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________________ 32] [वशाश्रुतस्कन्ध ऐसे गुणवान् आचार्य के अन्तेवासी शिष्य की यह चार प्रकार की विनयप्रतिपत्ति है / जैसे१. उपकरणोत्पादनता-संयम के उपयोगी वस्त्र-पात्रादि का प्राप्त करना / 2. सहायकता-अशक्त साधूओं की सहायता करना। 3. वर्णसंज्वलनता-गण और गणी के गुण प्रकट करना। 4. भारप्रत्यारोहणता-गण के भार का निर्वाह करना / 1. प्र.-भगवन् ! उपकरणोत्पादनता क्या है ? / उ०-उपकरणोत्पादनता चार प्रकार की कही गई है / जैसे 1. नवीन उपकरणों को प्राप्त करना। 2. प्राप्त उपकरणों का संरक्षण और संगोपन करना। 3. जिस मुनि के पास अल्प उपधि हो, उसकी पूर्ति करना। 4. शिष्यों के लिए यथायोग्य उपकरणों का विभाग करके देना। यह उपकरणोत्पादनता है। 2. प्र-भगवन् ! सहायकताविनय क्या है ? उ०-सहायकताविनय चार प्रकार का कहा गया है। जैसे 1. गुरु के अनुकूल वचन बोलने वाला होना अर्थात् जो गुरु कहे उसे विनयपूर्वक स्वीकार ____ करना। 2. जैसा गुरु कहे वैसी प्रवृत्ति करने वाला होना। 3. गुरु की यथोचित सेवा-शुश्रूषा करना। 4. सर्व कार्यों में गुरु की इच्छा के अनुकूल व्यवहार करना / यह सहायकताविनय है / 3. प्र०-भगवन् ! वर्णसंज्वलनताविनय क्या है ? . उ०-वर्णसंज्वलनताविनय चार प्रकार का कहा गया है। जैसे 1. यथातथ्य गुणों की प्रशंसा करने वाला होना। 2. अयथार्थ दोषों के कहने वाले को निरुत्तर करना / 3. वर्णवादी के गुणों का संवर्धन करना। 4. स्वयं वृद्धों की सेवा करने वाला होना / यह वर्गसंज्वलनताविनय है। 4. प्र०-भगवन् ! भारप्रत्यारोहणताविनय क्या है ? उ० --भारप्रत्यारोहणताविनय चार प्रकार का कहा गया है / जैसे 1. नवीन शिष्यों का संग्रह करना। 2. नवीन दीक्षित शिष्यों को आचार-गोचर अर्थात् संयम की विधि सिखाना। 3. सार्मिक रोगी साधुओं की यथाशक्ति वैयावृत्य के लिए तत्पर रहना / 4. सार्मिकों में परस्पर कलह उत्पन्न हो जाने पर राग-द्वेष का परित्याग करते हुए, किसी पक्षविशेष को ग्रहण न करके मध्यस्थभाव रखना और सम्यक् व्यवहार का पालन करते हुए उस कलह के क्षमापन और उपशमन के लिए सदा तत्पर रहना और यह विचार करना कि किस तरह सार्मिक परस्पर अनर्गल प्रलाप नहीं करेंगे, उनमें झंझट नहीं होगी, कलह, कषाय और तू-तू-मैं-मैं नहीं होगी तथा सार्मिक जन संयमबहुल, संवरबहुल, समाधिबहुल और अप्रमत्त होकर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करेंगे। यह भारप्रत्यारोहणताविनय है / यह स्थविर भगवन्तों ने पाठ प्रकार की गणिसम्पदा कही है। -ऐसा मैं कहता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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