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________________ तीसरी दशा [19 गुरु का विनय नहीं करना या अविनय करना, ये दोनों ही पाशातना के प्रकार हैं / पाशातना देव एवं गुरु की तथा संसार के किसी भी प्राणी की हो सकती है। धर्म-सिद्धान्तों की भी आशातना होती है / अतः आशातना की विस्तृत परिभाषा इस प्रकार होती है—देव, गुरु की विनय भक्ति न करना, अविनय अभक्ति करना, उनकी आज्ञा भंग करना या निंदा करना, धर्मसिद्धान्तों की अवहेलना करना, विपरीत प्ररूपणा करना और किसी भी प्राणी के साथ अप्रिय व्यवहार करना, उसकी निन्दा या तिरस्कार करना 'पाशातना' है / लौकिक भाषा में इसे असभ्य व्यवहार कहा जाता है / आवश्यकसूत्र के चौथे .अध्याय में तेतीस आशातनाओं में ऐसी आशातनाओं का कथन है। किन्तु इस तीसरी दशा में केवल गुरु और रत्नाधिक (अधिक संयमपर्याय वाले) की आशातना का ही कथन किया गया है। निशीथसूत्र के दसवें उद्देशक में गुरु व रत्नाधिक की पाशातना का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा गया है और तेरहवें और पन्द्रहवें उद्देशक में क्रमशः गृहस्थ तथा सामान्य साधु की पाक शातना का प्रायश्चित्त विधान है। गुरु व रत्नाधिक की तेतीस पाशातनाएँ इसप्रकार हैं चलना, खड़े रहना और बैठना, तीन क्रियाओं की अपेक्षा नव आशातनाएँ कही गई हैं। गुरु या रत्नाधिक के आगे या समश्रेणी में और पीछे अत्यन्त निकट चलने से उनकी आशातना होती है। आगे चलना अविनय अाशातना है, समकक्ष चलना विनयाभाव पाशातना है, पीछे अत्यन्त निकट चलना अविवेक आशातना है। इसी तरह खड़े रहने और बैठने के विषय में भी समझ लेना चाहिए / इन आशातनाओं से शिष्य के गुणों का ह्रास होता है, लोगों में अपयश होता है और वह गरुकृपा प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः गुरु या रत्नाधिक के साथ बैठना, चलना, खड़े रहना हो तो उनसे कुछ पीछे या कुछ दूर रहना चाहिए / कभी उनके सन्मुख बैठना आदि हो तो भी उचित दूरी पर विवेकपूर्वक बैठना चाहिए। यदि गुरु से कुछ दूरी पर चलना हो तो विवेकपूर्वक आगे भी चला जा सकता है। गुरु या रत्नाधिक की आज्ञा होने पर आगे पार्श्वभाग में या निकट कहीं भी बैठने आदि से आशातना नहीं होती है। शेष आशातनाओं का भाव सूत्र के अर्थ से ही स्पष्ट हो जाता है। उनका सारांश यह है कि गुरु या रत्नाधिक के साथ आना-जाना, आलोचनात्मक प्रत्येक प्रवृत्ति में शिष्य यही ध्यान रखे कि ये प्रवृत्तियाँ उनके करने के बाद करे। उनके वचनों को शान्त मन से सुनकर स्वीकार करे / अशनादि पहले उनको दिखावे। उन्हें बिना पूछे कोई कार्य न करे। उनके साथ आहार करते समय आसक्ति से मनोज्ञ आहार न खावे। उनके साथ वार्तालाप करते समय या विनय-भक्ति करने में और प्रत्येक व्यवहार करने में उनका पूर्ण सन्मान रखे। उनके शरीर की तथा उपकरणों की भी किसी प्रकार से अवज्ञा न करे। गुरु या रत्नाधिक की आज्ञा से यदि कोई प्रवृत्ति करे और उसमें आशातना दिखे तो भी आशातना नहीं कही जाती है। प्रत्येक शिष्य को चाहिये कि वह अनाशातनाओं को समझकर अपने जीवन को विनयशील बनावे और आशातनाओं से बचे। क्योंकि गुरु या रत्नाधिक की आशातनाओं से इस भव और परभव में आत्मा का अहित होता है। इस विषय का स्पष्ट दृष्टान्त सहित वर्णन दशव. अ. 9 में है / प्रत्येक साधक को उस अध्ययन का मनन एवं परिपालन करना चाहिये। DU Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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