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________________ करना आलोचना योग्य प्रायश्चित्त है। एषणा समिति और परिष्ठापना समिति के अतिचार प्रायः आलोचना योग्य हैं। (2) प्रतिक्रमणयोंग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि प्रतिक्रमण से हो सकती है, ऐसे अतिचारों का प्रतिक्रमण करना—प्रतिक्रमण योग्य है। समितियों एवं गुप्तियों के अतिचार प्रायः प्रतिक्रमण योग्य हैं। (3) उभययोग्य----जिन अतिचारों की शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण-दोनों से ही हो सकती है ऐसे अतिचारों की आलोचना तथा उनका प्रतिक्रमण करना-उभय योग्य प्रायश्चित्त है। एकेन्द्रियादि जीवों का अभिधान करने से यावत स्थानान्तरण करने से जो अतिचार होते हैं वे उभय प्रायश्चि योग्यत्त हैं। (4) विवेकयोग्य-जिन अतिचारों को शुद्धि विवेक अर्थात् परित्याग से होती है ऐसे अतिचारों का परित्याग करना विवेक (त्याग) योग्य प्रायश्चित्त है। आधाकर्म आहार यदि आ जाय तो उसका परित्याग करना ही विवेकयोग्य प्रायश्चित्त है।। (5) व्युत्सर्ग योग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि कायिक क्रियाओं का अवरोध करके ध्येय में उपयोग स्थिर करने से होती है ऐसे अतिचार व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त योग्य हैं। नदी पार करने के बाद किया जाने वाला कायोत्सर्ग व्युत्सर्ग योग्य प्रायश्चित्त है। (6) तपयोग्य-जिन अतिचारों की शूद्धि तप से ही हो सकती है--ऐसे अतिचार तप प्रायश्चित्त योग्य हैं। निशीथसूत्र निर्दिष्ट अतिचार प्रायः तप (मुरुमास, लघुमास) प्रायश्चित्त योग्य हैं। (7) छेदयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि दीक्षा छेद से हो सकती है वे अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। पाँच महाव्रतों के कतिपय अतिचार छेद प्रायश्चित्त योग्य हैं। (8) मूलयोग्य-जिन अतिचारों की शुद्धि महाव्रतों के पुन: आरोपण करने से ही हो सकती है, ऐसे अनाचार मूल प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं / एक या एक से अधिक महाव्रतों का होने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य है / (9) अनवस्थाप्ययोग्य-जिन अनाचारों की शुद्धि व्रत एवं वेष रहित करने पर ही हो सकती है-ऐसे अनाचार अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य होते हैं / अकारण अपवाद मार्ग सेवन में आसक्त, एक अतिचार का अनेक बार आचरणकर्ता, तथा एक साथ अनेक अतिचार सेवनकर्ता छेद प्रायश्चित्त योग्य होता है। जिस प्रकार शेष अंग की रक्षा के लिये व्याधिविकृत अंग का छेदन अत्यावश्यक है-इसी प्रकार शेष व्रत पर्याय की रक्षा के लिये दूषित व्रत पर्याय का छेदन भी अत्यावश्यक है। 2. एक बार या अनेक बार पंचेन्द्रिय प्राणियों का वध करने वाला, शील भंग करने वाला, संक्लिष्ट संकल्पपूर्वक मृषावाद बोलने वाला, अदत्तादान करने वाला, परिग्रह रखने वाला, पर-लिंग (परिव्राजकादि का वेष) धारण करने वाला तथा गृहस्थलिंग धारण करने वाला मूल प्रायश्चित्त योग्य होता है। 3. अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त योग्य तीन हैं-- 1. साधमिक की चोरी करने वाला, 2. अन्यर्मियों की चोरी करने वाला, 3. दण्ड, लाठी या मुक्के आदि से प्रहार करने वाला। -ठाणं० 3, उ०४ सू० 201 [28] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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