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आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा क. अट्ठिमिजाए' ( सूत्र ५२, पाठान्तर-अट्ठिमिज्जाए) ६. प्राचीन के बदले अर्वाचीन रूप ( पद ) का स्वीकृत
क. पण्णाणेणं ( सूत्र ६२, पाठान्तर-पण्णाणेण ) ख. समुट्ठाए (सूत्र १४, २५, ३६, ४०, ४४, ५२, ५९एवं ७०, ९५, १९३ में भी कुछ स्थलों
के पाठान्तर 'समुट्ठाय' संदी०-प्रत को शुद्धतम माना गया है, उसमें भी 'समुट्ठाय' पाठ
मिलता है।) ग. अणुपुव्वीए (सूत्र २३०, पृ० ८४, पं० १३, पाठान्तर-अणुपुत्वीयं; प्राकृत के व्याकरणकारों
ने इस 'य' विभक्ति का उल्लेख नहीं किया है, परन्तु प्राचीन प्राकृत साहित्य में 'य' विभक्ति
के कितने ही उदाहरण मिलते हैं और पालि भाषा में यह प्रचलित विभक्ति है।) ७. लेहिए की गलती से कभी-कभी भ्रम होने से पाठ बदल गया है और प्राचीन विभक्ति के बदले
अर्वाचीन विभक्ति अपनायी गयी हो, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। क. अण्णयरम्मि ( सूत्र ९६, पृ० २८, पं० ११, पाठान्तर-अण्णयरसि )
यह पाठान्तर शुबिंग महोदय द्वारा दिये गये प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रत और चूर्णि में भी उपलब्ध है। प्रतों में 'स्सि' के बदले 'म्मि' की भ्रान्ति होती है, यदि अक्षर स्पष्ट नहीं हो । उदाहरण के तौर पर 'संपमारए' ( जम्बू० सूत्र १५, पृ० ५, पं० १७ एवं शुब्रिग० पृ० २, पं० ३० ) के बदले में शुकिंग के संस्करण में एवं प्राचीनतम ताडपत्र की प्रत में 'संपसारए' पाठ मिलता है और हिंसिसु ( अर्थात् 'हिंसिम्सु' ) के बदले में चूर्णि में 'हिंसिस्सु' ( जम्बू० सूत्र ५२, पृ० १४, पं० १ ) पाठ मिलता है ।
१. स्वीकृत "मिजाए' के बदले 'मिज्जाए' रूप प्राचीन है, जबकि इसी सूत्र नं. ५२ में पिछाए, पुंछाए'
के बदले में 'पिच्छाए, पुच्छाए' रूप स्वीकृत किये गये हैं, तब फिर 'मिज्जाए' रूप क्यों छोड़ दिया गया ? २. तृतीया एकवचन की-एण विभक्ति-एणं से प्राचीन है और यह एण विभक्ति प्राचीनतम प्रत में मिलती है। ३. यह जरूरी नहीं कि सभी जगह एक ही रूप प्रयुक्त हुआ हो। खं० हे० ३ एवं ला० प्रतों में 'समुट्ठाय'
मिलता है और सूत्र नं. ७० में तो संदी० प्रत में भी समुदाय ही मिलता है। संदी० प्रत शुद्धतम मानी गयी है ( देखिए पृ० ४१६ )।
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