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जैनागम साहित्य में स्तूप
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स्मरणीय है कि यदि आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक भी जैन स्तूप होते तो ऐसा सामान्य निषेध तो नहीं ही किया जाता । मात्र यह कहा जाता कि अन्य तीर्थिकों के स्तूप एवं स्तूपमह में नहीं जाना चाहिए। इससे यही ज्ञात होता है कि आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रचनाकाल तक जैनेतर परम्पराओं में सामान्य रूप से स्तूप निर्मित होने लगे थे । सम्भवतः आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का रचनाकाल ईसा पूर्व की द्वितीय या तृतीय शताब्दी रहा होगा। क्योंकि इसके बाद मथुरा में जैन स्तूप मिलते हैं । अंग साहित्य में पुनः हमें स्थानांगसूत्र में नन्दीश्वर द्वीप के वर्णन प्रसंग में चैत्यस्तूप और चैत्यवृक्ष का उल्लेख मिलता है । मथुरा में आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अनुसार, महावीर के गर्भापहरण का चित्रण भी मिलता है, अतः मथुरा का स्तूप आचारांग का परवर्ती है । उसमें वर्णित चेत्यस्तूप और चैत्यवृक्ष जैन परम्परा से सम्बन्धित हैं, साथ ही उस समय तक न केवल चैत्यस्तूप बनने लगे थे, अपितु उस पर जिनमूर्तियों की स्थापना होने लग गयी थी । स्थानांगसूत्र में जैन चैत्यस्तूपों का निम्न उल्लेख प्राप्त होता है'नन्दीश्वरद्वीप के ठीक मध्य में चारों दिशाओं में चार अञ्जन पर्वत हैं । वे अञ्जन पर्वत नीचे दस हजार योजन विस्तृत हैं, किन्तु क्रमशः उनका ऊपरी भाग एक हजार योजन चौड़ा है। उन अञ्जन पर्वतों के ऊपर अत्यन्त समतल और रमणीय भूमि-भाग है । उस सम-भूमि-भाग के मध्य में चारों ही अञ्जन पर्वतों पर चार सिद्धायतन अर्थात् जिन-मन्दिर हैं । प्रत्येक जिन मन्दिर की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं । इन चारों द्वारों के आगे चार मुखमण्डप हैं । उन मुखमण्डपों के आगे चार प्रेक्षागृह या रंगशाला मण्डप हैं । पुनः उन प्रेक्षागृहों के आगे मणिपीठिकाएँ हैं । उन मणिपीठिकाओं पर चैत्यस्तूप हैं । प्रत्येक चैत्यस्तूप पर चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाऍ हैं और उन चार मणिपीठिकाओं पर चार जिन प्रतिमाएँ हैं । वे सब रत्नमय, सपयंकासन ( पद्मासन ) की मुद्रा में अवस्थित हैं । पुनः चैत्यस्तूपों के आगे चैत्यवृक्ष हैं । उन चैत्यवृक्षों के आगे मणिपीठिकाओं पर महेन्द्रध्वज हैं । उन महेन्द्रध्वजों के आगे पुष्करिणियाँ हैं और उन पुष्करिणियों के आगे वनखण्ड हैं ।" इस सब वर्णन से ऐसा लगता है कि स्थानांग के रचनाकाल तक सुव्यवस्थित रूप से मन्दिरों
निर्माण की कला का भी विकास हो चुका था और उन मन्दिरों में चैत्य- स्तूप बनाये जाते थे और उन चैत्य- स्तूपों पर पीठिकाएँ स्थापित करके जिन - प्रतिमाएँ भी स्थापित की गई थीं । परवर्ती काल
बौद्ध परम्परा में भी हमें स्तूपों की चारों दिशाओं में बुद्ध प्रतिमाएँ होने के उल्लेख मिलते हैं ।
१. तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उवरिं बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता । तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झ सभागे चत्तारि सिद्धायतणा पण्णत्ता -
तेसि णं दाराणं पुरओ चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता । तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ चत्तारि पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता । तेसि णं पेच्छाघर मंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ । तासि णं मणिपेढियाणं उवरि चत्तारि चत्तारि चेइयथूभा पण्णत्ता ।
सिणं चेइयथूभाणं उवरि चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ ।
तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमाओ सव्वरयणामईओ संपलियंकणिसण्णाओ थूभाभिमुहाओ चिट्ठति, तं जहा - रिसभा, वृद्ध माणा, चंदाणणा, वारिसेणा ।
स्थानांग, ४१३३९ ।
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