________________ सारांश] [119 तीसरी दशा का सारांश : तेतीस आशातना संयम के मूलगुण एवं उत्तरगुण के दोषों के अतिरिक्त अविवेक और अभक्ति के संयोग से गुरु रत्नाधिक आदि के साथ की जाने वाली प्रवृत्ति को पाशातना कहते हैं। इससे संयम दूषित होता है एवं गुणों का नाश होता है। क्योंकि विनय और विवेक के सद्भाव में ही गुणों की वृद्धि होती है और पापकर्म का बन्ध नहीं होता है / दशवकालिकसूत्र में कहा भी है एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो। जेण कित्ति सुयं सिग्धं निस्सेसं चाभिगच्छई // ---दश. अ. 9, उ. २,गा. 2 जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए / जयं भुजंतो भासंतो पावकम्मं न बंधइ // -दश.अ. 4, गा. 8 बड़ों का विनय नहीं करना एवं अविनय करना ये दोनों ही अाशातना हैं / पाशातना देव गुरु की एवं संसार के किसी भी प्राणी की हो सकती है। धर्म सिद्धान्तों की भी पाशातना हो सकती है। अत: पाशातना की विस्तृत परिभाषा इस प्रकार है--देव गुरु की विनय भक्ति न करना, अविनय अभक्ति करना, उनकी प्राज्ञा भंग करना या निन्दा करना, धर्म सिद्धान्तों की अवहेलना करना या विपरीत प्ररूपणा करना और किसी भी प्राणी के प्रति अप्रिय व्यवहार करना. उसकी निन्दा तिरस्कार करना "पाशातना" है। लौकिक भाषा में इसे असभ्य व्यवहार कहा जाता है। इन सभी अपेक्षाओं से प्रावश्यकसूत्र में 33 अाशातनाएं कही हैं 1 प्रस्तुत दशा में केवल गुरु रत्नाधिक (बड़े) की आशातना के विषयों का ही कथन किया गया है / बड़ों के साथ चलने बैठने खड़े रहने में, आहार, विहार, निहार सम्बन्धी समाचारी के कर्तव्यों में, बोलने में, शिष्टाचार में, भावों में, आज्ञापालन में अविवेक अभक्ति से प्रवर्तन करना "पाशातना" है। तात्पर्य यह है कि बड़ों के साथ प्रत्येक प्रवृत्ति में सभ्यता शिष्टता दिखे और जिस व्यवहार प्रवर्तन से बड़ों का चित्त प्रसन्न रहे, उस तरह रहते हुए ही प्रत्येक प्रवृत्ति करनी चाहिए। चौथी दशा का सारांश : पाठ सम्पदा साधु साध्वियों के समुदाय की समुचित व्यवस्था के लिए प्राचार्य का होना नितान्त आवश्यक होता है / व्यवहारसूत्र उद्देशक तीन में नवदीक्षित (तीन वर्ष की दीक्षा पर्याय तक), बालक (16 वर्ष की उम्र तक), तरुण (40 वर्ष की वय तक के) साधु-साध्वियों को प्राचार्य एवं उपाध्याय की निश्रा के बिना रहने का स्पष्ट निषेध है / साथ ही शीघ्र ही अपने प्राचार्य उपाध्याय के निश्चय करने का ध्र व व विधान है। साध्वी के लिए "प्रतिनी" की निश्रा सहित तीन पदवीधरों की निश्रा होना आवश्यक कहा है / ये पदवीधर शिष्य-शिष्याओं के व्यवस्थापक एवं अनुशासक होते हैं, अतः इनमें विशिष्ट गुणों की योग्यता होना आवश्यक है। व्यवहारसूत्र के तीसरे उद्देशक में इनकी आवश्यक एवं जधन्य योग्यता के गुण कहे गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org