बालसुलभ क्रीडाओं एवं पराक्रम-लीलाओं का अत्युक्तिपूर्ण वर्णन करती है। द्वितीय सर्ग कथा : द्वितीय सर्ग में वसन्त एवं ग्रीष्म ऋतुओं का वर्णन किया गया है, जिसमें श्रीनेमि की विविध भाँति की वसन्त एवं ग्रीष्म ऋतु की क्रीडाओं का वर्णन हुआ है। वसन्तागमन से वन-उपवनों एवं तडाग-पर्वतों की शोभा अत्यन्त रमणीय व मनोहारी हो गयी थी।' इस प्रकार वसन्त-वर्णन के पश्चात् राजीमती कथा-प्रसङ्ग को पुनः आगे बढ़ाती हुई, श्रीनेमि एवं श्रीकृष्ण की वसन्तक्रीडा का वर्णन करती है। तदनन्तर राजीमती मेघ से श्रीनेमि के साथ श्रीकृष्ण की पत्नियों को वसन्त-क्रीडा का वर्णन करती है। परन्तु वह यह वर्णन कर ही रही थी कि तभी पुष्पित पारिजात से सुशोभित श्रीनेमि के मनोहारी स्वरूप का स्मरण करती हुई पुनः मूच्छित हो गयी। उसकी सखियों चन्दनयुक्त-जलधारा से उसे किसी प्रकार सचेत किया। सचेत होने पर राजीमती अपनी अधूरी कथा को पुनः प्रारम्भ करती हुई, श्रीनेमि व श्रीकृष्ण की वसन्तक्रीडा के पश्चात् ग्रीष्म ऋतु का वर्णन करती है, जो कि मानो स्वामि-सेवाशील भृत्य की भाँति अपने फल का उपहार देने के लिए वहाँ आ पहुँचा था। ग्रीष्म ऋतु-वर्णन के पश्चात् राजीमती श्रीकृष्ण एवं उनकी पत्नियों के साथ श्रीनेमि की लीलोपवन में जल-केलि का वर्णन प्रस्तुत करती है।' तृतीय सर्ग कथा : तृतीय सर्ग में श्रीनेमि के विवाह-महोत्सव एवं गृहत्याग का वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम राजीमती मेघ से, लीलोपवन में जल-केलि कर निकले श्रीनेमि की अप्रतिम शोभा का वर्णन करती है। जलार्द्र वस्त्रों का त्यागकर रुक्मिणी द्वारा प्रदत्त आसन पर बैठने के पश्चात् श्रीकृष्ण की पत्नियाँ, श्रीकृष्ण स्वयं एवं बलदेव आदि सभी श्रीनेमि को पाणिग्रहण हेतु बहुत समझाते हैं। अपने ज्येष्ठ, आदरणीय जनों के वचनों का तिरस्कार व निरादर न करते हुए श्रीनेमि उन सभी अग्रजों की आज्ञा को शिरोधार्य कर लेते हैं।''तब श्रीकृष्ण सहर्ष महाराज उनसेन से राजीमती को श्रीनेमि के साथ पाणिग्रहण हेतु माँगते हैं ।२ श्रीनेमि के विवाह का सुसमाचार ज्ञात होने पर श्रीसमुद्र एवं शिवा अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। पूरे नगर में विवाह-सम्बन्धी तैयारियाँ होने लगीं। विवाह-मण्डप नानाभाँति सजाया गया। दिनरात मधुर वाद्य-यन्त्र एवं यदुस्त्रियों के अविश्रान्त स्वर गुञ्जरित हो उठे ।' ३ वर-वधू दोनों ही पक्षों १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक २।२-११ । २. वही, २०१२-१७ । ३. वही, २०१८-२२ । ४. वही, २।२४। ५. वही, २।२५ । ६. वही, २।२९ । ७. वही, २॥३०-३५ । ८. वही, २॥३६-४९ । ९. वही, ३।१-२ । १०. वही, ३।३-२० । ११. वही, ३१२१ । १२. वही, ३।२३। १३. वही, ३।२४-२८ । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ रविशंकर मिश्र में पधारे अतिथियों का यथाविधि स्वागत-सत्कार हो रहा था । तत्पश्चात् श्रीनेमि मतवाले राजवाह्य ( वह राजकीय हाथी, जिस पर राजा विशेष अवसर पर आरूढ़ होता है) पर आरूढ़ होकर अपने सभी सम्बन्धी बन्धु-परिजन के साथ विवाह हेतु चल पड़े। विवाह हेतु सुसज्जित श्रीनेमि की शोभा देखने हेतु पुरवासी अत्यन्त व्यग्र से थे ।' इस प्रकार विवाह-हेतु आ रहे श्रीनेमि का वर्णन करती हुई राजीमती मेघ से आगे कहती है कि नान्दीरव को सुनते ही पाणिग्रहण योग्य वेष धारण की हुई मैं, उन श्रीनेमि को देखने के लिए अति व्याकुल हो उठी। तभी सखियों के–'पेञ्जूषेषु स्वविषयसुखं भेजिवत्सूत्सुकायामायान्त्यस्मै सखि ! सुखयितुं किं न चक्षूषि युक्तम् ?' ( कर्णों के अपने विषय-सख (शब्द) को प्राप्त कर लेने पर अपने विषयसुख (दर्शन) के लिए उत्सुक होनेवाली आँखों को सुख देना क्या उचित नहीं है ?)--इस वचन का बहुमान करती हुई मैं गवाक्ष पर चढ़ गयी। उन आयुष्मान् के दर्शन होते ही मुझमें मोह का इतना महासमुद्र उमड़ा कि उस समुद्र की तरङ्गमाला से चञ्चलचित्तवाली तथा जड़ीभूत सी होकर मैं क्षण भर- "मैं कौन हूँ? वह कौन है ? मैं क्या कर रही हूँ ?' आदि कुछ भी न जान सकी। अभी राजीमती इसी उहापोह में थी कि तभी उसके दाहिने नेत्र ने फड़क कर भाग्याभाव के कारण उसके मनोरथरूपी कमलसमूहों को सकुचित बना दिया। इस घटना से घबरायी उसकी सखियाँ, उसे जब तक समझा सकें, तब तक भगवान् श्रीनेमि ने पशुओं के करुण-आर्तनाद को सुन लिया । महावत से पूछने पर प्रभु को ज्ञात हुआ कि इन पशुओं के आमिष से विवाह-भोज का शोभा-सम्भार बढ़ाया जायेगा और तब महावत ने-यह निश्चय कर कि इन निरीह पशुओं को छुड़ाकर मैं दीक्षा प्राप्त कर लूंगा-बन्धमोक्षसमर्थ प्रभु को उस पशु-समूह के पास पहुँचा भी दिया । श्रीनेमि ने दीनता से ऊपर देखते हए एवं मजबत बँधे हए उन नभचर, पुरचर एवं वनचर प्राणियों को छडवा दिया और अपने हाथी को घर के सामने ले आये। वाष्पपरित नेत्रों से देखते हए श्रीनेमि के माता-पिता, श्रीकृष्ण आदि चिरभिलषित महोत्सव से निवृत्त श्रीनेमि से इस त्याग का कारण पूछने लगे। भूरि-भूरि आग्रह करने पर श्रीनेमि ने सभी को यह कहकर निवारित किया कि "इस तपस्या (दीक्षा) के बिना कोई भी स्त्री निश्चित ही बाधाओं को दूर नहीं सकती, जिसका फल सदैव सुखकारी हो। सज्जनों का वही कार्य श्लाघ्य होता है। मैं कर्मपाश में बँधे हुए प्राणियों को इन्हीं पशुओं के समान ही मुक्त करूँगा।" ते ही कि "श्रीनेमि व्रत हो ग्रहण करेंगे" यादवगण पथ्वी-आकाश को भी रुलाते हुए रोने लगे। यादवगण अभी रो ही रहे थे कि श्रीनेमि ने डिण्डिमघोष के साथ अपने भवन पहँच कर वार्षिक-दान प्रारम्भ कर दिया।" राजीमती मेघ से आगे कहती है कि अपने प्राणेश्वर के विवाह-भूमि से- वापस लौट जाने के समाचार से उत्पीडित मैं वल्लरी की भाँति गिर पड़ी और उस समय उत्पन्न दुःखरूपी ज्वार-भार यह ज्ञा १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक ३।३५ । २. वही, ३।३७ । ३. वही, ३।३९ । ४. वही, ३।४० । ५. वही, ३।४१ । ६. वही, ३४३ । ७. वही, ३।४४ । ८. वही, २।४५-४७ । ९. वही, ३।४८ । १०. वही, ३।४९ । ११. वही, ३१५०। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य १२३ वाली मैंने मूर्च्छा समुद्र में डूबकर सुख सा अनुभूत किया। यह कहती हुई वह मेघ से यह समुद्र में डूबने से अत्यधिक कम्पनयुक्त कोई ताप ही शायद मुझे उत्पन्न हुआ है, जिस कारण मैं ऐसा अनर्गल प्रलाप कर रही हूँ ।" अभी वह फिर आगे कुछ कहती कि इसके पूर्व ही उसी समय सखियों की यह वाणी - "हे सखि ! यदि वह अग्नि तथा पूज्यजनों के समक्ष विवाह करके फिर तुम्हें छोड़ते, तब तो नाव को समुद्र में छोड़कर डुबा ही देते, अभी तो अधिक गुणवान् कोई अन्य राजपुत्र तुम्हारा विवाह कर ही लेगा " - उसे जले पर नमक के समान लगी । परन्तु भारतीय नारी के एक-पतित्व के आदर्श का पालन करने वाली राजीमती ने योगिनी की भाँति उन प्रभु के ध्यान में ही सारा जीवन काट डालने की अपनी उन सखियों के समक्ष हो प्रतिज्ञा कर ली । वह मेघ से आगे कहती है कि यद्यपि अखिल विश्वपूज्य मेरे पति वे श्रीनेमि इस विवाहोत्सव को त्यागकर उसी भांति इसे असमाप्त छोड़कर चले गये हैं, जैसे तुम धारावृष्टि को छोड़कर चले जाते हो, परन्तु फिर भी मैं गृहस्थावस्था तक उनकी उसी प्रकार अपने हृदय में आशा लगाये रहूँगी, जैसे पुनः वर्षा नक्षत्र आने तक प्रजा तुम्हारी आशा लगाये रहती है । चतुर्थ सर्ग कथा : चतुर्थ सर्ग में मुख्य रूप से विरहविवशा राजीमती द्वारा पतिविरहिता स्त्री की दशाओं का सूक्ष्म वर्णन प्रस्तुत किया गया है । सर्वप्रथम राजीमती श्रीनेमि के दान की महिमा व प्रशंसा करती है ।" तत्पश्चात् एक वर्ष पूर्ण होने पर शरद ऋतु में सर्वाङ्गविभूषित श्रीनेमि को राजीमती ने गवाक्ष से वनकानन जाते हुए इस प्रकार देखा जैसे कमलिनी जल से जानेवाले रवि को देखती है । अपने प्रभु श्रीनेमि को अपने सामने ही वन जाते देख राजीमती प्रबल व विषम विरह पीडा से मूच्छित हो हो रही थी कि सखियों ने शीतोपचार द्वारा उसे सचेत किया । तदनन्तर "अब मैं उनके द्वारा कीचड़ से गीले व गन्दे हुए वस्त्र की भाँति त्याग दी गयी हूँ" इस विचार से अपार शोकपूरित हो, वह शोकजलपूर्ण- कुम्भ की भाँति हो गयी । ७ अपने स्वामी के जगज्जीवातु दर्शनों के पान से पुष्ट और अब उच्छ्वास व्याज से राजोमती का धूमायमान हृदय चूने को तरह फूट-फूट कर चूर्णित हो रहा था ।" वह अपनी विरहपूर्ण दोनावस्था का मार्मिक वर्णन करती हुई', मेघ से अपने हर्षवर्धक उन श्रेष्ठ मुनीन्द्र के पास अपना सन्देश पहुँचाने का अनुरोध करती है ।" वह कहती है कि जब भगवान् श्रीनेमि रामजन्य सुखरस के पान से चिदानन्दपूर्ण हो, कुछ-कुछ आँखें खोलें, तब तुम उनके चरणों में भ्रमरलीला करते हुए प्रियम्वद व अखिन्न होकर, मृदुवचनों से सन्देश कहना कि जो निष्पापा मैं ईश-द्वारा पहले स्वीकार कर ली १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक ३१५१-५२ । ३. वही, ३।५४ । ५. वही, ४।१ २ । ७. वही, ४।६ । ९. वही, ४।८-१० । ११. वही, ४।१३ । २. वही, ३।५३ । ४. वही, ३।५५ । ६. वही, '४।३-४ | ८. वही, ४।७ । १०. वही, ४।११ । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ रविशंकर मिश्र जाकर स्त्रियों की मुकुटायित बना दी गयी थी, आज वही राजोमती आप द्वारा दूर हटायी जाने पर शोकरूपी क्षार-समुद्र से सङ्गत होने से दुःखो चित्तवाली होकर आप से निवेदन करती है ।' अन्त में वह अपने स्वामी श्रीनेमि के प्रति अपना विस्तृत सन्देश बतलाती है। अपने उस सुदीर्घ सन्देश में राजीमती श्रीनेमि से ज्यादा जवाब-तलब ही करती है, अपने हृदय का उद्घाटन कम । कवि ने यहाँ पर राजीमती की विरह-व्यथा को अत्युत्तम ढङ्ग से व्यञ्जनापूर्ण शैली में अभिव्यजित किया है। राजीमती की सखियाँ, उसकी विरह-वेदना तथा उसका इस प्रकार का सन्देश-कथन देखकर, उसे बहुत समझाती हैं तथा इसमें सारा दोष मोह का ही बतलाती हैं। सखियाँ इस महामोह को बोधरूपी शस्त्र से नष्ट कर डालने का परामर्श राजीमती को देती हैं और प्रभु श्रीनेमि की विशेषताओं का वर्णन करती हुई राजीमती को समझाती हैं कि "हे बुद्धिमति ! उस वरवणिनी को, रङ्गरहित पाषाणखण्डों को रङ्गीन बनाते हुए देखकर यह न विश्वास कर लो कि मैं भी तो वरवर्णिनो हूँ, अतः मैं भी भगवान् श्रीनेमि को रागरञ्जित कर लूँगी, क्योंकि वह पाषाण तो नाम से चूर्ण है, परन्तु ये भगवान् श्रीनेमि वह अकृत्रिम हीरा हैं, जिसे अधिक चटकीले रङ्गों से भी नहीं रङ्गा जा सकता है।"६ राजीमती सखियों के उक्त वचनों को सुनकर अपने शोक का परित्याग कर देती है और अपने पति के ध्यान से सावधान बुद्धिवाली वह तन्मयत्व ( स्वामिमयत्व ) प्राप्तकर, केवलज्ञान-प्राप्त अपने प्रभु श्रीनेमि की शरण में जाकर, व्रतग्रहण करके स्वामी के ध्यान से स्वामी की ही तरह रागद्वेषादिरहित होकर, स्वामी के प्रभाव से गिने हुए कुछ ही दिनों में परम आनन्द के सर्वस्व मोक्ष का वरण कर, अनुपम तथा अव्यय सौख्य-लक्ष्मी को प्राप्त कर, शाश्वत-सुख का उपभोग करती है। इस प्रकार आचार्य श्रीमरुतुङ्गसूरि ने अपने इस सन्देशपरक काव्य में निश्चयमेव पाठकों के समक्ष एक ऐसा अति गूढ़ विशिष्ट सन्देश दिया है, जिसमें त्याग-प्रधान जीवन के प्रति एक दिव्य ज्योति प्रकाशित मिलती है। शृङ्गारपरक इस काव्य का शान्त रस में पर्यवसान कर तथा श्रीनेमि जैसे महापुरुष को इस काव्य का नायक बनाकर आचार्य मेरुतुङ्ग ने पाठकों के सम्मुख शान्तरस का जैसा आदर्श प्रस्तुत किया है, वैसे आदर्शपूर्ण सत्साहित्य से ही संसार में विश्वप्रेम की भावना उद्भूत हो सकती है। यह शान्त रस ही तृष्णाओं का क्षय करता है, मनुष्य को मानव-धर्म की स्मृति कराता है और मानव-हृदय में "सर्वे भवन्तु सुखिनः" की भावना उद्भूत करता है। - शोध सहायक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान ____ आई० टी० आई० रोड, वाराणसी-५ १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक ४।१४ । २. वही, ४१५-३६ । ३. वही, ४१३८। ४. वही, ४।३९ । ५. वही, ४१४०। ६. वही, ४१४१ । ७. वही, ४।४२। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची १. जैन धर्म -- पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ; प्रकाशक - भारतीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा (उ. प्र. ); पञ्चम संस्करण; सन् १९७५ । २. अञ्चलगच्छ दिग्दर्शन – श्रीपार्श्व प्रकाशक - श्री मुमुक्षु अञ्चलगच्छ जैन समाज, गोविन्द कुञ्ज, नेहरू रोड, मुलुण्ड, बम्बई- ८० प्रथम संस्करण; सन् १९६८ । ३. श्रीपट्टावलीप रागसङ्ग्रह - पं० कल्याणविजयगणि; प्रकाशक - श्री० क० वि० शास्त्रसङ्ग्रह समिति, मुनिलाल जी थानमल जी, श्रीजालोर (राज० ); प्रथम संस्करण; सन् १९६६ । ५. जैनमेघदूतम् - आचार्य मेरुतुङ्ग; सम्पादक - श्रीचतुरविजयमुनि प्रकाशक - भावनगर; प्रथम संस्करण; सन् १९२४ । १२५ ४. प्रबन्धचिन्तामणि – आचार्य मेरुतुङ्ग ( प्रथम ) ; प्रकाशक - सिन्धी जैन ज्ञानपीठ, शान्ति निकेतन ( बङ्गाल); प्रथम संस्करण; सन् १९३३ । शा० ६. महाकवि कालिदासकृत मेघदूत और जैनकवि मेरुतुङ्गकृत जैनमेघदूत का साहित्यिक अध्ययन - लेखक का पी-एच० डी० शोध-प्रबन्ध; उपलब्ध - पा० वि० शोध संस्थान, वाराणसी - ५ । जैन आत्मानन्द सभा, ७. संस्कृत के सन्देश - काव्य - डा० रामकुमार आचार्य प्रकाशक - डा० रामकुमार आचार्य, संस्कृत विभाग, ; राजकीय कालेज, अजमेर; प्रथम संस्करण; सन् १९६३ । ८. संस्कृत काव्य के विकास में जैनकवियों का योगदान - डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ; प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, ३६२०।२१ नेताजी सुभाष मार्ग, दिल्ली- ६; प्रथम संस्करण; सन् १९७१ ९. श्री आर्य कल्याण गौतम स्मृति ग्रन्थ - (सम्पादक) मुनि श्रीकलाप्रभसागर जी, बम्बई । १०. The Indian Sect of the Jainas -- J. G. Buhler; Publisher — Luzac of Co, 46, Great Russell Street, London; 1903. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मशान्ति यक्ष मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी जैन परम्परा में २४ जिनों ( या तीर्थङ्करों ) के शासन देवताओं के रूप में २४ यक्ष-यक्षी युगलों का निरूपण हुआ है । जैन देवकुल में जिनों के पश्चात् उनसे सम्बद्ध यक्ष-यक्षी युगलों को सर्वाधिक प्रतिष्ठा मिली । २४ यक्ष-यक्षी युगलों के अतिरिक्त जैन परम्परा में कुछ अन्य यक्ष भी लोकप्रिय रहे हैं, जिनमें ब्रह्मशान्ति का महत्त्व सर्वाधिक है । ब्रह्मशान्ति यक्ष के प्राचीनतम उल्लेख ल० ९वीं - १०वीं शती ई० के श्वेताम्बर ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । दिगम्बर परम्परा में ब्रह्मशान्ति यक्ष का उल्लेख नहीं है, इसी कारण दिगम्बर सम्प्रदाय में उनकी मूर्तियाँ भी नहीं बनीं श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में १० वें जिन शीतलनाथ के चतुर्मुख तथा पद्म पर आसीन और आठ या दस भुजाओं वाले ब्रह्म यक्ष का उल्लेख हुआ है, पर लाक्षणिक विशेषताओं की दृष्टि से ब्रह्म यक्ष ब्रह्मशान्ति से सर्वथा भिन्न है । दक्षिण भारत के दिगम्बर सम्प्रदाय में भी ब्रह्मदेव स्तम्भ तथा ब्रह्मक्ष की परम्परा है, किन्तु स्वरूप की दृष्टि से ब्रह्मदेव ब्रह्मशान्ति से पूरी तरह अलग है ।" ब्रह्मशान्ति यक्ष की उत्पत्ति, उसके पूर्वभव एवं प्रतिमालक्षणों की चर्चा उमाकान्त शाह ने " ब्रह्मशान्ति यक्ष" शीर्षक लेख में विस्तार से की है । । ब्रह्मशान्ति यक्ष के पूर्वभव की कथा सर्वप्रथम जिनप्रभसूरिकृत कल्पप्रदीप ( १४ वीं शती ई०) के "सत्यपुरतीर्थकल्प" में दी गई है ।" ग्रन्थ के अनुसार ब्रह्मशान्ति यक्ष (बंभसंतिजक्ख) पूर्वभव में शूलपाणि यक्ष था, जिसने महावीर की तपस्या में अनेक प्रकार के कठिन उपसर्ग उपस्थित किये थे । उपसर्ग का कोई असर न होने के बाद शूलपाणि यक्ष महावीर का भक्त बन गया और उसी समय से उसे ब्रह्मशान्ति यक्ष कहा जाने लगा । प्रारम्भिक ग्रन्थों में शूलपाणि यक्ष के कई उल्लेख प्राप्त होते हैं, किन्तु उनमें कहीं भी उसका ब्रह्मशान्ति यक्ष से सम्बन्ध नहीं बताया गया । इस आधार पर उमाकान्त शाह ने जो माना है कि जिनप्रभसूरि ने शूलपाणि और ब्रह्मशान्ति यक्षों की दो अलगअलग परम्पराओं को मिला दिया था, यह उचित ही है । उपलब्ध प्रमाणों से ब्रह्मशान्ति यक्ष की परम्परा को ९वीं - १०वीं शती ई० के पूर्व नहीं ले जाया जा सकता है । ब्रह्मशान्ति यक्ष का निरूपण सबसे पहले निर्वाण कलिका ( पादलिप्तसूरि III कृत, ल० ९०० ई०) एवं स्तुतिचतुर्विंशतिका (शोभनमुनिकृत, ल० ९७३ ई०) में हुआ है । जिनप्रभसूरि के अनुसार वि० संवत् १०८१ ( = ई० १०२४ ) में सत्यपुर ( सच्चउर - साचौर, राजस्थान) में १. द्रष्टव्य, शाह, यू०पी०, "ब्रह्मशान्ति ऐण्ड कपर्दी यक्षज,” जर्नल आफ एम० एस० युनिर्वासटी ऑव बड़ौवा, खं० ७, अं० १ मार्च १९५८, पृ० ६३-६५ । २. वही, पृ० ५९-६५ ॥ ३. विविधतीर्णकल्प, ( जिनप्रभसूरिकृत ), सम्पा० जिनविजय, भाग १, सिंधी जैन ग्रन्थमाला - १०, शान्तिनिकेतन ( बङ्गाल ), १९३४, पृ० २८-३० ॥ ४. शाह, यू०पी०, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० ६२-६३ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मशान्ति यक्ष १२७ ब्रह्मशान्ति यक्ष विद्यमान थे।' पाल्हणपुत्र के आबुरास (सं० १२८९ = ई० १२३३) में भी मोढेरा (महेसाणा, उ० गुजरात) में ब्रह्मशान्ति यक्ष के पूजन का उल्लेख है। घाणेराव (पाली, राजस्थान) के महावीर मन्दिर (१० वीं शती ई०), कुम्भारिया (बनासकांठा, गुजरात) के महावीर और शान्तिनाथ मन्दिरों (११वीं शती ई०), सेवाणी (पाली, राजस्थान) के महावीर मन्दिर (११ वीं शती ई०), देलवाड़ा (सिरोही, राजस्थान) के विमलवसही (रङ्गमण्डप-भ्रमिका-१२वीं शती उत्तरार्ध ई०) और लूणवसही (१२३१ ई०) एवं ओसियां (जोधपुर, राजस्थान) की पूर्वी जैन देवकुलिका (११ वीं शती ई०) की ब्रह्मशान्ति यक्ष की मूर्तियाँ भी १०वीं से १३वीं शती ई० के मध्य श्वेताम्बर स्थलों पर ब्रह्मशान्ति की लोकप्रियता की साक्षी हैं। .. निर्वाणकलिका में जटामुकुट, पादुका एवं उपवीत से शोभित, बड़े एवं तीक्ष्ण दांतों तथा भयङ्कर दर्शन वाले ब्रह्मशान्ति को चतुर्भुज कहा गया है। भद्रासन पर विराजमान यक्ष के दक्षिण करों में अक्षमाला और दण्ड तथा वाम हस्तों में छत्र और कमण्डलु दरशाया गया है। शोभनमुनि की स्तुति-चतुविशतिका में भी ब्रह्मशान्ति का चतुर्भुज स्वरूप ही विवेचित है । यक्ष के करों के आयुध निर्वाणकलिका के ही समान हैं ।३।। घाणेराव के महावीर मन्दिर की चतुर्भुज मूर्ति (दक्षिण का वेदिबन्ध) ब्रह्मशान्ति यक्ष की ज्ञात मूर्तियों में प्राचीनतम है। यक्ष के हाथों में वरदाक्ष, चक्राकार पद्म, छत्र और जलपात्र हैं। किश्चित् घटोदर एवं श्मश्रु और जटामुकुट से युक्त ब्रह्मशान्ति ललितमुद्रा में पद्म पर आसीन हैं। ओसियां के महावीर मन्दिर के समीप की पूर्वी जैन देवकुलिका (दक्षिण का वेदिबन्ध) पर भी चतुर्भुज ब्रह्मशान्ति को मूर्ति है (चित्र १)। श्मश्रु और जटाजूट से शोभित तथा किश्चित् घटोदर १. विविधतीर्थ कल्प, पृ० २९, लाइन २१-२३ । २. ब्रह्मशान्ति पिंगवर्ण दंष्ट्राकरालं जटामुकुटमण्डित पादुकारूढं भद्रासनस्थितमुपवीतालंकृतस्कन्धं चतुर्भुजं अक्षसूत्रदण्डकान्वितदक्षिणपाणि कुण्डिकाछत्रालंकृतवामपाणिं चेति ॥ -निर्वाणकलिका २१.१। ( सम्पा० मोहनलाल भगवानदास, मुनि श्रीमोहनलालजी जैन ग्रन्थमाला ५, बम्बई, १९२६, पृ० ३८) ३. दण्डच्छत्रकमण्डलूनि कलयन् स ब्रह्मशान्तिः क्रियात् सन्त्यज्यानि शमी क्षणेन शमिनो मक्ताक्षमाली हितम् ॥ तप्ताष्टापदपिण्डपिंगलरुचिर्योऽधारयन्मढतां संत्यज्यानिशमीक्षणेन शमिनो मुक्ताक्षमालीहितम् ।। -स्तुतिचतुर्विशतिका १६. ४ । ( सम्पा० एच० आर० कापडिया, बम्बई, १९२७ ). ४. इस लेख में यक्ष के हाथों के आयुधों की गणना निचले दाहिने हाथ से प्रारम्भ करके घड़ी की सूई की गति के क्रम में की गयी है। ५. द्रष्टव्य, ढाकी, एम० ए०, “सम अर्ली जैन टेम्पल्स् इन वेस्टर्न इण्डिया", श्री महावीर जैन विद्यालय गोल्डेन जुबिली वाल्यूम, बम्बई, १९६८, पृ० ३३२ । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी ब्रह्मशान्ति ललितमुद्रा में भद्रासन पर विराजमान हैं। आसन के समीप हंसवाहन उत्कोणं है । उनके करों में वरमुद्रा, स्रुक, पुस्तक एवं जलपात्र हैं।' ब्रह्मशान्ति की सर्वाधिक मूर्तियाँ कुम्भारिया और देलवाड़ा के जैन मन्दिरों में हैं । ब्रह्मशान्ति के साथ हंस और गजवाहनों के अङ्कन के प्रथम दृष्टान्त इन्हीं स्थलों पर मिलते हैं। कुम्भारिया के महावीर और शान्तिनाथ मन्दिरों (नवचौकी एवं भ्रमिका वितान ) में कुल पांच मूर्तियाँ हैं । ब्रह्मशान्ति के निरूपण में स्वरूपगत विविधता इसी स्थल पर दृष्टिगत होती है। सभी उदाहरणों में ब्रह्मशान्ति कुम्भोदर और चतुर्भुज तथा ललितमुद्रा में स्थित एवं दाढ़ी और मूंछों से युक्त हैं। एक अपवाद के सिवाय वाहन के रूप में यहाँ हमेशा गज का अङ्कन हुआ है। महावीर मन्दिर की पश्चिमी भ्रमिका के एक वितान पर अङ्कित ऋषभनाथ के जीवनदृश्यों में गोमुख यक्ष और अम्बिका यक्षी के साथ ब्रह्मशान्ति भी उत्कीर्ण है (चित्र २)। भद्रासन पर विराजमान ब्रह्मशान्ति के आसन के समक्ष हंस तथा करों में वरमुद्रा, पद्म, पुस्तक एवं जलपात्र हैं। अन्य चार उदाहरणों में करण्ड-मुकुट, छन्नवीर, उपवीत आदि से मण्डित यक्ष के हाथों में वरद् (या वरदाक्ष), छत्र, पुस्तक और जलपात्र (या फल) हैं ( चित्र ३)। शान्तिनाथ मन्दिर को पश्चिमी भ्रमिका के वितान की मूर्ति में पुस्तक ऊर्ध्व दक्षिण कर में है और वाम करों में छत्र और पद्म प्रदर्शित हैं।' विमलवसही में ब्रह्मशान्ति की तीन मूर्तियाँ हैं। इनमें यक्ष चतुर्भुज और षड्भुज हैं। चतुर्भुज मूर्तियाँ देवकुलिका ५४ के समक्ष की भ्रमिका तथा नवचौकी के वितानों पर उत्कीर्ण हैं। पहले उदाहरण में ब्रह्मशान्ति की मूर्ति सुपार्श्वनाथ की मूर्ति के ऊपर अङ्कित है। घटोदर और श्मश्रुयुक्त ब्रह्मशान्ति यहां ललितासन में हैं और उनके करों में वरद्, पद्म, पुस्तक और जलपात्र हैं। भद्रासन पर विराजमान यक्ष के पावों में दो चामरधारिणियों का भी अङ्कन हुआ है। दूसरी मूर्ति में भी यक्ष भद्रासन पर ललितमुद्रा में आसीन हैं और उनके हाथों में अक्षमाला, पुस्तक, छत्र और १. महावीर मन्दिर ( ८वीं शती ई० ) के गूढ़मण्डप पर दो ऐसी द्विभुज स्थानक मूर्तियाँ है, जिनकी ठिगनी शरीर रचना तथा उनका घटोदर एवं यज्ञोपवीत से युक्त होना, उनके ब्रह्मशान्ति यक्ष होने की सम्भावना व्यक्त करता है। इन मूर्तियों के करों में जलपात्र और पुस्तक प्रदर्शित है। २. शान्तिनाथ मन्दिर की भ्रमिका एवं नवचौकी के वितानों, और नवचौकी की पीठ पर यक्ष की तीन. तथा महावीर मन्दिर के पूर्व और पश्चिम की भ्रमिका के वितानों पर दो मतियाँ हैं। ३. शान्तिनाथ मन्दिर की पश्चिमी भ्रमिका के एक वितान की मूर्ति में ब्रह्मशान्ति महावीर के जीवनदृश्यों के मध्य उत्कीर्ण हैं । यहाँ ब्रह्मशान्ति के साथ यक्षी भी आमूर्तित है । सम्भव है यह महावीर के यक्ष-यक्षी का अङ्कन हो। महावीर के पारम्परिक यक्ष ( मातङ ग ) के स्थान पर यहाँ ब्रह्मशान्ति का अङ्कन स्वतन्त्र यक्ष के साथ ही ब्रह्मशान्ति की महावीर के यक्ष के रूप में कुम्भारिया में निरूपण की परम्परा को भी स्पष्ट करता है। ४. सादरी स्थित पार्श्वनाथ (पूर्वी शिखर ) और नाड्लाई स्थित शान्तिनाथ (पूर्वी वेदिबन्ध ) मन्दिरों ( पाली, राजस्थान, ११वीं शती ई०) की दो चतुर्भुज मूर्तियों की सम्भावित पहचान भी ब्रह्मशान्ति से की जा सकती है । यक्ष के हाथों में वरमुद्रा, छत्र ( या पद्म ), पद्म और जलपात्र प्रदर्शित हुए हैं । इन मूर्तियों में वाहन का अङ्कन नहीं हुआ है । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मशान्ति यक्ष १२९ जलपात्र हैं। दोनों ही उदाहरणों में वाहन नहीं हैं। तीसरी मूर्ति रङ्गमण्डप से लगे वायव्य वितान पर उत्कीर्ण है ( चित्र ४) । षड्भुज ब्रह्मशान्ति यहाँ त्रिभङ्ग में हैं। सुदीर्घ माला, हार, कुण्डल, यज्ञोपवीत एवं करण्डमुकुट से आभूषित, लम्बी दाढ़ी और मूंछोंवाले ब्रह्मशान्ति के वाम पाश्व में हंस भी उत्कीर्ण है। यक्ष के दो हाथ वरद् और अभय में हैं और शेष में छत्र, पद्म, पुस्तक और जलपात्र धारण किया है। किञ्चित् बृहद्जठर यक्ष के दक्षिण और वाम पार्यों में आराधकों की स्थानक मूर्तियाँ निरूपित हैं। इन आराधकों के एक हाथ जयमुद्रा में ऊपर उठे हैं । इन आकृतियों के समीप दो चामरधारिणी बनी हैं। इनके दक्षिण और वाम पाश्वों में क्रमशः ५ और ४ अन्य आकृतियाँ भी उकेरी हैं, जो सम्भवतः-सेवकों की आकृतियाँ हैं। मूर्ति के दोनों छोरों पर हंस की पुनः दो मूर्तियाँ बनी हैं । इस प्रकार विमलवसही में ब्रह्मशान्ति के साथ हंस केवल एक उदाहरण में ही आकारित किया गया है, किन्तु करों में छत्र, पद्म एवं पुस्तक की उपस्थिति तथा यक्ष के श्मश्रुयुक्त और किञ्चित् घटोदर होने में एकरूपता है। लूणवसही में ब्रह्मशान्ति की केवल एक ही मूर्ति मिलती है, जो रङ्गमण्डप से सटे अग्निकोण के वितान पर है (चित्र ५)। दाढ़ी-मूंछों, जटामुकुट, उपवीत एवं प्रलम्बमाला से युक्त षड्भुज यक्ष किञ्चित् घटोदर हैं । त्रिभङ्ग में अवस्थित यक्ष के दाहिने पार्श्व में हंस है। यक्ष के हाथों में वरदाक्ष, अभयमुद्रा, पद्म, स्रुक, वज्र और जलपात्र हैं। दोनों पाश्र्थों में घट एवं मालाधारी सेवकों को चार आकृतियाँ हैं। इनके समीप हरबाजू अभयाक्ष और जलपात्र से युक्त चार अन्य पुरुषाकृतियाँ हैं । यज्ञोपवीत से युक्त ये आकृतियाँ सम्भवतः ब्राह्मण साधु हैं। विमलवसही की षड्भुज मूर्ति के समान यहाँ भी दोनों सिरों पर हंस की दो आकृतियाँ बनी हैं। विमलवसही और लूणवसही की मूर्तियाँ ब्रह्मशान्ति के निरूपण में पूरी तरह ब्राह्मण देवकुल के ब्रह्मा का प्रभाव दरशाती हैं । ब्रह्मशान्ति के साथ कई अन्य आकृतियों का अङ्कन-इन स्थलों पर उनकी विशेष प्रतिष्ठा का परिचायक है। उमाकान्त शाह ने पाटण स्थित आदीश्वर मन्दिर एवं कुछ लघुचित्रों में ब्रह्मशान्ति के अङ्कन का भी उल्लेख किया है । आदीश्वर मन्दिर की मूर्ति में श्मश्रु और मूंछों से युक्त चतुर्भुज ब्रह्मशान्ति उपवीत एवं मुकुट से शोभित हैं और उनके हाथों में अक्षमाला, छत्र, पुस्तक और जलपात्र हैं।' जहाँ मूर्तियों में ब्रह्मशान्ति सर्वदा सौम्यमुख हैं, वहीं चित्रों में निर्वाणकलिका के निर्देशों के अनुरूप यक्ष को भयानक दर्शन वाला भी दिखाया गया है । छाणी ताड़पत्र-लघुचित्र में भयानक दर्शन वाले चतुभुंज यक्ष के हाथों में पुस्तक, छत्र, स्रुक और वरद् प्रदर्शित हैं । ललितासनासीन यक्ष के समीप हंस भी अङ्कित है। पाटण से प्राप्त कल्पसूत्र के चित्रों में भी चतुर्भुज ब्रह्मशान्ति का अङ्कन हुआ है । यहाँ गजवाहन (?) वाले ब्रह्मशान्ति भद्रासनासीन और उपवीत तथा मुकुटमण्डित हैं। यक्ष के तीन करों में जलपात्र, दण्ड, छत्र हैं और एक हस्त प्रवचनमुद्रा में है ।२ संवत् १४७० (ई० १४१३) के वर्धमानविद्यापट में चतुर्भुज ब्रह्मशान्ति का अत्यन्त रोचक अङ्कन हुआ है, जो ब्रह्मशान्ति यक्ष के निरूपण में ज्ञात परम्परा के स्थान पर जिनप्रभसूरि विवरणित “सत्यपुरतीर्थकल्प" का प्रभाव प्रतीत होता है, जिसमें ब्रह्मशान्ति को पूर्वभव में शूलपाणि यक्ष बताया गया है। "ब्रह्मशान्ति" अभिधानयुक्त इस चित्र में ललितमुद्रा में आसीन यक्ष का एक पैर वृषभ पर रखा है। यक्ष के तीन हाथों में प्रवचन, १. शाह, यू० पी०, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० ६१-६२ । २. वही, पृ० ६१ । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी त्रिशूल और वरद् हैं। एक हाथ की वस्तु स्पष्ट नहीं है।' त्रिशूल और वृषभ जैन परम्परा के शूलपाणि यक्ष का स्मरण कराते हैं, जिसका स्वरूप, जैसा कि आगे कहा जा चुका है, शिव से प्रभावित रहा है। इस तरह स्पष्ट है कि ब्रह्मशान्ति यक्ष ल० ९वों-१०वीं शती ई० में जैन देवकुल (श्वेताम्बर) में सम्मिलित हुए । उमाकान्त शाह ने ब्रह्मशान्ति यक्ष के स्वरूप पर ब्रह्मा का प्रभाव स्वीकार किया है। किन्तु इस प्रसङ्ग में विचार करने पर स्पष्ट होता है कि ब्रह्मशान्ति का स्वरूप कभी स्थिर नहीं हो सका, यही कारण है कि साहित्यिक परम्परा और प्रतिमाङ्कनों में स्पष्ट अन्तर दृष्टिगत होता है। वाहन के रूप में हंस के साथ ही गज और वृषभ का अङ्कन भी उपर्युक्त धारणा का ही समर्थन करता है । उपलब्ध मूर्तियाँ कभी ज्ञात परम्परा का निर्वाह करती नहीं दीखती हैं। उमाकान्त शाह ने हंस तथा हाथों में पुस्तक और स्रुक के आधार पर ब्रह्मा का प्रभाव स्वीकारा है। साथ ही यह भी बताया है कि मारवाड़ और पश्चिम भारत में ब्रह्मोपासकों की प्रबलता के कारण जैन धर्म में ब्रह्मा के स्वरूप वाले यक्ष की ब्रह्मशान्ति के रूप में कल्पना की गयो।२ पश्चिम भारत में ब्रह्मा की बिखरी हुई स्वतन्त्र मूर्तियों के अतिरिक्त अजमेर के समीप पुष्कर स्थित ब्रह्मा मन्दिर तथा उत्तरी गुजरात में खेड् ब्रह्मा मन्दिर भी ब्रह्मा की लोकप्रियता के साक्षी हैं। ब्रह्मा की इस लोकप्रियता के कारण ही जैनों ने मोढेरा, साचौर, देलवाड़ा, कुम्भारिया तथा कुछ अन्य स्थलों पर ब्रह्मशान्ति की मूर्तियाँ स्थापित की। ब्रह्मशान्ति के शास्त्रीय-स्वरूप पर विचार करने से उस पर ब्रह्मा से अधिक विष्णु के एक अवतार स्वरूप-वामन का प्रभाव स्पष्ट होता है। निर्वाणकलिका में जटामुकुट, पादुका और उपवीत से युक्त ब्रह्मशान्ति अक्षमाला, दण्ड, छत्र और कमण्डलु से युक्त हैं । ग्रन्थ में ब्रह्मा से सम्बद्ध पुस्तक, स्रुक और हंसवाहन तथा यक्ष के चतुर्मुख होने का अनुल्लेख है। दूसरी ओर अग्निपुराण एवं वैखानस आगम जैसे ग्रन्थों में वामन के करों में छत्र, दण्ड और पुस्तक के होने का उल्लेख है। उपवीत धारित वामन को कभी-कभी लम्बोदर भी बताया गया है। ज्ञातव्य है कि ब्रह्मशान्ति के साथ श्मश्रु, जटामुकुट, हंसवाहन तथा करों में पुस्तक और स्रुक केवल शिल्पाङ्कन में ही प्रदर्शित हुआ है। साहित्य और शिल्प दोनों में प्रारम्भ में ब्रह्मशान्ति का चतुर्भुज स्वरूप आलेखित हुआ १. शाह, यू० पी०, पूर्वनिर्दिष्ट पृ० ६१ । २. वही, पृ० ६२-६३ । ३. वही, पृ० ६२-६३ । ४. छत्री दण्डी वामनः ''अग्निपुराण ४९.५ । छत्रदण्डधरं कौपीनवाससं शिखापुस्तकमेखलोपवीतकृष्णाजिनसमायुतं"-वैखानस आगम द्रष्टव्य, राव, टी० ए० गोपीनाथ, एलिमेण्ट्स आव हिन्दू आइकानोग्राफी, खण्ड १, भाग २, परिशिष्टसी, पृ० ३६; खण्ड १, भाग १, वाराणसी, १९७१ ( पुनर्मुद्रित ), पृ० १६३-६४; बनर्जी, जे० एन०, दि डेवलपमेण्ट ऑव हिन्दू आइकानोग्राफी, कलकत्ता, १९५६, पृ० ४१८ । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्भुज ब्रह्मशान्ति, रंगमण्डप से लगा वायव्य विकर्ण वित विमलवसही, १२ वीं शती ई० षड्भुज ब्रह्मशान्ति रंगमण्डप से लगा अग्निकोण का विकर्ण वितान, लूणवसही १२३१ ई० Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मशान्ति, दक्षिण भित्ति, पूर्वी जैन देवकुलिका, क्षोसियाँ, ११ वीं शती ई० ब्रह्मशान्ति (दाएँ), पश्चिमी भ्रमिका वितान, महावीर मन्दिर, कुम्भारिया, ११ वीं शती ई० ब्रह्मशान्ति (दाएँ), पूर्वी भ्रमिका वितान, शान्तिनाथ मन्दिर, ____ कुम्भारिया, ११ वीं शती ई० Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मशान्ति यक्ष है। ब्रह्मशान्ति के षड्भुज स्वरूप की मूर्तियाँ १२वीं-१३वीं शती ई० में केवल देलवाड़ा के विमलवसही और लूणवसही में बनीं। साहित्यिक परम्परा जहाँ ब्रह्मशान्ति के निरूपण में केवल विष्णु के वामन स्वरूप का प्रभाव प्रदर्शित करती हैं, वहीं मूर्तियाँ ब्रह्मा और वामन स्वरूपों का समवेत प्रभाव दरशाती हैं। यह दूसरी बात है कि मूर्तियों में ब्रह्मा का प्रभाव अधिक मुखर है । हंस तथा करों में पद्म, पुस्तक, जलपात्र और दो उदाहरणों में स्रुक तथा श्मश्रु और मूछों का प्रदर्शन स्पष्टतः ब्रह्मा के स्वरूप से प्रभावित है। दूसरी ओर छत्र विष्णु के वामन-स्वरूप से अनुलक्षित है। पर मूर्तियों में ब्रह्मा के समान ब्रह्मशान्ति को कभी चतुर्मुख नहीं दिखाया गया। साथ ही निर्वाणकलिका के विवरण के अनुरूप कुछ चित्रों के अतिरिक्त ब्रह्मशान्ति को कभी भीषण दर्शनवाला भी नहीं दिखाया गया है । मूर्त उदाहरणों में ब्रह्मशान्ति के साथ पादुका और दण्ड भी नहीं दिखाये गये हैं। इनके अतिरिक्त कुम्भारिया की मूर्तियों तथा पाटण से प्राप्त कल्पसूत्र के चित्रों में ब्रह्मशान्ति के साथ गजवाहन का अङ्कन भी किसी ज्ञात परम्परा से निर्देशित नहीं है । १४१३ ई० के वर्धमान-विद्यापट में ब्रह्मशान्ति का अङ्कन स्पष्टतः विविध तीर्थकल्प को शूलपाणि यक्ष की कथा परम्परा से प्रभावित है। यहाँ ब्रह्मशान्ति का निरूपण स्पष्टतः शिव से प्रभावित रहा है । इस प्रकार ब्रह्मशान्ति के निरूपण में न्यूनाधिक ब्राह्मण धर्म के तीनों प्रमुख देवों-बह्मा, विष्णु, शिव--का प्रभाव देखा जा सकता है। - व्याख्याता, कला-इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ १. ब्रह्मशान्ति की द्विभुज मूर्ति का अकेला उदाहरण सेवाड़ी के महावीर मन्दिर के गूढ़मण्डप की उत्तरी भित्ति पर आलेखित है । श्मश्रु और पादुका से युक्त यक्ष के दाहिने हाथ में अक्षमाला और बायें में जलपात्र हैं । द्रष्टव्य, ढाकी, एम० ए०, पूर्वनिविष्ट, पृ० ३३७-३८ । २. बृहत्संहिता ५७.४१; मत्स्यपुराण २५९.४०-४४ ( मत्स्यपुराण में ब्रह्मा के एक बायें हाथ में दण्ड का भी उल्लेख हुआ है ); रूपमण्डन २.६-७ । ३. छाणी ताड़पत्र-लघुचित्र । ४. सेवाड़ी के महावीर मन्दिर की मूर्ति अकेला अपवाद है । चित्र-सूची चित्र-१: ब्रह्मशान्ति, दक्षिणभित्ति, पूर्वी जैन देवकूलिका, ओसियाँ, ११वीं शती ई० । चित्र-२: ब्रह्मशान्ति (दाएं), पश्चिमी भ्रमिका वितान, महावीर मन्दिर, कुम्भारिया, ११वीं शती ई० । चित्र-३: ब्रह्मशान्ति (दाएँ), पूर्वी भ्रमिका वितान, महावीर मन्दिर, कुम्भारिया, ११वीं शती ई० । चित्र-४: षड्भुज ब्रह्मशान्ति, रंगमण्डप से लगा वायव्य वितान, विमलवसही, १२वीं शती ई०। चित्र-५: षड्भुज ब्रह्मशान्ति, रंगमण्डप से लगा अग्निकोण वितान, लूणवसही, १२३१ ई० । आभार-प्रदर्शन चित्र २, ३ अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी तथा चित्र ४ आकियलाजिकल सर्वे ऑव इण्डिया. दिल्ली के सौजन्य से साभार । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम साहित्य में स्तूप सागरमल जैन जैनागमों में स्तूप एवं स्तूप-मह का सर्वप्रथम उल्लेख हमें आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध ( आयारचूला ) के तृतीय एवं चतुर्थ अध्ययनों में मिलता है। आचारांग के पश्चात् अंग आगमों में स्थानांग और प्रश्नव्याकरण में; उपांग साहित्य में जीवाभिगम, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति; पुनः व्याख्यासाहित्य में हमें आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूणि", व्यवहारचूर्णि तथा आचारांग, * 'बौद्ध स्तूप' पर आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी (प्रा०भा०सं० एवं पु० विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी) में पठित निबन्ध । १(क). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे...."रुक्खं वा चेइय-कडं, थूभं वा चेइयकडं...... णो"".."णिज्झाएज्जा। -आचारांग ( द्वितीय श्रुतस्कन्ध-आयारचूला ), ३।४७ । (ख). से भिच्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाई....."रुक्क वा चेइय-कडं....."णो"...."सुकडे ति वा, सुठुकडे ति वा, “साहुकडे ति वा, कल्लाणे ति वा”। -वही, ४।२१ । (ग). से भिक्खू वा भिक्खुणी वा......."थूभ-महेसु वा, चेतिय-महेसु वा"...."तहप्पगारं असणं व पाणं वा.. ""णो पडिगाहेज्जा। - वही, ११२४। २. ...."तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि-चत्तारि चेइयथूभा पण्णत्ता। -स्थानांग, ४।३३९ । ३(क). चिति-वेदि खातिय-आराम-विहार-थूभ....."य अट्ठाए पुढवि हिंसंति मंदबुद्धिया। -प्रश्नव्याकरण, १११४ । (ख). और भी देखें-प्रश्नव्याकरण, ४।४ । ४. तहेव महिंदज्झया चेतियरुक्खो चेतियथूभे पच्चस्थिमिल्ला मणिपेदिया जिणपडिमा । -जीवाभिगम, ३।२।१४२ । ......"खिप्पामेव भो देवाणप्पिआ तित्थगरचिइगं जावअणगारचिइगं च खीरोदगेणं णिव्वावेह, तए णं ते मेहकुमारा देवा तित्थगरचिइगं जाव णिव्वाति, तए णं से सक्के देविदे देवराया भगवओ तित्थगरस्स उवरिल्लं दाहिणं सकहं गेण्हइ..."तए णं से सक्के वयासी सव्वरयणामुए महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह । -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २।३३ । ६. निव्वाणं चिइगाई जिणस्स इक्लाग सेसयाणं च । सकहा थूभ जिणहरे जायग तेणाहिअग्गित्ति ॥ -आवश्यक नियुक्ति, ४५ । ७(क). तएणं से सक्के बहवे भवणपति जाव वेमाणिया एवं वयासीसिप्पामेव भो तओ चेइअ-थूभे करेह । -आवश्यक चूर्णि, ऋषभनिर्वाण प्रकरण, पृ० २२३ । (ख). थूभागं एगं तित्थगरस्स व सेसाणं एगूणस्स भाउय सयस्स । -आवश्यक चूर्णि, अष्टपद चैत्य प्रकरण, पृ० २२७ । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम साहित्य में स्तूप स्थानांग आदि आगमों की टीकाओं में स्तूप, चैत्यस्तूप एवं स्तूपमह का उल्लेख मिलता है। आचारांग में स्वतन्त्र रूप से स्तप शब्द का प्रयोग न होकर 'चैत्यकृत स्तप' (थभं, वा चेइयकडं)-इस रूप में प्रयोग हुआ है। यहाँ चेइयकडं शब्द के अर्थ को स्पष्ट कर लेना होगा । चेइयकडं शब्द भी दो शब्दों के योग से बना है-चेइय + कडं। प्रो० ढाकी का कहना है कि कडं शब्द प्राकृत कूड या संस्कृत कूट का सूचक है, जिसका अर्थ होता है-ढेर ( Heap ), विशेष रूप से छत्राकार आकृति का ढेर। इस प्रकार वे "चेइयकडं" का अर्थ करते हैं-कुटाकार या छत्राकार चैत्य तथा थभ को इसका पर्यायवाची मानते हैं। किन्तु मेरी दृष्टि में 'चेइयकर्ड' शब्द थूभ ( स्तूप ) का विशेषण है, पर्यायवाची नहीं। चेइयकडं थूभ ( चैत्यीकृत स्तूप ) का तात्पर्य है-चिता या शारीरिक अवशेषों पर निर्मित स्तूप अथवा चिता या शारीरिक अवशेषों से सम्बन्धित । सम्भवतः वे स्तूप जो चिता-स्थल पर बनाये जाते थे अथवा जिनमें किसी व्यक्ति के शारीरिक अवशेष रख दिये जाते थे, चैत्यीकृत स्तूप कहलाते थे। यहाँ कडं शब्द कूट का वाचक नहीं अपितु कृत का वाचक है । भगवती में कडं शब्द कृत का वाचक है । पुनः कडं का कूट करने पर 'रुक्खं वा चेइयकडं' का ठीक अर्थ नहीं बैठेगा। “रुक्खं वा चेइयकर्ड" का अर्थ है-चिता-स्थल या अस्थि आदि के ऊपर रोपा गया वृक्ष । चेइयकडं का अर्थ पूजनीय भी किया जा सकता है। प्रो० उमाकांत शाह ने यह अर्थ किया भी है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह परवर्ती अर्थ-विकास का परिणाम है। अतः जैन साहित्य में स्तूप शब्द के अर्थ-विकास को समझने के लिए चैत्य शब्द के अर्थ-विकास को समझना होगा। संस्कृत कोशों में चैत्य शब्द के पत्थरों का ढेर, स्मारक, समाधिप्रस्तर, यज्ञमण्डल, धार्मिक पूजा का स्थान, वेदी, देवमूर्ति स्थापित करने का स्थान, देवालय, बौद्ध और जैन मन्दिर आदि अनेक अर्थ दिये गये हैं। किन्तु ये विभिन्न अर्थ चैत्य शब्द के अर्थ-विकास की प्रक्रिया के परिणाम हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति में श्मशान-सीमा में स्थित पुण्य स्थान के रूप में भी चैत्य शब्द का उल्लेख १ (क). एमेव य साहूणं, वागरणनिमित्तच्छन्दकहमादी। बिइयं गिलाणतो मे, अद्धाणे चेव थभे य॥ (ख). महुरा खमगा य, वणदेवय आउट्ट आणविज्जत्ति । कि मम असंजतीए, अप्पत्तिय होहिती कज्जं ॥ थूभ वि उ घण भिच्छू विवाय छम्मास संघो को सत्तो । खमगुस्सग्गा कंपण खिसण सूक्का कय पडागा ॥ -व्यवहार चुणि, पंचम उद्देशक, २६, २७, २८ । २. प्रो० मधुसूदन ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर उनका यह मत प्रस्तुत किया गया है । ३. "कडमाण कडे"-भगवती सूत्र, १११।१ । ४. “In both the above-mentioned cases, namely, cetita-thubha and the cetitarukkha, the sense of a funeral relic is not fully warranted.” --Studies in Jain Art, U. P. Shah, P. 53. ५. संस्कृत हिन्दी कोश-वामन शिवराम आप्टे, पष्ठ ३२७ । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सागरमल जैन हुआ है। प्राचीन जैनागमों में भी चिता-स्थल पर निर्मित स्मारक को चैत्य कहा गया है। किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों के चितास्थल पर उनकी स्मृति हेतु चबूतरा बना दिया जाता था, जो चैत्य कहलाता था। कभी-कभी चबूतरे के साथ-साथ वहाँ वृक्षारोपण कर दिया जाता था, जिसे चैत्यवृक्ष कहा जाता था। यदि यह स्मृति-चिह्न छत्राकार होता था, तो यह चैत्य-स्तूप कहलाता था । वाच. स्पत्यम् में मुखरहित छत्राकार के यक्षायतनों के लिए चैत्य शब्द का भी उल्लेख है। सम्भवतः इस स्मृति-चिह्न में मृतात्मा ( व्यन्तर ) का निवास मानकर पूजा जाता था। इस प्रकार विशिष्ट मृत व्यक्ति के स्मारक / स्मृति-चिह्न पूजा-स्थलों के रूप में परिवर्तित हो गये और पूजनीय माने जाने लगे। पहले जहाँ व्यक्ति के शव को जलाया जाता होगा, वहाँ चैत्यवृक्ष और चैत्यस्तूप बनते होंगे। आगे चलकर व्यक्ति के किसी शारीरिक अवशेष अर्थात् अस्थि, राख आदि पर चैत्य या स्तूप बनाये जाने लगे। फिर मात्र उन्हें पूजने के लिए यत्र-तत्र उनके नाम पर चैत्य या स्तूप बने। मूर्तिकला का विकास होने पर चैत्य यक्षायतन और सिद्धायतन अर्थात् यक्ष-मन्दिर या जिन-मन्दिर के रूप में विकसित हुए। ईसा की छठी शताब्दी तक जैन साहित्य में चैत्य शब्द जिन-मन्दिर के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा था और चैत्यालय, चैत्यगृह आदि जिन-मन्दिर के पर्यायवाची माने जाने लगे। किन्तु जहाँ तक आचारांग में प्रयुक्त चैत्यकृत-स्तूप के अर्थ का प्रश्न है, उसमें उसका अर्थ है-किसी की स्मृति में उसके चिता-स्थल पर अथवा उसके शारीरिक अवशेषों पर निर्मित मिट्टी, ईंटों या पत्थरों की छत्राकार आकृति । प्रारम्भ में स्तूप किसी के चिता-स्थल अथवा अस्थि आदि शारीरिक अवशेषों पर निर्मित ईंट या पत्थरों की छत्राकार आकृति होता था। चैत्य-स्तूप के साथ-साथ चैत्य-वृक्षों का भी हमें आचारांग में उल्लेख मिलता है। प्रथम तो किसी व्यक्ति के दाह-स्थल या समाधि-स्थल पर उसकी स्मृति में वृक्षारोपण कर दिया जाता होगा और वही वृक्ष चैत्यवृक्ष कहलाता होगा। यद्यपि आगे चलकर जैन परम्परा में वह वृक्ष भी चैत्यवृक्ष कहलाने लगा, जिसके नीचे किसी तीर्थकर को केवल ज्ञान उत्पन्न होता था। क्रमशः इन चैत्य-वृक्षों एवं चैत्यस्तपों की श्रद्धावान सामान्यजनों के द्वारा पूजा की जाने लगी। आचारांग में जिन चैत्य-स्तपों का उल्लेख है, वे चैत्य-स्तूप जैन परम्परा या जैनधर्म से सम्बन्धित हैं-ऐसा कहना कठिन है, क्योंकि उसमें आकार, तोरण, तलगृह, प्रासाद, वृक्षगृह, पर्वत आदि की चर्चा के सन्दर्भ में ही चैत्य-वृक्ष और चैत्य-स्तूपों का उल्लेख हुआ है। साथ ही जैनमुनि को स्तूप आदि को उचक-उचक कर देखने तथा स्तूपमह अर्थात् स्तूप-पूजा के महोत्सवों एवं मेलों में जाने का निषेध किया गया है। १. नयेयुरेते सीमानं स्थलाङ्गारतुषद्रुमैः । सेतुवल्मीकनिम्नास्थिचैत्याद्यैरुपलक्षिताम् ॥ १५१ ।। चैत्यश्मशानसीमासु पुण्यस्थाने सुरालये । जातद्रुमाणां द्विगुणो दमो वृक्षे च विश्रुते ॥ २२८ ॥ -याज्ञवल्क्यस्मति, व्यवहाराध्याय । २. वाचस्पत्यम्, पृष्ठ २९६६ । ३(अ). आचारांग (द्वितीय-श्रुतस्कन्ध-आयारचूला ) १।२४; ३।४७; ४।२१ ( इनके मूलपाठों के लिए देखें इसी लेख का सन्दर्भ क्रमांक १ )। (ब).से भिक्खू वा भिक्खुणी वा""मडयथूभियासु वा, मडयचेइएसु वा.....णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा । -वही, १०१२३ । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम साहित्य में स्तूप १३५ स्मरणीय है कि यदि आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक भी जैन स्तूप होते तो ऐसा सामान्य निषेध तो नहीं ही किया जाता । मात्र यह कहा जाता कि अन्य तीर्थिकों के स्तूप एवं स्तूपमह में नहीं जाना चाहिए। इससे यही ज्ञात होता है कि आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक जैनेतर परम्पराओं में सामान्य रूप से स्तूप निर्मित होने लगे थे । सम्भवतः आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का रचनाकाल ईसा पूर्व की द्वितीय या तृतीय शताब्दी रहा होगा। क्योंकि इसके बाद मथुरा में जैन स्तूप मिलते हैं । अंग साहित्य में पुनः हमें स्थानांगसूत्र में नन्दीश्वर द्वीप के वर्णन प्रसंग में चैत्यस्तूप और चैत्यवृक्ष का उल्लेख मिलता है । मथुरा में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अनुसार, महावीर के गर्भापहरण का चित्रण भी मिलता है, अतः मथुरा का स्तूप आचारांग का परवर्ती है । उसमें वर्णित चेत्यस्तूप और चैत्यवृक्ष जैन परम्परा से सम्बन्धित हैं, साथ ही उस समय तक न केवल चैत्यस्तूप बनने लगे थे, अपितु उस पर जिनमूर्तियों की स्थापना होने लग गयी थी । स्थानांगसूत्र में जैन चैत्यस्तूपों का निम्न उल्लेख प्राप्त होता है'नन्दीश्वरद्वीप के ठीक मध्य में चारों दिशाओं में चार अञ्जन पर्वत हैं । वे अञ्जन पर्वत नीचे दस हजार योजन विस्तृत हैं, किन्तु क्रमशः उनका ऊपरी भाग एक हजार योजन चौड़ा है। उन अञ्जन पर्वतों के ऊपर अत्यन्त समतल और रमणीय भूमि-भाग है । उस सम-भूमि-भाग के मध्य में चारों ही अञ्जन पर्वतों पर चार सिद्धायतन अर्थात् जिन-मन्दिर हैं । प्रत्येक जिन मन्दिर की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं । इन चारों द्वारों के आगे चार मुखमण्डप हैं । उन मुखमण्डपों के आगे चार प्रेक्षागृह या रंगशाला मण्डप हैं । पुनः उन प्रेक्षागृहों के आगे मणिपीठिकाएँ हैं । उन मणिपीठिकाओं पर चैत्यस्तूप हैं । प्रत्येक चैत्यस्तूप पर चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाऍ हैं और उन चार मणिपीठिकाओं पर चार जिन प्रतिमाएँ हैं । वे सब रत्नमय, सपयंकासन ( पद्मासन ) की मुद्रा में अवस्थित हैं । पुनः चैत्यस्तूपों के आगे चैत्यवृक्ष हैं । उन चैत्यवृक्षों के आगे मणिपीठिकाओं पर महेन्द्रध्वज हैं । उन महेन्द्रध्वजों के आगे पुष्करिणियाँ हैं और उन पुष्करिणियों के आगे वनखण्ड हैं ।" इस सब वर्णन से ऐसा लगता है कि स्थानांग के रचनाकाल तक सुव्यवस्थित रूप से मन्दिरों निर्माण की कला का भी विकास हो चुका था और उन मन्दिरों में चैत्य- स्तूप बनाये जाते थे और उन चैत्य- स्तूपों पर पीठिकाएँ स्थापित करके जिन - प्रतिमाएँ भी स्थापित की गई थीं । परवर्ती काल बौद्ध परम्परा में भी हमें स्तूपों की चारों दिशाओं में बुद्ध प्रतिमाएँ होने के उल्लेख मिलते हैं । १. तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उवरिं बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता । तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झ सभागे चत्तारि सिद्धायतणा पण्णत्ता - तेसि णं दाराणं पुरओ चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता । तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ चत्तारि पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता । तेसि णं पेच्छाघर मंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ । तासि णं मणिपेढियाणं उवरि चत्तारि चत्तारि चेइयथूभा पण्णत्ता । सिणं चेइयथूभाणं उवरि चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ । तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईओ संपलियंकणिसण्णाओ थूभाभिमुहाओ चिट्ठति, तं जहा - रिसभा, वृद्ध माणा, चंदाणणा, वारिसेणा । स्थानांग, ४१३३९ । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सागरमल जैन स्थानांग एक संग्रह ग्रन्थ है और उनमें ईसा पूर्व से लेकर ईसा की चौथी शताब्दी तक की सामग्री संकलित है । प्रस्तुत सन्दर्भ किस काल का है यह कहना तो कठिन है, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वह लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी का होगा, क्योंकि तब तक जिन-मन्दिर और जिनस्तूप बनने लगे थे । उसमें वर्णित स्तूप जैन परम्परा से सम्बन्धित हैं । यद्यपि यह विचारणीय है कि मथुरा के एक अपवाद को छोड़कर हमें किसी भी जैन- स्तूप के पुरातात्त्विक अवशेष नहीं मिले हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से विश्वसनीय जैन स्तूपों के साहित्यिक उल्लेख भी नगण्य हैं । 1 समवायांग एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में हमें चैत्यस्तूप के स्थान पर चैत्यस्तम्भ का उल्लेख मिलता है, साथ ही इन स्तम्भों में जिन अस्थियों को रखे जाने का भी उल्लेख है ।' अतः चैत्यस्तम्भ चैत्य- स्तूप का ही एक विकसित रूप है । जैन परम्परा में चेत्यस्तूपों की अपेक्षा चैत्यस्तम्भ बने, जो आगे चलकर मानस्तम्भ के रूप में बदल गये । आदिपुराण में मानस्तभ्भ का स्पष्ट उल्लेख है । जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा में आज भी मन्दिरों के आगे मानस्तम्भ बनाने का प्रचलन है । शेष अंग-आगमों में भगवती सूत्र, ज्ञाताधर्मकथा और उपासकदशांग में हमें चैत्यस्तूपों के उल्लेख तो उपलब्ध नहीं होते हैं, किन्तु अरिहंत चैत्य का उल्लेख अवश्य मिलता है । यद्यपि ज्ञाताधर्मंकथा में स्तूपिका ( थूभिआ ) का उल्लेख अवश्य है । इतना निश्चित है कि इन आगमों के रचनाकाल तक जैन परम्परा में जिन - प्रतिमाओं और जिन-मन्दिरों का विकास हो चुका था । पुनः दसवें अंग-आगम प्रश्नव्याकरण में स्तूप शब्द का उल्लेख मिलता है, किन्तु उसमें उल्लिखित स्तूप जैन परम्परा का स्तूप नहीं है । सम्भवतः यहाँ ही हमें स्वतन्त्र रूप से स्तूप शब्द मिलता है, क्योंकि इसके पूर्व सर्वत्र चैत्य- स्तूप (चेइय-थूभ) शब्द का प्रयोग मिलता है । ज्ञातव्य है कि प्रश्नव्याकरण का वर्तमान में उपलब्ध संस्करण आगमों के लेखनकाल के बाद सम्भवतः ७वीं शताब्दी की रचना है । जैनधर्म में परवर्तीकाल में स्तूप - परम्परा पुनः लुप्त होने लगी थी । जैनधर्मं में न तो प्रारम्भ में स्तूप - निर्माण और स्तूप - पूजा की परम्परा थी और न परवर्ती काल में ही वह जीवित रही । मुझे तो ऐसा लगता है कि ईसा पूर्व की द्वितीय एवं प्रथम शताब्दी से लेकर ईसा की १. सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेट्टा उवरि च अद्धतेरस अद्धतेरस जोयणाणि वज्जेत्ता मझे पणतीस जोयसु वइरामएस गोलवट्टसमुग्गएसु जिण सकहाओ पण्णत्ताओ । - समवायांग, ३५।५ । 1 २. मानस्तम्भमहाचैत्यद्रुमसिद्धार्थपादपान् प्रेक्षमाणो व्यतीयाय स्तूपांश्चाचितपूजितान् ॥ - आदिपुराण, ४१।२० । ३ (अ). गणत्थ अरिहंस वा अरिहंत चेइयाणि वा अणगारे वा भावियप्पणो णीसाए उड़ढं उप्पयति जाव सोहम्मो कप्पो । ( ब ). अरहंत चेइयाई वंदित्तए वा नमसित्तए वा । ४ ( अ ). उज्जलमणिकणगर यणधूभिय... | (a) मणिभियाए । - भगवती सूत्र, ३१२ । - उपासकदसांग, ११४५ । -ज्ञाताधर्मकथा, १1१८; ११८९ । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम साहित्य में स्तूप १३७ पाँचवीं शताब्दी तक बौद्ध-परम्परा के प्रभाव के कारण ही जैन परम्परा में स्तूप-निर्माण और स्तूपपूजा की अवधारणा विकसित हुई होगी, जो बौद्धों के पतन काल अर्थात् सातवीं, आठवीं शताब्दी के पश्चात् पुनः लुप्त हो गई, क्योंकि हमें आठवीं शताब्दी के पश्चात् की जैन रचनाओं में, केवल उन आगम ग्रन्थों की टीकाओं तथा मथुरा एवं वैशाली के ऐतिहासिक विवरण देने वाले ग्रन्थों को छोड़कर, जिनमें स्तूप शब्द आया है, कहीं भी जिन-स्तूपों का उल्लेख नहीं मिलता है। १४वीं शताब्दी तक के जैन साहित्य में मथुरा में जैन स्तूपों के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध हैं। उपाङ्ग साहित्य में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में हमें तीर्थंकर, गणधर और विशिष्ट मुनियों की चिताओं पर चैत्यस्तूप बनाने के उल्लेख भी मिलते हैं। ऐसे उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में भी उपलब्ध हैं'। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और आवश्यकनियुक्ति निश्चित हो आगमों के लेखनकाल अर्थात् ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व की रचना है। इस सबसे हमारी उस मान्यता की पुष्टि होती है, जिसके अनुसार ईसा पूर्व की द्वितीय एवं प्रथम शताब्दी से लेकर ईसा की प्रथम पाँच शताब्दियों में ही जैन परम्परा में स्तूप-निर्माण और स्तूप-पूजा की परम्परा रहो और बाद में वह क्रमशः विलुप्त होती गई । यद्यपि चैत्य-स्तम्भों एवं चरण-चिह्नों के निर्माण की परम्परा वर्तमान युग तक जीवित चली आ रही है। इस आधार पर हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि चैत्य-स्तूपों के निर्माण और उनकी पूजा की परम्परा जैनों की अपनी मौलिक परम्परा नहीं थी, अपितु वह लौकिक परम्परा का प्रभाव था । वस्तुतः स्तूप निर्माण और स्तूप-पूजा की परम्परा महावीर और बुद्ध से पूर्ववर्ती एक लोकपरम्परा रही है, जिसका प्रभाव जैन और बौद्ध दोनों पर पड़ा। सम्भवतः पहले बौद्धों ने उसे अपनाया और बाद में जैनों ने। जैनागम साहित्य में मुझे किसी भी ऐतिहासिक जैन स्तूप का उल्लेख देखने में नहीं आया। जैन साहित्य में जिन स्तूपों-चैत्यों का उल्लेख है, उनमें व्यवहारचूर्णि में उल्लिखित मथुरा एवं आवश्यकचूणि में उल्लिखित वैशाली के स्तूप को छोड़कर देव-लोक (स्वर्ग), नन्दीश्वरद्वीप एवं अष्टापद (कैलाशपर्वत) आदि पर निर्मित स्तूपों के ही उल्लेख हैं, जिनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध ही है। मथुरा के ऐतिहासिक स्तूप का प्राचीनतम उल्लेख व्यवहारचूणि में और व्यवहारसूत्र की मलयगिरि की टीका में मिलता है। इसके सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में अन्यत्र भी उल्लेख है। आवश्यकचूणि में वैशाली में मुनिसुव्रतस्वामी के स्तूप का उल्लेख है। इस समग्र चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि जैन साहित्य में जो स्तूप-सम्बन्धी विवरण उपलब्ध हैं, उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से मथुरा और वैशाली के प्रसंग ही महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें भी वैशाली के सम्बन्ध में कोई पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं मिले हैं । जैन धर्म में स्तूप-निर्माण और स्तूप-पूजा के पुरातात्त्विक प्रमाण अभी तक तो केवल मथुरा से उपलब्ध हुए १(अ). महइमहालए तओ चेइअथूभे करेह, एगं भगवओ तित्थगरस्स चिइगाए, एगं गणहरस्स, एगं अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए। -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २।३३, पृ० १५७-१५८ । (ब). आवश्यक नियुक्ति, गाथा ४३५ । ( मूल के लिए देखिए इसी लेखा का सन्दर्भ क्रमांक ६ )। २. देखें-इसी लेख का सन्दर्भ क्रमांक ८ । ३. वेसालिए णगरीए णगरणाभीए मुणिसुव्वय सामिस्स थूभो । -आवश्यकचूणि (पारिणामिक बुद्धि प्रकरण), पृ० ५६७ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ सागरमल जैन हैं । वैशाली के स्तूप को मुनिसुव्रत का स्तूप कहा गया है । यद्यपि मथुरा के स्तूप को शिलालेख में वोदव-स्तूप कहा गया है, कहीं वह बौद्ध तो न हो ? दूसरे उसके पास से उपलब्ध पाद-पीठ पर अर्हत् नन्द्याव्रत का उल्लेख है', किन्तु प्रो० के० डी० बाजपेयी ने उसे मुनिसुव्रत पढ़ा है, कहीं ऐसा तो नहीं हो कि आवश्यकचूर्णीकार ने भ्रमवश उसे वैशाली में स्थित कह दिया हो। पुरातत्त्व की दृष्टि से मथुरा में न केवल जैन स्तूप के अवशेष उपलब्ध हुए हैं, अपितु अनेक आयागपटों पर भी स्तूपों का अंकन और स्तूप-पूजा के दृश्य उपलब्ध होते हैं। एक शिलाखण्ड में तो आसपास जिन-प्रतिमाओं और बीच में स्तूप का अंकन है। एक अन्य आयागपट पर किम्पुरुषों को स्तूप की पूजा करते हुए दिखाया गया है । मथुरा से उपलब्ध स्तूप-अंकन से युक्त अनेक आयागपटों पर शिलालेख भी हैं । इस सबसे इतना स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में जैनों में स्तूप-निर्माण और स्तूप-पूजा की परम्परा रही है। स्तूप के आसपास जिन-प्रतिमा से युक्त शिलाखण्ड इसका सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण है, किन्तु मथुरा में जो भी स्तूप और स्तूपों के अंकन सहित आयागपट मिले हैं, वे सभी ईसा पूर्वसे लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी तक के ही हैं । ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के बाद से न तो स्तूप मिलते हैं और न स्तूपों के अंकन से युक्त आयागपट ही। इस सम्बन्ध में Jain Art and Architecture, Chapter 6th and 10 th. विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं । इन पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी मेरी इस मान्यता की पुष्टि होती है कि ईसा की तीसरी और चौथी शताब्दी के बाद जैनों में स्तूप-पूजा की प्रणाली लुप्त होने लगी थी। व्यवहारचूणि और व्यवहारसूत्र की मलयगिरि टीका में मथुरा के देवनिर्मित स्तूप के निर्माण की कथा एवं उसके स्वामित्व को लेकर जैनों और बौद्धों के विवाद की स्पष्ट सूचना An inscription (Lüders, List No. 47 ) dated 79 (A.D. 157) or 49 (A.D. 127), on the Pedestal of a missing image mentions the installation of an image of Arhat Nandiāvarta at the so-called Vodva stūpa built by the gods ( devanirmita). -Jaina Art and Architecture, A. Ghosh, vol. I. P. 53. Sri Mahavira commemoration, vol. I. Agra, P. 189-190. ६. मथुरायां नगर्यां कोऽपि क्षपक आतापयति, यस्यातापनां दृष्टवा देवता आदृता तमागत्य वन्दित्वा ब्रूते, यन्मया कर्तव्यं तन्ममाज्ञापयेद्भवानिति । एवमुक्त सा क्षपकेण भण्यते, किं मम कार्यमसंयत्या भविष्यति, ततस्तस्या देवताया अप्री तिकमभत । अप्रीतिवत्या च तयोक्तमवश्यं तव मया कार्य भविष्यति, ततो देवताया सर्वरत्नमयः स्तूपो निर्मितः, तत्र भिक्षवो रक्तपटा उपस्थिताः अयमस्मदीयः स्तूपः, तैः समं सङ्गस्य षण्मासान् विवादो जातः, ततः सङ्गो ब्रूते-को नामात्रार्थे शक्तः, केनापि कथितं यथामुकः क्षपकः, ततः सङ्केन स भण्यते-क्षपक ! कायोत्सर्गेण देवतामाकम्पय, ततः क्षपकस्य कायोत्सर्गकरणं देवताया आकम्पनम् सा आगता ब्रूते-संदिशत किं करोमि, क्षपकेण भणिता तथा कुरुत यथा सञ्जस्य जयो भवति, ततो देवताया क्षपकस्य हिंसना कृता, यथा एतन्मया असंयत्या अपि कार्य जातं एवं खिसित्वा सा ब्रूते-यूय राज्ञ. समीपं गत्वा ब्रूत, यदि रक्तपटानां स्तूप ततः कल्ये रक्ता पताका दृश्यतां, अथास्माकं तर्हि शुक्ला पताका, राज्ञा प्रतिपन्नमेवं भवतु, ततो राज्ञा प्रत्ययिकपुरुषः स्तूपो रक्षापितः रात्रौ देवताया शुक्ला पताका कृता, प्रभाते दृष्टा स्तूपे शुक्ला पताका, जितं सर्छन । -व्यवहारचूणि, मलयगिरिटीका-पञ्चम उद्देशक, पृ० ८ । २. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम साहित्य में स्तूप १३९ मिलती है । मलयगिरि लिखते हैं कि मथुरा नगरी में कोई क्षपणक जैन मुनि कठिन तपस्या करता था, उसकी तपस्या से प्रभावित हो एक देवी आथी । उसकी वन्दना कर वह बोली कि मेरे योग्य क्या कार्य है ? इस पर जैन मुनि ने कहा- असंयति से मेरा क्या कार्य होना ? देवी को यह बात बहुत अप्रीतिकर लगी और उसने कहा कि मुझसे तुम्हारा कार्य होगा, तब उसने एक सर्वरत्नमय स्तूप निर्मित किया । कुछ रक्तपट अर्थात् बौद्ध भिक्षु उपस्थित होकर कहने लगे यह हमारा स्तूप है । छः मास तक यह विवाद चलता रहा। संघ ने विचार किया कि इस कार्य को करने में कौन समर्थ है। किसी ने कहा कि अमुक मुनि ( क्षपणक) इस कार्य को करने में समर्थ है। संघ उनके पास गया । क्षपणक से कहा कि कायोत्सर्ग कर देवी को आकम्पित करो अर्थात् बुलाओ। उन्होंने कायोत्सर्ग कर देवी को बुलाया। देवी ने आकर कहा - बताइये मैं क्या करूँ ? तब मुनि ने कहाजिससे संघ की जय हो वैसा करो। देवी ने व्यंग्यपूर्वक कहा- अब मुझ असंयति से भी तुम्हारा का होगा । तुम राजा के पास जाकर कहो कि यदि यह स्तूप बौद्धों का होगा तो इसके शिखर पर रक्त-पताका होगी और यदि यह हमारा अर्थात् जैनों का होगा तो शुक्ल पताका दिखायी देगी । उस समय राजा के कुछ विश्वासी पुरुषों ने स्तूप पर रक्त पताका लगवा दी । तब देवी ने रात्रि को उसे श्वेत पताका कर दिया । प्रातःकाल स्तूप पर शुक्ल पताका दिखायी देने से जैन संघ विजयी हो गया । मथुरा के देव-निर्मित स्तूप का यह संकेत किंचित् रूपान्तर के साथ दिगम्बर परम्परा में हरिषेण के बृहत्कथाकोश के वैरकुमार के आख्यान में तथा सोमदेवसूरि के यशस्तिलकचम्पू के षष्ठ आश्वास में व्रजकुमार की कथा में मिलती है । पुनः चौदहवीं शताब्दी में जिनप्रभसूरि ने भी विविधतीर्थकल्प के मथुरापुरीकल्प में इसका उल्लेख किया है | सन्दर्भ में 1 से हुए विवाद का भी किञ्चित् रूपान्तर के साथ सभी ने उल्लेख किया है । इस कथा से तीन स्पष्ट निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । प्रथम तो उस स्तूप को देव-निर्मित कहने का तात्पर्य यही है कि उसके निर्माता के सम्बन्ध में जैनाचार्यों को स्पष्ट रूप से कुछ ज्ञात नहीं था, दूसरे उसके स्वामित्व को लेकर जैन और बौद्ध संघ में कोई विवाद हुआ था। तीसरे यह कि जैनों में स्तूपपूजा प्रारम्भ हो चुकी थी । यह भी निश्चित है कि परवर्ती साहित्य में उस स्तूप का जैनस्तूप के रूप में ही उल्लेख हुआ है । अतः उस विवाद के पश्चात् यह स्तूप जैनों के अधिकार में रहा- इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है । लेकिन यहाँ मूल प्रश्न यह है कि क्या उस स्तूप का निर्माण मूलतः जैन ' स्तूप के रूप हुआ था अथवा वह मूलतः एक बौद्ध परम्परा का स्तूप था और परवर्ती काल में वह जैनों के अधिकार में चला गया ? इसे मूलतः बौद्ध परम्परा का स्तूप होने के पक्ष में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं । सर्वप्रथम यह कि जैन परम्परा के आचारांग जैसे प्राचीनतम अंग - आगम साहित्य में जैन स्तूपों के निर्माण और उसकी पूजा के उल्लेख नहीं मिलते हैं, अपितु स्तूपपूजा का निषेध ही है । यद्यपि कुछ परवर्ती आगमों स्थानांग, जीवाभिगम, औपपातिक एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जैन- परम्परा में स्तूपनिर्माण और स्तूपपूजा के संकेत मिलने लगते हैं, किन्तु ये सब ईसा की प्रथम शताब्दी की या उसके १. वैरकुमारकथानकम् - बृहत्कथाकोश ( हरिषेण ) भारतीय विद्याभवन, बम्बई, १९४२ ई०, पृ० २२ २७ ॥ २. व्रजकुमारकथा - पृ० २७०, षष्ठ आश्वास । तो ३. विविधतीर्थकल्प - मथुरापुरीकल्प । - यशस्तिलकचम्पू, अनु० व प्रकाशक - सुन्दरलाल शास्त्री, वाराणसी । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सागरमल जैन पश्चात् की रचनाएँ हैं। दूसरे यदि जैन परम्परा में प्राचीन काल से स्तूप-निर्माण एवं स्तुप-पूजा की पद्धति होती तो फिर मथुरा के अन्यत्र भी कहीं जैन स्तूप उपलब्ध होते, किन्तु मथुरा के अतिरिक्त कहीं भी जैन स्तूपों के पुरातात्त्विक अवशेष उपलब्ध नहीं होते' । जैनधर्म के यापनीयसंघ की एक शाखा का नाम पंचस्तूपान्वय था। सम्भव है मथुरा के पंचस्तूपों की उपासना के कारण इसका यह नाम पड़ा हो । मथुरा यापनीय संघ का केन्द्र रहा है। इससे यही सिद्ध होता है कि जैनों में स्तूपपूजा की पद्धति थी। मथुरा के एक शिलाखण्ड के बीच में स्तूप का अंकन है और उसके आसपास जिन-प्रतिमायें हैं, इससे भी हम इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि जैनों में कुछ काल तक स्तूप निर्माण और स्तुप-पूजा प्रचलित थी। वैशाली में मनिसुव्रतस्वामी के स्तप का साहित्यिक संकेत है। यद्यपि बौद्ध परम्परा में मथुरा के अतिरिक्त अन्यत्र भी बौद्ध स्तुप और उनके अवशेष मिलते हैं। एक प्रश्न यह भी है यदि जैन धर्म में स्तूप-निर्माण एवं स्तूप-पूजा की परम्परा रही थी तो फिर वह एकदम कैसे विलुप्त हो गयी ? यह सत्य है कि जहाँ बौद्ध परम्परा में बुद्ध के बाद शताब्दियों तक प्रतीकपूजा के रूप में स्तूप-पूजा प्रचलित रही और बुद्ध की मूर्तियाँ बाद में बनने लगीं। जब कि जैन परम्परा में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से जिन मूर्तियाँ बनने लग गयीं। अतः जैनों में स्तूप बनने की प्रवृत्ति आगे अधिक विकसित नहीं हो सकी। यह तर्क कि मथुरा का स्तूप मूलतः बौद्ध स्तूप था और परवर्तीकाल में बौद्धों के निर्बल होने से उस पर जैनों ने अधिकार कर लिया, युक्तिसंगत नहीं लगता, क्योंकि ईसा की प्रथमद्वितीय शताब्दी से ही इसके जैन-स्तूप के रूप में उल्लेख मिलने लगते हैं और उस काल तक मथुरा के बौद्ध निर्बल नहीं हुए थे, अपितु शक्तिशाली एवं प्रभावशाली बने हुए थे। पुनः मथुरा से उपलब्ध आयागपटों पर मध्य में जिन-प्रतिमा और उसके आस-पास अष्टमांगलिक चिह्नों के साथ स्तूप का भी अंकन मिलता है। इससे यह पुष्ट हो जाता है कि जैनों में स्तूपनिर्माण और स्तूपपूजा की परम्परा का अस्तित्व रहा है । यापनीय नामक प्रसिद्ध जैन संघ की एक शाखा का नाम भी पंचस्तूपान्वय है। यदि ये प्रमाण नहीं मिलते तो निश्चित ही इसे मूलतः बौद्ध स्तूप स्वीकार किया जा सकता था। मैंने यहाँ पक्ष-विपक्ष की सम्भावनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, विद्वानों को किसी योग्य निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए। फिर भी इस समग्र अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर अवश्य पहुँचा हूँ कि जैन धर्म में स्तूपनिर्माण एवं स्तूपपूजा की पद्धति जैनेतर परम्पराओं से विशेष रूप से बौद्ध परम्परा के प्रभाव से ही विकसित हुई: पूनः वह चरण-चौकी (पगलिया जी), चैत्य-स्तम्भ, मान-स्तम्भ और जिन-मन्दिरों के विकास के साथ धीरे-धीरे विलप्त हो गई है। निदेशक, पा० वि० शोध संस्थान, आई. टी. आई. रोड, वाराणसी-५. १. प्रो० टी० वी० जी० शास्त्री ने गन्तुर जिले के अमरावती से करीब ७किलोमीटर दूर बडुमाण गाँव में ईसा पूर्व तृतीय शताब्दो ( २३६ ई० पू० ) का जैनस्तूप खोज निकाला है। यहीं भद्रबाहु के शिष्य गोदास-जिनका नाम कल्पसूत्र पट्टावली में है-के उल्लेख से युक्त शिलालेख भी मिला है। -दि० जैन महासमिति बुलेटिन, मार्च १९८५ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA RELIGION-ITS PLEA, PRACTICE AND PROSPECTS A. S. Gopani Religion and State are equally essential for the total progress of the society. While State looks after and provides the external or material needs of man's life just as it creates conditions and climate which facilitate Religion to operate, the Religion, in turn, organises, shapes, and nourishes man's internal or spiritual life. The State currently has acquired extra usefulness and importance since the entire. mankind is madly persuing after material prosperity. But a time may come when the State can be wholly dispensed with as the man would either function under the dictates of his intuition or in accordance with the mandates he receives from the front-ranking leaders possessing genuine spiritual learnings. The most exalted goal for any society, according to Jainis:n, can only be the "spiritual excellence". The religion which shapes the man from within is coeval with the existence of the "world" itself. The meaning of "religion" is comprehensive. It is in fact the religion that keeps the whole world well-knit and saves it from disintegrating. It secures peace and happiness here and emancipation from all fetters hereafter. It is concerned not merely with life after death it indeed has much to do with the life that is lived here and now. On the operative side, it includes various types of disciplines and duties towards family, society, nation and the country as is inherent in the concept of the fourfold Sangha-organisation in Jainism. Only the supreme spiritual knowledge and its fullest expression can be the summum bonum of any human being's life. As this aim is to be attained in the existence as a human being and as this body is the only vehicle for that purpose, its efficiency is to be maintained as far as possible and the social set-up as well as the cultural environment should be such as would conduce or contribute to the fulfilment of this aim. To a question why must one do good to others, a materialist has no logical reply. He will simply say (and finish with it) that the tendency is ingrained in human nature. But the spiritualist's thinking on that point is decisive and clear. To him the world is the manifest form of an all-pervasive God; that there is unity. everywhere; and eternal happiness as well as internal bliss follows from realising this unified identity which in turn is realised by wiping out personal ego. This attitude makes it inevitable for everyone to leave aside his own self-centeredness and place other's good above his own. This philosophical attitude is also advocated by some Western thinkers among whom Kant and Greene are prominent. The problem of morality and immorality should be thought of and decided from Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A. S. Gopani this viewpoint, based it must be on the axiomatic truth that we all are essentially one and the same. I begin with this viewpoint because it is the largely shared one, indeed by adherents of several different religions. However, the Jaina viewpoint also, and equally, is capable of explaining the whole phenomenon of existence in the same convincing manner. According to the Jainistic standpoint, the Law of Karma is inexorable and ruthless in its operation. However, one must not desert duty towards his fellowmen by simply saying that an individaal gets what he is destined to get according to his own past karmas. No religion denies, much less Jainism, to cultivate virtues as far and as much as is possible. It is the Jaina dictum that, as a category, the individual soul, as self and substance, is identical with every other being's soul. The difference that divides one being from the other is the Karmic covering-enveloping the soul of each individual. Thus do we see disparity between the more universally accepted view of God and the Jaina view of the individual self as a noumenonal being. However, underlying this disparity, there is basic unity which makes it obligatory for everyone to perform his duty towards others and subject onself to discipline which strengthens the foundation and structure of the whole social edifice. Compassion, in this case, has its own role to play. This can be carried out only if the body, which is the main vehicle, has "operational worthiness" and is in good order. This implies maintenance of its fitness, not for comforts and pleasures but for effectively meeting with the responsibilities towards society, that is to say, to fellow beings. The ultimate consequence of the basic logic of all the religious systems is essentially the same. Verily, no religion can afford to be anti-social. Jainism advocates suspension of aliment unto death when one finds that one's continuing practically has no usefulness either for himself or for the society. This can also be interpreted to mean that the body is for others as much as for one's own self. There can, then, be no other justification worth the name. But let me also warn against equating Jaina's voluntary disintegration with suicide which is solely negative and self-destructive. If the ethical grounds of this Jaina practice are called into question, one would also want an answer why the Siddha Yog's of the Brahmanical religious systems also follow it in their own way of course. They too wound up their mortal coil when they notice that their mission on this plane is over. The innermost secret of any religion, and for that matter that of Jainism, cannot be comprehended through sense-organs, nor can it be reached by intelect and mind. Its total perception is possible only after “realisation": which is why we find that the "seers”,-the Rşis and Arhatas,-of all religious systems preached Law only after attaining realization of the “Ultimate Truth” or “Ultimate Reality”, whatever its nature may be. Assuredly, perfection in preaching is in no other way possible as human inperfections block the right perception. : Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ faina Religion-Its Plea, Practice and Prospects It is in the very nature of a human being, whether he is a Brahminist or a Jaina, that he must strive hard for securing power, knowledge with happiness as end in view. No sensible human being has, and can have, any other ideal or objective. Discontent for the present conditions and environs and the attainment of the most ideal conditions and situation, thus is the motivating force behind all his activities. Intellectual development (which is the helping factor in his activities) is the distinguishing quality that places man above all sentient and conscient beings. He possesses the faculty of discrimination which he employs in distinguishing, separating truth from untruth. This unique equipment enables him to put forth effort to obtain mastery on Nature. He is not bothered by the fact that he is at the moment enslaved due to nescience, for he is confident that he possesses potential which he can bring to use, when he wills to work out his own absolute freedom. Hankering for this highest goal-ultimate liberation--is innate in him, providing, according to Jaina rackoning, he is a bhavya, or eligible for emancipation. Indeed there exist persons (though extremely few in number) who by nature or training are averse to the pleasures of the senses. Their perception is at once clear, penetrating and comprehensive. They are continually endeavouring to realize the eternal truth or abiding essence of the entity, through calm of mind and control of the sense-organs. Some do succeed and then they are designated “supremes". The rise and fall of a nation can be linked up directly with the presence or absence of such supermen. When broadly divided, religion falls into two categories, namely eternal, or basic, and transitory, or changing. Ideology on which it rests or is founded is its permanent and principal limb; while the rites, rituals and ceremonious celebrations, symbols and images, temples and accessories etcetera, collectively form its subordinate of superficial limb which is renovated from time to time. The philosophy which, along with other things, treats of the relationships of soul with that of the complete annihilation of the karmas resulting into final release from the bondage, is for certain the "basic" one. What can happen if top priority is assigned to religion in the organisation and management of one's own life? If we so did, the materialists state, we would from the start be deemed "failures” from the worldly standpoint. This doubtless can happen if sufficient discrimination is not exercised and no balance between the mundane and the supramundane persuits is maintained. A balance then should be the guiding principle in all activities and actions. The Jainas called it viveka, or sadviveka. Various theories are advanced a proposal of the origin of the religious instinct in man. According to some, the religion was invented to explain the grand nature of the organized universe, the supposed (or imagined) miraculous background of certain awesome and sometimes inexplicable phenomena, and the concept and operation of Godhood behind these two. According to others-and such sunfall of me do sua Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A. S. Gopani this is an anthropological view-it was traceable to the worship of one's departed relations who supposedly remain in a perpetually blissful state "somewhere" and from there help their kinsmen living on earth. There is, in fact, no dearth of theories on this subject. But it is almost certain that the religious instinct is as old as the human existence. If there is Bondage, there must, correspondingly, be Release and hence Freedom also. It is here where Religion comes in the picture. Just as there is the presence of one or the other eternal element in the concept of Religion, this likewise is the potential for its realization. The secret of religion is beyond comprehension of mind; it can be cognised only by meditation for which it is necessary to strip the mind of the layers of impurities. Such and similar considerations have found place in the framework of all religious systems of the past and present. In all the religious systems we come across three common principles, namely the Cosmic Law (God, or alternatively, the Law of Karman), indispensability of adequate knowledge (jñāna) of its form and nature for securing bliss, and the necessity of restricting and finally anulling the ego. Two paths lead to this goal, namely, nivstti and pravrtti, (inertia and activity). Knowledge alone and nothing else can constitute to the first : Pious activities, penance, etcetera the second. From the highest standpoint, religion can be one and only one. A variety of them which we see only represent its branches ramified in different regions, times, and differing local conditions. This then leads to a conclusion that future religious systems, too, will be preaching the same basic concepts and truths in a manner of course appropriate to those times. Time and again "path-makers" or "way-showers" are born to reorientate and reinterpret the Eternal Law and its corresponding form of religion to the then existing society. The cycle will go on for ever. Jainism, too, is no exception nor does it so claim. It rather boldly states about the periodic degradation (avakālana) and resurgence of dharma" as Srimad Bhagvad-Gitá from the brahmanic standpoint does. Mankind at present is marching towards basic unity in all spheres of knowledge and directions. In the field of politics, the ideals and principles formulated by the United Nations Organisation are accepted and being followed as far as the national interests of an individual member-country permit. Almost all the countries are now-a-days economically interlinked. The frequent and often intimate contact between peoples of different sections, countries and continents, lends credence to the idea that the whole mankind is after all one and only one; this feeling is getting stronger. When the conditions such as these prevail everywhere, isolationism in the field of religion is not only impossible but also dangerous. Time has now come to bid goodbye to all the narrow, sectarian, conservative and reactionary thoughts in the domain of religion. Comparative studies of different religious systems of the world are now being undertaken with the result that the Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaina Religion-Its Plea, Practice and Prospects mind and heart now tending to become large and liberal. Knowledge, power and bliss have now become the birthright of man. It is a sheer delusion (stemming from ignorance) that only a religion of a particular nation or a country is valid to the exclusion of others. To accelerate the speed of a man's progress and to make the external unity stable and sound, religious outlook shall have to be catholic, comprehensive, and right. Emphasis shall have to be shifted from routine ritualism to the purifying programme of the mind. To achieve this aim the will have to be steel. It is a belief voiced by several and shared by some that the religions are on their way to extinction as they have served so far no really useful. But this belief has no real basis as can be seen from what the philosophers and scientists in the West have for some time been saying. Day in and day out various serious publications are seen in the market that testify to the fact that the distance between religion, pure philosophy, and science is daily diminishing as indeed it logically must. The majority of writers in the West are now unanimous in proclaiming that man is the architect of his own fortune, that he himself has independently to work out his own redemption, that there is rebirth, that there is something which is sentient, conscious and distinct from the physical body which by itself is insentient and that there is an inviolable moral law which is supreme. The concept of the future religion will be vastly broader, accomodating as it will the knowledge of all kinds inside it as also a central ideal and guiding philosophy that all activities of times and climes from part of, and contribute to, the furtherance of the universal religion". The final goal of life of each and every human being should be to achieve the ultimate goal of life here or anywhere and now or in any time. There is no other option. Universal religion, as Wood indicates, can be one only, and Jainism has qualifications and intrinsic potential to play a significant role in its formulation. Therefore, it follows that we must be even-minded towards all the promulgators of the religious systems and to the sacred writings of all religions. However, tolerance alone is barely suffiicient. At best it is a passive if not totally negative an approach. On the contrary, we must adopt what is best in all of them and assimilate it in life so that it becomes our very way of life. Practice, and not profession, should be our aim, What Haribhadra süri had said is valid for all times. He had said to the effect that he possesses no partiality for either Vira or Kapila. He will accept and absorb everything from any religion whatsover, that stands to reason. Dogmatism deserves dismissal. Faith is one thing; fundamentalism is another. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ETHICAL PHILOSOPHY OF KUNDAKUNDA Kamal Chand Sogani In the history of Jainism, Kundakunda shines as a profound exponent of spiritualism. His thoughts are dedicated to evaluating objects and phenomena mystically. He justifies his approach by saying that people at large have not only listened to, and are intensely familiar with the dualities of life, but they also have experienced them a great deal; on the other hand they have not even chanced come across the mystical approach to life. Kundakunda's works, therefore, strike a tranquil but dynamic note of spiritual inwardness. For him, nothing short of spiritual realisation can serve as the highest objective of human life. Only those who are profoundly interested in the spiritual way of life can benefit from his writings. He pursues the whole subject with intense earnestness with a view to giving a thorough mystical turn to the ordinary ways of man's thinking. His writings often have not been comprehended by those who are not equipped and are not capable of meeting the challenge of life. The intent of his works, if these works are not studied in their entirety and in the totality of their context, would escape since there are găthās in his works which, taken singly, would mislead the reader. To illustrate : "the empirical viewpoint is false and the transcedental viewpoint is true.2 Both the auspicious and inauspicious actions are evil." There is no difference between merit and demerits. They are like the fetters of gold and iron respectively. 5 Again, repentance for past misconduct, pursuit of the good, self-censure, confession before the Guru etc -all these constitute the pot of poison. To say, 'our village, our town, our city, our nation' is self-delusion." On forming a consistent view of his utterances, we find that, although he advises the individuals to dive deep into the depths of human self after abandoning mundane career, he does not ignore the momentousness of moral attitude. He may be the champion of supper-empirical view of life; yet he does not absolutely cast aside empirical view of life. For instance, in the Samayasára, he says that the transcendental viewpoint which speaks about the real nature of objocts is fit to be known by the realisers of the highest spiritual experience. But those who fall short of the experience need be preached by means of empirical viewpoint. While it is not unlikely that we cannot find much in his works which may enable us to form a systematic view of his ethical philosophy; even then, from whatever is available in his works, may shed light on his ethical thinking. In the present paper I shall endeavour to reconstruct his view of ethical philosophy, so that his concepts of right and wrong, good and evil, are properly formulated. As for ethics, I seem to feel that it should be confined to the realm of right and wrong, good and evil. The realm beyond this is the realm of metaphysics and mysticism, not of ethics. I, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ethical Philosophy of Kundakunda therefore, shall not here talk about the supra-ethical character of life, however, important it may be for Kundakunda. What I intend to discuss here relates to some of the questions that arise in normative ethics, and meta-ethics in the context of the ethical views of Kundakunda. At the outset, we come across certain presuppositions which Kundakunda has made in order to work out his moral philosophpy. The first presupposition made by him refers to the existence of the individual centres of consciousness which existed in the past, exist at present, and shall exist in future. In other words, these centres of consciousness have been existing since beginningless time : They, moreover, will endure for ever. These are endowed with cognitive, effective and conative tendencies, by virtue of which they see and know, they like pleasure and fear suffering, and they are engaged in beneficial as well as harmful activities. 10 Secondly, according to Kundakunda, for everything that an individual does, he is responsible (Pahu=Prabhu). No other being can be held responsible for the actions which a person commits. To say that a person is held responsible for an action is to say that he could have done otherwise if he had chosen to do otherwise. Thus the ascription of responsibility to man is inconceivable without a free will. If a man is not his own sovereign, he cannot be free; therefore he cannot be held responsible and also he cannot be praised or blamed, punished or rewarded. Kundakunda seems to be aware of the fact that the assumption of responsibility and that of freedom are parts of the moral institution of life Frankena rightly remarks: “We must assume that people are normally free to do as they choose. If by nature, they were like ants, bees, or even monkeys, if they had all been thoroughly brain-washed, if they were all neurotically or psychotically compulsive throughout, or if they were all always under a constant dire threat from a totalitarian ruler of the work's kind, then it would be pointless to try to influence their behaviour in the ways that are characteristic of morality. Moral sanctions, internal or external, could not then be expected to have the desired effects."!! Thirdly, Kundakunda points out that an individual is the doer of actions, right or wrong, good or evil. That he voluntarily performs actions, follows from the fact of his being a free agent. Again, and as a consequence, he is the enjoyer of the results of those actions. After dealing with the presuppositions of morality in accordance with the ethical philosophy of Kundakunda, we may first proceed to consider what things, or kinds of things, have intrinsic value according to him. In other words, the question that confronts us is : what is intrinsically good or worthwhile in life according to Kundakunda ? The reply of Kundakunda seems to me to be this: The belief in the presuppositions is the first to be intrinsically desired. Kundakunda firmly holds that, without the belief in responsibility, freedom, and the individual centres of consciousness, nothing worthwhile can be achieved in life. 14 It is the root of the tree of moral life, 13 Besides this, compassion for all the living being,'' a Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kamal Chand Sogani whole of knowledge and virtue, 15 observance of five great vows, 16 virtues like contentment, forgiveness18, modesty1", moral emotions like fearlessness, and universal love, and propagation of values-all these are intrinsically desirable. It should be borne in mind that it is the experience of these intrinsic values that is good in itself. Kundakunda states that good experience (fubha bhava) is intrinsi cally valuable.28 Kundakunda speaks of fubha bhava to represent all that is intrinsically valuable 24. It is a complex mental state comprising cognitive, conative and affective elements. The Samayasara regards bhāva, pariņāma, adhyavasaya, citta etc. as synonyms.25 8 We have dwelt upon the things that are intrinsically worthy. But the basic question that remains to be discussed is the definition of good or fubha. Kundakunda enumerates things that are subha. Perhaps he does not face the question 'What is good or subha? It is surprising that he does not give us any criterion of intrinsic goodness. Simple enumeration cannot lead us anywhere. I shall try to give the definition of good which, I believe, shall be in congruence with the utterances of Kundakunda. Thus we may say, subha is an experience in tune with ahisa. Since there are degrees of ahimsa, so there are degrees of fubha or good. The ingredients of this experience which is complex but unified are emotions, and knowledge issuing as a result of an end-seeking action. Satisfaction on the fulfilment of ends is the accompaniment of experience The implication of the definition of fubha or good is that goodness does not belong to things in complete isolation from feeling; a thing is good, because it gives rise to an experience in tune with. ahimsa. I wish to discuss this question a little further. The question as to what is fubha in the realm of ethics is like the question 'What is dravya' in the realm of metaphysics. The definition of dravya given by the Jaina acaryas is: Dravya is that which is sat (being). Here 'being' is used in a comprehensive, and not particular, sense. However, no particular can be apart from being. We may logically say that being is the highest genus whereas the particulars are its species and the relation between the two is 'identity-in-difference'. Similarly, when I say that fubha is an experience in tune with ahimsa, I am using the term 'ahisa' in the comprehensive sense and not in a particular sense. No particular subha can be separated from ahimsa and ahimsā manifests itself in all particular fubhas. In a logical sense, it can be said that ahimsa is the highest genus and particular ahimsas are its species, and the relation between ahimsa and ahimsas is a relation of identity-in-difference. For example, in non-killing and non-exploitation, though the identical element of ahimsa is present, yet the two are different So the above is the most general definition of fubha just like the definition of dravja. It may be noted here that we can understand 'being' only through the particulars since general being is unin telligible owing to its being abstract, though we can think of it factually, i. e. value neutrally. Similarly, the understanding of general ahimsa shall come only through Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ethical Philosophy of Kundakunda the particular examples of ahimsi, e. g. non-killing, non-exploitation, non-enmity non-cruelty etc., though we can think of it evaluatively. I may point out, in passing, that particular kinds of ahimsă are a matter of exploration. Every age develops many kinds of subtle himsi which are a matter of exploration. Gross ahirns i like non-killing is easily recognisible but subtle ahimsi like non-exploitation is a matter of discovery. Thus different forms of ahimsā will ever be appearing before us and by our exploring outlook and tendencies. In fact, ahimsă presupposes a realm of living beings, both human and non-human. So śubha will be operative only in such a realm of living beings. In other words, the experience of $ubha will always be in relation to living beings : No living beings, no Subha. Thus the definition of śubha as the experience in tune with ahimsi is the most general definition like the definition of dravya as that which is sat. The former can be thought of evaluatively, just as the latter can be thought of factually i e. value neutrally. Thus all the goods represented by Kundakunda can stand the test of ahimsā in the comprehensive sense. We can speak of Kundakunda as a value-monist from the point of view of ahimsă and a value-pluralist from the point of view of things that are good in themselves. This theory of intrinsic goodness may be styled 'ahini să-utilitarianism'. This means that this theory considers ends tested by the criterion of ahins i to be the general good which includes one's own good without any incosistency. This ahińsă-utilitarianism is to be distinguished from Hedonistic utilitarianism of Mill, but it has some resemblance with the Ideal-utilitarianism of Moore and Roshdall. The next question that arises is : what is the criterion of the rightness of action? In this life an individual passes through many situations and as a moral agent or as an adviser he has to take decisions. So the interrelated question is : what must we do or advise others to do in a certain situation ? Let me clarify this question. Suppose a man borrows a sword from his friend for self-defence for a particular period of time, shall he return it to him at the expiry of time when his friend is planning to kill his parents ? What would Kundakunda say? Should the man keep his promise or break it ? Keeping in view the good to be produced by breaking the promise, Kundakunda, it seems to me, would advise him to break the promise. Thus the criterion of rightness of action, according to Kundakunda, is the greater balance of good over evil that may be engendered in a particular situaticn. It means that Kundakunda upholds teleological position as distinguished from the deontological one in which an action or a rule is intrinsically right irrespective of the goodness of the consequences. This is tantamount to saying that, in the ethical philosophy of Kundakunda, right cannot be separated from the good. It is true that, from the study of his works, we find that nowhere does he talk of life-situations. He is the master of inwardness, and consequently he is concerned more with the moral worth of an action then its mere rightness. He Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 Kamal Ghand Sogani seems to be aware of the fact that there may be external rightness without there being any moral worth. Kundakunda is prone to transform the individual. In consequence, he discusses the rightness of an action from the standpoint of moral inwardness. For him an action which has no moral worth is morally evil though it may be right. So far as I have been able to understand Kundakunda, he stands for the moral transformation of an individual and seems to believe that if all the individuals take care of themselves, the external situations will always be in harmony with their moral attitude He, therefore, proclaims that mental inclination (bhāva) is the cause of virtue and vice. 38 The moral worth of an action depends on virtuous mental disposition (Subha bhava) or good disposition. It is this virtuous mental disposition which, according to Kundakunda, entails merit (punya) and the disposition contrary to this entails demerit (papa).27 In the Samayasara he tells us that the mental inclination in himsa, falsehood, possession, unchastity, and stealing entails demerit, whereas the mental inclination in ahinsa, truthfulness, non-possession, chastity and non-stealing entails merit.28 In the Pancāstikāya he avers that those actions which are fraught with indolence, which come from anger, conceit, deceit, and greed, which cause injury to others, and which culminate others, fall into the gamut of evil actions. Besides, inordinate indulgence in carnal pleasures, to be subject to sensuous objects, to be occupied with anxietyridden mental states, to enjoy cruelty, fraudulence, thieving, and possesiveness, to employ knowledge in harmful activities-all these are evil inclinations.30 If some evil action because of athubha bhāva is committed, Kundakunda prescribes the performance of repentance (pratikramana), so that the consciousness of Subha bhāva is (indirectly) deepened Kundakunda considers pratikrama a to be so important that in the Niyamasāra he says that, if the performance of attentive pratikrama;a is not possible because of the exhaustion of bodily vigour, one should at least have unflinching faith in it. 31 It seems to me that, in a way, Kundakunda identifies right with the good and wrong with evil. Subha bhiva is right and good : Ashubha bhiva is wrong and evil. These two expressions seem to be one for Kundakunda. Leslia Stephen rightly remarks, .... .... morality is internal. The moral law-has to be expressed in the form, "be this" not in the form, "do this" .... .... the true moral law says "hate not", instead of kill not" .... .... the only mode of stating the moral law must be as a rule of character'. 92 Kundakunda believes in 'to be and not merely in 'to do'. It means that being' should result in doing and doing' should be based on being. Kundakunda says that compassionate disposition should result in the act of kindness to a thirsty, hungry and distressed being with whom feels sympathetic suffering. 33 This comes to a point that Kundakunda adheres to the cultivation of morally good dispositions rather than to the doing of right actions either prudentially or impulsively or altruistically. This, in essence, seems to be the ethical philosophy of Kundakundą. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ethical Philosophy of Kundakunda Notes and References 1. Samayasara: 4. 2. Ibid., 11. 3. Ibid., 147. 4. Prapacanasara-II. 77. 5. Samayasara-146. 6. Ibid.,-306. 7. Ibid.,-325. 8. Ibid,-12. 9. Pañcästikäya-27, 30. 10. Ibid.,-122. Frankena, Ethics, p. 59 (Prentice Hall). Dariana-pahuda-20. 12. 13. 14. 15. Sila-pahuda-2. 16. Caritra-pahuḍa-30. 17. Sila-pahudḍa-19. 18. Bhava-pahula-107. 19. Ibid.,-104. 20. 21. Samayasara-228. Caritra-pahuda-7. Ibid.,-7. 22. 23. Bhava-pahuḍa 76. 24. Ibid.,-10. Pravacanasàra II-65. Pravacanasira I-9,46. Samayasara 271. 25. 26. Bhava-pahuja 2. 27. Pancastikaya 132. 28. Samayasara 263-264. 29. Pancästikaya 139. 30. Ibid., 140. 31. Niyamasara 154. 32. Leslie Stephen, The Science of Ethics, pp. 155-158, 33. Pañcastikāya 137. 11 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOME PROBLEMS OF TRANSLATING EARLY JAINA TEXTS* B. K. Khadabadi Jaina works could be ancient, or pre-medieval, early medieval and later ones. They also could be mainly in Prakrit and Sanskrit. Translating these works in English, an act which must precede serious Jinistic studies, has to face several problems. I shall here prefer to restrict discussion to the problems of translating into English the early Präkṛta texts, namely canonical, exegetical and other cognate works. The history of translation of early Jaina Prakṛta texts into English, unlike that of the Samskit and Pali ones, is neither far long nor far wide. Hermann Jacobi's English translation of the Acaränga-sutra and the Kalpa-sutra (Sacred books of the East, Vol. XXII, 1884) and next of the Uttaradhyayana-sutra and the Sutrakṛtānga (S. B. E. Vol. XVL, 1895) can be said to be the pioneering and systematically planned work in this field. Thereafter the translations of early Jaina Prakrta texts-some complete, some in part and some in contextual form,-have been produced now and then by foreign and Indian scholars, the recent notable attempts being by scholars like Taiken Honaki and K. C. Lalwani. In between Jacobi and the last-noted two scholars stand those like Hoernle, Barnett, Schubring, K. V. Abhyankar, A. N. Upadhye, H. B. Gandhi, N. V. Vaidya and a few other scholars. Taking a bird's eye-view of all such attempts we find that we as yet have not been able to arrive at the complete translation of even the main canonical texts into English, let away be that of the exegetical and other ones. Bringing out thorough critical editions of these texts and their English translation has been a long-awaited desideratum, without the achievement of which the prospects of Jaina studies in the Western and other foreign Universities are bleak For translating an early Prakṛta text it is essential that we must have its critical edition. We so far possess critical editions of only a few canonical works. As regards translating the exegetical literature, this is yet to begin. But waiting too long for the critical editions of all these texts would considerably retard the transIt is hence advisable that efforts toward translating may go ahead, at present with the available editions of the texts. The translator of course should be well equipped with the basic tools of the job-a good knowledge of Prakṛta grammar and lexicon of Jaina dogmatics, doctrines and philosophy of the concerned religio-historical and socio-cultural background, with ability to institute comparative studies3, besides his possessing a more than ordinary command over Engligh language. He has carefully to take Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Some Problems of Translating Early Jaina Texts 13 into consideration the archaic and pithy nature of Prāksta language and the peculiar style found in some of the texts. * Though the text is in prose, at times the meaning in the English translation has to be supplemented with additional words put in brackets or with notes added. at the foot. Otherwise clear expressivity of thought or idea cannot always be achieved in the translation. Many a times a literal translation in English does not bring home the intended sense of the original text. In such context we have to honour, partly or wholly, the following dictum : A true translation should strike a balance between fidelity and creativity, between interpretation and objectivity.5 Let me extend an example within my own experience : A literal translation of a line, EFAT ET QUI would be : That is religion where there is compassion. But, for clarity, I would render it as follows: That is a true religion which has compassion as its basis. In the case of Sūtras we have to resort rather to the method of free translation, which is termed as 'orariais' hy some scholars. Otherwise it is difficult to arrive at the intended meaning of the original. If the text is in verse the task of translating becomes still harder. A metrical translation in English demands a special qualification of English metrics, poetics and vocabulary on the part of the translator. Hence the translation in prose of such verified texts normally fares better. But when the Prakrta text is just a contextual metrical portion by way of quotation of a verse or a few verses, one can translate them in free verse, which can bring variety and beauty to such work. I have carried in my studies this experiment at such contexts. The following verse and its rendering in free verse may be noted : खम्मामि सव्व जीवाणं सब्वे जीवा खमंत मे । मेत्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केण वि ॥" I do forgive all beings ever; May they forgive me too so ! Let me love one and all for sure, Let me be an enemy of none !8 Such technique of translating in free verse can also be fruitfully used in the case of Praksta lyrical verses and religious ballads. I have rendered the entire 22nd Chapter, namely the Rahanemijjam, in the Uttarādhyayana-sútra, in English free verse, free quartaino, one or two of which can be reproduced (39)10 Rajimati noted Rahanemi's mind disturbed, And (so also) his exertion defeated; Losing not her presence of mind, Her own self there she defended. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B. K. Khadabadi (40) That daughter of the great King, Steadfast in her restraint and vows, Protecting the honour of her clan And of family and virtue, spoke to him : (41) Were you handsome like Vaiśramana, Were you pleasing like Nalakūbera, And the very Purandara incarnate were you, I should have no desire for you. At times we have to adjust the translation to the genius of the English expression while choosing a word or a phrase for the corresponding Prākṣta one in the original text. I was, a few days back, rendering the FAT-fail and could not be satisfied with the literal rendering of the last recurring line of the verses in the hymn, namely, तं गोम्मटेसं पणमामि णिज्जं । by using 'bow' or 'bow down' for 'quaf#', for it did not bring down the due sense of the original Prāksta word, nor did it suit the English expression. After some serious thinking, the following translation struck to my mind and to my satisfaction : Before that Gommateś a ever I kneel !12 These are some of the problems, surely not exhaustive, of translating early Jaina works into English, discussed in general and also in the light of my own experiments. German scholars, as noted above, have been pioneers in translating into English the early Jaina texts, as also they have been so in Jaina studies in general. Then some other foreign and Indian scholars have tried their hands, now and then, at this work. It is high time that some more Indian scholars should come forward to take up this work on a systematized plan, so that it can encourage the Jaina studies among the Westerners as well as among those using English as medium in their higher learning. Notes and References A summarised and revised version of thoughts presented at the "Symposium on the Problems of Translating the Jaina Works', held at the P. V. Research Institute, Varanasi, in March 1981. 1. (i) For some more details in this regard, one can go through N. M. Tatia's (1) A Random Selection of Researches in Jainology by Foreigners, Tulsi Prajñā, Vol. V, Nos 9-10, and (2) A further Selection of the Researches by Foreigners, Tulsi Prajila, Vol. V, Nos. 11-12. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Some Problems of Translating Early Jaina Texts 15 (ii) We can also note in this context that some attempts of translating the early Jaina Prāksta texts into German, French, Italian and Japanese languages also have been made. 2. Vide Jacobi's translation of 3911ht as 'famous knight, Sacred Books of the East, Vol. XLV, 1895, p 118. 3. Vide Alsdorf's translation of sa soeuf Brasi" (Uttarādhyayanasütra, XXII, V. 42) as 'you intend to re-enter worldly life', in 'Vantam Āpaturis Kleine Schriften, Glasenapp Stiftung, Band 10, Wiesbaden 1974, pp. 178-185. After seeing some raw attempts at translating and elucidating some Jaina canonical verses and passages, I feel like remarking, after the manner of Hāla, as follows : __ अमयं खलु जिणवयणं सम्मगत्थं जे न याणंति । अणुवाय-कज्जं पि कुणंति कह ते सज्झवंति ॥ "The words of the Jina are indeed like ambrosia. Those who do not know their right meaning but venture to translate them, how can they fare well ?" 5. As concluded by the ‘Poet-translators' Workshop' organized at Bhopal by the National Sahitya Academy in September 1976. 6. The citation is from the Niyamasira-ţikā (I. 6) of Padmaprabha. 7. The Mülācāra, V. 43. 8. The Vaddārādhane : a study, Dharwad 1979, p. 148. To be published shortly. 10. The number of the gāhā in the Chapter. 11. (i) Attributed to Ācārya Nemicandra. (ii) I am aware that he belongs to the tenth century A D.; however, I am quoting the translation by way of an example. 12. The versified translation of the hymn, with introduction and critical notes, is to be published shortly. Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GĀTHĂ-MUKTĂVALİ : A NEWLY DISCOVERED RECENSION OF HĀLA'S SAPTA-SATAKA H. C. Bhayani A. Weber distinguishes six different recensions of Hāla's Sapta-Sataka (popularly also called Gatha-Saptašati) which he designated as : (1) the Vulgate, (2) X, (3) R, (4) S (=Sädhä rahadeva's Muktavali), (5) T=The first Telinga recension), (6) W (= the second Telinga recension). Of these the recensions S and T basically depart from the other recensions in the arrangement of Gāthās. They arrange the Gathās in subjectwise groups called Vrajyā (S) or Paddhati (T) from several anthologies of Samsksta and Präkşta Subhāşitas. We are indeed familiar with this type of grouping and designation. In the MSS. collection of the L. D. Institute of Indology exists a manuscript of a work called Gatha-muktāvali (GM) (No. 7812), which turns out to be one more recension of the Sapata'ataka, different indeed from the aforenoted six recensions set up by Weber. GM is similar to Sadhāraṇadeva's Muktavali and the first Teling recension in that it also groups the Gathās under different Paddhatis, Since its grouping is similar to that of the Muktavali, it differs from T, which first divides the Gāthās into Sat akas or Centuries, and then subdivides each one of the centuries according to the subjects. Obviously, though influenced by S, GM shows considerable independence in the number and sequence of the group as well as the number and sequence of Gäthâs within the groups. The manuscript is incomplete. Only first 14 out of a total of 45 folios (reported in the list of contents for which see further) are preserved. The obverse of the first folio is blank. The manuscript folios measure 23 x 8 cm. Each side has ten lines and each line has forty letters on an average. The handwriting is bold and clear. The padimātrā (prsthamātrā) is used. The Ms is carefully copied; there are therefore very few copying mistakes. No continuous serial numbering for the verses is given, but the verse within each group (Paddhati) are serially numbered. The Ms. breaks off after the word लडइतण in the fourth verse of the स्त्री रूप-वर्णनqefal Over and above the fourteen of the text, we find two extra folios, one of which contains a complete list of contents of the whole manuscript. This folio, though unnumbered, seems to be in the same hand as the folios of the text proper. The list is reproduced below with the serial number added to the Paddhatis, Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gatha-Muktavali: A Newly Discovered Recension of Sapta-Sataka 17 Accordingly, out of a total of 58 Paddhatis and 850 verses, we have in the preserved portion 14 Paddhatis (the 14th being incomplete) and 249 verses? (the last verse being incomplete). The second extra folio has its portion at the right hand upper corner missing; hence the numbering on the back side is lost. On examination it turns out to be a folio belonging to another Ms. of GM. The obverse side begins with fala ang which exactly corresponds with the beginning of the 10th folio of our Ms., and the five letters are the final letters of verse no. 8 of the Varşa-paddhati. But in the stray folio the verse is numbered as the 14th. The remaining verses of the group in this folio, from the 15th to the 17th, exactly cor respond to the Varşapaddhati verses no. 16 to 28 in our Ms. This fact indicates that the different Mss. of the GM, recension varied in matter of the arrangement of verses within a group. Although the number of Paddhatis contained in S and GM (60 and 58 respectively) is roughly the same, only 30 titles are common between the two recensions, our guide in drawing this conclusion is the GM list of contents. Also, the number of verses, their selection and ordering within the groups that are common, show so much variation between the two recensions (judging, of course, from the available portion of the GM) that we must recognise them as two distinct recensions. Although GM had s before it, it shows a high degree of independence in its classification as well as in its selection and ordering for each group. Of the 249 verses of the extant portion of GM, only 179 are common with S, and only the a, a, राजचाट, दान and parts of the पडऋतुवर्णन and स्त्रीरूपवर्णन Paddhatis of GM. have substantial correspondence insofar as the selection (but not the number and sequence) of the verses is concerned. For the rest of the groups there are many omissions and several additions. Regarding the new verses we find, GM is in substantial agreement with the R recension. Besides the numerous verses which are absent in the Vulgate but which GM commonly shares with S and R, there are 15 verses in GM which are absent in S but available in R. Moreover, there are 7 verses in GM which are exclusively found in the T recension, 3 verses which are not found in any recension, but which Weber has noted as citations in the Alamkāra literature, 2 verses which, although found in the Vulgate, are absent in S, and 15 which are not found in any recension and indeed not noted by Weber. A most remarkable oddity to be noted about GM in this connection is that it has included several verses which are not in the Gathā metre. The prominently glaring case is that of 29 verses in Skandhaka metre, all borrowed from the tenth Asvāsaka of the Setubandha. The Süryaśtawana, sandhya, Timira and Candrodayapaddhatis are constituted exclusively with these verses (excepting the last verse in the Candrodaya-paddhati). Besides this, 1.2, 1.8, 11.6, III.14 are Skandhakas. Of these III.14 is the same as Setubandha II1.10. I.4 and X.ii.12 are Gitis, the former being Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 H. C. Bhayani the same as the second Câlikā Paisāci verse cited by Hemacandra under Siddhahema VIII. iv. 326 (the first verse, known to be the Mangala verse of the lost Bịhatkathā and cited by Hemadandra under that Sūtra as also by Bhoja in the Srngāraprakāla is also found in GM as 1,3), and the latter is identical with the fourth verse in the Prastāvanā of the Abhijñānafakuntala. Lastly, V1.16 in the Aparavaktra metre is also taken from the Sakuntala. It appears there as the opening verse of the fifth act. One more fact to be noted about GM is that some of the verses it exclusively shares with S and/or R are also found in Bhuvanapāla's text of the Gathākofas (the Chekokti-vicāra-lila), which also shares with GM a very large number of variants that are different from GM's readings. These comparisons and facts show that, besides using S as its principal source, GM derived some material from S and T (which, together with Bhuvanapāla, had before them a text-tradition for some individual verses that was different from GM's), and for the rest it eclectically selected from a few other sources, not caring to restrict itself to the Gathā verses. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ II CONCORDANCE OF GM. WITH S. AND G. S Some other recension or sourco GM 1, हरपद्धति 1. (1. नमस्कारवज्या) 238 (12. अनुरागन') 2 (मम) 3 (नम) 151 T. 113 W. 816 89 644 (कृष्णचरित्र) 642 " 245 (12. अनुरागव) 112 94 864 (56. सुजनव) 673 674 672 679 677 680 670 250 265 224 319 272 321 320 R.452; W.753 689 (सुज) 678 , 282 285 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 11. C. Bhayani ____ 12 666 (सुज) 671 , 280 113 - 4. दुर्जनप 248 684 (58. दुर्जनव) 685 686 687 689 253 135 537 688 . 5. मनस्विप 588 (31. मनस्वित्र ) 284 R. 450%; W. 752 W.978 6. राजचाटवः 225 (11. चाटुव) 228 213 227 364 471 R. 607;X. 613; W. 726 7. नीतिप 600 (24. साहसव') 128 (7. स्वरूपाख्यानव्र') 251 126 ( ) 243 116 (6. जातिव्र) 68 109 (5. दृष्टान्तव') 217 127 (स्वरू) 255 599 (साह) 245 601 (35. विदग्धन) 286 111 (दृष्टा) 310 132 (स्वरू) 191 दानप° 602 (36, कृपणत) 662 (55. त्यागव) 660 ( , ) 136 230 76 : Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gatha-Muktavali: A Newly Discovered Recension of Sapta-Sataka 9. अन्यापदेशप (1) हस्ती 95 (4. अन्यापदेशव') 100 ( , ) 104 , 383 45 527 R. 668; W. 787 R. 669; W. 788 R. 670; W. 789 R. 671; W. 790 R. 672; W. 791 R. 673; T. 72; W. 792 (2) गौप 597 (33. सौभाग्यव्र०) 460 639 640 R. 587; W. 795 (3) हरिणप 285 (13. प्रेमव) 571 (28. हरिण) 287 589 620 R. 597; W.763 571 (हरिण) 595 (4) शुनकप - 1 689 598 (33. सौभाग्यव) 690 (59. देवरत्र ) 507 (22. असतीव्र° ) 690 664 (5) कपिप 119 (6. जाति) 117 113 ॥ 532 533 171 भ्रमरप 92 2 569 (27. मधुकरन) 3 7 (2. वसंतव") 331 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 ( 7 ) नर्मदा 1 2 3 ( 8 ) अशोकप 1 2 3 4 (9) पाटलाप 123 (10) प्रकीर्णक 1 2 3 4 5 6 593 (32. गुणव° ) 96 (4. अन्यापदेश ) 561 ( मधु 562 (" 564 (मधु० 563 565 ( 566 ( 568 (मधु 37. H. C. Bhayant 11 594 (32. गुण) 497 (22. असतीव्र ) 98 (4. अन्यापदेश ) 40 (2. बसन्त) 93 (4. अन्यापदेशन °) 172 (10. उच्चावचत्र") 51 ( बस ) 102 (4. अन्यापदेशव°) 694 (59. देवर °) 567 (27. मधुवर) 636 (46. मल्लिका") 121 (6. arfa°) 105 (4. अन्यापदेशन') 12 (2. शरद ) 626 (43 इक्षुद्र) 112 (जाति) 139 387 442 444 615 591 592 643 579 549 7 279 404 405 468 469 621 281 392 535 424 R. 484; W. 754 R. 501; W. 755 R. 587; W. 161 T. 53; W. 819 R. 574; W. 760 R. 624; W. 768 S. 626 W. 740 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 411 Gatha-Muktavali : A Newly Discovered Recension of Sapta-Sataka 688 (58. दुर्जनव) R. 594; W. 762 W.982 99 (अन्या) 172 658 (54. सुभटव') 402 627 (इक्षु) R. 654; w.776 12 (जाति) 11 षऋतुवर्णनप (1) वसन्तप 42 (2. वसन्तव) 543 544 406 (19. रोदन) 586 39 (वस) 398 470 ) 499 50 ( , ) R. 664; W. 783 321 (14. मानिनीव०) R. 658; W. 778 45 (वस) R. 659; W. 779 44 , R. 657%; W. 777 397 (रोद) 43 " 443 41 ( 32 वस . 497 128 R. 360; W. 780 R. 663; W.782 675 R. 662; W. 781 311 308 219 20 31 21 412 371 (16. विरहिणीव) 39 ( वस ) 22 322 (2) ग्रीष्मप 54 (2. ग्रीष्मत्र) 402 (19. रोदनव) 288 399 450 (21, सखीसमाश्वासन 70 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H.C. Bhayani 494 56 (ग्रीष्म) 82 (3. उत्प्रेक्षा) R.547; W.758 299 53 (ग्रीष्म') 195 (10. उच्चावचव) 198 , ) 473 T.2673; W.845 (3) वर्षाप° 539 336 170 315 584 584 29 386 567 63 (वर्षाव') 351 (16. विरहिणीव') 612 (40. अप्रगल्भव) 66 (वर्षा') 70 (वर्षा') 75 (,,) 368 (विर) 370 . 67 (वर्षा') 64 400 (रोद') 403 (,,) 62 (वर्षा) 72 (,) 73 ,,) 76(,) 237 (12. अनुराग्रन) 380 (विर') 506 (22. असतीव्र) 65 (वर्षा ) 61 (,) 560 (27. मधुकरन) 538 696 566 436 541 623 324 R. 615%; W. 766 R. 616; W. 767 Y. 420%; W. 711 177 37 R. 684 R. 608 638 560 394 578 88 (3. उत्प्रेक्षाव) 68 (वर्षा ) Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gātha-Muktāvali : A Newly Discovered Recension of Sapta-Sataka 25 27 87 (उत्प्रे) 118 (6. जातिव) 564 102 28 (4) शरत्प 11 (2. शरद्व) 13 " 92 (3. उत्प्रेक्षात्र) 79 (3. उत्प्रेक्षाव) 86 ( , ) 17 ( शर° ) 147 (8. वर्णनाव) 500 (22. असतीव्र) 434 624 186 563 75 263 691 692 693 T. 90; W. 821 9 695 R. 640; W. 769 488 ( अस° ) 22 ( शर' ) 23 (2. हेमन्तव') 574 (29. हालिकव) 575 ( ) 645 (50. प्रत्यूषन) 10 (शर) 14 ( ,,) 15 ( , ) 16 ( ,,) 568 569 606 562 625 681 684 (5) हेमनाप 77 109 329 30 (2. हेमन्तव) 18 (,) 20 , 21 , 24 , 691 (69. देवरत्र) 25 (हेम) 26 S. 641; W. 770 R. 6423 W. 771 R. 6433; W. 772 R. 644; W. 773 R. 6453; W. 730 R, 646%; W. 745 27 28 " " Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 H.C. Bhayani 29 , - 66 (22. असतीव) R. 647; W. 774 T 229%; W. 834 13 (6) शिशिरप 487 (22. असतीव्र) । 19 (2. हेमन्तव) 238 193 (10. उच्चावचत्र) 458 3 T. 556; W. 925 11. सूर्यास्तमनप Setubandha 10.6 10.8 10.97 10.10 10.11 10.14 12. सन्ध्याप 10.16 10.20 10.23 10.24 13. तिमिरप 10.27 10.28 10.29 10.30 14. चन्द्रोदयप 10.31 10.34 10.38 10.40 10.41 10.42 10.43 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gatha-Muktavall: A Newly Discovered Recension of Sapta-Sataka 10.44 10.45 10.46 10.47 10.50 10.51 10.52 10.53 219 ( 11. चाटुब ) 15. स्त्रीरूपवर्णनप 153 ( 8. वर्णनाव) 136 138 234 271 303 W.969 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The verses are given according to the Paddhati and the serial number therein. We have supplied the Sanskrit chāyā also. 2. 1. जा थेरं व हसंती कइ-वअणंबुरुह बद्ध - विणिवेसा । दावेइ भुवण-मंडलमण्णं चिअ जअइ सा वाणी ॥ 3. 4. III GM. VERSES NOT FOUND IN WEBER'S EDITION OF THE SAPTASATAKA 5. [ या स्थविरमिव हसंती कवि वदनाम्बुरुह बद्ध-विनिवेशा । दर्शयति भुवन- मण्डलमन्यमेव जयति सा वाणी ॥ ] संझा-पणाम-घडिओ गिरि-तणआ-विहुअ-वाम-हत्य - विहडिओ । हसिऊण मुक्क-सलिलो एक्क-करेण णिअमंजली जेण कओ ॥ (The Mangala Gatha) [ सन्ध्या प्रणाम - घटितो गिरि-तनया विद्युत-वाम-हस्त-विघटितो । हसित्वा मुक्त-सलिल एक-करेण नियमाञ्जलिर्येन कृतः ॥ ] पनमत पनअ- प्पकुपित- कोली- चलनग्ग-लग्ग-पटिबिंबं । तससु नख-तप्पनेसुं एकातस-तनु-थल लुद्दं ॥ [प्रणमत प्रणय-प्रकुपित-गौरो चरणाग्र-लग्न- प्रतिबिम्बम् । दशसु नख -दर्पणेषु एकादश-तनु-धरं रुद्रम् ॥ ] नवंतस्स य लीला - पाउक्खेवेन कंपिता उच्छलंति समुद्दा सइला निपतंति तं हलं वसुधा । नमत ॥ [ नर्ततश्च लीला- पादोत्क्षेपेन कम्पिता वसुधा । उच्छलन्ति समुद्राः शैला निपतन्ति तं हरं नमत ॥ ] ससिहंड - मंडणा समोहनासाण सुरअण-पिआणं । गिरिस - गिरिद-सुआणं संघाडी वो सुहं देउ | (12) (13) ( 17 ) [ राशि-खण्ड (स-शिखण्ड ) - मण्डनयोः स मोह-नाश ( स - मोहनाश ) योः सुरजन (सुरत्न) - प्रिययोः । गिरिश - गिरीन्द्रसुतयोः संघाटी वः सुखं ( शुभं ) ददतु ॥ ] (14) Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 Gatha-Muktavali : A Newly Discovered Recension of Sapta-Sataka 6. ओंकार-वंक-धणुणो पढम-पुलिंदस्स णमह पुण्णे चलणे । ण मुअंति चडुल-जीहा पासल्लं जाण सारमेया देया ।। (18) [ ओंकार-वक्र-धनुषः प्रथम-पुलिन्दस्य नमत पुण्ये चरणे । न मुञ्चन्ति चटुल-जिह्वाः पार्श्व ययोः सारमेयाः (?) | ] 7. दणुइंद-रुहिर-लित्तो सहइ उविंदो णह-प्पहावलि-अरुणो । संझा-बहु-अवऊढो णव-वारिहरु व्व विज्जुला-पडिभिन्नो ।। (II 6 ) [ दनुजेन्द्र-रुधिर-लिप्तः शोभते उपेन्द्रो नख-प्रभावल्यरुणः । सन्ध्या-वध्ववगूढो नव-वारिधर इव विद्युत्प्रतिभिन्नः ।। ] 8. ते विरला सप्पुरिसा जे अभणंता घडंति कन्जालावे । थोअ च्चिअ ते वि दुमा जे अभणिअ-कुसुम-णिग्गमा देंति फलं ॥ (III 14 ) [ ते विरलाः सत्पुरुषा ये अवदन्तो घटयन्ति कार्यालापान् । स्तोका एव तेऽपि द्रुमा ये अज्ञात-कुसुम-निर्गमा ददति फलम् ॥]. मडहुल्ल आए किं तुह इमीअ किं वा दलेहि तलिणेहिं । आमोए महुअर मालईअ जाणिहिसि माहप्पं ।। ( VI 15) [ लघुतया किं तव अस्याः किं वा दलैः तलिनैः । आमोदे मधुकर मालत्याः ज्ञास्यसि माहात्म्यम् ।।] 10. अहिणव-महु-लव-भावि तह परचुंबिअ चूद-मंजरिं। कमल-वसहि-मित्त-णिव्वुदो महुअर विसुमरिदो सि णं कह ॥ (VI 16 ) [ अभिनव-मधु-लव-भावितां तथा परिचुम्ब्य चूत-मञ्जरीम् । कमल-वसति-मात्र-निर्वृतो मधुकर विस्मृतोऽसि तां कथम् ॥] , 11. एक्कु च्चिअ दुव्विसहो विरहो मारेइ गवई भीमो । कि पुण गहिअ-सिलीमुह-समाहवे फग्गुणे पत्ते ॥ (XI 11) [ एक एव दुर्विषहो विरहो (विरथो) मारयति गत-पतिकाः (गज-पतोन्) भीमः । किं पुनर्गृहीत-शिलीमुख-समाधवे फाल्गुने प्राप्ते ॥] 12. डहिऊण णिरवसेसं ससावरं सुक्क-रुक्खमारूढो । कि सेसं ति दवग्गी पुणो वि रण्णं पुलोवेइ ।। (XII 7) [ दग्ध्वा निरवशेष स-श्वापदं शुष्क-वृक्षमारूढः । कि शेषमिति दवाग्निः पुनरपि अरण्यं प्रलोकयति ॥] Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H. C. Bhayani 13. इसि ( ईसीसि ) चुंबिआई भसलेहि सुकुमार केसर-सिहाई । ओदंसहुति दअमाणा पमदाओ सिरीस-कुसुमाइं॥ (XII 12) [ ईषदीषच्चुम्बितानि भ्रमरैः सुकुमार-केशर-शिखानि । अवतंसयन्ति दयमानाः प्रमदाः शिरीष कुसुमानि ।। ] 14. चंद-णिमिएक्क-चलणा णह-भमिर-मराल-णिमिअ-बीअ-पआ। कमल-वण दिण्ण-हत्था सरअ-सिरी भुवणमोअरइ ।। (XIV 1) [चन्द्र-न्यस्तैक-चरणा नभोभ्रमन्मराल-न्यस्त-द्वितीय-पदा । कमल-वन-दत्त-हस्ता शरच्छी वनमवतरति ।। ] 15. सा माह-मास-गोसग्ग-मज्जिरी तं पि दिन्न-पुण्णग्गी । मिलिआ गोला-तूहे दुवे वि तुम्हे धम्मिट्ठा ।। (XVI 5) [ सा माघ-मास-प्रातर्मज्जनशीला त्वमपि दत्त-पुण्याग्निः । मिलितौ गोदा-तटे द्वावपि युवां खलु धर्मिष्ठौ ।। ] Besides these there are twentynine verses taken from Sotubandha X. The GM. variants are noted at the end. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IV GM. VARIANTS FOR THE GĀTHĀS GIVEN IN W. ( B. stands for Bhuvanapāla's text of the Saptasataka) W. GM. Variants 7 IX viil 1 पा अप्पहरं. 37x ii 22 °भमाइण° (B); °वुड्डुव्वु डुणिवुड्ड (B). 42 VII 1 धुवं. जं सि ण विणिद्दा (B). 66 x v 13 चिरगइअ° (B). 67x iii 17 °मलसं पए तुह विइण्णं (B). कंटइज्जंतमम्हमंगं किणो हससि (B). 68 v 4 . °पहाए अ (B); °विरसो अ (B). 78 VII आसंघिअ° (B); पणइजणो. 77xv 1 °सएणं व (B). 92 IX vi 1 वद्धप्फलगरुई मालइ त्ति (B). 102 x 28 तहसंठिअणेड्डक्कं तपेल्ल° (B). 112 II णिउणं. अणुदिअहं वड्ढतो. गोविआअ (B). 135 IV सणेहदाणेण (B). 136 VIII दाणरहिअस्स (B); वच्छस्स (B). 139 1x vi महइ पाणलोहिल्लो (B). 151 II सूरविवे व्व. 170 x °ओत्तिणिए (B); °पलोट्ट' (B); दिअहे (B); मुप्दा (B). 171 उल्ललइ; कोक्खए इ. 172 मटासेरिहि (B); डुंडुहि. 177 दूमेंति; ममं (B). 186 x महद्रहाणं; °सीआई (B). 191 विरिडिं; गारवग्घविआ; सोण्णार; खंघेण. VII जं मित्तं वसणदेसआलम्मि(8); वाउल्लअं व(B). 113 114 VII 17 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H.C. Bhayani 2 245 253 255 219 xi 230 VIII 238 x vi VI 248 IV 250 III 251 VII IV VII 263 x iv 265 279 viii 281 Ixx 284 285 286 VII 287 Ixiii 299 310 VII 311 III V III 1 असज्झं (B); मणम्मि अस इत्तणं पत्ता (B). खण्णुओ झडिअपत्तो (B); मा (B). पारिअं B). वालुअपडलं (B); ण एइ (B). भाअणो. मंगुलं (B); लज्जिरो. रुवं (B). अकुलीणो (B). दो अकज्जाइं; णिव्वविअ%; जमणिव्वविअं. पत्तप्फलसारिच्छे (B); °वंदम्मि (B). अप्पव्वसो बि सुअणो (B); आहिजाईए. पुण भणामो; ककेल्लिपल्लवापल्लवाण हु हुंति(B). मालिआएणोमालिआइ; फुट्टिहिइ (B);मासलो(B). अत्थमअम्मि. पोट्टं भरेंति सउणी (B); विहलुद्धरण भरसहा (B). जाणओ. सव्वअं (B); मईण वि. ठवेइ उरे पइणो (B); गलंत उप्फं (B). गुणेहिं (B); नेच्छंति पुलिंदा मोत्तिआई (B). °मासम्मि (B); आवीय° (B). रोत्तण (B); जोएइ गअवईउ (B). ण वि तह दूमिज्जइ (B); परेहिं (B). वि ण विणिग्गयाइं (B). फिट्टो. सुढिए (B). दूमिज्जइ (B); पविरलअ. णक्ख°; पिव (B). °णीसहि पिव. को तरइ समुत्थरि वित्थिण्णं णिम्मलं समुत्तुंगं (B); च पओहरो. णेसा (B); गज्जिरुभंत. विच्छड्डो कुसुमरसो होइ (B). दरवे विआई (B); वोद्रहीउ. सासइ ससंको (B); अंवाण वणं. मुंडी कज्जेण विणा वि. एएणं चिअ. 315 320 ___ III x 322 í 324 xxx 329 331 X 336 364 386 x iii ____vi Ix IX 337 392 4 396 402 404 _IX IX x vili 10 3 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gatha-Muktavall: A Newly Discovered Recension of Sapta-Sataka 405 412 414 424 x viit x Ixx __Ixx 442 443 444 454 458 460 467 468 494 497 499 ix 5 4 कमलाहएण जं. 21 ण देह सुत्तु सुवह. 12 वाअंतवहल° (B). चावं जइ वि विसुद्धं (B); सरो (B); विहडंतो; व; केच्चिरं. 13 अविरअ-पडत-जलहर-धारा-रअरज्जु-घडिय-वंधेहि । (B);अवअंतो च्चिअ हक्कइ महिअलं पाउसो उअह ।। ____ पक्खा (B); विअसाविजइ (B); कुंदअकलिआ (B). 10 विव; दूमिज्जइ (B); दक्खिण'. ईसि पि मालईमउलं (B); आरहणपाण° (B). परित्तो जूरइ (B); णिअलाइआ. मयणंमुलीइ मयणवडरोहणं° (B); °वड'. 1 सअलगोट्ठ° (B). आवन्नाइं. णिक्कंड'; पाडलं; कआ इह ग्गामे (B). चोरिविरुएहिं. 12 वारेह णं घरा णेति (B); जा मआ सा मअ च्चिअ. इह ग्गामे (B); तस्सेअ (B). रइअ-अमण (?)-देहो; णवरि गइंदो च्चिअ (B); गरुअमाइ (B). फोफा; समल्लिअइ ( ). जुण्ण अद्दअं (B). ठड्ढेण. एते पहिए घरं णिएऊण (B). जेव्वंतर° (B). 1 एतं; उक्कंठओ. मद्दणसआई. 24 सहइ; परिग्गह आणं व. 5 पूसआण (B). ___वेढएसु (B). पंथकलंवाण (B); आसस (B); मा धरिणिमुहंण (B). अवरि (B); मा तं. छिरेक्क °(B); दिन्न-उन्नअपएण (B). ___16 काले; तुसारेहिं (B). 16 रणझणइ. 26 पडिषेल्लिओ (B). 527 X । 532 535 537 538 541 10 543 549 560 563 564 566 567 568 569 575 576 X iv xiv x ill Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 579 584 585 586 589 591 592 595 606 620 621 623 625 638 639 640 664 681 684 688 689 690 691 692 695 696 711 726 730 740 745 753 755 IX X ×××××××××××× X X IX IX IX IX X IX IX X X X IX JX IX X * R**×××××××EX X IV IX IX VI IX III IX vil iii iii 1 iti ESSE vi vi Hi iv iil 1x iil iv iii 11 ii iv iv iv V 22222 iv iv iv iii lii > K > X vi 1 5 6 3 2 11 12 5 17 3 3 15 19 23 2 H. C. Bhayani 3 3 20 21 1 2 8 9 13 11 20 3 9 (B). 'पवणगलत्थल्लण' (B); धुक्कुद्धुकेइ (B); हिअअं व विज्जुला. पेच्छह (B); उरम्मि. विओला पहिआ (B); उप्पंक (B); °भल्लि (B). 'अविरल - पसरिअं 'अरंद परिमल सुहाए (B). कुंदक लिआए; अहिलिज्जइ (B). आऊ आअड्ढि भल्लः मम्माहआआ. पच्चह ; परिमास'. विमईए (B); तह लालिओ (B). कमलेस भमइ परिमलइ सत्तल (B). मुअइ (B). उच्छेवअं (B); 'जाओ (B). अवरिं. 'घर° (B); 'वोज्झरकलअल; मणोहरा इह गिरिग्गामा (B). पिजह उल्ले तुह (B). जह अहिणंद, वुक्कइ. सिअसेंघव° (B); धूलिपुंज ; वसुआअंति व Raat (B). वासम्मि; सरसचिक्खिलं (B); तस्स सीमं °. चाडुअस्स कुसलाण. वाससअं (B). तं तह (B). 'सास'. पउमालेहडा (B); 'वलणेण; सोत्त. ठाण (B); सरए सहस्स मग्गे (B). संकीलिओ व्व णज्जइ; वासाअमम्मि पंथो; मणेण. सुअं (B); जीवेण. अमअम (B); चंदमुह (B); 'डहणो. चरिएण. रसासाओ (B); सुविण्णछाणं पंडुउच्छूणं; भमासाणं (B). पइणा. 5 10 9 सुअरो चंदो (B). 8 महुअरेहिं (B); संभरतेहि (B). Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंतुक्कत्त. 11 उ Gatha-Muktavali : A Newly Discovered Recension of Sapta-Sataka 35 758 x ii 6 तिसिओ; समूसरइ. 760 IX vii 2 वेडिसलआघरतेल्लि मइलिआ (B). 761 IX vi जीअम्मिव: कलिअं. 762 कि भण्णइ. 763 मइअत्ति मओ मईवि तिसिओ मओ त्ति कलिऊणं; ण पिअइ. 767 19 उत्थंघियाए; सेओ. 768 3 कल्लं व फुट्टिहिसि (B). 769 770 5 ओहार संघासालुआण वइमूलमल्लिअंताणं (B); किलिंचअ (B); वलइ. 771 ___ कुण परिहासं दे दिअर; णहोरणा वराईअं; पुणो पिकं कुणसु तं छाअं. 772 पावरेणं; वासभवणेण (B); जस्स उरम्मि णिसम्मइ (B). 774 उअ अस. 777 पवणो; °पत्तं. धरिज्जिहिइ (B); °पल्लवाणं जो. 780 14 सज्जेह देह तूरं (B); कुणह विच्छिति (B); पुहविवइस्स ( B); जह हलहलओ ( B). . 781 17 वणअव; वसंतमासे; पुणो वि. 782 15 दूरं; °परिमल ; विव. 783 जणस्स ( B). 787 4 °संठिआरक्खं ( B ); जीहमेत्तमहुरं कलमछेत्तं. 788 IX15 वणसालिणो ( B); होही. 790 विसमाह अपडहवेढणाविउलं (B); जाणइ णिव्वाहेउं. 791 IX ओमग्गकवोलेण गयमएण पत्ते; दसावसाणम्मि (B); तए (B). 795 खुरपीढपेल्लणदलंतपत्थर° (B); धवलोआरिअपंथे. रए लच्छी. 819 गमेसु; वासअ. 821 अंवे; जाणंता विअ. 834 वोलीणो. 845 राईउ; जह इर. 925 दीहा वि समप्पइ; कह ण ते. 778 1X IX 816 ००० 13 11 12 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 969 978 982 Setu. X 19 - : : 19 " 17 V Variant readings of the Setubandha verses found in GM. as campared with the texts according to the Setutattva candrikā (R G. Basak's edition) (S), Goldschmidt's edition (G) and the Kāvyamālā edition (K). GM. " " " 37 33 17 " 19 . 13 17 33 XV V IX 6 8 9 10 11 14 16 20 23 24 27 28 29 30 31 34 40 X 41 XI " 13 7D 11 " XII " 11 "1 XIII 39 ." " XIV " " دو 1 2 3 4 5 6 1 2 3 4 1 2 3 4 5 2 4 4 3 5 8 H. C. Bhayani लडहत्तणअं. 'वअंस.. जह गंभीरो जह; सो सरसवाणिओ ण कओ. इणो (GK). रइ° (,, ). दिसा भोआ 'वेढं (GK). दिवसे. दिवस, विरमे (S) ; गमिआ ० ; ° किलिताई (GK). फुसि अण, 'होमुद्ध' (S°होसुद्ध); रइणो. अग्गाई. दीसइ; °सढ° (GK); कुमुअ° GK. थइअं ; भाअं णिव्वडंति (S). 'अ' (GK). तिमिरवि लिब्भंतमइलमुद्ध* . मउलाविअ ' ; वडण° (GK). उक्खड;° उत्तंभि॰; लंविअत्वसद्दो; घेत्तव्व. अ; उवरि° (GK). कसिण. विवं'; 'सुउमाल'. वित्थिण्णं (GK); तडुज्जुअ; खाऊण; उक्खित्तं ( S). वहलम्मि वि तम' (GK); णिव्वाविऊण; अणुवति. * In Basak's edition घुम्बन्ततिमिर is to be read for धुम्बन्त in XI 38. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 " Gatha-Muktavalr : A Newly Discovered Recension of Sapta-Sataka 3 7 परिमासण'; अवडिच्छि° (GK); पाडेति दिणअर. फुसिओ; विरइओ. "अराई; थोअ° (GK); पअडंति (GK). उवउत्त. णिराअपलंवो; °पडिओ. मईद धवलससि. ओअत्ते. °वलिआ (s) भमंति. °च्छंदण. विच्छूढव्व ससिअरं; अविभा' (GK). Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BUDDHISÅGARASURI'S LINGĀNUSASANA WITH Introduction AUTO-COMMENTARY N. M. Kansara Buddhisagara süri, the disciple of Vardhamanasüri of Candra-gaccha, was contemporary and co-disciple of the famous Jinesvara süri, the arch-patriarch of the future Kharatara-gaccha, He flourished in the first half of the eleventh century A. D. Jineivara suri mentions at the close of his Pramanalakṣaṇa that he and his co-disciple Buddhisägara süri undertook to compose a work on nyayalaklaşa (epistemology) and yakaraga (grammar) respectively, with the express motive to meet the criticism that the Jainas wrote on work of their own on these twin subjects. Thus, Buddhisägara sūri composed his Pañca-granthi-vyakarana, also known after the name of the author as Buddhisagara-vyakarana. Further, Jinesvara süri declares that the yakaraṇa work in question was in verse and composed after consulting the work of Panini, Candra, Jainendra, and Viiränta, as also the Durga-fika. H. D. Velankar, in his Jina-ratna-kofa, has noticed that this work has been alluded to in S. 1095/A.D. 1035 by Dhanesvara sūri (Candra-Kharatara gaccha) in his Surasundari-katha, in S. 1120/A. D. 1064 by Abhayadeva süri (Candra-Kharatara gaccha) in his Pancalaka-vrtti, in S. 1125/A.D. 1069 by Jinacandra sūri (Kharatara gaccha) in his Samvegarangalala, in S. 1139/A.D. 1083 by Gugacandra süri (Candra-Kharatara gaccha) in his Mahavira-carita and next by Jinadatta sūri (Kharatara gaccha) in his Gayadhara-särdha-lataka. It is likewise noticed by Padmaprabha in his Kunthumatha-carita and lastly in S. 1334/A.D. 1278 by Prabhacandracarya in his Prabhavaka-carita. (The manuscripts of these works have been listed in the catalogues of the Jaina Bhandars at Jesalmer, Baroda, Ahmedabad and Patan. of these are also available in print.) The Pañca-granthi-vyäkaraya enjoys a unique place in the history of Sanskrit grammar in that it is the first work of its kind composed in metrical style, accompanied by an auto-commentary, and that it is prior in date to the famous Siddha-Hema-Sabdanufasana of Hemacandra. Jine vara suri has noted that the extent of the work was about seven thousand flokas, and that it was completed in S. 1080/ A.D. 1024 at Jabalipura (Jalor) in Rajasthan. Possibly the title "Pañca-granthivyakarana" is given the work to suggest that the author has covered in it all the topics connected with sajñā, dhātu, gaya, uṇādi and lingānušāsana, The Linganufasana of Buddhisägara süri, which is here edited for the first time, is not an independent work like that of Vamana or of Durgasithha. It is incorporated in the Pañcagranthi-vyäkaraṇa, in the initial 38 gathas of the second. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Buddhisāgarasüri's Lingānus asana with Auto-Commentary 39 adhyāya. In the mss., the verses are not serially numbered. Instead, they are de novo numbered after the completion of the topic of each of the genders. Thus the initial 27 verses deal with the words used in the neuter, the next six treat the words used in the masculine, and the next five refer to those used in the feminine gender. These groups also include those words having two or three genders as might be relevant to the group. The work to a large extent is influenced by that of Vamana, and those words which have not been included by Vámana are drawn from the work of Durgasimha. The peculiarity of the mss. of the work is that they first give the topicwise verses continuously in a group and then follows the auto-commentary on them in order. My attention was drawn to this Buddhisāgara sūri's grammar by Pt. Dalasukhbhai Malavania when I consulted him with regard to the Sarasvati-kanthabharaṇa vyākaraņa of Bhojarāja. He casually mentioned about Pancagranthi-vyakarana, adding that a ms. of this work was first studied by Pt. Bechardasji Doshi, and later on the same was sent to M M. Professor Kashinath Shastri Abhyankar, and that both the scholars opined that it was too corrupt to make out the contents of the work. At first, out of sheer curiosity, and next with a desire to take up the challenge, I started copying the ms. afresh, although some folios formerly had been copied to the extent of about 80 pages, and I copied about 29 further folios. For about the initial 13 folios, I was walking in dark and passing through a jungle of phrases which gave no clue to the topic under discussion. But, in the middle of the thirteenth folio, the statement purporting to the end of the Lingānus asana gave me hope and I could locate the whole work as starting from the beginning of the second adhyāya. The next difficulty was about determining the correct readings of the text from the highly corrupt readings in all the mss. available to me, since they were copied from the same criginal, and repeated almost the same scribal errors, and at times added a few more by way of their own contribution, which further confused the issue. The Lingānušāsana of Vamana and Durgasimha were helpful towards this end, especially since in many cases the illustrations in the auto.com. mentary paralleled both in sequence as well as substance. In this paper I have preferred, after the manner of the editor (Smt.) Vedavati Vyākaraṇopādhyāyā of Vāmana's Lingānušāsana, to give merely the critical text. I have left the details of variant readings for a comprehensive independent edition with comparative notes and an index, as also a detailed discussion about the life, date and works of the author, as has been done by Koparkar in his edition of Durgasimha's work. My object in publishing this text of Buddhisāgara sūri's work is to draw the attention of Sanskrit scholars in India and abroad to this pre-Hemacandra Sanskrit laksana-śāstra. Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ श्री बुद्धिसागरसूरिकृतं लिङ्गानुशासनम् (स्वोपज्ञवृत्तिसनाथं पञ्चग्रन्थिव्याकरणाङ्गभूतं च ) नपुंसकलिङ्गमाह सम्पादक: डॉ० नारायण म० कन्सारा [ अथ लिङ्गानुशासनम् ] सप्ताधिका विंशतिरत्र २७, पुंसि षट् च, स्त्रियां पञ्च तु वृत्तभेदः । [ अत्र नपुंसकलिङ्गे This semi-verse states that the author has treated the subject of Lingānuśāsana in 38 verses, of which 27 verses deal with Napusakalinga, 6 verses are devoted to Pumlinga, and the next 5 verses elaborate the Strilinga.] नाम नपुंसकलिङ्गमि लस्तुत्वतनत्तहलोररुयं द्वयच् । मंच गृहे र्जरतं च तमो द्वास्तालुरणार्धनपूर्हृदयं भम् ॥ १ ॥ नामेत्यादि । यद् व्युत्पत्तिमन्तरेणार्थप्रतीतिकरमनादिसमभिधानं तन्नाम । रूढिशब्द इत्यर्थः । तदधिकृतं वेदितव्यम् । नपुंसकलिङ्गं चा पुंल्लिङ्गात् स्यात् । ल-स्तु-त्व-त-न-तशब्दान्तं नप् । जलम् मस्तु । तत्त्वम् । क्षतम् । विपिनम् । वृत्तम् । त किम् ? अन्यायुक्तार्थे । तुन्तः । कुन्तः । हस्तः । मुहूर्तः । धम्मिल्लः । हलोररुयम् । हलः परे ररुयान्तम् । पात्रम् । शुक्रं रेतः । देवता तु भार्गवः शुक्रः । अश्रु । सस्यम् । द्वयच् । शिसिन्तं ( असिसुसन्तं ?) द्वयच् नप् । पयः । सर्पिः । इदं वयः पक्षी । रक्षः राक्षसः । तमः राहुः । रित्वात् आणि देवस्य पुंस्त्वं प्राप्तं बाधते । सन्तमेव रित् परं बाधते नान्यम् । तेनायं पारापतः पक्षी । असनं वृक्षः । पुत्रः । शत्रुः आर्यः । मं च । द्वयज् मन्नन्तम् । कर्म । द्वयचौ किम् ? स्थूलशिराः । ना । तरीमा कल्पः । गृहे जरतं च । गृहवति र्ज-र-तां तं च । प्रागुक्तं तं च । इतो रितोर्द्वयर्चादित्वात् तल्लिङ्गास्त्वार्षाः । र्ज । उटजम् । उटजः मुनिगृहम् । मन्दिरम् उदवसितम् । पुनस्तं तसंयुक्तार्थम् । निशान्तं च किम् ? भवनं वेश्म धिष्ण्यं हर्म्यम् । एतत् किम् ? आवसथः । वत्सादेर्नाम । तमः तिमिरं ध्वान्तम् । तथा द्वारं गोपुरम् । तालु काकुदम् । रणं मृधं युद्धम् । धनं स्वापतेयं वसु । पुरं पत्तनम् । हृदयं चित्तम् । भं नक्षत्रम् ॥ १ ॥ रं च तनोर्दलखामृतदुःखमांसहिमं मुखशमघ विड् भी । पुण्य बिलौषधवस्त्रजलास्रदारुधनुशिखराजिर पिच्छम् ॥ २॥ रं चेत्यादि । रं तं च प्रागुक्तम् । तं च । तनोः शरीरस्य नाम कडेवरं ( कलेवरम्) च । किं च वपुः क्षेत्रम् । रं किम् ? कायः दलादीनां नाम र्हलोदरान्तानां नाम । दलं पर्णं पलाशम् । खम् इन्द्रियं हृषीकम् अक्षम् । खं किम् ? अक्षश्चन्दकः । तथाऽथ खम् आकाशम् अम्बरं वियत् विहायः । अमृतं Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् पीयूषम् । दुःखं [कष्टम्] । मांसं पलं तरसम् । हिमं तुहिनं तुषारम् । मुखं तुण्डम् । पुष्करं मुरजमुखम् । शं सुखं शर्म । अघं पापं वृजिनम् । विट् पुरीषम् अशुचि । भयं साध्वसम् । नाम किम् ? भीः भीतिः । पुण्यं सुकृतम् । बिलं विवरम् । ओषधं भेषजम् । वस्त्रं चीवरम् । जलं तोयम् । असं रुधिरम् । दारु काष्ठम् । धनुश्चापम् । शिखरं टङ्कम् । अजिरं प्राङ्गणम् । पिच्छं बहम् ॥ २॥ .. हलोदराणां फलपुष्पलोहमण्डनोद्भिजव्यञ्जनजात्यपत्यतो-। काणां क्रियाचादिविशेषचार्थाद् ऐक्ये द्वित्रिपात्रादि च चादितः पथः ।। ३ ॥ . हलेत्यादि । उदरं जठरम् । फलादिजातीनां च नाम । फलं कपित्थं लकुचम् । पुष्पमुत्पलं मुद्गरकम् । लोहेनाग्निविलेयस्य कांस्यादेग्रहणम् । लोहं कृष्णं कालायसं, स्वर्ण सुवर्ण, रूप्यकं, त्रपु वङ्गं, सीसकं नागं, तानं शुल्वं, सिक्थं मदनं, जतु [लाक्षा] | मण्डनम् आभरणं केयूरम् अङ्गदं कटक मुकुटम् । उद्धिजं बिडं सैन्धवं रोमकं लवणम् । व्यञ्जनम् उपदं शं दुग्धं दधि उदश्वित् मधु माक्षिकम् । तथा अपत्यं तोकम् । नानयो म । द्वयोर्ग्रहणात्तु सूनुः । क्रियाचादि विशेषचार्थदैक्यै । क्रियायाः चादेश्च विशेषो विशेषणं नप् । ऐक्ये एकत्वे च वर्तते। मृदु पचति । नीचं याति । चादेः पुरस्ताद् रमणीयम् । दिग्देशः कालो वा । निर्देशादनामापि । सविनयं पृच्छति । चार्थदा चार्थो द्वन्द्व एकत्वे वर्तमानो, दालक्षितो, अव्ययीभावश्च नप् । पाणिपादं, हस्त्यश्वम्, अहोरात्रम् । दा। अधिरित्र, उपबन्धु, पञ्चनदं, शनैगङ्गम् । दित्वादन्यपदार्थेऽपि न वाच्यलिङ्गता। द्वित्रिपात्रादि च । द्वित्रीति समाहारद्विगुः। पात्राद्यन्त एकत्वे वर्तते । त्रीणि पात्राणि समाहृतानि त्रिपात्रं त्रिभुवनं, चतुर्युगं, चतुष्पथं, त्रिरात्रम् । चादितः पथः। चादिपूर्वपथः कृतसमासान्तो नप् । शोभनः पन्थाः सुपथं, दुष्पथं, कापन्थम् । चादेः किम् ? जल अपन्थाः। स्विति पूजायाम् । चानुवृत्ते यथाप्राप्तं च द्विपथम् । अन्यार्थेऽपथो देशः ॥३॥ र्डस्त्येतदादित्व उपक्रमोपज्ञे नाम्नि कन्था यदुशीनरेषु । छाया बहूनां च सभा च सङ्घराजर्थरक्षः सदृशां गृहे तैः ॥ ४ ॥ उंसोत्यादि । डंस्त्येतदादित्व उपक्रमोपज्ञे । उपक्रम्यत उपज्ञायत इति भावाख्ययोघण् । डौते तच्छखः। एतयोरादित्वे प्राथम्ये गम्यमाने डस्तीति षष्ठी। समासे सति । नन्दोपक्रमाणि मानानि । नन्देनादौ कृतानि । पाणिनस्योपज्ञा पाणिनोपज्ञमकालकं व्याकरणम् । चन्द्रोपज्ञमसंज्ञकम् । एतदादित्वे किम् ? देवदत्तोपक्रमः प्राकारः। तदपज्ञो रथः। नाम्नि कन्था यशीनरेषु डॅस्ति । संज्ञार्थे कन्था । सौशमिकन्थम् । आह्वरकन्थम् । नाम्नि किम् ? वीरणकन्था। उशीनरेषु किम् ? दाक्षिकन्था । ग्रामसंज्ञा । सोऽयं न चोशीनरदेशे । छाया बहूनां च । बहूनां सतां सत्का छाया, तैः सह कृतषष्ठ्यन्तसमासो नप् । शलभानां छाया शलभच्छायम् । इषुच्छायम् । बहूनां किम् ? वृक्षस्य च्छाया वृक्षच्छायं, वृक्षच्छाया । नित्यमिदम् । तैः किम् ? शलभानां परमच्छाया । सभा च सर्छ । सभा नए सङ्के वाच्ये, येषां सङ्घस्तैः सह समासे । स्त्रीसभं, विप्रसभम् । तसङ्घ इत्यर्थः। राजार्थरक्षः सदृशां गृहे तैः। राजाभिधेयो येषां शब्दानां तेषां सत्का सभा, तैः सह समासे गृहे भवने वाच्ये । चानुवृत्तेः सङ्घ च । इनसभं, ईश्वरसभं, नृपतिसभम् । राजार्थानां किम् ? जगत्तुङ्गसभा। अर्थग्रहणाद् राज्ञापि न । राजसभा । रक्षः सदृशां सत्का सभा, भवने सङ्घ च वाच्ये, तत्समासे नप् । राक्षससभं, पिशाचसभम् ॥ ४॥ स्वाङ्गे सुहृन्न्यायदलेषु धर्मे मित्रेऽथ सारार्धमु कर्मभावे-। ऽणादिः समूहे च कृदच्च भावे भक्तास्पदात्तं यवसं पुरीतत् ॥ ५ ॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 नारायण म० कन्सारा स्वाङ्ग इत्यादि । स्वाङ्ग सुहुन्न्यायदलेषु धर्मे मित्रेऽथ सारार्धम् । स्वाङ्गादिष्वर्थेषु धर्मादयो नप् । स्वाङ्गे धर्मसाधने क्रियाकल्पे । इदं धर्मम् । एतानि धर्माण्यासन् । सुहृदि, मित्रं सखा । न्यायादनपेते, इदं सारम् । दले समप्रविभागे । अधं पिप्पल्याः । एषु किम् ? एष धर्मः सनातनः । मित्रो रविः । सारः प्रधानम् । ग्रामार्धः । उ निपातः । कर्मभावेऽणादिः समूहे च कृदच्च भावे । कर्म । पथोऽत् । अदन्तस्तद्धितभावे नप् । ब्राह्मणस्य भावः कर्म वा ब्राह्मण्यम् । आधिपत्यम् । भावे श्वेतत्वं श्वैत्यम् । काष्यं, दाढ, गौरवं मार्दवं, स्तेयम् । अदन्तः किम् ? ग्रामता, गरिमा । समूहे भैक्षं, कापोतं, राजन्यकम् अश्वीयम् । कृदपि भावप्रत्ययान्तो नप् । हसितं तस्य । शोभनं भक्तम् । लब्धं सिद्धम् । करणम् । सांराविणम् । सान्द्रविणम् । वर्तते णिन् । ततोऽण् | आसितव्यं, शयनीयं, स्थेयम्, अवध्यं कार्यम्, ईषदाढ्यंभवं देवभूयं गतः । देवत्वं गत इत्यर्थः । अत् किम् ? कृपा, कृतिः, भिदा । घणाद्यन्तानां तु पुंल्लिङ्गं वक्ष्यति । अध्वरः घनः, किकान्त (?) इति । भक्तम् अन्नम् ओदनः । आस्पदं प्रतिष्ठा । यवसं घासः । पुरीतत् अन्त्रम् ॥ ५ ॥ ललाटविटे पिटं कुटुम्ब समीपदम् । कुसीदमृणं गुदं कुकुन्दरचामरे || ६ || कारणकारकलोष्टक रोटं साहसकुङ्कुमकित्वनिरुक्तम् । अक्षरमन्तरमूषरदेवतबाहु च जानु कसेरु च वैरम् ॥ ७ ॥ सिध्मेध्मकुर्पोडुपयुग्मगुल्मश्राद्धं गृहस्थूणशरोर्णरत्नम् । चिह्नान्तरी पोक्थबिसार्धंटाहः पात्रोल्मुल्काभ्रं कुलिशं कलत्रम् ॥ ८ ॥ लोकायतालीढभगेङ्गुदाङ्गं स्फारं शर्फ गह्वरबाष्पशष्पम् । शालूकवृन्दं पदराजसूयं सूक्तं प्रियं तुम्बरुवाजपेयम् ॥ ९ ॥ कान्तारतीरे शिशिरं करीरं शृङ्गाङ्गदूराररिभाण्डसक्थि | क्षूणोष्णपीठं शवगन्धमादने चैकपुण्यात् सुदिनादहं स्यात् ॥ १० ॥ कुहक चिबुके लिङ्गं बीजं कणिशबडिशे शीर्षाक्ष्यण्डं सबुसपलिशे रूपं तत्पं क्रकचशरणे शिल्पं पृष्ठं कुहकेत्यादि । अतो अदन्तादिपुंस्त्रीत्वे प्राप्ते नप् । कुहकमित्यादि सुगमम् । यावद्दशमान्ते एकपुण्यात् सुदिनादहं स्यात् । कृतसमासान्तम् । एकाहं, पुण्याहं सुदिनाहम् ॥ ६-१० ।। किसलयजगञ्च भुवनं त्रिविष्टपं कशिपुपञ्जरं कलभम् । प्रातिपदिकं कुटीरं यदप्यव्यक्तलिङ्गोक्तौ ॥ ११ ॥ तथा अव्यक्तलिङगेतौ । अव्यक्तस्यास्पष्टस्य लिङ्गस्योक्तावभिधाने यत् प्रयुज्यते तन्नप् । किं तस्यागमे जातम् ? यत् तत्रोत्पद्यते तदानेयम् । इमानि गोरूपाणि गावो बलीवर्दाश्च समेता उच्यन्ते । भूतानि सर्वे प्राणिनः । सप्तमी किम् ? यच्छिष्टैरव्यक्तलिङ्गोको प्रयुज्यते तन्नप् । तेन सुतशिशुगोसिन्धुशब्दानां न नप्त्वम् ॥ ११ ॥ सङ्ख्येय सङ्ख्यैकपराशताद् यत् आन्तर्दिगुर्डस्तिसुरानिशाच्छा- । याशालसेनानगराचिषोऽत्विश् अर्धर्चवाराशनमन्धकारः ।। १२ ।। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् सङ्ख्येत्यादि । सङख्यकपरा शताद् यत् । शतापि सङ्ख्याऽदन्ता नप् । सङ्ख्येये वर्तमाना एकपरा एकार्थनिष्ठा च स्यात् । शतं पुरुषाः स्त्रियः कुलानि वा । एवं सहस्रम् अयुतम् । अत् किम् ? इयं लक्षा कोटी च । अयं शङ्कः। सङ्ख्येये किम् ? शतं नणां, द्वे शते, त्रीणि शतानि । सङ्ख्या किम् ? लिङ्गाधिकारे सर्वसङ्ख्यार्थम् । तेज शत्यादि स्त्रियां वक्ष्यति । सङ्ख्येये सङ्ख्यैकार्थपरा स्यात् । विंशतिः पुरुषाः । एवं त्रिंशत्, नवतिः। विंशत्या पुरुषैः । सङ्ख्येये किम् ? पुरुषाणां विंशतिः, द्वे विशती, तिस्रो विशतयः। आन्तदिगुः । आकारान्तोऽनन्तश्च द्विगुर्नप्। स्त्रिया अ युत्याहार गत् । स्त्रीलिङ्गं चातः यावत् । षिति । पञ्चखट्वं, पञ्चखट्वी । दशमालं, दशमाली । अनु । पञ्चतक्षं, पञ्चतक्षी । पञ्चराजं, पञ्चराजी । ईस्ति । षष्ठीसमासे सुरादि च । यवसुरं, यवसुरा। भूतनिशं, भूतनिशा । वृक्षच्छायं, वृक्षच्छाया । गोशालं, गोशाला । क्षत्रियसेनं, क्षत्रियसेना । नगरं, नगरी । इदं इयं वा अचिः ज्वाला च । अत् प्रत्याहारार्थः। विशिति स्त्रियां विभीतकादिः। कट संघता(?) । विश्प्रत्याहारोऽत्र पागन्वप् (?) च । विभीतकमित्यादि । अर्धर्चाद्यन्तेऽप् नप् । अप् प्रत्याहारार्थम् । अपः पुंसि पाठात् पुंलिङ्गत्वं च । अर्धर्चम्, अर्धर्चः । वारं, वारः इत्यादि । अष्टादश दिनस्य कमण्डलुः । दिननामाप्युभयम् । दिनं, दिनः । दिवसं, दिवसः । वासरं वासरः । अहर्नपि षविशे(?) ॥ १२ ॥ ओदनचन्दनशृङ्गविधानाः तालखलीनमठासनपानाः । स्तेनविमानयुगन्धरसूत्राः गोमयपत्रपवित्रकषायाः ॥ १३ ॥ मालकपुस्तकमस्तकनिष्काः मोदकमञ्चकशाटकशूकाः । मूषिकतण्डककर्पटशुल्काः क्ष्वेडितपातकभूषणकूटाः ॥ १४ ।। अर्बुदलोहितयौवनवृत्ताः आश्रम संक्रमसङ्गमबिम्बाः। देहसुवर्णवसन्तपलालाः कुण्डलतैलतमालमृणालाः ॥ १५ ॥ मङ्गलशम्बलशालकरीषाः तोरणतोमरपार्श्वशरावाः । कर्षदृढामिषमूलसहस्राः माषबलोपलविक्रमशीलाः ॥ १६ ॥ चरकचषको खण्डं मुण्डं तडागकरण्डको निकटकपटौ कुण्डं काण्डं विहारनडायुताः। पूलिननलिनी षण्डं दण्डं शरीरतृणवणाः शरकशयनौ गूथं यूथं चषालमलौ तलः ।। १७ ।। शकलचमसौ मुस्तं बुस्तं शतव्रतदेवताः चरणकवचौ हस्तं पुस्तं दिनश्च कमण्डलुः । समयकवियो दोपं द्वीपं पिनाकतटवजाः करकशकरौ नेत्रं मूलं रसांशनखवणाः ॥ १८ ॥ ऐरावतप्रयुतसान्ववतंसजृम्भाः कसिबाणभुवनाशकाशकोशाः । वल्मीकशाकवरपारविटङ्कतका अङ्गारताण्डवकिरीटकपालवालाः ॥ १९ ॥ पूर्वप्रवालशतमानकबन्धतीर्थाः गाण्डीवगेहमलयाम्बुजजन्तुसूर्याः । कार्षापणाव्ययवितानसपल्लवापरालोपवासफलकोत्पलवारबाणाः ॥२० ।। शेखरखण्डलदाडिममध्याः कर्कशताडनकुट्टिमराष्ट्राः। द्वीपिनवल्कलमण्डपवप्रा अङ्कुशवास्तु च कुञ्जरभावी ॥ २१ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 नारायण म० कन्सारा कुतपो विटप निगडो रजतः ककुदो महिमा वलयो निधनम् । तिमिर मुशलं कमलं कललं समर कुमुदं कुसुमं पलितम् ॥ २२ ॥ प्रग्रोवपात्रीवीरपिष्टौ अर्चस्कचक्रौ कुपोऽप्यरण्यम् । अष्टापदः स्थाणु च पुच्छकूर्ची उद्योगमुद्यानशरौ च नीडः ॥ २४ ॥ शैलद्यूतौ शौचं कुष्ठं पूलस्थानौ शल्यं कुल्यम् । प्रेमप्रेषौ मौनं मानं कर्मस्नेहौ लोमन् ब्रह्मन् ||२५|| मुकाकाशी क्षेमं क्षीरं शङ्खः पद्मः स्यादम्भोजे । भूतप्रेते पक्ष्मा च शङ्कुः पाशः पिण्डः सत्त्वम् ||२६|| शङ्खः पद्मः स्यादम्भोजे । जलजेऽर्थ उभयलिङ्गौ स्तः । निधिः पुरस्येव । भूतः प्रेते पिशाचेऽर्थे उभयलिङ्गः । अन्यत्र भूतम् उपचितम् । भूतानि प्राणिनः । उपमानक्रियावचनश्चाभिधेयलिङ्गः । पितृभूतोऽयं, पितृभूतमिदम् । पद्मः, पद्मम् । तुलम् ( ? ) । अर्मम् अक्षिरोगः । शङ्कुः संख्या । पाशः बन्धनम् । पिण्डः कायः, पिण्डम् अय: । सत्त्वं गुण:, सत्त्व : प्राण, इत्यादि ||२६|| उद्यमपटहप्रतिसर मरककमठसैन्धवो लवणे | कण्टकमूलकपटलाः कन्दरमुकुलोऽस्त्री मण्डलं रिपु नप् ॥२७॥ मुकुलोsस्त्री । मण्डलोsपि । अत्र लिङ्गाधिकारे यो रित् सोऽत्रापि नपार्थम् । अर्चेति द्वयच्सु यदुक्तं तदन्तं त्र्यकार्ये । कुटजं कुटज : मुनिगृहम् । रणः रणं युद्धम् । एवं धनर्मांसहिम औषधवस्त्रर्दारुशिखर र्हल लोहफल क्रकचदैवर् गुल्मर् कान्तारमण्डलपिटका: । स्त्रियां वर्षाः । पुंसि व्रत्रमासव्रणर्नालादि विषङ्कगृह इत्यादि । रित्प । पकारः प्रत्याहारार्थः । नपुंसकलिङ्गान्ते नप् । अर्धर्चाद्यन्ते अप् । नप् समाप्तम् ||२७|| पुंस्यत्स्तुदब्धणुघना किकान्तः कूपाब्धिपुष्यासिनदाब्द कोष्ठाः । स्वर्वज्रदन्तच्छिदिचक्रिरश्मि धान्यक्रतोः प्राण्यगदैत्यराट्सु ॥ २८ ॥ । सूत्रे व्यत्ययश्छन्दोऽर्थम् पुंसीत्यादि । अतः परं लिङ्गं पुंसि ज्ञेयम्, आ स्त्रीलिङ्गात् । अत् स्तुत् । अदन्तः सन्तः शब्दः पु ंसि । अत् वृक्षः घटः । स् अङ्गिराः, दोर्बाहुः । न प्लीहा व्याध्यंशः, मूर्धा शिरः । उत् सेतुः जलबन्धः, केतुः ध्वज इत्यादि । परोऽन्ते किम् ? भावे गरिमा महिमा । भावादन्तादि नप्त्वे प्राप्ते अप्घण्ण घोनाकाम् । अतः किम् ? स्तुस्त्रीत्वेभ्योऽप् । शरः, जयः, गमः, अपघनः, हव इत्यादि । घण् अकर्तृभावे । पाकः, त्यागः, निकेतो गृहं, क्लेशो दुःखम्, अलङ्कार आभरणम् । न्यादाणः न्यादयः । पचादेर्घः । पे कः । उरच्छदः । न । कायज् वा चादेः । यज्ञः, यत्नः पाप्माः । आजाद्यान् कः । विघ्नः । आखूत्थो वर्तते । अन्तक्तं उकिः । अन्तद्विनिचिः । जलधिः कूपादीनां नाम च । कूपः, प्रधिः, उदपानः । अब्धिः, समुद्रः, उदन्वान् । करवालः । नदः, भिद्यः, उध्यः, लोहितः । अब्दः, घनः जीमूतः, शरण्यः स्वः, त्रिदिवः, इरामतिः । वज्रः, पविः, दम्भोलिः, शतकोटिः । दन्तः, भिदिः पशुः । चक्री, स्यन्दनः । रश्मिः, घृणिः । धान्यः, शालिः, व्रीहिः, तिलः । क्रतुः वितानः, यज्ञः । विभक्त्यन्तसङ्घात् प्राण्यादीनां तद्भेदस्य च नाम । पिता, भ्राता । सप्तिः, कपिः, कृमिः, तिमिः । वृषलः, कुलालः, मर्त्यः मनुष्यः । विटू, वैश्यः, वणिक् । अनड्वान् । पारापतः कपोतः । तद्विशेषस्य । दूतः, पण्डितः, कविः, यतिः, विपश्चित् । सुहृद, दुहृद् इत्यादि । एकत्वनिर्देशाद् बहुप्राणि । पुष्यः, सिध्यः । असिः, कोष्ठः, कुशूल: पलतः । रदनः, दशनः । च्छिदिः, Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 लिङ्गानुशासनम् समवाये न स्यात् । इयं श्रेणिः शिल्पिसमुदायः, परिषत् । अगः, पर्वतः, शैलः, अद्रिः, गिरिः। अगो वृक्षश्चोच्यते । तद्भेदः। तालः, तमालः, शालः, चूतः, आम्रः, अर्जुनः, असनः । दैत्यः, बलिः, नमुचिः । मुनिः, असुरः। राष्ट्र जनपदः । अन्यद् गोष्पदम् । तद्भेदः । अङ्गाः, मगधाः, पाञ्चालाः, तृजयः । प्राग्वल्लिङ्गसंख्यैव, वक्ष्यति च ॥२८॥ वर्णविषर्मासमरुद्ध्वनाओं भेदस्य रात्रोऽषिनृपार्थनाभ्य-। प्यास्त्रातसङ्केतपुताश्च पोतः पाण्यङ्घिदृत्यञ्जलिराशिमौलिः ।।२९।। वृत्तम् [वर्णेति] । वर्णादेरित्वान्नप् च । तद्भेदः । नीलः, पीतः, लोहितः, हरितः। द्रव्यवाचि त्रिलिङ्गता। नीलाऽश्वा । विषः, हालाहलः, मोगरः । दुन्दुभिः। मासः, शुचिः, शुक्रः, नभस्यः । मरुत् देवः । तद्भेदः । इन्द्रः, आदित्यः, अग्निः, वह्निः। मरुद् वायुश्चोच्यते । तद्भ दश्च । मरुत्, वातः, पवनः, उदानः, समानः । ध्वनः, ध्वानः, ध्वनिः, कलकलः, कोलाहलः । तद्भदः। उदात्तः, अनदात्तः, स्वरितादि। ऋतः हेमन्तः वसन्तः। रात्रोऽषि कृतसमासाजन्तो, रात्रोऽषीत्यसमाहारे । अहश्च रात्रिश्च "अहोरात्राविमौ पुण्यौ"। सर्वरात्रः, अर्धरात्रः, वर्षा रात्रः । अषि किम् ? अहोरात्रम् । अयं नाभिः राजा। नृपार्थं किम् ? इयं नाभिः प्राण्यङ्गम् । अप्यास् प्रत्याहारौ। अप् अर्धर्चादिः यो योन्यादिकटशान्तः (?)। तौ पुस्यपि तत्र दर्शितौ । वातादि पुंसि ।।२९।। वृष्णिगिरी वलिदुन्दुभिनाक्षो रालि जनाभिजनावमतिर्वा । नायनहायनसस्तनफेनाः । शैवलपुद्गलगोलपटोलाः ॥३०॥ अयं दुन्दुभिः । नाक्षो किम् ? दुन्दुभ्या अक्षेण ॥३०॥ कीलकपोलगरास्तरलश्च फालनलौ सृमलावटतूला-। पाङ्गमृदङ्गगरुद्धरिदात्मा भूपुरहारकपाल निकाय्याः ॥३१॥ ग्रन्थिः पिचण्डः कलिकुक्षिकेलिकल्लोलकालाः विभवार्थरैर्वाः । गतॊत्तरासङ्गछदाश्च मर्मन् आच्छादने वेम मकरन्दकुन्दौ ॥३२॥ उच्चारवेधः प्रसवाश्च संवत् नाडीव्रणो यानयुगश्चषालः । श्लेष्मोष्मवेमाश्म च पाप्मयक्ष्माः लाजासुदाराः गृहवल्वजाश्च । वास्त्रा दशाशंकुचव, मेढ़ौ पुंस्तस्त्रियां तिस्रघनप् न नस्त्री ॥३३।। षष्ठो नाडीव्रणः । नाडी किम् ? शिरोव्रणम् । यानेभ्यो युगं च । रथयुगः, शकटयुगः । भ्यस् किम् ? अनोयुगः । यानेभ्यः किम् ? कलियुगम्, वस्त्रयुगम् । वाकान्तः समासः । अनुक्रान्तो वाकोऽनेनानया वा स तत् । सानुवाकः । घणन्तोऽप्यस्तु । लाजायाः जसन्तत्वाद् बहुवचनान्ताश्च स्युः । जसन्त द्वन्द्वाल्लाजतसोः पर्योऽपि । इमे लाजाः अक्षताः, असवः प्राणाः, दाराः कलत्रं, गृहाः गेहं, वल्वजाः वीरणकटः । वस्त्रस्येमे किम् ? इयं दशा वयोवस्था । सक्तवः यवभूतचूर्णः। रित्वाद् एकत्वाच्च । इदं सक्तु । चकारान् मन्त्रश्चोकारादिः । मन्त्रणं मन्त्रः । घण्यपि । वधः आयतं चर्म । मेढ़ः शेपः । कुठश्चाकोठी वृक्षौ । फलेऽपि पुसि, हरीतकीवत् । षष्ढपण्डौ प्राणित्वात् पुंसि । ननु नपः कायित्वात् लिङ्गमुच्यतां, पुस्त्रीलिङ्गे किमित्याह-पुंस्तस्त्रियां तिस्रघनप् न नस्त्री। पुस्भवीत्यत्र पुलिंगस्य कार्यमुक्तम् । स्त्रीलिङ्गस्य तु स्त्रियां तिसृचतसृ इत्यत्र भविष्यति । अथ पुस्थित्यकः (?) प्राप्तम् अष्टलन्तं (?) किमित्याह-नप्ननस्त्री । यत् तत् पुलिङ्गम् । तयोः प्राप्तयोरपवादार्थमित्यर्थः । पुंलिङ्ग समाप्तम् ॥३१-३२॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारायण म० कन्सारा लिङ्गं स्त्रियां योनिमतां तथोद्यान् शिष्टे छैनौ दीधितिलिद्दरद्धल् । जात्याजिभाः पूरुदुकाकुरज्जुकुस्वायुछदिस्तनुबन्धुविट्याः ।। शरज्जलौकः सुमनोऽप्सराः द्यौः वर्षाः समाऽऽपः सिकता गाथाः ।।३४।। लिङ्ग स्त्रियामतो वेदितव्यम् । योनिमतां भगवतां यन्नाम। माता जननी, स्वसा भगिनी, दुहिता सुता, ननन्दा भर्तृभगिनी । याता देवरभार्या । दनु कद्रुदितयो दानवनागदैत्यमातरः । योषित् युवतिः । स्त्री भार्या । जाया पत्नी। तथोद्यान् । ऊत् । कमण्डलू:, अलाबूः । डीप् । आड् । व्यावक्रोशी । भावे । शमी, रोहिणी, शिंशपा, पाटला, तरुत्वात् पुसि प्राप्ते। यूका, पिपीलिका, प्राणित्वात् । द्राक्षा तिन्तिरीकादि फलत्वान्नपि । मल्लिका, मालती, केतकीत्यादि पुष्पत्वात् । ग्रामता, रथकट्या, खलिनीत्यादि समूहार्थत्वाद् इत्युक्तापवादः । अनुक्तोऽपि । करुणा, दया, लीला, माला, स्रगित्यादि। उद्यान् किम् ? यवलू:. ग्रामणीः, कीलालपाः वाच्यलिङ्गाः । शिष्टे छैनौ दीधितिलिद्दरद्धल् । शिष्ट उक्तादन्योऽनुक्त इत्यर्थः । इदन्त द्रुशब्दान्तादि इत् । इयं रुचिः, धूलिः, दविः । इयं दद्रुः त्वग्दोषः, शतद्रुः नदी, नौः द्रोणी, दीधितिः रश्मिः । लित् प्रत्ययः । वृक्षता, प्रभुता । भावेऽपि । इयं दरत् हृदयम् । हल् । इयं त्विट् दीप्तिः, विप्रुट् शीकरः, समित् इध्म, वीरुत् गुल्मम् । यत्तु स्त्रियामेव साधितं तदनामापि । संपत्, विपत्, कृतिः, भक्तिरित्यादि । शिष्टः किम् ? मुनिः, पतिः, हरिः, इन्द्रः, सितद्रुः अब्धिः, हरिद्र : तरुः, शतद्रुः नदः । उदन्वान् । अनड्वान् । जात्याद्या स्त्रीलिङ्गाः । वर्षाद्याः । जसन्तत्वाद् बहुवचनान्ताश्च ॥३४॥ सत्यादि योन्यादिमरीचिपाटलिश्रोण्यूमितुट्यो मषियष्टिशाल्मलि । कर्कन्धुमण्य स्तिथिबस्ति मुष्टयोऽरणीषुधीष्वस्तरणिश्च कम्बलः ।।३५।। सत्यादीति । विंशत्याद्या संख्या स्त्रियां स्यात् । संख्येये एकार्था च । विंशतिः पुरुषाः स्त्रियः कुलानि वा इत्याधुक्तम् । योन्यादिः कटसन्तः । अप्यास् इति पुसि पाठात् पुलिङ्गश्च । इयं योनिः, अयं योनिः, भग इत्यादि । कम्बली मे, कम्बल मे च ॥३५॥ शल्लक मल्लक वृश्चिकशाटाः बाहुवराटकपुत्रसपाटाः। कन्दरजाटलि दंशकलम्बाः मन्वशनिकुटस्वाति किटाश्च । रेणुमुनिर्पिटकोहि कुटिश्च शिल्पचतुद्विपदाभ्यभिधानम् ॥३६॥ गाथा ।। शिल्पचद्विपदां चाभिधानम् । एषां नाम उभयं स्यात् । शिल्पी शिल्पः एवं वरटी वरटः, सुवर्णकारी सुवर्णकारः, कलादी कलादः, नापिती नापितः। चतुष्पदानां हस्तिनी हस्ती, कूर्मः कुर्मी । द्विपदानां ब्राह्मणी ब्राह्मणः, क्षत्रिया क्षत्रियः, शूद्रा शूद्रः, मयूरी मयूरः, योनिमतामिति सिद्धे । सयोनिशब्दो न स्त्रीत्यर्थम् । यावत् कटी प्राण्यङ्गः कटः वीरणकृतः ॥३६॥ मृत्युर्घटः कण्डुविभीतको तटः भल्लातकश्चामलको हरीतकः । पात्रं कपालोदरभण्डली पुरः वटोऽवटः स्यात् कलशः पटो मठः । पुरो विषाणो नखरोऽपि शृङ्खलः द्रोणोऽपि वल्लूर कटस्प्रिययङ्गराच् ॥३७॥षट्पदी॥ विभीतकादि कटसन्तः नपि च विश्पाठात् त्रिलिङ्गः। विभीतकी, विभीतकः, विभीतकम् । तटी, तटः, तटम् । यावत् कटम् । पोश् पुंस्यपि । विश् नप्यपि प्रत्याहारार्थम् । प्रियङ्गु राजकः । आच् । अच्चेत्यादि रशिषौच (?)। यावदत्र पाठात् स्त्रीत्वं च । पञ्चखट्वीत्यादि । षट्पदीयम् ॥३७॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गानुशासनम् शल्वाच्यवन्नामगुणश्च संख्या प्रायस्तथा सिध्यति यस्तदर्थे । प्राप्तालमापन्नवदादिकेत्यर्थान्तद्विगौ चार्थपितोः परस्य ॥३८॥ शलवाच्यवदित्यादि । वाच्यस्य यल्लिङ्गः शल सर्वादिः । सर्वे नराः, सर्वाः स्त्रियः, सर्वाणि कुलानि । एवं त्वं ना, त्वं स्त्री, त्वं कुलम् । वयं नराः, वयं स्त्रियः, वयं कुलानि । यः नरः, या स्त्री, यत्कुलम् । सः नरः, सा स्त्री, तत् कुलम् । युष्मदस्मत्संख्याद्यलिङ्गं स्यात् । नाम संज्ञाशब्दः प्रायो बहुलं वाच्यवत् । सरयु म नदी । एवं कुहुर्नष्टचन्द्राऽमावास्या। श्रीकण्ठो मालवको देशः । मथुरा नगरी । अयं सिन्धुः समुद्रः, इयं सिन्धुर्नदो। अयं किष्कुः हस्तः, इयं किष्कुः वितस्तिः। नवसारिका पूरी। कान्यकुब्जं नगरं, संयानं च । मथुरहदो ग्रामः । तोटकं वंशस्थ इत्यादि वृत्तम् । प्रायः किम् ? न च वरेन्द्रातीरभुक्तिः । कोंकणकं काश्मीर नाम देशः । शालुकिनी लिङ्गाषाढी नाम ग्रामः । तैलावट श्रीभवनं नाम ग्रामः । तदहरभवे च वक्षति च (?)। स्रग्धरा आपीडः मालिनीत्यादि वृत्तं, छन्दोजात्यपेक्षया वा । गुणः । श्वेतः पटः, श्वेता पटी, श्वेतं वस्त्रम् । शुचिः ना, शुचिः स्त्री, शुचि कुलम् । संख्या। एको ना, एका स्त्री, एक कुलम् । पञ्च नराः, पञ्च स्त्रियः, पञ्च कुलानि । तथा सिध्यति यस्तदर्थे । तदर्थे इति तस्य विवक्षितवाच्यस्यार्थे यः शब्दः सिध्यति स वाच्यवत् । क्षीरं पिबतीति क्षीरपाः ना स्त्री क्लं वा । एवं ग्रामणीः ना स्त्री कुलम् । यवलूः ना स्त्री कुलम् | काष्ठभित् ना स्त्री कुलम् । आत्मभरिः ना स्त्री कुलम् । गोदोहनो घटादिः ना स्त्री कलम् । दाक्षिः ना स्त्री कुलम् । गोमान् ना, गोमती स्त्री, गोमत् कुलम् । कृतकटः ना कृतकटा स्त्री, कृतकटं कुलम् । प्राप्तालमापन्नवत् । आदिः पूर्वपदं यस्य तदादिकेतीति समासे । अर्थान्ते द्विगौ च वाच्यवत् । प्राप्तो जीविकां प्राप्तजीविकः ना, प्राप्तजीविका स्त्री, प्राप्तजीविकं कुलम् । अलं जीविकायै अलं जीविकः ना, अलं जीविका स्त्री, अलं जीविकं कुलम् । आपन्नो जीविकाम आपन्नजीविकः । अलं चादिः । निष्कौशाम्बिः। अतिनुः । अर्थान्तः। ब्राह्मणाः (?) [ब्राह्मणार्थ ओदनः, ब्राह्मणार्या शिखरिणी, ब्राह्मणार्थं पक्वान्नमिति ।] सः, सा, तत् । द्विगुः । पञ्चकपालः देशः भोजनः पुरोडाशः । पितः। परलिङ्गे प्राप्ते चार्थे पितोः द्वन्द्वतत्पुरुषयोः परस्योत्तरपदस्य यत् तल्लिङ्गं स्यात् । इमो मयीकुक्कुटौ । इमे कुक्कुटमयूर्यो । इमौ अश्ववडवौ, इमे अश्ववडवाः इति द्वन्द्वे निपातनात् पुस्त्वम् । पित् । अर्धपिप्पली, राजपुरुषः, राजदारिका, नीलोत्पलम् ।।३८॥ स्त्रीलिङग समाप्तम् ॥ ॥ समाप्तं च लिङ्गानुशासनम् ॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE SĂRADIPIKĀ AND THE SĀRABODHINI T. S. Nandi The Sāradipika (=SD) of Gunaratnagani on the Kavya-prakāfa (=KP) of Mammața (ullāsas I-VI), edited by the present author, was published by the Gujarat University in 1976. Almost simultaneously the KP with three commentaries, namely the Balacittanuranjani (= Bala) of Narahari Sarasvatitirtha, the Sarabodhini (=Sabo) of Srivatsalañcchana Bhattācārya, and Kavya-prakāšadarpana (ullasas III-VI) of Visvanātha, was published by the Gangānātha Jhā KendriyaSaṁskṛta-Vidyapitha, Allahabad, in 1976 (eds. Goparaju Rama and Jagannath Pathak), The present author had suggested in his edition that Gunaratna was influenced by various commentaries on the KP, and the Bāla and Sabo were the major sources of inspiration. The Bala had such a tremendous influence on Gunaratna that the editor thought it wiser to edit the Bala also in the appendix. Actually, the Bāla on KP (I-III & X) was earlier edited by S. S. Sukthakar. So, the present author thought it advisable to publish only the portion covering the ullāsas IV & V. He also suggested how Gunaratna was influenced by other commentaries including the Sabo. He has completed his work on the remaining portion of the KP, i. e. ullasas VII-X and this paper attempts to bring out the influence wielded by the Sabo on the SD on KP VII-X only. (The references to the Sabo are to the Allahabad edition '76). It will be noticed how Gunaratna at times preserves better readings and even fills up the lacuna left out in the Allahabad edition. Thus SD proves a most important research tool, indeed a control, for editing other commentaries on the KP. Gunaratna has heavily relied on the Bala, the Sābo being only next to it, with as many as 105 instance from ullasa VII, and 11, 33 and 26 from ulläsas VIII, IX and X respectively. We will examine only some illustrations in what follows. Ullása VII Sāradipikā (S. D.) (to be published) (1) terra [a] Tea (5Fuerthfaqet- 941 Houtgrua: 27541st Tartu TTETET feiret शाब्दत्वमेव । शब्दे तज्जन्यप्रत्यक्षविषयनयाऽनिव्याप्तिarea Taarefag (76442) 37FHI . Ulläsa VII Sārabodhini-(Sā.bo.) (Allahabad edn. 76) (1) The words in the [ ] in the S. D. are added by the editor with the help of the Sā. bo. (P. 203), and ( ) suggests the amendation following the same which reads as : -अर्थत्वं तु शब्दजन्यसाक्षात्कारविषयत्वम् । काव्यादन्यतः शब्दान्न सुखस्य प्रत्यक्षता किन्तु शाब्दत्वमेव । शब्दे तज्जन्य साक्षात्कारविषयनातिव्याप्तिवारकं मुख्यपदं उक्तम् । Gunaratna has प्रत्यक्षविषयतया in place of THE faqaat of the Sa. bo, Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Sārad pika and the Sārabodhini 49 (2) न प्रतिबन्धः, दुष्टेष्वपि रसानुभवात् । (2) न प्रतिबन्धः दुष्टेष्वपि रसानुभवात् ।। (P. 203) (3) अपकर्षस्तु रसनिष्ठो जातिविशेषः। (3) अपकर्षस्तु रसनिष्ठो धर्मविशेषः । (P. 203) __ (4) टोकान्तरे मुख्याय इदं मुख्यार्थमिति चतुर्थी (4) अत्र मिश्राः, मुख्यायेदं मुख्यार्थमिति चतुर्थी समासः । समासः । (P. 203) ___ गुणरत्न's 'टीकान्तर' refers to the 'मिश्राः' as quoted in the Sa. bo. (5) यस्य येन रूपेण [रस] व्यञ्जकत्वं तस्य (5) [रस] is added by us with the help तद्रूपप्रच्यवः। of the Sā. bo. (p. 202) quoting the view of 'मिश्राः' which reads as: यस्य येन रूपेण रस व्यञ्जकत्वं तस्य तद्रूपप्रच्यवः । (6) न च संज्ञाशब्दानां तह आदीनां न देश्यानां (6) संज्ञाशब्दानां डित्थादीनां लडहा दीनां प्राकसंस्कृतप्राकृतव्याकरणी(णा)व्युत्पादनादसाधुत्वं स्यादिति तानां च उणादयो बहुलं, दाढादयो बहुलं इति सामावाच्यम्, उणादयो बहुलमिति संस्कृतप्राकृतसूत्राभ्यां न्यतो व्युत्पादनान्न तत्र दोषः । (P. 208) सामान्यतो व्युत्पादनात् । (7) नाथतेराशीरर्थे आत्मनेपदमेव न परस्मैपदं, (7) अत्र केचित्-आत्मनेपदिगणपाठादेवात्मनेअर्थान्तरे त्वनियमात्, याचनेऽप्यात्मनेपदमविरुद्धमिति पदित्वे सिद्धे पुनस्तद्विधानं नियमाय । नाथतेराशीरर्थ व्याख्याय ग्राम[ग्राम] इत्युदाहाय॑मिति ब्रुवाणः कश्चिद- आत्मनेपदमेव न परस्मैपदम् । अर्थान्तरे त्वनियमस्तथा स्य धातोरात्मनेपदित्वं न परस्मैपदाप्रसक्त्या नियमव्या- च याचनेप्यात्मनेपदमविरुद्धमिति, ग्रामग्राम इत्युदाहार्यवृत्त्यभावेन भीषयितव्यम् । मित्याहुः । (P. 205) (8) प्रहतौ(तो)द्धतपथ (द्ध) तिल(ज)म्पा(ङघा) (8) प्रहतोद्धत पद्धति जङ्घादिषु उपसन्दानेन गतेः दिषु उपसंदानेन गतेः प्रत्यायकत्वात् तत्पाठवैफल्यम् । प्रत्यायकत्वेन न तत्पाद्वैयय॑म् । एवमध्ययने परिपठितएवमध्ययनपठितस्यापीङ धातोरधि(धि)विनातत्र प्रयोगे स्यापीधातोरधिं विना तत्र प्रयोगेऽसामर्थ्यमेव । असामर्थ्यमेव । (P. 205) Our corrections in S. D. follow this passage. (७) यावकरसे रुधिरभ्रमान् (त्) मुग्धता। (७) यावकरसे रुधिरभ्रमान्मुग्धता। सहसा [सहसा] तत्क्षणं, विलम्बेन नायिका [या] भ्रमोच्छेद- तत्क्षणं, विलम्बेन नायिकाया भ्रमोच्छेदसंभावनात् । सम्भावनात् । Our corrections follow this. (P. 206). (10) तात्पर्यसंदेहास्पदीभूतार्थद्वयोपस्थापकं सन्दि- (10) तात्पर्यसन्देहास्पदीभूतार्थद्वयोपस्थापकं सग्धम् । न्दिग्धम् । (P. 211) (11) क्रियासम्बन्धेनैव ननोऽभावप्रतिपादकत्वेन (11) क्रियासम्बन्धेनैव नमोऽभावप्रतिपादकत्वेन त्व(त)या सह तस्यै(त्रै)काधिकरणकत्वविरहान्न तया सह नञः तत्र एकाधिकरणत्वविरहात् न समासः। समासः। (P. 216) Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 T. S. Nandi ( 12 ) यथा [ अ ] ब्राह्मण इत्यादौ उत्तरपदसंबन्धिनो नञः समासे ब्राह्मणप्रतियोगिकाऽन्योन्यासा (भा) - वय (स्य) प्रतिपत्तावभावस्य विशेषणत्वेन विधेयत्वाप्रतिपत्तिः । तदुक्तम् - " प्रधानत्वं विधेयंत्र प्रतिषेधेऽप्रधानता । पर्युदासः स विज्ञेयो यत्रोत्तरपदेन नन् ॥” इति । निषेधप्राधान्ये समा[सा ] भावं दृष्टान्तयति---- ( 13 ) अत्रोपश्लोकेन विरोधिनः कुकर्ममित्रत्वस्य प्रतीतिः । समासावयवस्य नत्रो निन्दार्थत्वम् । तदुक्तम्" तत्सादृश्यं वदन्यत्वं तदल्पत्वं विरोधिता । अप्राशस्त्यमभावश्च नञर्थाः षट्प्रकीर्तिताः " । इति । (14) तदुक्तम् नरसिंहपुराणे -- शक्तित्वाल्लोकमातृत्वादम्बिकेति भविष्यतीति । ( 15 ) टीकाकारोऽप्याह - अयमभिसन्धिः यत्र न्यक्कारत्वं विधीयते तत्रानूद्य विधेयपौर्वापर्योपादानेनैव तथा प्रतिपत्तिः । तदुक्तम् - "यच्छब्दयोगः वाच (प्राथ) म्यं सिद्धत्वं चाम्यभू (नु ) धना । तच्छब्दयोग भत्तय्यं साध्यत्वं च विधेयता ।" इति । ( 16 ) अयं तु समासगतत्वेन पददोष एवं प्रसङ्गा दुक्तो न वाक्यदोषः, मिथ्यामहिमत्ववदिति टीकाकृतः प्रणयन्ति । ( 19 ) तथाहि, अनुजे आर्यसंबन्धं विधायानौचित्य - कारित्वाभावो विधीयते । यत्रार्य (यं) सम्बन्धस्तत्रा (त्र) [ना]नौचित्यमिति विहितविधेयत्वं विवक्षितम् । ( 12 ) - अब्राह्मण इत्यादी इतरसंबन्धिनो नत्रः समासे ब्राह्मणप्रतियोगिकान्योन्याभावाप्रतिपत्तावभावस्य विशेषणत्वेन विधेयत्वाप्रतिपत्तेः । तथा चोक्तम् — " प्रधानत्वं विधेर्यत्र प्रतिषेधेऽप्रधानता । पर्युदासः स विज्ञेयो यत्रोत्तरपदेन नन ॥” इति । निषेधप्राधान्ये समासाभावं दृष्टान्तयति यथेति । ( P. 216) ( 13 ) कुकार्यमित्यत्र तस्य प्रतीतिरित्यर्थः, अत्रोपश्लाकनविरोधिनः समासावयस्य नञो निदार्थत्वात् । यदुक्तम् - etc. (P. 218 ) This presents faulty reading. Gunaratna reads better. (14) तदुक्तं नृसिंहपुराणे - " शक्तित्वाल्लोकमातृत्वादम्बिका त्वं भविष्यसीति ।" (P. 220) ( 15 ) The टोकाकारः is the author of the Sa bo. - We have : अयं रिपुसम्बन्धस्तत्र न्यक्कारत्वं विधीयते । तत्रानूद्यविधेययोः पौर्वापर्योपादानेनैव तथा प्रतिपत्तिः । तदुक्तम् - " यच्छन्दयोगः etc. " इति । [भट्टवार्तिकम् ]. (P. 226) Our corrections follow the Sa. bo. Gunaratna has added 'प्रणयन्ति'. ( 19 ) तथाहि । अनुजे आर्यसंबन्धं विधाय अनौचित्यका रित्वाभावो विधीयते । यत्रायं संबन्धस्तत्र नानौचित्यमिति विहितविधेयत्वं विवक्षितम् । (P.: 234) Our corrections follow this. ( 20 ) अत्र विरोधिनं शान्तनु (मु) पमद्या (क्रम्य ) [स्व] विश्रान्तस्य शृङ्गारस्यात्यन्तमधुरत्वेन क्षुद्रापका - रस्याप्यसहतया पदैकदेशश्रुतिकठो (टो) रप्यपकर्षतेत्याह, पदैकदेशश्रुतिकटुत्वस्याप्यपकर्षतेत्याह त्यादिति । त्वादिति । ( 20 ) अत्र विरोधिनं शान्तमुपक्रम्य स्वविश्रान्तस्य शृङ्गारस्यात्यन्तमधुरत्वेन क्षुद्रापचारस्याप्यसहतया (P. 235 ) corrections follow this. But Gunaratna has क्षुद्रापकार reads which Sarabodhini's 'क्षुद्रापचार'. Again the S. D. has 'श्रुतिकटो:' for Sa. bo's श्रुतिकटुत्वस्य. Here also, S, D. better than reads better. (16) अयं तु समासगतत्वेन पददोष एव प्रसङ्गादुक्तो न वाक्यदोषः । मिथ्यामहिमत्ववदिति टीकाकृतः । (P. 227) Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 21 ) धातुमत्तामित्यत्रमनु (तु) वृ (बु) तरतत्त्व (ल् ) प्रत्ययेन सम्बन्धा [भिधार्न] { ने} क्षीणार्थ: प्रसिद्धः । तदपेक्षया The Saradipika and the Sarabodhini ( 22 ) तथा च चतुर्थपादे गुरुस्मरणेन भावांद्रेकात् क्रोधस्य तिरस्कृतेरुचितमेव मसृणवर्णरचनमिति भावः । ( 23 ) प्रवादोचितं सदसि कथनयोग्यं ......... ( 24 ) तदः प्रकृतेतरा ( रुपा ) दानात् । प्रकृतिप्रत्ययार्थयोरनुपादा [न] एव [ तथात्वादिति केचित् i] ( 25 ) " माहिषं दघि सशर्करं पयः कालिदासकविता नवं वयः । प (ए) मां समबला सुकोमला को लभेतं (त) हरिमंचितं विना ॥ " (26) " गम्यतामन्यतः पान्थ तवेह वसतिः अ ( कुतः । दोषाय स्यादलं { पान्थः } [यस्माद् ] वसतिः प्रोषितालये ।" ( 27 ) अत्र तु केन केनेत्याद्यसाधारणप्रश्नव्यतिरेकेऽपि कोदण्डेत्याद्यन्वयबोधस्य जायमानत्वात् न प्रश्नकल्पनेति । टीकाकृतः अत्र पञ्चाशङ्का वर्तन्ते यथा - etc. (28) गौडटी काव्याख्याऽत्र लिख्यते । चापाचार्य इति । इयं हि युयुत्सुं etc. ( 29 ) अत्र हि रविर्जयति इति रवेरुत्कर्षः प्रधानवाक्यार्थः । न खलु विस्तीर्णपथसंचरणं क्र (श्र ) महेतुर्येन तत् सत्त्वेऽपि श्रमत्याग उत्कर्षहेतुः स्यात् । विततपदेन दीर्घत्वाभिधानेऽपि रथाख्ययानेन सञ्चरणान्न श्रमत्वप्रतीतिः । 51 ( 21 ) धातुमत्तामिति । मनुषुत्तरतल् प्रत्ययेन सम्बन्धाभिधानं तदपेक्षया क्षीणार्थ: प्रसिद्धः । (P. 236) Our amendation follows this. { } in our scheme suggests omission. (22) चतुर्थपादे गुरुस्मरणेन भावोद्रेकात् क्रोधस्य तिरस्कृतेरुचितमेव मसृणवर्णरचनमिति भावः । (P. 283) ( 23 ) तस्य रावणस्य परितोषजनकं प्रवादोचितं सदसि कथनयोग्यम् । ( P. 250 ) This reads better. ( 24 ) तदः प्रकृतेरुपादानात् । प्रकृतिप्रत्यययोर्द्वयोरनुपादान एव तथात्वादिति केचित् । ( P. 251 ) ( 25 ) 'माहिषं दधि सशर्करं पय' इतिवत् । (P. 252) Gunaratna gives the full quotation which is only hinted at in the Sa. bo. (26) गम्यतामन्यतः पान्थ तवेह वसतिः कुतः 1 दोषाय स्यादलं यस्माद्वसतिः प्रोषितालये ॥ (P. 252) The discussion accompanying this quotation in the Sa.bo. is also reproduced by Gunaratna, but of course, not verbetim in this case. ( 27 ) तस्याद्येन येनेत्यादिना कोदण्डादिव्यतिरिक् एव कर्तृकर्मणी प्रतोयेते इति मतयोगाभाव इति टीकाकृतः । (P. 252) Perhaps Gunaratna reads better. ( 28 ) इयं युयुत्सुं भार्गवं प्रति....etc. (P. 253) Gunaratna refers to this passage and calls it 'गौडटोकाव्याख्या'. ( 29 ) अत्र हि रविर्जयतीति खेरुत्कर्षः प्रधानवाक्यार्थः । न खलु विस्तीर्णपदसंचरणं श्रमहेतुर्येन तत्सत्वेऽपि श्रमत्यागे उत्कर्षहेतुः स्यात् । विततपदेन दीर्घत्वाभिधानेऽपि रथाख्ययानेन सञ्चरणान्न श्रमत्वप्रतीतिः । (P. 267.8) Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T. S. Nandi ( 30 ) अत्राकांक्षादिसामग्रीसाचिव्येनान्वयबोधाद- ( 30 ) अत्रान्वयबोधान्तरं पदजीवात्वनुसंधानदशानन्तरं पदजीव्यत्वेऽनुसन्धानदशायामेषामनुपकारित्व- यामेषामनुपकारित्वग्रह इति प्रतीतानुपपत्त्यार्थदोषकता ग्रह इति प्रतीत्यनुपपत्त्याऽर्थदोषना प्रतीत्यनुपपत्तावेव प्रतीत्यनुपपत्तावेव शब्ददोषतेति विभागः । ( P.268) शब्ददोषतेति विभागः । Gunaratna has almost borrowed the whole passage but for minor changes which make better reading. (31) Gunaratna at times refers to the Sa bo, and at times to the Bālacittānurañjani as : टीकान्तरे व्याख्या.... etc. Here it is the Sa. bo., from which Gunaratna has borrowed almost verbetim. - मार्गो रीतिः पन्थाश्च । परिमलं चमत्कारं सुखं च । प्रसादं सुव्यक्तं स्वच्छकान्तिश्च । घनो निबिडो मेघश्च । परिचिता अत्यन्ताभ्यस्ताः संबद्धाश्च । रुचयः अभिसन्धयः कान्तयश्च । महातां कवीनामादिन्यादीनाञ्च, तेषां द्वादशत्वात् । (P.268) 52 ( 31 ) टीकान्तरे व्याख्या सुबोधा यथामार्गे रीतिः पन्थान, अमृतानां असुधानां छ ( ज ) लानां च, रसः शृङ्गारादिर्माधुर्यं च सरस्वती वाणी नदी च, परिमलं चमत्कारं सुखं च प्रसादं झटित्यर्थप्रत्ययः स्वच्छकान्तिश्च घनो निबिडो मेघव, व्योमेव काव्यं, तदिव व्योम च, रुचय इच्छाकान्तयश्च महतां कवि (वी)नामादित्यानां च तेषां द्वादशत्वात् । 1 ( 32 ) 'अर्जुनार्जुनस (सा) त्यके' इत्युपक्रमेण पितृवधामर्षितस्याश्वत्थाम्नः इयमुक्तिः । कृत ( क ) नुमति (तृ) दृष्टी (ष्ट्र) ना (णा) मुत्तरोत्तरापराधलाघवेन क्रमादुपन्यासः । तत्र कर्ता अर्जुन: । स ( सा ) प्त (त्य ) किरनुमन्ता । अन्ये दृष्टारः । अत्रान्व(द्य) योर्बला (ल) वद् द्वेषेण शाब्दसं बुद्धिरन्येषां च बुद्धिस्यैव । ( 33 ) न नु (तु) हेत्वाकाङ्क्षायां वाक्यार्था (र्थ ) पर्यवसाने कथमयमर्थदोष इति चेन्न, पितृकर्तृकशस्त्रपरित्या - गो (ग) स्ये (स्यै) व हेतुत्वेनान्वयात् पित्राचरितकर्मणः पुत्रेण चरणीयत्वात् ब्राह्मणानुचितशस्त्रग्रहणस्यैव इत्थं पर्यवसिते वाक्यार्थेऽनन्तरं मम शोकेन पित्रा परित्यक्तं ममा (या ) ऽपि पितृशोकेन त्यक्त [ व्य] मिति पितृशोकस्यैव हेतुत्वमाकाङ्क्षितमिति तदनुपादानेन साकाङ्क्षता । ( 34 ) विवेकख्यातिः प्रकृतिपुरुषयोर्भेदावभासः । संप्रजा (ज्ञातः सविकल्पकः समाधिः, यत्रात्मा विषयान्तरं च भासते । अप्रसञ्जातं (असंप्रज्ञात) आत्मातिरिक्तविषया (य) ग्राही समाधिः । ( 35 ) अन्वयप्रतियोग्युपस्थापकानुपादान एवं न्यूनपदत्वात् । नो (ना) पि मावार्थाप्रतीतावश्यत्वमेवोचितं कुत इत्याकाङ्क्षानुवृत्तेः शाब्द [ बोध ] वैगुण्याच्छन्ददोषता यत्किञ्चिदेकोत्कृष्टधर्मवतोऽन्वयात् आलोकोत्कृष्टधर्मवतो - (ता) गु ( ग ) णा (ण) [नम ] नुचितमिति रूपेण वाक्यार्थो - पपत्तेः । (32) 'अर्जुनार्जुन सात्यके' इत्युपक्रमेण पितृवधामर्षितस्याश्वत्थाम्न इयमुक्तिः । कर्त्रनुमन्तृद्रष्टृणामुत्तरोत्तरापराधस्य लाघवेन क्रमादुपन्यासः । तत्र कर्ता अर्जुनः । सात्यकिरनुमन्ता । अन्ये द्रष्टारः । तत्राद्ययोर्बलवद्द्द्वेषेण शाब्दसंबुद्धिः अन्येषां बुद्धिस्यैव 1 (P.269) ( 33 ) न तु हेत्वाकाङ्क्षायां वाक्यार्थपर्यवसाने कथमयमर्थदोष इति चेन्न, पितृकर्तृ कशस्त्रत्यागस्यैव हेतुत्वेनान्वयात् पितृकृतकर्मणः पुत्रेणाचरणीयत्वात् ब्राह्मणानुचितशस्त्रग्रहस्यैव इत्थं पर्यवसिते वाक्यार्थेऽनन्तरं मम शोकेन पित्रा परित्यक्तं मयाऽपि पितृशोकेन त्यक्तत्वमिति पितृशोकस्यैव हेतुत्वमाकाङ्क्षितं तदनुपादानेन निर्हेतुत्वम् । (P. 292). ( 34 ) विवेकख्यातिः सत्त्वपुरुषयोर्भेदावभासः । संप्रज्ञातः सविकल्पः समाधिः यत्रात्मा विषयान्तरञ्च भासते । असंप्रज्ञात आत्मातिरिक्तविषयग्राही समाधिः । (P. 275) ( 35 ) अन्वय प्रतियोग्युपस्थापकपदानुपादान न्यूनपदत्वात् । नापि मात्रार्थाप्रतीतो अश्मत्वमेवोचितम्, कुत इत्याकाङ्क्षानुवृत्तेः शाब्दबोधवैगुण्याच्छब्ददोषता यत्किञ्चिदेकोत्कृष्टधर्मवतोऽन्वयापादाने उत्कृष्टधर्मवता गणनमनुचितमितिरूपेण वाक्यार्थोपपत्तेः । (P. 277) एव Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Saradipikā and the Sārabodhini 53 (36) अन्यथा घटेन जलमाहरेत्यत्रापि छिद्रेतर- (36) अन्यथा घटेन जलमाहरेत्यत्र छिद्रेतरत्वानुस्वानुपादानेऽपि तथा प्रसङ्गः स्यात् । अध्याहारे च पादाने तथा प्रसङ्गात । (P. 279) चमत्कारभङ्गदोषः स्यादिति भावः । 'अध्याहरे"भावः' is added by Gunaratna very aptly. (37) न च तहि निराकाङ्क्षताभिधाने न(च) (37) न च तर्हि निराकाङ्क्षाभिधाने च शब्दशब्ददोषतैवेति वाच्यं, समर्थनसहकृतेनैतद्वाक्येनान्यत्र दोषतेति वाच्यम्, समर्थनसहकृतेन तद्वाक्येनान्यत्रोक्त सर्वगुणासम्भा(म्भ)व(वे)न रावग एवं [दृशो] [रावणा- सर्वगुणासम्भवेन रावण एवेदृशो रावणादन्य ईदृग्वरो न दन्य इ] दृग्वरः [न लभ्यत] इत्यपेक्षया वाक्यार्थोपपत्ते- लभ्यत इत्यपेक्षया वाक्यार्थोपपत्तेरनन्तरं चूर्णकानुसंधानेव(र)नन्तरं चूर्णकानुसंधानेन दोषावतारात् प्रतीत्यनुप- न दोषावतारात् प्रतीत्यनुपपत्तिविरहात् । (P. 250) पत्तिविरहात् । Our corrections and additions follow this passage. (38) एतच्च, "लग्नं राम(गा)वृताङ्ग्ये” त्यत्र (38) एतच्च 'लग्नं रागावृताङ्ग्ये' त्यत्र दोषानदोषत्रयं प्रकाशयता ग्रन्थकृतैव प्रकाशितम् । तथा नेकान् प्रकाशयता ग्रन्थकृतैव प्रकाशितम् । तथा चोपाधिसङ्करो दोषाय न नू(तू)पधेयसङ्करोऽसीति भावः। चोपाधिसङ्करो दोषाय नतूपधेयसङ्करोऽपीति भावः । (P. 284) Gunaratna has 'दोषत्रयं for 'दोषाननेकान' of the Sa. bo., Gunaratna is clearer. (39) ननु श्रुतिकटुप्रतिकूलवर्णादीनामनुकार्य (39) ननु श्रुतिकटुप्रभृतीनामनुकार्यानुकरणेऽपि इवानुकरणेऽपि स्वरूपान[पायात् कथमदोषतेति चेन्मै- स्वरूपानपायात् कथमदोषतेति चेन्न । अनुकरणे विरोधिवेम् । अनुकरणे हि विरोधिगुणव्यञ्जकस्यापि तच्छब्द- गुणव्यञ्जकस्यापि तच्छब्दस्वरूपस्यैव प्रतिपाद्यत्वेन न स्वरूपस्यैव प्रतिपाद्यत्वेन [न] दोषत्वम् । तत्र तदौचि- दोषत्वम् । तत्र तदौचित्यात् । (P. 288) त्यात् । (40) द्वितीयपक्षे करिहस्तो नाम [गजशुण्डा] (40) करिहस्तो गजशुण्डा कठिनयोनिशैथिल्याकठिनयोनिशैथिल्यापादको बहिष्कृतमध्यमाङ्गुलीकस्तज- . पादको बहिःकृतमध्यमाङगुलीकस्तर्जन्यनामिकासंयोगश्च । न्यनामिकासंयोगश्च, तदुक्तम् तदुक्तम्तजन्यनाडि(मि)कायुक्ते मध्यमा स्याबहिष्कृता। "तर्जन्यनामिके युक्ते मध्यमा स्याबहिष्कृता । करिहस्तः समुद्दिष्टः कामशास्त्रविशारदः ॥ करिहस्तः समुद्दिष्टः कामशास्त्रविशारदः ॥" (P. 293) (41)नाड्यः षोडश, तदुक्तम् गोरक्षसंहिता (41) नाड्यश्च दौ"इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा च परास्मृता । इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्ना चापराजिता । गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव तथापरा ॥ गान्धारी हस्तिजिह्वा च पूषा च सुयशास्तथा ॥ अलम्बुसा कुशा चैव शङ्खिनी दशमी मता । अलम्बुसा कुहुश्चव शङ्खिनी दशमी स्मृता । लोलजिह्वा च जिह्वा च विजया कामदा परा ॥ तालुजिह्वेऽभिजिह्वा च विजया कामदापरा ॥ अमृता बहुला नाम जाड्यो वायुसमीरिताः। अमृता बहुला नाम नाड्यो वायुसमीरिताः ॥ इति सिद्धिरणिमादिः साधका योगिनः एते Gunaratna has greater details and he चत्वारः ॥ also mentions .the sources viz. गोरक्षसंहिता तदुक्तं योगिनीतंत्रे' etc. and योगिनीतंत्र. Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 T. $. Nandi (42) अत्र नो दृष्टे त्यादिक्रोधोक्तिः तस्य स्थानस्य (42) यतो नो दृष्ट ति क्रोधोक्तिस्तत्स्थानपरिपरित्यागेन दीर्घसमासस्य ततोऽन्यत्र करणाव(द)स्थान- त्यागेन दीर्घसमासस्य तत्राकरणादस्थानगामिता । गामितेति भावः। (P. 299). (43) दिव्यादिव्या देवत्वेऽपि आत्मनि नराभिमा- (43) दिव्यादिव्या देवत्वेऽपि आत्मनि अभिमानिनः श्रीरामचन्द्रादयः। निनः श्रीरामचन्द्रादयः । Gunaratna's 'नराभि मानिनः' provides clearer reading. Laa) दिवि मानषवाग्वेषादिवर्णन] देश्य शा) (44) दिवि मानुषवाग्वेषादि वर्णनं दशानुचितम्, नुचितं, वसन्ते मेघादिकालानुचितं, जरायां सम्भोगादि वसन्ते मेघादिवर्णनं कालानुचितम्, जरायां संभोगादि[वर्णन] वयोऽनुचितं, नायिकायाः स्वाभिप्रायप्रकटनं वर्णनं वयोऽनुचितमित्यादि। जात्यनुचितम् । For 'इत्यादि' Gunaratna has a useful replacement in नायिकायाः ... जात्यनुचितम् । (45) अपिभिन्नक्रमे । अधिकमपीत्यर्थः । इतिना (45) अपिभिन्नक्रमे । अधिकमपीत्यर्थः। इतिअधिकास्थिरत्वपरामर्षः(शः)। इत्यधिकास्थिरत्वे शब्देनाधिकास्थिरत्वपरामर्शः। इत्याधिकास्थिरत्वेन प्रसिद्धो यो भङगुरोऽपाङ्गभङ्गः, तस्य यदुपमानत्वं प्रसिद्धो यो भङ्गुरोऽपाङ्गभङ्गस्तस्य यदुपमानत्वं तेनोतेनोपात्तं, तदुपमानत्वेन सामान्यवचनस्यास्य समस्त- पात्तम्, तदनुपादानत्वम् "उपमानानि सामान्यवचन" योपादानं न स्यात. उपमानेनैव सामान्यवचमसमासात् । रित्यनुशासनात् । Gunaratna has some elaboration which adds to clarity. (46) ननु शान्तशृङ्गारयोः द्वयोरपि रसत्वे- (46) ननु शान्तशृङ्गारयोर्द्वयोरपि रसत्वेन नैकस्यापरेण बाधने किं विनिगमक, वैपरीत्यस्यापि [एकेनापरस्य] बाधने कि विनिगमकमित्यपेक्षायामाह-- सुवचत्वादित्यत आई, न पुनरिति । न पुनरिति । (P. 308) We will now look into same instances [एकेनापरस्य] is supplied by the editors of from ullăsa VIII. the Allahabad edn. But Gunaratna has retained the original and better expre ssion. - (47) रसपय॑न्तेति । रसस्य पर्यन्ते भी (सी) (47) रसपर्यन्तेति । रसस्य पर्यन्ते सीमायां मायां विधान्ताः । तदन्यथा (त्रा) प्रसारिणी रसमर्यादा- विश्रान्ता तदन्यत्राप्रसारिणी रसमर्यावाग्राहिणी या ग्राहिणी [या] प्रतीतिस्तया बन्ध्यास्तद्धीनाः । प्रतीतिस्तया वन्ध्यास्तद्धीनाः । (P. 316) (48) यथोज्वल (न्मज्ज) ज्जलकुञ्जरेति वृत्तम् । (48) यथा उन्मज्जज्जलकुञ्जरेन्द्र....etc. EP. 323) The whole verse is cited in the Sa.bo. Gunaratna only mentions its suit. This verse is not seen either in Vämana or in Mammata. (49) एक पदार्थस्य बहुभिः पदैः बहूनां पदार्थानां (49) एकपदार्थस्य बहुभिः पदैर्बहूनां च पदार्थाचैकेनासि (भि) धारा (न) म्। पदार्थे वाक्यरचना नामेकेनाभिधानं पदार्थे वाक्यरचनं, वाक्यार्थे च पदावाक्यार्थे च पदरचना। भिधा । (P. 326) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Saradipika and the Sārabodhini 55 (50) एक वाक्यार्थस्यानकेन वाक्येन प्रतिपादनं (50) एक वाक्यार्थस्य अनेक वाक्येन प्रतिपादनं व्यासः । अनेक वाक्यार्थस्यैकेन प्रत्यायनं समासः। व्यासः । तथा अनेकवाक्यार्थस्य एकेन प्रत्यायनं यथा समासः । क्रमेण यथा--अयं नानाकारो भवति.... अयं नानाकारो भवति....etc. etc. अत्रादृष्टवैचित्र्यात् सुखदुःखवैचित्र्यमित्येक(त्यनेक) अत्रादृष्टवैचित्र्यात् सुखदुःख वैचित्र्यमित्येक वाक्यावाक्यार्थ (2) म प्रपञ्चितं इति न्या (व्या) सः । मे र्थोऽनेकवाक्येन प्रपञ्चित इति व्यासः । तथा. 'ते (ते) हिमालयमामन्त्र्येत्यादौ एकवाक्येन बहुवाक्यार्थ- हिमालये' त्यादौ एकवाक्ये बहुवाक्यार्थ निबन्धनात् निबन्धात् समासः । समासः । (P. 329) . (51) क्रमः क्रियापरम्परा। विदग्धचेष्टितं (51) क्रमः क्रियापरम्परा। कौटिल्यं विदग्धकौटिल्यं { प्रसिद्धवर्णनाविरहोऽनुज्व (ब) ल (ण) चेष्टितम् । अनुल्वणत्वमस्फुटत्वम् । उपपत्तिः उपपादकत्वं, उपपाव (द) क युक्तिविन्यास उपपत्तिः, एषां योगः युक्तिविन्यास एषां योगः संबलनम्, स एव रूपं यस्या सम्मेलन, स एव रूपं यस्य (स्या) घटनायास्तद्रूपः घटनायास्तद्रूपः श्लेषः । यथाश्लेषः । अथ टोकान्तरे क्रमस्याति कौटिल्यं अतिक्रमः, दृष्वकासन संस्थिते....etc. तस्यानुल्वणत्वमस्य, तत्रो (त्रो) पपत्तियुक्तिः तस्य इत्यत्र दर्शनादयः क्रियाः । (P 329) (स्याः) योगः सद्भावस्तद्रूपा या All this is Sa. bo., being repeated घटना तदात्मा श्लेषेत्यर्थः। once again in the name of टीकान्तर. We अस्योदाहरणं यथा-दृष्ट्वकासनसंस्थिते."etc. fail to understand this. इत्यत्र दर्शनादयः ।.... Now we will pick up some illustra. tions from the IXth ullasa. (52) यमकेऽति व्याप्तिरित्याह-स्वरवैसादृश्ये- (52) यमकेऽतिव्याप्तिरित्यत आहस्वरवैसादृश्यऽपीत्यादि । अत्र स्वर] सादृश्यं न प्रयोजक, कुलालकल- पीति। अत्र स्वरसादृश्यं न प्रयोजक,कुलालकलत्रमित्याअमित्याद्यपि दर्शनात् । यमके तु समानानुपूर्वीकत्वनियमः। दिष्वपि दर्शनात् । यमके तु समानानुपूर्वीकत्वनियमः । (P.335) (53) तेन वर्णभेदेऽपि श्रुत्येकत्वेन यमकं यथा, (53) तेन वर्णभेदे श्रुत्येकत्वेऽपि यमकं यथाभूजलतां जडतामित्यत्र डकारलकारयोः । तदुक्तं यम भुजलतां जडतामषलाज नः इति लकारदकारयोः । कादै(दौभिवेदैक्यं ?] डलयोर्बवयोरलयोस्तथेति । तदुक्तम-लोर्डसोरलोस्तथेति (?) Gunaratna presents correct reading. The editors of the सारबोधिनी can benefit from this. (54) स तु प्रकृतो राजा, आरं अरिसमूह, सर्वदा (54) स तु प्रकृतो राजा, आरं अरिसमूह, सर्वदा सर्वकालं, रणं समरमानषीदित्यन्वयः । . सर्वकालं, रणं समरमनैषीदित्यन्वयः । (P. 383) (55) अविनाशे हेतुरयम् । शिवेन शङ्करेण ईहित (55) नित्यविनाशे हेतुरयम् । शिवेन शङ्करेण (तां) महितां, पक्षे शिवे कल्याणे हितां शिवदात्रीम् ईहितां अथितां, पक्षे शिवे कल्याणे हितां शिवदात्री(त्रों) स्मरण कामेनाना) भिमता स्मराभिमतों स्मराध्या- स्मरण कामेन मितास (p. 388) सिताम् । Gunaratna's 'अविनाशे' is better than 'नित्यविनाशे' of the printed edn. of Sa. bo, Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 T. S. Nandi (56) ततस्त(स्त्स)रुमध्ये मा शब्दं विन्यस्य (56) ततस्त्सरुमध्ये मा शब्दं लिखित्वा ततस्ततन्मध्ये राकारादिस(श)मित्यन्तं वर्णचतुष्टयं विन्यस्य, पार्श्वनाकारादिशमित्यन्तं वर्णचतुष्टयं विलिख्य दक्षिणे[दक्षिणेनानुलोमेन] वामनो (तो) विलोमे[न] [मे] नानुलोमेन वामतो विलोमेन मे दिश्यात् इति लिखेत् । दिश्यादु(द) इति लिखेत् । माशब्द[स्तु] पूर्वत्र (वदे) मा शब्दस्तु पूर्ववदेवेति त्सरुः । दिशब्देन गंजनं माशब्दवेति त्सरुः । परवर्णद्वयाभ्यां तु गजनमिति खड्ग- स्तु तिष्ठ इति [?] खड्गनिष्पत्तिः । (P. 358) निष्पत्तिः। Here also Gunaratna can help these editors. (57) .."करो राजस्वं, तल्लाति गहाति, बहले (57)....करो राजत्वं, तं लान्तीति गृह्णन्ति, बहले कृष्णपक्षेऽप्यमला तारादिभिः प्रकाशनात् । कृष्णपक्षेऽप्यमत्ता ताराभिः प्रकाशनात् । Gunaratna's 'अमला' is better than 'अमत्ता'. Now we will look into some parallels from the Xth ullăsa. We will particularly pick up only such instances where Gunaratna offers better or correct reading as compared to the printed edn. of the Sa. bo. Actually we can trace as many as twenty seven parallel passages. (58) एकोऽसहायोऽथवा एकोऽवधारणे । स एव (58) एकोऽसहायः अथवा एकोऽवधारणे । स मान्यः। एव नान्यः । (P. 409). Gunaratna has 'htrai' which reads better. (59) चन्द्र इव मुखमाह्लादकमित्यत्र आह्लाद- (59) चन्द्र इव मुखमाह्लादकमित्यत्र तु आह्लादकपदस्योभयान्वयित्वेऽपि नपुंसकस्य मुखपदस्य लिङ्ग- कपदस्योभयगामित्वेऽपि नपुंसकस्य मुखपदस्य लिङ्गग्रहणं ग्रहणमनुशासनात् । 'नपुंसकमनपुंसके' त्याद्यनुशासनात् । (P. 363) Gunaratna's 'उभयान्वयित्व'reads slightly better than 'उभयगामित्वे'. (60) 'हसीवधवलश्चन्द्र' इत्यादौ प्रतीतिमाधु- (60) तथा सति 'हंसीव धवलश्चन्द्र' इत्यादी (न्थ)र्यधीविरहेण दोषो न स्यात् । प्रतीतिमान्थर्यविरहेण दोषो न स्यात् । (P. 362) Gunaratna has 'धीविरहेण' which is clearer. Instances can be multiplied. On an earlier occasion we have seen how Gunaratna can be utilized to advantage even in critically editing such comm. as the Bâlacittanuraõjani. The Sáradipikä thus could prove a very important and useful research tool in fixing better readings and also in filling up the lacuna left out in other commentaries and works that have had a shaping influence on it. Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAYARĀSI'S CRITICISM OF VERBAL TESTIMONY J. M. Shukla Jayarāsi bhatta's Tattvopaplavasimha is a unique work written in the beginning of the eighth century A. D. The author belonged to the Lokāyata tradition about which we possess only second hand knowledge from scattered references in different compendia of philosophical views. Very few independent works of this system have been discovered or studied by scholars. The work under reference was edited by Sukhalal Sanghvi and R.C. Parikh and published in the Gaekwad's Oriental Series Vol. 87, in 1940. Jayarăsi bhatta apparently was Brahmin as can be inferred from the abuses he showered on the Buddhists and the Jainas. His wrath cooled down a bit when he took up for criticism the views of the Brahmanic philosophers, although for the Naiyāyikas he was always happy to dart a couple of special arrows ! The tendency for using strong language against the views of the opponents prominently surfaced when the Buddhists wanted to establish the validity of their doctrines against those of the Mimāṁsakas on the one hand and of the Naiyāyikas on the other. Although the independent contribution of the Mimāṁsakas to epistemology is not very outstanding before Kumārila (c. A. D. 550-600), the Buddhists considered them as their major rivals, because, the Mimāṁsakas, as the Buddhist thought, had biased people's mind with the dogma of the eternality as well as non-human (divine) origin of the Vedas. Therefore Dharmakirtia (c. A. D. 625-675) and the Buddhist writers coming after him express strong sentiments against their rivals. On the opposite side, writers like Kumārila, Jayanta bhatta (c. A. D. 750-800) and Vacaspati Misra (9th cent. A. D.) use brilliant repartee and biting sarcasm. This situation provokes attempt to understand the general trend of refutation of others views in ancient Indian philosophical tradition. The earliest tradition summarily refers to the views of the previous writers. It faithfully presents the views of the objector and after brief references to such views offers its own interpretation and explanations which positively contribute to the discussion at hand. We meet with this tendency in the Satapatha-brahmana (c. B. C. 800 or later), in the Pürva-and the Uttara-mimāṁsā sūtras (c. B. C. 200), in the Mahābhāşya of Patañjali (c. B. C. 150) and in the Vakyapadiya of Bhartshari (c. A. D. 400-450). The next tradition takes up one by one the arguments of the rival systems and offers logical refutation. We here have the illustrations of the works of the Mahāyāna Buddhist philosopher Nāgārjuna (c. 2nd cent. A. D.), Mimämsaka Bhatta Prabhākara (c. A. D. 600) and Samkarācārya (c. A. D. 780-812). Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 J. M. Shukla The third tradition takes up the opponent's arguments, lends them a subtle twist, interprets them in its own way and ultimately refutes them. The illustrations are of the works of Dignaga (A. D. 400-450), Kumãrila, Dharmakirti and Santarakṣita (A. D. 750). The fourth tradition diligently collects the basic arguments of other philosophical systems, and tries to refute them by different devices of refutation. Jayarasi represents this class of dialectics. Jayarasi adopted the method of setting forth at the outset all possible alternatives with respect to a problem or the implications of a definition and then demonstrating the absurdities inherent in each one of them. He has at his command all the known tools of dispute (katha) in the form of discussion (vada), disputation. (jalpa), and wrangling (vitanda). He neither asserts nor denies anything. He merely presents a point, explores its alternatives and taking them one by one, refutes them. His method is to examine the tenets forwarded by other thinkers and show that they are self-contradictory, meaningless and untrue. For him: "all principles being upset, all the propositions will be charming so long as they are not investigated into." He boasts that he has gone beyond the arguments that would be conceived by Bṛhaspati, the early master of his own system of philosophy, whom he understands as no other than the preceptor of the Gods! In the text body. he quotes from Brhaspati. As can be seen from the first page of his work, he has traversed beyond the professed views of the Carvakas. The Carvākas accept the validity of perception as a means of knowledge. They also accept four primary elements, namely earth, water, light and air. But Jayarasi, or the particular Carvaka school to which he belonged, did not accept any means of knowledge or any element. He summarily dismisses them and would talk about them as acceptable only in the worldly usage. The elements do not have any ultimate existence or validity. Jayarasi quotes Bhartṛhari, Kumärila, Dharmakirti and Santa raksita. Digambara Jaina writers later than Jayarasi, like Anantavirya in his Astasahasri and Tattvärtha-flokavärttika extensively quote him." At the end of the Tattoopaplvasimha he criticises verbal testimony (fabdapramaya). He divides his criticism into five sub-sections: 1. Words cannot express meaning because there exists nothing like a relation between the two. Therefore the words of a common man, or those of a trusted person (apta) or the words and sentences found in ancient works have no validity. 2. Words cannot be accepted as a means of valid knowledge simply because they are spoken or written by a trustworthy or an infalliable person (apta). 3. The argument that the vedas are not composed by any human agency and are eternal cannot be accepted as valid. Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jayarati's Criticism of Verbal Testimany 4. Words and sentences cannot be accepted as a valid means of knowledge since they naturally fulfill the desire of a speaker to express meanings. 5. Meanings cannot be obtained only from grammatically correct words. Let us try to understand Jayarasi's criticism in these sub-sections one by one. Some persons declare: "the word go (cow) is valid because it expresses a correct meaning, Jayarasi says this is not correct because there is no relation between the word 'go' (cow) and the meaning, the animal cow' (go). There is nothing like a relation between words and their meanings. 59 The objector, however, will like to point out that there is a relation between a word and its meaning. The relation may be of the nature of identity (tädatmya), or of the nature of causality (tadulpatti), or of the nature of a convention (sāmayika), or is natural (svābhārika). Jayarasi has referred to four kinds of relations: First is 'identity' which is accepted by the Mimämsakas and the grammarians; the second 'causality', accepted by the grammarians; third, 'naturalness' accepted by Mimämhsaks and the grammarians; and fourth, the relation called 'convention' (samaya) which is accepted by the Naiyayikas. The 'eternal' relation is called nitya or autpätika, or tädätmya-rapa, or yogyataTupa. The Mimāmsakas and the grammarians who accept this kind of relation also call it the relation between the expressed and the expressor (bacya-vācaka-bhāvaTupa). The grammarians were the first to emphasize a natural relation between. a word and its meaning, which they called eternal (nitya) or evident (siddha). The Mimamsakas meticulously followed them. It has become the bedrock of their interpretative superstructure, because, on the basis of this relation they explain the eternality and the infallibility of the vedas. The Buddhists do not accept any relation between words and their meanings. For them neither words nor their meanings are real; how, then, can the relation between the two be taken as real ?8 For the Vaiseṣikas and the Naiyayikas neither the saniyoga nor the samavaya can be a relation between the words and their meanings. Vatsyayana is reluctant to call the understanding of a word in the form 'this is expressed by this' and 'this is the expressor of this' as a relation. At least, he would be pleased to designate it as convention (samaya10). Jayarasi says that the relation called identity (tädätmya) cannot be accepted, because, words like go (cow), hasti (elephant) and their meanings are not alike in form. The relation causality (kārya-kāraṇa-bhāva) also is not possible, because, even when meanings have vanished and hence no longer are present, words are still known to exist. Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 J. M. Shukla Convention (samaya) based on the usage of the elders cannot be accepted as a relation because there are many individual words which denote the same meaning. A single word which brings about the cognition of the meaning and which is at the same time not different from other words cannot be conceived. The word which helped the convention which arose long ago is not always present at the time of the understanding of its meaning. The convention of a word which brings about the cognition of the meaning cannot be known as it was not present when the convention arose. There cannot be a natural relation between words and meanings, because we cannot cognise the relation either by perception or inference. Similarly, the relation cannot be based on implication (arthapatti) because implication is based on perception and other means of knowledge and in the absence of perception, one cannot arrive at implication. Second, implication itself is not different from inference and the grammarians do not accept inferential relation between words and their meanings. Here, in the absence of a relation between a word and its meaning, words no longer express any meaning. When words do not bring about the cognition of meaning, how can a sentence composed of words express any meaning ? When sentences cannot express any meaning, how can Vedic statements be understood as having any meaning at all ? If the objector were to say that meaning can still be comprehended from a sentence, although the words constituting the sentence may not have their meanings wellknown, Jayarāśi would say that, in such a case, all those who recite the Vedas will be able to understand the meaning of the Vedas ! This is not possible because a meaningful sentence is contrary to a meaningless sentence. One cannot make statements like "stones swim" (Sabara-bhāsya on the Minām sā-sūtra 1.1.5) or “Prajapati, having made a decoction of sixty-four letters drank them.” The validity of the verbal cognition based on the utterance of an authentic person is refuted in the second subsection. There are some thinkers who accept words of authoritative persons as the means of valid knowledge. The authorities are those who intrinsically possess Dharma', or moral behaviour. Whatever is said by them is non-contradictory. It is said that one who has driven away demerits will not tell a lie because there is no reason for it. All this, says Jayarāsi, is 'unvalid'. The behaviour of an authentic person is largely indirect and hence what is related by him cannot be grasped. At the same time there is no inference which would recognize a non-attached person, for inference has already been declared as unproven. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jayarāfi's Criticism of Verbal Testimony 61 Well, let the persons thought to be "authority' make statements. How do they become valid ? Do they so become by their mere existence or by their being capable of generating right knowledge ? The former cannot be accepted because that which does not bring about any activity cannot be related to something valid. And, if the capability to generate right knowledge were considered to prove the validity of the statements of an authentic person, is it understood as bringing about right knowledge on its own or with the help of some auxiliary cause? The former position cannot be accepted because it alone cannot bring about any cognition and there will not be any order and simultaneity. If, on the other hand, the statement of an authoritative person were to generate right knowledge only when helped by some auxiliary cause, one can say that the auxiliary cause may be erroneous, with the result that, inspite of himself being an authoritative person, his statements may generate a contrary knowledge. Let us take an example. A person having seen a boy with a new blanket says, 'this boy has a new (nava) blanket'. The hearer on account of his perturbed mind understands the boy as having nine blankets. In the opposite sense, the deceitful speaker mas have wished to convey by his utterance that the boy has nine blankets; while the hearer, on account of his righteous behaviour, understands him as having a new blanket. Similarly, the authentic statements may, on account of sinful behaviour of a person, be understood differently than what they really signify. There may be other reasons like being possessed by evil spirits, mental derangement, or a confused mind which bring about erroneous understanding of the statements of authoritative persons. Hence neither the utterance nor the hearing of the statements by an authentic person should be considered valid. In the third sub-section Jayarāśi offers his refutation of the doctrines of those who accept the authoritativeness of the vedas. Those who follow the views of fools opine as follows: The vedas are authorit. ative in a different way, that is because not composed by any human agency. Human beings, with their minds inverted by infatuation etcetera, bring about something inverted and therefore cannot be the authors of the Vedas. It is argued that Veda is eternal, because, like sky etcetera, one cannot remember its producer. The defects related to him and influenced by him are no longer found in his absence. When there are no defects clinging to the Vedas, how can one doubt the validity of the authoritativeness of the Vedas. It is said that the presence or absence of faults is related to human beings. As regards the Vedas, there should not be any doubt because there is no composer of the Vedas. 11 It is also said that "like the understanding brought about by a correct premise, a statement of a trustworthy person, or sense perception, the understanding produced by Vedic precepts is authentic because it is brought about by faultness means."19 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 J. M. Shukla precepts is never doubtful Moreover, the knowledge brought about by Vedic because it is not produced in the form of a question like "why indeed." not erroneous because it is not contradicted in other places, nor is it contradicted at other times. Therefore the Knowledge' from Vedic precepts is not incorrect. The above is the objector's point of view. Jayarasi now starts point by point refuting the arguments put forward by the Mimämsaka opponent. The Veda cannot be eternal just because its creator is not found. In the cases of wells and public shelters, for example, their builders are not remembered. How could, then, they be deemed as non-eternal? If one were to argue that on account of the uncertainty regarding place and time, the builder is not remem bered. Jayarasi says that the argument will suffer from the ground of defeat called wrong person (hetvantarem) because the arguer desires a specific mention when no such mention has given the particular meaning.13 Even if a mention regarding the absence of the non-availability of a particular place and time with regard to the builder or the author of a well or the Vedas were made, the fact of non-remembrance of the builder or the author will not be excluded from the argument proving the contrary. Again, this reason is unproven because the followers of Kanāda do remember the author of the Vedas. At the same time many people in the world declare that Brahma is the composer of the Vedas. Jayarasi continues: Do you consider the absence of remembrance of the author on the part of all people as the reason in favour of the authenticity of the Vedas, or on the part of a few people. If the former, than it is untenable because the presently available portion of the Veda cannot be ascertained, If the latter, then the reason (hetu) is inconclusive because quite a few people do not remember the work of living persons. From this it also becomes evident that when some persons do not remember the authors of the Veda, others do remember them. Jayarasi likes to repeat that the Vedas are unauthentic, not because they are composed by human beings but because there may have crept errors and unacceptable elements on account of the faults on the part of the human authors. Like human beings who are sure to commit errors, the sense-organs also may commit errors in their working and hence all knowledge produced by them should be deemed unauthentic. Hence nothing under the sun should be considered as authentic. There is a possibility of some 11 persons concealing their authorship of the Vedas and accordingly declaring that (a singular) 'he' has not composed the Vedas. Hence the argument that the Vedas are authentic because no human being has composed them cannot be considered proven. For the sake of assumption, however, let the Vedas be considered as not composed by any human agency. How does it prove its authenticity. If authenticity is based on excluding the errors, because the composer human agency is also Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jayarāfi's Criticism of Verbal Testimony 63 excluded, you, the opponent, argues Jayarābi, will bring forward the argument of authenticity based on natural merits related to the Vedas, when human faults and errors are eliminated. In that case, avers Jayarāsi, along with natural merits, natural demerits also will have to be included, which ultimately will declare Vedas as unauthentic. Besides, who will remove the misconceptions generated in the minds of the hearers of the Vedas ? On hearing the recital of the Vedas, a wrong meaning is likely to be comprehended by the hearers, which will lead to a faulty performance of every day actions and which in its turn will generate erroneous knowledge, let alone the authenticity of the Vedic injunctions. The argument that the knowledge comprehended by Vedic precepts is authentic because it is not proven contrary even at a different place and different time, also cannot stand ; because, remembrance, although not contradicted, cannot be considered authentic. It is argued that the objects Known with the Knowledge brought by Vedic precepts are truly existent and hence they are real, but the cognition of the kefonduka (a wooly mass seen by pressing the eye with the finger) can never have any reality, Jayaràsi says that the poor dear objector arguing his case desires to instruct others after taking poison himself. 14 The later comprehension of the Vedic precept is useless for its understanding because the understanding has ceased to exist at that time and at the time of comprehension, the object has been nonexistent. The small fourth sub-section refutes in a very summary way the authenticity of 'words' because they fulfill the desire of a speaker. The Mimāṁsaka says that the words are uttered on account of the desire to speak (vivaksa) on the part of a speaker. Jayarâši says that there is no causal relation between words and the desire of a speaker. He relies for his argument on his rejection of the causal relation as he has already pointed out in the case of the Buddhists. He has also rejected causal relation (hetu-phala-bhāva) with regard to the inference of the Buddhist and the Naiyāyikas and the perception of the Buddhists and the Sāṁkhyas.15 In the fifth sub-section Jayarāśi criticises the view of the grammarians who declare that meanings are obtained only from correct words. Other thinkers, namely the grammarians, declare that meaning is obtained from correct words. Correctness of words which are called laks ya is ascertained by their being consistent with rules of grammar (laksana). Jayarāśi asks : "What do you understand by words (laksya) to explain which the great sage (Pāṇini) composed a mass of rules. Do the syllables like 'g' etcetera constitute words, or do we understand by words something abstract called sphota of the RS of the ? with Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 J. M. Shukla which is different from letters? If the former, are the letters eternal and do they constitute words or are they produced ? If eternal syllables (or letters) were to be called words, will they be comprehended as isolated or grouped ? If they were understood as isolated, then only a single syllable g or o will give the meaning of the word go (cow). In that case, the specific order in pronouncing letters will be fruitless. Besides, a single letter cannot be inflected because only a complete word which is in the form of a group of letters can have terminations. Well, let us understand a word as a group of syllables (samghāta), says the objector, because the letters g, o and visarga, which constitute the word go, when taken together, are called a group (sanghāta). Jayarāśi does not agree with this proposition. Syllables, says he, have an inherent difference. In what, he questions, will one syllable be different from another letter ? A syllable may be different from a non-syllable but how can it be different from another syllable ? Is the difference based on the shape (akāra) of a letter, or is it based on its nature of being a non-letter (avarṇātmakatā). If shape were emphasised in considering difference, then other letters will not be called letters as for example nira (water) is not tira (a bank) and tira is not nira, If the nature of being a non-letter (avarnātmakatā) is considered for difference, then there will be a single letter (or syllable) in the whole world and it will not bring about a meaning like 'the animal called a cow' (go’rthvācakatvam) from the word go, for the word go (cow), a single syllable cannot become capable of being Inflected. 18 There is also no proof which establishes the eternality of letters (or syllables) because perception and other means of knowledge have already been established as invalid. If the letters were understood as many and different because the single syllable g is uttered slowly once, and loudly at other times and thus a loudly uttered g is different from a slowly uttered one, then the letter g will be understood as different from other syllables elsewhere. The objector rejects this by saying that the loudly uttered g syllable and the slowly uttered g syllable are really not different. Their difference is based on their being manifested differently; the syllable (or letter) g is never understood as different from another g letter. Jayarāśi replies that it is not correct to say that the manifestations are different. If it were so, the division of g, o, and the visarga for the word go (cow) will have to be understood as based on the differences of manifestations and hence the letter remains a single entity. The result will be that from a single letter which becomes incapable of inflection, the meaning17; 'the animal cow' will not be obtained. And also, Jayarāsi continues, if objects which are understood as different are accepted as being non-different, there will not be any variety (brought about by difference in this world, and in a world without any difference, no ordering Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jayarafi's Criticism of Verbal Testimony of the measurer and the measured will be possible. In an unchangeable and static world there will be no possibility for the rise and development of knowledge. The objector then comes forward with a qualification that the last syllable accompanied by the memory of the earlier syllables which had been already uttered and which then disappeared, can be understood as a word. Jayaraśi rejects this proposition, saying that the last syllable, too, once uttered, has disa ppeared at the time of its remembrance and therefore it will not be capable of providing any sense. 65 Jayaräsi once again offers the earlier argument. Even if case terminations. were applied to a single syllable, the inflected single syllable will generate meaning and other syllables will not serve any purpose for bringing about meaning. If one were to state that the already uttered syllables are remembered after the last syllable is pronounced, or that the last syllable is understood after the remembrance of the earlier syllables, in both the cases, there is no existence of a word (which is understood as a group of letters) and the meaning derived would be something unrelated to a word. Syllables, moreover, cannot be understood as 'produced' (karya). Something which already exists can be felt (and understood). That which is felt exists before. it is known; its understanding comes later. What is the nature of that which is felt? Is it something produced recently and does it then become the object of cognition? Or has it been produced long before? Or is it something not produced at all? We cannot conceive of any cause for it. We also cannot think of effort etcetera being responsible, for the effect etcetera are neither existent nor capable of activity. All this becomes unthinkable; for there is nothing like a causal relation. One cannot conceive of the cause being understood first or the effect being apprehended first. Some times both the cause and the effect are simultaneously apprehended. We cannot thus become certain about the causal relation. In the absence of such a certainty the non-eternal syllables cannot be understood as a word. Jayarasi very cleverly refutes all the concepts related with words and their eternality. He dismisses as unproven the difference among syllables, their grouping, the last syllable becoming capable of generating sense, their eternality, their capacity to produce anything, their nature of being a mere existence and, above all, the causal relation between words and syllables. The grammarian comes forward with the famous concept of sphota, the 'word essence' responsible for bringing about verbal cognition. The grammarian says. that sphota or a flash of meaning arises from the syllables which constitute a word, the syllables manifesting the sphota. It is said that the letters either singly or as an aggregate bring about meaning. The meaning is already present, hence the 9 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 J. M. Shukla meaning in the form of the sphota should be understood. It is also said that the sphoța is different from the syllables. Jayarāsi tried to refute the sphotavādin's point of view as follows: The grammarian says that something meaningful in the form of a word that is sphota can be understood, because, there is no possibility of meaning otherwise than from sphoța. Jayarăsi replies that the validity of the argument about meaning obtained from implication (arthāpatti) has already been refuted.18 Meaning is not something tied down to a word and therefore already known before. We also cannot say that perception will help us in understanding sphota. We have already thrown it away as a valid means of knowledge. Besides, an unchangeable concept like a word in the form of sphoța cannot be conceived as being capable of bringing about right knowledge. Hence, concludes Jayaräsi, there is nothing like a word (either in the form of syllables or sphora). 19 This is Jayarāśi's refutation of the objector's view of sphota. We may say that a couple of arguments offered by Jayarăși is feable, confused, and stated wrongly and at random. One might have expected a very accurate account of the objector's point of view taken from the Vakyapadiya of Bhartshari whom Jayarādi quotes at the end of the work, or the refutation of sphoța from such great minds like Kumārila and Dharmakirti. Was he afraid of Mandana Misra who was ready with a brilliant defence of sphota in his Sphotasiddhi ? Nothing of the kind : Jayarāsi, the indispertable wrangler (oaitāndika), had in mind the Mimāṁsakas, the Buddhists, and the Naiyāyikas as major opponents. Grammar was not his forte, nor grammarians his important adversaries. The reference to sphota is only incidental. Jayarāói's arguments about syllables words, their relation, the expressiveness of the so-called corrupt words and the nature of the pronouncements of an authoritative person are arrows directed against the Mimāṁsaka more prominently than against the grammarian. At the end of the fifth sub-section Jayarāúi takes up the topic regarding the expressiveness of the so-called corrupt words. There are rules in the form of the sutras regarding the correctness or otherwise of words in the current usage. Words are both correct and corrupt, say the Mimāmsakas and the grammarians. The correct words are determined by rules of grammar. 20 The so-called corrupt words like gāvi, goni, goputtalikā, all meaning a cow, are considered apabhraíša, or corrupt words. This is not correct. Even in the absence of rules testifying their correctness, they should be understood as correct words. What will happen when someone utters a corrupt word ? Does the mouth of the speaker become deformed ? Do such words not convey any meaning ? Do they convey a changed meaning ? Do the meanings of the corrupt words become incapable of bringing about a particular and intended action or does their utterance result in some disaster ? For these alternatives Jayarāsi has taken help of the first section (ahnika) of Patañjali's Mahabhāsya and the introductory discussion in the early part of the Sabara-bhāsya, Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jayarāfi's Criticism of Verbal Testimony Jayarāéi next answers the above questions one by one. We find hundreds of people uttering the so-called corrupt words. Their mouths are not deformed. A word like gāvi (cow) does express meaning because there are many cognisers of the meaning of the word cow when gāvi is uttered. It also should not be said that, when a hearer hears the word gāvi, he is mentally reminded of the word cow, the so-called correct word. The uneducated and backward persons have never known the word go and therefore at the time of the utterance of the word gāvi they are not reminded of the word go. There is also no change of meaning when a corrupt word is pronounced. We never experience that the correct meaning 'cowness' is contradicted by the word gavi when the latter is uttered. Nor does a corrupt word become incapable of bringing about a particular result, because, when the word gāvi is uttered, there is no difficulty in milking a cow or leading it to a pasture or in its giving birth to a calf. The expressiveness of a corrupt word can never be derecognised. Bharthari has said that the corrupt word, according to some, is expressive only through the inference (of its correct form). Even if its expressiveness were equal to that of the corrupt form, the Šāstra makes a restriction with regard to usage, keeping merit and demerit in view.21 Jayarāśi says this is not correct, because, there is no restriction on the expressiveness of a corrupt word. There are no specific rules about the use of correct or corrupt words. Even well-read scholars are found using corrupt words. On this point Jayarāśi is in good company, for Patañjali, too, has stated that only at the time of ritual, corrupt words are not pronounced, because it results in demerit and restrictions against the use of such utterances are specifically given by Vedic injunctions. He also says that corrupt as well as correct words express the same meaning. 22 References 1. TPS. (a) for the Buddhists, p. 29, 1. 26; 32, 4; 39, 17, 23; 42, 22; 53. 9. (b) for the Jainas p. 79, 1. 15. 2(a) तस्यैव तावदीदृशं प्रज्ञास्खलित कथं वृत्तमिति सविस्मयानुकम्पं नश्चेतः । तदपरेऽप्यनुवदन्तीति FAGATARTIT fata 1991 JA: I p. 80, Pramāņavārttika, Svārthānumānavịtti (Mālvania, Benares). (b) वेदप्रामाण्यं कस्यचित्कर्तवादः स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः । सन्तायारम्भो पापहानाय चैति ध्वस्तप्रज्ञाने पञ्च लिङ्गानि जाड्ये ॥ ibid, p. 118. (c) Tag #71969 57879quiafaa | Vādanyāya, p. 103. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 J. M. Shukla 3. The criticism of grammar and grammarians : p. 67, 68. (a) सूत्रवात्तिकभाष्येषु दृश्यते चापशब्दनम् । अश्वारूढाः कथं चाश्वान्विस्मरेयुः सचेतनाः ॥ Tantravarttika, p. 260. . (b) अतो विगानभूयिष्ठाद्विरुद्धान्मूलवजितान् । ____ निष्फलाच्च व्यवस्थानं शब्दानां नानुशासनात् ॥ ibid, p. 274. (c) वृत्तिः सूत्रं तिला माषा कयत्रि कोद्रवोदनः । अजडाय प्रदातव्यं जणीकरणमुत्तमम् ॥ Nyayamanjari, p. 386. (d) तदेवं व्यवस्थिते न्यायमीमांसापरिशीलनविकलानां बाह्यतरा प्रलाया उपेक्षणीयाः । Nyayavarttikatatparyatikā, p. 715. 4. तदेवमुपप्लुतेष्वेव तत्त्वेषु अविचारितरमणीयाः सर्व व्यवहारा घटन्त इति । TPS. p. 125. 5. TPS. p. 45, 48. 6. पथिव्यादीनि तत्त्वानि लाके प्रसिद्धानि । तान्यपि विचार्यमाणानि न व्यवतिष्ठन्ते कि पुनरन्यानीति । TPS. p. 1. 7 TPS. introduction VI ff. 8. वर्णा निरर्थका सन्तः पदादि परिकल्पितम् । अवस्तुनि कथं वृत्तिः संबन्धस्यास्य वस्तुनः ।। ___Pramānavārttika, Svarthānumāna, verse 941 b, 242 a. 9. ननु नैव शब्दस्यार्थिन संबन्धः कश्चिदस्ति । Nyayamaijari, p. 220. 10(a) सामयिकः शब्दार्थसंबन्धप्रत्ययः । Vaisesikasātra, 7.2-10. (b) समयं तमवीचाम। Vātsyāyanabhāsya on Nyayasātra, 2.1.55. (c) तदूरमस्तु सङ केत एव । कृतमत्र स्वाभाविकेन संबन्धेन । Tātparyatikā, on Nyāyasūtrabhāşya 2.1.55. 11. Tattvasamgraha, verse no. 2895. 12. चोदनाजनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवजितैः । कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिङ्गाप्तोक्ताक्षबुद्धिवत् ॥ TPS. p. 116; Sloka-vārttika, Sūtra 2. v. 184. 13. एवं तहिं अविशेषाभिहितेऽर्थे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरं नाम निग्रहस्थानम् । ___TPS., p. 116, 1. 23, 24. 14. स्मृतेर्बाधारहितत्वेऽप्यप्रमाणत्वात् । TPS. p. 118, 1. 18. . 15. TPS. p. 84. 19; 87, 6; 71, 4: 63, 14; 71, 4. 16. ततश्चैक एव वर्णात्मा जगति संजातः । तस्य गोऽर्थवाचकत्वं न युज्यते सुविभक्त्यनुपपत्तेः । TPS. p. 121,1,1, 2. 17. This is verbatim of the earlier argument, p. 121. 1. 1. 18. अर्थप्रतिपत्त्यन्यथानुपपत्त्या पदमवगम्यते । तद् अर्थापत्तेः प्रामाण्यमेव नास्ति । TPS. p. 123,1. 20,21. Here Jayarasi takes a jump from अर्थप्रतिपत्ति to अर्थापत्ति by verbal quibble (vāk chala), Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jayarāfi's Criticism of Verbal Testimony 19. ficatu fashiereif47acuri Acufer IT.P.S., p, 123, 1. 25. This is a repe FERRUTETT1Yurafatory fashIGUETTATHA T I tition of p. 121, 1. 16. 20. Discussion regarding the nature of corrupt words stopped after the seventh century A,D. when different forms of Prākrits became the spoken dialects. The discussion in later Buddhist and Jaina works and in Nägela is merely academic. 21. अपशब्दोऽनुमानेन वाचकः केश्चिदिष्यते । वाचकत्वाऽविशेषेऽपि नियमः पुण्यपापयोः ॥ TPS. p. 125; Vakyapadiya III. 3.30. 22. HATOT frat JOCH TYRIGHT a shife: fagà | Mahābhāşya, I. p. 8, 1, 21 (Keilhorn) Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ABHINAVAGUPTA'S IDEAS IN LOCANA ON THE NATURE OF BEAUTY OF KAVYA V. M. Kulkarni In India it was the ālamkārikas, literary critics, and not the philosophers who investigated the nature of beauty in kavya (literature) and for that matter fine arts in general. The attention of the alarkārikas of the earlier period is mainly confined to the body of literature, the outward expression of kavya, namely, śabda and artha, whereas the alamkārikas of the later period mainly concerned themselves with the suggested sense and more particularly with rasa, the soul or the very essence of kāvya. Anandavardhana's Dhvanyālokal (c. latter half of the 9th cent. A.D.) is the first work which allots the first place to the 'suggested sense' in judging the worth of any literary piece of work. In his brilliant exposition of this work in his famous commentary Locana, Abhinavagupta (10th cent. A.D.) expands Anandavardhana's ideas about literary beauty and at times also adds to it his own contribution. The object of the present paper is to collect together all such passages from Locana, classify them under suitable headings, and elucidate Abhinavagupta's ideas on the Theory of Beauty in kāvya-literature (or art in general). Nature of Beauty Anandavardhana aptly compares the suggested sense in the work of "great poets” with the incomparable beauty (lāvanya) of women that is distinct from the sum total of loveliness of various parts of their body. Abhinavagupta expands this idea in his characteristic style : “Beauty which is revealed by the configuration or form of the various (comely) parts of the body is quite distinct and different from their own loveliness. Faultlessness of the limbs or their union with ornaments does not constitute beauty. For we find sensitive critics (sahsdayas) calling a woman, although possessed of various limbs that are free from such defects as "one-eyedness" when each is viewed separately, and although decorated with ornaments, as devoid of elegance, and, on the contrary, calling a woman, who is unlike the above mentioned one, as the “nector of moonlight" (lāvanyāmộta).Abhinavagupta thereby wants to convey that the suggested sense in the form of rasa, etcetera, is quite distinct from the sense denoted by abhidha as well as the sense indicated by laksaņā, gunavrtti and arthāpatti (or anumāna), and as such it does not lend itself to paraphrase. According to Anandavardhana, a kavya is devoid of rasa etcetera, if the poet has no intention to portray rasa etcetera, and if he aims at merely composing figures of word and/or of sense. And even if in the absence of his intention there Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Abhinavagupta's Ideas in Locana on the Nature of Beauty of Kavya 71 is apprehension of rasa etcetera, on the strength of the denoted sense, that apprehension is very faint and therefore that kāvya is as good as devoid of rasa etcetera. Abhinavagupta elucidates this statement by citing the following examples : “In such a kāvya,, there is no apprehension of rasa etcetera, just as there is no apprehension of taste, say, sweetness, in a particular non-vegetarian dish, prepared by a cook who is not skilled in cooking." If one were to affirm by way of objection that there is necessarily apprehension of taste, say, sweetness, in Sikhariņi (a dish of curd and brown sugar with spices) on account of the innate or inherent excellence of the ingredients", Abhinavagupta replies: "In the case of such a dish prepared by an untrained cook no one experiences pleasure by the mere knowledge (exclaiming), 'ha! what a wonderful sikhariņi (dish) !". On the contrary, people say with reference to it that curd, brown sugar and black pepper are not properly combined.3 What Abhinavagupta seems to have in mind is the fact that only when a good poet, who is intent on writing a kavya imbued with rasa, skillfully depicts vibhāvas, anubhāvas and vyabhicări-bhāvas in his kāvya that the appropriate rasa etcetera is evoked in the reader's or spectator's mind. The vibhāvas etcetera, conveyed by convention etcetera, immediately give rise to aesthetic relish. The apprehension of the rasa is unlike the apprehension of religious injunctions which causes expectancy to do something next, or the knowledge of a sage (yogi). In rasa experience there is no suggestion of anything to be done. 4 It is a condition of restful joy. Abhinavagupta further declares that “from sentences in the kävya we do not expect the apprehension which proves useful for such activity as taking a cow out for grazing or bringing back a cow home in the evening; what we really expect is the apprehension of rasa etcetera, which leads to restful joy or aesthetic repose.”5 Ānandavardhana says that elsewhere it has been shown that particular words are agreeable in certain context and disagreeable in certain other context and that this difference is based on their power of suggestion. On this Abhinavagupta comments : "Elsewhere, that is in (Udbhata's) Bhāmaha-vivarana, it has been shown that words like 'a garland', 'sandal (paste)', etcetera, are quite agreeable in the context of 'śțngāra rasa' but disagreeable or repulsive in the context of bibhatsa rasa. To put it differently; Words, when oriented towards the emotion being depicted, become the source of aesthetic relish. The discrimination culminates in the later doctrine of aucitya (fitness of everything that has bearing on the rasa concerned). The beauty of the suggested sense consists in its capacity to suggest the particular rasa; and rasa by itself is of the nature of aesthetic repose or rest and consists in delight or bliss.? Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 V. M. Kulkarni There cannot be any kavya worth the name in the absence of rasa etcetera; rasa doubtless is the life-breath of kavya but sometimes even a vyabhicari-bhāva which is subservient to rasa causes greater aesthetic relish.R Abhinavagupta is one with Anandavardhana in asserting that a thing, although marvellous in itself, does not cause any wonder if it is universally known." Sources of Literary Beauty The earlier writers on poetics recognised abdalaṁkāras like anuprāsa) arthalamkaras (like upama), gunas (like madhurya), vrttis (like upanagrikā) or ritis (like Vaidarbhi) and doṣābhava (absence of defects) as sources of literary beauty. To the later writers on poetics like Anandavardhana, however, dhvani (suggestion, the suggested sense) is the first and foremost source of literary beauty. This suggested sense may take the form of rasa or alamkara or vastu. Of these three kinds the rasadi (rasa, bhava, etcetera) dhvani takes the place of pride. Anandavardhana asserts that all figures of speech like rupaka attain beauty only when they embody suggested sense that is subordinate. Abhinavagupta illustrates the truth of this statement by citing illustrations of upama, rupaka, 31: 83, yathasamkhya, dipaka, sasamdeha, apahnuti, paryayokta, tulya-yogita, aprastuta prasamsa, akşepa, and atibayokti which are all prosaic, dry and devoid of any touch of suggested sense. They answer the external requirements of the definitions of the concerned alamkaras all right, but are devoid of their very lifebreath, the guni-bhūta-vyangya. For instance, Upamā Rūpaka Dipaka : "The ox is like a cow.' The rammer is a sacrificial post...... : 'Bring the cow and the horse." Sasaṁdeha : 'Is that a person or the tree-trunk?' Apahnutiḥ : 'This is not silver (but a pearl-oyster).' Paryayokta: 'This fat (Devadatta) does not eat by day.'.... Atisayokti : (i) 'The kundika (spouted water-jug) is samudra (an ocean).' (ii) 'The Vindhya mountains grew (high) upto the sun's path in the sky." All these examples are bald and devoid of any suggested sense and thus want in beauty and therefore they cannot be termed as alamkaras,10 Abhinavagupta's contention that "a man free from passions (a saint) does not see things topsy-turvy: If he hears the sound of lute, he does not think he has. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Abhinavagupta's Ideas in Locana on the Nature of Beauty of Kāvya 73 heard the harsh-sounding crowing of a crow," would suggest that he held beauty to be objective !* Abhinavagupta elsewhere observes that when rati (love) is presented on the stage or in a poem, even a saint or an ascetic (who is free of passions) experiences rasa-hrdayas savāda.11 Ānandavardhana asserts that alamkāra (like upamā) is universally known as the source of beauty, All alamkāras truly become so if they are used as subservient to rasa etcetera, which is the very soul, or essence, of kāvya. Abhinavagupta comments on this as follows : “Upamā embellishes the literal sense. However, this literal sense, when endowed with excellence by upamā (or any other alamkāra), serves to suggest (rasādi--) dhvan. So, really speaking, the dhvani-ātinā is alamkārya. The ornaments like kataka (bracelet), keyūra (armlet) when put on one's person, embellish the sentient person by suggesting his particular mental condition appropriate or inappropriate. 1 2 For instance, a corpse when decorated with alamkāras like) kund:la (earings) does not shine, as the soul has departed. An ascetic, if he puts on ornaments such as a bracelet of gold etcetera, becomes a laughing-stock, as in his case the mental state of a lover is inappropriate. As far as body is concerned, the question of propriety or otherwise does not arise : It is, then, one's self alone that is alarmkārya as one proudly feels “I am splendidly decorated."13 Emotions : The Content of Kavya Ānandavardhana thus says in the third Uddyota : “In the province of kavya where we perceive suggested sense, the notions of satya (truth) and asatya (falsehood) are meaningless. To examine kāvya through the well-known pramāņas (means of valid knowledge) would simply lead to ridicule.”14 The purport of this observation is that the things in kāvya have no place in the everyday world of space and time, and, owing to this lack of ontological or physical status, the question of reality or unreality in this case does not apply. That, however, does not mean that they are unreal. In fact the distinction of existence or non-existence does not at all arise in their case. * This reminds of Mańkhaka's lines in his Srikanthacarita : (i) वाणी किमणाङ्कलेव धत्ते टड विना पक्रिम विभ्रमण -II. 11 (ii) **** ffi IF741=ogha atar -II. 14 “Deviation in the activity of the poet is like the beautiful curve of the crescent moon and quite unlike that of the dog's tail.” 10 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V.M. Kulkarni Abhinavagupta elucidates this passage of Anandavardhana by citing a dissimilar example (vaidharmya-drsțānta): “We are not to examine these statements in kāvya as to whether they are true and consider whether they command us to do something as the Vedic utterances enjoining Agnistoma sacrifice do. They simply contribute directly to giving aesthetic delight (and only indirectly to refining or influencing our character and culture of mind and heart). The aesthetic delight which is essentially of the nature of transcendental camatkāra is not different from vyutpatti.18 The aesthetic delight is evoked in a reader when a vastu or alamkara or rasādi is/are portrayed by the poet in his kāvya. The rasādi-dhvani is accorded the place of supremacy as it is the source of the highest delight next only to that of the realisation of Brahma. Naturally, emotions are the central theme and content of kāvya according to both Anandavardhana and Abhinavagupta, the two greatest aestheticians India has produced. Dhvani : The Method of Kāvya Anandavardhana regards "sabdārthau" (word and sense) as only the outer vesture of kāvya while emotion as its 'ātman'. Emotions, of course, are never conveyed by their mere denomination. They can be conveyed or communicated only indirectly through an appropriate portrayal of their causes and effects. This indirect method of conveying emotions and feelings is called 'dhvani' (suggestion, suggestiveness). This method is extended to two other spheres of theme and content of kāvya, namely vastu (a fact, a bare idea) and alamkāra (figure of speech). Both vastu-dhvani and alarkāra-dhvani can be paraphrased; but rasādi-dhvani can never lend itself to paraphrase. The beauty lent by suggested sense is the greatest alaṁkāra of poetic speech just like bashfulness of women. 18 Abhinavagupta, too, upholds this method of dhvani as propounded by Anandvardhana. In the course of his exposition he often draws our attention to 'gopanasāra-saundarya'17; and in one passage he aptly compares dhvani to a beautiful or noble lady's breasts, partly covered or concealed and partly revealed, the better to excite curiosity and passion, a simile which on account of its inherent beauty and aptness became famous in later alamkāra literature. At one place he makes a perceptive remark: "what charm is there if the sense to be conveyed is done so directly or openly by the power of denotation ?"18 Anandavardhana boldly declares that dhvani (suggestion) is ‘kāvyasya-ātmā' (the soul, the very essence, of poetry, and by extension literature). It may present itself in the form of vastu or alamkāra or rasādi. He is perfectly aware of the importance of rasa-dhvani. But it is Abhinavagupta who gives it the place of supremacy and asserts that the other two dhvanis are only its aspects, and that they are not really valuable in themselves but only insofar as they lead to rasādidhvani.19 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 Abhinavagupta's Ideas in Locana on the Nature of Beauty of Kavya Anandavardhana is perfectly aware of the fact that the hackneyed examples of secondary usage (lakṣaṇa, and gunavṛtti) like 'gangayam ghoşah', 'agnir māṇavakaḥ', 'simho batuh', although suggest particular purposes, their suggested sense is not so charming or elegant 20 Abhinavagupta expands and develops this idea in his Locana. He insists that the perception of beauty is the salient or characteristic feature of kavya. He further adds that the perception of beauty must afford aesthetic repose to the reader. In its absence the linguistic function, called vyanjana, does not start. Recoiling in fact, it comes to rest in the literal sense. It is like a poor man before whom heavenly wealth presents itself for a moment and instantly disappears from his view. While commenting on the word (dhvaneḥ svarupam) atiramaniyam from Anandavardhana's Vrtti", he rightly observes: "By this expression he points out the difference of divani from (and its superiority to) the bhakta (the secondary usage) There hardly is elegance in these examples of secondary usage: simho bajuḥ' (the boy is a lion), 'Gangāyām ghoṣaḥ' (there is a settlement of cowherds on the river Ganga)." Why these and such other examples want in beauty and why they do not deserve the title kavya he explains in another passage: The Objector: Thus the sentence "The boy is a lion" might constitute kavya as the soul if the form of suggestion is present in it. The siddanti: If so, you will have to call a jar 'living'; for atman, which is allpervasive, is also present in it. The Objector: If the soul is possessed of a body endowed with various organs. etcetera, only then it is called 'living' and not simply any kind of body. The siddhanti: If the soul of dhvani (suggestion) is invested with a body consisting of words and meanings that are beautiful on account of the presence of gunas (excellences) and alamkaras (figures of speech), appropriate to the particular (rasa-) dhvani, then we call those sabda and artha as kāvya (sabdarthau kāvyaṁ). Aim/s of Kavya Dhvanyaloka merely refers to priti or ananda, (aesthetic) pleasure, joy or delight as the unique goal of literature. The discussion of Kalidasa's Kumarasambhava (Canto VIII, "Devisambhogavarṇana") by Anandavardhana, however, is a pointer to his view that literature (or art as such) cannot be divorced from morality. So, one may not be wrong if he drew the inference that Anandavardhana believed. in priti and vyutpatti (aesthetic pleasure and culture or refinement of character or moral sensitivity or proficiency in the means of attaining the four goals of human life,) as the twin aims of literature. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 V.M. Kulkarni In contradistinction to Anandavardhana, Abhinavagupta discusses this important issue of aesthetics in his Locana on more occasions than one. While commenting on Bhāmaha's verse meaning, “Study of (genuine and) good kāvya (poetry) leads to fame and delight as well as proficiency in (the means of attaining) the four great ends of man as well as proficiency in fine arts," Abhinavagupta pronounces his view : The readers of genuine kāvya attain vyutpatti and priti (aesthetic delight or pleasure) no doubt, but, between them, says Abhinavagupta, aesthetic delight is the chief aim. Otherwise one could posit the question: "Since the Vedas and Smộtis which are authoritative like masters (who issue command) and Purānas which advise or guide us like friends (they do not command, only tender advice), these two along with kāvya are equally sources of vyutpatti; what is, then, the distinctive feature of kāvya leading to the saine goal ? As similarity with a loving wife (who successfully persuades her husband to do what she likes keeping her persuasive character concealed from view and providing love's enjoyment) has been recognised as the characteristic feature of kāvya, the answer to the above question is that immediate aesthetic pleasure is the principal aim of kāyya and the aesthetic pleasure is also the ultimate fruition of vyutpatti and of kirtti (fame) too." Abhinavagupta next emphatically asserts : «Nor are priti and vyutpatti different from one another, for they both have the same source."28 From this discussion by Abhinavagupta it would seem that he does not differ with Anandavardhana as regards the ultimate aim of kāvya. He makes explicit what Anandavardhana implies in the course of his discussion of aucitya24 and of the predominant rasa of the Mahabharata and the Ramayana.28 References 1. The Dhvanyaloka of Anandavardhana, with the Locana and Balapriya Commentaries, KSS edn, Benares City 1940. 2. लावण्यं हि नामावयवसंस्थानाभिव्यङ्ग्यमवयवव्यतिरिक्तं धर्मान्तरमेव । न चावयवानामेव निर्दोषता वा भूषणयोगो वा लावण्यम्, पृथनिर्वर्ण्यमानकाणादिदोषशून्यशरीरावयवयोगिन्यामप्यलङ्कृतायामपि लावण्यशून्येयमिति, अतथाभूतायामपि कस्याञ्चिल्लावण्यामृतचन्द्रिकेयमिति सहृदयानां व्यवहारात् । ___Locana, pp. 49-50 नैव तत्र रसप्रतीतिरस्ति यथा पाकानभिज्ञसूदविरचिते मांसपाकविशेषे। नन वस्तूमौन्दर्यादवश्यं भवति कदाचित्तथास्वादोऽकुशलकृतायामपि शिखरिण्यामिवेत्याशङ्क्याह-....अज्ञकृतायां च शिखरिण्यामहो शिखरिणीति न तज्ज्ञानाच्चमत्कारः, अपि तु दधिगुडमरिचं चैतदसमञ्जसयोजितमिति वक्तारो भवन्ति । -Locana pp. 496-497 4. इह तु विभावाद्येव प्रतिपाद्यमानं चर्वणाविषयतोन्मुखमिति समयाद्युपयोगाभावः । न च नियुक्तोऽहमत्र करवाणि कृतार्थोऽहमिति शास्त्रीयप्रतीतिसदशमदः । तत्रोत्तरकतव्योन्मुख्यन लौकिकत्वात । इह तु विभावादि चर्वणाद्भुतपुष्पवत्तत्कालसारैवोदिता न तु पूर्वापरकालानुबन्धिनीति लौकिकादास्वादाद्योगिविषयाच्चान्य एवायं रसास्वादः। -Locana, p. 160 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Abhinavagupta's Ideas in Locana on the Nature of Beauty of Kavya 77 5. काव्यवाक्येभ्यो हि नयनानयनाथुपयोगिनी प्रतीतिरभ्यर्थ्यते, अपि तु प्रतीतिविश्रान्तिकारिणी, सा वाभिप्रायनिष्ठैव नाभिप्रेतवस्तुपर्यवसाना । - Locana, p. 442 शब्दविशेषाणां चेति । अन्यत्रेति । भामहविवरणे। विभागेनेति । स्रक्चन्दनादयः शब्दाः शृङ्गारे चारवो वीभत्से त्वचारण इति रसकृत एव विभागः। रसं प्रति च शब्दस्य व्यञ्जकत्वमेवेत्युक्त प्राक् । -Locana, p. 358 """किन्तु शब्दसमय॑माणहृदयसंवादसुन्दरविभावानुभावसमुचित प्राग्विनिविष्टरत्यादिवासनानुरागसुकुमारस्वसंविदानन्दचर्वणाव्यापाररसनीयरूपो रसः, स काव्यव्यापारैकगोचरो रसध्वनिरिति, स च ध्वनिरेवेति, स एव मुख्यतयात्मेति । -Locana, pp. 49-50 8. भाव-ग्रहणेन व्यभिचारिणोऽपि चळमाणस्य तावन्मात्र विश्रान्तावपि स्थायिचर्वणापर्यवसानोचितरसप्रतिष्ठामनवाप्यापि प्राणत्वं भवतीत्युक्तम् ।। -Locana, p. 90 9. क्षुण्णं हि वस्तु लोकप्रसिद्धयाद्भुतमपि नाश्चर्यकारि भवति । -Dhvanyāloka, pp. 534-35. क्षुण्ण होति । पुनः पुनर्वर्णननिरूपणादिना यत्पिष्टपिष्टत्वादतिनिभिन्नस्वरूपमित्यर्थः । --Locana, p. 534 10. तथाजातीयानामिति । चारुत्वातिशयवतामित्यर्थः। सुलक्षिता इति यत्किलैषां तद्विनिर्भुक्तं रूपं न तत्काव्येऽभ्यर्थनीयम् । उपमा हि 'यथा गौस्तथा गवयः' इति । रूपकं 'खलेवासी यूप' इति ।""दीपकं 'गामश्वम्' इति । ससन्देहः 'स्थाणुर्वा स्यात्' इति । अपह्नतिः 'नेदं रजतम्' इति । पर्यायोक्तं 'पीनो दिवा नात्ति' इति । 'अतिशयोक्तिः 'समुद्रः कुण्डिका', 'विन्ध्यो वर्धितवान'कंवागृह्णात्' इति । एवमन्यत् । -Locana, pp. 472-473 रतौ हि समस्त-देव-तिर्यङ्-नरा दि-जातिष्वविच्छिन्नैव वासनास्त इति न कश्चित्तत्र तादृग्यो न हृदयसंवादमयः, यत्तेरपि हि तच्चमत्कारोऽस्त्येव । -Locana, p. 205. एतदुक्त भवति-उपमया यद्यपि वाच्योऽर्थोऽलङ्क्रियते, तथापि तस्य तदेवालङ्करणं यद् व्यङ्ग्यार्थाभिव्यञ्जनसामर्थ्याधानमिति वस्तुतो ध्वन्यात्मैवालङ्कार्यः। कटक-केयूरादिभिरपि हि शरीरसमवायिभिश्चेतन आत्मैव तत्तच्चित्त वृत्तिविशेषौचित्यसूचनात्मतयालङ्क्रियते । -Locana, p. 197 13. तथाहि--अचेतनं शव-शरीरं कुण्डलाद्युपेतमपि न भाति, अलङ कार्यस्याभावात् । यति-शरीरं कटकादि-युक्तं हास्यावहं भवति, अलङ्कार्यस्यानौचित्यात् । न हि देहस्य किञ्चिदनौचित्यमिति वस्तुत आत्मैवालकार्यः, अहमलकृत इत्यभिमानात् । -Locana, pp. 197-198 14. काव्य-विषये च व्यङ्ग्यप्रतीतीनां सत्यासत्यनिरूपणस्याप्रयोजकत्वमेवेति तत्र प्रमाणान्तरव्यापार परीक्षोपहासायैव संपद्यते । -Dhvanyaloka, p. 455 अप्रयोजकत्वमिति । न हि तेषां वाक्यानामग्निष्टोमादिवाक्यवत् सत्यार्थप्रतिपादनद्वारेण प्रवर्तकत्वाय प्रामाण्यमन्विष्यते, प्रीतिमात्रपर्यवसायित्वात् । प्रीतेरेव चालौकिकचमत्काररूपाया व्युत्पत्त्यङ्गत्वात् । एतच्चोक्तं वितत्य प्राक् । उपहासाय वेति । नायं सहृदयः केवलं शष्कतर्कोपक्रमकर्कशहृदयः प्रतीति परामष्टुं नालमित्येष उपहासः। -Locana, p. 455 11. 12. 15. अगर Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V.M. Kulkarni Masson and Patwardhan quote the last two lines and render them as follows: "(The person who attempts to discover whether a poem is "true" or "false">) will be ridiculed as follows: This is somebody who is insensitive to literature. He is not able to appreciate an aesthetic experience for his heart has become hard by his indulging in dry logic." ---Aesthetic Rapture, Vol. II : Notes Poona, 1970, p. 21, f. n. 143 16. (i) वस्त्वलङ्कारावपि शब्दाभिधेयत्वमध्यासते तावत् । रस-भाव-तदाभास-तत्प्रशमाः पुनर्न कदाचिदभिधीयन्ते, अथ चास्वाद्यमानताप्राणतया भान्ति । -Locana, p. 78 (ii) मुख्या महाकविगिरामलङ्कृतिभृतामपि । प्रतीयमानच्छायैषा, भूषा लज्जव योषिताम् ॥ -Dhvanyaloka, III. 37 मुख्या भूषेति । अलङ्कृतिभृतामपिशब्दादलङ्कारशून्यानामपीत्यर्थः । प्रतीयमानकृता छाया शोभा सा च लज्जा सदशी गोपनासारसौन्दर्य प्राणत्वात् । अलङ्कारधारिणीनामपि नायिकानां लज्जामख्यं भषणम । प्रतीयमानाच्छाया अन्तर्मदनोद्भदजहृदयसौन्दर्यरूपा यथा, लज्जा ह्यंन्तरुद्धिनमान्मथविकारजुगोपयिषारूपा मदनविजृम्भव । वीतरागाणां यतीनां कौपीनापसारणेऽपि त्रपाकलङ्कादर्शनात् । -Locana, p. 475 17. ...'शृङ्गाररसतरङ्गिणी हि लज्जावरुद्धा निर्भरतया तांस्तान् विलासान् नेत्रगात्रविकारपरम्परारूपान् प्रसूत इति गोपनासारसौन्दर्यलज्जाविजम्भितमेतदिति भावः । -Locana, p. 476 18. (i) तल्लक्षणाप्रयोजनं शूर-कृतविद्य-सेवकानां प्राशस्त्यमशब्दवाच्यत्वेन गोप्यमानं सन्नायिकाकुचकलशयुगलमिव महार्घतामुपयद् ध्वन्यत इति । -Locana, p. 138 (ii) शब्दस्पृष्टेऽर्थे का हृद्यता । -Locana, p. 528 .."तेन रस एव वस्तुत आत्मा, वस्त्वलङ्कारध्वनी तु सर्वथा रसं प्रति पर्यवस्येते इति वाच्या दुत्कृष्टौ तावित्यभिप्रायेण 'ध्वनिः काव्यस्यात्मेति सामान्येनोक्तम् । -Locana, p. 85 20. वस्त चारुत्वप्रतीतये स्वशब्दादभिधेयत्वेन यत् प्रतिपादयितु मिष्यते तद् व्यङ्ग्यम् । तच्च न सर्व गुणवृत्तविषयः प्रसिद्धयनुरोधाभ्यामपि गौणानां शब्दानां प्रयोगदर्शनात् । “गङ्गायां घोषः""गुणवृत्तिस्तु वाच्यधर्माश्रयेणैव व्यङ्ग्यमात्राश्रयेण चाभेदोपचाररूपा संभवति, यथा तीक्ष्णत्वादग्निर्माणवकः। -Dhvanyāloka, pp. 426-433 (i) यच्चोक्तम्-'चारुत्वप्रतोतिस्तहि काव्यस्यात्मा स्यात्' इति तदमीकुर्म एव । नाम्नि खल्वयं विवाद इति । -Locana, p. 105 (ii) 'न हि सिंहो बटुः', 'गङ्गायां घोषः' इत्यत्र रम्यता काचित् । -Locana, p. 37 21. [तस्य हि ध्वनेः स्वरूपम् "अतिरमणीयम्] अतिरमणीयमिति भाक्ताद् व्यतिरेक माह । न हि 'सिंहो बटुः', 'गङ्गायां घोषः' इत्यत्र रम्यता काचित् । -Locana, p. 37 2. नन्वेवं 'सिंहो बटुः' इत्यत्रापि काव्यरूपता स्यात् ध्वननलक्षणस्यात्मनोऽत्रापि समनन्तरं वक्ष्यमाणतया भावात् । ननु घटेऽपि जीवव्यवहारः स्यात, आत्मनो बिभुत्वेन तत्रापि भावात् । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Abhinavagupta's Ideas in Locana on the Nature of Beauty of Kavya 79 शरीरस्य खलु विशिष्टाधिष्ठानयुक्तस्य सत्यात्मनि जीवव्यवहारः न यस्य कस्यचिदिति चेत्गुणालङ्कारौचित्य सुन्दर शब्दार्थशरीरस्य सति ध्वननाख्यात्मनि काव्यरूपताव्यवहारः । -Locana, p. 59 (i) ''तत्र कवेस्तावत् कीर्त्यापि प्रीतिरेव संपाद्या । श्रोतॄणां च व्युत्पत्तिप्रीती यद्यपि स्तः" तथापि तत्र प्रीतिरेव प्रधानम् । इति प्राधान्येननानन्द एवोक्तः । चतुर्वर्गव्युत्पत्तेरपि चानन्द एव पार्यन्तिकं मुख्यं फलम् । -Locana, pp.40-41 (ii) प्रीतिरेव व्युत्पत्तेः प्रयोजिका । प्रीत्यात्मा च रसः 23. 24. 25. न चैते प्रीतिव्युत्पत्ती भिन्नरूपे एव द्वयोरप्येकं विषयत्वात् । -Locana, p. 336 कथमचारुत्वं तादृशे विषये सहृदयानां नावभातीति चेत् तथा हि-- महाकवीनामप्युत्तम देवताविषयप्रसिद्ध संभोगशृङ्गारनिबन्धनाद्यनौचित्यं शक्ति तिरस्कृतत्वात् ग्राम्यत्वेन न प्रतिभासते । यथा कुमारसंभवे देवीसंभोगवर्णनम् । तस्मादभिनेयार्थेऽनभिनेयार्थे वा काव्ये यदुत्तमप्रकृते राजादेरुत्तमप्रकृतिभिर्नायिकाभिः सह ग्राम्यसंभोगवर्णनं तत् पित्रोः संभोगवर्णनमिव सुतरामसभ्यम् । तथैवोत्तमदेवतादिविषयम् । ... -Dhvanyaloka. pp. 316-334 Dhvanyāloka-vrtti on IV. 5 pp. 529-534, Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PĀLI, DHANYA AND CĂRUKEŚİ (Three of the earliest mentioned Kțsna's sweethearts) H. C. Bhayani In the later Krsna-bhakti tradition, we increasingly come across the names of gopis like Višākhā, Lalitā, Candrāvali and several more, some of whom were also Kțşņa's favourites besides Rādhā. In the late puranic literature represented by the considerably later sections of the works like the Padma purāņi, and the Gargasaṁhitā, the name-list has been considerably extended the problem is to locate and date the beginning of the tradition of naming Rādhā's companions who occasionally and intermittently shared Kțşña's loving attention, and as such started figuring in the erotic and religious poetry. Abandoning for the moment Višākhā and Candrāvali, who also seem to be among the names to appear early in literature, I present here the information I could gather about three gopis, each of whom figures in poetry as Rādha's rival. The sources are not later (some may be even earlier) than the 9th-10th century A. D. The names of the three gopis were Pāli, Dhanyā and Cārukesi. Different poets have described Kșsņa as enjoying in the company of one of them, in temporary disregard of Rädhā. Pāli, Palika/Pālitā, Pālitaka The earlist milkmaid known from the poetic tradition as Rādhā's rival for Krsna's love is variously called Pāli, Pālikā/Pālitā (Pk. Pāliyā) or Pālitaka. From the references or citations made by four writers we gather that several poetic works in Apabhramsa, Prakrit and Sanskrit, assignable roughly to the period between the eighth and tenth century A. D., contained episodes involving Krşņa, Rādhā and Pali. The sources of this information are discussed below : 1. Govinda's Apabhraíša poem on Krşņa.carita (Not later than the latter half of the 9th century A. D.). Several verses from this lost work are cited by Svayambhū (latter half of the 9th cent.) in his Svayambhūcchandas (SC.). The citation given under SC. IV 11 as an illustration of the Bahurūpā variety of the Apabhramśa metre called Mātrā is as follows: देइ पाली थणहं पब्भारें तोडेप्पिणु णलिणिदलु, हरि-विओअ-सतावें तत्ती । फलु अण्णेहिं पावि(य)उ, करउ दइउ जं किंपि रुच्चइ ।। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pāli, Dhanyā and Cāruke šī 81 Pāli, burning with pain due to separation from Hari, plucks a lotus leaf and places it on the slope of her breasts. The poor fool (?) got her due ! Let the fate (now) do whatever it choses to.' Like Velankar, I also earlier interpreted Pāli. as gopālikā i. e. a gopi in general. But in the light of the occurrences noted below, I now take it to be a personal name. We must note that another verse from the same poem (SC. IV 10.2) describes Rādhā as Hari's most favourite Gopi and several other verses of Govinda (SC. IV 9.1., 9.3, 9.4) depict the mood of a love-lorn girl.1 2. Bhejjala's Rādha-vipralambha (prior to the 11th cent. A. D.). Rāsakāńka was one of the types of uparūpakas described, discussed or referred to by several Sanskrit dramaturgists and other writers. Bhoja and Abhinavagupta knew of an actual instance of Rāsakāňka,namely the Rādhā-vipralambha, composed by Bhejjala. They refer to a few incidents and characters in that dramatic work and also give a few citations from it. Besides Krsna as the hero, Candrāyaṇa as the Vidūşaka and Rādhā as the heroine, the play had one more female character named Pālitakā, who was one of Kțşņa's paramours and Rādhā's rival. Kțşņa is depicted as once favouring Palitakā on a moon-lit night, which makes the pining Rādhā go out in search of Kșşņa.3 Abhinavagupta, too, mentions Pālitakā. Jayavallabha's anthology of Prakrit subhāşitas has sixteen verses in its section on Kșsņa (vv. 590-605), which are partinent to our purpose, because there are several references to 'Kșşņa's other sweethearts besides Rādhā, The very first verse in that section is as follows: "A TTE:" "Efent fa mp" "mat af !" "f TET!" इय बालियाइ भणिए विलक्खहसिरं हरि नमह. (Vajjallaga 590). Patwardhan thus translates it : "Oh Rādhā, is it all right, with you? 'O Kamsa, are you happy? Where is Kamsa ?' •Where is Rādhā (either) ? When the young damsel had said thus, Hari (Krsna) smiled with embarrassment. Pay your homage to him!' The text reads afate (Sk. allfil) in the second line of the verse, and Ratnesvara's Sanskrit commentary explains the word as कयाचन and काचन गोपबालिका. I think, however, the afoute was not the original, genuine reading. Through scribal error or misunderstanding the original पालियाइ was changed to बालियाइ. In that case this becomes a dialogue between Kșşņa and his particular paramour named Pālikā, and not between Kșşņa and some unspecified Gopi. This view finds support from the Sanskrit version or translation of the above Gāthä сited in Bhoja's Sarasvatikanthābharaṇa (SK.), discussed hereunder. 11 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 4. H. C. Bhayani While treating the figure of sound called Väkovākya, Bhoja has cited in SK. the following verse as an illustration of Naimittiki Vaiyätyokti, which is one of the several sub-varieties of the Väkoväkya: कुशलं राधे ? सुखितो सि कंस ? कंसः क्व नु ? क्व नु सा राधा ? । इति पारी प्रतिवचनैविलक्ष- हासौ हरिजंयति ॥ (Under सरस्वतीकण्ठाभरण, 2, 132) All the editions of SK. read qr in the second line. But qr 'milking pot' cannot fit here. Obviously it is a corruption of qr. Accordingly the area in the afg above-cited Vajjälagga verse is to be emended as fe. In this context it is also significant that the verse राधामोहन मन्दिरादुपगतश्चन्द्रावलीafaa etc. which is found in some of the Northern mss. of Bilvamangala's Kṛṣṇakarṇāmṛta and which is just an elaboration of the Vajjalagga verse, has Candravali (instead of Pali), and not a certain (nameless) gopi as one of the inter locutors. 5. An anonymous verse cited by Bhoja in the Srigaraprakasa (first half of the 11th cent. A. D.) As an illustration of the type of Nayaka who is Dhiralalita, Sädhäraṇa, Satha and Uttama, Bhoja has cited in the Sṛngaraprakasa the following verse: निर्मग्नेन मयाऽम्भसि स्मस्मरात् पाली समालिङ्गिता केनालीकमिदं तवाधकथितं राधे मुधा ताम्यसि । इत्युत्स्वप्न-परम्परासु शयने श्रुत्वा गिरं शाङ्गिणः सव्याजं शिथिलीकृतः कमलया कण्ठग्रहः पातु वः ॥ (ŚP., p. 600) "Who give you today the false report that while diving in water, I fired by passion, gave an embrace to Pāli? Rädhä, you are unnecessarily distressed" :Hearing in the bed these words uttered by Sarngin in sleep, Kamala meaningfully loosened her clasp on his neck. May that protect you'. In this instance too the rivalry between Rädhä and Pali is clearly explicit. Dhanya, Dhanikā 1. In three of the four verses in the Kanha-vajjā (Kṛṣṇa-paryaya) of the Vajjalagga which relate to Kṛṣṇa's sweetheart called Visakha, the word visāhiyā, a diminutive form of visäha (Sk. Visakha) is used with double intenfre. One of these verses is as follows: किसिओ सि कोस केसव ? किन कओ पन्न संगहो मूत ? | कतो मण-परिओसो विसाहियं भुजमाणस्स ? ॥ (Vajjalagga, 600) Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pāli, Dhanya and Cărukesi 83 'Oh Keśava, why have you become emaciated ? O fool, why did you not store food-grains? How can one get mental satisfaction, feeding himself (just) on whatever he obtains ? (or, on what is highly poisonous ?)'. Alternatively, 'O fool, why did you not stick to Dhanyā ? Is it ever possible for one enjoying himself in the company of Visakhā to get real satisfaction ?' Pk. dhanna (Sk. dhanyā) is understood by Patwardhan as beautiful women'. But like Višākha, Dhanyā here is the personal name of a particular gopi who once enjoyed Krsna's favour. This interpretation finds support from two verses cited in the Srågāraprakāśa. 2. The following verse is cited twice in the śrngāraprakāśa. Once it is cited as an illustration of Samākhyābhidhaniki Vyapekṣā wherein the signification of a designation is brought out by means of a sentence. At another place it is cited as an illustration of a designation that is construed meaningfully to convey the relationship of love : सच्चं धण्णा धण्णा, जा तइया केसवेण गिरि-धरणे । गुरु-भार-वावडेण वि, उज्जुअ-अच्छं चिरं दिट्ठा ॥ Sủngāraprakāśa, pp. 269, 888 'Dhanyā is indeed dhanyā (blessed), who was looked at directly and lingeringly by Keśava, even when he was weighed down with a heavy load due to holding the mountain (i. e. Govardhana) aloft'. 3. The following verse is cited by Bhoja as an illustration of the type of Nayaka who is Dhiralalita, Sādhāraṇa and Madhyama. दूरे गोकुलनाथ गोकुलमितस्संचार-शून्या दिशस्त्यक्त्वा मां धनिकादयो पि हि गता भारातिखेदालसाः । विस्तीर्णा वनराजिकेयमपरा जाता पुरो निर्गमात । खिन्नाऽस्मि प्रतिपालयेत्यभिहितो गोप्या हरिः पातु वः ॥ (ŠP., p. 611) "Oh Lord of Gokula, Gokula is far away from here. Dhanikā and other (companions), feeling exhausted and languid under their load have gone away already, leaving me alone. This vast woodland has become strange to me (as it were), before I can get out of it (?) and I am (extremely) tired. Please protect me. May Hari, addressed thus by the Gopi, protect you'. Here Dhanikā is the name of one of the gopis. It is quite close to Dhaņņā (Sk. Dhanya) of the Vajjālagga verse. Cīrukesi As an illustration of the Dhiroddhatāsādhāraņa-dhộsta type of hero, Bhoja has cited in ŚP. the following verse. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H. C. Bhayani "शौरे कस्माद् विधत्सै दशनपदमिदं चारुकेश्याहितं ते" चारुत्वं कीदृगस्य श्रित-पशु-वपुषा केशिना निर्मितस्य ?" । "**rece nalfa aparazzi" "araha aa -” त्थेवं गोप्याऽवताद् वः क्ष(कं ?)पट-धरण-प्रीणितः कैटभारिः ॥ (ŚP. p. 602) 'o Sauri, why do you display this tooth-mark impressed on you (i.e. on your lip) by Cārukeši (Cārukesi-āhitam)' ? How can it be beautiful (cāru), produced as it is by Kesin (kesi), who had assumed the bodily form of a beast ?” 'You brazenly unfaithful! I don't mean that. I am talking of the milkmaid (vraja.yuvatim)'. *Very well, here I am wooing (vrajāmi) a young girl. May the enemy of Kaitabha, thus resorting to chicanery, and delighted by the milkmaid (?) protect you'. The Gopi of this dialogue is possibly Rādhā, who creates a scene with Kțşņa, who has just returned after spending a night with Cārukesi. Kțsņa tries to save himself by resorting to Sleșa on the words Cārukeśyāhitam and vrajayuvatim used by Rādhā. We can campare with this the Kršņakarņāmstaa verse (rādhā-mohanmandirād etc.) referred to above. A closely similar repestee between Krsna and one of his sweethearts is instanced by the verse vāsaḥ samprati keśava kvabhavato etc. cited on p. 607 cf ŚP.). References Bhoja : Sarasvatikaạthābharana, ed. K. Mishra, 1976. Śrngāraprakāśa, ed. G. R. Josyer, 1955. Bilvamangala : Krsnakarņāmsta, ed. F. Wilson, 1975. Jayavallabha: Vajjālagga, ed. M. V. PatTardhan, 1969. V. Raghavan : Bhoja's Srngaraprkasa, 1963. Svayambhū : Svayambhūcchanda), ed. by H. D. Velankar, 1962. 1. Footnotes I have slightly emended Velankar's text orthographically, and my translation differs from his in several points. See V. Raghavan, Bhojas Songāraprakāśa, (1963), pp. 567, 887-891, where the references and citations are noted and their implications are fully brought out. G. R. Josyer's edition of the Srngāraprakasa silently omits the Prakrit passage given by Raghavan. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pali, Dhanya and Carukesi 85 3. An anonymous verse given in Jayavallabha's Vajjālagga (possibly about the 10th cent. A. D.). 3. Raghavan, ibid., p.890 : gartranfq qaragat fanfarT TIET, 1 q1f6771 Tai (= Sțngāraprakāśa, text, p. 491, 11. 4-5). 4. These are the earliest known verses referring to Višākhā, who is known in the Krşņa-carita tradition as one of the gopis, which are mentioned as Krsna's favourites and Rādhās friends and rivals. The Pātāla-khanda of the Padma-purāna (ch. 70, vv. 4-7) gives the following list (which includes Dhanyā) of the light main beloveds of Kršņa : Rādhikā, Lalitā, Syāmalā, Dhanyā, Haripriyā Višākhā, Podmā and Candrāvati Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FRESH READING AND INTERPRETATION OF PANCASARA PĀRSVANATHA TEMPLE INSCRIPTION Arvind Kumar Singh The famous inscription on the pedestal of the marble effigy of the tradesman Āsāka (Āśāka) placed in the Vanarāja-vihar of Anahillapattana had been earlier published by late Muni Jinavijaya." The pedestal is staggered into five sections, the inscription-part is engraved on the central three of the total five) divisions in which the middle larger portion contains six lines and the two flanking parts four lines each (see plate). On comparing Muni Jinavijaya's reading with the photograph of the inscription recently made by the American Institute of Indian Studies (see plate), some salient divergencies at once came to my notice : First, the revered Muniji had left out the right hand section (on spectator's right hand) in reading, which is why there are the gaps in the published text; second, the reading of a few words is inaccurate from the orthographical standpoint. I first present Muniji's reading below followed by my own complete reading with emendations. 1. संवत् १३०१ वर्षे वैशाखसुदि ९ शुक्र पूर्वमांडलिवास्तव्य-मोडज्ञातीय-नागेंद्र ... ... ... ... 2. सुत-श्रे० जाल्लणपुत्रेण श्रे० राजुकुक्षीसमुद्भतेन ठ० आशाकेन संसारसारः .... ... .... .... .... 3. योपार्जितवित्तेन अस्मिन् महाराजश्रीवनराजविहारे निजकोतिवल्लीवितान.... .... .... .... 4. कारितः तथा च श्री आशाकस्य मूर्तिरियं सुत ठ० अरिसिंहेन कारिता प्रतिष्ठिता.... .... .... .." 5. संबंधे गच्छे पंचासराविषे श्रीशीलग(गु)णसूरिसंताने शिष्य श्री... ... ... ... .... .... ..... 6. देवचंद्रसुरिभिः ॥ मंगलमहाश्रीः ॥ शुभं भवतु ॥ 1. संवत् १३०१ वर्षे वैशाखशुदि ९ शुक्रे पूर्व मांडलि वास्तव्य मोढज्ञातीय नागेंद्रात्मज श्रे० केसव 2. सुत श्रे० जाल्हण पुत्रेण श्रे० राज्ज कुक्षि समुद्भुतेन ठ० आसाकेन संसारसारतां गत्वा निजत्या3. योपार्जित वित्तन अस्मिन् महाराजश्रीवनराजविहारे निजकीत्तिवल्ली विलासमडपः सा (क्ष) प्तः 4. कारितः । तथा ठ० आसाकस्य मूर्तिरियं सुत ठ० अरिसिंहेन कारितां प्रतिष्ठिताः श्रीनागेंद्र कुल । 5. संबंधे गच्छे पंचासरावि (धे? ?) । श्रीशोलगणसरि संताने शिष्य श्री 6. देवचंद्रसूरिभिः ।। मंगलं महाश्रीः ।। शुभं भवत् ॥ It is clear that the inscription used dental 'sa' in the place of palatal 'sa' in Āsāka. (Jinavijayaji, however, reads the letter as palatal following perhaps the Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Fresh Reading and Interpretation of Pancāsara Pārsvanātha Temple 87 rule of the correct orthography.) On the other hand, Gudi' has been spelt “sudi' in his version. Below I jot down the differences in the two readings :Line Muniji's reading My reading sudi sudi Jällana Jālhaņa Rāju Kukşi Rājja Kukşi Āśākena Āsākena vitāna vilā sa ca tha śri Āsāka-sya Āsāka-sya kāritā kāritām pratișthitā pratisthitāḥ santāne samtāne Devacandra Devacamdra mamgala mamgalam bhavatu bhavat The late Muniji gave no summary of the content nor did he indulge in any discussion thereof. The inscription is dated in the samvat year 1301 (A.D. 1244) and takes into account five generations of a Jaina family belonging to the Modha caste of tradesmen : Nāgeṁdra Sresthi Kesava (Keśava) Śreşthi Jālhaņa =Śreșthini Rājja Thakkura Ăsāka (Ašāka) Thakkura Arisimha It also refers to the erection by Āsāka at the famous Vanarāja-vihāraa vilāsamandapa (hall). The image of Āsāka was set up by Thakkura Arisimha, son of Āsāka. The consecration was officiated by Devacaņdra Sūri of the lineage of Śri Šilagana Sūri of the Pañcāsara-gaccha, an offshoot of the ancient Nāgemdra kula.4 Thakkura Arisimha may be identified with the Thakkura Arisimha who had composed the famous eulogical work the Sukstasaṁkirtana 5 in praise of Vastupāla who held the prime minister's office from A. D. 1220-1239 at the court of the Vāghelā regent Viradhavala of Dhoļakā. Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 Arvind Kumar Singh The inscription for the first time tells that there existed a gaccha named after Pañcāsara, and it was an emanation of the famous Nāgemdra kula. It is likely that, even the first foundation of the Pancāsara Pārsvanātha belonged to the abbot of the Nāgemdra kula, the temple built by Vanarāja Căpotkața (c. A. D. 818-900). Notes and References 1. Prācina Jaina Lekha Samgraha, pt. 2, pravarttak Sri Kāmtivijaya Jaina Itihāsamālā, Vol. VI, Bhavanagara, 1921, p. 321. 2. The temple was dedicated to Jana Pārsvanātha and founded by Vanarāja Cāpotkata in the last two decades of the 9th cent. A. D. Image is said to have been more ancient and was brought to Aņhillapattana from Pancāsara, the ancestral town of Vanarāja. According to Prof. M. A. Dhaky, the vilāsamandapa is identical with the rangamandapa, aha hall common in the medieval Jaina temple ensembles. There are several instances of adding such halls in the medieval times to the earlier foundations. For detail see here Prof. M. A. Dhaky's paper “The Nāgendra-gaccha". 5. Punyavijaya Sūri (ed.), Singhi Jaina Series, Number 32, Bombay, 1961, pp. 62-64. 3. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PL 1. Pätan, Pañcâsarā Pārsvanātha temple Commemorative image of thakkura ĀśākaS.1301/A. D. 1245 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ERSofसाहालवामानामावाड (पास Mariam4वारकासवडासनतासामान सरारामार दिनानारामतमा (ianRDEReशमनमानाNEPAPाना ANTERNसविताना दिवनिमसरबजाANA PI. 2.ASaka's image Inscription, S. 1301/A. D. 1245 ( Both the plates are reproduced here by courtasy and kindness of the American Institute of Indian Studies, Varanasi ) Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA SCULPTURES IN BHARAT KALA BHAVAN Kamal Giri The sculpture gallary of the Bharat Kala Bhavan, Banaras Hindu University (Varanasi), possesses some Jaina sculptures in stone and metal. The present paper focuses on the Jaina sculptures in stone. These figures cover a long span of time and they mainly hail from sites in Uttar Pradesh and Madhya Pradesh. Among them are a few Kuşāņa Jina heads;2 but the figures of the Jinas and Yakşīs from Gupta to the medieval times make the rest of the bulk. Of the 27 Jina images, four represent Jina caumukhi (Pratimā-sarvatobhadrikā) and the remaining single Jina figures. Of the traditional 24, at least eight Jinas are represented in the collection : they are Rşabha (1st), Ajita (2nd), S Supārśva (7th), Candraprabha (8th), śānti (16th), Ariştanemi (22nd), Pārśva (23rd) and Vardhamana Mahāvira (24th). There are 11 separate figures of Jina Rşabha in the collection; Rşabha being the premier Jina, was held in the highest veneration in all the sects of the Jainas. Rşabha's earliest image (Acc. No. 23275 : 71 x 54 cms.) (not illustrated) is dateable to c. eighth-ninth century A. D. and is fashioned in black stone. It hails from South India. Rşabhanātha seated cross-legged is not accompanied by any of the prātihāryas (splendour phenomena). The body of the Jina is slim and in fine proportions. Four other Rşabha figures are dateable to c. 10th-11th century A. D. The provenance of these figures, excepting for the one, is unknown; but the images appear to have come somewhere form U. P. or M. P. on the basis of iconographical features and style. One of these figures, beautifully modelled (Acc. No. 274 : 9 x 18 cms) and carved in buff sandstone, is sky-clad; it stands on a carpet in kāyotsarga-mudrā. The figure above the waist is badly mutilated. The central mūlanāyaka figure is flanked by two male fly-whisk bearers. Bull-cognizance is carved on the pedestal. On the left of the bull, is a figure of four-armed Cakreśvari in lalitasana; she holds discs in two upper hands wbile the lower hands show the abhaya-mudra and some indistinct object. To the right of Cakreśvari aypears a kneeling figure of ārādhaka or worshipper with hands in namaskāra-mudrā. The Gomukha Yakşa, however, is here depicted as playing a truant. (Not illustrated) One other figure of Rşabha in buff sandstone (Acc. No. 176: 53 x 46 cms.) (not illustrated) was procured from Rājaghāț, Vārānasi. Here the Jina is seated in dhyāna-mudrā on a cushion placed over a carpet bearing the figure of bull cognizance. The carpet is spread over the throne supported by two lions with intervening 12 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 Kamal Giri dharmacakra. The hair-do of the Jina is after jață with uşnīşa, the lateral strands hanging over the shoulders. The mūlanāyaka is accompanied by five prātihāryas, namely cāmaradharas, trichatra, aśoka-tree, a prostrate figure beating a drum, and flying mālādharas. Two elephants with riders holding a ghața (Hiranyendras) are also shown in the parikara. The figures of four-armed Gomukha and Cakreśvari are also carved. The pot-bellied Gomukha holds abhaya, a flower, and a mongoose skin-purse.4 Cakreśvari rides the garuda in human form and bears abhaya-mudrā, a mace, and a conch in the three surviving hands. Gomukha and Cakreśvari are accompanied by two adorers with folded hands. On each side of the mūlanāyaka there appear eight diminutive figures of the Jinas, both seated and standing. The nudity of the standing Jina figures suggests the Digambara affiliation for the image. The next two figures (not illustrated) are badly mutilated. On in buff sandstone (Acc. No. 179: 37 x 31 cms.) with its head almost gone, represents Jina Rsabha standing sky-clad on a pedestal with four other standing Jinas, two standing near the feet and two flanking the shoulders, the panca-Jina group forming a very handsome composition (Plate 1). Stylistically, the sculpture cannot be later than the ninth century A. D. It may have hailed from Uttar Pradesh or Madhya Pradesh. The principal figure shows hanging hairlooks over the shoulders, an invariate feature of Jina Rsabha. The Jina is flanked by two figures of standing Jinas and two male camara-bearers on two sides. The triple umbrella is mutilated, but the halo decorated with lotus petals (padmaprabhā), hovering mālādharas, two lions, supporting the simhāsana, and the srivatsa on the chest are extant. The second figure (Acc. No. 307 : 25 x 40 cms.) has only the head and the upper part of the parikara surviving. The next figure—this again is in buff sandstone-shows Rşabha with beautiful, small, oval face revealing a benign smile. The mūlanāyaka with jațājūța is joined by nine small Jinas, two flying garland bearers and two Hiranyendras. The triple parasol topped by a prostrate figure of drum-beater 'and drooping leaves are also extant. The remaining five figures of Rşabha belong to the c. 12th century A. D.; three of these are unaccessioned. They are fashioned in buff sandstone and seemingly hail somewhere from U. P. and M. P. The first figure, unaccessioned (67 x 29 cms.), depicts him seated in the dhyāna-mudrā. The iconographic details are similar to the above-noted figure (Acc. No. 176). The mūlanayaka, with bull cognizance, jațā and lateral strands, is accompanied by six Jina figures, three on each side. Rşabhanātha is joined by traditional Yakşa-Yaksi pairs. The two-armed Gomukha, on the right, sits in lalita pose; he bears water-vessel in his surviving left hand. The four-armed Cakreśvari on the corresponding left, rides over a garuda and shows the abhaya, mace (or disc) and an indistinct object in her three surviving hands. (Not illustrated). Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Sculptures in Bharat Kala Bhavan 91 Another but smaller image (Acc. No. 484 : 32 x 34 cms.) shows Ķşabha as seated on a lotus seat. The image's head and the upper section of the parikara are broken; but the hanging hair-locks are still discernible on the shoulders. The Jina is flanked by two standing male fly-whisk bearers, surmounted by two small seated Jina figures. On the pedestal, to the right of the dharmacakra, appears bull cognizance with a kneeling worshipper with folded hands. (Not illustrated). The third figure (Acc. No. 22073 : 78 x 47 cms.), seated cross-legged on a cushion with bull cognizance hails from Khajurāho (Plate 2). Rşabhanātha sitting on a simhāsana and with two fly-whisk bearing attendants, two female attendants, the trichatra topped by a drum beater; drooping (caitya-vrksa) leaves, was originally accompanied by 23 small Jina figures, a few of which have now disappeared. The fourth figure (Plate 3) shows sky-clad Rşabha (Acc. No. 24050, 65 x 35 cms.) as standing in kāyotsarga on a triratha pedestal. The Jina, marked on the chest with śrīvatsa, is here not provided with the usual trichatra and the drum-beater. The hair do shows curls with an uşnişa and hanging hair-locks. The rather short body of the Jina is accompanied by the customary male camaradharas. Besides, there also appear four small standing Jina figures above the camaradharas. The two other unaccessioned figures fashioned in buff sandstone, dateable to c. 13th century probably come from some sites in Central India. The first of the two (39 x 21 cms.) shows Rşabha seated cross-legged on a bhadrâsana, the dharmacakra is flanked by two standing bull figures, hair combed back with locks hanging on the shoulders, the head shows a central protuberance. Of the aşta-mahāprātihāryas, only the hovering malādharas are carved in the present instance. The second Rşabha again without aşta-prātiharyas, shows sky-clad (75 x 28 cms.), it stands in kāyotsarga on a simple pedestal with two camaradharas. (Not illustrated). Ajitanatha The small eroded stele (Acc. No. 24047, 40 x 28 cms.) shows Jina Ajitanātha seated in dhyāna-mudrā on a simhāsana (Plate 4). Below the seat two elephant figures are carved as cognizance on the two sides of the dharmacakra which is reminiscent of an earlier tradition of representing the cognizance in practice at Rājgir, Vārānasi, and Mathurā during the Gupta period. The stele also contains the figures of two-armed standing aștagrahas with their right hand in abhaya while the left one bears some indistinct object. Sürya bears lotuses in two hands and Rāhu, as usual is ürdhvakāya. The Yaksa-Yaksi figures are absent. The figure cannot be later than the earlier part of the sixth century A. D. In view of its early date it may have pertained to the Svetämbara sect. Supārsvanātha A mutilated head of Jina Supārsvanātha canopied by five hooded cobra (back basalt, Acc. No. 176 : 39 x 34 cms.) is dateable to c. 10th century A. D. The pro Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 Kamal Giri venance is Rājghāt, Várāṇasi. The drum-beaters and two elephants with riders holding vases are extant. (Not illustrated). Candraprabha There is, in the collection, a solitary figure of Jina Candraprabha (Acc. No. 23961 : 52 x 31 cms.). The figure in basalt is dateable to c. 11th-12th century A.D. and probably comes from Bihar. The Jina is seated on a cushion with crescent, his cognizance, carved below the seat. The cushion is placed below the simhasana supported by two lions. The Jina flanked by two usual male câmaradharas holding fly-whisk in the inner hand and a flower in the outer one, is provided with trichatra, drooping leaves and gliding malādharas. (Not illustrated). Santinātha A small image of Jina Šāntinātha, carved in black stone (Acc. No. 23271), is in the museum, assignable to c. ninth century A. D. The Jina standing sky-clad in the kāyotsarga, the deer cognizance carved in the centre of the simhāsana, is accompanied by two camaradharas. He is also provided with trichatra, flying mālādharas and a halo. The four small seated graha figures are also carved in the parikara. Aristanemi A beautiful figure of Ariştanemi (or Neminātha) (wrongly labelled Mahāvira) in the Museum, (Acc. No. 212 : 44 x 37 cms.) is in sandstone and deteable to c. seventh century A. D. It hails from Rājghāt, Vārāṇasī. Although the cognizance is not carved, the rendering of Sarvānubhūti and Ambikā may be taken to indicate Neminātha 6 The Jina is seated on a lotus seat below which is carved a tree, possibly a palm tree, with a human figure on it. On the left of the tree is two-armed Ambikā with a child in left hand and a lotus in the right. The two-armed Yakşa holds a pot, probably representing nidhi, in left hand and a lotus in the right. Pārsvanātha The Museum possesses four detached heads and one full figure of Jina Pārsvanātha. Of the four heads two are from Mathurā and dateable the Kuşāņa period (Acc. Nos. 356 : 15 x 15 cms.; 20748 : 31 x 47 cms.) and must, therefore, belong to the Svetāmbara sect; while the third one (Acc. No. 23759) is from Central India and dateable to c. 11th century A. D. Pārsvanātha, in all these cases, is provided with seven-hooded snake canopy overhead. However, in one instance, trichatra with drooping leaves, drum-beater, hovering mālādharas, and four small Jina figures are also carved. The fourth figure (Acc. No. 23991 : 128 x 43 cms.) in grey sandstone is ascribed to c. 10th-11th century A. D. Pārsvanátha, standing as sky-clad on a simple pedestal with a seven-hooded snake canopy overhead, is accompanied by usual male attendants (Plate 5). The trichatra, drum-beater, droop Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Sculptures in Bharat Kala Bhavan 93 ing leaves and two couples of flying mālādharas are also carved. Above the shoulder of Pārsvanātha, there appears, on each side, Jina standing as sky-clad. The slim and elongated body of the mülonāyaka is well proportioned. Mahāvira A solitary figure of Mahāvira, provenence Varanasi, in the Museum (Acc. No, 161 : 126 x 66 cms.) is assignable to the Gupta period and its importance lies in its being the second earliest Jina image showing the cognizance. The Jina accompanied by two fly-whisk bearers is provided with a nimbus and hovering celestial beings. Flanking the dharmacakra are carved two lions, the cognizance of Mahāvira. Further, at the two extremities of the pedestal, are carved two seated Jina figures in place of the usual lions, suuggesting simhasana. (Not illustrated.) Unidentified Jina figures There are three Jina figures in the Museum which remain unidentified for the want of the cognizances. The first (Acc. No. K 48 : 50 x 40 cms.), assignable to c. ninth century A. D., represents a sky-clad Jina in the kāyotsarga-mudrā without the usual cortege of symbols. The second figure (Acc. No. 94 : 53 x 42 cms.), assignable to c. 10th century A. D., is a seated Jina figure. The third figure (Acc. No. 298 : 35 x 28 cms.), dateable to c. 13th century A. D., represents a Jina seated in dhyāna-mudra with the usual accompaniment of the aştamahāprātiharyas and the dharmacakra. The figures of the Yakşa-Yakşi pair are conspicuous by their absence. However, rendering of two-armed goddesses, eight in number, in lalitāsana merit attention since they probably represent aştamātņkās, whose association with Jaina images is otherwise unknown (Plate 6). Although the attributes held by these goddesses are not distinctively identifiable, in some cases they show the abhaya and a fruit. Jina Caumukhi or Pratimā Sarvatobhadrikā The Museum has four examples of Jina caumukhi dateable between c. seventh and 11th century A. D., all fashioned in buff sandstone and showing sky-clad Jinas in the kāyotsarga-mudra standing as they all do on simple pedestals. In earliest example belonging to c. seventh-eight century A. D. (Acc. No. 77 : 138 x 58 cms.) exhibit the figures of four Jinas without any identifying mark (Plate 7).' Close to the feet of principal Jina on each side, the figures of two other Jinas, seated in dhyānā-mudrā, are carved. Thus the present caumukhi contains, in aggregate, the figures of 12 Jinas. The second caumukhi (Acc. No. 85: 87 x 33 cms.) of about eighth-ninth century A. D. contains the figures of four different Jinas, bearing bull, elephant, deer (?) and lion cognizances and hence identifiable with Ķşabhanātha Ajitanātha, śāntinātha (?) and Mahāvira. The heads of the three Jinas, however, are damaged. Rşabhanātha is provided with long jasa hanging up to the knees (Plate 8). The elephant cognizance of Ajitanātha is carved in pair, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 Kamal Giri flanking the dharmacakra (Plate 9). The third figure (Acc. No. 24048 : 84 x 20 cms.), is dateable to c. 10th century A. D. Of the four, only Rşabhanātha and Pārsvanātha may be identified on the testimony of hanging hair-locks and sevenhooded snake canopy (Plates 10-11). All the Jinas with śrīvatsa are shown with haloes, drooping leaves, trichatra and a drum-beater. The fourth figure (Acc. No. 691 : 32 x 18 cms.) attributable to c. 11th century A. D., likewise show identifying marks of only two of the four Jinas-Rşabhanātha and Pārsvanātha. The Jina figures are accompanied by the usual maladharas, gliding in air, and prabhā. mandala. Cakreśvari This is a solitary instance of its kind (Acc. No. 24049 : 69 x 38 cms.) in the Museum (Plate 12). The figure is of Cakreśvari, the Yakși of Rşabhanātha. The figure, by virtue of its style, seems to have been carved probably in the Cedi country in M. P. and is dateable to c. 10th century A. D. The eight-armed Cakreśvari here rides a garuda in human form and holds the varada, vyākhyāna-cumrosary, disc, and conch in her surviving hands. She has a halo. Her garland bearing female attendants wear tall kiritamukuța with a small Jina figure at the crown-front. The body of the goddess is slim, balanced and proportionate and the face is oval. Architectural Fragments The Museum has four architectural fragments which mainly contain the figures of the Jinas. The first piece (Acc. No. 50: 75 x 20 cms.) of c. 10th-11th century A. D. is a detached part of a pilaster exhibiting eight Jina figures. Of the eight one is standing as sky-clad while the others are sitting. The remaining three pieces in buff sandstone is assignable to c. 11th-12th century A. D. The second piece is a fragmentary portion of an śikharika (Acc. No. 86) which shows a standing Jina on one side, while the other side shows the branches of a mango tree topped by three small figure which is suggestive of the representation of the Yakşi Ambikā, now lost. Of the three small figures, the central one is of a seated Jina flanked by two maladharas. Third piece (Acc. No. 401 : 34 x 55 cms.), a fragment of door-lintel, shows three seated Jina figures, each flanked by two male atteadants. (Not illustrated.) The fourth piece (Acc. No. 264) is of special importance since it shows Jina figures on two sides and the figures of Ambikā Yakși and a Jaina couple on the remaining two sides (Plates 13-14). The piece forms the lower portion of a pillar. On one side there stands a sky-clad Jina with snake coils running all along his body which helps us to identify the figure with Pārsvanātha, although the snake canopy over head is damaged now. Pārsvanātha is joined by two usual camaradharas. On other side, there appears a scated Jina figure although badly mutilated, Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J. Pañca-Jina standing, c. 9th cent. A. D. 2. Rşabha caturvimsatipatta, Khajurāho, c. 12th cent. A. D. vase For Private & handsfly Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. Ajitanatha seated, c. early 6th cent. A. D. 3. Standing Jina Rṣabha in Рañca-Jina group, c. 10th cent. A. D. For Private & P Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. Pārsvanātha standing, c. 10th-11th cent. A. D. 6. Jina seated. c. 13th cent A. D. For Frivate & Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. Pratimā sarvatobhadrikā, c. 7th-8th cent. A. D. 8. Pratimā sarvatobhadrikā, Rsabha standing. C. 8th-9th cent. A. D. www.ainallbranione Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. Pratima-sarvatobhadrika Jina Rṣabha standing. C. 10th Cent. A. D. 9. Pratima-sarvatobhadrikā, Ajitanatha standing. C. 8th-9th For Private & Personal Use O www.jain Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. Pratimā-sarvatobhadrikā, Jina Pārsvanātha standing. C. 10th cent.A.D. 2. Yakşi Cakreśvari, Cedi style. C. 10th cent. A.D. For Private & Rered Us only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ 14. Jaina couple in a narrative, pillar-kumbhika. C. 9th cent. A.D 13. Yakşi Ambika on pillar-kumbhika. C. 9th cent. A. D. E Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Sculptures in Bharat Kala Bhavan but identifiable with Ṛṣabhanatha on the strength of a bull carved over the head of the Jina. The niche on third side is occupied by two-armed Ambika, the Yakṣi of Neminatha. The Ambika in concurrence with Digambara tradition possesses. two hands and rides a lion and holds a bunch of mangoes in her right hand while with the left she supports a child seated in the lap. Another figure, on the right and close by Ambika is perhaps the second son of Ambika. The branches of mango tree are also spread over the head of Ambika. The only remaining side shows in the centre two seated figures accompanied by several other figures all around. The upper portion, however, is damaged and the remaining figures are also much. defaced. The central figure probably represents the parent of some Jina. Four tall figures standing nearby, probably represent some deities who are present here for celebrating an auspicious occasion (kalyaṇaka) related with the life of a Jina. Of the four, one figure with a child in her left lap is a female and represents some. goddess. One of these remaining male figures, standing on an elephant is probably Indra who used to visit the earth on the occasion of the janma-abhişeka of every Jina. Above these figures were carved celestial figures with their one hand in abhaya-mudra, suggesting thus their divine status. The central scene may be related with the representation of the anointation of some Jina after birth whose. figure is shown probably in the lap of the goddess, standing to the left of the parent of the Jina. Notes and References 1. 3. 2. A few Kuṣaṇa heads with seven-hooded snake canopy may be identified with Pärivanatha. 4. 6. Of the Jaina sculptures in the Museum, only a few has been published, first by U. P. Shah, "A Few Jaina Images in the Bharat Kala Bhavan, Varanasi", Chhavi Golden Jubilee Volume (Ed. Anand Krishna), Varanasi, 1971; and next by M. N. P. Tiwari, Jaina Pratima Vijnana, Varanasi 1981, pp. 51, 52, 96, 109. 7. 95 However, Ajita is here represented only in the Jaina caumukhi (Acc. No. 85). 5. Tiwari, "A Note on the Identification of a Tirthankara Images at Bharat Kala Bhavan, Varanasi", Jaina Journal, Vol. VI, No. 1, July 1971, pp. 41-43. The attributes here and elsewhere are reckoned clockwise starting from the lower right hand. Shah, p. 234; Tiwari, "An Unpublished Jaina Image in the Bharat Kala Bhavan, Varanasi", Visvesvaranand Indological Journal, Vol. VI, No. 3, Jan. 1972, pp. 122-23. Tiwari, Jaina Pratima., p. 150. Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE VIMALA PERIOD SCULPTURES IN VIMALA-V ASAHI M. A. Dhaky The Vimala-vasahi and its ornate marble interior are sufficiently famous to warrant omission of a eulogistic preamble. The vasati's history, chronology, and achitectural description I have dealt with at length in earlier publications, though up to a relevant point a succinct recapitulation with a few minor modifications to my earlier conclusions I will include in the present discussion. In c. A. D. 1030 or perhaps a few years before that date, Jaina Vimala of the Prāgavāța caste of the vaisyas of Bhillamāla' had been appointed dandanāyaka, political and military agent-resident at Candrāvati (capital of the Paramāras of Arbudamandala or Ābū) by king Bhimadeva I of the Solankis or Caulukyas of Anhillapāțaka. Vimala eventually founded the temple for Jina Rşabha at the village Deülavādāgrāma' sited on a low eminence on the plateau Mt. Ābū. As the later prabandhas narrate, he had difficulty in getting land for his temple from the Sivaite owners whom he apparently had to pay high price in bargains. The cult image of this temple was consecrated by Vardhamāna sūri of Candragacchae in V. S. 1088/A. D. 1032 as reliable medieval literary sources report?. A few posterior Solanki inscriptions inside the building attest to Vimala's authorship of the temple Vimala's building, however, was modesť in size and meagrely ornamented. The architect he employed had used the local dark stone of questionable quality, instead of the elegant marble of Candrāvati or Ārāsaņa, apparently for want of funds or due to the still undeveloped transportation facilities to lift and move the heavy material up on the mountain-plateau from the quarries of Ārāsaņa". The dark mülaprāsāda (sancturay) is above 25 ft. in width, having a few shallow angaproliferations on plan and a meagrely moulded elevation. The superstructure is a low tiered pyramidal roof, its height restricted by the fact of its shallow foundations since the building perches on bare, possibly partially prepared, flat, rock surface that gently sloped toward the east. The gūdhamandapa (closed hall) conjoined to the mūlaprāsāda is and, to all seeming, there was an original open trika, or mukhamandapa (pillared portico), to front the closed hall in the design of Vimala's foundation. The building possibly was surrounded by a prākāra-wall presumably with an unpretentious gate at the east. A few, small, free-standing devakulikā-chapels may within decades have been added to in the courtyard along the northern and southern flanks11. But the major addition to the complex, as one of the prabandhas relates12, was made by Cāhilla, a brother (or rather son) of Vimala13, of a Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Vimala Sculptures in Vimala-Vasahi 97 rangamandapa, or columnar hall, a mukhacatuṣki to the prākāra as eastern entrance, a hastisālā (elephant court) facing this east porch of the prākāra, and a torana set up very close to the eastern opening of the former court, all (like the original portions of the Vimala's building) constructed in black stone:14 This Cahilla may be identified with the mahāsāndhivigrahika Câhila figuring in the Caulukya Karnadeva's charter of S. 1146/A. D. 1090 granted to the Jaina temple at Tākovill. The dullness of the plain black stone interior of Vimala's original building can be imagined. When, in the 12th century, the Solanki empire of Gujarāt reached the zenith of its power, Pșthvipāla, a minister of emperor Kumārapāla and also descendent of the Vimala's family,--he being Vimala's great grand nephew,--not only replaced the original Trika or mukhamand apa as well as the rangamandapa of black stone by two magnificent new marble halls, but also planned completely to enclose the entire central complex by a surround of devakulikās-chapels with a colonnaded patțaśālā cloister, all done in glistening marble. The larger part of these additions were built by the munificence of Prthvipāla and subsequently by his son Dhanapāla. The main refurbishment programme had started c. 1144 and completed c. 1150, though the devakulikās were continued to be added till c. A. D. 1189. Almost the total splendour of the Vimala-vasahi's interior thus owes to Prthvipāla, Dhanapāla (and, to a smaller extent to a few other donors, like their distant cousins Hemarathi and Dasaratha, and Minister Yasovira of Jābālipura, and a few others from the lay followers Svetāmbara sect.) The question is whether there exist any sculpture of interest and of worthiness inside this temple complex which could date from Vimala period. My four exploratory visits to this temple undertaken between 1959 and 1975 helped locating at least six images which, judging by their style, can definitely be ascribed to Vimala's times. The otherwise undecorated prāsāda-walls, which very largely are of Vimala's period, still possesses three Jina images in marble (Plates 1-3), one each in the bhadra-khattaka, are stylistically of the early 11th century and hence they conceivably are of Vimala's times. Excepting in the southern bhadra-khattaka where the bimba or image proper seems of the restoration period (c. A. D. 1322), the rest is all original, and thus pertain to the original foundation. With minor differences in rendering, the details of the lion throne and the ornamental parikara-frame in each case of the three examples are identical. The simhāśana shows Sarvānubhūti and Ambikā at the extremities, and next the lions, the elephants and the edgewise dharmacakra flanked by dears. The parikara in each instance contains two handsomely flexured cāmara-bearers, the Hiraṇyendra pair on elephant-backs, the māladharas, the souring adorent vidyadharas and, at the apex, a śankhapāla or conch-blowing figure. The Sarvānubhūti-Ambikā pair is rarely encountered after the 11th cent. A. D. The typical suave flexure of the camaradharas and the 13 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 M. A. Dhaky characteristic grouping of the deeply undercut celestials above, the lotus aureole behind the Jina's head, and the edge-wise dharmacakra are features commonly met with in the elaborate Jina images of the second quarter of the 11th cent. A. D.. Similar elements, the general manner of composition, and the qualitative excellence image surrounds are noticeable in two contemporaneous larger images in marble (brought from some unrecorded site) now under worship in the Jaina temple at Beda (situated northeast of Mt. Abū) may be illustrated here by way of comparison (Plates 4 and 5). In these two almost identical examples, the dharmacakra is disposed face-wise; and a triple umbrella is additionally shown since the images are sufficiently large to accommodate that mahāprātihārya or glory-feature. Stylistically, the images may date from c. middle of the 11th cent. A. D. The small differences seen in the two Beļā images may be explained by another image in the same group which stylistically precedes in time even to the Vimala vasahi examples (Plate 6). The image seemingly belongs to the earlier part of the 10th century. The compositional elements are grouped with more space between the postures, though formal, are more animated. The overall mannerism of the composition reveals different graphics, of the tradition of paintings to be precise. The image being larger than all the preceding shown her, could also include a female attendant beside the two male câmara-bearers. All these attendants are provided with plain oblong haloes, a reminiscence of the pre-medieval traditions. A still earlier image with conventions ancestral to these all is the marble Jina image inside Brahmāņa (Varman)'s Jaina temple (Plate 7), the image, like the older parts of the temple, stylistically may be dated to c. late 9th cent. A. D. Hiranyendras and the sakhapāla are absent since it is an early sculpture. The cāmarabearers, particularly the right one of the two, has body flexure even more graceful than all previously discussed. This Brahmāņa image represents the pure Gurjaradeśa tradition, the other images incorporate a few Maru elements and mannerism in their shaping. One of the devakulikā chapel at the south-eastern corner of the Vimala vasahi temple contains three images of Yakşi Ambikā, the two smaller at the flank of the middle large one are more ancient. One of them (Plate 8) has padmaprabhā-aureole, in the other one the lotus petals of the prabhā behave like flames (Plate 9). Not only the style of the aureole but also the style of the dhammila-crowns of the two examples is seldom met with after A. D. 1040; it is ubiquitous in the latter half of the tenth century in all Mahā-Gürjara schools, Kaccha-Ānarta, Arbūda and Medapāta to be precise. The two marble images of Ambikā, then, reasonably may be placed to Vimala's period and at least one (Plate 8) may date from the foundation of the temple, the other, although contemporaneous, may have been soon after installed or brought here at some later date from Ārāsaņa or Candrāvati or some such site in the Arbūda territory. Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Vimala Period Sculptures in Vimala-Vasahi 99 By way of comparison I introduce here three less known images of Ambikā indicating progressive motion toward ossification in rendering. Plate 10 is from the sanctum of Mahāvira temple at Ārāsaņa, dateable to c. A. D. 1062. Its halo differs, so are the ornaments, flattened and stuck to the skin of body. (The Sarvānubhūti there, Plate 11, is also in the same style.) The crown preferred here is karnda; the general treatment and mannerism seem to derive from the so-called Sās temple at Nāgadā near Ahad in Mevād. One more examples of an image of Ambā in Plate 12 is in a devakulikā in the western bhramantikā or colonnaded cloister of the Mahāvira temple in Arāsaņa. The fine suave features met with earlier, disappear here. The squarish face, the summarized ornaments, and the hardened mould indicates toward 12th or the 13th century A. D. The fifth image of Ambikā (Plate 13) is from Mt. Girnar, installed in a late medieval small kulikā near the southern porch of the gūdhamaņqapa of the Nemină tha temple. The general mannerism and idiom of treating the limbs,-legs, waist and torso--and face as well as ornaments and the amra-pallavi in the hands seem to remind the sculptures of Kumārapāla's time inside the Vimala-vasahi additions and at other places. An inscription of S. 1215/A.D. 1159 in the northern porch of the bhramantika of the Neminātha temple refers to the installation of an Ambikā image near Nägajhara 6. Plausibly this is the said image, removed from the original site at a later date to the kulikā where it is found today. The blackened surface speaks of prolonged algae action on the marble of the very image, a fact which supports the supposition that it must be the very image mentioned in the inscription referred to in the foregoing lines. These last two iliustrations unhesitatingly prove the relative earliness of the Arāsana Ambikā in Plate 10, which in its turn clearly endorses the earliness of the style of the two Vimala-vasahi icons shown as Plates 8 and 9. The last illustration (Plate 14) apparently pertains not to Vimala's but his successor Cahilla's times. The hastiśālā of the vasati very plausibly was built by him. The pair of dvār apalakas placed at the eastern entrance still retains the gracefully swaying body of the times c. the mid eleventh century A. D. and are in any case not latter than Cāhilla's period. (What is left out of discussion in this paper is the image in the forechamber of the southwestern extension of the bhramantikā. This large black stone image, popularly known as of Jain Muni Suvrata and looked upon as 2500 years old, is, in fact, of Jaina Rşabha; it certainly was the original mūlanāyaka image of Vimala's temple and hence of A. D. 1032. Its pedestal is lost but the masuraka-seat bearing jewels on the front, the padmaparbhā-aureole, the vyāla-makara at the lateral of the throne, and the face and the hair style of the Jina's figure,-all proclaim early eleventh century as the age of the image. The image is not permitted to be photographed.) Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 M. A. Dhaky All the illustrations for this paper are by the courtesy and kindness of the American Institute of Indian Studies, Varanasi. Notes and References 1. Cf. "The Chronology of the Solanki Temples of Gujarat”, Journal of the Madhya Pradesh Itihas Parishad, No. 3, 1961; also “Vimala-vasahi-ni Ketalika Samašyão” (Gujarāti), Svadhyāya, Vol. IX, No. 3, V.S. 2028. 2. Bhillamāla, from the 11th cent. A.D., is equally known as Srimāla after the city's patron goddess Sri (Mahālakṣmi). From late medieval times onward, the town is known as Bhinnamāla. 3. Currently Pāțan. 4. Currently Delvādā, anglicised Dilwara. 5. I forego citations since not relevant to be central facts of this paper. 6. This is the tradition recorded in the annals of the Kharatara-gaccha which traces its ultimate roots in this Vardhamāna Sūri. The alternative tradition, of the Tapa-gaccha records in particular, aver that the four ācāryas of the four different kulas or sub-orders of monks,--Nāgendra, Candra, Nirvștti and Vidyādhara-officiated the consecration rites. Again, I forego citing original sources since not serviceable to the main discussion. 8. For references pertaining to original sources, see my paper “Vimala vasahi-ni" earlier referred to 9. The town is currently known as Kumbhāria where five Jaina and one Sivaite marble temples exist. The old township has disappeared, the sttlement shifted a mile to the west of Kumbhāria, to what is known as Ambāji. 10. Very disappointingly so indeed. 11. The earliest Devakulikā image-pedestal dates to S. 1121/A.D. 1065. 12. For discussion and references to the original sources, see my "Vimalava sahi-Ni.,' paper. 13. Ibid. 14. The torana and the grilled walls of the 'hastiśālā, the eastern mukhaca tuşki and the mūlaprāsāda (main shrine) and the gūdhamandapa are still extant. The original trika and the rangamaxdapa were refurbished in marble in mid 12th cent. A. D. 15. Cf. Pt. Ambalal Premchand Shah, Jaina tirtha-Sarvasangraha (Gujarāti) Vol. I, pt. 1, Ahmedabad 1953, p. For latest discussion and citation, see my “Ujjayantagiri and Jain Aristanemi", Journal of Indian Society of Oriental Art, NS, Vol. XI, 1980, p. 69, infra. Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. Seated Jina, northern bhadra khattaka, prāsāda, Vimala vasahi, Delvādā., Mt. Ābu. C. A. D. 1032 2. Seated Jina, western bhadra khattaka, Vimala vasahi. C. A. D. 1032. For Private & Persona Use Oni Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3.Seated Jina, southern bhadrakhattaka, Vimala vasahi. A. D. 1032. 4. Seated Jina, Jaina temple. Bedā. C. early 11th cent. A D. gelibrary.org Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. Stated Jina, Jaina temple Bedā. C. early Ilth cent. A. D 6. Seated Jina, Jaina temple. Bedā. C. early 10th cent. A. D. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. Ambika, Vimala vasahi, Delväḍā, Mt. Abu. C. A. D. 1032. For Private & Perso 7. Seated Jina, Jaina Temple, Varman. C. late 9th cent. A. D. Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. Ambikā, Vimala vasahi, Delva C. A. D. 1032 10. Ambikā, Mahāvīra temple, Kum bhāriā (Ārāsaņa). C. A. D. 1062 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. Sarvānubhūti, Mahavira temple, Kumbhāriā. C. A. D. 1062 12. Ambikā Mahavira temple, Kumbhāriā (Ārāsaņa), Devakulikā in bhramantika. C. 12th or 13th cent. A. D. 10 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. Ambikā, Neminātha temple, Girnār. C. A. D. 1059. 14. Hastiśālā, toraņa-pillar and dvāra pāla, Vimala vasahi Delvādā. C. mid 11th cent A. D. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GAMBHIRPUR ROCK PAINTINGS Ravi G. Hajarnis The village Gambhirpur (latitude N.P. 23°5' east longitude 73°3') is about three kms. to the north of Iḍar in the Gujarat State. The erstwhile Iḍar State, now merged in the Sabarkantha District, is rich in antiquities. The territory of the former Idar State lay mostly to the east of River Sabarmati and north of the River Mahi, between 23°6' and 24°30' north latitude and 72°49' and 73°43' longitude. The State had an area of 1,669 square miles. The Arvalli hills lay on the southern borders of the State. These granite hills almost surround Iḍar, and some isolated hills occur as far as Himatnagar. The main river system in this territory is formed by the Sabarmati and its tributariesthe săi, Harṇāv, Hathimati, Meśvo, Vätrak and Majum which flow through the plains of the western and southern parts of the former State. History U. P. Shah traces some connection of Pratihāra King Venivatsarāja (c. A. D. 783-808) with Iḍar hills on the basis of folk-lore. According to a legend, the king's mother, consort of the king of Srinagara (i.e. Teheri Ghadhval District of the Himalayan region), was brought to the Idar hills by a monster-bird during her pregnancy." The Chinese pilgrim Hüen T'sang (c. A. D. 640) mentions a place which he calls "O-cha-li", or Vaḍāri. Cunningham identifies this place with Idar (also Rasmālā, 235). The Bombay Gazatteer Vol. V, however, identifies Vaḍāri with Vaḍāli (23°56' N. 73°3' E) to the north of Idar. According to Shah, Vaḍāli, which is referred to in Hüen T'sang's accounts, was under the Maitraka rule, with Anandapura to its west, Mälva or Malavaka to the east, and Khetaka to its south. He further guesses his route of travel to be from Dasapura (Mandasor), or Ujjain area, to Brgukaccha via Dungarpur through Bhiloda, Śāmalāji, Harsapura (Harsol) to Kärpatavanijya (Kapadvanj), Kathlāl, and Nadiad in Khetakamandala." Devnimori, about 45 kms. to the south of Idar was one of the great Buddhist settlement during the late Ksatrapa period. The cultural and artistic activities of this region, however, go back to a period anterior to Ksatrapa times. The present author, during the course of his explorations discovered rock paintings from Sapävada, Laloda and Idar which has cast fresh light on the art history of this region from stone age to historical periods." Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 Ravi G. Hajarnis The Šāmaļāji evidence proves the association of this area with Buddhism. The author recently has brought to light one other series of rock paintings showing signatory association with religious, cultural and art-activities of the Buddhist period. In all, there are seven stūpas depictions painted on the inner vertical surface of the rock shelters at Gambhirpur (Idar). These are for the first time discussed in English here. Description of the paintings : Shelter 14 This shelter faces full front; the figure of a stūpa is visible even from the road side. The stūpa-figure is painted with thick red lines of geru (Indian red) colour. It is flanked by chatra-yaşți. Chatra is shown with (a sort of) perspectivity in view. The platform of the stupa cannot properly be discerned. The patākā (flag) is drawn by red lines with no block-filling. Although the proportions are not perfect, the figure is useful as an idea representation of the contemporary stūpa shape. The pigment used here is geru and a white colour as a fillar (Fig. 1.) Shelter 15 The paintings in shelter 15 are not well preserved. Two stūpa figures, however, can be clearly recognised; their configuration is delineated in red, the inner area rendered in white (Fig. 2). The first figure from the left is larger than the second. The stūpa's outline has somewhat suffered due to weathering. The shape of the chatra-yaşți and of the platform etc. cannot therefore be fully discerned. The configurative lines of second stūpa figure are also damaged. These two stūpa figures illustrate the more developed form compared to the figures of shelter 16 to be discussed below, being the work arguably of a superior artist. The space distribution and the force of line are remarkable. The chatra-yasti and the hermikā are carefully drawn. The chatra is drawn after moon-shape. Shelter 16 Three stūpa-figures are met with here. The first stūpa figure from the left side is not drawn with perfect symmetry. The lines too are uneven in thickness and reflect irregularity in proportions. The uneven rock-surface may have contributed to this "mishappen" appearance. The second, which is the middle, stūpa figure is in better condition than the first stūpa figure, drawn carefully as it is. The lines are fine and more accurate compared to the preceding instance. However, the rendering of the chatra-yasti and the hanging patākā is not very accurate. The third stūpa figure in this shelter is by far the superior of the three. The method in drawing adopted here is slightly different. Because of the uneven Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VILUMINA Fig. 1 Painted stupa in shelter 14 Fig. 2 (A) Fig. 2 (B) Painted stupas in shelter 15 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fig. 3 Painted stupa in shelter 16 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gambhirpur Rock Paintings 103 rock-surface, the entire figure is directly drawn by the artist. The chatra portion is semi-rectangular. But its top part is not clearly visible (Fig. 3). Shelter 18 It is located on the way leading to 'Idario Gadh', Idar, near the place locally called Ruthi Rāņi-no Mahel. There, on the inner wall of shelter a superimposed painting is discernible. Although superimposed, the semi-circular shape of the stūpa and some Brāhmi letters above it can be discerned. The entire writing is not preserved or clearly legible. (A few letters may be read as “Rajas".) Palaeographically, the characters are assignable to the 4th and the 5th cent. A. D. All these painted stūpa configurations may, therefore, be assigned to the bracket 4th-5th cent. A. D. Such painted configurations of the stūpa inside rock-shelters are not reported from any other part of the country. The paintings prove the prevalence in this area of Buddhism in the early Gupta period. Notes and References 1. U. P. Shah, "Sculptures from Shamalaji and Roda", Bulletin of Museum & Picture Gallery, Baroda 1960, p. 2. Ibid. Gazatteer of Bombay Presidency, Vol. 5, Bombay 1880, p. 434. Ibid. Shah, Sculptures., p. 5. Ibid. Ravi Hajarnis and M. D. Verma, "Sāberkānthā māñ maļi āvelā Gufā. citro" (Gujarati), Kumār, Feb. 1979; also by the same authors, “Sabarkāņthā nān citro nun Samayānkana" (Gujarāti), Vidyāpitha, July-August 1980, pp. 47-49; and the same authors with C. K. Date, “Gujarāt madhil gufa-citre" (Marathi), Svarājya, 2nd Oct. 1982, p. 12. During his work relating to the project on Rock-paintings, the author was assisted by Sarvashri B. S. Makwana, M. D. Verma, and O. P. Ajwalia (Photographer). The author wishes to thank them all. The drawings are reproduced here with the courtesy and assistance of the Department of Archaeology, Government of Gujarat. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UNITS OF LENGTH IN JAINA CANONS N. L. Jain Introduction The Jaina Canons contain large amount of descriptions about the physical phenomena in the world besides the main spiritual processes and discussions. Their knowledge is sensory in the first instance which is analysed by mind to give proper form and explanations. Barring supersensory knowledge, all other forms are primarily relative and qualitative. Their accuracy and absolutism is possible only through measurements. These give reliability and credibility to the descriptions. The Jaina scholars knew this fact and that is why they have written general and special treatises in this direction. The accuracy of the descriptions contained in them depends upon the standard units used. There have been three main areas of measurements since the earliest times : mass or volume, length, distance or area and time. In contrast, the International Congress on weights and Measures, 1971 have accepted seven areas under this category-mass, distance, time, electric current, heat, light and matter. It could be surmised that the last four categories could not develop in olden times. The author has pointed out earlier about the varieties in names, stages and values of time units described in Jaina canons of various ages. This does not make it possible to evaluate and compare the accurate meanings for the descriptions based on them. It was, therefore, suggested that there must be uniformity of names, stages and equivalent values in current units for the canonical time measures. Likewise, length units also require evaluative consideration. It is found that there is no such variety in length units described in canons as time. Still, there is no uniformity in their names and values used. The current paper is meant to emphasize the importance of uniformity in length units and to activate the scholars to move in this direction. Concept of Measurement in Jaina Canons Jaina canons have coined the term of Māna or Pramāņa for the process of measurement. Though Anuyogadwarsutra (ADS), Bhagvati (B), Trilokpragyapti (TP), Jambudvippragyapti and other canons do not mention classification of measures, but Rajvartik (RV) and Triloksara (TS) have accepted two varieties of measures : Laukika or worldly and Lokottar or paraworldly. The first category is mainly related with weight, volume, cost or number of materials and has six subclasses. These are virtually measures of mass (Dravyamana) only. Though ADS and RV seem to include the length measures through the variety of Avamana, but TS has described it as a measure of Volume. This seems to be more reasonable in view of the descriptions. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Unit of Length in Jaina Canons 105 The paraworldly variety includes the measure of length and time. It has actually four subclasses-Dravya (matter), Length in all respects (Kshetra), Kala (time) and Bhava (idea). The matter-measure gives us the weight and volume of materials from the smallest atom to the largest earth. The length measure gives us the distance, area and volume of one space unit to the last of the world space. Time units measure from one samaya unit of time to infinite time units and Bhava (idea) measures knowledge, perception, view points and numbers. All these four paraworldly measures of Akalanka are covered by the general measure types of ADS. The paraworldly nature of these measures seems to be the creation of Akalanka of 7th century who has many credits of this type. In addition, the ADS has classified the units of time, matter and length in two varieties-space-point based and division based. The first one has atom as the basis while the other has five varieties of matter units to which Akalanka has added Tat-pramana as the sixth variety under worldly matter units. The division-based basic units of time and length are Samaya and Angula respectively. In contrast, Aklanka has these two varieties of units for length alone. The authors of B, TP and JDP do not propound any paraworldly measures like Akalanka. The ADS has three main classes of Bhava (idea) measure with many subclasses thereupon. The Bhagavati does not have these types. Akalanka has mentioned only Upayoga (perception and knowledge) as a variety of Bhava but he has given only five types of knowledge (and no perception or its varieties) in explanatory commentary. Table I and II summarise the ADS and RV measures. It seems that ADS classification is more practical than RV which has repeatition, incompleteness and confusion. Table III summaries the useful informations about the different measures. This also makes it clear that no dividing line could be drawn between worldly and paraworldly measures as the latter includes all the six varieties of the first type. Of course, it seems that the latter type has more extensive area of measures to cover length, time and qualities. If we define this measure as that which has measuring limits beyond the fineness and grossness of worldly measures which may be invisible and unholdable. Still, the numerable measures of matter, the varieties of angula (A) etc. of length and muhurta, day, fortnight etc. units of time can never be called paraworldly. In addition, Akalanka has divided the mattermeasure in two varieties: number-measure and simily measure (Upama-mana). The latter has eight varieties. Out of which, Palya and Sagara are definitely time units and the rest six are length units. The simily measure, therefore, should not be taken as subclass of matter measure of paraworldly type. Of course, it would be a different case if one assumes them to be matter units because they are closely related to matter. This will mean a regress point. In view of these discrepant facts, the Akalanka classification of measures seems to be superfluous and not important. A serious consideration is necessary on this point. 14 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Table 1. ADS Classification of Measures Measure 106 Length Measure Mass Measure 12 Time Measure Quality Measure Space point Based Division Based Atom 5 Mana Unmana Avamana Pratimana Ganit Space Point Based Division Based Atom 7 classes with Angula N. L. Jain 3 types Space Point Based Division Based Existence of Atoms Samaya, Avali etc. Qualities Viewpoints . Number Jiva Ajiva 7 Types 7 Types 13 81 Types i ypos 15. Knowledge, 4 Perception, 4 Conduct, 5 Color, 5 Taste, 5 Smell, 2 Touch, 8 Shapes, 5 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Worldly 16 As in ADS 5 Tatpramana 1 Numerable Number 3 Table II. Akalanka Classification of Measures Each of 3 types T T Palya Sagar SA Mass 12 [Innume Infinity PrA GA Simily 81 J Measures 12 Space Point Based L L Length I PL Division Based I Angula etc 7 3 types Types Paraworldly 14 Time Samaya, Avali etc. I Quality Upayoga 21 Knowledge Perception Units of Length in Jaina Canons 107 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 N. L. Jain Table III. Useful Information About different Measures A. Worldly Measures (RV) or Dravyamana (ADS) (i) Standard or Basic Measure Pratimana Mustard seeds, Flowers of myrtle etc. (ii) Volume measure Mana Measure of volume of solid and liquid; Kudav, Droni, Shodashika etc. (iii) Weight measure Unmana Measure of weights ty balances. (iv) Measure of mass/area Avamana (i) Measure of water in handoup etc. (ii) Measure of land by Dhanush etc. (v) Measure of Numbers Ganana Mana Counting of Materials. (vi) Measure of Cost Tatpramana Measure of cost by height (of horse) or halo of jewels etc. B. Paraworldly Measure (RV) or Measures (ADS) (i) Measure of Mass/Volume, (i) Number Measure of mass/volume Dravyaman Measure from an atom to the lar (ii) Simily Measure gest earth. (ii) Measurement of Length (i) Space point Measure from a space Pt. Area, Kshetramana (ii) Division based to the whole world. (iii) Time measure, Kalmana Measure from 1 samaya to infinite samasyas. (iv) Measure of Quality, Qualities, View- Measure of qualities of Bhaymana points, Number Knowledge, perception, conduct and viewpoints, number. Basis of Measure of Length in Jaina Canons : Space Point or Pradesha Jainas have independent reality of space like time. It accommodates all the realities in the Universe and it is the basis for the movements. It was included in the five 'astikayas' (reality with space points) from the very beginning and hence its position is somewhat different from the time reality. The space has infiniteness, extension and omnipresence. It has no varieties of practical and real type like time. Nevertheless, it is assumed for practical purposes that the space occupied by atom is known as Pradesha or unit space-point. The extension of space is denoted in the form of these space-points. The infiniteness of space is due to its infinite number of space-points. These are the basis for length or distance units. Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Units of Length in Jaina Canons 109 These are also the base for quantitative descriptions of the canons. These are termed as 'Akashanu' or space atoms like matter atoms. These are the measure of minimum length and thus form its basic units. As the space has extension, it could be 2 or 3 dimensional also. Hence the basic unit of Pradesha also forms the basis for area and volume units. It has been seen that time and distances are independent of each other, still the length units are described in canons as correlated with time units. The larger units of time-Palya and Sagara-have been defined on the basis of Yojana-a length unit. Though B, TP, RV and JDP follow this tradition, the ADS and SK (Satkhandagama-1) deal length units independently. Measure of Length in Bhagvati and Other Jaina Canons The Jaina canons like B, ADS, SK, TP, RV, TS, JDP and others written between Ist C. to 12th. century AD contain descriptions about length measures. Muni Mahendrakumarji-11 and Lishk et el have discussed them as described in ADS. Accordingly, these have three varieties—(i) self measure (ii) utsedha measure and (iii) pramana measure. These are utilised in measuring lengths of different types and extensions shown in Table IV. All the above canons have these three types of measures. A critical and comparative study of these measures will be presented here which are summarised in Table V, resulting in Table IV. Uses of Different Length Measures Name Unit Equivalence Uses 1. Utsedha Utsedhangula, UA - Measurements of heights of bodies and idols 2. Atma Atmangula, AA 2 UA Measurement of utility and useful small things 3. Pramana Pramanangula, PA 500/1000 UA Measurement of islands, oce ans, cities, solar system etc, the following facts : (i) All scholars have accepted the seven measure units from Angula A, to Yojana Y, as the practical units. (ii) All agree upon Angula as the practical unit of length. The category of this unit determines the value of Y. The basic A has been taken as UA. (ii) The standard unit of Atmangula is the finger tip of a standard healthy person with a height of 84 self angulas. The human heights of 120,108 or 96 A depend upon the different conditions and hence not taken as standard. (iv) One Atmangula unit is canonically equal to 2 UA. (v) The Angula unit is 1-dimensional as per JDP which is also known as Suchyangula Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 N. L. Jain (vi) One UY (utsedha yojana) has 7,68,000 angulas. Taking this as the last unit, and assuming it as equal to 4 K (Koshas) or 8 miles (I mile=1.66 kms= 1,66,000 cms), I UA comes out to be equal to 13,28,000/7,68,000 1.73 cms. Datta and Singh have shown that 1 Anguliparva of Buddhist measure is equivalent to 1.32" or 3.68 cms. The UA of Jainas has half this value, i.e. it is equal to 1.68 cms. It is on this basis that 1 UY has been calculated to be equal to 8 miles or 13.26 kms. Thus, by interpolation of Yojana or extrapolation of Angula, the UA has a value of 1.68-1.73 or 1.70 cms. on the average. In contrast, G. R. Jain has assumed a Hasta, H=24 UA=45.90 cms and hence 1 UA-0.75"=1.90 cms. This means a UY=15.09 kms or 100/11 miles instead of 13.28 kms as above. He has used this value to calculate the velocity of light based on its Vedic value of 4404 Y per Nimesha (0.25 sec.) which is sufficiently close to the current value. It must, must, however, be said that there is no confirmed base for this value of Angula, though L. C. Jain also agrees with this value. The acceptance of different values for the same basic unit creates doubt on the reliability of calculations based on them. Munishri Chandanji has also discussed the equivalence of UA on the basis of height of Lord Mahavira as 7 H. He maintains that the canonical height is based on UA which is equal to 3.5 H in self measure. This is equal to 84 AA as IH=24 AA and 1 UA=0.5 AA. Hence 7 UAX 24/2 = 84 AA. If one assumes the UA as 1.70–1.90 cms., the Lord's height comes to be a minimum of 7 x 24 x 1.70= 285.6 cms or 9.25 feet. This value seems to be inconsistent on all accounts for a man born in tropical Bihar area. Thus, he has questioned both the above UA values. He does also not agree with the parmanu or atom as the basic unit of length due to the difficulties in its standardisation. Instead, he has supported the Jaina concept of Angula standard on the basis of being natural. He has given a value of 0.42" or 1.07 cm. to UA on the basis of many comparative references and logistics. Based on this, I UY=5 miles or 8.30 kms, and the height of the Lord as 5.84 feet of 178 cms. which seems to be reasonable. He has given critical descriptions about the various body heights in literature and has canonically defined the standard UA. However, his concept of natural Angula being standard could not be justified on account of its larger variability than an atom. Lishk have given a fourth value for UY as 0.085 km. (0.51 miles) equivalent to a value of app. 0.001 cm. for the UA. They have suggested that the values of these units should be decided on the basis of historical period and place. Thus, they seem to be adding to our difficulty in the process of standardisation and he has conveyed that the value of standard basic Angula is variable, that is, it is a secondary rather than primary as desired by canons. One would like to wonder how a variable quantity may be treated as a standard. Moreover, the authors of ADS, B, TP, JDP and SK belong to the same side of the country and there should not be Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Units of Length in Jaina Canons 111 any variation in their descriptions. On the other hand, Akalanka and others originate from south and there should not be variations in their measures. But we see variations not only in both the groups, but in the same group also. One has to look as to the when and how of this variation. Length Units Smaller than Angula The length units based on UA are known as Utsedha measures representing their division based category. The smallest unit of category is atom. As this is very fine, there is another practical unit known as 'Practical atom'. When we interpolate the UA unit towards smaller units, we reach the point of practical atom. Though the JDP mentions Trutirenu (or Urdhwarenu of ADS) as practical atom, though the ADS points it to be a much smaller unit (8-2+). The real practical unit is an infinite multiple of this unit which has the same in ADS and B, but Table V shows that its name is different in TP, RV and JDP. The same is the position of the second unit eight times larger. These two units should have uniform names in current times. The cause of the different names should also be looked into. It is seen that there are 13 stages of smaller units upto UA in ADS while there are 12 stages in other treatises including Bhagavati. The how and when of this change requires further consideration. Is it the mistake of the copyist? Besides the above two differences, B (100 BC) and RV (750 AD) have same names of other ten units upto Angula. In contrast, there is similarity in names in TP and JDP (names of hair heads and yava or yavamadhya). This difference should also be looked into and formalised for the current age. It is clear from Table V that each of the 12 stages from Angula backwards is eighth part of the preceding unit. The first unit, thus has a value of 1 6x 10-10 A. If we multiply this value by its cm.-equivalent of 1.70, the first unit has a value ef 2.72 x 10-19 cm. If one takes JDP as a little more practical, and the practical atom or trutirenu is taken as 8 x 8 = 64 times the first unit, the practical atom has a dimension of 1.75 X 10-8 cm. which is the size of the current scientific atom. This suggests that JDP concept of practical atom unit has the same atomic dimension as the current one. In contrast, the unit of length smaller than atomic one is that of atomic nucleus of 10-13 cm. This does not coincide with the canonical smallest unit of 10°10 cm. It is, therefore, reasonable to suggest that Trutirenu of Practical atom unit should be recognised as standard unit with a value of 10-8 cm. and the cononical descriptions should be made consistent on this basis. The units smaller than this may be simily based, the unit of 1/seems to be imaginary as it does not have a measurable value. This inference does not seem to be consistent with definitions of Trasarenu and Rathrenu of ADS, but this seems better for accuracy. The ADS definitions of these terms seems to be akin to the Vaisheshikas who have Trutirenu as their standard length unit equal in size to the colloidal dirt particles seen floating in light path. This unit is almost about 105 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 N. L. Jain times larger than the Jaina smallest unit. The discrepancy between the values of ADS unit and other reference units have to be explained. The common names of some of the units in Jaina and Vaisheshika systems further suggests about looking into the original source of these units. Besides concurring with the size of atom, the 1.70cm. value of UN has another result to its credit. If one takes Y-8 miles and PY-500Y=4000 miles, the velocity of light based on vedic data comes to be 1, 40, 930 miles/sec (2.30x 101cm./sec). The value of 1.90 cm for UA gives this value as 1,87,300 miles (3.10x 100 cm) per second. These values are reasonably approaching the current values. This is quite encouraging. But when we move for distances in solar system, we find that we have the distance 14 times larger for moon and 30 times lesser for sun. This discrepancy is awaiting explanation. The other values of UA will increase the discrepancy still further. It has already been pointed out that the normal angula is 1 d and it is also There seems to be some difference in the RV and JDP named as Suchyangula. descriptions of this unit. But JDP seems to be more reasonable. This angula has three varieties as shown in Table IV. It is seen that there is difference between the values of PA in Digambara and Swetambara systems. No comments have been made on this point by modern scholars who have mostly mentioned this difference. For equivalence, the PA's must be equal. One could suggest that this difference has accrued due to the two forms of angula units-self and utsedha, the one AA being double of the other-UA. It could be surmised that the Digambara PA is based on UA scale while the other PA is based on AA scale. If both are taken on the same scale, the difference will vanish. From the example of the Lord's body height, it is the UA scale coined by canonicals. Thus, the Swetambara value converted to UA scale will give us the Digambara value of PA. Some calculations. on this basis are given in Table VI. If one takes the Swetambara value of PA, the results will be highly discrepant. The treatment of current equivalence of UA by many scholars presents a situation which was prevalent in the scientific world some 150 years ago when lack of standardisation produced confusion and checked growth of science. The same is the case with the atom when scholars of orient are pitching on the indivisiblity which has been shattered. Jain has pointed out some problems in this regard and suggested the description to be taken in historical perspective. However, there seems a tendency in some scholars to trace canonical origin for all the newly developed facts and to either overlook or keep mum over the scientific evaluations of a large number of discrepant canonical descriptions about the physical phenoSometimes varied explanations are given for the same fact to make it scientifically consistent despite the fact that opposing or inconsistent results accrue from this trend. Some of the results of calculations based on current opinions regarding equivalent values of UA are shown in Table VI which will substantiate Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Table V. Units of Length in Some Jaina Canons Trilokpragypti, TP Rajvartik, RV Jambudivpannatti, JDP P P-Ubasannasanna, U P=1 Utsangysangya, U Bhagvati, B A. Smal lar Units en Basic Unit Paramanu, P P=1 Utslakshnslaksha nika, U 8U-1 Slakshnshlakshani ka, S. 8S = 1 Urdhvarenu (Tru tiranu), Tr. P P=L Avasannasa nna, U 1 Sannasanna, S =1 Sanasanna, S = 1 Sangyasangya, S +1 Trutirenu, Tr. = 1 Tr 8 Tr=1 Trasrenu, Ts 8 Ts+1 Rathrenu, Rr 8 Rr=1 Hairhead, UBHH (Devkuru-Uttarkuru) =1 Ts =1 Rr 1 Hairhead, UBHH (As in B) -1 Tr (Practical Atom) =1 Ts =1 Rr = 1 UBHH (As in TP) -1 Ts =1 Rc = 1 Hairhead, UBHH (Uttam Bhog bhumi) =1 MBHH (Madhyam Bhog bhumi) -1 JBHH (Jaghanya Bhogbhumi) =1 PBHH (Karmbhumi) Units of Length in Jaina Canons SUBHH= 1 Hairhead, MBHH (Hari-Ramyak Area) 1 MBHH (As in B) =1 MBHH (As in TP) =1 JBHH (As in B) - 1 JBHH (As in TP) 8MBHH=1 Hairhead, JBHH (Hemvat-Airavat Area) 8JBHH-1 Hairheap, PBHH (Purv-Videh) 8PVHH=1 Liksha, Li 8 Li-1 Yuka, Eu 8 Eu=1 Yavamadhya, Y 8 Y=1 Angula, A 1000 A=1 Pramanangula, PA =1 Li =1 Eu = 1 Yava, Y =1A 500 A=1 PA =1 PVHH (Bhart-Airayt-Videl) 1 Li = 1 Eu = 1 Yavamadhya, Y -1A 500 A-1 PA = 1 PVHH = 1 Li =1 Eu = 1 Yava, Y =1 A 500 A-1 PA 113 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 Nomal Units 6 A=1 Pada, Pd. 2 P= 12 A= 1 Vitasti, V 2 V - 24 A-1 Hasta, H 2 H-48 A-1 Kukshi, K 2 K-96 A=1 Dhahush, D 1 =1 Pd -1 V =1 H -1 K (Rikku) = 1 D (Dhanush, Danda) - 1 Pd -1 V =1 H =1 Kishku, K =ID =1 Ed -1 V =1H -1K =1D 1 Ko =1 Y =1 Ko =1 Y -1 Ko =1 Y 2000 D=1,92,000 A-1 Kosha, Ko 4 Ko=7,68,000 A=1 Yojana, Y C. Larger Units 1000 A=1 PA 1000 Y=1 PY L Jagshreni, J=7 Rajju, R 1 Rajju, R=1/7 Jagshreni, 1/7J 500 A=1 PA 500 Y=1 PY As in B As in B 500 A=1 PA 500 Y=1 PY As in B As in B 500 A=1 PA 500 Y=1 PA As in B As in B N. L. Jain Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Units of Length in Jaina Canons the above statement. The calculations based on values of Lishk et el are most discordant. Table VI will confuse one to decide the truth or accuracy of the Table VI. Some Calculations Based on Various Values of UA 1.90 15.09 100/11 Values of UA, cm. UY (a) km. (b) miles PY (500 UA), km. miles PY (1000 UA), km. miles. Size of Atom, cm Lord's body height, cm. Velocity of Light, UY (a) cm./sec (b) miles/sec Distance of Moon, PY (880 PY), lac miles 1.70 13.28 8.00 1-d units 1. Ubasannasanna or the first smallest unit 6640 4000 13280 8000 1.75x10285.6 2.34 x 1010 1,40,930 35.20 32.00 7545 4545 2. Trutirenu or Practical atom 3. SA or UA, cm. 4. AA 15090 9090 1.94 x 10-8 319.2 3.10 x 8010 1,87,300 39.95 1.07 8.30 5.00 4150 2500 1.09 × 10-8 178 8300 5000 10-10 cm. 1.46 × 1010 88080 22.00 0.001 0.085 0.051 36.36 22.00 Distance of Sun, PY (800 PY), Lac miles 0,204 fact. It is worth consideration which of these values may be taken as applicable in all cases. Lord Mahavira must have given one value for it. How and when this variety and values of Angula started-is a problem for further research. One of the reasons for this might be the personal or literary communication gap between the scholars of different periods. This gap has vanished in this century and it is the best time for uniformity in units and their values. 10-8 cm. 0.001, 1.07, 1.70, 1.90 2 UA 42.33 25.55 84.66 51.00 When areas or volumes are to be expressed, the 2-d or 3-d units are used. The 2-d and 3-d Angula units are known as Pratarangula (PrA) and Ghanangula (GA) respectively. Their values are equal to the square and cube of the Angula unit. They are shown in Table VII. Table VII. Current Values of Length Units in Jaina Canons Unit Current Values 115 1.00 x 10-10 0.168 1.49 × 10 898.5 0.398 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 N. L. Jain (UA) 5. PA 500 UA, 1000 UA 6. Yojana, Y (a) UY, Km. 0.085, 8.30, 13.28, 15,09 (b) PY, km (500 UY) 42.83 4150, 6640, 7545 (1000 UY) 84.66 8300 1328015090 7. Rajju, R; km. Innumerable Yojanas 3.7x 1018–2.4 x 1021 8. Jagshreni, J; km. 7R=2.6 x 1019-1.68 x 1022 2-d Units 1. Pratarngula, PrA 2. Jagprata/Pratarlok, JP/PL 3-d Units 1. Ghanangula, GA (UA)S=UAX PrA 2. Ghanaloka, GL (J)'(FR)= 343 GR 3. Khanduka 1/64 GR Larger Units Length The UA based Yojana, Y is the unit of length of practical and average value. It seems quite small for larger distances. Jaina Acharyas have, therefore coied some larger length units like time. These are known as Pramana units. The PA based Yojana, PY, is a 1-d unit in this direction. It has a value of 500 or 1000 times larger than UY or it is equivalent to 4000 or 8000 miles (1Y=8 miles). Other different values based on various of UY are given in Table VI varying between 6640-15090 km. These are measurable units. With reference to the dimensions of the Universe, there is one more unit names as Rajju, R. Canonically, it seems difficult to evaluate the current value for it, as its calculations involve innumerable number. Despite this, Jain and Jain have calculated the valus of Rajju unit to be between 1019-1021 kms. Jagshreni, J its still a larger unit which is equal to 7R or between 1019-1022 kms. These larger units are just akin to the current units of Light year which has a value of app. 1012 km. This suggests that the larger units of length of the Jainas are sufficiently larger. These are also included in Table. VII. The above description of larger units have also their corresponding 2-d and 3-d units named as Pratarlok (PL) and Ghanloka or Loka (GL, L) respectively. These are equal to the square and cube of Jagshrenu unit. Lokprakash mentions an another of 3-d unit of Khandka, K equal to one-fourth cube (1/64) of a Rajju. This and its derivative units are not found in Digambara tradition. The above description of larger units shows the PY to be different in different traditions. Thus, descriptions based on them will have a variance and their reliablity will be more mythological. The current century, however, requires uniform value of PY for proper evaluation of various descriptions in canons. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Units of Length in Jaina Canons 117 Some Descriptions Based on Larger Length Units Many description relating larger distances, area and volumes are available in Jaina Canons. Some of them are presented here in current terms in Table VIII. Let us first look at the island-Jambudvipa-in which we live. It is named after a Jambu tree in its centre. It is 6Y in height, 8Y in length and 6Y in diameter. The corresponding description is given in Table VIII. It is clear that this cannot be based on PY. Basing it on UY also looks like an exaggeration. Not only this, 108 Jambu trees of half the dimensions of the main tree are surrounding it. If we assume that there is at least one tree surrounding it in one direction, there will be approximately a row of approximately 27 trees of 60 km length covering a distance of 27 x 60 = 1620 km. in one direction. This is equal to a distance from Delhi to Kazipeth, Bombay, Veraval and Howrah. Thus, it seems that more than half of the present India will contain only the family of Jambu trees. This description seems to be imaginary when one thinks of current distances and descriptions of the trees. The Jambu island has a diameter of 106 PY. This island has the Bharat Khand with an area of a little over 1/190 of main island and diameter of app. 526 YP. The island has Meru mount in the centre Table VIII. Current Values for some canonical Descriptions Items Values based on UY PY based values 1. Jambudvipa (i) Diameter, 105 Y, km. 15x 105 7.5x 108 (ii) Circumference, 3.16 x 105 Y 47.4 x 105 2.4 x 109 (iii) Area 11.6x1021 5.9 x 1014 2. Bharat Khand (i) Diameter, 526 Y 3.5 x 106 7890.00 3. Mount Meru (i) Under the Earth, 1000 Y 7.5 x 108 (ii) Over the Earth, 99,000 Y 7.4 x 108 4. Jambu Tree (i) Diameter, 6Y, Km. (ii) Height, 6Y , 90 45,00 (iii) Length, 8Y , 120 60,000 5. Height (Lord Rishabhdeo), 0.05Y 910 metres 6. Height of Palace, 225D 410 7. Length of Palace, 300D 547 8. Width of Palace, 150D 273 9. Height of Vijay Dvar, 8Y 120 km. 10. Diameter , ,, 4Y 60 km. 90 45,000 TITI Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N. L. Jain which is 99,000 PY overland and 1000 PY underland. The current values for these descriptions in Table VIII suggest that it is very difficult to determine the category of reliability about them. Table VIII gives the values on the basis of UY 15 km. and PY-500 UY. Calculations based on other values of UY also yield similar discrepant values. These values can only be presently explained on the basis of faith in canons and religion which do not require verification. This, however, is causing erosion in faith. Dr. Upadhya has exclaimed similarly in his editorial in TP adding that these descriptions are not appealing to the current scientific world. If we wish to convert the mythological category into reliability, one has to fix the canonical length units with a definite current value uniformly. Most probably this may not be possible. In that case, we must not insist on their permanent truth or omniscientist's wordings. They must be taken in historical perspective as an attractive mythology so common in all the systems in olden periods if their development. 118 References 1. Tarnikar, M. S. et el; Prarambhik Bhautiki, J. Nath and Co., Meerut, 1983, 6 p. 2. Jain, N. L.; Time Units in Jainology: A Survey, Tulsi Pragya, X 4, 22, 1984. 3. Jain, J. C. and Mehta, M. L. Jain Sahitya ka Vrihat Itihas-2, PVRI, Varanasi. 4. Sudharma Swami; Bhagavati Sutra-1, JSR, Sailana, 1966, p. 1038. 5. Acharya, Yativrishabh; Tiloyapannatti-1, JSS Sangha, Sholapur, 1956, p. 13. 6. Acharya, Padmananadi; Jambudivapannattisangaho, ibid, 1958, p. 237. 7. Bhatta, Akalanka; Tattwarth Vartik-1, Bhartiya Gyanpith, Delhi, 1944, p. 205-8. Chakravarty, Nemichand; Triloksara, SDJS, Mahavirji, 1975, p. 12. See Ref. 8, p. 13. Acharya, Puspdant and Bhutbali; Satkhandagama-1, Amraoti, 1939, p.80 See ref. 7, p. 206. 8. 9. 10. 11. 22 12. Ibid, p. 207. 13. 14. 15. Kundkuld, Acharya; Panchastikayasara Intr., Bhartiya Gyanpith, Delhi, 1975, p. xxi. Muni, Mahendrakumarji-II, Vishwa Prahelika, Javeri Prakashan, Bombay, 1969, p. 233. Lishk, S. S. et el; Length Units in Jaina Astronomy, Jain Journal, 143. 1979. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Units of Length in Jaina Canons 119 16. Muni, Chandanji; Utsedhamana, Ek, Mulyankan, Tulsi Pragya, ix 7-9, 1983, p. 1. 17. See. Ref. 6, p. 237. 18. See ref. 14, p. 236, ref. 1. 19. Jain, G. R.; Cosmology, Old and New, Bhartiya Gyanpith, Delhi, 1975, p. 83. 20. Jain, G. K.; KCS Felicitation Volume, Rewa, 1980, p. 337. 21. Jain, L. C.; Tiloyapannatti ka Ganit in JDP; JSS Sangha, Sholapur, 1958, p. 20. Gautam, Akshapada; Nyayadarshanam, Bauddhabharti, Varanasi, 1976, p. 326. 23. See ref. 7, p. 208. 24. Jain, N. L.; Atomic Theory of Jainas, An Evaluation, Tulsi Pragya, xi-1, 1985. 25. See ref. 7, p. 169. 26. See ref. 7, p. 170. 27. See ref. 7, p. 190. 8. Suri, Shrutsagar; Tattwarthvritti, Bhartiya Gyanpith, Delhi, 1944, p.124. 29. See ref. 5, p. 145. 30. See ref. 6, p. 5. 31. See ref. 5, Preface-i. 22. PA PY RV Raivo S Abbregiations/Symbels A Angula АА Atmangula ADS Anuyogdvarsutra Bhagavatisutra GA Ghanangula GL Ghanloka H Hasta Jagshreni JDP Jambudvip-pannatti JP Jagpratar K Khanduka SK PL Pra ТР Pramanangula Pramana Yojan Rajvartika/Tattwarthvartika Suchyangula Satkhandagama-1 Pratarloka Pratarangula Trilokpragyapti Triloksara Utsedhangula Utsedh Yojan TS UA UY Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________