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________________ गहस्थ के यहां भिक्षा के लिए या शौचादि के लिए श्रमण बाहर जाय उस समय यदि कोई गृहस्थ वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि देना चाहे तो आचार्य की अनुमति प्राप्त होने पर उसे लेना रखना चाहिए। वैसे ही धमणी के लिए प्रवर्तिनी की आज्ञा आवश्यक है। श्रमण-श्रमणियों के लिए रात्रि के समय या असमय में आहारादि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। इसी तरह वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण ग्रहण का निषेध है। अपवादरूप में यदि तस्कर श्रमण-श्रमणियों के वस्त्र चुराकर ले गया हो और वे पुनः प्राप्त हो गये हों तो रात्रि में ले सकते हैं। यदि वे वस्त्र तस्करों ने पहने हों, स्वच्छ किये हों, रंगे हों या धूपादि सुगन्धित पदार्थों से वासित किये हों तो भी ग्रहण कर सकते हैं। निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों को रात्रि के समय या विकाल में विहार का निषेध किया गया है। यदि उच्चारभूमि आदि के लिए अपवाद रूप में जाना ही पड़े तो अकेला न जाय किन्तु साधुओं को साथ लेकर जाय / निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों के विहार क्षेत्र की मर्यादा पर चिन्तन किया गया है / पूर्व में अंगदेश एवं मगधदेश तक, दक्षिण में कौसाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा तक व उत्तर में कुणाला तक-ये आर्यक्षेत्र हैं। प्रार्यक्षेत्र में विचरने से ज्ञान-दर्शन की वृद्धि होती है। यदि अनार्यक्षेत्र में जाने पर रत्नत्रय की हानि की सम्भावना न हो तो जा सकते हैं। द्वितीय उद्देशक में उपाश्रय विषयक 12 सूत्रों में बताया है कि जिस उपाश्रय में शाली, वीहि, मूग, उड़द आदि बिखरे पड़े हों वहां पर श्रमण-श्रमणियों को किंचित् समय भी न रहना चाहिए किन्तु एक स्थान पर ढेर रूप में पड़े हुए हों तो वहां हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना कल्पता है। यदि कोष्ठागार आदि में सुरक्षित रखे हुए हों तो वर्षावास में भी रहना कल्पता है। जिस स्थान पर सुराविकट, सौवीरविकट आदि रखे हों वहाँ किंचित् समय भी साधु-साध्वियों को नहीं रहना चाहिए।' यदि कारणवशात् अन्वेषणा करने पर भी अन्य स्थान उपलब्ध न हो तो श्रमण दो रात्रि रह सकता है, अधिक नहीं। अधिक रहने पर छेद या परिहार का प्रायश्चित्त आता है / 2 / इसी तरह शीतोदकविकटकुभ, उष्णोदकविकटकुभ, ज्योति, दीपक अादि से युक्त उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। इसी तरह एक या अनेक मकान के अधिपति से आहारादि नहीं लेना चाहिए। यदि एक मुख्य हो तो उसके अतिरिक्त शेष के यहां से ले सकते हैं। यहां पर शय्यातर मुख्य है जिसकी प्राज्ञा ग्रहण की है। शय्यातर के विविध पहलुओं पर चिन्तन किया गया है। निम्रन्थ-निर्गन्थियों को जांगिक, भाँगिक, सानक, पोतक और तिरिटपट्टक ये पाँच प्रकार से वस्त्र लेना 1. सुराविकटं पिष्टनिष्पन्नम् सौवीरविकटं तु पिष्टवअँगुंडादिद्रव्य निष्पन्नम् / --क्षेमकीर्तिकृत वृति, पृष्ठ 10952 2. "छेदो वा" पंचरात्रिन्दिवादिः “परिहारो वा" मासलघुकादिस्तपोविशेषो भवतीति सूत्रार्थः / / -वही 3. जंगमाः त्रसाः तदवयवनिष्पन्नं जांगमिकम्, भगा अतसी तन्मयं भांगिकम्, सनसूत्रमयं सानकम्, पोतक कार्यासिकम् तिरीट: वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कल क्षणस्तनिष्पन्न तिरीटपट्टकं ना पंचमम् / ~-उ०२, सू०२४ [ 51 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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