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________________ गया है। श्रमण-जीवन की साधना का सर्वाङ्गीण विवेचन छेदसूत्रों में ही उपलब्ध होता है। साधक की क्या मर्यादा है, उसका क्या कर्त्तव्य है ? इत्यादि प्रश्नों पर उनमें चिन्तन किया गया है। जीवन में से असंयम के अंश को काटकर पृथक करना, साधना में से दोषजन्य मलिनता को निकालकर साफ करना, भूलों से बचने के लिए पूर्ण सावधान रहना, भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त ग्रहण कर उसका परिमार्जन करना, यह सब छेदसूत्रों का कार्य है / समाचारीशतक में समयसुन्दरगणी ने छेदसूत्रों की संख्या छह बतलाई है:(१) महानिशीथ, (2) दशाश्रुतस्कंध, (3) व्यवहार, (4) बृहत्कल्प, (5) निशीथ, (6) जीतकल्प / जीतकल्प को छोड़कर शेष पाच सूत्रों के नाम नन्दीसूत्र में भी पाये हैं। जीतकल्प जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की कृति है, एतदर्थ उसे आगम की कोटि में स्थान नहीं दिया जा सकता / महानिशीथ का जो वर्तमान संस्करण है, वह आचार्य हरिभद्र (वि. 8 वीं शताब्दी) के द्वारा पुनरुद्धार किया हुआ है। उसका उसके पूर्व ही दीमकों ने उदरस्थ कर लिया गया था। अतः वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथ भी आगम की कोटि में नहीं पाता। इस प्रकार मौलिक छेदसूत्र चार ही हैं-(१) दशाश्रुतस्कन्ध, (2) व्यवहार, (3) बृहत्कल्प और (4) निशीथ / निए हित आगम जैन आगमों की रचनाएं दो प्रकार से हुई है--(१) कृत, (2) नि! हित / जिन आगमों का निर्माण स्वतंत्र रूप से हुआ है वे आगम कृत कहलाते हैं। जैसे गणधरों के द्वारा द्वादशांगी की रचना की गई है और भिन्न-भिन्न स्थविरों के द्वारा उपांग साहित्य का निर्माण किया गया है, वे सब कृत पागम हैं। नि! हित आगम ये माने गये हैं - (1) आचारचूला (2) दशवकालिक (3) निशीथ (4) दशाश्रुतस्कन्ध (5) बृहत्कल्प (6) व्यवहार (7) उत्तराध्ययन का परीषह अध्ययन। प्राचारचुला यह चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के द्वारा निर्वृहण की गई है, यह बात अाज अन्वेषणा के द्वारा स्पष्ट हो चुकी है। प्राचारांग से प्राचारचूला की रचना-शैली सर्वथा पृथक् है। उसकी रचना आचारांग के बाद हुई है। आचारांग-नियुक्तिकार ने उसको स्थविरकृत माना है।' स्थविर का अर्थ चर्णिकार ने गणधर किया है। 1. छेयसुयं कम्हा उत्तमसुत्तं ? भण्णामि जम्हा एत्थं सपायच्छित्तो विधी भण्णति, जम्हा एतेगच्चरणविशुद्धं करेति, तम्हा तं उत्तमसुत्तं / --निशीथभाष्य 6184 की चूणि 2. समाचारीशतक, आगम स्थापनाधिकार। 3. कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा--दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीह, महानिसीह / -नन्दीसूत्र 77 4. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० 21-22, पं० दलसुखभाई मालवणिया -प्रकाशक सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा 5. थरेहिऽणुग्गहट्ठा, सीसहि होउ पागउत्थं च / आयाराओ अत्थो, पायारंगेसु पविभत्तो // -आचारांगनियुक्ति गा० 287 6. थेरे गणधरा। --आचारांगचूणि, पृ० 326 [ 41 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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