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भागचंद जैन भास्कर
शब्द समानार्थक हैं।' ज्ञान को विज्ञान भी कहा गया है, जो आत्मा के गुण हैं। बौद्धधर्म के चित्त और विज्ञान भी आत्मा का वही कार्य करते हुए दिखाई देते हैं।
जैनदर्शन में मन को आभ्यन्तर इन्द्रिय माना गया है। उसे अतीन्द्रिय और अन्तःकरण भी कहा जाता है। यह मन दो प्रकार का होता है-द्रव्यमन और भावमन । हृदय स्थान में अष्ट पांखड़ी के कमल के आकार रूप पुद्गलों की रचना विशेष द्रव्यमन है। सूक्ष्म होने के कारण इसे 'ईषत
न्दिय' भी कहा जाता है। संकल्प-विकल्पात्मक परिणाम रूप ज्ञान की अवस्था विशेष को भावमन कहते हैं । भावमन ज्ञान स्वरूप है और ज्ञान जीव का गुण होने से आत्मा में अन्तर्भूत हो जाता है।
बौद्धधर्म में मन को इन्द्रियों के अन्तर्गत रखा गया है, पर जैनधर्म उसे इन्द्रिय नहीं मानता। इसका मूल कारण यह है कि यहाँ आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहा गया है। जिस प्रकार शेष इन्द्रियों का बाह्य इन्द्रियों से ग्रहण होता है, उस प्रकार मन का नहीं होता। इसलिए उसे इन्द्रिय का लिंग नहीं कह सकते । जीव अथवा आत्मा
जैनधर्म विशुद्ध आत्मवादी धर्म है, जबकि बौद्धधर्म अनात्मवादी अथवा निरात्मवादो । बौद्धधर्म की निरात्मवादिता उसके विकास के इतिहास में प्रतिबिम्बित होती है। उसने आत्मा को वस्तु सत् नहीं माना, बल्कि उसे प्रज्ञप्तिसत् स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, वहाँ यह भी कहा गया है कि आत्मवादिता क्लेशोत्पादिका है और संसार का मूल कारण है। उत्तरकालीन बौद्ध साहित्य में तो इस मत को तर्कनिष्ठवृत्ति से प्रस्तुत किया गया है और यह कहा गया है कि आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती। प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण उसके पृथक् सद्भाव को सिद्ध नहीं कर पाते।
बौद्धदर्शन में आत्मा के अस्तित्व को स्पष्ट रूप से भले ही स्वीकार न किया गया हो, पर 'चित्तसंतति' शब्द देकर उसके रिक्त स्थान की पूर्ति अवश्य कर दी है। इसके अनुसार पूर्व चित्त का नाश और उत्तर चित्त का उत्पाद होता है। चित्त की यह संतति अनादि काल से प्रवृत्त हो रही है और आगे भी होती रहती है।
जैनदर्शन चित्त संतति के समकक्ष ज्ञानपर्यायों को मानता है। ये ज्ञानपर्यायें प्रत्येक क्षण परिवर्तित होती रहती हैं अर्थात् पूर्वज्ञान का विनाश होते हो उत्तर ज्ञानपर्याय उत्पन्न हो जातो है । बौद्ध पर्यायवादी हैं, अतः ज्ञान तो है पर उसका आश्रय रूप कोई द्रव्य नहीं। जबकि जैन द्रव्यवादी हैं और द्रव्यपर्यायात्मक होने के कारण ज्ञान को जीव द्रव्य का गुण स्वीकार करते हैं और उसको विविध अवस्थाओं को उसका पर्याय । यह दोनों सिद्धान्तों में अन्तर है।
१. नियमसार, ता० वृ० ११६ । २. सर्वार्थ सिद्धि, ५.१९ । ३. धवला, १.१.१.३५ । ४. विशेष देखिए, लेखक की पुस्तक "बौद्ध संस्कृति का इतिहास" पृ० ८८-९२ ।
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