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________________ आगे भाष्य में शयनादि के निमित्त सामग्री एकत्रित करने और पुनः लौटाने की विधि बतलाई है। आहार की मर्यादा पर प्रकाश डालते हुए कहा है—आठ कौर खाने वाला श्रमण अल्पाहारी, बारह, सोलह, चौबीस, इकतीस और बत्तीस ग्रास ग्रहण करने वाला श्रमण क्रमश: अपार्धाहारी, अर्धाहारी, प्राप्तावमौदर्य और प्रमाणाहारी है / नवम उद्देशक में शय्यातर के ज्ञातिक, स्वजन, मित्र प्रभति पागन्तुक व्यक्तियों से सम्बन्धित आहार को लेने और न लेने के सम्बन्ध में विचार कर श्रमणों की विविध प्रतिमानों पर प्रकाश डाला है। - दशम उद्देशक में यवमध्यप्रतिमा और वनमध्यप्रतिमा पर विशेष रूप से चिन्तन किया है। साथ ही पांच प्रकार के व्यवहार, बालदीक्षा की विधि, दस प्रकार की वैयावृत्य आदि विषयों की व्याख्या की गई है। प्रायं रक्षित, आर्य कालक, राजा सातवाहन, प्रद्योत, मुरुण्ड, चाणक्य, चिलातपुत्र, अवन्ति, सुकुमाल, रोहिणेय, प्रार्य समुद्र, आर्य मंगु आदि की कथाएं आई हैं। प्रस्तुत भाष्य अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। व्यवहार पर एक चूणि भी लिखी गई थी। चूणि के पश्चात् व्यवहार पर प्राचार्य मलयगिरि ने वृत्ति लिखी। वत्ति में आचार्य मलयगिरि का गम्भीर पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलकता है। विषय की गहनता, भाषा की प्रांजलता, शैली का लालित्य और विश्लेषण की स्पष्टता प्रेक्षणीय है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राक्कथन के रूप में पीठिका है। जिसमें कल्प; व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त प्रभृति विषयों पर चिन्तन किया है। वृत्तिकार ने प्रारम्भ में अर्हत् अरिष्टनेमि को, अपने सद्गुरुवर्य तथा व्यवहारसूत्र के चणिकार आदि को भक्तिभावना से विभोर होकर नमन किया है। वृत्तिकार ने बृहत्कल्प और व्यवहार इन दोनों प्रागमों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखा कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का निरूपण है किन्तु उसमें प्रायश्चित्त देने की विधि नहीं है, जबकि व्यवहार में प्रायश्चित्त देने की और पालोचना करने की ये दोनों प्रकार की विधियां हैं। यह बहत्कल्प से व्यवहार की विशेषता है। व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य तीनों का विश्लेषण करते हुए लिखा है-व्यवहारी कर्तारूप है, व्यवहार कारणरूप है और व्यवहर्तव्य कार्यरूप है। कारणरूपी व्यवहार प्रागम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत रूप से पांच प्रकार का है / चूर्णिकार ने पांचों प्रकार के व्यवहार को करण कहा है। भाष्यकार ने सूत्र, अर्थ, जीतकल्प, मार्ग, न्याय, एप्सितव्य, प्राचरित और व्यवहार इनको एकार्थक माना है। जो स्वयं व्यवहार के मर्म को जानता हो, अन्य व्यक्तियों को व्यवहार के स्वरूप को समझाने की क्षमता रखता हो वह गीतार्थ है। जो गीतार्थ है उसके लिए व्यवहार का उपयोग है / प्रायश्चित्त प्रदाता और प्रायश्चित्त संग्रहण करने वाला दोनों गीतार्थ होने चाहिए। प्रायश्चित्त के प्रतिसेवना, मंयोजना, ग्रारोपणा और परिकूचना, ये चार अर्थ हैं। प्रतिसेवना रूप प्रायश्चित्त के दस भेद हैं। (1) आलोचना, (2) प्रतिक्रमणा, (3) तदुभय, (4) विवेक (5) उत्सर्ग, (6) तप, (7) छेद, (8) मूल, (9) अनवस्थाप्य और (10) पारांचिक / इन दसों प्रायश्चित्तों के सम्बन्ध में विशेष रूप से विवेचन किया गया है। यदि हम इन प्रायश्चित्त के प्रकारों की तुलना विनयपिटक' में आयी हुई प्रायश्चित्तविधि के साथ करें तो आश्चर्यजनक समानता मिलेगी। प्रायश्चित्त प्रदान करने वाला अधिकारी या प्राचार्य बहुश्रुत ब गम्भीर हो, यह आवश्यक है। प्रत्येक के सामने 1. विनयपिटक निदान [ 70 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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