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________________ प्रकट और प्रच्छन्न दोष सेवन अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार-इन चार प्रकार के दोषों का सेवन करने वाले श्रमणश्रमणियां चार प्रकार के हैं 1. कुछ श्रमण-धमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट करते हैं अर्थात् प्रच्छन्न नहीं करते हैं। 2. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं अर्थात् प्रकट नहीं करते हैं। 3. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन प्रकट भी करते हैं और प्रच्छन्न भी करते हैं। 4. कुछ श्रमण-श्रमणियाँ इन उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं और न प्रच्छन्न करते हैं।' प्रथम भंग वाले—श्रमण-श्रमणियाँ अनुशासन में नहीं रहने वाले अविनीत, स्वच्छन्द, प्रपंची एवं निर्लज्ज होते हैं और वे पापभीरू नहीं होते हैं अतः दोषों का सेवन प्रकट करते हैं। द्वितीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ दो प्रकार के होते हैं-अत: दोष का सेवन प्रकट करते हैं / यथा प्रशस्त भावना वाले-श्रमण-श्रमणियाँ यदि यदा-कदा उक्त दोषों का सेवन करते हैं तो प्रच्छन्न करते हैं, क्योंकि वे स्वयं परिस्थितिवश आत्मिक' दुर्बलता के कारण दोषों का सेवन करते हैं इसलिए ऐसा सोचते हैं कि मुझे दोष-सेवन करते हये देखकर अन्य श्रमण-श्रमणियाँ दोष-सेवन न करें अतः वे दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं। अप्रशस्त भावना वाले...मायावी श्रमण-श्रमणियाँ लोक-लज्जा के भय से या श्रद्धालुजनों की श्रद्धा मेरे पर बनी रहे इस संकल्प से उक्त दोषों का सेवन प्रकट नहीं करते हैं अपितु छिपकर करते हैं। तृतीय भंग वाले-श्रमण-श्रमणियाँ वंचक प्रकृति के होते हैं वे सामान्य दोषों का सेवन तो प्रकट करते हैं किन्तु सशक्त (प्रबल) दोषों का सेवन प्रच्छन्न करते हैं / ___यदि उन्हें कोई सामान्य दोष सेवन करते हुये देखता है तो वे कहते हैं-'सामान्य दोष तो इस पंचमकाल में सभी को लगते हैं। अत: इन दोषों से बचना असम्भव है।' चतुर्थ भंग बाले---श्रमण-श्रमणियां सच्चे वैराग्य वाले होते हैं, मुमुक्षु और स्वाध्यायशील भी होते हैं प्रतः वे उक्त दोषों का सेवन न प्रकट करते हैं, न प्रच्छन्न करते हैं / प्रथम तीन भंग वाले श्रमण-श्रमणियों द्वारा सेवित दोषों की शूद्धि के लिए ही व्यवहारसुत्र निर्दिष्ट प्रायश्चित्त-विधान है। अंतिम चतुर्थ भंग वाले श्रमण-श्रमणियाँ निरतिचार चारित्र के पालक होते हैं अतः उनके लिए किसी भी प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। व्यवहारशुद्धि कठिन भी, सरल भी प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव आदिनाथ के धर्मशासन में श्रमण-श्रमणियाँ प्रायः ऋजु-सरल होते थे पर जड (अल्पबौद्धिक विकास वाले) होते थे। अतः वे सूत्र सिद्धान्त निर्दिष्ट समाचारी का परिपूर्ण ज्ञान तथा परिपूर्ण पालन नहीं कर पाते थे। उनकी व्यवहार शुद्धि दुःसाध्य होने का एकमात्र यही कारण था। 1. ठाणं-४, उ. 1, सू. 272 [31] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003495
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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