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________________ 12] [दशाभूतस्कन्ध प्रथम महाव्रत दूषित होता है और जिनाज्ञा का उल्लंघन होने से तीसरे महाव्रत में भी दोष लगता है / अन्य प्रागमों में भी क्रीतादि दोषयुक्त पदार्थों के सेवन का निषेध है और निशीथ सूत्र में प्रायश्चित्त का कथन है / यहाँ इसे शबल दोष कहा है / अत: भिक्षु कर्मबंध का कारण जानकर इन दोषों का सेवन न करे। 7. प्रत्याख्यान-भंग-किसी प्रत्याख्यान को एक बार भंग करना भी दोष ही है किन्तु अनेक बार प्रत्याख्यानों को भंग करना शबल दोष कहा गया है। एक या दो बार हुई भूलें क्षम्य होती हैं किन्तु वही व्यक्ति अनेक बार भूल करे तो वह अक्षम्य होती हैं। इसी प्रकार प्रत्याख्यान बारम्बार भंग करने से सामान्य दोष भी शबल दोष कहा जाता है। ऐसा करने से साधु की प्रतीति (विश्वास) नहीं रहती है। जन साधारण के जानने पर साधु समाज की अवहेलना होती है। दूसरा महाव्रत और तीसरा महाव्रत दूषित हो जाता है। प्रत्याख्यानों को शुद्ध पालन करने की लगन (चेष्टा) अल्प हो जाती है। अन्य प्रत्याख्यानों के प्रति भी उपेक्षा वृत्ति बढ़ जाती है, जिससे संयम की आराधना नहीं हो सकती है / अन्य साधारण साधकों के अनुसरण करने पर उनके प्रत्याख्यान भी दूषित हो जाते हैं / अतः बार-बार प्रत्याख्यान भंग करना शबल दोष है। यह जानकर भिक्षु प्रत्याख्यान का दृढता पूर्वक पालन करे। 8. गणसंक्रमण—जिस प्राचार्य या गुरु की निश्रा में जो साधु-साध्वी रहते हैं, उनका अन्य आचार्य या गुरु के नेतृत्व में जाकर रहना गणसंक्रमण—गच्छपरिवर्तन कहलाता है। गणसंक्रमण के प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों कारण होते हैं। ज्ञानवृद्धि या संयमवृद्धि के लिए अथवा परोपकार की भावना से गणसंक्रमण करना प्रशस्त कारण है। गुस्से में आकर या घमंड से अथवा किसी प्रलोभन के कारण गणसंक्रमण करना अप्रशस्त कारण है। बृहत्कल्प उद्देशक 4 में गणसंक्रमण करने का विधान करते हुए कहा गया है कि प्राचार्यादि की आज्ञा लेकर संयमधर्म की जहाँ उन्नति हो, वैसे गच्छ में जाना कल्पता है अन्यथा प्राचार्यादि की आज्ञा मिलने पर भी जाना नहीं कल्पता है। वैसे अन्य गच्छ में जाने का निशीथसूत्र उद्देशक 16 में प्रायश्चित्त कथन है / प्रशस्त कारणों से गणसंक्रमण करना कल्पनीय होते हए भी बारंबार या छह मास के भीतर करने पर वह चंचलवत्ति का प्रतीक होने से उसे यहाँ शबल दोष कहा है। ऐसा करने से संयम की क्षति और अपयश होता है। अत: भिक्षु को बार-बार गणसंक्रमण नहीं करना ही श्रेयस्कर है। 9. उदक-लेप अर्द्ध जंघा [गिरिए और घुटने के बीच के जितने] प्रमाण के कम पानी में चलना “दगसंस्पर्श" कहा जाता है और अर्द्ध जंघा प्रमाण से अधिक पानी में चलना "उदक-लेप" कहा जाता है / सचित्त जल की अत्यल्प विराधना करने पर भिक्षु को निशीथसूत्र उद्देशक 12 के अनुसार लघु चौमासी प्रायश्चित्त पाता है। अतः उसे एक बार भी पानी में चलकर नदी आदि पार करना नहीं कल्पता है / प्रस्तुत सूत्र में एक मास में तीन बार जल-युक्त नदी पार करने पर शबल दोष होना बताया गया है, अत: एक या दो बार पार करने पर प्रायश्चित्त होते हुए भी वह शबल दोष नहीं कहा जाता है / इसका कारण यह है कि चातुर्मास समाप्त होने के बाद भिक्षु प्रामानुग्राम विहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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