Book Title: Agam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मा एकर मान त्रीणि चेदसत्राणि. [ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र] (मूल अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पाटीटाट युक्त) neration international Pe Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क ३२-आ {परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज को पुण्यस्मृति में प्रायोजित त्रीणि छेदसूत्राणि दशाश्रुतस्कन्ध - बृहत्कल्प व्यवहारसूत्र [मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, टिप्पण युक्त] प्रेरणा (स्व.) उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री बजलालजी महाराज संयोजक तथा प्राद्य सम्पादक (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक --- विवेचक---सम्पादक अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' गीतार्य श्री तिलोकमुनिजी म० प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ ३२-आ / निर्देशन ___ साध्वी श्री उमरावकुवर 'अर्चना' / सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि 0 सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' [प्रथम संस्करण वीर निर्वाण सं०२५१७ विक्रम सं० 2048 जनवरी 1992 ई. / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ ] मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ D मूल्य 160) रुपाने : . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisbed at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj TREENI CHHEDSUTRANI Dashashrutskandha Brihatkalpa Vyavhar Sutras ( Original Text with Variant Readings, Hindi Version, Notes and Annotations etc. ] Inspiring Soul (Late) Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Shri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Shri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Trabslator-Annotator-Editor Anuyoga Pravartaka Muni Shri Kanbaiyalalji 'Kamal' Geetarth Shri Tilokmuniji Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publicatios No. 32-B O Direction Sadhwi Shri Umravkunwar 'Archana' Board of Editors Anuyogapravartaka Muni Shri Kanbaiyalalji 'Kamal' Upacharya Shri Devendra Muni Shastri Shri Ratan Muni O Promotor Muni Shri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendra Muni 'Dinakar' First Edition Vir-Nirvana Samvat 2517 Vikram Samvat 2048, January 1992. O Publisher Shri Agam Prakashan Samiti, Shri Brij-Madhukar Smriti Bhawan, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Price Rs Gtd +75| Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण निरतिचार संयमसाधना में सतत संलग्न रहने वाले अतीत, अनागत और वर्तमान के सभी श्रुतधर स्थविरों के करकमलों में। समर्पक अनुयोगप्रवर्तक मुनि कन्हैयालाल 'कमल' गीतार्थ तिलोकमुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय "त्रीणि छेदमुत्राणि' शीर्षक के अन्तर्गत दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार ये तीन छेदमूत्र प्रकाशित है। पृष्ठ मर्यादा अधिक होने से निशीथमुत्र को पृथक ग्रन्थांक के रूप में प्रकाशित किया है / इन चारों छेदसूत्रों का अनुवाद. विवेचन, संपादन अादि का कार्य मुख्य रूप से अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' के सान्निध्य में गीतार्थ मुनि श्री तिलोकमुनिजी ने वहुत परिश्रम. लगन और मनोयोगपूर्वक किया है। अताव पाठकगण छेदम्त्रों सम्बन्धी अपनी जिज्ञासानों के समाधान के लिए मुनि श्री तिलोकमुनिजी से संपर्क बनायें। आगमबत्तीमी के अंतिम वर्ग में छदसूत्रों का समावेश है। इनके प्रकाशन के साथ सभी आगमों का प्रकाशन कार्य संपन्न हो गया है / अताव उपमहार के रूप में ममिति अपना निवेदन प्रस्तुत करती है-- श्रमणमंध के युवाचार्यश्री स्व. श्रद्धय मधुकरमुनिजी म. सा. जब अपने महामहिम गुरुदेवश्री जोरावरमलजी म. सा. में प्रागमों का अध्ययन करते थे तब गुरुदेवश्री ने अनेक बार अपने उद्गार व्यक्त किये थे कि प्रागमों को उनकी टीकानों का मारांश लेकर सरल सुबोध भाषा, शैली में उपलब्ध कराया जाये तो पठन-पाठन के लिये विशेष उपयोगी होगा। गुरुदेवश्री के इन उदगारों में बवाचार्यश्री जी को प्रेरणा मिली। अपने ज्येष्ठ गहम्राता स्वामीजी श्री हजारीमलजी म., स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. से चर्चा करते, योजना बनाते और जब अपनी ओर मे योजना को पूर्ण पद दिया तब विद्वद्वर्य मुनिराजों, विदुषी साध्वियों को भी अपने विचारों में अवगत कराया। सद्गृहस्थों से परामर्श किया / इम प्रकार मभी और में योजना का अनुमोदन हो गया तब वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला 10 श्रमणभगवान महावीर के कैवल्यदिवस पर भगवान की देशना रूप पागमबत्तीसी के संपादन, प्रकाशन को प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी गई और निर्धारित रीति-नीति के अनुसार कार्य प्रारम्भ हो गया। युवाचार्य चादर-प्रदान महात्मव दिवस पर ग्राचारांगम्त्र को जिनागम ग्रन्थमाला ग्रन्यांक 1 के रूप में पाठकों के अध्ययनार्थ प्रस्तुत किया। यह प्रकाशन-परम्पग प्रवाध गति में चल रही थी कि दारुणप्रसंग उपस्थित हो गया. अवसाद की गहरी घटायें घिर ग्राई। योजनाकार युवाचार्यश्री दिवंगत हो गये। यह मामिक ग्राघात था। किन्तु साहम और स्व. युवाचार्यश्री के वरद पाशीर्वादों का संबल लेकर समिति अपने कार्य में तत्पर रही। इसी का सुफल है कि ग्रागमवतीसी के प्रकाशन के जिस महान कार्य को प्रारम्भ किया था, वह यथाविधि सम्पन्न कर सकी है। ममिति अध्यात्मयोगिनी विदुषी महामती श्री उमरावकूवरजी म. सा. "अर्चना" की कृतज्ञ है। अपने मार्ग-दर्शन और युवाचार्यश्री के रिक्त स्थान की पुति कर कार्य को पूर्ण करने की प्रेरणा दी। पद्मश्री मोहनमलजी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा. चोरडिया, श्री चिम्मतसिंहजी लोढ़ा, श्री पुखराजजी शिशोदिया, श्री चांदमलजी बिनायकिया, पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल अादि व अन्यान्य अजात कर्मठ महयोगीयों का जो अब हमारे बीच नहीं हैं, स्मरण कर श्रद्धांजलि समर्पित करती है। अंत में समिति अपने सहयोगी परिवार के प्रत्येक सदस्य को धन्यवाद देती है। इनके सहकार में जैन वाङमय की चतुर्दिक-चतुर्गणित श्रीवृद्धि कर मकी है। हम तो इनके मार्गदर्शन में मामान्य कार्यवाहक की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष अमरचन्द मोदी सायरमल चोरडिया महामंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ अमरचन्द मोदी मंत्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय छेद-सूत्र : समीक्षात्मक विवेचन पागमों की संख्या स्थानकवासी जैन परंपरा जिन आगमों को वीतराग-वाणी के रूप में मानती है, उनकी संख्या 32 है। वह इस प्रकार है-ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और एक आवश्यक / श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परंपरा के अनुसार पैंतालीस आगम हैं। अंग, उपांग आदि की संख्या तो समान है। किन्तु प्रकीर्णकों और छेदसूत्रों में निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प व व्यवहारसूत्र के साथ महानिशीथ और पंचकल्प को अधिक माना है। अंग, उपांग आदि आगमों में धर्म, दर्शन, आचार, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, कला आदि साहित्य के सभी अंगों का समावेश है / परन्तु मुख्य रूप से जैन दर्शन और धर्म के सिद्धान्तों और आचारों का विस्तार से वर्णन किया गया है। अंग, उपांग, मूलवर्ग में प्रायः सैद्धान्तिक विचारों की मुख्यता है। आचारांग, उपासक दशांग और प्रावश्यक सूत्रों में प्राचार का विस्तार से वर्णन किया है। छेदसूत्र आचारशुद्धि के नियमोपनियमों के प्ररूपक हैं। प्रस्तुत में छेदसूत्रों सम्बंधी कुछ संकेत करते हैं। छेदसूत्र नाम क्यों? छेद शब्द जैन परम्परा के लिये नवीन नहीं है। चारित्र के पांच भेदों में दूसरे का नाम छेदोपस्थापनाचारित्र है / कान, नाक प्रादि अवयवों का भेदन तो छेद शब्द का सामान्य अर्थ है, किन्तु धर्म-सम्बन्धी छेद का लक्षण इस प्रकार है वज्झाणुटाणेणं जेण ण बाहिज्जए तये णियया। संभवइ य परिसुद्ध' सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति / जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो और जिससे निर्मलता की वद्धि हो, उसे छेद कहते हैं। अतएव छेदोपस्थापना का लक्षण यह हुआ-पुरानी सावध पर्याय को छोड़कर अहिंसा प्रादि पांच प्रकार के यमरूप धर्म में आत्मा को स्थापित करना छेदोपस्थापनासंयम है। अथवा जहाँ हिंसा, चोरी इत्यादि के भेद पूर्वक सावध क्रियाओं का त्याग किया जाता है और व्रतभंग हो जाने पर इसकी प्रायश्चित्त आदि से शुद्धि की जाती है, उसको छेदोपस्थापना संयम कहते हैं। यह निरतिचार और सातिचार के भेद से दो प्रकार का है। निरतिचार छेदोपस्थापना में पूर्व के सर्वसावद्यत्याग रूप सामायिक चारित्र के पृथक-पृथक अहिंसा आदि पंच महाव्रत रूप भेद करके साधक को स्थापित किया जाता है। सातिचार छेदोपस्थापनाचारित्र में उपस्थापित (पून: स्थापित) करने के लिये आलोचना के साथ प्रायश्चित्त भी आवश्यक है। यह प्रायश्चित्तविधान स्खलनाओं की गंभीरता को देखकर किया जाता है। प्रायश्चित्त दस प्रकार के हैं। इनमें छेदप्रायश्चित्त सातवां है। आलोचनाई प्रायश्चित्त से छेदाह प्रायश्चित्त पर्यन्त सात प्रायश्चित्त होते हैं। ये वेषयुक्त श्रमण को दिये जाते हैं। अंतिम तीन वेषमुक्त श्रमण को दिये जाते हैं। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेषमुक्त श्रमण को दिये जाने वाले प्रायश्चित्तों में छेदप्रायश्चित्त अंतिम प्रायश्चित्त है। इसके साथ पूर्व के छह प्रायश्चित्त ग्रहण कर लिये जाते हैं। मूलाह, अनवस्थाप्याई और पारिञ्चिकाई प्रायश्चित्त वाले अल्प होते हैं। आलोचनाह से छेदाह पर्यन्त प्रायश्चित्त वाले अधिक होते हैं। इसलिये उनकी अधिकता से सहस्राम्रवन नाम के समान दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदसा) बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आगमों को छेदसूत्र कहा जाता है। छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य-विषय उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो जाता है कि साधनामय जीवन में यदि साधक के द्वारा कोई दोष हो जाये कैसे बचा जाये, उसका परिमार्जन कैसे किया जाये, यह छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य-विषय है। इस दृष्टि से छेदसूत्रों के विषयों को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है - 1. उत्सर्गमार्ग, 2. अपवादमार्ग, 3. दोषसेवन, 4 प्रायश्चित्तविधान / 1. जिन नियमों का पालन करना साधु-साध्वीवर्ग के लिये अनिवार्य है। बिना किसी होनाधिकता, परिवर्तन के समान रूप से जिस समाचारी का पालन करना अवश्यंभावी है और इसका प्रामाणिकता से पालन करना उत्सर्गमार्ग है। निर्दोष चारित्र की प्राराधना करना इस मार्ग की विशेषता है। इसके पालन करने से साधक में अप्रमत्तता बनी रहती है तथा इस मार्ग का अनुसरण करने वाला साधक प्रशंसनीय एवं श्रद्धेय बनता है। 2. अपवाद का अर्थ है विशेषविधि / वह दो प्रकार की है--(१) निर्दोष विशेषविधि और (2) सदोष विशेषविधि / सामान्यविधि से विशेषविधि बलवान होती है। आपवादिक विधि सकारण होती है। उत्तरगुणप्रत्याख्यान में जो प्रागार रखे जाते हैं, वे सब निर्दोष अपवाद हैं। जिस क्रिया, प्रवत्ति से प्राज्ञा का अतिक्रमण न होता हो, वह निर्दोष है, परन्तु प्रबलता के कारण मन न होते हुए भी विवश होकर जिस दोष का सेवन करना पड़ता है या किया जाये, वह सदोष अपवाद है / प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है। यह मार्ग साधक को प्रार्त-रौद्र ध्यान से बचाता है। यह मार्ग प्रशंसनीय तो नहीं है किन्तु इतना निन्दनीय भी नहीं कि लोकापवाद का कारण बन जाये। अनाचार तो किसी भी रूप में अपवादविधि का अंग नहीं बनाया या माना जा सकता है। स्वेच्छा और स्वच्छन्दता से स्वैराचार में प्रवृत होना, मर्यादा का अतिक्रमण करते हुए अपने स्वार्थ, मान-अभिमान को सर्वोपरि स्थापित करना, संघ की अवहेलना करना, उद्दण्डता का प्रदर्शन करना, अनुशासन भंग करना अनाचार है। यह अकल्पनीय है, किन्तु अनाचारी कल्पनीय बनाने की युक्ति-प्रयुक्तियों का सहारा लेता है। ऐसा व्यक्ति, साधक किसी भी प्रकार की विधि से शुद्ध नहीं हो सकता है और न शुद्धि के योग्य पात्र है। 3, ४-दोष का अर्थ है उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का भंग करना और उस भंग के शुद्धिकरण के लिये की जाने वाली विधि, प्रायश्चित कहलाती है। प्रबलकारण के होने पर अनिच्छा से, विस्मृति और प्रमादवश जो दोष सेवन हो जाता है, उसकी शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त से शुद्ध होना, यही छेदसूत्रों के वर्णन की सामान्य रूपरेखा है। प्रायश्चित को अनिवार्यता दोषशुद्धि के लिये प्रायश्चित्त का विधान है, उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो जाता है। इसी संदर्भ में यहाँ कुछ विशेष संकेत करते हैं। [10] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगारधर्म के पांच प्राचारों के बीचोंबीच चारित्राचार को स्थान देने का यह हेतु है कि ज्ञानाचारदर्शनाचार तथा तपाचार-वीर्याचार की समन्वित साधना निर्विघ्न सम्पन्न हो, इसका एक मात्र साधन चारित्राचार है / चारित्राचार के आठ विभाग हैं--पांच समिति, तीन गुप्ति / पाँच समितियां संयमी जीवन में निवृत्तिमूलक प्रवृत्तिरूपा हैं और तीन गुप्तियां तो निवृत्तिरूपा ही हैं। इनकी भूमिका पर अनगार की साधना में एक अपूर्व उल्लास, उत्साह के दर्शन होते हैं। किन्तु विषय-कषायवश, राग-द्वेषादि के कारण यदि समिति, गुप्ति और महाव्रतों की मर्यादाओं का अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार यदा-कदा हो जाये तो सुरक्षा के लिये प्रायश्चित्त प्राकार (परकोटा) रूप है। फलितार्थ यह है कि मूलगुणों, उत्तरगुणों में प्रतिसेवना का धुन लग जाये तो उसके परिहार के लिये प्रायश्चित्त अनिवार्य है। छेदप्रायश्चित्त की मुख्यता का कारण प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं। इनमें प्रारंभ के छह प्रायश्चित्त सामान्य दोषों की शुद्धि के लिये हैं और अंतिम चार प्रायश्चित्त प्रबल दोषों को शुद्धि के लिये हैं। छेदार्ह प्रायश्चित्त में अंतिम चार प्रायश्चित्तों में प्रथम प्रायश्चित्त है। व्याख्याकारों ने इसकी व्याख्या करते हए आयुर्वेद का एक रूपक प्रस्तुत किया है। उसका भाव यह है--किसी व्यक्ति का अंग-उपांग रोग या विष से इतना अधिक दूषित हो जाये कि उपचार से उसके स्वस्थ होने की संभावना ही न रहे तो शल्यक्रिया से उस अंग-उपांग का छेदन करना उचित है, पर रोग या विष को शरीर में व्याप्त नहीं होने देना चाहिये। क्योंकि ऐसा न करने पर अकालमृत्यु अवश्यंभावी है। किन्तु अंगछेदन के पूर्व वैद्य का कर्तव्य है कि रुग्ण व्यक्ति और उसके निकट संबंधियों को समझाये कि अंग-उपांग रोग से इतना दूषित हो गया है कि अब पोषधोपचार से स्वस्थ होने की संभावना नहीं है। जीवन की सुरक्षा और वेदना की मुक्ति चाहें तो शल्यक्रिया से अंग-उपांग का छेदन करवा लें। यद्यपि शल्यक्रिया से अंग-उपांग का छेदन करते समय तीव्र वेदना होगी पर होगी थोड़ी देर, किन्तु शेष जीबन वर्तमान जैसी वेदना से मुक्त रहेगा। इस प्रकार समझाने पर वह रुग्ण व्यक्ति और उसके अभिभावक अंग-छेदन के लिये सहमत हो जाये तो चिकित्सक का कर्तव्य है कि अंग-उपांग का छेदन कर शरीर और जीवन को व्याधि से बचावे / __ इस रूपक की तरह प्राचार्य आदि अनगार को समझायें कि दोष प्रतिसेवना से आपके उत्तरगुण इतने अधिक दूषित हो गये हैं कि अब उनकी शुद्धि आलोचनादि सामान्य प्रायश्चित्तों से संभव नहीं है। अब आप चाहें तो प्रतिसेवनाकाल के दिनों का छेदन कर शेष संयमी जीवन को सुरक्षित किया जाये। अन्यथा न समाधिमरण होगा और न भवभ्रमण से मुक्ति होगी। इस प्रकार समझाने पर वह अनगार यदि प्रतिसेवना का परित्याग कर छेदप्रायश्चित्त स्वीकार करे तो प्राचार्य उसे छेदप्रायश्चित्त देकर शुद्ध करें। यहाँ यह विशेष जानना चाहिये कि छेदप्रायश्चित्त से केवल उत्तरगुणों में लगे दोषों की शुद्धि होती है। मूलगुणों में लगे दोषों की शुद्धि मूलाह आदि तीन प्रायश्चित्तों से होती है। छेदसूत्रों की वर्णनशैली __ छेदसूत्रों में तीन प्रकार के चारित्राचार प्रतिपादित हैं--(१) हेयाचार, (2) ज्ञेयाचार, (3) उपादेयाचार / इनका विस्तृत विचार करने पर यह रूप फलित होता है (1) विधिकल्प, (2) निषेधकल्प, (3) विधिनिषेधकल्प, (4) प्रायश्चित्तकल्प, (5) प्रकीर्णकः / इनमें से प्रायश्चित्तकल्प के अतिरिक्त अन्य विधि-कल्पादिक के चार विभाग होंगे [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) निर्ग्रन्थों के विधिकल्प, (2) निग्रंथियों के विधिकल्प, (3) निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के विधिकल्प, (4) सामान्य विधिकल्प / इसी प्रकार निषेधकल्प आदि भी समझना चाहिये / जिन सूत्रों में 'कप्पई' शब्द का प्रयोग है, वे विधिकल्प के सूत्र हैं। जिनमें 'नो कप्पई' शब्द प्रयोग है, वे निषेधकल्प के सूत्र हैं। जिनमें 'कप्पई' और 'नो कप्पई' दोनों का प्रयोग है वे विधि-निषेधकल्प के सुत्र हैं और जिनमें 'कप्पई' और 'नोकप्पई' दोनों का प्रयोग नहीं है वे विधानसुत्र हैं। प्रायश्चित्तविधान के लिये सूत्रों में यथास्थान स्पष्ट उल्लेख है। छेदसूत्रों में सामान्य से विधि-निषेधकल्पों का उल्लेख करने के बाद निर्ग्रन्थों के लिये विधिकल्प और निषेधकल्प का स्पष्ट संकेत किया गया है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थी के विधि-निषेधकल्प का कथन है। दोनों के लिये क्या और कौन विधि-निषेधकल्प रूप है और प्रतिसेवना होने पर किसका कितना प्रायश्चित्त विधान है, उसकी यहां विस्तृत सूची देना संभव नहीं है। ग्रन्थावलोकन से पाठकगण स्वयं ज्ञात कर लें। प्रायश्चित्तविधान के दाता-आदाता की योग्यता दोष के परिमार्जन के लिये प्रायश्चित्त विधान है। इसके लेने और देने वाले की पात्रता के सम्बन्ध में छेदसूत्रों में विस्तृत वर्णन है। जिसके संक्षिप्त सार का यहां कुछ संकेत करते हैं। अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार दोष सेवन के कारण हैं / किन्तु जो वक्रता और जड़ता के कारण दोषों की आलोचना सहजभाव से नहीं करते हैं, वे तो कभी भी शुद्धि के पात्र नहीं बन सकते हैं / यदि कोई मायापूर्वक आलोचना करता है तब भी उसकी आलोचना फलप्रद नहीं होती है। उसकी मनोभूमिका अालोचना करने के लिये तत्पर नहीं होती तो प्रायश्चित्त करना आकाशकुसुमबत् है। उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि आलोचक ऋजु, छलकपट से रहित मनस्थितिवाला होना चाहिये। उसके अंतर् में पश्चात्ताप की भावना हो, तभी दोषपरिमार्जन के लिये तत्पर हो सकेगा। इसी प्रकार प्रालोचना करने वाले की आलोचना सुनने वाला और उसकी शुद्धि में सहायक होने का अधिकारी वही हो सकेगा जो प्रायश्चित्तविधान का मर्मज्ञ हो, तटस्थ हो, दूसरे के भावों का वेत्ता हो, परिस्थिति का परिज्ञान करने में सक्षम हो, स्वयं निर्दोष हो, पक्षपात रहित हो, प्रादेय वचन वाला हो। ऐसा वरिष्ठ साधक दोषी को निर्दोष बना सकता है। संघ को अनुशासित एवं लोकापवाद, भ्रांत धारणाओं का शमन कर सकता है। इस संक्षिप्त भूमिका के आधार पर अब इस ग्रन्थ में संकलित-१. दशाश्रुतस्कन्ध, 2. बृहत्कल्प और 3. व्यवहार, इन तीन छेदसूत्रों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हैं। (1) दशाश्रुतस्कन्ध अथवा प्राचारदशा समवायांग, उत्तराध्ययन और आवश्यकसूत्र में कल्प और व्यवहारसूत्र के पूर्व आयारदसा (आचारदशा) या नाम कहा गया है। अतः छेदसूत्रों में यह प्रथम छेदसूत्र है। स्थानांगसूत्र के दसवें स्थान में इसके दस अध्ययनों का उल्लेख होने से 'दशाश्रुतस्कन्ध' यह नाम अधिक प्रचलित हो गया है। दस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं१. असमाधिस्थान, 2, सबलदोष, 3. अाशातना, 4. गणिसम्पदा, 5. चित्तसमाधिस्थान, 6. उपासकप्रतिमा, 7. भिक्षप्रतिमा, 8. पर्युषणाकल्प 9. मोहनीयस्थान और 10. आयतिस्थान / इन दस अध्ययनों में असमाधिस्थान, [12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तसमाधिस्थान, मोहनीयस्थान और आयतिस्थान में जिन तत्त्वों का संकलन किया गया है, वे वस्तुतः योगविद्या से संबद्ध हैं। योगशास्त्र से उनकी तुलना की जाये तो ज्ञात होगा कि चित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए प्राचारदशा के दस अध्ययनों में ये चार अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है / उपासकप्रतिमा और भिक्षुप्रतिमा श्राबक व श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं / पर्युषणाकल्प में पर्युषण रब करना चाहिये, कैसे मनाना चाहिये...? कब मनाना चाहिये, इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। सबलदोष और आशातना इन दो दशानों में साधुजीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिये। इनमें जो त्याज्य हैं, उनका दृढ़ता से त्याग करना चाहिये और जो उपादेय हैं, उनका पालन करना चाहिये। चतुर्थ दशागणिसंपदा में आचार्यपद पर विराजित व्यक्ति के व्यक्तित्व, प्रभाव तथा उसके शारीरिक प्रभाव का अत्यन्त उपयोगी वर्णन किया गया है। प्राचार्यपद की लिप्सा में संलग्न व्यक्तियों को प्राचार्यपद ग्रहण करने के पूर्व इनका अध्ययन करना आवश्यक है। इस प्रकार यह दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदशा) सत्र श्रमणजीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रकारान्तर से दशाश्रतस्कन्ध की दशाओं के प्रतिपाद्य का उल्लेख इस रूप में भी हो सकता हैप्रथम तीन दशानों और अंतिम दो दशाओं में साधक के हेयाचार का प्रतिपादन है। चौथी दशा में अगीतार्थ अनगार के ज्ञेयाचार का और गीतार्थ अनगार के लिये उपादेयाचार का कथन है। पांचवी दशा में उपादेयाचार का निरूपण है। छठी दशा में अनगार के लिये जयाचार और सागार (श्रमणोपासक) के लिये उपादेयाचार का कथन है। सातवी दशा में अनगार के लिये उपादेयाचार और सागार के लिये ज्ञेयाचार का कथन किया है। आठवीं दशा में अनगार के लिये कुछ ज्ञेयाचार, कुछ हेयाचार और कुछ उपादेयाचार है। इस प्रकार यह आचारदशा-दशाश्रुतस्कंध अनगार और सागार दोनों के लिये उपयोगी है। कल्प, व्यवहार आदि छेदसूत्रों में भी हेय, ज्ञेय और उपादेय प्राचार का कथन किया गया है। (2) बृहत्कल्पसूत्र कल्प शब्द अनेक अर्थों का बोधक है, इस शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है। वेद के छहः अंग हैं उनमें एक वह अंग है जिसमें यज्ञ प्रादि कर्मकाण्डों का विधान है, वह अंग कल्प कहलाता है। कालमान के लिये भी कल्प शब्द का प्रयोग मिलता है। चौदह मन्वन्तरों का कालमान कल्प शब्द से जाना जाता है। उसमें चार अरब, बत्तीस करोड़ वर्ष बीत जाते हैं। इतने लम्बे काल की संज्ञा को कल्प कहा है। सदृश अर्थ में भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे कि श्रमणकल्प, ऋषिकल्प इत्यादि / कल्प शब्द उस वृक्ष के लिए भी प्रयुक्त होता है जो वृक्ष मनोवांछित फल देने वाला है, वह कल्पवृक्ष कहलाता है। राज्यमर्यादा के लिए भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है। बारहवें देवलोक तक राजनीति की मर्यादा है। इसी कारण उन देवलोकों को 'कल्प देवलोक' कहा जाता है। मर्यादा वैधानिकरीति से जो भी कोई जीवन चलाता है, वह अवश्य ही सुख और सम्पत्ति से समृद्ध बन जाता है। प्रस्तुत शास्त्र का नाम जिस कल्प शब्द से चरितार्थ किया है, वह उपर्युक्त अर्थों से बिल्कुल भिन्न है। [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रसंग में कल्प शब्द का अर्थ धर्म-मर्यादा है। साधु आचार ही धर्म-मर्यादा है। जिस शास्त्र में धर्ममर्यादा का वर्णन हो बह कल्प है, नाम विषयानुरूप ही है। जिस शास्त्र का जैसा विषय हो वैसा नाम रखना यथार्थ नाम कहलाता है। साधुधर्म के आन्तरिक और बाह्य-आचार का निर्देश एवं मर्यादा बताने वाला शास्त्र कल्प कहलाता है। जिस सूत्र में भगवान महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभदेव का जीवनवृत्त है, उस शास्त्र के अंतिम प्रकरण में साधु समाचारी का वर्णन है। वह पर्युषणाकल्प होने से लघुकल्प है। उसकी अपेक्षा से जिसमें साधु-मर्यादा का वर्णन विस्तृत हो, वह वहत्वल्प कहलाता है। इसमें सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि इन तीनों चारित्रों के विधि विधानों का सामान्य रूप से वर्णन है / बृहत्कल्प शास्त्र में जो भी वर्णन है उन सबका पालन करना उक्त चारित्रशीलों के लिये अवश्यंभावी है / विविध सूत्रों द्वारा साधु साध्वी की विविध मर्यादाओं का जिसमें वर्णन किया गया है, उसे बहत्कल्पसूत्र कहते है / प्राकृत भाषा में बिहक्कप्पसुत्तं रूप बनता है। प्रस्तुत "कप्पसुत्तं" (कल्पसूत्र) और “कप्पसुय" (कल्पश्रुत) एक हैं या भिन्न हैं ? यह आशंका अप्रासंगिक है, क्योंकि "कप्पसुत्तं" कालिक आगम है। अाचारदशा अर्थात् दशाश्रुतस्कन्ध का आठवां अध्ययन "पर्युषणाकल्प" है, इसमें केवल वर्षावास की समाचारी है। कुछ शताब्दियों पहले इस “पर्युषणाकल्प" को तीर्थंकरों के जीवनचरित्र तथा स्थविरावली से संयुक्त कर दिया गया था। यह शनैः-शनै: कल्पसूत्र के नाम से जनसाधरण में प्रसिद्ध हो गया। इस कल्पसूत्र से प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम भिन्न दिखाने के लिए प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम बहत्कल्पसूत्र दिया गया है। वास्तव में बृहत्कल्पसूत्र नाम के आगम का किसी आगम में उल्लेख नहीं है। नन्दीसत्र में इसका नाम "कप्पो" है / कप्पसुयं के दो विभाग हैं "चुल्लकप्पसुयं" और "महाकप्पसुर्य" / इसी प्रकार "कप्पियाकप्पियं" भी उत्कालिक आगम है। ये सब प्रायश्चित्त-विधायक आगम हैं, पर ये विच्छिन्न हो गये हैं ऐसा जैनसाहित्य के इतिहासज्ञों का अभिमत है। कल्प वर्गीकरण प्रस्तुत "कल्पसुत्तं" का मूल पाठ गद्य में है और 473 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण है / इसमें 81 विधि-निषेधकल्प हैं / ये सभी कल्प पांच समिति और पांच महाव्रतों से सम्बन्धित हैं / अतः इनका वर्गीकरण यहाँ किया गया है। जिन सूत्रों का एक से अधिक समितियों या एक से अधिक महाव्रतों से सम्बन्ध है, उनका स्थान समिति और महाव्रत के संयुक्त विधि-निषेध और महाव्रतकल्प शीर्षक के अन्तर्गत है। उत्तराध्ययन अ० 24 के अनुसार ईर्यासमिति का विषय बहुत व्यापक है, इसलिए जो सूत्र सामान्यतया ज्ञान, दर्शन या चारित्र आदि से सम्बन्धित प्रतीत हुए हैं उनको "ईर्यासमिति के विधि-निषेधकल्प" शीर्षक के नीचे स्थान दिया है। वर्गीकरणदर्शक प्रारूप इस प्रकार है (1) ईर्यासमिति के विधि-निषेध कल्प—१. चारसूत्र, 2. अध्वगमनसूत्र, 3. आर्यक्षेत्रसूत्र, 4. महानदीसूत्र, 5. बैराज्य–विरुद्धराज्यसूत्र, 6. अन्तगृहस्था, 7. वाचनासूत्र, 8. संज्ञाप्यसूत्र, 9. गणान्तरोपसम्पत्सूत्र, 10. कल्पस्थितिसूत्र / 1. अभिधान राजेन्द्र : भाग तृतीय पृष्ठ 239 पर "कप्पसुयं" शब्द का विवेचन / [14] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) ईर्यासमिति और परिष्ठापनिकासमिति के संयुक्त विधि-निषेधकल्प---११. विचारभूमिविहारभूमिसूत्र / (3) भाषा-समिति के विधि-निषेधकल्प-१२. वचनसूत्र, 13. प्रस्तारसूत्र, 14. अन्तरगृहस्थानादिसूत्र, (4) एषणासमिति के विधि-निषेधकल्प [आहारषणा] -- 15. प्रलम्बसूत्र, 16. रात्रि भक्तसूत्र, 17. संखतिसूत्र, 18. सागारिक-पारिहारिकसूत्र, 19. आहुतिका-निहति कासूत्र, 20. अंशिकासूत्र, २१.कालक्षेत्रातिक्रान्तसूत्र, 22. कल्पस्थिताकल्पस्थितसूत्र, 23. संस्तृत-निविचिकित्ससूत्र, 24. उद्गारसूत्र, 25. ग्राहारविधिसूत्र, 26. परिवासितसूत्र, 27. पुलाकभक्तसूत्र, 28. क्षेत्रावग्रहप्रमाणसूत्र, 29. रोधक (सेना) सूत्र (पाणषणा) 30. पानकविधिसूत्र, 31. अनेषणीयसूत्र, 32. मोकसूत्र, (वस्त्रंषणा) 33. चिलिमिलिका सूत्र 34. रात्रिवस्त्रादिग्रहणसत्र, 35. हताहतासूत्र, 36, उपधिसूत्र, 37. वस्त्रसुत्र, 38. निश्रासूत्र, 39. त्रिकृत्स्नचतुःकृत्स्नसूत्र, 40. समवसरणसूत्र, 41. यथारत्नाधिक वस्त्रपरिभाजकसूत्र, (वस्त्र-पाषणा) 42. प्रवग्रहसूत्र, (पाषणा) 43. घटीमात्रक सूत्र , (रजोहरणैषणा) 44. रजोहरणसूत्र, (चमैषणा) 45. चर्मसूत्र, (शय्या-संस्तारकेषणा) 46. शय्या-संस्तारकसूत्र, 47. यथारत्नाधिक शय्या-संस्तारक-परिभाजनसूत्र, (स्थानेषणा) 48. अवग्रहसूत्र, (उपाश्रयैषणा) 49. आपणगृह-रथ्यामुखसूत्र, 50. चित्रकर्मसूत्र, 51. सागारिक निधासूत्र, 52. सागारिक उपाश्रयसूत्र, 53. प्रतिबद्ध शय्यासूत्र, 54. गाथापतिकुलमध्यवाससूत्र, 55. उपाश्रयसूत्र, 56. उपाश्रयविधिसूत्र, (वसतिनिवास) 57. मासकल्पसूत्र, 58. वगडासूत्र, महावतों के अनधिकारी 59. प्रव्राजनासूत्र (महाव्रत प्ररूपण) 60. महावतसूत्र, प्रथम महावत के विधिनिषेधकल्प 61. अधिकरणसूत्र, 62. व्यवशमनसूत्र, प्रथम और तृतीय महावत के विधिनिषेधकल्प 63. आवस्थाप्पसूत्र, प्रथम-चतुर्थ महावत के विधिनिषेधकल्प 64. दकतीरसूत्र, 65. अनुद्घातिकसूत्र, चतुर्थमहावत के विधिनिषेधकल्प 66. उपाश्रय-प्रवेशसूत्र, 67. अपावृतद्वार उपाश्रयसूत्र, 68. अवग्रहानन्तक-प्रवग्रहपट्टकसूत्र, 69. ब्रह्मापायसूत्र, 70. ब्रह्मरक्षासूत्र, 71. पाराञ्चिकसुत्र, 72. कण्टकादि-उद्धरणसूत्र, 73. दुर्गसूत्र, 74. क्षिप्तचित्तादिसूत्र, तपकल्प' 75. कृतिकर्मसूत्र 76. ग्लानसूत्र, 77. पारिहारिकसूत्र 78. व्यवहारसूत्र, मरणोत्तरविधि 79. विश्वम्भवनसूत्र, महावत और समिति के संयुक्तकल्प 80. परिमन्थसत्र इस वर्गीकरण से प्रत्येक विज्ञपाठक इस आगम की उपादेयता समझ सकते हैं। श्रामण्य जीवन के लिए ये विधि-निषेधकल्प कितने महत्त्वपूर्ण हैं। इनके स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन से ही पंचाचार का यथार्थ पालन सम्भव है। यह पागमज्ञों का अभिमत है तथा इन विधि-निषेधकल्पों के ज्ञाता ही कल्प विपरीत पाचरण के निवारण करने में समर्थ हो सकेंगे, यह स्वतः सिद्ध है। (3) व्यवहारसूत्र प्रस्तुत व्यवहारसूत्र तृतीय छेदसूत्र है / इसके दस उद्देशक हैं। दसवें उद्देशक के अंतिम (पांचवें) सूत्र में पांच व्यवहारों के नाम है / इस सूत्र का नामकरण भी पाँच व्यवहारों को प्रमुख मानकर ही किया गया है। 1. उपाश्रय विधि-निषेध-कल्प के जितने सूत्र हैं वे प्रायः चतुर्थ महावत के विधि-निषेध-कल्प भी हैं। 2. विनय यावत्य और प्रायश्चित्त प्रादि ग्राभ्यन्तर तपों का विधान करने वाले ये सत्र हैं। 3. प्रथम छेदसूत्र दशा, (आयारदशा दशाश्रुतस्कन्ध), द्वितीय छेदसूत्र कल्प (बृहत्कल्प) और तृतीय छेदसूत्र व्यवहार / देखिए सम० 26 सूत्र--२ / अथवा उत्त० अ० 31, गा० 17 / भाष्यकार का मन्तव्य है-व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक का पांचवां सूत्र ही अन्तिम सूत्र है। पुरुषप्रकार से दसविधवैयावत्य पर्यन्त जितने सूत्र हैं, वे सब परिवधित हैं या चूलिकारूप है। [ 15 ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहार-शब्दरचना वि+व+ह-+धा / 'वि' और 'अव' ये दो उपसर्ग हैं। हज-हरणे धातु है / 'ह' धातु से 'पा' प्रत्यय करने पर हार बनता है। वि+व+हार---इन तीनों से व्यवहार शब्द की रचना हुई है। 'वि'--विविधता या विधि का सूचक है। 'प्रव'--संदेह का सूचक है। 'हार'-हरण क्रिया का सूचक है। फलितार्थ यह है कि विवाद विषयक नाना प्रकार के संशयों का जिससे हरण होता है वह 'व्यवहार' है। यह व्यवहार शब्द का विशेषार्थ है। व्यवहारसूत्र के प्रमुख विषय 1. व्यवहार, 2. व्यवहारी और 3. व्यवहर्तव्य-ये तीन इस सूत्र के प्रमुख विषय हैं। ___ दसवें उद्देशक के अन्तिम सूत्र में प्रतिपादित पांच व्यवहार करण (साधन) हैं, गण की शुद्धि करने वाले गीतार्थ (प्राचार्यादि) व्यवहारी (व्यवहार क्रिया प्रवर्तय) कर्ता हैं, और श्रमण श्रमणियां व्यवहर्तव्य (व्यवहार करने योग्य) हैं / अर्थात् इनकी अतिचार शुद्धिरूप क्रिया का सम्पादन व्यवहारज्ञ व्यवहार द्वारा करता है। जिस प्रकार कुम्भकार (कर्ता), चक्र, दण्ड मृत्तिका सूत्र आदि करणों द्वारा कुम्भ (कर्म) का सम्पादन करता है-इसी प्रकार व्यवहारज्ञ व्यवहारों द्वारा व्यवहर्तव्यों (गण) की अतिचार शुद्धि का सम्पादन करता है। व्यवहार-व्याख्या व्यवहार की प्रमुख व्याख्यायें दो हैं / एक लौकिक व्याख्या और दूसरी लोकोत्तर व्याख्या / लौकिका व्याख्या दो प्रकार की है--१. सामान्य और 2. विशेष / सामान्य व्याख्या है-दूसरे के साथ किया जाने वाला आचरण अथवा रुपये-पैसों का लेन-देन / विशेष व्याख्या है-अभियोग की समस्त प्रक्रिया अर्थात न्याय / इस विशिष्ट व्याख्या से सम्बन्धित कुछ शब्द प्रचलित हैं। जिनका प्रयोग वैदिक परम्परा की श्रुतियों एवं स्मृतियों में चिरन्तन काल से चला मा रहा है। यथा-- 1. व्यवहारशास्त्र-(दण्डसंहिता) जिसमें राज्य-शासन द्वारा किसी विशेष विषय में सामूहिक रूप से बनाये गये नियमों के निर्णय और नियमों का भंग करने पर दिये जाने वाले दण्डों का विधान व विवेचन होता है। 1. 'वि' नानार्थे 'ऽव' संदेहे, 'हरणं' हार उच्यते / नाना संदेहहरणाद, व्यवहार इति स्थितिः 1-कात्यायन / नाना विवाद विषयः संशयो हियतेऽनेन इति व्यवहारः / 2. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहागणसोहिकरे नाम एगे नो माणकरे।.... ----व्यव० पुरुषप्रकार सूत्र 3. गाहा-वहारी खलु कत्ता, ववहारो होई करणभूतो उ। वहरियव्वं कज्ज, कुभादि तियस्स जह सिद्धी / / --व्य० भाध्यपीठिका गाथा 2 4. न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः / व्यवहारेण जायन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा / / -हितो० मि० 72 5. परस्परं मनुष्याणां, स्वार्थविप्रतिपत्तिषु / वाक्यानयायाद् व्यवस्थान, व्यवहार उदाहृतः / / मिताक्षरा। [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. व्यवहारज्ञ--(न्यायाधीश) जो व्यवहारशास्त्र का ज्ञाता होता है वही किसी अभियोग आदि पर विवेकपूर्वक विचार करने वाला एवं दण्डनिर्णायक होता है। ____ लोकोत्तर व्याख्या भी दो प्रकार की है.-१ सामान्य और 2 विशेष / सामान्य व्याख्या है—एक गण का दूसरे गण के साथ किया जाने वाला आचरण / अथवा एक श्रमण का दूसरे श्रमण के साथ, एक आचार्य, उपाध्याय आदि का दूसरे आचार्य , उपाध्याय आदि के साथ किया जाने वाला आचरण / विशेष व्याख्या है –सर्वज्ञोक्त विधि से तप प्रभृति अनुष्ठानों का “वपन" याने बोना और उससे अतिचारजन्य पाप का हरण करना व्यवहार है'। 'विवाप' शब्द के स्थान में 'व्यव' आदेश करके 'हार' शब्द के साथ संयुक्त करने पर व्यवहार शब्द की सृष्टि होती है यह भाष्यकार का निर्देश है। व्यवहार के भेद-प्रभेद व्यवहार दो प्रकार का है—१ बिधि व्यवहार और 2 अविधि व्यवहार / अविधि व्यवहार मोक्ष-विरोधी है, इसलिए इस सूत्र का विषय नहीं है, अपितु विधि व्यवहार ही इसका विषय है। व्यवहार चार प्रकार के हैं-१ नामव्यवहार 2 स्थापनाव्यवहार 3 द्रव्यव्यवहार और 4 भावव्यवहार। 1. नामव्यवहार—किसी व्यक्ति विशेष का 'व्यवहार' नाम होना / 2. स्थापनाव्यवहार-व्यवहार नाम वाले व्यक्ति की सत् या असत् प्रतिकृति / 3. द्रव्यव्यवहार के दो भेद हैं—आगम से और नोआगम से। आगम से अनुपयुक्त (उपयोगरहित) व्यवहार पद का ज्ञाता / नोआगम से—द्रव्यव्यवहार तीन प्रकार का है-१ ज्ञशरीर 2 भव्यशरीर और 3 तद्व्यतिरिक्त / ज्ञशरीर–व्यवहार पद के ज्ञाता का मृतशरीर / भव्यशरीर–व्यवहार पद के ज्ञाता का भावीशरीर / तव्यतिरिक्त द्रव्यव्यवहार-व्यवहार श्रुत या पुस्तक / यह तीन प्रकार का है-१ लौकिक, 2 लोकोत्तर और कुप्रावनिक। लौकिक द्रव्यव्यवहार का विकासक्रम मानव का विकास भोगभूमि से प्रारम्भ हुआ था। उस आदिकाल में भी पुरुष पति रूप में और स्त्री पत्नी रूप में ही रहते थे, किन्तु दोनों में काम-वासना अत्यन्त सीमित थी। सारे जीवन में उनके केवल दो सन्ताने (एक साथ) होती थीं। उनमें भी एक बालक और एक बालिका ही। "हम दो हमारे दो" उनके सांसारिक जीवन का यही सूत्र था। वे भाई-बहिन ही युवावस्था में पति-पत्नी रूप में रहने लगते थे। 1. व्यव० भाष्य० पीठिका गा० 4 / 2. व्यव० भाष्य० पीठिका गा० 4 / 3. व्यय० भाष्य० पीठिका गाथा-६ / [ 17 ] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके जीवन-निर्वाह के साधन थे कल्पवृक्ष / सोना-बैठना उनकी छाया में, खाना फल, पीना वृक्षों का मदजल / पहनते थे वल्कल और सुनते थे वृक्षवाद्य प्रतिपल / न वे काम-धन्धा करते थे, न उन्हें किसी प्रकार की कोई चिन्ता थी, अतः वे दीर्घजीवी एवं अत्यन्त सुखी थे। न वे करते थे धर्म, न वे करते थे पापकर्म, न था कोई वक्ता, न था कोई श्रोता, न थे वे उद्दण्ड, न उन्हें कोई देता था दण्ड, न था कोई शासक, न थे वे शासित। ऐसा था युगलजन-जीवन / कालचक्र चल रहा था। भोगभूमि कर्मभूमि में परिणत होने लगी थी। जीवन-यापन के साधन कल्पवृक्ष विलीन होने लगे थे। खाने-पीने और सोने-बैठने की समस्यायें सताने लगी थीं। क्या खायें-पीयें ? कहाँ रहें, कहाँ सोयें ? ऊपर आकाश था, नीचे धरती थी। सर्दी, गर्मी और वर्षा से बचें तो कैसे बचें? --इत्यादि अनेक चिन्ताओं ने मानव को घेर लिया था। खाने-पीने के लिए छीना-झपटी चलने लगी। अकाल मृत्युएँ होने लगी और जोड़े (पति-पत्नी) का जीवन बेजोड़ होने लगा। प्रथम सुषम-सुषमाकाल और द्वितीय सुषमाकाल समाप्त हो गया था। तृतीय सुषमा-दुषमाकाल के दो विभाग भी समाप्त हो गये थे। तृतीय विभाग का दुश्चक्र चल रहा था / वह था संक्रमण-काल / सुख, शान्ति एवं व्यवस्था के लिए सर्वप्रथम प्रथम पांच कुलकरों ने अपराधियों को 'हत्'--इस वाग्दण्ड से प्रताड़ित किया, पर कुछ समय बाद यह दण्ड प्रभावहीन हो गया। दण्ड की दमन नीति का यह प्रथम सूत्र था। मानव हृदय में हिंसा के प्रत्यारोपण का युग यहीं से प्रारम्भ हुआ। द्वितीय पांच कुलकरों ने आततायियों को "मत" इस वाग्दण्ड से प्रताड़ित कर प्रभावित किया, किन्तु यह दण्ड भी समय के सोपान पार करता हुआ प्रभावहीन हो गया / तृतीय पांच कुलकरों ने अशान्ति फैलाने वालों को “धिक" इस वाग्दण्ड से शासित कर निग्रह किया। यद्यपि दण्डनीय के ये तीनों दण्ड वाग्दण्ड मात्र थे, पर हिंसा के पर्यायवाची दण्ड ने मानव को कोमल न बनाकर क्रूर बनाया, दयालु न बनाकर दुष्ट बनाया। प्रथम कुलकर का नाम यद्यपि "सुमति" था। मानव की सुख-समृद्धि के लिए उसे "शमन" का उपयोग करना था पर काल के कुटिल कुचक्रों से प्रभावित होकर उसने भी "दमन" का दुश्चक्र चलाया। अन्तिम कुलकर श्री ऋषभदेव थे। धिक्कार की दण्डनीति भी असफल होने लगी तो भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) के श्रीमुख से कर्म त्रिपदी "1 असि, 2 मसि, 3 कृषि' प्रस्फुरित हुई। मानव के सामाजिक जीवन का सूर्योदय हुआ / मानव समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया / एक वर्ग शासकों का और एक वर्ग शासितों का। अल्पसंख्यक शासक वर्ग बहुसंख्यक शासित वर्ग पर अनुशासन करने लगा। भगवान आदिनाथ के सुपुत्र भरत चक्रवर्ती बने / पूर्वजों से विरासत में मिली दमननीति का प्रयोग वे अपने भाइयों पर भी करने लगे। उपशमरस के आदिश्रोत भ० आदिनाथ (ऋषभदेव) ने बाहबली आदि को शाश्वत (आध्यात्मिक) साम्राज्य के लिए प्रोत्साहित किया तो वे मान गये। क्योंकि उस युग के मानव 'ऋजुजड़ प्रकृति के थे। अहिंसा की अमोघ अमीधारा से भाइयों के हृदय में प्रज्वलित राज्यलिप्सा की लोभाग्नि सर्वथा शान्त हो गई। [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० अजितनाथ से लेकर भ. पार्श्वनाथ पर्यन्त 'ऋजप्राज्ञ' मानवों का युग रहा / ग्यारह चक्रवर्ती, नो बलदेव, नो वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेवों के शासन में दण्डनीति का इतना दमनचक्र चला कि सौम्य शमननीति को लोग प्रायः भूल गये। दाम- --प्रलोभन, दण्ड और भेद - इन तीन नीतियों का ही सर्व साधारण में अधिकाधिक प्रचार-प्रमार होता रहा / अब आया "वक्रजड़" मानवों का युग / मानव के हृदयपटल पर वक्रता और जड़ता का साम्राज्य छा गया। सामाजिक व्यवस्था के लिए दण्ड (दमन) अनिवार्य मान लिया गया। अंग-भंग और प्राणदण्ड सामान्य हो गये। दण्डसंहितायें बनी, दण्ड-यन्त्र बने / दण्डन्यायालय और दण्डविज्ञान भी विकसित हआ। आग्नेयास्त्र आदि अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों ने अतीत में और वर्तमान में अणुबम आदि अनेक अस्त्रों द्वारा नृशंस दण्ड से दमन का प्रयोग होता रहा है। पौराणिक साहित्य में एक दण्डपाणि (यमराज) का वर्णन है पर आज तो यत्र-तत्र-सर्वत्र अनेकानेक दण्डपाणि ही चलते फिरते दिखाई देते हैं / यह लौकिक द्रव्यव्यवहार है। लोकोत्तर द्रव्यव्यवहार---प्राचार्यादि की उपेक्षा करनेवाले स्वच्छन्द श्रमणों का अन्य स्वच्छन्द श्रमणों के साथ अशनादि आदान-प्रदान का पारस्परिक व्यवहार / लोकोत्तर भावव्यवहार-१ यह दो प्रकार का है ? पागम से और 2 नोमागम से / आगम से--- उपयोगयुक्त व्यवहार पद के अर्थ का ज्ञाता' / नोग्रागम से पांच प्रकार के व्यवहार हैं 1. आगम, 2. श्रुत, 3. आज्ञा, 4. धारणा, 5. जीत / 1. जहाँ पागम हो वहाँ पागम से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 2. जहाँ आगम न हो, श्रुत हो, वहाँ श्रुत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 3. जहाँ श्रुत न हो, प्राज्ञा हो, वहाँ प्राज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करें। 4. जहाँ प्राज्ञा न हो, धारणा हो, वहाँ धारणा से व्यवहार की प्रस्थापना करें / 5. जहाँ धारणा न हो, जीत हो, वहाँ जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करें। इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करें:-१. पागम, 2. श्रुत, 3. प्राज्ञा, 4. धारणा और 5. जीत से। इनमें से जहाँ-जहाँ जो हो वहाँ-वहाँ उसी से व्यवहार की प्रस्थापना करें। प्र० भंते ! पागमबलिक श्रमण निर्ग्रन्थों ने (इन पांच व्यवहारों के सम्बन्ध में) क्या कहा है? उ०—(आयुष्मन श्रमणो) इन पांचों व्यवहारों में से जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो तब-तब उस उस विषय में अनिश्रितोपाश्रित ...-- (मध्यस्थ) रहकर सम्यक् व्यवहार करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आज्ञा का पाराधक होता है ! 1. प्रागमतो व्यवहारपदार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्त 'उपयोगो भाव निक्षेप' इति वचनात् / -व्यव० भा० पीठिका गाथा 6 1. टाणं-५. उ० 2 0 ४२१/तथा भग० श० 8. उ० 8. सू० 8, 9 / [19] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमव्यवहार केवलज्ञानियों, मनःपर्यवज्ञानियों और अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध आगमव्यवहार है। नव पूर्व, दश पूर्व और चौदह पूर्वधारियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध भी आगमव्यवहार ही है। श्रुतव्यवहार आठ पूर्व पूर्ण और नवम पूर्व अपूर्णधारी द्वारा आचरित या प्रतिपादित विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है। दशा (आयारदशा-दशाश्रुतस्कन्ध), कल्प (बृहत्कल्प), व्यवहार, आचारप्रकल्प (निशीथ) आदि छेदश्रत (शास्त्र) द्वारा निर्दिष्ट विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है / आज्ञाव्यवहार दो गीतार्थ श्रमण एक दूसरे से अलम दूर देशों में विहार कर रहे हों और निकट भविष्य में मिलने की सम्भावना न हो। उनमें से किसी एक को कल्पिका प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त लेना हो तो अपने अतिचार दोष कहकर गीतार्थ शिष्य को भेजे / यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो धारणाकुशल अगीतार्थ शिष्य को सांकेतिक भाषा में अपने अतिचार कहकर दूरस्थ गीतार्थ मूनि के पास भेजे और उस शिष्य के द्वारा कही गई आलोचना सनकर वह गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार कर स्वयं वहाँ आवे और प्रायश्चित्त दे। अथवा गीतार्थ शिष्य को समझाकर भेजे। यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो आलोचना का सन्देश लाने वाले के साथ ही सांकेतिक भाषाओं में अतिचार-शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का संदेश भेजे-यह प्राज्ञाव्यवहार है / 2 धारणाव्यवहार किसी गीतार्थ श्रमण ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस अतिचार का जो प्रायश्चित्त दिया है, उसकी धारणा करके जो श्रमण उसी प्रकार के अतिचार सेवन करने वाले को धारणानुसार प्रायश्चित्त आगमव्यवहार की कल्पना से तीन भेद किये जा सकते है उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य / 1. केवलज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेधपूर्ण उत्कृष्ट आगमव्यवहार है, क्योंकि केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। 2. मनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान यद्यपि विकल (देश) प्रत्यक्ष हैं फिर भी ये दोनों ज्ञान आत्म-सापेक्ष हैं, इसलिये मन:पर्यवज्ञानियों या अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध (मध्यम) आगमव्यवहार है। 3. चौदह पूर्व, दश पूर्व और नव पूर्व (सम्पूर्ण) यद्यपि विशिष्ट श्रुत हैं, फिर भी परोक्ष हैं, अतः इनके धारक द्वारा प्ररूपित या आचरित विधि-निषेध भी आगमव्यवहार है, किन्तु यह जघन्य आयमव्यवहार है। 2. सो ववहार विहण्णू, अणुमज्जित्ता सुत्तोवएसेण / सीसस्स देइ अप्पं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं / / —व्यव० भा० उ० 10 गा०६६१ / [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता है, वह धारणाव्यवहार है। अथवा -वैयावत्य अर्थात सेवाकार्यों से जिस श्रमण ने गण का उपकार किया है वह यदि छेदश्रुत न सीख सके तो गुरु महाराज उसे कतिपय प्रायश्चित्त पदों की धारणा कराते हैं यह भी धारणाव्यवहार है। जीतव्यवहार स्थिति, कल्प, मर्यादा और व्यवस्था--ये 'जीत' के पर्यायवाची हैं / गीतार्थ द्वारा प्रवर्तित शुद्ध व्यवहार जीतव्यवहार है। श्रुतोक्त प्रायश्चित्त से हीन या अधिक किन्तु परम्परा से आचरित प्रायश्चित्त देना जीतव्यवहार है। सूत्रोक्त कारणों के अतिरिक्त कारण उपस्थित होने पर जो अतिचार लगे हैं उनका प्रवर्तित प्रायश्चित्त अनेक गीतार्थों द्वारा आचरित हो तो वह भी जीतव्यवहार है। अनेक गीतार्थों द्वारा निर्धारित एवं सर्वसम्मत विधि-निषेध भी जीतव्यवहार है।' व्यवहारपंचक के क्रमभंग का प्रायश्चित्त आगमव्यवहार के होते हुये यदि कोई श्रुतव्यवहार का प्रयोग करता है तो चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। इसी प्रकार श्रतव्यवहार के होते हुये प्राज्ञाव्यवहार का प्रयोगकर्ता, याज्ञाव्यवहार के होते हये धारणाव्यवहार का प्रयोगकर्ता तथा धारणाव्यवहार के होते हुये जीतव्यवहार का प्रयोगकर्ता चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। व्यवहारपंचक का प्रयोग पूर्वानुपूर्वीक्रम से अर्थात् अनुक्रम से ही हो सकता है किन्तु पश्चानुपूर्वीक्रम से अर्थात् विपरीतक्रम से प्रयोग करना सर्वथा निषिद्ध है। आगमव्यवहारी आगमव्यवहार से ही व्यवहार करते है; अन्य श्रुतादि व्यवहारों से नहीं क्योंकि जिस समय सूर्य का प्रकाश हो उस समय दीपक के प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती। कि पुण गुणोवएसो, ववहारस्स उ चिउ पसत्थस्म / एसो भे परिकहियो, दुवालसंगस्स गवणीयं / __-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 724 / जं जीतं सावज्ज, न तेण जीएण होइ बवहारो। जं जीयमसावज्जं, तेण उ जीएण ववहारो॥ –व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 715 / ज जस्स पच्छित्तं, पायरियपरंपराए अविरुद्ध / जोगा य बहु विगप्पा, एमो खलु जीतकप्पो / / -व्यव० भाष्य पीबिका गाथा 12 / जं जीयमसोहिकरं, पासत्थ-पमत्त-संजयाईण्णं / जइ वि महाजणाइन्न, न तेण जीएण बवहारो॥ जं जीयं सोहिकर, संवेगपरायणेन दत्तेण / एगेण वि पाइण्णं, तेण उ जीएण बवहारो॥ .-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 720, 721 / [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतव्यवहार तीर्थ (जहाँ तक चतुर्विध संघ रहता है वहाँ तक) पर्यन्त रहता है / अन्य व्यवहार विच्छिन्न हो जाते हैं।' कुप्रावनिकव्यवहार अनाज में, रस में, फल में और फल में होने वाले जीवों की हिंसा हो जावे तो घी चाटने से शुद्धि हो जाती है। कपास, रेशम, ऊन, एकखुर और दोखुर वाले पशु, पक्षी, सुगन्धित पदार्थ, औषधियों और रज्जु आदि की चोरी करे तो तीन दिन दूध पीने से शुद्धि हो जाती है। ऋग्वेद धारण करने वाला विप्र तीनों लोक को मारे या कहीं भी भोजन करे तो उसे किसी प्रकार का पाप नहीं लगता है। ग्रीष्मऋतु में पंचाग्नि तप करना, वर्षाऋतु में वर्षा बरसते समय बिता छाया के बैठना और शरदऋतु में मीले वस्त्र पहने रहना-इस प्रकार क्रमशः तप बढ़ाना चाहिये / " व्यवहारी व्यवहारज्ञ, व्यवहारी, व्यवहर्ता-ये समानार्थक हैं। जो प्रियधर्मी हो, दृढ़धर्मी हो, वैराग्यवान हो, पापभीरु हो, सूत्रार्थ का ज्ञाता हो और राग-द्वेषरहित (पक्षपातरहित) हो वह व्यवहारी होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, अतिचारसेवी पुरुष और प्रतिसेवना का चिन्तन करके यदि किसी को अतिचार के अनुरूप प्रागमविहित प्रायश्चित्त देता है तो व्यवहारज्ञ (प्रायश्चित्तदाता) अाराधक होता है। 1. गाहा-सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो। होहिति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो उ / / ---व्यव० 10 भाष्य गाथा 55 / अन्नाद्यजानां सत्त्वानां, रसजानां च सर्वशः / फलपुष्पोद्भवानां च, घृतप्राशो विशोधनम् // ---मनु० अ० 11/143 / कासकीटजीर्णानां, द्विशफैकशफस्य च / पक्षिगन्धौषधीनां च, रज्ज्वाश्चैव त्यहं पयः / / -मनु० अ० 11/16 / 4. हत्वा लोकानपीमांस्त्री, नश्यन्नपि यतस्ततः / ऋग्वेदं धारयन्विप्रो, नैनः प्राप्नोति किञ्चन // .-मनु० अ० 11/261 / ग्रीष्मे पञ्चतपास्तुस्याद्वर्षा स्वभ्रावकाशिकः / आर्द्रवासास्तु हेमन्ते, क्रमशो वर्धयस्तपः॥ -मनु० अ० 6/23 / 6. क-पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेव दज्जभीरू अ। सुत्तत्थ तदुभयविऊ, अणिस्सिय ववहारकारी य / / --व्य० भाष्य पीठिका गाथा 14 / ख–१ प्राचारवान्, 2 अाधारवान्, 3 व्यवहारवान्, 4 अपनीडक, 5 प्रकारी, 6 अपरिश्रावी, 7 निर्यापक, 8 अपायदर्शी, 9 प्रियधर्मी, 10 दृढ़धर्मी। ठाणं० 10, सू० 733 / ग-व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 243 / 245 / 246 / 247 / 298 / 300 / [ 22 ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य, क्षेत्र प्रादि का चिन्तन किये बिना राग-द्वेषपूर्वक हीनाधिक प्रायश्चित्त देता है वह व्यवहारज्ञ (प्रायश्चित्तदाता) विराधक होता है।' व्यवहर्तव्य व्यवहर्तव्य व्यवहार करने योग्य निर्ग्रन्थ हैं। ये अनेक प्रकार के हैं। निर्ग्रन्थ चार प्रकार के हैं१. एकरानिक होता है किन्तु भारीकर्मा होता है, अत: वह धर्म का अनाराधक होता है। 2. एकरानिक होता है और हलुकर्मा होता है, अतः वह धर्म का पाराधक होता है।। 3. एक अवमरात्निक होता है और भारीकर्मा होता है, अतः वह धर्म का अनाराधक होता है / 4. एक अवमरानिक होता है किन्तु हलुकर्मा होता है, अत: वह धर्म का आराधक होता हैं। इसी प्रकार निर्ग्रन्थियाँ भी चार प्रकार की होती हैं। 4 निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के हैं--. 1. पुलाक—जिसका संयमी जीवन भूसे के समान साररहित होता है। यद्यपि तत्त्व में श्रद्धा रखता है, क्रियानुष्ठान भी करता है, किन्तु तपानुष्ठान से प्राप्त लब्धि का उपयोग भी करता है और ज्ञानातिचार लगेऐसा बर्तन-व्यवहार रखता है। 2. बकुश-ये दो प्रकार के होते हैं--उपकरणबकुश और शरीरबकुश / जो उपकरणों को एवं शरीर को सजाने में लगा रहता है और ऋद्धि तथा यश का इच्छुक रहता है / छेदप्रायश्चित्त योग्य अतिचारों का सेवन करता है। 3. कुशील- यह दो प्रकार का है-१ प्रतिसेवनाकुशील और 2 कषायकुशील / प्रतिसेवनाकुशील जो पिण्डशुद्धि आदि उत्तरगुणों में अतिचार लगाते हैं / कषायकुशील-जो यदा कदा संज्वलन कषाय के उदय से स्वभावदशा में स्थिर नहीं रह पाता / 4. निम्रन्थ-उपशान्तमोह निर्ग्रन्थ / 5. स्नातक--सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इन पांच निर्ग्रन्थों के अनेक भेद-प्रभेद हैं। ये सब व्यवहार्य हैं। जब तक प्रथम संहनन और चौदह पूर्व का ज्ञान रहा तब तक पूर्वोक्त दस प्रायश्चित्त दिये जाते थे। इनके 1. गाहा--जो सुयमहिज्जइ, बहं सुत्तत्थं च निउणं विजाणाइ / कप्पे ववहारंमि य, सो उ पमाणं सुयहराणं / / कप्पस्स य निज्जुत्ति ववहारस्स व परमनिउणस्स / जो अत्थतो वियाणइ, बवहारी सो अणुण्णातो।। 2. जो दीक्षापर्याय में बड़ा हो / 3. जो दीक्षापर्याय में छोटा हो / ठाणं०४, उ० 3, सूत्र 320 / -व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 605, 607 >> [ 23 ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विच्छन्न होने पर अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त भी विच्छन्न हो गये -अर्थात् ये दोनों प्रायश्चित्त अव नहीं दिये जाते हैं। शेष आठ प्रायश्चित्त तीर्थ (चतुर्विधसंघ) पर्यन्त दिये जायेंगे। पुलाक को व्युत्सर्मपर्यन्त छह प्रायश्चित्त दिए जाते थे। प्रतिसेवकबकुश और प्रतिसेवनाकुशील को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। स्थविरों को अनबस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त नहीं दिये जाते; शेष आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। निर्ग्रन्थ को केवल दो प्रायश्चित्त दिये जा सकते हैं-१ आलोचना, 2 विवेक / स्नातक केवल एक प्रायश्चित्त लेता है-विवेक / उन्हें कोई प्रायश्चित्त देता नहीं है।' 1 सामायिकचारित्र वाले को छेद और मूल रहित आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 2 छेदोपस्थापनीयचारित्र वाले को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 3 परिहारविशुद्धिचारित्र वाले को मूलपर्यन्त पाठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। 4 सूक्ष्मसंपरायचारित्र वाले को तथा 5 यथाख्यातचारित्र वाले को केवल दो प्रायश्चित दिये जाते हैं१ अालोचना और 2 विवेक / ये सब व्यवहार्य हैं / 2 व्यवहार के प्रयोग व्यवहारज्ञ जब उक्त व्यवहारपंचक में से किसी एक व्यवहार का किसी एक व्यवहर्तव्य (व्यवहार करने योग्य श्रमण या श्रमणी) के साथ प्रयोग करता है तो विधि के निषेधक को या निषेध के विधायक को प्रायश्चित्त देता है तब व्यवहार शब्द प्रायश्चित्त रूप तप का पर्यायवाची हो जाता है। अतः यहाँ प्रायश्चित्त रूप तप का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। 1 गुरुकः, 2 लघुक, 3 लघुस्वक / गुरुक के तीन भेद 1 गुरुक, 2 गुरुतरक और 3 यथागुरुक / गाहा---पालोयणपडिक्कमणे, मीस-विवेगे तहेव विउस्सग्गे / एएछ पच्छित्ता, पूलागनियंठाय बोधव्वा / / बउसपडिसेवगाणं, पायच्छिन्ना हवं ति सव्वे वि / भवे कप्पे, जिणकप्पे अहा होति / / पालोयणा विवेगो य, नियंठस्स दुवे भवे / विवेगो य सिणायस्स, एमेया पडिवत्तितो॥ -व्यव० 10 भाष्य गाथा 357, 58, 59 सामाइयसंजयाणं, पायच्छित्ता, छेद-मूलरहियट्ठा / थेराणं जिणाणं पुण, मूलत अव्हा होई॥ परिहारविसुद्धीए, मूलं ता अट्टाति पच्छित्ता। थेराणं जिणाणं पुण, जविहं छेयादिवज्ज वा / / पालोयणा-विवेगो य तइयं तु न विज्जती। सुहुमेय संपराए, अहक्खाए तहेव य // -व्यव० उ०१० भाष्य गाथा 361-62-63-64 / [ 24 ] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु के तीन भेद 1. लघुक, 2. लघुतरक और 3. यथालघुक / लघुस्वक के तीन भेद 1. लघुस्वक, 2. लघुस्वतरक और 3. यथालघुस्वक / गुरु प्रायश्चित्त महा प्रायश्चित्त होता है उसकी अनदधातिक संज्ञा है। इस प्रायश्चित्त के जितने दिन निश्चित हैं और जितना तप निर्धारित है वह तप उतने ही दिनों में पूरा होता है। यह तप पिकाप्रतिसेवना वालों को ही दिया जाता है। गुरुक व्यवहार : प्रायश्चित तप 1. गुरु प्रायश्चित्त-एक मास पर्यन्त अट्ठम तेला (तीन दिन उपवास) 2. गुरुतर प्रायश्चित्त- चार मास पर्यन्त दशम '.---चोला (चार दिन का उपवास) 3. गुरुतर प्रायश्चित--छह मास पर्यन्त द्वादशम3-पचोला (पांच दिन का उपवास)। लघुक व्यवहार/प्रायश्चित तप 1. लघु प्रायश्चित्त--तीस दिन पर्यन्त छद्र--बेला (दो उपवास) 2. लघुतर प्रायश्चित्त-पचीस दिन पर्यन्त चउत्थ' - उपवास / 3. यथालघु प्रायश्चित—बीस दिन पर्यन्त आचाम्ल / ' 1. लघुस्वक प्रायश्चित्त-पन्द्रह दिन पर्यन्त एक स्थानक --(एगलठाणो) 2. लघुस्वतरक प्रायश्चित्त-दस दिन पर्यन्त-पूर्वार्ध (दो पोरसी) 3. यथालघुस्वक प्रायश्चित्त-पांच दिन पर्यन्त--निविकृतिक (विकृतिरहित आहार) / 1. एक मास में पाठ अद्रम होते हैं--- इनमें चौवीस दिन तपश्चर्या के और आठ दिन पारणा के। अन्तिम पारणे का दिन यदि छोड़ दें तो एक माम (इकतीस दिन) गुरु प्रायश्चित्त का होता है। में छह दसम होते हैं इनमें चौबीस दिन तपश्चर्या के और छह दिन पारणे के इस प्रकार एक मास (तीस दिन) गुरु प्रायश्चित्त का होता है / 3. एक मास में पाँच द्वादशम होते हैं-इनमें पचीस दिन तपश्चर्या के और पाँच दिन पारणे के इस प्रकार एक मास (तीस दिन) गुरु प्रायश्चित्त का होता है। 4. तीस दिन में दस छुट्ट होते हैं- इनमें बीस दिन तपश्चर्या के और दस दिन पारणे के होते हैं। में तेरह उपवास होते हैं. इनमें तेरह दिन तपश्चर्या के और बारह दिन पारणे के / अन्तिम पारणे का दिन यहाँ नहीं गिना है। 6. बीस दिन में दस आचाम्ल होते हैं-इनमें दस दिन तपश्चर्या के और दस दिन पारणे के होते हैं / 7. पन्द्रह दिन एक स्थानक निरन्तर किये जाते हैं। 8. दस दिन पूर्वार्ध निरन्तर किये जाते हैं। 9. पांच दिन निर्विकृतिक आहार निरन्तर किया जाता है। 10. वह० उद्दे० 5 भाष्य गाथा 6039-6044 / [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु प्रायश्चित तप के तीन विभाग१. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्कृष्ट / 1. जघन्य गुरु प्रायश्चित्त-एक मासिक और द्वैमासिक / 2. मध्यम गुरु प्रायश्चित्त--त्रैमासिक और चातुर्मासिक / 3. उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त-पांचमासिक और पाण्मासिक / जघन्य गुरु प्रायश्चित्त तप है--एक मास या दो मास पर्यन्त निरन्तर अट्टम तप करना। मध्यम गुरु प्रायश्चित्त तप है—तीन मास या चार मास पर्यन्त निरन्तर दशम तप करना। उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त तप है-पाँच मास या छह मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना। इसी प्रकार लघ प्रायश्चित्त तप के और लघस्वक तप के भी तीन-तीन विभाग हैं। तथा तप की आराधना भी पूर्वोक्त मास क्रम से ही की जाती है। उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित्त के तीन विभाग-- 1. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट, 2. उत्कृष्ट-मध्यम, 3. उत्कृष्ट-जघन्य / 1. उत्कृष्ट-उत्कृष्ट गुरु प्रायश्चित-पाँच मास या छह मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना / 2. उत्कृष्ट-मध्यम गुरु प्रायश्चित्त–तीन मास या चार मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना / 3. उत्कृष्ट-जघन्य गुरु प्रायश्चित्त-एक मास या दो मास पर्यन्त निरन्तर द्वादशम तप करना / इसी प्रकार मध्यम गुरु प्रायश्चित्त के तीन विभाग और जघन्य गुरु प्रायश्चित्त के भी तीन विभाग हैं। तपाराधना भी पूर्वोक्त क्रम से ही की जाती है। उत्कृष्ट लघ प्रायश्चित्त, मध्यम लघ प्रायश्चित्त, जघन्य लघ प्रायश्चित्त के तीन, तीन विभाग तथा उत्कृष्ट लघुस्वक प्रायश्चित्त, मध्यम लधुस्वक प्रायश्चित्त और जघन्य लघुस्वक प्रायश्चित्त के भी तीन, तीन विभाग हैं। तपाराधना भी पूर्वोक्त मासक्रम से है। विशेष जानने के लिये व्यवहार भाष्य का अध्ययन करना चाहिये। व्यवहार (प्रायश्चित्त) को उपादेयता प्र०-भगवन ! प्रायश्चित्त से जीव को क्या लाभ होता है ? उ०—प्रायश्चित्त से पापकर्म की विशुद्धि होती है और चारित्र निरतिचार होता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त करने पर मार्ग (सम्यग्दर्शन) और मार्गफल (ज्ञान) की विशुद्धि होती है। प्राचार और प्राचारफल (मुक्तिमार्ग) की शुद्धि होती है।' 1. (क) उत्त० अ० 29 (ख) पावं छिदइ जम्हा, पायच्छित्तं तु भन्नए तेणं / पाएण वा विचित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं // -व्यव. भाष्य पीठिका, गाथा 35 (ग) प्रायः पापं समुद्दिष्टं, चित्तं तस्य विशोधनम् / यदा प्रायस्य तपस: चित्तम् निश्चय इति स्मृती। (घ) प्रायस्य पापस्य चित्तं विशोधनम् प्रायश्चित्तम् / [ 26 ] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त के भेद-प्रभेद 1. ज्ञान-प्रायश्चित्त-ज्ञान के अतिचारों की शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त करना।' 2. दर्शन-प्रायश्चित्त-दर्शन के अतिचारों की शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त करना। 3. चारित्र प्रायश्चित्त-चारित्र के अतिचारों की शुद्धि के लिये आलोचना आदि प्रायश्चित्त करना / 3 4. वियत्त किच्चपायच्छित्ते---इस चतुर्थ प्रायश्चित के दो पाठान्तर हैं 1. वियत्तकिच्चपायच्छित्ते-व्यक्तकृत्य प्रायश्चित / 2. चियत्तकिच्चपायच्छित्ते-त्यक्तकृत्य प्रायश्चित / क---व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त के दो अर्थ हैं--(१) व्यक्त---अर्थात आचार्य उनके द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त कृत्य पाप का परिहारक होता है। तात्पर्य यह है कि आचार्य यदा-कदा किसी को प्रायश्चित्त देते हैं तो वे अतिचारसेवी के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि देखकर देते हैं। प्राचार्य द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त का उल्लेख दशाकल्प-व्यवहार आदि में हो या न हो फिर भी उस प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि अवश्य होती है। ___ख----व्यक्त अर्थात् स्पष्ट छेद सूत्र निर्दिष्ट प्रायश्चित्त कृत्य / भिन्न भिन्न अतिचारों के भिन्न-भिन्न (मालोचनादि कृत्य) प्रायश्चित्त / क-त्यक्त कृत्यप्रायश्चित्त ---जो कृत्य त्यक्त हैं उनका प्रायश्चित्त / ख—चियत्त—का एक अर्थ 'प्रीतिकर' भी होता है। प्राचार्य के प्रीतिकर कृत्य वैयावृत्य आदि भी प्रायश्चित्त रूप हैं। दस प्रकार के प्रायश्चित्त(१) पालोचना योग्य-जिन अतिचारों की शूद्धि प्रालोचना से हो सकती है ऐसे अतिचारों की आलोचना (ङ) जिस प्रकार लौकिक व्यवहार में सामाजिक या राजनैतिक अपराधियों को दण्ड देने का विधान है—इसौ प्रकार मूलगुण या उत्तरगुण सम्बन्धी (1) अतिक्रम, (2) व्यतिक्रम, (3) अतिचार और (4) अनाचारसेवियों को प्रायश्चित्त देने का विधान है। सामान्यतया दण्ड और प्रायश्चित्त समान प्रतीत होते हैं, किन्तु दण्ड क्रूर होता है और प्रायश्चित्त अपेक्षाकृत कोमल होता है। दण्ड अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है और प्रायश्चित्त स्वेच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है / दण्ड से बासनाओं का दमन होता है और प्रायश्चित्त से शमन होता है। 1. ज्ञान के चौदह अतिचार / 2. दर्शन के पाँच अतिचार / 3. चारित्र के एकसौ छह (106) अतिचार पांच महाव्रत से पच्चीस अतिचार / रात्रिभोजन त्याग के दो अतिचार। इर्यासमिति के चार अतिचार / भाषासमिति के दो अतिचार। एषणा समिति के सेंतालीस अतिचार। आदान निक्षेपणा समिति के दो अति चार / परिष्ठापना समिति के दस प्रतिचार / तीन गुप्ति के 9 अतिचार। संलेखना के 5 अतिचार 4. 'चियत्त' का 'प्रीतिकर' अर्थसूचक संस्कृत रूपान्तर मिलता नहीं है। -अर्धमागधीकोश भाग 2 चियत्तशब्द पृ० 628 [ 27 ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना आलोचना योग्य प्रायश्चित्त है। एषणा समिति और परिष्ठापना समिति के अतिचार प्रायः आलोचना योग्य हैं। (2) प्रतिक्रमणयोंग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि प्रतिक्रमण से हो सकती है, ऐसे अतिचारों का प्रतिक्रमण करना—प्रतिक्रमण योग्य है। समितियों एवं गुप्तियों के अतिचार प्रायः प्रतिक्रमण योग्य हैं। (3) उभययोग्य----जिन अतिचारों की शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण-दोनों से ही हो सकती है ऐसे अतिचारों की आलोचना तथा उनका प्रतिक्रमण करना-उभय योग्य प्रायश्चित्त है। एकेन्द्रियादि जीवों का अभिधान करने से यावत स्थानान्तरण करने से जो अतिचार होते हैं वे उभय प्रायश्चि योग्यत्त हैं। (4) विवेकयोग्य-जिन अतिचारों को शुद्धि विवेक अर्थात् परित्याग से होती है ऐसे अतिचारों का परित्याग करना विवेक (त्याग) योग्य प्रायश्चित्त है। आधाकर्म आहार यदि आ जाय तो उसका परित्याग करना ही विवेकयोग्य प्रायश्चित्त है।। (5) व्युत्सर्ग योग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि कायिक क्रियाओं का अवरोध करके ध्येय में उपयोग स्थिर करने से होती है ऐसे अतिचार व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त योग्य हैं। नदी पार करने के बाद किया जाने वाला कायोत्सर्ग व्युत्सर्ग योग्य प्रायश्चित्त है। (6) तपयोग्य-जिन अतिचारों की शूद्धि तप से ही हो सकती है--ऐसे अतिचार तप प्रायश्चित्त योग्य हैं। निशीथसूत्र निर्दिष्ट अतिचार प्रायः तप (मुरुमास, लघुमास) प्रायश्चित्त योग्य हैं। (7) छेदयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि दीक्षा छेद से हो सकती है वे अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। पाँच महाव्रतों के कतिपय अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। (8) मूलयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि महाव्रतों के पुन: आरोपण करने से ही हो सकती है, ऐसे अनाचार मूल प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं / एक या एक से अधिक महाव्रतों का होने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य है / (9) अनवस्थाप्ययोग्य-जिन अनाचारों की शुद्धि व्रत एवं वेष रहित करने पर ही हो सकती है-ऐसे अनाचार अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य होते हैं / अकारण अपवाद मार्ग सेवन में आसक्त, एक अतिचार का अनेक बार आचरणकर्ता, तथा एक साथ अनेक अतिचार सेवनकर्ता छेद प्रायश्चित्त योग्य होता है। जिस प्रकार शेष अंग की रक्षा के लिये व्याधिविकृत अंग का छेदन अत्यावश्यक है-इसी प्रकार शेष व्रत पर्याय की रक्षा के लिये दूषित व्रत पर्याय का छेदन भी अत्यावश्यक है। 2. एक बार या अनेक बार पंचेन्द्रिय प्राणियों का वध करने वाला, शील भंग करने वाला, संक्लिष्ट संकल्पपूर्वक मृषावाद बोलने वाला, अदत्तादान करने वाला, परिग्रह रखने वाला, पर-लिंग (परिव्राजकादि का वेष) धारण करने वाला तथा गृहस्थलिंग धारण करने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य होता है। 3. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य तीन हैं-- 1. साधमिक की चोरी करने वाला, 2. अन्यर्मियों की चोरी करने वाला, 3. दण्ड, लाठी या मुक्के आदि से प्रहार करने वाला। -ठाणं० 3, उ०४ सू० 201 [28] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) पारांचिक योग्य-जिन अनाचारों की शुद्धि गृहस्थ का वेष धारण कराने पर और बहुत लम्बे समय तक निर्धारित तप का अनुष्ठान कराने पर ही हो सकती है ऐसे अनाचार पारांचिकप्रायश्चित्त योग्य होते हैं। इस प्रायश्चित्त वाला व्यक्ति उपाश्रय, ग्राम और देश से बहिष्कृत किया जाता है। प्रायश्चित्त के प्रमुख कारण 1. अतिक्रम-दोषसेवन का संकल्प / 2. व्यतिक्रम-दोषसेवन के साधनों का संग्रह करना / 3. अतिचार-दोषसेवन प्रारम्भ करना। 4. अनाचार-~-दोषसेवन कर लेना। अतिक्रम के तीन भेद१. ज्ञान का अतिक्रम, 2. दर्शन का अतिक्रम, 3. चारित्र का अतिक्रम। इसी प्रकार ज्ञान का व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार हैं / दर्शन और चारित्र के भी तीन-तीन भेद हैं। ज्ञान का अतिक्रम तीन प्रकार का है ---- 1. जघन्य, 2. मध्यम, 3. उत्कृष्ट / इसी प्रकार ज्ञान का व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार हैं। दर्शन और चारित्र के भी तीन-तीन भेद हैं। ज्ञानादि का अतिक्रम हो गया हो तो गुरु के समक्ष आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना तथा निन्दा, गहरे आदि करके शुद्धि करना, पुनः दोषसेवन न करने का दृढ़ संकल्प करना तथा प्रायश्चित्त रूप तप करना / इसी प्रकार के ज्ञान के व्यतिक्रमादि तथा दर्शन-चारित्र के अतिक्रमादि की शुद्धि करनी चाहिए।' 1. ठाणं० 6, सू० 489 / ठाणं० 8, सू० 605 / ठाणं० 9, सू० 688 / ठाणं० 10, सू० 733 / पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य पाँच हैं१. जो कुल (गच्छ) में रहकर परस्पर कलह कराता हो। 2. जो गण में रहकर परस्पर कलह कराता हो। 3. जो हिंसाप्रेक्षी हो, 4. जो छिद्रप्रेमी हो, 5. प्रश्नशास्त्र का बारम्बार प्रयोग करता हो। -ठागं 5, उ०१ सू० 398 / पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य तीन हैं१. दुष्ट पारांचिक 2. प्रमत्त पारांचिक 3. अन्योऽन्य मैथनसेवी पारांचिक / अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में विशेष जानने के लिये व्यवहारभाश्य देखना चाहिये। 2. (क) ठाणं 3 उ०४ सू० 195 / (ख) अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करने का संकल्प करना ज्ञान का अतिक्रम है / पुस्तक लेने जाना- ज्ञान का व्यतिक्रम है / स्वाध्याय प्रारम्भ करना ज्ञान का अतिचार है। पूर्ण स्वाध्याय करना ज्ञान का अनाचार है। इसी प्रकार दर्शन तथा चारित्र के अतिक्रमादि समझने चाहिए। [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिसेवना के दस प्रकार 1. दर्पप्रतिसेवना-अहंकारपूर्वक अकृत्य सेवन / 2. प्रमादप्रतिसेवना-निद्रादि पांच प्रकार के प्रमादवश अकृत्य सेवन / 3. अनाभोग प्रतिसेवना--विस्मृतिपूर्वक अनिच्छा से प्रकृत्य सेवन / 4. प्रातुरप्रतिसेवना-रुग्णावस्था में अकृत्य सेवन / 5. आपत्तिप्रतिसेवना-दुभिक्षादि कारणों से अकृत्य सेवन / 6. शंकित प्रतिसेवना-आशंका से प्रकृत्य सेवन / 7. सहसाकार प्रतिसेवना-अकस्मात् या बलात्कार से प्रकृत्य सेवन / 8. भयप्रतिमेवना-भय से अकृत्य सेवन / 9. प्रवषप्रतिसेवना-द्वेषभाव से अकृत्य सेवन / 10. विमर्शप्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा के निमित्त प्रकृत्य सेवन / ये प्रतिसेवनायें संक्षेप में दो प्रकार की हैं-दपिका और कल्पिका / राग-द्वेष पूर्वक जो अकृत्य सेवन किया जाता है वह दपिका प्रतिसेवना है। इस प्रतिसेवना से प्रतिसेवक विराधक होता है। राग-द्वेष रहित परिणामों से जो प्रतिसेवना हो जाती है या की जाती है वह कल्पिका प्रतिसेवना है। इसका प्रतिसेवक आराधक होता है। पाठ प्रकार के ज्ञानातिचार१. कालातिचार-अकाल में स्वाध्याय करना / 2. विनयातिचार-श्रुत का अध्ययन करते समय जाति और कुल मद से गुरु का विनय न करना। 3. बहुमानातिचार-श्रुत और गुरु का सन्मान न करना। 4. उपधानातिचार-श्रुत की वाचना लेते समय प्राचाम्लादि तपन करना। 5. निह्नवनाभिधानातिचार-गुरु का नाम छिपाना। 6. व्यंजनातिचार-हीनाधिक अक्षरों का उच्चारण करना। 7. अर्थातिचार-प्रसंग संगत अर्थ न करना / अर्थात विपरीत अर्थ करना। 8. उभयातिचार-हस्व की जगह दीर्घ उच्चारण करना, दीर्घ की जगह ह्रस्व उच्चारण करना / उदात्त __ के स्थान में अनुदात्त का और अनुदात्त के स्थान में उदात्त का उच्चारण करना / अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार ये तीन संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं-इनकी शुद्धि आलोचनाह से लेकर तपोऽहंपर्यन्त प्रायश्चित्तों से होती है / छेद, मूला, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य अतिचार और अनाचार शेष बारह कषायों (अनन्तानुबन्धी 4, अप्रत्याख्यानी 4, प्रत्याख्यानी 4) के उदय से होते हैं। 1. गाहा--रागद्दोसाणुगया, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। प्राराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेण // -बृह० उ०४ भाष्य माथा 4943 / 2. सव्वे वि अइयारा संजलणाणं उदयओ होंति // -अभि० कोष---'अइयार' शब्द / [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकट और प्रच्छन्न दोष सेवन अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार-इन चार प्रकार के दोषों का सेवन करने वाले श्रमणश्रमणियां चार प्रकार के हैं 1. कुछ श्रमण-धमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट करते हैं अर्थात् प्रच्छन्न नहीं करते हैं। 2. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं अर्थात् प्रकट नहीं करते हैं। 3. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट भी करते हैं और प्रच्छन्न भी करते हैं। 4. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं और न प्रच्छन्न करते हैं।' प्रथम भंग वाले—श्रमण-श्रमणियाँ अनुशासन में नहीं रहने वाले अविनीत, स्वच्छन्द, प्रपंची एवं निर्लज्ज होते हैं और वे पापभीरू नहीं होते हैं अतः दोषों का सेवन प्रकट करते हैं। द्वितीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ दो प्रकार के होते हैं-अत: दोष का सेवन प्रकट करते हैं / यथा प्रशस्त भावना वाले-श्रमण-श्रमणियाँ यदि यदा-कदा उक्त दोषों का सेवन करते हैं तो प्रच्छन्न करते हैं, क्योंकि वे स्वयं परिस्थितिवश आत्मिक' दुर्बलता के कारण दोषों का सेवन करते हैं इसलिए ऐसा सोचते हैं कि मुझे दोष-सेवन करते हये देखकर अन्य श्रमण-श्रमणियाँ दोष-सेवन न करें अतः वे दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं। अप्रशस्त भावना वाले...मायावी श्रमण-श्रमणियाँ लोक-लज्जा के भय से या श्रद्धालुजनों की श्रद्धा मेरे पर बनी रहे इस संकल्प से उक्त दोषों का सेवन प्रकट नहीं करते हैं अपितु छिपकर करते हैं। तृतीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ वंचक प्रकृति के होते हैं वे सामान्य दोषों का सेवन तो प्रकट करते हैं किन्तु सशक्त (प्रबल) दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं / ___यदि उन्हें कोई सामान्य दोष सेवन करते हुये देखता है तो वे कहते हैं-'सामान्य दोष तो इस पंचमकाल में सभी को लगते हैं। अत: इन दोषों से बचना असम्भव है।' चतुर्थ भंग बाले---श्रमण-श्रमणियां सच्चे वैराग्य वाले होते हैं, मुमुक्षु और स्वाध्यायशील भी होते हैं प्रतः वे उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं, न प्रच्छन्न करते हैं / प्रथम तीन भंग वाले श्रमण-श्रमणियों द्वारा सेवित दोषों की शूद्धि के लिए ही व्यवहारसुत्र निर्दिष्ट प्रायश्चित्त-विधान है। अंतिम चतुर्थ भंग वाले श्रमण-श्रमणियाँ निरतिचार चारित्र के पालक होते हैं अतः उनके लिए किसी भी प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। व्यवहारशुद्धि कठिन भी, सरल भी प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव आदिनाथ के धर्मशासन में श्रमण-श्रमणियाँ प्रायः ऋजु-सरल होते थे पर जड (अल्पबौद्धिक विकास वाले) होते थे। अतः वे सूत्र सिद्धान्त निर्दिष्ट समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन नहीं कर पाते थे। उनकी व्यवहार शुद्धि दुःसाध्य होने का एकमात्र यही कारण था। 1. ठाणं-४, उ. 1, सू. 272 [31] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीस तीर्थंकरों (भगवान् अजितनाथ से भ० पार्श्वनाथ पर्यन्त) के श्रमण-श्रमणी प्रायः ऋजु-प्राज्ञ (सरल और प्रबुद्ध) होते थे। वे सूत्र सिद्धान्त प्रतिपादित समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन करने में सदा प्रयत्नशील रहते थे अतः उनकी व्यवहार शूद्धि अति सरल थी। अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की परम्परा के श्रमण-श्रमणी प्रायः वक्रजड हैं। दशा, कल्प, व्यवहार प्रादि में विशद श्रुत समाचारी के होते हुये भी प्रत्येक गच्छ भिन्न-भिन्न समाचारी की प्ररूपणा करता है। पर्युषणपर्व तथा संवत्सरी पर्व जैसे महान धार्मिक पर्वो की आराधना, पक्खी, चौमासी आलोचना भी विभिन्न दिनों में की जाती है। वक्रता और जड़ता के कारण मूलगुण तथा उत्तरगणों में लगने वाले अतिचारों की आलोचना भी वे सरल हृदय से नहीं करते अतः उनकी व्यवहार शुद्धि अति कठिन है।' पालोचना और आलोचक आलोचना-अज्ञान, अहंकार, प्रमाद या परिस्थितिवश जो उत्सर्ग मार्ग से स्खलन अर्थात अतिचार होता है—उसे गुरु के समक्ष प्रकट करना आलोचना है और आलोचक वह है जो पूर्वोक्त कारणों से लगे हुये अतिचारों को गुरु के समक्ष प्रकट करता है / ___ यदि आलोचक मायावी हो और मायापूर्वक पालोचना करता हो तो उसको आलोचना का उसे अच्छा फल नहीं मिलता है। यदि पालोचक मायावी नहीं है और मायारहित आलोचना करता है तो उसकी आलोचना का उसे अच्छा फल मिलता है। व्यवहारशुद्धि के लिये तथा निश्चय (आत्म) शुद्धि के लिये लगे हये अतिचारों की आलोचना करना अनिवार्य है किन्तु साधकों के विभिन्न वर्ग हैं। उनमें एक वर्ग ऐसा है जो अतिचारों की पालोचना करता ही नहीं है। उनका कहना है-हमने अतिचार (अकृत्य) सेवन किये हैं, करते हैं और करते रहेंगे। क्योंकि देश, काल और शारीरिक-मानसिक स्थितियां ऐसी हैं कि हमारा संयमी जीवन निरतिचार रहे.-ऐसा हमें संभव नहीं लगता है अत: आलोचना से क्या लाभ है यह तो हस्तिस्नान जैसी प्रक्रिया है। अतिचार लगे आलोचना की और फिर अतिचार लगे--यह चक्र चलता ही रहता है। उनका यह चिन्तन अविवेकपूर्ण है क्योंकि वस्त्र पहने हैं, पहनते हैं और पहनते रहेंगे तो पहने गये वस्त्र मलिन हुये हैं, होते हैं और होते रहेंगे--'फिर वस्त्र शुद्धि से क्या लाभ है !'---यह कहना कहाँ तक उचित है ? ब तक वस्त्र पहनना है तब तक उन्हें शुद्ध रखना भी एक कर्तव्य है. क्योंकि वस्त्रशुद्धि के भी कई लाभ हैं-प्रतिदिन शुद्ध किये जाने वाले वस्त्र प्रति मलिन नहीं होते हैं और स्वच्छ वस्त्रों से स्वास्थ्य भी समृद्ध रहता है / इसी प्रकार जब तक योगों के व्यापार हैं और कषाय तीव्र या मन्द है तब तक अतिचार जन्य कर्ममल लगना निश्चित है। 1. गाहा-पुरिमाणं दुब्बिसोझो उ, चरिमाणं दुरणुपालो। कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालो / --उत्त. अ. 23, गाथा --27 / [ 32] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिदिन अतिचारों की अालोचना करते रहने से आस्मा कर्ममल से प्रतिमलिन नहीं होता है और भावप्रारोग्य रहता है। ज्यों ज्यों योगों का व्यापार अवरुद्ध होता है और कषाय मन्दतम होते जाते हैं, त्यों त्यों अतिचारों का लगना प्रल्प होता जाता है। द्वितीय वर्ग ऐसा है जो अयश-अकीति, अवर्ण (निन्दा) या अवज्ञा के भय से अयवा यश-कीर्ति या पूजा-सत्कार कम हो जाने के भय से अतिचारों की आलोचना ही नहीं करते। तृतीय वर्ग ऐसा है जो आलोचना तो करता है पर मायापूर्वक करता है / वह सोचता है मैं यदि पालोचना नहीं करूगा तो मेरा वर्तमान जीवन गहित हो जायगा और भावी जीवन भी विक्रत हो जाय करूंगा तो मेरा वर्तमान एवं भावी जीवन प्रशस्त हो जायगा अथवा पालोचना कर लूगा तो ज्ञान दर्शन एवं चारित्र की प्राप्ति हो जायगी। मायावी आलोचक को दुगुना प्रायश्चित्त देने का विधान प्रारम्भ के सूत्रों में है। चौथा वर्ग ऐसा है जो मायारहित आलोचना करता है, वह 1. जातिसम्पन्न, 2. कुलसम्पन्न, 3. विनयसम्पन्न, 4. ज्ञानसम्पन्न, 5. दर्शनसम्पन्न, 6. चारित्रसम्पन्न, 7. क्षमाशील, 8. निग्रहशील, 9, अमायी, 10. अपश्चात्तापी / ऐसे साधकों का यह वर्ग है / इनका व्यवहार और निश्चय दोनों शुद्ध होते हैं / __ पालोचक गीतार्थ हो या अगीतार्थ, उन्हें आलोचना सदा गीतार्थ के सामने ही करनी चाहिये / गीतार्थ के अभाव में किन के सामने करना चाहिये।' उनका एक क्रम है--जो छेदसूत्रों के स्वाध्याय से जाना जा सकता है। व्यवहारसूत्र का सम्पादन क्यों संयमी आत्माओं के जीवन का चरम लक्ष्य है -"निश्चयशुद्धि' अर्थात् आत्मा की (कर्म-मल से) सर्वथा मुक्ति और इसके लिये व्यवहारसूत्र प्रतिपादित व्यवहारशुद्धि अनिवार्य है। जिसप्रकार शारीरिक स्वास्थ्यलाभ के लिये उदरशुद्धि आवश्यक है और उदरशुद्धि के लिये आहारशुद्धि अत्यावश्यक है-इसी प्रकार प्राध्यात्मिक आरोग्यलाभ के लिए निश्चयशुद्धि आवश्यक है और निश्चयशुद्धि के लिये व्यवहारशुद्धि आवश्यक है। क्योंकि व्यवहारशुद्धि के बिना निश्चयशुद्धि सर्वथा असंभव है। सांसारिक जीवन में व्यवहारशुद्धि वाले (रुपये-पैसों के देने लेने में प्रामाणिक) के साथ ही लेन-देन का व्यवहार किया जाता है। आध्यात्मिक जीवन में भी व्यवहारशुद्ध साधक के साथ ही कृतिकर्मादि (वन्दन-पूजनादि) व्यवहार किये जाते हैं। 1. गाहा–पायरियपायमूलं, गंतूर्ण सइ परक्कमे / ताहे सव्वेण अत्तसोही, कायव्वा एस उवएसो।। जह सकुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहि / वेज्जस्स य सो सोउतो, पडिकम्म समारभते // जायांतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो निउणं / तह वि य पागडतरयं, पालोएदव्वयं होइ / जह बालो जप्पंतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ / तं तह पालोइज्जा मायामय विप्पमुक्को उ / .-व्यव० उ० 10 भाष्य गाथा 460-471 / [ 33 ] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारसूत्र प्रतिपादित पांच व्यवहारों से संयमी प्रात्माओं का व्यवहारपक्ष शुद्ध (अतिचारजन्य पापमल-रहित) होता है। ग्रन्थ में प्रकाशित छेदसूत्रों के लिये कतिपय विचार व्यक्त किये हैं। इस लेखन में मेरे द्वारा पूर्व में सम्पादित अायारदसा, कप्पसुत्तं छेदसूत्रों में पण्डितरत्न मुनि श्री विजयमुनिजी शास्त्री के "प्राचारदशा: एक अनुशीलन" और उपाध्याय मुनि श्री फूलचन्दजी 'श्रमण के "बृहत्कल्पसूत्र की उत्थानिका" के प्रावश्यक लेखांशों का समावेश किया है। एतदर्थ मुनिद्वय का सधन्यवाद आभार मानता हूँ। विस्तृत विवेचन आदि लिखने का कार्य श्री तिलोकमुनिजी म. ने किया है। अतएव पाठकगण अपनी जिज्ञासानों के समाधान के लिये मुनिश्री से संपर्क करने की कृपा करें। ----मुनि कन्हैयालाल "कमल" [ 34 ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना त्रीणि छेदसूत्राणि : एक समीक्षात्मक अध्ययन वैदिक परम्परा में जो स्थान वेद का है, बौद्ध परम्परा में जो स्थान त्रिपिटक का है, ईसाई धर्म में जो स्थान बाईबिल का है, इस्लाम धर्म में जो स्थान कुरान का है, वही स्थान जैनपरम्परा में आगम-साहित्य का है। वेद तथा बौद्ध और जैन आगम-साहित्य में महत्त्वपूर्ण भेद यह रहा है कि वैदिक परम्परा के ऋषियों ने शब्दों की सुरक्षा पर अधिक बल दिया जबकि जैन और बौद्ध परम्परा में अर्थ पर अधिक बल दिया गया है। यही कारण है कि वेदों के शब्द प्राय: सुरक्षित रहे हैं और अर्थ की दृष्टि से वे एक मत स्थिर नहीं कर सके हैं। जैन और बौद्ध परम्परा में इससे बिल्कुल ही विपरीत रहा है। वहाँ अर्थ की सुरक्षा पर अधिक बल दिया गया है, शब्दों की अपेक्षा अर्थ अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। यही कारण है कि आगमों के पाठभेद मिलते हैं, पर उनमें प्रायः अर्थभेद नहीं है। वेद के शब्दों में मंत्रों का प्रारोपण किया गया है जिससे शब्द तो सुरक्षित रहे, पर उसके अर्थ नष्ट हो गए / जैन आगम-साहित्य में मंत्र-शक्ति का आरोप न होने से अर्थ पूर्ण रूप से सुरक्षित रहा है। वेद किसी एक ऋषि विशेष के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, जब कि जैन गणिपिटक एवं बौद्ध त्रिपिटक क्रमश: भगवान महावीर और तथागत बुद्ध की वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैन आगमों के अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर रहे हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं। जैन और वैदिक परम्परा की संस्कृति पृथक-पृथक रही है। जनसंस्कृति अध्यात्म प्रधान है। जैन आगमों में अध्यात्म का स्वर प्रधान रूप से झंकृत रहा है, वेदों में लौकिकता का स्वर मुखरित रहा है। यहाँ पर यह बात भी विस्मरण नहीं होनी चाहिए कि आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व अण-विज्ञान, जीव-विज्ञान, बनस्पति-विज्ञान आदि के सम्बन्ध में जो बातें जैन आगमों में बताई गई हैं, उन्हें पढ़कर आज का वैज्ञानिक भी विस्मित है। जैन आगम... साहित्य का इन अनेक दृष्टियों से भी महत्त्व रहा है। कुछ समय पूर्व पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों की यह धारणा थी कि वेद ही आगम और त्रिपिटक के मूल स्रोत हैं, पर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त ध्वंसावशेषों ने विज्ञों की धारणा में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है कि आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में जो संस्कृति थी वह पूर्ण रूप से विकसित थी और वह श्रमणसंस्कृति थी। निष्पक्ष विचारकों ने यह सत्य-तथ्य एक मत से स्वीकार किया है कि श्रमणसंस्कृति के प्रभाव से ही वैदिक परम्परा ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतों को स्वीकार किया है। आज जो वैदिक { 35 ] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा में अहिंसादि का वर्णन है वह जैनसंस्कृति की देन है / ' आगम शब्द के अनेक अर्थ हैं। उस पर मैंने विस्तार से चर्चा की है। आचाराङ्ग में जानने के अर्थ में पागम शब्द का प्रयोग हमा है। "आगमेत्ता-आणवेज्जा"२ जानकर प्राज्ञा करे। लाघवं आगममाणे लघुता को जानने वाला / व्यवहारभाष्य में संघदासगणी ने प्रागम-व्यवहार का वर्णन करते हुए उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद किये हैं। प्रत्यक्ष में अवधि, मनापर्यव और केवल ज्ञान है और परोक्ष में चतुर्दश पूर्व और उनसे न्यून श्रुतज्ञान का समावेश है। इससे भी स्पष्ट है कि जो ज्ञान है वह प्रागम है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकरों के द्वारा दिया गया उपदेश भी ज्ञान होने के कारण प्रागम है। भगवती, अनुयोगद्वार और स्थानाङ्ग में प्रागम शब्द शास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ पर प्रमाण के चार भेद किये गये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और प्रागम / प्रागम के भी लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किए गए हैं। लौकिक पागम भारत, रामायण प्रादि हैं और लोकोत्तर पागम आचार, सूत्रकृत प्रादि हैं। लोकोत्तर आगम के सुत्तागम, अत्थागम और तदुभयागम ये तीन भेद भी किए गए हैं। एक अन्य दष्टि से आगम के तीन प्रकार और मिलते हैं-प्रात्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम / अागम के अर्थरूप और सत्ररूप ये दो प्रकार हैं। तीर्थंकर प्रभु अर्थरूप प्रागम: का उपदेश करते हैं अत: अर्थरूप ग्रामम तीर्थंकरों का प्रात्मागम कहलाता है, क्योंकि वह अर्थागम उनका स्वयं का है, दूसरों से उन्होंने नहीं लिया है, किन्तु वही अर्थागम गणधरों ने तीर्थंकरों से प्राप्त किया है / गणधर और तीर्थंकर के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है एतदर्थ गणधरों के लिए वह अर्थागम अनन्तरागम कहलाता है, किन्तु उस अर्थागम के आधार से स्वयं गणधर सूत्ररूप रचना करते हैं। इसलिए सूत्रागम गणधरों के लिए प्रात्मागम कहलाता है। गणधरों के साक्षात् शिष्यों को गणधरों से सूत्रागम सीधा ही प्राप्त होता है, उनके मध्य में कोई भी व्यवधान नहीं होता। इसलिए उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम है, किन्तु अर्थागम तो परम्परागम ही है। क्योंकि वह उन्होंने अपने धर्मगुरु गणधरों से प्राप्त किया है। किन्तु यह गणधरों को भी प्रात्मागम नहीं था। उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया था। गजधरों के प्रशिष्य और 1. संस्कृति के चार अध्याय : पृ. 125 -रामधारीसिंह "दिनकर" 2. प्राचारांग 124 ज्ञात्वा प्राज्ञापयेत् 3. आचारांग 116 / 3 लाघवं आगमयन् अवबुध्यमानः 4. व्यवहारभाष्य गा. 201 5. भगवती 5 / 3 / 192 6. अनुयोगद्वार 7. स्थानाङ्ग 338, 228, 8. अनुयोगद्वार 49-50 पृ. 68, पुण्यविजयजी सम्पादित, महावीर विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित 9. अहवा आगमे तिबिहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्तागमे य अत्थागमे य तदुभयागमे य / -~अनुयोगद्वारसूत्र 470, पृ. 179 10. अहवा प्रागमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा--अत्तागमे, अणंतरागमे परंपरागमे य / --अनुयोगद्वारसूत्र 470, पृ. 179 11. (क) श्रीचन्द्रीया संग्रहणी गा. 112 (ख) आवश्यकनियुक्ति गा. 92 [ 36 ] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्य और प्रशिष्यों के लिए सूत्र और अर्थ परम्परागम हैं / 2 श्रमण भगवान महावीर के पावन प्रवचनों का सूत्र रूप में संकलन-प्राकलन गणधरों ने किया, वह अंगसाहित्य के नाम से विश्रुत हुप्रा / उसके आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञाता, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिबाद ये बारह विभाग हैं। दृष्टिबाद का एक विभाग पूर्व साहित्य है। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार गणधरों ने अर्हद्भाषित मातृकापदों के आधार से चतुर्दश शास्त्रों का निर्माण किया, जिसमें सम्पूर्ण श्रुत की अवतारणा की गई। ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्व के नाम से विश्रुत हुए / इन पूर्वो की विश्लेषण-पद्धति अत्यधिक क्लिष्ट यी अतः जो महान् प्रतिभासम्पन्न साधक थे उन्हीं के लिए वह पूर्व साहित्य ग्राहय था / जो साधारण प्रतिभासम्पन्न साधक थे उनके लिए एवं स्त्रियों के उपकारार्थ द्वादशांगी की रचना की गई। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने लिखा है कि दष्टिबाद का अध्ययन-पठन स्त्रियों के लिए बज्य था। क्योंकि स्त्रियां तुच्छ स्वभाव की होती हैं, उन्हें शीघ्र हो गर्व प्राता है। उनकी इन्द्रियां चंचल होती हैं। उनकी मेधा-शक्ति पुरुषों की अपेक्षा दुर्बल होती है एतदर्थ उत्थान-समुत्थान प्रभृति अतिशय या चमत्कार युक्त अध्ययन और दृष्टिवाद का ज्ञान उनके लिए नहीं है।१४ मलधारी प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रस्तुत विषय का स्पष्टीकरण करते हए लिखा है कि स्त्रियों को यदि किसी तरह दृष्टिवाद का अध्ययन करा दिया जाए तो तुच्छ प्रकृति के कारण "मैं दृष्टिवाद की अध्येता हूं" इस प्रकार मन में अहंकार आकर पुरुष के परिभव-तिरस्कार प्रभृति में प्रवृत्त हो जाये जिससे उसकी दुर्गति हो सकती है एतदर्थ दया के अवतार महान् परोपकारी तीर्थंकरों ने उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय चमत्कार युक्त अध्ययन एवं दृष्टिवाद के अध्ययन का स्त्रियों के लिए निषेध किया। 5 बृहत्कल्पनियुक्ति में भी यही बात आई है / जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने और मलधारी हेमचन्द्र ने स्त्रियों की प्रवृत्ति की विकृति व मेधा की दुर्बलता के सम्बन्ध में जो लिखा है वह पूर्ण संगत नहीं लगता है / वे बातें पुरुष में भी सम्भव हैं। अनेक स्त्रियां पुरुषों से भी अधिक प्रतिभासम्पन्न व गम्भीर होती हैं। यह शास्त्र में पाये हए वर्णनों से भी स्पष्ट है / / 12. तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे, अत्थस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे तेणं परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे णो अणंतरागमे, परम्परागमे -अनुयोगद्वार 470, पृ० 179 13. धम्मोवाओ पवयणमहबा पुब्वाई देसया तस्स / सब्बंजिणा | गणहरा, चोदसपुव्वा उ ते तस्स / / सामाइयाइयावा वयजीवनिकाय भावणा पढमं / एसो धम्मोवादो जिणेहि सव्वेहि उबइलो / / -~-आवश्यकनियुक्ति गा० 292-293 14. तुच्छा गारबबहुला चलिदिया दुब्बला धिईए य / इति पाइसेसज्झयणा भूयावायो य नो स्थीणं // ..."इह बिचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात तेषां च दुर्मेधत्वात् स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानाधिकार एव तासां तुच्छत्वादि दोषबहुलत्वात् / -विशेषावश्यकभाष्य गाथा 55 की व्याख्या पृ० 48 प्रकाशक-प्रागमोदय समिति बम्बई [ 37 ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब स्त्री अध्यात्म-साधना का सर्वोच्चपद तीर्थंकर नामकर्म का अनुबन्ध कर सकती है, केवलज्ञान प्राप्त कर सकती है तब दृष्टिवाद के अध्ययनार्थ जिन दुर्बलताओं की ओर संकेत किया गया है और जिन दुर्बलताओं के कारण स्त्रियों को दष्टिवाद की अधिकारिणी नहीं माना गया है उन पर विज्ञों को तटस्थ दष्टि से गम्भीर चिन्तन करना चाहिए। मेरी दृष्टि से पूर्व-साहित्य का ज्ञान लब्ध्यात्मक था / उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए केवल अध्ययन और पढ़ना ही पर्याप्त नहीं था, कुछ विशिष्ट साधनाएं भी साधक को अनिवार्य रूप से करनी पड़ती थीं। उन साधनाओं के लिए उस साधक को कुछ समय तक एकान्त-शान्त स्थान में एकाकी भी रहना आवश्यक होता था। स्त्रियों का शारीरिक संस्थान इस प्रकार का नहीं है कि वे एकान्त में एकाकी रह कर दीर्घ साधना कर सकें। इस दृष्टि से स्त्रियों के लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषेध किया गया हो। यह अधिक तर्कसंगत व युक्ति-युक्त है / मेरी दृष्टि से यही कारण स्त्रियों के आहारकशरीर की अनुपलब्धि प्रादि का भी है। गणधरों द्वारा संकलित अंग ग्रन्थों के आधार से अन्य स्थविरों ने बाद में ग्रन्थों की रचना की, वे अंगबाह्य कहलाये। अंग और अंगबाह्य ये आगम ग्रन्थ ही भगवान् महावीर के शासन के आधारभूत स्तम्भ हैं। जैन प्राचार की कुञ्जी हैं, जैन विचार की अद्वितीय निधि हैं, जनसंस्कृति की गरिमा हैं और जैन साहित्य की महिमा हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि अंगबाह्य ग्रन्थों को आगम में सम्मिलित करने की प्रक्रिया श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में एक समान नहीं रही है। दिगम्बर परंपरा में अंगबाह्य आगमों की संख्या बहुत ही स्वल्प है किन्तु श्वेताम्बरों में यह परम्परा लम्बे समय तक चलती रही जिससे अंगबाह्य ग्रन्थों की संख्या अधिक है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है कि प्रावश्यक के विविध अध्ययन, दशवकालिक, उत्तराध्ययन और निशीथ प्रादि दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से मान्य रहे हैं। ___ श्वेताम्बर विद्वानों की यह मान्यता है कि आगम-साहित्य का मौलिक स्वरूप बहुत बड़े परिमाण में लुप्त हो गया है पर पूर्ण नहीं, अब भी वह शेष है। अंगों और अंगबाह्य भागमों की जो तीन बार संकलना हुई उसमें उसके मौलिक रूप में कुछ अवश्य ही परिवर्तन हुआ है। उत्तरवर्ती घटनाओं और विचारणामों का समावेश भी किया गया है। जैसे स्थानांग में सात निह्नव और नवगणों का वर्णन / प्रश्नव्याकरण में जिस विषय का संकेत किया गया है वह बर्तमान में उपलब्ध नहीं है, तथापि आगमों का अधिकांश भाग मौलिक है, सर्वथा मौलिक है। भाषा व रचना शैली की दृष्टि से बहुत ही प्राचीन है। वर्तमान भाषाशास्त्री आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को और सुत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को ढाई हजार वर्ष प्राचीन बतलाते हैं / स्थानांग, भगवती, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, निशीथ और कल्प को भी वे प्राचीन मानते हैं। इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि प्रागम का मूल प्राज भी सुरक्षित है। दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से अंग साहित्य लुप्त हो चुका है। अत: उन्होंने नवीन ग्रन्थों का सृजन किया और उन्हें आगमों की तरह प्रमाणभूत माना / श्वेताम्बरों के प्रागम-साहित्य को दिगम्बर परम्परा प्रमाणभूत नहीं मानती है तो दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों को श्वेताम्बर परम्परा मान्य नहीं करती है, पर जब मैं तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करता तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों ही परम्पराओं के प्रागम ग्रन्थों में मौलिक दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों के पागम ग्रन्थों में तत्त्वविचार, जीवविचार, कर्मविचार, लोकविचार, ज्ञानविचार समान है। दार्शनिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। प्राचार परम्परा की दृष्टि से भी चिन्तन करें तो वस्त्र के उपयोग के सम्बन्ध में कुछ मतभेद होने पर भी विशेष अन्तर नहीं रहा। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में नग्नत्व पर अत्यधिक बल दिया गया, किन्तु व्यवहार में नग्न मुनियों की संख्या बहुत ही कम रही और दिगम्बर भट्टारक आदि की संख्या Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनसे बहत अधिक रही। श्वेताम्बर पागम साहित्य में जिनकल्प को स्थविरकल्प से अधिक महत्त्व दिया गया किन्त व्यवहारिक दृष्टि से आर्य जम्बू के पश्चात् जिनकल्प का निषेध कर दिया गया। दिगम्बर परम्परा में स्त्री के निर्वाण का निषेध किया है किन्तु दिगम्बर परम्परा मान्य षखण्डागम में मनुष्य-स्त्रियां सम्यगमिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यगदष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं / 16 इसमें "संजद" शब्द को सम्पादकों ने टिप्पण में दिया है, जिसका सारांश यह है कि मनुष्य-स्त्री को "संयत" गुणस्थान न हो सकता है और संयत गुणस्थान होने पर स्त्री मोक्ष में जा सकती है। प्रस्तुत प्रश्न को लेकर दिगम्बर समाज में प्रबल विरोध का बातावरण समुत्पन्न हुआ तब ग्रन्थ के सम्पादक पं.हीरलालजी जैन आदि ने पूनः उसका स्पष्टीकरण "पखण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना" में किया किन्तु जब विज्ञों ने मूडबिद्री (कर्णाटक) में पटखण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी "संजद" शब्द मिला है। वदकरस्वामी विरचित मूलाचार में प्रायिकामों के प्राचार का विश्लेषण करते हुए कहा है जो साधु अथवा धार्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं वे जगत् में पूजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं। इसमें भी प्रायिकाओं के मोक्ष में जाने का उल्लेख है / किन्तु बाद में टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में स्त्री निर्वाण का निषेध किया है। प्राचार के जितने भी नियम हैं उनमें महत्त्वपूर्ण नियम उद्दिष्ट त्याग का है, जिसका दोनों ही परम्परामों में समान रूप से महत्त्व रहा है। श्वेताम्बर प्रागम-साहित्य में और उसके व्याख्या साहित्य में प्राचार सम्बन्धी अपवाद मार्ग का विशेष वर्णन मिलता है किन्तु दिगम्बर परम्परा के अन्यों में अपवाद का वर्णन नहीं है, पर गहराई से चिन्तन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दिगम्बर परम्परा में भी अपवाद रहे होंगे, यदि प्रारम्भ से ही अपवाद नहीं होते तो अंगवाह्य सूची में निशीथ का नाम कैसे आता ? श्वेताम्बर परम्परा में 'अपवादों को सूत्रबद्ध करके भी उसका अध्ययन प्रत्येक व्यक्ति के लिए निषिद्ध कर दिया गया। विशेष योग्यता वाला श्रमण ही उसके पढ़ने का अधिकारी माना गया / श्वेताम्बर श्रमणों की संख्या प्रारम्भ से ही अत्यधिक रही जिससे समाज की सुव्यवस्था हेतु छेदसूत्रों का निर्माण हआ। छेदसूत्रों में श्रमणाचार के निगूढ़ रहस्य और सूक्ष्म क्रिया-कलाप को समझाया गया है। श्रमण के जीवन में अनेकानेक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग समुपस्थित होते हैं, ऐसी विषम परिस्थिति में किस प्रकार निर्णय लेना चाहिए यह बात छेदसूत्रों में बताई गई है। प्राचार सम्बन्धी जैसा नियम और उपनियमों का वर्णन जैन परम्परा में छेदसूत्रों में उपलब्ध होता है वैसा ही वर्णन बौद्ध परम्परा में विनयपिटक में मिलता है और वैदिक परम्परा में के कल्पसूत्र, श्रोतसूत्र और गृहसूत्रों में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में भी छेत्रसूत्र बने थे पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। छेदसूत्र का नामोल्लेख मन्दीसूत्र में नहीं हुआ है। "छेद सूत्र" का सबसे प्रथम प्रयोग प्रावश्यकनियुक्ति 16. सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठि संजदासंजद (अत्र संजद इति पाठशेषः प्रतिभाति) ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ। -षट्खण्डागम, भाग 1 सूत्र 93 पृ. 332, प्रका..-सेठ लक्ष्मीचंद शिताबराय जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय अमरावती (बरार) सन् 1939 17. एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जायो / ते जगपुज्ज कित्ति सुहं च लण सिझति / / -मूलाचार 4/196, पृ. 168 [ 39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में हरा है।१८ उसके पश्चात् विशेषावश्यकभाष्य और निशीथभाष्य' मादि में भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है। तात्पर्य यह है कि हम अावश्यकनियुक्ति को यदि ज्योतिर्विद वराहमिहिर के भ्राता द्वितीय भद्रबाह की कृति मानते हैं तो वे विक्रम की छठी शताब्दी में हुए हैं। उन्होंने इसका प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि "छेदसुत्त" शब्द का प्रयोग "मूलसुत्त" से पहले हुआ है। अमुक प्रागमों को "छेदसूत्र" यह अभिधा क्यों दी गई ? इस प्रश्न का उत्तर प्राचीन ग्रन्थों में सीधा और स्पष्ट प्राप्त नहीं है। हाँ यह स्पष्ट है कि जिन सूत्रों को "छेदसुत्त" कहा गया है वे प्रायश्चित्तसूत्र हैं। स्थानाङ्ग में श्रमणों के लिए पांच चारित्रों का उल्लेख है (1) सामायिक, (2) छेदोपस्थापनीय, (3) परिहारविशुद्धि, (4) सूक्ष्मसंपराय, (5) ययाख्यात / 22 इनमें से वर्तमान में तीन अन्तिम चारित्र विच्छिन्न हो गये हैं। सामायिक चारित्र स्वल्पकालीन होता है, छेदोपस्थापनिक चारित्र ही जीवन पर्यन्त रहता है। प्रायश्चित्त का सम्बन्ध भी इसी चारित्र से है। संभवत: इसी चारित्र को लक्ष्य में रखकर प्रायश्चित्तसूत्रों को छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो। मलयगिरि की आवश्यकवृत्ति 23 में छेदसूत्रों के लिए पद-विभाग, समाचारी शब्द का प्रयोग हमा है। पद-विभाग और छेद ये दोनों शब्द रखे गये हों। क्योंकि छेदसूत्रों में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध नहीं है। सभी सूत्र स्वतंत्र हैं। उनकी व्याख्या भी छेद-दष्टि से या विभाग-दष्टि से की जाती है। दशाश्रुतस्कन्ध, निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प ये सूत्र नौवें प्रत्याख्यान पूर्व से उद्धृत किये गये हैं,२४ उससे छिन्न अर्थात् पृथक् करने से उन्हें छेदसूत्र की संज्ञा दी गई हो, यह भी सम्भव है / 25 छेदसूत्रों को उत्तम श्रुत माना गया है। भाष्यकार भी इस कथन का समर्थन करते हैं।२६ चणिकार जिनदास महत्तर स्वयं यह प्रश्न उपस्थित करते हैं कि छेदसूत्र उत्तम क्यों हैं ? फिर स्वयं ही उसका समाधान देते किदसत्र में प्रायश्चित्तविधि का निरूपण है, उससे चारित्र की विशुद्धि होती है, एतदर्थ यह श्रत उत्तम माना 18. जं च महाकप्पसुयं, जाणि असेसाणि छेअसुत्ताणि / चरणकरणाणुप्रोगो ति कालियत्थे उवमयाणि / / -आवश्यकनियुक्ति 777 ---विशेषावश्यकभाष्य 2265 20. (क) छेदसुत्तणिसीहादी, अत्यो य गतो य छेदसुत्तादी / मंतनिमित्तोसहिपाहूडे, य गाति अण्णात्थ / / ----निशीथभाप्य 5947 (ख) केनोनिकल लिटरेचर पृ. 36 भी देखिए। 21. जैनागमधर और प्राकृत वाङ्मय -लेखक पुण्यविजयजी, —-मुनि हजारीमल स्मृतिग्रन्थ, पृ. 718 22. (क) स्थानांगसूत्र 5, उद्देशक 2, सूत्र 428 (ख) विशेषावश्यकभाष्य गा. 1260-1270 23. पदविभाग, समाचारी छेदसूत्राणि / -आवश्यकनियुक्ति 665, मलयगिरिवृत्ति 24. कतरं सुत्तं ? दसाउकप्पो वबहारो य / कतरातो उद्धृतं ? उच्यते पच्चक्खाण-पुठवाओ। -दशाश्रुतस्कंघचूणि, पत्र 2 25. निशीध 19 / 17 26. छेयसुयमुत्तमसुयं / -निशीथभाष्य, 6148 [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। श्रमण-जीवन की साधना का सर्वाङ्गीण विवेचन छेदसूत्रों में ही उपलब्ध होता है। साधक की क्या मर्यादा है, उसका क्या कर्त्तव्य है ? इत्यादि प्रश्नों पर उनमें चिन्तन किया गया है। जीवन में से असंयम के अंश को काटकर पृथक करना, साधना में से दोषजन्य मलिनता को निकालकर साफ करना, भूलों से बचने के लिए पूर्ण सावधान रहना, भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त ग्रहण कर उसका परिमार्जन करना, यह सब छेदसूत्रों का कार्य है / समाचारीशतक में समयसुन्दरगणी ने छेदसूत्रों की संख्या छह बतलाई है:(१) महानिशीथ, (2) दशाश्रुतस्कंध, (3) व्यवहार, (4) बृहत्कल्प, (5) निशीथ, (6) जीतकल्प / जीतकल्प को छोड़कर शेष पाच सूत्रों के नाम नन्दीसूत्र में भी पाये हैं। जीतकल्प जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की कृति है, एतदर्थ उसे आगम की कोटि में स्थान नहीं दिया जा सकता / महानिशीथ का जो वर्तमान संस्करण है, वह आचार्य हरिभद्र (वि. 8 वीं शताब्दी) के द्वारा पुनरुद्धार किया हुआ है। उसका उसके पूर्व ही दीमकों ने उदरस्थ कर लिया गया था। अतः वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथ भी आगम की कोटि में नहीं पाता। इस प्रकार मौलिक छेदसूत्र चार ही हैं-(१) दशाश्रुतस्कन्ध, (2) व्यवहार, (3) बृहत्कल्प और (4) निशीथ / निए हित आगम जैन आगमों की रचनाएं दो प्रकार से हुई है--(१) कृत, (2) नि! हित / जिन आगमों का निर्माण स्वतंत्र रूप से हुआ है वे आगम कृत कहलाते हैं। जैसे गणधरों के द्वारा द्वादशांगी की रचना की गई है और भिन्न-भिन्न स्थविरों के द्वारा उपांग साहित्य का निर्माण किया गया है, वे सब कृत पागम हैं। नि! हित आगम ये माने गये हैं - (1) आचारचूला (2) दशवकालिक (3) निशीथ (4) दशाश्रुतस्कन्ध (5) बृहत्कल्प (6) व्यवहार (7) उत्तराध्ययन का परीषह अध्ययन। प्राचारचुला यह चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के द्वारा निर्वृहण की गई है, यह बात अाज अन्वेषणा के द्वारा स्पष्ट हो चुकी है। प्राचारांग से प्राचारचूला की रचना-शैली सर्वथा पृथक् है। उसकी रचना आचारांग के बाद हुई है। आचारांग-नियुक्तिकार ने उसको स्थविरकृत माना है।' स्थविर का अर्थ चर्णिकार ने गणधर किया है। 1. छेयसुयं कम्हा उत्तमसुत्तं ? भण्णामि जम्हा एत्थं सपायच्छित्तो विधी भण्णति, जम्हा एतेगच्चरणविशुद्धं करेति, तम्हा तं उत्तमसुत्तं / --निशीथभाष्य 6184 की चूणि 2. समाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार। 3. कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा--दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीह, महानिसीह / -नन्दीसूत्र 77 4. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० 21-22, पं० दलसुखभाई मालवणिया -प्रकाशक सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा 5. थरेहिऽणुग्गहट्ठा, सीसहि होउ पागउत्थं च / आयाराओ अत्थो, पायारंगेसु पविभत्तो // -आचारांगनियुक्ति गा० 287 6. थेरे गणधरा। --आचारांगचूणि, पृ० 326 [ 41 ] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वृत्तिकार ने चतुर्दशपूर्वी किया है किन्तु उनमें स्थविर का नाम नहीं आया है। विज्ञों का अभिमत है कि यहाँ पर स्थविर शब्द का प्रयोग चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के लिए ही हुआ है। आचारांग के गम्भीर अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए "आचारचूला" का निर्माण हुआ है / नियुक्तिकार ने पांचों चूलाओं के निर्यहूणस्थलों का संकेत किया है। दशवकालिक चतुर्दशपूर्वी शय्यंभव के द्वारा विभिन्न पूर्वो से नि!हण किया गया है / जैसे-चतुर्थ अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व से, पंचम अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से, सप्तम अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से उद्धत किये गये हैं।' द्वितीय अभिमतानुसार दशवकालिक गणिपिटक द्वादशांगी से उद्धृत है। निशीथ का नि! हण प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व से हुआ है। प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु अर्थात् अर्थाधिकार हैं। तृतीय वस्तु का नाम आचार है। उसके भी बीस प्राभृतच्छेद अर्थात् उपविभाग हैं। बीसवें प्राभूतच्छेद से निशीथ का नि' हण किया गया है। पंचकल्पचूणि के अनुसार निशीथ के निर्यु हक भद्रबाहुस्वामी है। इस मत का समर्थन प्रागमप्रभावक मुनिश्री पुण्यविजयजी ने भी किया है। 1. "स्थविरैः" श्रुतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविद्भिः / 2. बिमस्स य पंचमए, अट्ठमगस्स बिइयंमि उद्देसे / भणिओ पिडो सिज्जा, वत्थं पाउग्गहो चेव / / पंचमगस्स चउत्थे इरिया, वणिज्जई समासेणं / छुट्ठस्स य पंचमए, भासज्जायं वियाणाहि / सत्तिक्कगाणि सत्तवि, निज्जढाई महापरिन्नाओ। सत्थपरिन्ना भावण, निज्जूढानो धुयविमुत्ती / / आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स तइयवत्थूप्रो। आयारनामधिज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेया // -प्राचारांगनियुक्ति गा० 288-291 3. पायप्पवाय पुब्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नती। कम्पप्पवाय पुब्बा पिंडस्स उ एसणा तिविधा / / सच्चय्पवाय पुव्वा निज्जूढा होइ बक्कसुद्धी उ / अवसेसा निज्जढा नवमस्स उ तइयवत्थूयो। -दशवकालिकनियुक्ति गा० 16-17 बीमोऽवि अ आएसो, गणिपिडगाओ दुवालसंगायो। एअं किर णिज्जूढं मणगस्स अणुगाहटाए / - दशवकालिकनियुक्ति गा. 18 णिसीहं णवमा पुब्वा पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ। आयार नामधेज्जा, वीसतिमा पाहुडच्छेदा / —निशीथभाष्य 6500 6. लेण भगवता आयारपकप्प-दसा-कप्प-ववहारा य नवमपुबनीसंदभूता निज्जूढा / --पंचकल्पचूणि, पत्र 1 (लिखित) 7. बृहत्कल्पसूत्र, भाग 6, प्रस्तावना पृ. 3 [42] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार, ये तीनों पागम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी के द्वारा प्रत्याख्यानपूर्व से नियूंढ हैं।' दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति के मन्तव्यानुसार वर्तमान में उपलब्ध दशाश्रुतस्कंध अंगप्रविष्ट आगमों में जो दशाएं प्राप्त हैं, उनसे लघु हैं। इनका नियूहण शिष्यों के अनुग्रहार्थ स्थविरों ने किया था। चूर्णि के अनुसार स्थविर का नाम भद्रबाहु है। ___ उत्तराध्ययन का दूसरा अध्ययन भी अंग-प्रभव माना जाता है / नियुक्तिकार भद्रबाहु के मतानुसार वह कर्मप्रवादपूर्व के सत्रहवें प्राभृत से उद्धृत है। इनके अतिरिक्त आगमेतर साहित्य में विशेषतः कर्मसाहित्य का बहुत-सा भाग पूर्वोद्धृत माना जाता है। नियू हित कृतियों के सम्बन्ध में यह स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर हैं, सूत्र के रचयिता गणधर हैं और जो संक्षेप में उसका वर्तमान रूप उपलब्ध है उसके कर्ता वही हैं जिन पर जिनका नाम अंकित या प्रसिद्ध है। जैसे दशवकालिक के शय्यंभव; कल्प, व्यवहार, निशीथ और दशाश्रुतस्कंध के रचयिता भद्रबाहु हैं। जैन अंग-साहित्य की संख्या के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी एकमत हैं। सभी अंगों को बारह स्वीकार करते हैं। परन्तु अंगबाह्य आगमों की संख्या के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, उनके विभिन्न मत है / यही कारण है कि आगमों की संख्या कितने ही 84 मानते हैं, कोई-कोई 45 मानते हैं और कितने ही 32 मानते हैं / नन्दीसूत्र में आगमों की जो सूची दी गई है, वे सभी आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज मूल प्रागमों के साथ कुछ नियुक्तियों को मिलाकर 45 आगम मानता है और कोई 84 मानते हैं। स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा बत्तीस को ही प्रमाणभूत मानती है। दिगम्बर समाज की मान्यता है कि सभी प्रागम विच्छिन्न हो गये हैं। 1. वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिय सयलसुयणाणि / सो सुत्तस्स कारगमिसं (णं) दसासु कप्पे य ववहारे / --दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति गा.१, पत्र 1 2. डहरीओ उ इमानो, अज्झयणेसु महईओ अंगेसु / छसु नायादीएसु, वत्थविभूसावसाणमिव // डहरीयो उ इमाओ, निज्जूढायो अणुग्गहट्टाए। थरेहिं तु दसानो, जो दसा जाणओ जीवो / —दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति 5-6 दशाश्रुतस्कंधचूणि / कम्पप्पवायपुब्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं / सणयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि गायब्वं / / -उत्तराध्ययननियूक्ति गा.६९ 5. (क) तत्त्वार्थसूत्र 1-20, श्रुतसागरीय वृत्ति। (ख) षट्खण्डागम (धवला टीका) खण्ड 1, पृ. 6 बारह अंगविज्झा / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध दशाश्रुतस्कंध छेदसूत्र है / छेदसूत्र के दो कार्य हैं-दोषों से बचाना और प्रमादवश लगे हए दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान करना। इसमें दोषों से बचने का विधान है / ठाणांग में इसका अपरनाम प्राचारदशा प्राप्त होता है। दशाश्रुतस्कंध में दश अध्ययन हैं, इसलिए इसका नाम दशाश्रुतस्कंध है। दशाश्रुतस्कंघ का 1830 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध पाठ है / 216 गद्यसूत्र हैं / 52 पद्यसूत्र हैं। प्रथम उद्देशक में 20 असमाधिस्थानों का वर्णन है। जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शांति हो, प्रात्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्षमार्ग में रहे, वह समाधि है और जिस कार्य से चित्त में अप्रशस्त एवं अशांत भाव हों, ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि मोक्षमार्ग से आत्मा भ्रष्ट हो, वह असमाधि है। असमाधि के बीस प्रकार हैं। जैसेजल्दी-जल्दी चलना, बिना पूजे रात्रि में चलना, बिना उपयोग सब दैहिक कार्य करना, गुरुजनों का अपमान, निन्दा आदि करना। इन कार्यों के आचरण से स्वयं व अन्य जीवों को असमाधिभाव उत्पन्न होता है। साधक की आत्मा दूषित होती है / उसका पवित्र चारित्र मलिन होता है। अतः उसे असमाधिस्थान कहा है। द्वितीय उद्देशक में 21 शबल दोषों का वर्णन किया गया है, जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है। चारित्र मलक्लिन्न होने से वह कर्बुर हो जाता है। इसलिए उन्हें शबलदोष कहते हैं / 2 “शबलं कर्बुरं चित्रम्" शबल का अर्थ चित्रवर्णा है। हस्तमैथुन, स्त्री-स्पर्श आदि, रात्रि में भोजन लेना और करना, प्राधाकर्मी, औद्देशिक पाहार का लेना, प्रत्याख्यानभंग, मायास्थान का सेवन करना आदि-आदि ये शबल दोष हैं। उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चार दोषों का एवं मूलगुणों में अनाचार के अतिरिक्त तीन दोषों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है। तीसरे उद्देशक में 33 प्रकार की आशातनाओं का वर्णन है। जैनाचार्यों ने आशातना शब्द की निरुक्ति अत्यन्त सुन्दर की है। सम्यग्दर्शनादि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को आय कहते हैं और शातना का अर्थ खण्डन है। सदगुरुदेव आदि महान् पुरुषों का अपमान करने से सम्यग्दर्शनादि सद्गुणों की आशातना-खण्डना होती है।3। शिष्य का मुरु के आगे, समश्रेणी में, अत्यन्त समीप में गमन करना, खड़ा होना, बैठना आदि, गुरु, से पूर्व किसी से सम्भाषण करना, गुरु के वचनों को जानकर अवहेलना करना, भिक्षा से लौटने पर आलोचना न करना, प्रादि-आदि पाशातना के तेतीस प्रकार हैं। चतुर्थ उद्देशक में प्रकार की गणिसम्पदाओं का वर्णन है। श्रमणों के समुदाय को गण कहते हैं। गण का अधिपति गणी होता है। गणिसम्पदा के आठ प्रकार हैं--प्राचारसम्पदा, श्रुतसम्पदा, शरीरसम्पदा, वचनसम्पदा, वाचनासम्पदा, मतिसम्पदा, प्रयोगमतिसम्पदा और संग्रहपरिज्ञानसम्पदा / प्राचारसम्पदा के संयम में ध्र वयोगयुक्त होना, अहंकाररहित होना, अनियतवृत्ति होना, वृद्धस्वभावी (अचंचलस्वभावी)-ये चार प्रकार हैं। समाधानं समाधि:-चेतसः स्वास्थ्य, मोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थ: न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि आश्रया भेदाः पर्याया असमाधि-स्थानानि / -आचार्य हरिभद्र शबलं-कबुरं चारित्रं यः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात्साधवो पि। -अभयदेवकृत समवायांगटीका 3. आय:– सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डना निरुक्तादाशातना / .—प्राचार्य अभयदेवकृत समवायांगटीका Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतसम्पदा के बहुश्रुतता, परिचितश्रुतता, विचित्रश्रुतता, घोषविशुद्धिकारकता-ये चार प्रकार हैं। शरीरसम्पदा के शरीर की लम्बाई व चौड़ाई का सम्यक अनुपात, अलज्जास्पद शरीर, स्थिर संगठन, प्रतिपूर्ण इन्द्रियता---ये चार भेद हैं। वचनसम्पदा के प्रादेयवचन- ग्रहण करने योग्य वाणी, मधुर वचन, अनिश्रित- प्रतिबन्धरहित, असंदिग्ध वचन-ये चार प्रकार हैं। वाचनासम्पदा के विचारपूर्वक वाच्यविषय का उद्देश्य निर्देश करना, विचारपूर्वक वाचन करना, उपयुक्त विषय का ही विवेचन करना, अर्थ का सुनिश्चित रूप से निरूपण करता-ये चार भेद हैं। मतिसम्पदा के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार प्रकार हैं / अवग्रह मतिसम्पदा के क्षिप्रग्रहण, बहुग्रहण, बहुविधग्रहण, ध्र वग्रहण, अनिश्रितग्रहण और असंदिग्धग्रहणये छह भेद हैं। इसी प्रकार ईहा और अवाय के भी छह-छह प्रकार हैं / धारणा मतिसम्पदा के बहुधारण, बहुबिधधारण, पुरातनधारण, दुर्द्धरधारण, अनिधितधारण और असंदिग्धधारण-....ये छह प्रकार हैं। प्रयोगमतिसम्पदा के स्वयं की शक्ति के अनुसार वाद-विवाद करना, परिषद को देखकर वाद-विवाद करना, क्षेत्र को देखकर वाद-विवाद करना, काल को देखकर वाद-विवाद करना—ये चार प्रकार हैं। संग्रहपरिज्ञासम्पदा के वर्षाकाल में सभी मुनियों के निवास के लिए योग्यस्थान की परीक्षा करना, सभी श्रमणों के लिए प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक की व्यवस्था करना, नियमित समय पर प्रत्येक कार्य करना, अपने से ज्येष्ठ श्रमणों का सत्कार-सम्मान करना-ये भेद हैं। गणिसम्पदाओं के वर्णन के पश्चात् तत्सम्बन्धी चतुर्विध विनय-प्रतिपत्ति पर चिंतन करते हुए आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय और दोषनिर्घातविनय बताये हैं। यह चतुविध विनयप्रतिपत्ति है जो गुरुसम्बन्धी विनयप्रतिपत्ति कहलाती है। इसी प्रकार शिष्य सम्बन्धी विनय प्रतिपत्ति भी उपकरणोत्पादनता, सहायता, वर्णसंज्वलनता (गुणानुवादिता), भारप्रत्यवरोहणता है / इन प्रत्येक के पुनः चार-चार प्रकार हैं। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में कुल 32 प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति का विश्लेषण है। पांचवें उद्देशक में दश प्रकार की चित्तसमाधि का वर्णन है। धर्मभावना, स्वप्नदर्शन, जातिस्मरणज्ञान, देवदर्शन, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलमरण (निर्वाण) इन दश स्थानों के वर्णन के साथ मोहनीयकर्म की विशिष्टता पर प्रकाश डाला है। छठे उद्देशक में ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमानों का वर्णन है। प्रतिमाओं के वर्णन के पूर्व मिथ्यादृष्टि के स्वभाव का चित्रण करते हुए बताया है कि वह न्याय का या अन्याय का किचिनमात्र भी बिना ख्याल किये दंड प्रदान करता है। जैसे सम्पत्तिहरण, मुडन, तर्जन, ताड़न, अंदुकबन्धन (सांकल से बांधना), निगडबन्धन, काष्ठबन्धन, चारकबन्धन (कारागृह में डालना), निगडयुगल संकुटन (अंगों को मोड़कर बांधना), हस्त, पाद, कर्ण, नासिका, अष्ठ, शीर्ष, मुख, वेद आदि का छेदन करना, हृदय-उत्पाटन, नयनादि उत्पाटन, उल्लंबन (वृक्षादि पर लटकाना), घर्षण, घोलन, शूलायन (शूली पर लटकाना), शूलाभेदन, क्षारवर्तन (जख्मों आदि पर नमकादि छिड़कना), दर्भवर्तन (घासादि से पीड़ा पहुंचाना), सिंहपुछन, वृषभपुछन, दावाग्निदग्धन, भक्तपाननिरोध प्रभृति दंड देकर आनन्द का अनुभव करता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि प्रास्तिक होता है व उपासक बन एकादश प्रतिमाओं की साधना करता है। इन ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का वर्णन उपासकदशांग में भी आ चुका है। [ 45 ] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाधारक श्रावक प्रतिमा की पूर्ति के पश्चात् संयम ग्रहण कर लेता है ऐसा कुछ प्राचार्यों का अभिमत है। कार्तिक सेठ ने 100 बार प्रतिमा ग्रहण की थी ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। सातवें उद्देशक में श्रमण की प्रतिमाओं का वर्णन है। ये भिक्षुप्रतिमाएं 12 हैं। प्रथम प्रतिमाधारी भिक्ष को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है। श्रमण के पात्र में दाता द्वारा दिये जाने वाले अन्न और जल की धारा जब तक अखण्ड बनी रहती है, उसे दत्ति कहते हैं। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहाँ से लेना कल्पता है। जहां दो, तीन या अधिक व्यक्तियों के लिए बना हो वहाँ से नहीं ले सकता। इसका समय एक मास का है। दूसरी प्रतिमा भी एक मास की है। उसमें दो दत्ति प्राहार की और दो दत्ति पानी की ली जाती हैं / इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवी प्रतिमानों में क्रमशः तीन, चार, पांच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही दत्ति पानी की ग्रहण की जाती हैं। प्रत्येक प्रतिमा का समय एक-एक मास है। केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही त्रिमासिक से सातमासिक क्रमश: कहलाती हैं। आठवी प्रतिमा सात दिन-रात की होती है। इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करना होता है। गांव के बाहर आकाश की ओर मुह करके सीधा देखना, एक करवट से लेटना और विषद्यासन (पैरों को बराबर करके) बैठना, उपसर्ग आने पर शान्तचित्त से सहन करना होता है। नौवी प्रतिमा भी सात रात्रि की होती है। इसमें चौविहार बेले-बेले पारणा किया जाता है। गांव के बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुडासन या उत्कटकासन करके ध्यान किया जाता है। . दसबी प्रतिमा भी सात रात्रि की होती है। इसमें चौविहार तेले-तेले पारणा किया जाता है। गांव के बाहर गोदोहासन, वीरासन और आम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्रि की होती है। पाठ प्रहर तक इसकी साधना की जाती है। चौबिहार बेला इसमें किया जाता है / नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की ओर लम्बा करके दण्ड की तरह खड़े रहकर कायोत्सर्ग किया जाता है। बारहवीं प्रतिमा केवल एक रात्रि की है। इसका अाराधन तेले से किया जाता है। गांव के बाहर श्मशान में खड़े होकर मस्तक को थोड़ा झुकाकर किसी एक पुदगल पर दृष्टि रखकर निनिमेष नेत्रों से निश्चितता पूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है। उपसर्ग आने पर समभाव से सहन किया जाता है। इन प्रतिमाओं में स्थित श्रमण के लिए अनेक विधान भी किये हैं। जैसे---कोई व्यक्ति प्रतिमाधारी निर्ग्रन्थ है तो उसे भिक्षाकाल को तीन विभाग में विभाजित करके भिक्षा लेनी चाहिये—आदि, मध्य और चरम / आदि भाग में भिक्षा के लिए जाने पर मध्य और चरम भाग में नहीं जाना चाहिये / मासिकी प्रतिमा में स्थित श्रमण जहाँ कोई जानता हो वहाँ एक रात रह सकता है। जहां उसे कोई भी नहीं जानता वहाँ वह दो रात रह सकता है। इससे अधिक रहने पर उतने ही दिन का छेद अथवा तप प्रायश्चित्त लगता है। इसी प्रकार और भी कठोर अनुशासन का विधान लगाया जा सकता है। जैसे कोई उपाश्रय में आग लगा दे तो भी उसे नहीं जाना चाहिए। यदि कोई पकड़कर उसे बाहर खींचने का प्रयत्न करे तो उसे हठ न करते हुए सावधानीपूर्वक बाहर निकल जाना चाहिए / इसी तरह सामने यदि मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, बैल, कुत्ता, व्याघ्र प्रादि आ जाएं तो भी उसे उनसे डरकर एक कदम भी पीछे नहीं हटना चाहिये। शीतलता तथा उष्णता के परीषह को धैर्यपूर्वक सहन करना चाहिये। आठवें उद्देशक (दशा) में पर्युषणा कल्प का वर्णन है / पर्युषण शब्द “परि" उपसर्ग पूर्वक वस् धातु से [46 ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अनः" प्रत्यय लगकर बना है। इसका अर्थ है, प्रात्ममज्जन, आत्मरमण या आत्मस्थ होना / पर्युषणकल्प का दूसरा अर्थ है एक स्थान पर निवास करना। वह सालंबन या निरावलंबन रूप दो प्रकार का है। सालंबन का अर्थ है सकारण और निरावलंबन का अर्थ है कारणरहित / निरावलंबन के जघन्य और उत्कृष्ट दो भेद हैं। पर्युषणा के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार हैं-(१) परियाय वत्थवणा, (2) पज्जोसमणा, (3) पागइया, (4) परिवसना, (5) पज्जुसणा, (6) वासावास, (7) पढमसमोसरण, (8) ठवणा और (9) जेट्टोग्गह। ये सभी नाम एकार्थक हैं, तथापि व्युत्पत्ति-भेद के आधार पर किंचित् अर्थभेद भी है और यह अर्थभेद पर्युषणा से सम्बन्धित विविध परम्पराओं एवं उस नियत काल में की जाने वाली क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण निदर्शन कराता है / इन अर्थों से कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी व्यक्त होते हैं / पर्युषणा काल के आधार से कालगणना करके दीक्षापर्याय की ज्येष्ठता व कनिष्ठता गिनी जाती है। पर्युषणाकाल एक प्रकार का वर्षमान गिना जाता है। अत: पर्युषणा को दीक्षापर्याय की अवस्था का कारण माना है / वर्षावास में भिन्न-भिन्न प्रकार के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सम्बन्धी कुछ विशेष क्रियाओं का आचरण किया जाता है अत: पर्युषणा का दूसरा नाम पज्जोसमणा है। तीसरा, गृहस्थ आदि के लिए समानभावेन आराधनीय होने से यह “पागइया" यानि प्राकृतिक कहलाता है। इस नियत अवधि में साधक आत्मा के अधिक निकट रहने का प्रयत्न करता है अतः वह परिवसना भी कहा जाता है। पर्युषणा का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञानदर्शनादि गुणों की सेवा उपासना करता है अतः उसे पज्जुसणा कहते हैं। इस कल्प में श्रमण एक स्थान पर चार मास तक निवास करता है अतएव इसे वासावास--वर्षावास कहा गया है। कोई विशेष कारण न हो तो प्रावृट् (वर्षा) काल में ही चातुर्मास करने योग्य क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है अतः इसे प्रथमसमवसरण कहते हैं / ऋतुबद्धकाल की अपेक्षा से इसकी मर्यादाएं भिन्न-भिन्न होती हैं। अतएव यह ठवणा (स्थापना) है / ऋतुबद्धकाल में एक-एक मास का क्षेत्रावग्रह होता है किन्तु वर्षाकाल में चार मास का होता है अतएव इसे जेट्ठोग्गह (ज्येष्ठावग्रह) कहा है। अगर साधु आषाढ़ी पूर्णिमा तक नियत स्थान पर आ पहुंचा हो और वर्षावास की घोषणा कर दी हो तो श्रावण कृष्णा पंचमी से ही वर्षावास प्रारम्भ हो जाता है। उपर्युक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावण कृष्णा दशमी को, फिर भी योग्य क्षेत्र की प्राप्ति न हो तो श्रावण कृष्णा पंचदशमी- अमावस्या को वर्षावास प्रारम्भ करना चाहिए / इतने पर भी योग्य क्षेत्र न मिले तो पांच-पांच दिन बढ़ाते हुए अन्ततः भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक तो वर्षावास प्रारम्भ कर देना अनिवार्य माना गया है। इस समय तक भी उपयुक्त क्षेत्र प्राप्त न हो तो वृक्ष के नीचे ही पयूषणाकल्प करना चाहिए / पर इस तिथि का किसी भी परिस्थिति में उल्लंघन नहीं करना चाहिए। वर्तमान में जो पर्युषणा कल्पसूत्र है, वह दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है। दशाश्रुतस्कन्ध की प्राचीनतम प्रतियां, जो चौदहवीं शताब्दी से पूर्व की हैं, उनमें आठवें अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र आया है। जो यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि कल्पसूत्र स्वतन्त्र रचना नहीं किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवां अध्ययन है / [47 ] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी बात दशाश्रुतस्कन्ध पर जो द्वितीय भद्रबाह की नियुक्ति है, जिनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है, उसमें और उस नियुक्ति के आधार से निर्मित प्रचलित है, उसके पदों की व्याख्या मिलती है। मुनि श्री पुण्यविजयजी का अभिमत है कि दशाश्रुतस्कन्ध की चूणि लगभग सोलह सौ वर्ष पुरानी है। कल्पसूत्र के पहले सूत्र में "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणो भगवं महावीरे.............."और अंतिम सूत्र में .............."भुज्जो भुज्जो उवदंसेइ" पाठ है। वही पाठ दशाश्रुतस्कन्ध के आठवें उद्देशक [दशा] में है। यहां पर शेष पाठ को “जाव" शब्द के अन्तर्गत संक्षेप कर दिया है। वर्तमान में जो पाठ उपलब्ध है उसमें केवल पंचकल्याणक का ही निरूपण है, जिसका पर्युषणाकल्प के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः स्पष्ट है कि पर्युषणाकल्प इस अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र था। कल्पसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध इन दोनों के रचयिता भद्रबाह हैं। इसलिए दोनों एक ही रचनाकार की रचना होने से यह कहा जा सकता है कि कल्पसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध का पाठवा अध्ययन ही है / वृत्ति, चूणि, पृथ्वीचंदटिप्पण और अन्य कल्पसूत्र को टीकाओं से यह स्पष्ट प्रमाणित है। नौवें उद्देशक में 30 महामोहनीय स्थानों का वर्णन है। आत्मा को प्रावत करने वाले पुदगल कर्म कहलाते हैं। मोहनीयकर्म उन सब में प्रमुख है। मोहनीयकर्मबंध के कारणों की कोई मर्यादा नहीं है, तथापि शास्त्रकार ने मोहनीय कर्मबंध के हेतुभूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है। उनमें दुरध्यवसाय की तीव्रता और क्रूरता इतनी मात्रा में होती है कि कभी कभी महामोहनीयकर्म का बन्ध हो जाता है जिससे आत्मा 70 कोटा-कोटि सागरोपम तक संसार में परिभ्रमण करता है। आचार्य हरिभद्र तथा जिनदासगणी महत्तर केवल मोहनीय शब्द का प्रयोग करते है। उत्तराध्ययन, समवायांग और दशाश्रुतस्कन्ध में भी मोहनीथस्थान कहा है।' किन्तु भेदों के उल्लेख में "महामोहं पकुव्वइ" शब्द का प्रयोग हुआ है। वे स्थान जैसे कि त्रस जीवों को पानी में डबाकर मारना, उनको श्वास आदि रोक कर मारना, मस्तक पर गीला चमड़ा आदि वाँधकर मारना, गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना, मिथ्या कलंक लगाना, बालब्रह्मचारी न होते हुए भी बालब्रह्मचारी कहलाना, केवलज्ञानी की निन्दा करना, बहुश्रुत न होते हुए भी बहुश्रुत कहलाना, जादू-टोना आदि करना, कामोत्पादक विकथाओं का बार-बार प्रयोग करना आदि हैं। दशवें उद्देशक दिशा का नाम "आयतिस्थान" है। इसमें विभिन्न निदानों का वर्णन है। निदान का अर्थ है-मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक संकल्प / जब मानव के अन्तर्मानस में मोह के प्रबल प्रभाव से वासनाएं उदभूत होती हैं तब वह उनकी पूर्ति के लिए दृढ़ संकल्प करता है। यह संकल्पविशेष ही निदान है। निदान के कारण मानव की इच्छाएं भविष्य में भी निरन्तर बनी रहती हैं जिससे वह जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त नहीं हो पाता। भविष्यकालीन जन्म-मरण की दृष्टि से प्रस्तुत उद्देशक का नाम प्रायतिस्थान रखा गया है। प्रायति का अर्थ जन्म या जाति है। निदान का कारण होने से आयतिस्थान माना गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो आयति में से "ति" पृथक कर लेने पर 'पाय" अवशिष्ट रहता है। प्राय का अर्थ लाभ है। जिस निदान से जन्म-मरण का लाभ होता है उसका नाम आयति है। इस दशा में वर्णन है कि भगवान् महावीर राजगह पधारे। राजा श्रेणिक व महारानी चेलना भगवान के वन्दन हेतु पहुंचे। राजा श्रेणिक के दिव्य व भव्य रूप और महान् समृद्धि को निहार कर श्रमण सोचने लगेश्रेणिक तो साक्षात् देवतुल्य प्रतीत हो रहा है। यदि हमारे तप, नियम और संयम आदि का फल हो तो हम भी 1. तीसं मोह-ठणाई-अभिक्खणं-अभिक्खणं आयारेमाणे वा समायारेमाणे वा मोहणिज्जताए कम्मं पकरेई / --दशाश्रुतस्कन्ध, पृ. ३२१-उपा. आत्मारामजी महाराज [48 ] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस जैसे बनें। महारानी चेलना के सुन्दर सलौने रूप व ऐश्वर्य को देखकर श्रमणियों के अन्तर्मानस में यह संकल्प हुआ कि हमारी साधना का फल हो तो हम आगामी जन्म में चलना जैसी बनें / अन्तर्यामी महावीर ने उनके संकल्प को जान लिया और श्रमण-श्रमणियों से पूछा कि क्या तुम्हारे मन में इस प्रकार का संकल्प हुआ है? उन्होंने स्वीकृति सूचक उत्तर दिया--"हां, भगवन् ! यह बात सत्य है।" भगवान् ने कहा-"निर्ग्रन्थ-प्रवचन सर्वोत्तम है, परिपूर्ण है, सम्पूर्ण कर्मों को क्षीण करने वाला है। जो श्रमण या श्रमणियां इस प्रकार धर्म से विमुख होकर ऐश्वर्य आदि को देखकर लुभा जाते हैं और निदान करते हैं वे यदि बिना प्रायश्चित्त किए आयु पूर्ण करते हैं तो देवलोक में उत्पन्न होते हैं और वहां से वे मानवलोक में पुनः जन्म लेते हैं। निदान के कारण उन्हें केवली धर्म की प्राप्ति नहीं होती। वे सदा सांसारिक विषयों में ही मुग्ध बने रहते हैं।" शास्त्रकार ने 9 प्रकार के निदानों का वर्णन कर यह बताया कि निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सब कर्मों से मुक्ति दिलाने वाला एकमात्र साधन है / अतः निदान नहीं करना चाहिए और किया हो तो आलोचना-प्रायश्चित्त करके मुक्त हो जाना चाहिए। उपसंहार इस प्रकार प्रस्तुत प्रागम में भगवान महावीर की जीवनी विस्तार से पाठवी दशा में मिलती है। चित्तसमाधि एवं धर्मचिन्ता का सुन्दर वर्णन है / उपासकप्रतिमाओं व भिक्षुप्रतिमाओं के भेद-प्रभेदों का भी वर्णन है। बृहत्कल्प बृहत्कल्प का छेदसूत्रों में गौरवपूर्ण स्थान है / अन्य छेदसूत्रों की तरह इस सूत्र में भी श्रमणों के आचारविषयक विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपबाद, तप, प्रायश्चित्त आदि पर चिन्तन किया गया है। इसमें छह उद्देशक हैं, 81 अधिकार हैं, 473 श्लोकप्रमाण उपलब्ध मूलपाठ है / 206 सूत्रसंख्या है। प्रथम उद्देशक में 50 सूत्र हैं / पहले के पांच सूत्र तालप्रलंब विषयक है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए ताल एवं प्रलंब ग्रहण करने का निषेध है। इसमें अखण्ड एवं अपक्व तालफल व तालमूल ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु विदारित, पक्व ताल प्रलंब लेना कल्प्य है, ऐसा प्रतिपादित किया गया है, आदि-आदि / मासकल्प विषयक नियम में श्रमणों के ऋतुबद्धकाल–हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु के 8 महिनों में एक स्थान पर रहने के अधिकतम समय का विधान किया है। श्रमणों को सपरिक्षेप अर्थात् सप्राचीर एवं प्राचीर से बाहर निम्नोक्त 16 प्रकार के स्थानों में वर्षाऋतु के अतिरिक्त अन्य समय में एक साथ एक मास से अधिक ठहरना नहीं कल्पता। 1. ग्राम [जहां राज्य की अोर से 18 प्रकार के कर लिये जाते हों] 2. मगर [जहां 18 प्रकार के कर न लिए जाते हों 3. खेट [जिसके चारों ओर मिट्टी की दीवार हो] 4. कर्बट [जहां कम लोग रहते हों] 5. मडम्ब [जिसके बाद ढाई कोस तक कोई गाँव न हो] [ 49 ] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. पत्तन [जहां सब वस्तुएं उपलब्ध हों] 7. आकर [जहां सब वस्तुएं उपलब्ध हों] 8. द्रोणमुख [जहाँ जल और स्थल को मिलाने वाला मार्ग हो, जहां समुद्री माल प्राकर उतरता हो] 9. निगम [जहां व्यापारियों की वसति हो] 10. राजधानी [जहां राजा के रहने के महल आदि हों] 11. प्राश्रम [जहां तपस्वी आदि रहते हों] 12. निवेश सन्निवेश [जहां सार्थवाह पाकर उतरते हों] 13. सम्बाध-संबाह [जहां कृषक रहते हों अथवा अन्य गांव के लोग अपने गांव से धन आदि की रक्षा के निमित्त पर्वत, गुफा आदि में आकर ठहरे हुए हों] 14. घोष [जहां गाय आदि चराने वाले गूजर लोग-ग्वाले रहते हों] 15. अंशिका [गांव का अर्ध, तृतीय अथवा चतुर्थ भाग] 16. पुटभेदन [जहां पर गांव के व्यापारी अपनी चीजें बेचने आते हों] नगर की प्राचीर के अन्दर और बाहर एक-एक मास तक रह सकते हैं। अन्दर रहते समय भिक्षा अन्दर से लेनी चाहिए और बाहर रहते समय बाहर से। श्रमणियां दो मास अन्दर और दो मास बाहर रह सकती हैं। जिस प्राचीर का एक ही द्वार हो वहां निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को एक साथ रहने का निषेध किया है, पर अनेक द्वार हों तो रह सकते हैं। जिस उपाश्रय के चारों ओर अनेक दुकानें हों, अनेक द्वार हों वहां साध्वियों को नहीं रहना चाहिए किन्तु साधु यतनापूर्वक रह सकता है / जो स्थान पूर्ण रूप से खुला हो, द्वार न हों वहां पर साध्वियों को रहना नहीं कल्पता। यदि अपवादरूप में उपाश्रय-स्थान न मिले तो परदा लगाकर रह सकती हैं। निर्ग्रन्थों के लिए खुले स्थान पर भी रहना कल्पता है। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को कपड़े की मच्छरदानी [चिलिमिलिका रखने व उपयोग करने की अनुमति प्रदान की गई है। निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को जलाशय के सन्निकट खड़े रहना, बैठना, लेटना, सोना, खाना-पीना, स्वाध्याय आदि करना नहीं कल्पता / जहां पर विकारोत्पादक चित्र हों वहां पर श्रमण-श्रमणियों को रहना नहीं कल्पता। मकान मालिक की बिना अनुमति के रहना नहीं कल्पता। जिस मकान के मध्य में होकर रास्ता हो--- जहां गृहस्थ रहते हों, वहां श्रमण-श्रमणियों को नहीं रहना चाहिए / किसी श्रमण का आचार्य, उपाध्याय, श्रमण या श्रमणी से परस्पर कलह हो गया हो, परस्पर क्षमायाचना करनी चाहिए। जो शांत होता है वह आराधक है। श्रमणधर्म का सार उपशम है-"उवसमसारं सामण्णं"। वर्षावास में विहार का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में विहार का विधान है। जो प्रतिकूल क्षेत्र हों वहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को बार-बार विचरना निषिद्ध है। क्योंकि संयम की विराधना होने की सम्भावना है। इसलिए प्रायश्चित्त का विधान है। [ 50 ] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहस्थ के यहां भिक्षा के लिए या शौचादि के लिए श्रमण बाहर जाय उस समय यदि कोई गृहस्थ वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि देना चाहे तो आचार्य की अनुमति प्राप्त होने पर उसे लेना रखना चाहिए। वैसे ही धमणी के लिए प्रवर्तिनी की आज्ञा आवश्यक है। श्रमण-श्रमणियों के लिए रात्रि के समय या असमय में आहारादि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। इसी तरह वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण ग्रहण का निषेध है। अपवादरूप में यदि तस्कर श्रमण-श्रमणियों के वस्त्र चुराकर ले गया हो और वे पुनः प्राप्त हो गये हों तो रात्रि में ले सकते हैं। यदि वे वस्त्र तस्करों ने पहने हों, स्वच्छ किये हों, रंगे हों या धूपादि सुगन्धित पदार्थों से वासित किये हों तो भी ग्रहण कर सकते हैं। निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को रात्रि के समय या विकाल में विहार का निषेध किया गया है। यदि उच्चारभूमि आदि के लिए अपवाद रूप में जाना ही पड़े तो अकेला न जाय किन्तु साधुओं को साथ लेकर जाय / निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों के विहार क्षेत्र की मर्यादा पर चिन्तन किया गया है / पूर्व में अंगदेश एवं मगधदेश तक, दक्षिण में कौसाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा तक व उत्तर में कुणाला तक-ये आर्यक्षेत्र हैं। प्रार्यक्षेत्र में विचरने से ज्ञान-दर्शन की वृद्धि होती है। यदि अनार्यक्षेत्र में जाने पर रत्नत्रय की हानि की सम्भावना न हो तो जा सकते हैं। द्वितीय उद्देशक में उपाश्रय विषयक 12 सूत्रों में बताया है कि जिस उपाश्रय में शाली, वीहि, मूग, उड़द आदि बिखरे पड़े हों वहां पर श्रमण-श्रमणियों को किंचित् समय भी न रहना चाहिए किन्तु एक स्थान पर ढेर रूप में पड़े हुए हों तो वहां हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना कल्पता है। यदि कोष्ठागार आदि में सुरक्षित रखे हुए हों तो वर्षावास में भी रहना कल्पता है। जिस स्थान पर सुराविकट, सौवीरविकट आदि रखे हों वहाँ किंचित् समय भी साधु-साध्वियों को नहीं रहना चाहिए।' यदि कारणवशात् अन्वेषणा करने पर भी अन्य स्थान उपलब्ध न हो तो श्रमण दो रात्रि रह सकता है, अधिक नहीं। अधिक रहने पर छेद या परिहार का प्रायश्चित्त आता है / 2 / इसी तरह शीतोदकविकटकुभ, उष्णोदकविकटकुभ, ज्योति, दीपक अादि से युक्त उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। इसी तरह एक या अनेक मकान के अधिपति से आहारादि नहीं लेना चाहिए। यदि एक मुख्य हो तो उसके अतिरिक्त शेष के यहां से ले सकते हैं। यहां पर शय्यातर मुख्य है जिसकी प्राज्ञा ग्रहण की है। शय्यातर के विविध पहलुओं पर चिन्तन किया गया है। निम्रन्थ-निर्गन्थियों को जांगिक, भाँगिक, सानक, पोतक और तिरिटपट्टक ये पाँच प्रकार से वस्त्र लेना 1. सुराविकटं पिष्टनिष्पन्नम् सौवीरविकटं तु पिष्टवअँगुंडादिद्रव्य निष्पन्नम् / --क्षेमकीर्तिकृत वृति, पृष्ठ 10952 2. "छेदो वा" पंचरात्रिन्दिवादिः “परिहारो वा" मासलघुकादिस्तपोविशेषो भवतीति सूत्रार्थः / / -वही 3. जंगमाः त्रसाः तदवयवनिष्पन्नं जांगमिकम्, भगा अतसी तन्मयं भांगिकम्, सनसूत्रमयं सानकम्, पोतक कार्यासिकम् तिरीट: वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कल क्षणस्तनिष्पन्न तिरीटपट्टकं ना पंचमम् / ~-उ०२, सू०२४ [ 51 ] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पता है और औणिक, प्रौष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक, मूजचिप्पक ये पांच प्रकार के' रजोहरण रखना कल्पता है। तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पता / इसी प्रकार निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय प्रादि में बैठना, खाना, पीना आदि नहीं कल्पता / प्रागे के चार सूत्रों में चर्म विषयक, उपभोग आदि के सम्बन्ध में कल्पाकल्प की चर्चा है। वस्त्र के सम्बन्ध में कहा है कि वे रंगीन न हों, किन्तु श्वेत होने चाहिए। कौनसी-कौनसी वस्तुएं धारण करना या न करना-इसका विधान किया गया है। दीक्षा लेते समय वस्त्रों की मर्यादा का भी वर्णन किया गया है। वर्षावास में वस्त्र लेने का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतू में आवश्यकता होने पर वस्त्र लेने में बाधा नहीं है और वस्त्र के विभाजन का इस सम्बन्ध में भी चिन्तन किया है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को प्रातिहारिक वस्तुएं उसके मालिक को बिना दिये अन्यत्र विहार करना नहीं कल्पता। यदि किसी वस्तु को कोई चुरा ले तो उसकी अन्वेषणा करनी चाहिये और मिलने पर शय्यातर को दे देनी चाहिए / यदि आवश्यकता हो तो उसकी आज्ञा होने पर उपयोग कर सकता है / चतुर्थ उद्देशक में अब्रह्मसेवन तथा रात्रि-भोजन आदि व्रतों के सम्बन्ध में दोष लगने पर प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। पंडक, नपुसक एवं वातिक प्रव्रज्या के लिए अयोग्य है। यहां तक कि उनके साथ संभोग एक साथ भोजन-पानादि करना भी निषिद्ध है। अविनीत, रसलोलुपी व क्रोधी को शास्त्र पढ़ाना अनुचित है। दुष्ट, मूढ और दुविदग्ध ये तीन प्रव्रज्या और उपदेश के अनधिकारी हैं। निग्रंन्थी रुग्ण अवस्था में या अन्य किसी कारण से अपने पिता, भाई, पुत्र आदि का सहारा लेकर उठती या बैठती हो और साधु के सहारे की इच्छा करे तो चातुर्मासिक प्रायश्चित पाता है। इसी तरह निर्ग्रन्थ माता, श्री आदि का सहारा लेते हुए तथा साध्वी के सहारे की इच्छा करे तो उसे भी चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। इसमें चतुर्थ व्रत के खंडन की सम्भावना होने से प्रायश्चित्त का विधान किया है। निर्ग्रन्थ व निर्गन्थियों को कालातिक्रान्त, क्षेत्रातिक्रान्त प्रशनादि ग्रहण करना नहीं कल्पता। प्रथम पौरुषी का लाया हुआ आहार चतुर्थ पौरुषी तक रखना नहीं कल्पता। यदि भूल से रह जाय तो परठ देना चाहिए। उपयोग करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। यदि भूल से अनेषणीय, स्निग्ध प्रशनादि भिक्षा में आ गया हो तो अनपस्थापित श्रमण- जिनमें महाव्रतों की स्थापना नहीं की है उन्हें दे देना चाहिए। यदि वह न हो तो निर्दोष स्थान पर परठ देना चाहिए। आचेलक्य प्रादि कल्प में स्थित श्रमणों के लिए निर्मित आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए कल्पनीय है। जो आहारादि अकल्पस्थित श्रमणों के लिए निर्मित हो वह करूपस्थित श्रमणों के लिए अकल्प्य होता है। यहां पर कल्पस्थित का तात्पर्य है "पंचयामधर्मप्रतिपन्न" और अकल्पस्थित धर्म का अर्थ है "चातुर्यामधर्मप्रतिपन्न"। 1. "ौणिक" ऊरणिकानामूर्णाभिनिवृत्तम्, "पौष्ट्रिक" उष्ट्रोमभिनिवृत्तम्, “सानक" सनवृक्षवल्काद् जातम् "वाचकः" तृणविशेषस्तस्य "चिप्पकः'' कुट्टितः त्वगूपः तेन निष्पन्न वच्चकचिप्पकम् “मुजः" शरस्तम्बस्तस्य चिप्पकाद् जातं मुजचिप्पक नाम पंचममिति / -----उ० 2, सू० 25 [ 52 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी निग्रन्थ को ज्ञान आदि के कारण अन्य गण में उपसम्पदा लेनी हो तो आचार्य की अनुमति प्रावश्यक है। इसी प्रकार प्राचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि को भी यदि अन्य गण में उपसम्पदा लेनी हो तो अपने समुदाय की योग्य व्यवस्था करके ही अन्य गण में सम्मिलित होना चाहिए। संध्या के समय या रात्रि में कोई श्रमण या श्रमणी कालधर्म को प्राप्त हो जाय तो दूसरे श्रमण-श्रमणियों को उस मृत शरीर को रात्रि भर सावधानी से रखना चाहिए। प्रातः गृहस्थ के घर से बांस आदि लाकर मृतक को उससे बांधकर दूर जंगल में निर्दोष भूमि पर प्रस्थापित कर देना चाहिए और पुन: बांस आदि गहस्थ को दे देना चाहिए। श्रमण ने किसी गहस्थ के साथ यदि कलह किया हो तो उसे शांत किये बिना भिक्षाचर्या करमा नहीं कल्पता। परिहारविशुद्धचारित्र ग्रहण करने की इच्छा वाले श्रमण को विधि समझाने हेतु पारणे के दिन स्वयं चार्य, उपाध्याय उसके पास जाकर आहार दिलाते हैं और स्वस्थान पर आकर परिहारविशुद्धचारित्र का पालन करने की विधि बतलाते हैं। श्रमण-श्रमणियों को गंगा, यमुना, सरयू, कोशिका, मही इन पांच महानदियों में से महीने में एक से अधिक बार एक नदी पार नहीं करनी चाहिए। ऐरावती आदि छिछली नदियां महीने में दो-तीन बार पार की जा सकती हैं। श्रमण-श्रमणियों को घास की ऐसी निर्दोष झोपड़ी में, जहां पर अच्छी तरह से खड़ा नहीं रहा जा सके, हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना बय॑ है। यदि निर्दोष तृणादि से बनी हुई दो हाथ से कम ऊंची झोपड़ी है तो वर्षाऋतु में वहां नहीं रह सकते / यदि दो हाथ से अधिक ऊंची है तो वहां वर्षाऋतु में रह सकते हैं। पंचम उद्देशक में बताया है कि यदि कोई देव स्त्री का रूप बनाकर साधु का हाथ पकड़े और वह साधु उसके कोमल स्पर्श को सुखरूप माने तो उसे मैथुन प्रतिसेवन दोष लगता है और उसे चातुर्मासिक गुरु-प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार साध्वी को भी उसके विपरीत पुरुष स्पर्श का अनुभव होता है और उसे सुखरूप माने तो चातुर्मासिक गुरु-प्रायश्चित्त आता है। कोई श्रमण बिना क्लेश को शांत किए अन्य गण में जाकर मिल जाय और उस गण के प्राचार्य को ज्ञात हो जाय कि यह श्रमण बहां से कलह करके आया है तो उसे पांच रातदिन का छेद देना चाहिए और उसे शान्त कर अपने गण में पुनः भेज देना चाहिए। सशक्त या अशक्त श्रमण सूर्योदय हो चुका है या अभी अस्त नहीं हुया है ऐसा समझकर यदि आहारादि करता है और फिर यदि उसे यह ज्ञात हो जाय कि अभी तो सूर्योदय हुआ ही नहीं है या अस्त हो गया है तो उसे आहारादि तत्क्षण त्याग देना चाहिए। उसे रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता। सूर्योदय और सूर्यास्त के प्रति शंकाशील होकर आहारादि करने वाले को रात्रिभोजन का दोष लगता है। श्रमण-श्रमणियों को रात्रि में डकारादि के द्वारा मुह में अन्न आदि आ जाय तो उसे बाहर थूक देना चाहिए / यदि पाहारादि में द्वीन्द्रियादि जीव गिर जाय तो यतनापूर्वक निकाल कर आहारादि करना चाहिए। यदि निकलने की स्थिति में न हो तो एकान्त निर्दोष स्थान में परिस्थापन कर दे। अाहारादि लेते समय सचित्त पानी की बूदें आहारादि में गिर जाएं और वह आहार गरम हो तो उसे खाने में किचित मात्र भी दोष नहीं है। [53 ] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि उसमें पड़ी हुई बूंदें अचित्त हो जाती हैं / यदि आहार शीतल है तो न स्वयं खाना चाहिए और न दूसरों को खिलाना चाहिए अपितु एकान्त स्थान पर परिस्थापन कर देना चाहिए। निर्ग्रन्थी को एकाकी रहना, नग्न रहना, पावरहित रहना, ग्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटुकासन, वीरासन, दण्डासन, लगुडशायी आदि आसन पर बैठकर कायोत्सर्ग करना वयं है। - निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को परस्पर मोक (पेशाब या थूक) का आचमन करना अकल्प्य है किन्तु रोगादि कारणों से ग्रहण किया जा सकता है / परिहारकरूप में स्थिति भिक्ष को स्थविर आदि के आदेश से अन्यत्र जाना पड़े तो शीघ्र जाना चाहिए और कार्य करके पुनः लौट आना चाहिए। यदि चारित्र में किसी प्रकार का दोष लगे तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध कर लेना चाहिए। छठे उद्देशक में यह बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अलीक (झूठ) वचन, हीलितवचन, खिसितवचन, परुषवचन, गार्हस्थिकवचन, व्यवशमितोदीरणवचन (शांत हुए कलह को उभारनेवाला वचन), ये छह प्रकार के वचन नहीं बोलना चाहिए। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अविरति-अब्रह्म, नपुसक, दास आदि का आरोप लगाने वाले को प्रायश्चित्त पाता है। निर्गन्थ के पैर में कांटा लग गया हो और वह निकालने में असमर्थ हो तो उसे अपवादरूप में निर्ग्रन्थी निकाल सकती है। इसी प्रकार नदी आदि में डूबने, गिरने, फिसलने आदि का प्रसंग आये तो साधु साध्वी का हाथ पकड़कर बचाये / इसी प्रकार विक्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी को अपने हाथ से पकड़कर उसके स्थान पर पहुंचा दे, वैसे ही भी साध्वी हाथ पकड़कर पहुंचा सकती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि ये आपवादिक सूत्र हैं। इसमें विकारभावना नहीं किन्तु परस्पर के संयम की सुरक्षा की भावना है। साधु की मर्यादा का नाम कल्पस्थिति है / यह छह प्रकार की है—सामायिक-संयतकल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय संयतकल्पस्थिति, निर्विशमानकल्पस्थिति, निविष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति। ___इस प्रकार बृहत्कल्प में श्रमण-श्रमणियों के जीवन और व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डाला है। यही इस शास्त्र की विशेषता है। व्यवहारसूत्र बृहत्कल्प और व्यवहार ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं / व्यवहार भी छेदसूत्र है जो चरणानुयोगमय है। इसमें दश उद्देशक हैं / 373 अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध मूल पाठ है / 267 सूत्र संख्या है। प्रथम उद्देशक में मासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष का सेवन कर उस दोष की प्राचार्य आदि के पास कपटरहित आलोचना करने वाले श्रमण को एकमासिक प्रायश्चित्त पाता है जबकि कपटसहित करने पर द्विमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। द्विमासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष की साधक निष्कपट आलोचना करता है तो उसे द्विमासिक प्रायश्चित्त पाता है और कपटसहित करने से तीन मास का / इस प्रकार तीन, चार, पांच और छह मास के [ 54 ] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त का विधान है। अधिक से अधिक छह मास के प्रायश्चित्त का विधान है। जिसने अनेक दोषों का सेवन किया हो उसे क्रमशः पालोचना करनी चाहिए और फिर सभी का साथ में प्रायश्चित्त लेना चाहिए। प्रायश्चित्त करते हुए भी यदि पुनः दोष लग जाय तो उसका पुनःप्रायश्चित्त करना चाहिए। प्रायश्चित्त का सेवन करने वाले श्रमण को स्थविर आदि की अनुज्ञा लेकर ही अन्य साधुओं के साथ उठनाबैठना चाहिए। आज्ञा की अवहेलना कर किसी के साथ यदि वह बैठता है तो उतने दिन की उसकी दीक्षापर्याय कम होती है जिसे आगमिक भाषा में छेद कहा गया है। परिहारकल्प का परित्याग कर स्थविर आदि की सेवा के लिए दूसरे स्थान पर जा सकता है / कोई श्रमण गण का परित्याग कर एकाकी विचरण करता है और यदि वह अपने को शुद्ध प्राचार के पालन करने में असमर्थ अनुभव करता है तो उसे आलोचना कर छेद या नवीन दीक्षा ग्रहण करवानी चाहिए / जो नियम सामान्य रूप से एकलविहारी श्रमण के लिए है वही नियम एकलविहारी गणावच्छेदक, आचार्य व शिथिलाचारी श्रमण के लिए है। आलोचना प्राचार्य, उपाध्याय के समक्ष कर प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहिए। यदि वे अनुपस्थित हों तो अपने संभोगी, सार्मिक, बहुश्रुत आदि के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। यदि वे पास में न हों तो अन्य समुदाय के संभोगी, बहुश्रुत आदि श्रमण जहाँ हों वहाँ जाकर आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। यदि वह भी न हों तो सारूपिक (सदोषी) किन्तु बहुश्रुत साधु हों तो वहाँ जाकर प्रायश्चित्त लेना चाहिए। यदि वह भी न हों तो बहुश्रुत श्रमणोपासक के पास और उसका भी अभाव हो तो सम्यग्दष्टि गहस्थ के पास जाकर प्रायश्चित्त करना चाहिए / इन सबके अभाव में गाँव या नगर के बाहर जाकर पूर्व या उत्तर दिशा के सम्मुख खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर अपने अपराध की पालोचना करे / द्वितीय उद्देशक में कहा है कि एक समान समाचारी वाले दो सार्मिक साथ में हों और उनमें से किसी एक ने दोष का सेवन किया हो तो दूसरे के सन्मुख प्रायश्चित्त लेना चाहिए। प्रायश्चित्त करने वाले की सेवा आदि का भार दूसरे श्रमण पर रहता है। यदि दोनों ने दोषस्थान का सेवन किया हो तो परस्पर आलोचना कर प्रायश्चित्त लेकर सेवा करनी चाहिए। अनेक श्रमणों में से किसी एक श्रमण ने अपराध किया हो तो एक को ही प्रायश्चित्त दे / यदि सभी ने अपराध किया है तो एक के अतिरिक्त शेष सभी प्रायश्चित्त लेकर शुद्धिकरण करें और उनका प्रायश्चित्त पूर्ण होने पर उसे भी प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करें। परिहारकल्पस्थित श्रमण कदाचित् रुग्ण हो जाय तो उसे गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता / जब तक वह स्वस्थ न हो जाय तब तक बयावृत्य करवाना गणावच्छेदक का कर्तव्य है और स्वस्थ होने पर उसने सदोषावस्था में सेवा करवाई अतः उसे प्रायश्चित्त लेना चाहिए। इसी तरह अनवस्थाप्य एवं पारांचिक प्रायश्चित्त करने वाले को भी रुग्णावस्था में गच्छ से बाहर नहीं करना चाहिए। विक्षिप्तचित्त को भी गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता और जब तक उसका चित्त स्थिर न हो जाय तब तक उसकी पूर्ण सेवा करनी चाहिए तथा स्वस्थ होने पर नाममात्र का प्रायश्चित्त देना चाहिए। इसी प्रकार दीप्तचित्त (जिसका चित्त अभिमान से उददीप्त हो गया है), उन्मादप्राप्त, उपसर्गप्राप्त, साधिकरण, सप्रायश्चित्त ग्रादि को गच्छ से बाहर निकालना नहीं कल्पता। नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त करने वाले साधु को मृहस्थलिंग धारण कराये बिना संयम में पुनः स्थापित [ 55 ] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसका अपराध इतना महान होता है कि बिना वैसा किये उसका पूरा प्रायश्चित्त नहीं हो पाता और न अन्य श्रमणों के अन्तर्मानस में उस प्रकार के अपराध के प्रति भय ही उत्पन्न होता है। इसी प्रकार दसवें पारंचिक प्रायश्चित्त वाले श्रमण को भी गहस्थ का वेष पहनाने के पश्चात पुन: संयम में स्थापित करना चाहिए / यह अधिकार प्रायश्चित्तदाता के हाथ में है कि उसे गहस्थ का वेष न पहनाकर अन्य प्रकार का वेष भी पहना सकता है। पारिहारिक और अपारिहारिक श्रमण एक साथ आहार करें, यह उचित नहीं है / पारिहारिक श्रमणों के साथ बिना तप पूर्ण हुए अपारिहारिक श्रमणों को आहारादि नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो तपस्वी हैं उनका तप पूर्ण होने के पश्चात् एक मास के तप पर पांच दिन और छह महीने के तप पर एक महीना व्यतीत हो जाने के पूर्व उनके साथ कोई आहार नहीं कर सकता, क्योंकि उन दिनों में उनके लिए विशेष प्रकार के पाहार की आवश्यकता होती है जो दूसरों के लिए आवश्यक नहीं / तृतीय उद्देशक में बताया है कि किसी श्रमण के मानस में अपना स्वतंत्र गच्छ बनाकर परिभ्रमण करने की इच्छा हो पर वह आचारांग आदि का परिज्ञाता नहीं हो तो शिष्य आदि परिवारसहित होने पर भी पृथक् गण बनाकर स्वच्छन्दी होना योग्य नहीं। यदि वह आचारांग आदि का ज्ञाता है तो स्थविर से अनुमति लेकर विचर थविर की बिना अनुमति के विचरने बाले को जितने दिन इस प्रकार विचरा हो उतने ही दिन का छेद या पारिहारिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। उपाध्याय वही बन सकता है जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, निर्ग्रन्थ के प्राचार में निष्णात हैं, संयम में प्रवीण है, आचारांग प्रादि प्रवचनशास्त्रों में पारंगत है, प्रायश्चित्त देने में पूर्ण समर्थ है, संघ के लिए क्षेत्र आदि का निर्णय करने में दक्ष है, चारित्रवान है, बहुश्रुत है आदि / प्राचार्य वह बन सकता है जो श्रमण के प्राचार में कुशल, प्रवचन में पटु, दशाश्रुतस्कन्ध-कल्प-बृहत्कल्पव्यवहार का ज्ञाता है और कम से कम पांच वर्ष का दीक्षित है / आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिनी, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक पद उसे दिया जा सकता है जो श्रमण के प्राचार में कुशल, प्रवचनदक्ष, असंक्लिष्टमना व स्थानांग-समवायांग का ज्ञाता है। अपवाद में एक दिन की दीक्षापर्याय वाले साधु को भी प्राचार्य, उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। उस प्रकार का साधु प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोद कारी, अनुमत, बहुमत व उच्च कुलोत्पन्न एवं गुणसंपन्न होना आवश्यक है। आचार्य अथवा उपाध्याय की आज्ञा से ही संयम का पालन करना चाहिए / अब्रह्म का सेवन करने वाला प्राचार्य आदि पदवी के अयोग्य है / यदि गच्छ का परित्याग कर उसने वैसा कार्य किया है तो पुनः दीक्षा धारण कर तीन वर्ष बीतने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शांत हो, कषाय आदि का अभाव हो तो प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। चतुर्थ उद्देशक में कहा है कि प्राचार्य अथवा उपाध्याय के साथ हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में कम से कम एक अन्य साधु होना चाहिए और गणावच्छेदक के साथ दो / बर्षाऋतु में प्राचार्य और उपाध्याय के साथ दो व गणावच्छेदक के साथ तीन साधुओं का होना आवश्यक है। [ 56 ] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य की महत्ता पर प्रकाश डालकर यह बताया गया है कि उनके अभाव में किस प्रकार रहना चाहिए ? आचार्य, उपाध्याय यदि अधिक रुग्ण हों और जीवन की आशा कम हो तो अन्य सभी श्रमणों को बुलाकर प्राचार्य कहे कि मेरी आयु पूर्ण होने पर अमुक साधु को अमुक पदवी प्रदान करना / उनकी मृत्यु के पश्चात् यदि वह साधु योग्य प्रतीत न हो तो अन्य को भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य हो तो उसे ही प्रतिष्ठित करना चाहिए। अन्य योग्य श्रमण आचारांग आदि पढ़कर दक्ष न हो जाय तब तक आचार्य आदि की सम्मति से अस्थायी रूप से साधु को किसी भी पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है और योग्य पदाधिकारी प्राप्त होने पर पूर्वव्यक्ति को अपने पद से पृथक हो जाना चाहिए। यदि वह वैसा नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी होता है। दो श्रमण साथ में विचरण करते हों तो उन्हें योग्यतानुसार छोटा और बड़ा होकर रहना चाहिए और एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए / इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय को भी। पांचवें उद्देशक में प्रवर्तिनी को कम से कम दो अन्य साध्वियों के साथ शीतोष्णकाल में ग्रामानुग्राम विचरण करना चाहिए और गणावच्छेदिका के साथ तीन अन्य साध्वियां होनी चाहिए / वर्षा ऋतु में प्रवर्तिनी के साथ तीन और गणावच्छेदिका के साथ चार साध्वियां होनी चाहिए। प्रवर्तिनी प्रादि की मृत्यू और पदाधिकारी की नियुक्ति के सम्बन्ध में जैसा श्रमणों के लिए कहा गया है वैसा ही श्रमणियों के लिए भी समझना चाहिए। वैयावृत्य के लिए सामान्य विधान यह है कि श्रमण, श्रमणी से और श्रमणी, श्रमण से बयावृत्य न करावे किन्तु अपवादरूप में परस्पर सेवा-शुश्रूषा कर सकते हैं। सर्पदंश आदि कोई विशिष्ट परिस्थिति पैदा हो जाय तो अपवादरूप में गहस्थ से भी सेवा करवाई जा न स्थविरकल्पियों के लिए है। जिनकल्पियों के लिए सेवा का विधान नहीं है। यदि वे सेवा करवाते हैं तो पारिहारिक तपरूप प्रायश्चित्त करना पड़ता है। छठे उद्देशक में बताया है कि अपने स्वजनों के यहां बिना स्थविरों की अनुमति प्राप्त किए नहीं जाना चाहिए। जो श्रमण-श्रमणी अल्पश्रुत व अल्प-प्रागमी हैं उन्हें एकाकी अपने सम्बन्धियों के यहां नहीं जाना चाहिए / यदि जाना है तो बहुश्रुत व बहुप्रागमधारी श्रमण-श्रमणी के साथ जाना चाहिए। श्रमण के पहुंचने के पूर्व जो वस्तु पक कर तैयार हो चुकी है वह ग्राह्य है और जो तैयार नहीं हुई है वह अग्राह्य है। प्राचार्य, उपाध्याय यदि बाहर से उपाश्रय में आवें तो उनके पांव पोंछकर साफ करना चाहिए। उनके लघुनीत आदि को यतनापूर्वक भूमि पर परठना चाहिए। यथाशक्ति उनकी वैयावृत्य करनी चाहिए / उपाश्रय में उनके साथ रहना चाहिए। उपाश्रय के बाहर जावें तब उनके साथ जाना चाहिए / गणावच्छेदक उपाश्रय में रहें तब साथ रहना चाहिए और उपाश्रय से बाहर जाएं तो साथ जाना चाहिए। श्रमण-श्रमणियों को प्राचारांग आदि आगमों के ज्ञाता श्रमण-श्रमणियों के साथ रहन कल्पता है और बिना ज्ञाता के साथ रहने पर प्रायश्चित्त का भागी बनना पड़ता है। किसी विशेष कारण से अन्य गच्छ से निकलकर आने वाले श्रमण-श्रमणी यदि निर्दोष हैं, आचारनिष्ठ हैं, सबलदोष से रहित हैं, क्रोधादि से असंस्पृष्ट हैं, अपने दोषों की आलोचना कर शूद्धि करते हैं, तो उनके साथ समानता का व्यवहार करना कल्पता है, नहीं तो नहीं। [ 57 ] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवें उद्देशक में यह विधान है कि साधू स्त्री को अोर साध्वी पुरुष को दीक्षा न दे। यदि किसी ऐसे स्थान में किसी स्त्री को वैराग्य भावना जाग्रत हई हो जहां सन्निकट में साध्वी न हो तो वह इस शर्त पर दीक्षा देता है कि वह यथाशीघ्र किसी साध्वी को सुपुर्द कर देगा। इसी तरह साध्वी भी पुरुष को दीक्षा दे सकती है। जहां पर तस्कर, बदमाश या दुष्ट व्यक्तियों का प्राधान्य हो वहां श्रमणियों को विचरना नहीं कल्पता, क्योंकि वहां पर वस्त्रादि के अपहरण व व्रतभंग श्रादि का भय रहता है। श्रमणों के लिए कोई बाधा नहीं है। किसी श्रमण का किसी ऐसे श्रमण से वैर-विरोध हो गया है जो विकट दिशा (चोरादि का निवास हो ऐसा स्थान) में है तो वहाँ जाकर उससे क्षमायाचना करनी चाहिए, किन्तु स्वस्थान पर रहकर नहीं। किन्तु श्रमणी अपने स्थान से भी क्षमायाचना कर सकती है। साधु-साध्वियों को आचार्य, उपाध्याय के नियन्त्रण के बिना स्वच्छन्द रूप से परिभ्रमण करना नहीं कल्पता। आठवें उद्देशक में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि साधू एक हाथ से उठाने योग्य छोटे-मोटे शय्या संस्तारक, तीन दिन में जितना मार्ग तय कर सके उतनी दूर से लाना कल्पता है। किसी बद्ध निर्ग्रन्थ के लिए मावश्यकता पड़ने पर पांच दिन में जितना चल सके उतनी दूरी से लाना कल्पता है / स्थविर के लिए निम्न उपकरण कल्पनीय हैं—दण्ड, भाण्ड, छत्र, मात्रिका, लाष्ठिक (पीठ के पीछे रखने के लिए तकिया या पाटा), ध्यायादि के लिए बैठने का पाटा), चेल (वस्त्र), चेल-चिलिमिलिका (वस्त्र का पर्दा), चर्म, चर्मकोश (चमड़े की थैली), चर्म-पलिछ (लपेटने के लिए चमड़े का टुकड़ा)। इन उपकरणों में से जो साथ में रखने के योग्य न हों उन्हें उपाश्रय के समीप किसी गृहस्थ के यहां रखकर समय-समय पर उनका उपयोग किया जा सकता है। किसी स्थान पर अनेक श्रमण रहते हों, उनमें से कोई श्रमण किसी गृहस्थ के यहां पर कोई उपकरण भूल गया हो और अन्य श्रमण वहां पर गया हो तो गृहस्थ श्रमण से कहे कि यह उपकरण आपके समुदाय के संत का है तो संत उस उपकरण को लेकर स्वस्थान पर आये और जिसका उपकरण हो उसे दे दे। यदि वह उपकरण किसी संत का न हो तो न स्वयं उसका उपयोग करे और न दूसरों को उपयोग के लिए दे किन्तु निर्दोष स्थान पर उसका परित्याग कर दे। यदि श्रमण वहां से विहार कर गया हो तो उसकी अन्वेषणा कर स्वयं उसे उसके पास पहुंचावे / यदि उसका सही पता न लगे तो एकान्त स्थान पर प्रस्थापित कर दे। पाहार की चर्चा करते हुए बताया है कि आठ ग्रास का आहार करने वाला अल्प-याहारी, बारह ग्रास का आहार करने वाला अपार्धावमौदरिक, सोलह ग्रास का आहार करने वाला द्विभागप्राप्त, चौबीस ग्रास का आहार करने वाला प्राप्तावमौदरिक, बत्तीस ग्रास का आहार करने वाला प्रमाणोपेताहारी एवं बत्तीस ग्रास से एक ही ग्रास कम खाने वाला अवमौदरिक कहलाता है। नौवें उद्देशक में बताया है कि शय्यातर का आहारादि पर स्वामित्व हो या उसका कुछ अधिकार हो तो वह प्राहार श्रमण-श्रमणियों के लिए ग्राह्य नहीं है। इसमें भिक्षुप्रतिमानों का भी उल्लेख है जिसकी चर्चा हम दशाश्रुतस्कन्ध के वर्णन में कर चुके हैं। दसवें उहे शक में यवमध्यचन्द्र प्रतिमा या वनमध्यचन्द्रप्रतिमा का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जो यव (जौ) के कण समान मध्य में मोटी ओर दोनों ओर पतली हो वह यवमध्यचन्द्रप्रतिमा है। जो वन के समान मध्य में पतली और दोनों और मोटी हो वह वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा है। यवमध्यचन्द्रप्रतिमा का धारक वमध्यचन्द्रप्रतिमा है। जो वन [ 58 ] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण एक मास पर्यन्त अपने शरीर के ममत्व को त्याग कर देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है और शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति आहार की और एक दत्ति पानी की, द्वितीया को दो दत्ति आहार की और दो दत्ति पानी की ग्रहण करता है। इस प्रकार क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को 15 दत्ति आहार की और 15 दत्ति पानी की ग्रहण करता है। कृष्णपक्ष में क्रमश: एक दत्ति कम करता जाता है और अमावस्या के दिन उपवास करता है। इसे यवमध्यचन्द्रप्रतिमा कहते हैं। वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को 15 दत्ति पाहार की और 15 दति पानी की ग्रहण की जाती है। उसे प्रतिदिन कम करते हुए यावत् अमावस्या को एक दत्ति प्राहार की और एक दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है / शुक्लपक्ष में क्रमश: एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा को उपवास किया जाता है / इस प्रकार 30 दिन की प्रत्येक प्रतिमा के प्रारम्भ के 29 दिन दत्ति के अनुसार पाहार और अन्तिम दिन उपवास किया जाता है। व्यवहार के आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीतव्यवहार, ये पांच प्रकार हैं। इनमें पागम का स्थान प्रथम है और फिर क्रमशः इनकी चर्चा विस्तार से भाष्य में है। स्थविर के जातिस्थविर, सूत्रस्थविर और प्रव्रज्यास्थविर, ये तीन भेद हैं। 60 वर्ष की आयु वाला श्रमण जातिस्थविर या वयःस्थविर कहलाता है। ठाणांग, समवायांग का ज्ञाता सूत्रस्थविर और दीक्षा धारण करने के 20 वर्ष पश्चात की दीक्षा वाले निर्ग्रन्थ प्रव्रज्यास्थविर कहलाते हैं। शैक्ष भूमियां तीन प्रकार की हैं-सप्त-रात्रिदिनी चातुर्मासिकी और षण्मासिकी। आठ वर्ष से कम उम्र वाले बालक-बालिकाओं को दीक्षा देना नहीं कल्पता। जिनकी उम्र लघु है वे प्राचारांगसूत्र के पढ़ने के अधिकारी नहीं हैं। कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले साधु को आचारांग पढ़ाना कल्प्य है / चार वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को सूत्रकृतांग, पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय वाले को दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प (बृहत्कल्प) और व्यवहार, आठ वर्ष की दीक्षा वाले को स्थानांग और समवायांग, दस वर्ष की दीक्षा वाले को व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ग्यारह वर्ष की दीक्षा वाले को लघुविमान-प्रविभक्ति, महाविमानप्रविभक्ति, अंगचूलिका, बंगलिका और विवाह-चूलिका, बारह वर्ष की दीक्षा वाले को अणोरुपपातिक, गरुलोपपातिक, धरणोपपातिक, वैश्रमणोपपातिक और वैलंधरोपपातिक, तेरह वर्ष की दीक्षा वाले को उपस्थानश्रुत, देवेन्द्रोपपात और नागपरियापनिका (नागपरियावणिग्रा), चौदह वर्ष की दीक्षा वाले को स्वप्नभावना, पन्द्रह वर्ष की दीक्षा वाले को चारणभावना, सोलह यर्ष की दीक्षा वाले को वेदनीशतक, सत्रह वर्ष की दीक्षा वाले को पाशीविषभावना, अठारह वर्ष की दीक्षा वाले को दृष्टिविधभावना, उन्नीस वर्ष की दीक्षा वाले वाले को दृष्टिवाद और बीस वर्ष की दीक्षा वाले को सब प्रकार के शास्त्र पढ़ाना कल्प्य है। वैयावृत्य (सेवा) दस प्रकार की कही गई है--१. आचार्य की वैयावृत्य, 2. उपाध्याय की वैयावृत्य, उसी प्रकार, 3. स्थविर की, 4. तपस्वी की, 5. शैक्ष-छात्र की, 6. ग्लान-रुग्ण की, 7. सामिक की, 8. कल की. 9. गण की और 10. संघ की वैयावृत्य / उपर्युक्त दस प्रकार की वयावृत्य से महानिर्जरा होती है। उपसंहार इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र की अनेक विशेषताएं हैं। इसमें स्वाध्याय पर विशेष रूप से बल दिया गया है। [ 59 ] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही अयोग्यकाल में स्वाध्याय करने का निषेध किया गया है। अनध्यायकाल की विवेचना की गई है। श्रमणश्रमणियों के बीच अध्ययन की सीमाएं निर्धारित की गई हैं। आहार का कवलाहारी, अल्पाहारी और ऊनोदरी का वर्णन है / प्राचार्य, उपाध्याय के लिए बिहार के नियम प्रतिपादित किये गये हैं। आलोचना और प्रायश्चित्त की विधियों का इसमें विस्तृत विवेचन है / साध्वियों के निवास, अध्ययन, वैयावत्य तथा संघ-व्यवस्था के नियमोपनियम का विवेचन है। इसके रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाह माने जाते हैं। व्याख्यासाहित्य आगम साहित्य के गुरु गम्भीर रहस्यों के उद्घाटन के लिये विविधव्याख्यासाहित्य का निर्माण हया है ! उस विराट आगम व्याख्यासाहित्य को हम पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं (1) नियुक्तियां (निज्जुत्ति)। (2) भाष्य (भास) / (3) चूणियां (चुण्णि)। (4) संस्कृत टीकाएं। (5) लोकभाषा में लिखित व्याख्यासाहित्य / सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में जो पद्यबद्ध टीकाएं लिखी गई वे नियुक्तियों के नाम से विश्रुत हैं। नियुक्तियों में मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद पर व्याख्या न कर मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है / उसकी शैली निक्षेपपद्धति की है। जो न्यायशास्त्र में अत्यधित प्रिय रही। निक्षेपपद्धति में किसी एक पद के सम्भावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ ग्रहण किया जाता है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् शारपेण्टियर ने नियुक्ति की परिभाषा इस प्रकार की है--"नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इण्डेक्स का काम करती हैं / वे सभी विस्तार युक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं।" नियुक्तिकार भद्रबाह माने जाते हैं। वे कौन थे इस सम्बन्ध में हमने अन्य प्रस्तावनाओं में विस्तार से लिखा है / भद्रबाहु की दस नियुक्तियां प्राप्त हैं / उसमें दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति भी एक है। दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति प्रथम श्रतकेवली भद्रबाह को नमस्कार किया गया है फिर दश अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन है। प्रथम असमाधिस्थान में द्रव्य और भाव समाधि के सम्बन्ध में चिन्तन कर स्थान के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, श्रद्धा, ऊर्ध्व, चर्या, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणन, संस्थान (संघाण) और भाव इन पन्द्रह निक्षेपों का वर्णन है। द्वितीय अध्ययन में शबल का नाम आदि चार निक्षेप से विचार किया है। तृतीय अध्ययन में आशातना का विश्लेषण है। चतुर्थ अध्ययन में "गणि" और "सम्पदा" पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा गया है कि गणि और गुणी ये दोनों एकार्थक हैं। प्राचार ही प्रथम गणिस्थान है। सम्पदा के द्रव्य और भाव ये दो भेद हैं / शरीर द्रव्यसम्पदा है और आचार भावसम्पदा है। पंचम अध्ययन में चित्तसमाधि का निक्षेप की दष्टि से विचार किया गया है। समाधि के चार प्रकार हैं। जब चित्त राग-द्वेष से मुक्त होता है, प्रशस्तध्यान में तल्लीन होता है तब भावसमाधि होती है। षष्ठ अध्ययन में उपासक और प्रतिमा पर निक्षेप दष्टि से चिन्तन किया गया है। उपासक के द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक और भावोपासक ये चार प्रकार है। भावोपासक वही हो सकता है जिसका जीवन सम्यग्दर्शन के आलोक से जगमगा रहा हो। यहां पर श्रमणोपासक की एकादश [60 ] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमानों का निरूपण है। सप्तम अध्ययन में श्रमणप्रतिमाओं पर चिन्तन करते हुए भावभ्रमणप्रतिमा के समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा और विवेकप्रतिमा ये पाँच प्रकार बताये हैं। अष्टम अध्ययन में पर्युषणाकल्प पर चिन्तन कर परिवसना, पर्युषणा, पयु पशमना, वर्षावास, प्रथम-समवसरण, स्थापना और ज्येष्ठ ग्रह को पर्यायवाची बताया है। श्रमण वर्षावास में एक स्थान पर स्थित रहता है और पाठ माह तक वह परिभ्रमण करता है। नवम अध्ययन में मोहनीयस्थान पर विचार कर उसके पाप, बर्य, वैर, पंक, पनक, क्षोभ, असात, संग, शल्य, अतर, निरति, धर्त्य ये मोह के पर्यायवाची बताए गये हैं। दशम अध्ययन में जन्ममरण के मूल कारणों पर चिन्तन कर उससे मुक्त होने का उपाय बताया गया है। नियुक्तिसाहित्य के पश्चात् भाष्यसाहित्य का निर्माण हुआ, किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध पर कोई भी भाष्य नहीं लिखा गया। भाष्यसाहित्य के पश्चात् चूर्णिसाहित्य का निर्माण हुआ। यह गद्यात्मक व्याख्यासाहित्य है / इसमें शुद्ध प्राकृत और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्या लिखी गई है। चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर का नाम चुणिसाहित्य में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि का मूल आधार दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति है। इस चूणि में प्रथम मंगलाचरण किया गया है। उसके पश्चात् दस अध्ययनों के अधिकारों का विवेचन किया गया है। जो सरल और सुगम है। मूलपाठ में और चूर्णिसम्मत पाठ में कुछ अन्तर है। यह चणि मुख्य रूप से प्राकृत भाषा में है। यत्र-तत्र संस्कृत शब्दों व वाक्यों के प्रयोग भी दिखाई देते हैं / चूणि के पश्चात् संस्कृत टीकाओं का युग आया। उस युग में अनेक आगमों पर संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखी गई / ब्रह्ममुनि (ब्रह्मर्षि) ने दशाश्रुतस्कन्ध पर एक टीका लिखी है तथा प्राचार्य घासीलालजी म. ने दशाश्रुतस्कन्ध पर संस्कृत में व्याख्या लिखी और आचार्य सम्राट आत्मारामजी म. ने दशाश्रतस्कन्ध पर हिन्दी में टीका लिखी। और आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद लिखा। मणिविजयजी गणि ग्रन्थमाला भावनगर से दशाश्रुतस्कन्ध मूल नियुक्ति चूणि सहित वि. सं. 2011 में प्रकाशित हुआ। सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद हैदराबाद से वीर सं. 2445 को अमोलकऋषिजी कृत हिन्दी अनुवाद दशाश्रुतस्कन्ध का प्रकाशित हुप्रा / जैन शास्त्रमाला कार्यालय सैदमिट्ठा बाजार लाहौर से प्राचार्य प्रात्मारामजी म. कृत सन् 1936 में हिन्दी टीका प्रकाशित हुई। संस्कृत व्याख्या व हिन्दी अनुवाद के साथ जैन शास्त्रोद्धार समिति राजकोट से सन् 1960 में घासीलालजी म. का दशाश्रुतस्कन्ध प्रकाशित हुआ। आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से प्रायार-दशा के नाम से मूलस्पर्शी अनुवाद सन 1981 में प्रकाशित हमा / यत्र-तत्र उसमें विशेषार्थ भी दिया गया है। प्रस्तुत सम्पादन-प्रागम साहित्य के मर्मज्ञ महामनीषी मुनि श्री कन्हैयालालजी म. "कमल" ने किया है। यह सम्पादन सुन्दर ही नहीं, अति सुन्दर है। आगम के रहस्य का तथा श्रमणाचार के विविध उलझे हुए प्रश्नों का उन्होंने प्राचीन व्याख्या साहित्य के प्राधार से तटस्थ चिन्तनपरक समाधान प्रस्तुत किया है। स्वल्प शब्दों में [ 61 ] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय को स्पष्ट करना सम्पादक मुनिजी की विशेषता है। इस सम्पादन में उनका गम्भीर पाण्डित्य यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। बृहत्कल्प का व्याख्यासाहित्य बृहत्कल्पनियुक्ति–दशाश्रुतस्कन्ध की तरह बृहत्कल्पनियुक्ति लिखी गई है। उसमें सर्वप्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार कर ज्ञान के विविध भेदों पर चिन्तन कर इस बात पर प्रकाश डाला है कि ज्ञान और मंगल में कथंचित् अभेद है / अनुयोग पर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव इन सात निक्षेपों से चिन्तन किया है / जो पश्चाद्भूत योग है वह अनुयोग है अथवा जो स्तोक रूप योग है वह अनूयोग है। कल्प के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार अनुयोगद्वार हैं / कल्प और व्यवहार का अध्ययन चिन्तन करने वाला मेधावी सन्त बहुश्रुत, चिरप्रवजित, कल्पिक, अचंचल, अवस्थित, अपरिश्रावी, विज्ञ प्राप्तानुज्ञात और भावपरिणामक होता है। इसमें ताल-प्रलम्ब का विस्तार से वर्णन है, और उसके ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त का भी विधान है। ग्राम, नगर, खेड़, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, पाश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, आदि पदों पर भी निक्षेपदृष्टि से चिन्तन किया है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक पर भी प्रकाश डाला है। आर्य पद पर विचार करते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, भाषा, शिल्प, ज्ञान, दर्शन, चारित्र इन बारह निक्षेपों से चिन्तन किया है। पार्यक्षेत्र में विचरण करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवद्धि होती है। अनार्य क्षेत्रों में विचरण करने से अनेक दोषों के लगने की सम्भावना रहती है। स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त को देकर इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। साथ ही ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि हेतु अनार्य क्षेत्र में विचरण करने का आदेश दिया है और उसके लिए राजा सम्प्रति का दृष्टान्त भी दिया गया है / श्रमण और श्रमणियों के प्राचार, विचार, आहार, विहार का संक्षेप में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। सर्वत्र निक्षेपपद्धति से व्याख्यान किया गया है। यह नियुक्ति स्वतन्त्र न रहकर बृहत्कल्पभाष्य में मिश्रित हो गई है। बृहत्कल्प-लधुभाष्य-बृहत्कल्प लधुभाष्य संघदासगणी की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों का विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। लघभाष्य होने पर भी इसकी गाथा संख्या 6490 है। यह छह उद्देश्यों में विभक्त है। भाष्य के प्रारम्भ में एक सविस्तृत पीठिका दी गई है। जिसकी गाथा संख्या 805 है। इस भाष्य में भारत की महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का संकलन-आकलन हुआ है। इस सांस्कृतिक सामग्री के कुछ अंश को लेकर डॉ. मोतीचन्द ने अपनी पुस्तक "सार्थवाह" में "यात्री और सार्थवाह" का सुन्दर प्राकलन किया है। प्राचीन भारतीय संस्कृतिक और सभ्यता का अध्ययन करने के लिए इसकी सामग्री विशेष उपयोगी है। जैन श्रमणों के आचार का हृदयग्राही, सूक्ष्म, तार्किक विवेचन इस भाष्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक में श्रुतज्ञान के प्रसंग पर विचार करते हुए सम्यक्त्वप्राप्ति का क्रम और प्रौपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है / अनुयोग का स्वरूप बताकर निक्षेप आदि बारह प्रकार के द्वारों से उस पर चिन्तन किया है। कल्पव्यवहार पर विविध दष्टियों से चिन्तन करते हुए यत्र-तत्र विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्तों का भी उपयोग हुआ है। पहले उद्देशक की व्याख्या में ताल-वृक्ष से सम्बन्धित विविध प्रकार के दोष और प्रायश्चित्त, ताल-प्रलम्ब के ग्रहण सम्बन्धी अपवाद, श्रमण-श्रमणियों को देशान्तर जाने के कारण और उसकी विधि, श्रमणों की अस्वस्थता के विधि-विधान, वैषों के पाठ प्रकार बताये हैं। दुष्काल प्रभृति विशेष परिस्थिति में श्रमण-श्रमणियों के एक दूसरे [ 62 ] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अवगहीत क्षेत्र में रहने की विधि, उसके 144 भंग और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त आदि का वर्णन है। ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, प्राकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, अंशिका, पुटभेदन, शंकर प्रभृति पदों पर वियेचन किया है। नक्षत्रमास, चन्द्रमास, ऋतुमास, आदित्यमास और अभिवधितमास का वर्णन है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक की क्रियाएं, समवसरण, तीर्थकर, गणधर, आहारकशरीरी, अनुत्तरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की शुभ और अशुभ कर्मप्रकृतियां, तीर्थकर की भाषा का विभिन्न भाषाओं में परिणमन, आफ्णगृह, रथ्यामुख, शृङ्गाटक, चतुष्क, चत्वर, अन्तराफ्ण आदि पदों पर प्रकाश डाला गया है और उन स्थानों पर बने हुए उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों को जिन दोषों के लगने की सम्भावना है उनकी चर्चा की गई है। भाष्यकार ने द्रव्य ग्राम के बारह प्रकार बताये है (1) उत्तानकमल्लक, (2) अवाङ मुखमल्लक, (3) सम्पुटमल्लक, (4) उत्तानकखण्डमल्लक, (5) अवाङ मुखखण्डमल्लक, (6) सम्पुटखण्डमल्लक, (7) भिति, (8) पडालि, (9) वलाभि, (10) अक्षाटक, (11) रुचक, (12) काश्यपक। तीर्थकर, गणधर और केवली के समय ही जिनकल्पिक मुनि होते हैं। जिनकल्पिक मुनि की समाचारी का वर्णन सत्ताईस द्वारों से किया है- (1) श्रुत, (2) संहनन, (3) उपसर्ग, (4) आतंक, (5) वेदना, (6) कतिजन, (7) स्थंडिल, (8) वसति, (9) कियाच्चिर, (10) उच्चार, (11) प्रस्रवण, (12) अवकाश, (13) तृणफलक, (14) संरक्षणता, (15) संस्थापनता, (16) प्राभृतिका, (17) प्राग्नि, (18) दीप, (19) अवधान, (20) वत्स्यक्ष, (21) भिक्षाचर्या, (22) पानक, (23) लेपालेप, (24) लेप, (25) प्राचाम्ल (26) प्रतिमा, (27) मासकल्प / जिनकल्पिक की स्थिति पर चिन्तन करते हए क्षेत्र, काल, चारित्र, तीर्थ, पर्याय, आगम, वेद, कल्प, लिंग, लेश्या, ध्यान, गणना, अभिग्रह, प्रव्राजना, मुण्डापना, प्रायश्चित्त, कारण, निष्प्रतिकर्म और भक्त इन द्वारों से प्रकाश डाला है। इसके पश्चात् परिहारविशुद्धिक और यथालन्दिक कल्प का स्वरूप बताया है। स्थविरकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षा, अर्थग्रहण, अनियतवास और निष्पत्ति ये सभी जिनकल्पिक के समान हैं। श्रमणों के विहार पर प्रकाश डालते हए विहार का समय, विहार करने से पहले गच्छ के निवास एवं निर्वाह योग्य या अयोग्य क्षेत्र, प्रत्युपेक्षकों का निर्वाचन, क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए किस प्रकार गमनागमन करना चाहिए, विहार मार्ग एवं स्थंडिल भूमि, जल, विश्रामस्थान, भिक्षा, वसति, उपद्रव आदि की परीक्षा, प्रतिलेखनीय क्षेत्र में प्रवेश करने की विधि, भिक्षा से वहाँ के मानवों के अन्तर्मानस की परीक्षा, भिक्षा, औषध आदि की प्राप्ति में सरलता व कठिनता का परिज्ञान, विहार करने से पूर्व वसति के अधिपति की अनुमति, विहार करने से पूर्व शुभ शकून देखना आदि का वर्णन है। स्थविरकल्पिकों की समाचारी में इन बातों पर प्रकाश डाला है१. प्रतिलेखना-वस्त्र आदि की प्रतिलेखना का समय, प्रतिलेखना के दोष और उनका प्रायश्चित / 2. निष्क्रमण- उपाश्रय से बाहर निकलने का समय / 3. प्राभृतिका- गृहस्थ के लिए जो मकान तैयार किया है, उसमें रहना चाहिए या नहीं रहना चाहिए। तत्सम्बन्धी विधि व प्रायश्चित्त / [63 ] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. भिक्षा-भिक्षा के लेने का समय और भिक्षा सम्बन्धी प्रावश्यक वस्तुएं / 5. कल्पकरण-पात्र को स्वच्छ करने की विधि, लेपकृत और अलेपकृत पात्र, पात्र-लेप से लाभ / 6. गच्छशतिकादि-आधार्मिक, स्वगृहयतिमिश्र, स्वगृहपाषण्डमिश्र, यावदाथिकमिश्र, क्रीतकृत, पूतिकार्मिक और प्रात्मार्थकृत तथा उनके अवान्तर भेद / 7. अनुयान रथयात्रा का वर्णन और उस सम्बन्धी दोष / 8. पुर:कर्म-भिक्षा लेने से पूर्व सचित्त जल से हाथ आदि साफ करने से लगने वाले दोष / 9. ग्लान-ग्लान-रुग्ण श्रमण की सेवा से होने वाली निर्जरा, उसके लिए पथ्य की गवेषणा, चिकित्सा के लिए बैद्य के पास ले जाने की विधि, वैद्य से वार्तालाप करने का तरीका, रुग्ण श्रमण को उपाश्रय, गली आदि में छोड़कर चले जाने वाले प्राचार्य को लगने वाले दोष और उनके प्रायश्चित्त का विधान / 10. गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक-वाचना आदि कारणों से गच्छ से सम्बन्ध रखने वाले यथालदिक कल्पधारियों के साथ वन्दन आदि व्यवहार तथा मासकल्प की मर्यादा / 11. उपरिदोष-वर्षाऋतु के अतिरिक्त समय में एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने से लगने वाले दोष / 12. अपवाद-एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने के प्रापवादिक कारण, श्रमण-श्रमणियों की भिक्षाचर्या की विधि पर भी प्रकाश डाला है। साथ ही यह भी बताया है कि यदि ग्राम, नगर आदि दुर्ग के अन्दर और बाहर दो भागों में विभक्त हो तो अन्दर और बाहर श्रमणियों के प्राचारसम्बन्धी विधि-विधानों पर प्रकाश डालते हए बताया है कि निर्ग्रन्थी के मासकल्प की मर्यादा, विहार-विधि, समुदाय का प्रमुख और उसके गुण, उसके द्वारा क्षेत्र की प्रतिलेखना, बौद्ध श्रावकों द्वारा भड़ौच में श्रमणियों का अपहरण, श्रमणियों के योग्य क्षेत्र, वसति, विधर्मी से उपद्रव की रक्षा, भिक्षाहेतु जाने वाली श्रमणियों की संख्या, वर्षावास के अतिरिक्त श्रमणी को एक स्थान पर अधिक से अधिक कितना रहना, उसका विधान हैं। स्थविरकल्प और जिनकल्प इन दोनों अवस्थाओं में कौनसी अवस्था प्रमुख है, इस पर चिन्तन करते हुए भाष्यकार ने निष्पादक और निष्पन्न इन दोनों दृष्टियों से दोनों की प्रमुखता स्वीकार की है। सूत्र अर्थ आदि दृष्टियों से स्थविरकल्प जिनकल्प का निष्पादक है। जिनकल्प ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्रभृति दृष्टियों से निष्पन्न है। विषय को स्पष्ट करने की दृष्टि से गुहासिंह, दो महिलाएं और दो वर्गों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। ___एक प्राचौर और एक द्वार वाले ग्राम-नगर आदि में निर्गन्ध-निर्ग्रन्थियों को नहीं रहना चाहिए, इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन किया है। श्रमण-श्रमणियों को किस स्थान में रहना चाहिए, इस पर विविध दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। व्यवशमन प्रकृत सूत्र में इस बात पर चिन्तन किया है कि श्रमणों में परस्पर वैमनस्य हो जाये तो उपशमन धारण करके क्लेश को शान्त करना चाहिए। जो उपशमन धारण करता है वह पाराधक है, जो नहीं करता है वह विराधक है। प्राचार्य को श्रमण-श्रमणियों में क्लेश होने पर उसकी उपशान्ति हेतु उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। परस्पर के झगड़े को शान्त करने की विधि प्रतिपादित की गई है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार प्रकृत सूत्र में बताया है कि श्रमण-श्रमणियों को वर्षाऋतु में एक गांव से दूसरे गांव नहीं जाना चाहिए। यदि ममन करता है तो उसे प्रायश्चित्त पाता है। यदि आपवादिक कारणों से विहार करने का प्रसंग उपस्थित हो तो उसे यतना से गमन करना चाहिए। अवग्रहसूत्र में बताया है कि भिक्षा या शौचादि भूमि के लिए जाते हुए श्रमण को गृहपति वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि ग्रहण करने की प्रार्थना करे तो उसे लेकर प्राचार्य आदि को प्रदान करे और उनकी आज्ञा प्राप्त होने पर उसका उपयोग करे। रात्रिभक्त प्रकृत सूत्र में बताया है कि रात्रि या विकाल में प्रशन पान आदि ग्रहण करना नहीं चाहिए और न वस्त्र आदि को ग्रहण करना चाहिए। रात्रि और विकाल में अध्वगमन का भी निषेध किया गया है / अध्व के दो भेद हैं—पन्थ और मार्ग / जिसके बीच में ग्राम, नगर आदि कुछ भी न पाए वह पन्थ है और जिसके बीच ग्राम नगर आये वह मार्ग है। सार्थ के भंडी, बहिलक, भारवह, प्रौदरिक, कार्पटिक ये पांच प्रकार हैं। आठ प्रकार के सार्थवाह और पाठ प्रकार के सार्थ-व्यवस्थापकों का उल्लेख है। विहार के लिए आर्यक्षेत्र ही विशेष रूप से उपयुक्त है। आर्य पद पर नाम आदि बारह निक्षेपों से विचार किया है / आर्य जातियां अम्बष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक, हरित, तन्तुण ये छह हैं और आर्य कुल भी उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात-कौरव और इक्ष्वाकु यह छह प्रकार के हैं। आगे उपाश्रय सम्बन्धी विवेचन में उपाश्रय के व्याघातों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। जिसमें शालि ब्रीहि आदि सचित्त धान्य कण बिखरे हुए हों उस बीजाकीर्ण स्थान पर श्रमण को नहीं रहना चाहिए और न सुराविकट कुम्भ, शीतोदकविकटकुम्भ, ज्योति, दीपक, पिण्ड, दुग्ध, दही, नवनीत आदि पदार्थों से युक्त स्थान पर ही रहना चाहिए। सागारिक के पाहारदि के त्याग की विधि, अन्य स्थान से आई हुई भोजनसामग्री के दान की विधि, सामारिक का पिण्डग्रहण, विशिष्ट व्यक्तियों के निमित्त बनाये हुए भक्त, उपकरण आदि का ग्रहण, रजोहरण ग्रहण करने की विधि बताई है। पांच प्रकार के वस्त्र-(१) जांगिक, (2) भांगिक, (3) सानक, (4) पोतक, (5) तिरीटपट्टक, पांच प्रकार के रजोहरण-(१) औणिक, (2) प्रौष्ट्रिक, (3) सानक, (4) वक्चकचिप्पक, (5) मुजचिप्पक-इनके स्वरूप और ग्रहण करने की विधि बताई गई है। तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के परस्पर उपाश्रय में प्रवेश करने की विधि बताई है। कृत्स्न और अकृत्स्न, भिन्न और अभिन्न वस्त्रादि ग्रहण, नवदीक्षित श्रमण-श्रमणियों की उपधि पर चिन्तन किया है। उपधिग्रहण की विधि, वन्दन आदि का विधान किया है। वस्त्र फाड़ने में होने वाली हिंसा-अहिंसा पर चिन्तन करते हुए द्रव्याहिंसा और भावहिंसा पर विचार किया है। हिंसा में जितनी अधिक राग आदि की तीव्रता होगी उतना ही तीव्र कर्मबन्धन होगा। हिंसक में ज्ञान और अज्ञान के कारण कर्मबंध, अधिकरण की विविधता से कर्मबंध में वैविध्य आदि पर चिन्तन किया गया है। चतुर्थ उद्देशक में हस्तकर्म आदि के प्रायश्चित्त का विधान है। मथुनभाव रागादि से कभी भी रहित नहीं हो सकता। अत: उसका अपवाद नहीं है / पण्डक आदि को प्रव्रज्या देने का निषेध किया है। पंचम उद्देशक में गच्छ सम्बन्धी, शास्त्र स्मरण और तविषयक व्याघात, क्लेशयुक्त मन से गच्छ में रहने से अथवा स्वगच्छ का परित्याग कर अन्य गच्छ में चले जाने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, निःशंक और सशंक रात्रिभोजन, उद्गार-वमन ग्रादि विषयक दोष और उसका प्रायश्चित्त, पाहार आदि के लिए प्रयत्न आदि पर प्रकाश डाला गया है। श्रमणियों के लिए विशेष रूप से विधि-विधान बताये गये हैं। षष्ठ उद्देशक में निर्दोष वचनों का प्रयोग और मिथ्या वचनों का अप्रयोग, प्राणातिपात आदि के प्रायश्चित्त, कण्टक के उद्धरण, विपर्यासजन्य दोष, प्रायश्चित्त अपवाद का वर्णन है। श्रमण-श्रमणियों को विषम [65 ] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग से नहीं जाना चाहिए। जो निर्ग्रन्थी विक्षिप्तचित्त हो गई है उसके कारणों को समझकर उसके देख-रेख की व्यवस्था और चिकित्सा ग्रादि के विधि-निषेधों का विवेचन किया गया है / श्रमणों के लिए छह प्रकार के परिमन्यु व्याधात माने गये हैं—(१) कौत्कुचित (2) मौखरिक (3) चक्षुलोल (4) तितिणिक (5) इच्छालोम (6) भिज्जानिदानकरण-इनका स्वरूप, दोष और अपवाद आदि पर चिन्तन किया है। ___ कल्पस्थिति प्रकृत में छह प्रकार की कल्पस्थितियों पर विचार किया है-(१) सामायिककल्पस्थिति, (2) छेदोपस्थानीयकल्पस्थिति, (3) निविशमानकल्पस्थिति, (4) निविष्टकायिककल्पस्थिति, (5) जिनकल्पस्थिति, (6) स्थविरकल्पस्थिति | छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति के आचेलक्य, प्रौद्देशिक प्रादि दस कल्प हैं। उसके अधिकारी और अनधिकारी पर भी चिन्तन किया गया है। प्रस्तुत भाष्य में यत्र-तत्र सुभाषित बिखरे पड़े हैं, यथा--हे मानवो ! सदा-सर्वदा जाग्रत रहो, जाग्रत मानव की बुद्धि का विकास होता है, जो जागता है वह सदा धन्य है। "जागरह नरा णिचं, जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धि / सो सुवति // सो धणं, जो जग्गति सो सया धण्णो // शील और लज्जा ही नारी का भूषण है। हार आदि प्राभूषणों से नारी का शरीर विभूषित नहीं हो सकता। उसका भूषण तो शील और लज्जा ही है। सभा में संस्कार रहित असाधूवादिनी वाणी प्रशस्त नहीं कही जा सकती। इस प्रकार प्रस्तुत भाष्य में श्रमणों के प्राचार-विचार का तार्किक दृष्टि से बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। उस युग की सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक राजनीतिक स्थितियों पर भी खासा अच्छा प्रकाश पड़ता है। अनेक स्थलों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सुन्दर विश्लेषण हुआ है। जैन साहित्य के इतिहास में ही नहीं, अपितु भारतीय साहित्य में इस' ग्रन्थरत्न का अपूर्व और अनूठा स्थान है। बृहत्कल्पचूणि इस चूणि का प्राधार मूलसूत्र व लघुभाष्य है / दशाश्रुतस्कन्धचूणि का और बृहत्कल्पचूर्णि का प्रारम्भिक अंश प्रायः मिलता-जुलता है। भाषाविज्ञों का मन्तव्य है कि बृहत्कल्पचणि से दशाश्रु तस्कन्धणि प्राचीन है। यह सम्भव है कि ये दोनों ही चणियां एक ही आचार्य की हों। प्रस्तुतः चूणि में पीठिका और छह उद्देशक है / प्रारम्भ में ज्ञान के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है / अभिधान और अभिधेय को कथंचित भिन्न और कथंचित् अभिन्न बताते हुए वक्ष शब्द के छह भाषाओं में पर्याय दिये हैं। जिसे संस्कृत में वृक्ष कहते हैं वही प्राकृत में रुक्क्ष, मगध में प्रोदण, लाट में कर, दमिल-तमिल में चोर और आन्ध्र में इडाकु कहा जाता है। चणि में तत्त्वार्थाधिगम, विशेषावश्यकभाष्य, कर्मप्रकृति, महाकल्प, गोविन्दनियंक्ति आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। भाषा संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। चणि में प्रारम्भ से अन्त तक लेखक के नाम का निर्देश नहीं हुआ है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत्कल्पपीठिकावृत्ति प्रस्तुत वृत्ति भद्रबाहु स्वामी विरचित बृहत्कल्पनियुक्ति एवं संघदासगणी बिरचित लघुभाष्य पर है। आचार्य मलयगिरि पीठिका की भाष्य गाथा 606 पर्यन्त ही अपनी वृत्ति लिख सके। आगे उन्होंने वृत्ति नहीं लिखी है। आगे की वृत्ति प्राचार्य क्षेमकीर्ति ने पूर्ण की है। जैसा कि स्वयं क्षेमकीर्ति ने भी स्वीकार किया है।' वृत्ति के प्रारम्भ में वृत्तिकार ने जिनेश्वर देव को प्रणाम कर सद्गुरुदेव का स्मरण किया है तथा भाष्यकार और चूर्णिकार के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त की है। वृत्तिकार ने बृहत्कल्प एवं व्यवहारसूत्र के निर्माताओं के सम्बन्ध में लिखा है कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह स्वामी ने श्रमणों के अनुग्रहार्थ कल्प और व्यवहार की रचना की जिससे कि प्रायश्चित्त का व्यवच्छेद न हो / उन्होंने सूत्र के गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिये नियुक्ति की ही रचना की है और जिनमें प्रतिभा की तेजस्विता का अभाव है उन अल्पबुद्धि वाले व्यक्तियों के लिए भाष्यकार ने भाष्य का निर्माण किया है। वह नियुक्ति और भाष्य सूत्र के अर्थ को प्रकट करने वाले होने से दोनों एक ग्रन्थ रूप हो गये। वत्ति में प्राकृत गाथाओं का उद्धरण के रूप में प्रयोग हआ है और विषय को सुबोध बनाने की दृष्टि से प्राकृत कथाएँ उद्धृत की गई हैं। प्रस्तुत मलयमिरि वृत्ति का ग्रन्थमान 4600 श्लोक प्रमाण है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचार्य मलयगिरि शास्त्रों के गम्भीर ज्ञाता थे। विभिन्न दर्शनशास्त्रों का जैसा और जितना गम्भीर विवेचन एवं विश्लेषण उनकी टीकाओं में उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र कहीं पर भी उपलब्ध नहीं है / वे अपने युग के महान् तत्त्वचिन्तक, प्रसिद्ध टीकाकार और महान् व्याख्याता थे। आगमों के गुरुगम्भीर रहस्यों को तर्कपूर्ण शैली में प्रस्तुत करने की उनकी क्षमता अद्भुत थी, अनूठी थी। सौभाग्यसागर ने बृहत्कल्प पर संस्कृत भाषा में एक टीका लिखी। बृहत्कल्पनियुक्ति, लघुभाष्य तथा मलयगिरि, क्षेमकीर्ति कृत टीका सहित सन् 1933 से 1941 तक श्री जैन प्रात्मानन्द सभा भावनगर सौराष्ट्र से प्रकाशित हुई। प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन चतुरविजयजी और पुण्यविजयजी ने किया। सम्पादन कला की दृष्टि से यह सम्पादन उत्कृष्ट कहा जा सकता है। वृहत्कल्प एक अज्ञात टीकाकार की टीका सहित सम्यकज्ञान प्रचारक मण्डल जोधपुर से प्रकाशित हा। सन 1923 में जर्मन टिप्पणी आदि के साथ W. Schubring Lepizig 1905 : मूल मात्र नागरीलिपि में-पूना, 1923 / सन् 1915 में डॉ. जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती अनुवाद सहित अहमदाबाद से प्रकाशित किया, और आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने हिन्दी अनुवाद सहित सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी हैदराबाद से प्रकाशित किया। ई. सन् 1977 में आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से "कप्पसुत्तं" के नाम से मूलानुस्पर्शी अनुवाद और विशेष अर्थ के साथ प्रकाशित हुआ। प्रस्तुत सम्पादन प्रस्तुत प्रागम के सम्पादक आगम अनुयोग प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' हैं। जिनका शब्दानुलकी अनुवाद और सम्पादन मन को लुभाने वाला है। प्राचीन व्याख्या साहित्य के आधार पर अनेक निगूढ़ रहस्यों को सम्पादक मुनिवर ने स्पष्ट करने का प्रयास किया है। व्यवहारसूत्र व्याख्यासाहित्य व्यवहार श्रमण जीवन की साधना का एक जीवन्त भाष्य है। व्यवहारनियुक्ति में उत्सर्ग और अपवाद 1. श्री मलयगिरी प्रभवो, यां कत्तु मुपाक्रमन्त मतिमन्तः / सा कल्पशास्त्र टीका मयाऽनुसन्धोयतेऽल्पधिया / -बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति, पृ. 177 [67 ] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विवेचन है। इस नियुक्ति पर भाष्य भी है। जो अधिक विस्तृत है। बृहत्कल्प और व्यवहार की नियुक्ति परस्पर शैली भाव-भाषा की दृष्टि से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। दोनों में साधना के तथ्य व सिद्धान्त प्रायः समान हैं / यह नियुक्ति भाष्य में विलीन हो गई है। व्यवहारभाष्य हम पूर्व में ही बता चुके हैं कि व्यवहारभाष्य के रचयिता का नाम अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। बृहत्कल्पभाष्य के समान ही इस भाष्य में भी निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के आचार-विचार पर प्रकाश डाला है। सर्वप्रथम पीठिका में व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य के स्वरूप की चर्चा की गई है। व्यवहार में दोष लगने की दृष्टि से प्रायश्चित्त का अर्थ, भेद, निमित्त, अध्ययन विशेष, तदह पर्षद आदि का विवेचन किया गया है और विषय को स्पष्ट करने के लिये अनेक दृष्टान्त भी दिये गये हैं। इसके पश्चात् भिक्षु, मासपरिहार, स्थानप्रतिसेवना, आलोचना आदि पदों पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है। आधाकर्म से सम्बन्धित अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार के लिए पृथक-पृथक प्रायश्चित्त का विधान है। मूलगुण और उत्तरगुण इन दोनों की विशुद्धि प्रायश्चित्त से होती है। अतिक्रम के लिए मासगुरु और काललघु, अतिचार के लिए तपोगुरु और कालगुरु और अनाचार के लिये चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का विधान है। पिण्डविशुद्धि समिति भावना तप प्रतिमा और अभिग्रह ये सभी उत्तरगुण में हैं। इनके क्रमश: बयालीस, भाठ, पच्चीस, बारह, बारह और चार भेद होते हैं। प्रायश्चित्त करने वाले पुरुष के निर्गत और वर्तमान ये दो प्रकार हैं। जो तपोर्ह प्रायश्चित्त से अतिक्रान्त हो गये हैं वे निर्गत हैं और जो विद्यमान हैं वे वर्तमान हैं। उनके भी भेद-प्रभेद किये गये हैं। प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष चार प्रकार के होते हैं१. उभयतर--जो संयम तप की साधना करता हुआ भी दूसरों की सेवा कर सकता है / 2. आत्मतर-जो केवल तप ही कर सकता है। 3. परतर-जो केवल सेवा ही कर सकता है। 4. अन्यतर-जो तप और सेवा दोनों में से किसी एक समय में एक का ही सेवन कर सकता है। मालोचना पालोचनाह और आलोचक के बिना नहीं होती। अालोचनाह स्वयं आचारवान, प्राधारवान, व्यवहारवान, अपव्रीडक, प्रकुर्वी, निर्यापक, अपायदर्शी और अपरिश्राबी, इन गुणों से युक्त होता है / आलोचक भी जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चरणसम्पन्न, क्षान्त, दान्त, अमायी और अपश्चात्तापी इन दस गुणों से युक्त होता है। साथ ही आलोचना के दोष, तदविषयभूत द्रव्य आदि, प्रायश्चित्त देने की विधि आदि पर भी भाष्यकार ने चिन्तन किया है। परिहारतप के वर्णन में सेवा का विश्लेषण किया गया है और सुभद्रा और मुगावती के उदाहरण भी दिये गये हैं। आरोपणा के प्रस्थापनिका, स्थापिता, कृत्स्ना, अकृत्स्ना और हाडहडा ये पांच प्रकार बताये हैं तथा इन पर विस्तार से चर्चा की है। शिथिलता के कारण गच्छ का परित्याग कर पुनः गच्छ में सम्मिलित होने के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। पार्श्वस्थ, यथाच्छन्द, कुशील, प्रवसन्न और संसक्त के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। [ 68] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणों के विहार की चर्चा करते हुए एकाकी विहार का निषेध किया है और उनको लगने वाले दोषों का निरूपण किया है। विविध प्रकार के तपस्वी व व्याधियों से संसक्त श्रमण की सेवा का विधान करते हए क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त की सेवा करने को मनोवैज्ञानिक पद्धति पर प्रकाश डाला है। क्षिप्तचित्त के राग, भय और अपमान तीन कारण है। दीप्तचित्त का कारण सम्मान है। सम्मान होने पर उसमें मद पैदा होता है। शत्रुओं को पराजित करने के कारण बह मद से उन्मत्त होकर दीप्तचित्त हो जाता है। क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त में मुख्य अन्तर यह है कि क्षिप्तचित्त प्रायः मौन रहता है और दीप्तचित्त बिना प्रयोजन के भी बोलता रहता है। भाष्यकार ने गणावच्छेदक, प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, प्रवतिनी ग्रादि पदवियों को धारण करने वाले की योग्यतानों पर विचार किया है। जो ग्यारह अंगों के ज्ञाता हैं, नवम पूर्व के ज्ञाता हैं, कृतयोगी हैं, बहुश्रुत है, बहुत आगमों के परिज्ञाता हैं, सूत्रार्थ विशारद हैं, धीर हैं, श्रुतनिघर्ष हैं, महाजन हैं वे विशिष्ट व्यक्ति ही प्राचार्य आदि विशिष्ट पदवियों को धारण कर सकते हैं। श्रमणों के विहार सम्बन्धी नियमोपनियमों पर विचार करते हए कहा है कि आचार्य, उपाध्याय ग्रादि पदवीदारों को कम से कम कितने सन्तों के साथ रहना चाहिए, आदि विविध विधि-विधानों का निरूपण है। प्राचार्य, उपाध्याय के पांच प्रतिशय होते हैं, जिनका श्रमणों को विशेष लक्ष्य रखना चाहिए 1. उनके बाहर जाने पर पैरों को साफ करना। 2. उनके उच्चार-प्रस्रवण को निर्दोष स्थान पर परठना / 3. उनकी इच्छानुसार वैयावृत्य करना / 4. उनके साथ उपाश्रय के भीतर रहना। 5. उनके साथ उपाश्रय के बाहर जाना। श्रमण किसी महिला को दीक्षा दे सकता है और दीक्षा के बाद उसे साध्वी को सौंप देना चाहिए। साध्वी किसी भी पुरुष को दीक्षा नहीं दे सकती / उसे योग्य श्रमण के पास दीक्षा के लिए प्रेषित करना चाहिए। श्रमणी एक संघ में दीक्षा ग्रहण कर दूसरे संघ में शिष्या बनना चाहे तो उसे दीक्षा नहीं देनी चाहिए। उसे जहाँ पर रहना हो वहीं पर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए, किन्तु श्रमण के लिए ऐसा नियम नहीं है / तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला उपाध्याय और 5 वर्ष की दीक्षापर्याय वाला प्राचार्य बन सकता है। वर्षावास के लिए ऐसा स्थान श्रेष्ठ बताया है, जहाँ पर अधिक कीचड़ न हो, द्वीन्द्रियादि जीवों की बहुलता न हो, प्रासुक भूमि हो, रहने योग्य दो तीन बस्तियां हों, गोरस की प्रचुरता हो, बहुत कोई वैद्य हो, औषधियां सरलता से प्राप्त होती हों, धान्य की प्रचुरता हो, राजा सम्यक् प्रकार से प्रजा का पालन करता हो, पाखण्डी साधु कम रहते हों, भिक्षा सुगम हो और स्वाध्याय में किसी भी प्रकार का विघ्न न हो। जहाँ पर कुत्ते अधिक हों वहाँ पर श्रमण को विहार नहीं करना चाहिए। भाष्य में दीक्षा ग्रहण करने वाले के गुण-दोष पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि कुछ व्यक्ति अपने देशस्वभाव से ही दोषयुक्त होते हैं। आंध्र में उत्पन्न व्यक्ति क्रूर होता है। महाराष्ट्र में उत्पन्न हुआ व्यक्ति वाचाल होता है और कोशल में उत्पन्न हया व्यक्ति स्वभाव से ही दुष्ट होता है। इस प्रकार का न होना बहत ही कम व्यक्तियों में सम्भव है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे भाष्य में शयनादि के निमित्त सामग्री एकत्रित करने और पुनः लौटाने की विधि बतलाई है। आहार की मर्यादा पर प्रकाश डालते हुए कहा है—आठ कौर खाने वाला श्रमण अल्पाहारी, बारह, सोलह, चौबीस, इकतीस और बत्तीस ग्रास ग्रहण करने वाला श्रमण क्रमश: अपार्धाहारी, अर्धाहारी, प्राप्तावमौदर्य और प्रमाणाहारी है / नवम उद्देशक में शय्यातर के ज्ञातिक, स्वजन, मित्र प्रभति पागन्तुक व्यक्तियों से सम्बन्धित आहार को लेने और न लेने के सम्बन्ध में विचार कर श्रमणों की विविध प्रतिमानों पर प्रकाश डाला है। - दशम उद्देशक में यवमध्यप्रतिमा और वनमध्यप्रतिमा पर विशेष रूप से चिन्तन किया है। साथ ही पांच प्रकार के व्यवहार, बालदीक्षा की विधि, दस प्रकार की वैयावृत्य आदि विषयों की व्याख्या की गई है। प्रायं रक्षित, आर्य कालक, राजा सातवाहन, प्रद्योत, मुरुण्ड, चाणक्य, चिलातपुत्र, अवन्ति, सुकुमाल, रोहिणेय, प्रार्य समुद्र, आर्य मंगु आदि की कथाएं आई हैं। प्रस्तुत भाष्य अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। व्यवहार पर एक चूणि भी लिखी गई थी। चूणि के पश्चात् व्यवहार पर प्राचार्य मलयगिरि ने वृत्ति लिखी। वत्ति में आचार्य मलयगिरि का गम्भीर पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलकता है। विषय की गहनता, भाषा की प्रांजलता, शैली का लालित्य और विश्लेषण की स्पष्टता प्रेक्षणीय है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राक्कथन के रूप में पीठिका है। जिसमें कल्प; व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त प्रभृति विषयों पर चिन्तन किया है। वृत्तिकार ने प्रारम्भ में अर्हत् अरिष्टनेमि को, अपने सद्गुरुवर्य तथा व्यवहारसूत्र के चणिकार आदि को भक्तिभावना से विभोर होकर नमन किया है। वृत्तिकार ने बृहत्कल्प और व्यवहार इन दोनों प्रागमों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखा कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का निरूपण है किन्तु उसमें प्रायश्चित्त देने की विधि नहीं है, जबकि व्यवहार में प्रायश्चित्त देने की और पालोचना करने की ये दोनों प्रकार की विधियां हैं। यह बहत्कल्प से व्यवहार की विशेषता है। व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य तीनों का विश्लेषण करते हुए लिखा है-व्यवहारी कर्तारूप है, व्यवहार कारणरूप है और व्यवहर्तव्य कार्यरूप है। कारणरूपी व्यवहार प्रागम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत रूप से पांच प्रकार का है / चूर्णिकार ने पांचों प्रकार के व्यवहार को करण कहा है। भाष्यकार ने सूत्र, अर्थ, जीतकल्प, मार्ग, न्याय, एप्सितव्य, प्राचरित और व्यवहार इनको एकार्थक माना है। जो स्वयं व्यवहार के मर्म को जानता हो, अन्य व्यक्तियों को व्यवहार के स्वरूप को समझाने की क्षमता रखता हो वह गीतार्थ है। जो गीतार्थ है उसके लिए व्यवहार का उपयोग है / प्रायश्चित्त प्रदाता और प्रायश्चित्त संग्रहण करने वाला दोनों गीतार्थ होने चाहिए। प्रायश्चित्त के प्रतिसेवना, मंयोजना, ग्रारोपणा और परिकूचना, ये चार अर्थ हैं। प्रतिसेवना रूप प्रायश्चित्त के दस भेद हैं। (1) आलोचना, (2) प्रतिक्रमणा, (3) तदुभय, (4) विवेक (5) उत्सर्ग, (6) तप, (7) छेद, (8) मूल, (9) अनवस्थाप्य और (10) पारांचिक / इन दसों प्रायश्चित्तों के सम्बन्ध में विशेष रूप से विवेचन किया गया है। यदि हम इन प्रायश्चित्त के प्रकारों की तुलना विनयपिटक' में आयी हुई प्रायश्चित्तविधि के साथ करें तो आश्चर्यजनक समानता मिलेगी। प्रायश्चित्त प्रदान करने वाला अधिकारी या प्राचार्य बहुश्रुत ब गम्भीर हो, यह आवश्यक है। प्रत्येक के सामने 1. विनयपिटक निदान [ 70 ] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालोचना का निषेध किया गया है। पालोचना और प्रायश्चित दोनों ही योग्य व्यक्ति के समक्ष होने चाहिए, जिससे कि वह गोपनीय रह सके / बौद्धपरम्परा में साधुसमुदाय के सामने प्रायश्चित्त ग्रहण का विधान है। विनयपिटक में लिखा हैप्रत्येक महीने की कृष्ण चतुर्दशी और पूर्णमासी को सभी भिक्षु उपोसथागार में एकत्रित हो तथागत बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी संघ को बताया है। अत: किसी प्राज्ञ भिक्षु को सभा के प्रमुख पद पर नियुक्त कर पातिमोक्ख का वाचन किया जाता है और प्रत्येक प्रकरण के उपसंहार में यह जिज्ञासा व्यक्त की जाती है कि उपस्थित सभी भिक्षु उक्त बातों में शुद्ध हैं ? यदि कोई भिक्षु तत्सम्बन्धी अपने दोष की मालोचना करना चाहता है तो संघ उस पर चिन्तन करता है और उसकी शुद्धि करवता है। द्वितीय और तृतीय बार भी उसी प्रश्न को दुहराया जाता है। सभी की स्वीकृति होने पर एक-एक प्रकरण आगे पढ़े जाते हैं। इसी तरह भिक्षुणियां भिक्खुनी पातिमोक्ख का वाचन करती हैं। यह सत्य है कि दोनों ही परम्परानों की प्रायश्चित्त विधियां पृथक्-पृथक् हैं। पर दोनों में मनोवैज्ञानिकता है। दोनों ही परम्पराओं में प्रायश्चित्त करने वाले साधक के हृदय की पवित्रता, विचारों की सरलता अपेक्षित मानी है। प्रथम उद्देशक में प्रतिसेवना के मूलप्रतिसेवना और उत्तरप्रतिसेवना ये दो प्रकार बताये हैं / मूलगुणअतिचारप्रतिसेवना प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह रूप पांच प्रकार की है। उत्तरगुणातिचार प्रतिसेवना दस प्रकार की है। उत्तरगूण अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियन्त्रितः साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक और अद्रा प्रत्याख्यान के रूप में है। ऊपर शब्दों में उत्तरगुणों के पिण्डविशुद्धि, पांच समिति, बाह्य तप, पाभ्यान्तर तप, भिक्षप्रतिमा और अभिग्रह इस तरह दस प्रकार हैं। मूलगुणातिचारप्रतिसेवना और उत्तरगुणातिचारप्रतिसेवना इनके भी दर्य और कल्प्य ये दो प्रकार हैं। बिना कारण प्रतिसेवना दपिका है और कारण युक्त प्रतिसेवना कल्पिका है। वृत्तिकार ने विषय को स्पष्ट करने के लिए स्थान-स्थान पर विवेचन प्रस्तुत किया है / प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान 34625 श्लोक प्रमाण है। वृत्ति के पश्चात् जनभाषा में सरल और सुबोध शैली में प्रागमों के शब्दार्थ करने वाली संक्षिप्त टीकाएं लिखी गई हैं, जिनकी भाषा प्राचीन गुजराती-राजस्थानी मिश्रित है। यह बालावबोध व टब्बा के नाम से विश्रत हैं / स्थानकवासी परम्परा के धर्मसिंह मुनि ने व्यवहारसूत्र पर भी टब्बा लिखा है, पर अभी तक वह अप्रकाशित ही है। प्राचार्य अमोलकऋषिजी महाराज द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद साहित व्यवहारसूत्र प्रकाशित हुआ है। जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती में अनुवाद भी प्रकाशित किया है। शुबिंग लिपजिग ने जर्मन टिप्पणी के साथ सन् 1918 में लिखा / जिसको जैन साहित्य समिति पूना से 1923 में प्रकाशित किया है। पूज्य घासीलालजी म. ने छेदसूत्रों का प्रकाशन केवल संस्कृत टीका के साथ करवाया है। आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से सन् 1980 में व्यवहारसूत्र प्रकाशित हआ। जिसका सम्पादन आगममर्मज्ञ मुनि श्री कन्हैयालालजी म. “कमल" ने किया। प्रस्तुत सम्पादन-मुनि श्री कन्हैयालालजी म. "कमल" ने पहले प्रायार-दसा, कप्पसुत्तं और बहारसुत्तं इन तीनों वेदसूत्रों का सम्पादन और प्रकाशन किया था। उसी पर और अधिक विस्तार से प्रस्तुत तीन आगमों का सम्पादन कर प्रकाशन हो रहा है। इसके पूर्व निशीथ का प्रकाशन हो चुका है। चारों छेदसूत्रों पर मूल, अर्थ और विवेचन युक्त यह प्रकाशन अपने आप में गौरवपूर्ण है। इन तीन प्रागमों के प्रकाशन के साथ ही [71] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत आगममाला से स्थानकवासी परम्परा मान्य बत्तीस पागमों का प्रकाशन कार्य भी सम्पन्न हो रहा है। स्वर्गीय श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. की कमनीय कल्पना को अनेक सम्पादक मुनियों, महासतियों और विद्वानों के कारण मूर्त रूप मिल गया है। यह परम पाह्लाद का विषय है। छेदसूत्रों में श्रमणों की प्राचारसंहिता का विस्तार से निरूपण हा है। छेदसूत्रों में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का निरूपण है। मैं बहुत ही विस्तार से इन पर लिखने का सोच रहा था, पर श्रमणसंघीय व्यवस्था का दायित्व आ जाने से उस कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण और अत्यधिक भीड़ भरा वाताबरण होने के कारण नहीं लिख सका / इसका मुझे स्वयं को विचार है। बहत ही संक्षिप्त में परिचयात्मक प्रस्तावना लिखी है। आशा है, सुज्ञ पाठक आगम में रहे हुए मर्म को समझेंगे। महामहित राष्ट्रसन्त आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषिजी म. और परमश्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. की असीम कृपा के फलस्वरूप ही मैं साहित्य के क्षेत्र में कुछ कार्य कर सका हूँ और स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. की प्रेरणा से आगम साहित्य पर प्रस्तावनाएं लिखकर उनकी प्रेरणा को मूर्तरूप दे सका है, इसका मन में सन्तोष है। आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि सुज्ञ पाठकगण आगमों की स्वाध्याय कर अपने जीवन को धन्य बनायेंगे। उपाचार्य देवेन्द्रमुनि कोट, पीपाड़सिटी दिनांक 22-10-91 [72 ] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची दशाश्रुतस्कन्ध [1-124] विषय प्रथम दशा बीस असमाधिस्थान दूसरी दशा इक्कीस शबलदोष तीसरी दशा तेतीस आशातनाएं चौथी दशा पाठ प्रकार की गणि-सम्पदा शिष्य के प्रति प्राचार्य के कर्तव्य प्राचार्य और गण के प्रति शिष्य के कर्तव्य 000 पांचवों दशा चित्तसमाधि के दस स्थान छठी दशा ग्यारह उपासक-प्रतिमाएं सातवों दशा बारह भिक्षु-प्रतिमाएं प्रतिमा आराधनकाल में उपसर्ग मासिकी भिक्षुप्रतिमा प्रतिमाधारी के भिक्षाकाल प्रतिमाधारी की गोचरचर्या प्रतिमाधारी का वसतिवास-काल प्रतिमाधारी की कल्पनीय भाषाएं प्रतिमाधारी के कल्पनीय उपाश्रय 225Marr [73 ] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाधारी के कल्पनीय संस्तारक प्रतिमाधारी को स्त्री-पुरुष का उपसर्ग प्रतिमाधारी को अग्नि का उपसर्ग प्रतिमाधारी को ठठा आदि निकालने का निषेध प्रतिभाधारी को प्राणी आदि निकालने का निषेध सूर्यास्त होने पर बिहार का निषेध सचित्त पृथ्वी के निकट निद्रा लेने का निषेध मलावरोध का निषेध सचित्त रजयुक्त शरीर से गोचरी जाने का निषेध हस्तादि धोने का निषेध दुष्ट अश्वादि का उपद्रव होने पर भयभीत होने का निषेध सर्दी और गर्मी सहन करने का विधान भिक्षुप्रतिमाओं का सम्यग् आराधन द्विमासिकी भिक्षप्रतिमा त्रैमासिकी भिक्षप्रतिमा चातुर्मासिकी भिक्षुप्रतिभा पंचमासिकी भिक्षुप्रतिमा षाण्मासिकी भिक्षुप्रतिमा सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा प्रथम सप्त-अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा द्वितीय सप्त-अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा तृतीय सप्त-अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा पाठवीं दशा पर्युषणाकल्प नवमी दशा महामोहनीय कर्म-बन्ध के तीस स्थान 4 " दसवों दशा भगवान् महावीर का राजगृह में प्रागमन श्रेणिक का दर्शनार्थ ममन साधु-साध्वियों का निदान-संकल्प निर्ग्रन्थ का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिये निदान करना निर्ग्रन्थी का मनुष्य सम्बन्धी भोगों के लिये निदान करना , " [ 74 ] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM CX निर्ग्रन्थ का स्त्रीत्व के लिये निदान करना निर्ग्रन्थी का पुरुषत्व के लिये निदान करना निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी द्वारा परदेवी-परिचारणा का निदान करना निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के द्वारा स्वदेवी-परिचारणा का निदान करना निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के द्वारा सहज दिव्यभोग का निदान करना श्रमणोपासक होने के लिये निदान करना श्रमण होने के लिये निदान करना निदान रहित की मुक्ति परिशिष्ट सारांश 103 106 108 113 117 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (कार्यकारिणी समिति) अध्यक्ष कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष इन्दौर ब्यावर ब्यावर मद्रास जोधपुर मद्रास दुग महामंत्री मंत्री श्री सागरमलजी बेताला श्री रतनचन्दजी मोदी श्री धनराजजी विनायकिया श्री पारसमलजी चोरडिया श्री हुक्मीचन्दजी पारख श्री दुलीचन्दजी चोरड़िया श्री जसराजजी सा. पारख श्री जी. सायरमलजी चोरडिया श्री अमरचन्दजी मोदी श्री ज्ञानराजजी मूथा श्री ज्ञानचन्दजी विनायकिया श्री जवरीलालजी शिशोदिया श्री आर. प्रसन्नचन्द्रजी चोरडिया श्री माणकचन्दजी संचेती श्री एस. सायरमलजी चोरडिया श्री मोतीचन्दजी चोरडिया श्री मूलचन्दजी सुराणा श्री तेजराजजी भण्डारी श्री भंवरलालजी गोठी श्री प्रकाशचन्दजी चोपड़ा श्री जतनराजजी मेहता श्री भंवरलालजी श्रीश्रीमाल श्री चन्दनमलजी चोरडिया श्री सुमेरमलजी मेड़तिया श्री पासूलालजी बोहरा मद्रास ब्यावर पाली ब्यावर ब्यावर मद्रास सहमंत्री कोषाध्यक्ष जोधपुर परामर्शदाता कार्यकारिणी सदस्य मद्रास मद्रास नागौर जोधपुर मद्रास ब्यावर मेड़तासिटी दुर्ग मद्रास जोधपुर जोधपुर Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसासुयक्खंधो दशाश्रुतस्कन्ध Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्कन्ध प्रथम दशा बीस असमाधिस्थान सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खाय-- इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता। प.-कयरे खलु ते थेरेहि भगवंतेहि वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णता ? उ०-इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहि वोसं असमाहिट्ठाणा पण्णता, तं जहा (1) दवदवचारी यावि भवइ, (2) अप्पमज्जियचारी यावि भवइ, (3) दुप्पमज्जियचारी यावि भवइ, (4) अतिरित्त-सेज्जासणिए यावि भवइ, (5) राइणिअ-परिभासी यावि भवइ, (6) थेरोवघाइए यावि भवइ, (7) भूओवघाइए यावि भवइ, (8) संजलणे यावि भवइ, (9) कोहणे यावि भवइ, (10) पिट्टिमंसिए यावि भवइ, (11) अभिक्खणं-अभिक्खणं ओहारइत्ता भवइ, (12) णवाणं अहिगरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाइत्ता भवइ, (13) पोराणाणं अहिगरणाणं खामिअविउसवियाणं पुणो उदीरेत्ता भवइ, (14) अकाले सज्झायकारए यावि भवइ, (15) ससरक्खपाणिपाए यावि भवइ, (16) सद्दकरे यावि भवइ, (17) झंझकरे यावि भवइ, (18) कलहकरे यावि भवइ, (19) सूरप्पमाण-भोई यावि भवइ, (20) एसणाए असमिए यावि भवइ / ' एते खलु ते थेरेहि भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता-ति बेमि // हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है--उन निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने ऐसा कहा है-इस पार्हत् प्रवचन में निश्चय से स्थविर भगवन्तों ने बीस असमाधिस्थान कहे हैं। प्रश्न-स्थविर भगवन्तों ने वे कौन से बीस असमाधिस्थान कहे हैं ? उत्तर-स्थविर भगवन्तों ने बीस असमाधिस्थान इस प्रकार कहे हैं / यथा (1) अतिशीघ्र चलना / (2) प्रमार्जन करे बिना (अंधकार में) चलना / (3) उपेक्षाभाव से प्रमार्जन करना। (4) अतिरिक्त शय्या आसन रखना / (5) रत्नाधिक के सामने परिभाषण करना। (6) स्थविरों का उपघात करना। (7) पृथ्वी आदि का घात करना। (8) क्रोध भाव में जलना / (9) क्रोध करना / (10) पीठ पीछे निन्दा करना। (11) बार-बार निश्चयात्मक भाषा बोलना / (12) नवीन अनुत्पन्न कलहों को उत्पन्न करना / (13) क्षमापना द्वारा उपशान्त पुराने क्लेश को फिर से उभारना / (14) अकाल में स्वाध्याय करना / (15) सचित्त रज से युक्त हाथ 1. सम. सम. 20 सु. 1 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 [शाभूतस्कन्ध पांव आदि का प्रमार्जन न करना / (16) अनावश्यक बोलना या वाक्-युद्ध करना (जोर-जोर से बोलना)। (17) संघ में भेद उत्पन्न करने वाला वचन बोलना / (18) कलह करना-झगड़ा करना। (19) सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक कुछ न कुछ खाते रहना / (20) एषणासमिति से असमिति होना अर्थात् अनेषणीय भक्त-पानादि ग्रहण करना। स्थविर भगवन्तों ने ये बीस असमाधिस्थान कहे हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-श्रमण-समाचारी कथित विधि-निषेधों के अनुसार संयम का आचरण न करना अथवा जिन-जिन प्रवृत्तियों से आत्मविराधना तथा संयमविराधना होती है, वे सभी प्रवृत्तियां करना संयमी जीवन में असमाधि-स्थान कहलाती हैं। इस व्याख्या के अनुसार असमाधि-स्थानों की संख्या निर्धारित करना यद्यपि कठिन है, फिर भी सामान्य जानकारी के लिए स्थविर भगवन्तों ने इस पहली दशा में बीस असमाधि-स्थान कहे हैं / (1) शीघ्र चलना-उद्विग्नमन (अशान्त-चित्त) वाला भिक्षु यदि शीघ्र गति से गमन करता है तो उसका किसी से टकराना, पत्थर आदि से ठोकर लगना, पैर में कांटा, कांच आदि का चुभना आदि अनेक प्रकार की शारीरिक क्षतियां होना संभव है। इसके अतिरिक्त कीड़ी आदि अनेक प्रकार के छोटे-मोटे जीवों का पैरों तले दब जाना संभव है। दशवै. अ. 5, उ. 1 में भी कहा गया है कि "चरेमंदमणुविग्गो" अर्थात् किसी भी प्रकार की उतावल न करते हुए भिक्षु मंदगति से गमन करे तथा दशवै. अ. 5, उ. 2 में भी कहा है"दवदवस्स न गच्छेज्जा" अर्थात् भिक्षु दबादब-शीघ्र न चले / अतः अतिशीघ्र गति से विना देखे चलना पहला असमाधिस्थान है। (2) अप्रमार्जन-जहाँ अंधेरा हो तथा मार्ग में कीड़ियां आदि छोटे-मोटे जीव अधिक संख्या में हों, वहाँ दिन में भी विना प्रमार्जन किये चलने से जीवों की हिंसा (विराधना) होती है / जिससे भिक्षु के संयम की क्षति होती है। अत्यन्त आवश्यक कार्यों से रात्रि में गमनागमन करना चाहे तो विना प्रमार्जन किए चलने से त्रसजीवों की विराधना होती है, क्योंकि कई कीड़े-मकोड़े रात्रि में इधर-उधर चलते-फिरते रहते हैं और अंधकार के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते हैं / अतः विना प्रमार्जन किये चलना दूसरा असमाधिस्थान है। (3) दुष्प्रमार्जन करना-जितनी भूमि का प्रमार्जन किया है, उसके अतिरिक्त भूमि पर विना विवेक के इधर-उधर पैर रखने से जीवों की हिंसा होना संभव है। अतः प्रमार्जन की हुई भूमि पर ही पैर रखकर चलना उचित है। प्रमार्जन विवेक से करना आवश्यक है, उपेक्षाभाव से प्रमार्जन करना दुष्प्रमार्जन कहा जाता है। यह तीसरा असमाधिस्थान है। (4) आवश्यकता से अधिक शय्या-संस्तारक रखना--श्रमण समाचारी में वस्त्र-पात्र आदि उपकरण सीमित रखने का विधान है। फिर भी भिक्षु आवश्यकता से अधिक शय्या-संस्तारकादि रखता है तो उनका प्रतिदिन उपयोग न करने पर और प्रतिलेखन, प्रमार्जन न करने पर उनमें Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दशा] जीवोत्पत्ति होने की संभावना रहती है। उन जीवों के संघर्षण, संमर्दन से संयम की क्षति होती है। अतः आवश्यकता से अधिक शय्या-संस्तारक रखना चौथा असमाधिस्थान है।। (5) रत्नाधिक के सामने बोलना-दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ भिक्षुत्रों के समक्ष अविनयपूर्वक बोलना अनुचित है / दशव. अ. 8 तथा अ. 9 में रत्नाधिक भिक्षु के विनय करने का विधान है तथा नि. उ. 10 में रत्नाधिक भिक्षु की किसी प्रकार से आशातना करने पर गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है / अतः रत्नाधिक के समक्ष भाषण करना पांचवां असमाधिस्थान है। (6) स्थविरों का उपघात करना–वृद्ध (स्थविर) भिक्षु दीक्षा-पर्याय में चाहे छोटे हों या बड़े हों, उनकी चित्तसमाधि का पूर्ण ध्यान रखना अत्यावश्यक है। उनका हृदय से सम्मान करना और सेवा की समुचित व्यवस्था करना सभी श्रमणों का परम कर्तव्य है। उनका मन अशान्त रहे, इस प्रकार का व्यवहार करना छठा असमाधिस्थान है। (7) छह काय के जीवों का हनन करना-श्रमण के लिए किसी भी त्रस-स्थावर प्राणी को त्रस्त करने की प्रवृत्ति करना सर्वथा निषिद्ध है, क्योंकि वह छह काय का प्रतिपालक होता है / अत: पृथ्वीकाय आदि स्थावर और त्रस प्राणियों की हिंसा करना सातवां असमाधिस्थान है। (8-9) क्रोध से जलना और कटु वचन बोलना--किसी के प्रति क्रोध से संतप्त रहना तथा कठोर वचन बोलकर क्रोध प्रकट करना, ये दोनों ही समाधि भंग करने वाले हैं। अतः मन में क्रोध करना और कट वचन कहकर क्रोध व्यक्त करना पाठवां एवं नौवां असमाधिस्थान है। (10) पीठ पीछे किसी की निन्दा करना-यह अठारह पापों में से पन्द्रहवां पापस्थान है। सूयगडांग श्रु. 1, अ. 2, उ. 2 में परनिन्दा को पाप कार्य बताते हुए कहा है कि "जो दूसरों की निन्दा करता है या अपकीति करता है, वह संसार में परिभ्रमण करता है।" एक कवि ने कहा है निंदक एक हु मत मिलो, पापी मिलो हजार / इक निंदक के शीश पर, लख पापी को भार / / निन्दा करने वाला स्वयं भी कर्मबंध करता है तथा दूसरों को भी असमाधि उत्पन्न करके कर्मबंध करने का निमित्त बनता है / दशव. अ. 10 में कहा है 'न परं वइज्जासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज्जन तं वइज्जा।' अर्थात्-यह कुशील (दुराचारी) है, इत्यादि वचन बोलना तथा दूसरे को क्रोध की उत्पत्ति हो, ऐसे वचन बोलना भिक्षु को उचित नहीं है / यह दसवां असमाधिस्थान है। 11. बार-बार निश्चयात्मक भाषा बोलना—भिक्षु को जब तक किसी विषय की पूर्ण जानकारी नहीं हो, तब तक निश्चयात्मक भाषा बोलने का दशवै. अ. 7 में निषेध किया है तथा जिस विषय में पूर्ण निश्चय हो जाए, उसका निश्चित शब्दों में कथन किया जा सकता है। निश्चयात्मक भाषा के अनुसार परिस्थिति न होने पर जिनशासन की निन्दा होती है, बोलने वाले का अवर्णवाद होता है, कई बार संघ में विकट परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, अनेक प्रकार के अनर्थ होने की संभावना रहती है / अतः भिक्षु का निश्चयात्मक भाषा बोलना ग्यारहवां असमाधिस्थान है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दशावतस्कन्ध 12. नया कलह उत्पन्न करना—विना विवेक के बोलने से कलह उत्पन्न हो जाते हैं। द्रौपदी के एक अविवेक भरे वचन से महाभारत का घोर संग्राम हुआ / अतः कलह उत्पन्न होने वाली भाषा का प्रयोग करना बारहवां असमाधिस्थान है / 13. पुराने कलह को पुनः उभारना-विना विवेक के कई बार ऐसी भाषा का प्रयोग हो जाता है जिससे उपशांत कलह पुनः उत्तेजित हो जाता है / भिक्षु को ऐसी भाषा का प्रयोग करना उचित नहीं है / उपशान्त कलह को पुनः उत्तेजित करना तेरहवां असमाधिस्थान है। 14. अकाल में स्वाध्याय करना-सूर्योदय और सूर्यास्त का समय तथा मध्याह्न और मध्यरात्रि का एक-एक मुहूर्त का समय स्वाध्याय के लिए अकाल कहा गया है। कालिक सूत्रों के स्वाध्याय के लिए दूसरा और तीसरा प्रहर अस्वाध्याय काल कहा गया है। इसके सिवाय प्रौदारिक संबंधी 10, आकाश संबंधी 10 और महोत्सव संबंधी 10 अस्वाध्याय भी अकाल हैं / भगवदाज्ञा का उल्लंघन तथा अन्य दैवी उपद्रव होने की संभावना रहने से अकाल में स्वाध्याय करना चौदहवां असमाधिस्थान है। 15. सचित्त रज-युक्त हाथ-पैर प्रादि का प्रमार्जन न करना-भिक्षु भिक्षा के लिए जाए या विहार करे, उस समय उसके हाथ-पैर आदि पर यदि कभी सचित्त रज लग जाए तो उसका प्रमार्जन किए बिना बैठना, शयन करना, आहारादि करना असमाधि का हेतु है / क्योंकि अयतनाःअसमाधि का और यतना समाधि का हेतु है। जिनकल्पी अपनी चर्या के अनुसार जब तक हाथ-पैर आदि पर सचित्त रज रहती है, तब तक बैठना, शयन करना, आहार करना आदि नहीं करते हैं। एक वैकल्पिक अर्थ यह भी है जिस गृहस्थ के हाथ-पैर आदि सचित्त रज से लिप्त हों तो उसके हाथ से पाहारादि लेना यह पन्द्रहवां असमाधिस्थान है। 16. बहुभाषी होना-बहुत ज्यादा बोलना कलह-उत्पत्ति का कारण हो सकता है। वैसे तो मौन रहना सबसे अच्छा है, मौन भी एक प्रकार का तप है, किन्तु मौन न रह सकें तो अनावश्यक भाषण करना तो सर्वथा अनुचित है / यह सोलहवां असमाधिस्थान है। 17. संघ में मतभेद उत्पन्न करना-समाज में मतभेद उत्पन्न करने वाली युक्तियों का प्रयोग करना, यह सत्रहवां असमाधिस्थान है। 18. कलह करना-प्रायः असत्य भाषण से कलह उत्पन्न होता है, किन्तु कभी-कभी सत्य भाषण से भी कलह हो जाता है। सत्य एवं मृदु भाषा कल्याणकारी होती है। अतः अप्रिय, कटुक, कठोर, कलहकारी भाषा का प्रयोग करना उचित नहीं है। यह अठारहवां असमाधिस्थान है। 19. सूर्योदय से सूर्यास्त तक कुछ न कुछ खाते रहना-भोजन के समय भोजन कर लेना और बाद में भी सारा दिन कुछ न कुछ खाते रहने से शरीर तो अस्वस्थ होता ही है, साथ ही रसास्वादन की प्रासक्ति बढ़ जाती है / इस प्रकार की प्रवृत्ति करने वाले भिक्षु को उत्तरा. श्र. 17 में पाप-श्रमण कहा है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दशा] संयमनिर्वाह के लिए श्रमण सीमित पदार्थों का ही सेवन करे। शास्त्रों में छह कारण आहार करने के कहे हैं और सामान्य नियम तो यह है कि दिन में एक बार ही भिक्षु आहार ग्रहण करे / बार-बार कुछ न कुछ खाते रहना उन्नीसवां असमाधिस्थान है। 20. अनेषणीय भक्त-पान आदि ग्रहण करना-आहार-वस्त्रादि आवश्यक पदार्थ ग्रहण करते समय उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों को टालकर गवेषणा न करने से संयम दूषित होता है / नियुक्ति प्रादि व्याख्याग्रन्थों में एषणा के 45 दोष कहे हैं। उनके अतिरिक्त आगमों में अनेक दोष वणित हैं / ठाणांग के चौथे ठाणे में शुद्ध गवेषणा करने वाले को अनुत्पन्न अतिशय ज्ञान की उपलब्धि होना कहा गया है। भक्त-पान ग्रहण करते समय गवेषणा न करने से संयम में शिथिलता आती है / यह बीसवां असमाधिस्थान है। इन 20 असमाधिस्थानों का त्याग करके भिक्षु को समाधिस्थानों का ही सेवन करना चाहिये, जिससे संयम में समाधि-प्राप्ति हो सके। // प्रथम दशा समाप्त। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी दशा इक्कीस शबल दोष सुयं मे पाउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-- इह खलु थेरेहिं भगवतेहिं एगवीसं सबला पण्णत्ता। प०–कयरे खलु ते थेरेहि भगवंतेहि एगवीसं सबला पण्णत्ता? उ०—इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं एगवीसं सबला पण्णत्ता, तं जहा--- 1. हत्थकम्मं करेमाणे सबले, 2. मेहुणं पडिसेवमाणे सबले, 3. राइ-भोअणं भुजमाणे सबले, ४.प्राहाकम्म भुजमाणे सबले, 5. रायपिंडं भुजमाणे सबले, 6. उद्देसियं वा, कोयं वा, पामिच्चं वा, प्राच्छिज्जं वा, प्रणिसिद्रं वा, अभिहडं आहट्ट दिज्जमाणं वा भुजमाणे सबले, 7. अभिक्खणंअभिक्खणं पडियाइक्खित्ताणं भुजमाणे सबले, 5. अंतो छण्हं मासाणं गणाम्रो गणं संकममाणे सबले, 9. अंतो मासस्स तओ दगलेवे करेमाणे सबले, 10. अंतो मासस्स तो माइट्ठाणे करेमाणे सबले, 11. सागारियपिडं भुजमाणे सबले, 12. पाउट्टियाए पाणाइवायं करेमाणे सबले, 13. प्राउट्टियाए मुसावायं वयमाणे सबले, 14. ग्राउट्टियाए अदिण्णादाणं गिण्हमाणे सबले, 15. प्राउट्टियाए प्रणंतर. हिआए पुढवीए ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेएमाणे सबले, 16. आउट्टियाए ससणिद्धाए पुढवीए, ससरक्खाए पुढवीए ठाणं वा, सेज्जं वा, णिसीहियं वा चेएमाणे सबले, 17. प्राउट्टियाए चित्तमंताए सिलाए, चित्तमंताए लेलुए, कोलावासंसि वा दारुए जोवपइट्ठिए, स-अंडे, स-पाणे, स-बीए, स-हरिए, स-उस्से, स-उदगे, स-उत्तिगे पणग-दग मट्टीए, मक्कडा-संताणए ठाणं वा, सिज्जं वा, :निसोहियं वा चेएमाणे सबले. 18. आउटियाए मलभोयणं वा, कंद-भोयणं वा. खंध-भोयणं वा तया-भोयणं वा, पवाल-भोयणं वा, पत्त-भोयणं वा, पुप्फ-भोयणं वा, फल-भोयणं वा, बीय-भोयणं वा, हरिय-भोयणं वा भुजमाणे सबले, 19. अंतो संवच्छरस्स दस दग-लेवे करेमाणे सबले, 20. अंतो संवच्छरस्स दस माइट्ठाणाई करेमाणे सबले, 21. आउट्टियाए सोनोदग वग्धारिय-हत्येण वा मत्तेण वा, दन्वीए वा, भायणेण वा असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिगाहित्ता भुंजमाणे सबले।' एते खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं एगवीसं सबला पण्णत्ता-त्ति बेमि / / हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने ऐसा कहा है-इस आईत् प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने इक्कीस शबल दोष कहे हैं। प्रश्न-स्थविर भगवन्तों ने वे इक्कीस शबल दोष कौन से कहे हैं ? - --....-...... - . --.- .- ............. ....... 1. सम. सम. 21 सु. 1 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी वशा] / 9 उत्तर--स्थविर भगवन्तों ने वे इक्कीस शबल दोष इस प्रकार कहे हैं, जैसे 1. हस्तकर्म करने वाला शबल दोषयुक्त है। 2. मैथुन प्रतिसेवन करने वाला शबल दोषयुक्त है। 3. रात्रिभोजन करने वाला शबल दोषयुक्त है। 4. आधार्मिक आहार खाने वाला शबल दोषयुक्त है / 5. राजपिंड को खाने वाला शबल दोषयुक्त है। 6. साधु के उद्देश्य से निर्मित, साधु के लिए मूल्य से खरोदा हुआ, उधार लाया हुआ, निर्बल से छीनकर लाया हुआ, विना आज्ञा के लाया हुआ अथवा साधु के स्थान पर लाकर के दिया हुआ पाहार खाने वाला शबल दोषयुक्त है। 7. पुन:-पुन: प्रत्याख्यान करके आहार खाने वाला शबल दोषयुक्त है / 8. छह माह के भीतर ही एक गण से दूसरे गण में जाने वाला शबल दोषयुक्त है। 9. एक मास के भीतर तीन बार (नदी आदि को पार करते हुए) उदक-लेप (जल संस्पर्श) लगाने वाला शबल दोषयुक्त है। 10. एक मास के भीतर तीन बार माया करने बाला शबल दोषयुक्त है / 11. शय्यातर के आहारादि को खाने वाला शबल दोषयुक्त है। 12. जान-बूझ कर जीव हिंसा करने वाला शबल दोषयुक्त है। 13. जान-बूझ कर असत्य बोलने वाला शबल दोषयुक्त है। 14. जान-बूझकर अदत्त वस्तु को ग्रहण करने वाला शबल दोषयुक्त है। 15. जान-बूझ कर सचित्त पृथ्वी के निकट की भूमि पर कायोत्सर्ग, शयन या आसन करने वाला शबल दोषयुक्त है। 16. जान-बूझ कर सचित्त जल से स्निग्ध पृथ्वी पर और सचित्त रज से युक्त पृथ्वी पर स्थान, शयन या प्रासन करने वाला शबल दोषयुक्त है। 17. जान-बूझ कर सचित्त शिला पर, सचित्त पत्थर के ढेले पर, दीमक लगे हुए जीवयुक्त काष्ठ पर तथा अण्डों युक्त, द्वीन्द्रियादि जीवयुक्त, बीजयुक्त, हरित तृणादि से युक्त, प्रोसयुक्त, जलयुक्त, पिपीलिका (कीड़ी) नगरयुक्त, पनक (शेवाल) युक्त, गीली मिट्टी पर तथा मकड़ी के जालेयुक्त स्थान पर स्थान, शयन और प्रासन करने वाला शबल दोष-युक्त है। 18. जान-बूझ करके 1. मूल 2. कन्द 3. स्कन्ध 4. छाल 5. कोंपल 6. पत्र 7. पुष्प 8. फल 9. बीज और 10. हरी वनस्पति का भोजन करने वाला शबल दोषयुक्त है। 19. एक वर्ष के भीतर दस वार उदक-लेप लगाने वाला शबल दोषयुक्त है। 20. एक वर्ष के भीतर दस बार मायास्थान सेवन करने वाला शबल दोषयुक्त है। 21. जान-बूझ करके शीतल-सचित्त जल से गीले हाथ, पात्र, चम्मच या भाजन से अशन, पान, खादिम या स्वादिम को ग्रहण कर खाने वाला शबल दोषयुक्त है। स्थविर भगवन्तों ने ये इक्कीस शबल दोष कहे हैं / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--पहली दशा में संयम के सामान्य दोष-बीस असमाधिस्थानों का कथन है / इस दूसरी दशा में इक्कीस प्रबल दोषों का कथन है। ये 'शबल' दोष संयम के मूल महाव्रतों को क्षति पहुँचाने वाले हैं, अत: इनके सेवन से आत्मा कर्मबद्ध होकर दुर्गति को प्राप्त करती है। इन दोषों के प्रायश्चित्त भी प्रायः अनुदातिक (गुरु) मासिक या चौमासिक होते हैं। 1. हस्तकर्म-मोहनीयकर्म के प्रबल उदय से अनेक अज्ञानी प्राणी इस कुटेव से कलंकित हो जाते हैं / विरक्त साधक भी किसी अज्ञान के कारण इस कुटेव की कुटिलता से ग्रस्त न हो जाए, इसलिए इसको शबल दोष कहा है और निशीथसूत्र प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में ही इस दोष का प्रायश्चित्त कहा है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [वशा तस्कन्य इस दुष्कर्म को बृहत्कल्प सूत्र उद्देशक चार में गुरु प्रायश्चित्त का स्थान और ठाणांग सूत्र के पांचवें ठाणे में भी गुरु प्रायश्चित्त का स्थान कहा है / अतः प्रत्येक साधु का यह कर्तव्य है कि वे इस ब्रह्मचर्यघातक प्रवृत्ति से स्वयं बचे और अन्य संयमियों को भी इस कुकर्म से बचाए / क्योंकि शारीरिक शक्ति के मूलाधार वीर्य का इस कुटेव से नाश होता है / हस्तमैथुन से सभी सद्गुण शनै:शनैः समाप्त होकर व्यक्ति दुर्गुणी बन जाता है और उसका शरीर अनेक असाध्य रोगों से ग्रस्त हो जाता है / अतः मुमुक्षु साधक इस शबल दोष का सेवन न करे / 2. मैथुनसेवन-संयमी साधक मैथुन त्याग करके आजीवन ब्रह्मचर्य पालन के लिये उद्यत हो जाता है / क्योंकि वह यह जानता है कि "मूलमेयं अहम्मस्स, महादोससमुस्सयं"यह मैथुन अधर्म का मूल है एवं महादोषों का समूह है तथा "खाणी अणत्याण हु कामभोगा"---कामभोग अनर्थों की खान है / इस प्रकार विवेकपूर्वक संयमसाधना करते हुए भी कभी-कभी आहार-विहार की असावधानियों से या नववाड़ का यथार्थ पालन न करने से वेदमोह का तीव्र उदय होने पर साधक संयमसाधना से विचलित हो सकता है। इसलिए आगमों में अनेक स्थलों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से ब्रह्मचर्य पालन के लिये प्रेरित किया गया है। मैथुनसेवन की प्रवृत्ति स्त्रीसंसर्ग से होती है और हस्तकर्म की प्रवृत्ति स्वतः होती है। अतः हस्तकर्म करने वाला तो स्वयं ही भीतर ही भीतर दुःखी होता है किन्तु मैथुनसेवन करने वाला स्वयं को, समाज को एवं संघ को कलंकित करके अपना वर्चस्व समाप्त कर देता है / मैथुन सेवन करने वाले को गुरुचौमासी प्रायश्चित्त आता है, साथ ही उसके तीन वर्ष के लिए या जीवन भर के लिये धर्मशास्ता के सभी उच्च पदों को प्राप्त करने के अधिकार समाप्त कर दिये जाते हैं / वह महाकर्मों का बंध करके विराधक हो जाता है और परभव में निरंतर दुःखी रहता है / अतः भिक्षु इस शबल दोष का सेवन न करे / 3. रात्रिभोजन-भिक्षु आजीवन रात्रिभोजन का त्यागी होता है / वह सूर्यास्त के बाद अपने पास आहार-पानी आदि रख भी नहीं सकता है। रात्रिभोजन का त्याग करना यह साधु का मूल गुण है। इसके लिये दशवकालिक, बृहत्कल्प, निशीथ, ठाणांग आदि सूत्रों में विभिन्न प्रकार के निषेध और प्रायश्चित्त का विधान है। निशीथसूत्र में दिन में ग्रहण किये हुए गोवर आदि विलेपन योग्य पदार्थों का रात्रि में उपयोग करना भी रात्रिभोजन ही माना है और उसका प्रायश्चित्त भी कहा गया है / रात्रिभोजन से प्रथम महावत भी दूषित होता है। दिन में भी अंधकारयुक्त स्थान में भिक्षु को आहार करना निषिद्ध है / अत: भिक्षु इस शबल दोष को संयम में क्षति पहुँचाने वाला और कर्मबंध कराने वाला जानकर इसका कदापि सेवन न करे / 4. आधाकर्म--यह एषणासमिति में उद्गम दोष है / जो आहारादि साधु, साध्वी के निमित्त तैयार किया हो, अग्नि, पानी आदि का प्रारंभ किया गया हो, वह आहारादि प्राधाकर्म दोषयुक्त कहलाता है। अनेक आगमों में प्राधाकर्म आहार खाने का निषेध किया गया है। सूयगडांग सूत्र श्र.१.१० में प्राधाकर्म ग्राहार की चाहना करने का भी निषेध है और उसकी प्रशंसा करने का भी निषेध है। आचारांग सूत्र श्रु. 1 अ. 8 उ. 2 में कहा गया है-'कोई गृहस्थ प्राधाकर्म दोषयुक्त Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी शा] [11 आहार देने के प्राग्रह में छेदन-भेदन, मार-पीट प्रादि कर दे तो भी वहाँ भिक्षु को श्राधाकर्म आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। _सूयगडांग सूत्र श्रु. 2 अ. 1 उ. 3 में आधाकर्म के अंश से युक्त अन्य शुद्ध आहार को ग्रहण कर भोगने वाले को दो पक्ष (गृहपक्ष और साधुपक्ष) का सेवन करने वाला कहा है / भूल से प्राधाकर्म आहार ले लिया गया हो तो जानकारी होने के बाद उसे खाना नहीं कल्पता है, किन्तु परठना कल्पता है। आधाकर्मी आहारादि के सेवन से उसके बनने में हुए प्रारम्भ का अनुमोदन होता है, जिससे प्रथम महाव्रत दूषित होता है तथा कर्मबंध भी होता है। इन कारणों से ही प्राधाकर्म आहार के सेवन को यहाँ शबल दोष कहा है / इसके सेवन से संयम और ज्ञान मलिन होता है / अत: भिक्षु कभी आधाकर्म आहार का सेवन न करे / 5. राजपिड-जिनका राज्याभिषेक हुआ हो, जो राज्यचिह्नों से युक्त हो, ऐसे राजा के घर का आहारादि राजपिंड कहा जाता है। ऐसे आहारादि के सेवन करने को दशवैकालिक सूत्र अ. 3 में अनाचार कहा गया है। पहले और अंतिम तीर्थंकरों के शासनकाल में ही राजपिंड ग्रहण करने का निषेध है / बीच के तीर्थंकरों के शासनकाल में साधु ग्रहण कर सकते थे। राजाओं के यहाँ गोचरी जाने से अनेक दोष लगना संभव हैयथा-१. राजाओं के यहाँ भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं होता है। 2. पौष्टिक भोजन काम-वासनावर्धक होने से साधुओं के योग्य नहीं होता है / 3. राजकुल में बार-बार जाने से जनता अनेक प्रकार की आशंकाए करती है। 4. साधु के आगमन को अमंगल समझकर कोई कष्ट दे या पात्रे फोड़ दे / 5. साधु को चोर या गुप्तचर समझकर पकड़े, बांधे या मारपीट भी कर दे / इत्यादि कारणों से साधु की और जिनशासन की अवहेलना होती है / अत: भिक्षु ऐसे मूर्धाभिषिक्त राजाओं के यहाँ भिक्षा के लिए न जावे और ऐसे राजपिंड को संयम का शबल दोष मानकर न खावे। निशीथसूत्र के प्राठवें, नववे उद्देशक में अनेक प्रकार के राजपिंडों का और राजाओं के यहाँ भिक्षा के लिए जाने का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है। 6. कीतादि-साधु के निमित्त खरीद कर लाये हुए पदार्थ, उधार लाये गये पदार्थ, किसी से छीनकर दिए जाने वाले पदार्थ, बिना प्राज्ञा के दिए जाने वाले भागीदारी के पदार्थ तथा अन्य प्रामादि से सम्मुख लाकर दिए जाने वाले पदार्थों को ग्रहण करना और उनका सेवन करना यहाँ शबल दोष कहा गया है। ये सभी उद्गम के दोष हैं। इन दोषों वाले पदार्थों के सेवन से संयम दूषित होता है। दोषपरम्परा की वृद्धि होती है। इनके सेवन से गृहस्थकृत प्रारम्भ की अनुमोदना होती है. जिससे Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [दशाभूतस्कन्ध प्रथम महाव्रत दूषित होता है और जिनाज्ञा का उल्लंघन होने से तीसरे महाव्रत में भी दोष लगता है / अन्य प्रागमों में भी क्रीतादि दोषयुक्त पदार्थों के सेवन का निषेध है और निशीथ सूत्र में प्रायश्चित्त का कथन है / यहाँ इसे शबल दोष कहा है / अत: भिक्षु कर्मबंध का कारण जानकर इन दोषों का सेवन न करे। 7. प्रत्याख्यान-भंग-किसी प्रत्याख्यान को एक बार भंग करना भी दोष ही है किन्तु अनेक बार प्रत्याख्यानों को भंग करना शबल दोष कहा गया है। एक या दो बार हुई भूलें क्षम्य होती हैं किन्तु वही व्यक्ति अनेक बार भूल करे तो वह अक्षम्य होती हैं। इसी प्रकार प्रत्याख्यान बारम्बार भंग करने से सामान्य दोष भी शबल दोष कहा जाता है। ऐसा करने से साधु की प्रतीति (विश्वास) नहीं रहती है। जन साधारण के जानने पर साधु समाज की अवहेलना होती है। दूसरा महाव्रत और तीसरा महाव्रत दूषित हो जाता है। प्रत्याख्यानों को शुद्ध पालन करने की लगन (चेष्टा) अल्प हो जाती है। अन्य प्रत्याख्यानों के प्रति भी उपेक्षा वृत्ति बढ़ जाती है, जिससे संयम की आराधना नहीं हो सकती है / अन्य साधारण साधकों के अनुसरण करने पर उनके प्रत्याख्यान भी दूषित हो जाते हैं / अतः बार-बार प्रत्याख्यान भंग करना शबल दोष है। यह जानकर भिक्षु प्रत्याख्यान का दृढता पूर्वक पालन करे। 8. गणसंक्रमण—जिस प्राचार्य या गुरु की निश्रा में जो साधु-साध्वी रहते हैं, उनका अन्य आचार्य या गुरु के नेतृत्व में जाकर रहना गणसंक्रमण—गच्छपरिवर्तन कहलाता है। गणसंक्रमण के प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों कारण होते हैं। ज्ञानवृद्धि या संयमवृद्धि के लिए अथवा परोपकार की भावना से गणसंक्रमण करना प्रशस्त कारण है। गुस्से में आकर या घमंड से अथवा किसी प्रलोभन के कारण गणसंक्रमण करना अप्रशस्त कारण है। बृहत्कल्प उद्देशक 4 में गणसंक्रमण करने का विधान करते हुए कहा गया है कि प्राचार्यादि की आज्ञा लेकर संयमधर्म की जहाँ उन्नति हो, वैसे गच्छ में जाना कल्पता है अन्यथा प्राचार्यादि की आज्ञा मिलने पर भी जाना नहीं कल्पता है। वैसे अन्य गच्छ में जाने का निशीथसूत्र उद्देशक 16 में प्रायश्चित्त कथन है / प्रशस्त कारणों से गणसंक्रमण करना कल्पनीय होते हए भी बारंबार या छह मास के भीतर करने पर वह चंचलवत्ति का प्रतीक होने से उसे यहाँ शबल दोष कहा है। ऐसा करने से संयम की क्षति और अपयश होता है। अत: भिक्षु को बार-बार गणसंक्रमण नहीं करना ही श्रेयस्कर है। 9. उदक-लेप अर्द्ध जंघा [गिरिए और घुटने के बीच के जितने] प्रमाण के कम पानी में चलना “दगसंस्पर्श" कहा जाता है और अर्द्ध जंघा प्रमाण से अधिक पानी में चलना "उदक-लेप" कहा जाता है / सचित्त जल की अत्यल्प विराधना करने पर भिक्षु को निशीथसूत्र उद्देशक 12 के अनुसार लघु चौमासी प्रायश्चित्त पाता है। अतः उसे एक बार भी पानी में चलकर नदी आदि पार करना नहीं कल्पता है / प्रस्तुत सूत्र में एक मास में तीन बार जल-युक्त नदी पार करने पर शबल दोष होना बताया गया है, अत: एक या दो बार पार करने पर प्रायश्चित्त होते हुए भी वह शबल दोष नहीं कहा जाता है / इसका कारण यह है कि चातुर्मास समाप्त होने के बाद भिक्षु प्रामानुग्राम विहार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी दशा [13 करता है। फिर एक गांव में मासकल्प (29 दिन) से ज्यादा नहीं ठहर सकता है। इस कारण यदि उसे प्रथम विहार के दिन ऐसी नदी पार करना पड़े तथा फिर 29 रात्रि वहाँ रहने के बाद तीसवें दिन विहार करने पर भी ऐसा ही प्रसंग उपस्थित हो जाये तो परिस्थितिवश (अपवाद रूप में) उसे एक मास में दो बार नदी पार करना कल्प-मर्यादानिर्वाह के लिये आवश्यक हो शकता है / इससे अधिक तीन चार बार “उदक-लेप" लगाने में अन्य अनावश्यक कारण होने से वह शबल दोष कहा जाता है। सेवा प्रादि कार्यों के निमित्त यदि अधिक उदक-लेप लगे तो भी उसे शबल दोष नहीं कहा जाता है। अतः भिक्षु शीत और ग्रीष्म काल में मार्ग की पहले से ही पूर्ण जानकारी करके विवेकपूर्वक विचरण करे / जल में चलने से अनेक त्रस प्राणी तथा फूलण आदि के अनंत जीवों की विराधना हो सकती है / अत: छह काया का रक्षक भिक्षु इस शबल दोष का सेवन न करे / 10. माया-सेवन-माया एक ऐसा भयंकर कषाय है कि इसके सेवन में संयम और सम्यक्त्व दोनों का नाश हो जाता है / ज्ञातासूत्र में कहा है कि मल्लिनाथ तीर्थंकर के जीव ने पूर्वभव में संयम तप की महान साधना के काल में माया का सेवन करते हुए अधिक तप किया। उस तप की उग्र साधना में भी माया के सेवन से मिथ्यात्व की प्राप्ति और स्त्रीवेद का निकाचित बंध हुआ। अतः भिक्षुओं को तप- संयम की साधना में भी कभी माया का सेवन नहीं करना चाहिये। उत्तराध्ययनसूत्र अ. 3 में कहा है कि सरल आत्मा की शुद्धि होती है और ऐसी शुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है / अतः संयम की आराधना के इच्छुक भिक्षु को माया का सेवन नहीं करना चाहिये / इस सूत्र में एक मास में तीन बार मायासेवन करने को शबल दोष कहा है किन्तु एक या दो बार मायासेवन करने पर शबल दोष नहीं कहा है, इसमें उदक-लेप के समान विशेष परिस्थिति ही प्रमुख कारण होती है, वह इस प्रकार है व्यवहारसूत्र के आठवें उद्देशक में विधान है कि निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थनियों को पहले आज्ञा लेकर मकान में ठहरना कल्पता है, किन्तु पहले ठहर कर फिर आज्ञा लेना नहीं कल्पता है। यदि भिक्षु को यह ज्ञात हो कि इस क्षेत्र में मकान मिलना दुर्लभ है तो वहाँ ठहरने योग्य स्थान में ठहर कर फिर आज्ञा ले सकता है / जिसमें कुछ माया का भी सेवन होता है। विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें व्यव. उ. 8 / क्योंकि साध्वियों को तो मकान प्राप्त करना अवश्यक ही होता है और भिक्षुओं के लिये भी बाल, ग्लान, वृद्ध आदि की दृष्टि से कभी आवश्यक हो जाता है। महीने में दो बार ऐसी परिस्थिति आ जाये तो मायासेवन कर मकान प्राप्त करना शबल दोष नहीं कहा गया है। किन्तु सामान्य कारणों से एक बार मायासेवन करना भी शबल दोष समझना चाहिए। अतः सूत्रोक्त कारण के अतिरिक्त भिक्षु कदापि माया का सेवन न करे। 11. शय्यातर-पिंड-जिस मकान में भिक्षु ठहरा हुआ हो, उस शय्या (मकान) का दाता शय्यातर कहा जाता है। उसके घर का आहारादि शय्यातर-पिंड या सागारिय-पिंड कहा जाता है / क्योंकि मकान मिलना दुर्लभ ही होता है और मकान देने वाले के घर से आहारादि अन्य पदार्थ ग्रहण करे तो मकान की दुर्लभता और भी बढ़ जाती है। सामान्य गृहस्थ यही सोचते हैं कि जो अपने Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [वशाश्रुतस्कन्ध घर में अतिथि रूप में ठहरते हैं तो उनकी सभी व्यवस्था उसे ही करनी होती है। भिक्षु का भी ऐसा आचार हो तो वह शय्यादाता के लिये भार रूप माना जाता है। इत्यादि कारण से सभी तीर्थंकरों के शासन में साधुओं के लिये यह आवश्यक नियम है कि वह शय्यादाता के घर से आहारादि ग्रहण न करे, क्योंकि शय्यादाता अत्यधिक श्रद्धा-भक्ति वाला हो तो अनेक दोषों की संभावना हो सकती है। यदि किसी क्षेत्र में या किसी काल में ऐसे दोषों की संभावना न हो तो भी नियम सर्व-काल सर्व-क्षेत्र की बहुलता के विचार से होता है। अतः भिक्षु भगवदाज्ञा को शिरोधार्य कर और शबल दोष समझकर कभी भी शय्यादाता से आहारादि ग्रहण न करे। 12-13-14. जानकर हिंसा, मषा और अदत्त का सेवन-भिक्षु पंच महाव्रतधारी होता है। वन भर तीन करण, तीन योग से हिंसा, असत्य और अदत्त का त्याग होता है। यदि अनजाने इनका सेवन हो जाये तो निशीथसूत्र उद्देशक 2 में उसका लघुमासिक प्रायश्चित्त कहा है। किंतु संकल्प करके कोई हिंसा आदि करता है तो उसके ये कृत्य शबल दोष कहे जाते हैं और इन कृत्यों से मूल गुणों की विराधना होती है और उसका संयम भी शिथिल हो जाता है / अतः भिक्षु कभी हिंसा आदि का संकल्प न करे और असावधानी से भी ये कृत्य न हों, ऐसी सतत सावधानी रखे। 15-16-17. जानबूझ कर पृथ्वी, पानी, वनस्पतिकाय की विराधना करना–छहों काय के जीवों की विराधना न हो, यह विवेक भिक्षु प्रत्येक कार्य करते समय प्रतिक्षण रखे / प्रस्तुत सूत्र में भिक्षु को विवेक रखने की सूचना दी गई है। प्राचारांग आदि में जो विषय आठ सूत्रों में कहा गया है, वही विषय यहाँ तीन सूत्रों में कहा गया हैयथा-१. सचित्त पृथ्वी के निकट को भूमि पर, 2. नमीयुक्त भूमि पर, 3. सचित्त रज से युक्त भूमि पर, 4. सचित्त मिट्टी बिखरी हुई भूमि पर 5. सचित्त भूमि पर, 6. सचित्त शिला पर, 7. सचित्त पत्थर आदि पर, 8. दीमकयुक्त काष्ठ पर तथा अन्य किसी भी त्रस स्थावर जीव से युक्त स्थान पर बैठना, सोना, खड़े रहना भिक्षु को नहीं कल्पता है। निशीथसूत्र उद्देशक 13 में इन कृत्यों का लघु चौमासी प्रायश्चित्त विधान इन आठ सूत्रों में है। यहाँ इस सूत्र में संकल्पपूर्वक किये गये ये सभी कार्य शबल दोष कहे गये हैं। अतः भिक्षु इन शबल दोषों का कदापि सेवन न करे, किन्तु प्रत्येक प्रवृत्ति यतनापूर्वक करे / दशवै. अ. 4 में कहा भी है-- जयं चरे जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सए। जयं भुजंतो भासंतो, पावकम्मं न बंधइ॥८॥ भिक्षु चलना, खड़े रहना, बैठना, सोना, खाना, बोलना आदि सभी प्रवृत्तियाँ यतनापूर्वक करे, जिससे उसके पापकर्मों का बंध न हो। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी दशा] [15 18. कंद, मूल आदि भक्षण-वनस्पति के दस विभागों को खाने पर भिक्षु को शबल दोष लगता है। गृहस्थ के लिए बने वनस्पति के अचित्त खाद्य पदार्थ साधु ग्रहण करके क्षुधा शान्त कर सकता है। किन्तु अचित्त खाद्य न मिलने पर सचित्त फल, फूल, बीज या कंद, मूल आदि खाना साधु को नहीं कल्पता है। क्योंकि वह जीवनपर्यन्त सचित्त का त्यागी होता है। उत्तराध्ययन अ. 2 में प्रथम परीषह का वर्णन करते हुए कहा गया है कि "क्षुधा से व्याकुल भिक्षु का शरीर इतना कृश हो जाए कि शरीर की नसें दिखने लग जाएँ, तो भी वह वनस्पति का छेदन न स्वयं करे, न दूसरों से करावे तथा खाद्य पदार्थ न स्वयं पकावे, न अन्य से पकवावे / " उदरपूति के वनस्पति का छेदन-भेदन करके खाना भिक्ष के लिये सर्वथा निषिद्ध है. क्योंकि छेदन-भेदन करने से वनस्पतिकाय के जीवों के प्रति अनुकम्पा नहीं रहती है। अतः प्रथम महाव्रत भंग होता है। अनजाने भी सचित्त बीज आदि खाने में आ जाय तो उसका निशीथसूत्र उद्देशक 4, 10 तथा 12 में प्रायश्चित्त कहा गया है। यहाँ जानबूझ कर खाने को शबल दोष कहा गया है। अतः भिक्षु को सचित्त पदार्थ खाने का संकल्प भी नहीं करना चाहिये। 19-20. उदकलेप-मायासेवन–९वें, १०वें शबल दोष में एक मास में तीन बार उदकलेप और मायासेवन को शबल दोष कहा है, यहाँ एक वर्ष में दस बार सेवन को सबल दोष कहा है / 9 बार तक सेवन को शबल दोष नहीं कहने का कारण यह है कि विचरण के प्रथम मास में दो बार जो परिस्थिति बन सकती है, वैसी परिस्थिति आठ महीनों में विहार करते समय नव बार भी हो सकती है / 29 दिन के कल्प से रहने पर सात महीनों में सात बार और प्रथम महीने में दो बार विहार करना आवश्यक होने से एक वर्ष में नौ विहार आवश्यक होते हैं। अतः नव बार से अधिक उदकलेप और मायास्थानसेवन को यहाँ शबल दोष कहा है / शेष विवेचन पूर्ववत् है। 21. सचित्त जल से लिप्त पात्रादि से भिक्षा ग्रहण करना भिक्षा के लिये प्रविष्ट भिक्षु यदि यह जाने कि दाता का हाथ अथवा चम्मच, बर्तन आदि सचित्त जल से भीगे हुए हैं तो उससे उसे भिक्षा ग्रहण करना नहीं कल्पता है। ऐसा निषेध दशवै. अ. 5 तथा आचारांग श्रु. 2 अ. 1 उ. 6 में है। ऐसे लिप्त हाथ आदि से मिक्षा ग्रहण करने पर अप्काय के जीवों की विराधना होती है / खाद्य पदार्थों में सचित्त जल मिल जाने पर सचित्त खाने-पीने का दोष लगना और जीवविराधना होना ये दोनों ही संभव हैं। यह एषणा का “लिप्त" नामक नौवां दोष है। एषणा के दोष बीसवें असमाधिस्थान में भी कहे गये हैं, किन्तु यहाँ जीवविराधना की अपेक्षा से इसे शबल दोष कहा गया है। निशीथसूत्र के १२वें उद्देशक में इनका लघु चौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है। ___ समवायांग सूत्र के २१वें समवाय में भी इन्हीं 21 शबल दोषों का वर्णन है, किन्तु यहाँ कहे गये पांचवें और ग्यारहवें शबल दोष को वहाँ क्रमश: ग्यारहवां और पांचवां शबल दोष कहा गया है। इन सब विशिष्ट शबल दोषों को संयम का विघातक जानकर तथा कर्मबंध का कारण जानकर भिक्षु त्याग करे और शुद्ध संयम की आराधना करे / Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरी दशा तेतीस आशातनाएँ सूत्र-सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं तेत्तीसं प्रासायणाओ पण्णत्तायो। प०--कयराओ खलु ताओ थेरेहिं भगवतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पण्णत्ताओ? उ०-इमाओ खलु ताओ थेरेहिं भगवतेहिं तेत्तीसं आसायणानो पण्णत्ताओ, तं जहा–१. सेहे रायणियस्स पुरओ गंता, भवइ आसायणा सेहस्स / 2. सेहे रायणियस्स सपक्खं गंता, भवइ आसायणा सेहस्स / 3. सेहे रायणियस्स आसन्नं गंता, भवइ आसायणा सेहस्स / 4. सेहे रायणियस्स पुरओ चिट्टित्ता, भवइ आसायणा सेहस्स। 5. सेहे रायणियस्स सपक्खं चिद्वित्ता, भवइ आसायणा सेहस्स। 6. सेहे रायणियस्स आसन्नं चिहिता, भवइ आसायणा सेहस्स / 7. सेहे रायणियस्स पुरओ निसीइत्ता, भवई आसायणा सेहस्स / 8. सेहे रायणियस्स सपक्खं निसीइत्ता, भवइ प्रासायणा सेहस्स। 9. सेहे रायणियस्स आसन्न निसीइत्ता, भवइ आसायणा सेहस्स / 10. सेहे रायणिएणं सद्धि बहिया वियारभूमि निक्खंते समाणे तत्थ सेहे पुव्वतरागं आयमइ, पच्छा रायणिए, भवइ आसायणा सेहस्स / 11. सेहे रायणिएणं सद्धि बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खंते समाणे तत्थ सेहे पुव्वतरागं आलोएइ पच्छा रायणिए, भवइ आसायणा सेहस्स। 12. केइ रायणियस्स पुन्व-संलवित्तए सिया, तं सेहे पुव्वतराग आलवइ, पच्छा रायणिए, भवइ आसायणा सेहस्स / 13. सेहे रायणियस्स राओ वा वियाले वा बाहरमाणस्स 'अज्जो ! के सुत्ता ? के जागरा ?' तत्थ सेहे जागरमाणे रायणियस्स अपडिसुणेत्ता, भवइ आसायणा सेहस्स / 14. सेहे असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिग्गाहित्ता तं पुत्वमेव सेहतरागस्स आलोएइ, पच्छा रायणियस्स, भवइ आसायणा सेहस्स / 15. सेहे असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिग्गाहित्ता तं पुब्वमेव सेहतरागस्स उवदंसेइ, पच्छा रायणियस्स, भवइ आसायणा सेहस्स। १६.सेह असण वा, पाण वा, खाइम वा, साइमं वा पडिग्गाहित्ता तं पुत्वमेव सेहतरागं उवणिमंतेइ, पच्छा रायणिए, भवह आसायणा सेहस्स। 17. सेहे रायणिएणं सद्धि असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिगाहित्ता तं रायणियं अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्धं-खद्धं दलयति, भवइ आसायणा सेहस्स। 18. सेहे असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा पडिगाहित्ता रायणिएणं सद्धि आहारेमाणे तत्थ सेहे - खद्धंखद्धं डागं-डागं उसढं-उसढं रसियं-रसियं मणुन्नं-मणुन्न मणाम-मणामं निद्धं-निलु लुक्खं-लुक्खं आहारित्ता, भवइ आसायणा सेहस्स। 19. सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स, अपडिसुणित्ता, भवइ आसायणा सेहस्स / 20. सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स तत्थगए चेव पडिसुणित्ता, भवइ आसायणा सेहस्स / 21. सेहे रायणियं 'कि' त्ति वत्ता, भवइ आसायणा सेहस्स / 22. सेहे रायणियं 'तुम' त्ति बत्ता, भवइ आसायणा सेहस्स / 23. सेहे रायणियं खद्धं-खद्धं वत्ता, भवइ आसायणा सेहस्स / 24. सेहे रायणियं तज्जाएणं Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरी दशा [17 तज्जाएणं पडिहणित्ता, भवइ आसायणा सेहस्स / 25. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स 'इति एवं' वत्ता, भवइ प्रासायणा सेहस्स / 26. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स 'नो सुमरसी' ति वत्ता, भवइ पासायणा सेहस्स / 27. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स णो समणसे, भवइ आसायणा सेहस्स / 28. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स परिसं भेत्ता, भवइ आसायणा सेहस्स / 29. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स कहं आच्छिादित्ता, भवइ पासायणा सेहस्स / 30. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स तीसे परिसाए अणुट्टियाए अभिन्नाए अवच्छिन्नाए अव्वोगडाए दोच्चंपि तच्चपि तमेव कहं कहिता भवइ आसायणा सेहस्स। 31. सेहे रायणियस्स सिज्जा-संथारगं पाएणं संघट्टित्ता हत्थेण अणणुण्णविता गच्छइ, भवइ आसायणा सेहस्स / 32. सेहे रायणियस्स सिज्जा-संथारए चिट्ठित्ता वा, निसीइत्ता वा, तुयट्टित्ता वा, भवइ आसायणा सेहस्स / 33. सेहे रायणियस्स उच्चासणंसि वा, समासणंसि वा चिद्वित्ता वा, निसीइत्ता वा, तुट्टित्ता वा, भवइ आसायणा सेहस्स। एयाप्रो खलु ताओ थेरेहि भगवंतेहि तेत्तीसं आसायणाओ पण्णत्ताओ, ति बेमि / अर्थ-हे आयुष्मन ! मैंने सुना है उन निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने ऐसा कहा है-- इस आर्हतप्रवचन में निश्चय से स्थविर भगवन्तों ने तेतीस आशातनाएँ कही हैं। प्र०–उन स्थविर भगवन्तों ने तेतीस पाशातनाएँ कौन सी कही हैं ? उ०-उन स्थविर भगवन्तों ने ये तेतीस आशातनाएँ कही हैं, जैसे 1. शैक्ष (अल्प दीक्षापर्यायवाला), रानिक साधु के आगे चले तो उसे आशातना दोष लगता है। 2. शैक्ष, रात्निक साधु के समश्रेणी-बराबरी में चले तो उसे आशातना दोष लगता है / 3. शैक्ष, रानिक साधु के अति समीप होकर चले तो उसे आशातना दोष लगता है। 4. शैक्ष, रात्निक साधु के आगे खड़ा हो तो उसे पाशातना दोष लगता है। 5. शैक्ष, रालिक साधु के समश्रेणी में खड़ा हो तो उसे आशातना दोष लगता है। 6. शैक्ष, रानिक साधु के प्रति समीप खड़ा हो तो आशातना दोष लगता है। 7. शैक्ष, रात्निक साधु के आगे बैठे तो उसे अाशातना दोष लगता है। रात्निक साधु के समश्रेणी में बैठे तो उसे पाशातना दोष लगता है / 9. शैक्ष, रात्निक साधु के अतिसमीप बैठे तो उसे अाशातना दोष लगता है। 10. शैक्ष, रालिक साधु के साथ बाहर मलोत्सर्ग-स्थान पर गया हुआ हो, वहाँ शैक्ष रात्निक से पहले आचमन (शौच-शुद्धि) करे तो आशातना दोष लगता है। 11. शैक्ष, रात्निक के साथ बाहर विचारभूमि या विहारभूमि (स्वाध्यायस्थान) में जावे तब शैक्ष रात्निक से पहले गमनागमन की आलोचना करे तो उसे अाशातना दोष लगता है / 12. कोई व्यक्ति रात्निक के पास वार्तालाप के लिए आये, यदि शैक्ष उससे पहले ही वार्तालाप करने लगे तो उसे आशातना दोष लगता है। 13. रात्रि में या विकाल ( सन्ध्यासमय) में रात्निक साधु शिष्य को सम्बोधन करके कहे-'हे आर्य ! कौन-कौन सो रहे हैं और कौन-कौन जाग रहे हैं ?" उस समय जागता हुना भी शैक्ष यदि रात्निक के वचनों को अनसुना करके उत्तर न दे तो उसे आशातना दोष लगता है / 14. शैक्ष, यदि अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को लेकर उसकी आलोचना पहले किसी अन्य शैक्ष के पास करे और पीछे रात्निक के समीप करे तो उसे अाशातना दोष लगता है। 15. शैक्ष, यदि अशन, पान, खादिम और स्वादिम Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [वशाभुतस्कन्ध आहार को लाकर पहले किसी अन्य शैक्ष को दिखावे और पीछे रात्निक को दिखावे तो उसे पाशातना दोष लगता है। 16. शैक्ष, यदि अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को उपाश्रय में लाकर पहले अन्य शैक्ष को (भोजनार्थ) आमन्त्रित करे और पीछे रालिक को आमंत्रित करे तो उसे पाशातना दोष लगता है। 17. शैक्ष, यदि साधु के साथ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को (उपाश्रय में) लाकर रालिक से बिना पूछे जिस-जिस साधु को देना चाहता है, उसे जल्दी-जल्दी अधिक-अधिक मात्रा में दे तो उसे पाशातना दोष लगता है। 18. शैक्ष, अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को लाकर रात्निक साधु के साथ आहार करता हुआ यदि वहाँ वह शैक्ष प्रचुर मात्रा में विविध प्रकार के शाक, श्रेष्ठ, ताजे, रसदार मनोज्ञ मनोभिलषित स्निग्ध और रूक्ष पाहार शीघ्रता से करे तो उसे आशातना दोष लगता है। 19. रानिक के बुलाने पर यदि शैक्ष अनसुनी कर चुप रह जाता है तो उसे आशातना दोष लगता है। 20. रात्निक के बुलाने पर यदि शैक्ष अपने स्थान पर ही बैठा हुआ उसकी बात को सुने और सन्मुख उपस्थित न हो तो आशातना दोष लगता है। 21. रात्निक के बुलाने पर यदि शैक्ष 'क्या कहते हो' ऐसा कहता है तो उसे अाशातना दोष लगता है। 22. शैक्ष, रालिक को "तू" या "तुम" कहे तो उसे आशातना दोष लगता है। 23. शैक्ष, रात्निक के सन्मुख अनर्गल प्रलाप करे तो उसे अाशातना दोष लगता है। 24. शैक्ष, रात्निक को उसी के द्वारा कहे गये वचनों से प्रतिभाषण करे [तिरस्कार करे] तो उसे आशातना दोष लगता है। 25. शैक्ष, रात्निक के कथा कहते समय कहे कि 'यह ऐसा कहिये' तो उसे आशातना दोष लगता है। 26. शैक्ष, रात्निक के कथा कहते हुए "आप भूलते हैं" इस प्रकार कहता है तो उसे पाशातना दोष लगता है / 27. शैक्ष, रात्लिक के कथा कहते हुए यदि प्रसन्न न रहे किन्तु अप्रसन्न रहे तो उसे आशातना दोष लगता है। 28. शैक्ष, रात्निक के कहते हुए यदि (किसी बहाने से) परिषद् को विसर्जन करे तो उसे आशातना दोष लगता है। 29. शैक्ष, रात्निक के कथा कहते हुए यदि कथा में बाधा उपस्थित करे तो उसे आशातना दोष लगता है। 30. शैक्ष, रात्निक के कथा कहते हुए परिषद् के उठने से, भिन्न होने से, छिन्न होने से और बिखरने से पूर्व यदि उसी कथा को दूसरी बार और तीसरी बार भी कहता है तो उसे पाशातना दोष लगता है। 31. शैक्ष, यदि रात्निक साधु के शय्यासंस्तारक का (असावधानी से) पैर से स्पर्श हो जाने पर हाथ जोड़कर बिना क्षमायाचना किये चला जाय तो उसे पाशातना दोष लगता है। 32. शैक्ष, रात्निक के शय्या-संस्तारक पर खड़ा हो, बैठे या सोवे तो उसे आशातना दोष लगता है। 33 शैक्ष, रालिक से ऊँचे या समान आसन पर खड़ा हो, बैठे या सोवे तो उसे आशातना दोष लगता है। स्थविर भगवन्तों ने ये तेतीस आशातनाएँ कही हैं / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-भगवतीसूत्र में वीतराग धर्म का मूल विनय कहा गया है। दशवै. अ. 9 में वृक्ष की उपमा देकर कहा गया है—"जैसे वृक्ष के मूल से ही स्कंध आदि सभी विभागों का विकास होता है, उसी प्रकार धर्म का मूल विनय है और उसका अंतिम फल मोक्ष है, विनय से ही कीर्ति, श्रुतश्लाधा और संपूर्ण गुणों की प्राप्ति होती है / " विनय सभी गुणों का प्राण है। जिस प्रकार निष्प्राण शरीर निरुपयोगी हो जाता है, उसी प्रकार विनय के अभाव में सभी गुण-समूह व्यर्थ हो जाते हैं अर्थात् वे कुछ भी प्रगति नहीं कर पाते हैं। अविनीत शिष्य को बृहत्कल्पसूत्र उ. 4 में शास्त्र की वाचना के अयोग्य बताया गया है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरी दशा [19 गुरु का विनय नहीं करना या अविनय करना, ये दोनों ही पाशातना के प्रकार हैं / पाशातना देव एवं गुरु की तथा संसार के किसी भी प्राणी की हो सकती है। धर्म-सिद्धान्तों की भी आशातना होती है / अतः आशातना की विस्तृत परिभाषा इस प्रकार होती है—देव, गुरु की विनय भक्ति न करना, अविनय अभक्ति करना, उनकी आज्ञा भंग करना या निंदा करना, धर्मसिद्धान्तों की अवहेलना करना, विपरीत प्ररूपणा करना और किसी भी प्राणी के साथ अप्रिय व्यवहार करना, उसकी निन्दा या तिरस्कार करना 'पाशातना' है / लौकिक भाषा में इसे असभ्य व्यवहार कहा जाता है / आवश्यकसूत्र के चौथे .अध्याय में तेतीस आशातनाओं में ऐसी आशातनाओं का कथन है। किन्तु इस तीसरी दशा में केवल गुरु और रत्नाधिक (अधिक संयमपर्याय वाले) की आशातना का ही कथन किया गया है। निशीथसूत्र के दसवें उद्देशक में गुरु व रत्नाधिक की पाशातना का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है और तेरहवें और पन्द्रहवें उद्देशक में क्रमशः गृहस्थ तथा सामान्य साधु की पाक शातना का प्रायश्चित्त विधान है। गुरु व रत्नाधिक की तेतीस पाशातनाएँ इसप्रकार हैं चलना, खड़े रहना और बैठना, तीन क्रियाओं की अपेक्षा नव आशातनाएँ कही गई हैं। गुरु या रत्नाधिक के आगे या समश्रेणी में और पीछे अत्यन्त निकट चलने से उनकी आशातना होती है। आगे चलना अविनय अाशातना है, समकक्ष चलना विनयाभाव पाशातना है, पीछे अत्यन्त निकट चलना अविवेक आशातना है। इसी तरह खड़े रहने और बैठने के विषय में भी समझ लेना चाहिए / इन आशातनाओं से शिष्य के गुणों का ह्रास होता है, लोगों में अपयश होता है और वह गरुकृपा प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः गुरु या रत्नाधिक के साथ बैठना, चलना, खड़े रहना हो तो उनसे कुछ पीछे या कुछ दूर रहना चाहिए / कभी उनके सन्मुख बैठना आदि हो तो भी उचित दूरी पर विवेकपूर्वक बैठना चाहिए। यदि गुरु से कुछ दूरी पर चलना हो तो विवेकपूर्वक आगे भी चला जा सकता है। गुरु या रत्नाधिक की आज्ञा होने पर आगे पार्श्वभाग में या निकट कहीं भी बैठने आदि से आशातना नहीं होती है। शेष आशातनाओं का भाव सूत्र के अर्थ से ही स्पष्ट हो जाता है। उनका सारांश यह है कि गुरु या रत्नाधिक के साथ आना-जाना, आलोचनात्मक प्रत्येक प्रवृत्ति में शिष्य यही ध्यान रखे कि ये प्रवृत्तियाँ उनके करने के बाद करे। उनके वचनों को शान्त मन से सुनकर स्वीकार करे / अशनादि पहले उनको दिखावे। उन्हें बिना पूछे कोई कार्य न करे। उनके साथ आहार करते समय आसक्ति से मनोज्ञ आहार न खावे। उनके साथ वार्तालाप करते समय या विनय-भक्ति करने में और प्रत्येक व्यवहार करने में उनका पूर्ण सन्मान रखे। उनके शरीर की तथा उपकरणों की भी किसी प्रकार से अवज्ञा न करे। गुरु या रत्नाधिक की आज्ञा से यदि कोई प्रवृत्ति करे और उसमें आशातना दिखे तो भी आशातना नहीं कही जाती है। प्रत्येक शिष्य को चाहिये कि वह अनाशातनाओं को समझकर अपने जीवन को विनयशील बनावे और आशातनाओं से बचे। क्योंकि गुरु या रत्नाधिक की आशातनाओं से इस भव और परभव में आत्मा का अहित होता है। इस विषय का स्पष्ट दृष्टान्त सहित वर्णन दशव. अ. 9 में है / प्रत्येक साधक को उस अध्ययन का मनन एवं परिपालन करना चाहिये। DU Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथी दशा आठ प्रकार की गणि-सम्पदा सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं अटुबिहा गणिसंपया पण्णत्ता। ५०-कयरा खलु ता थेरेहि भगवंतेहिं अट्ठविहा गणिसंपया पण्णता? उ.-इमा खलु ता थेरेहिं भगवंतेहिं अट्ठविहा गणिसंपया पण्णता, तं जहा 1. प्रायारसंपया, 2. सुयसंपया, 3. सरीरसंपया, 4. वयणसंपया, 5. वायणासंपया, 6. मइसंपया, 7. पओगमइसंपया, 8. संगह-परिण्णा णामं अट्ठमा संपया। 1. प०-से कि तं आयारसंपया ? उ०-आयारसंपया चरविहा पण्णत्ता, तं जहा 1. संजम-धुव-जोग-जुत्ते यावि भवइ, 2. असंपग्गहिय-अप्पा, 3. अणियत-वित्ती, 4. वुडसीले यावि भवइ / से तं आयारसंपया। 2. ५०-से कि तं सुयसंपया ? उ.-सुयसंपया चउन्विहा पण्णत्ता, तं जहा-- 1. बहुस्सुए यावि भवइ, 2. परिचियसुए यावि भवइ, 3. विचित्तसुए यावि भवइ, 4. घोसविसुद्धिकारए यावि भवइ / से तं सुयसंपया। 3. प०-से कि तं सरीरसंपया ? उ.-सरीरसंपया चउम्विहा पण्णता, तं जहा 1. आरोहपरिणाहसंपन्ने यावि भवइ, 2. अणोतप्पसरीरे यावि भवइ, 3. थिरसंघयणे यावि भवइ, 4. बहुपडिपुण्णिदिए यावि भवइ / से तं सरीरसंपया। 4. ५०-से कि तं वयणसंपया ? उ.-वयणसंपया चउन्विहा पण्णता, तं जहा 1. प्रादेयवयणे यावि भवइ, 2. महुरवयणे यावि भवइ, 3. अणिस्सियवयणे यावि भवई, 4. असंदिद्धवयणे यावि भवइ / से तं वयणसंपया। 5. प०-से किं तं वायणासंपया उ०—वायणासंपया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा 1. विजयं उद्दिसइ, 2. विजयं वाएइ, 3. परिनिवावियं वाएइ, 4. प्रत्थनिज्जावए यावि भवइ / से तं वायणासंपया। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोची शा] [21 6. ५०-से कि तं मइसंपया ? उ.-मइसंपया चम्विहा पण्णत्ता, तं जहा 1. उग्गहमइसंपया, 2. ईहामइसंपया, 3. अवायमइसंपया, 4. धारणामइसंपया। (1) ५०-से कि तं उग्गहमइसंपया ? उ०-उग्गहमइसंपया छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा 1. खिप्पं उगिण्हेइ, 2. बहुं उगिण्हेइ, 3. बहुविहं उगिण्हेइ, 4. धुवं उगिण्हेइ, 5. अणिस्सियं उगिण्हेइ, 6. असंदिद्धं उगिण्हेइ / से तं उग्गहमइसंपया। (2) एवं ईहामई वि। (3) एवं अवायमई वि। (4) ५०-से किं तं धारणामइसंपया ? उ.-धारणामइसंपया छविहा पण्णत्ता, तं जहा१. बहुं धरेइ, 2. बहुविहं धरेइ, 3. पोराणं धरेइ, 4. दुद्धरं धरेइ, 5. अणिस्सियं धरेइ, 6. असंविद्धं धरेइ / से तं धारणामइसंपया। से तं मइसंपया। 7. ५०-से कि तं पओगमइसंपया? उ०-पओगमइसंपया चउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा 1. प्रायं विदाय वायं पउंज्जित्ता भवइ, 2. परिसं विदाय वायं पउंज्जित्ता भवइ, 3. खेत्तं विदाय वायं पज्जित्ता भवइ, 4. वत्थु विदाय वायं पउंज्जित्ता भवइ / से तं पओगमइसंपया। 8. प०-से कि तं संगहपरिण्णा णामं संपया ? उ०-संगहपरिणा णाम संपया चउन्विहा पण्णता, तं जहा 1. बहुजणपाउग्गयाए वासावासेसु खेत्तं पडिलेहित्ता भवइ, 2. बहुजणपाउम्गयाए पाडिहारिय-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं उमिण्हित्ता भवइ, 3. कालेणं कालं समाणइत्ता भवइ, 4. अहागुरु संपूएत्ता भवइ / से तं संगहपरिण्णासंपया। अर्थ-हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने ऐसा कहा है-इस आईतप्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने आठ प्रकार की गणिसम्पदा कही है। प्र०-हे भगवन् ! वह पाठ प्रकार की गणिसम्पदा कौन-सी कही गई हैं ? उ०-आठ प्रकार की गणिसम्पदा ये कही गई हैं / जैसे 1. प्राचारसम्पदा, 2. श्रुतसम्पदा, 3. शरीरसम्पदा, 4. वचनसम्पदा, 5. वाचनासम्पदा, 6. मतिसम्पदा, 7. प्रयोगमतिसम्पदा, 8, आठवीं संग्रहपरिज्ञासम्पदा / Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [दशावतस्कन्ध 1. प्र०-भगवन् ! वह प्राचारसम्पदा क्या है ? उ.--आचारसम्पदा चार प्रकार की कही गई है / जैसे-- 1. संयमक्रियाओं में सदा उपयुक्त रहना। 2. अहंकाररहित होना।। 3. एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रहना / 4. वृद्धों के समान गम्भीर स्वभाव वाला होना। यह चार प्रकार की प्राचारसम्पदा है। 2. प्र०-भगवन् ! श्रुतसम्पदा क्या है ? उ०-श्रुतसम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे१. अनेकशास्त्रों का ज्ञाता होना। 2. सूत्रार्थ से भलीभांति परिचित होना। 3. स्वसमय और परसमय का ज्ञाता होना। 4. शुद्ध उच्चारण करने वाला होना। यह चार प्रकार की श्रुतसम्पदा है। 3. प्र०-भगवन् ! शरीरसम्पदा क्या है ? उ०-शरीरसम्पदा चार प्रकार की कही गई है / जैसे 1. शरीर की लम्बाई-चौड़ाई का उचित प्रमाण होना। 2. लज्जास्पद शरीर वाला न होना। 3. शरीर-संहनन सुदृढ़ होना। 4. सर्व इन्द्रियों का परिपूर्ण होना। यह चार प्रकार की शरीरसम्पदा है। 4. प्र०-भगवन् ! वचनसम्पदा क्या है ? उ०-वचनसम्पदा चार प्रकार की कही गई है / जैसे 2. मधुरवचन वाला होना। 3. राग-द्वेषरहित वचन वाला होना। 4. सन्देहरहित वचन वाला होना। यह चार प्रकार की वचनसम्पदा है। 5. प्र०-भगवन् ! वाचनासम्पदा क्या है ? उ०-वाचनासम्पदा चार प्रकार की कही गई है / जैसे 1. शिष्य की योग्यता का निश्चय करके मूल पाठ की वाचना देने वाला होना / 2. शिष्य की योग्यता का विचार करके सूत्रार्थ की वाचना देने वाला होना। 3. पूर्व में पढ़ाये गये सूत्रार्थ को धारण कर लेने पर आगे पढ़ाने वाला होना। 4. अर्थ-संगतिपूर्वक नय-प्रमाण से अध्यापन कराने वाला होना। यह चार प्रकार की वाचनासम्पदा है। 6. प्र०-भगवन् ! मतिसम्पदा क्या है ? उ०-मतिसम्पदा चार प्रकार की कही गई है / जैसे 1. अवग्रहमतिसम्पदा सामान्य रूप से अर्थ को जानना। 2. ईहामतिसम्पदा-सामान्य रूप से जाने हुए अर्थ को विशेष रूप से जानने की इच्छा होना। 3. अवायमतिसम्पदा-ईहित वस्तु का विशेष रूप से निश्चय करना। 4. धारणामतिसम्पदा-ज्ञात वस्तु का कालान्तर में स्मरण रखना। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौमी वशा] [23 (1) प्र०-भगवन् ! अवग्रहमतिसम्पदा क्या है ? उ०—अवग्रहमतिसम्पदा छह प्रकार की कही गई है / जैसे-- 1. प्रश्न आदि को शीघ्र ग्रहण करना। 2. बहुत अर्थ को ग्रहण करना। 3. अनेक प्रकार के अर्थों को ग्रहण करना। 4. निश्चित रूप से अर्थ को ग्रहण करना / 5. अनुक्त अर्थ को अपनी प्रतिभा से ग्रहण करना। 6. सन्देहरहित होकर अर्थ को ग्रहण करना। (2) इसी प्रकार ईहामतिसम्पदा भी छह प्रकार की कही गई है। (3) इसी प्रकार अवायमतिसम्पदा भी छह प्रकार की कही गई है। (4) प्र०-भगवन् ! धारणामतिसम्पदा क्या है ? उ.--धारणामतिसम्पदा छह प्रकार की कही गई है / जैसे-- 1. बहुत अर्थ को धारण करना। 2. अनेक प्रकार के अर्थों को धारण करना / 3. पुरानी धारणा को धारण करना। 4. कठिन से कठिन अर्थ को धारण करना। 5. किसी के अधीन न रहकर अनुकूल अर्थ को निश्चित रूप से अपनी प्रतिभा द्वारा धारण करना / 6. ज्ञात अर्थ को सन्देहरहित होकर धारण करना / यह धारणामतिसम्पदा है। 7. प्र०-भगवन् ! प्रयोगमतिसम्पदा क्या है ? उ०प्रयोगमतिसम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे 1. अपनी शक्ति को जानकर वादविवाद (शास्त्रार्थ) का प्रयोग करना / 2. परिषद् के भावों को जानकर वादविवाद का प्रयोग करना / 3. क्षेत्र को जानकर वादविवाद का प्रयोग करना / 4. वस्तु के विषय को जानकर वादविवाद का प्रयोग करना / यह प्रयोगमतिसम्पदा है। 8. प्र०-भगवन् ! संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा क्या है ? उ०-संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा चार प्रकार की कही गई है। जैसे-- 1. वर्षावास में अनेक मुनिजनों के रहने योग्य क्षेत्र का प्रतिलेखन करना। 2. अनेक मुनिजनों के लिए प्रातिहारिक पीठ फलक शय्या और संस्तारक ग्रहण करना। 3. यथाकाल यथोचित कार्य को करना और कराना। 4. गुरुजनों का यथायोग्य पूजा-सत्कार करना / यह संग्रहपरिज्ञा नामक सम्पदा है। विवेचन-इस दशा में प्राचार्य को 'गणी' कहा गया है। साधुसमुदाय को "गण" या "गच्छ" कहा जाता है, उस गण के जो अधिपति (स्वामी) होते हैं, उन्हें गणि या गच्छाधिपति कहा जाता है / उनके गुणों के समूह को सम्पदा कहते हैं। गणि को उन गुणों से पूर्ण होना ही चाहिए, क्योंकि बिना गुणों के वह गण की रक्षा नहीं कर सकता है और गण की रक्षा करना ही उसका प्रमुख कर्तव्य है। शिष्य-समुदाय द्रव्य-संपदा है और ज्ञानादि गुण का समूह भाव-संपदा है। दोनों संपदाओं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [दशा तस्कन्ध से युक्त व्यक्ति ही वास्तव में गणि पद को सुशोभित करता है / प्रस्तुत दशा में द्रव्य और भाव सम्पदा को ही विस्तार से आठ प्रकार की सम्पदाओं द्वारा कहा गया है। आचारसम्पदा-१. संयम की सभी क्रियाओं में योगों का स्थिर होना आवश्यक है, क्योंकि उन क्रियाओं का उचित रीति से पालन तभी हो सकता है। 2. प्राचार्य-पद-प्राप्ति का अभिमान न करते हुए सदा विनीतभाव से रहना, क्योंकि विनय से ही अन्य सभी गुणों का विकास होता है। 3. अप्रतिबद्ध होकर विचरण करना, क्योंकि प्राचार्य के विचरण करने से ही धर्म-प्रभावना अधिक होती है तथा विचरण से ही वह आचार-धर्म पर दृढ़ रह सकता है। 4. लघुवय में भी प्राचार्य पद प्राप्त हो सकता है किन्तु शान्त स्वभाव एवं गांभीर्य होना अर्थात् बचपन न रखकर प्रौढ़ता धारण करना अत्यावश्यक है। इन गुणों से सम्पन्न प्राचार्य "आचारसम्पदा" युक्त होता है। (2) श्रुतसम्पदा-१. उपलब्ध विशाल श्रुत में से प्रमुख सूत्रग्रन्थों का चिन्तन-मननपूर्वक अध्ययन होना और उनमें आये विषयों से तात्त्विक निर्णय करने की क्षमता होना / 2. श्रुत के विषयों का हृदयंगम होना, उसका परमार्थ समझना तथा विस्मृत न होना। 3. नय-निक्षेप, भेद-प्रभेद सहित अध्ययन होना तथा मत-मतांतर आदि की चर्चा-वार्ता करने के लिए श्रुत का समुचित अभ्यास होना। 4. ह्रस्व-दीर्घ, संयुक्ताक्षर, गद्य-पद्यमय सूत्रपाठों का पूर्ण शुद्ध उच्चारण होना। इन गुणों से सम्पन्न प्राचार्य "श्रुत (ज्ञान) संपदा" युक्त होता है / (3) शरीरसम्पदा--१. ऊँचाई और मोटाई में प्रमाणयुक्त शरीर अर्थात् अति लम्बा या अति ठिगना तथा अति दुर्बल या अति स्थूल न होना / 2. शरीर के सभी अंगोपांगों का सुव्यवस्थित होना अर्थात् दूसरों को हास्यास्पद और स्वयं को लज्जाजनक लगे, ऐसा शरीर न होना। 3. सुदृढ़ संहनन होना अर्थात् शरीर शक्ति से सम्पन्न होना / 4. सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण होना, पूर्ण शरीर सुगठित होना, प्रांख-कान आदि की विकलता न होना अर्थात् शरीर सुन्दर, सुडौल, कांतिमान और प्रभावशाली होना। इन गुणों से युक्त आचार्य 'शरीरसम्पदा' युक्त होता है। (4) वचनसम्पदा-१. आदेश और शिक्षा के वचन शिष्यादि सहर्ष स्वीकार कर लें और जनता भी उनके वचनों को प्रमाण मान ले, ऐसे आदेयवचन वाला होना। 2. सारगर्भित तथा मधुरभाषी होना और आगमसम्मत वचन होना / किन्तु निरर्थक या मोक्षमार्ग निरपेक्ष वचन न होना / 3. अनुबन्धयुक्त वचन न होना अर्थात् "उसने भी ऐसा कहा था या उससे पूछकर कहूँगा" इत्यादि अथवा राग-द्वेष से युक्त वचन न बोलना, किन्तु शान्त स्वभाव से निष्पक्ष वचन बोलना। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथी दशा] [25 4. संदेह रहित स्पष्ट वचन बोलना / अभीष्ट अर्थ को व्यक्त करने वाला वचन बोलना / सत्यवचन बोलना / असत्य, मिश्र या संदिग्ध वचन न बोलना / इन गुणों से युक्त आचार्य "बचनसम्पदा" से युक्त होता है / (5) वाचनासम्पदा 1-2. यहां "विजय”– “विचय" शब्द के अनुप्रेक्षा, विचार-चिन्तन आदि अर्थ हैं / मूल पाठ की तथा अर्थ की वाचना के साथ इस शब्द का प्रयोग यही सूचित करता है कि शिष्य विनय, उपशान्ति, जितेन्द्रियता आदि श्रुत ग्रहण योग्य प्रमुख गुणों से युक्त है या नहीं तथा किस सूत्र का कितना पाठ या कितना अर्थ देने योग्य है, इस प्रकार की अनुप्रेक्षा करके मूल पाठ व अर्थ की वाचना देने वाला होना / 3. कंठस्थ करने की शक्ति और उसे स्मृति में रखने की शक्ति का क्रमशः विकास हो, इसका ध्यान रखना तथा पूर्व में वाचना दिये गये मूल पाठ का और अर्थ की स्मृति का निरीक्षण-परीक्षण करके जितना उपयुक्त हो उतना आगे पढ़ाना / 4. संक्षिप्त वाचना पद्धति से दिये गए मूल और अर्थ का परिणमन कर लेने पर शब्दार्थों के विकल्प, नय-प्रमाण, प्रश्न-उत्तर और अन्यत्र पाये उन विषयों के उद्धरणों के संबंधों को समझाते हुए तथा उत्सर्ग-अपवाद की स्थितियों में उसी सूत्राधार से किस तरह उचित निर्णय लेना आदि विस्तृत व्याख्या समझाना। इन गुणों से युक्त प्राचार्य "वाचनासम्पदा" से युक्त होता है / (6) मतिसम्पदा–मति का अर्थ है बुद्धि / 1. औत्पत्तिकी, 2. वैनयिकी, 3. कामिकी और 4. पारिणामिकी, इन चारों प्रकार की बुद्धियों से सम्पन्न होना / प्रत्येक पदार्थ के सामान्य और विशेष गुणों को समझकर सही निर्णय करना / एक बार निर्णय करके समझे हुए विषय को लम्बे समय तक स्मृति में रखना / किसी भी विषय को स्पष्ट समझना, किसी के द्वारा किये गये प्रश्न का समाधान करना, गूढ वचन के प्राशय को शीघ्र और निःसंदेह स्वतः समझ जाना। ऐसी बुद्धि और धारणाशक्ति से सम्पन्न प्राचार्य "मतिसम्पदा" युक्त होता है। (7) प्रयोगमतिसम्पदा-पक्ष प्रतिपक्ष युक्त शास्त्रार्थ के समय श्रुत तथा बुद्धि के प्रयोग करने को कुशलता होना प्रयोगमतिसंपदा है। 1. प्रतिपक्ष की योग्यता को देखकर तथा अपने सामर्थ्य को देखकर ही वाद का प्रयोग करना। 2. स्वयं के और प्रतिवादी के सामर्थ्य का विचार करने के साथ उस समय उपस्थित परिषद् की योग्यता, रुचि, क्षमता का भी ध्यान रखकर वाद का प्रयोग करना अर्थात् तदनुरूप चर्चा का विषय और उसका विस्तार करना / 3. उपस्थित परिषद् के सिवाय चर्चा-स्थल के क्षेत्रीय वातावरण और प्रमुख पुरुषों का विचार कर वाद का प्रयोग करना / 4. साथ में रहने वाले बाल, ग्लान, वृद्ध, नवदीक्षित, तपस्वी आदि की समाधि का ध्यान Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [दशाश्रुतस्कन्ध रखकर अति परिणामी, अपरिणामी, अगीतार्थ शिष्यों के हिताहित का विचार रखते हुए तथा वाद के परिणाम में लाभालाभ की तुलना करके वाद का प्रयोग करना। इन कुशलताओं से सम्पन्न प्राचार्य "प्रयोगमतिसम्पदा" युक्त होता है / () संग्रहपरिज्ञासम्पदा-१. उपरोक्त सम्पदाओं से युक्त प्राचार्य में यह उत्साह होना कि जनपद में ग्रामानुग्राम विचरण करके वीतरागप्रज्ञप्त धर्म पर सर्वसाधारण की श्रद्धा सुदृढ़ करन 'धर्म पर सर्वसाधारण की श्रद्धा सुदृढ़ करना और उन्हें धर्मानुरागी बनाना, जिससे चातुर्मास योग्य क्षेत्र सुलभ रहे / 2. वहाँ के लोगों की प्रातिथ्य [सुपात्रदान की भावना बढ़ाना, जिससे बाल, ग्लान, वृद्ध, तपस्वी और अध्ययनशील साधु-साध्वियों का तथा प्राचार्य, उपाध्याय का निर्वाह एवं सेवा शुश्रूषा सहज संपन्न हो सके अर्थात् पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक तथा आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, औषध वगैरह सर्वथा सुलभ हों। 3. स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, उपधि-माहारादि की गवेषणा, अध्ययन-अध्यापन और यथाविधि संयम का पालन कराना तथा संयम का सम्यक् पालन करना / 4. दीक्षापर्याय में जो ज्येष्ठ हो तथा संयमदाता, वाचनादाता या गुरु हो, उनके पादरसत्कार आदि व्यवहारों का स्वयं पूर्ण पालन करना / ऐसा करने से शिष्यों में और समाज में विनय गुण का अनुपम प्रभाव होता है। इन गुणों से सम्पन्न प्राचार्य "संग्रहपरिज्ञासम्पदा" युक्त होता है। प्राचार्य सम्पूर्ण संघ की धर्म-नौका के नाविक होते हैं / अतः संघहित के लिए सभी का यह कर्तव्य है कि वे उपरोक्त पाठ सम्पदा रूप सर्वोच्च गुणों से सम्पन्न गीतार्थ भिक्षु को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करें। ___ संघनायक प्राचार्य में पाठों ही सम्पदा होना आवश्यक है। तभी वे सम्पूर्ण संघ के सदस्यों की सुरक्षा और विकास कर सकते हैं तथा जिनशासन की प्रचुर प्रभावना कर सकते हैं। 1. सर्वप्रथम प्राचार्य का प्राचार-सम्पन्न होना आवश्यक है, क्योंकि प्राचार की शुद्धि से ही व्यवहार शुद्ध होता है। 2. अनेक साधकों का मार्गदर्शक होने से श्रुतज्ञान से सम्पन्न होना भी आवश्यक है / बहुश्रुत ही सर्वत्र निर्भय विचरण कर सकता है। 3. ज्ञान और क्रिया भी शारीरिक सौष्ठव होने पर ही प्रभावक हो सकते हैं, रुग्ण या अशोभनीय शरीर धर्म-प्रभावना में सहायक नहीं होता है। 4. धर्म के प्रचार-प्रसार में प्रमुख साधन वाणी भी है। अत: तीन संपदात्रों के साथ-साथ वचनसंपदा भी प्राचार्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है। 5. बाह्य प्रभाव के साथ-साथ योग्य शिष्यों की संपदा भी आवश्यक है, क्योंकि सर्वगुणसंपन्न अकेला व्यक्ति भी विशाल कार्यक्षेत्र में अधिक सफल नहीं हो सकता। अत: वाचनाओं के द्वारा अनेक बहुश्रुत गीतार्थ प्रतिभासंपन्न शिष्यों को तैयार करना। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथी दशा] [27 6. शिष्य भी विभिन्न तर्क, बुद्धि, रुचि, प्राचार वाले होते हैं। अतः प्राचार्य का सभी के संरक्षण तथा संवर्धन के योग्य बहुमुखी बुद्धिसंपन्न होना आवश्यक है। 7. विशाल समुदाय में अनेक परिस्थितियाँ तथा उलझनें उपस्थित होती रहती हैं। उनका यथासमय शीघ्र समुचित समाधान करने के लिये मतिसंपदा और प्रयोगमतिसंपदा का होना भी आवश्यक है / अन्य अनेक मत-मतान्तरों के सैद्धान्तिक विवाद या शास्त्रार्थ के प्रसंग उपस्थित होने पर योग्य रीति से उनका प्रतीकार करना भी आवश्यक है। ऐसे समय में तर्क, बुद्धि और श्रुत का प्रयोग बहुत धर्मप्रभावना करने वाला होता है। 8. उपरोक्त गुणों से धर्म की प्रभावना होने पर सर्वत्र यश की वृद्धि होने से शिष्य-परिवार की वृद्धि होना स्वाभाविक है। विशाल शिष्यसमुदाय के संयम की यथाविधि आराधना हो इसके लिये विचरण क्षेत्र, उपधि, आहारादि की सुलभता तथा अध्ययन, सेवा, विनय-व्यवहार की समुचित व्यवस्था और संयम समाचारी के पालन की देख-रेख, सारणा-वारणा सुव्यवस्थित होना भी अत्यावश्यक है। इस प्रकार आठों ही संपदाएँ परस्पर एक-दूसरे की पूरक तथा स्वतः महत्त्वशील हैं। ऐसे गुणों से संपन्न आचार्य का होना प्रत्येक गण (गच्छ-समुदाय) के लिये अनिवार्य है। जैसे कुशल नाविक के बिना नौका के यात्रियों की समुद्र में पूर्ण सुरक्षा को प्राशा रखना अनुचित है वैसे ही आठ संपदाओं से संपन्न प्राचार्य के अभाव में संयमसाधकों की साधना और आराधना सदा विराधना रहित रहे, यह भी संभव नहीं है। प्रत्येक साधक का भी यह कर्तव्य है कि वह जब तक पूर्ण योग्य और गीतार्थ न बन जाय तब तक उपरोक्त योग्यता से संपन्न प्राचार्य के नेतृत्व में ही अपना संयमी जीवन सुरक्षित बनाये रखे। शिष्य के प्रति आचार्य के कर्तव्य ___ आयरिओ अंतेवासि इमाए चउम्विहाए विणयपडिवत्तीए विणइत्ता भवइ निरिणतं गच्छा, तं जहा 1. पायार-विणएणं, 2. सुय-विणएणं, 3. विखेवणा-विणएणं, 4. दोसनिग्घायण-विणएणं। 1. ५०-से कि तं आयार-विणए ? उ.---आयार-विणए चउविहे पण्णते, तं जहा 1. संयमसामायारी यावि भवइ, 2. तवसामायारी यावि भवइ, 3. गणसामायारी यावि भवइ, 4. एकल्लविहारसामायारी यावि भवइ / से तं प्रायार-विणए। 2. ५०-से किं तं सुय-विणए ? उ.-सुय-विणए चउबिहे पण्णते, तं जहा 1. सुत्तं वाएइ, 2. प्रत्यं वाएइ, 3. हियं वाएइ, 4. निस्सेसं वाएइ / से तं सुय-विणए। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [बशा तस्कन्ध 3. प०-से कि तं विक्खेवणा-विणए ? उ०-विक्खेवणा-विणए चउम्बिहे पण्णत्ते, तं जहा 1. अदिधम्म दिट्ठ-पुथ्वगत्ताए विणयइत्ता भवइ, 2. दिट्ठपुव्वगं साहम्मियत्ताए विणयइत्ता भवइ, 3. चुयधम्माओ धम्मे ठावइत्ता भवइ, 4. तस्सेव धम्मस्स हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेयसाए, अणुगामियत्ताए अम्भुठेत्ता भवइ। से तं विक्खेवणा-विणए। 4. ५०-से कि तं दोसनिग्घायणा-विणए ? उ०-दोसनिग्धायणा-विणए चउव्यिहे पण्णते, तं जहा 1. कुद्धस्स कोहं विणएत्ता भवइ, 2. दुस्स दोसं णिगिण्हित्ता भवइ, 3. कंखियस्स कंखं छिदित्ता भवइ, 4. आया-सुपणिहिए यायि भवइ / से तं दोसनिग्धायणा-विणए / प्राचार्य अपने शिष्यों को यह चार प्रकार को विनय-प्रतिपत्ति सिखाकर के अपने ऋण से उऋण हो जाता है। जैसे 1. प्राचार-विनय, 2. श्रुत-विनय, 3. विक्षेपणा-विनय, 4. दोषनिर्घातना-विनय / 1. प्र०-भगवन् ! वह आचार-विनय क्या है ? उ०-आचार-विनय चार प्रकार का कहा गया है, जैसे 1. संयम की समाचारी सिखाना। 2. तप की समाचारी सिखाना। 3. गण की समाचारी सिखाना। 4. एकाकी विहार की समाचारी सिखाना। यह आचार-विनय है। 2. प्र० --भगवन् ! श्रुत-विनय क्या है ? उ०–श्रुत-विनय चार प्रकार का कहा गया है, जैसे१. मूल सूत्रों को पढ़ाना। 2. सूत्रों के अर्थ को पढ़ाना / 3. शिष्य के हित का उपदेश देना। 4. सूत्रार्थ का यथाविधि समग्र अध्यापन कराना / यह श्रुत-विनय है। 3. प्र०-भगवन् ! विक्षेपणा-विनय क्या है ? उ० -विक्षेपणा-विनय चार प्रकार का कहा गया है, जैसे 1. जिसने संयमधर्म को पूर्ण रूप से नहीं समझा है उसे समझाना / 2. संयमधर्म के ज्ञाता को ज्ञानादि गुणों से अपने समान बनाना / 3. धर्म से च्युत होने वाले शिष्य को पुनः धर्म में स्थिर करना / 4. संयमधर्म में स्थित शिष्य के हित के लिये, सुख के लिए, सामर्थ्य के लिए, मोक्ष के लिए और भवान्तर में भी धर्म की प्राप्ति हो, इसके लिए प्रवृत्त रहना। यह विक्षेपणा-विनय है / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथी दशा] (29 4. प्र..-भगवन् ! दोषनिर्घातना-विनय क्या है ? उ०-दोषनिर्घातना-विनय चार प्रकार का कहा गया है, जैसे 1. क्रुद्ध व्यक्ति के क्रोध को दूर करना। 2. दुष्ट व्यक्ति के द्वेष को दूर करना / 3. आकांक्षा वाले व्यक्ति की आकांक्षा का निवारण करना / 4. अपनी आत्मा को संयम में लगाये रखना / यह दोषनिर्घातना-विनय है। विवेचन--पाठ संपदाओं से संपन्न भिक्षु को जब प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया जाता है तब वह संपूर्ण संघ का धर्मशास्ता हो जाता है। तब उसे भी संघ संरक्षण एवं संवर्धन के अनेक कर्तव्यों के उत्तरदायित्व निभाने होते हैं / उनके प्रमुख उत्तरदायित्व चार प्रकार के हैं 1. आचारविनय, 2. श्रुतविनय, 3. विक्षेपणाविनय, 4. दोषनिर्घातनाविनय / 1. आचारविनय-गणी (प्राचार्य) का मुख्य कर्तव्य है कि सबसे पहले शिष्यों को प्राचार सम्बन्धी शिक्षाओं से सुशिक्षित करे / वह अाचार संबंधी शिक्षा चार प्रकार की है 1. संयम की प्रत्येक प्रवृत्ति के विधि-निषेधों का ज्ञान कराना, काल-अकाल का ज्ञान कराना / महाव्रत, समिति, गुप्ति, यतिधर्म, परीषहजय प्रादि का यथार्थ बोध देना। 2. अनेक प्रकार की तपश्चर्यानों के भेद-प्रभेदों का ज्ञान कराना। तप करने की शक्ति और उत्साह बढ़ाना। निरन्तर तपश्चर्या करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए आगमोक्त क्रम से तपश्चर्या की एवं पारणा में परिमित पथ्य आहारादि के सेवन की विधि का ज्ञान कराना। 3. गीतार्थ अगीतार्थ भद्रिक परिणामी आदि सभी को संयमसाधना निर्विघ्न सम्पन्न होने के लिए आचारशास्त्रों तथा छेदसूत्रों के आधार से बनाये गये गच्छ सम्बन्धी नियमों उपनियमों (समाचारी) का सम्यक् ज्ञान कराना। 4. गण की सामूहिकचर्या को त्यागकर एकाकी विहारचर्या करने की योग्यता का, वय का तथा विचरणकाल में सावधानियाँ रखने का ज्ञान कराना एवं एकाकीविहार करने की क्षमता प्राप्त करने के उपायों का ज्ञान कराना। क्योंकि भिक्षु का द्वितीय मनोरथ यह है कि "कब मैं गच्छ के सामूहिक कर्तव्यों से मुक्त होकर एकाकीविहारचर्या धारण करूं।" अत: एकाकी विहारचर्या की विधि का ज्ञान कराना आचार्य का चौथा प्राचारविनय है। आचारांगसूत्र श्र. 1, अ. 5 और 6 में प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार की एकाकीविहारचर्या के लक्षण बताये गये हैं। उनमें से अप्रशस्त एकल विहारचर्या के वर्णन को लक्ष्य में रखकर एकलविहारचर्या के निषेध की परम्परा प्रचलित है। किन्तु प्रस्तुत सूत्र, द्वितीय मनोरथ तथा गणव्युत्सर्ग तप वर्णन के अनुसार एकलविहारचर्या का सर्वथा विरोध करना आगमसम्मत नहीं कहा जा सकता। इस पाठ की व्याख्या में भी स्पष्ट उल्लेख है कि प्राचार्य एकाकीविहारचर्या धारण करने के लिये दूसरों को उत्साहित करे तथा स्वयं भी अनुकूल अवसर पर निवृत्त होकर इस चर्या को धारण करे। इस सूत्र की नियुक्ति, चूणि के सम्पादक मुनिराज भी यही सूचित करते हैं कि एकान्त निषेध उचित नहीं है। ___ यह प्राचार्य का चार प्रकार का "आचार-विनय" है / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30) [शाश्रुतस्कन्ध 2. श्रुतविनय---१-२. प्राचारधर्म का प्रशिक्षण देने के साथ-साथ प्राचार्य का दूसरा कर्तव्य है-प्राज्ञाधीन शिष्यों को सूत्र व अर्थ की समुचित वाचना देकर श्रुतसम्पन्न बनाना। 3. उस सूत्रार्थ के ज्ञान से तप संयम की वृद्धि के उपायों का ज्ञान कराना अर्थात् शास्त्रज्ञान को जीवन में क्रियान्वित करवाना अथवा समय-समय पर उन्हें हितशिक्षा देना। 4. सूत्ररुचि वाले शिष्यों को प्रमाणनय की चर्चा द्वारा अर्थ परमार्थ समझाना / छेदसूत्र आदि सभी आगमों की क्रमशः वाचना के समय आने वाले विघ्नों का शमन कर श्रुतवाचना पूर्ण कराना। यह प्राचार्य का चार प्रकार का "श्रुतविनय" है। 3. विक्षेपणाविनय--१. जो धर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, उन्हें धर्म का स्वरूप समझाना। 2. जो अनगारधर्म के प्रति उत्सुक नहीं हैं, उन्हें अनगारधर्म स्वीकार करने के लिये उत्साहित करना। अथवा 1. यथार्थ संयमधर्म समझाना, 2. संयमधर्म के यथार्थ ज्ञाता को ज्ञानादि में अपने समान बनाना। 3. किसी अप्रिय प्रसंग से किसी भिक्षु की संयमधर्म से अरुचि हो जाय तो उसे विवेकपूर्वक पुन: स्थिर करना। 4. श्रद्धालु शिष्यों को संयमधर्म की पूर्ण आराधना कराने में सदैव तत्पर रहना / यह प्राचार्य का चार प्रकार का "विक्षेपणा-विनय" है / 4. दोषनिर्घातनाविनय-शिष्यों की समुचित व्यवस्था करते हुए भी विशाल समूह में साधना करते हुए कभी कोई साधक छद्मस्थ अवस्था के कारण कषायों के वशीभूत होकर किसी दोषविशेष के पात्र हो सकते हैं। 1.. उनके क्रोधादि अवस्थानों का सम्यक् प्रकार से छेदन करना / 2. राग-द्वेषात्मक परिणति का तटस्थतापूर्वक निवारण करना / 3. अनेक प्रकार की आकांक्षाओं के अधीन शिष्यों की आकांक्षाओं को उचित उपायों से दूर करना। 4. इन विभिन्न दोषों का निवारण कर संयम में सुदृढ़ करना अथवा शिष्यों के उक्त दोषों का निवारण करते हुए भी अपनी आत्मा को संयमगुणों से परिपूर्ण बनाये रखना / शिष्य-समुदाय में उत्पन्न दोषों को दूर करना। यह प्राचार्य का चार प्रकार का "दोषनिर्धातनाविनय" है। सम्पूर्ण ऐश्वर्य-सम्पन्न जो राजा प्रजा का प्रतिपालक होता है वही यशकीति को प्राप्त कर सुखी होता है, वैसे ही जो प्राचार्य शिष्यसमुदाय की विवेकपूर्वक परिपालना करता हुआ संयम की आराधना कराता है, वह शीघ्र ही मोक्ष गति को प्राप्त करता है / भगवतीसूत्र श. 5 उ. 6 में कहा है कि सम्यक् प्रकार से गण का परिपालन करने वाले प्राचार्य, उपाध्याय उसी भव में या दूसरे भव में अथवा तीसरे भव में अवश्य मुक्ति प्राप्त करते हैं / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथी दशा] आचार्य और गण के प्रति शिष्य के कर्तव्य तस्स णं एवं गुणजाइयस्स अंतेवासिस्स इमा चउविवहा विणयपडिवत्ती भवइ, तं जहा 1. उवगरणउप्पायणया, 2. साहिल्लणया, 3. वण्णसंजलणया, 4. भारपच्चोरहणया। 1. ५०–से कि तं उवगरणउपायणया? उ.--उवगरणउप्पायणया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा 1. अणुप्पण्णाणं उवगरणाणं उप्पाइत्ता भवइ, 2. पोराणाणं उवगरणाणं सारक्खित्ता संगोवित्ता भवइ, 3. परित्तं जाणिता पच्चुद्धरित्ता भवइ, 4. अहाविहिं संविभइत्ता भवइ / से तं उवगरणउप्पायणया। 2. ५०-से कि तं साहिल्लणया? उ०-साहिल्लणया चउन्विहा पण्णत्ता, तं जहा--- 1. अणुलोमवइसहिते यावि भवइ, 2. अणुलोमकायकिरियता यावि भवइ, 3. पडिरूवकायसंफासणया यावि भवइ, 4. सव्वत्थेसु अपडिलोमया यावि भवइ / से तं साहिल्लणया। 3. प.--से कि तं वण्णसंजलणया? उ०—वण्णसंजलणया चउव्हिा पण्णत्ता, तं जहा 1. अहातच्चाणं वण्णवाई भवइ, 2. प्रवण्णवाइं पउिहणित्ता भवइ, 3. वण्णवाई अणुवूहइत्ता भवइ, 4. आय वुड्सेवी यावि भयइ / से तं वण्णसंजलणया। 4. ५०-से कि तं भारपच्चोरहणया? उ.-भारपच्चोरहणया चउबिहा पण्णसा, तं जहा 1. असंगहिय-परिजणसंगहित्ता भवइ, 2. सेहं आयारगोयरसंगहित्ता भवइ, 3. साहम्मियस्स गिलायमाणस्स अहाथाम वेयावच्चे अन्भुट्टित्ता भवइ, 4. साहम्मियाणं अहिगरणंसि उप्पण्णंसि तत्थ अणिस्सितोवस्सिए अपवखग्गहिय-ममत्थभावभूए सम्मं ववहरमाणे तस्स अधिगरणस्स खमावणाए विउसमणयाए सया समियं प्रभुट्टित्ता भवइ / ___ कहं णु साहम्मिया अप्पसद्दा, अप्पझंज्या, अप्पकलहा, अप्पकसाया, अप्पतुमंतुमा, संजमबहुला, संवरबहुला, समाहिबहुला, अप्पमत्ता, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा-एवं च णं विहरेज्जा / से तं भारपच्चोरहणया। एसा खलु थेरेहिं भगवतेहिं अट्ठविहा गणिसंपया पण्णत्ता। -त्ति बेमि। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [वशाश्रुतस्कन्ध ऐसे गुणवान् आचार्य के अन्तेवासी शिष्य की यह चार प्रकार की विनयप्रतिपत्ति है / जैसे१. उपकरणोत्पादनता-संयम के उपयोगी वस्त्र-पात्रादि का प्राप्त करना / 2. सहायकता-अशक्त साधूओं की सहायता करना। 3. वर्णसंज्वलनता-गण और गणी के गुण प्रकट करना। 4. भारप्रत्यारोहणता-गण के भार का निर्वाह करना / 1. प्र.-भगवन् ! उपकरणोत्पादनता क्या है ? / उ०-उपकरणोत्पादनता चार प्रकार की कही गई है / जैसे 1. नवीन उपकरणों को प्राप्त करना। 2. प्राप्त उपकरणों का संरक्षण और संगोपन करना। 3. जिस मुनि के पास अल्प उपधि हो, उसकी पूर्ति करना। 4. शिष्यों के लिए यथायोग्य उपकरणों का विभाग करके देना। यह उपकरणोत्पादनता है। 2. प्र-भगवन् ! सहायकताविनय क्या है ? उ०-सहायकताविनय चार प्रकार का कहा गया है। जैसे 1. गुरु के अनुकूल वचन बोलने वाला होना अर्थात् जो गुरु कहे उसे विनयपूर्वक स्वीकार ____ करना। 2. जैसा गुरु कहे वैसी प्रवृत्ति करने वाला होना। 3. गुरु की यथोचित सेवा-शुश्रूषा करना। 4. सर्व कार्यों में गुरु की इच्छा के अनुकूल व्यवहार करना / यह सहायकताविनय है / 3. प्र०-भगवन् ! वर्णसंज्वलनताविनय क्या है ? . उ०-वर्णसंज्वलनताविनय चार प्रकार का कहा गया है। जैसे 1. यथातथ्य गुणों की प्रशंसा करने वाला होना। 2. अयथार्थ दोषों के कहने वाले को निरुत्तर करना / 3. वर्णवादी के गुणों का संवर्धन करना। 4. स्वयं वृद्धों की सेवा करने वाला होना / यह वर्गसंज्वलनताविनय है। 4. प्र०-भगवन् ! भारप्रत्यारोहणताविनय क्या है ? उ० --भारप्रत्यारोहणताविनय चार प्रकार का कहा गया है / जैसे 1. नवीन शिष्यों का संग्रह करना। 2. नवीन दीक्षित शिष्यों को आचार-गोचर अर्थात् संयम की विधि सिखाना। 3. सार्मिक रोगी साधुओं की यथाशक्ति वैयावृत्य के लिए तत्पर रहना / 4. सार्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न हो जाने पर राग-द्वेष का परित्याग करते हुए, किसी पक्षविशेष को ग्रहण न करके मध्यस्थभाव रखना और सम्यक् व्यवहार का पालन करते हुए उस कलह के क्षमापन और उपशमन के लिए सदा तत्पर रहना और यह विचार करना कि किस तरह सार्मिक परस्पर अनर्गल प्रलाप नहीं करेंगे, उनमें झंझट नहीं होगी, कलह, कषाय और तू-तू-मैं-मैं नहीं होगी तथा सार्मिक जन संयमबहुल, संवरबहुल, समाधिबहुल और अप्रमत्त होकर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करेंगे। यह भारप्रत्यारोहणताविनय है / यह स्थविर भगवन्तों ने पाठ प्रकार की गणिसम्पदा कही है। -ऐसा मैं कहता हूँ। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथो दशा विवेचन-गण और गणी के प्रति योग्य शिष्य के चार प्रमुख कर्तव्य हैं१. उपकरण-उत्पादन-१. गवेषणा करके वस्त्र-पात्र आदि उपकरण प्राप्त करना / 2. प्राप्त हुए उपकरणों को सुरक्षित रखना। 3. जिसको जिस उपधि की आवश्यकता है उसे वह उपधि देना। 4. यथायोग्य विभाग करके उपधि देना अथवा जिसके योग्य जो उपधि हो उसे वही देना। यह शिष्य का उपकरण सम्बन्धी कर्तव्य पालन है। 2. सहायक होना-१. गुरुजनों के अनुकूल और हितकारी वचन बोलना, उनके प्रादेशनिर्देश को "तहत्ति” कहते हुए सविनय स्वीकार करना। 2. गुरुजनों के समीप बैठना, बोलना, खड़े रहना, हाथ और पैर आदि अंगोपांगों का संचालन करना इत्यादि सभी काया की प्रवृत्तियाँ इस प्रकार करना कि जो उन्हें अनुकूल लगें अर्थात् कोई भी प्रवृत्ति गुरुजनों के प्रतिकूल न हो यह विवेक रखना। 3. गुरुजनों के शरीर का संबाहन (मर्दन) आदि सेवाकार्य भी विवेकपूर्वक करना / 4. गुरुजनों के सभी कार्य उनके आदेशानुसार करना तथा भाव, भाषा, प्रवृत्ति, प्ररूपणा आदि किसी में भी उनकी रुचि से कुछ भी विपरीत नहीं करना यह शिष्य का 'सहायकता' कर्तव्य-पालन है। 3. गुणानुवाद-१. प्राचार्य आदि के गुणों का कीर्तन करना / 2. अवर्णवाद, निन्दा या असत्य प्राक्षेप करने वाले को उचित प्रत्युत्तर देकर निरुत्तर करना तथा प्रबल युक्तियों से प्रतिपक्षी को इस प्रकार हतप्रभ करना कि भविष्य में वह ऐसा दुःसाहस न कर सके। 3. आचार्य आदि का गुणकीर्तन करने वालों को धन्यवाद कहकर उत्साहित करना। उसका जनता को परिचय देना 4. अपने से बड़ों की सेवा-भक्ति करना एवं यथोचित आदर देना। यह शिष्य का 'गुणानुवाद' कर्तव्य पालन है। 4. भार-प्रत्यारोहण-प्राचार्य के कार्यभार को सम्भालना योग्य शिष्य का कर्तव्य होता है। यथा-१. धर्मप्रचार आदि के द्वारा नये-नये शिष्यों की वृद्धि हो, इस तरह प्रयत्न करना। 2. गण में विद्यमान शिष्यों को प्राचारविधि का ज्ञान कराने में और शुद्ध प्राचार का अभ्यास कराने में प्रवृत्त रहना। 3. जहाँ जब जिसको सेवा की आवश्यकता हो स्वयं तन-मन से लगे रहना। 4. श्रमणों में परस्पर कलह या विवाद हो जाय तो उसका निष्पक्षभाव से निराकरण कर देना तथा इस तरह की व्यवस्था या उपाय करना कि जिससे सार्मिक साधुनों में कलह आदि होने का अवसर ही उपस्थित न हो और गच्छ के साधु-साध्वियों के संयम, समाधि आदि की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे। यह शिष्य का भार-प्रत्यारोहण कर्तव्य पालन है। इस प्रकार गच्छ-हित के कार्य करने वाला तथा प्राचार्य के आदेशों का पालन करने वाला शिष्य महान् कर्मनिर्जरा करता हुआ गच्छ का संरक्षक हो जाता है। वह जिनशासन की सेवा तथा संयमाराधना करके सुगति को प्राप्त होता है। 10 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांची दशा चित्तसमाधि के दस स्थान सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायंइह खलु थेरेहि भगवंतेहिं दस चित्तसमाहिठाणा पण्णत्ता। ५०–कयरा खलु ताई थेरेहि भगवंतेहिं दस चित्तसमाहिठाणा पण्णता ? उ०-इमाइं खलु ताई थेरेहि भगवंतेहिं दस चित्तसमाहिठाणा पण्णता, तं जहातेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नगरे होत्था / एत्थ नगरवण्णओ भाणियव्यो। तस्स जं वाणियग्गामस्स नगरस्स बहिया उत्तर-पुरच्छिमे दिसीभाए दूतिपलासए णामं चेइए होत्था / चेइयवण्णओ भाणियव्यो। ___ जियसत्तू राया। तस्स धारणी नामं देवी। एवं समोसरणं भाणियव्वं जावपुढविसिलापट्टए / सामी समोसढे / परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। अज्जो! इति समणे भगवं महावीरे समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य आमंतित्ता एवं वयासी-- ___ इह खलु अज्जो! निग्गंथाणं वा निग्गंथोणं वा इरियासमियाणं, भासासमियाणं, एसणासमियाणं, आयाण-भंड-मत्त-निक्खेवणा-समियाणं, उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिद्ववणियासमियाणं, मणसमियाणं, वयसमियाणं, कायसमियाणं, मणगुत्तीणं, वयगुत्तीणं, कायगुत्तीणं मुत्तिवियाणं, गुत्तबंभयारीणं, प्रायट्ठीणं, आयहियाणं, प्रायजोईणं, आयपरक्कमाणं, पक्खियपोसहिएसु समाहिपत्ताणं झियायमाणाणं इमाइं दस चित्तसमाहिठाणाई असमुप्पण्णपुव्वाइं समुप्पज्जेज्जा, तं जहा 1. धम्मचिता वा से असमुप्पण्णपुन्या समुप्पज्जेज्जा, सव्वं धम्म जाणित्तए। 2. सण्णिजाइसरणणं सणिणाणं वा से असमुप्पण्णपुग्वे समुप्पज्जेज्जा, अप्पणो पोराणियं जाई सुमरित्तए। 3. सुमिणसणे वा से असमुप्पण्णपुटवे समुप्पज्जेज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए। 4. देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जेज्जा, दिव्वं देवट्टि दिव्वं देवजुइं विष्वं देवाणुभावं पासित्तए। 5. ओहिणाणे वा से असमुप्पण्णपुग्वे समुप्पज्जेज्जा, प्रोहिणा लोगं जाणित्तए। 6. ओहिदसणे वा से असमुप्पण्णपुग्वे समुप्पज्जेज्जा, ओहिणा लोयं पासित्तए। 7. मणपज्जवनाणे वा असमुप्पण्णपुब्बे समुप्पज्जेज्जा अंतो मणुस्सखित्तेसु अड्डाइज्जेसु दीव समुद्देसु सण्णीणं पंचिदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणित्तए / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [35 पांचवीं दशा] 8. केवलणाणे वा से असमुप्पण्णपुग्वे समुप्पज्जेज्जा, केवलकप्पं लोयालोयं जाणित्तए / 9. केवलदंसणे वा से असमुप्पण्णपुन्धे समुप्पज्जेज्जा, केवलकप्पं लोयालोयं पासित्तए / 10. केवलमरणे वा से असमुप्पण्णपुग्वे समुष्पज्जेज्जा सव्वदुषखपहीणाए / गाहाओ ओयं चित्तं समादाय, झाणं समणुपस्सइ / धम्मे ठिओ अविमाणो, निस्वाणमभिगच्छइ // 1 // ण इमं चित्तं समादाय, भुज्जो लोयंसि जायइ / अप्पणो उत्तमं ठाणं, सण्णोणाणेण जाणइ // 2 // अहातच्चं तु सुमिणं, खिप्पं पासेइ संयुडे / सम्वं वा अोहं तरति, दुक्खायो य विमुच्चइ // 3 // पंताई भयमाणस्स, विवित्तं सयणासणं / अप्पाहारस्स दंतस्स, देवा सेंति ताइणो // 4 // सव्वकाम-विरत्तस्स, खमतो भय-भेरवं / तओ से प्रोहि भवइ, संजयस्स तवस्सिणो // 5 // तवसा अवहड-लेस्सस्स, दसणं परिसुज्झइ / उड्ढं अहे तिरियं च, सव्वं समणुपस्सति // 6 // सुसमाहियलेस्सस्स, अवितक्कस्स भिक्खुणो। सम्वतो विष्पमुक्कस्स, प्राया जाणाइ पज्जवे // 7 // जया से पाणावरणं, सव्वं होइ खयं गयं / तया लोगमलोगं च, जियो जाणति केबली // 8 // जया से दसणावरणं, सव्वं होइ खयं गयं / तया लोगमलोगं च, जिणो पासति केवली // 9 // पडिमाए विसुद्धाए, मोहणिज्जे खयं गए। असेसं लोगमलोगं च, पासेति सुसमाहिए // 10 // जहा मत्थए सूइए हताए हम्मइ तले। एवं कम्माणि हम्मंति, मोहणिज्जे खयं गए // 11 // सेणावइम्मि निहए, जहा सेणा पणस्सति / एवं कम्माणि गस्संति मोहणिज्जे खयं गए // 12 // Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वशाभुतस्कन्छ धूमहीणो जहा अग्गी, खोयति से निरिधणे / एवं कम्माणि खीयंति, मोहणिज्जे खयं गए // 13 // सुक्क-मूले जहा रक्खे, सिंचमाणे ण रोहति / एवं कम्मा ण रोहंति, मोहणिज्जे खयं गए // 14 // जहा दड्डाणं बीयाणं, न जायंति पुर्णकुरा / कम्म-बीएसु दड्ढेसु, न जायंति भवंकुरा // 15 // चिच्चा पोरालियं बोंदि, नाम-गोयं च केवली / पाउयं वेणिज्जं च, छित्ता भवति नीरए // 16 // एवं अभिसमागम्म, चित्तमादाय पाउसो / सेणि-सुद्धिमुवागम्म, आया सोधिमुवेहइ / / 17 / / -त्ति बेमि। हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है-उन निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने ऐसा कहा हैइस आर्हत प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने दस चित्तसमाधिस्थान कहे हैं। प्र०-भगवन् ! वे कौन से दस चित्तसमाधिस्थान स्थविर भगवन्तों ने कहे हैं ? उ.--ये दस चित्तसमाधिस्थान स्थविर भगवन्तों ने कहे हैं / जैसे-- उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नगर था / यहाँ पर नगर का वर्णन कहना चाहिए। उस वाणिज्यग्राम नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में तिपलाशक नाम का चैत्य था / यहाँ पर 'चैत्यवर्णन कहना चाहिये। वहाँ का राजा जितशत्रु था / उसकी धारणी नाम की देवी थी। इस प्रकार सर्व समवसरणवर्णन कहना चाहिए / यावत् पृथ्वी-शिलापट्टक पर वर्धमान स्वामी विराजमान हुए। धर्मोपदेश सुनने के लिए परिषद् निकली। भगवान् ने धर्म का निरूपण किया। परिषद् वापिस चली गई। हे पार्यो ! इस प्रकार सम्बोधन कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों से कहने लगे हे पार्यो ! निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनियों को, जो कि ईर्यासमिति वाले, भाषासमिति वाले, एषणासमिति वाले, आदान-भाण्ड-मात्रनिक्षेपणासमिति वाले, उच्चार-प्रश्रवण-खेल-सिंघाणक-जल्ल-मल की परिष्ठापनासमिति वाले, मन:समिति वाले, वचनसमिति वाले, कायसमिति वाले, मनोगुप्ति वाले, वचनगुप्ति वाले, कायगुप्ति वाले तथा गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, आत्मार्थी, प्रात्मा का हित करने वाले, प्रात्मयोगी, प्रात्मपराक्रमी, पाक्षिकपौषधों में समाधि को प्राप्त और शुभ ध्यान करने वाले हैं / उन मुनियों को ये पूर्व अनुत्पन्न चित्तसमाधि के दस स्थान उत्पन्न हो जाते हैं / वे इस प्रकार हैं 1. पूर्व असमुत्पन्न (पहले कभी उत्पन्न नहीं हुई) ऐसी धर्म-भावना यदि साधु के मन में उत्पन्न हो जाय तो वह सर्व धर्म को जान सकता है, इससे चित्त को समाधि प्राप्त हो जाती है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (37 पांचवीं दशा] 2. पूर्व असमुत्पन्न संज्ञि जातिस्मरण द्वारा संज्ञि-ज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और अपने पूर्व जन्मों का स्मरण कर ले तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। 3. पूर्व अदृष्ट यथार्थ स्वप्न यदि दिख जाय तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। 4. पूर्व अदष्ट देवदर्शन यदि हो जाय और दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव दिख जाय तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। 5. पूर्व असमुत्पन्न अवधिज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और अवधिज्ञान के द्वारा वह लोक ____ को जान लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। 6. पूर्व असमुत्पन्न अवधिदर्शन यदि उसे उत्पन्न हो जाय और अवधि-दर्शन के द्वारा वह लोक को देख लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। 7. पूर्व असमुत्पन्न मन:पर्यवज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और मनुष्य क्षेत्र के भीतर अढ़ाई द्वीप-समुद्रों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जान लेवे तो चित्त समाधि प्राप्त हो जाती है। 8. पूर्व असमुत्पन्न केवलज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और केवल-कल्प लोक-अलोक को जान लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। 9. पूर्व असमुत्पन्न केवलदर्शन यदि उसे उत्पन्न हो जाय और केवल-कल्प लोक-अलोक को देख लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। 10. पूर्व असमुत्पन्न केवलमरण यदि उसे प्राप्त हो जाय तो वह सर्व दुःखों के सर्वथा प्रभाव से पूर्ण शान्तिरूप समाधि को प्राप्त हो जाता है। गाथार्थ-- 1. राग-द्वेष-रहित निर्मल चित्त को धारण करने पर एकाग्रतारूप ध्यान उत्पन्न होता है और शंका___ रहित धर्म में स्थित प्रात्मा निर्वाण को प्राप्त करता है / 2. इस प्रकार चित्तसमाधि को धारण कर प्रात्मा पुन: पुनः लोक में उत्पन्न नहीं होता और अपने ___ उत्तम स्थान को संज्ञि-ज्ञान से जान लेता है / 3. संवृत-मात्मा यथातथ्य स्वप्न को देखकर शीघ्र ही सर्व संसार रूपी समुद्र से पार हो जाता है तथा शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों से छूट जाता है। 4. अल्प आहार करने वाले, अन्त-प्रान्तभोजी, विविक्त शयन-पासनसेवी, इन्द्रियों का निग्रह करने वाले और षटकायिक जीवों के रक्षक संयत साधु को देवदर्शन होता है। 5. सर्व कामभोगों से विरक्त, भीम-भैरव परीषह-उपसर्गों के सहन करने वाले तपस्वी संयत को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। 6. जिसने तप के द्वारा अशुभ लेश्याओं को दूर कर दिया है, उसे अति विशुद्ध अवधिदर्शन हो जाता है और उसके द्वारा वह ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और सर्व तिर्यक्लोक को देखने लगता है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {रशाश्रुतस्कन्ध 7. सुसमाधियुक्त प्रशस्त लेश्या वाले, विकल्प से रहित, भिक्षावृत्ति से निर्वाह करने वाले और सर्व प्रकार के बन्धनों से मुक्त आत्मा मन के पर्यवों को जानता है। 8. जब जीव का समस्त ज्ञानावरणकर्म क्षय को प्राप्त हो जाता है, तब वह केवली जिन होकर समस्त लोक और अलोक को जानता है / 9. जब जीव का समस्त दर्शनावरणकर्म क्षय को प्राप्त हो जाता है, तब वह केवली जिन समस्त __ लोक और अलोक को देखता है। 10. प्रतिमा के विशुद्धरूप से प्राराधन करने पर और मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर सुसमाहित आत्मा सम्पूर्ण लोक और अलोक को देखता है / 11. जैसे मस्तक स्थान में सूई से छेदन किये जाने पर तालवृक्ष नीचे गिर जाता है , इसी प्रकार मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर शेष कर्म विनष्ट हो जाते हैं। 12. जैसे सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना अस्त-व्यस्त हो जाती है, इसी प्रकार मोहनीयकर्म के - क्षय हो जाने पर शेष सर्व कर्म विनष्ट हो जाते हैं। 13. जैसे धूमरहित अग्नि ईन्धन के प्रभाव से क्षय को प्राप्त हो जाती है, इसी प्रकार मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर सर्व कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। 14. जैसे शुष्क जड़वाला वृक्ष जल-सिंचन किये जाने पर भी पुनः अंकुरित नहीं होता है, इसी प्रकार मोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर शेष कर्म भी पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं। 15. जैसे जले हुए बीजों से पुन: अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, इसी प्रकार कर्मबीजों के जल जाने पर भवरूप अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं। 16. औदारिक शरीर का त्याग कर तथा नाम, गोत्र, वायु और वेदनीय कर्म का छेदन कर केवली भगवान् कर्म-रज से सर्वथा रहित हो जाते हैं। 17. हे आयुष्मन् शिष्य ! इस प्रकार (समाधि के भेदों को) जान कर, राग और द्वेष से रहित चित्त को धारण कर, शुद्ध श्रेणी (क्षपक-श्रेणी) को प्राप्त कर प्रात्मा शुद्धि को प्राप्त करता है, अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-व्यापार में पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को जब इच्छित धन-राशि की प्राप्ति होती है तब उसे अत्यन्त प्रसन्नता होती है, वैसे ही संयम-साधना में लीन मोक्षार्थी साधक को जब सूत्रोक्त दस आत्मगुणों में से किसी गुण की प्राप्ति होती है तब उसे भी अनुपम प्रात्मानन्द की प्राप्ति होती है / उस अनुपम आनन्द को ही प्रस्तुत दशा में चित्तसमाधि कहा गया है। सूत्र में दसों ही स्थान था रूप में कहे गये हैं। गद्यपाठ में उन दस चित्तसमाधिस्थानों का कथन है और गाथाओं में उन समाधिस्थानों की प्राप्ति किस प्रकार की साधना करने वाले भिक्षु को होती है, यह कहा है और उस समाधिस्थान का क्या परिणाम होता है, यह भी बताया गया है / दस चित्तसमाधिस्थान इस प्रकार हैं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवीं वशा] [39 1. श्रमण निम्रन्थ को धर्मजागरणा करते हुए अनुत्पन्न धर्मभावना का उत्पन्न होना अर्थात् अनुपम धर्मध्यान की प्राप्ति / 2. जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति / 3. जिन स्वप्नों को देखकर जागृत होने से उसी भव में या 1-2 भव में जीव को मुक्ति प्राप्त होती है, ऐसे स्वप्न को देखना / भगवतीसूत्र श. 16 उ. 6 में ऐसे स्वप्नों का वर्णन है। 4. देवदर्शन होना-अर्थात् श्रमण की सेवा में देव का उपस्थित होना। 5. अवधिज्ञान की प्राप्ति / 6. अवधिदर्शन की प्राप्ति। 7. मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति / 8. केवलज्ञान की प्राप्ति। 9. केवलदर्शन की प्राप्ति / 10. मुक्तिगमनमोक्ष की प्राप्ति / दस चित्तसमाधि (प्रात्म-आनन्द के) स्थानों का दस गाथानों में वर्णन करने के बाद मोहनीयकर्म के क्षय का महत्त्व चार उपमाओं के द्वारा बताया गया है--१. तालवृक्ष के शीर्षस्थान पर सूई से छेद करना, 2. सेनापति का युद्ध में मारा जाना, 3. अग्नि को ईंधन का प्रभाव, 4. वृक्ष का मूल सूख जाना। सभी कर्म भवपरम्परा के बीज हैं। इन कर्म-बीजों के जल जाने अर्थात् पूर्ण क्षय हो जाने पर जीव शाश्वत मोक्ष को प्राप्त होता है / वह पुनः संसार में परिभ्रमण नहीं करता है। प्रस्तुत दशा में दस चित्तसमाधिस्थान श्रमण निर्ग्रन्थों को प्राप्त होने का प्रासंगिक कथन है, अतः अन्य श्रमणोपासक आदि को होने का निषेध नहीं समझना चाहिये। कई स्थान श्रमणोपासक को भी प्राप्त हो सकते हैं और कोई-कोई शुभ परिणामी अन्य संज्ञी जीवों को भी प्राप्त हो सकते हैं। चित्तसमाधि प्राप्त करने वाले श्रमण के विशेषणों में “पक्खियपोसहिएसु समाहिपत्तार्ण झियायमाणाणं" ऐसा पाठ है, इसका अर्थ पर्व तिथियों के दिन धर्मजागरणा करने वाले श्रमणों की तपश्चर्या समझना चाहिए, क्योंकि शेष सावद्ययोगों का त्याग आदि तो भिक्षु के आजीवन होते ही हैं। LD Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठी दशा ग्यारह उपासक-प्रतिमाएँ सुयं मे पाउस तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहि भगवंतेहि एक्कारस उवासगपडिमानो पण्णत्तानो। ५०-कयरानो खलु ताओ थेरेहि भगवंतेहि एक्कारस उवासगपडिमानो पण्णताओ? उ.-इमानो खलु तामो थेरेहि भगवंतेहिं एक्कारस उवासगपडिमाओ पप्णत्ताओ तं जहा 1. दसण-पडिमा, 2. वय-पडिमा, 3. सामाइय-पडिमा, 4. पोसह-पडिमा, 5. काउस्सग्गपडिमा, 6. बंभचेर-पडिमा, 7. सचित्तपरिणाय-पडिमा, 8. आरंभपरिण्णाय-पडिमा, 9. पेसपरिण्णाय-पडिमा, 10. उद्दिट्ठभत्तपरिण्णाय-पडिमा, 11. समणभूय-पडिमा। तत्थ खलु इमा पढमा उवासगपडिमा सव्वधम्मरुई यावि भवति / तस्स णं बहूई सीलवयगुणवयवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासाई नो सम्मं पट्टवियाई भवंति, पढमा उवासगपडिमा। प्रहावरा दोच्चा उवासगपडिमा-सव्वधम्मरुई यावि भवइ, तस्स णं बहूई सीलवयगुणवयवेरमणपक्चक्खाणपोसहोववासाई सम्मं पढवियाई भवंति, से गं सामाइयं देसावगासियं नो सम्म अणुपालित्ता भवइ, दोच्चा उवासगपडिमा। अहावरा तच्चा उवासगपडिमा-सव्वधम्मरुई यावि भवइ, तस्स गं बहूई सीलवयगुणवयवेरमणपच्चक्खाणपोसहोदवासाइं सम्म पदवियाई भवंति / से णं सामाइयं देसावगासियं सम्म अणुपालित्ता भवइ, से णं चउद्दसट्ठमुदिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहोववासं नो सम्म अणुपालित्ता भवइ, तच्चा उवासगपडिमा। अहावरा चउत्था उवासग पडिमा सव्वधम्मरुई यावि भवइ, तस्स णं बहूई सीलवयगुणवयवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासाई सम्मं पट्टवियाइं भवति / से णं सामाइयं देसावगासियं सम्म अणुपालित्ता भवइ / से णं चउद्दसट्ठमुद्दिष्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहोयवासं सम्म अणुपालित्ता भवइ। से गं एगराइयं काउस्सगपडिमं नो सम्मं अणुपालित्ता भवइ / चउत्था उवासगपडिमा। _प्रहावरा पंचमा उवासगपडिमा सम्बधम्मरुई यावि भवइ / तस्स णं बहूइं सीलवयगुणवयवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासाइं सम्मं पढवियाई भवंति / से णं सामाइयं देसावगासियं सम्म अणुपालिता भवइ / से णं चउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहोववासं सम्म अणुपालित्ता भवंह। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठी दशा [41 से णं एगराइयं काउस्सग्गपडिमं सम्म अणुपालिता भवइ / से णं असिणाणए, वियडभोई, मडलिकडे, बंभयारी य नो भवइ / से णं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णेणं एगाहं वा, दुयाहं वा, तियाहं वा, जाव उक्कोसेणं पंच मासं विहरइ, पंचमा उवासगपडिमा। ____ अहावरा छट्ठा उवासगपडिमा सम्वधम्मरुई यावि भवइ जाव से णं एगराइयं काउस्सग्गपरिमं सम्मं अणुपालित्ता भवइ / से णं असिणाणए, वियडभोई, मउलिकडे, बंभयारी यावि भवइ / सचित्ताहारे से अपरिणाए भवइ / से णं एयारूवेण विहारेणं विहरमाणे जहण्णेणं एगाहं वा, बुआहं वा, तिमाहं वा जाव उक्कोसेणं छम्मासे विहरेज्जा, छट्ठा उवासगपडिमा। प्रहावरा सत्तमा उवासगपडिमा सम्बधम्मरुई यावि भवइ जाव बंभयारी यावि भवइ / सच्चित्ताहारे से परिणाए भवति / प्रारंभे से अपरिणाए भवति / से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णेणं एगाहं वा, दुआहं वा, तिमाहं वा जाव उक्कोसेणं सत्तमासे विहरेज्जा, सत्तमा उवासगपडिमा / अहावरा अदुमा उवासगपडिमा-सव्वधम्मरुई यावि भवइ जाव बंभयारी यावि भवइ / सचित्ताहारे से परिणाए भवइ / आरम्भे से परिणाए भवइ / पेसारंभे से अपरिणाए भवइ / से गं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णणं एगाहं वा, दुआहं वा, तिआहं वा जाव उक्कोसेणं अट्ठमासे विहरेज्जा, अट्ठमा उवासगपडिमा / अहावरा नवमा उवासगपडिमा-सव्वधम्मरुई यावि भवइ जाव बंभयारी यावि भवइ / सचित्ताहारे से परिण्णाए भवइ / आरंभे से परिण्णाए भवइ / पेसारंभे से परिण्णाए भवइ / उद्दिट्ठभत्ते से अपरिणाए भवइ / से णं एयाख्वेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णेणं एगाहं वा, वुअाहं वा, तिआहे वा जाव उक्कोसेणं नवमासे विहरेज्जा, नवमा उवासगपडिमा। अहावरा दसमा उवासगपडिमा-सव्वधम्मरुई यावि भवइ जाव उद्दिभत्ते से परिणाए भवइ / से णं खुरमुंडए वा, सिहाधारए वा, तस्स णं आभट्ठस्स वा समाभट्ठस्स वा कप्पंति दुवे भासाओ भासित्तए, तं जहा 1. जाणं वा जाणं, 2. अजाणं वा जो जाणं / से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहणणं एगाहं वा, दुप्राहं वा, तिआहं वा जाय उक्कोसेणं दस मासे विहरेज्जा, दसमा उवासगपडिमा।। प्रहावरा एकादसमा उवासगपडिमा-सव्वधम्मरई यावि भवइ जाव उद्दिट्ठभत्ते से परिण्णाए भवई। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [दशा तस्कन्ध __ से णं खुरमुंडए वा, लुचसिरए वा, गहियायारभंडगनेवत्थे, जारिसे समणाणं निगंयाणं धम्मे पण्णत्ते तं सम्मं काएणं फासेमाणे, पालेमाणे, पुरओ जुगमायाए पेहमाणे, वळूण तसे पाणे, उखट्ट पाए रोएज्जा, साहट्ट पाए रोएज्जा, तिरिच्छं वा पायं कटु रोएज्जा, सति परक्कमे संजयामेव परिक्कमेज्जा, नो उज्जयं गच्छेज्जा। केवलं से नायए पेज्जबंधणे प्रवोच्छिन्ने भवइ, एवं से कप्पति नायविहिं एतए। तत्थ से पुवागमणेणं पुवाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउत्ते भिलिंगसूवे, कप्पइ से घाउलोवणे पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ भिलिंगसूवे पडिगाहित्तए / तत्थ से पुव्वागमणेणं पुवाउते भिलिंगसूवे, पच्छाउत्ते चाउलोदणे, कप्पइ से भिलिंगसूत्रे पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ चाउलोदणे पडिगाहित्तए / तत्थ से पुटवागमणेणं दो वि पुवाउत्ताई, कप्पंति से दोऽवि पडिगाहित्तए। तत्थ से पुवागमणेणं दो वि पच्छांउत्ताई नो कप्पंति दोऽवि पडिगाहित्तए / जे से तत्थ पुन्वागमणेणं पुवाउत्ते से कप्पइ पडिगाहित्तए / जे से तत्थ पुवागमणेणं पच्छाउत्ते नो से कप्पइ पडिगाहितए। तस्स मं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविठ्ठस्स कप्पति एवं ववित्तए"समणोवासगस्स पडिमापडिवनस्स भिक्खं दलयह।" तं च एयारवेणं विहारेणं विहरमाणं केइ पासित्ता बदिज्जा५०--केइ आउसो! "तुमं वत्तव्वं सिया" ? उ.-"समणोवासए पडिमापडिवण्णए अहमंसो" ति वत्तव्वं सिया। से गं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे जहणणं एगाहं वा, दुआहं वा, तिमाहं वा जाव उकोसेणं एक्कारसमासे विहरेज्जा। से तं एकावसमा उवासगपडिमा। एयाओ खलु ताओ थेरेहि भगवंतेहि एकारस उवासगपडिमाओ पण्णतायो। हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने ऐसा कहा है-इस जैन प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने ग्यारह उपासक-प्रतिमाएँ कही हैं। प्र०-भगवन् ! वे कौन-सी ग्यारह उपासक-प्रतिमाएँ स्थविर भगवन्तों ने कही हैं ? उ.-वे ग्यारह उपासक-प्रतिमाएँ स्थविर भगवन्तों ने इस प्रकार कही हैं, जैसे 1. दर्शनप्रतिमा, 2. व्रतप्रतिमा, 3. सामायिकप्रतिमा, 4. पौषधप्रतिमा, 5. कायोत्सर्गप्रतिमा, 6. ब्रह्मचर्यप्रतिमा, 7. सचित्तत्यागप्रतिमा, 8. प्रारम्भत्यागप्रतिमा, 9. प्रेष्यत्यागप्रतिमा, 10. उद्दिष्टभक्तत्यागप्रतिमा, 11. श्रमणभूतप्रतिमा / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठी क्शा इनमें प्रथम उपासकप्रतिमा का वर्णन यह है-- __ वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है अर्थात् श्रुतधर्म और चारित्रधर्म में श्रद्धा रखता है। किन्तु वह अनेक शीलवत, गुणवत, प्राणातिपातादि-विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास प्रादि का सम्यक् प्रकार से धारक नहीं होता है। यह प्रथम उपासकप्रतिमा है। दूसरी उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है। उसके बहुत से शीलव्रत, गुणव्रत, प्राणातिपातादि-विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि सम्यक् प्रकार से धारण किये हुए होते हैं / किन्तु वह सामायिक और देशावकाशिक व्रत का सम्यक् प्रतिपालक नहीं होता है / यह दूसरी उपासकप्रतिमा है। तीसरी उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है। उसके बहुत से शीलव्रत, गुणवत, प्राणातिपातादि विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि सम्यक् प्रकार से धारण किये हुए होते हैं / वह सामायिक और देशावकाशिक शिक्षाव्रत का भी सम्यक् परिपालक होता है। किन्तु चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी तिथियों में परिपूर्ण पौषधोपवास का सम्यक् परिपालक नहीं होता / यह तीसरी उपासकप्रतिमा है। चौथी उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है, उसके बहुत से शीलवत, गुणव्रत, प्राणातिपातादि-विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास आदि सम्यक् धारण किए हुए होते हैं। वह सामायिक और देशावकाशिक शिक्षाव्रतों को भी सम्यक प्रकार से पालन करता है। वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी तिथियों में परिपूर्ण पौषधोपवास का सम्यक् परिपालन करता है। किन्तु एकरात्रिक कायोत्सर्गप्रतिमा का सम्यक् परिपालन नहीं करता है। यह चौथी उपासकप्रतिमा है। पांचवीं उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है, उसके बहुत से शीलवत, गुणवत, प्राणातिपातादि-विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास प्रादि सम्यक् धारण किये हुए होते हैं / वह सामायिक और देशावकाशिक व्रत का सम्यक् प्रकार से परिपालन करता है। वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी तिथियों में परिपूर्ण पौषधोपवास का सम्यक् परिपालन करता है। वह एकरात्रिक कायोत्सर्गप्रतिमा का सम्यक् परिपालन करता है। किन्तु अस्नान, दिवस भोजन, मुकुलीकरण, पूर्ण ब्रह्मचर्य का सम्यक् परिपालन नहीं करता है। वह इस प्रकार के प्राचरण से विचरता हुअा जघन्य एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट पांच मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है / यह पांचवीं उपासकप्रतिमा है। छठी उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है यावत् वह एक रात्रिक कायोत्सर्गप्रतिमा का सम्यक् प्रकार से पालन करता है। वह स्नान नहीं करता, दिन में भोजन करता है, धोती की लांग नहीं लगाता और पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। किन्तु वह सचित्त आहार का परित्यागी नहीं होता है। इस प्रकार का आचरण करते हुए विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट छह मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है / यह छठी उपासकप्रतिमा है। ___ सातवीं उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है यावत् वह पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है / वह सचित्ताहार का परित्यागी होता है / किन्तु वह आरम्भ करने का Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वशाभुतस्कन्ध परित्यागी नहीं होता है। इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट सात मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है। यह सातवीं उपसाकप्रतिमा है। आठवीं उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है यावत् वह पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। वह सचित्ताहार का परित्यागी होता है, वह सर्व प्रारम्भों का परित्यागी होता है, किन्तु वह दूसरों से प्रारम्भ कराने का परित्यागी नहीं होता है / इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट पाठ मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है। यह पाठवी उपासक प्रतिमा है। नवमी उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है यावत् वह पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। वह सचित्ताहार का परित्यागी होता है। वह प्रारम्भ का परित्यागी होता है। वह दूसरों के द्वारा प्रारम्भ कराने का भी परित्यागी होता है। किन्तु उद्दिष्टभक्त का परित्यागी नहीं होता है। इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट नौ मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है। यह नवमी उपासकप्रतिमा है। दसवीं उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है यावत् वह उद्दिष्टभक्त का परित्यागी होता है। वह शिर के बालों का क्षरमुडन करा देता है अथवा शिखा (बालों) को धारण करता है। किसी के द्वारा एक बार या अनेक बार पूछे जाने पर उसे दो भाषाएँ बोलना कल्पता है / यथा 1. यदि जानता हो तो कहे-"मैं जानता हूँ।" 2. यदि नहीं जानता हो तो कहे-"मैं नहीं जानता हूँ।" इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट दस मास तक इस प्रतिमा का पालन करता है / यह दसवीं उपासकप्रतिमा है। ग्यारहवीं उपासकप्रतिमा-वह प्रतिमाधारी श्रावक सर्वधर्मरुचि वाला होता है यावत् वह उद्दिष्टभक्त का परित्यागी होता है। वह क्षुरा से सिर का मुंडन करता है अथवा केशों का लुचन करता है, वह साधु का प्राचार, भण्डोपकरण और वेषभूषा ग्रहण करता है। जो श्रमण निर्ग्रन्थों का धर्म होता है, उसका सम्यक्तया काया से स्पर्श करता हुआ, पालन करता हुआ, चलते समय आगे चार हाथ भूमि को देखता हुआ सप्राणियों को देखकर उनकी रक्षा के लिए अपने पैर उठाता हुआ, पैर संकुचित करता हुआ अथवा तिरछे पैर रखकर सावधानी से चलता है। ___ यदि दूसरा जीवरहित मार्ग हो तो उसी मार्ग पर यतना के साथ चलता है किन्तु जीवसहित सीधे मार्ग से नहीं चलता। केवल ज्ञाति-वर्ग से उसके प्रेम-बन्धन का विच्छेद नहीं होता है इसलिए उसे ज्ञातिजनों के घरों में भिक्षावृत्ति के लिए जाना कल्पता है / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठी दशा] [45 गृहस्थ के घर में प्रतिमाधारी के आगमन से पूर्व चावल रंधे हुए हों और दाल पीछे से रंधे तो चावल लेना कल्पता है, किन्तु दाल लेना नहीं कल्पता है। आगमन से पूर्व दाल रंधी हुई हो और चावल पीछे से रंधे हों तो दाल लेना कल्पता है, किन्तु चावल लेना नहीं कल्पता है। आगमन से पूर्व दाल और चावल दोनों रंधे हुए हों तो दोनों लेने कल्पते हैं, किन्तु बाद में रंधे हों तो दोनों लेने नहीं कल्पते हैं / (तात्पर्य यह है कि) आगमन से पूर्व जो आहार अग्नि आदि से दूर रखा हुआ हो वह लेना कल्पता है और जो आगमन के बाद में अग्नि आदि से दूर रखा गया हो वह लेना नहीं कल्पता है। जब वह गहस्थ के घर में भक्त-पान की प्रतिज्ञा से प्रविष्ट होवे तब उसे इस प्रकार बोलना कल्पता है "प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो।" इस प्रकार की चर्या से उसे विचरते हुए देखकर यदि कोई पूछेप्र०—हे आयुष्मन् ! तुम कौन हो? तुम्हें क्या कहा जाये ? उ०—मैं प्रतिमाधारी श्रमणोपासक हूँ। इस प्रकार उसे कहना चाहिये। इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य एक दिन, दो दिन या तीन दिन से लगाकर उत्कृष्ट ग्यारह मास तक विचरण करे। यह ग्यारहवीं उपासकप्रतिमा है। स्थविर भगवन्तों ने ये ग्यारह उपासकप्रतिमाएं कही हैं। विवेचन-सामान्य रूप से कोई भी सम्यग्दष्टि आत्मा व्रत धारण करने पर व्रतधारी श्रावक कहा जाता है / वह एक व्रतधारी भी हो सकता है या बारह व्रतधारी भी हो सकता है। प्रतिमाओं में भी अनेक प्रकार के व्रत, प्रत्याख्यान ही धारण किये जाते हैं, किन्तु विशेषता यह है कि इसमें जो भी प्रतिज्ञा की जाती है उसमें कोई आगार नहीं रखा जाता है और नियत समय में अतिचाररहित नियम का दृढ़ता के साथ पालन किया जाता है। जिस प्रकार भिक्षुप्रतिमा धारण करने वाले को विशुद्ध संयमपर्याय और विशिष्ट श्रुत का ज्ञान होना आवश्यक है, उसी प्रकार उपासकप्रतिमा धारण करने वाले को भी बारह व्रतों के पालन का अभ्यास होना और कुछ श्रुतज्ञान होना भी आवश्यक है, किन्तु इसका कुछ स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक को सांसारिक जिम्मेदारियों से निवृत्त होना तो अावश्यक है ही किन्तु सातवी प्रतिमा तक गृहकार्यों का त्याग आवश्यक नहीं होता है, तथापि प्रतिमा के नियमों का शुद्ध पालन करना अत्यावश्यक होता है। पाठवीं प्रतिमा से अनेक गृहकार्यों का त्याग करते हुए ग्यारहवीं प्रतिमा में सम्पूर्ण गृहकार्यों का त्याग करके श्रमण के समान आचार का पालन करता है। ___ ग्यारह प्रतिमाओं में से किसी भी प्रतिमा को धारण करने वाले को आगे की प्रतिमा के नियमों का पालन करना आवश्यक नहीं होता है। स्वेच्छा से पालन कर सकता है अर्थात् पहली प्रतिमा में सचित्त का त्याग या श्रमणभूत जीवन धारण कर सकता है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46] विशाभूतस्कन्ध किन्तु आगे की प्रतिमा धारण करने वाले को उसके पूर्व की सभी प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करना आवश्यक होता है अर्थात् सातवीं प्रतिमा धारण करने वाले को सचित्त का त्याग करने के साथ ही सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य, पौषध, कायोत्सर्ग आदि प्रतिमाओं का भी यथार्थ रूप से पालन करना आवश्यक होता है। 1. पहली दर्शनप्रतिमा धारण करने वाला श्रावक 12 व्रतों का पालन करता है किन्तु वह दृढप्रतिज्ञ सम्यक्त्वी होता है। मन वचन काय से वह सम्यक्त्व में किसी प्रकार का अतिचार नहीं लगाता है तथा देवता या राजा आदि किसी भी शक्ति से किंचित् मात्र भी सम्यक्त्व से विचलित नहीं होता है अर्थात् किसी भी प्रागार के बिना तीन करण तीन योग से एक महीना तक शुद्ध सम्यक्त्व को आराधना करता है / इस प्रकार वह प्रथम दर्शनप्रतिमा वाला व्रतधारी श्रावक कहलाता है। कुछ प्रतियों में “से दंसणसावए भवई" ऐसा पाठ भी मिलता है / उसका तात्पर्य भी यही है कि वह दर्शनप्रतिमाधारी व्रती श्रावक है क्योंकि जो एक व्रतधारी भी नहीं होता है उसे दर्शनश्रावक कहा जाता है किन्तु प्रतिमा धारण करने वाला श्रावक पहले 12 व्रतों का पालक तो होता ही है / अत: उसे केवल "दर्शनश्रावक" ऐसा नहीं कहा जा सकता। 2. दूसरी व्रतप्रतिमा धारण करने वाला यथेच्छ एक या अनेक छोटे या बड़े कोई भी नियम प्रतिमा के रूप में धारण करता है, जिनका उसे अतिचार रहित पालन करना आवश्यक होता है। 3. तीसरी सामायिकप्रतिमाधारी श्रावक सुबह दुपहर शाम को नियत समय पर ही सदा निरतिचार सामायिक एवं देशावकाशिक (14 नियम धारण) व्रत का पाराधन करता है तथा पहली दूसरी प्रतिमा के नियमों का भी पूर्ण पालन करता है। 4. चौथी पौषधप्रतिमाधारी श्रावक पूर्व की तीनों प्रतिमाओं के नियमों का पालन करते हुए महीने में पर्व-तिथियों के छह प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् प्रकार से आराधन करता है। इस प्रतिमा के धारण करने से पहले श्रावक पौषध व्रत का पालन तो करता ही है किन्तु प्रतिमा के रूप में नहीं। 5. पांचवीं कायोत्सर्गप्रतिभाधारी श्रावक पहले की चारों प्रतिमाओं का सम्यक् पालन करते हुए पौषध के दिन सम्पूर्ण रात्रि या नियत समय तक कायोत्सर्ग करता है। 6. छट्ठी ब्रह्मचर्यप्रतिमा का धारक पूर्व प्रतिमाओं का पालन करता हुआ सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। स्नान का और रात्रिभोजन का त्याग करता है तथा धोती की एक लांग खुली रखता है। पांचवीं छट्ठी प्रतिमा के मूल पाठ में लिपि-दोष से कुछ पाठ विकृत हुअा है, जो ध्यान देने पर स्पष्ट समझ में आ सकता है प्रत्येक प्रतिमा के वर्णन में आगे की प्रतिमा के नियमों के पालन का निषेध किया जाता है। पांचवीं प्रतिमा में छट्ठी प्रतिमा के विषय का निषेध-पाठ विधि रूप में जुड़ जाने से और चूर्णिकार द्वारा सम्यक् निर्णय न किये जाने के कारण मतिभ्रम से और भी पाठ विकृत हो गया है / प्रस्तुत प्रकाशन में उसे शुद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले का ही स्नानत्याग उचित है। क्योंकि पांचवीं प्रतिमा में एक-एक मास में केवल 6 दिन ही स्नान का त्याग और दिन में कुशील सेवन का त्याग किया जाय तो सम्पूर्ण स्नान का त्याग कब होगा? तथा केवल 6 दिन ही स्नान का त्याग और दिन में ब्रह्मचर्य Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठी दशा] [47 पालन का कथन प्रतिमाधारी के लिये महत्त्व नहीं रखता है। यदि पांचवीं प्रतिमा के पूरे पांच महीने स्नान का त्याग करने का अर्थ किया जाय तो भी असंगत है। क्योंकि पांच मास तक रात्रि में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करे और स्नान का पूर्ण त्याग रखे, इन दोनों नियमों का सम्बन्ध अव्यावहारिक होता है / अतः स्वीकृत पाठ ही उचित ध्यान में आता है। उपरोक्त लिपिप्रमादादि के कारणों से ही इन दोनों प्रतिमाओं के नाम समवायांगसूत्र में भिन्न हैं तथा ग्रन्थों में भी अनेक भिन्नताएँ मिलती हैं / 7. सातवीं सचित्तत्यागप्रतिमा का पाराधक श्रावक पानी, नमक, फल, मेवे आदि सभी सचित्त पदार्थों के उपभोग का त्याग करता है, किन्तु उन पदार्थों को अचित्त बनाने का त्याग नहीं करता है। 8. आठवीं प्रारम्भत्यागप्रतिमाधारी श्रावक स्वयं प्रारम्भ करने का सम्पूर्ण त्याग करता है, किन्तु दूसरों को आदेश देकर सावध कार्य कराने का उसके त्याग नहीं होता है। 9. नौवीं प्रेष्यत्यागप्रतिमा में धावक प्रारम्भ करने व कराने का त्यागी होता है, किन्तु स्वतः ही कोई उसके लिये आहारादि बना दे या प्रारम्भ कर दे तो उस पदार्थ का वह उपयोग कर सकता है। __ 10. दसवीं उद्दिष्ट भक्तत्यागप्रतिमाधारी श्रावक दूसरे के निमित्त बने आहारादि का उपयोग कर सकता है, स्वयं के निमित्त बने हुए आहारादि का उपयोग नहीं कर सकता है। उसका व्यावहारिक जीवन श्रमण जैसा नहीं होता है। इसलिए उसे किसी के पूछने पर-"मैं जानता हूँ या मैं नहीं जानता हूँ" इतना ही उत्तर देना कल्पता है / इससे अधिक उत्तर देना नहीं कल्पता है / किसी वस्तु के यथास्थान न मिलने पर इतना उत्तर देने से भी पारिवारिक लोगों को सन्तोष हो सकता है। इस प्रतिमा में श्रावक क्षुरमुंडन कराता है अथवा बाल रखता है / 11. ग्यारहवीं श्रमणभूतप्रतिमाधारी श्रावक यथाशक्य संयमी जीवन स्वीकार करता है। किन्तु यदि लोच न कर सके तो मुण्डन करवा सकता है। वह भिक्षु के समान गवेषणा के सभी नियमों का पालन करता है। इस प्रतिमा की अवधि समाप्त होने के बाद वह प्रतिमाधारी सामान्य श्रावक जैसा जीवन बिताता है। इस कारण इस प्रतिमा-आराधनकाल में स्वयं को भिक्षु न कहकर "मैं प्रतिमाधारी श्रावक हूँ" इस प्रकार कहता है। पारिवारिक लोगों से प्रेमसम्बन्ध का आजीवन त्याग न होने के कारण वह ज्ञात कूलों में ही गोचरी के लिए जाता है। यहाँ ज्ञात कुल से पारिवारिक और अपारिवारिक ज्ञातिजन सूचित किये गये हैं / भिक्षा के लिये घर में प्रवेश करने पर वह इस प्रकार करे कि "प्रतिमाधारी श्रावक को भिक्षा दो।" समवायांगसूत्र सम. 11 में भी इन ग्यारह प्रतिमाओं का कथन है। वहां पांचवीं प्रतिमा का नाम भिन्न है / इसमें लिपि-प्रमाद ही एकमात्र कारण है। इन ग्यारह प्रतिमाओं में से प्रत्येक प्रतिमा का आराधनकाल और सभी प्रतिमाओं का एक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दशावतस्कन्ध साथ आराधनकाल कितना है ? इस प्रकार की कालमर्यादा का स्पष्ट कथन इस आगम में नहीं है और चार प्रतिमा तक की कालमर्यादा का कथन इस सूत्र में नहीं है। पांचवीं से ग्यारहवीं तक क्रमशः पांच मास से ग्यारह मास तक का काल कहा गया है। तदनुसार पहली से चौथी तक क्रमशः एक मास से चार मास तक का काल परम्परा से माना जाता है / इसमें कोई मतभेद नहीं है। पांचवीं प्रतिमा से आगे जो काल-मान बताया गया है, उसमें जघन्य काल एक, दो और तीन दिन का जो कहा है, वह भ्रान्तिजनक प्रतीत होता है, क्योंकि ऐसा विकल्प भिक्षुप्रतिमा में भी नहीं है तथा अर्थसंगति भी सन्तोषप्रद नहीं है। पूर्वाचार्य तीन तरह से अर्थ की संगति करते हैं 1. एक-दो दिन के लिये ही धारण कर बाद में स्वतः छोड़ दे। 2. एक-दो दिन के बाद काल कर जाये। 3. एक-दो दिन के बाद संयम स्वीकार कर ले। प्रतिमाएँ दृढता और वीरता की सूचक हैं और पांच-छह मास की प्रतिमा को एक-दो दिन के लिये धारण करना तो दृढता नहीं। मरने का विकल्प तो भिक्षुप्रतिमा में भी हो सकता है। किन्तु वहाँ जघन्यकाल नहीं कहा है। एक दिन के बाद संयम स्वीकार कर ले, ऐसे चंचल विचार की कल्पना करना प्रतिमाधारी के लिए ठीक नहीं है / अतः जघन्यस्थिति का पाठ विचारणीय है। ग्यारह प्रतिमाओं का कुल समय एक मास से लेकर ग्यारह मास तक का होता है। इनका योग करने पर पांच वर्ष और छह मास होते हैं यह परम्परा सर्वसम्मत है। ___ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना पूर्ण होने के बाद ग्यारहवीं प्रतिमा जैसा जीवनपर्यन्त रहना ही श्रेयस्कर है। यही दृढता एवं वीरता का सूचक है। किन्तु आगम में इस विषय का उल्लेख नहीं मिलता है। इन प्रतिमाओं की आराधना क्रमशः करना या बिना क्रम के करना, ऐसा स्पष्ट विधान उपलब्ध नहीं है। किन्तु कार्तिक सेठ के समान एक प्रतिमा को अनेक बार धारण किया जा सकता है। श्रावकप्रतिमा के सम्बन्ध में यह भी एक प्रचलित कल्पना है कि "प्रथम प्रतिमा में एकान्तर उपवास, दूसरी प्रतिमा में निरन्तर बेले, तीसरी में तेले यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा में ग्यारह की तपश्चर्या निर की जा सकती है।" किन्तु इस विषय में कोई प्रागमप्रमाण उपलब्ध नहीं है तथा ऐसा मानना संगत भी नहीं है, क्योंकि इतनी तपस्या तो भिक्षुप्रतिमा में भी नहीं की जाती है / श्रावक की चौथी प्रतिमा में महीने के छह पौषध करने का विधान है। यदि उपरोक्त कथन के अनुसार तपस्या की जाए तो चार मास में 24 चौले की तपस्या करनी आवश्यक होती है। प्रतिमाधारी के द्वारा तपस्या तिविहार या बिना पौषध के करना भी उचित नहीं है। अत: 24 चौले पौषधयुक्त करना आवश्यक नियम होने पर महीने के छह पौषध का विधान निरर्थक हो जाता है / जब कि तीसरी प्रतिमा से चौथी प्रतिमा की विशेषता भी यही है कि महीने के छह पौषध किये जावें। अत: कल्पित तपस्या का क्रम सूत्रसम्मत नहीं है। आनन्द आदि श्रावकों के अन्तिम साधनाकाल में तथा प्रतिमाअाराधन के बाद शरीर की कृशता का जो वर्णन है वह व्यक्तिगत जीवन का वर्णन है। उसमें भी इस Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठी शा] [49 प्रकार के तप का वर्णन नहीं है। अपनी इच्छा से साधक कभी भी कोई विशिष्ट तप कर सकता है। प्रानन्दादि ने भी कोई विशिष्ट तपश्चर्या साधनाकाल में की होगी, किन्तु ऐसा वर्णन नहीं है। यदि उन्होंने तप किया हो तो भी सब के लिये विधान मानना प्रतिमावर्णन से असंगत है। दशाश्रुतस्कन्ध की पहली दशा से पांचवीं दशा तक की जो रचनापद्धति है और नियुक्तिकार ने पांचवीं गाथा में छोटी-छोटी दशाएँ होने का सूचन किया है। तदनुसार प्रस्तुत संस्करण में इस दशा का स्वीकृत पाठ ही उचित प्रतीत होता है। अत: यहाँ अक्रियावादी और क्रियावादी का वर्णन अप्रासंगिक है, अति विस्तृत है और छेदसूत्र का विषय न होने से अनुपयुक्त भी है / सूयगडांगसूत्र श्रु. 2, अ. 2 का पाठ यहाँ कभी जोड़ दिया गया है / कब जुड़ा है, यह तो अज्ञात है। __ इस दशा की उत्थानिका सातवीं दशा के समान है। यथा "ये ग्यारह उपासक-प्रतिमाएँ स्थविर भगवन्तों ने कही हैं, वे इस प्रकार हैं-इस उत्थानिका के बाद ग्यारह प्रतिमानों के नाम तथा प्रतिमाओं का क्रमशः वर्णन ही उचित प्रतीत होता है, किन्तु इस विस्तृत पाठ के कारण मूलपाठ में नाम भी नहीं रहे हैं, जबकि सातवीं दशा में भिक्षुप्रतिमा के नाम विद्यमान हैं। प्रतिमा धारण करने वाला तो व्रतधारी श्रावक होता ही है। अतः उत्थानिका के बाद प्रक्रियावादी का यह विस्तृत वर्णन सर्वथा असंगत है। इसलिए यहाँ उपरोक्त संक्षिप्त पाठ ही स्वीकार किया गया है / विस्तृत पाठ के जिज्ञासु सूयगडांगसूत्र से अध्ययन कर सकते हैं। इस दशाश्रुतस्कन्ध की उत्थानिकाएं विचित्र ही हैं, अतः ये चौदहपूर्वी भद्रबाहुस्वामी के द्वारा नियंढ हैं, ऐसा नहीं कह सकते / न ही गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा ग्रथित कह सकते हैं और न एक पूर्वधारी देवद्धिगणि द्वारा सम्पादित कह सकते हैं। क्योंकि इन उत्थानिकाओं में भगवान् से कहलवाया गया है कि “इस प्रथम दशा में स्थविर भगवंतों ने बीस असमाधिस्थान कहे हैं इत्यादि / " . जबकि तीर्थकर या केवली किसी छद्मस्थविहित विधि-निषेधों का कथन नहीं करते। पांचवीं दशा की उत्थानिका तो और भी विचारणीय है / इस उत्थानिका के प्रारम्भ में कहा है कि स्थविर भगवंतों ने ये दस चित्तसमाधिस्थान कहे हैं। बाद में कहा-भगवान महावीर ने निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थनियों को आमन्त्रित करके दस चित्तसमाधिस्थान कहे। इस प्रकार एक ही उत्थानिका दो प्रकार के कथन पाठक स्वयं पढ़ें और सोचें कि वास्तविकता क्या है। आठवीं दशा के पाठों में भी जो परिवर्तन के प्रयत्न हुए हैं, वे उसी दशा के विवेचन में देखें तथा आठवीं दशा का और दसवीं दशा का (उपसंहार पाठ) भी विचारणीय है। इन विचित्रताओं को देखकर यह अनुमान किया गया है कि तीन छेदसूत्रों के समान इस सूत्र की पूर्ण मौलिकता वर्तमान में नहीं रही है / अतः मूलपाठ में कुछ संशोधन करने का प्रयत्न किया है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवी दशा बारह भिक्षुप्रतिमाएँ सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमवखायं-इह खलु थेरेहि भगवंतेहिं बारस भिक्खुपडिमानो पण्णत्ताओ। प०–कयराओ खलु ताओ थेरेहि भगवंतेहिं बारस भिक्खुपडिमानो पण्णत्ताओ? उ०-इमाओ खलु तामो थेरेहि भगवंतेहिं बारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा 1. मासिया भिक्खुपडिमा, 2. दोमासिया भिक्खुपडिमा, 3. तिमासिया भिक्खुपडिमा, 4. चउमासिया भिक्खुपडिमा, 5. पंचमासिया भिक्खुपडिमा, 6. छमासिया भिक्खुपडिमा, 7. सत्तमासिया भिक्खुपडिमा, 8. पढमा सत्तराईदिया भिक्खुपडिमा, 9. दोच्चा सत्तराइंदिया भिक्खुपडिमा, 10. तच्चा सत्तराइंदिया भिक्खूपडिमा, 11. अहोराया भिक्खुपडिमा, 12. एगराइया भिक्खुपडिमा। हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है-~-उन निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने ऐसा कहा है-इस जिनप्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने बारह भिक्षुप्रतिमाएँ कही हैं। प्र.--भगवन् ! स्थविर भगवन्तों ने बारह भिक्षुप्रतिमाएँ कौन-सी कही हैं ? उ०-स्थविर भगवन्तों ने बारह भिक्षुप्रतिमाएँ ये कही हैं, यथा 1. मासिको भिक्षुप्रतिमा, 2. द्विमासिक भिक्षुप्रतिमा, 3. त्रिमासिकी भिक्षुप्रतिमा, 4. चातुर्मासिकी भिक्षुप्रतिमा, 5. पंचमासिकी भिक्षुप्रतिमा, 6. षणमासिकी भिक्षुप्रतिमा, 7. सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा, 8. प्रथमा सप्तरात्रिदिवा भिक्षुप्रतिमा, 9. द्वितीया सप्तरात्रिदिवा भिक्षुप्रतिमा, 10. तृतीया सप्तरात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमा, 11. अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा, 12. एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा / प्रतिमा आराधनकाल में उपसर्ग मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स निच्चं वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उववजेज्जा, तं जहा दिग्वा वा, माणुसा वा, तिरिक्खजोणिया वा, ते उप्पण्णे सम्मं सहेज्जा, खमेज्जा, तितिक्खेज्जा, अहियासेज्जा / नित्य शरीर की परिचर्या एवं ममत्वभाव से रहित एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को जो कोई उपसर्ग आवे, जैसे देवसम्बन्धी, मनुष्यसम्बन्धी या तिर्यञ्चसम्बन्धी, उसे वह सम्यक् प्रकार से सहन करे, क्षमा करे, दैन्यभाव नहीं रखे, वीरतापूर्वक सहन करे / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवी दशा [51 मासिकी भिक्षुप्रतिमा मासियं णं भिक्षुपडिम पडिबन्नस्स अणगारस्स कप्पइ एगा दत्ती भोयणस्स पडिगाहित्तए, एगा पाणस्स। अण्णायउञ्छ, सुद्धोवहडं, निज्जूहित्ता बहवे दुप्पय-चउप्पय-समण-माहण-अतिहि-किविणं वणीमगे, कप्पइ से एगस्स भुजमाणस्स पडिगाहित्तए। णो दुण्हं, णो तिण्हं, णो चउण्हं, जो पंचण्हं, णो गुठिवणीए, णो बालवच्छाए, णो दारगं पेज्जमाणोए। णो से कप्पइ अंतो एलुयस्स दो वि पाए साहट्ट दलमाणीए, णो बाहिं एलुयस्स दो वि पाए साहट्ट दलमाणीए। अह पुण एवं जाणेज्जा, एगं पायं अंतो किच्चा, एगं पायं बाहि किच्चा एलयं विक्खंभइत्ता एवं से दलयति, कप्पति से पडिगाहित्तए, एवं से नो दलयति, नो से कप्पति पडिगाहित्तए। मासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को एक दत्ति भोजन की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है। वह भी अज्ञात स्थान से, अल्पमात्रा में और दूसरों के लिए बना हुआ हो तथा अनेक द्विपद, चतुष्पद, श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी आदि भोजन लेकर चले गए हों, उसके बाद ग्रहण करना कल्पता है / जहां एक व्यक्ति भोजन कर रहा हो, वहां से आहार-पानी की दत्ति लेना कल्पता है। किन्तु दो, तीन, चार या पांच व्यक्ति एक साथ बैठकर भोजन करते हों, वहां से लेना नहीं कल्पता है। गर्भिणी, बालवत्सा और बच्चे को दूध पिलाती हुई स्त्री से लेना नहीं कल्पता है। जिसके दोनों पैर देहली के अन्दर या दोनों पैर देहली के बाहर हों, ऐसी स्त्री से लेना नहीं कल्पता है। किन्तु यह ज्ञात हो जाए कि एक पैर देहली के अन्दर है और एक पैर बाहर है, इस प्रकार देहली को पांवों के मध्य में किये हुए हो और वह देना चाहे तो उससे लेना कल्पता है। इस प्रकार न दे तो लेना नहीं कल्पता है / प्रतिमाधारी के भिक्षाकाल मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स तओ गोयरकाला पण्णता, तं जहा१. आइमे, 2. मझे, 3. चरिमे / 1. जइ प्राइमे चरेज्जा; नो मज्झे चरेज्जा, णो चरिमे चरेज्जा। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 [दशा तस्कन्ध 2. य 2. जइ मझे चरिज्जा; नो प्राइमे चरिज्जा, नो चरिमे धरेज्जा। 3. जइ चरिमे चरेज्जा; नो प्राइमे चरेज्जा, नो मज्झिमे चरेज्जा / एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार के भिक्षाचर्या करने के तीन काल कहे हैं, यथा१. दिन का प्रथम भाग, 2. दिन का मध्य भाग, 3. दिन का अन्तिम भाग / 1. यदि दिन के प्रथमभाग में भिक्षाचर्या के लिए जाए तो मध्य और अन्तिम भाग में न जाए। यदि दिन के मध्यभाग में भिक्षाचर्या के लिए जाए तो प्रथम और अन्तिम भाग में न जाए। 3. यदि दिन के अन्तिमभाग में भिक्षाचर्या के लिए तो प्रथम और मध्यम भाग में न जाए। प्रतिमाधारी की गोचरचर्या मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स छविहा गोयरचरिया पण्णत्ता, तं जहा१. पेडा, 2. प्रद्धपोड, 3. गोमुत्तिया, 4. पंतगवीहिया, 5. संबुक्कावट्टा, 6. गंतुपच्चागया। एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार के छः प्रकार की गोचरी कही गई है, यथा 1. चौकोर पेटी के आकार से भिक्षाचर्या करना। 2. अर्धपेटी के आकार से भिक्षाचर्या करना। 3. बैल के मूत्रोत्सर्ग के आकार से भिक्षाचर्या करना। 4. पतंगिये के गमन के आकार से भिक्षाचर्या करना। 5. शंखावर्त के आकार से भिक्षाचर्या करना। 6. जाते या पुनः पाते भिक्षाचर्या करना। प्रतिमाधारी का वसतिवास-काल मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स जत्थ णं केइ जाणइ, कप्पइ से तत्थ एगराइयं वसित्तए। जत्थ णं केइ न जाणइ, कप्पइ से तत्थ एगरायं वा, दुरायं वा वसित्तए / नो से कप्पइ एगरायाश्रो वा, दुरायानो वा परं वत्थए / जे तत्थ एगरायानो वा, दुरायाओ वा परं वसति, से संतरा छेए वा परिहारे वा। एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को जहां कोई जानता हो, वहां एक रात रहना कल्पता है। जहां कोई नींह जानता हो, वहां उसे एक या दो रात रहना कल्पता है / किन्तु एक या दो रात से अधिक रहना नहीं कल्पता है / यदि एक या दो रात से अधिक रहता है तो वह इस कारण से दीक्षाछेद या परिहार तप का पात्र होता है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासवों दशा [53 प्रतिमाधारी की कल्पनीय भाषाएँ मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स कप्पति चत्तारि भासाश्रो भासित्तए, तं जहा--- . 1. जायणी, 2. पुच्छणी, 3. अणुण्णवणी 4. पुट्ठस्स वागरणी। एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को चार भाषाएँ बोलना कल्पता है, यथा 1. याचनी-आहारादि की याचना करने के लिए। 2. पृच्छनी-मार्ग आदि पूछने के लिए। 3. अनुज्ञापनी आज्ञा लेने के लिए। 4. पृष्ठव्याकरणी--प्रश्न का उत्तर देने के लिए। प्रतिमाधारी के कल्पनीय उपाश्रय मासियं णं भिक्खुपडिमं पडियन्नस्स अणगारस्स कप्पइ तओ उवस्सया पडिलेहित्तए, तं जहा 1. अहे पारामगिहंसि वा, 2. अहे वियडगिहंसि वा, 3. अहे रूक्खमूलगिहंसि वा, एवं तओ उवस्सया अणुण्णवेत्तए, उवाइणित्तए य। एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को तीन प्रकार के उपाश्रयों का प्रतिलेखन करना कल्पता है, यथा 1. उद्यान में बने हुए गृह में, 2. चारों ओर से खुले हुए गृह में, 3. वृक्ष के नीचे या वहां बने हुए गृह में / इसी प्रकार तीन उपाश्रय की आज्ञा लेना और ठहरना कल्पता है। प्रतिमाधारी के कल्पनीय संस्तारक मासियं णं भिक्खुपडिम पडिबन्नस्स अणगारस्स कप्पड़ तओ संथारगा पडिलेहित्तए, तं जहा 1. पुढविसिलं वा, 2. कसिलं वा, 3. अहासंथडमेध वा संथारगं / एवं तो संथारगा अणुण्णवेत्तए, उवाइणित्तए य / एकमासिको भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को तीन प्रकार के संस्तारकों का प्रतिलेखन करना कल्पता है, यथा 1. पत्थर की शिला, 2. लकड़ी का पाट, 3. पहले से बिछा हुआ संस्तारक / इसी प्रकार तीन संस्तारक की प्राज्ञा लेना और ग्रहण करना कल्पता है। प्रतिमाधारी को स्त्री-पुरुष का उपसर्ग मासियं गं भिक्खुपडिमं पडिवन्नस्स अणगारस्स इत्थी वा पुरिसे वा उवस्सयं उवागच्छेज्जा, णो से कप्पति तं पडुच्च निक्खमित्तए वा, पविसित्तए वा। एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार के उपाश्रय में यदि कोई स्त्री या पुरुष या जावे तो उनके कारण उपाश्रय से बाहर जाना या बाहर हो तो अन्दर पाना नहीं कल्पता है / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शाश्रुतस्कन्ध प्रतिमाधारी को अग्नि का उपसर्ग मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स केई उवस्सयं अगणिकाएणं शामेज्जा, णो से कप्पति तं पडुच्च निक्खमित्तए वा, पविसित्तए वा। तत्य णं केइ बाहाए गहाय आगसेज्जा, नो से कप्पति तं अवलंबित्तए वा पलंबित्तए वा, कप्पति अहारियं रोइत्तए। ___ एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार के उपाश्रय में कोई अग्नि लगा दे तो उसे उपाश्रय से बाहर जाना या बाहर हो तो अन्दर आना नहीं कल्पता है / यदि कोई उसे भुजा पकड़कर बलपूर्वक बाहर निकालना चाहे तो उसका अवलंबन-प्रलंबन करना नहीं कल्पता है, किन्तु ईर्यासमितिपूर्वक बाहर निकलना कल्पता है। प्रतिमाधारी को ढूंठा आदि निकालने का निषेध मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स पायंसि खाणू वा, कंबए वा, हीरए वा, सक्करए वा अणुपवेसेज्जा, नो से कप्पइ नोहरित्तए वा, विसोहित्तए वा, कप्पति से अहारियं रीइत्तए। एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार के पैर में यदि तीक्ष्ण ठूठ (लकड़ी का तिनका आदि), कांटा, कांच या कंकर लग जावे तो उसे निकालना या उसकी विशुद्धि करना नहीं कल्पता है, किन्तु उसे सावधानी से ईर्यासमितिपूर्वक चलते रहना कल्पता है। प्रतिमाधारी को प्राणी आदि निकालने का निषेध मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स अच्छिसि पाणाणि वा, बोयाणि वा, रए वा परियावज्जेज्जा, नो से कप्पति नीहरित्तए वा, विसोहित्तए था, कप्पति से अहारियं रीइत्तए। एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार की प्रांख में सूक्ष्म प्राणी, बीज, रज आदि गिर जावे तो उसे निकालना या विशुद्ध करना नहीं कल्पता है, किन्तु उसे सावधानी से ईर्यासमितिपूर्वक चलते रहता कल्पता है। सूर्यास्त होने पर विहार का निषेध ___ मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स जत्थेव सूरिए प्रत्यमेज्जा-जलंसि वा, थलंसि वा, दुग्गंसि वा, निण्णंसि वा, पम्वयंसि वा, विसमंसि वा, गड्डाए वा, वरीए वा, कप्पति से तं रयणी तत्थेव उवाइणावित्तए, नो से कप्पति पयमवि गमित्तए। कप्पति से कल्लं पाउप्पभाए रयणीयए जाव जलते पाइणाभिमुहस्स वा, दाहिणाभिमुहस्स वा, पडोणाभिमुहस्स वा, उत्तराभिमुहस्स वा, अहारियं रीइत्तए / एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को विहार करते हुए जहां सूर्यास्त हो जाय, वहां Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवी दशा] [55 चाहे जल हो या स्थल हो, दुर्गमस्थान हो या निम्नस्थान हो, पर्वत हो या विषमस्थान हो, गर्त हो या गुफा हो, तो भी उसे पूरी रात वहीं रहना कल्पता है, किन्तु एक कदम भी आगे बढ़ना नहीं कल्पता है। रात्रि समाप्त होने पर प्रातःकाल में यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख होकर उसे ईर्यासमितिपूर्वक गमन करना कल्पता है / सचित्त पृथ्वी के निकट निद्रा लेने का निषेध मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स णो से कप्पइ अणंतरहियाए पुढवीए निदाइत्तए वा, पयलाइत्तए वा। केवली बूया-"आयाणमेयं"। से तत्थ निद्दायमाणे वा, पयलायमाणे वा हत्थेहि भूमि परामुसेज्जा। [तम्हा] अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए। एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार सूर्यास्त हो जाने के कारण यदि सचित्त पृथ्वी के निकट ठहरा हो तो उसे वहां निद्रा लेना या ऊँघना नहीं कल्पता है। केवली भगवान् ने कहा है-'यह कर्मबन्ध का कारण है'। क्योंकि वहां पर नींद लेता हुया या ऊँघता हुअा वह अपने हाथ आदि से सचित्त पृथ्वी का स्पर्श करेगा, जिससे पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा होगी। अतः उसे सावधानीपूर्वक वहां स्थिर रहना या कायोत्सर्ग करना कल्पता है / मलावरोध का निषेध उच्चारपासवणेणं उन्बाहिज्जा, नो से कप्पति उगिण्हित्तए वा, णिगिण्हित्तए वा। कम्पति से पुन्यपडिलेहिए थंडिले उच्चार-पासवणं परिट्ठावित्तए, तमेव उवस्सयं आगम्म अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए। यदि वहां उसे मल-मूत्र की बाधा हो जाए तो धारण करना या रोकना नहीं कल्पता है। किन्तु पूर्वप्रतिलेखित भूमि पर मल-मूत्र का त्याग करना कल्पता है और पुनः उसी स्थान पर आकर सावधानी पूर्वक स्थिर रहना या कायोत्सर्ग करना कल्पता है। सचित्त रजयुक्त शरीर से गोचरी जाने का निषेध मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स नो कप्पति ससरखेणं काएणं गाहावइकुलं भत्ताए वा, पाणाए वा निक्खमित्तए वा, पविसित्तए वा। अह पुण एवं जाणेज्जा ससरक्खे सेयत्ताए वा, जल्लत्ताए वा, मल्लताए वा, पंकत्ताए वा परिणते, एवं से कप्पति गाहावइकुलं भत्ताए वा, पाणाए वा निक्खमित्तए वा, पविसित्तए वा। For Priyate & Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शाश्रुतस्कन्ध एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को सचित्त रजयुक्त काय से गृहस्थों के घरों में पाहार-पानी के लिए जाना या आना नहीं कल्पता है। यदि यह ज्ञात हो जाये कि शरीर पर लगा हुआ सचित्त रज-पसीना, सूखा पसीना, मैल या पंक रूप में परिणत हो गया हो तो उसे गृहस्थों के घरों में आहार-पानी के लिए जाना-माना कल्पता है। हस्ताादि धोने का निषेध ___ मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स नो कप्पति सीओदगवियडेण वा, उसिणोदगवियडेण वा, हत्थाणि वा, पायाणि वा, वंताणि वा, अच्छीणि वा, मुहं वा उच्छोलित्तए वा, पधोइत्तए वा। नन्नत्थ लेवालेवेण वा भत्तमासेण वा / एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को अचित्त शीतल या उष्ण जल से हाथ, पैर, दांत, नेत्र या मुख एक बार धोना अथवा बार-बार धोना नहीं कल्पता है। किन्तु किसी प्रकार के लेप युक्त अवयव को और आहार से लिप्त हाथ आदि को धोकर शुद्ध कर सकता है। दुष्ट अश्वादि का उपद्रव होने पर भयभीत होने का निषेध मासियं णं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स नो कप्पति पासस्स वा, हथिस्स वा, गोणस्स वा, महिसस्स वा, सीहस्स वा, वग्धस्स वा, विगस्स वा, दीवियस्स वा, अच्छस्स वा, तरच्छस्स वा, परासरस्स वा, सीयालस्स वा, विरालस्स वा, कोकंतियस्स वा, ससगस्स वा, चित्ताचिल्लडयस्स वा, सुणगस्स वा, कोलसुणगस्स वा, दुट्ठस्स आवयमाणस्स पयमवि पच्चोसक्कित्तए। अदुट्ठस्स प्रावयमाणस्स कप्पइ जुगमित्तं पच्चोसकित्तए। ___ एकमासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार के सामने अश्व, हस्ती, वृषभ, महिष, सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, चीता, रीछ, तेंदुआ, अष्टापद, शृगाल, बिल्ला, लोमड़ा, खरगोश, चिल्लडक, श्वान, जंगली शूकर आदि दुष्ट प्राणी आ जाये तो उससे भयभीत होकर एक पैर भी पीछे हटना नहीं कल्पता है। यदि कोई दुष्टता रहित पशु स्वाभाविक ही मार्ग में सामने आ जाए तो उसे मार्ग देने के लिए युगमात्र अर्थात् कुछ अलग हटना कल्पता है / सर्दी और गर्मी सहन करने का विधान मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स नो कप्पति छायानो “सोयं ति" नो उण्हं एत्तए, उहाओ "उण्हं ति" छायं एत्तए / जं जत्थ जया सिया तं तत्थ अहियासए। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवीं दशा [57 एक मासिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार को—'यहां शीत अधिक है' ऐसा सोचकर छाया से धूप में तथा 'यहां गर्मी अधिक है' ऐसा सोचकर धूप से छाया में जाना नहीं कल्पता है। ___ किन्तु जब जहां जैसा हो वहां उसे सहन करे। भिक्षुप्रतिमाओं का सम्यग् आराधन एवं खलु एसा मासिया भिक्खुपडिमा अहासुत्तं, अहाकप्पं, प्रहामग्गं, प्रहातच्चं, सम्मं कारणं फासित्ता, पालित्ता, सोहिता, तोरित्ता, किट्टइत्ता, पाराहिता, आणाए अणुपालिता भवइ / ___ इस प्रकार यह एक मासिकी भिक्षुप्रतिमा सूत्र, कल्प और मार्ग के अनुसार यथातथ्य सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श कर, पालन कर, शोधन कर, पूर्ण कर, कीर्तन कर और आराधन कर जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। द्विमासिको भिक्षप्रतिमा दो-मासियं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ / नवरं दो बत्तिनो भोयणस्स पडिगाहित्तए दो पाणस्स / द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार के द्वारा यावत् वह प्रतिमा जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन दो दत्तियां आहार की और दो दत्तियां पानी की ग्रहण करना कल्पता है / त्रैमासिकी भिक्षुप्रतिमा ति-मासियं भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स जाव प्राणाए अणुपालित्ता भवइ / गवरं तओ दत्तियो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, तओ पाणस्स / तीन मास की भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार के द्वारा यावत् वह प्रतिमा जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन तीन दत्तियां भोजन की और तीन दत्तियां पानी की ग्रहण करना कल्पता है। चातुर्मासिको भिक्षुप्रतिमा चउमासियं भिक्खुपडिम पडियन्नस्स अणगारस्स जाव प्राणाए अणुपालित्ता भवइ / णवरं चत्तारि दत्तिओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, चत्तारि पाणस्स। चार मास की भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार के द्वारा यावत् वह प्रतिमा जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन चार दत्तियां प्राहार की और चार दत्तियां पानी की ग्रहण करना कल्पता है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वशाभुतस्कन्ध पंचमासिको भिक्षुप्रतिमा पंचमासियं भिक्खुपडिमं पडियन्नस्स अणगारस्स जाव आणाए अणपालित्ता भवइ / णवरं पंच दत्तिओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, पंच पाणस्स। पांच मास की भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार के द्वारा यावत् वह प्रतिमा जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन भोजन की पांच दत्तियां और पानी की पांच दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। पाण्मासिको भिक्षुप्रतिमा छमासियं भिक्खुपडिमं पडिवनस्स अणगारस्स जाव प्राणाए अणुपालिता भवइ / णवरं छ दत्तोपो भोयणस्स पडिगाहेत्तए, छ पाणस्स। छह मास की भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार के द्वारा यावत् वह प्रतिमा जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन भोजन की छह दत्तियां और पानी की छह दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा सत्तमासियं भिक्खुपडिमं पतिवन्नस्स प्रणगारस्स जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ / णवरं सत्त दत्तीओ भोयणस्स पडिगाहेत्तए, सत्त पाणस्स / सात मास की भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार के द्वारा यावत् वह प्रतिमा जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है। विशेष यह है कि उसे प्रतिदिन भोजन की सात दत्तियां और पानी को सात दत्तियां ग्रहण करना कल्पता है। प्रथम सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा पढमं सत्तराइंदियं भिक्खुपडिमं पडियन्नस्स अणगारस्स जाव अहियासेज्जा। कप्पइ से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणीए वा उत्ताणस्स वा, पासिल्लगस्स वा, नेसिज्जयस्स वा ठाणं ठाइत्तए। तत्थ से दिव्वमाणुस्सतिरिक्खजोणिया उवसग्गा समुप्पज्जेज्जा, ते णं उपसग्गा पयलेज्ज वा, पवडेज्ज वा, णो से कप्पइ पयलित्तए वा पवडित्तए वा। तत्थ णं उच्चारपासवणेणं उम्बाहिज्जा, णो से कप्पइ उच्चारपासवणं उगिण्हित्तए वा, णिगिहित्तए वा कप्पइ से पुवपडिलेहियंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिटुवित्तए, अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए। एवं खलु एसा पढमा सत्तराईविया भिक्खुपडिमा प्रहासुत्तं जाव आणाए अणपालिता भवइ / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवों वशा] प्रथम सात दिन-रात की भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार यावत् शारीरिक सामर्थ्य से सहन करे। उसे निर्जल उपवास करके ग्राम यावत् राजधानी के बाहर उत्तानासन, पासिन या निषद्यासन से कायोत्सर्ग करके स्थित रहना चाहिए। - वहाँ यदि देव, मनुष्य या तिथंच सम्बन्धी उपसर्ग हों और वे उपसर्ग उस अनगार को ध्यान से विचलित करें या पतित करें तो उसे विचलित होना या पतित होना नहीं कल्पता है। यदि मल-मूत्र की बाधा हो जाय तो उसे धारण करना या रोकना नहीं कल्पता है, किन्तु पूर्व प्रतिलेखित भूमि पर मल-मूत्र त्यागना कल्पता है। पुनः यथाविधि अपने स्थान पर पाकर उसे कायोत्सर्ग करना कल्पता है। ___ इस प्रकार यह प्रथम सात दिन-रात की भिक्षुप्रतिमा यथासूत्र यावत् जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। द्वितीय सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एवं दोच्चा सत्तराइंदिया वि। नवरं-दंडाइयस्स वा, लगडसाइस्स वा, उक्कुडुयस्स वा ठाणं ठाइत्तए / सेसं तं चेव जाव प्राणाए अणुपालित्ता भवइ / इसी प्रकार दूसरी सात दिन-रात की भिक्षुप्रतिमा का भी वर्णन है। विशेष यह है कि इस प्रतिमा के आराधनकाल में दण्डासन, लकुटासन अथवा उत्कुटुकासन से स्थित रहना चाहिए / शेष पूर्ववत् यावत् जिनाज्ञा के अनुसार (यह प्रतिमा) पालन की जाती है। तृतीय सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एवं तच्चा सत्तराईदिया वि। नवरं-गोदोहियाए वा, धीरासणीयस्स वा, अंबखुज्जस्स वा ठाणं इत्तए / सेसं तं चेव जाब अणुपालित्ता भवइ / इसी प्रकार तीसरी सात दिन-रात की भिक्षुप्रतिमा का भी वर्णन है / विशेष यह है कि इस प्रतिमा के आराधनकाल में गोदोहनिकासन, वीरासन या प्राम्रकुब्जासन से स्थित रहना चाहिए। शेष पूर्ववत् यावत् यह प्रतिमा जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एवं अहोराइयावि। नवरं-छठेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणिस्स वा ईसि पभारगएणं काएणं दो वि पाए साहटु वग्धारियपाणिस्स ठाणं ठाइत्तए / सेसं तं चेव जाव अणुपालित्ता भवइ / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शातस्कन्ध अर्थ-इसी प्रकार अहोरात्रिको प्रतिमा का भी वर्णन है। विशेष यह है कि निर्जल षष्ठभक्त करके ग्राम यावत् राजधानी के बाहर शरीर को थोड़ासा झुकाकर दोनों पैरों को संकुचित कर और दोनों भुजाओं को जानुपर्यन्त लम्बी करके कायोत्सर्ग करना चाहिए / शेष पूर्ववत् यावत् यह प्रतिमा जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है। एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एगराइयं भिक्खुपडिम पडिवनस्स प्रणगारस्स जाव अहियासेज्जा। . कप्पड़ से अट्ठमेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स वा जाव रायहाणिस्स वा ईसि पन्भारगएणं कारणं एगपोग्गलट्ठिताए दिट्ठीए अणिमिसनयणेहिं अहापणिहितेहि गतेहिं सम्विविएहि गुहिं दो वि पाए साहट्ट बग्धारियपाणिस्स ठाणं ठाइत्तए / तत्थ से दिव्वमाणुस्सतिरिक्खजोणिया उपसग्गा समुप्पज्जेज्जा, ते णं उत्सग्गा पयलेज्ज वा, पवडेज्ज वा, नो से कप्पइ पयलितए वा, पवडित्तए वा। तत्य णं उच्चारपासवणेणं उव्वाहिज्जा, नो से कप्पइ उच्चारपासवणं उगिहित्तए वा, णिगिण्हित्तए वा। कप्पइ से पुष्वपडिलेहियंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं परिदृवित्तए, महाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए। एगराइयं भिक्खुपडिमं सम्म अणणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा अहियाए, असुभाए, अक्खमाए अणिस्सेयसाए, अणणुगामियत्ताए भवंति, तं जहा 1. उम्मायं वा लभेज्जा, 2. दोहकालियं वा रोगायक पाउणिज्जा, 3. केवलिपण्णत्तानो वा धम्माओ भंसिज्जा। एगराइयं भिक्खुपडिमं सम्म अणुपालेमाणस्स अणगारस्स इमे तओ ठाणा हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेयसाए, अणुगामियत्ताए भवंति / तं जहा 1. ओहिनाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, 2. मणपज्जवनाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, 3. केवलनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा। एवं खलु एगराइयं भिक्खुपडिम प्रहासुतं, अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं, सम्मं कारणं फासित्ता, पालित्ता, सोहित्ता, तीरित्ता, किट्टित्ता, आराहित्ता, आणाए अणुपालिता या वि भवति / एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमाधारी अनगार यावत् शारीरिक क्षमता से उसे सहन करे। उसे निर्जल अष्टमभक्त करके ग्राम यावत् राजधानी के बाहर शरीर को थोड़ा-सा आगे की ओर झुकाकर, एक पदार्थ पर दृष्टि स्थिर रखते हुए अनिमेष नेत्रों से और निश्चल अंगों से सर्व इन्द्रियों को गुप्त रखते हुए दोनों पैरों को संकुचित कर एवं दोनों भुजाओं को जानुपर्यन्त लम्बी करके कायोत्सर्ग से स्थित रहना चाहिये। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवी दशा [61 वहां यदि देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्ग हों और वे उपसर्ग उस अनगार को ध्यान से विचलित करें या पतित करें तो उसे विचलित होना या पतित होना नहीं कल्पता है। यदि मल-मूत्र की बाधा हो जाय तो उसे धारण करना या रोकना नहीं कल्पता है, किन्तु पूर्व प्रतिलेखित भूमि पर मल-मूत्र त्यागना कल्पता है। पुनः यथाविधि अपने स्थान पर आकर उसे कायोत्सर्ग करना कल्पता है। एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा का सम्यक् प्रकार से पालन न करने पर अनगार के लिए ये तीन स्थान अहितकर, अशुभ, असामर्थ्यकर, अकल्याणकर एवं दुःखद भविष्य वाले होते हैं, यथा 1. उन्माद की प्राप्ति, 2. चिरकालिक रोग एवं आतंक की प्राप्ति, 3. केवलीप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट होना। एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाले वाले अनगार के लिए ये तीन स्थान हितकर, शुभ, सामर्थ्यकर, कल्याणकर एवं सुखद भविष्य वाले होते हैं, यथा१. अवधिज्ञान की उत्पत्ति, 2. मनःपर्यवज्ञान की उत्पत्ति, 3. अनुत्पन्न केवलज्ञान की उत्पत्ति / इस प्रकार यह एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग और यथातथ्य रूप से सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श कर, पालन कर, शोधन कर, पूर्ण कर, कीर्तन कर और आराधन कर जिनाज्ञा के अनुसार पालन की जाती है / विवेचन-संयम की उत्कृष्ट आराधना करते हुए योग्यताप्राप्त गीतार्थ भिक्षु कर्मों की विशेष निर्जरा करने के लिये बारह भिक्षुप्रतिमायें स्वीकार करता है। इस दशा में बारह प्रतिमाओं के नाम दिये गये हैं। टीकाकार ने इनकी व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया है कि "दो मासिया, ति मासिया" इस पाठ से "द्वितीया एकमासिकी, तृतीया एकमासिकी" इस प्रकार अर्थ करना चाहिये। क्योंकि इन प्रतिमाओं का पालन निरन्तर शीत और ग्रीष्म काल के पाठ मासों में ही किया जाता है। चातुर्मास में इन प्रतिमाओं का पालन नहीं किया जाता। पूर्व की प्रतिमाओं के एक, दो मास भी आगे की प्रतिमाओं में जुड़ जाते हैं, अतः "द्विमासिकी, त्रिमासिकी" कहना भी असंगत नहीं है / यदि ऐसा अर्थ न करें तो प्रथम वर्ष में तीन प्रतिमा पालन करके छोड़ना होगा, दूसरे वर्ष में चौथी प्रतिमा पालन करके छोड़ना होगा, इस प्रकार बीच में छोड़ते हुए पांच वर्ष में प्रतिमाओं का आराधन करना उचित नहीं कहा जा सकता। टीकानुसार उपरोक्त अर्थ करना ही संगत प्रतीत होता है / अतः दूसरी प्रतिमा से सातवी प्रतिमा तक के नाम इस प्रकार समझना 1. एकमासिकी दूसरी भिक्षुप्रतिमा, 2. एकमासिकी तीसरी भिक्षुप्रतिमा, 3. एकमासिकी चौथी भिक्षुप्रतिमा, 4. एकमासिकी पांचवी भिक्षुप्रतिमा, 5. एकमासिकी छट्ठी भिक्षुप्रतिमा, 6. एकमासिकी सातवीं भिक्षुप्रतिमा। पू. आचार्य श्री आत्माराम जी म. संपादित दशाश्रुतस्कंध में ऐसा ही छाया, अर्थ एवं विवेचन किया है। पहली प्रतिमा से सातवी प्रतिमा तक भिक्षु की एक-एक दत्ति बढ़ती है। आठवीं से बारहवीं प्रतिमा तक दत्ति का कोई परिमाण नहीं कहा गया है। अतः उन प्रतिमाओं में पारणे के दिन Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] [दशाश्रुतस्कन्ध आवश्यकतानुसार प्राहार-पानी की दत्ति ग्रहण की जा सकती है। इसके सिवाय सभी प्रतिमाधारी के पालन योग्य सोलह सामान्य नियम हैं, जो प्रथम प्रतिमा के वर्णन में कहे गये हैं 1. भिक्षादाता का एक पैर देहली के अन्दर हो और एक पैर देहली के बाहर हो; पात्र में एक व्यक्ति का ही भोजन हो, गर्भवती, छोटे बच्चे वाली या स्तनपान कराती हुई स्त्री न हो तथा उस समय अन्य कोई भिक्षाचर भ्रमण न कर रहे हों तो भिक्षा ग्रहण करना कल्पता है। 2. यदि 12 घण्टों का दिन हो तो 4-4 घण्टों के तीन विभाग करें। प्रथम विभाग-सुबह 6 बजे से 10 बजे तक, दूसरा विभाग-दोपहर 10 बजे से 2 बजे तक, तीसरा विभाग-२ बजे से 6 बजे तक / इन तीन विभागों में से किसी एक विभाग में ही भिक्षाचरी ग्रहण करना तथा खाना कल्पता है, शेष दो विभागों में नहीं कल्पता है। 3. गोचरी के लिए भ्रमण करने के छह प्रकारों में से किसी एक प्रकार से गोचरी करने का निश्चय कर लेने पर ही गोचरी जाना कल्पता है। 4. प्रतिमा आराधनकाल में भिक्षु एक या दो दिन से अधिक किसी ग्रामादि में नहीं ठहर सकता है, निरन्तर पाठ मास तक विचरण करता ही रहता है। इस मर्यादा का उल्लंघन करने पर उसे तप या छेद का प्रायश्चित्त पाता है। इस कारण से ही ये प्रतिमाएँ चातुर्मासकाल के सिवाय पाठ मास में ही प्रारम्भ करके पूर्ण कर ली जाती हैं। 5. प्रतिमाधारी भिक्षु आठ मास तक सूत्रोक्त चार कारणों के अतिरिक्त मौन रह कर ही व्यतीत करता है / जब कभी बोलता है तो सीमित बोलता है। चलते समय बोलना आवश्यक हो तो रुककर बोल सकता है / प्रतिमाराधनकाल में विचरण करते हुए वह धर्मोपदेश नहीं देता है। क्योंकि प्रत्येक विशिष्ट साधना में मौन को ही ध्यान व प्रात्मशान्ति का मुख्य साधन माना गया है। इसलिए प्रतिमाधारी भिक्षु निवृत्त होकर अकेला ही साधना करता है। 6. प्रतिमाधारी भिक्षु ग्रामादि के बाहर-१. बगीचे में, 2. चौतरफ से खुले मकान में अथवा 3. वृक्ष के नीचे ठहर सकता है / इन तीन स्थानों के सिवाय उसे कहीं भी ठहरना नहीं कल्पता है। सूत्र में “अहे" शब्द है, इसका यहां यह अर्थ है कि ठहरने का स्थान यदि चौतरफ से खुला भी हो किन्तु ऊपर से पूर्ण आच्छादित होवे, ऐसे स्थान में ही भिक्षु निवास करे। वृक्ष कहीं सघन छाया वाला होता है और कहीं विरल छाया वाला होता है / अतः विवेकपूर्वक आच्छादित स्थान में रहे। 7. प्रतिमाधारी भिक्षु भूमि पर या काष्ठ के पाट आदि पर अपना पासन आदि बिछाकर बैठ सकता है या सो सकता है। तृणादि के संस्तारक यदि बिछाये हुए मिल जाएं तो आज्ञा लेकर पहले उसकी प्रतिलेखना करे और बाद में उसको उपयोग में ले / अन्य स्थान से याचना करके लाना उसे नहीं कल्पता है। 8. प्रतिमाधारी भिक्षु ग्रामादि से बाहर बगीचे में, खुले मकान में या वृक्ष के नीचे एकान्त स्थान देखकर ठहरा हो और बाद में वहां कोई भी स्त्री या पुरुष आकर ठहर जाय तथा बातचीत या Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवी दशा] कोई भी प्रवृत्ति करे तो उनके निमित्त से स्थान परिवर्तन करना उसे नहीं कल्पता है। किन्तु संकल्पविकल्पों का त्याग करके एकाग्रचित्त से ध्यान में तल्लीन होकर समय व्यतीत करना कल्पता है तथा निर्धारित समय पर वहां से विहार करना कल्पता है / 9. प्रतिमाधारी भिक्षु जहां ठहरा हो वहां यदि कोई आग लगा दे तो उसे स्वतः या किसी के कहने से स्थान परिवर्तन करना नहीं कल्पता है, किन्तु संकल्प-विकल्पों का त्याग कर धैर्य के साथ प्रात्मध्यान में तल्लीन रहना कल्पता है। यदि कोई व्यक्ति दयाभाव से उसे पकड़ कर बलात निकाले तो वह निकालने वाले का किसी प्रकार से विरोध न करे किन्तु स्वतः ईर्यासमिति पूर्वक निकल जावे।। 10-11. प्रतिमाधारी भिक्षु के पांव में कांटा आदि लग जाय या अांख में रज आदि पड़ जाय तो उसे निकालने के लिये कुछ भी प्रयास करना नहीं कल्पता है / यदि कोई निकालने का प्रयत्न करे तो उसका प्रतीकार करना भी नहीं कल्पता है / माध्यस्थ भाव धारण करके विचरना कल्पता है / ग्यारहवें नियम में प्रतिमाधारी भिक्षु को अांख में से त्रस प्राणी निकालने का निषेध किया गया है, इस नियम में भी शरीर के प्रति निरपेक्षता एवं सहनशीलता का ही लक्ष्य है। भिक्षु उस प्राणी के जीवित रहने तक आँखों की पलकें भी नहीं पड़ने देता है, जिससे वह स्वयं निकल जाता है / यदि वह नहीं निकल पा रहा हो तो उसकी अनुकम्पादृष्टि से प्रतिमाधारी भिक्षु निकाल सकता है / यथा-मार्ग में पशु भयभीत हो तो मार्ग छोड़ सकता है / इस प्रकार इन नियमों में प्रतिमाधारी के दृढमनोबली और कष्टसहिष्णु होते हुए शरीर के ममत्व व शुश्रूषा का त्याग करना सूचित किया गया है। इनमें जीवरक्षा का अपवाद स्वतः समझ लेना चाहिए। 12. तीन प्रकार के ठहरने का स्थान न मिले और सूर्यास्त का समय हो जाय तो सूर्यास्त के पूर्व ही योग्य स्थान देखकर रुक जाना कल्पता है। वह स्थान आच्छादित हो या खुला आकाश वाला हो तो भी सूर्यास्त के बाद एक कदम भी चलना नहीं कल्पता है। ऐसी स्थिति में यदि भिक्षु के ठहरने के आस-पास की भूमि सचित्त हो तो उसे निद्रा या ऊँघ लेना नहीं कल्पता है / सतत सावधानीपूर्वक जागत रहते हुए स्थिर आसन से रात्रि व्यतीत करना कल्पता है / मल-मूत्र की बाधा हो तो यतनापूर्वक पूर्व प्रतिलेखित भूमि में जा सकता है और परठ कर पुनः उसी स्थान पर पाकर उसे स्थित होना कल्पता है। - सूत्र में खुले आकाश वाले स्थान के लिये ही "जलंसि" शब्द का प्रयोग किया गया है क्योंकि खुले स्थान में निरन्तर सूक्ष्म जलवृष्टि होना भगवतीसूत्र श. 1, उ. 6 में कहा है / अतः उस शब्द से नदी तालाब आदि जलाशय नहीं समझना चाहिये। बृहत्कल्पसूत्र उ. 2 में ऐसे स्थान के लिए "अब्भावगासियंसि" शब्द का प्रयोग है। 13. प्रतिमाधारी भिक्षु के कभी कहीं हाथ पैर आदि पर सचित्त रज लग जाए तो उसका प्रमार्जन करना नहीं कल्पता है और स्वतः पसीने आदि से रज अचित्त न हो जाय तब तक गोचरी जाना नहीं कल्पता है किन्तु स्थिरकाय होकर खड़े रहना कल्पता है / Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] [वशाभूतस्कन्ध 14. प्रतिमाधारी भिक्षु को हाथ पैर मुह आदि को अचिस जल से धोना भी नहीं कल्पता है। किन्तु अशुचि के लेप को दूर कर सकता है तथा भोजन के बाद हाथ मुंह को धो सकता है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सामान्य भिक्षु को भी उक्त दो कारणों के बिना हाथ पैर आदि धोना नहीं कल्पता है तो प्रतिमाधारी के लिये इस नियम में क्या विशेषता है ? इसका समाधान यह है कि सामान्य भिक्ष अपवाद सेवन कर सकता है किन्तु प्रतिमाधारी अपवाद सेवन नहीं कर सकता है। सामान्य भिक्ष आपवादिक स्थिति में रोगोपशांति के लिये औषध सेवन और अंगोपांग पर जलसिंचन या उनका प्रक्षालन भी कर सकता है। 15. प्रतिमाधारी भिक्षु के सामने यदि कोई उन्मत्त पशु आवे तो भयभीत होकर मार्ग छोड़ना नहीं कल्पता है / अपितु धैर्य के साथ चलते रहना कल्पता है तथा किसी शांत पशु को मार्ग देने के लिये उसे एक तरफ होकर चलना कल्पता है। 16. प्रतिमाधारी भिक्षु को चलते समय या बैठे हुए गर्मी या सर्दी से बचने के लिये किसी प्रकार का संकल्प या प्रयत्न करना नहीं कल्पता है किन्तु जहां जिस अवस्था में है, वहां वैसी ही स्थिति में समभाव पूर्वक स्थिरचित्त से सहनशील होकर रहना कल्पता है। यद्यपि संयमसाधना के लिये उद्यत प्रत्येक भिक्षु को धैर्य रखना तथा निस्पृह होकर शरीर की शुश्रूषा न करना आवश्यक है, किन्तु प्रतिमाधारी के लिये तो उक्त दोनों अनिवार्य नियम हैं / उपरोक्त सोलह नियमों में कई नियम तो मानो धैर्य की परीक्षा के लिये ही हैं, यथा--- अग्नि में जलते समय बाहर निकलने का संकल्प भी नहीं करना, सिंह आदि के सामने आने पर भी मार्ग न छोड़ना, आँखों में गिरी हुई रज आदि का शोधन नहीं करना, पांव में लगे कांच प्रादि को नहीं निकालते हुए ईर्यासमिति पूर्वक आठ मास तक विहार करते रहना इत्यादि / प्रतिमा-पाराधनाकाल में उक्त उपसर्ग आवे या न भी आवे, किन्तु भिक्षाप्राप्ति का कठोरतम नियम निरन्तर आठ महिनों के लिये अत्यन्त दुष्कर है। लम्बी तपश्चर्या करना फिर भी सरल हो सकता है किन्तु एक पांव देहली के अंदर और एक पांव बाहर तथा एक व्यक्ति के खाने लायक भोजन में से ही लेना इत्यादि विधि से आहार का या अचित्त पानी का मिलना अत्यन्त दुर्लभ ही होता है। ऐसी भूख-प्यास सहन करते हुए भी सदा भिक्षा के लिये घूमना तथा एक या दो रात्रि रुकते हुए आठ मास तक विहार करते रहना अत्यन्त कठिन है / इसीलिये भिक्षुप्रतिमा-आराधन के लिये प्रारम्भ के तीन संहनन, 20 वर्ष की संयमपर्याय, 29 वर्ष की उम्र तथा जघन्य ९वें पूर्व की तीसरी प्राचारवस्तु का ज्ञान होना आवश्यक है। अनेक प्रकार की साधनाएं व अभ्यास भी प्रतिमा धारण के पूर्व किये जाते हैं। उनमें उत्तीर्ण होने पर प्रतिमा धारण के लिये आज्ञा मिलती है। अतः वर्तमान में इन भिक्षुप्रतिमाओं का पाराधन नहीं किया जा सकता है अर्थात् इनका विच्छेद माना गया है। इन भिक्षप्रतिमाओं में पहली से सातवी प्रतिमा तक उपवास आदि तपस्या का कोई आवश्यक नियम नहीं है, फिर भी इच्छानुसार तप करने का निषेध भी नहीं समझना चाहिये। For Private & Personal.Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवी दशा] [65 आठवीं नवमी और दसवी प्रतिमा के एक-एक सप्ताह मिलाकर तीन सप्ताह तक एकांतर उपवास करना आवश्यक होता है तथा पारणे में प्रायम्बिल किया जाता है / दत्ति संख्या की मर्यादा को छोडकर भिक्षr के व अन्य सभी नियम पर्व प्रतिमा के समान पालन करने होते हैं। उपवास के दिन चारों आहार का त्याग करके सूत्रोक्त किसी एक प्रासन से ग्रामादि के बाहर पूर्ण दिन-रात स्थिर रहना होता है। तीनों प्रतिमाओं में केवल प्रासन का अंतर होता है। ___ आठवीं और नवमी प्रतिमा का प्रथम प्रासन "उत्तानासन" और "दंडासन" है। ये दोनों आकाश की तरफ मुख करके सोने के हैं, किंतु इनमें अंतर यह है कि उत्तानासन में हाथ पांव आदि फैलाये हुए या अन्य किसी भी अवस्था में रह सकते हैं और दंडासन में मस्तक से पांव तक पूरा शरीर दंड के समान सीधा लम्बा रहता है और हाथ पैर अंतर रहित रहते हैं। इसी प्रकार उक्त दोनों प्रतिमाओं का द्वितीय प्रासन “एक पाश्र्वासन" और 'लकुटासन' है। ये दोनों एक पसवाडे (करवट) से सोने के है किंतु इनमें अंतर यह है कि “एक पाश्र्वासन" में भूमि पर एक पार्श्व भाग से सोना होता है और लकुटासन में करवट से सोकर मस्तक एक हथेली पर टिकाकरऔर पांव पर पांव चढ़ाकर लेटे रहना होता है / इस प्रकार इसमें मस्तक और एक पांव भूमि से ऊपर रहता है। दोनों प्रतिमाओं का तृतीय आसन “निषद्यासन" और "उत्कुटुकासन" है। ये दोनों बैठने के आसन हैं / निषद्यासन में पलथी लगाकर पर्यंकासन से सुखपूर्वक बैठा जाता है और "उत्कुटुकआसन" में दोनों पांवों को समतल रख कर उन पर पूरे शरीर को रखते हुए बैठना होता है / यह उत्कृष्ट गुरुवंदन का पासन है। ___ दसवी प्रतिमा के तीनों आसनों की यह विशेषता है कि वे न बैठने के, न सोने के और न सीधे खड़े रहने के हैं किन्तु बैठने तथा खड़े रहने के मध्य की अवस्था के हैं। प्रथम गोदुहासन में पूरे शरीर को दोनों पांवों के पंजों पर रखना पड़ता है। इसमें जंघा उरु आपस में मिले हुए रहते हैं और दोनों नितम्ब एडी पर टिके हुए रहते हैं। दूसरे वीरासन में पूरा शरीर दोनों पंजों के आधार पर तो रखना पड़ता है किन्तु इसमें नितम्ब एडी से कुछ ऊपर उठे हुए रखने पड़ते हैं तथा जंघा और उरु में भी कुछ दूरी रखनी पड़ती है। इस प्रकार कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के नीचे से कुर्सी निकाल देने पर जो प्राकार अवस्था उसकी होती है वैसा ही लगभग इस आसन का आकार समझना चाहिये। तीसरा प्रासन आम्रकुब्जासन है तथा विकल्प से इसका अंतकुब्जासन नाम और व्याख्या भी उपलब्ध है। इस आसन में भी पूरा शरीर तो पैरों के पंजों पर रखना पड़ता है, घुटने कुछ टेढ़े रखने होते हैं, शेष शरीर का सम्पूर्ण भाग सीधा रखना पड़ता है। जिस प्रकार आम ऊपर से गोल और नीचे से कुछ टेढ़ा होता है इसी प्रकार यह प्रासन किया जाता है / किसी भी एक आसन से 24 घंटे रहना यद्यपि कठिन है, फिर भी दसवीं प्रतिमा के तीनों आसन तो अत्यन्त कठिन हैं / सामान्य व्यक्ति के लिये तो इन आसनों में एक घंटा रहना भी अशक्य होता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 / [दशाभुतस्कन्ध आठवें महिने के बावीसवें दिन, पूर्व प्रतिमा के उपवास का पारणा कर, तेवीसवें दिन उपवास करके, चौवीसवें दिन बेला करके ग्यारहवीं प्रतिमा का पालन किया जाता है / बेले में दिन रात सीधे खड़ रहकर कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग में हाथों को शरीर से सटाकर जानू पर्यंत सीधे रखना, दोनों पांवों को संकुचित करना, वक्षस्थल और मुख कुछ आगे झुकाकर सीधे खड़े रहना होता है। इस प्रकार अहोरात्रि के कायोत्सर्ग से इस प्रतिमा का पाराधन किया जाता है, शेष सभी वर्णन पूर्व प्रतिमाओं के समान है। पच्चीसवें दिन बेले का पारणा करके, छब्बीसवें, सत्तावीसवें और अट्ठावीसवें इन तीन दिनों में तेला किया जाता है। तेले के दिन अर्थात् तीसरे दिन सम्पूर्ण रात्रि का कायोत्सर्ग करके बारहवीं प्रतिमा का पालन किया जाता है / कायोत्सर्ग की विधि ग्यारहवीं प्रतिमा के समान है किन्तु इस प्रतिमा में सारी रात एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर रखना, आँखों की पलकें भी नहीं झपकाना अंगोपांगों को सर्वथा स्थिर रखना, सभी इन्द्रियों को अपने विषय से निवृत्त रखना तथा किसी प्रकार का उपसर्ग होने पर किंचित् भी कायोत्सर्ग मुद्रा से विचलित न होना, यह इस बारहवीं प्रतिमा की विशेषता है। आठवीं से बारहवीं भिक्षुप्रतिमा तक के कायोत्सर्गों में मल-मूत्र की बाधा होने पर भिक्षु कायोत्सर्ग अवस्था छोड़कर पूर्व प्रतिलेखित भूमि में जाकर मल-मूत्र का त्याग करके पुनः उसी स्थान पर आकर उसी आसन या मुद्रा में स्थित हो सकता है। ऐसी उग्रतम साधना में भी शरीर के स्वाभाविक वेग को नहीं रोकना यह वीतराग मार्ग का स्वस्थ विवेक है। यह शरीर के प्राकृतिक नियमों से विपरीत नहीं चलने का निर्देश है। ऐसे प्रसंगों में छः मास तक मल-मूत्र रोकने की शक्ति का कथन भी किया जाता है जो आगमों के विधान के अनुकूल नहीं है / एक पुद्गल पर दृष्टि रखने का तात्पर्य यह है कि सब ओर से दृष्टि हटाकर नासिका या पैरों के नखों पर दृष्टि को स्थिर करना। इस बारहवीं प्रतिमा में उपसर्ग अवश्य होते हैं, ऐसा भी कहा जाता है, किन्तु सूत्र में इतना ही कथन है कि सम्यग् आराधना का यह सुफल है और असम्यग् आराधना का यह कुफल है। आठवें महिने के २९वें दिन तेले का पारणा करके बारह ही प्रतिमा पूर्ण कर दी जाती हैं। इस प्रकार मिगसर की एकम से प्रतिमायें प्रारम्भ की जाएँ तो आषाढ़ी पूनम के पूर्व 12 भिक्षु प्रतिमाओं की आराधना पूर्ण हो जाती है। ___ बारह भिक्षुप्रतिमा की उग्र साधना करने वाले श्रमण कर्मों की महान् निर्जरा करके पाराधक होकर शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। 10 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवी दशा तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे याविहोत्था, तं जहा–१. हत्यत्तराहि चुए चइत्ता गम्भं बक्कते, 2. हत्युत्तराहि गम्भाओ गम्भं साहरिए, 3. हत्थुत्तराहि जाए, 4. हत्थुतराहि मुंडे भवित्ता प्रागाराओ अणगारियं पव्वइए, 5. हत्युत्तराहि अणते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदसणे समुप्पण्णे, 6. साइणा परिणिब्बुए भगवं जाव भज्जो भुज्जो उवदंसेइ / ___ अर्थ-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पांच हस्तोत्तर (उत्तराफाल्गुनी) हुए थे अर्थात् भगवान् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यव कर गर्भ में पाए / उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् का एक गर्भ से दूसरे गर्भ में संहरण हुआ। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में जन्मे / उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में मुडित होकर प्रागार धर्म से अणगार धर्म में प्रवजित हुए। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान् को अनन्त अनुत्तर निर्व्याघात निरावरण कृत्स्न परिपूर्ण श्रेष्ठ केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुअा एवं स्वाति नक्षत्र में भगवान् परम निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त हुए यावत् भगवान् ने बारम्बार स्पष्ट रूप से समझाया। विवेचन--इस दशा का नाम "पर्युषणाकल्प" है। इसका उल्लेख ठाणांगसूत्र के दसवें ठाणे में है तथा दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति गाथा 7 में "कप्पो" ऐसा नाम भी उपलब्ध है। __ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र की सभी दशाओं में एक-एक विषय का ही निरूपण किया गया है। तदनुसार इस दशा में भी “पर्युषणाकल्प" सम्बन्धी एक विषय का ही प्रतिपादन स्थविर भगवन्त श्री भद्रबाहुस्वामी ने किया है / नियुक्तिकार के समय तक उसका वही रूप रहा है। नियुक्तिकार ने इस दशा में संयम-समाचारी के कुछ विषयों का विवेचन किया है और प्रारम्भ में "पर्युषण" शब्द की व्याख्या की है। सम्पूर्ण सूत्र की नियुक्ति गाथा 67 हैं। जिनमें प्रारम्भ की 23 गाथाओं में केवल 'पर्युषण' का विस्तृत विवेचन है। वर्तमान में उपलब्ध संक्षिप्त पाठ की रचना में सम्पूर्ण कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प-सूत्र) का समावेश किया गया है। उस कल्पसूत्र में 24 तीर्थंकरों के जीवन का वर्णन है। उनमें भगवान् महावीर के पांच कल्याणकों का विस्तृत वर्णन है और शेष तीर्थकरों के कल्याणकों का संक्षिप्त वर्णन है। बाद में यह भी सूचित किया है कि भगवान् महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुए 980 वर्ष बीत गये हैं और पार्श्वनाथ भगवान् को मोक्ष गये 1230 वर्ष बीत गये हैं। तदनन्तर संवत्सर सम्बन्धी मतभेद का भी कथन है / वीरनिर्वाण के बाद एक हजार वर्ष की अवधि में हुए आचार्यों की स्थविरावली है। उनमें भी मतभेद और संक्षिप्त-विस्तृत वाचनाभेद है। अन्त में चातुर्मास समाचारी है। चिन्तन करने पर इन विभिन्न विषयों के बारह सौ श्लोक प्रमाण जितनी बड़ी आठवीं दशा का होना उचित प्रतीत नहीं होता है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] [वसातस्कन्ध दशाश्रुतस्कन्ध छेदसूत्र है / छेदसूत्रों का विषय और उनकी रचना-पद्धति कुछ भिन्न ही है / बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथसूत्र छेदसूत्र हैं। इनमें छोटे-छोटे उद्देशक हैं और केवल आचार का विषय है / दशाश्रुतस्कन्धसूत्र के नियुक्तिकार भी पांचवीं गाथा में इस सूत्र की छोटी दशाएँ होने का ही निर्देश करते हैं और बड़ी दशाएँ अन्य अंगसूत्रों में हैं, ऐसा कथन करते हैं। अतः वर्तमान में उपलब्ध कल्पसूत्र को समाविष्ट करने वाला संक्षिप्त पाठ प्राचीन प्रतीत नहीं होता है तथा नियुक्ति व्याख्या से भी ऐसा ही सिद्ध होता है। क्योंकि नियुक्तिकार ने इस अध्ययन में पर्युषणासूत्र की सर्वप्रथम व्याख्या की है। जबकि कल्पसूत्र में सर्वप्रथम नमस्कार मन्त्र तथा तीर्थंकर वर्णन है और पर्युषणा का सूत्र 900 श्लोक प्रमाण वर्णन के बाद में है। कुछ चिन्तकों का यह मत है कि "आठवीं दशा को अलग करके कल्पसूत्र नाम अंकित कर दिया गया है, अतः सम्पूर्ण कल्पसूत्र भद्रबाहुस्वामी रचित आठवीं दशा ही है।" यह भी एक कल्पना है और इसे बिना सोचे-विचारे कईयों ने सत्य मान लिया है / नंदीसूत्र में तीन कल्पसूत्रों के नाम हैं-१. कप्पसुत्तं (बृहत्कल्पसूत्र) 2. चुल्लकप्पसुत्तं 3. महाकप्पसुत्तं / किन्तु इस पर्युषणाकल्पसूत्र का कहीं नाम नहीं है। नंदीसूत्र का संकलनकाल वीरनिर्वाण की दसवीं शताब्दी का माना जाता है। तब तक इस कल्पसूत्र का स्वतन्त्र अस्तित्व ही नहीं था, यह स्पष्ट और सुनिश्चित है। मार्य भद्रबाहुस्वामी ने दशाश्रुतस्कन्धसूत्र, कल्पसूत्र (बृहत्कल्पसूत्र) और व्यवहारसूत्र इन तीन छेदसूत्रों की रचना की है, इनमें से एक सूत्र का नाम कल्पसूत्र है ही तो उन्हीं के दशाश्रुतस्कन्ध की एक दशा को अलग करके नया कल्पसूत्र का संकलन करना किसी भी विद्वान् द्वारा कैसे आवश्यक या उचित माना जा सकता है ? दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्तिकार ने प्रथम गाथा में भद्रबाहुस्वामी को 14 पूर्वी कहकर वंदन किया है और तीन छेदसूत्रों का कर्ता कहा है-- वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिम सगलसुयणाणि / सुत्तस्स कारगमिसि, दसासुकप्ये य ववहारे // नियुक्ति गाथा // 1 // चूर्णिकार ने भी इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहा है कि नियुक्तिकार इस प्रथम गाथा में सुत्रकार को प्रादि मंगल के रूप में प्रणाम करते हैं। अत: यह सहज सिद्ध है कि चूर्णिकार के समय तक स्वोपज्ञ नियुक्ति कहने की भ्रान्त धारणा भी नहीं थी और इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सूत्रकार भद्रबाहुस्वामी से नियुक्तिकार भिन्न हुए हैं। क्योंकि नियुक्तिकार स्वयं सूत्रकर्ता भद्रबाहु स्वामी को बंदन करते हैं। अतः स्वोपज्ञ नियुक्ति मानना भी सर्वथा असंगत है / दशाश्रुतस्कन्ध के नियुक्तिकार ने नियुक्ति करते हुए आठवी दशा की नियुक्ति भी की है। उसमें न तो इस संक्षिप्त पाठ की सूचना की है और न ही अलग संकलित किए गये कल्पसूत्र की कोई चर्चा की है। नियुक्तिकार ने आठ प्राचार-प्रधान आगमों की नियुक्ति की है। यदि पर्युषणाकल्पसूत्र आठवीं दशा से अलग होता तो उसका निर्देश या उसकी व्याख्या अवश्य करते। अतः यह निश्चित है कि नियुक्तिकार के समय तक भी इस बारसा कल्पसूत्र अर्थात् पर्युषणाकल्पसूत्र का अस्तित्व नहीं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवी दशा] [69 था। साथ ही एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिए कि इसका परिचायक यह नाम विक्रम की बारहवीं शताब्दी पूर्व के किसी भी पागम या ग्रन्थ में देखने को नहीं मिलता है। आचार्य मलयगिरि के समय तक प्रायः सभी आगमों की नियुक्ति, भाष्य, चूणि, टीका आदि व्याख्याएँ रची गई थीं किन्तु इस कल्पसूत्र की व्याख्या करने का किसी भी विद्वान् ने संकल्प नहीं किया और कहीं किसी ने इसका नाम-निर्देश भी नहीं किया। एक प्रचलित धारणा यह भी है कि "ध्र वसेन राजा के पुत्रशोक को दूर करने के लिये कालकाचार्य ने आठवीं दशा का सभा में वाचन किया और उस समय से ही यह अलग सूत्र के रूप में प्रचलित हुआ / उसका आज तक पर्युषण के दिनों में सभा के बीच वांचन किया जाता है।" यह भी एक कल्पना कल्पित करके फिट कर दी गई है, इसमें मौलिकता तनिक भी नहीं है। इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि कालकाचार्य अनेक हुए हैं, उनमें अन्तिम कालकाचार्य देवद्धिगणि के समय वीरनिर्वाण की दसवीं सदी में और विक्रम की छुट्टी सदी के प्रारम्भ में हुए हैं। ध्रुवसेन राजा भी तीन हुए हैं, जिनमें प्रथम ध्र वसेन वीरनिर्वाण के ११वीं शताब्दी के मध्यकाल में, दूसरे १२वीं शताब्दी के मध्यकाल में और तीसरे १२वीं शताब्दी के अन्तिम काल में हुए हैं / प्रथम ध्र बसेन राजा के पुत्रशोक की घटना वीरनिर्वाण के बाद ग्यारहवीं शताब्दी के ५४वें वर्ष में घटी है। उस समय में आनन्दपुर में कालकाचार्य के चातुर्मास करने का कोई भी उल्लेख इतिहास से सिद्ध नहीं हो सकता है। सामान्य साधुओं को और साध्वियों को भी छेदसूत्र नहीं पढ़ाये जाने की धारणा और परम्परा के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। ऐसे इस छेदसूत्र के अध्ययन को पुत्रशोक दूर करने के लिये राजसभा में वांचन करने का कथन किंचित् भी उचित नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार उपलब्ध कल्पसूत्र का यह स्वतन्त्र स्वरूप प्राचीन सिद्ध नहीं होता है। अतः दशाश्रुतस्कन्ध की आठवीं दशा में उसके सम्पूर्ण अस्तित्व का अथवा उसके संक्षिप्त पाठ का बाद में संकलित होना या प्रक्षिप्त करना स्वतःसिद्ध है। अनुप्रेक्षा फलित ज्ञातव्य यह है कि विक्रम की १२वीं, १३वीं शताब्दी में चुल्लकल्पसूत्र, महाकल्पसूत्र या पट्टावलियां आदि के संग्रह से यह सूत्र संकलित किया गया और इसके साथ पर्युषणाकल्प नामक आठवीं दशा रूप समाचारी को परिवर्धित या परिवर्तित करके अन्त में जोड़ा गया है तथा उस समूचे संग्रहसूत्र को चौदह पूर्वी भद्रबाहु की रचना कहकर प्रसिद्ध किया गया और प्राचीनता दिखाने के लिए सभा में वांचन का नाम भी कल्पित असंगत कथा द्वारा कालकाचार्य से जोड़ दिया गया। यहां तक कि दशाश्रुतस्कन्ध की आठवीं दशा में भी पूरा पर्युषणाकल्पसूत्र लिख दिये जाने का दुस्साहस होने लगा। इस प्रकार 2100 श्लोक-प्रमाण पूर्ण दशाश्रुतस्कन्ध कल्पित कर उसको चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु की रचना कहकर उसका महत्त्व बढ़ाया गया है। इससे अच्छी तरह निर्णय हो जाता है कि "पाठवीं" दशा में उपलब्ध सम्पूर्ण पर्युषणाकल्पसूत्र रूप संक्षिप्त पाठ मौलिक नहीं है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दशाभूतस्कन्ध पर्युषणाकल्पसूत्र में स्थविरावली के बाद समाचारी के प्रारम्भ का सूत्र भी मौलिक और शुद्ध नहीं है, उस सूत्र का भावार्थ देखने से यह अच्छी तरह समझ में आ सकता है। समाचारी-प्रकरण के प्रथम सूत्र में यह कहा गया है कि "श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने वर्षावास के एक महीना बीस दिन बीतने पर वर्षावास किया। उसी प्रकार गणधरों ने किया, उसी प्रकार उनके शिष्यों ने एवं स्थविरों ने किया है और उसी प्रकार आजकल विचरने वाले श्रमण निर्ग्रन्थ करते हैं तथा हमारे प्राचार्य उपाध्याय भी उसी प्रकार वर्षावास करते हैं और हम भी वर्षावास का एक मास और बीस दिन बीतने पर (भादवासुदी पंचमी को) चातुर्मास करते हैं। उसके पहले भी अर्थात् चतुर्थी को करना कल्पता है किन्तु उसके बाद में करना नहीं कल्पता है / " ____दशाश्रुतस्कन्ध से हटाये गये पर्युषणाकल्प अध्ययन की साधु-समाचारी वर्णन के पाठ का यह प्रथम सूत्र है। चौदहपूर्वी भद्रबाहु द्वारा नियूंढ बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र भी हैं। इनके सूत्रों से मिलान करने पर समाचारी का यह सूत्र उनकी रचनाशैली के समकक्ष प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इस सूत्र के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न उद्भूत होते हैं / यथा-- 1. भगवान् ने कौनसा वर्षावास किस नाम या नगर में एक मास और बीस दिन बाद किया ? क्योंकि भगवान् ने तो सभी चातुर्मास प्राषाढ़ी चौमासी के पूर्व ही स्थिर किये, ऐसे उल्लेख आगमों और ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। वर्षावास के लिए ठहरने के स्थान की चार मास पर्यन्त प्राज्ञा लेकर ही संत-सतियों के रहने की परम्परा प्राचीनकाल से आज तक अविच्छिन्नरूप से प्रचलित है। इतिहास में एक भी उल्लेख ऐसा उपलब्ध नहीं है कि किसी भी अमुक साधु ने एक मास और बीस दिन बाद भादवा की शुक्ला पंचमी को चौमासा बिठाया हो।। भगवान् के नाम से किसी प्रकार का विधान करना, यह भी छेदसूत्र की पद्धति नहीं है। नियुक्तिकार ने भी प्रथम सूत्र की ब्याख्या 23 गाथाओं में की है, उनमें कहीं भगवान् महावीरस्वामी के वर्षावास के निर्णय का कथन नहीं है। 2. "भगवान् ने किया वैसा गणधरों ने किया, वैसा ही उनके शिष्यों ने एवं स्थविरों ने किया, वैसे ही आजकल के श्रमण तथा हमारे प्राचार्य और हम करते हैं। पहले दिन पर्युषण कर सकते हैं किन्तु बाद में नहीं कर सकते हैं।" ऐसी क्रमबद्ध रचना को चौदहपूर्वी भद्रबाहुस्वामी की रचना कहना भी असंगत है। 3. उक्त सूत्र में "हम" शब्द का प्रयोग करने वाला कौन है ? भद्रबाहु जैसे महान् श्रुतधर इस प्रकार कहें, यह कल्पना करना भी उचित प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार पूर्वापर के तथ्यों पर चिन्तन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान में उपलब्ध पर्युषणाकल्पसूत्र के समाचारी प्रकरण का यह प्रथम सूत्र और अन्य अनेक सूत्र परिवर्तित और परिवधित हैं, अतः यह समाचारी भी भद्रबाहु की रचना प्रतीत नहीं होती है। इस दशा का जो स्वरूप नियुक्तिकार के सामने था वह उपलब्ध कल्पसूत्र में दिखाई नहीं देता है। अतः इस आठवीं दशा को संक्षिप्त पाठ वाली कहने की अपेक्षा आचारांग के सातवें अध्ययन के समान विलुप्त कहना ही उचित प्रतीत होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवों दशा] यहाँ प्रस्तुत संस्करण में जो संक्षिप्त मूल पाठ है वह पर्युषणाकल्पसूत्र का प्रथम सूत्र और अन्तिम सूत्र लेकर संकलित किया हुआ है / यह परम्परा का पालन मात्र है। आगमों के सूत्रपाठ का एक अक्षर भी आगे-पीछे, कम-ज्यादा, इधर-उधर करना बहुत बड़ा दोष-ज्ञानातिचार माना गया है। फिर भी समय-समय पर अनेक ऐसे प्रक्षेप आगमों में हुए हैं। उनमें का यह भी एक उदाहरण है। यहां जो कुछ लिखा है वह अपनी अल्प जानकारी एवं सामान्य अनुभवों के अनुसार लिखा है, विद्वान् विशेषज्ञों को इसमें जो यथार्थ लगे उसे ही समझने का एवं धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए। उपलब्ध कल्पसूत्र का 291 वां अन्तिम उपसंहार सूत्र जो है, उसका भावार्थ यह है "यह सम्पूर्ण (1200 श्लोकप्रमाण का पर्युषणाकल्पसूत्र) अध्ययन (आठवीं दशा) भगवान् महावीर स्वामी ने राजगृह नगर में देवयुक्त परिषद् में बारम्बार कहा।" इस उपसंहार सूत्र को मनीषी पाठक पढ़कर आश्चर्य करेंगे कि भगवान के जीवन का सारा वर्णन उनके ही मुख से परिषद में कहलाना और निर्वाण के 980 वर्ष या 993 वर्ष बीतने का कथन, स्थविरों की वंदना के पाठ सहित स्थविरावली तथा असंगत पाठों से युक्त समाचारी को महावीर के श्रीमुख से कहलवाना और उसी आठवीं दशा को 14 पूर्वी भद्रबाहुरचित कहना कितना बेतुका प्रयास है / जिसे कि किसी भी तरह सत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता है। ___ यह कल्पसूत्र भगवान महावीर ने राजगृही नगरी के गुणशील उद्यान में बारम्बार कहा था, तो किस दिन कहा ? क्या एक ही दिन में कहा या अलग-अलग दिनों में कहा ? और बारम्बार क्यों कहा ?-इत्यादि प्रश्नों का सही समाधान कुछ नहीं मिल सकता है। नियुक्तिकार ने इस दशा के जिन-जिन विषयों की व्याख्या की है उनसे भी उक्त प्रश्नों का यथार्थ निर्णय नहीं हो पाता। नियुक्ति की ६१वीं उपसंहार-गाथा है उसके बाद उपलब्ध 6 गाथाओं को भी मौलिक नहीं कहा जा सकता। 61 गाथाओं में प्राये विषयों का सारांश इस प्रकार है 1. साधु-साध्वी को वर्षावास के एक महीना बीस दिन बीतने पर अर्थात् भादवा सुदी पंचमी को पर्युषणा (संवत्सरी) करनी चाहिए। 2. साधु-साध्वी जिस मकान में चातुर्मास निवास करें, वहाँ से उन्हें प्रत्येक दिशा में प्राधा कोस सहित आधा योजन से आगे नहीं जाना चाहिए। 3. चातुर्मास में साधु-साध्वी को विगय का सेवन नहीं करना चाहिए। रोगादि कारण से विगय सेवन करना हो तो प्राचार्यादि की आज्ञा लेकर ही करना चाहिए। 4. वर्षावास में साधु-साध्वी को शय्या, संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है / अर्थात् जीवरक्षा हेतु आवश्यक समझना चाहिए। 5. वर्षावास में साधु-साध्वी को तीन मात्रक ग्रहण करना कल्पता है, यथा-१. उच्चार (बड़ी नीत का) मात्रक, 2. प्रश्रवणमात्रक, 3. खेल-कफमात्रक / 6. साधु-साध्वी को पर्युषणा के बाद गाय के रोम जितने बाल रखना नहीं कल्पता है / अर्थात गाय के रोम जितने बाल हों तो भी लोच करना आवश्यक होता है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दशाश्रुतस्कन्ध 7. साधु-साध्वी को चातुर्मास में पूर्वभावित श्रद्धावान् के अतिरिक्त किसी को दीक्षा देना नहीं कल्पता है। 8. चातुर्मास में साधु-साध्वी को समिति गुप्ति की विशेष रूप से सावधानी रखनी चाहिए। 9. साधु-साध्वी को पर्युषणा के बाद किसी भी पूर्व क्लेश (कषाय) को अनुपशान्त रखना नहीं कल्पता है। 10. साधु-साध्वी को वर्ष भर के सभी प्रायश्चित्त तपों को चातुर्मास में वहन कर लेना चाहिए। आगे ६२वीं गाथा में कहा है "तीर्थकर और गणधरों की स्थविरावली २४वें तीर्थंकर के शासन में कही जाती है" और शेष (63-67) 5 गाथाओं में अल्पवर्षा में गोचरी जाने का विधान किया गया है। उपलब्ध पर्युषणा कल्पसूत्र में तो तीर्थंकर, गणधर और स्थविरों के वर्णन पहले हैं और उस के बाद समाचारी का वर्णन है। किन्तु नियुक्ति में समाचारी के प्रायश्चित्तों का विधान करने वाली उपसंहार गाथा के बाद में उसका कथन है अतः उसका कोई महत्त्व नहीं है, अपितु ऐसा कथन अनेक आशंकाओं का जनक है / अर्थात् अपने आग्रह की सिद्धि के लिए यह गाथा रचकर जोड़ दी गई है। स्थविरावली के कथन के बाद वर्षा में गोचरी जाने का विधान 5 नियुक्ति गाथाओं में है / वह भी दशवकालिकसूत्र तथा प्राचारांगसूत्र से विपरीत विधान है, अतः संदेहास्पद है। अर्थात् उपसंहार के बाद होने से और आगम-विपरीत कथन करने वाली होने से ये पांच गाथाएं भी प्रक्षिप्त ही प्रतीत होती हैं। इस प्रकार नियुक्ति की अंतिम छः गाथाएं प्रक्षिप्त ज्ञात होती हैं / जब मूल पाठों में इतना परिवर्तन किया जा सकता है तो नियुक्ति में होना क्या आश्चर्य है / उक्त सभी विचारणाओं का तात्पर्य यह है कि पर्युषणाकल्पसूत्र स्वतंत्र संकलित सूत्र है / न कि दशाश्रुतस्कंधसूत्र की आठवीं दशा है। अतः आठवीं दशा का संक्षिप्त पाठ जो समूचे पyषणा कल्पसूत्र को समाविष्ट करता हुआ दिखाया जाता है वह अशुद्ध है, अर्थात् कल्पित है। जो नियुक्ति आदि व्याख्याओं से स्पष्ट सिद्ध है। पर्युषणाकल्पसूत्र को आठवीं दशा एवं भद्रबाहुस्वामी रचित तथा भगवद्भाषित मानने में अनेक विरोध एवं विकल्प उत्पन्न होते हैं / __इस प्रकार व्यविच्छिन्न हुई वर्तमान में इस आठवीं दशा के आदि, मध्य और अन्तिम मूल पाठ का सही निर्णय नियुक्ति व्याख्या के आधार से किया जाना भी कठिन है / अतः उपलब्ध संक्षिप्त सूत्र को स्वीकार करने की अपेक्षा तो इस दशा को व्यवच्छिन्न मानकर सन्तोष करना ही श्रेयस्कर है / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नटामी दशा महामोहनीय कर्म-बंध के तीस स्थान तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्या। वण्णओ / पुण्णभद्दे नामं चेइए / वण्णओ। कोणिय राया। धारिणी देवी / सामी समोसढे / परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। "अज्जो!" ति समणे भगवं महावीरे बहवे निग्गंथा य निग्गंथीयो य पामतेत्ता एवं वयासी "एवं खलु अज्जो! तीसं मोहणिज्जठाणाई जाइं इमाई इत्थी वा पुरिसो वा अभिक्खणंअभिक्खणं आयारेमाणे वा, समायारेमाणे वा मोहणिज्जत्ताए कम्मं पकरेइ", तं जहा 1. जे केइ तसे पाणे, वारिमझे विगाहिआ। उदएणाऽक्कम्म मारेइ, महामोहं पकुव्वइ / / 2. पाणिणा संपिहिताणं, सोयमावरिय पाणिणं / अंतो नवंतं मारेइ, महामोहं पकुब्वइ / 3. जायतेयं समारब्भ, बहुं ओरु भिया जणं / अंतो धूमेण मारेइ, महामोहं पकुव्वइ // 4. सीसम्मि जो पहणइ, उत्तमंगम्मि चेयसा। विभज्ज मत्थयं फाले, महामोहं पकुब्वइ / 5. सोसं वेढेण जे केइ, आवेढेइ अभिक्खणं / तिव्वासुभ-समायारे, महामोहं पकुव्वइ / / 6. पुणो-पुणो पणिहीए, हणित्ता उवहसे जणं / फलेण अदुव दंडेणं, महामोहं पकुव्वइ / 7. गूढायारी निगूहिज्जा, मायं मायाए छायए। प्रसच्चवाई णिण्हाइ, महामोहं पकुव्वइ / 8. धंसेइ जो प्रभूएणं, अकम्मं अत्तकम्मुणा। अदुवा तुमकासित्ति, महामोहं पकुव्वइ / / 9. जाणमाणो परिसाए, सच्चामोसाणि भासए / अक्खीण-झंझे पुरिसे, महामोहं पकुव्वइ / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] [वशाभूतस्कन्ध 10. अणायगस्स नयवं, दारे तस्सेव धंसिया। विउलं विक्खोभइत्ताणं, किच्चा णं पडिबाहिरं // उवगसंतपि मंपित्ता, पडिलोमाहिं वग्गुहि / भोग-भोगे वियारेइ, महामोहं पकुवइ / 11. अकुमारभूए जे केई, "कुमार-भूए-त्ति ह" वए। इत्थी-विसय सेवी य, महामोहं पकुव्वइ / / 12. अबंभयारी जे केई, 'बभंयारी त्ति हं' वए। गद्दहेव्व गवां मझे, विस्सरं नयइ नदं / / अप्पणो अहिए बाले, मायामोसं बहुं भसे / इत्थी-विसय-गेहिय, . महामोहं पकुव्बइ / / 13. जं निस्सिए उध्वहइ, जस्साहिगमेण वा। तस्स लुन्भइ वित्तंसि, महामोहं पकुव्वइ / 14. ईसरेण अदुवा गामेणं, अणीसरे ईसरीकए। तस्स संपय-हीणस्स, सिरी अतुलमागया / इस्सा-दोसेण प्राविट्ठ, कलुसाविल-चेयसे / जे अंतरायं चेएइ, महामोहं पकुम्वइ / / 15. सप्पी जहा अंडउडं, भत्तारं जो विहिसइ / सेनावई पसत्थारं, महामोहं पकुम्वइ / / 16. जे नायगं च रटुस्स, नेयारं निगमस्स वा / सेट्टि बहुरवं हता, महामोहं पकुव्वइ / / 17. बहुजणस्स णेयारं, दोवं ताणं च पाणिणं / एयारिसं नरं हता, महामोहं पकुब्वइ / / उवढियं पडिविरयं, संजयं सुतवस्सियं / विउक्कम्म धम्माओ भंसेइ, महामोहं पकुव्वइ / 19. तहेवाणंत-णाणीणं, जिणाणं वरदंसिणं / तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वइ / HHHHHH 18. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दशा [75 20. नेयाइन्सस्स मग्गस्स, दुठे अवयरइ बहुं / तं तिप्पयन्तो भावेइ, महामोहं पकुव्वइ // 21. पायरिय-उवज्झाएहि, सुयं विणयं च गाहिए / ते चेव खिसइ बाले, महामोहं पकुव्वह // 22. आयरिय-उवज्झायाणं, सम्मं नो पडितप्पइ / अप्पडिपूयए थद्धे, महामोहं पकुम्वइ // 23. अबहुस्सुए य जे केई, सुएणं पविकत्थइ / सज्झाय-वायं वयइ, महामोहं पकुव्वइ / 24. अतवस्सिए जे केई, तवेण पविकत्थइ। सव्वलोयपरे तेणे, महामोहं पकुव्वइ / / 25. साहारणट्ठा जे केइ, गिलाणम्मि उठ्ठिए / पभू न कुणइ किच्चं, मज्ज्ञपि से न कुब्वइ / / सढे नियडी-पण्णाणे, कलुसाउलचेयसे / अप्पणो य अबोहीए, महामोहं पकुवइ // 26. जे कहाहिगरणाई, संपउंजे पुणो-पुणो। सव्व तित्थाण-भेयाए, महामोहं पकुव्वइ / 27. जे य ग्राहम्मिए जोए, संपउंजे पुणो पुणो। सहा-हेउं सही-हेडं, महामोहं पकुव्वइ / / 28. जे य माणुस्सए भोए, अदुवा पारलोइए। तेऽतिप्पयंतो प्रासयइ, महामोहं पकुब्वइ / / 29. इड्डी जुई जसो वण्णो, देवाणं बलवीरियं / तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वइ / 30. अपस्समाणो पस्सामि, देवे जक्खे य गुज्झगे। अण्णाणी जिणपूयट्ठी, महामोहं पकुव्वइ / एते मोहगुणा वृत्ता, कम्मंता चित्तबद्धणा। जे उ भिक्खू विवज्जेज्जा, चरेज्जत्तगयेसए / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वशाश्रुतस्कन्ध जंपि जाणे इतो पुव्यं, किच्चाकिच्चं बहुं जढं / तं वंता ताणि सेविज्जा, जेहि, आयारवं सिया // आयार-गुत्ती सुद्धप्पा, धम्मे ठिच्चा अणुत्तरे। ततो वमे सए दोसे, विसमासीविसो जहा // सुचत्तदोसे सुद्धप्पा, धम्मट्ठी विवितायरे / इहेव लभते कित्ति, पेच्चा य सुति वरं // एवं अभिसमागम्म, सूरा दढपरक्कमा। सव्वमोहविणिमुक्का, जाइमरणमतिच्छिया' // उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी / नगरी का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना चाहिए। पूर्णभद्र नाम का चैत्य (उद्यान) था। उद्यान का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना चाहिये। वहां कोणिक राजा राज्य करता था, उसके घारणी देवी पटरानी थी। श्रमण भगवान महावीर स्वामी ग्रामानुग्राम विचरते हुए वहां पधारे / परिषद् चम्पा नगरी से निकलकर धर्मश्रवण के लिये पूर्णभद्र चैत्य में पाई / भगवान् ने धर्म का स्वरूप कहा / धर्म श्रवण कर परिषद् चली गई। श्रमण भगवान महावीर ने सभी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थनियों को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा "हे आर्यो ! जो स्त्री या पुरुष इन तीस मोहनीय-स्थानों का सामान्य या विशेष रूप से पुन:पुनः आचरण करते हैं, वे महामोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं।" वे इस प्रकार हैं 1. जो कोई त्रस प्राणियों को जल में डुबोकर या प्रचण्ड वेग वाली तीव्र जलधारा में डालकर मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 2. जो प्राणियों के मुंह, नाक आदि श्वास लेने के द्वारों को हाथ आदि से अवरुद्ध कर अव्यक्त शब्द करते हुए प्राणियों को मारता है, वह महामोहनीय कर्म बांधता है। 3. जो अनेक प्राणियों को एक घर में घेर कर अग्नि के धुए से उन्हें मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 4. जो किसी प्राणी के उत्तमांग-शिर पर शस्त्र से प्रहार कर उसका भेदन करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 5. जो तीव्र अशुभ परिणामों से किसी प्राणी के सिर को गीले चर्म के अनेक वेष्टनों से वेष्टित करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 1. सम. 30, सु. 1 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी वशा] [77 6. जो किसी प्राणी को धोखा देकर के भाले से या डंडे से मारकर हँसता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 7. जो गूढ़ आचरणों से अपने मायाचार को छिपाता है, असत्य बोलता है और सूत्रों के यथार्थ अर्थों को छिपाता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 8. जो निर्दोष व्यक्ति पर मिथ्या आक्षेप करता है, अपने दुष्कर्मों का उस पर आरोपण करता है अथवा 'तूने ही ऐसा कार्य किया है' इस प्रकार दोषारोपण करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 9. जो कलहशील रहता है और भरी सभा में जान-बूझकर मिश्र भाषा बोलता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 10. जो कूटनीतिज्ञ मंत्री राजा के हितचिन्तकों को भरमाकर या अन्य किसी बहाने से राजा को राज्य से बाहर भेजकर राज्य-लक्ष्मी का उपभोग करता है, रानियों का शील खंडित करता है और विरोध करने वाले सामन्तों का तिरस्कार करके उनके भोग्य पदार्थों का विनाश करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 11. जो बालब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी अपने आपको बालब्रह्मचारी कहता है और स्त्रियों का सेवन करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 12. जो ब्रह्मचारी नहीं होते हुए भी- "मैं ब्रह्मचारी हूँ" इस प्रकार कहता है, वह मानो गायों के बीच गधे के समान बेसुरा बकता है और अपनी आत्मा का अहित करने वाला वह मूर्ख मायायुक्त झूठ बोलकर स्त्रियों में आसक्त रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 13. जो जिसका आश्रय पाकर आजीविका कर रहा है और जिसकी सेवा करके समृद्ध हुआ है, उसी के धन का अपहरण करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 14. जो किसी स्वामी का या ग्रामवासियों का आश्रय पाकर उच्च स्थान को प्राप्त करता है और जिनकी सहायता से सर्वसाधनसम्पन्न बना है, यदि ईर्ष्यायुक्त एवं कलुषितचित्त होकर उन पाश्रयदाताओं के लाभ में अन्तराय उत्पन्न करता है तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 15. सर्पिणी जिस प्रकार अपने ही अण्डों को खा जाती है, उसी प्रकार जो पालनकर्ता, सेनापति तथा कलाचार्य या धर्माचार्य को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 16. जो राष्ट्रनायक को, निगम के नेता को तथा लोकप्रिय श्रेष्ठी को मार डालता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 17. जो अनेकजनों के नेता को तथा समुद्र में द्वीप के समान अनाथजनों के रक्षक का घात करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 [বগন 18. जो पापों से विरत दीक्षार्थी को और तपस्वी साधु को धर्म से भ्रष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 19. जो अज्ञानी अनन्त ज्ञानदर्शनसम्पन्न जिनेन्द्र देव का अवर्णवाद-निन्दा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 20. जो दुष्टात्मा अनेक भव्य जीवों को न्यायमार्ग से भ्रष्ट करता है और न्यायमार्ग की द्वेषपूर्वक निन्दा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 21. जिन आचार्य या उपाध्यायों से श्रुत और आचार ग्रहण किया है, उनकी ही जो अवहेलना करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 22. जो व्यक्ति प्राचार्य उपाध्याय की सम्यक् प्रकार से सेवा नहीं करता है तथा उनका आदर-सत्कार नहीं करता है और अभिमान करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 23. जो बहुश्रुत नहीं होते हुए भी अपने आपको बहुश्रुत, स्वाध्यायी और शास्त्रों के रहस्य का ज्ञाता कहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 24. जो तपस्वी नहीं होते हुए भी अपने आपको तपस्वी कहता है, वह इस विश्व में सबसे बड़ा चोर है, अत: वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 25. जो समर्थ होते हुए भी रोगी की सेवा का महान कार्य नहीं करता है अपितु 'मेरी इसने सेवा नहीं की है अतः मैं भी इसकी सेवा क्यों करू" इस प्रकार कहता है, वह महामूर्ख मायावी एवं मिथ्यात्वी कलुषितचित्त होकर अपनी आत्मा का अहित करता है, ऐसा व्यक्ति महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 26. चतुर्विध संघ में मतभेद पैदा करने के लिए जो कलह के अनेक प्रसंग उपस्थित करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 27. जो श्लाघा या मित्रगण के लिए अधार्मिक योग करके वशीकरणादि का बार-बार प्रयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 28. जो मानुषिक और दैवी भोगों की अतृप्ति से उनकी बार-बार अभिलाषा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 29. जो व्यक्ति देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण और बल-वीर्य का अवर्णवाद बोलता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / 30. जो अज्ञानी जिन देव की पूजा के समान अपनी पूजा का इच्छुक होकर देव, यक्ष और असुरों को नहीं देखता हुअा भी कहता है कि "मैं इन सबको देखता हूँ," वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमी दशा [79 ये मोह से उत्पन्न होने वाले, अशुभ कर्म का फल देने वाले, चित्त की मलीनता को बढ़ाने वाले दोष कहे गये हैं / अतः भिक्षु इनका आचरण न करे, किन्तु आत्मगवेषी होकर विचरें / भिक्षु पूर्व में किये हुए अपने कृत्याकृत्यों को जानकर उनका पूर्ण रूप से परित्याग करे और उन संयमस्थानों का सेवन करे, जिनसे कि वह प्राचारवान् बने / जो भिक्षु पंचाचार के पालन से सुरक्षित है, शुद्धात्मा है और अनुत्तर धर्म में स्थित है, वह अपने दोषों को त्याग दे / जिस प्रकार 'प्राशिविष-सर्प', विष का वमन कर देता है / इस प्रकार दोषों को त्यागकर शुद्धात्मा, धर्मार्थो, भिक्षु मोक्ष के स्वरूप को जानकर इस लोक में कीर्ति प्राप्त करता है, और परलोक में सुगति को प्राप्त होता है / जो दृढ पराक्रमी, शूरवीर भिक्षु इन सभी स्थानों को जानकर उन मोहबन्ध के कारणों का त्याग कर देता है, वह जन्म-मरण का अतिक्रमण करता है, अर्थात् संसार से मुक्त हो जाता है / विवेचन-श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने साधु-साध्वियों को सम्बोधित कर महामोहनीय कर्मबंध के तीस स्थान कहे हैं। यद्यपि यतनापूर्वक व्यवहार करने वाला भिक्षु सामान्य पापकर्म का भी बंध नहीं करता है तथापि उसे महामोहनीय कर्मबंध के स्थानों का कथन किया गया है, जिसका प्रयोजन यह है कि साधना-पथ पर चलते हुए भी कभी कोई भिक्षु कषायों के वशीभूत होकर क्लेश, ममत्व, अभिमान और दुर्व्यवहार आदि दोषों से दूषित हो सकता है। अतः शासन के समस्त साधुसाध्वियों को लक्ष्य में रखकर भगवान् ने इन तीस महामोहनीय कर्मबंध-स्थानों का कथन किया है एक से छह स्थानों में क्रूरता युक्त हिंसक वृत्ति को, सातवें स्थान में माया (कपट) को, आठवें स्थान में असत्य आक्षेप लगाने को, नवमें स्थान में न्याय के प्रसंग पर मिश्रभाषा के प्रयोग से कलहवृद्धि कराने को, दसवें, पन्द्रहवें स्थान में विश्वासघात करने को, ग्यारहवें, बारहवें, तेवीसवें, चौवीसवें और तीसवें स्थान में अपनी असत्य प्रशंसा करके दूसरों को धोखा देने की प्रवृत्ति को, / तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें स्थान में कृतघ्नता को, सोलहवें, सत्रहवें स्थान में अनेकों के आधारभूत उपकारी पुरुष का घात करने को, अठारहवें स्थान में धर्म से भ्रष्ट करने को, उन्नीसवें स्थान में ज्ञानी (सर्वज्ञ) का अवर्णवाद (निन्दा) करने को, बीसवें स्थान में न्यायमार्ग से विपरीत प्ररूपणा करने को, इकवीसवें-बावीसवें स्थान में प्राचार्यादि की अविनय आशातना करने को, पच्चीसवें स्थान में शक्ति होते हुए कषायवश निर्दय बनकर रोगी की सेवा न करने को, छब्बीसवें स्थान में बुद्धि के दुरुपयोग से संघ में मतभेद पैदा करने को, Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8.] [दशाभूतस्कन्धः सत्तावीसवें स्थान में वशीकरण योग से किसी को परवश करके दुःखी करने को, अट्ठावीसवें स्थान में अत्यधिक कामवासना को, उनतीसवें स्थान में देवों का अवर्णवाद बोलने को महामोहनीय कर्मबंध का कारण कहा गया है। मुमुक्षु साधक ऐसे कुकृत्यों को जानकर उनका त्याग करे / यदि पूर्व में इनका सेवन किया हो तो उनकी आलोचना आदि करके शुद्धि कर ले। महामोहनीय कर्मबन्ध के इन स्थानों से विरत रहने वाला इस भव में यशस्वी होता है और परभव में सुगति प्राप्त करता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसती दशा भगवान महावीर का राजगृह में आगमन / तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था / वण्णम्रो / गुणसिलए चेइए / वण्णायो / रायगिहे नयरे सेणिए राया होत्था। रायवण्णओ जाव' चेलणाए सद्धि भोगे भुजमाणे विहरइ / तए णं से सेणिए राया अण्णया कयाइ हाए जाव' कप्परुक्खए चेव सुग्रलंकियविभूसिए रिदे / सकोरंट-मल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं जावससिव पियदसणे नरवई जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला, जेणेव सिंहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिंहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयइ, निसोइत्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी ___ "गच्छह णं तुम्हे देवाणुपिया !" जाइं इमाइं रायगिहस्स गयरस्स बहिया आरामाणि य, उज्जाणाणि य, पाएसणाणि य जाव' दब्भकम्मंताणि जे तत्थ महत्तरगा आणता चिट्ठति ते एवं वदह "एवं खलु देवाणुप्पिया ! सेणिए राया भंभसारे प्राणवेइ-जया णं समणे भगवं महावीरे, पादिगरे, तित्थयरे जाव' संपाविउकामे पुव्वाणुपुत्विं चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे, सुहं सुहेणं विहरमाणे, संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे इहमागच्छेज्जा, तया णं तुम्हे भगवनो महावीरस्स अहापडिरूवं उग्गहं प्रणुजाणह, अहापडिरूवं उग्गहं अणुजाणेत्ता सेणियस्स रण्णो भंभसारस्स एयमलैं पियं णिवेदह।" तए णं ते कोडुबियपुरिसे सेणिएणं रन्ना भंभसारेणं एवं वुत्ता समाणा हद्व-तुट्ठ-चित्तमाणदिया पोइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणयिया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु - “एवं सामी ! तह ति" आणाए विणएणं बयणं परिसुणेति / पडिसुणित्ता सेणियस्स रनो अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता रायगिह नयरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता जाई इमाई रायगिहस्स बहिया आरामाणि वा जाव जे तत्थ 1. उववाईसूत्र सु. 11 2. ज्ञाता. अ. 1, सु. 46, पृ. 94 अंगमुत्ताणि उववाईसूत्र सु. 48 4. प्राचा. श्रु. 2, अ. 2, उ. 2 5. उववाईसूत्र सु. 16 / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] [दशाश्रुतस्कन्ध महत्तरगा आणत्ता चिट्ठति, ते एवं वयंति जाव "सेणियस्स रनो एयमलैं पियं निवेदेज्जा, पियं भे भवतु" दोच्चंपि तच्चंपि एवं वदंति, वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव विसं पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे प्राइगरे तित्थयरे जाव गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे जाव' विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासइ / तए णं महत्तरगा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता नामगोयं पुच्छंति, नाम-गोयं पुच्छित्ता नाम-गोयं पधारेंति, पधारित्ता एगओ मिलति एगो मिलित्ता एगंतमवक्कमति एगंतमवक्कमित्ता एवं वयासी-- ___ "जस्स णं देवाणुप्पिया ! सेणिए राया भभसारे दंसणं कंखति, जस्स णं देवाणुप्पिया ! सेणिए राया दंसणं पीहेति, जस्स णं देवाणुप्पिया! सेणिए राया सणं पत्थेति, जस्स णं देवाणुप्पिया ! सेणिए राया दंसणं अभिलसति, जस्स णं देवाणुप्पिया! सेणिए राया नामगोत्तस्सवि सवणयाए जाव विसप्पमाणहियए भवति / से णं समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थयरे जाव सव्वण्णू सव्वदंसी पुग्वाणुपुठिय चरमाणे, गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे इह आगए, इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव रायगिहे नगरे बहिया गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति / तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! सेणियस्स रण्णो एयमलै निवेदेमो-"पियं भे भवतु" ति कटु अण्णमन्नस्स वयणं पडिसुगंति, पडिसुणित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रागगिह-नगरं मझमझेणं जेणेव सेणियस्स रनो गिहे, जेणेव सेणिए राया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं रायं करयलं परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं बद्धाति, वद्धावित्ता एवं वयासी-- "जस्स णं सामी ! दंसणं कंखति, जाब से णं समणे भगवं महावीरे गुणसिलए चेइए जाव विहरति / एयण्णं देवाणुप्पियाणं पियं निवेदेमो / पियं भे भवतु।" उस काल और उस समय में राजगह नाम का नगर था। नगर का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना / उस नगर के बाहर गुणशील नाम का चैत्य (उद्यान) था / उद्यान का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना / उस राजगृह नगर में श्रेणिक नाम का राजा था। राजा का विस्तृत वर्णन (उववाईसूत्र से) जानना यावत् वह चेलणा महारानी के साथ परम सुखमय जीवन बिता रहा था। एक दिन श्रेणिक राजा ने स्नान किया यावत् कल्पवृक्ष के समान वह नरेन्द्र अलंकृत एवं 1. उववाईसूत्र सु. 38 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसवीं दशा [83 विभूषित होकर कोरण्टक पुष्पों की माला-युक्त छत्र धारण करके यावत् शशिसम प्रियदर्शी नरपति श्रेणिक जहां बाह्य उपस्थानशाला में सिंहासन था, वहां आया। पूर्वाभिमुख हो उस पर बैठा / बाद में अपने प्रमुख अधिकारियों को बुलाकर उसने इस प्रकार कहा-- "हे देवानुप्रियो ! तुम जाओ। जो ये राजगृह नगर के बाहर पाराम (लताओं से सुशोभित), उद्यान (पत्र-पुष्प-फलों से सुशोभित), शिल्पशालाएँ यावत् दर्भ के कारखाने हैं, इनमें जो मेरे आज्ञाकारी अधिकारी हैं-उन्हें इस प्रकार कहो- . "हे देवानुप्रियो ! श्रेणिक राजा भंभसार ने यह आज्ञा दी है—'जब पंचयाम धर्म के प्रवर्तक अन्तिम तीर्थकर यावत् सिद्धगति नाम वाले स्थान के इच्छुक श्रमण भगवान महावीर क्रमश: चलते हुए, गांव-गांव घूमते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए तथा संयम एवं तप से अपनी आत्म-साधना करते हुए पाएँ, तब तुम भगवान् महावीर को उनकी साधना के उपयुक्त स्थान बताना और उन्हें उसमें ठहरने की आज्ञा देकर (भगवान् महावीर के यहां पधारने का) प्रिय संवाद मेरे पास पहुँचाना।" तब वे प्रमुख राज्य-अधिकारी पुरुष श्रेणिक राजा भंभसार का उक्त कथन सुनकर हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, मन में आनन्द तथा प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, सौम्य मनोभाव व हर्षातिरेक से उनका हृदय खिल उठता है। उन्होंने हाथ जोड़कर सिर के प्रावर्तन कर अंजलि को मस्तक से लगाया और विनयपूर्वक राजा के आदेश को स्वीकार करते हुए निवेदन किया 'हे स्वामिन् ! आपके आदेशानुसार ही सब कुछ होगा।' इस प्रकार श्रेणिक राजा की आज्ञा (उन्होंने) विनयपूर्वक सुनी, तदनन्तर वे राजप्रासाद से निकले / राजगह के मध्य भाग से होते हए वे नगर के बाहर गये। आराम यावत घास के कारखानों में राजा श्रेणिक के आज्ञाधीन जो प्रमुख अधिकारी थे, उन्हें इस प्रकार कहा यावत् श्रेणिक राजा को यह (भगवान महावीर के पधारने का) प्रिय संवाद कहें। (और कहें कि) आपके लिए यह संवाद प्रिय हो / दो-तीन बार इस प्रकार कहकर जिस दिशा से वे आये थे, उसी दिशा में चले गए। उस काल और उस समय में पंचयामधर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर भगवान् महावीर यावत् ग्रामानुग्राम विचरते हुए यावत् आत्म-साधना करते हुए गुणशील उद्यान में विचरने (रहने) लगे।। उस समय राजगृह नगर के त्रिकोण = तिराहे, चौराहे और चौक में चतुर्मुखी स्थानों में राजमार्गों में गलियों में कोलाहल होने लगा यावत् वे लोग हाथ जोड़कर विनयपूर्वक पर्युपासना करने लगे। उस समय राजा श्रेणिक के प्रमुख अधिकारी जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आये। उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वन्दन-नमस्कार किया। नाम-गोत्र पूछकर स्मृति में धारण किया और एकत्रित होकर एकान्त स्थान में गए। वहां उन्होंने आपस में इस प्रकार बातचीत की-- "हे देवानुप्रियो ! श्रेणिक राजा भंभसार जिनके दर्शन करना चाहता है, जिनके दर्शनों की इच्छा करता है, जिनके दर्शनों की प्रार्थना करता है, जिनके दर्शनों की अभिलाषा करता है, जिनके नाम-गोत्र-श्रवण करके भी यावत् हर्षित हृदय वाला होता है, ये पंचयामधर्म के प्रवर्तक तीर्थकर Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशाश्रुतस्कन्ध श्रमण भगवान् महावीर यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। वे अनुक्रमशः सुखपूर्वक गांव-गांव घूमते हुए यहां पधारे हैं, यहां विद्यमान हैं, यहां ठहरे हैं, यहां राजगृह नगर के बाहर गुणशील बगीचे में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण कर संयम, तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विराजमान हैं। "हे देवानुप्रियो ! चलें, श्रेणिक राजा को यह संवाद सुनाएँ और उन्हें कहें कि आपके लिए यह संवाद प्रिय हो", इस प्रकार एक दूसरे ने ये वचन सुने / वहां से वे राजगह नगर में पाए / नगर के बीच में होते हुए जहां श्रेणिक राजा का राजप्रासाद था और जहां श्रेणिक राजा था वहां वे आये / श्रेणिक राजा को हाथ जोड़कर सिर के आवर्तन करके अंजलि को मस्तक से लगाकर जय-विजय बोलते हुए बधाया और इस प्रकार कहा-- "हे स्वामिन् ! जिनके दर्शनों की आप इच्छा करते हैं यावत् वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी गुणशील बगीचे में यावत् विराजित हैं -- इसलिए हे देवानुप्रिय ! यह प्रिय संवाद आपसे निवेदन कर रहे हैं / यह संवाद आपके लिये प्रिय हो।" श्रेणिक का दर्शनार्थ गमन तए णं से सेणिए राया तेसि पुरिसाणं अंतिए एयम? सोच्चा निसम्म जाव विसप्पमाणहियए सीहासणाओ अब्भुट्ठइ, अब्भुट्टित्ता वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता ते पुरिसे सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, दलइत्ता पडिविसज्जेति, पडिविसज्जित्ता नगरगुत्तियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी "खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायगिहं नगरं सब्भितर-बाहिरियं आसिय-संमज्जियोवलितं" जाव कारवित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि जाव पच्चप्पिणंति / तए णं से सेणिए राया बलवाउयं सद्दावेइ,' सद्दावेत्ता एवं वयासी "खिप्यामेव भो देवाणुप्पिया! हय-गय-रह-जोहकलियं चाउरंगिणि सेणं सण्णाहेह।" जाव' से वि पच्चप्पिणइ। तए णं से सेणिए राया जाण-सालियं सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी "भो देवाणुप्पिया ! खिप्पामेव धम्मियं जाणपवरं जुतामेव उवटवेह, उवटुवित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि / " तए णं से जाणसालिए सेणियरना एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ, जाव विसप्पमाणहियए जेणेव जाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाणसालं अणुप्पविसइ; अणुष्पविसित्ता जाणगं 1. यहां से इस वर्णन में श्रेणिक राजा सेनापति, यानशालिक, नगररक्षक आदि को अलग-अलग बुलवाकर प्रादेश देता है किन्तु औपपातिकसूत्र के भगवान महावीर के दर्शन की तैयारी के वर्णन में कोणिक राजा के सेनापति को बुलवाकर आदेश देता है, वही सम्पूर्ण तैयारी करवाता है। यह दोनों सूत्रों के वर्णक संकलन में अन्तर है। 2. उबवाईसूत्र सु. 40 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवी दशा [5 पच्चुवेक्खइ, पच्चुवेक्खिता जाणं पच्चोरुभति, पच्चोरुभित्ता जाणगं संपमज्जति, संपमज्जित्ता जाणगं णोणेइ, णीणेत्ता जाणगं संव?ति, संवत्ता दूसं पवीणेति, पवीणेत्ता जाणगं समलंकरेइ, जाणगं समलंकरिता जाणगं वरमंडियं करेइ, करित्ता जेणेव वाहणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वाहणसालं अणुप्पविसित्ता वाहणाई पच्चुवेक्खइ, पच्चुवेविखत्ता वाहणाई संपमज्जइ, संपमज्जित्ता वाहणाई अप्फालेइ, अप्फालेत्ता वाहणाई णोणेइ, णोणेत्ता दूसे पवीणेइ, पवीणेत्ता वाहणाई समलंकरेइ, समलंकरित्ता वराभरणमंडियाई करेइ, करेत्ता वाहणाई जाणगं जोएइ, जोएत्ता वट्टमग्ग गाहेइ, गाहित्ता पओद-लट्ठि पओद-धरे य सम्म आरोहइ, आरोहइत्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव एवं क्यासी "जुत्ते ते सामी ! धम्मिए जाण-पवरे आदिट्ठ, भदंतव, पारुहाहि / " तए णं सेणिए राया भंभसारे जाणसालियस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ठतु? जाव मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जाव कप्परुक्खे चेव अलंकिए विभूसिए परिदे जाव मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव चेल्लणादेवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चेल्लणादेवि एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थयरे जाव पुन्वाणुटिव चरमाणे जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं महप्फलं देवाणुप्पिए ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण वंदण णमंसण पडिपुच्छण पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए / तं गच्छामो देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वंदामो, नमसामो, सक्कारेमो, सम्माणेमो, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं पज्जुवासामो। एतं णं इहभवे य परभवे य हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेयसाए, अणुगामियत्ताए भविस्सति / तए णं सा चेल्लणादेवी सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठा जाव सेणियस्स रनो एयमट्ठविणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव मज्जणधरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ जाव' महत्तरगविंद-परिक्खित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण-साला, जेणेव सेणियराया, तेणेव उवागच्छइ / तए णं से सेणियराया चेल्लणादेवीए सद्धि धम्मियं जाणपवरं दुरूढे जाव' जेणेव गुणसीलए चेइए तेणेव उवागच्छइ जाव पज्जुवासइ। - एवं चेल्लणा वि जाव' पज्जुवासइ / 1. उववाईसूत्र सु. 48 2-4. उववाईसूत्र सु. 48-54 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56] [दशाश्रुतस्कन्ध तए णं समणे भगवं महावीरे सेणियस्स रनो भंभसारस्स, चेल्लणादेवीए, तीसे य महइमहालयाए परिसाए, इसि-परिसाए, जइ-परिसाए, मुणि-परिसाए, मणुस्स-परिसाए, देव-परिसाए, अणेग-सयाए जाव धम्मो कहियो / परिसा पडिगया / सेणियराया पडिगरो। उस समय श्रेणिक राजा उन पुरुषों से यह संवाद सुनकर एवं अवधारण कर यावत् हर्षित हृदयवाला होकर सिंहासन से उठा / श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार किया। तदनन्तर उन पुरुषों का सत्कार और सन्मान किया। फिर उन्हें प्रीतिपूर्वक आजीविका योग्य विपुल दान देकर विसजित किया। बाद में नगररक्षक को बुलाकर इस प्रकार कहा-. "हे देवानुप्रिय ! राजगह नगर को अन्दर और बाहर से परिमाजित कर जल से सिञ्चित करो यावत् सिञ्चित कराकर मुझे सूचित करो यावत् वे सूचित करते हैं। उसके बाद राजा श्रेणिक ने सेनापति को बुलाकर इस प्रकार कहा "हे देवानुप्रिय ! हाथी, घोड़े, रथ और पदाति योधागण-इन चार प्रकार की सेनाओं को सुसज्जित करो" यावत् वे सूचित करते हैं। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने यानशाला के अधिकारी को बुलाकर इस प्रकार कहा___ "हे देवानुप्रिय ! श्रेष्ठ धार्मिक रथ को तैयार कर यहां उपस्थित करो और मेरी आज्ञानुसार हुए कार्य की मुझे सूचना दो।" उस समय यानशाला का प्रबन्धक श्रेणिक राजा के इस प्रकार कहने पर यावत् हर्षित हृदय वाला होकर जहां यानशाला थी वहां आया। उसने यानशाला में प्रवेश किया। यान (रथ) को देखा। यान को नीचे उतारा, प्रमार्जन किया। बाहर निकाला। एक स्थान पर स्थित किया और उस पर ढंके हुए वस्त्र को दूर कर यान को अलंकृत किया एवं सुशोभित किया। बाद में जहां वाहनशाला थी वहां आया। वाहनशाला में प्रवेश किया, वाहनों (बैलों) को देखा। उनका प्रमार्जन किया। उन पर बार-बार हाथ फेरे / उन्हें बाहर लाया। उन पर ढंके वस्त्र को दूर कर उन्हें अलंकृत किया एवं आभूषणों से मण्डित किया। उन्हें यान से जोड़ कर रथ को राजमार्ग पर लाया। चाबुक हाथ में लिए हुए सारथी के साथ यान पर बैठा। वहां से वह जहां श्रेणिक राजा था, वहां आया। हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा-- "स्वामिन् ! श्रेष्ठ धार्मिक यान तैयार करने के लिए आपने आदेश दिया था-वह यान (रथ) तैयार है। यह यान आपके लिए कल्याणकर हो / आप इस पर बैठे।" उस समय श्रेणिक राजा भंभसार यानशाला के अधिकारी से श्रेष्ठ धार्मिक रथ ले पाने का संवाद सुनकर एवं अवधारण कर हृदय में हर्षित एवं संतुष्ट हुआ यावत् (उसने) स्नानघर में प्रवेश किया। यावत् कल्पवृक्ष के समान अलंकृत एवं विभूषित वह श्रेणिक नरेन्द्र यावत् स्नानघर से निकला / जहां चेलणादेवी (महारानी) थी—वहां आया / उसने चेलणादेवी को इस प्रकार कहा "हे देवानुप्रिये ! पंचयामधर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर यावत् अनुक्रम से चलते हुए यावत् संयम और तप से आत्म-साधना करते हुए (गुणशीलचैत्य में) विराजित हैं।" Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसयों दशा] [87 ___ हे देवानुप्रिये ! संयम और तप के मूर्तरूप अरहंतों के नाम-गोत्र श्रवण करने का ही महाफल होता है तो उनके दर्शन करने के लिए जाना, वन्दन-नमस्कार करना, सुख-साता पूछना, पर्युपासना करना, एक भी धार्मिक वचन सुनना और विपुल अर्थ ग्रहण करने के फल का तो कहना ही क्या है अर्थात् महाफलदायी होता है। इसलिए हे देवानुप्रिये ! चलें, श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करें, उनका सत्कार-सम्मान करें, वे कल्याणरूप हैं, मंगलरूप हैं, देवाधिदेव हैं, ज्ञान के मूर्तरूप हैं, उनकी पर्युपासना करें। उनकी यह पर्युपासना इहभव और परभव में हितकर, सुखकर, क्षेमकर, मोक्षप्रद और भव-भव में मार्गदर्शक रहेगी। / उस समय वह चेलणादेवी श्रेणिक राजा से यह संवाद सुनकर एवं धारण कर हर्षित एवं संतुष्ट हो यावत् उसने श्रेणिक राजा के उन वचनों को विनयपूर्वक स्वीकार किया। फिर जहां स्नानगृह था वहां पाकर स्नानगृह में प्रवेश किया यावत् महत्तरावृद (दासियों) से वेष्टित होकर बाह्य उपस्थानशाला में श्रेणिक राजा के समीप आई। उस समय श्रेणिक राजा चेलणादेवी के साथ श्रेष्ठ धार्मिक रथ में बैठा यावत् गुणशील बगीचे में पाया यावत् पर्युपासना करने लगा। इसी प्रकार चेलणादेवी भी यावत् पर्युपासना करने लगी। उस समय श्रमण भगवान् महावीर ने ऋषि, यति, मुनि, मनुष्य और देवों की महापरिषद् में श्रेणिक राजा भंभसार एवं चेलणादेवी को यावत् धर्म कहा / परिषद् गई और राजा श्रेणिक भी गया। साधु-साध्वियों का निदान-संकल्प तत्थ गं एगइयाणं निम्गंथाणं निग्गंथीण य सेणियं रायं चेल्लणं च देवि पासित्ताणं इमेयारूवे अज्झथिए, चितिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्या-अहो णं सेणिए राया महड्ढिए जाव महासुक्खे, जे णं हाए जाव सव्वालंकार-विभूसिए, चेल्लणा देवीए सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगाई भुजमाणे विहरति / न मे दिट्ठा देवलोगसि, सक्खं खलु अयं देवे / जइ इमस्स सुचारयस्स तव-नियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फल-वित्तिविसेसे अस्थि, तं वयमवि आगमेस्साई इमाई एयाख्वाइं उरालाई माणुस्सगाई भोगाइं भुजमाणा विहरामो, से तं साहू / "अहो णं चेल्लणादेवी महिड्डिया जाव महासुक्खा जा णं ण्हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया सेणिएणं रण्णा सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगाइं भुजमाणी विहरइ / न मे दिवाओ देवीप्रो देवलोगसि, सक्खा खलु इमा देवी / जइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम-बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि। तं वयमवि आगमिस्साई इमाई एयारूबाई उरालाई माणुस्सगाई भोगाइं भुजमाणीओ विहरामो, से तं साहू। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 [दशाश्रुतस्कन्ध "अज्जो" ति समणे भगवं महावीरे ते बहवे निग्गंथा निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी ५०--"सेणियं रायं, चेल्लणादेवि पासित्ता इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था--अहो णं सेणिए राया महिड्डिए जाव से तं साहू; अहो णं चेल्लणा देवी महिड्डिया जाव से तं साहू / से गूणं अज्जो ! अत्थे सम? ?" उ०—हंता, अस्थि / वहां (गुणशीलचैत्य में) श्रेणिक राजा और चेलणादेवी को देखकर कुछ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थनियों के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिंतन, चाहना और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ "अहो ! यह श्रेणिक राजा महान् ऋद्धि वाला यावत् बहुत सुखी है / यह स्नान करके यावत् सर्वालंकारों से विभूषित होकर चेलणादेवी के साथ मानुषिक भोग भोग रहा है। हमने देवलोक के देव देखे नहीं हैं। हमारे सामने तो यही साक्षात् देव है। यदि चारित्र, तप, नियम, ब्रह्मचर्य-पालन एवं त्रिगुप्ति की सम्यक् प्रकार से की गई आराधना का कोई कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो हम भी भविष्य में इस प्रकार के अभिलषित मानुषिक भोग भोगे तो श्रेष्ठ होगा।" "अहो ! यह चेलणादेवी महान् ऋद्धिवाली है यावत् बहुत सुखी है। वह स्नान करके यावत् सभी अलंकारों से विभूषित होकर श्रेणिक राजा के साथ मानुषिक भोग भोग रही है। हमने देवलोक को देवियाँ नहीं देखी हैं। हमारे सामने तो यही साक्षात् देवी है। यदि चारित्र, तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य-पालन का कुछ विशिष्ट फल हो तो हम भी भविष्य में ऐसे ही मानुषिक भोग भोगें तो श्रेष्ठ होगा।" श्रमण भगवान् महावीर ने बहुत से निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थनियों को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा प्र०—“पार्यो ! श्रेणिक राजा और चेलणादेवी को देखकर इस प्रकार के अध्यवसाय यावत् विचार उत्पन्न हुए—'अहो ! श्रेणिक राजा महद्धिक है यावत् तो यह श्रेष्ठ होगा।' अहो चेलणादेवी महद्धिक है यावत् तो यह श्रेष्ठ होगा।' हे आर्यो ! यह वृत्तान्त यथार्थ है ? उ०—हां भगवन् ! यह वृत्तान्त यथार्थ है। निर्ग्रन्थ का मनुष्यसम्बन्धी भोगों के लिए निदान करना एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णते, इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे, अणुत्तरे, पडिपुण्णे, केवले, संसुद्धे, णेप्राउए, सल्लकत्तणे, सिद्धिमग्गे, मुत्तिमग्गे, निज्जाणमग्गे, निब्याणमग्गे, अवितहमविसंधी, सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे। इत्थं ठिया जीवा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सम्वदुक्खाणमंतं करेंति / जस्स णं धम्मस्स निगथे सिक्खाए उवट्ठिए विहरमाणे, पुरा दिगिंछाए, पुरा पिवासाए, पुराऽसीतातहिं, पुरा पुट्ठोहिं विरूवरूवेहि परीसहोवसगेहि उदिण्णकामजाए यावि विहरेज्जा से य परक्कमेज्जा, से य परक्कममाणे पासेज्जा-जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउया। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवीं वशा] [89 तेसिं णं अण्णयरस्स प्रतिजायमाणस्स वा निज्जायमाणस्स वा पुरओ महं दासी-दास-किंकरकम्मकर-पुरिसा छत्तं भिगारं गहाय निग्गच्छति / तयाणंतरं च णं पुरओ महापासा आसवरा, उभओ तेसिं नागा नागवरा, पिट्ठओ रहा रहवरा, रहसंगल्लिपुरिस पदाति परिक्खित्तं। से य उद्धरिय-सेय-छत्ते, अन्भुगये भिंगारे, पग्गहिय तालियंटे, पवीयमाण-सेय-चामरबालवीयणीए। अभिक्खणं-अभिक्खणं अतिजाइ य निज्जाइ य सप्पभा। सपुवावरं च णं ण्हाए जाव' सव्वालंकारविभूसिए, महति महालियाए कूडागारसालाए, महति महालयंसि सयणिज्जसि दुहनो उण्णते मज्झे पतगंभीरे यण्णओ सवरातिणिएणं जोइणा झियायमाणेणं, इत्थिगुम्मपरिवुडे महयाहत-नट्ट-गीय-वाइय-तंतो-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंग-मुद्दल-पडप्पवाइयरवेणं उरालाई माणुस्सगाई कामभोगाई भुजमाणे विहरति / तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच अवुत्ता चेव अन्भुट्ठति "भण देवाणुप्पिया! किं करेमो ? कि उवणेमो ? कि आहरेमो? कि प्राचिट्ठामो ? किं भे हियइच्छियं ? कि ते पासगस्स सदति ?" जं पासित्ता जिग्गथे णिदाणं करेइ "जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि, तं अहमवि आगमिस्साए इमाइं एयारूवाई उरालाई माणुस्सगाई कामभोगाइं भुजमाणे विहरामि से तं साहू।" ___ एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथे णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स प्रणालोइय-अप्पडिक्कते कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति महड्डिएसु महज्जुइएसु महब्बलेसु महायसेसु महासुक्खेसु महाणुभागेसु दूरगईसु चिरहितिएसु / से णं तत्थ देवे भवइ महड्डिए जाव' दिव्वाई भोगाई भुजमाणे विहरइ जाव से णं तओ देवलोगाओ पाउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं, अणंतरं चयं चइत्ता से जे इमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउया, तेसि णं अन्नयरंसि कुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाति / से णं तत्थ दारए भवइ, सुकुमालपाणिपाए, अहोणपडिपुण्णपंचिदियसरीरे, लक्खण-वंजण. गुणोववेए, ससिसोमागारे, कंते, पियदसणे, सुरूवे / तए णं से दारए उम्मुक्कबालभावे, विण्णाणपरिणयमित्ते, जोव्वणगमणुष्पत्ते सयमेव पेइयं दायं पडिवज्जति। 1. ज्ञाता. अ. 1, सु. 47, पृ. 20 (अंगसुत्ताणि) 2. ठाणं. अ. 8, सु. 10 3. ठाणं. अ. 8, सु. 10 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [दशाश्रुतस्कन्ध तस्स णं अतिजायमाणस्स वा, णिज्जायमाणस्स वा, पुरओ महं दासीदासकिंकरकम्मकरपुरिसा छत्तं भिगारं गहाय निगच्छंति जाव' तस्स णं एगमवि प्राणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच प्रवुत्ता चेव अब्भु? ति'भण देवाणुप्पिया ! कि करेमो जाव किं ते आसगस्स सदति ?' ___ ५०-तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजायस्स तहारूवे समणे वा माहणे वा उभओ कालं केवलिपण्णत्तं धम्ममाइक्खेज्जा ? उ०-हंता ! आइक्खेज्जा। प०-से गं पडिसुणेज्जा। उ०--णो इणठे समझें / अभविए णं से तस्स धम्मस्स सवणयाए / से य भवइ महिच्छे जाव दाहिणगामी नेरइए कण्हपक्खिए, आगमिस्साए दुल्लहबोहिए यावि भव। तं एवं खलु समणाउसो! तस्स णियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे जं जो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए / __ हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है / यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, श्रेष्ठ है, प्रतिपूर्ण है, अद्वितीय है, शुद्ध है, न्यायसंगत है, शल्यों का संहार करने वाला है, सिद्धि, मुक्ति, निर्याण एवं निर्वाण का यही मार्ग है, यही यथार्थ है, सदा शाश्वत है और सब दुःखों से मुक्त होने का यही मार्ग है। इस सर्वज्ञप्रज्ञप्त धर्म के आराधक सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त होते हैं और सब दुःखों का अन्त करते हैं। इस धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर आराधना करते हुए निर्ग्रन्थ के भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि अनेक परीषह-उपसर्गों से पीड़ित होने पर कामवासना का प्रबल उदय हो जाए और साथ ही संयमसाधना में विचरण करते हुए वह विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उग्रवंशीय या भोगवंशीय राजकुमार को देखे। उनमें से किसी के घर में प्रवेश करते या निकलते समय छत्र, झारी आदि ग्रहण किये हुए अनेक दास-दासी किंकर और कर्मकर पुरुष आगे-आगे चलते हैं। उसके बाद उस राजकुमार के आगे उत्तम अश्व, दोनों ओर गजराज और पीछे-पीछे श्रेष्ठ सुसज्जित रथ चलते हैं और वह अनेक पैदल चलने वाले पुरुषों से घिरा रहता है। जो कि श्वेत छत्र ऊँचा उठाये हुए, झारी लिये हुए, ताडपत्र का पंखा लिए, श्वेत चामर डुलाते हुए चलते हैं। इस प्रकार के वैभव से वह बारम्बार गमनागमन करता है। __ वह राजकुमार यथासमय स्नान कर यावत् सब अलंकारों से विभूषित होकर विशाल कुटागारशाला (राजप्रासाद) में दोनों किनारों से उन्नत और मध्य में अवनत एवं गम्भीर ( इत्यादि शय्यावर्णन जानना चाहिये / ) ऐसे सर्वोच्च ‘शयनीय में सारी रात दीपज्योति जगमगाते हुए 1. इसी निदान में। 2. इसी निदान में। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवी दशा] [91 वनितावृन्द से घिरा हुमा कुशल नर्तकों का नृत्य देखता है, गायकों का गीत सुनता है और वाद्यंत्र, तंत्री, तल-ताल, श्रुटित, घन, मृदंग, मादल आदि महान् शब्द करने वाले वाद्यों की मधुर ध्वनियां सुनता है / इस प्रकार वह उत्तम मानुषिक कामभोगों को भोगता हुअा रहता है / उसके द्वारा किसी एक को बुलाये जाने पर चार-पांच सेवक बिना बुलाये ही उपस्थित हो जाते हैं और वे पूछते हैं कि / 'हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? क्या लावे? क्या अर्पण करें और क्या आचरण करें ? आपकी हार्दिक अभिलाषा क्या है ? आपके मुख को कौन-से पदार्थ स्वादिष्ट लगते हैं ?' उसे देखकर निर्ग्रन्थ निदान करता है कि 'यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी अागामी काल में इस प्रकार से उत्तम मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों को भोगते हुए विचरण करू तो अच्छा होगा।' हे आयुष्मन् श्रमणो ! वह निर्ग्रन्थ निदान करके उस निदान सम्बन्धी संकल्पों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना जीवन के अन्तिम क्षणों में देह छोड़कर महान् ऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, महाबल वाले, महायश वाले, महासुख वाले, महाप्रभा वाले, दूर जाने की शक्ति वाले, लम्बी स्थिति वाले किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होता है / / वह वहां महधिक देव होता है यावत् देव सम्बन्धी भोगों को भोगता हुमा विचरता है यावत् वह आयु, भव और स्थिति के क्षय होने से उस देवलोक से च्यव कर शुद्ध मातृ-पितृपक्ष वाले उग्रकुल या भोगकुल में से किसी एक कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न होता है। वहां वह बालक सुकुमार हाथ-पैर वाला, शरीर तथा पांचों इन्द्रियों से प्रतिपूर्ण, शुभ लक्षणव्यंजन-गुणों से युक्त, चन्द्रमा के समान सौम्य, कांतिप्रिय दर्शन वाला और सुन्दर रूप वाला होता है / बाल्यकाल बीतने पर तथा विज्ञान की वृद्धि होने पर वह बालक यौवन को प्राप्त होता है। उस समय वह स्वयं पैतृक सम्पत्ति को प्राप्त कर लेता है। उसके कहीं जाते समय या आते समय आगे छत्र, झारी आदि लेकर अनेक दासी-दास-नौकरचाकर चलते हैं यावत एक को बुलाने पर उसके सामने चार पांच बिना बलाये ही आकर खडे हो जाते हैं और पूछते हैं कि-'हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें यावत् आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?' प्र०—इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्तरूप श्रमण माहण उभयकाल केवलिप्ररूपित धर्म कहते हैं ? उ०—हां कहते हैं। प्र०-- क्या वह सुनता है ? उ.--यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उस धर्मश्रवण के योग्य नहीं है / वह महाइच्छाओं वाला यावत् दक्षिण दिशावर्ती नरक में कृष्णपाक्षिक नैरयिक रूप में उत्पन्न होता है तथा भविष्य में उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [दशाश्रुतस्कन्ध हे आयुष्मन् श्रमणो ! उस निदानशल्य का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म का श्रवण भी नहीं कर सकता है। निर्ग्रन्थी का मनुष्यसम्बन्धी भोगों के लिये निदान करना एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते, इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे जाव' सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। जस्स णं धम्मस्स निग्गंथी सिक्खाए उद्विया विहरमाणी जाव पासेज्जा से जा इमा इथिया भवइ-एगा, एगजाया, एगाभरणपिहाणा, तेल्ल-पेला इव सुसंगोपिता, चेल-पेला इव सुसंपरिगहिया, रयणकरंडकसमाणी। तोसे णं अतिजायमाणीए वा, निज्जायमाणीए वा, पुरओ महं दासी-दास-किंकर-कम्मकरपुरिसा छत्तं भिगारं गहाय निग्गच्छति जाव तस्स णं एगमवि प्राणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच अवुत्ता चेव अब्भुट्ठति, “भण देवाणुप्पिया ! कि करेमो जाव' कि ते आसगस्स सदति ?" जं पासित्ता निग्गंथी णिदाणं करेति -- ___ "जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि, तं अहमदि आगमिस्साए इमाई एयारवाई उरालाई माणुस्सगाई कामभोगाइं भुजमाणी विहरामि-से तं साहु / " __एवं खलु समणाउसो! निग्गंथी णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कता कालेमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारा भवइ जाव' दिव्वाइं भोगाई भुजमाणी विहरति जाव' सा गं ताओ देवलोगानो आउखएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता जे इमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउया एतेसि णं अण्णयरंसि कुलंसि दारियत्ताए पच्चायाति / सा णं तत्थ दारिया भवइ सुकुमाला जाव सुरूवा।। तए णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं, विण्णाणपरिणयमित्तं, जोवणगमणुप्पत्तं, पडिरवेणं सुक्केणं पडिरूवस्स भतारस्स भारियत्ताए दलयंति / ___ सा णं तस्स भारिया भवइ एगा, एगजाया, इट्ठा, कता, पिया, मणुण्णा, मणामा, धेज्जा, वेसासिया, सम्मया, बहुमया, अणुमया रयणकरंडगसमाणा / तोसे णं अतिजायमाणीए वा, निज्जायमाणीए वा पुरतो महं दासी-दास-किंकर-कम्भकर पुरिसा छत्तं, भिंगारं गहाय निग्गच्छंति जाव' तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच अबुत्ता चेव अब्भुट्ठति--"भण देवाणुप्पिया! किं करेमो जाव' कि ते आसगस्स सदति ?" 1. सूय. श्रु. 2, अ. 2, सूत्र 58-61 (अंगसुत्ताणि) 2-10. प्रथम निदान में देखें। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसवी दशा] प०-तीसे णं तहप्पगाराए इत्थियाए तहाल्वे समणे वा माहणे वा उभयकालं केवलिपण्णत्तं धम्म आइक्खेज्जा? उ०-हंता ! आइक्खेज्जा। प०-सा णं पडिसुज्जा ? उ.- णो इणठे समढे / अभिवया णं सा तस्स धम्मस्स सवणयाए। सा य भवति महिच्छा जाब' दाहिणगामिए णेरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साए दुल्लभबोहिया यावि भवइ / एवं खलु समणाउसो! तस्स नियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे जं णो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए। हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है / यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। इस धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर आराधना करती हुई निर्ग्रन्थी यावत् एक ऐसी स्त्री को देखती है जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राणप्रिया है / वह एक सरीखे (स्वर्ण के या रत्नों के) आभरण एवं वस्त्र पहने हुई है तथा तेल की कुप्पी, वस्त्रों की पेटी एवं रत्नों के करंडिये के समान संरक्षणीय है और संग्रहणीय है। प्रासाद में आते-जाते हुए उसके आगे छत्र, झारी लेकर अनेक दासी-दास-नौकर-चाकर चलते हैं यावत् एक को बुलाने पर उसके सामने चार-पांच बिना बुलाये ही आकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं- "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? यावत् आपके मुख को कोनसे पदार्थ अच्छे लगते हैं ? उसे देखकर निर्ग्रन्थी निदान करती है कि "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार के उत्तम मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगते हुए विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे आयुष्मन् श्रमणो ! वह निर्ग्रन्थी निदान करके उस निदान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना जीवन के अन्तिम क्षणों में देह त्याग कर किसी एक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होती है यावत् दिव्य भोग भोगती हुई रहती है यावत् आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर वह उस देवलोक से च्यव कर विशुद्ध मातृ-पितृपक्ष वाले उग्रवंशी या भोगवंशी कुल में से किसी एक कुल में बालिका रूप में उत्पन्न होती है। वहां वह बालिका सुकुमार यावत् सुरूप होती है। उसके बाल्यभाव से मुक्त होने पर तथा विज्ञानपरिणत एवं यौवनवय प्राप्त होने पर उसे उसके माता-पिता उस जैसे सुन्दर एवं योग्य पति को अनुरूप दहेज के साथ पत्नी रूप में देते हैं। 1. प्रथम निदान में देखें। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दशाभूतस्कन्ध वह उस पति की इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतीव मनोहर, धैर्य का स्थान, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत (अतीव मान्य) रत्नकरण्डक के समान केवल एक भार्या होती है। आते-जाते उसके पागे छत्र, झारी लेकर अनेक दासी-दास, नौकर-चाकर चलते हैं यावत् एक को बुलाने पर उसके सामने चार-पांच बिना बुलाये ही आकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि 'हे देवानुप्रिये ! कहो हम क्या करें ? यावत् अापके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प्र०-क्या उस ऋद्धिसम्पन्न स्त्री को तप-संयम के मूर्तरूप श्रमण-माहण उभयकाल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०-हां कहते हैं। प्र०-क्या वह (श्रद्धापूर्वक) सुनती है ? उ.--यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह उस धर्मश्रवण के लिये अयोग्य है / वह उत्कृष्ट अभिलाषाओं वाली यावत् दक्षिण दिशावर्ती नरक में कृष्णपाक्षिक नैरयिक रूप में उत्पन्न होती है तथा भविष्य में उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। हे आयुष्मन् श्रमणो! उस निदानशल्य का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म का श्रवण भी नहीं कर सकती है। निर्ग्रन्थ का स्त्रीत्व के लिये निदान करना एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णत्ते, इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे जाव' सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति। जस्स णं धम्मस्स सिक्खाए निग्गंथे उबट्ठिए विहरमाणे जाव' पासेज्जा-से जा इमा इथिया भवति–एगा, एगजाया जाव' जं पासित्ता निग्गंथे निदाणं करेंति दुक्खं खलु पुमत्तणए, जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया, भोगपुत्ता महामाउया, एतेसि णं अण्णतरेसु उच्चावएसु महासमरसंगामेसु उच्चावयाइं सत्थाई उरंसि चेव पडिसंवेदेति / तं दुक्खं खलु पुमत्तणए, इत्थित्तणयं साहु / / "जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स फलवित्तिविसेसे अस्थि, तं अहमवि आगमेस्साए इमाई एयारूवाई उरालाई इथिभोगाई भुजमाणे विहरामि-से तं साहु / " एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथे णियाणं किच्चा तस्स ठाणस्स प्रणालोइय-अपडिक्कते जाव' प्रागमेस्साए दुल्लहबोहिए यावि भवइ / __ एवं खलु समणाउसो ! तस्स णियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे जं नो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए। 1-3. प्रथम निदान में देखें। 4. द्वितीय निदान में देखें / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवों दशा] [95 हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है। यही निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। कोई निर्ग्रन्थ केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हो विचरते हुए यावत् एक स्त्री को देखता है जो अपने पति की केवल एकमात्र प्राणप्रिया है यावत् निर्ग्रन्थ उस स्त्री को देखकर निदान करता है-- "पुरुष का जीवन दुःखमय है, क्योंकि जो ये विशुद्ध मात-पितृपक्ष वाले उग्रवंशी या भोगवंशी पुरुष हैं, वे किसी छोटे-बड़े युद्ध में जाते हैं और छोटे-बड़े शस्त्रों का प्रहार वक्षस्थल में लगने पर वेदना से व्यथित होते हैं / अतः पुरुष का जीवन दुःखमय है और स्त्री का जीवन सुखमय है। यदि सम्यक् प्रकार से प्राचरित मेरे इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में स्त्री सम्बन्धी इन उत्तम भोगों को भोगता हुआ विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे प्रायुष्मन् श्रमणो! वह निर्ग्रन्थ निदान करके उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना यावत् उसे आगामी काल में सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। __ हे आयुष्मन् श्रमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्ररूपित धर्म को नहीं सुन सकता है। निर्ग्रन्थी का पुरुषत्व के लिये निदान करना ___एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते, इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे जाव' सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति / जस्स णं धम्मस्स निग्गंथी सिक्खाए उवट्टिया विहरमाणी जावपासेज्जा जे इमे उग्गपुसा महामाउया भोगपुत्ता महामाउया जाव जं पासित्ता निग्गंथी णिदाणं करेंति-- "दुक्खं खलु इत्थित्तणए, दुस्संचराइं गामंतराइं जाव' सन्निवसंतराई। से जहानामए अंबपेसियाइ वा, मातुलिंगपेसियाइ वा, अंबाडगपेसियाइ वा, उच्छुखंडियाइ वा, संबलिफलियाइ वा बहुजणस्स प्रासायणिज्जा, पत्थणिज्जा, पीहणिज्जा, अभिलसणिज्जा / एवामेव इत्थिया वि बहुजणस्स प्रासायणिज्जा जाव' अभिलसणिज्जा तं दुक्खं खलु इत्थित्तणए, पुमत्तणए णं साहु / " 1. प्रथम निदान में देखें। 3. आ. श्रु. 2, प्र. 1, उ. 2, सु. 338 5. प्रथम निदान में देखें। 2. प्रथम निदान में देखें। 4. इसी निदान में देखें। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दशाश्रुतस्कन्ध "जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स फलवित्तिविसेसे अस्थि, तं अहमवि प्रागमेस्साए इमाइं एयारूवाइं उरालाई पुरिसभोगाई भुजमाणी विहरामि-से तं साह।" एवं खलु समणाउसो ! णिगंथी हिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स आणालोइयअप्पडिक्कंता जाब' दुल्लहबोहिया यावि भवइ / एवं खलु समणाउसो! तस्स णियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे, ज नो संचाएइ केवलिपण्णत्तं धम्मं पडिसुणित्तए। हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है / यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। उस केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए कोई निम्रन्थी उपस्थित होकर विचरती हुई यावत् एक पुरुष को देखती है जो कि विशुद्ध मातृ-पितृपक्ष वाला उग्रवंशी या भोगवंशी है यावत उसे देखकर निर्ग्रन्थी निदान करती है कि--- "स्त्री का जीवन दुःखमय है, वह क्योंकि किसी अन्य गांव को यावत् अन्य सन्निवेश को अकेली स्त्री नहीं जा सकती है। जिस प्रकार प्राम, बिजोरा या पानातक की फांके, इक्ष-खण्ड और शाल्मलि की फलियां अनेक मनुष्यों के लिए प्रास्वादनीय, प्राप्तकरणीय, इच्छनीय और अभिलषणीय होती हैं, इसी प्रकार स्त्री का शरीर भी अनेक मनुष्यों के लिए प्रास्वादनीय यावत् अभिलषणीय होता है / इसलिए स्त्री का जीवन दुःखमय है और पुरुष का जीवन सुखमय है।' "यदि सम्यक् प्रकार से प्राचरित मेरे तप, नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार के उत्तम पुरुष सम्बन्धी कामभोगों को भोगते हुए विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! वह निर्ग्रन्थनी निदान करके उसकी आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना यावत् उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। हे आयुष्मन् श्रमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म का श्रवण भी नहीं कर सकता है। 5. निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी द्वारा परदेवी-परिचारणा का निदान करना एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते, इणमेव णिग्गंथे पावयणे सच्चे जाव' सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। ___ जस्स णं धम्मस्स निग्गंथो वा निग्गंथी वा सिक्खाए उवढिए विहरमाणे जाव से य परक्कममाणे माणुस्सेहि कामभोगेहि निव्वेयं गच्छेज्जा माणुस्सगा खलु कामभोगा अघुवा, अणितिया, असासया, सडणपडणविद्धसणधम्मा। 1-3. प्रथम निदान में देखें Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसों दशा [97 'उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणगवंतपित्तसुक्कसोणियसमुन्भवा / दुरूवउस्सासनिस्सासा, दुरंतमुत्तपुरीसपुग्णा, वंतासवा, पित्तासवा, खेलासवा, पच्छापुरं च णं अवस्सं विष्पजहणिज्जा। संति उड्ढं देवा देवलोयंसि / ते णं तत्थ अण्णेसि देवाणं देवीनो अभिजु जिय अभिजुजिय परियारेति अप्पणो चेव अप्पाणं विउव्विय विउन्विय परियारेति, अप्पणिज्जयाओ देवीमो अभिजुजिय अभिजुजिय परियारेति / / ____ 'जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि तं अहमवि आगमेस्साए इमाई एयारूवाइं दिध्वाइं भोगाई भुजमाणे विहरामि--से तं साहु / ' ___ एवं खलु समणाउसो ! णिग्गंथो वा णिग्गंथो वाणियाणं किच्चा जाव' देवे भवइ महिड्डिए जाव' दिव्वाई भोगाई भुजमाणे विहरइ / से णं तत्थ अण्णेसि देवाणं देवीओ अभिजु जिय अभिजु जिय परियारेइ, अप्पणो चेव अप्पाणं विउब्विय विउव्विय परियारेइ, अप्पणिज्जयाओ देवीप्रो अभिजु जिय अभिजु जिय परियारेइ / से णं ताओ देवलोगायो प्राउक्खएणं जाव पुमत्ताए पच्चायाति जाव तस्स णं एगमवि प्राणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच अवुत्ता चेव अभुट्ठति-"भण देवाणुप्पिया ! किं करेमो जाव' कि ते आसगस्स सय?" प०-तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजायस्स तहारूवे समणे वा माहणे वा उभो कालं केवलिपण्णत्तं धम्ममाइक्खेज्जा? उ.-हंता ! प्राइक्खेज्जा। प०-से गं पडिसुणिज्जा ? उ०-हंता ! पडिसुणिज्जा। प०-से गं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा? उ.-णो तिणठे समझें / अभदिए णं से तस्स धम्मस्स सद्दहणयाए / से य भवति महिच्छे जाव' दाहिणगामिए णेरइए कण्हपक्खिए आगमेस्साए दुल्लभबोहिए यावि भवति। एवं खलु समणाउसो! तस्स णियाणस्स इमेयारवे पावए फलविवागे-जंणो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्मं सद्दहित्तए वा, पत्तियत्तिए वा, रोइत्तए वा / हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। यही निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। 1-6. प्रथम निदान में देखें। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] दिशाश्रुतस्कन्ध __ कोई निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी केवलिप्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उपस्थित हो विचरण करते हुए यावत् संयम में पराक्रम करते हुए मानुषिक कामभोगों से विरक्त हो जाये और वह यह सोचे-- __ "मानव सम्बन्धी कामभोग अध्र व हैं, अनित्य हैं, अशाश्वत हैं, सड़ने-गलने वाले एवं नश्वर हैं / मल-मूत्र-श्लेष्म-मैल-वात-पित्त-कफ-शुक्र एवं शोणित से उद्भूत हैं। दुर्गन्धयुक्त श्वासोच्छ्वास तथा मल-मूत्र से परिपूर्ण हैं / वात-पित्त और कफ के द्वार हैं। पहले या पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" जो ऊपर देवलोक में देव रहते हैं-- वे वहां अन्य देवों की देवियों को अपने अधीन करके उनके साथ विषय सेवन करते हैं, स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के साथ विषय सेवन करते हैं और अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन करते हैं।" "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तप, नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में इन उपर्युक्त दिव्यभोगों को भोगते हुए विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे आयुष्मन् श्रमणो! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थनी (कोई भी) निदान करके यावत् देव रूप में उत्पन्न होता है। वह वहां महाऋद्धि वाला देव होता है यावत् दिव्यभोगों को भोगता हुआ विचरता है। वह देव वहां अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन करता है। स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के साथ विषय सेवन करता है। और अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन करता है। वह देव उस देवलोक से आयु के क्षय होने पर यावत् पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत् उसके द्वारा एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें ? यावत् अापके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प्र०—इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्त रूप श्रमण माहण उभय काल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०–हां, कहते हैं। प्र०—क्या वह सुनता है ? उ० हां, सुनता है। प्र०--क्या वह केवलिप्ररूपित धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति या रुचि करता है ? उ०-यह सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सर्वज्ञप्ररूपित धर्म पर श्रद्धा करने के अयोग्य है / किन्तु वह उत्कट अभिलाषाएँ रखता हुआ यावत् दक्षिण दिशावर्ती नरक में कृष्णपाक्षिक नैरयिक रूप में उत्पन्न होता है तथा भविष्य में उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति भी दुर्लभ होती है। हे आयुष्मन् श्रमणो ! निदान शल्य का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं रखता है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवी दशा] निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी के द्वारा स्वदेवी-परिचारणा का निदान करना एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णत्ते जाव' से य परक्कममाणे माणुस्सएसु कामभोगेसु निवेयं गच्छेज्जा, "माणुस्सगा खलु कामभोगा अधुवा जाव विप्पजहणिज्जा। संति उड्ढं देवा देवलोयंसि ते णं तत्थ णो अण्णेसि देवाणं देवीओ अभिजु जिय-अभिजुजिय परियारेति, अप्पणो चेव अप्पाणं विउवित्ता परियारेति, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिजु जियअभिजुजिय परियारेति / " | "जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि, अहमवि आगमेस्साए इमाई एयारूवाई दिव्वाइं भोगाई भुजमाणे विहरामि-से तं साहु / " एवं खलु समणाउसो ! णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा णियाणं किच्चा जाव देवे भवइ, महिडिए जाव' दिव्वाई भोगाइं भुजमाणे विहरइ / __ से णं तत्थ णो अण्णास देवाणं देवोओ अभिजुजिय-अभिजुजिय परियारेइ, अप्पणो चेव अप्पाणं विउब्विय-विउव्विय परियारेइ, अप्पणिज्जियानो देवीओ अभिजु जिय-अभिजु जिय परियारेइ। से णं तानो देवलोगाओ आउक्खएणं जाव' पुमत्ताए पच्चायाति जाव' तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच अवुत्ता चेव अभुद्रुति "भण देवाणुप्पिया ! किं करेमो ? जाव' किं ते आसगस्स सयइ ?" प०--तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजायस्स तहारूवे समणे वा माहणे वा उभयो कालं केवलिपण्णत्तं धम्ममाइक्खेज्जा ? उ०—हंता! प्राइक्खेज्जा। ५०-से गं पडिसुणेज्जा ? उ०-हंता! पडिसुज्जा / १०-से णं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा ? उ०—णो तिणठे समठे, अण्णत्थरुई यावि भवति / अण्णरुइमायाए से भवति जे इमे आरणिया, आवसहिया, गामंतिया, कण्हूइरहस्सिया। णो बहु-संजया, णो बहुपडिविरया सव्व-पाण-भूय-जीव-सत्तेसु, अप्पणो सच्चामोसाइं एवं विपडिववंति अहं णं हंतव्वो, अण्णे हंतव्वा, अहं णं अज्जावेयब्वो, अण्णे अज्जावेयव्वा, अहं णं परियावेयन्वो, अण्णे परियावेयव्वा, 1-7. प्रथम निदान में देखें / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10.] [दशाभुतस्कन्ध अहं णं परिघेतव्वो, अण्णे परिघेतव्या, अहं णं उबद्दवेयव्यो, अण्णे उबद्दवेयव्वा, एवामेव इथिकामेहि मुच्छिया गढिया गिद्धा अझोबवण्णा जाव' कालमासे कालं किच्चा अण्णयेरसु आसुरिएसु किग्विसिएसु ठाणेसु उववत्तारो भवंति / ततो विमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए पच्चायति / एवं खलु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागणं णो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्मं सद्दहित्तए वा, पत्तिइत्तए वा, रोइत्तए वा। हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है यावत् संयम की साधना में पराक्रम करते हुए निर्ग्रन्थ मानवसम्बन्धी कामभोगों से विरक्त हो जाए और यह सोचे कि "मानव सम्बन्धी कामभोग अध्र व हैं यावत् त्याज्य हैं। जो ऊपर देवलोक में देव हैं वे वहां अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन नहीं करते हैं, किन्तु स्वयं की विकुर्वित देवियों के साथ विषय सेवन करते हैं तथा अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन करते हैं।" "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्यपालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार के दिव्यभोगों को भोगते हुए विचरण करूतो यह श्रेष्ठ होगा।" हे आयुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी (कोई भी) निदान करके यावत् देव रूप में उत्पन्न होता है / वह वहां महाऋद्धि वाला देव होता है यावत् दिव्यभोगों को भोगता हुआ विचरता है। वह देव वहां अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन नहीं करता है, स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के साथ विषय सेवन करता है और अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन करता है। वह देव उस देवलोक से आयु के क्षय होने पर यावत् पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत् उसके द्वारा एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें यावत् आपके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ? प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्त रूप श्रमण माहण उभय काल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०—हां, कहते हैं। प्र०-क्या वह सुनता है ? उ०-हां, सुनता है। 1. सूय. श्रु. 2, अ. 2, सु. 59 (अंग सुत्ताणि) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवों दशा] [101 प्र०—क्या वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है ? उ०-यह सम्भव नहीं है, किन्तु वह अन्य दर्शन में रुचि रखता है। अन्य दर्शन को स्वीकार कर वह इस प्रकार के आचरण वाला होता है जैसे कि ये पर्णकुटियों में रहने वाले अरण्यवासी तापस और ग्राम के समीप की वाटिकाओं में रहने वाले तापस तथा अदृष्ट होकर रहने वाले जो तांत्रिक हैं, असंयत हैं, वे प्राण, भूत, जीव और सत्व की हिंसा से विरत नहीं हैं / वे सत्य-मृषा (मिश्रभाषा) का इस प्रकार प्रयोग करते हैं कि "मुझे मत मारो, दूसरों को मारो, मुझे आदेश मत करो, दूसरों को आदेश करो, मुझ को पीडित मत करो, दूसरों को पीडित करो, मुझ को मत पकड़ो, दूसरों को पकड़ो, मुझे भयभीत मत करो, दूसरों को भयभीत करो, इसी प्रकार वे स्त्री सम्बंधी कामभोगों में भी मूच्छित-ग्रथित, गृद्ध एवं आसक्त होकर यावत् जीवन के अन्तिम क्षणों में देह त्याग कर किसी असुरलोक में किल्विषिक देवस्थान में उत्पन्न होते हैं। वहां से वे देह छोड़ कर पुनः भेड़-बकरे के समान मनुष्यों में मूक रूप में उत्पन्न होते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिणाम है कि वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं रखता है। 7. निम्रन्थ-निर्ग्रन्थो के द्वारा सहज दिव्यभोग का निदान करना एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णते जाव' से य परक्कममाणे माणुस्सएसु काम-भोगेसु निव्वेदं गच्छेज्जा "माणुस्सग्गा खलु कामभोगा अधुवा जाव' विप्पजहियव्वा / संति उड्ड देवा देवलोगसि / ते णं तत्थ णो असि देवाणं देवोओ अभिजु जिय-अभिजु जिय परियारेइ, णो अप्पणो चेव अप्पाणं वेउब्विय-वेउन्धिय परियारेइ, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिजुजियअभिजु जिय परियारेइ / " "जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, अहमवि आगमेस्साए इमाइं एयारूवाइं दिवाई भोगाइं भुजमाणे विहरामि-से तं साहु।" . ___ एवं खलु समणाउसो! णिग्गंथो वा जिग्गंथी वा णियाणं किच्चा जाव देवे भवइ महिडिए जाव' दिवाइं भोगाई भुजमाणे विहरइ / 1-4. प्रथम निदान में देखें। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [वशाश्रुतस्कन्ध से णं तत्य णो अण्णेसि देवाणं देवीओ अभिजु जिय-अभिजु जिय परियारेड, णो अप्पणो चेव अप्पाणं विउन्विय-विउब्विय परियारेइ, अप्पणिज्जियाओ देवीमो अभिजु जिय-अभिजु जिय परियारेइ / से णं तानो देवलोगाओ पाउक्खएणं जाव' पुमत्ताए पच्चायाति जाव' तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि-पंच अवुत्ता चेव अन्भुट्ठति "भण देवाणुप्पिया ! किं करेमो जाव कि ते आसगस्स सयइ।" प०–तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजायस्स तहारूवे समणे वा माहणे वा उभओ कालं केवलिपण्णत्तं धम्मभाइक्खेज्जा। उ०-हंता! आइक्खेज्जा। प०-से णं पडिसुणेज्जा? उ०-हंता ! पडिसुज्जा / ५०–से णं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा ? उ०-हंता ! सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा / ५०-से गं सोलन्वयगुणवयवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासाइं पडिवज्जेज्जा ? उ०—णो तिणठे समझें, से णं दंसणसावए भवति / अभिगयजीवाजीवे जाव अद्विमिज्जापेमाणुरागरत्ते-- "अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अछे, एस परमठे, सेसे अणठे।" से णं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियायं पाउणह, पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / एवं खलु समणाउसो! तस्स णियाणस्स इमेयारूवे पावए फलविवागे-जं णो संचाएति सोलन्वयगुणव्वयवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासाइं पडिवज्जित्तए। हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्ररूपण किया है यावत् संयम को साधना में पराक्रम करते हुए निर्ग्रन्थ मानव सम्बन्धी कामभोगों से विरक्त हो जाय और वह यह सोचे कि--- "मानव सम्बन्धी कामभोग अध्र व हैं यावत् त्याज्य हैं। जो ऊपर देवलोक में देव हैं, वे वहां अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन नहीं करते हैं तथा स्वयं की विकुक्ति देवियों के साथ भी विषय सेवन नहीं करते हैं, किन्तु अपनी देवियों के साथ कामक्रीडा करते हैं।" "यदि सम्यक् प्रकार से प्राचरित मेरे इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी आगामी काल में इस प्रकार के दिव्यभोग भोगता हुआ विचरण करूतो यह श्रेष्ठ होगा।" हे आयुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी (कोई भी) निदान करके यावत् देव 1-8. प्रथम निदान में देखें। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवों दशा] [103 रूप में उत्पन्न होता है / वह वहां महाऋद्धि वाला देव होता है यावत् दिव्यभोगों को भोगता हुआ विचरता है। वह देव वहां अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन नहीं करता है, स्वयं ही अपनी विकुवित देवियों के साथ भी विषय सेवन नहीं करता है, किन्तु अपनी देवियों के साथ विषय सेवन करता है। वह देव उस देवलोक से आयु के क्षय होने पर यावत् पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत् उसके द्वारा किसी एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें यावत् आपके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प्र०--इस प्रकार की ऋद्धि युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्त रूप श्रमण माहण उभय काल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०—हां, कहते हैं। प्र०-क्या वह सुनता है ? उ.--हां, सुनता है। प्र०-क्या वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखता है ? उ.- हां वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखता है। प्र०-क्या वह शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास करता है ? उ०-यह सम्भव नहीं है। यह केवल दर्शन-श्रावक होता है। वह जीव अजीव के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता होता है यावत् उसके अस्थि एवं मज्जा में धर्म के प्रति अनुराग होता है। यथा-"हे आयुष्मन् ! यह निम्रन्थप्रवचन ही जीवन में इष्ट है। यही परमार्थ है। अन्य सब निरर्थक है।" वह इस प्रकार अनेक वर्षों तक अगारधर्म की आराधना करता है और आराधना करके जीवन के अन्तिम क्षणों में किसी एक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! उस निदान का यह पाप रूप परिणाम है कि वह शीलवत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास नहीं कर सकता है / 8. श्रमणोपासक होने के लिये निदान करना / एवं खलु समणाउसो! मए धम्मे पण्णत्ते जाव से य परक्कममाणे दिधमाणुस्सएहि कामभोगेहि णिवेदं गच्छेज्जा "माणुस्सगा कामभोगा अधुवा जाव विप्पजहणिज्जा, दिव्वा वि खलु कामभोगा प्रधुवा, अणितिया, प्रसासया, चलाचलण-धम्मा, पुणरागमणिज्जा पच्छा पुव्वं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा।" 1. भगवती श. 2, उ.५, सु. 11 2-3. सातवें निदान में देखें। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [वशाश्रुतस्कन्ध जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, अहमवि प्रागमेस्साए, जे इमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया, भोगपुत्ता महामाउया तेसि णं अन्नयरंसि कुलंसि पुमत्ताए पच्चायामि, तत्थ णं समणोवासए भविस्सामि--- अभिगयजीवाजीवे जाव' अहापरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे विहरिस्सामिसे तं साहु / __ एवं खलु समणाउसो ! निरगंथो वा निग्गंथी वा णिदाणं किच्चा जाव' देवे भवइ महिड्डिए जाव दिवाइं भोगाई भुजमाणे विहरइ जाव' से णं तारो देवलोगाओ पाउक्खएणं जाव' पुमत्ताए पच्चायाति जाव तस्स णं एगमवि प्राणवेमाणस जाव चत्तारि-पंच अवुत्ता चेव अभुति "भण देवाणुप्पिया! किं करेमो जाव' किं ते आसगस्स सयइ ?" प० तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजायस्स तहारूबे समणे वा माहणे वा उमओ कालं केवलिपणत्तं धम्ममाइक्खेज्जा ? उ-हंता! प्राइक्खेज्जा। ५०–से णं पडिसुज्जा ? उ०–हता! पडिसुज्जा / प०-से णं सहज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा? उ.-हंता ! सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा। ५०-से णं सीलध्वय जाव पोसहोववासाइं पडिवज्जेज्जा? उ०--हंता! पडिवज्जेज्जा। 50 से णं मुंडे भवित्ता आगारानो अणगारियं पव्वएज्जा? उ०-णो तिणठे समठे। से णं समणोवासए भवति अभिगयजीवाजीवे जाव' पडिलामेमाणे विहरइ / से णं एयारूबेणं विहारेणं विहरमाणे बहूणि वासाणि समणोवासगपरियागं पाउणइ पाउणित्ता आवाहंसि उप्पन्नंसि वा अणुष्पन्नंसि वा भत्तं पच्चक्खाएइ, भत्तं पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्ताई अणसणाई छेदेइ, बहूई भत्ताइं अणसणाई छेदित्ता पालोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / एवं खलु समणाउसो ! तस्स नियाणस्स इमेयारूवे पावफलविवागे-जं नो संचाएति सव्वानो सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता प्रागाराओ अणगारियं पवइत्तए। 1. भगवती श. 2, उ.५, सू. 11 2-8. सातवें निदान में देखें। 9. भगवती श. 2, उ. 5, सू. 11 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवीं दशा] [105 हे आयुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है यावत् संयम-साधना में पराक्रम करते हुए निर्ग्रन्थ दिव्य और मानुषिक कामभोगों से विरक्त हो जाने पर यों सोचे कि "मानुषिक कामभोग अध्र व हैं यावत् त्याज्य हैं। देव सम्बन्धी कामभोग भो अध्र व हैं, अनित्य हैं, अशाश्वत हैं, चलाचलस्वभाव वाले हैं, जन्म-मरण बढ़ाने वाले हैं, आगे-पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" "यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में जो ये विशुद्ध मातृ-पितृपक्ष वाले उग्रवंशी या भोगवंशी कुल हैं, वहां पुरुष रूप में उत्पन्न होऊँ और श्रमणोपासक बनू।" जीवाजीव के स्वरूप को जानू यावत् ग्रहण किये हुए तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे प्रायुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी (कोई भी) निदान करके यावत् देवरूप में उत्पन्न होता है। वह वहां महाऋद्धि वाला देव होता है यावत् दिव्य भोगों को भोगता हुमा विचरता है यावत् वह देव उस लोक से अायुक्षय होने पर यावत् पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत् उसके द्वारा किसी एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं-“हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें यावत् आपके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्तरूप श्रमण माहण उभयकाल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०--हां, कहते हैं। प्र०—क्या वह सुनता है ? उ० हां, सुनता है। प्र०-क्या वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है ? उ० हां, वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है ? प्र०-क्या वह शोलवत यावत् पौषधोपवास स्वीकार करता है ? उ०—हां, वह स्वीकार करता है। प्र०-क्या वह गृहवास को छोड़कर मुण्डित होता है एवं अनगार प्रव्रज्या स्वीकार करता है ? उ०-यह सम्भव नहीं / वह श्रमणोपासक होता है, जीवाजीव का ज्ञाता यावत् प्रतिलाभित करता हुप्रा विचरता है / इस प्रकार के आचरण से वह अनेक वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करता है, पालन करके रोग उत्पन्न होने या न होने पर भक्त-प्रत्याख्यान (भोजनत्याग) करता है, भक्तप्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों का अनशन से छेदन करता है, छेदन करके आलोचना एवं प्रतिक्रमण द्वारा समाधि को प्राप्त होता है। जीवन के अन्तिम क्षणों में देह छोड़कर किसी देवलोक में देव होता है। हे आयुष्मन् श्रमणो! उस निदानशल्य का यह पाप रूप परिणाम है कि वह गृहवास को छोड़कर एवं सर्वथा मुण्डित होकर अनगार प्रव्रज्या स्वीकार नहीं कर सकता है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [दशाश्रुतस्कन्ध 9. श्रमण होने के लिए निदान करना एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते जाव' से य परक्कममाणे दिवमाणुस्सएहि कामभोगेहिं निब्बेयं गच्छेज्जा "माणुस्सगा खलु कामभोगा प्रधुवा जाव' विप्पजहणिज्जा। दिव्या वि खलु कामभोगा अधुवा जाव पुणरागमणिज्जा, पच्छापुन्वं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा। "जइ इमस्स सुचरियतवनियमबंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अस्थि, अहमवि प्रागमेस्साए जाई इमाई भवंति अंतकुलाणि बा, पंतकुलाणि वा, तुच्छकुलाणि वा, दरिद्दकुलाणि वा, किवणकुलाणि वा, भिक्खागकुलाणि वा एएसि णं अण्णतरंसि कुलंसि पुमत्ताए पच्चायामि एस मे पाया परियाए सुणीहडे भविस्सति, से तं साहु / " एवं खलु समणाउसो ! णिग्गंथा वा जिग्गंथी वा णियाणं किच्चा जाव' देवे भवइ, महिडिए जाव' दिव्वाई भोगाई भुजमाणे विहरइ जाव से णं ताओ देवलोगाप्रो पाउक्खएणं जाव पुमत्ताए पच्चायाति जाव तस्स णं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि-पंच अवुत्ता चेव अभुट्ठति “भण देवाणुप्पिया ! कि करेमो जाव कि ते प्रासगस्स सयइ ?" १०–तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिसजायस्स तहारूवे समणे वा माहणे वा उभओ कालं केवलिपण्णत्तं धम्ममाइक्खेज्जा ? उ०-हंता, आइक्खेज्जा। प०-से णं पडिसुणेज्जा ? उ०-हंता, पडिसुणेज्जा। 50 --से णं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा? उ० -हंता, सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा। 10- से णं सोलव्वयगुणन्वयवेरभणपच्चक्खाणपोसहोववासाइं पडिवज्जेज्जा ? उ०–हता, पडिवज्जेज्जा। 50-- से णं मुडे भवित्ता प्रागाराओ अणगारियं पव्वइज्जा ? उ० --हंता, पव्वइज्जा। ५०-से णं तेणेव भवग्गहणेणं सिज्ञज्जा जाव१० सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ? उ०—णो इणट्ठ सम8। से गं भवइ-से जे अणगारा भगवंतो इरियासमिया जाव'' बंभयारी। 1-9. पहले या सातवें निदान में देखें। 10. पहले णियाणे में देखें। 11. दशा० द० 5, सु० 6 / Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवों दशा] [107 सेणं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणिता आबाहंसि उत्पन्नंसि वा अगुप्पन्नंसि वा भत्तं पच्चक्खाएइ, भत्तं पच्चक्खाइत्ता, बहूई भत्ताई अणसणाई छेदेइ, बहूई भत्ताई अणसणाई छेदेत्ता पालोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अण्णय रेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / / एवं खलु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावए फल-विवागे जं नो संचाएइ तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव' सव्वदुक्खाणं अंतं करेत्तए। हे प्रायुष्मन् श्रमणो ! मैंने धर्म का निरूपण किया है यावत् संयम की साधना में प्रयत्न करता हुमा निर्ग्रन्थ दिव्य मानुषिक कामभोगों से विरक्त हो जाए और वह यह सोचे कि "मानुषिक कामभोग अध्र व यावत् त्याज्य हैं। दिव्य कामभोग भी अध्र व यावत् भवपरम्परा बढ़ाने वाले हैं तथा पहले या पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" ___ "यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में जो ये अंतकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, कृपणकुल या भिक्षुकुल हैं, इनमें से किसी एक कुल में पुरुष बनू जिससे मैं प्रवजित होने के लिए सुविधापूर्वक गहवास छोड़ सकू तो यह श्रेष्ठ होगा।" हे आयुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी (कोई भी) निदान करके यावत् देवरूप में उत्पन्न होता है। वह वहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है / यावत् दिव्य भोग भोगता हुना विचरता है, यावत् वह देव उस देवलोक से अायु क्षय होने पर यावत् पुरुष रूप में उत्पन्न होता है, यावत् उसके द्वारा किसी एक को बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं कि "हे देवानुप्रिय ! कहो हम क्या करें यावत् अापके मुख को कौन-से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प्र०-क्या इस प्रकार की ऋद्धि से युक्त उस पुरुष को तप-संयम के मूर्तरूप श्रमण माहण उभय काल केवलिप्रज्ञप्त धर्म कहते हैं ? उ०-हां, कहते हैं। प्र०-क्या वह सुनता है ? उ०-हां, सुनता है। प्र०-क्या वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है ! उ०-हां, वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है। प्र०-क्या वह गृहवास को छोड़कर मुण्डित होता है एवं अनगारप्रव्रज्या स्वीकार करता है ? उ० हां, वह अनगारप्रव्रज्या स्वीकार करता है। प्र०—क्या वह उसी भव में सिद्ध हो सकता है यावत् सब दुःखों का अंत कर सकता है ? उ०—यह सम्भव नहीं है / 1. पहले निदान में देखें। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.] [दशाभूतस्कन्ध वह अनगार भगवंत ईर्या-समिति का पालन करने वाला यावत् ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला होता है। इस प्रकार के आचरण से वह अनेक वर्षों तक संयमपर्याय का पालन करता है, अनेक वर्षों तक संयमपर्याय का पालन करके रोग उत्पन्न होने या न होने पर भी भक्त-प्रत्याख्यान करता है, भक्त-प्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों का अनशन से छेदन करता है, अनेक भक्तों का अनशन से छेदन करके पालोचना एवं प्रतिक्रमण द्वारा समाधि को प्राप्त होता है और जीवन के अन्तिम क्षणों में देह त्याग कर किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है। हे प्रायुष्मन् श्रमणो ! उस निदानशल्य का यह पाप रूप परिणाम है कि वह उस भव से सिद्ध नहीं होता है यावत् सब दुःखों का अन्त नहीं कर पाता है। निदानरहित को मुक्ति एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते-इणमेव निग्गथे पावयणे सच्चे जाव' सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / जस्स णं धम्मस्स सिक्खाए निग्गथे उदिए विहरमाणे से य परक्कमेज्जा से य परक्कममाणे सव्वकामविरत्ते, सव्वरागविरत्ते, सव्वसंगातीते, सव्यहा सम्वसिणेहातिक्कते सम्वचरित्तपरिवुडे / तस्स गं भगवंतस्स अणुत्तरेणं णाणेणं, अणुत्तरेणं दंसणेणं जाव' अणुत्तरेणं परिनिव्वाणमागेणं अप्पाणं भावमाणस्स अणते, अणुत्तरे, निव्याघाए, निरावरणे, कसिणे, पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जेज्जा। तए णं से भगवं अरहा भवइ, जिणे, केवली, सव्वण्णू, सव्वभावदरिसी, सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणइ, तं जहा आगई, गई, ठिई, चवणं, उववायं, भुतं, पीयं, कडं, पडिसेवियं, आवीकम्मं, रहोकम्म, लवियं, कहियं, मणोमाणसियं / सव्वलोए सव्यजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे विहरइ। से णं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाई केवलिपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अप्पणो पाउसेसं आभोएइ, प्राभोएत्ता भत्तं पच्चक्खाएइ, पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्ताई प्रणसणाइ छेदेइ, तओ पच्छा चरमेहिं ऊसासनीसासेहि सिज्झइ जाव: सव्वदुक्खाणमंतं करेइ / __ एवं खलु समणाउसो! तस्स अणिदाणस्स इमेयारूबे कल्लाणे फलविवागे जं तेणेव भवम्गहणणं सिज्मति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ / -...------ 1. प्रथम निदान में देखें। 2. दसा. द. 10, सु. 33 नवसुत्ताणि 3. प्रथम निदान में देखें। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 बसों दशा ___तए णं ते बहवे निग्गंथा य निग्गंथीयो य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमलैं सोच्चा णिसम्म समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता तस्स ठाणस्स आलोयंति पडिक्कमति जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जति / हे आयुष्मन् श्रमणो! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है / यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं। इस धर्म की आराधना के लिए उपस्थित होकर विचरता हुआ वह निर्ग्रन्थ तप-संयम में पराक्रम करता हुमा तप-संयम की उग्र साधना करते समय काम-राग से सर्वथा विरक्त हो जाता है। संगस्नेह से सर्वथा रहित हो जाता है और सम्पूर्ण चारित्र की आराधना करता है। उत्कृष्ट ज्ञान, दर्शन और चारित्र यावत् मोक्षमार्ग से अपनी आत्मा को भावित करते हुए उस अनगार भगवंत को अनन्त, सर्वप्रधान, बाधा एवं आवरण से रहित, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान उत्पन्न होता है। उस समय वह अरहन्त भगवंत जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाता है, वह देव, मनुष्य, असुर आदि लोक के पर्यायों को जानता है, यथा ___जीवों की प्रागति, गति, स्थिति, च्यवन, उत्पत्ति तथा उनके द्वारा खाये-पीये गये पदार्थों एवं उनके द्वारा सेवित प्रकट एवं गुप्त सभी क्रियाओं को तथा वार्तालाप, गुप्त वार्ता और मानसिक चिन्तन को प्रत्यक्ष रूप से जानते-देखते हैं। वह सम्पूर्ण लोक में स्थित सर्व जीवों के सर्व भावों को जानते देखते हुए विचरण करता है / वह इस प्रकार केवली रूप में विचरण करता हुआ अनेक वर्षों की केवलिपर्याय को प्राप्त होता है और अपनी आयु का अन्तिम भाग जानकर वह भक्तप्रत्याख्यान करता है, भक्तप्रत्याख्यान करके अनेक भक्तों को अनशन से छेदन करता है। उसके बाद वह अन्तिम श्वासोच्छ्वास के द्वारा सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। हे आयुष्मन् श्रमणो! उस निदान रहित साधनामय जीवन का यह कल्याणकारक परिणाम है कि वह उसी भव से सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। उस समय उन अनेक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों ने श्रमण भगवान महावीर से इन निदानों का वर्णन सुनकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन, नमस्कार किया और उस पूर्वकृत निदानशल्यों की आलोचना-प्रतिक्रमण करके यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तप स्वीकार किया। विवेचन-इस दशा में निदानों का वर्णन है। इसका नाम 'पायतिढाणअज्झयणं' भी कहा गया है / "आयति" शब्द का अर्थ "संसार" या "कर्मबंध" है / संसारभ्रमण या कर्मबंध के प्रमुख स्थान को 'प्रायतिट्ठाण' कहा गया है। निदान शब्द का अर्थ है—छेदन करना या काटना / जिससे ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना का छेदन होता है वह निदान कहा जाता है। निदान का सामान्य अर्थ यह भी है कि तप संयम के महाफल के बदले में अल्पफल की कामना करना। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 [वशाश्रुतस्कन्ध आवश्यकादि आगमों में निदान को आत्मा का आभ्यंतर शल्य अर्थात् हृदय का कंटक कहा है। जैसे पांव में लगा कंटक शारीरिक समाधि भंग करता है और जब तक निकल न जाय या नष्ट न हो जाय तब तक खटकता रहता है, उसी प्रकार आलोचना प्रायश्चित्त के द्वारा निदानशल्य निकल न जाये या उदय में आकर नष्ट न हो जाये तब तक बोधि (सम्यक्त्व), चारित्र और मुक्ति के लाभ में बाधक बन कर खटकता रहता है / अतः प्रात्मशांति के इच्छुक मुमुक्षु को किसी भी प्रकार का निदान (संकल्प) नहीं करना चाहिये। निदान कितने प्रकार के होते हैं ? उसकी कोई निश्चित संख्या इस दशा में नहीं कही गई है। जिन निदानों का वर्णन किया है उनकी संख्या नव है और एक अनिदान अवस्था का वर्णन है। समवायांगसूत्र में बताया गया है कि वासुदेव पद को प्राप्त करने वाले सभी पूर्वभव में निदान करते हैं। सभी प्रतिवासुदेव पद वाले जीव भी पूर्वभव में निदान करने वाले होते हैं / कोईकोई चक्रवर्ती भी पूर्वभव में निदान करने वाले होते हैं। अन्य भी कई जीव कोणिक आदि की तरह निदानकृत हो सकते हैं। निदान भी मंद या तीन परिणामों से विभिन्न प्रकार के होते हैं / तीव्र परिणामों से निदान करने वाले जीव निदानफल को प्राप्त करके नरकगति को प्राप्त करते हैं और मंद परिणामों से निदान करने वाले फल की प्राप्ति के बाद धर्माचरण करके सद्गति प्राप्त कर सकते हैं किन्तु मुक्त नहीं ते / धर्मप्राप्ति का निदान करने वाले भी उस निदान का फल प्राप्त कर लेते हैं किन्तु मुक्त नहीं हो सकते हैं। निदानवर्णन के पूर्व इस दशा में श्रेणिक और चेलना से सम्बन्धित घटित घटना का वर्णन किया गया स वर्णन में पूर्व दशाओं की उत्थानिकापद्धति से भिन्न प्रकार की उत्थानिका है, छोटी दशाएं होने का नियुक्तिकार का कथन होते हुए भी यह दशा विस्तृत वर्णन वाली है, अन्य छेदसूत्रों के विषयों से इस दशा का वर्णन भी भिन्न प्रकार का है। इसका कारण अज्ञात है, जो विद्वानों के लिए चिन्तनयोग्य है। विस्तृत पाठ प्रायः उववाईसूत्र से मिलता-जुलता है। अतः संक्षिप्त पाठों का संकलन और "जाव" शब्द का प्रयोग अत्यधिक हुआ है। वे संक्षिप्त पाठ अनेक लिपिदोषों से युक्त हैं / जिससे संक्षिप्त पाठ अनावश्यक और अशुद्ध भी हो गये हैं / इस दशा के संक्षिप्त पाठों को यथामति सुधार कर व्यवस्थित करने की कोशिश की गई है। प्रारम्भ के चार निदानों में कहा गया है कि संयमसाधना करते हुए भिक्षु या भिक्षुणी के चित्त में यदा-कदा भोगाकांक्षा उत्पन्न हो जाती है और वे मानुषिक भोगों की प्राप्ति के लिये निदान (संकल्प) करते हैं / संयम तप के प्रभाव से संकल्प के अनुसार फल प्राप्त भी हो जाता है किन्तु उसका परिणाम यह होता है कि वह जीवन भर धर्मश्रवण के भी अयोग्य रहता है और काल करके नरक में जाता है। 1. प्रथम निदान में निर्ग्रन्थ का पुरुष होना कहा है। 2. दूसरे निदान में निर्ग्रन्थी का स्त्री होना कहा है। 3. तीसरे निदान में निर्ग्रन्थ का स्त्री होना कहा है। 4. चौथे निदान में निर्ग्रन्थी का पुरुष होना कहा है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवीं दशा] [111 पांचवें, छठे और सातवें निदान में देव सम्बन्धी भोगों की प्राप्ति के लिये निदान करने का कथन है / संकल्पानुसार भिक्षु या भिक्षुणी को देवगति की प्राप्ति हो जाती है तथा उसके बाद प्राप्त होने वाले मनुष्यजीवन में भी उसे भोग-ऋद्धि की प्राप्ति होती है। 5. पांचवें निदान वाला देवलोक में स्वयं की देवियों के साथ, स्वयं की विकुर्वित देवियों के साथ और दूसरों की देवियों के साथ दिव्यभोग भोगता है किन्तु उसके बाद वह मनुष्यभव पाकर भी धर्मश्रवण के अयोग्य होता है तथा काल करके नरक में जाता है। 6. छठे निदान वाला देवलोक में स्वयं की देवियों के साथ तथा स्वयं की विकुवित देवियों के साथ दिव्यभोग भोगता है। बाद में वह मनुष्य बनकर भी तापस-संन्यासी बनता है तथा काल करके असुरकुमारनिकाय में किल्विषिक देवरूप में उत्पन्न होकर बाद में वह तिर्यक्योनि में भ्रमण करता है। 7. सातवें निदान वाला देवलोक में केवल स्वयं की देवियों के साथ दिव्यभोग भोगता है, किन्तु विकुर्वित देवियों के साथ भोग नहीं भोगता और बाद में वह मनुष्य बनकर सम्यग्दृष्टि होता है, किन्तु निदान के कारण व्रत धारण नहीं कर सकता है। अाठवां और नवमा निदान श्रावक-अवस्था या साधु-अवस्था प्राप्त करने का कहा गया है। 8. आठवें निदान वाला देवलोक में जाकर फिर मनुष्य होता है और बारहव्रतधारी श्रावक बनता है किन्तु निदान के कारण संयम ग्रहण नहीं कर सकता। 9. नवमें निदान वाला भी देवभव के पश्चात् इच्छित (तुच्छ) कुल में मनुष्य बनता है। संयम स्वीकार करता है, किन्तु तप संयम की उग्र साधना नहीं कर सकता और निदान के प्रभाव से उस भव में मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। इस प्रकार नव निदानों के वर्णन के बाद अनिदान-अवस्था का वर्णन किया गया है। निदानरहित साधना करने वाला सर्वसंगातीत होकर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध बुद्ध मुक्त होता है। इस प्रकार इस दशा में निदान के कटु फल कहकर अनिदान संयमसाधना के लिए प्रेरणा दी गई है। बृहत्कल्पसूत्र उ. 6 में भी कहा है --निदान करने वाला स्वयं के लिये मोक्ष के मार्ग का नाश करता है अतः भगवान् ने सर्वत्र निदान न करना ही प्रशस्त कहा है।' भगवदाज्ञा को जानकर मोक्षमार्ग की साधना करने वालों को कदापि निदान नहीं करना चाहिए। इस दशा में श्रेणिक राजा व चेलना रानी के निमित्त से निदान करने वाले श्रमण-श्रमणियों के मानुषिक भोगों के निदान का वर्णन प्रारम्भ किया गया, फिर क्रमशः दिव्यभोग तथा श्रावक एवं साधु-अवस्था के निदान का कथन किया गया है / इनके सिवाय अन्य भी कई प्रकार के निदान होते हैं, यथा-किसी को दुःख देने वाला बन, या इसका बदला लेने वाला बनू, मारने वाला बन इत्यादि / उदाहरण के रूप में श्रेणिक के लिये कोणिक का दुःखदाई होना, वासुदेव का प्रतिवासुदेव को मारना, द्वीपायनऋषि का द्वारिका को विनष्ट करना, द्रौपदी के पाँच पति होना व संयमधारण भी करना, ब्रह्मदत्त का चक्रवर्ती होना और सम्यक्त्व की प्राप्ति भी होना इत्यादि / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [दशाश्रुतस्कन्ध निदान के विषय में यह सहज प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसी के संकल्प करने मात्र से उस ऋद्धि की प्राप्ति कैसे हो जाती है ? ___ समाधान यह है कि किसी के पास रत्न या सोने-चांदी का भंडार है, उसे रोटी-कपड़े आदि सामान्य पदार्थों के लिये दे दिया जाए तो वे सहज ही प्राप्त हो सकते हैं। वैसे ही शाश्वत मोक्ष-सुख देने वाली तप-संयम की विशाल साधना के फल से मानुषिक या दैविक तुच्छ भोगों का प्राप्त होना कोई महत्त्व की बात नहीं है / इसे समझने के लिये एक दृष्टान्त भी दिया जाता है एक किसान के खेत के पास किसी धनिक राहगीर ने दाल-बाटी-चूरमा बनाया / किसान का मन चरमा आदि खाने के लिए ललचाया, किसान के मांगने पर भी धनिक ने कहा कि यह तेरा खेत बदले में दे तो भोजन मिले / किसान ने स्वीकार किया। भोजन कर बड़ा आनंदित हुआ। जैसे खेत के बदले एक बार मनचाहा भोजन का मिलना कोई महत्त्व नहीं रखता, वैसे ही तप-संयम को मोक्षदायक साधना से एक दो भव के भोग मिलना महत्त्व नहीं रखता। किन्तु जैसे खेत के बदले भोजन खा लेने के बाद दूसरे दिन से वर्ष भर तक किसान पश्चात्ताप से दुःखी होता है, वैसे ही तप-संयम के फल से एक भव का सुख प्राप्त हो भी जाय किन्तु मोक्षदायक साधना खोकर नरकादि के दुःखों का प्राप्त होना निदान का ही फल है। __ जिस प्रकार खेत के बदले एक दिन का मिष्ठान्न भोजन प्राप्त करने वाला किसान मूर्ख गिना जाता है, वैसे ही मोक्षमार्ग की साधना का साधक निदान करे तो महामूर्ख ही कहलायेगा / अतः भिक्षु को किसी प्रकार का निदान न करना और संयम-तप की निष्काम साधना करना ही श्रेयस्कर है। 00 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट इस प्रकाशन में जिन पाठों को अनुपयुक्त प्रविष्ट समझकर अलग कर दिया गया है उनको तथा लिपिदोष से जिन विकृत पाठों को विकृत बने समझकर सुधारा गया है, वे सब पाठ इस परिशिष्ट में दिए गए हैं। 1. सुयं मे पाउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहि एक्कारस उवासगपडिमाओ पण्णत्ताओ। 2. कयरा खलु तानो थेरेहि भगवंतेहिं एक्कारस उवासगपडिमाओ पण्णत्ताओ? 3. इमाओ खलु ताओ थेरेहि भगवंतेहिं एक्कारस उवासगपडिमाओ पण्णत्तानो, तं जहाअकिरियावादी यावि भवति–नाहियवादी नाहियपण्णे नाहियदिट्ठी, नो सम्मावादी, नो नितियावादी नसंति-परलोगवादी। - गस्थि इहलोए, गत्थि परलोए, णत्थि माता, णत्थि पिता, पत्थि अरहंता, णस्थि चक्कवट्टी, पत्थि बलदेवा, गस्थि वासुदेवा, णस्थि सुक्कडदुक्कडाणं फलवित्तिविसेसो। णो सुच्चिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति / णो दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिण्णफला भवंति, अफले कल्लाणपावए, णो पच्चायंति जीवा, पत्थि णिरयादि ह्व णस्थि सिद्धी। से एवंषादी एवंपण्णे एवंदिट्ठी एवं छंदरागमभिनिविठे यावि भवति / से य भवति महिच्छ महारंभे महापरिग्गहे अहम्मिए अहम्माणुए अहम्मसेवी अहम्मिठे अधम्मक्खाई अधम्मरागी अधम्मपलोई अधम्मजीवी अधम्मपलज्जणे अधम्मसोलसमुदाचारे अधम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणे विहरइ। "हण, छिद, भिद" वेकत्तए लोहियपाणी पावो चंडो रुद्दो खुद्दो साहस्सियो उक्कंचण-वंचणमाया-निगडी-कवड-कूड-साति-संपयोगबहुले दुस्सीले दुपरिचए दुरणुणेए दुव्वए दुप्पडियानंदे निस्सीले निग्गुणे निम्मेरे निपच्चक्खाणपोसहोववासे असाहू / सव्वानो पाणाइवायाओ अप्पडिविरए जावज्जीवाए।। एवं जाव सव्वानो कोहाओ, सव्वाओ माणाओ, सव्वाओ मायानो, सव्वानो लोभाओ, पेज्जाओ दोसाओ कलहामो अम्भक्खाणाओ पेसुग्णपरपरिवादाप्रो अरतिरतिमायामोसानो मिच्छादसणसल्लाओ अपडिविरए जावज्जीवाए। सव्वाओ ण्हाणुम्मद्दणा-अन्भंगण-वण्णगविलेवण-सद्द-फरिस-रस-रूव-गंध-मल्लालंकाराओअपडिविरए जावज्जीवाए। सम्बाओ सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीया-संदमाणिय-सयणासणजाण-वाहण-भोयण. पवित्थरविधीओ अपडिविरए जावज्जीवाए / सव्वाओ पास-हत्थि-गो-महिस-गवेलय-दासी-दास-कम्मकरपोरुसाओ अपडिविरए जावज्जीवाए। सवालो कय-विक्कय-मासद्धमास-रूवगसंववहारानो अपडिविरए जावज्जीवाए, हिरण्ण Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [वशाभूतस्कन्ध सुवण्ण-धण-धन्न-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवालाओ अपडिविरए जावज्जीवाए / सव्याओ कूडतूल-कूडमाणाम्रो अपडिविरए जावज्जीवाए। सम्वानो आरम्भ-समारंभाओ अपडिविरए जावज्जीवाए। सम्यानो करण-कारावणाप्रो अपडिविरए जावज्जीवाए। सव्याओ पयण-पयावणाओ अपडिविरए जावज्जीवाए। सव्वाओ कुट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह-बंध-परिकिलेसाओ अपडिविरए जावज्जीवाए। जे यावण्णे तहप्पगारा सावज्जा प्रबोधिआ कम्मंता परपाणपरिता वणकडा कज्जति (ततो वि अणं अपडिविरए जावज्जीवाए। से जहानामए केइ पुरिसे कल-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-निप्फाव-कुलत्थ-आलिसं-दगसईणा-पलिमंथ एमादिएहि अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजइ / एवामेव तहप्पगारे पुरिसज्जाते तित्तिर-वट्टा-लावय-कपोत-कपिजल-मिय-महिस-वराह-गाहगोध-कुम्म-सिरीसवादिहि अयते कूरे मिच्छादंडं पउंजइ / जावि य से बाहिरिया परिसा भवति, तं जहा-दासेति वा, पेसेति वा भतएति वा भाइल्लेति वा कम्मारएति वा भोगपुरिसेति वा / तेसिपि य णं अण्णयरगंसि प्रहालघुयंसि अवराधंसि सयमेव गरुयं दंडं वत्तेति, तं जहाइम दंडेह, इमं मुडेह, इमं वज्झेह, इमं तालेह, इमं अदुबंधणं करेह, इमं नियलबंधणं करेह, इमं हडिबंधणं करेह, इमं चारगबंधणं करेह, इमं नियलजुयलसंकोडियमोडितं करेह, इमं हत्थच्छिन्नं करेह, इमं पायच्छिन्नं करेह, इमं कम्नच्छिन्नं करेह, इमं नक्कच्छिन्नं करेह, इमं ओढच्छिन्नं करेह, इमं सोसच्छिन्नं करेह, इमं मुखच्छिन्नं करेह, इमं मज्झच्छिन्नं करेह, इमं वेयच्छिन्नं करेह, इमं हियउप्पाडियं करेह, एवं नयण-दसण-वसण-जिन्भुष्पाडियं करेह। इमं ओलंबितं करेह, इमं उल्लवितं करेह, इमं घंसिययं करेह, इमं घोलितयं करेह, इमं सूलाइतयं करेह, इमं सूलाभिन्नं करेह, इमं खारवत्तियं करेह, इमं दब्भवत्तियं करेह, इमं सोहपुच्छितयं करेह, इमं वसभपुच्छितयं करेह, इमं कडग्गिदड्ढयं करेह, इमं काकिणिमंसखाविततं करेह, इमं भत्तपाणनिरुद्धयं करेह, इमं जावज्जीवबंधणं करेह, हम अण्णतरेणं असभेणं क-मारेणं मारेह। जावि य से अभितरिया परिसा भवति, तं जहा-माताति वा, पिताति वा, भायाति वा भगिणिति वा, भज्जाति वा, ध्याति वा, सुण्हाति वा, तेसि पि य णं अण्णयरंसि अहालहुसगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं डंडं वत्तेति, तं जहा-सीतोदगंसि कायं ओबोलित्ता भवति। उसिणोदगवियडेण कायं ओसिंचित्ता भवति, अगणिकाएणं कायं प्रोडहित्ता भवति, जोतेण वा, वेत्तेण वा, नेत्तेण वा, कसेण वा, छिवाए वा, लताए वा, पासाई उद्दालित्ता भवति, डंडेण वा, अट्ठीण वा, मुट्ठीण वा, लेलूण वा, कवालेण वा, कायं ओओडेत्ता भवति / सहप्पगारे पुरिसज्जाते संवसमाणे दुमणा भवति / तहप्पगारे पुरिसज्जाते विष्पवसमाणे सुमणा भवंति / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [115 तहप्पगारे पुरिसज्जाते दंडमासी दंडगरुए दंडपुरक्खडे अहिते अस्सि लोयंसि अहिते परंसि लोयंसि। से दुक्खेति से सोयति एवं जूरेति तिप्पेति पिट्टेति परितप्पति / से दुक्खण-सोयण-जूरण-तिप्पण-पिट्टण-परितप्पण-वह-बंध-परिकिलेसानो अप्पडिविरते भवति / 4. एवामेव से इथिकामभोगेहि मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने जाव वासाई चउपंचमाई छहसमाणि वा अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं भुजित्ता भोगभोगाई पसवित्ता वेरायतणाई संचिणित्ता 'बहूई कूराई' कम्माइं प्रोसन्नं संभारकडेण कम्मुणा से जहानामए अयगोलेति वा, सेलगोलेति वा, उदयंसि पक्खित्ते समाणे उदगतलमतिवतित्ता अहे धरणितलपतिद्वाणे भवति / एवामेव तहप्पगारे पुरिसज्जाते वज्जबहुले, धुतबहुले पंकबहुले, वेरबहुले, दंभ-नियडि-साइबहुले, अयसबहुले, अप्पत्तियबहुले, उस्सण्णं तसपाणघाती कालमासे कालं किच्चा धरणितलमतिवतित्ता आहे णरगतलपतिढाणे भवति / 5. ते णं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिया निच्चंधकारतमसा ववगयगह-चंद-सूर-नक्खत्त-जोइसपहा / मेद-वसा-मंस-रुहिर-पूयपड़ल-चिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई बीसा परमदुन्धिगंधा काउ अगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा / असुभा नरयस्स वेदणाओ। नो चेव णं नरएसु नेरइया निहायति वा पयलायंति वा सुति वा रति वा धिति वा मति वा उवलभंति / ते णं तत्थ उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं चंडं रुक्खं दुग्गं तिव्वं दुरहियासं नरएसु नेरइया निरयवेयणं पच्चणुभवमाणा विहरति / 6. से जहानामए रुक्खे सिया पवितग्गे जाते मूलच्छिन्ने अग्गे गुरुए जतो निन्न, जतो दुग्गं, जतो विसम, ततो पवडति / एवामेव तहप्पगारे पुरिसज्जाते गन्भातो गन्भं जम्मातो जम्मं मारातो मार दुक्खातो दुक्खं वाहिणगामिए नेरइए किण्हपक्खिते आगमेस्साणं दुल्लभबोधिते यावि भवति / ___7. किरियावादी यावि भवति, तं जहा-आहियवादी आहियपण्णे आहियदिट्ठी सम्मावादी नीयावादी संति परलोगवादी अस्थि इहलोगे, अत्थि परलोगे, अस्थि माता, अस्थि पिता, अस्थि अरहंता, अस्थि चक्कवट्टी, अस्थि बलदेवा, अस्थि वासुदेवा, अस्थि सुकडदुक्कडाणं फलवित्तिविसेसे। सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति / दुषिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, सफले कल्लाणपावए, पच्चायति जोवा, अत्यि निरयादि ह्व अस्थि सिद्धी। से एवंवादी एवंपण्णे एवंविट्ठीच्छंदरागमभिनिविठे आवि भवति / से य भवति महिच्छे जाव उत्तरगामिए नेरइए सुक्कपक्खिते आगमेस्साणं सुलभबोधिते यावि भवति / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] [रशाश्रुतस्कन्ध 8. सव्वधम्मरुई यावि भवति / तस्स णं बहूई सील-वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाई नो सम्म पट्टविताई भवंति / एवं सणसावगोति पढमा उवासगपडिमा। -दसा. द. 6, सू. 1-8 नवसुत्ताणि 12. अहावरा पंचमा उवासगपडिमा-सव्धधम्मरुई यावि भवति / तस्स णं बहुई सील-व्ययगुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाई सम्मं पढविताइं भवंति / से णं सामाइयं देसावगासियं सम्म अणुपालित्ता भवति / से णं चाउद्दसटुमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहोयवासं सम्म अणुपालित्ता भवति / से णं एगराइयं उवासगपडिमं सम्मं अणुपालेत्ता भवति। से गं असिणाणए वियडभोई मउलिकडे दियाबंभचारी रति परिमाणकडे / से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा, उक्कोसेणं पंचमासे विहरेज्जा / पंचमा उवासगपडिमा। 13. अहावरा छट्ठा उवासगपडिमा--सन्धधम्मरुई यावि भवति / तस्स णं बहूई सील-वयगुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाई सम्मं पविताई भवति / से णं सामाइयं देसावगासियं सम्मं अणुपालित्ता भवति / से णं चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहोववासं सम्म अणुपालित्ता भवति / से णं एगराइयं उवासगपडिमं सम्मं अणुपालेता भवति / से णं असिणाणाए वियडभोई मउलिकडे रातोवरातं बंभचारी। सचित्तहारे से अपरिण्णाते भवति / से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे जहण्णणं एगाहं वा दुयाहं वा तिहाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासे विहरेज्जा छट्ठा उवासगपडिमा। -दसा. द. 6, सू. 12-13 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणं भगवं महावीरे पंच हत्थुत्तरे होत्था, तं जहा१. हत्थुत्तराहिं चुए, चइत्ता गम्भं बक्कते। 2. इत्युत्तराहिं गभातो गम्भं साहरिते। 3. हत्थुत्तराहिं जाते। 4. हत्थुत्तराहि मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारितं पध्वइए। 5. हत्थुत्तराहि अणंते अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने / सातिणा परिनिन्थुए भयवं जाव भुज्जो-भुज्जो उवदंसेइ। -ति बेमि // --दसा. द. 8, सू. 1 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाणं बहूणं देवाणं बहूणं देवीणं सदेवमणुयासुराए परिसाए मझगते एवं आइक्खइ एवं भासति एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ आयातिहाणे णामं अज्जो ! अज्झयणे, सगळं सहेज्यं सकारणं सुत्तं च अत्थं च तदुभयं च भुज्जो-भुज्जो उवदंसेति। -त्ति बेमि / / ___-दसा. द. 10, सू. 35 इनके अतिरिक्त अनेक संक्षिप्त, विस्तृत, संशोधित एवं परिवधित पाठों की सूची नहीं दी है। आशा है सुज्ञ पाठक स्वयं समझ लेंगे। 30 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સારાંશ इस सूत्र के नाम पागम में दो प्रकार से हैं-१. दसा, 2. प्राचारदशा, किन्तु इसी के आधार से इसका पूरा नाम दशाश्रुतस्कन्ध कहा जाता है / यह पूरा नाम प्राचीन व्याख्या ग्रन्थों आदि में उपलब्ध नहीं है अतः यह अर्वाचीन प्रतीत होता है / इस सूत्र के दस अध्ययन हैं, जिनको पहली दशा यावत् दसवीं दशा कहा जाता है। पहली दशा में 20 असमाधिस्थान हैं। दूसरी दशा में 21 सबलदोष हैं। तीसरी दशा में 33 अाशातना हैं / चौथी दशा में प्राचार्य की आठ सम्पदा हैं और चार कर्तव्य कहे गए हैं तथा चार कर्तव्य शिष्य के कहे गए हैं। पांचवी दशा में चित्त की समाधि होने के 10 बोल कहे हैं। छट्ठी दशा में श्रावक की 11 प्रतिमाएं हैं। सातवी दशा में भिक्षु की 12 पडिमाएं हैं। पाठवीं दशा का सही स्वरूप व्यवच्छिन्न हो गया या विकृत हो गया है। इसमें साधुओं की समाचारी का वर्णन था। नौवीं दशा में 30 महामोहनीय कर्मबन्ध के कारण हैं। दसवीं दशा में 9 नियाणों का निषेध एवं वर्णन है तथा उनसे होने वाले अहित का कथन है / प्रथम दशा का सारांश साध्वाचार (संयम) के सामान्य दोषों को या अतिचारों को यहां असमाधिस्थान कहा है। जिस प्रकार शरीर की समाधि में बाधक सामान्य पीड़ाएं भी होती हैं और विशेष बड़े-बड़े रोग भी होते हैं यथा--१. सामान्य चोट लगना, कांटा गड़ना, फोड़ा होना, हाथ पांव अंगुली प्रादि अवयव दुखना, दांत दुखना और इनका अल्प समय में ठीक हो जाना, 2. अत्यन्त व्याकुल एवं अशक्त कर देने वाले बड़े-बड़े रोग होना / उसी प्रकार सामान्य दोष अर्थात् संयम के अतिचारों (अविधियों) को इस दशा में असमाधिस्थान कहा गया है। इनके सेवन से संयम निरतिचार नहीं रहता है और उसकी शुद्ध पाराधना भी नहीं होती है। बीस असमाधिस्थान 1. उतावल से (जल्दी जल्दी) चलना, 2. अंधकार में चलते वक्त प्रमार्जन न करना, 3. सही तरीके से प्रमार्जन न करना, 4. अनावश्यक पाट आदि लाना या रखना, 5. बड़ों के सामने बोलना, 6. वृद्धों को असमाधि पहुंचाना, 7. पांच स्थावर कायों की बराबर यतना नहीं करना अर्थात् उनकी विराधना करना करवाना, 8. क्रोध से जलना अर्थात मन में क्रोध रखना, 9. क्रोध करना अर्थात वचन या व्यवहार द्वारा क्रोध को प्रकट करना, 10. पीठ पीछे निन्दा करना, Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] दिशाभूतस्कन्छ 11. कषाय या अविवेक से निश्चयकारी भाषा बोलना, 12. नया कलह करना, 13. पुराने शान्त कलह को पुनः उभारना, 14. अकाल (चोंतीस प्रकार के अस्वाध्यायों) में सूत्रोच्चारण करना, 15. साचत्त रज या चित्त रज से युक्त हाथ पांव का प्रमार्जन नहीं करना अर्थात प्रमार्जन किए बिना बैठ जाना या अन्य कार्य में लग जाना, 16. अनावश्यक बोलना, वाक्युद्ध करना एवं जोर-जोर से आवेश युक्त बोलना, 17. संघ में या संगठन में अथवा प्रेम सम्बन्ध में भेद उत्पन्न हो ऐसा भाषण करना, 18. कलह करना, झगड़ना, तुच्छता पूर्ण व्यवहार करना, 19. मर्यादित समय के अतिरिक्त दिन भर कुछ न कुछ खाते ही रहना, 20. अनेषणोय आहार-पानी आदि ग्रहण करना अर्थात् एषणा के छोटे दोषों की उपेक्षा करना। दूसरी दशा का सारांश सबल, प्रबल, ठोस, भारी, वजनदार, विशेष बलबान आदि लगभग एकार्थक शब्द हैं। संयम के सबल दोषों का अर्थ है कि सामान्य दोषों की अपेक्षा बड़े दोष या विशेष दोष / इस दशा में ऐसे बड़े दोषों को “शबल दोष" कहा गया है। ये दोष संयम के अनाचार रूप होते हैं / इनका प्रायश्चित्त भी गुरुतर होता है तथा ये संयम में विशेष असमाधि उत्पन्न करने वाले हैं। प्रकारान्तर से कहें तो ये शबल दोष संयम में बड़े अपराध हैं और असमाधिस्थान संयम में छोटे अपराध हैं। इक्कीस सबल दोष 1. हस्तकर्म करना, 2. मैथुन सेवन करना, 3. रात्रिभोजन करना, 4. साधु के अर्थात् अपने निमित्त बने प्राधाकर्मी आहारपानी आदि को लेना, 5. राजा के घर गोचरी जाना, 6. सामान्य साधु-साध्वियों के निमित्त बने उद्देशक आहार आदि लेना या साधु के लिए खरीदना आदि क्रिया की हो ऐसे आहारादि पदार्थ लेना, 7. बारम्बार तप त्याग आदि का भंग करना, 8. बारम्बार गण का त्याग करना और स्वीकार करना, 9, 19. घुटने (जानु) जल में डूबें इतने पानी में एक मास में तीन बार या वर्ष में 10 बार चलना / अर्थात् आठ महीने के पाठ और एक अधिक कुल 9 बार उतरने पर सबल दोष नहीं है। 10, 20. एक मास में तीन बार और वर्ष में 10 बार (उपाश्रय के लिए) माया कपट करना / अर्थात् उपाश्रय दुर्लभ होने पर 9 वार वर्ष में माया करना पड़े वह सबल दोष नहीं है। 11. शय्यातर पिंड ग्रहण करना, 12-14. जानकर संकल्प पूर्वक हिंसा करना, झूठ बोलना, प्रदत्तग्रहण करना। 15-17. श्रस स्थावर जीव युक्त अथवा सचित्त स्थान पर या उसके अत्यधिक निकट बैठना, सोना, खड़े रहना। 18. जानकर सचित्त हरी वनस्पति (1. मूल, 2. कंद, 3. स्कन्ध, 4. छाल, 5. कोंपल, 6. पत्र, 7. पुष्प, 8. फल, 9. बीज और 10. हरी वनस्पति) खाना / 21. जानकर सचित्त जल के लेप युक्त हाथ या बर्तन से गोचरी लेना। यद्यपि अतिचार-अनाचार अन्य अनेक हो सकते हैं, फिर भी यहां अपेक्षा से 20 असमाधिस्थान और 21 सबल दोष कहे गए हैं। अन्य दोषों को यथा योग्य विवेक से इन्हीं में अंतर्भावित कर लेना चाहिए। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारांश] [119 तीसरी दशा का सारांश : तेतीस आशातना संयम के मूलगुण एवं उत्तरगुण के दोषों के अतिरिक्त अविवेक और अभक्ति के संयोग से गुरु रत्नाधिक आदि के साथ की जाने वाली प्रवृत्ति को पाशातना कहते हैं। इससे संयम दूषित होता है एवं गुणों का नाश होता है। क्योंकि विनय और विवेक के सद्भाव में ही गुणों की वृद्धि होती है और पापकर्म का बन्ध नहीं होता है / दशवकालिकसूत्र में कहा भी है एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो। जेण कित्ति सुयं सिग्धं निस्सेसं चाभिगच्छई // ---दश. अ. 9, उ. २,गा. 2 जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए / जयं भुजंतो भासंतो पावकम्मं न बंधइ // -दश.अ. 4, गा. 8 बड़ों का विनय नहीं करना एवं अविनय करना ये दोनों ही अाशातना हैं / पाशातना देव गुरु की एवं संसार के किसी भी प्राणी की हो सकती है। धर्म सिद्धान्तों की भी पाशातना हो सकती है। अत: पाशातना की विस्तृत परिभाषा इस प्रकार है--देव गुरु की विनय भक्ति न करना, अविनय अभक्ति करना, उनकी प्राज्ञा भंग करना या निन्दा करना, धर्म सिद्धान्तों की अवहेलना करना या विपरीत प्ररूपणा करना और किसी भी प्राणी के प्रति अप्रिय व्यवहार करना. उसकी निन्दा तिरस्कार करना "पाशातना" है। लौकिक भाषा में इसे असभ्य व्यवहार कहा जाता है। इन सभी अपेक्षाओं से प्रावश्यकसूत्र में 33 अाशातनाएं कही हैं 1 प्रस्तुत दशा में केवल गुरु रत्नाधिक (बड़े) की आशातना के विषयों का ही कथन किया गया है / बड़ों के साथ चलने बैठने खड़े रहने में, आहार, विहार, निहार सम्बन्धी समाचारी के कर्तव्यों में, बोलने में, शिष्टाचार में, भावों में, आज्ञापालन में अविवेक अभक्ति से प्रवर्तन करना "पाशातना" है। तात्पर्य यह है कि बड़ों के साथ प्रत्येक प्रवृत्ति में सभ्यता शिष्टता दिखे और जिस व्यवहार प्रवर्तन से बड़ों का चित्त प्रसन्न रहे, उस तरह रहते हुए ही प्रत्येक प्रवृत्ति करनी चाहिए। चौथी दशा का सारांश : पाठ सम्पदा साधु साध्वियों के समुदाय की समुचित व्यवस्था के लिए प्राचार्य का होना नितान्त आवश्यक होता है / व्यवहारसूत्र उद्देशक तीन में नवदीक्षित (तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय तक), बालक (16 वर्ष की उम्र तक), तरुण (40 वर्ष की वय तक के) साधु-साध्वियों को प्राचार्य एवं उपाध्याय की निश्रा के बिना रहने का स्पष्ट निषेध है / साथ ही शीघ्र ही अपने प्राचार्य उपाध्याय के निश्चय करने का ध्र व व विधान है। साध्वी के लिए "प्रतिनी" की निश्रा सहित तीन पदवीधरों की निश्रा होना आवश्यक कहा है / ये पदवीधर शिष्य-शिष्याओं के व्यवस्थापक एवं अनुशासक होते हैं, अतः इनमें विशिष्ट गुणों की योग्यता होना आवश्यक है। व्यवहारसूत्र के तीसरे उद्देशक में इनकी आवश्यक एवं जधन्य योग्यता के गुण कहे गए हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [वशाभुतस्कन्ध प्रस्तुत दशा में प्राचार्य के पाठ मुख्य गुण कहे हैं, यथा१. प्राचारसम्पन्न- सम्पूर्ण संयम सम्बन्धी जिनाज्ञा का पालन करने वाला, क्रोध मानादि कषायों से रहित, शान्त स्वभाव वाला। 2. श्रुतसम्पन्न आगमोक्त क्रम से शास्त्रों को कंठस्थ करने वाला एवं उनके अर्थ परमार्थ को धारण करने वाला। 3. शरीरसम्पन्न-- समुचित संहनन संस्थान वाला एवं सशक्त और स्वस्थ शरीर वाला। 4. वचनसम्पन्न प्रादेय वचन वाला, मधुर वचन वाला, राग-द्वेष रहित एवं भाषा सम्बन्धी दोषों से रहित वचन बोलने वाला। 5. वाचनासम्पन्न- सूत्रों के पाठों का उच्चारण करने कराने में, अर्थ परमार्थ को समझाने में तथा शिष्य की क्षमता योग्यता का निर्णय करके शास्त्र ज्ञान देने में निपुण / योग्य शिष्यों को राग द्वेष या कषाय रहित होकर अध्ययन कराने के स्वभाव वाला। 6. मतिसम्पन्न- स्मरणशक्ति एवं चारों प्रकार की बुद्धि से युक्त बुद्धिमान हो अर्थात् भोला भद्रिक न हो। 7. प्रयोगमतिसम्पन्न-- वाद-विवाद (शास्त्रार्थ) में, प्रश्नों (जिज्ञासाओं) के समाधान करने में परिषद् का विचार कर योग्य विषय का विश्लेषण करने में एवं सेवाव्यवस्था में समय पर उचित बुद्धि की स्फुरणा हो, समय पर सही (लाभदायक) निर्णय एवं प्रवर्तन कर सके। 8. संग्रहपरिज्ञासम्पदा- साधु-साध्वी की व्यवस्था एवं सेवा के द्वारा एवं श्रावक-श्राविकाओं को विचरण तथा धर्म प्रभावना के द्वारा भक्ति निष्ठा ज्ञान विवेक की वृद्धि करने वाला। जिससे कि संयम के अनुकूल विचरण क्षेत्र, आवश्यक उपधि, आहार की प्रचुर उपलब्धि होती रहे एवं सभी निराबाध संयम आराधना करते रहें। शिष्यों के प्रति आचार्य के कर्तव्य 1. संयम सम्बन्धी और त्याग-तप सम्बन्धी समाचारी का ज्ञान कराना एवं उसके पालन में अभ्यस्त करना / समूह में रहने को या अकेले रहने की विधियों एवं प्रात्मसमाधि के तरीकों का ज्ञान एवं अभ्यास कराना। 2. आगमों का क्रम से अध्ययन करवाना, अर्थ ज्ञान करवाकर उससे किस तरह हिताहित होता है, यह समझाना एवं उससे पूर्ण आत्मकल्याण साधने का बोध देते हुए परिपूर्ण वाचना देना। 3. शिष्यों की श्रद्धा को पूर्ण रूप से दृढ़ बनाना और ज्ञान में एवं अन्य गुणों में अपने समान बनाने का प्रयत्न करना / 4. शिष्यों में उत्पन्न दोष, कषाय, कलह, आकांक्षाओं का उचित उपायों द्वारा शमन करना। ऐसा करते हुए भी अपने संयम गुणों को एवं आत्मसमाधि की पूर्णरूपेण सुरक्षा एवं वृद्धि करना। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारांश [121 गण एवं प्राचार्य के प्रति शिष्यों का कर्तव्य 1. आवश्यक उपकरणों की प्राप्ति, सुरक्षा एवं विभाजन में चतुर होना / 2. आचार्य गुरुजनों के अनुकूल ही सदा प्रवर्तन करना।। 3. गण के यश की वृद्धि, अपयश का निवारण एवं रत्नाधिक को यथायोग्य प्रादरभाव देना और सेवा करने में सिद्धहस्त होना। 4. शिष्यवृद्धि, उनके संरक्षण, शिक्षण में सहयोगी होना / रोगी साधुओं की यथायोग्य सार सम्भाल करना एवं मध्यस्थ भाव से साधुओं की शान्ति बनाए रखने में निपुण होना। पांचवी दशा का सारांश : चित्तसमाधि के दस बोल सांसारिक आत्मा को धन-वैभव भौतिक सामग्री की प्राप्ति होने पर आनन्द का अनुभव होता है, उसी प्रकार प्रात्मगुणों की अनुपम उपलब्धि में आत्मार्थी मुमुक्षुओं को अनुपम आनन्दरूप चित्तसमाधि की प्राप्ति होती है-- 1. अनुपम धर्मभावों की प्राप्ति या वृद्धि होने पर, 2. जातिस्मरणज्ञान होने पर, 3. अत्यन्त शुभ स्वप्न देखने पर, 4. देवदर्शन होने पर, 5. अवधिज्ञान, 6. प्रवधिदर्शन, 7. मनःपर्यवज्ञान, 8. केवलज्ञान 9. केवलदर्शन उत्पन्न होने पर, 10. कर्मों से मुक्त हो जाने पर / छट्ठी दशा का सारांश : श्रावकप्रतिमा __ श्रावक का प्रथम मनोरथ प्रारम्भ परिग्रह की निवृत्तिमय साधना करने का है / उस निवृत्तिसाधना के समय वह विशिष्ट साधना के लिए श्रावक की प्रतिमाओं को अर्थात् विशिष्ट प्रतिज्ञाओं को धारण कर सकता है / अनिवृत्त साधना के समय भी श्रावक समकित की प्रतिज्ञा सहित सामायिक पौषध आदि बारह व्रतों का आराधन करता है किन्तु उस समय वह अनेक परिस्थितियों एवं जिम्मेदारियों के कारण अनेकों प्रागार के साथ उन व्रतों को धारण करता है किन्तु निवृत्तिमय अवस्था में आगारों से रहित उपासक प्रतिमाओं का पालन दृढता के साथ कर सकता है। 11 प्रतिमाएं 1. आगाररहित निरतिचार सम्यक्त्व की प्रतिमा का पालन / इसमें पूर्व के धारण किए अनेक नियम एवं बारह व्रतों का पूर्व प्रतिज्ञा एवं आगार अनुसार पालन किया जाता है, उन नियमों को छोड़ा नहीं जाता। 2. अनेक छोटे बड़े नियम प्रत्याख्यान अतिचाररहित और आगाररहित पालन करने की प्रतिज्ञा करना और यथावत पालन करना / 3. प्रातः, मध्याह्न, सायं नियत समय पर ही निरतिचार शुद्ध सामायिक करना एवं 14 नियम भी नियमित पूर्ण शुद्ध रूप से प्रागाररहित धारण करके यथावत पालन करना। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [दशाभुतस्कन्ध 4. उपवास युक्त छः पौषध (दो अष्टमी, दो चतुर्दशी, अमावस, पूर्णिमा के दिन) आगार रहित निरतिचार पालन करना। 5. पौषध के दिन पूर्ण रात्रि या नियत समय तक कायोत्सर्ग करना / 6. प्रतिपूर्ण ब्रह्मचर्य का आगार रहितपालन करना / साथ ही ये नियम रखना 1. स्नानत्याग, 2. रात्रिभोजनत्याग, 3. धोती की एक लांग खुली रखना। 7. आगाररहित सचित्त वस्तू खाने का त्याग / 8. प्रागाररहित स्वयं हिंसा करने का त्याग करना। 9. दूसरों से सावध कार्य कराने का त्याग अर्थात् धर्मकार्य की प्रेरणा कर सकता है, उसके अतिरिक्त किसी कार्य की प्रेरणा या आदेश नहीं कर सकता है। 10. सावध कार्य के अनुमोदन का भी त्याग करना अर्थात् अपने लिए बनाए गए आहारादि किसी भी पदार्थ को न लेना। 11. श्रमण के समान वेष एवं चर्या धारण करना / लोच करना, विहार करना, सामुदायिक गोचरी करना या आजीवन संयमचर्या धारण करना इत्यादि का इसमें प्रतिबंध नहीं है / अतः वह भिक्षा आदि के समय स्वयं को प्रतिमाधारी श्रावक ही कहता है और ज्ञातिजनों के घरों में गोचरी जाता है। आगे-आगे की प्रतिमानों में पहले-पहले की प्रतिमानों का पालन करना आवश्यक होता है। सातवीं दशा का सारांश : बारह भिक्षुप्रतिमा भिक्षु का दूसरा मनोरथ है कि "मैं एकल विहारप्रतिमा धारण करके विचरण करू।" भिक्षुप्रतिमा भी पाठ मास की एकलविहारप्रतिमा युक्त होती है। विशिष्ट साधना के लिए एवं कर्मों की अत्यधिक निर्जरा के लिए आवश्यक योग्यता से सम्पन्न गीतार्थ (बहुश्रुत) भिक्षु इन बारह प्रतिमाओं को धारण करता है। इनके धारण करने के लिए प्रारम्भ के तीन संहनन, 9 पूर्वो का ज्ञान, 20 वर्ष को दीक्षापर्याय एवं 29 वर्ष की उम्र होना आवश्यक है / अनेक प्रकार की साधनाओं के एवं परीक्षाओं के बाद ही भिक्षुप्रतिमा धारण करने की आज्ञा मिलती है। . प्रतिमाधारी के विशिष्ट नियम 1. दाता का एक पैर देहली के अन्दर और एक पैर बाहर हो। स्त्री गर्भवती आदि न हो, एक व्यक्ति का ही भोजन हो, उसमें से ही विवेक के साथ लेना। 2. दिन के तीन भाग कल्पित कर किसी एक भाग में से गोचरी लाना, खाना। 3. छः प्रकार की भ्रमण विधि के अभिग्रह से गोचरी लेने जाना। 4. अज्ञात क्षेत्र में दो दिन और ज्ञात-परिचित क्षेत्रों में एक दिन से अधिक नहीं ठहरना। 5. चार कारणों के अतिरिक्त मौन ही रहना / धर्मोपदेश भी नहीं देना। 6-7. तीन प्रकार की शय्या और तीन प्रकार के संस्तारक का ही उपयोग करना / 8-9. साधु के ठहरने के बाद उस स्थान पर कोई स्त्री-पुरुष प्रावें, ठहरें या अग्नि लग जावे तो भी बाहर नहीं निकलना। 10-11. पांव से कांटा या प्रांख में से रज आदि नहीं निकालना / Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारांश [123 12. सूर्यास्त के बाद एक कदम भी नहीं चलना / रात्रि में मल-मूत्र की बाधा होने पर जा पा सकता है। 13. हाथ पांव के सचित्त रज लग जाए तो प्रमार्जन नहीं करना और स्वतः अचित्त न हो जाए तब तक गोचरी आदि भी नहीं जाना / 14. अचित्त जल से भी सुखशान्ति के लिए हाथ पांव नहीं धोना / 15. उन्मत्त पशु भी चलते समय सामने आ जाए तो मार्ग नहीं छोड़ना / 16. धप से छाया में और छाया से धप में नहीं जाना / ये नियम सभी प्रतिमाओं में यथायोग्य समझ लेना। प्रथम सात प्रतिमाएँ एक-एक महिने की हैं। उनमें दत्ति को संख्या 1 से 7 तक वृद्धि होती है / पाठवीं नवमी दसवी प्रतिमाएँ सात-सात दिन की एकान्तर तप युक्त की जाती हैं। सूत्रोक्त तीनतीन आसन में से रात्रि भर कोई भी एक आसन किया जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा में छ? के तप के साथ एक अहोरात्र का कायोत्सर्ग किया जाता है। बारहवीं भिक्षुप्रतिमा में अट्ठमतप के साथ श्मशान आदि में एक रात्रि का कायोत्सर्ग किया जाता है। आठवीं दशा इस दशा का नाम पyषणाकल्प है। विक्रम की तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि में अर्थात् वीर निर्वाण की अठारहवीं उन्नीसवीं शताब्दी में इस दशा के अवलम्बन से कल्पसूत्र की रचना करके उसे प्रामाणिक प्रसिद्ध करके प्रचारित किया गया है। अन्य किसी विस्तृत सूत्र के पाठों के साथ इस दशा को जोड़कर और स्वच्छंदतापूर्वक अनगिनत परिवर्तन करके इस दशा को पूर्ण विकृत करके व्यवछिन्न कर दिया गया है / अतः यह दशा अनुपलब्ध व्यवछिन्न समझनी चाहिए / इसमें भिक्षुओं के चातुर्मास एवं पर्युषणा सम्बन्धी समाचारी के विषयों का कथन था। नवमी दशा का सारांश . आठ कर्मों में मोहनीयकर्म प्रबल है, महामोहनीय कर्म उससे भी तीव्र होता है। उसके बंध सम्बन्धी 30 कारण यहां कहे गए हैं / तीस महामोह के स्थान 1-3. त्रस जीवों को जल में डुबाकर, श्वास रूंधकर, धुप्रां करके, मारना, 4-5. शस्त्रप्रहार से शिर फोड़कर. सिर पर गीला चमड़ा बांधकर मारना, 6. धोखा देकर भाला आदि से मारकर हंसना, 7. मायाचार करके उसे छिपाना या शास्त्रार्थ छिपाना, 8. मिथ्या आक्षेप लगाना, 9. भरी सभा में मिश्र भाषा का प्रयोग करके कलह करना, 10. विश्वस्त मंत्री द्वारा राजा को राज्यभ्रष्ट कर देना, 11-12. अपने को ब्रह्मचारी या बालब्रह्मचारी न होते हए भी प्रसिद्ध करना. 13-14. उपकारी पर अपकार करना, 15. रक्षक होकर भक्षक का कार्य करना. 16-17. अनेकों के रक्षक नेता या स्वामी आदि को मारना, Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] दिशाश्रुतस्कन्ध 18. दीक्षार्थी या दीक्षित को संयम से च्युत करना, 19. तीर्थंकरों की निन्दा करना, 20. मोक्षमार्ग की द्वेषपूर्वक निन्दा करके भव्य जीवों को मार्ग भ्रष्ट करना, 21-22. उपकारी प्राचार्य, उपाध्याय की अवहेलना करना, उनका आदर, सेवा, भक्ति न करना। 23-24. बहुश्रुत या तपस्वी न होते हुए भी बहुश्रुत या तपस्वी कहना, 25. कलुषित भावों के कारण समर्थ होते हुए भी सेवा नहीं करना, 26. संघ में भेद उत्पन्न करना, 27. जादू-टोना आदि करना, 28. कामभोगों में अत्यधिक आसक्ति एवं अभिलाषा रखना, 29. देवों की शक्ति का अपलाप करना, उनकी निन्दा करना, 30. देवी देवता के नाम से झूठा ढोंग करना / अध्यवसायों की तीव्रता या क्रूरता के होने से इन प्रवृत्तियों द्वारा महामोहनीय कर्म का बन्ध होता है। दसवीं दशा का सारांश ___ संयम तप की साधना रूप सम्पत्ति को भौतिक लालसाओं की उत्कटता के कारण प्रागे के भव में ऐच्छिक सुख या अवस्था प्राप्त करने के लिए दाव पर लगा देना "निदान" (नियाण करना) कहा जाता है / ऐसा करने से यदि संयम तप की पूजी अधिक हो तो निदान करना फलीभूत हो जाता है किन्तु उसका परिणाम हानिकर होता है अर्थात् राग-द्वेषात्मक निदानों के कारण निदान फल के साथ मिथ्यात्व एवं नरकादि दुर्गति की प्राप्ति होती है और धर्मभाव के निदानों से मोक्षप्राप्ति में दूरी पड़ती है / अतः निदान कर्म त्याज्य है। नव निदान 1. निर्ग्रन्थ द्वारा पुरुष के भोगों का निदान / 2. निर्ग्रन्थी द्वारा स्त्री के भोगों का निदान / 3. निर्ग्रन्थ द्वारा स्त्री के भोगों का निदान / 4. निर्ग्रन्थी द्वारा पुरुष के भोगों का निदान / 5-6-7. संकल्पानुसार दैविक सुख का निदान / 8. श्रावक अवस्था प्राप्ति का निदान / 9. साधु जीवन प्राप्ति का निदान / इन निदानों का दुष्फल जानकर निदान रहित संयम तप की आराधना करनी चाहिए। // दशाश्रुतस्कन्ध का सारांश समाप्त / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया , मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जडावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 9. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास टीला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 9. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास चन्दजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K. G. F.) जाड़न / 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी 11. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर चोरडिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचन्दजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपर 15. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी चोरडिया, मद्रास 19. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, 8. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर ___ चांगाटोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 9. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 29. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपूर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपूर 31. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 19. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी w/o श्री ताराचंदजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास 22. श्री धेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास / 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना. अागरा 24. श्री जवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी. ब्यावर 39. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्रा माणकच 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 29. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास / 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 21 - 31. श्री प्रासूमल एण्ड के०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर __ सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसा, मेड़तासिटी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 69. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास __ दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 49. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 79. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठ ___ मेड़तासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरूंद 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 59. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 89. श्री धुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 90. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजो मोदी, भिलाई 91. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 92. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 93. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी मुलेच्छा, 94. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर राजनांदगाँव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 96. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 97. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगांव Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य-नामावली 98. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजो 99. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, लोढा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 119. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास / संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी. मद्रास 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 109. श्री भंवरलाल जी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरडिया, सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुलीचंदजो बोकड़िया, मेड़ता 129. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 00 धलिया Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम-सा अनुवादक-सम्पादक आचारांगसूत्र दो भाग श्रीचन्द सुराना 'सरस' उपासकदशांगसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री (एम.ए., पी-एच. डी.) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अन्तकृद्दशांगसूत्र साध्वी दिव्यप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.) अनुत्तरोववाइयसूत्र साध्वी मुक्तिप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.) स्थानांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री समवायांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री सूत्रकृतांगसूत्र श्रीचन्द सुराना 'सरस' विपाकसूत्र अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल नन्दीसूत्र अनु. साध्वी उमरावकंवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. औपपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चार भाग] श्री अमरमुनि राजप्रश्नीयसूत्र वाणीभूषण रतनमुनि, सं. देवकुमार जैन प्रज्ञापनासूत्र [तीन भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि प्रश्नव्याकरणसूत्र अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल उत्तराध्ययनसूत्र श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री निरयावलिकासूत्र श्री देवकुमार जैन दशवकालिकसूत्र महासती पुष्पवती आवश्यकसूत्र महासती सुप्रभा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री अनुयोगद्वारसूत्र उपाध्याय श्री केवलमुनि, सं. देवकुमार जैन सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र सम्पा. मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्र. भाग] श्री राजेन्द्रमुनि जीवाजीवाभिगमसूत्र द्वि. भा.] निशीथसूत्र मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल', श्री तिलोकमुनि त्रीणिछेदसूत्राणि विशेष जानकारी के लिये सम्पर्कसूत्र श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ in Education International