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________________ श्रमणों के विहार की चर्चा करते हुए एकाकी विहार का निषेध किया है और उनको लगने वाले दोषों का निरूपण किया है। विविध प्रकार के तपस्वी व व्याधियों से संसक्त श्रमण की सेवा का विधान करते हए क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त की सेवा करने को मनोवैज्ञानिक पद्धति पर प्रकाश डाला है। क्षिप्तचित्त के राग, भय और अपमान तीन कारण है। दीप्तचित्त का कारण सम्मान है। सम्मान होने पर उसमें मद पैदा होता है। शत्रुओं को पराजित करने के कारण बह मद से उन्मत्त होकर दीप्तचित्त हो जाता है। क्षिप्तचित्त और दीप्तचित्त में मुख्य अन्तर यह है कि क्षिप्तचित्त प्रायः मौन रहता है और दीप्तचित्त बिना प्रयोजन के भी बोलता रहता है। भाष्यकार ने गणावच्छेदक, प्राचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, प्रवतिनी ग्रादि पदवियों को धारण करने वाले की योग्यतानों पर विचार किया है। जो ग्यारह अंगों के ज्ञाता हैं, नवम पूर्व के ज्ञाता हैं, कृतयोगी हैं, बहुश्रुत है, बहुत आगमों के परिज्ञाता हैं, सूत्रार्थ विशारद हैं, धीर हैं, श्रुतनिघर्ष हैं, महाजन हैं वे विशिष्ट व्यक्ति ही प्राचार्य आदि विशिष्ट पदवियों को धारण कर सकते हैं। श्रमणों के विहार सम्बन्धी नियमोपनियमों पर विचार करते हए कहा है कि आचार्य, उपाध्याय ग्रादि पदवीदारों को कम से कम कितने सन्तों के साथ रहना चाहिए, आदि विविध विधि-विधानों का निरूपण है। प्राचार्य, उपाध्याय के पांच प्रतिशय होते हैं, जिनका श्रमणों को विशेष लक्ष्य रखना चाहिए 1. उनके बाहर जाने पर पैरों को साफ करना। 2. उनके उच्चार-प्रस्रवण को निर्दोष स्थान पर परठना / 3. उनकी इच्छानुसार वैयावृत्य करना / 4. उनके साथ उपाश्रय के भीतर रहना। 5. उनके साथ उपाश्रय के बाहर जाना। श्रमण किसी महिला को दीक्षा दे सकता है और दीक्षा के बाद उसे साध्वी को सौंप देना चाहिए। साध्वी किसी भी पुरुष को दीक्षा नहीं दे सकती / उसे योग्य श्रमण के पास दीक्षा के लिए प्रेषित करना चाहिए। श्रमणी एक संघ में दीक्षा ग्रहण कर दूसरे संघ में शिष्या बनना चाहे तो उसे दीक्षा नहीं देनी चाहिए। उसे जहाँ पर रहना हो वहीं पर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए, किन्तु श्रमण के लिए ऐसा नियम नहीं है / तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला उपाध्याय और 5 वर्ष की दीक्षापर्याय वाला प्राचार्य बन सकता है। वर्षावास के लिए ऐसा स्थान श्रेष्ठ बताया है, जहाँ पर अधिक कीचड़ न हो, द्वीन्द्रियादि जीवों की बहुलता न हो, प्रासुक भूमि हो, रहने योग्य दो तीन बस्तियां हों, गोरस की प्रचुरता हो, बहुत कोई वैद्य हो, औषधियां सरलता से प्राप्त होती हों, धान्य की प्रचुरता हो, राजा सम्यक् प्रकार से प्रजा का पालन करता हो, पाखण्डी साधु कम रहते हों, भिक्षा सुगम हो और स्वाध्याय में किसी भी प्रकार का विघ्न न हो। जहाँ पर कुत्ते अधिक हों वहाँ पर श्रमण को विहार नहीं करना चाहिए। भाष्य में दीक्षा ग्रहण करने वाले के गुण-दोष पर चिन्तन करते हुए लिखा है कि कुछ व्यक्ति अपने देशस्वभाव से ही दोषयुक्त होते हैं। आंध्र में उत्पन्न व्यक्ति क्रूर होता है। महाराष्ट्र में उत्पन्न हुआ व्यक्ति वाचाल होता है और कोशल में उत्पन्न हया व्यक्ति स्वभाव से ही दुष्ट होता है। इस प्रकार का न होना बहत ही कम व्यक्तियों में सम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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