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भागचंद जैन भास्कर
२. संतान की अन्तिम परिणति तो निर्वाण में चित्तसंतति की समलोच्छिन्नता के रूप में द्रष्टव्य
है । परन्तु द्रव्य का समूलोच्छेद कभी नहीं होता। वह तो अर्थ-पर्याय के रूप में परिणमन
करता रहता है। ३. द्रव्य, ध्रौव्य और गुण समानार्थक शब्द हैं। 'ध्रौव्य' या 'द्रव्य' में जो अन्वयांश है, वह
'सन्तान' में नहीं।
इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि जैनदर्शन द्रव्य की अनेकान्तिक व्यवस्था करता है। उसकी दृष्टि में प्रत्येक द्रव्य अनंतधर्मात्मक है। उसमें कुछ धर्म सामान्यात्मक होते हैं और कुछ विशेषात्मक । सामान्य द्रव्यात्मक हैं और विशेष पर्यायात्मक । सामान्य के दो भेद हैं-तिर्यक् सामान्य ( सादृश्यास्तित्व ) और अवंता सामान्य ( स्वरूपास्तित्व )। इसी प्रकार विशेष के भी दो प्रकार हैं-तिर्यक् विशेष और ऊर्ध्वता विशेष ।
बौद्धदर्शन सामान्य को वस्तु सत् नहीं मानता, वह तो उसे कल्पित मानता है। एकाकार प्रत्यय होने से अभेद दिखाई देने लगता है । वस्तुतः उनमें अभेद नहीं, भेद ही है । एकाकार परामर्श होने का कारण विजातीय व्यावृत्ति है। एक ही गो को अगो व्यावृत्त होने से गो कहा जाता है, अपशु व्यावृत्त होने से पशु कहा जाता है, अद्रव्य व्यावृत्त होने से द्रव्य कहा जाता है और असद् व्यावृत्त होने से सत् कहा जाता है। इस प्रकार व्यावृत्ति के भेद से जातिभेद की कल्पना की जाती है। जितनी परवस्तुएँ हों, उतनी व्यावृत्तियाँ उस वस्तु में कल्पित की जा सकती हैं । अतएव सामान्य बुद्धि का विषय वस्तु सत् सामान्य नहीं, किन्तु अन्यापोह हो मानना चाहिए
एकार्थ प्रतिभासिन्या, भावान्नाश्रित्य भेदतः । पररूपं स्वरूपेण, यया संवियते धिया ॥ तया संवृत नानात्वा, संवृत्या भेदिनः स्वयं । अभेदिन इवाभान्ति, भेदा रूपेण केनचित् ।। तस्या अभिप्रायवशात्, सामान्यं सत् प्रकोर्तितं । तदसत् परमार्थेन, यथा संकल्पितं तया ॥२ तस्माद् यतो यतोऽर्थानां, व्यावृत्तिस्तन्निबन्धनाः।
जातिभेदाः प्रकल्प्यन्ते, तद्विशेषावगाहिनः ॥ बौद्धों के इस अवस्तुरूप सामान्यवाद को जैनों ने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अनेकान्तवाद पर आधारित सामान्य की कल्पना की। उनका मत है कि सादृश्य प्रत्यय पर्यायनिष्ठ और व्यक्तिनिष्ठ रहता है, अतः अनेक है । तिर्यक्सामान्य एक काल में अनेक देशों में स्थित अनेक पदार्थों में समानता की अभिव्यक्ति करता है और ऊर्ध्वतासामान्य उसके ध्रौव्यात्मक तत्त्व पर विचार करता है। जैनों का यह सामान्यवाद सांख्य के परिणामवाद से मिलता-जुलता है । वेदान्त का
१. दिशं न काश्चिद्विदिशं न काश्चित, नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम ।
दीपो यथा नितिमप्युपेतः, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥-सौन्दरानन्द, १६.२८-२९ । २. प्रमाणवार्तिक, ३, ६७-६९ । ३. वही, ३, ४०, ३, १३३ ।
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