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ब्रह्मशान्ति यक्ष
मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी
जैन परम्परा में २४ जिनों ( या तीर्थङ्करों ) के शासन देवताओं के रूप में २४ यक्ष-यक्षी युगलों का निरूपण हुआ है । जैन देवकुल में जिनों के पश्चात् उनसे सम्बद्ध यक्ष-यक्षी युगलों को सर्वाधिक प्रतिष्ठा मिली । २४ यक्ष-यक्षी युगलों के अतिरिक्त जैन परम्परा में कुछ अन्य यक्ष भी लोकप्रिय रहे हैं, जिनमें ब्रह्मशान्ति का महत्त्व सर्वाधिक है । ब्रह्मशान्ति यक्ष के प्राचीनतम उल्लेख ल० ९वीं - १०वीं शती ई० के श्वेताम्बर ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । दिगम्बर परम्परा में ब्रह्मशान्ति यक्ष का उल्लेख नहीं है, इसी कारण दिगम्बर सम्प्रदाय में उनकी मूर्तियाँ भी नहीं बनीं श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में १० वें जिन शीतलनाथ के चतुर्मुख तथा पद्म पर आसीन और आठ या दस भुजाओं वाले ब्रह्म यक्ष का उल्लेख हुआ है, पर लाक्षणिक विशेषताओं की दृष्टि से ब्रह्म यक्ष ब्रह्मशान्ति से सर्वथा भिन्न है । दक्षिण भारत के दिगम्बर सम्प्रदाय में भी ब्रह्मदेव स्तम्भ तथा ब्रह्मक्ष की परम्परा है, किन्तु स्वरूप की दृष्टि से ब्रह्मदेव ब्रह्मशान्ति से पूरी तरह अलग है ।" ब्रह्मशान्ति यक्ष की उत्पत्ति, उसके पूर्वभव एवं प्रतिमालक्षणों की चर्चा उमाकान्त शाह ने " ब्रह्मशान्ति यक्ष" शीर्षक लेख में विस्तार से की है ।
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ब्रह्मशान्ति यक्ष के पूर्वभव की कथा सर्वप्रथम जिनप्रभसूरिकृत कल्पप्रदीप ( १४ वीं शती ई०) के "सत्यपुरतीर्थकल्प" में दी गई है ।" ग्रन्थ के अनुसार ब्रह्मशान्ति यक्ष (बंभसंतिजक्ख) पूर्वभव में शूलपाणि यक्ष था, जिसने महावीर की तपस्या में अनेक प्रकार के कठिन उपसर्ग उपस्थित किये थे । उपसर्ग का कोई असर न होने के बाद शूलपाणि यक्ष महावीर का भक्त बन गया और उसी समय से उसे ब्रह्मशान्ति यक्ष कहा जाने लगा । प्रारम्भिक ग्रन्थों में शूलपाणि यक्ष के कई उल्लेख प्राप्त होते हैं, किन्तु उनमें कहीं भी उसका ब्रह्मशान्ति यक्ष से सम्बन्ध नहीं बताया गया । इस आधार पर उमाकान्त शाह ने जो माना है कि जिनप्रभसूरि ने शूलपाणि और ब्रह्मशान्ति यक्षों की दो अलगअलग परम्पराओं को मिला दिया था, यह उचित ही है ।
उपलब्ध प्रमाणों से ब्रह्मशान्ति यक्ष की परम्परा को ९वीं - १०वीं शती ई० के पूर्व नहीं ले जाया जा सकता है । ब्रह्मशान्ति यक्ष का निरूपण सबसे पहले निर्वाण कलिका ( पादलिप्तसूरि III कृत, ल० ९०० ई०) एवं स्तुतिचतुर्विंशतिका (शोभनमुनिकृत, ल० ९७३ ई०) में हुआ है । जिनप्रभसूरि के अनुसार वि० संवत् १०८१ ( = ई० १०२४ ) में सत्यपुर ( सच्चउर - साचौर, राजस्थान) में
१. द्रष्टव्य, शाह, यू०पी०, "ब्रह्मशान्ति ऐण्ड कपर्दी यक्षज,” जर्नल आफ एम० एस० युनिर्वासटी ऑव बड़ौवा, खं० ७, अं० १ मार्च १९५८, पृ० ६३-६५ ।
२. वही, पृ० ५९-६५ ॥
३. विविधतीर्णकल्प, ( जिनप्रभसूरिकृत ), सम्पा० जिनविजय, भाग १, सिंधी जैन ग्रन्थमाला - १०,
शान्तिनिकेतन ( बङ्गाल ), १९३४, पृ० २८-३० ॥
४. शाह, यू०पी०, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० ६२-६३ ॥
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