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________________ दूसरी शा] [11 आहार देने के प्राग्रह में छेदन-भेदन, मार-पीट प्रादि कर दे तो भी वहाँ भिक्षु को श्राधाकर्म आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। _सूयगडांग सूत्र श्रु. 2 अ. 1 उ. 3 में आधाकर्म के अंश से युक्त अन्य शुद्ध आहार को ग्रहण कर भोगने वाले को दो पक्ष (गृहपक्ष और साधुपक्ष) का सेवन करने वाला कहा है / भूल से प्राधाकर्म आहार ले लिया गया हो तो जानकारी होने के बाद उसे खाना नहीं कल्पता है, किन्तु परठना कल्पता है। आधाकर्मी आहारादि के सेवन से उसके बनने में हुए प्रारम्भ का अनुमोदन होता है, जिससे प्रथम महाव्रत दूषित होता है तथा कर्मबंध भी होता है। इन कारणों से ही प्राधाकर्म आहार के सेवन को यहाँ शबल दोष कहा है / इसके सेवन से संयम और ज्ञान मलिन होता है / अत: भिक्षु कभी आधाकर्म आहार का सेवन न करे / 5. राजपिड-जिनका राज्याभिषेक हुआ हो, जो राज्यचिह्नों से युक्त हो, ऐसे राजा के घर का आहारादि राजपिंड कहा जाता है। ऐसे आहारादि के सेवन करने को दशवैकालिक सूत्र अ. 3 में अनाचार कहा गया है। पहले और अंतिम तीर्थंकरों के शासनकाल में ही राजपिंड ग्रहण करने का निषेध है / बीच के तीर्थंकरों के शासनकाल में साधु ग्रहण कर सकते थे। राजाओं के यहाँ गोचरी जाने से अनेक दोष लगना संभव हैयथा-१. राजाओं के यहाँ भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं होता है। 2. पौष्टिक भोजन काम-वासनावर्धक होने से साधुओं के योग्य नहीं होता है / 3. राजकुल में बार-बार जाने से जनता अनेक प्रकार की आशंकाए करती है। 4. साधु के आगमन को अमंगल समझकर कोई कष्ट दे या पात्रे फोड़ दे / 5. साधु को चोर या गुप्तचर समझकर पकड़े, बांधे या मारपीट भी कर दे / इत्यादि कारणों से साधु की और जिनशासन की अवहेलना होती है / अत: भिक्षु ऐसे मूर्धाभिषिक्त राजाओं के यहाँ भिक्षा के लिए न जावे और ऐसे राजपिंड को संयम का शबल दोष मानकर न खावे। निशीथसूत्र के प्राठवें, नववे उद्देशक में अनेक प्रकार के राजपिंडों का और राजाओं के यहाँ भिक्षा के लिए जाने का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा है। 6. कीतादि-साधु के निमित्त खरीद कर लाये हुए पदार्थ, उधार लाये गये पदार्थ, किसी से छीनकर दिए जाने वाले पदार्थ, बिना प्राज्ञा के दिए जाने वाले भागीदारी के पदार्थ तथा अन्य प्रामादि से सम्मुख लाकर दिए जाने वाले पदार्थों को ग्रहण करना और उनका सेवन करना यहाँ शबल दोष कहा गया है। ये सभी उद्गम के दोष हैं। इन दोषों वाले पदार्थों के सेवन से संयम दूषित होता है। दोषपरम्परा की वृद्धि होती है। इनके सेवन से गृहस्थकृत प्रारम्भ की अनुमोदना होती है. जिससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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